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षोडशः
बराङ्ग चरितम्
सर्गः
एतैर्गुणैन्यूनतमस्तु राजा मानकसारो ललितेश्वरोऽसौ । तस्यास्य चेति प्रविचिन्त्यमानं तदन्तरं स्यान्मशकेभयोर्यत् ।। ३९ ॥ अहो तपस्वी ललितेश्वरोऽसौ नोऽपीक्षते स्वं तु बलाबलं यत् । महार्णवानन्तबलेन राज्ञा युयुत्सुरजस्त्विति केचिदूचुः ॥ ४०॥ अथैकमत्तद्विरदस्य हेतोरपोप्स'ति श्रीपुरकोशदेशान् । अकौशलं तस्य हि मन्त्रिणां च निरीक्ष्यतामित्यरे निराहः ॥४१॥ न मन्त्रिणां वा वचनं शुणोति ते वा हितं नास्य वदन्त्युपेत्य ।
विनाशकालः समुपस्थितो वा बलीयसा यत्कुरुते विरोधम् ॥ ४२ ॥ कोशका अनुमान करना हो निरा पागलपन है । आजतक मथुराधिपके पराक्रमको किसोने नीचा नहीं दिखाया है, वह जिससे वैर
बाँध लेता है उसे कभी नहीं भूलता है । प्रत्येक विषयका विचार तथा विधान सर्वांगसुन्दर नोतिके अनुसार करता है तथा उसकी 1 बुद्धि इतनी प्रखर है कि किसी विषयको समझने में कहीं भी धोखा नहीं खाती है ।। ३८ ॥
शत्रुनिन्दा दूसरी तरफ ललितपुराधिपति है,उसमें इन गुणोंमेंसे एक भी गुण नहीं है । यदि उसकी कोई विशेषता है तो बस यही कि वह आत्म-गौरवको ही सब कुछ मानता है। जब हम मथुराधिप तथा ललितपुरेश इन दोनों स्वामियों की योग्यताओंके अन्तर को सोचते हैं, तो वही अन्तर दिखायी देता है जो एक मच्छर और मदोन्मत्त हाथीमें होता है ।। ३९ ।।
दुसरे कुछ लोगोंका मत था कि 'यह विचारा ललितपुरेश बड़ा ही अज्ञ है जो वह अपनी सैन्य, कोश आदि शक्तियों तथा अन्य दुर्बलताओं और छिद्रोंको भी नहीं देखता है। वह निरा मुढ़ ही है जो महासमुद्रके समान अति विशाल तथा अनन्त सेनाके संचालक मथुराके राजाके साथ युद्ध करनेके लिए उद्यत है ।। ४० ।।
अन्य लोगोंका मत था कि देखो तो केवल एक शुभलक्षणयुक्त मदोन्मत्त हाथीके लिये अपनी प्रभुता, वैभव, राजधानी । तथा सुसम्पन्न राष्ट्रको खोये देता है । फलतः केवल वही ( ललितपुरेश ) नीति-ज्ञानविहीन नहीं है अपितु उसके मंत्री राजनीति A के व्यवहारमें अत्यन्त अकुदाल हैं ।। ४१ ॥
संभव है कि उसके मंत्री राजनीतिमें पारंगत हों किन्तु वही उनकी सम्मतिको न मानता हो, अथवा यही समझिये कि उसके विनाशको मूहुर्त आ पहुँची है इसीलिये वह इतने विपुल शक्तिशालीसे विरोध कर रहा है ।। ४२ ।।
बाबासनाबरनामामाराम
(२९२१
१. [ अपोहति ।
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