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________________ पञ्चमः बराङ्ग चरितम् मूले षोडश संख्याता मध्ये द्वादश संमिताः। दशोनयोजनास्त्वेते तयोर्बाहुल्यतः स्थिताः॥६॥ घनोदधेस्तु सप्तव घनवातस्य पञ्च वै। तनुवातस्य चत्वारि योजनान्याहुरादितः ॥७॥ पञ्च चत्वारि च त्रीणि योजनान्यथ मध्यमे। योजनाधं च गव्यतिं गव्यत्य' च मस्तके ॥८॥ नारकी वाथ तैरश्ची मर्ती दैवी च निर्वतिः। गतयः पञ्च निर्दिष्टा मुनिभिस्तत्त्वशिभिः॥९॥ तासां गतीनां पञ्चानां नारको प्रथमा गतिः। हिंसाद्यभिरता जीवास्तां विशन्त्यशुभप्रदाम् ॥१०॥ अधोगतिश्च सामान्यात्सव२ सप्तप्रभेदतः। सप्तानां सप्त नामानि वणितान्युषिसत्तमः ॥११॥ घर्मा बंशा शिलाख्याच अजनारिष्टका तथा। मघवी माधवी चेति यथाख्यातमुदाहृताः ॥ १२॥ अर्गः लोकके मुलभाग या नीचे इन वातवलयोंका विस्तार सोलह योजन है, लोकके मध्यमें केवल बारह योजन प्रमाण है तथा ऊपर जाकर दश योजन कम एवं अर्थात् ( दो के लगभग) रह जाता है। पहिले कहे गये इन वातवलयोंके विस्तारके ही कारण तीनों लोकोंकी स्थिति है ॥ ६ ॥ जीवलोकके आदिमें अर्थात् नीचे सब वातवलयोंका विस्तार जो सोलह कहा है उसमें घनोदधि वातवलयका विस्तार सात योजन है, धन वातवलयका केवल पांच योजन है और तनुवातवलयका चार योजन प्रमाण कहा है ॥ ७॥ लोकके मध्यमें बताये गये वातवलयोंके बारह योजन प्रमाण विस्तारमें घनोदधि वातवलयका विचार पाँच योजन प्रमाण है, घनवातवलयका विस्तार चार योजन प्रमाण है और तनुवातवलयका केवल तीन योजन ही है। लोकके शिखरपर घनोदधिका विस्तार आधा योजन प्रमाण है, धन वातवलयका एक गव्यूति ( कोश ) है और अन्तिम वातवलयका एक कोशसे आधामात्र है ॥ ८॥ चतुर्गति-पंचमगति केवलज्ञानरूपी दृष्टिसे तत्त्वोंका साक्षात्कार करनेवाले मुनियोंने समस्त जीवोंको पाँच गतियोंमें विभक्त किया है-नरक गति, तिर्यञ्च गति, मनुष्य गति, देव गति तथा अन्तिम गति या मोक्ष उनके नाम हैं ॥९॥ इन पांचों गतियोंमेंसे लोकके नीचेकी ओरसे प्रारम्भ करनेपर नरक-गति सबसे पहिले आती है। हर प्रकारसे जीवका अकल्याण करनेवाली इस गतिमें वे जीव ही जाते हैं जो हिंसा आदि पाप कर्मों में ही लगे रहते हैं ।। १० ॥ नरक गति सामान्य दृष्टिसे देखनेपर यह अधोगति एक है लेकिन दुख, आय आदिकी अपेक्षासे विचार करनेपर इसीके सात भेद हो जाते हैं । ऋषियोंके अग्रणी केवलियोंने इन सातों नामोंको निम्न प्रकारसे कहा है ॥ ११ ॥ प्रथम नरकका नाम है धर्मा उसके नीचेके पृथ्वीका नाम वंशा है, इसके बादकी पृथ्वीको शिला कहते हैं इसके नीचे १. क गप्युतोव। २. [ सामान्या ] । Jain Education intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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