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________________ वराङ्ग चरितम् व्यासो वसिष्ठः कमठश्च कण्ठः शक्युद्गमौ द्रोणपराशरौ स । आचारवन्तस्तपसाभियुक्ता ब्रह्मत्वमायः' प्रतिसंपदाभिः ॥४४॥ यः शङ्करस्योज्झितनिर्मलानि पादेन मोहाद्यदि संप्रवृद्धिः । स षष्टिवर्षाणि निकृष्टयोनौ कृमिर्भवेदित्यवनौ श्रुतिः स्यात् ॥ ४५ ॥ पुरा निविष्टा शिरसोश्वरस्य गङ्गापि नैर्मल्यमतो जगाम । यः स्नाति शौचं प्रकरोति तस्यां का वा गति यास्यति सोऽनुनेयः ॥ ४६ ॥ योऽश्नाति गोवकमादरेण पुनाति तस्यादशनाकुलं तत् । इति प्रवादो जगति प्रतीतो व्यर्थों भवेत्सोऽपि परीक्ष्यमाणः ॥ ४७॥ पंचविंशः सर्गः सानागारबारमारायला गुणोंसे अछूता ही रह जाता है तो केवल जन्म ही उसे ब्राह्मण नहीं बना सकेगा। क्योंकि ब्रह्मज्ञानी लोग उसे ही वास्तविक । ब्राह्मण कहते हैं जो द्विजके उपयुक्त ज्ञान, स्वभाव, संयम तथा अन्य गुणोंसे भूषित होता है ।। ४३ ॥ कृष्ण द्वीपायन व्यास ( पिता ब्राह्मण माता केवटी) राजर्षि वसिष्ठ (क्षत्रिय ) कमठ कण्ठ ( अनुलोम ) शस्त्र विद्या तथा शारीरिक शक्तिके उद्गम स्रोत द्रोणाचार्य (ब्राह्मण ) तथा पराशर ( अनुलोम ब्राह्मण) ऋषि ये सबके सब ब्रह्मत्वको प्राप्त कर सके थे। यद्यपि जन्मसे वे सब ही ब्राह्मण नहीं थे तो भी उनका वह आचार तथा तपस्या थी जिसने उन्हें ब्रह्म में लीन कर दिया था ॥४४॥ गंगा विचार श्री शंकर ( महादेव ) जीको चढ़ायी गयी निर्माल्य द्रव्यके अवशिष्ट भागको, जान बूझकर नहीं असावधानीसे ही जो पैरसे स्पर्श कर लेता है वह मनुष्य संसारकी सबसे निकृष्ट योनिमें छुद्र कीट होकर साठ वर्षपर्यन्त महा दुःख पाता है, ऐसी एक । ॥ धारणा समस्त पृथ्वीपर फैली हुई है ।। ४५ ॥ गंगा भी वैदिक कथाके अनुसार जब वह पृथ्वीपर आयी थी तो उसे शंकरजोने अपने मस्तकपर हो झेला था, इसी # कारणसे वह भी परम निर्मल हो सकी है। किन्तु लोग उसमें स्नान करते हैं, तैरते हैं, इतना ही नहीं अपितु मल त्याग करते हैं R(विशेषकर वर्तमानमें तो नगरोंका सब मल उसीमें बहाया जाता है ) ऐसे लोगोंको क्या दुर्गति होगी। उसका अनुमान करना भी कठिन है ।। ४६ ॥ जो व्यक्ति श्रद्धासे गद्गद् होकर पवित्र गंगाजलको पीता है उसके कूलकी दश पीढ़ी पीछे और आगामी पीढ़ियोंमें उत्पन्न हुए लोगोंको वह गंगाजल पवित्र कर देता है । इस प्रकारका प्रवाद इस संसारमें प्रचलित ही नहीं है अपितु लोग उसपर विश्वास भी करते हैं । किन्तु, यदि इसको भी युक्तिको कसौटीपर कसा जाय तो यह भी व्यर्थ ही सिद्ध होगा ॥४७॥ १. [ ब्रह्मत्वमापुः]। २. म संप्रदाभिः। ३. [ संप्रमर्षेत् । ४क गन्धोदक । ५. [ तस्यादश नून् कुले] । RELATERARIANTARTERTREAT For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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