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________________ तत्तीषणशक्तिप्रहतोऽभिपद्य चक्रेण सन्ध्यार्कवपुर्धरेण । पाश्चात्यमप्याशु निपात्य भूमौ कश्चिद्भटस्य प्रचकर्त केतुम् ॥ ५३॥ किं वा त्वयाहं चिरमत्र योत्स्ये वणिक्सुतेनास्त्रगुणाश्रयेण'। इति प्रभाष्य प्रतिभय॑नीतिमुमोच चक्रं पुनरैन्द्रसेनिः ॥ ५४॥ आयान्तमालोक्य हि कालचक्र तद्वञ्चयित्वा स्थिरषोः सुचक्रम् । धृतं प्रगह्यान्यदमोधचक्र चिच्छेद हस्तं कटकावनद्धम् ॥ ५५॥ भूयोऽप्युपेन्द्रस्य हि पारिपार्वान्निहत्य तूर्ण कणपप्रहारैः। ध्वजातपत्रामलचामराणि निपातयां भूमितले बभूव ॥ ५६ ॥ अष्टादशः सर्गः कश्चिद्भटकी तीक्ष्ण शक्तिके आघातसे तिलमिला कर उपेन्द्रसेनने चक्रके द्वारा प्रहार किया था जो कि सन्ध्याकालीन सूर्यके समान विशाल और भयंकर था । उस चक्रने कश्चिद्भटके पोछे बैठे योद्धाको शीघ्र ही पृथ्वीपर गिराकर उसके उन्नत केतुको काट डाला था ।। ५३ ॥ घात-प्रत्याघात 'किसी प्रकारसे शस्त्र परिचालनकी शिक्षाको प्राप्त करनेवाले तुम्हारे ऐसे वणिकसुतके साथ मेरा ऐसा योद्धा अब और अधिक कालतक लड़ कर क्या करेगा?' इस प्रकार बकते हुये कश्चिद्भटकी भर्त्सना करनेके उपरान्त ही इन्द्रसेनके अहंकारी पुत्रने नीति ( शस्त्र विशेष ) नामके घातक चक्रको अपने शत्रुपर चला दिया था । ५४ ॥ कालचक्रके समान अपने ऊपर आते हुए उपेन्द्रसेनके नीतिचक्रको देखकर भी उसकी बुद्धि जरा भी नहीं घबड़ायी थी । अतएव वह उसे सहज ही व्यर्थ कर चुका था । इतना ही नहीं इसी अन्तरालमें उसने एक सर्वोत्तम चक्रको जिसका गोलाकार आघात कभी व्यर्थ न जाता था शीघ्रतासे उठा कर उपेन्द्रसेनपर मारा था और उसके कटक भूषित बाँहको काटकर फेंक दिया था ॥ ५५॥ इसके पश्चात् लगातार शस्त्रवर्षा करके उसने उपेन्द्रके आस-पासके योद्धाओंको मार डाला था। वह विद्युत् वेगसे कणपोंका प्रहार कर रहा था जिनके द्वारा उसने उपेन्द्रकी ध्वजा, आतपत्र, शुभ्र तथा निर्मल चमर आदि काट-काट कर पृथ्वीपर बिखेर दिये थे ॥५६॥ [३४१] । १. म गुणाश्रमेण । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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