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________________ सप्तविंशः बराज परितम् इति कुलकरदेवदातमुख्या हलधरकेशवचक्रपाणयश्च । इह च नरबराः श्रुता मया ये परिकथिता भवतां समासतस्ते ॥ ९३ ॥ युगवरपुरुषप्रपञ्चनं यत्तदनुनिशम्य महीपतेर्यथावत् । प्रथितपृथुधियः सुमन्त्रिणस्ते प्रतिविविदुः परमार्थमादधुश्च ॥ ९४ ॥ इतिधर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते प्रथमानुयोगो नाम सप्तविंशतितमः सर्गः । सर्गः उपसंहार अपने इस लघु जोवनमें मैंने सोलह कुलकरों, चौबीस सत्यदेवों, तीर्थ-बारह चक्रवतियों, नौ वासुदेवों, नौ नारायणों, नौ प्रतिनारायणों, चौबीस आहारदाताओं तथा तोर्थकङ्करोंके जन्मके प्रधाननिमित्त कारण उनको जननियों तथा पिताओं आदि जिन-जिन महापुरुषोंके विषयमें मैंने जो कुछ भी सुना था उन सबके विषयमें संक्षेपसे आपको बतलाया है ॥९३ ॥ सच्छोता सम्राट वरांगके राजसेवक मंत्री लोग अपनी कुशाग्रबुद्धिके लिए सुविख्यात थे। जब इन सबने सम्राटके मुखारविन्दसे ही इस युगके प्रवर्तक परमपूज्य शलाका पुरुषोंके चरित्रको ठीक क्रम तथा सम्बन्धके साथ सुना तो उसे समझनेमें उन्हें विलम्ब न लगा था। इतना ही नहीं थोड़े ही समयमें वे परम तत्त्वोंके स्वरूपको समझ कर उसपर अपनी अडिग श्रद्धाको भी लगा सके थे।। ९४॥ चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें प्रथमानुयोग-नाम सप्तविं. तितम सर्ग समाप्त । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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