________________
वराङ्ग
चरितम्
द्वितीयः सर्गः
वपुष्मती विन्ध्यपुरेश्वरस्य महेन्द्रदत्तस्य सुता बभूव । द्विषतपः सिंहपुराधिपस्तु यशोवती तस्य सुतेन्दुवक्त्रा ॥ ५९॥ सनत्कुमारस्य मनोज्ञरूपा वसुन्धरापीष्टपुराधिपस्य । अननसेना मकरध्वजस्य राज्ञः सुता श्रीमलयेश्वरस्य ॥६॥ प्रियव्रता चक्रपुराधिपस्य समुद्रदत्तस्य समग्ररूपा। वज्रायुधो नाम गिरिवजेशस्तस्य प्रियायामभवत्सुकेशी ॥ ६१॥ मित्रंसह कोशलराजकन्यापतिः स्मृता तस्य हि विश्वसेना। अगाधिपस्य प्रियकारिणीति बभूव पुत्री विनयंधरस्य ॥ ६२॥ नरेन्द्रकन्या धुतिषेणपुच्या सहैव रूपादिगुणैः समानाः । दिग्भ्यस्तथाष्टाभ्य उदारवृत्ता आजग्मुरष्टाविव दिक्कुमार्यः ॥ ६३ ॥
विन्ध्यपुरके महाराज महेन्द्रदत्तकी पुत्रीका नाम वपुष्मती था, जो कि उसके स्वास्थ्य और सौन्दर्यके कारण सार्थक था। सिंहपुरके महाराज जिन्होंने अपने शत्रुओंको नष्ट कर दिया था उनकी चन्द्रमुखी राजपुत्रीका नाम यशोवती था ।। ५९ ।।
इष्टपुरके अधिपति सनत्कुमार महाराजकी राजदुलारी वसुन्धरा भी आयों थीं, इनका रूप और गुण हठात् मनको मोह लेते थे । श्रीमलय देशके एकच्छत्र महाराज मकरध्वज की पुत्री तो साक्षात् शरीरधारिणी कामदेवकी सेना ही थो इसीलिये उसका नाम अनङ्गसेना पड़ा था ।। ६०॥
चक्रपुरके प्रभु श्रीसमुद्रदत्त महाराजको कन्या प्रियव्रताका तो कहना हो क्या था; संसारके अविकल सौन्दर्यको मानो निदर्शन ही थी। गिरिव्रज ( राजगृह ) के सम्राट बज्रायुधकी राजदुलारी सुकेशीका तो वर्णन ही क्या किया जाय । कारण वह महाराजकी प्राणप्यारी पट्टरानीकी ही कुक्षिसे उत्पन्न हुई थी॥ ६१ ॥
कोशलदेशकी विपुल राज्य-सम्पत्तिके एकमात्र अधिपति 'यथा नाम तथा गुणः' महाराज मित्रंसहको राजकन्याका नाम विश्वसेना था। सामाजिक विनय (नियम, धर्म और व्यवहार ) के रक्षक महाराज विनयधर उस समय अंगदेशके शासक थे। प्राणिमात्रका उपकार करनेके कारण ही उनकी कन्याका नाम प्रियकारिणी पड़ा था ।। ६२॥
इस प्रकार उक्त राज ललनाएँ; जो कि अपने-अपने सदाचार, स्वास्थ्य, सुशिक्षा आदि गुणोंके द्वारा हर प्रकारसे महाराज धृतिषेणकी राजपुत्री सुनन्दाके ही समान थी। तथा उसीके समान ही उनका चरित्र भी उज्ज्वल और उदार था। यह सब आठों दिक्पालोंकी पुत्रियों के समान आठों दिशाओंसे उस समय उत्तमपुरमें आ पहुंची थी ।। ६३ ॥
१. क मित्रसहा, [ मित्रंसहः ]। २. म विनयंवरस्य । Jain Education international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.