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________________ EPAL बराङ्ग चरितम् यमा । सप्तविंशः सर्गः श्रीशोतलाख्यो मुनिराजकेतुः श्रेयो जिनेन्द्रो वरवासुपूज्यः । ततो जिताशो विमलो यतोशोऽप्यनन्तजिद्धर्मजिनौ च शान्तिः ॥ ३८ ॥ कुन्थुस्त्वरो मल्लिरतुल्यवीर्यः श्रीसुव्रतोऽयो नमिरिन्द्रवन्धः । अरिष्टनेमिस्त्वथ पार्श्वदेवः श्रीवर्धमानेन जिनाः प्रविष्टाः ।। ३९ ॥ आद्यश्च चक्री भरतेश्वरोऽभूत्ततो द्वितीयः सगरो महात्मा । तृतीय आसीन्मघवान्नरेन्द्रः सनत्कुमारश्च चतुर्थकोंऽभूत् ॥ ४०॥ शान्तिश्च कुन्थुस्त्वथ सप्तमोऽरः सुभौमनामा च महादिपद्मः । हरिश्च तस्माज्जयसेननामा श्रीब्रह्मदेवश्च ततोऽन्तिमोऽभूत् ॥ ४१॥ मयाराIRALASALARIमन्व चौबीस तीर्थकर भगवान् पुष्पदन्त नौवें तीर्थंकर थे । दशम तीर्थंकर श्री शीतलनाय प्रभु परम तपस्वी मुनिराजोंके द्वारा परमपूज्य थे। एकादशम तीर्थंकर श्री श्रेयान्सनाथ मूर्तिमान कल्याण हो थे। महाराज वासुपूज्य तीर्थंकरकी विशिष्टताके विषयमें तो कहना हो क्या है क्योंकि उन बालयतिके चरणोंमें इन्द्रादि देव भी लोटते थे। श्री विमल तीर्थंकरने आशाओंको विमल कर दिया था। भगवान् अनन्तनाथ साक्षात् यतोश थे। मूर्तिमान धर्मके समान श्री धर्मनाथ तथा विश्वशान्तिके प्रतिष्ठापक श्री शान्तिनाथ क्रमशः पन्द्रहवें और सोलहवं तीर्थंकर थे । श्री शान्तिनाथके बाद कुन्थुनाथ और अरनाथ तीर्थकर हुये थे ।। ३८॥ उन्नीसवें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ 'यथा नाम तथा गुणा' थे क्योंकि उनके बलवीर्यकी कोई सीमा ही न थी। उनके उपरान्त श्रीसुव्रत ( मुनिसुव्रत ) नाथने धर्मका प्रचार किया था। श्रीनमिदेवके चरणोंको पूज कर इन्द्रने अपनी पर्याय सफल की थी। बाईसवें तीर्थकर श्री नेमिनाथको कौन नहीं जानता है वे समस्त अरिष्टोंके लिए उपरोधक ही हैं। तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ तथा अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान जिन तो आज भी हमारे सामने ऐतिहासिक हैं ।। ३९ ॥ श्री आदिनाथके पुत्र महाराज भरत इस चक्रवर्ती युगके सबसे पहिले चक्रवर्ती थे । उनके पीछे महाराज सगरने षट्खंड भरत क्षेत्रको विजय करके दूसरे चक्रवर्तीका पद पाया था। तीसरे चक्रवर्ती महाराज मधवान थे तथा चौथे चक्रवर्ती श्री सनत्कुमार थे जो कि वास्तवमें मनुष्योंके इन्द्र ही थे ।। ४० ॥ बारह चक्रवर्ती सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ पांचवें चक्रवर्ती थे भगवान् कुन्थुनाथ तीर्थकर छठे चक्रवर्ती थे। तीर्थंकर श्री अरनाथ भी सातवें चक्रवर्ती थे। इन तीनों तीर्थंकर चक्रवतियोंके पोछे सुभौम तथा महापद्म क्रमशः आठवें और नौवें चक्र वर्ती हुये थे। महाराज हरि [षेण ] दशम चक्रवर्ती थे। उनके स्वर्ग जानेके काफी समय बाद श्री जयसेन हुये थे तथा श्री । ब्रह्मदेव अन्तिम चक्रवर्ती हुये थे ॥ ४१ ।। For Private & Personal use only ESATARIANRAILEELATE [५४० ] www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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