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________________ बराङ्ग चरितम् त्रयोविंशः सर्गः पाषण्डिनः स्वाश्रमवासिनश्च कृतां स्वसंस्था न विलड्घयन्तु । यशांसि तिष्ठन्तु चिरं पृथिव्यां दोषाःप्रणाशं सकलाः प्रयान्तु ॥ ९९ ॥ इत्येवमादि स्फुटमर्थतत्त्वं वाक्यं जनश्रोत्रसुखं जगाद । महाजनस्तं सकलं निशम्य प्रतिप्रसादो दयवान् बभूव ॥ १००॥ ततः प्रहृष्टो वरचूर्णवासैः सद्गन्धिमित्रैः सलिलैः सलीलम् । लःक्षारसैरज्जनरेणुभिश्च चिक्षेप गात्रेषु परस्परस्य ॥ १०१॥ जिनेन्द्रपादाम्बुरुहार्पणेन प्रसिद्धनामग्रहणेन भूयः। पूतां च पुण्यां पुरुसिद्धशेषां वसुंधरेन्द्रो निदधौ स्वमूनि ॥ १०२॥ विभिन्न पाखण्डों ( मतों) के अनुयायी तथा विविध आश्रमोंका पालन करने में लीन पुरुष अपने आचार्यों और शास्त्रों द्वारा निश्चित की गयी मर्यादाका उल्लंघन न करें। गुणीजनोंकी कीर्ति इस पृथ्वीपर अनन्त कालतक लोग स्मरण करें, जितने में भी दोष हैं उनका समूल नाश ही न हो, अपितु जनता उनका नाम भी भूल जाये ।। ९९ ॥ बाबामामाचामान्यानामानामान्य लोक वात्सल्य ऐसी अनेक शुभ कामनाओंको व्यक्त करनेवाले कितने ही वाक्य धर्मप्रेमसे प्रमुदित सम्राटके मुखसे निकले थे जिन्हें सुनकर लोगोंको हृदयकली विकसित हो उठी थी। इन वाक्योंको सुनकर पूजामें उपस्थित विशाल जनसमूहको परस्परमें प्रेम तथा सहृदय व्यवहार करनेकी प्रबल प्रेरणा प्राप्त हुई थी। १०० ।। वे धर्म-प्रेमके आवेगसे उन्मत्तत्रत हो रहे थे अतएव आपसमें एक-दूसरेपर उन्होंने सुगन्धित चूर्ण, सुगन्धित पदार्थोंको घोलकर बनाये गये जल, लाखके रंग, अञ्जन आदिको प्रेमपूर्ण भावसे डालना प्रारम्भ कर दिया था ॥ १०१॥ सम्राट वरांगने भी श्री एकहजार आठ जिनेन्द्रदेवके पूज्य चरणोंमें समर्पित कर देनेके कारण, जगत पूज्य पंच परमेष्ठी आदिके नामोच्चारणके प्रतापसे स्वयं पवित्र तथा दूसरोंके पुण्यबंधका कारण, पुरूदेव आदि सिद्ध परमेष्ठियोंकी शेषिकाको लेकर फिरसे अपने मस्तकपर धारण किया था ।। १०२ ॥ ४६३] १. मप्रसादोदयवाक । For Private & Personal Use Only Jain Education international www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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