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चराङ्ग चरितम्
पूतं च पुण्यं सुगतिप्रधानं कल्याणकं मङ्गलमुत्तमं च । लोकोत्तमं तत्परमं पवित्रं परं शुभं शाश्वतमव्ययं च ॥ ५॥ अनामयं क्लेशजराविहीनमदैन्यमव्याकुलमप्रमेयम् । अनिन्द्यमक्षोभ्यमपारमण्यं सुखास्पदं तुष्टिकपुष्टिकं च ॥ ६ ॥ अचञ्चलं रागविरागवय॑मभेद्यमद्रोहमबाधसंगम् । अपात्यमक्षीणमतुल्यमुद्धमनभ्यसूयं श्रवणीयमेव ॥ ७ ॥ अशक्रमित्रं' ह्यविनाश्यशवं निर्हेतुकं निर्वृति निष्कषायम् । अवस्थित योगवियोगहीनमलेश्यमक्षुतुषमप्रचिन्त्यम् ॥८॥
दशमः सर्गः
i ttiretEaAIIMIREZचमायाम
मोक्ष माहात्म्य यह सिद्धलोक स्वयं पवित्र है, पुण्य कर्मों द्वारा प्राप्य है, शुभगतियोंका मुकुटमणि है, कल्याण अवस्थाका प्रतीक है, सर्वश्रेष्ठ तथा शुभ ही शुभ है। हमारी व्याख्यानशैली अथवा शब्दनयके अनुसार वह उत्तम लोक है, संसारके समस्त पदार्थोसे A अत्यधिफ पवित्र है, चरम श्रेय है, सतत स्थायी है और कभी नष्ट नहीं होता है ॥ ५ ॥
व्यतिरेक दृष्टिसे देखनेपर वह समस्त रोगोंसे परे हैं, क्लेश, बुढ़ापा आदिका वहाँ प्रवेश नहीं है, दीनता वहाँसे बहुत दूर है, आकुलताका अभाव है, उसके परिमाणका अनुमान करते समय प्रमाणकी प्रगति रुक जाती है, निन्दा उसकी हो ही नहीं सकती, क्षोभकी वहाँ कल्पना भी शक्य नहीं है, वह सीमाओंमें नहीं समाता है, सबका अग्रणी है, आत्माके स्वाभाविक सुखका भण्डार है तथा जीवके शुद्ध स्वरूपका तोषक और पोषक है ।। ६ ।।
चंचलताका वहाँ संचार नहीं है, राग-विरागसे रहित है, उसके खण्ड नहीं हो सकते, वहाँ द्रोह-विद्रोहका पूर्ण अभाव है, बाधाओंके समागमकी सम्भावना भी नहीं है। उसे गिराया नहीं जा सकता, गलता भी नहीं है, उसका उपमान खोजना अशक्य । है । वह भासमान है, अभ्यसूयासे परे है, हर प्रकार श्रवण और मनन योग्य है ।। ७ ।।
शत्रु-मित्रके विभागसे रहित है, विनाश और शंकाकी संभावना भी नहीं है, किसी हेतुसे उत्पन्न नहीं है, समस्त । प्रवृत्तियाँ और कषायोंसे कलुषित नहीं है, वृद्धि-हानिसे हीन है, योग-वियोगसे सर्वथा दूर है, कृष्ण आदि लेश्या, क्षुधा-तृषासे अछूता
है तथा कल्पनाके भी परे है ॥ ८॥
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१.[अशत्रुमित्रं]। Jain Education International 22
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