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चार
भूमिका
चरितम्
। के ग्रन्थोंकी मिली हैं वे सबकी सब उत्तर भारतमें ही मिली हैं। इसके सिवा जटाचार्य द्वारा पालो गयों काव्य-परम्पराएं जैन A । कवि-मार्गमें बहुत पहिलेसे चली आ रही थी। इसलिए यह कहना कठिन है कि जटाचार्यने इनके लिए अश्वघोषसे प्रेरणा पायी
होगी। इतना निर्विवाद है कि उस युगमें धार्मिक कट्टरता ऐसी नहीं थी जैसो कि मध्ययुगमें थी। यही कारण है कि जटाचार्य । ने पर्याप्त दृष्टान्त वैदिक पुरुषोंके हो दिये हैं। उस युगमें जड़ता नहीं अ'यो थो फलतः पारस्परिक आदान-प्रदान उन्मुक्त रूपसे ।
चलता था। यह प्रथा विविधतामें एकता और एकतामें विविधताका सर्वोत्तम निदर्शन है। जटाचार्यके अनुगामी
जटाचार्यके समयकी चर्चाके प्रसंगसे देखा है कि समयको दृष्टिसे आचार्य रविषेणका पद्मचरित ही वरांग-चरितसे पहिलेका माना जाता है । इसके सिवा जैन-साहित्यमें अब तक कोई अन्य रचना सुनने देखने में नहीं आयी है जिसे इससे अधिक प्राचीन कहा जा सके ।। यतः पद्मचरित ६७७ ई० में पूर्ण हुआ था अतः इसके बादके समस्त ग्रन्थोंको इस प्रचलनके अनुसार भी वरांग चरितका अनुज कहा जा सकता है । जिनसेन द्वितीय (ल०८६८ ई० प्रथम महाकवि हैं जिनपर जटाचार्यकी स्पष्ट छाप है। आदिपुराणमें दत्त कथाके सात अंग अनायास ही वरांगचरितके प्रथम सर्गके श्लोकोंकी स्मृति दिलाते हैं । आचार्य जिनसेन द्वारा प्ररूपित वक्ताका स्वरूप सहज ही वरांगचरित की पूर्व-कल्पना कराता है । तथा श्रोता अथवा श्रावकोंके भेद दोनोंमें सर्वथा सदृश हैं। सोमदेवाचार्य ( ९५९ ई०) दूसरे कवि हैं जिनको कृति' स्पष्ट रूपसे वरांगचरितको पूर्ववर्तिताको पुष्ट करती है, यद्यपि उन्होंने 'भवति चात्र श्लोकः' रूपसे वरांगचरितके पंचम सर्गके १७३वें श्लोकको उद्धृत किया है। मर्यादा-मन्त्रो चामुण्डरायने भी वरांगचरितको अपना आदर्श माना था। यही कारण है कि वे कथाके अंगोंको जटाचार्यके ही अनुसार देते हैं। अन्तर केवल इतना है कि इन्होंने गद्य में दिये हैं। और सोमदेवाचार्यके समान श्रोताके भेदोंको बतानेके लिए “जटा सिंह नद्याचार्यर वृत्त'लिखकर बरांगचरितका श्लोक ही उद्धृत कर दिया है। किन्तु इन कतिपय उद्धरणोंके बलपर सरलतासे यह नहीं कहा जा सकता है कि जटाचार्यने अपने परवर्तियोंपर पर्याप्त प्रभाव डाला है। क्योंकि अन्य अनेक ग्रन्थाकारोंने बड़े सम्मानपूर्वक जटाचार्य अथवा उनकी कृतिको स्मरण करके भी उसमेंसे कुछ नहीं लिया है इस तर्कको महत्त्व देनेके पहिले यह भी विचारणीय है कि संस्कृति कवि-मार्गमें मौलिकता प्रधान गुण था। लक्षण शास्त्रों तकमें यह प्रशंसनीय माना जाता था कि अधिकांश निदर्शन
भी निजनिर्मित हों। यही कारण है कि संस्कृत महाकवियोंने पूर्ववर्ती कवियोंकी कल्पना, अलंकार, पदविन्यासादिको कमसे कम * अपनी कृतियोंमें लिया है। इसके सिवा वरांगचरित ऐसा धर्मशास्त्र मय महाकाव्य अन्य किसी उत्तर कालवर्ती कविने रचा भी
नहीं है। यही कारण है कि उत्तरकालवी जैन पुराणों तथा महाकाव्योंमें वरांगचरितका साक्षात् प्रभाव बहुलतासे दृष्टिगोचर । नहीं होता है।
१. यशस्तिलक चम्मू, सप्तम आश्वास, पृ० ३३२ । २. "मृत्सारिणी महिष हंस शुकस्वभावा मार्जारकंक मशकाज जलक साम्याः । सच्छिद्र कुम्भ पशु सर्प शिलोपमानास्ते श्रावका भुवि चतुर्दशधा भवन्ति ॥"
[वरांगचरित, सर्ग १, श्लोक १५]
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