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वराङ्ग चरितम्
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उद्यानपालः प्रविलोक्य साधूस्तपोभिरुद्भासितपुण्यमूर्तीन् । प्रहृष्टचेतास्त्वरयाभिमम्य विज्ञापयामास वसुंधरेन्द्रम् ॥९॥ पुरे वने वापि गृहे सभायां तिष्ठन्स्वयं जाग्रदपि वजश्च । दिवा निशायामथ सन्ध्ययोश्च यान्भावतश्चिन्तयति क्षितीन्द्रः॥१०॥ तान् साधुवर्गास्वगुणोपपन्नान्प्रशान्तरूपान्विदितत्रिलोकान् । मनोहरोद्यानशिलातलेषु सुखोपविष्टानहमभ्यपश्यम् ॥११॥ उद्यानपालस्य वचो निशम्य प्रोत्थाय सिंहासनतः पृथुश्रीः । पदानि सप्त प्रतिगम्य राजा ननाम मू| विनतारिपक्षः ॥ १२॥ आनन्दिनी नाम महाभ्रनादा मानल्यकर्मण्यभिसंप्रताड्या। जनस्य सर्वस्य विवोधनार्थ प्रताडिता भपतिशासनेन ॥ १३ ॥
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उग्र तपश्चरणसे उत्पन्न उद्योतसे कान्तिमान परम पूण्यात्मा मनियोंके दर्शन करते हो 'मनोहर' उद्यानके मालीका चित्त आनन्दसे गद्गद हो उठा था फलतः उसने विना विलम्ब किये ही शीघ्रतासे राजप्रासादमें पहुँचकर पृथ्वीपर इन्द्रके समान प्रतापी महाराज धर्मसेनको मुनिसंघके आगमनकी सूचना (निम्न प्रकारसे ) दी थी ॥९॥
माली द्वारा संदेश हे महाराज? नगर या वनमें रहते हए, भवन या राजसभामें विराजे हए, चलते फिरते हये, स्वयं सोते या जाग्रत अवस्थामें, दिनको या रात्रिमें, प्रातःकाल या सन्ध्या समय जिन मनिवरोंका आप मन ही मन चिन्तन किया करते हैं ।।१०।।
उन्हीं साधु परिमेष्ठीके समस्त गुणोंसे विभूषित, परम शान्त स्वभाव युक्त तथा अपने ज्ञानसे तीनों लोकोंके चराचर पदार्थोंके ज्ञाता, महामुनियोंके संघको मैंने 'मनोहर' उद्यानके स्वच्छ सुन्दर विशाल शिलापर आनन्द और निश्चिन्तताके साथ विराजमान देखा है ॥ ११ ॥
धर्म-यात्राको सूचना अपने प्रचण्ड शत्रुओंके भी मस्तकोंको झुका देनेवाले तथा परम प्रभुताशाली महाराज धर्मसेन उद्यानपालके वचनोंको सुनते ही सिंहासनसे नीचे उतर आये थे और जिस दिशामें मुनिसंघ विराजमान था उधर ही सात पग आगे जाकर उन्होंने भूमि- पर मस्तक झुकाकर भक्तिभाव पूर्वक प्रणाम किया था ॥ १२ ॥
आनन्दिनी नामकी महाभेरी जिससे प्रचण्ड बादलोंकी घनघोर गर्जनाके समान दुरतक सुनायी देनेवाला शब्द निकलता । १. म प्रश्नान्तरूपान् ।
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