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बराज चरितम्
तिर्यग्गतेदुःखमनन्तपारं वक्तुं न शक्यं चिरकालतोऽपि । तामेव घोरामिह ये प्रयान्ति संक्षेपतस्तान्प्रथमं प्रवक्ष्ये ॥ ३२॥ ये वञ्चकाः कुटतुलातिमानैः परोपतापं जनयन्ति नित्यम् । वाचान्यदुक्त्वा क्रिययान्यदेव कुर्वन्ति कृत्यं विफलं परेषाम् ॥ ३३ ॥ हस्तापितं ये परकीयमर्थमादाय कस्मादव्यपलोपयन्ति । ऐश्वर्यदादलवीर्यतो वा परानवज्ञाय मषा वन्ति ॥ ३४ ॥ तकं दधिं क्षीरघृतं गुडं वा रसैस्तथान्यैः प्रतिमिश्रयन्ति । ते होनसत्वाः कृपणा विपुण्याः पतन्ति तिर्यग्वडवामुखषु ॥ ३५ ॥ प्रवालमुक्तामणिकाञ्चनानि विकृत्य तद्रूपसमानि ये तु । नन्वञ्चकास्ते रतिमाप्नुवन्ति तिर्यग्गति वै विवशा वसन्ति ।। ३६ ॥
तिर्यञ्चगतिके हेतु तिर्यञ्च गतिमें मिलनेवाले दुःख और शोक अनन्त और असंख्य हैं अतएव यदि चिरकालतक भी उनका वर्णन किया जाय तो भी वह अपूर्ण ही रह जायगा । फलतः उसे यहीं छोड़कर सबसे पहिले उन्हीं लोगोंके विषयमें संक्षेपसे कहता हूँ जो उस भयावनी और दारुणं गतिको जाते हैं ।। ३२॥
जो जीव झूठे माप, कम या बड़े बटखरे और तुला आदिके द्वारा दूसरोंको ठगते हैं, विला नागा दूसरोंको तरह-तरहका A कष्ट और दुःख देना जिनका स्वभाव है, वचनसे कुछ कहते हैं पर शरीरसे कुछ दूसरा ही काम करके जो दूसरोंकी सुविचारित योजनाओंको सदा ही विफल करते रहते हैं ।। ३३ ॥
हाथमें देकर सौंपी गयी दूसरोंकी सम्पत्तिको लेकर भी एकाएक चट कर जाते हैं और माँगनेपर लेना ही स्वीकार ॥ नहीं करते हैं, अथवा सम्पत्तिके मदमें चूर होकर या, अहंकारके कारण, या पराक्रम और शक्तिकी अधिकता होनेसे जो दूसरोंका तिरस्कार करते हैं और मनचाहा झूठ बोलते हैं। जो मठेमें पानी, दधिमें काँजी, दूधमें पानी या आरारोट, घीमें चर्बी या आलू आदि तथा गुड़ शक्करमें मिट्टी मिला देते हैं ॥ ३४॥
इस प्रकार एक रसको दूसरे रससे मिलाकर नष्ट करते वे पुण्यहीन, कृपण और पतित आत्मा ही तिर्यञ्च गतिरूपी वड़वानलके मुखमें गिरते हैं ॥ ३५॥
जो लोग मूगा, मोती, मणि और सोनेको अपवित्र करते हैं अथवा दूसरी वस्तुओंसे वैसे ही नकली मूंगा आदि बनाते ॥ १. [ नवञ्चकास्ते ]। .
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