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________________ पूजातपःशीलगुणप्रधानः समय॑ सवर्ममुवारबुद्धिः । महीपतिस्तूर्यरवैननद्भिः सान्तःपुरो राजगृहं विवेश ॥ १०३ ॥ प्रविश्यात्मगेहं सुरेन्द्रप्रतापो जिनेन्द्रौरुपूजाकथाकाव्यरागः । नृपो धर्मकामार्थकार्यप्रवीणः प्रतुष्टान्तरात्मा सुखं संनिषण्णः ॥ १०४ ॥ कुतीर्थप्रणीतान्विवादान्निहत्य प्रतिष्ठाप्य भयो जगत्संप्रवादान'। प्रकाश्योरुभक्ति सतीमाहर्ती च सदा संदधौ स्वं मनः सहयायाम् ॥ १०५ ॥ बवत्पात्रदानं विधिज्ञा यतिभ्यो धन बन्धुमित्राथिशिष्टप्रियेभ्यः । महापर्वसंधिवतः सोपवासैनयन्दोर्घकालं नरेन्द्रोऽभिरेमे ॥ १०६॥ त्रयोविंशः सर्गः SaamaRELAPELAGALASERIRECAR अहंत सिद्ध आदिको द्रव्य तथा भावपूजा, कायक्लेश आदि तप, मार्दव आदि गुणोंका आचरण करते हुए विशाल बुद्धि, धर्मप्रेमी वरांगराजने पर्वमें पूजा की थी। उसके समाप्त हो जानेपर जोरोंसे बजते हुए तूर्य आदि बाजोंको गर्जनाके साथ सम्राटने राजमहलमें सपरिकर रानियोंके साथ प्रवेश किया था ॥ १०३ ।। धर्मकरत संसारसुख ___ सम्राट वरांग धर्म, अर्थ तथा काम पुरुषार्थों के आनुपातिक आचरणको साधक व्यवस्था करनेमें अत्यन्त दक्ष थे, जिनमह । ऐसे धार्मिक कार्योको कर सकनेके कारण उनका अन्तरात्मा परम संतुष्ट था। अतएव लौटकर राजमहलमें आये हुए इन्द्रके समान पराक्रमी तथा प्रतापो वरांगराज शान्तिसे बैठकर जिनेन्द्रदेवको विशाल पूजा सम्बन्धो कथाओं और काव्योंका अनुशीलन करते थे ॥ १०४॥ इस सुन्दर ढंगका आश्रय लेकर वे मिथ्या तीर्थंकरोंके द्वारा प्रवर्तित मतोंकी निस्सारताको स्पष्ट करते थे। तथा संसारमें कल्याणके सहायक सत्य मार्गोंकी प्रस्तावना तथा विस्तार करते थे । संसार समुद्रसे पार करनेमें समर्थ उनकी सत्य जिनभक्ति छिपाये नहीं छिपतो थो। क्योंकि वह उनके रोम, रोममें समायी थी। इसके साथ ही अहिंसा धर्मको मूल वास्तविक दयामें तो उन्होंने अपने आपको लीन ही कर दिया था।। १०५ ।। दान विधिके विशेष ज्ञाता वरांगराज अवसर मिलते ही सत्पात्रोंको दान देनेमें लीन रहते थे। अपने बन्धु बान्धवों, A मित्रों, हितषियों, प्रियजनों तथा याचकोंको यथेच्छ दान देते थे, तथा अष्टाह्निका, पयूषण आदि पर्वोके दिनोंमें व्रत उपवास आदि करते थे। इन शुभ योगोंका आचरण करते हुए उन्होंने दोर्षकाल व्यतीत कर दिया था ।। १०६ ॥ 7 १. क संप्रदानान् । २, [विधिज्ञो]। ३. म वनं । 4 TA न्य- [४६४] मान्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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