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नवमः
वराङ्ग चरितम्
सर्गः
भूताः पिशाचा गरुडाश्च यक्षा गन्धर्वकाः किन्नरराक्षसाश्च । संख्यानतः किंपुरुषैः सहाष्टौ तिर्यग्जगत्येव निवास एषाम् ॥५॥ सूर्याश्च चन्द्रास्त्वथ तारकाश्च ग्रहाश्च नक्षत्रगणास्तथैव ।। ज्योतिर्गणाः पञ्चविधाः प्रविष्टाः प्रभाप्रभास्थानगतिस्वभावाः ॥६॥ सौधर्मकल्पः प्रथमोपदिष्ट ऐशानकल्पश्च पुनद्वितीयः। सनत्कुमारो द्युतिमांस्तृतीयो माहेन्द्रकल्पश्च चतुर्थ उक्तः ॥७॥ ब्राह्मयं पुनः पञ्चममाहुरास्तेि लान्तवं षष्ठमुदाहरन्ति । स सप्तमः शुक्र इति प्ररूढः कल्पः सहस्रार इतोऽष्टमस्तु ॥८॥
व्यन्तरदेव भूत, पिशाच, गरुड ( महोरग), यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, राक्षस तथा इनमें किंपुरुषको मिला देनेपर संख्याकी अपेक्षासे । व्यन्तरोंके आठ भेद हो जाते हैं। इनका निवास भवनवासियोंकी तरह वंशा (?) पृथ्वीमें या वैमानिकोंकी तरह ऊर्ध्वलोकमें नहीं है बल्कि ये तिर्यग्लोक या मध्यलोक में ही रहते हैं ॥ ५ ॥
ज्योतिष्कदेव सूर्य, चन्द्रमा, तारका-समूह, ग्रह तथा नक्षत्रोंके गण ये पांचों ज्योतिषी देवोंके प्रधान भेद हैं। इनकी गति और स्थान। के हो कारण प्रकाश और अप्रकाश होता है तथा अपनी अपेक्षा भी यह हमारे लिए योग्य स्थानपर होनेसे चमकते हैं और अन्तरालमें चले जानेसे छिप जाते हैं ।। ६।।
वैमानिकोंमें प्रथम कल्पका नाम सौधर्म है, दूसरे कल्प या स्वर्गकी ऐशान संज्ञा है, सब प्रकारकी ऋद्धियोंसे जाज्वल्यमान सानत्कुमार तीसरा कल्प है, चौथे स्वर्गको माहेन्द्र कल्प कहते हैं ।। ७ ।।
वैमानिकदेव पुरातन आचार्योने पञ्चम कल्पका नाम ब्रह्म ( ब्राह्म) कहा है; ( यह भी इन्द्रकी अपेक्षा है क्योंकि ब्रह्म और ब्रह्मोत्तरका एक ही इन्द्र होता है ) । उन्हीं श्रेष्ठ आचार्यने छठे कल्पकी लान्तव संज्ञा दो है ( यहाँ भी लान्तव और कापिष्ट
दोनोंका एक ही इन्द्र होता है ), सातवां कल्प शुक्र नामसे समस्त संसारमें प्रसिद्ध है इसीमें महाशुक्र भी अन्तहित है, इसमें आगेके म आठवें कल्पका नाम सहस्रार है जिसमें शतारको भी समझना चाहिये ।। ८ ।।...
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