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वराङ्ग चरितम्
सीमंकरः पञ्चमको बभूव सीमंधरः षष्ठ उदाहृतश्च । ततश्च राजामलवाहनः स्याच्चक्षुष्मता तेन तथाष्टमस्तु ॥ ३४ ॥ ततो यशस्वानभिचन्द्रसंज्ञश्चन्द्राभनामा मरुदेवसाह्नः !
प्रसेनजिन्नाभिरनन्तरश्च ततः प्रसूतो वृषभो महात्मा ॥ ३५ ॥ तस्याग्रपुत्रो भरतो बभूव एते स्मृता वंशकरा विशिष्टाः । यशस्विनः षोडशभूमिपालास्त एव लोके मनवः प्रदिष्टाः ।। ३६ ।। नाभेय आद्योऽजितशंभवे च ततोऽभिनन्दः सुमतिर्यतीशः । पद्माभनामा च तथा सुपार्श्व: चन्द्रप्रभश्चैव हि पुष्पदन्तः ॥ ३७ ॥
चौदह मनु
पाँचवें मनुका नाम सीमंकर था । कर्मभूमिके छठे पथप्रदर्शक सीमंधर नामसे सुविख्यात थे। श्रीसीमंकर पंचम कुलकर थे । तथा छठे को सीमंधर कहा है इसके उपरान्त राजा अमल (विमल ) वाहनने अपने तेजके द्वारा मनुष्योंको व्यवस्था की थी । राजा अमल वाहनके स्वर्ग सिधार जाने के उपरान्त आठवें व्यवस्थापक श्रीचक्षुष्मान् हुये थे । चक्षुष्मान् के शरीर त्यागके उपरान्त आगे कहे गये चार महापुरुषों कुलकरोंने प्रजाकी यथाशक्ति प्रगति की थी ॥ ३४ ॥
नौवेका नाम यशस्वी, दशमें को जनता अभिचन्द्र संज्ञासे जानती थी, ग्यारहवें चन्द्राभ नामसे ख्यात थे तथा बारहवें का आकर्षक नाम मरुदेव था । तेरहवें जनगणनायकका शास्त्रोंने प्रसेनजित नामसे उल्लेख किया है तथा अन्तिम महापुरुष श्री कौन नहीं जानता है, क्योंकि इस युगके आदि पुरुष श्री ऋषभदेव उन्हींसे उत्पन्न हुये थे । ये चौदह कुलकर महापुरुष ऐसे थे कि इन्हींसे समस्त पूज्य वंश चले हैं ।। ३५ ।।
प्रथम तीर्थंकर श्री पुरुदेवके ज्येष्ठ पुत्र महाराज भरत चक्रवर्ती थे । प्रजाकी हितसाधना करके इन्होंने निर्मल, विपुल यश कमाया था। भोगभूमिके क्रमिक ह्रासके कारण प्रजा दुखी हो गयो थी पृथ्वीपर अव्यवस्था छा गयी थी, उस अव्यवस्था के युगमें इन लोगोंने पृथ्वीका संरक्षण किया था। यही कारण है कि ये महापुरुष हमारे जगतमें मनु ( स्वयं जाता ) नामसे विख्यात हैं ।। ३६ ।।
हमारे चतुर्थं कालमें नाभि महाराजके पुत्र श्रोऋषभदेव सबसे पहिले तीर्थंकर हुये थे। उनके बहुत समय बाद दूसरे तीर्थंकर श्री अजितनाथ तथा तीसरे श्री शंभवनाथका आविर्भाव हुआ था। श्री अभिनन्दननाथ चौथे तीर्थंकर थे । यतियोंके ईश श्री सुमतिनाथ पाँचवें तीर्थंकर थे। छठें तीर्थंकरका शुभनाम श्री पद्माभ था, सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ थे। भगवान सुपार्श्वनाथके उपरान्त अष्टम तीर्थंकर श्रीचन्द्रप्रभुका आविर्भाव हुआ था ।। ३७ ।।
१. क तथोष्टमस्तु, [ ततोऽष्टमस्तु ] ।
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सप्तविंशः
सर्गः
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