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________________ वराज ताङमहासारवतीमवाप्य मनुष्यजाति त्रिजगत्प्रजानाम्। अल्पार्थमन्याः स्वमति निवेश्य भवन्ति भूत्या हि पुनः परेषाम् ॥ १७ ॥ त्रिलोकमूल्यं नरदेववृत्तमवाप्य ये कोद्रवतण्डुलार्थम् । विक्रीय च स्वाननभिज्ञतत्त्वा मूर्खाः परप्रेष्यकरा भवन्ति ॥ १८ ॥ मनुष्यभूमौ व्रतशीलदानमुत्वा कषायादितृणान्यपोह्य । स्वर्गादिसंप्रापकसौख्यबीजं चिन्वन्ति केचिन्नरजातिलब्धाः ।। १९ ॥ धर्मान्विताः सर्वसुखालयाः स्युः पापान्विता दुःखसहस्रभाजः । धर्मालसाः सर्वजनस्य भृत्या धर्मोद्यताः सर्वजनस्य नाथाः ॥ २०॥ अष्टमः सर्गः मनुष्यको भ्रान्ति इस प्रकार तीनों लोकोंकी समस्त पर्यायोंमें अत्यन्त कल्याणकारक महासार युक्त मनुष्य पर्यायको भी प्राप्त करके बहुतसे लोग अपनी मतिको साधारण तथा तुच्छ फलके ऊपर लगा देते हैं और दूसरोंकी सेवावृत्ति स्वीकार करके चक्रवर्तीकी योग्यताओंयुक्त जीवनको दास रहकर व्यतीत करते हैं ।। १७ ॥ __मनुष्योंके अधिपति चक्रवर्तीके समान आचरण और ज्ञानको सम्पत्ति रूप नरपययि-रत्न को पाकर, जिसके द्वारा तीनों लोकोंका प्रभुत्व भी मोल लिया जा सकता है, उसे-पाकर भी जो लोहा, कोदों, चावल-दालके लिए अपने आपको (नरपर्याय) बेच देते हैं, वे यथार्थको नहीं जानते है परिणाम यह होता है कि वे दूसरोंकी आज्ञाके अनुसार नाचते-फिरते हैं ।। १८॥ ___ मनुष्य योनिमें जन्मे दूसरे जीव मनुष्यभवरूपी खेतमें व्रत, शील और दानरूपी बीज वोते हैं, व्रतादिके पौधोंकी वृद्धिके । वाधक क्रोध, मान आदि कषायरूपो घास फसको उखाड कर फेक देते हैं तब इस खेतीमें से उस बीजको संचित करते हैं जो उन्हें स्वर्ग आदि सद्गतिरूपी फल देता है ।। १९ ॥ धर्माचरण ___जो प्राणी धर्मका पालन करते हैं उनको समस्त सुख अपने आप ही आ धेरते हैं तथा जिनका आचरण इसके विपरीत है अर्थात् पापामय है वे सब दुःखोंके घर हो जाते हैं। जो धार्मिक कृत्योंके करनेमें प्रमाद करते हैं उन्हें सबका दास होना पड़ता है तथा जिन्हें धार्मिक कर्मों में गाढ़ अनुराग और उत्साह होता है वे सब संसारके प्रभु होते हैं ॥ २० ॥ [१३३] .. १. [ प्रधानाम् ] | २. [ निषेध्य ]। ३. श्नान, म स्थान । ४. में जाति लब्ध्वा, [ जातिलुन्धाः] । Jain Education interational For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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