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वराङ्ग चरितम्
शुम्भ-निशुम्भ- ये दानव प्रह्लादके पुत्र गवेष्ठीके पुत्र थे । वामनपुराणमें लिखा है कि कश्यपके दनु नामक स्त्री थी उसके गर्भसे दो पुत्र पैदा हुए । जिनमें छोटेका नाम निशुम्भ और बड़ेका नाम शुम्भ था । इन्होंने संसारको ही नहीं स्वर्गको भी जीत लिया था । अवमानित त्रस्त देवताओंने महामायाकी आराधना की । इन्होंने सुन्दरतम रमणी का रूप धर दोनों भाइयोंमें लड़ाई करायी और वे मारे गये थे । तिलोत्तमा - स्वर्गकी वेश्या । वैदिक आन्नायमें लिखा है कि सब रत्नोंमें से तिलतिल लेकर ब्रह्माने इसे बनाया था। यह ऐसी सुंदरी थी कि इसे देखनेके लिए योगस्थ महादेवने भी चार मुख बनाये थे । जब देवताओंको सुंद-उपसुंदको जीतना असम्भव हो गया तो उन्होंने इसे उनके सामने भेजा और वे इस पर मोहित हो आपसमें ही लड़ मरे थे ।
बलि - प्रह्लादके पुत्र विरोचनका पुत्र था। इसने यज्ञ करके जिस याचकने जो मांगा वही दान दिया था। इसकी सत्य निष्ठाकी परीक्षा करने विष्णुजी वामन बनकर आये थे और इससे तीन पग जमीन मांगी थी । इसके गुरु शुक्राचार्य इस याचनाके रहस्यको समझ गये और बलिसे कहा कि वह अपना वचन वापस ले ले । पर बलिने दान पूर्ण न होनेसे नरकवासके दण्डकी चिन्ता न की और अपने वचन पर दृढ़ रहा । अन्तमें विष्णुजी ने ही उसे वरदान दिया और वह इस समय 'सुतल' लोकमें विराजमान है।
हयग्रीव - असुर दितिका पुत्र । सरस्वती नदीके किनारे इसने महामायाको प्रसन्न करने के लिए हजार वर्ष तक घोर तप किया । वे प्रसन्न होकर वर देने आयीं तो इसने अजेयत्व अमरत्व माँगा । यतः प्रत्येक जातका मरण अवश्यंभावी है अतः उन्होंने इसे इससे ( हयग्रीवसे) ही मृत्युका वर दिया । इससे आतंकित त्रस्त देवता विष्णुके पास गये और उन्होंने हयग्रीव रूप धारण कर इसे मारा था ।
अनु- महाराज ययातिके पुत्र थे मुचुकुंद - ये मन्धाता पुत्र थे दैत्यको मारा था ।
। इनसे ही म्लेच्छ वंशका प्रारम्भ हुआ था ।
। इन्होंने देवताओंकी सहायता करनेके लिए असुरोंसे युद्ध किये थे । तथा कालयवन ऐसे दुर्दान्त
गौतमपत्नी - इनका नाम अहिल्या था । यतः ये अपने पतिके शिष्य इन्द्रसे भ्रष्ट हो गयी थी अतः उन्होंने शाप देकर इन्हें पाषाण कर दिया था । बादमें श्रीरामचन्द्रजीके पाद स्पर्शसे अपने पूर्व रूपको प्राप्त हुई थीं ।
कार्तिकेय प्रेमिका - अनेक पुराणोंने इन्हें ब्रह्मचारी लिखा है । पर यह ठीक नहीं । इन्होंने विवाह किया था । इनकी प्रेयसीका नाम षष्ठी देवी था ।
शून्यवाद - बौद्ध दर्शनकी एक शाखा । साधारणतया ब्राह्मण दार्शनिकोंने शून्यका अर्थ असत् लेकर ही इस मान्यता की विवेचना की है । किन्तु माध्यमिक आचार्योंके ग्रन्थोंको देखनेसे ज्ञात होता है कि उन्होंने 'शून्य' का प्रयोग 'अवक्तव्य' के लिए किया है । वस्तुके जानकी (१) अस्ति, (२) नास्ति, (३) उभय तथा (४) अनुमय ये चार दृष्टियाँ हैं । यतः इन चारोंसे अनिर्वचनीय परम तत्त्व नहीं कहा जा सकता, अतएव वे उसे शून्य कहते हैं ।
इन्द्रियाश्व - धर्मशास्त्र तथा उपनिषदोंमें पांचों इन्द्रियों और मनका रूपक इस शरीरको रथ, पांचों इन्द्रियोंको दुदर्म घोड़े और मनको सारथी कह कर खींचा है ।
आठमद - ज्ञान, लोकपूजा, कुल (पितृकुल) जाति (माताका कुल ), बल, ऋद्धि, तप तथा शरीरको इन आठोंको लेकर अहंकार भी आठ प्रकारका होता है ।
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लेश्या - क्रोध आदि कषायोंमय मन, वचन तथा कायकी चेष्टाओंको भाव लेश्या कहते हैं। और शरीरके पीले, लाल श्वेत आदि रंगोंको द्रव्य लेश्या कहते हैं ।
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