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________________ सप्तविंशः वराङ्ग चरितम् सर्गः ततस्तु तेषां खलु सागराणां दशाहतास्ता अपि कोटिकोटीः । उत्सपिणी तां प्रवदन्ति तज्ज्ञा भूयस्ततस्तामवसर्पिणी च॥ २६ ॥ उत्सपिणी वाप्यवसर्पिणी च अनाद्यनन्ताविह यौतकाले । तो भारतैरावतयोः प्रदिष्टौ पक्षी यथैवात्र हि शुक्लकृष्णौ ॥ २७॥ सूशब्दपूर्वास्तु भवन्ति तिस्रो दुस्सपसर्ग प्रहिते समे द्वे । तथातिदुभ्यां सहिता समैका एकस्य कालस्य हि षट् प्रभेदाः ॥ २८ ॥ आद्यश्च' संख्याः कथिताश्चतस्रस्ततो द्वितीयस्य पुनश्चतस्रः। ततो द्वितीयस्य पुनश्च तिस्र उदाहृते द्वे च तृतीयकस्य ॥ २९ ॥ असंख्य वर्षों की राशि रूप सागरमें कोटि-कोटिका गुणा करके फिर उसमें दशका गुणा किया जाय और जो फल आवे उतने विशाल समयको संसार-परिवर्तनके पंडित उत्सपिणी (विकासशील) काल कहते हैं। तथा जिस क्रमसे विकास हुआ था उसी क्रमसे घटते-घटते जब सृष्टि वहीं पहुँच जाती है जहाँसे प्रारम्भ किया था उस समय (दश कोडाकोडि सागर प्रमाण ) को अवसर्पिणी ( ह्रासशील ) काल कहते हैं ।। २६ ॥ युगचक इस प्रकार उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी नामसे जो दो विशाल कालके प्रमाण कहे हैं ये दोनों एक दृष्टिसे अनादि और अनन्त हैं। इन दोनों कालोंका पुरा चक्कर हमारे जम्बूद्वीपके भरत तथा ऐरावत क्षेत्रों दोनोंमें उसी विधिसे लगता है जिस गतिविधिके साथ हम लोगोंके प्रत्येक चांद्र-मासमें शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष लगते हैं ॥ २७ ॥ प्रत्येक उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी क्रमशः छह, छह उपकालोंमें विभाजित हैं। इन छह भेदोंमें पहिले तीन कालोंके पहिले विशेषण रूपमें 'सु' शब्द लगा हुआ है ( सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमा-दुषमा) इनके आगेके दो भेदोंके साथ 'दु' तथा 'सु' दोनों उपसर्गोका प्रयोग हुआ है ( दुषमा-सुषमा, दुषमा ) तथा अन्तिम छठे भेदके पहिले अति तथा 'दुःदुः' उपसर्ग लगे हुए हैं । ( अति दुःषमा अथवा दुःषमा-दुषमा ) ॥ २८॥ युगोंके नाम प्रथम काल सुषमा-सुषमाका प्रमाण चार कोटि-कोटि सागर प्रमाण है, दूसरे परिवर्तन अर्थात् अवसर्पिणीके सुषमा [५३७] सुषमा आदि कालोंका भी यहो प्रमाण है। दूसरे विभाग सुषमाका प्रमाण तीन कोडाकोडि सागर प्रमाण है तथा तीसरे सुषमा दुषमाका समय दो कोड़ाकोडि सागर हा है।। २९ ॥ १.क सपिणीं तां । २.[यौ च कालौ। ३. [ माद्यस्य ] । ६८ HEIRLIERSenaTIGERATRI Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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