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एकोन
चरितम्
मुक्तावली रलपरीतमध्यां कण्ठे च देवेन्द्रधनविचित्राम् । सूर्यप्रभाहूपितसत्किरोटं' निधाय पुत्रस्य हि मूनि तस्य ॥ ४४ ॥ श्वेतातपत्रं शरदभ्रशुभ्रं दधार भास्वद्वरहेमदण्डम् । अष्टार्धसच्चामरहेममूलं व्युत्क्षेपयामास स सुन्दरीभिः ॥ ४५ ॥ तेषां तु मध्ये वसुधाधिपानां स्वबाहुवीर्योजितसद्गुणानाम् । रेजे सुगात्रो नवराज्यलक्षम्या कान्त्या ग्रहाणामिव शीतरश्मिः ॥ ४६॥ नेदुः समन्ताबृहदभ्रनादा मृदङ्गभेरीपटहाः सशङ्खाः । उत्कृष्टनादां जनतां चकार लब्धेश्वरा भूवनिता तुतोष ॥ ४७॥
बाराममा
त्रिशः
सर्गः
नूतन राजाका सम्मान उसे मोतियोंकी माला पहनायो थो जिसमें बीच-बीच में अद्भुत रत्न पिरोये हुए थे तथा उसके मध्यभागमें परम मनोहर विचित्र इन्द्रधनुष पड़ा हुआ था। राजा सुगात्रके शिरपर जो मुकुट रखा गया था उसको प्रभासे मध्याह्नके सूर्यका उद्योत भी। लजा जाता था ॥ ४४ ।।
राजा सुगात्रके शिरपर जो धवल निर्मल छत्र लगाया गया था वह शरत्कालोन मेघोंके समान निर्मल तथा आकर्षक था, उसका दण्ड उत्तम निर्दोष सोनेका बना था तथा ( आठके आधे अर्थात् ) चार चमर भी सुन्दरियोंके हाथोंसे उसपर ढुरवाये । गये थे । इन चमरोंकी डंडियाँ भी सोनेसे बनी थीं ।। ४५ ॥
उस राजसभामें एक, दो नहीं अनेक ऐसे राजा विराजमान थे जिन्होंने अपने भुजबलके सहारे हो विशाल राज्य तथा महापुरुषोंके लिए आवश्यक गुणोंको अजित किया था, तो भी नूतन राजलक्ष्मीसे संयुक्त होकर सुगात्रको कान्ति इतनी अधिक बढ़ गयी थी कि वह उस समय वह ऐसा मालूम देता था जैसा कि ग्रहोंके बीचमें चन्द्रमा लगता है ।। ४६ ।।
राज्याभिषेक महोत्सव राज्याभिषेकको घोषणा करनेके लिए उस समय पूरी आनर्तपुरोमें हर ओर मृदंग और दुंदुभियाँ बज रही थीं। इनसे विशाल मेघोंकी गर्जना सदृश गम्भीर नाद निकल रहा था। आनन्द विभोर जनता भी उच्च स्वरसे 'जय, जीव', आदि शब्दोंF को कर रही थी तथा ऐसा प्रतीत होता था कि नूतन सुयोग्य पतिको पाकर पृथ्वी रूपी तरुणी भी परम संतुष्ट थी हो गयी थी ॥४७॥
१.क सत्तिरीटं। २. क हेममालं। ३. [ नादाञ्जनता] । Jain Education intemational ७५
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