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बराङ्ग
नवमः
चरितम्
सम्यक्त्वमेकं मनुजस्य यस्य हृदि स्थितं मेरुवदप्रकम्पम् । शङ्कादिदोषापहृतं नरेन्द्र न तस्य तिर्यड्नरके भयं स्यात् ॥ ३१ ॥ नाचारवन्तो विकृता विशीला गुणैर्व्यपेता व्रतदानहीनाः । असंयताः केवलभोगकाङ्क्षाः सदृष्टिशुद्धास्त्रिदिवं प्रयान्ति ॥ ३२॥ ये मार्दवाः शान्तिदयोपपन्नाः' शमात्मकाः शुद्ध शुभप्रयोगाः । ऋजस्वभावा रतिरागहोनास्ते स्वर्गलोकं मुनयो व्रजन्ति ॥ ३३ ॥ परोषहाणां क्षणमप्यकम्प्या द्विषट्प्रकारे तपसि स्थिताश्च । ये चाप्रमत्ताः समिती सदा ते त्रिगुप्तिगुप्तास्त्रिदिवं प्रयान्ति ॥ ३४॥
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हे नरेन्द्र ! जिस व्यक्तिको जोव आदि सात तत्त्वोंपर ऐसी हार्दिक आस्था है कि जो सुमेरुकी भांति अडोल और अकम्प है, शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, आदि आठ दोष जिसे छू तक नहीं गये हैं यदि ऐसे सम्यक् दृष्टीने किसी भी प्रकारका चरित्र धारण नहीं किया है उस शुद्ध सम्यक्त्वीको तिर्यंच और नरक गतिका भय कभी हो ही नहीं सकता है ।। ३१ ॥
चित्त विकृत है और स्वभावतः कुमार्गगामी है। अन्य कोई भी गुण उसके पास नहीं फटका है, व्रत, दान, आदिका नाम भी नहीं जानता है, असंयमी है तथा भोग और उपभोगोंकी प्राप्तिके लिए लालायित रहता है वह भी स्वर्गगतिको जाता है ॥ ३२॥
स्वभाव मार्दव जो प्रकृतिसे हो शान्ति और दयासे परिपूर्ण हैं, सबके साथ कोमलतापूर्ण व्यवहार करते हैं, किन्ही परिस्थितियोंमें । उद्वेजित नहीं होते हैं, जिनको समस्त चेष्टाएँ शुभावह और निर्दोष होती हैं, कपटहीन सरल स्वभावी तथा प्रेम, स्नेह आदिसे जो । परे हैं वे मुनिवर निश्चयसे स्वर्गकी शोभा बढ़ाते हैं ।। ३३ ।।
भूख, प्यास, शील, उष्ण आदि बाईस परीषहोंके उपस्थित रहनेपर भी जो तपस्यासे क्षणभरके लिए भी नहीं डिगते हैं, जो अनशन, आदि छह बाह्यतपों तथा प्रायश्चित्त आदि छह आभ्यन्तरतपोंके आचरणमें दृढ़ हैं, जो ईर्या, भाषा, आदि पाँचों । समितियोंको सावधानीसे पालते हैं तथा जो सर्वदा ही मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति इन तीनोंका पालन करते है, वे अवश्य ही स्वर्ग में पदार्पण करते ॥ ३४ ।।
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लए भी नहीं डिगते है,
तथा जो सर्वदा ही मनोगस्तिपकि आचरणमें दढ
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॥ १. [ मार्दवक्षान्ति ]
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