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________________ तृतीयः सर्गः निर्जग्मुरेके नरदेवभक्त्या समीयुरेके मुनिदेवभक्त्या । उत्तस्थुरेके गुरुलोकभक्त्या उपेयुरेके वरधर्मभक्त्या ॥ १८ ॥ प्रदित्सवः केचन पात्रदानं निसवः केचन संयतेन्द्रान् । शुश्रूषवः केचन धर्मसारं सुराङ्गनाभिस्तु रिरंसवोऽन्ये ॥ १९ ॥ रुरुत्सवः केचन मोहसेनां जिघांसवः केचन मोहराजम् । युयुत्सवोऽन्ये च कषायमल्लविभङ्क्षवः केचन कामदर्पम् ॥ २०॥ मुमुक्षवः केचन कर्मपाशांस्तितीर्षवोऽज्ञानमहासमुद्रम् । तुष्टषवः साधुगुणानुदारांश्चिचित्सवः' संशयजातमर्थम् ॥ २१ ॥ पुपुषवः पापरजांसि केचिच्चिचीषवः पुण्यजलानि केचित् । चिकीर्षवो घोरतपांसि केचित्तिष्ठासवः सूत्रपथे च केचित् ॥ २२॥ कुछ लोगोंके गमनका कारण राजभक्ति थी, बहुतसे लोगोंकी धर्मयात्राका प्रधान प्रेरक वीतराग मुनियोंकी शुद्धभक्ति । थी, दूसरे अधिकांश जनोंको अपने गुरुजनोंका ख्याल करके ही उस यात्राके लिए उठना पड़ा था, तथा अन्य लोग इस लोक और परलोकके साधक श्रेष्ठ जिनधर्मकी श्रद्धाके कारण ही मनोहर उद्यानकी तरफ दोड़े जा रहे थे ॥१८॥ उन यात्रियोंमें काफी लोगोंको सत्पात्रोंको आहारादि दान देनेकी उत्कट अभिलाषा थी, कुछ लोग यही चाहते थे कि इन्द्रिय विजेता मुनियोंके चरणों में जाकर धोक दें, दूसरे लोग जिनधर्मके मर्मको गुरुओंके श्रीमुखसे सुननेके लिए व्याकुल थे, अन्य लोगोंकी यही कामना थी कि मुनिदर्शनके पुण्यका संचय करके स्वामें सुरांगनाओंके साथ रमण करें ॥१९॥ ऐसे भी लोग थे जो मोहनीय कर्मको क्रोधादि-मय सेनाकी प्रगतिको सर्वथा रोक देना चाहते थे, दूसरे इनसे भी एक कदम आगे थे वे कर्मों के राजा मोहनीयको मारकर फेंक देना चाहते थे, अन्य लोगोंकी यही अभिलाषा थी कि कषाय, नोकषाय A रूपी मल्लोंसे जमके लोहा लिया जाय, कतिपय लोगोंको केवल इतनो ही तृष्णा थी कि एकबार कामदेवके अहंकारको चूर-चूर कर दें, ॥ २०॥ ऐसे पुरुष सिंह भी थे जो आठों कर्मोंकी पाशको खोलकर फेंक देना चाहते थे, दूसरे श्रावक अज्ञानरूपी महासमुद्रको पार करनेके इच्छुक थे, मुनियों के विशाल चारित्र और निर्दोष गुणोंकी स्तुति करनेके लिए ही अनेक लोग आतुर थे ।। २१ ।। अन्य लोग अपने संशयापन्न विषयोंका स्पष्ट समाधान पानेके लिए ही उत्सुक थे, ऐसे भी लोग थे जो पापकर्मों रूपी । धूलको साफ करनेकी हादिक इच्छा करते थे, अन्य लोगोंको पुण्यरूपी जल राशिके प्रचुर संचय करनेकी लालसा थी, कुछ लोगोंकी १. [ चिकित्सवः]। २. क चिचीर्षवः। ३. चिचोषवो। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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