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बराङ्ग
चरितम्
ईसिमादाननिसर्गयत्नो वाणीमनोगुप्तिरपि प्रकाशे । अनिन्धभुक्तिः प्रथमव्रतस्य ता भावनाः पञ्च मुनिप्रणीताः ॥ ७६ ॥ क्रोधस्य लोभस्य भयस्य चापि हास्यस्य चात्यन्तमपोहनं च ।। बाचः प्रयोगोऽप्यनुवीचियुक्त्या पञ्चैव सत्यव्रतभावनास्ताः ॥ ७७ ॥ आदाय वक्रानुमतिस्तथैव' तस्मिन्नसंगोऽपि च भुक्तिसेवा' । सधर्मणश्चानुग्रहीतिरेवमाहुस्तृतीयवतभावनास्ताः
॥७८॥ स्त्रीरूपसंदर्शनसंकथानां तदाकुलावासरतिस्मृतीनाम् । त्यागः प्रणीतः सरसस्य चापि ता भावना ब्रह्ममहाव्रतस्य ॥ ७९ ॥
एकत्रिंशः सर्गः
अहिंसा व्रतको भावनाएँ प्रथम महावत अहिंसाकी ईर्या समिति, आदान-निक्षेपणमें सावधानो, वचन और मनकी गुप्ति तथा सूर्यका स्पष्ट प्रकाश रहते हुए ही ऐसे पदार्थोंका भोजन करना जो कि अभक्ष्य होनेके कारण निन्दनीय न हों, ये पांचों भाक्ना (पालनमें साधक क्रियाएँ ) हैं। परम तपस्वी मुनियोंके कथनानुसार इनको पालनेसे अहिंसा महावत सुकर हो जाला है ।। ७६ ।।
सत्याही भावनाएं क्रोधको सर्वथा बुझा देना, लोभपंकको सुखाना, भयसमुद्रको पार करना, हास्य क्रियाको समूल छोड़ देना तथा ऐसी कथा करना छोड़ देना जिसे कहनेमें चाटुकारिता अथवा दीनताको प्रकट करना पड़ता हो । ये पाँचों वे भावनाएँ हैं जिनके पालनसे सत्य महाव्रत अपने आप ही सिद्ध हो जाता है ।। ७७ ॥
अचौर्य महाव्रतकी भावनाएं आहार आदि ग्रहण करनेमें शुद्धि, कुटिल कार्यों ( परोपरोध आदि ) के अनुमोदनका त्याग, जहाँ कोई आरम्भ परिग्रह न हो ऐसे शून्य स्थानपर निवास करना उस स्थान पर रहना जिसे कि लोग छोड़ गये हों तथा प्रत्येक अवस्थामें सत्य धर्मके प्रति अक्षुण्ण अनुराग बनाये रखना-इन पाँचोंको तीसरे महाव्रत अचौर्यकी भावनाएँ कहा है ।। ७८ ।।
ब्रह्मचर्य महाव्रतको भावनाएं स्त्रियोंके सुन्दर रूपको घूर घूरकर देखनेका त्याग, उनके रूप, रति आदि कामोत्तेजक वार्तालापको कभी न करना, स्त्रियोंसे परिपूर्ण स्थानपर न रहना, पूर्व समयमें भोगे गये विषय प्रसंगोंको स्मरण भी न करना तथा सरस उद्दीपक भोजनका
सर्वथा त्याग, ये पाँचों चौथे महाव्रत ब्रह्मचर्यकी भावनाएँ हैं ।। ७९ ।। । १. [ °मति तथैव ] । २. म मुक्तिसेवा ।
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