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________________ वाला धीवर अथवा स्वयंभूरमण समुद्र में पड़े पुष्कर मत्सके कानमें रहने वाला तन्दुल मत्स । भाव हिंसा का चमत्कार यह है कि मारे जाने वाले का बाल भी बाँका नहीं होता किन्तु मारने वाला सहज ही अपने परिणामोंकी हिंसा कर लेता है ।। तृतीय सर्ग घातियाकर्म-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्ययज्ञानादि क्षयोपशमिक गुणों तथा अनन्त-दर्शन, ज्ञान, वीर्य, सुखादि क्षायिक गुणोंको रोकने वराङ्ग वाले कर्मोको घातिया कर्म कहते हैं ये कर्म चार हैं १-ज्ञानावरणी, २-दर्शनावरणी, ३-मोहनीय तथा ४-अंतराय । चरितम् ___ अतिक्रम-ग्रहीत यम अथवा नियमके विषयमें मनकी शुद्धिका न रहना अतिक्रम कहलाता है । यथा सत्याणुव्रत लेकर मनमें ऐसा सोचना कि कभी झूठ बोलूं तो क्या हानि है । दिग्वतके अतिचारोंमें ऊपर, नीचे अथवा तिरछे मर्यादाके लंघनको भी अतिक्रम बताया है। अतिचार-अमितगति सूरिके मतसे त्यक्त विषयमें फिरसे प्रवर्तनको अतिचार कहते हैं । की हुई प्रतिज्ञाके आंशिक भंगको भी अतिचार कहते हैं । अथवा विवश होकर त्यक्त विषयमें प्रवृत्त होनेको भी अतिचार कहते हैं । किन्तु उक्त प्रकारके आचरण तभी तक अतिचार हैं जबतक व्रतके पालनेकी भावना बनी रहती है । व्रत पालनकी भावनाके न रहने पर ऐसे कर्म अनाचार ही हो जाते हैं । श्रेणी-आत्मविद्यामें साधुके चारित्रके विकासको श्रेणी नाम दिया है । दशम गुणस्थान वाला मुनि चारित्र मोहनीयकी २१ प्रकृतियोंका उपशम करके जब ग्यारहवें गुण-स्थानमें जाता है तब उपशम श्रेणी होती है । तथा जब उक्त प्रकृतियोंका क्षय करके १२ गुणस्थानमें जाता है तब क्षपक श्रेणी होती है । सामाजिक संगठनमें श्रेणी शब्दका अर्थ एक प्रकारके व्यवसायियों अथवा एक प्रकार के आचार-विचारके लोगोंके समूहके लिए आया है । प्राचीन भारतमें इस प्रकारकी अनेक श्रेणियाँ थीं । गण-अध्यात्म शास्त्रमें तीन मुनियों अथवा वृद्ध मुनियोंके समुदायको गण कहते हैं । इसीलिए भगवानके प्रधान शिष्य अथवा श्रोता गणधर कहे जाते थे । लोकमें गण सामाजिक इकाई थी । प्राचीन भारतमें राजतन्त्रादिके समान गणतन्त्र भी थे अर्थात् जनता या जन अथवा उनके प्रतिनिधियोंको गण कहते थे तथा उनके द्वारा संचालित शासनको गणतन्त्र कहते थे । गणका अर्थ गिनना होता है अर्थात् वह शासन से व्यवस्था जिसमें सम्मतियोंको गिनकर बहुमतके आधार पर निश्चय किया जाय । सत्पात्र-दान देने योग्य व्यक्तिको पात्र कहते हैं । यह सत्पात्र ( सुपात्र ), कुपात्र तथा अपात्रके भेदसे तीन प्रकार का है । जो सम्यकुदर्शनको प्राप्त कर चुके हैं वे सत्पात्र हैं। इनमें भी मुति आर्यिका उत्तम हैं । श्रावक-श्राविका मध्यम तथा अविरत जघन्य हैं । कुपात्र वे हैं जिन्हें सम्यक्दर्शन तो नहीं हुआ है किन्तु जैन शास्त्रोंके अनुसार आचरण पालते हैं । तथा जिनमें न सम्यक्दर्शन है और न आचरण है वे अपात्र हैं । पात्रके दूसरे प्रकार से पांच भेद भी किये हैं १-सामयिक, २-साधक, ३-समयद्योतक, ४-नैष्ठिक तथा ५-गृहस्थाचार्य। आहारदान-भक्ष्य अन्नादिका भोजन देना आहार दान है। नवधा भक्ति, आदि पूर्वक सुपात्रको देनेसे यह पात्र-आहार दान होता हैतथा इतर जन साधारणको देनेसे करुणा-आहार दान होता है । षड्द्रव्य-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल तथा जीव छह द्रव्य हैं । गुणोंके समूहको द्रव्य कहते हैं । हिरण्यगर्भ-जैन मान्यतानुसार प्रत्येक तीर्थंकरके पाँच कल्याणक ( महोत्सव ) होते हैं । इनमें गर्भ कल्याणक पहिला है । तीर्थंकरके। [६६४] गर्भ में आते ही अतिशय ( असाधारणता द्योतक विशेष घटनाएं ) होने लगती हैं उनमें एक यह भी है कि छह मास पहिलेसे ही सोनेकी वृष्टि होती है । फलतः प्रत्येक तीर्थंकर ऐसा व्यक्ति है जिसके गर्भमें आते ही पृथ्वी हिरण्य ( सोने ) मय हो जाती है। ज्योतिषी देव-देवोंके प्रधान भेद चार हैं भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा कल्पवासी । जिन देवोंके शरीर तथा विमानादि तेजपुञ्ज 5 है उन्हें ज्योतिषी कहते हैं । इनके मुख्य भेद १-सूर्य, २-चन्द्र, ३-ग्रह, ४-नक्षत्र तथा ५-तारका हैं । पृथ्वीकी सतहसे ७९० योजन Jain Education international Sinw.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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