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________________ वराङ्ग चरितम् एतावता कालपरिच्छदेन तीर्थस्य विच्छेद उदाहृतश्च । सपुष्पदन्तादिषु सप्तसु स्यादाद्यन्तयोः संतत ऐव जातः ॥ ६५ ॥ नाभेयशान्ती ह्यथ कुन्थुधर्मावमोह सर्वार्थविमानमुख्यात्' । नन्दाजितो तो विजयाद्विमानात्तौ वैजयन्तात्सुमतीन्दुभास ॥ ६६ ॥ नेमिस्त्वथारस्य' हि तौ जयन्तान्मल्लिन मिश्चाप्यपराजिताख्यात् । तौ प्राणतात्पार्श्वमुनिव्रताख्यावभ्यागतावप्रतिमप्रतापौ ॥ ६७ ॥ पुष्पोत्तरादाय सुरप्रमेयाः । शुक्रान्महादेरथ वासुपूज्यः श्रीशीतलस्त्वारुणतश्च्युतत्वात् ॥ ६८ ॥ श्रेयांस्तथानन्तजिदन्तिमश्च इतना विशाल समय ऐसा था जिसमें क्रमशः भगवान पुष्पदन्त आदि शान्तिनाथ पर्यन्त तीर्थंकरोंके बाद अन्तरालमें केवली भगवान प्रणीत आर्हत् धर्मका एक दृष्टिसे सर्वथा लोप हो हो गया था। इन सात कुसमयों को छोड़कर भगवान आदिनाथसे लेकर वीरप्रभुके समय पर्यन्त जैनधर्मकी धारा सदा ही बहती रही है ।। ६५ ।। प्रथम तीर्थंकर श्री आदि जिनका, सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ, सतरहवें तीर्थंकर श्री कुन्थुनाथ तथा पन्द्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ ये चारों महात्मा सर्वार्थसिद्धि विमानकी आयु पूर्ण होने पर अपने उक्त भवोंमें आये थे । भगवान् अजितनाथ तथा चौथे तीर्थंकर श्री अभिनन्दननाथ विजय नामके विमानकी आयु पूर्ण होने पर तीर्थंकर पर्याय में आये थे तथा छठे तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ तथा चन्द्रप्रभ भगवानने वैजयन्त नामके स्वर्गसे आकर तीर्थंकर रूपसे जन्म ग्रहण किया था ॥ ६६ ॥ यादवपति श्री नेमिनाथ तथा अठारहवें तीर्थंकर श्री अरनाथ जयन्त नामके स्वर्गसे आये थे। श्री मल्लिनाथ भगवान तथा इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नमिनाथ अपराजित स्वर्ग में अपनी आयुको समाप्त करके इस धरिणीपर पधारे थे। भगवान मुनिसुव्रतनाथ तथा तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ प्राणत स्वर्गसे आये थे ।। ६७ ।। इन दोनों सद्धर्मं प्रवर्तकोंका प्रताप ऐसा था कि उसका वर्णन करनेका तात्पर्य होगा उसको संकुचित कर देना । भगवान श्रेयान्सनाथ, अनन्तनाथ तथा अन्तिम तीर्थंकर श्री वीरप्रभु अमित गुणोंके भण्डार थे। ये तीनों महापुरुष पुष्पोत्तर नामके स्वर्गसे आकर पृथ्वीपर जन्मे थे। जिस शुक्रके आदिमें महाविशेषण लगा है ऐसे महाशुक्र नामके दशमें स्वर्गके जीवनको समाप्त करके भगवान वासुपूज्यने जन्म लिया था तथा दशम तीर्थंकर श्री शीतलनाथ प्रभु तेरहवें स्वर्गं आरुणसे च्युत होकर इस धरापर पधारे थे ॥ ६८ ॥ १. क विमानसंख्यात् । Jain Education International २. [विवारच] | For Private & Personal Use Only सप्तविंश: सर्गः [ ५४७ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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