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________________ वराङ्ग चरितम् THEIRatoTAIMIREstimalALRADIRDAE वराङ्गचरितम् प्रथमः सर्गः मंगलाचरण अहंस्त्रिलोकमहितो हितकृत्प्रजानां, धर्मोऽहंतो भगवतस्त्रिजगच्छरण्यः । ज्ञानं च यस्य सचराचरभावशि, रत्नत्रयं तदहमप्रतिमं नमामि ॥ १॥ येनेह मोहतरुमलमभेद्यमन्यैरुत्पाटितं निरवशेषमनादिबद्धम् । यस्यर्द्धयस्त्रिभुवनातिशयास्त्रिधोक्ताः, सोऽहंजयत्यमितमोक्षसुखोपदेशी ॥२॥ प्राप्येत येन नूसुरासुरभोगभारो, नानातपोगुण समुन्नतलब्धयश्च । पश्चादतीन्द्रियसुखं शिवमप्रमेयं, धर्मो जयत्यवितथः स जिनप्रणीतः ॥३॥ प्रथम सर्ग प्राणिमात्रके कल्याणकर्ता, अतएव तीनों लोकोंमें परम पूज्य श्रीअर्हन्त परमेष्ठी, तीनों लोकोंके प्राणियोंकी ऐहिक और पारलौकिक उन्नतिका एकमात्र सहारा आहेत-( जैन ) धर्म तथा त्रिकालवर्ती चल और अचल समस्त पदार्थोंका साक्षात्द्रष्टा श्रीअर्हन्त परमेष्ठीका ( केवल ) ज्ञान, इन तीनोंकी इस अनुपम रत्नत्रयीको मैं मन, वचन और कायसे नमस्कार करता हूँ ॥१॥ निरुपम मोक्ष महासुखके सत्य उपदेष्टा श्रीअर्हन्त केवलीको जय हो, जिन्होंने इस संसारमें अनादिकालसे जमी हुई मोह महातरुकी उन जड़ोंको बिल्कुल उखाड़कर फेंक दिया था, जिन्हें अन्य-अन्य मतोंके प्रवर्तक हिला-डुला भी न सके थे। तथा जिन अर्हन्त प्रभुकी तीन प्रकारको क्षायिक ऋद्धियोंको गणधरादि ऐसे महाज्ञानी मुनियोंने भी तीनों लोकोंकी महाविभूतियोंसे भी बढ़कर कहा है ॥२॥ श्रीजिनेन्द्रदेवके द्वारा उपदिष्ट सत्यधर्म ( जैनधर्म ) की जय हो। जिसके द्वारा जीवको नर, असुर और देवगतिके सब ही भोगोंकी प्राप्ति होती है, जिसके प्रतापसे नाना प्रकारके तपों, गुणों और बड़ीसे बड़ी लब्धियोंकी सिद्धि होती है, इतना हो । नहीं, अपितु सांसारिक अभ्युदयके बाद अतीन्द्रिय तथा अनन्त सुखमय उस मोक्षपदकी प्राप्ति भी होती है, जहाँके सुखको किसी भी मापसे नापना असंभव है ॥ ३ ॥ १. क श्रीमदादिब्रह्मणे नमः । निर्विघ्नमस्तु । म श्रीवासुपूज्याय नमः । ही [१] HTRATHI Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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