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________________ त्रयोविंशः सर्गः शास्ता भव प्रस्खलितात्मकानां पाता भव त्वं विनयान्वितानाम् । स्त्रीबालवद्धान्विभु'हित्प्रियत्वात्समातनः क्षत्रियधर्म एषः ॥८६॥ त्वं देवि राज्ञः प्रियकारिणी च स्वपुत्रपौत्रैरभिवृद्धिमेहि । शीलोपवासव्रतदानधर्मसर्वज्ञपूजाभिरता च भूयाः ॥ ८७ ॥ यदैहिकामुष्मिकसौख्यमूलं संपादितं चैत्यगृहं त्वयेदम् । यथा गमिष्यत्यतिवीर्घकालं तथा कुरुष्वेति जगाद राज्ञीम् ॥ ८८ ॥ श्रुत्वा मुनिश्रावकयोवंचांसि मनोगतं चाप्यवबुध्य देव्याः। शौर्यावधूतारिगणो नरेन्द्रः प्रीतान्तरात्मा प्रशशास सर्वान् ॥ ८९ ॥ यद्यच्च लोके रमणीयरूपमपस्करं द्रव्यमनेकभेदम् । नितितं चारु हिरण्यरूप्यैस्तत्तच्च निःशेषमदान्महीशः ॥९॥ HAMARPeawareSPIRATRATHIPATHAmAreat शुद्ध आचार-विचारसे जो व्यक्ति स्खलित हो गये हैं आप उनके कठोर नियन्त्रक हों, जो विनम्र तथा मर्यादापालक हैं आप ( कर्तव्यपालक परमप्रिय होनेके कारण ) उनकी रक्षा करें, स्त्रो, बालक तथा वृद्धोंका भरणपोषण करें। यही आदिकालसे चला आया क्षत्रियोंका धर्म है ।। ८६ ।। हे पट्टरानी ! आप सब प्रकारसे वही आचार करें जो कि सम्राटको प्रिय हैं। आपका वंश पुत्र, पौत्र, आदिके जन्मके द्वारा असीम वृद्धिको प्राप्त हो, आपको व्रतों तथा शोलके पालनको अडिग सामर्थ्य प्राप्त हा, आपकी परिणति उपवास, दान, धर्माचरण तथा श्री एकहजार आठ वीतराग प्रभुकी पूजाको दिशामें दिन-दुनी और रात चौगुनी बढ़े। आपने इस विशाल इन्द्रकूट चैत्यालयको स्थापना करायी है।। ८७ ॥ निस्सन्देह यह शुभकर्म इस लोक तथा परलोकमें प्राप्त होने योग्य समस्त सुखोंका मूल है। किन्तु हे देवि ? कुछ ऐसा आयोजन कीजिये जिसके बलपर यह जिनालय अत्यन्त दीर्घकालतक पूजा-सेवा की दृष्टि स्थायी रहे' ।। ८८ ॥ किमिच्छिक दानी सम्राटका अन्तरात्मा प्रबल प्रसन्नताके पूरसे प्लावित हो रहा था । श्रीमुनिराज तश्रा धर्माचार्य आदि गृहस्थोंके वचन सुनकर तथा पट्टरानी अनुपमा देवीपर दृष्टि डालते हो वे उनके भावोंको समझ गये थे। अपने पराक्रमसे समस्त शत्रुओंके मानमर्दक सम्राटने उसी समय वहाँ उपस्थित सब अधिकारियोंको पर्याप्त पूजा सेवा-व्यवस्था की आज्ञा दी थी ।। ८९ ।। इतना ही नहीं इस संसारमें जो जो पदार्थ सबसे अधिक आकर्षक तथा प्रिय समझे जाते हैं, वे संसारमें जितने भी प्रकार के चौकी, आदि उपकरण तथा साज सरंजामकी सामग्री है उत्तम सोने तथा चाँदीके पदार्थ बनाये गये थे उन सब पदार्थोंको देने १. [ वृद्धान्विभूहि प्रियत्वात् ]। २. म भूयात् । For Privale & Personal Use Only GUDAIसान्याचारामामामामराम) Jain Education Interational www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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