SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बराङ्ग चरितम् केचित्पुनर्मानकषाय दोषात्संभूय नागाश्वखरोष्ट्रयोनौ | आरुह्यमाणाः परिपोड्ममाना भारातिखिन्ना विवशी क्रियन्ते ॥ २८ ॥ मानात्पुनः केचन सूकरत्वं मानातिमानात्कुकुलं प्रयान्ति । परावमानप्रसवं च दुःखं तिर्यग्गतौ नैकविधं श्रयन्ते ॥ २९ ॥ मायादिभिर्ये परिवञ्च्य जीवान् संपोषयामासुरथ स्वदेहान् । तेषां शरीराणि गतौ तिरश्चां मांसाशिनां तान्यशनीभवन्ति ॥ ३० ॥ केचित्पुनर्लोभकषाय दोषाद्द्रव्यं परेषां मुमुषुवमूढाः । तिर्यक्कुयोनौ प्रतिबद्धकायान् तान्व्याधवर्गाः परिभक्षयन्ति ॥ ३१ ॥ मानका कुफल कुछ प्राणी पूर्वजन्म में आचरित प्रबल मान कषायके पापसे तिर्यञ्च गतिको प्राप्त करके हाथी, ऊँट घोड़े और गधोंमें उत्पन्न होते हैं । तब उनपर सतत सवारी की जाती है, थोड़ी सी अवज्ञा करनेपर हो खूब पीड़ा दी जाती है और अत्यधिक भार लादा जाता है । यह सब उन्हें अनाथ और पराधीन बना देते हैं ।। २८ ।। पूर्वभव मान करनेका ही यह परिणाम है कि जीव सुअरोंमें पैदा होता है और अत्यधिक मान करनेपर तो पशुओंमें दुषित और मय श्रेणीमें जन्म लेना पड़ता है। इस प्रकार तिर्यञ्चगतिमें दूसरोंके द्वारा अपमानित होनेसे उत्पन्न दुखोंको यह जीव एक दो नहीं अनन्त प्रकारसे पाता है ।। २९ ।। ठगनेका परिणाम जो जीव पूर्वं भवमें छल कपट करके दूसरोंको ठगते हैं और वंचनासे प्राप्त धनसम्पत्तिके द्वारा अपने ही देहको दिन रात पोषते हैं वे मरकर तिर्यञ्च गतिमें जाते हैं, जहाँपर यत्नपूर्वक पाले पोषे उनके ही पुष्ट शरीर, माँसाहारियोंकी उदर दरीमें समा जाते हैं ॥ ३० ॥ लोभका परिपाक कुछ विवेक विकल प्राणी मनुष्यभवमें लोभ कषायकी प्रबलता के कारण अपने स्वार्थसाधनके लिए दूसरोंकी श्रमसाध्य सम्पत्तिको चुराते हैं वे भी मरकर जब तिर्यञ्च गति में पदार्पण करते हैं तो बहेलिये आदि मृगया विहारी लोग पहिले तो उनके शरीरोंको अपने जालोंमें फँसाकर अच्छी तरह बाँध लेते हैं और बादमें मार-मारकर उनके माँससे अपनी भूखको शान्त करते हैं ।। ३१ ।। १. म व्याधि° । Jain Education International For Private & Personal Use Only षष्ठः सर्गः [१०६ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy