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बराङ्ग चरितम्
विशतितमः सर्गः
स्वविष याद्विषयान्तमुपेत्य च प्रतिनिवेश्य नृपस्तु वरूथिनीम् । अभिनिवेदयितु द्रुतमागतं जलधिवृद्धिमतो विससर्ज सः ॥ ६२॥ नृपवचोर्थविशेषपरावरं मनसि वाक्यपटुर्गणयंस्ततः । अभिसमीक्ष्य नृपस्स्थितपोरुष स्वनृपकार्यमशेषमदुद्रुवत् ॥ ६३ ॥ उपगतं ललिताबपुराधिपं जलधिवृद्धिमुखादवबुध्य तम् । अपजयं च परस्य जयं स्वकं मनसि निश्चितवान्स महीपतिः ॥ ६४ ॥ परमहर्षविबुद्धमुखाम्बजो हृषितरोमचिताञ्चितविग्रहः । कुशलतां नृपतेः परिपृच्छय तं पुनरपृच्छदसौ बलसंपदाम् ॥ ६५ ॥
अपने पूरे राष्ट्रको पार करके गन्तव्य राष्ट्र में पहुँच जाने पर महाराज देवसेनने विश्राम करनेके लिए एक स्थानपर अपनो सेनाको रोक दिया था । महाराज धर्मसेनको इस समाचारसे अभिज्ञ करनेके अभिप्रायसे कि 'ललितेश्वर आपकी आज्ञाके अनुसार बड़ी तीव्र गतिसे प्रयाण करते हुए आपके निकट आ पहुँचे हैं।' सार्थपति सागरवृद्धिको उत्तमपुरके सैनिक-आवास पर भेजा था ।। ५२॥
आगमन सन्देश महाराज देवसेनने सेठ सागरवृद्धिको जो सन्देश दिया था उसके प्रधान तथा अप्रधान प्रयोजनको किस प्रकार उत्तमपुराधिके समक्ष उपस्थित करना होगा, इस सबको कुशल वक्ता सेठने अपने मन ही मन निश्चित कर लिया था। तथा उसकी पुनरावृत्ति करता जाता था। उत्तमपुरके स्कन्धावारमें पहुँचकर वह विनयपूर्वक महाराज धर्मसेनके सामने उपस्थित हुए थे। उनके पुरुषार्थको बुढ़ापा भी न डिगा सका था तथा उनके सामने उपस्थित होकर अपने नृपतिका पूराका पूरा सन्देश सुना दिया था ।। ६३ ॥ A सार्थपति सागरवृद्धिके मुखसे ललितपुराधिपति महाराज देवसेनके आगमनके शुभ संवादको सुनते ही महाराज,धर्मसेन
ने उन्हें आया ही समझ लिया था। उत्तमपुरेशको मन ही मन यह दृढ़ विश्वास भी हो गया था कि शत्रुको पराजय तथा मेरो विजय होना अवश्यंभावी है । ६४ ॥
लोभाचारज्ञता ___ उनके हर्षकी सीमा न थी, हर्षातिरेकसे उनका मुखारविन्द विकसित हो उठा था, आनन्दजन्य रोमाञ्चसे उनकी पूरी देह कंटकित हो गयी थी। सबसे पहिले उन्होंने ललितेश्वरकी कुशल क्षेम पूछी थी, फिर क्रमशः सुयात्राके विषयमें पूछ चुकनेके I बाद उनकी सेनाके विषयमें जिज्ञासा की थो ।। ६५ ।। ॥ १. म स विषयाद् । २. [ सुतमागतं ]। ३. [ नृपं स्थितपौरुषं ] ।
SARLADAKIRITUASHIELDRENEURSHITHERS
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