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________________ बराङ्ग चरितम् तहेवसेनस्य तु सैन्यमाजौ शतां परां संजनयन्नपस्य । भजावतंसा विजयैकलक्ष्मी निजां चकारेव भयात्तदानीम् ॥१२॥ उपेन्द्रसेनं युवराजमाजौ निहत्य भूयः प्रतिलब्धसंज्ञः । कश्चिद्भटः साधुयशोऽवतंसं विभ्रत्स बभ्राम मृगेन्द्रलीलः ॥ १३ ॥ परिभ्रमन्काल इवान्तरूपः कश्चिद्भटः शत्रुषु लब्धतेजाः। स देवसेनं सबलं मनस्वी ददर्श मृद्गन्तमथैन्द्रसेनम् ॥ ९४ ॥ दृष्ट्वा तमाराद्विजयं परीप्सन्सव्यापसव्यं प्रकिरच्छरौघान् । निसृष्टवानप्रतिमल्लमाजौ युयुत्समानो मधुराधिपेन ॥ ९५ ॥ अष्टादसा सर्गः HAIRATRAPARIKARATHIMLAsantonT. ITA अन्तिम संघर्ष इन्द्रसेनके इस भीषण रूपने महाराज देवसेनकी विजयो सेनामें कुछ समयके लिए एक गम्भीर आशंकाको उत्पन्न कर दिया था। उस समय तो कुछ क्षण तक ऐसा प्रतीत होने लगा था कि उस एकाकी वीरने ही भग्न मुकुटधारिणी विजयलक्ष्मीको अपनी बना लिया है ।। ९२ ।। UAESARIRAHARSHIRSAGADISEAR कश्चिद्भटका प्रवेश युवराज उपेन्द्रसेनका युद्ध में संहार करके हर्षोन्मादमें मस्त कश्चिद्भटको एक क्षणभर बाद ही अपने शेष कर्त्तव्यका ख्याल हो आया था। अतएव अब तककी विजयसे उत्पन्न कीतिरूपी शिरोभूषणको भलीभाँति धारण करता हुआ वह उदारचित्त योद्धा पुनः सिंहके समान युद्धभूमिमें विचरने लगा था ॥१३॥ ___ शत्रुसेनामें उसके पराक्रमका आतंक बैठ गया था अतएव मूर्तिमान यमराजके समान शत्रुसेनापर टूटते हुए मनस्वी है कश्चिद्भटने देखा था कि महा बलवान ललितेश्वरको मथुराधिप इन्द्रसेन अपने सफल प्रहारोंसे दबाता चला जा रहा है ।। ९४ ॥ वह विजय प्राप्त करनेके लिए व्याकुल था तथा उसने देखा था कि 'शत्रु ( इन्द्रसेन ) भी काफी निकट आ पहुंचा है' फलतः उसने शत्रुके दक्षिण तथा वाम दोनों पाश्वोपर अन्धाधुन्ध बाणोंकी वृष्टि प्रारम्भ कर दी थी। मथुराधिपके साथ लड़नेके 7 लिए उसके अंग खुजला रहे थे अतएव उसने ऐसा संघर्ष पैदा कर दिया था जिसकी तुलना ही नहीं हो सकती थी॥ ९५ ॥ [३५० LIES १. [ भग्नावतंसां] । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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