Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . A ANIYAN २L ) ___ श्री दिगम्बर जैन कुंथु विजय ग्रंथमाला समिति का पुष्प नं. 191 श्री भद्रबाहु आचार्य विरचित भद्रबाहु संहिता एवं सामुद्रिक शास्त्र करलखन (क्षेमोदय टीका) टीकाकार एवं संग्रहकर्ता Saamana -) ही 11 तारा AE4 ::) परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुंथुसागरजी महाराज प्रकाशन संयोजक शान्ति कुमार गंगवाल :) :) प्रकाशक श्री दिगम्बर जैन कुंथु विजय ग्रंथमाला समिति, जयपुर (राज.) M N <ी -25THA Namah । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VA । परम पूज्य श्री 108 सन्मार्ग दिवाकर, निमित्त ज्ञान शिरोमणि 'खण्ड विद्या धुरन्धर' आचार्य विमलसागरजी महाराज का मंगलमय शुभाशीर्वाद 4A - मन DS- मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि श्री दिगम्बर जैन कुंथु विजय ग्रंथमाला समिति, जयपुर (राजस्थान) से 19वें पुष्प के रूप में भद्रबाहु संहिता एवं सामुद्रिक शास्त्र करलखन का सचित्र प्रकाशन हो रहा है। इस ग्रंथ का संकलन गणधराचार्य कुंथु सागरजी महाराज ने कठिन परिश्रम से किया है। इसके लिये महाराज को हमारा आशीर्वाद है कि भविष्य में भी इसी प्रकार के महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का संग्रह करने का कार्य करते रहे। यह ग्रंथ जन-जन को उपयोगी हैं इसलिये श्रावकों का कर्त्तव्य है कि इस ग्रंथ की प्रति अपने-2 घरों में अवश्य रखें। ग्रंथमाला समिति बहुत ही लगन व परिश्रम से कार्य करके निरन्तर ही महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन कार्य कर रही है। श्री शान्ति कुमारजी गंगवाल जो कि इस ग्रंथमाला के प्रकाशन संयोजक हैं, उनकी सेवाएं अत्यन्त प्रशंसनीय है। ग्रंथमाला समिति इसी प्रकार आगे भी महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन कार्य कर जिन-वाणी प्रचार प्रसार सेवा का कार्य करती रहे, इसके लिये गंगवालजी को व ग्रंथमाला के अन्य सभी सहयोगियों को हमारा बहुत-2 मंगलमय शुभाशीर्वाद है। P . आचार्य विमल सागर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पूज्य श्री 108 आचार्य आदिसागरजी महाराज [अंकलीकर] के तृतीय पट्टाधीश परमपूज्य सिद्धान्त चक्रवर्ती श्री 108 आचार्य सन्मति सागरजी महाराज का मंगलमय शुभाशीर्वाद बड़ी प्रसन्नता की बात है कि श्री दिगम्बर जैन कुंथु विजय ग्रंथमाला समिति, जयपुर (राजस्थान) से भद्रबाहु संहिता एवं सामुद्रिक शास्त्र करलखन का प्रकाशन हो रहा है। भद्रबाहु संहिता द्वादशांग में एक अपूर्व अंश है जिसमें अष्टांग निमित्त का बहुत उपयोगी विषय प्रतिपादित है। यह गृहस्थियों को ही नही अपितु निवृत्ति परक साधुओं के लिये भी उपयोगी है। परम पूज्य आचार्य महावीर कीर्तिजी महाराज भी इस ग्रंथ की उपयोगिता पर जोर देते थे, जिसका ज्ञान उन्होंने अपने परमाराध्य गुरुदेव परम पूज्य श्री 108 आचार्य चारित्र चक्रवर्ती मुनिकुंजर आदिसागर जी (अंकलीकर) से प्राप्त किया था। गणधराचार्य कुंथुसागरजी महाराज ने इस भद्रबाहु संहिता की क्षेमोदय रीका लिखकर समाज पर बहुत बड़ा उपकार किया है। इस ग्रंथ को पढ़कर भव्य आत्माएँ स्वात्मबोध को प्राप्त होगी। ग्रंथमाला के प्रकाशन संयोजक गुरु उपासक श्री शान्ति कुमार जी गंगवाल ने बहुत ही कठिन परिश्रम करके इस ग्रंथ का प्रकाशन करवाया है। अत: श्री गंगवालजी एवं ग्रंथमाला के सभी सहयोगी कार्यकर्ताओं को मेरा बहुत-2 मंगलमय शुभाशीर्वाद है। आचार्य सम्मति सागर Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ग्रंथ के टीकाकार एवं संग्रहकर्त्ता, भारत गौरव परमपूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुंथूसागरजी महाराज का मंगलमय शुभाशीर्वाद यह ग्रंथ श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली के द्वारा प्रतिपादित है, इस ग्रंथ में अष्टांग निमित्त ज्ञानों का वर्णन हैं, इस ग्रंथ का सर्वत्र प्रचार अच्छा है, जैन जेनेतर सभी निमिन्स इस ग्रंथ को सम्मान देते हैं. यह ग्रंथ आज कुछ वर्षो पूर्व हस्तलिखित रूप में शास्त्र भंडारों में था । इस ग्रंथ की नकल हमारे गुरुदेव समाधिसम्राट तीर्थ भक्तशिरोमणि आचार्य परमेष्ठि महावीर कीर्तिजी के पास भी थी, आरा शास्त्र भंडार में, पाटणादि शास्त्र भंडारों में थी। आचार्य श्री का प्रयत्न था कि यह ग्रंथ प्रकाश में आये। अतः डॉ. नेमीचंदजी आरावालों को उन्होंने कहा और अपनी प्रति भी उन को दे दी। उन्होंने इस ग्रंथ का संपादन किया, और प्रकाश में लाये। भारतीय ज्ञान पीठ से यह ग्रंथ छप गया है, मेरे भी हाथों में वह ज्ञान पीठ वाली प्रति है। मैने ग्रंथ का अच्छी तरह से अवलोकन किया । लेकिन मुझे लगा इस छपे हुए ग्रंथ में अनेक प्रकार की त्रुटियाँ हैं, श्लोकों का अर्थ भी ठीक नही हुआ है, दो चार साल से विचार करता रहा की इस ग्रंथ की एक नयी टीका तैयार कि जाय और चित्र सहित छपे ताकी ज्योतिषियों को फल बताने में कोई कमी नहीं रह जाय इत्यादि विचार पूर्वक हरियाणा प्रदेश की रेवाड़ी नगरी में शुभ मुहूर्त में टीका प्रारंभ की। करीब डेढ़ साल की अवधि में रात दिन प्रयत्न से यह टीका गुलाबी नगर जयपुर (राजस्थान) में पूर्ण हुई। इस ग्रंथ की टीका की अवधि में मानसिक व शारीरिक बहुत परीक्षाएँ हुई, संघ विघटनादि के कारण अशान्त वातावरण बना रहा, स्वास्थ्य भी बिगड़ गया, लेकिन सुबोध श्रावक वर्ग की वैयावृत्य आदि से परिस्थिति वापिस ठीक बनी और Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ की टीका निर्विघ्न समाप्त हुई, लेकिन स्वार्थी, कपटी शिष्यों के मायाजाल का शिकार बनना पड़ा, जिससे मानसिक एवं शरीरिक संताप उठाना पड़ा। संसार के स्वरूप साक्षात् मायाजाल प्रकट हुआ, मन अति तीव्र गति से और भी दृढ़ वैराग्य की और बढ़ा। द्वादशानुप्रेक्षा के चितवन से मन को शांति मिली। खैर... जो होना है वह सब कर्मानुसार ही होता है। ऐसी विषम परिस्थिति के होने पर भी इस ग्रथ की टीका का कार्य समाप्त हुआ यह एक आश्चर्यजनक बात है कि यह कार्य बड़ा ही परिश्रम साध्य कार्य था, तो भी पूरा हो गया। यही एक हर्ष की बात है। उत्थान पतन तो चलता ही रहता है। मैंने इस ग्रंथ की टीका का नाम क्षेमोदय टीका रखा है। आज दिन तक किसी भी ग्रंथ की टीका या संकलन का नाम मैंने अपने नाम से नहीं रखा, प्रत्येक टीका गुरुओं के नाम से या शिष्यों के नाम से की है, इसी कारण इस ग्रंथ की टीका का नाम भी मेरी प्रिय शिष्या आर्यिका क्षेम श्री के नाम से क्षेमोदय टीका रखा है। ग्रंथ की उपयोगिता निमित्तज्ञ को अच्छी रहेगी। नयी टीका की विशेषता यही रहेगी कि इसमें प्रत्येक के श्लोकानुसार चित्र भी हैं। चित्र देखते ही पाठकों को ग्रहों का ज्ञान, वर्णो का ज्ञान, सूर्य चन्द्र के ग्रहण का ज्ञान आदि सब बातों का ज्ञान अति सरलतापूर्वक हो जायगा। * इस ग्रंथ में प्रकाशित चित्रों को बनवाने वाले श्री बाबू लाल जी शर्मा ने बहुत परिश्रम किया है, उनको मेरा अशीर्वाद है। भारतीय ज्ञान पीठ से छपी हुई प्रति को ही शुद्ध समझ कर उसी का सहारा लिया है। कुछ उपयोगी प्रकरण था उसको वैसा का वैसा लिया है, सो उनका आभारी हूँ। डा. नेमीचन्दजी ज्योतिषाचार्य तो एक महान प्रतिभाशाली विद्वान थे। आज वह हमारे सामने नहीं है तो भी उनका नाम अमर है, आपने अपने जीवन में अनेक प्रकार का साहित्य सृजन कार्य किया, ज्योतिष ज्ञान भी आपका अच्छा था, आपकी टीका भद्रबाहु संहिता है, आपने केवल ज्ञान प्रश्न चूडामणि, भारतीय ज्ञान ज्योतिष आदि अनेक ग्रंथ लिखे व ग्रंथों की टीका की, मैंने उनकी भद्रबाहु संहिता की टीका में से पाठकों की आवश्यकतानुसार प्रकरण लिया है, उनका भी मैं आभारी हूँ। उपाध्याय मुनि श्री जयसागर जी एवं उपाध्याय मुनि श्री गुणधर नन्दी जी ने Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी इस कार्य में सहयोग किया है। अतः उनको मेरा शुभाशीर्वाद है। मेरे द्वारा लिखित सभी ग्रन्थ श्री दिगम्बर जैन कुंथु विजय ग्रन्धमाला समिति, जयपुर से ही प्रकाशित होकर साधुओं एवं समाज के हाथों में जाते हैं। इस ग्रन्थ माला के प्रमुख कर्मठ कार्यकर्ता प्रकाशन संयोजक श्री शान्ति कुमार जी गंगवाल । है। जो निस्पृहता से निःस्वार्थ सेवा करते हैं। उनके सुपुत्र श्री प्रदीप कुमार जी, संजय कुमार जी भी बहुत सेवारत रहते हैं। इन्हीं के विशेष सहयोग से ग्रन्थमाला से अब तक 18 ग्रंथों का प्रकाशन हो सका है, और सभी ग्रंथ एक से बढ़कर एक सुन्दर आकर्षक एवं आगम ज्ञान से परिपूर्ण हैं। गंगवाल जी बैंक में सेवारत हैं और यह बहुत ही प्रसन्नता व गौरव की बात है कि समयाभाव होते हुए भी सर्व कार्य छोड़कर इतना महान कार्य कर सके हैं अत: गंगवाल जी और इनके सभी परिवार को मेरा बहुत-बहुत मंगलमय शुभाशीर्वाद है। ग्रंथमाला के सभी सहयोगी कार्यकर्ताओं को भी मेरा शुभाशीर्वाद है। ग्रन्थ प्रकाशन खर्च में जिन-जिन दातारों ने सहयोग किया है। उनको भी मेरा शुभाशीर्वाद है। यह ग्रंथ अष्टांग निमित्त ज्ञान का है, जो भी इसका उपयोग करे वह इसका अच्छी तरह से पहले अध्ययन करे, कई बार पढ़े, गुरु से पढ़े, तब ही उसकी समझ में आ सकता है, ज्योतिष ज्ञान में जो रुचि रखने वाला हो। जो व्यक्ति आचार्य लिखित बातों पर श्रद्धा रखने वाला हो, उसी के लिये यह ग्रंथ उपयोगी है, वही अच्छी तरह निमित्त ज्ञानी बन सकता है। साधुओं के लिये भी यह ग्रंथ उपयोगी है क्योंकि निश्चय ज्ञान के लिये व्यवहार ज्ञान भी परम आवश्यक है। अगर भद्रबाहु स्वामी को व्यवहार निमित्त ज्ञान मालूम नहीं होता तो 12 हजार साधुओं को लेकर दुर्भिक्ष से बचाने के लिये दक्षिण भारत में क्यों जाते? वह तो श्रुत केवली थे, इसलिये साधुओं को इस ग्रंथ का ज्ञान अवश्य होना चाहिये। जिसको इसका ज्ञान है वही साधु देश, राष्ट्र, नगर, राजा, प्रजा का रक्षण करता हुआ अपने भी संयम का निर्दोश पालन कर सकता है। हमारे गुरुदेव आचार्य श्री 108 महावीर कीर्ति जी भी निमित्त ज्ञान के धारी थे जिनके जीवन में अनेक प्रकार की घटनाएं हैं और उन्होंने अपने Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तों से जाना और साधुओं को भी सावधान किया, और समाज को भी। वर्तमानकाल में उनके समान सर्वमुखी विद्वान तपस्वी दूसरा कोई नहीं था। अभी मौजूदा आचार्य विमल सागर जी महाराज भी निमित्त ज्ञानी है, जनता उनसे अच्छा लाभ उठा रही है, यह ग्रंथ व्यवहारोपयोगी अच्छा है, इस शास्त्र के ज्ञान से भूत भविष्यत, वर्तमानकाल में घटित व घटने वाली घटना का ज्ञान कर सकते हैं और स्वयं को बचाते हुए दूसरे को भी बचा सकते हैं। इस ग्रंथ की टीका मैंने अपने स्वयं के ज्ञानार्थ की है, हो सकता है छयस्तता के कारण अवश्य ही त्रुटियों रही होगी इसके लिये मेरे से विशेष ज्ञानीजन इसकी त्रुटियों को समझकर ठीक करें, और मुझे क्षमा करें। मैं कोई विशेष ज्ञानी नहीं हूँ। समय के सदुपयोग करने के लिये कागज पेन लेकर यह लेखन कार्य करता रहता हूँ। ग्रंथ की प्रस्तावना भी मैने ही लिख दी है। पाठक अवश्य लाभ उठावे। गणधराचार्य कुन्थुसागर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पूज्य श्री 108 उपाध्याय मुनि भरत सागर जी महाराज का मंगलमय शुभाशीर्वाद मुझे यह जानकर परम हर्ष है कि श्री दिगम्बर जैन कुंधु विजय ग्रंथमाला समिति, जयपुर (राजस्थान ) द्वारा भद्रबाहु संहिता एवं सामुद्रिक शास्त्र करलखन का प्रकाशन होने जा रहा है। भद्रबाहु संहिता ग्रंथ जैन दर्शन का एक निमित्त विषयक रहस्य ग्रंथ है। यह ग्रंथ आचार्य भद्रबाहु कृत है। वर्तमान में यह ग्रंथ अनुपलब्ध है। ग्रंथमाला समिति इस ग्रंथ का चित्र सहित प्रकाशन कर रही है जिससे सभी लोग विशेष रूप से लाभान्वित होंगे। ग्रंथमाला समिति के प्रकाशन संयोजक गुरु उपासक श्री शान्ति कुमारजी गंगवाल व सहयोगी सभी कार्यकर्त्ताओं को हमारा मंगलमय शुभाशीर्वाद है कि संस्था के माध्यम से आगे भी महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन कार्य करते रहे। उपाध्याय भरत सागर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पूज्या श्री 105 प्रथम गणिनी आर्यिका विदुषीरत्न सिद्धान्त विशारद, सम्यग्ज्ञान शिरोमणि, जिनधर्म प्रचारिका, ज्ञान चिंतामणि विजयमती माताजी का मंगलमय शुभाशीर्वाद श्री दि. जैन कुन्थु विजय ग्रन्थमाला समिति, जयपुर के प्रकाशक संयोजक श्री शान्ति कुमार जी गंगवाल द्वारा विदित हुआ कि समिति द्वारा गणधराचार्य श्री कुन्थुसागर जी महाराज द्वारा व्याख्यात वृहद् ग्रन्थ भद्रबाहु संहिता एवं सामुद्रिक शास्त्र करलखन प्रकाशित होने जा रहा है। ग्रंथ की विषय सामग्री का अवलोकन कर विशेष प्रसन्नता हुई। प्रत्येक प्राकृतिक घटना का तत्प्रतीक चित्र साथ में प्रकाशित होने से ग्रन्थ का आकर्षण और महत्त्व विशिष्ट होगा। सामान्य व्यक्ति भी चित्रावलोकन कर विषय भर हो जाये।।। यह ग्र-ध जन्मसमरग तक की मानव जीवन के रहस्यों का उद्घाटन करने वाला है। निःसन्देह श्री गणधराचार्य की सूझ-बूझ सर्वोपकारी सिद्ध हई है। इस ग्रन्थ में चित्रों का समावेश करने वाले चित्रकार विशेष आशीर्वाद के पात्र हैं। प्रकाशक संयोजक महोदय श्री शान्ति कुमार जी गंगवाल के साथ-साथ सभी कार्यकर्ताओं को हमारा पूर्ण आशीर्वाद है। आप इसी प्रकार आर्ष परम्परानुसार समीचीन साहित्य का प्रकाशन करते हुए पाठकों को लाभान्वित कर अपने ज्ञानावरणी कर्म का क्षयोपशम बढ़ाते रहे। ज्ञान आत्मा का निज स्वभाव है उसकी प्राप्ति का वर्तमान में स्वाध्याय सर्वश्रेष्ठ साधन है। अत: हमारा संस्था व संस्था के समस्त कार्यकर्ताओं को पूर्ण आशीर्वाद है। प्र. ग. 105 आ. विजयमती संघस्था :प. चा.च. आचार्य आदिसागरजी [अंकलीकर] के पट्टशिष्य प. पू.स.स. 108 आचार्य महावीर कीर्ति जी महाराज Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अनादिकाल से यह वीतराग धर्म ही सर्वश्रेष्ट धर्म है, इस वीतराग धर्म में काल परिर्वतन होता रहता है, भ्रमणशील संसार में जीवों का अनेक प्रकार से उत्थान पतन होता रहता है, कभी जीव मुखी तो कभी दुःखी, कर्मानुसार जीव चारों गतियों में भ्रमण करता है, शुभकर्मानुसार इन्द्रिय जनित सुख और अशुभकर्मानुसार दुःख प्राप्त करता है। इस काल में प्रथम इस क्षेत्र में उतम मध्यम जघन्य भोग भूमि थी, दश प्रकार के कल्प वृक्षों से प्राप्त भोगों व भोग पदार्थों को भोग भूमियाँ जीव प्राप्त करके सुख का अनुभव करते हो, प्रथमकाल में उत्तम भोग भूमि, द्वितीय काल में मध्यम भोग भूमि, तृतीय काल में जघन्य भोग भूमि थी। भोग भूमियों के जीवों की आयु क्रमश: 3 पल्य, 2 पल्य व । पल्य थी, तीसरे काल के अंत में कल्पवृक्षादि नष्ट होने लगे, भोग भूमियां जीवों को जब विचित्र बातें दिखाने लगी, तब उन भयभीत जीवों को संबोधन करने के लिये कुलकर, अर्थात् 14 मनु क्रमशः हुए और इन मनुओं ने भोग भूमियों के जीवों को संबोधन किया। अंतिम मनु नाभिराय हुए इन नाभिराय का विवाह मरुदेवी के साथ हुआ, ये अयोध्या के राजा थे, इनका विवाहादि संस्कार इन्द्र ने आकर किया। अयोध्या के राजा नाभिराय रानी मरुदेवी दोनों ही धर्मात्मा और सरल परिणामी थे, महारानी मरुदेवी के गर्भ में प्रथम तीर्थकर भगवान आदिनाथ आने वाले हैं, ऐसा समझकर इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने अयोध्या नगरी में रत्न वृष्टि की। प्रतिदिन करोड़ों रत्नों की वर्षा होती थी, स्वर्ग से च्युत होकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध जिसको है ऐसा महान पुण्यात्मादेव मरुदेवी के गर्भ में आया, क्रमश: नौ माह पूर्ण होने पर तीर्थंकर आदिनाथ भगवान का जन्म हुआ, चतुर्णिकाय के देवों सहित अपनी पट्टानी इन्द्राणि को साथ में लेकर ऐरावत हाथी पर बैठकर इन्द्र अयोध्या नगरी में आये, इन्द्र की आज्ञा से इन्द्राणि ने मरुदेवी माता के समीप में मायावी पुत्र को रख कर बालक आदिनाथ को उठाकर प्रसूति गृह से बाहर लाकर सौधर्म इन्द्र के हाथ में सौंपा, सौधर्म ने भी अपने सहस्त्र नयन बनाकर प्रभु के दर्शन किये, प्रभु को ऐरावत हाथी के ऊपर बैठा कर Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना सुमेरु पर्वत पर उत्सव के साथ ले गये वहाँ पांडुक शिलापर प्रभु को विराजमान कर क्षीर सागर के जल से अभिषेक किया। इन्द्राणि ने प्रभु के शरीर का प्रक्षालन कर सुगन्धी लेप लगाया और वस्त्राभूषण पहनाये, पुनः प्रभु को हाथी पर विराजमान कर उत्सव के साथ देवों के साथ इन्द्र ने माता मरुदेवी की गोद में सौंपा, इन्द्र ने तांडव नृत्य किया और अपने स्वर्ग को वापस गये। क्रमशः प्रभु आदिनाथजी बड़े होने लगे, अपने राज्य के योग्य समझकर राजा नाभिराय ने अपने पुत्र का राज्याभिषेक किया, महाराज आदिनाथ ने राज्य सिंहासन पर बैठकर प्रजाओं की समस्याओं का समाधान किया, असि, मसि, कृषि, सेवा शिल्प, वाणिज्य इन षट् कर्मों का उपदेश दिया, क्रमश: समय समाप्त होता गया, प्रभु भोगों में मस्त हुए, तीस लाख पूर्व वर्ष समाप्त हुए इन्द्र ने नीलांजना का नृत्य करवाकर आदिनाथ तीर्थकर को वैराग्य उत्पन्न कराया, लौकान्तिक देव आये, सम्बोधन किया, भगवान को पालकी में विराजमान करके दीक्षा के लिये बन को ले गये, वहाँ भगवान ने चार हजार राजाओं के साथ निर्ग्रन्थ दीक्षा ले ली, छह महीने का योग धारण कर भगवान कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हो गये, समय बीतने पर भगवान आहार के लिये निकले, छ: माह बीतने पर हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने भगवान को इक्षुरस का आहार दिया, भगवान वापिस वन को लौट गये, एक हजार वर्ष के बीतने पर भगवान को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। इस काल के प्रथम तीर्थकर आदिनाथ ने धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति चलाई, इन्द्र ने समवशरण की रचना की, बारह सभा में प्रतिदिन भव्य जीव आकर बैठे और दिव्य ध्वनि सुनकर मुनि धर्म और श्रावक धर्म स्वीकार करने लगे, भगवान ने द्वादशाङ्ग रूप वाणी का वर्णन किया, भव्यों को समझाया, सर्वत्र बिहार कर धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति चलाई लोगों को आत्म कल्याण के मार्ग पर लगाया, योग निरोध कर भगवान ध्यान के बल से शेष कर्मों का नाश कर अष्ट कर्मों से रहित होते हुए सिद्ध शिला पर जाकर अनन्तकाल तक विराजमान हो गये। जब आदिनाथ मोक्ष गये तब तीसरे काल के कुछ वर्ष और बाकी थे, अर्थात् तीसरे काल के अन्त में ही आदिनाथ भगवान मोक्ष चले गये। उसके बाद भरत क्षेत्र में क्रमश: अजितनाथ संभवनाथादि तेईस तीर्थंकर और हुए, अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी हैं, जिस बात को आदिनाथ ने कहा उसी बात को अजितनाथ से लेकर 23 तीर्थकरों ने कहा, दिव्य Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ध्वनि सब की एक समान थी। वही तत्त्व, वही ज्ञान, वही वस्तु, वही स्वरूप, उसी द्वादशांक ज्ञान का प्रतिपादन किया, कोई अन्तर नहीं था, भगवान महावीर वर्तमान चौबीसीयों में अंतिम तीर्थंकर थे, ये चौथैकाल के कुछ वर्ष बाकी रहे तब ही जन्म लेकर मोक्ष चले गये, अभी महावीर तीर्थकर का काल ही चल रहा है, भगवान महावीर ने 30 वर्ष की आयु में दीक्षा ग्रहण करली, बारह वर्ष घोर तपश्चरण किया, 42 वर्ष की आयु में आपको केवल ज्ञान प्राप्त हो गया। 30 वर्ष तक आप केवल ज्ञान लक्ष्मी से शोभित होकर सर्वत्र बिहार कर मुनि धर्म और श्रावक धर्म का उपदेश दिया। द्वादशांग वाणी का प्रचार किया। आप के समवशरण में प्रमुख गणधर गौतम स्वामी थे और प्रमुख श्रोता राजा श्रेणिक थे। भगवान महावीर बहत्तर वर्ष की आयु में अष्ट कर्मों से रहित होकर पावापुर से मोक्ष चले गये, उसी दिन सांयकाल में गौतम गणधर को केवल ज्ञान प्राह हुआ। मौतम गजधर स्वामी ने भी भगवान की कही हुई बात का ही भव्य जीवों को बारह वर्ष तक उपदेश दिया और वह भी मोक्ष चले गये, गौतम स्वामी को मोक्ष हुआ, उसी दिन सुधर्माचार्य को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ, भगवान सुधमाचार्य ने भी उसी द्वादशांश वाणी का उपदेश दिया ये भी बारह वर्ष तक उपदेश देकर मोक्ष चले गये, जिस दिन भगवान सुधर्माचार्य को मोक्ष हुआ, उसी दिन मुनिराज जम्बु स्वामी को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। जम्बु स्वामी ने भी अपनी दिव्य ध्वनि के द्वारा बारह वर्ष भव्यों को उपदेश दिया। जम्बु स्वामी के मोक्ष जाने के बाद केवल ज्ञान लक्ष्मी मुनियों में प्रकट होना समाप्त हो गई। जम्बु स्वामी के बाद कोई भी मुनि केवल ज्ञानी न ही हुआ, क्योंकि पंचमकाल प्रारंभ हो गया। भगवान महावीर के मोक्ष जाने के बाद 62 वर्ष में क्रमश: ये तीन केवली हुए, उनके बाद पांचभुत केवली हुए, पांचों ही श्रुतकेवली 100 वर्षों के अन्दर हुए इनमें अंतिम श्रुत केवली भद्रबाहु स्वामी थे, आप भी द्वादशांग को जानने वाले अष्टांग निमित्त ज्ञानी थे, अर्थात् भद्रबाहु स्वामी के जीवन में अनेक घटना घटी हैं जिसको आचार्यों ने भद्रबाहु चरित्र में लिखा है, इन्हीं भद्रबाहु श्रुतकेवली के द्वारा वर्णित यह भद्रबाहु संहिता है। ये भद्रबाहु बालपन से ही बड़े बुद्धिमानी थे, एक बार गोवर्द्धनाचार्य नगर की और पधार रहे थे, नगर के बाहर कुछ बालक खेल रहे थे, सहसा उन खेलते हुए बालकों से गोवर्द्धनाचार्य पूछ बैठे, बालकों नगर कितनी दूर है, उसी समय होनहार बालक भद्रबाहु बोल Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना पड़ा स्वामिन् आपको इतना भी मालूम नहीं की जहाँ बच्चे खेल रहे हो समझो ग्राम अति निकट में है। बालक के मुँह से उत्तर सुनते ही गोवर्द्धनाचार्य आश्चर्य चकित होकर बालक का मुंह देखने लगे और सोचने लगे उसके आंगोपांग को देखकर सामुद्रिक शास्त्रों के अनुसार सर्व सब सुलक्षणों से सहित यह परम पुरुष है। ऐसा जानने लगे, आचार्य गोवर्द्धन उन बच्चों को खेल देखने के लिये वहीं खड़े हो गये, वह सारे बच्चे गोटी एक पर एक चढ़ाने का खेल खेल रहे थे, सारे बच्चे प्रयत्नशील थे, कोई चार गोली चढ़ा पाये तो कोई छह आदि, किन्तु भद्रबाहु बालक ने देखते ही देखते बारह गोली एक पर एक करके चढ़ा दी यह देखकर गोवर्द्धनाचार्य ने अपने निमित्त से जान लिया कि अब मेरे बाद यह होनहार बालक ही वीतराग वाणी रूप द्वादशांग श्रुत को धारण कर सकेगा अर्थात् अन्तिम श्रुतकेवली यही होगा। भद्रबाहु बालक को गोवर्द्धनाचार्य ने अपने समीप बुलवाया, कहा, बालक तुम्हारा नाम क्या है? उत्तर मिला मेरा नाम भद्रबाहु है, तुम मुझे अपने घर लेकर चल सकते हो, उत्तर मिला हौं गुरुदेव, तो चलो कहकर गोवर्द्धनाचार्य उस बालक के पीछे चल दिये कुछ ही दूरी पर जाकर बालक ने अपने पिताजी को जोर से चिल्लाकर बुलाया, पिताजी-पिताजी अपने घर पर साधु महाराज आये हैं, पुत्र के शब्द को सुनकर भद्रबाहु के पिता घर से बाहर निकले, निर्ग्रन्थाचार्य को देखते ही वह विप्र गोवर्द्धनाचार्य के चरणों में नमस्कार करता हुआ गिर पड़ा, बड़ी प्रसन्नता व्यक्त की, अपनी पत्नी को उसने बुलाया, एक आसन पर गुरुदेव को विराजमान किया, दोनों ब्राह्मण व ब्राह्मणी अपने पुत्र भद्रबाहु सहित विनय से गुरु चरणों में नमस्कार करते हुए प्रार्थना करने लगे गुरुदेव, आपके दर्शन हम लोगों के घर पर हुए, बड़ा पुण्य का उदय है, गुरु हमारे सरीके लोगों के लिये आपके दर्शन किसी कारण को छोड़कर नहीं हो सकते, भगवान दया करने का क्या कारण, गोवर्द्धनाचार्य कहने लगे वत्स, तुमने ठीक ही कहा मैं तुम्हारे पास कारण लेकर ही आया हूँ। है! वत्स मैं तुम्हारे पास एक वस्तु मांगने आया हूँ, ब्राह्मण कहने लगा गुरुदेव अवश्य बताइये, आपको क्या चाहिये, मेरे पास आपके योग्य ऐसी क्या वस्तु है जो आपके समान महापुरुष इस गरीब के यहाँ माँगने के लिये स्वयं पधारें, आदेश दीजिए गुरुदेव, तब गोवर्द्धनाचार्य बालक भद्रबाहु की ओर संकेत करते हुए कहने लगे, हे वत्स यह तुम्हारा पुत्र बड़ा बुद्धिमान है, होनहार बालक है, इसका भविष्य बड़ा उज्ज्वल है, यह एक महापुरुष होगा यह एक तुम्हारे घर में रत्न है, इसी रत्न को चाहिये, मुझे दे दो, मैं इसको शिक्षा देकर योग्य बनाऊँगा, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता तब ब्राह्मण कहने लगा, गुरुदेव यह बालक आपका ही है, मेरा नहीं, अवश्य ले जाइये, मैं आपको समर्पण करता हूँ अहो मरा बड़ा पुण्योदय है, इतने में ही भद्रबाहु की माता अपने पति के मुख से ऐसी बात सुनकर थोड़ी सी घबराई और रोने लगी पुत्रव्यामोह से अनुधारा छोड़ने लगी, थोड़ी आना-कानी करने लगी, तब गोवर्द्धनाचार्य कहने लगे हे! माता मैं तेरा हृदय जानता हूँ तुझे दुःख हो रहा है, किन्तु तेरा पुत्र होनहार है इसको योग्य गुरु शिक्षा देने वाला होना ही चाहिये मैं तेरे पुत्र को पढ़ाऊँगा, योग्य बनाऊंगा बीच में ही बात काटती हुई कहने लगी गुरुदेव, बालक को किसी भी हालत में, मैं नहीं छोड़ सकती हूँ मैं क्या करूँगी इसके बिना, मेरा मन कैसे लगेगा, इस तरह से कहती हुई संतप्त होने लगी, सब स्वयं ब्राह्मण ने भी और गोवर्द्धनाचार्य ने भी उस को सांत्वना दी तब थोड़ी संतुष्ट होकर भद्रबाहु की माता कहने लगी महाराज एक ही शर्त पर मैं आपको सौंप सकती हूँ वह यह कि आप इसको दीक्षित नहीं करेंगे अर्थात् दीक्षा नहीं देगें, तब गोवर्द्धनाचार्य ने कहा माता यह मुझे मंजूर है मैं तुम्हारे बालक को पढ़ा-लिखाकर अवश्य ही एक बार तुम्हारे पास भेज दूंगा तुम चिन्ता नहीं करो, मुझे तुम्हारी बात मान्य है, तब बालक के माता पिता ने बालक भद्रबाहु को गुरु के चरणों में समर्पित कर दिया। गोवर्द्धनाचार्य उस बालक को अपने साथ लेकर पुन: संघ में आ गये, शुभ मुहुर्त में विद्याध्ययन प्रारंभ हुआ, योग्य गुरु के मिलने पर योग्य शिष्य ने शीघ्र ही सारी विद्या प्राप्त करली। अब भद्रबाह कुछ ही वर्षों में महापंडित विद्वान हो गये। न्याय तर्क. व्याकरण. आगम आदि समस्त ज्ञान प्राप्त कर लिये, अब भद्रबाहु पंडित के बराबर का कोई विद्वान नहीं रहा, उसके ज्ञान की चर्चा सर्वत्र होने लगी, मुनिसंघ में भी उसही की प्रशंसा होने लगी। कुमार भद्रबाहु ने प्रशंसनीय जिनवाणी का ज्ञान प्राप्त कर लिया, एक दिन कुमार भद्रबाहु संसार के स्वरूप पर विचार करके संसार की असारता का चितवन करने लगे, मन में दृढ़तापूर्वक विचार लाकर यह निश्चय कर लिया कि मुझे संसार में नहीं फंसना है, दीक्षा ही धारण करनी है, पूर्ण आगम ज्ञान की प्राप्ति उसको हो गई थी, आत्मा में विशुद्धि आ चुकी थी, कुमार भद्रबाहु गुरुदेव के पास पहुंचे, विनयपूर्वक गोवर्द्धनाचार्य के पास कहने लगे, गुरुदेव मैं संसार से विरक्त हूँ, मुझे दीक्षा दीजिये, बड़ी कृपा होगी, मैं कृत्य कृत्य हो जाऊँगा आदि। तब कुमार की बात को सुनकर गोवर्द्धनाचार्य ने कुमार भद्रबाहु से कहा शिष्य मैं तुम्हें अभी दीक्षा नहीं दूंगा, क्योंकि तुमको एक बार अपने घर माता पिता से जाकर मिलना चाहिये, उनकी आज्ञा प्राप्त Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना करना चाहिये, वत्स मैं तुम्हारी माता से वचनबद्ध है, तुम्हारी माँ ने मेरे से वचन लिया था कि मेरे पुत्र को दीक्षा नहीं देंगे तब ही उन्होंने मेरे साथ में शिक्षा प्राप्त करने के लिये तुमको भेजा था, सो अब तुम पूर्ण ज्ञान विज्ञान से सहित हो गये हो अपने नगर में जाओ, माता पिता की आज्ञा प्राप्त करो, आज्ञा मिलने पर वापिस आओ, मैं तुम्हें अवश्य दीक्षा दूंगा, तुम्हारी विद्यापूर्ण हो चुकी। गुरु की आज्ञा प्राप्त करके कुमार भद्रबाहु अपनी नगरी की ओर लौट गये, जाकर माता पिता से मिले, माता पिता को कुमार भद्रबाहु के घर पर वापिस आने पर अत्यंत हर्ष हुआ, दोनों ही आशीर्वाद देने लगे, कुमार ने राज्य सभा में जाकर अपना पांडित्य दिखाया, सारे विद्वान उस पं. भद्रबाहु के सामने नतमस्तक हुए राजा भी बहुत प्रभावी हुआ, राजा को बहुत हर्ष हुआ, कुमार भद्रबाहु का वस्त्राभूषणों व रत्नादिक देकर सम्मान किया। कुमार ने अपने माता-पिता से अपने स्वयं के दीक्षा लेने के विचार को कहा समझाया, उनको सन्तोषित करने की कोशिश की, माता पिता को उदास देखकर उनको संसार के स्वरूप का ज्ञान कराया, माता पिता ने देखा की पुत्र संसार से पूर्ण वैरागी हुआ है, संसार में नहीं फंसेगा, तब बड़ी कठिनाई से भद्रबाहु कुमार की दीक्षा के लिये आज्ञा दे, दोनों ने आशीष दिया, आज्ञा प्राप्त होते ही कुमार बड़ा प्रसन्न हुआ, शुभमुहुर्त में माता पिता से आज्ञा लेकर गोवर्द्धनाचार्य गुरुदेव के पास वापस आ गये, भक्ती पूर्वक नमस्कार किया, दीक्षा की प्रार्थना की और एक दिन शुभ मुहुर्त में कुमार भद्रबाहु ने दीक्षा ले ली, अब मुनि भद्रबाहु हो गये, मुनि भद्रबाहु ज्ञान ध्यान तप में लीन रहते हुए गुरु की सेवा करने लगे, गुरु ने भी शिष्य भद्रबाहु मुनि को अपना पूर्णश्रुत द्वादशात्र ज्ञान को पढ़ा दिया, अब मुनिराज भद्रबाहु श्रुतकेवली रूप में दिखने लगे, कुछ ही समय के बाद गोवर्द्धनाचार्य अपना आचार्य पद भद्रबाहु मुनिराज को देकर समाधिस्थ हो गये, उसके बाद संघ नायक पंचम श्रुतकेवली भद्रबाहु के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध हुए, आप अष्टाङ्ग निमित्त ज्ञान के धारक थे। अष्टाङ्ग निमित्त ज्ञानों में, अंतरिक्ष, भूगोल, ज्योतिष, मंत्र सामुद्रिक, शकुनादिक आते हैं। आप अपने संघका कुशलतापूर्वक पालन करते थे, आप के हाथ के नीचे चौबीस हजार साधु रहते थे, आप की आज्ञा पालन करते थे, बृहत्संघ के नायक होकर आप भगवान महावीर की वाणी का सर्वत्र प्रचार करते थे, जीवों को आत्म कल्याण के मार्ग पर लगाते थे, शिक्षा दीक्षा देते थे, संग्रह व निग्रह करने में आप पूर्ण कुशल शिल्पी थे, बिहार करते करते एक दिन आप अपने संघ सहित उज्जैनी नगरी के उद्यान में आकर ठहर गये, एक दिन आप आहार के लिये नगर की ओर Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता जा रहे थे तब एक द्वादशफणों वाला सर्प सामने फणों को ऊपर उठाकर खड़ा हो गया, इस शकुन को देखकर भद्रबाहु विचार करने लगे की यह सर्प बारहफणों वाला है, रास्ता रोक रहा है क्या कारण है? विचार करते हुए नगर की ओर बढ़ गये, नगर में प्रवेश करते ही एक घर में एक बच्चा पालने में झूल रहा था, वह बालक भद्रबाहु को लक्ष्य कर जोर से बोलने लगा कि जाओ जाओ यहाँ से जाओ, इस प्रकार पालने में झूलते हुए बालक के वचन सुनकर भद्रबाहु स्वामी आश्चर्य करने लगे, अपने निमित्त ज्ञान का उपयोग कर जान लिया कि अब इस प्रदेश में कोई उपद्रव होने वाला है, बिना आहार किये ही वापिस अंतराय समझकर आ गये, और समझ लिये कि अब उत्तर भारत में बारह वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ने वाला है क्योंकि बारह फणों वाला सर्प दिखा है उसका फल यही है, पालने में झूलता हुआ बालक संकेत दे रहा कि संयमीयों का संयम अब इस प्रदेश में पालन नहीं होगा, अन्यत्र चले जाओ। भद्रबाहु स्वामी ने चतुर्विध संघ को अपने समीप बुलाया, सारी घटना को कह सुनाया, शकुनों के फल को सुनाकर आदेश दिया कि अब इस प्रदेश को छोड़ कर दक्षिण भारत में सबको विहार करना है, इस प्रदेश में बारह वर्ष तक घोर अकाल पड़ेगा, साधुओं की चर्या यहाँ नहीं रह सकती है, न पल सकती है, इसलिये सभी साधुजनों को दक्षिण में चलना चाहिये, तब उज्जैन नगर के श्रावक धर्मात्मा भद्रबाहु स्वामी को हाथ जोड़कर विनय पूर्वक प्रार्थना करने लगे कि हे प्रभु हे भगवान हमारे पास आपकी दया से अटूट धन है, धान्य संग्रह भी बहुत है, बारह वर्ष क्या चौबीस वर्ष भी अकाल पड़े तो भी कोई कमी नहीं आने देंगे, सब व्यवस्था करेंगे, सब अच्छा होगा, आप दक्षिण पथ में नहीं जाइये, हम सब लोग अनाथ हो जायेंगे, हमें मार्ग कौन दिखायेगा, आप ऐसा नहीं करिये, उत्तर पथ मत छोड़ये हम सब व्यवस्था करने में समर्थ हैं हमारे पास कोई कमी नहीं है, इत्यादि अनेक प्रकार से विनय प्रार्थना करने पर भी भद्रबाहु स्वामी नहीं रुके तब उज्जैनी के श्रावकों ने बारह हजार साधुओं को भ्रम में डालकर रख लिया, इन बारह हजार साधुओं ने भद्रबाहु स्वामी की आज्ञा नहीं पाली और उज्जैनी के अन्दर ही रहने का विचार कर लिया, श्रावकों की बात में आ गये। इधर भद्रबाहु स्वामी बारह हजार साधुओं के संघ सहित होकर दक्षिण पथ के लिये शुभ मूहुर्त में बिहार कर गये, धीरे-धीरे नगरादिकों में बिहार करते हुये दक्षिण के नगरों में पहुँच गये उधर ही बारह वर्ष तक बिहार करने का विचार कर श्रावकों को उपदेश देते हुए बिहार करने लगे, इधर समय आने पर दुर्भिक्ष प्रारंभ हुआ, महान दुर्भिक्ष के कारण, लोगों का खाना Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानी समाप्त होने लगा, संग्रह किये हुए धान्यादि सब क्रमश: समाप्त हो गये, लोग दाना पानी के बिना भूखे मरने लगे, सर्वत्र हा हाकार मचा हुआ था, लोग भूख के कारण एक दूसरे को पेट फाड़कर उसके अन्दर का अन्न भी खाने लगे, बड़ी बिकट समस्या खड़ी हो गई, इस कारण उज्जैनी के अन्दर स्थित साधुओं की आहार चर्या में भी कठिनाई पड़ने लगी। चायें तरफ साधुओं को भूख भूख, मरे मरे, हा हा हु हु क्या करें, अरे मर गये रे ओ हमें खाना खिलाओ आदि के ही शब्द सुनाई देने लगे, बड़ा ही करुणा मई दृश्य उपस्थित हुआ, किन्तु साधुओं को तो श्रावक लोग धर्म के अनुसार आहारादि दे देते थे, एक दिन एक मुनिराज श्रावक के घर से आहार करके अपनी बस्ती की ओर वापिस लौट रहे थे, तब रास्ते पर बैठे हुए भूखे लोगों ने विचार किया कि हम तो भूखे हैं, और ये साधु पेट भरके भोजन खा कर आये हैं। तब एक भिखारी ने साधु को पकड़ लिया, और शस्त्र से उनका पेट फाड़ डाला और अन्दर से अन्न निकाल कर खा लिया। ऐसी का घर भित होते. परकों में वे साधुओं में हा-हाकार मच गया। लोग विचार करने लगे, अब क्या करें, कठिन समय आ गया, अब साधुओं की चर्या कैसे पालन होगी, श्रावक वर्गों ने विचार कर साधुओं से प्रार्थना की कि हे! देव, अब इस विषम दुर्भिक्षकाल में साधुओं की निर्दोष चर्या पालन होना कठिन है, अब आप लोग दिन में आहार के लिये श्रावकों के घर पर न आकर रात्री में ही आहार के लिये आकर भोजन हमारे घर से ले जाइये और दिन में उस भोजन को कर लीजिये, क्या करें, ऐसा ही समय है, फिर प्रायश्चितादिक से शुद्धि कर लेना। तब साधुओं ने श्रावकों की बात पर व कठिन दुर्भिक्षकाल पर विचार कर रात्रि में श्रावकों के घर से भोजन कर अपनी बस्ती में खाना स्वीकार कर लिया, कुछ समय ऐसा चला, एक दिन एक मुनि रात्रि में आहार के लिये श्रावकों के घर पर घूम रहे थे, तब एक गर्भवती श्राविका मुनि को रात्रि में भयंकर वेष देखकर घबराई और भय के मारे उस महिला का गर्भ पतन हो गया। वह बहुत डर गई और यह नयी समस्या और खड़ी हो गई, फिर श्रावकों ने आकर मुनियों से प्रार्थना की कि हे महाराज अब इस विकटतम काल में यह निर्ग्रन्थ वेष पालन नहीं हो सकता. आप अब एक लंगोटी लगाकर आहार लेने को जाया करो, साधुओं ने मंजूर कर लिया और लंगोटी लगाकर आहार के लिये रात्रि में घूमने लगे। अब उन साधुओं को कुत्ते परेशान करने लगे, तब उन साधुओं ने हाथ में एक डंडा लेना स्वीकार किया, और डंडा लेकर नगर में घूमने लगे, इत्यादि दुर्भिक्ष के कारण अनेक प्रकार के साधु चर्या में महादोष Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता उत्पन्न हो गये, अपनी चर्या से सब साधु भ्रष्ट हो गये। धीरे धीरे बारह वर्ष दुर्भिक्षकाल के समाप्त हो गये। उधर भद्रबाहु स्वामी बिहार करते हुए दक्षिण पथ में पहुँच गये, अन्तिम मुकुट बद्ध राजा चन्द्रगुप्त को दीक्षित कर अपने साथ में ले गये थे। भद्रबाहु स्वामी श्रवण बेलगोल नगर के निकट चन्द्रगिरि पर्वत पर पहुंचे, एक गुफा में प्रवेश करते समय निःसही निःसही शब्द का उच्चारण किया, तब वहाँ के देव यक्ष ने कहा अत्रैव तिष्ठः अत्रैव तिष्ठः, इस प्रकार देव के मुख से सुनकर निमित्त से जान लिया की मेरी आयु बहुत कम रह गई है। सर्व संघ को समीप बुलाकर आदेश दिया कि आप सब आगे बिहार करे मैं तो इसी पर्वत पर समाधिस्थ होऊँगा, आचार्य पद बिसर्जन के साथ समाधि धारण कर वहाँ ही स्थित हो गये, मुनिराज चंद्रगुप्त से भी साथ में जाने को कहा लेकिन विशेष गुरु भक्ती के कारण चन्द्रगुप्त मुनिराज भद्रबाहु स्वामी की सेवा करने को वहाँ ही रह गये, कुछ ही दिनों में भद्रबाहु स्वामी की समाधि हो गई, ये ही अन्तिम श्रुतकेवली थे, अब इनके बाद पूर्ण द्वादशाग श्रुतज्ञान को धारण करने वाला कोई नहीं रहा। श्रुतकेवली परम्परा भी समाप्त हो गई। चन्द्रगुप्त मुनिराज वहाँ ही गुरु चरणों की सेवा करके रहने लगे ये भी मुनिराज बड़े पुण्यात्मा थे, इनके पुण्य से प्रतिदिन देव लोग नगर बसा कर उनको आहार कराते थे। कछ समय के बाद अन्यत्र बिहार कर मुनि संघ वापिस लौट कर उस गिरि पर आया, देखा की चन्द्रगुप्त मुनिराज तपस्या में लीन है, बड़ी बड़ी जटा व दाड़ी बढ़ी हुई देखकर सब लोग ये समझे कि ये तपस्या से च्युत हो गये है, जंगल के फल फूल खाकर अपना निर्वाह करते होंगे, चंद्रगुप्त महाराज ने साधुओं को नमोऽस्तु किया तो साधुओं ने उनको प्रतिनमोऽस्तु नहीं किया, बिना आहार किये ही साधु संघ वापिस लौटने लगा, तब मुनिराज ने कहा, गुरुओं के बिना आहार किये यहाँ से विहार मत करिये तब साधुओं ने कहा यहाँ साधुओं को नगर के अभाव में आहार कहाँ से प्राप्त होगा, तब चन्द्रगुप्त मुनिराज ने कहा कि यहाँ से उत्तर की और एक सुन्दर नगरी है मैं वहाँ ही आहार के लिये जाता हूँ आप सब का भी वहाँ ही आहार हो जायेगा, चर्या का समय हुआ साधु आहार के लिये निकले सबका षड़गाहन हुआ, आहार हुआ और वापिस पर्वत पर आये, एक क्षुल्लकजी वहाँ ही कमण्डल भूल गये जब वापिस जाकर देखा तो, न वहाँ नगरी ही थी और न श्रावक वर्ग ही थे। कमण्डल एक पेड़ पर लटका हुआ देखा, कमण्डल लेकर वापिस आकर यह घटना साधुओं को सुनाई गई तब सभी साधु वर्ग आश्चर्य करने लगे और विचार करने लगे कि चन्द्रगुप्त मुनिराज के पुण्य से ही देव लोग Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रतिदिन नगरी बसाकर आहार कराते हैं, वहाँ बड़ा पुण्य है, सब साधुओं ने मुनिराज चन्द्रगुप्त का केश लोंच किया कुछ प्रायश्चित दे कर शुद्धि की, क्योंकि मुनिराज देव लोगों के हाथ का आहार नहीं कर सकते हैं, चन्द्रगुप्त मुनिराज वहाँ ही तपस्या कर समाधिस्थ हो गये, सर्व मुनि संघ उत्तरापथ की ओर वापिस लौटा, उज्जैनी नगरी के अन्दर रहने वाले साधुओं की चर्या बिगड़ चुकी थी, चारित्र से भ्रष्ट हो गये थे, देखकर मन में बड़ा दुःख करने लगे, जब उज्जैनी के साधु संघों में आगतनि ग्रंथ मुनिराज को वंदन किया तो साधुओं ने उनके प्रति वंदना नहीं की और कहा कि आप सबकी चर्या बिगड़ गई है, सब वापिस निर्ग्रन्ध दीक्षा धारण करो, निर्ग्रन्थ मार्ग ही सच्चा मोक्ष का मार्ग है, निर्ग्रन्थ हुए बिना जीव को मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। आदि सच्चा मार्ग का उपदेश दिया, बहुत साधुओं ने फिर जिन दीक्षा धारण करली, लेकिन कुछ हठ धर्मी प्रमादि चरित्र पालन करने में आलसियों ने वापस निर्ग्रन्थ दीक्षा नहीं लेकर जैसे के तैसे ही बने रहे और सवस्त्र मुक्ति मानने लगे, आगम ग्रंथों में भी फेरबदल करके श्वेताम्बर मत की स्थापना कर दी। ___भगवान महावीर के मोक्षोपरान्त २०० वर्ष के बाद जिन शासन में दो धाराएं हो गई, एक दिगम्बर, एक श्वेताम्बर यह घटना भद्रबाहु स्वामी के काल में हुई। भद्रबाहु स्वामी ही अन्तिम श्रुतकेवली थे। आप ही ने इस भद्रबाहु संहिता का प्रतिपादन किया था, आप अष्टाङ्ग निमित्त के ज्ञाता थे। यह ग्रंथ प्रथम वर्तमान में उपलब्ध सत्ताइस अध्याय में ही है, आगे की उपलब्धि काल दोष से नष्ट हो गई, इस ग्रंथ का प्रतिपादन तो अन्तिम श्रुतकेवली ने किया, सैंकड़ों वर्ष तक तो यह ग्रंथ मौखिक रूप में श्रुत परम्परा से चलता रहा, एक आचार्य ने दूसरे आचार्य से कहा परंपरा से एक दूसरे आचार्य ने एक दूसरे का प्रतिपादन किया। जब आगम ग्रंथों का लेखन कार्य ताड़पत्रों पर होने लगा, सर्वप्रथम. भूतबली. पुष्पदंत ने एवं नागहस्ति, आर्यमंक्षु आचार्यों ने प्रारंभ किया, उसी कड़ी में इस ग्रंथ का भी लेखन द्वितीय भद्रबाहु स्वामी ने श्रुतकेवली भद्रबाहु के द्वारा प्रतिपादित भद्रबाहु संहिता का उन की वाणी के अनुसार रचना कर संस्कृत श्लोकों में लिखा, यह ग्रंथ वहीं है। कुछ विद्वानों ने इस ग्रंथ को भद्रबाहु श्रुतकेवली का न मानकर किसी भट्टारक की कृति माना है, और एक मनमाना बेढंगा संकलन माना है लेकिन मेरी मान्यता ऐसी है कि जिसकी भी ऐसी मान्यता है वह गलत है, ना समझी का ही काम है, ऐसे एक महान ग्रंथ के प्रति ऐसा लिख देना अर्थात् उसको आचार्यों की कृतियों पर विश्वास नहीं, आचार्यों पर विश्वास नहीं, वर्तमान में विद्वान Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ऐसा ही कर रहे है, ग्रंथों के रचयिता आचार्यों पर ही लोगों का विश्वास खत्म कर दिया, अपनी छुटपुट बुद्धि के बल पर आचार्यों की कृतियों की परीक्षा करने लगे कहाँ तो आचार्यों की कृतियाँ और कहाँ इन रागी-द्वेषी कषायी क्षुद्र, ग्रहस्थ विद्वान । छोटी बुद्धि बड़ी बात वाली कहावत चरितार्थ कर रहे हैं, आचार्यों का हमेशा ऐसा आशय रहा है कि जैसा पात्र, और जिस बुद्धि का पात्र सामने रहता है, उसही के अनुसार सरल भाषा या कठिन भाषा का उपयोग करते हैं, विषय भी, शिष्य के अभिप्राय के अनुसार ही रहता है, शिष्य कौनसा विषय चाहता है, उसी के अनुसार दयालु आचार्यों ने वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन किया है शिष्य प्रौढ़ भाषा वाला है तो उसको सरल भाषा अटपटी लगेगी और शिष्य सरल भाषा और वस्तु स्वरूप को नहीं जानने वाला है तो उसको प्रौढ़ भाषा में समझाया गया वस्तु का स्वरूप समझ में ही नहीं आयेगा। दो हजार वर्ष पुराने आचार्यों के मन का अभिप्राय समझना बहुत कठिन काम है, दिव्य ज्ञान के बिना समझाना नहीं हो सकता, वर्तमान के गृहस्थ विद्वान छुटपुट चार पुस्तकों का ज्ञान कर अंशात्मक अध्ययन कर आचार्यों के अभिप्राय को समझना चाह रहे हैं, यही गलत हो रहा है, इन लोगों के मन मोहने लेख पढ़कर, लोगों की आस्था आगमा शो पर कम से मीर का मार्ग मंगों की भी कोई कीमत नहीं रही, न आचार्यों की वाणी पर श्रद्धा ही रही, कौन से आचार्यों ने कौन से समय में, कौन सा अभिप्राय लेकर कौनसे शिष्य के सामने कौन से वस्तु स्वरूप का कैसे प्रतिपादन किया यह समझाना बहुत ही कठिन कार्य है, स्यावाद अनेकान्त का पक्ष लेकर मुख्य गौण रूप में वस्त स्वरूप लिखा है. कौन से समय में कौनसा विषय मख्य करना या गौण कर इन सब बातों को उन दिव्य ज्ञानी महात्मा तपस्वियों ने ध्यान रखा वर्तमान में ऐसा नहीं हो रहा है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए परमपूज्य चारित्र चक्रवर्ती मुनिकुञ्जर आचार्य श्री आदिसागर जी (अंकलीकर) ने अपने पट्टाधीश आचार्य महावीर कीर्ति जी को इसका ज्ञान कराया था। अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी के सामने निर्ग्रन्थ शिष्य बैठे हुए हैं, और वे निर्ग्रन्थ शिष्य अष्टाङ्ग निमित्त ज्ञानों को समझना चाहते थे, इसलिये शिष्यों ने आचार्य श्री से प्रश्न किया उसका वर्णन इस प्रकार मिलता है। भद्रबाहु संहिता के प्रथम अध्याय में शिष्यों के प्रश्न भद्रबाहु स्वामी के सामने हुए थे, सो कहा है तस्मिन् शैले सुविख्यातौनामा पाण्डुगिरिः शुभः ||३|| पर्वतों में सुविख्यात पाण्डुगिरि नाम का शुभ पर्वत है, वह पर्वत नाना वृक्षों से सहित - - । - . Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना है, अनेक प्रकार के पक्षी शब्द कर रहे हैं, सभी प्रकार के पशु भी उस पर्वत पर विचरण कर रहे हैं और महान-महान तपस्वी साधु भी उस पर्वत पर अपनी आत्म साधना कर रहे थे। यथातत्रासीन माहात्मानं ज्ञानविज्ञानसागरम् । तपोयुक्तं च श्रेयांसं भद्रबाहुं निराश्रयम् ॥५|| द्वादशाङ्गस्य वत्तारे निनन्ध च महाद्युतिम् ।। वृत्तं शिष्यैः प्रशिष्यैश्च निपुणंतत्त्ववेदिनाम् ॥६॥ प्रणम्यशिरसाऽऽचार्यमूचुः शिष्यास्तदा गिरम् । सर्वेषु प्रीतमानसो दिव्यं ज्ञानं बुभुल्मषः ॥७॥ पर्वत पर महात्मा ज्ञान विज्ञान के सागर तप से युक्त, कल्याण के सागर, पराधीनता से रहित, द्वादशाङ्ग ज्ञान के वेत्ता, निर्ग्रन्थ महाकान्ति से युक्त, शिष्य और प्रशिष्य से युक्त और जो तत्त्वों के प्रतिपादन करने में निपुण ऐसे भद्रबाहु स्वामी को नमस्कार करके जो दिव्यज्ञान को जानने के इच्छुक थे ऐसे शिष्यों ने प्रश्न किये। पार्थिवानां हितार्थाय शिष्याणां हितकाम्यया । श्रावकाणां हितार्थाय दिव्यं ज्ञानं ब्रवीहि नः ॥८ हे स्वामिन राजाओं के हित व शिष्यों के हित व श्रावकों के हित के लिये हमें दिव्यज्ञान का उपदेश दीजिये। उपर्युक्त श्लोकों से यही सिद्ध होता है कि, यह ग्रंथ निश्चित ही भद्रबाहु स्वामी के मुख से ही शिष्यों को कहा गया। शिष्यों के प्रश्न करने पर ही अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी ने इस ग्रंथ को कहा। इस ग्रंथ का प्रथम अध्याय शिष्यों के प्रश्न रूप में गुरु देव भद्रबाहु की स्तुति करते हुए प्रश्न किये हैं। ग्रंथकर्ता की कीर्ति व नाम मंगलाचरण प्रशस्ति आदि से ही पता चल जाता है कि ग्रंथ के कर्ता कौन, कौन से समय में लिखा गया, किसके लिये लिखा गया है। इन सब बातों से अच्छी तरह से पता लग गया है कि ग्रंथ के प्रतिपादन करने वाले तो भद्रबाहु श्रुतकेवली हैं, हाँ यह अवश्य हो सकता है कि ग्रंथ के लिये बद्ध कालान्तर में किसी द्वितीय भद्रबाहु ने किया हो, हमको शंका का कोई स्थान ही नहीं है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A भद्रबाहु संहिता विषय आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने इस ग्रंथ में अष्टान निमित्तों का वर्णन किया है। शिष्यों के प्रश्नानुसार इस ग्रंथ के द्वितीय अध्याय में उत्तर रूप में कहा है। तत: प्रोवाच श्रमणोत्तमः । द्वादशांङ्गविशारदः ॥ १॥ भगवान् दिग्वासा; विन्यास यथावस्थासु तब भद्रबाहु स्वामी जो श्रमणों में उत्तम है, दिगम्बर हैं, द्वादशांग श्रुत के धारी हैं, वह आचार्य जैसा भगवान ने कहा उसी प्रकार शिष्यों को उत्तर देने लगे। प्रथमतः उन्होंने आठों निमित्तों के नाम बताये जो इस प्रकार है, व्यंजन, अंग, स्वर, भौम, छन्द, अन्तरिक्ष, लक्षण, स्वप्न व्यंजन - मनुष्य के औदारिक शरीर में तिल, मस्सा, भौइरी, लक्षण आदि देखकर शुभाशुभ को कहना व्यंजन निमित्त हैं, जो स्त्री के बायें शरीर में हो तो शुभ और पुरुष के दाहिनी ओर हो तो शुभ माना जाता है, इससे विपरीत हो तो अशुभ माना जाता है, ऐसा सिद्धान्त ग्रंथों में भी पाया जाता है, जब अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपणम हुआ तो उस जीव को उसके शरीर में नाभि के ऊपर ऐसे शुभ चिह्न प्रकट हो जाते हैं, और अगर मिघ्या दृष्टि है तो उसके नाभि के नीचे अंगों पर ऐसे चिह्न प्रकट हो जाते हैं, जिसको कुबद्धि कहा जाता है । इत्यादि शुभ या अशुभ लक्षण जीवों के पुण्य पापानुसार भी बनते या बिगड़ते रहते हैं। पुण्य कर्म का उदय आने पर नये नये चिह्न प्रकट हो जाते हैं, पापकर्म के उदय आने पर शरीर में रहने वाले शुभ चिह्न भी नष्ट हो जाते हैं, इसीलिए आचार्यों ने जीव को सर्वथा धर्म का (पुण्य का ) पालन करने की सतत् प्रेरणा दी है। तिरेषठशलाका महापुरुषों के शरीर में ये सारे के सारे शुभ लक्षण पाये जाते हैं। विशेष आगे के अध्यायों में आचार्य श्री ने वर्णन किया है अवश्य देखे और शुभाशुभको जाने । अंगनिमित्त :- मनुष्य या स्त्री के शरीर अवयवों को देखकर अर्थात् हाथ, पांव, मस्तक, ललाट, छाती, नासिका, कान, दांत, जीभ, होंठ, नाखून, आँखें आदि देखकर शुभाशुभ का ज्ञान करना इसको अंगनिमित्त कहते हैं । जैसे उदाहरण के लिये कहा है कि जिस व्यक्ति की जीभ इतनी लम्बी हो जो नाक तक का स्पर्श करले ऐसा व्यक्ति योगी मुमुक्षु ज्ञानी होता है इत्यादि । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना स्वरनिमित्त :- वेतन प्राणियों का वा अचेतन पदार्थों के अन्दर से होने वाले शब्द को सुनकर शुभाशुभ को जानना, स्वरनिमित्त है। इस निमित्त ज्ञान में काक, उल्लू, गीदड़, चिड़ियाँ, कुत्ता, बिल्ली आदि के शब्दों पर ही विशेष शुभाशुभ जाना जाता हैं जैसे काक प्रात:काल में पूर्वाभिमुख होकर बोले तो शुभ है, मित्र व स्वजन को लाभ होता है, वही काक मन्ध्याह में सूखे वृक्ष पर बैठकर कठोर शब्द करे तो समझो युद्ध लड़ाई, झगड़ा मृत्यु का सूचक होता है। जैसे गीदड़ दिन में ग्रामाभिमुखी होकर बोले तो समझो अनिष्ट होगा, कुत्ता रोने लगे तो व्यक्ति की मृत्यु होती है, इत्यादि स्वरों निमित्त ज्ञान किया जाता है। भीमनिमित्त :-भौम अर्थात् भूमि, भूमिका रंग रूप, रस, गंध वर्ण, चिकनी, रूक्ष आदि देखकर शुभाशुभ का ज्ञान करना भौम निमित्त ज्ञान हैं। जैसे, गृह, मंदिर जलाशय, बावड़ी, कुंआ को बनवाने में प्रथम भूमि शुभ हैं या अशुभ हैं देखकर बनवाना । यदि मंदिर निर्माण करना हो तो जिस जमीन पर मंदिर बनवाना हैं उसका शुभाशुभ देखे, प्रथम शुभ भूमि के लिये आचार्यों ने लिखा है कि जो भूमि हरी घास से युक्त हो हरी भरी हो वह भूमि शुभ है उस भूमि में एक हाथ गड्ढा खोदे फिर उस गड्ढे में उसी मिट्टी को भर दे, अगर मिट्टी का गड्ढ़ा भर जाने के बाद भी शेष बची रहे तो समझो वह भूमि उत्तम है, अगर गड्ढ़ा पूरा का पूरा भर जाय और मिट्टी नहीं बचे तो समझो वह भूमि मध्यम हैं, गड्ढ़ा भरने के बाद अगर वह गड्ढ़ा पूरा नहीं भरे खाली रह जाय तो समझो वह भूमि निकृष्ट है, निकृष्ट भूमि पर कभी भी मंदिरादि का निर्माण नहीं कराना चाहिये। ___ घर बनाने के लिये भूमि का वर्ण देखना चाहिये, काली रंग की भूमि लाल वर्ण की भूमि, सफेद वर्ण की भूमि पीले वर्ण की भूमि गृह निर्माण में शुभ मानी जाती है जिस मिट्टी में घी के समान गंध हो, रक्त के समान गंध हो अन्न व मध्य के समान गंध निकलती है, उस भूमि को आचार्यों ने शुभ माना है। दुर्गन्ध से युक्त अनिष्ट, अशुभ भूमि पर बनाया हुआ घर नाश का कारण बनता है, उस घर में उपद्रव ही होते हैं शान्ति नहीं रहती हैं। अनि के समान लाल वर्ण के भूमि पर घर बनाना अशुभ है इत्यादि। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # भद्रबाहु संहिता छिन्ननिमित्त : शस्त्र, आसन, वस्त्र, छत्रादि के अन्दर होने वाले छेदनादिक को देखकर शुभाशुभ कहना यह छित्र निमित्त है। आचार्यों ने वस्त्रादिक के नौ भाग किये हैं, वस्त्रादिक के चारों कोणों पर देवता का भाग माना है, पाशान्त मूल भाग के दो भागों में मनुष्य का भाग माना हैं और मध्य के तीन भागों में राक्षस का भाग माना है। नये वस्त्र जूता, छत्र, शस्त्र, वस्त्रादिक यदि कट जाय, फट जाय अग्रि लग जाय, गोबर लग जाय, स्याही लग जाय, कीचड़ लग जाय तो अशुभ फल होता है, पुराने बस्त्र यदि उपर्युक्त हो तो, कुछ कम अशुभ होता है। मनुष्य के भागों में यदि छेदादिक हो जाये तो वैभव प्राप्त होता है और पुत्र रत्न प्राप्त होता है। देवता के भाग में यदि छेदादिक हो जाय तो, धन, ऐश्वर्य भोगादिक की प्राप्ति होती है । राक्षस भाग में यदि नये वस्त्रादिक जल कर उसमें छेद हो जाय तो समझो शेंग या मृत्यु होगी। अगर तीनों ही राक्षस, देवता व मनुष्य के भागों में एक साथ छेदादिक हो जाये तो समझो महाअनिष्ट होगा । इत्यादि मूलग्रंथ के परिशिष्ट अध्यायों में देखे ! अंतरिक्ष निमित्त : ग्रहों व नक्षत्रों के उदयास्त को देखकर शुभाशुभ को जानना अंतरिक्ष निमित्त है। अंतरिक्ष निमित्तों में, सूर्य या चन्द्रमा के उदयास्त से शुभाशुभ नहीं लिया है किन्तु शुक्र, मंगल, गुरु और शनि इन पांच ग्रहों के उदयास्त होने पर शुभाशुभ होता है। कौन से नक्षत्र में कौन से ग्रह का उदय या अस्त हुआ यह निमित्त ज्ञानी देखता है फिर शुभाशुभ को कहता है, इसलिये निमित्त ज्ञानी को ग्रहों के उदयास्त की चाल को अवश्य ही जानना चाहिये, ग्रहों की चाल पहिचाने बिना भविष्य फल की जानकारी नहीं मिल सकती है। जैसे अश्विनी, रेवती, मगृशिरा, हस्त, पुष्य, पुनर्वसु, अनुराधा, श्रवण, नक्षत्रों में शुक्र का उदय, महाराष्ट्र गुजरात, सिन्धु, आसाम, बंगाल में महामारी व लड़ाई झगड़े आपस में होते हैं। इत्यादि । राशियों के अन्दर ग्रहों के उदयास्त का फल अलग-अलग होता है जैसे शनि का Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना उदय मेष राशि में हो तो जल वृष्टि अच्छी होती है, सुख, शान्ति, परस्पर प्रेम आदि सब शुभ ही शुभ लाभ होता है। ___ इस प्रकार महीनों के अनुसार भी ग्रहों के उदयास्त से शुभाशुभ होता है ज्येष्ठ में बुद्ध का उदय शुभ होता है इत्यादि दिशाओं के अनुसार ग्रहों के उदय अस्त से भी शुभाशुभ होता हैं। जैसे पश्चिम दिशा में बुध का उदय शुभ माना है। इस प्रकार ग्रहों के अस्त होने पर निमित्त ज्ञानी विचार करें। लक्षण निमित्त—मानव के अन्दर चक्र सिंहासन कलश स्वस्तिक, आदि को देखकर शुभाशुभ कहना लक्षण निमित्त हैं और इसीके अन्तर्गत हाथों व पांवों की रेखाएँ देखना है। आप मनुष्य के शरीर में व हाथ पावों के चिन्ह व रेखाएं देखकर शुभाशुभ का वर्णन कर सकते हैं। स्त्रियों के बायें हार्थों में रेखादि देखना, पुरुषों के दायें हार्थों में ये रेखादि देखना, शुभाशुभ लक्षण की अच्छी तरह से परीक्षा करनी चाहिये। फिर सामुद्रिक ज्ञान को जानने वाला फल कहे इन रेखाओं से, आयु ज्ञान, लक्ष्मी ज्ञान, हृदयज्ञान, मस्तिष्क ज्ञान, सन्तान ज्ञान, परिवार ज्ञान आदि जीवन के पूर्ण रूप से हानि लाभ हो सकता है, अंगुलियां उसके पोरू, नाखून आदि वह हथेली देखे, कौन रेखा कहाँ टूटी या पूर्ण हैं, सब देखें अंगुलियों के बीच का अन्तर देखे, हथेली कोमल है या कठोर है हार्थों में कौन कौन से शंख चक्रादि चिह्न हैं कहाँ पर हैं कौन ग्रहों का स्थान कहाँ पर, कौनसी रेखा कौन से ग्रह स्थान को पार कर रही हैं, हृदय कैसा हे वक्षस्थल कैसा है, भुजाएं कैसी हैं, नाभि कैसी हैं, उदर कैसा है, जंघाऐं कैसी हैं, पांव के तलुए कैसे हैं, पांव रूखे हैं या चिकने हैं पाँवों की दसों अंगुलियाँ देखें, छोटी या मोटी, लम्बी आदि देखें। यह सब देखकर निमित्तज्ञ शुभाशुभ फलों को कहे, इन सब का उल्लेख आगे परिशिष्ट अध्याय सामुद्रिक शास में वर्णन कर दिया है उसमें अच्छी तरह से देख लेवें, हथेलियों के अन्दर कुछ मुख्य रेखाएं होती हैं आयु रेखा, मस्तिष्क रेखा, हृदय रेखा, भाग्यरेखा, विवाह रेखा, सन्तान रेखा, मणिबंध रेखा, विद्या रेखादि होती है। यवमालादि भी विशेष फल दिखाती हैं। स्वप्न निमित्त—निरोग अवस्था में जीवों को जो स्वन आते हैं उनसे शुभाशुभ को जानना स्वप्न निमित्त हैं। स्वप्न निमित्तों में स्वप्न कैसा है, कौनसी तिथि में आया कौन से प्रहर में आया, इन सब बातों का ज्ञान रखते हुए स्वप्नों के शुभाशुभ फलों को जाने और फल Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता को कहे स्वप्नों से आगामी काल में आने वाले शुभ या अशुभ को भी जान सकते हैं, कृष्ण पक्ष या शुक्ल पक्ष तिथियों में आने वाले स्वप्नों से भी फलों में हीनाधिकता होती हैं। स्वप्न ज्ञानधिकार में बहुत अच्छा वर्णन आया है, वात पित्त कफादि के प्रकोपित होने पर जो स्वप्न आते हैं उसका फल नहीं होता है इतना विशेष समझो ? प्रश्न निमित्तज्ञान- इसका अर्थ है प्रश्न करके उत्तर शुभाशुभ रूप में जाना जाता है, इसके अन्दर गणित की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसमें धातु, मूल, जीव, नष्ट, भृष्ट, लाभ, हानि, रोग, शोक, मृत्यु, भोजन, शयन, जन्म, कर्म, शल्य नयन, सेनागमन, नदियों की बाढ़, अवृष्टि, अतिवृष्टि, फसल, जय, पराजय, लाभ अलाभ विद्यासिद्धि, विवाह, सन्तान लाभ यशः प्राप्ति आदि जीवन के अनेक आवश्यक प्रश्नों का उत्तर दिया गया है, इसमें त्रिकाल गोचर ज्ञान होता है। प्रश्न निमित्त का विचार तीन प्रकार से किया जाता है, प्रश्नोंत्तर सिद्धान्त, प्रश्नलम सिद्धान्त, स्वरविज्ञान सिद्धान्त, मनोविज्ञान ही प्रश्नाक्षर का सिद्धान्त है, मानव के मन में छिपी हुई अनेक प्रकार की भावनाओं का प्रश्न रूप में सही उत्तर आना यहीं इस प्रश्न निमित्त का कार्य है। (१) जैसे उदाहरण के तौर पर, प्रश्नकर्ता से किसी फल के नाम व कोई अंक संख्या पूछना चाहिये, फिर अंक संख्या को दो का गुणा कर फल और नाम के अक्षरों की संख्या जोड़ देने पर जो योग आवे, उसमें तेरह की संख्या जोड़ दें, नी का भाग देवे १ शेष बचे तो धनवृद्धि २ शेष बचे तो धनक्षय, ३ शेष बचे तो रोग का नाश, ४ शेष बचे तो व्याधि, ५ शेष बचे तो स्त्री लाभ, ६ शेष बचे तो बंधु का नाश, ७ शेष बचे तो कार्य सिद्धि, ८ शेष बचे तो मरण हो, ० शेष बचे तो राज्य प्राप्ति होती है। ( २ ) अगर प्रश्नकर्त्ता हंसते हुए प्रश्न करे तो कार्य सिद्धि समझो और मुँह बिगाड़ता हुआ उदासीन होकर प्रश्न करे तो कार्य का नाश होगा। (३) प्रश्नकर्त्ता से एक से लेकर एक सौ आठ के बीच की संख्या को पूछे वह भी किसी बीच की संख्या को पूछे तो पूछे गये अंक संख्या में बारह का भाग देवे, तब १/७/९/३/ शेष तो समझो देर से कार्य होगा ८/४/१० / ५ शेष बचे तो कार्य का नाश होगा, २ / ६ / ११ / ० शेष रहे तो शीघ्र कार्य सिद्ध होगा प्रश्नकर्त्ता से किसी फूल, पुष्प का नाम पूछे, बताये गये Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना पुष्प की स्वर संख्या को व्यंजन संख्या से गुणा कर दे, गुणनफल में प्रश्नकर्त्ता के नाम की संख्या को जोड़ दे, योगफल में ९ का भाग दे एक शेष रहे तो शीघ्र कार्य सिद्धि होगी २/५/०/ शेष बचे तो दर से कार्य सिद्धि होगी ४/७/८ / शेष बचे तो कार्य का नाश होगा नौ बचे तो कार्य तो होगा लेकिन धीरे-धीरे होगा ! (४) प्रश्नकर्त्ता के नाम के अक्षरों में दो का गुणा कर दे, गुणनफल में सात जोड़ दे, उस योग में ३ का भाग देवे, सम संख्या के शेष रहने पर कार्य का नाश होगा विषम संख्या के रहने पर कार्य सिद्धि होगी । इत्यादि प्रश्न निमित्त ज्ञानी को जानना चाहिये। स्वर विज्ञान भी इसमें ही आ जाता है चंद्रस्वर या सूर्य स्वर से ज्ञान प्राप्त करना है। कौन सा स्वर चल रहा है यह समझकर उसके अनुसार कार्य का शुभाशुभ कहना, स्वर विज्ञान हैं, अगर प्रश्नकर्ता जिस ओर बैठकर प्रश्न करे, उस समय उत्तर देने वालों का स्वर भी उसी की ओर चल रहा हो तो कार्य नहीं होगा, दोनों ही स्वर चल रहे हो तो कार्य देर से होगा, सामान्यतः ऐसा जाने विशेष स्वर विज्ञान को देखले । भद्रबाहु संहिता के रचयिता और उनका समय इस ग्रन्थ के रचयिता कौन है और इसकी रचना कब हुई हैं, यह अत्यन्त विचारणीय है। यह ग्रन्थ भद्रबाहु के नाम पर लिखा गया है, क्या सचमुच में द्वादशात्रवाणी के ज्ञाता श्रुतकेवली भद्रबाहु इसके रचयिता हैं या उनके नाम पर यह रचना किसी दूसरे के द्वारा लिखी गयी है। परम्परा से यह बात प्रसिद्ध चली आ रही है कि भगवान वीतरागी, सर्वज्ञ भाषित निमित्तानुसार श्रुतकेवली भद्रबाहु ने किसी निमित्तशास्त्र की रचना की थी; किन्तु आज वह निमित्तशास्त्र उपलब्ध नहीं है। श्रुतकेवली भद्रबाहु वी० नि० सं० १५५ में स्वर्गस्थ हुए, इनके ही शिष्य सम्राट् गुप्त थे। मगध में बारह वर्ष के पड़ने वाले दुष्काल को अपने निमित्तज्ञान से जानकर ये संघको दक्षिण भारत की ओर ले गये थे और वहीं इन्होंने समाधि ग्रहण की थी । अतः दिगम्बर जैन साधुओं की स्थिति बहुत समय तक दक्षिण भारत में रही। कुछ साधु उत्तर भारत में ही रह गये, समय दोष के कारण जब उनकी चर्या में बाधा आने लगी तो उन्होंने वस्त्र धारण कर लिये तथा अपने अनुकूल नियमों का भी निर्माण किया | दुष्काल के समाप्त होने पर जब मुनि संघ दक्षिण से बापस लौटा, तो उसने यहाँ रहनेवाले Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ¿ मुनियों की चर्या की भर्त्सना की तथा उन लोगों ने अपने आचरण के अनुकूल जिन ग्रन्थों की रचना की थी, उन्हें अमान्य घोषित किया। इसी समय से श्वेताम्बर सम्प्रदाय का विकास हुआ। वे शिथिलाचारी मुनि ही वस्त्र धारण करने के कारण श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रवर्तक हुए। भगवान महावीर के समय में जैन सम्प्रदाय एक था; किन्तु भद्रबाहु के अनन्तर यह सम्प्रदाय दो टुकड़ों में विभक्त हो गया । उक्त भद्रबाहु श्रुतकेवली को ही निमित्त शास्त्रका ज्ञाता माना जाता है, क्या यही श्रुतकेवली इस ग्रन्थ के रचयिता हैं ? इस ग्रन्थ को देखने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि भद्रबाहु स्वामी इसके रचयिता नहीं हैं। यद्यपि इस ग्रन्थ के आरम्भ में कहा गया है कि पाण्डुगिरि पर स्थित महात्मा, ज्ञान-विज्ञान के समुद्र, तपस्वी, कल्याणमूर्ति, रोग रहित, द्वादशान श्रुत के वेत्ता, निर्ग्रन्थ, महाकान्ति से विभूषित, शिष्य प्रशिष्यों से युक्त और तत्त्ववेदियों में निपुण आचार्य भद्रबाहु को सिर से नमस्कार कर निमित्त शास्त्र के उपदेश देने की प्रार्थना की। द्वादशाङ्ग तत्रासीन महात्मार्न तपोयुक्तं च श्रेयांसं भद्रबाहु बेसार नैर्मन्थे च वृतं शिष्यैः प्रशिष्यैश्च निपुणं शिरसाऽऽचार्यमूचुः शिष्यास्तदा प्रीतमनसो दिव्यज्ञानं प्रणम्य सर्वेषु तत: प्रोवाच यथावस्थासु भवद्भिर्यद्यहं समासव्यासत: प्रस्तावना भगवान् द्वितीय अध्याय के आरम्भ में बताया गया है कि शिष्यों के प्रश्न के पश्चात् भगवान भद्रबाहु कहने लगे विन्यासं पृष्टो सर्व दिग्वासाः निमित्तं ज्ञानविज्ञानसागरम् । निराश्रयम् ॥ तत्रिबोध महाद्युतिम् । तत्त्ववेदिनाम् ॥ गिरम् । बुभुत्सवः ॥ भ० सं० अ० १ श्लो० ५-७ श्रमणशोशत्तमः । द्वादशाङ्गविशारदः । जिनभाषितम् । यथाविधि ॥ इस कथन से यह अनुमान लगाया जा सकता है, कि इसकी रचना श्रुतकेवली भद्रबाहु की होगी। परन्तु ग्रन्थ के आगे के हिस्से को देखने से निराशा होती है। इस ग्रन्थ के अनेक स्थानों पर 'भद्रबाहु - वचो यथा' (अ० ३ श्लो० ६४; अ० ६ श्लो० १७ अ० ७ श्लो० १९० अ० ९ श्लो० Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २६; अ० १० श्लो० १६, ४५, ५३; अ० ११ श्लो० २६, ३०; अ० १२ श्लो० ३७, अ० १३ श्लो०७४, १००, १७८; अ० १४ श्लो० ५४, १३६; अ० १५ श्लो० ३७, ७३, १२८) लिखा मिलता है। इससे सहज में अनमान किया जा सकता है कि यह रचना भद्रबाह के वचनों के आध पर किसी अन्य विद्वान ने लिखी है। इस ग्रन्थ के पुष्पिका वाययों में भद्रबाहु के निमित्त 'भाबासहिताया, 'भद्रबानिमित्तशास्त्रे' लिखा मिलता है। ग्रन्थ की उत्थानिका में जो श्लोक आये हैं, उनसे निम्न प्रकाश पड़ता है (१) इस ग्रन्थ की रचना मगध देश के राजगृह नामक नगर के निकटवर्ती पाण्डुगिरि पर राजा सेनजित् के राज्य काल में हुई होगी। (२) यह ग्रन्थ सर्वज्ञ कथित वचनों के आधार पर भद्रबाहु स्वामी ने अपने दिव्य ज्ञान के बल से लिखा। (३) राजा, भिक्षु, श्रावक एवं जन-साधारण के कल्याण के लिए इस ग्रन्थ की रचना की गयी। (४) इस ग्रन्थ के रचयिता भद्रबाहु स्वामी दिगम्बर आम्नाय के अनुयायी थे। जिस प्रकार मनुस्मृति की रचना स्वयं मनु ने नहीं की है, बल्कि मनु के वचनों के आधार पर की गयी है, फिर भी वह मनु के नाम से प्रसिद्ध है तथा मनु के ही विचारों का प्रतिनिधित्व करती है। इस रचना में भी मनु के विचारों का कथन मिलता है। इसी प्रकार भद्रबाहु संहिता भद्रबाहु के वचनों का प्रतिनिधित्व करती है? ग्रन्थ की उन्थानिका में आये हुए सिद्धान्तों पर विचार करने से ज्ञात होता है कि उत्थानिका के कथन में ऐतिहासिक दृष्टि से विरोध आता है। भद्रबाहु स्वामी चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में हुए, जब कि मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में थी। सेनजित् या प्रसेनजित महाराज श्रेणिक या बिम्बसार के पिता थे। इनके समय में और चन्द्रगुप्त के समय में लगभग १५० वर्षों का अन्तराल है, अत: श्रुतकेवली भद्रबाहु तो इस ग्रन्थ के रचयिता नहीं हो सकते हैं। हाँ, उनके वचनों के अनुसार किसी अन्य विद्वान् ने इस ग्रन्थ की रचना की होगी। ___ "जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास" में देसाई ने इस ग्रन्थ के रचयिता वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु को माना है। जिस प्रकार वराहमिहिरने बृह संहिता या वाराही संहिता की रचना की, उसी प्रकार भद्रबाहु ने भद्रबाहु संहिता की रचना की होगी। वराहमिहिर और भद्रबाहु का सम्बन्ध राजशेखर कृत प्रबन्धकोप (चतुर्विशति प्रबन्ध) से भी सिद्ध होता है। यह अनुमान स्वाभाविक रूप से संभव Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना है कि प्रसिद्ध ज्योतिषी वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु भी ज्योतिर्ज्ञानी रहे होंगे। कहा जाता है कि वराहमिहिर के पिता भी अच्छे ज्योतिषी थे। बृहज्जातक में स्वयं वराहमिहिर ने बताया है कि कालपी नगर में सूर्य से वर प्राप्त कर अपने पिता आदित्यदास से ज्योतिष शास्त्र की शिक्षा प्राप्त की। इससे सिद्ध है कि इनके वंश में ज्योतिष शास्त्र के पठन-पाठन का प्रचार था और यह विद्या इनके बंशगत थी। अतः इनके भाई भद्रबाहु द्वारा रचित कोई ज्योतिष ग्रन्थ हो सकता है। पर यह सत्य है कि यह भद्रबाहु श्रुतकेवली भद्रबाहु से भिन्न हैं। इनका समय भी श्रुतकेवली भद्रबाहु से सैकड़ों वर्ष बाद है। श्री पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने ग्रन्ध परीक्षा द्वितीय भाग में इस ग्रन्थ के अनेक उद्धहरण उद्धृत कर तथा उन उद्धरणों की पारस्परिक असम्बद्धता दिखलाकर यह सिद्ध किया है कि यह ग्रन्थ भद्रबाहु श्रुतकेवली का बनाया हुआ न होकर इधर-उधर के प्रकरणों का बेदंगा संग्रह है। उन्होंने अपने वक्तव्य का निष्कर्ष निकालते हुए लिखा--"यह खण्डत्रयात्मक ग्रन्थ (भद्रबाहुसंहिता) भद्रबाहु श्रुतकेवली का बनाया हुआ नहीं है, न उनके किसी शिष्य प्रशिष्य का बनाया हुआ है और न विक्रम सं० १६५७ के पहले का बनाया हुआ है, बल्कि उक्त संवत् के पीछे का बनाया हुआ है।" मुख्तार साहब का अनुमान है कि ग्वालियर के भट्टारक धर्मभूषणजी की कृपा का यह एकमात्र फल है। उनका अभिमत है-"वही उस समय इस ग्रन्थ के सर्व सत्त्वाधिकारी थे। उन्होंने वामदेव सरीखे अपने किसी कृपापात्र या आत्मीयजन के द्वारा इसे तैयार कराया है अथवा उसकी सहायता से स्वयं तैयार किया है। तैयार हो जाने पर जब इसके दो-चार अध्याय किसी को पढ़ने के लिए दिये गये और वे किसी कारण वापिस न मिल सके तब वामदेवजी को फिर से दुबारा उनके लिए परिश्रम करना पड़ा। जिसके लिए प्रशस्तिका यह वाक्य 'यदि वामदेवजी फेर शुद्ध करि लिखी तय्यार करी' खासतौर से ध्यान देने योग्य है और इस बात को सूचित करता है कि उक्त अध्यायों को पहले भी वामदेवजी ने ही तैयार किया था। मालूम होता है कि लेखक ज्ञानभूषणजी धर्मभूषण भट्टारक के परिचित व्यक्तियों में से थे और आर्थय नहीं कि वे उनके शिष्यों में भी थे। उनके द्वारा खास तौर से यह प्रति लिखवाई गई है।" श्रद्धेय मुख्तार साहब के उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट है कि उनकी दृष्टि में यह ग्रन्ध १७वीं शताब्दी का है तथा इसके लेखक म्वालियर के भट्ठारक धर्मभूषण या उनके कोई शिष्य हैं। मुख्तार साहब अपने कथन की पुष्टि के लिए इस ग्रन्थ के जितने भी उद्धरण लिये हैं, वे सभी उद्धरण इस ग्रन्थ के प्रस्तुत २७ अध्यायों के बाहर के हैं। ३०वा अध्याय जो परिशिष्ट में दिया गया है, इससे उस अध्याय की रचना तिथि पर प्रकाश पड़ता है। इस अध्याय के आरम्भ में १०वें श्लोक में बताया गया है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता || पूर्वाचार्यथा प्रोक्तं दुर्गायेलादिभियंथा। गृहीत्वा तदभिप्राय तथारिष्टं पदाम्यहम् ।। ___ इस श्लोक में दुर्गाचार्य और एलाचार्य के कथन के अनुसार अरिष्टों के वर्णन की बात कही गयी है। दुर्गाचार्य का 'रिष्ट समुच्चय' नामक एक ग्रन्थ उपलब्ध है। इस ग्रन्थ की रचना लक्ष्मीनिवास राजा के राज्य में कुम्भ नगर नामक पहाड़ी नगर के शान्तिनाथ चैत्यालय में की गई है। इसका रचनाकाल २१ जुलाई शुक्रवार ईस्वी सन् १०३२ में माना गया है। इस ग्रन्थ में २६१ गाथायें हैं, जिनका भाव इस तीसवें अध्याय में ज्यों-का-त्यों दिया गया है। अन्तर इतना ही है कि रिष्टप्समुच्चय का कथन स्यास्थित, कपबद्ध और प्रभातक है, किन्तु इस अध्याय की निरूपणशैली शिथिल, अक्रमिक और अव्यवस्थित है। विषय दोनों का समान है। इस अध्याय के अन्त में कतिपय श्लोक वाराही संहिता के वस्त्रच्छेद नामक ७१ वें अध्याय से ज्यों-के-त्यों उद्धृत हैं। केवल श्लोकों के क्रम में व्यतिक्रम कर दिया गया है। अत: यह सत्य है कि भद्रबाहु संहिता के सभी प्रकरण एक साथ नहीं लिखे गये। समग्र भद्रबाहु संहिता में तीन खण्ड हैं। प्रथम खण्ड में दस अध्याय हैं, जिनके नाम हैं-चतुर्वर्ण नित्य क्रिया, क्षत्रिय नित्य कर्म, क्षत्रिय धर्म, कृति संग्रह, दण्डपारसव्य, स्तैन्यकर्म, स्त्रीसंग्रहण, दायभाग और प्रायश्चित्त। इन सों अध्याय के विषय मनु स्मृति आदि ग्रन्थों के आधार से लिखे गये हैं। कतिपय पद्य तो ज्यों के त्यों मिल जाते हैं और कतिपय कुछ परिवर्तन करके ले लिये गये हैं। यह समस्त खण्ड नकल किया गया सा मालूम होता है। दूसरे खण्ड को ज्योतिष और तीसरे को निमित्त कहा गया है। परन्तु इन दोनों अध्यायों के विषय आपस में इतने अधिक सम्बद्ध हैं कि उनका यह भेद उचित प्रतीत नहीं होता है। दूसरे खण्ड के २५ अध्याय, जिनमें उल्का, विद्युत, गन्धर्व नगर आदि निमित्तों का वर्णन किया गया है, निश्चयतः प्राचीन हैं। छब्बीसवें अध्याय में स्वप्नों का निरूपण किया गया है। इस अध्याय के आरम्भ में मंगलाचरण भी किया गया है। नमस्कृत्य ' महावीर सुरासुरजनै तम्। स्वप्नाच्यार्य प्रवक्ष्यामि शुभाशुभसमीरितम्॥ देव और दानवों के द्वारा नमस्कार किये गये भगवान् महावीर को नमस्कार कर शुभाशुभ से युक्त स्वप्नाध्याय का वर्णन करता हूँ। इससे ज्ञात होता है कि यह अध्याय पूर्व के २५ अध्यायों की रचना के बाद लिखा गया है Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना और इसका रचनाकाल पूर्व अध्याय के रचनाकाल के बाद का होगा। मुख्तार साहब ने तृतीय खण्ड के श्लोंकों की समता मुहूर्त चिन्तामणि, पाराशरी, नीलकण्ठी आदिशों में दिखजाई है और तिज किया है कि हम खण्ड का विषय नया नहीं है, संग्रहकर्ता ने उक्त ग्रन्थ से श्लोक लेकर तथा उन श्लोकों में जहाँ-तहाँ शुद्ध या अशुद्ध रूप में परिवर्तन करके अव्यवस्थित रूप में संकलन किया है। अत: मुख्तार साहब ने इस ग्रन्थ का रचनाकाल १७ वीं शताब्दी माना है। इस ग्रन्थ के रचनाकाल के सम्बन्ध में मुनि जिनविजयजीने सिंधी जैन ग्रन्थमाला से प्रकाशित भद्रबाहु संहिता के किञ्चित् प्रस्ताविक में लिखा है-"ते विषे म्हारो अभिप्राय जरा जुदो छे हुँ एने पैंदामी सदीनी पछीनी रचना नथी समजतो आछामाँ ओछी १२ मी सदी बेटली जूनी तो ए कृति छेज, ऐवा म्हारो साधार अभिमत थाय छे, म्हारा अनुमाननो आधार ए प्रमाणे छे-पाटगना बाडी पार्श्वनाथ भण्डारमाथी जे प्रति म्हने मली छे ते जिनभद्र सूरिना समयमां—एटलेके वि० सं० १४७५-८५ ना आसामा लखाएली छे, एम हुँ मार्नु , कारण के ए प्रतिमा आकार-प्रकार, लखाण, पत्रांक आदि बधा संकेतो जिनभद्रसूरिए ललेखाबेला सेकडो ग्रन्थ तो तद्दन मलता अनेतेज स्वरूपता छे, जेम म्हें 'विज्ञप्ति त्रिवेणि' नी म्हारी प्रस्तावनामा जणाव्युं छे तैम जिनभद्रसूरिए खंभात, पाटण, जैसलमेर आदि स्थानो मौं म्होटा ग्रन्थ-भण्डायें स्थापन कर्या हतां अने तेना, तेमणे नष्ट थतां जूनां एवां सेंकडो ताडपत्रीय पुस्तकोनी प्रतिलिपिओ कागल उपर उतरावी उतरावी ने नूतन पुस्तकोनो संगह को हतो, एक भडारमाथी मलेली भद्रबाहु संहितानी उक्त प्रति पण ऐज रीते कोई प्राचीन ताडपत्रनी प्रतिलिपि रूपे उतारेली छे, कारण के ए प्रतिमा ठेकठेकाणे एवी केटलीय पंक्तिओ दृष्टिगोचर धाय छे, जेमा लहियाए पोताने मलली आदर्श प्रतिमा उपलब्ध थता खंडित के त्रुटित शब्दों अने वाक्यो माटे, पाछलथी कोई तेनी पूर्ति करी शके ते सारे ..... आ जातनी अक्षरविहीन मात्र शिरोरेखाओ दोरी पुकेली छे, एनो अर्थ ए छे के ए प्रतिमा लहियाने जे ताडपत्रीय प्रति मलीहती ते विशेष जीर्ण थऐली होवी जोईए अने तेमां ते ते स्थलना लखाणना अक्षरो, ताडपत्रोनो किनारो खरी पडवाथी जता रहेला के भुंसाई गएला होवा जोइए-ए उपरथी एबुं अनुमान सहेजे करी शकाय के ते जूनी तडपत्रीय प्रति पण ठीक-ठीक अवस्थाए पहोंची गएली होवी जोईए, आ रीते जिनभद्रसूरिना समयमाँ जो ए प्रति ३००-४०० वर्षों जेटली जूनी होय–अने ते होवानो विशेष संभव छेज-तो सहेजे ते मूलं प्रति विक्रममना ११ मा १२ मा सैका जेटली जूनी होई शके। पाटण अने जेसलमेरना जूना भंडारोमा आवी जातनी जीर्ण-शीर्ण थएली ताडपत्रीय प्रतियो तेमज तेमना उपरथी उतारवामां आवेली कागलनी सेंकडो प्रतियो म्हारा जोवामा आवीछे।" Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता इस लम्बे कथन से आपने यह निष्कर्ष निकाला है कि भद्रबाहु संहिता का रचनाकाल ११-१२ शताब्दी से अर्वाचीन नहीं है। यह ग्रन्थ इससे प्राचीन हो होगा: भुना का अनुमान है के इस ग्रन्थ का प्रचार जैन साधुओं और गृहस्थों में अधिक रहा है, इसी कारण इसके पाठान्तर अधिक मिलते हैं। इसके रचयिता कोई प्राचीन जैनाचार्य हैं, जो भद्रबाहु से भिन्न हैं। मूलग्रन्थ प्राकृत भाषा में लिखा गया था, पर किसी कारण वश आज यह प्रन्थ उपलब्ध नहीं है। यत्र तत्र प्राप्त भौखिक या लिपिबद्ध रूप में प्राचीन गाथाओं को लेकर उनका संस्कृत रूपान्तर कर दिया गया है। जिन विषयों के प्राचीन उद्धरण नहीं मिल सके, उन्हें वाराही संहिता, मुहूर्त चिन्तामणि आदि ग्रन्थों से लेकर किसी भट्टारक या यति ने संकलित कर दिया। श्री मुख्तार साहब, मुनि श्री जिनविजयजी तथा श्री प्रो. अमृतलाल साबचंद गोपाणी आदि महानुभावों के कथनों पर विचार करने तथा उपलब्ध ग्रन्थ के अवलोकन से हमारा अपना मत यह है कि इस ग्रन्थ का विषय, रचनाशैली और वर्णनक्रम वाराही संहिता से प्राचीन हैं। उल्का प्रकरण में वाराही संहिता की अपेक्षा नवीनता है और यह नवीनता ही प्राचीनता का संकेत करती है। अत: इसका संकलन, कम से कम आरम्भ के २५ अध्यायों का, किसी व्यक्ति ने प्राचीन गाथाओं के आधार पर किया होगा। बहुत संभव है कि भद्रबाहु स्वामी की कोई रचना इस प्रकार की रही होगी, जिसका प्रतिपाद्य विषय निमित्तशास्त्र है। अतएव मनुस्मृति के समान भद्रबाहु संहिता का संकलन भी किसी भाषा तथा विषय की दृष्टि से अच्युत्पन्न व्यक्ति ने किया है। निमित्त शास्त्र के महा विद्वान् भद्रबाहु की मूल कृति आज उपलब्ध नहीं है, पर अके वचनों का कुछ सार अवश्य विद्यमान है। इस रचना का संकलन ८-९ वीं शती में अवश्य हुआ होगा। हो, यह सत्य है कि इस ग्रन्थ में प्रक्षिप्त अंश अधिक बढ़ते गये हैं। इनका प्रथम खण्ड भी पीछे से जोड़ा गया है तथा इसमें उत्तरोत्तर परिवर्द्धन और संवर्द्धन किया जाता रहा है। द्वितीय खण्ड का स्वप्नाध्याय भी अर्वाचीन है तथा इसमें २८, २९ और ३० वें अध्याय तो और भी अर्वाचीन हैं। अतएव यह स्वीकार करने में किसी भी प्रकार का संकोच नहीं है कि इस ग्रन्थ का प्रणयन एक समय पर नहीं हुआ है, विभिन्न समय पर विभिन्न विद्वानों ने इस ग्रन्थ के कलेवर को बढ़ाने की चेष्टा की है। “भद्रबाहुवचो यथा" का प्रयोग प्रमुख रूप से २५३ अध्याय तक ही मिलता है। इसके आगे इस वाक्य का प्रयोग बहुत कम हुआ है, इससे भी पता चलता है कि संभवतः १५ अध्याय प्राचीन भद्रबाहु संहिता के आधार पर लिखे गये होंगे। और आगे वाले अध्याय संहिता परम्परा में रखने के लिए या इसे वाराही संहिता के समान उपयोगी और ग्राह्य बनाने के लिए, इसका कलेवर बढ़ाया जाता रहा है। श्री मुख्तार साहब ने जो अनुमान लगाया है कि ग्वालियर के भट्टारक धर्मभूषण Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । प्रस्तावना । श्री कृष्ण का फल है तथा वामदेव ने या उनके अन्य किसी शिष्य ने यह ग्रन्थ बनाया है, वह पूर्णतया सही तो नहीं है। हाँ इस अनुमान में इतना अंश तथ्य है कि कुछ अध्याय उन लोगों की कृपा से जोड़े गये होंगे या परिवर्द्धित हुए होंगे। इस ग्रन्थ के १५ अध्याय तो निश्चयत: प्राचीन हैं और ये भद्रबाहु के वचनों के आधार पर ही लिखे गये हैं। शैली और क्रम २५ अध्यार्यों तक एक-सा है, अत: २५ अध्यायों को प्राचीन माना जा सकता है। भद्रबाहु संहिता का प्रचार जैन सम्प्रदाय में इतना अधिक था, जिससे यह श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से समाद्दत थी। इसकी प्रतियाँ पूना, पाटण, बम्बई, हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिर पाटण, जैन सिद्धान्त भवन आरा आदि विभित्र स्थानों पर पायी जाती हैं। पूना की प्रति में २६ वें अध्याय के अन्त में वि० सं० १५०४ लिखा हुआ है और समस्त उपलब्ध प्रतियों में यही प्रति प्राचीन है। अत: इस सत्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता है कि इसकी रचना वि०सं० १५०४ से पहले हो चुकी थी। श्री मुख्तार साहब का अनुमान इस लिपिकाल से खंडित हो जाता है और इन २६ अध्यायों की रचना ईस्वी सन् की पन्द्रहवीं शती के पहले हो चुकी थी। इस ग्रन्थ के अत्यधिक प्रचार का एक सबल प्रमाण यह भी है कि इसके पाठान्तर इतने अधिक मिलते हैं, जिससे इसके निश्चित स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। जैन सिद्धान्त भवन आरा की दोनों प्रतियों में भी पर्याप्त पाठभेद मिलता है। अत: इस ग्रन्थ को सर्वथा भ्रष्ट या कल्पित मानना अनुचित होगा। इसका प्रचार इतना अधिक रहा है, जिससे रामायण और महाभारत के समान इसमें प्रक्षिप्त अंशों की भी बहुलता है। इन्हीं प्रक्षिप्त अंशों ने इस ग्रन्थ की मौलिकता को तिरोहित कर दिया है। अत: यह भद्रबाह के वचनों के अनसार उनके किसी शिष्य या प्रशिष्य अथवा परम्परा के किसी अन्य दिगम्बर विद्वान् द्वारा लिखा गया ग्रन्थ है। इसके आरम्भ के २५ अध्याय और विशेषतः १५ अध्याय पर्याप्त प्राचीन हैं। यह भी सम्भव है कि इनकी रचना वराहमिहिर के पहले भी हुई हो। भाषा की दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त सरल है। व्याकरण सम्मत भाषा के प्रयोगों की अवहेलना की गई है। छन्दोभंग तो लगभग ३०० श्लोकों में है। प्रत्येक अध्याय में कुछ पद्य ऐसे अवश्य हैं जिनमें छन्दोभंग दोष है। व्याकरण दोष लगभग १२५ पद्यों में विद्यमान है। इन दोषों का प्रधान कारण यह है कि ज्योतिष वैद्यक विषय के ग्रन्थों में प्राय: भाषा सम्बन्धी शिथिलता रह जाती है। वाराही संहिता जैसे श्रेष्ठ ग्रन्थ में व्याकरण और छन्द दोष हैं, पर भद्रबाहु संहिता की अपेक्षा कम। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ग्रंथ के अन्दर निमित्तों का अध्यायानुसार विचार (१) इस भद्रबाहु संहिता में भद्रबाहु स्वामी ने क्रमशः अनेक प्रकार के निमित्तों का वर्णन करने की प्रतिज्ञा की है लेकिन सभी वर्णन इस ग्रंथ में नहीं मिलते या तो आगे का विषय नष्ट हो गया, अभी यह ग्रंथ २७ अध्यार्यो में ही मिलता है, मूहुर्त तक ही प्राप्त होता है, आगे का विषय नहीं। ग्रंथकर्ता ने तो पांच खण्डों में बारह हजार श्लोकों में इस ग्रंथ के रचना की प्रतिज्ञा की है, लेकिन इतना विषय इस वर्तमान में उपलब्ध भद्रबाहु संहिता में नहीं है, अवशेष विषय कहाँ गया कुछ पता नहीं या तो किसी शास्त्र भंडारों में पड़ा-पड़ा संग्रहालय की शोभा बढ़ा रहा होगा, या कालानुसार नष्ट हो गया। प्रथम अध्याय में उल्का, परिवेष, विद्युत, अभ्र, सन्ध्या, मेघ, वात, प्रवर्षण, गन्र्धव नगर, गर्भलक्षण, यात्रा, उत्पात, ग्रहाचार, ग्रहयुद्ध स्वप्न, मुहर्त, तिथि, करण, शकुन, पाक ज्योतिष, वास्तु, इन्द्र संपदा, लक्षण, व्यंजन, चिह्न, लग्न, विद्या, आदि का वर्णन हैं, किन्तु लब्ध विषय मुहुर्त तक ही है। ग्रंथ के प्रथम अध्याय में भद्रबाहु स्वामी ने इष्टदेव को नमस्कार किया, स्थान का वर्णन, शिष्यों के प्रश्न, श्रावक और मुनि दोनों के लिये ही निमित्तों की आवश्यकता, मुनियों के लिये तो आहार व्यवहार और बिहार के लिये जानना परम आवश्यक है क्योंकि चतुर्विध संघ को चलाना होता है, अकाल के स्थानों से बचाकर निरूपद्रव स्थानों में चतुर्विध संघ को रखकर धर्म का पालन करना पड़ता है, नहीं तो धर्मात्माओं के नष्ट होने की बारी आ जायेगी, इन शुभाशुभ निमित्तों को जानकर मुनि लोग ऐस ही क्षेत्रों में विहार करे, इत्यादि वर्णन प्रथम अध्याय में हैं। (२) दूसरे अध्याय में आचार्य श्री श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी ने शिष्यों के उनके प्रश्नानुसार निमित्त ज्ञानों को उत्तर रूप में समझाना, प्रथमतः उल्काओं का वर्णन किया है, प्रकृति विरूद्ध दिखने पर जो विरूप दिखता है उससे ही शुभाशुभ जाना जाता है। ताराओं के टूटने पर जो एक प्रकार का प्रकाश गिरता हुआ दिखे उसीको ही उल्का कहा है, मूलत: उल्का के आचार्य श्री ने पांच भेद कर दिये हैं, धिष्ण्या, उल्का, अशनि, विद्युत् और तारा। उल्का का फल १५ दिन में मिलता है, धिष्ण्या और अशनिका ४५ दिनों में एवं तारा और विद्युत का छ: दिनों में प्राप्त होता है। तारा का जितना प्रमाण है, उससे लम्बाई में दूना धिष्ण्या का है। विद्युत् नामावाली उल्का बड़ी कुटिल टेढ़ी मेढ़ी और शीघ्रगामिनी होती है। अशनि नाम की Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : प्रस्तावना उल्का चक्राकार होती है, पौरुषी नाम की उल्का स्वाभावतः लम्बी होती है तथा गिरते समय बढ़ती जाती है। ध्वज, मत्स्य, हाथी, पर्वत, कमल, चन्द्रमा, अश्व, तप्तरज और हंस के समान दिखाई पड़ने वाली उल्का शुभ मानी जाती है। श्रीवत्स, वज्र, शंख और स्वस्तिक रूप प्रकाशित होने वाली उल्का कल्याणकारी और सुभिक्षदायक है जिन उल्काओं के सिर का भाग मकर के समान और पूँछ के मान में उत्काएँ अनिष्ट सूचक तथा संसार के लिए भयप्रद होती हैं। इस अध्याय में संक्षेप में उल्काओं की बनावट, रूप-रंग आदि के आधार पर फलादेश का वर्णन किया है। तृतीय अध्याय में—६९ श्लोक हैं, इसमें विस्तारपूर्वक उल्कापात का फलादेश बताया गया है । ७ से ११ श्लोकों में उल्काओं के आकार-प्रकार का विवेचन है। १६ वें श्लोक से १८ श्लोक तक वर्ण के अनुसार उल्का का फलादेश वर्णित है। बताया गया है कि अग्नि की प्रभावाली उल्का अग्निमय, मंजिष्ठ के समान रंगवाली उल्का व्याधि और कृष्णवर्ण की उल्का दुर्भिक्ष की सूचना देती है । १९ वें श्लोक से २९ वें श्लोक तक दिशा के अनुसार उल्का का फलादेश बतलाया गया है अवशेष श्लोकों में विभिन्न दृष्टिकोण से उल्का का फलादेश वर्णित है। सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, जय, पराजय, हानि, लाभ, जीवन, मरण, सुख, दुःख आदि बातों की जानकारी उल्का निमित्त से की जा सकती है। पापरूप उल्काएँ और पुण्यरूप उल्काएँ अपने-अपने स्वभावगुणानुसार इष्टानिष्ट की सूचना देती हैं। उल्काओं की विशेष पहचान भी इस अध्याय में बतलाई गयी है। चौथे अध्याय में परिवेष का वर्णन किया गया है। परिवेष दो प्रकार के होते हैं--प्रशस्त और अप्रशस्त । इस अध्याय ३९ श्लोक हैं। आरम्भिक श्लोकों में परिवेष होने के कारण, परिवेष का स्वरूप और आकृति का वर्णन है। वर्षा ऋतु में सूर्य या चन्द्रमा के चारों ओर एक गोलाकार अथवा अन्य किसी आकार में एक मण्डल सा बनता है, यही परिवेष कहलाता है। चाँदी या कबूतर के रंग के समान आभा वाला चन्द्रमा का परिवेष हो तो जल की वर्षा, इन्द्रधनुष के समान वर्ण बाला परिवेष हो तो संग्राम या विग्रह की सूचना, काले और नीले वर्ण का चक्र परिवेष हो तो वर्षा की सूचना, पीत वर्ण का परिवेष हो तो व्याधि की सूचना एवं भस्म के समान आकृति और रंग का चन्द्र परिवेष हो तो किसी महाभय की सूचना समझनी चाहिए। उदयकालीन चन्द्रमा के चारों ओर सुन्दर परिवेष हो तो वर्षा तथा उदयकाल में चन्द्रमा के चारों ओर रूक्ष और श्वेत वर्ण का परिवेष हो तो चोरों के उपद्रव की सूचना देता है। सूर्य का परिवेष साधारणतः अशुभ होता है और आधि-व्याधि को सूचित करता है। जो परिवेष नीलकंठ, मोर, रजत, दुग्ध और जल की आभा वाला हो, स्वकालसम्भूत हो, जिसका वृत्त खण्डित न हो और स्निग्ध हो, वह सुभिक्ष और मंगल करने वाला होता है। जो परिवेष समस्त आकाश में गमन करे, अनेक प्रकार की आभा वाला हो, रुधिर Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता के समान लाल हो, रूखा और खण्डित हो तथा धनुष्ट और भंगाटक के समान हो तो वह पापकारी भयप्रद और रोग सूचक होता है। चन्द्रमा परिवेष से प्रायः वर्षा आताप का विचार किया जाता है और सूर्य के परिवेष से महत्त्वपूर्ण घटित होने वाली घटनाएं सूचित होती हैं। पाँचवें अध्याय में विद्युत् का वर्णन किया है। इस अध्याय में २५ श्लोक हैं। आरम्भ में सौदामिनी और बिजली के स्वरूपों का कथन किया गया है। बिजली-निमित्तों का प्रधान उद्देश्य वर्षा के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना है। यह निमित्त फसल के भविष्य को अवगत करने के लिए भी उपयोगी है। बताया गया है कि जब आकाश में घने बादल छाये हों, उस समय पूर्व दिशा में बिजली कड़के और इसका रंग श्वेत या पीत हो तो निश्चयतः वर्षा होती है और यह फल दूसरे ही [ प्राप्त होता है। ऋतु, दिशा, मास और दिन या रात में बिजली के चमकाने का फलादेश इस अध्याय में बताया गया है। विद्युत् के रूप, और मार्ग का विवेचन भी इस अध्याय में है तथा इसी विवेचन के आधार पर फलादेश का वर्णन किया गया है। छठवें अध्याय में अभ्रलक्षण—का निरूपण है। इसमें ३१ श्लोक हैं, आरम्भ में मेंघों के स्वरूप का कथन है। इस अध्याय का प्रधान उद्देश्य भी वर्षा के सम्बन्ध में जानकारी उपस्थित करना है। आकाश में विभिन्न आकृति और विभिन्न वर्गों के मेघ छाये रहते हैं। तिथि, मास, ऋतु के अनुसार विभिन्न आकृति के मेघों का फलादेश बतलाया गया है। वर्षा की सूचना के अलावा मेघ अपनी आकृति और वर्ण के अनुसार राजा के जय, पराजय, युद्ध, सन्धि, विग्रह आदि की भी सूचना देते हैं। इस अध्याय में मेघों की चाल-ढाल का वर्णन है, इससे भविष्यत् काल की अनेक बातों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। मेघों की गर्जन-तर्जन ध्वनि के परिज्ञान से अनेक प्रकार की बातों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। सातवा अध्याय सन्ध्या लक्षण है। इसमें २६ श्लोक हैं। इस अध्याय में प्रात: और सायं सन्ध्या लक्षण विशेष रूप से बतलाया गया है तथा इन सन्ध्याओं का रूप आकृति और समय के अनुसार फलादेश बतलाया गया है। प्रतिदिन सूर्य के अस्ति हो जाने के समय से जब तक आकाश में नक्षत्र भली-भाँति दिखलाई न दें तब तक सन्ध्याकाल रहता है; इसी प्रकार अोदित सूर्य से पहले तारा दर्शन तक उदय सन्ध्याकाल माना जाता है। सूर्योदय के समय की सन्ध्या यदि श्वेतवर्ण की हो और वह उत्तर दिशा में स्थित हो तो ब्राह्मणों को भय देने वाली होती है। सूर्योदय के समय लालवर्ण की सन्ध्या क्षत्रियों को, पीतवर्ण की सन्ध्या वैश्यों को और कृष्ण वर्ण की सन्ध्या शूद्रों को जय देती है। सन्ध्या का फल दिशाओं के अनुसार भी कहा गया है। अस्तकाल की सन्ध्या की अपेक्षा उदयकाल Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना की सन्ध्या अधिक महत्त्व रखती है। उदयकाल नाना प्रकार की भावी घटनाओं की सूचना देता है। प्रस्तुत अध्याय में उदयकालीन सन्ध्या का विस्तृत फलादेश बतलाया गया है। सन्ध्या के स्पर्श और रंग को पहचानने के लिए कुछ दिन अभ्यास आवश्यक है। आठवें अध्याय में मेघों का लक्षण बतलाया गया है। इसमें २७ श्लोक हैं। इस अध्याय में मेघों की आकृति, उनका काल, वर्ण, दिशा एवं गर्जन-ध्वनि के अनुसार फलादेश का वर्णन है। बताया गया है कि शरद् ऋतु के मेघों से अनेक प्रकार के शुभाशुभ फल की सूचना, ग्रीष्मऋतु के मेघों से वर्षा की सूचना एवं वर्षा ऋतु के मेधों से केवल वर्षा की सूचना मिलती है। मेघों की गर्जना को मेघों की भाषा कहा गया है। मेघों की भाषा से वैयक्तिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन की अनेक महत्त्वपूर्ण बातें ज्ञात की जा सकती हैं। पशु, पक्षी और मनुष्यों की बोली के समान मेघों की भाषा-गर्जना भी अनेक प्रकार की होती है। जब मेघ सिंह के समान गर्जना करें तो राष्ट्र में विप्लव, मृग के समान गर्जना करें तो शस्त्रवृद्धि एवं हाथी के समान गर्जना करें तो राष्ट्र के सम्मान की वृद्धि होती है। जनता में भय का संचार, राष्ट्र की आर्थिक क्षति एवं राष्ट्र में नाना प्रकार की धयाँ उस समय उत्पन्न होती हैं. जब मेघ बिल्ली के समान गर्जना करते हों। खरगोश. सियार और बिल्ली के समान मेषों की गर्जना अशुभ मानी गई है। नारियों के समान कोमल और मधुर गर्जना कला की उन्नति एवं देश की समृद्धि में विशेष सहायक होती है। रोते हुए मनुष्य की ध्वनि के समान जब मेघ गर्जना करें तो निश्चयत: महामारी की सूचना समझनी चाहिए। मधुर और कोमल गर्जना शुभ फलदायक माना जाता है। नौवें अध्याय में वायु का वर्णन है। इस अध्याय में ३५ श्लोक हैं। इस अध्याय के आरम्भ में वायु की विशेषता, उपयोगिता एवं स्वरूप का कथन किया गया है। वायु के परिज्ञान द्वारा भावी शुभाशुभ फल का विचार किया गया है। इसके लिए तीन तिथियाँ विशेष महत्त्व की मानी गयी हैं। ज्येष्ठ पूर्णिमा, आषादी प्रतिपदा और आषाढ़ी पूर्णिमा। इन तीन तिथियों में वायु के परीक्षण द्वारा वर्षा, कृषि, वाणिज्य, रोग आदि की जानकारी प्राप्त की जाती है। आषाढ़ी प्रतिपदा के दिन सूर्यास्त के समय में पूर्व दिशा में वायु चले तो अश्विन महीने में अच्छी वर्षा होती है तथा इस प्रकार के वायु से श्रावण मास में भी अच्छी वर्षा होने की सूचना समझनी चाहिए। रात्रि के समय जब आकाश में मेघ छाये हों और धीमी वर्षा हो रही हो, उस समय पूर्व दिशा में वायु चले तो भाद्रपद मास में अच्छी वर्षा की सूचना समझनी चाहिए। श्रावण मास में पश्चिमीय हवा, भाद्रपद मास में पूर्वीय और आश्विन में ईशान कोण की हवा चले तो अच्छी वर्षा का योग समझना चाहिए तथा फसल Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भी उत्तम होती है। ज्येष्ठ पूर्णिमा को निरभ्र आकाश रहे और दक्षिण वायु चले तो उस वर्ष अच्छी वर्षा नहीं होती। ज्येष्ठ पूर्णिमा को प्रात:काल सूर्योदय के समय में पूर्वीय वायु के चलने से फसल खराब होती है, पश्चिमीय के चलने से अच्छी, दक्षिणीय से दुष्काल और उत्तरीय वायु से सामान्य फसल की सूचना समझनी चाहिए। दशवें अध्याय में प्रवर्षण का वर्णन है। इस अध्याय में 55 श्लोक हैं। इस अध्याय में विभिन्न निमित्तों द्वारा वर्षा का परिमाण निश्चित किया गया है। वर्षा ऋतु में प्रथम दिन वर्षा जिस दिन होती है, उसी के फलादेशानुसार समस्त वर्ष की वर्षा का परिमाण ज्ञात किया जा सकता है। अश्विनी, भरणी आदि 27 नक्षत्रों में प्रथम वर्षा होने से समस्त वर्ष में कुल कितनी वर्षा होगी, इसकी जानकारी भी इस अध्याय में बतलाई गयी है। प्रथम वर्षा अश्विनी नक्षत्र में हो तो 49 आढ़क जल, भरणी में हो तो 29 आदक जल, कृत्तिका में हो तो 51 आढ़क, रोहिणी में हो तो 61 आढ़क, मृगशिर नक्षत्र में हो तो 6 आदक, आर्द्रा में हो तो 32 आढ़क, पुनर्वसु में 61 आढ़क, पुष्य में हो तो 42 आढ़क, आश्लेषा में हो तो 64 आदक, मघा में हो तो 16 द्रोण, पूर्वा फाल्गुनी में हो तो 16 द्रोण, उत्तराफाल्गुनी में हो तो 67 आढ़क, हस्त में हो तो 25 आदक, चित्रा में हो तो 22 आढ़क, स्वाति में हो तो 32 आढ़क, विशाखा में हो तो 16 द्रोण, अनुराधा में हो तो 16 द्रोण, ज्येष्ठा में हो तो 18 आदक और मूल में हो तो 16 द्रोण जल की वर्षा होती है। इस अध्याय में पूर्वाशादा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण; धनिष्टा, शतभिषा; पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती नक्षत्र में वर्षा होने का फलादेश पहले कहा गया है। अत: ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ पूर्वाषाढ़ा से नक्षत्र की गणना की गयी है। ग्यारहवें अध्याय में गन्धर्व नगर---का वर्णन किया गया है। इस अध्याय में 31 श्लोक हैं। इस अध्याय में बताया गया है कि सूर्योदयकाल में पूर्व दिशा में गन्धर्व नगर दिखलाई पड़े तो नागरिकों का वध होता है। सूर्य के अस्तकाल में गन्धर्व नगर दिखलाई दे तो आक्रमणकारियों के लिए घोर भय की सूचना समझनी चाहिए। रक्तवर्ण का गन्धर्वनगर पूर्व दिशा में दिखलाई पड़े तो शस्त्रोत्पात, पीत वर्ण का दिखलाई पड़े तो मृत्यु तुल्य कष्ट, कृष्णवर्ण का दिखलाई पड़े तो मारकाट, श्वेत वर्ण का दिखलाई पड़े जो विजय, कपिल वर्ण का दिखलाई पड़े तो क्षोभ, मंजिष्ट वर्ण का दिखलाई पड़े तो सेना में क्षोभ एवं इन्द्रधनुष के वर्ण के समान Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना वर्ण वाला दिखलाई पड़े तो अग्निभय होता है। गन्धर्वनगर अपनी आकृति, वर्ण, रचना सनिवेश एवं दिशाओं के अनुसार व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के शुभाशुभ भविष्य की सूचना देते हैं। शुभ्रवर्ण और सौभ्य आकृति के गन्धर्वनगर प्राय: शुभ होते हैं। शान्ति, अशान्ति, आन्तरिक उपद्रव एवं राष्ट्रों के सन्धि विग्रह के सम्बन्ध में भी गन्धर्व नगरों से सूचना मिलती है। बारहवें अध्याय में 38 श्लोकों में गर्भधारण का वर्णन किया गया है। मेघ गर्भ की परीक्षा द्वारा वर्षा का निश्चय किया जाता है। पूर्व दिशा के मेघ जब पश्चिम दिशा की ओर दौड़ते हैं और पश्चिम दिशा के मेध पूर्व दिशा में जाती, इसी प्रकार चारों दिशाओं में मेघ पवन के कारण अदला-बदली करते रहते हैं, तो मेंघ का गर्भकाल जानना चाहिए। जब उत्तर ईशानकोण और पूर्व दिशा की वायु द्वारा आकाश विमल, स्वच्छ और आनन्दयुक्त होता है तथा चन्द्रमा और सूर्य स्निग्ध, श्वेत और बहु घेरेदार होता है, उस समय भी मेधों का गर्भधारण का समय रहता है। मेघों के गर्भधारण का समय मार्गशीर्ष-अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन है। इन्हीं महीनों में मेघ गर्भधारण करते हैं। जो व्यक्ति मेघों के गर्भधारण को पहचान लेता है, वह सरलतापूर्वक वर्षा का समय जान सकता है। यह गणित का सिद्धान्त है कि गर्भधारण के 195 दिन के उपरान्त वर्षा होती है। अगहन के महीने में जिस तिथि को मेघ गर्भधारण करते हैं, उस तिथि से ठीक 165 वें दिन में अवश्य वर्षा होती है। इस अध्याय में गर्भधारण की तिथि का परिज्ञान कराया गया है। जिस समय मेघ गर्भधारण करते हैं; उस समय दिशाएँ शान्त हो जाती हैं, पक्षियों का कलरव सुनाई पड़ने लगता है। अगहन के महीने में जिस तिथि को मेघ सन्ध्या की अरुणिमा से अनुरक्त और मण्डलाकार होते हैं, उसी तिथि को उनकी गर्भधारण क्रिया समझनी चाहिए। इस अध्याय में गर्भधारण की परिस्थिति और उस परिस्थिति के अनुसार घटित होने वाले फलादेश का निरूपण किया गया है। तेरहवें अध्याय में यात्रा के शकुनों का वर्णन है। इस अध्याय में 186 श्लोक हैं। इसमें प्रधान रूप से राजा की विजय यात्रा का वर्णन है, पर यह विजय यात्रा सर्वसाधारण की यात्रा के रूप में भी वर्णित है। यात्रा के शकुनों का विचार सर्व साधारण को भी करना चाहिए। सर्वप्रथम यात्रा के लिए शुभमुहूर्त का विचार करना चाहिए। ग्रह, नक्षत्र, करण, तिथि, मुहूर्त, स्वर, लक्षण, व्यञ्जन, उत्पात, साधुमंगल आदि निमित्तों का विचार यात्रा काल में अवश्य करना चाहिए। यात्रा में तीन प्रकार के निमित्तों—आकाश से पतित, भूमि पर Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता दिखाई देने वाले और शरीर से उत्पन्न चेष्टाओं का विचार करना होता है। सर्वप्रथम पुरोहित तथा हवन क्रिया द्वारा शकुनों का विचार करना चाहिए। कौआ, मूषक और शूकर आदि पीछे की और आते हुए दिखाई पड़े अथवा बाई ओर चिड़िया उड़ती हुई दिखलाई पड़े तो यात्रा में कष्ट की सूचना समझनी चाहिए। ब्राह्मण, घोड़ा, हाथी, फल, अन्न, दूध, दही, आम, सरसों, कमल, वस्त्र, वेश्या, बाजा, मोर, पपैया, नेवला, बैंधा हुआ पशु, ऊख, जलपूर्ण कलश, बैल, कन्या, रत्न, मछली, मन्दिर एवं पुत्रवती नारी का दर्शन यात्रारम्भ में हो तो यात्रा सफल होती है। सीसा, काजल, धुंघुला वस्त्र, धोने के लिए वस्त्र ले जाते हुए धोबी, घृत, मछली, सिंहासन, मुर्गा, ध्वजा, शहद, मेवा, धनुष, गोरोचन, भरद्वाजपक्षी, पालकी, वेदध्वनि, मांगलिक गायन ये पदार्थ सम्मुख आवें तथा बिना जल-खाली घड़ा लिये कोई व्यक्ति पीछे की ओर जाता दिखाई पड़े तो यह शकुन अत्युत्तम है। बाँझ स्त्री, चमड़ा, धान का भूसा, पुआल, सूखी लकड़ी, अंगार, हिजड़ा, विष्ठा के लिए पुरुष या स्त्री, तैल, पागल व्यक्ति, जटावाला सन्यासी व्यक्ति, तृण, सन्यासी, तेल मालिश किये बिना स्नान के व्यक्ति, नाक या कान कटा व्यक्ति, रुधिर, रजस्वला स्त्री, गिरगिट, बिल्ली का लड़ना या रास्ता काटकर निकल जाना, कीचड़, कोयला, राख, दुभंग व्यक्ति आदि शकुन यात्रा के आरम्भ में अशुभ समझे जाते हैं। इन शकुनों से यात्रा में नाना प्रकार के कष्ट होते हैं और कार्य भी सफल नहीं होता है। यात्रा के समय में दधि, मछली और जलपूर्ण कलश आना अत्यन्त शुभ माना गया है। इस अध्याय में यात्रा के विभिन्न शकुनों का विस्तार पूर्वक विचार किया गया है। यात्रा करने के पूर्व शुभ शकुन और मुहूर्त का विचार अवश्य करना चाहिए। शुभ समय का प्रभाव यात्रा पर अवश्य पड़ता है। अतः दिशा शूल का ध्यान कर शुभ समय में यात्रा करनी चाहिए। चौदहवें अध्याय में उत्पातों का वर्णन किया गया है। इस अध्याय में 182 श्लोक हैं। आरम्भ में बताया गया है कि प्रत्येक जनपद को शुभाशुभ की सूचना उत्पादों से मिलती है। प्रकृति के विषय कार्य होने को उत्पात कहते हैं। यदि शीत ऋतु में गर्मी पड़े और ग्रीष्म ऋतु में कड़ाके की सर्दी पड़े तो उक्त घटना के नौ या दश महीने के उपरान्त महान् भय होता है पशु, पक्षी और मनुष्यों का अपने स्वभाव विपरीत आचरण दिखलाई पड़े अर्थात् पशुओं के पक्षी या मानव सन्तान हो स्त्रियों के पशु-पक्षी सन्तान हो तो भय और विपत्ति की सूचना समझनी चाहिए। देवप्रतिमाओं द्वारा जिन उत्पातों की सूचना मिलती है, वे दिव्य Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना उत्पात, नक्षत्र, उल्का, निर्घात, पवन, विद्युत्पात, इन्द्रधनुष आदि के द्वारा जो उत्पात दिखलाई पड़ते हैं, वे अन्तरिक्षः पार्थिव विकारों द्वारा जो विशेषताएँ दिखलाई पड़ती हैं, वे भौमोत्पात कहलाते हैं। तीर्थकर प्रतिमा से पसीना निकलना, प्रतिमा का हँसना, रोना, अपने स्थान से हटकर दूसरी जगह पहुँच जाना, छत्रभंग होने, छत्र का स्वयमेव हिलना, चलना, काँपना आदि उत्पातों को अत्यधिक अशुभ समझना चाहिए। ये उत्पात, व्यक्ति, समाज और राष्ट्र इन तीनों के लिए अशुभ है। इन उत्पातों से राष्ट्र में अनेक प्रकार के उपद्रव होते हैं। घरेलू संघर्ष भी इन उत्पातों के कारण होते हैं। इस अध्याय में दिव्य, अन्तरिक्ष और भीम तीनों प्रकार के उत्पातों का विस्तृत वर्णन किया गया है। पन्द्रहवें अध्याय में शुक्राचार्य--का वर्णन है। इसमें 230 श्लोक हैं। इसमें शुक्र के गमन, उदय, अस्त, वक्री, मार्गी आदि के द्वारा भूत-भविष्यत् का फल, वृष्टि, अवृष्टि, भय, अप्रिकोप, जय पराजय, रोग, धन, सम्पत्ति आदि फलों का विवेचन किया गया है। शुक्र के हो मण्डलों में भ्रमण करने के फल का कथन किया है। शुक्र का नागवीथि; गजवीथि, ऐरावतवीधि, वृषवधि, गोबीथि, जरद्गववीथि, अजवीधि, मृगवीथि और वैश्वानरवीथि में भ्रमण करने का फलादेश बताया गया है। दक्षिण, उत्तर, पश्चिम और पूर्व दिशा की ओर से शुक्र के उदय होने का फलादेश कहा गया है। अश्विनी, भरणी आदि नक्षत्रों में शुक्र के अस्तोदय का फल भी विस्तार पूर्वक बताया गया है। शुक्र की आरूद, दीप्त, अस्तंगत आदि अवस्थाओं का विवेचन भी किया गया है। शुक्र के प्रतिलोम, अनुलोम, उदयास्त, प्रवास आदि का प्रतिपादन भी किया गया है। इस अध्याय में गणित क्रिया के बिना केवल शुक्र के उदयास्त को देखने से ही राष्ट्र का शुभाशुभ ज्ञान किया जा सकता है। सोलहवें अध्याय में शनिचार का कथन है। इसमें 32 श्लोक हैं। शनि के उदय, अस्त, आरूढ़, छत्र, दीप्त आदि अवस्थाओं का कथन किया गया है। कहा गया है कि श्रवण, स्थाति, हस्त, आर्द्रा, भरणी और पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में शनि स्थित हो, तो पृथ्वी पर जल की वर्षा होती है, सुभिक्ष, समर्पता वस्तुओं के भावों में समता और प्रजा का विकास होता है। अश्विनी नक्षत्र में शनि के विचरण करने से अश्व, अश्वारोही, कवि, वैद्य और मन्त्रियों को हानि उठानी पड़ती है। शनि और चन्द्रमा के परस्पर वेध, परिवेष आदि का वर्णन भी इस अध्याय में है। शनि के वक्री और मार्गी होने का फलादेश भी इस अध्याय Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता में कहा गया है। सत्रहवें अध्याय में गुरु के वर्ण, गति, आधार, मार्गी, अन्त, उदय, वक्र आदि का फलादेश वर्णित है। इस अध्याय में 46 श्लोक हैं। बृहस्पति का कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिर, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा और पूर्वाफाल्गुनी इन नौ नक्षत्रों में उत्तर मार्ग; उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल और पूर्वाषाढ़ा इन नौ नक्षत्रों में मध्यम मार्ग एवं उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती, अश्विनी और भरणी इन नौ नक्षत्रों में दक्षिण मार्ग होता है। इन मार्गों का फलादेश इस अध्याय में विस्तार पूर्वक निरूपित है। संवत्सर, परिवस्तसर, इरावत्सर, अनुवत्सर और इद्वत्सर इन पाँचों संवत्सरों के नक्षत्रों का वर्णन फलादेश के साथ किया गया है। गुरु की विभिन्न दशाओं का फलादेश भी बतलाया गया है। ' अठारहवें अध्याय में बुध के अस्त, उदय, वर्ण, ग्रहयोग आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। इस अध्याय में 37 श्लोक हैं। बुध की सौम्या, विभिश्रा, संक्षिप्ता, तीव्रा, घोरा, दुर्गा और माया इन सात प्रकार की गतियों का वर्णन किया गया है। बुध की सौम्या, विमिश्रा और संक्षिप्ता गतियाँ हितकारी हैं। शेष सभी गतियाँ पाप गतियाँ हैं। यदि बुध समान रूप से गमन करता हुआ शकटवाहक के द्वारा स्वाभाविक गति से नक्षत्र का लाभ करे तो यह बुध का नियतचार कहलाता है, इसके विपरीत गमन करने से भय होता है। बुध की चारों दिशाओं की वीथियों का भी वर्णन किया गया है। विभिन्न ग्रहों के साथ बुध का फलादेश बताया गया है। उन्नीसवें अध्याय में 39 श्लोक हैं। इसमें मंगल के चार, प्रवास, वर्ण, दीप्ति, काष्ठ, गति, फल, वक्र और अनुवक्र का विवेचन किया गया है। मंगल का चार बीस महीने, वक्र आठ महीने और प्रवास चार महीने का होता है। वक्र, कठोर, श्याम, ज्वलित, धूमवान, विवर्ण, क्रुद्ध और बायीं ओर गमन करने वाला मंगल सदा अशुभ होता है। मंगल के पाँच प्रकार के वक्र बताये गये हैं—उष्ण, शोषमुख, ब्याल, लोहित और लोहमुद्गर। ये पाँच प्रधान वक्र हैं। मंगल का उदय सातवें, आठवें या नवें नक्षत्र पर हुआ हो और वह लौटकर गमन करने लगे तो उसे उष्ण वक्र कहते हैं। इस उष्णवक्र में मंगल के रहने से वर्षा अच्छी होती है, विष कीट और अमि की वृद्धि होती है। जनता को साधारणत: कष्ट होता है। जब Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | प्रस्तावमा प्रस्तावना । मंगल दशवें ग्यारहवें और बारहवें नक्षत्र से लौटता है तो शोषमुख वक्र कहलाता है। इस वक्र में आकाश से जल की वर्षा होती है। जब मंगल राशि परिवर्तन करता है, उस समय वर्षा होती है। यदि मगंल चौदहवें अथवा तेरहवें नक्षत्र से लौट आवे तो यह उसका ब्याल चक्र होता है, इसका फलादेश अच्छा नहीं होता। जब मंगल पन्द्रहवें या सोलहवें नक्षत्र से लौटता है; तब लोहित बक कहलाता है। इसका फलादेश जल का अभाव होता है। जब मंगल सत्रहवं या अ6 नक्षत्र से लौटता है, तब लोहमुद्गर कहलाता है। इस वक्र का फलादेश भी राष्ट्र और समाज को अहितकर होता है। इसी प्रकार मंगल के नक्षत्र का भी वर्णन किया गया है। बीसवें अध्याय में 63 श्लोक हैं। इस अध्याय में राहु के गमन, रंग आदि का वर्णन किया गया है। इस अध्याय में राहु की दिशा, वर्णन, गमन और नक्षत्रों के संयोग आदि का फलादेश वर्णित है। चन्द्रग्रहण तथा ग्रहण की दिशा, नक्षत्र आदि का फल भी बतलाया गया है। नक्षत्रों के अनुसार ग्रहणों का फलादेश भी इस अध्याय में आया है। इक्कीसवें अध्याय-58 श्लोक हैं। इसमें केतु के नाना भेद, प्रभेद, उनके स्वरूप, फल आदि का विस्तार सहित वर्णन किया गया है। बताया गया है कि 120 वर्ष में पाप के उदय से विषम केतु उत्पन्न होता है, इस केतु का फल संसार को उथल-पुथल करनेवाला होता है। जब विषम केतु का उदय होता है, तब विश्व में युद्ध, रक्तपात, महामारी आदि उपद्रव अवश्य होते हैं। केतु के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन भी इस अध्याय में फल सहित वर्णन किया है। अश्विनी आदि नक्षत्रों में उत्पन्न होने पर केतु का फल विभिन्न प्रकार का होता है। क्रूर नक्षत्रों में उत्पन्न होने पर केतु भय और पीड़ा का सूचक होता है और सौम्य नक्षत्रों में केतु के उदय होने से राष्ट्र में शान्ति और सुख रहता है। देश में धन-धान्य की वृद्धि होती है। बाईसवें अध्याय—में 21 श्लोक हैं। इस अध्याय में सूर्य की विशेष अवस्थाओं का फलादेश वर्णित है। सूर्य के प्रवास, उदय और चार का फलादेश बतलाया गया है। लालवर्ण का सूर्य अस्त्र प्रकोप करने वाला, पीत और लोहित वर्ण का सूर्य व्याधि-मृत्यु देने वाला और धूम्रवर्ण का सूर्य भुखमरी तथा अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न करने वाला होता है। सूर्य की उदयकालीन आकृति के अनुसार भारत के विभिन्न देशों के सुभिक्ष और दुर्भिक्ष का वर्णन Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता किया गया है। स्वर्ण के समान सूर्य का रंग सुखदायी होता है तथा इस प्रकार के सूर्य के दर्शन करने से व्यक्ति को सुख और आनन्द प्राप्त होता है। तेइसवें अध्याय में में 58 श्लोक हैं। इसमें चन्द्रमा के वर्ण, संस्थान, प्रमाण आदि का प्रतिपादन किया गया है। स्निग्ध, श्वेतवर्णे, विशालाकार और पवित्र चन्द्रमा शुभ समझा जाता है। चन्द्रमा का शृंग — किनारा कुछ उत्तर की ओर उठा हुआ रहे तो दस्युओं का घात होता है। उत्तर शृंगवाला चन्द्रमा अश्मक, कलिंग, मालव, दक्षिण द्वीप आदि के लिए अशुभ तथा दक्षिण श्रृंगोन्नतिवाला चन्द्र यवनदेश, हिमाचल, पांचाल, आदि देशों के लिए अशुभ होता है । चन्द्रमा की विभिन्न आकृति का फलादेश भी इस अध्याय में बतलाया गया है। चन्द्रमा की गति, मार्ग, आकृति, वर्ण, मंडल, वीथि, चार, नक्षत्र आदि के अनुसार चन्द्रमा का विशेष फलादेश भी इस अध्याय में वर्णित है । चौबीसवें अध्याय – में 43 श्लोक हैं। इसमें ग्रह युद्ध का वर्णन है । ग्रहयुद्ध के चार भेद हैं—भेद, उल्लेख, अंशुमर्दन और अपसव्य । ग्रहभेद में वर्षा का नाश, सुहृद और कुलीनों में भेद होता है। उल्लेख युद्ध में शस्त्र भय, मन्त्री विरोध और दुर्भिक्ष होता है। अंशुमर्दन युद्ध राष्ट्रों में आन्तरिक संघर्ष होता है तथा राष्ट्रो में वैमनस्य भी बढ़ता है। इस अध्याय में ग्रहों के नक्षत्रों का कथन तथा ग्रहों के वर्णों के अनुसार उनके फलादेशों का निरूपण किया गया है। ग्रहों का आपस में टकराना धन-जन के लिए अशुभ सूचक होता है । पच्चीसवें अध्याय में 50 श्लोक हैं। इसमें ग्रह, नक्षत्रों के दर्शन द्वारा शुभाशुभ फल का कथन किया गया है। इस अध्याय में ग्रहों के पदार्थों का निरूपण किया गया है। ग्रहों के वर्ण और आकृति के अनुसार पदार्थों के तेज, मन्द और समत्व का परिज्ञान किया गया है । यह अध्याय व्यापारियों के लिए अधिक उपयोगी है। छब्बीसवें अध्याय- में स्वप्न का फलादेश बतलाया है। इस अध्याय में 86 श्लोक हैं। स्वप्न निमित्त का वर्णन विस्तार के साथ किया गया है। धनागम, विवाह, मंगल, कार्यसिद्धि, जय, पराजय, हानि, लाभ आदि विभिन्न फलादेशों की सूचना देने वाले स्वप्नों का वर्णन किया गया है। इस अध्याय में दृष्ट, श्रुत, अनुभूत, प्रार्थित, कल्पित और भाविक इन सात प्रकार के स्वप्नों में से केवल भाविक स्वप्नों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। -* Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 प्रस्तावना सत्ताईसवें अध्याय — में कुल 13 श्लोक हैं। इस अध्याय में वस्त्र, आसन, पादुका आदि के छिन्न होने का फलादेश कहा गया है। यह छिन्न निमित्त का विषय है। नवीन वस्त्र धारण करने में नक्षत्रों का फलादेश भी बताया गया है। शुभ मुहूर्त में नवीन वस्त्र धारण करने से उपभोक्ता का कल्याण होता है। मुहूर्त का उपयोग तो सभी कार्यों में करना चाहिए। परिशिष्ट में दिये गये 30 वें अध्याय में औरष्टो का वर्णन किया गया है। मृत्यु के पूर्व प्रकट होने वाले अरिष्टों का कथन विस्तार पूर्वक किया है। पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ तीनों प्रकार के अरिष्टों का कथन इस अध्याय में किया है। शरीर में जितने प्रकार के विकार उत्पन्न होते हैं, उन्हें पिण्डस्थ अरिष्ट कहा गया है। यदि कोई अशुभ लक्षण के रूप में चन्द्रमा, सूर्य, दीपक या अन्य किसी वस्तु को देखता है तो ये सब अरिष्ट मुनियों के द्वारा पदस्थ बाह्य वस्तुओं से सम्बन्धित कहलाते हैं। आकाशीय दिव्य पदार्थों का शुभाशुभ रूप में दर्शन करना, कुत्ते, बिल्ली, कौआ आदि प्राणियों की इष्टानिष्ट सूचक आवाज का सुनना या उनकी अन्य किसी प्रकार की चेष्टाओं को देखना पदस्थारिष्ट कहा गया है। पदस्थ रिष्ट में मृत्यु की सूचना दो-तीन वर्ष पूर्व भी मिल जाती है। जहाँ रूप दिखलाया जाय वहाँ रूपस्थ अरिष्ट कहा जाता है। यह रूपस्थ अरिष्ट छायापुरुष, स्वप्नदर्शन, प्रत्यक्ष, अनुमानजन्य और प्रश्न के द्वारा अवगत किया जाता है। छायादर्शन द्वारा आयु का ज्ञान करना चाहिए। उक्त तीनों प्रकार के अरिष्ट व्यक्ति की आय की सूचना देते हैं। गणधराचार्य कुंथु सागर Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामंदर भद्रबाहु संहिता एवं सामुद्रिक शास्त्र करलखन ग्रंथ के बारे में मेरे विचार -डा0 प्रो. अक्षय कुमार जैन, इन्दौर ज्योतिष शास्त्र आकाश स्थित दिव्य रश्मियों के पुञ्ज सूर्य चन्द्र ग्रह नक्षत्र और आकाश गंगा के अनंत तारा मंडलों की प्रभाव शक्ति से परिचय कराता है- यह उतना पुराना और प्राचीन है जितने सूर्य चन्द्र और पृथ्वी जैन ज्योतिष जिन, जिनागम, जिनवाणी, श्रमण परंपरा की तरह पुरातन है। ज्योतिष के 19 प्रवर्तक । सूर्य, 2 पितामह, 3 व्यास, 4 वशिष्ठ, 5 आत्रि, 6 पराशर, 7 कश्यप, 8 नारद, 9 गर्ग, 10, मरीचि, ।। मनु, 12 अंगिरा, 13 लोमेश, 14 पुलिश, 15 च्यवन, 6 यवन, 17 भृगु, 18 शौनक, 19 पुलस्त्य की तरह जैनाचार्य भद्रबाह स्वामी भी इसी कोटि गणना क्रम में आते हैं। यह इतिहास और अनुसंधान का विषय है कि भद्रबाहु महर्षि पाराशर के ही भ्राता थे किंतु उनके द्वारा प्रणीत ग्रंथ उनके दिव्य, मौलिक, प्रामाणिक, ज्योतिष शास्त्र के प्रमाण हैं आदिकाल से । होरा, 2 गणित या सिद्धांत, 3 संहिता, 4 प्रश्न, 5 शकुन इस प्रकार पंचस्कंघात्मक शास्त्र का विवेचन संसार के सभी ज्योतिष विद्वानों ने अपनी-अपनी मातृभाषा और चीनी, यूनानी, अंग्रेजी, उर्दू जर्मन फ्रेंच आदि सभी विदेशी भाषाओं में भी किया है। वेद, वेदांग, उपनिषद् और बौद्ध साहित्य की तरह जैनागम में भी ज्योतिष शास्त्र के अनेकों ग्रंथ उपलब्ध है। सूर्य प्रज्ञसि, चंद्र प्रज्ञसि, विद्यानुवाद पूर्व, में जैन ज्योतिष के बीज विस्तार सभी हैं तथा गणित, सिद्धांत फलित की भी विस्तृत विवेचना है। ऋग्वेद में 'द्वादशांर नहि तज्जराय।" इस सूत्र में चक्र की बारह राशियों का द्योतक कहा है जैन ज्योतिष के विद्वानाचार्य-गर्ग, ऋषि पुत्र और कालकाचार्य ने भी इसी की पुष्टि की है। ज्योतिष्करण्क, गर्ग संहिता, सूर्य-चन्द्र प्रज्ञासि तो विश्व ज्योतिष को जैनों की मौलिक, अभूतपूर्व, अमर देन है ही। "यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे।" का सिद्धांत अनादि से प्रचलित है तदनुसार मानव जीवन के बाह्य व्यक्तित्व के तीन रूप और आंतरिक Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगत के तीन रूप तथा एक अन्त:करण में सात रूप ही सौर मंडल से सात ग्रह हैं जन्म जन्मांतरों के संचित शुभाशुभ कर्मों के प्रारब्ध की गणना विवेचना और उनका काल क्रमानुसार फल ही ज्योतिष का विषय है। बाह्य व्यक्तित्व के प्रतीक बृहस्पति, मंगल, चंद्र है। आंतरिक व्यक्तित्व के द्योतक क्रमशः शुक्र, बुध और सूर्य हैं। अत:करण का प्रतीक शनि है। प्रथम सूर्य और चंद्रमा बौद्धिक और शरीरिक उन्नति अवनति के प्रतीक हैं इसी प्रकार आंतरिक का प्रतीक सूर्य, बाह्य का चंद्र और मंगल एवं अंतरंग के प्रतीक बुध और बृहस्पति है एवं शुक्र शनि क्रमश: बाह्य अंतरंग अंत:करण है यही क्रम सातों ग्रहों का है। यही विस्तृत मीमांसा सभी जैन ज्योतिष के ग्रंथों में है। प्रस्तुत कृति आचार्य भद्रबाहु की कीर्ति पताका सी आर्यवर्त के ज्योतिष साहित्य में मूर्धन्य है भद्रबाहु संहिता, केवल ज्ञान प्रश्न चूडामणि करलखन, लोक विजय यन्त्र रिष्ठ समुच्चय, ये जैन ज्योतिष के पंच रत्न पंच परमेष्ठी की तरह सुप्रसिद्ध तो है ही अपितु सत्य और सिद्ध भविष्यफल द्योतक भी है। भारतीय ज्ञानपीठ ने बहुत पहले ही उन्हें प्रकाशित कर ज्योतिष प्रेमियों की प्रशंसनीय सेवा की है। भद्रबाहु संहिता में मात्र कृषि की उन्नति प्रगति और राजा की राज्य वृद्धि जय और पराजय एवं शकुन, निमित्तादि का ही वर्णन नहीं है अपितु, मानव जीवन की लौकिक प्रगति, समृद्धि और आध्यात्मिक उन्नति के लिए भी सभी प्रकार के विषयों की सूक्ष्म विवेचना ज्योतिषाधार पर प्राप्त होती है अष्टांग निमित्त के जितने भी ग्रंथ संसार भर में प्राप्त हैं उनका ज्येष्ठ गुरु और जनक भद्रबाह संहिता को कहें तो अतिश्योक्ति नहीं। इसमें वाराही संहिता के तुल्य ही सभी निमित्तों का विवेचन और कुल तीस अध्यायों में विभक्त इस ग्रंथ के 28, 29वें अध्याय अप्राप्त हैं किंतु प्रायः सभी अध्यायों में जो वर्णन प्राप्त है वह अद्भुत है प्रथम अध्याय में— उल्का, परिवेष, विद्युत, अभ्र, संध्या, मेघ, वात, प्रवर्षण गंर्धवनगर, गर्भ, मात्रा, उत्पात, ग्रहधार, ग्रहयुद्ध, अर्धकाण्ड, स्वप्न, मुहूर्त, तिथि, पक्ष, मास, शून्य तिथि, दग्ध, विष, हुताशन, तिथियों के अलावा करण, योग, निमित, शकुन, पाक, ज्योतिष, वास्तु दिव्य संपदा और बारह राशियों के स्वभाव गुणधर्म व्यवहार प्रभाव विस्तृत मौलिक वर्णन है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे अध्याय में उल्का, अशनि, उत्पातों के स्वरूप, विकार, भय फलों का विवेचन तीसरे अध्याय में उल्काओं के रूप-रंग, शेर, हाथी, चंद्र, सूर्य, मगर जैसी दृष्ट उल्काओं के नगर व्यक्रि और मौसम, प्रकृति पर प्राप्त विस्तृत फलों का वर्णन है। चतुर्थ अध्याय में—परिवेषों का वर्णन है। चोकौर, तिकोन, चंद्राकार, एवं वर्षा, दुष्काल सूचक सभी परिवेषों का वर्णन एवं विभिन्न दिशानुसार उनका फल वर्णित है। पंचम अध्याय में नील, ताम्र, गौर, और उनके आकार भेद ध्वनि और सभी ऋतुओं में उनके फलों का वर्णन है। षष्ठम अध्याय में बादलों की आकृति, उनके फल, भेद-रथ, ध्वजा, पताका, घंटा, तोरण के फल, चिकने, सफेद बादलों के फल एवं भाला, त्रिशूल धनुष, कवच रूप तथा टेढ़े तिरछे बादलों के फल नगर और नागरिकों पर उनके प्रभाव और तिथि अनुसार उनकी विवेचना है। सप्तम अध्याय में—सूर्योदय, सूर्यास्त, संध्या, की आकृति एवं मण्डलों के फल तालाब, प्रतिमा जैसी आकृति एवं उनके रंगों के फलों का वर्णन है। किस तिथि नक्षत्र माह वार में उनका विशेष फल कब कैसे मिलेगा। 'अष्टम अध्याय में मेघों के भेद, वर्ण, जाति, वर्षा की सूचना और वर्षाकाल द्वारा नगर, सेना, राजा, कृषि, व्यापार पर होने वाले फल वर्णित हैं मेघों की आकृति शृंगाल शेर जैसी किस-किस को त्रास देगी, दुर्भिक्ष, सुभिक्ष कहाँ होगी? ___ नवम अध्याय में वायु-वर्णन भेद द्वारा जय, पराजय, कथन और दशों दिशाओं में वायु टकराने, तथा रात्रि, मध्याह्न में वायु उत्पत्ति द्वारा, सभी दिशाओं के राजा और प्रजा को प्राप्त फलों का वर्णन है। दशम अध्याय में वर्ष किस नक्षत्र में, कब कहाँ कैसा फल और उपज देगी यह वर्णन है, वर्षा का प्रमाण एवं बारह महीनों की वर्षा का विस्तृत फलादेश है। एकादश अध्याय में-गंधर्व नगर का फल है सूर्योदय, एवं दिशा में किस वर्णन Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का गंधर्व नगर, परकोट, क्षत्रिय वैश्य, ब्राह्मण, शूद्र, राजा, नगर को किस माह किस प्रकार का फल प्रदान करेगा जंगल में, शहर, ग्रामों में गंधर्व नगरों के फल वर्णित हैं। द्वादश अध्याय में मेघों के गर्भ धारण, नक्षत्रानुसार फल वाराह मिहिर मेघा के अनुसार एवं स्वानुभव द्वारा अनके प्रकार से मेघ गर्भ प्रकरण है। त्रयोदश अध्याय में राज्य यात्रा, वैद्य, पुरोहित, ज्योतिष सेना के प्रमाण समय का फल, घातक चंद्र तिथि नक्षत्रवार और खंजन नीलकंठ पक्षी काक, 344 गाय, कुत्ता, मोर, के शकुन निमित्त द्वारा शुभ अशुभ फल वर्णित है। चतुर्दश अध्याय में वृक्ष गिरने, नदियों के हँसने रोने, चींटियों के निकलने मेंढक, सर्प ध्वनि तथा आकाश से प्राप्त ध्वनियों के फल का वर्णन है। घोड़ों के उत्पात, पल्ली पतन और राजनीति में युद्धादि के फल का वर्णन है। पंचदश अध्याय में शुक्रग्रह के नक्षत्र, मंडल, उदय, अस्त एवं विभिन्न क्षेत्रों के कलादेश है। पोइस अध्याय में—-शनिग्रह के उदय, अस्त, वक्री, गति-भ्रमणानुसार विभिन्न नक्षत्रों राशियों में फल की विस्तृत विवेचना है। सप्तदश अध्याय में :- गुरु-गृह के मार्ग, प्रतिलोम, अनुलोम वक्री उदय के फल अष्टादश अध्याय मे :- बुध की सात प्रकार की गति, उदय, अस्त, क्रांति और नक्षत्रानुसार फल वर्णित है। उन्नीसवें अध्याय में :- मंगल के वर्ण, चार, ताम्र प्रजापति का भेद, द्वादश राशिगत फल, लोह, लोहित बह्मघाती, क्रूर, वक्र और पाँच प्रधान वक्रों के फल वर्णित हैं। बीस अध्याय में :- राहूचार, चंद्रमा के ग्रहण, राशि अनुसार फल, समय, दृष्टि भेद के फल हैं। इक्कीसवें अध्याय में :- तीन सिर के केतू, छिद्र केतू, धूमकेतू, गोलक बंध विक्रातादि केतू के फल वर्णित हैं। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 बाईसवें अध्याय में :- सूर्य संक्रांति के उदय, श्रृंग, दिशा और चंद्र संयोग के फल वर्णित हैं। तेइसवें अध्याय में :- सभी नक्षत्रों, ग्रहों, राशियों में, रात-दिन में चंद्र की स्थिति पर विस्तृतफल है। चौबीसवें अध्याय में :- ग्रह युद्ध, राहूघात, चंद्रघात, शुक्रघात का देश विदेश पर प्रभाव वर्णित है। पच्चीसवें अध्याय में : नक्षत्र ग्रहों के अनुसार तेजी मंदी और सभी क्रय-विक्रय के घट-बढ़ का विचार है। छब्बीसवें अध्याय में :- सभी प्रकार के शुभ-अशुभ स्वप्नों के फल विस्तार से वर्णित हैं। सत्ताइसवें अध्याय में :- तूफान, विज शास्त्र उत्पादों का विचार नवीन वस्त्रधारण, गृह शांति, आभूषण, विज, शास्त्र विधायक नक्षत्रों का वर्णन है 28, 29 वें अप्राप्य अध्याय हैं। तीसवें अष्टांग निमित्तों का वर्णन है रोगों की संख्या, संलेखना वर्णन, अरिष्ट कथन, कुष्मांडिली, पुलिंदीनी देवी मंत्र, शकुन, छाया द्वारा रोगी, रोग परीक्षा, मृत्यु सूचक निमित्त विवाह, राज्योत्सव वर्णन है। इस प्रकार भद्रबाहु संहिता गागर में सम्पूर्ण ज्योतिष का महासागर है इसी प्रस्तुति इस मंगल कलश में प्राप्त है। यह जैन ज्योतिष और उसके साधकों की अपूर्व तपस्या का अमृत फल है जो सर्वतोभद्र है। अथर्ववेद में कहा गया है। W अयं हस्तो भगवान अयंते बलवत्तरः आपका हाथ ही भगवान है, यह भगवान से भी बलवान है करलखन में हस्तरेखा पर से भूत भविष्य वर्तमान की भविष्यवाणियों अचूक तो हैं ही साथी घटनाओं के समय की घोषणा भी शत प्रतिशत सच संभव है। रेखाओं, सामुद्रिक चिह्नों, आकृतियों, रंगों, नक्षत्रों के आधार पर सत्य भविष्य कथन ही नहीं, किन्तु जन्मकुंडली, निर्माण, कुंडली निर्माण, प्रश्न कुंडली के लिए भी यह ग्रंथ उत्तम दर्शन देने में समर्थ है। हस्त संजीवनी, कीरो की पामिष्टी, सेंट जर्मन, बेनइम और विदेशी सभी हस्त रेखा ग्रंथों के जनक इस ग्रंथ में, पुरुष, स्त्री के : + Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाथों के आकार वर्ण, बनावट का विस्तार वर्णन है। हथेली में ग्रह, नक्षत्र, राशि और पर्वत का भी इसमें पूर्ण मौलिक, वैज्ञानिक विवेचन है। हस्त सामुद्रिक पर इतना तथ्यपूर्ण, ठोस मौलिक ग्रंथ भारत ही नहीं विदेशी किसी भी भाषा में प्राप्त नहीं है। इसके चित्रों ने इसे सजीव बना दिया है, ग्रंथ स्वयं बोलता है "करलखन" ग्रंथ हस्तरेखा जिज्ञासुओं के लिए मार्गदर्शक था किंतु इसका सचित्र प्रकाशन और व्याख्यात्मक विश्लेषण जिस सजीव सरल ढंग से प्रस्तुत प्रकाशन में है ऐसा अन्यत्र नहीं हाथ देखने की विधि, समय, पंचागुली देवी की आराधना, इष्ट, मंत्र, ध्यान, पृच्छक एवं ज्योतिषी तथा हस्तरेखा विशेषज्ञ के लिए यह नई लाभकारी सूचना देता है। रेखा ज्ञान तथा रेखाओं की चमक, अस्त, उदित, ग्रहों की उदित अस्त स्थिति, पावर और उसके धारक की स्थिति पर वैज्ञानिक विवेचन है। विद्वान आचार्य साधक श्री ने ग्रंथ को सर्व उपयोगी और सरलतम कर दिया है। यद्यपि सामुद्रिक शरीर शास्त्र के इस ग्रंथ में मात्र दाहिने बायें हाथों की रेखा -तिल, निशान, पौरे, चक्र स्थिति एवं अंगुष्ठ का ही प्रतिपादन मात्र नहीं है अपितु शंख, चक्र, त्रिवली एवं अग्नि वायु, जल, पृथ्वी तत्वों की धारणा के अनुसार भी फल विवेचन और कुंडली निर्माण कला है। ऐसा सर्वजन उपयोगी ग्रंथ द्वारा श्री भद्रबाहु संहिता और सामुद्रिक शास्त्र करलखन कर सचित्र प्रकाशन 1994 की अमर ऐतिहासिक घटना है। जिसके के लिए व्याख्याकार मीमांशक गणधराचार्य भगवन् वात्सल्य रत्नाकर भारत गौरव कुन्थुसागरजी महाराज को कोटिशः नमन वंदन एवं इस ग्रंथमाला के प्रकाशन संयोजक श्री शांति कुमार जी गंगवाल संगीताचार्य का हार्दिक अभिनंदन अभिनंदन है। कालज्ञों, ज्योतिषी विद्वानों, जिज्ञासुओं के लिए ऐसी कृति प्रस्तुत करने के लिए जयपुर ( जैनपुरी) की इस "गंगवाल गृहस्थी" का सार्वजनिक अभिनन्दन समारोह हो - ऐसी मंगल कामना है। ― Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र्गदर्शक: अंचिार्य सुवि प्रकाशकीय मुझे हार्दिक प्रसन्नता है कि श्री दिगम्बर जैन कुंधु विजय ग्रंथमाला समिति, जयपुर (राजस्थान ) के द्वारा 19 वें पुष्प के रूप में प्रकाशित वृहद 1300 (पृष्ठीय) ग्रंथराज भद्रबाहु संहिता एवं सामुद्रिक शास्त्र करलखन का विमोचन परम पूज्य भारतगौरव, जिनागम सिद्धान्त महोदधि स्याद्वाद केशरी, श्रमण रत्न, वात्सल्य रत्नाकर वादिभ सूरि गणधराचार्य कुंधु सागरजी महाराज साहब के कर कमलों से प्रतापगढ़ (राजस्थान) में करवाने का परम सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। "भद्रबाहु संहिता" ग्रंथ में विषयानुरूप श्लोकों के अनुसार विभिन्न रंगों में ऑफसेट प्रिन्टिंग कराकर चित्र प्रकाशित किये गये हैं, जिससे पाठकों को विषय के समझने में बहुत ही आसानी रहेगी चित्रों के साथ इस ग्रंथ का प्रकाशन प्रथम बार ही हुआ है। इससे यह ग्रंथराज बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रंथ सिद्ध होगा । इस ग्रंथ की टीका व संकलन करने में मेरे आराध्य गुरुदेव परमपूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुंथु सागरजी महाराज ने बहुत ही कठिन परिश्रम किया है। भव्य जीवों के लाभार्थ आपने जो यह कार्य किया है हम सब उसके लिये कृतज्ञ है और आपके श्री चरणों में कोटिशः बार नमोस्तु अर्पित करते हैं। भद्रबाहु संहिता निमित्त शास्त्र है जिसके बारे में गणधराचार्य श्री ने इस ग्रंथ की प्रस्तावना लिखकर स्पष्ट लिख दिया है इसलिये इसके बारे में विशेष मुझे लिखने की आवश्यकता नहीं है। इसी ग्रंथराज में सामुद्रिक शास्त्र करलखन विषय से सम्बन्धित खण्ड भी शामिल किया गया है, जिसमें विषय को चित्रों सहित समझाया गया है। इससे सहज ही पाठकगण अपने हाथों की रेखाओं को देखकर ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। पूर्वाचार्यो द्वारा लिखित तीर्थकरों की वाणी के अनुसार भव्य जीवों को ग्रंथ पढ़ने को Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ シ उपलब्ध हो सके और साथ ही उन महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन भी हो सके जिनका प्रकाशन आज तक नहीं हुआ है। इसके लिये आप की प्रेरणा व मंगलमय शुभाशीर्वाद से जयपुर ( राजस्थान) में वर्ष 1981 में बाहुबली सहस्त्राभिषेक महोत्सव के शुभावसर पर श्री दिगम्बर जैन कुंथु विजय ग्रंथमाला समिति की स्थापना की गई। आपने अनेक ग्रंथ लिखे। जो ग्रंथ अन्य भाषाओं में थे उनका अनुवाद कर टीकाएँ की । इस ग्रंथमाला से अन्य छोटे-छोटे विषयों पर प्रकाशित पुस्तकों के अलावा 18 महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन हो चुका है और 19 वें ग्रंथ का विमोचन आज हो रहा है। ग्रंथमाला समिति द्वारा प्रकाशित सभी ग्रंथ एक से बढ कर एक सुन्दर आकर्षक सभ्य ने रिपूर्ण होने से महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए हैं और सभी पाठकों ने स्वाध्याय करके लाभ प्राप्त किया है। पाठकों के लाभार्थ ग्रंथमाला समिति द्वारा किये गये प्रकाशनों की जानकारी प्रदान करने हेतु प्रकाशित ग्रंथ में लेख प्रकाशित कर दिया गया है। आशा है कि पाठकगण जिन्होंने अब तक ग्रंथमाला द्वारा प्रकाशित ग्रंथों को प्राप्तकर लाभ नहीं उठाया है, लाभ उठा सकेंगे। 1 इस प्रकार गणधराचार्य कुंथु सागर जी महाराज के योगदान के बारे में जितना भी लिखा जावे उतना ही कम है। इसलिये मैं तो मात्र इतना ही समझता हूँ कि गुरुदेव गणधराचार्य कुंथु सागरजी महाराज आप परम्परा के दृढ़ स्तम्भ होने के साथ-साथ त्याग तपस्या एवं वात्सल्यता की साक्षात मूर्ति है। परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुंथु सागरजी महाराज आर्ष परम्परा के दृढ़ स्तम्भ है | आगम के निर्भिक वक्ता हैं। समता वात्सल्यता और निर्ग्रन्थता आपके विशेष गुण हैं। जो भी भव्य जीव आपके दर्शन लाभ प्राप्त करता है, वह अपने आपको धन्य मानता है । स्व. कल्याण के साथ-साथ आप के भाव पर कल्याण के लिये भी सदैव बने रहते है जिसके लिये आपने अनेकों दीक्षाएँ दी और भव्य जीवों को अपना कल्याण करने का सुअवसर प्रदान किया । वर्तमान में आपका विशाल संघ है जिसमें 20 साधु हैं जो सभी सदैव अध्ययन चिंतन मनन में संलग्न रहते हैं। सभी शिष्य समुदाय से आप का विशेष वात्सल्य रहता है। और जब भी आप ग्रंथों की टीका करते हैं योग्यतानुसार उनके नामों से करते रहते हैं। प्रस्तुत ग्रंथ की टीका भी आपने Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघस्थ माताजी श्री 105 उपगणिनी अभिनव चन्दन बाला आर्यिका क्षेम श्री माताजी के नाम से की है। माताजी की दीक्षा हमारे जयपुर (राजस्थान) में गणधराचार्य श्री के द्वारा वर्ष 1992 में हुई थी इसलिये हमें और भी प्रसन्नता है कि इतने विशाल ग्रंथ की टीका आपके नाम से की गई है। प्रकाशित ग्रंथ के बारे में और भी विशेष जानकारी प्रदान करने हेतु आदरणीय प्रोफेसर डा० अक्षय कुमार जी जैन, इन्दौर ने लेख लिखने की जो कृपा की है। अतः उन्हें भी धन्यवाद देता हूँ । ग्रंथ प्रकाशन में प्रकाशन खर्चे के भुगतान हेतु आर्थिक सहयोग की आवश्यकता होती है क्योंकि ग्रंथमाला समिति के पास स्थायी जमा राशि नहीं है। फिर भी प्रकाशन कार्य निरन्तर दातारों से समय-समय पर प्राप्त आर्थिक सहयोग के आधार से हम सकें। अतः प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकाशन खर्चों में जिन-जिन दातारों ने हमें सहयोग प्रदान किया है उसकी सूची हमने ग्रंथ में प्रकाशित कर दी है और उनका आभार व्यक्त करते हुए धन्यवाद देते हैं। ग्रंथ प्रकाशन कार्य बहुत ही कठिन कार्य होता है कितनी ही बाधाएँ इसमें आती है यह तो करने वाले व कराने वाले ही भली-भांति समझ सकते हैं। क्योकि कई हाथों से कार्य निकलता है। कार्य निर्विघ्न व समय पर पूरा हो जाना यह बहुत बड़ी उपलब्धि होती है। लेकिन गुरु आशीर्वाद से सब कार्य आसान हो जाते हैं जिनको श्रद्धान होता है। प्रस्तुत ग्रंथ का कार्य निर्विघ्न रूप से शीघ्र पूरा हो जावें, इसके लिये हमने नववर्ष के शुभारम्भ में दिनांक 1/1/94 को श्री सम्मेद शिखर सिद्ध क्षेत्र पर विराजमान परम पूज्य निमित्त ज्ञान शिरोमणि आचार्य विमल सागर जी महाराज का मंगलमय शुभाशीर्वाद प्राप्त किया। उपाध्याय श्री भरत सागर जी महाराज का शुभाशीर्वाद प्राप्त किया। हमारे जयपुर निवासियों के विशेष पुण्योदय से परम तपस्वी सिद्धान्त चक्रवर्ती श्री 108 आचार्य सन्मति सागर जी महाराज का व परम पूज्य श्री 105 गणिनी आर्यिका विजयमति माताजी के संघ का वर्ष 1994 का वर्षा योग करवाने का शुभावसर प्राप्त हुआ। हमने वर्षा योग में विभिन्न कार्यक्रमों का लाभ प्राप्त करते हुए इस ग्रंथ के शीघ्र ही निर्विघ्न रूप से प्रकाशनार्थ मंगलमय शुभाशीर्वाद प्राप्त किया। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार परम पूज्य आचार्यों व परम पूज्या गणिनी आर्यिका विजयमति माताजी के शुभाशीर्वाद के साथ-साथ परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुंथु सागर जी महाराज के शुभाशीर्वाद से हमने ग्रंथ प्रकाशन कार्य प्रारम्भ करवाकर इस विशाल ग्रंथ का प्रकाशन कार्य 3 माह की अल्पावधि में पूरा कराने में सफलता प्राप्त की है। प्रकाशन कार्यों को बहुत ही सावधानीपूर्वक देखा गया है फिर भी इतने विशाल कार्य में त्रुटियों का रहना स्वाभाविक है मेरा स्वयं का अल्प ज्ञान है। अत: साधु वर्ग विद्वतजन व अन्य पाठकों से निवेदन है कि त्रुटियों के लिये क्षमा करें। प्रस्तुत ग्रंथ में प्रकाशित चित्रों को बनवाने में श्री बाबूलालजी शर्मा ने मुझे बहुत सहयोग प्रदान किया है। अत: धन्यवाद देता हूँ। ग्रंथमाला समिति के प्रकाशन कार्यों में सभी सहयोगी कार्यकर्ताओं का भी मैं बहुत-बहुत आभारी हूँ कि आप सभी ने समय-समय पर कार्य पूरा कराने में सहयोग प्रदान किया है। मेरे सुपुत्र श्री प्रदीप कुमार गंगवाल ने परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुंथु सागरजी महाराज के शुभाशीर्वाद से इस कार्य को पूरा कराने में कठिन परिश्रम किया है। अन्य सहयोगीगण सर्वश्री ब्र. मोती लाल हाड़ा, लल्लू लाल गोधा, रविकुमार गंगवाल, राजकुमार बोहरा, चेतन कुमार गोधा, रमेश चन्द जैन, राजीव छाबड़ा, श्रीमती कनकप्रभा हाड़ा, श्रीमती मेम देवी गंगवाल का समय-समय पर सहयोग मिलता रहा है। अत: सभी धन्यवाद के पात्र हैं। जिन-जिन विद्वानों ने पुफ रीडिंग का कार्य समय पर पूरा कराने में हमें सहयोग प्रदान किया है उनको भी धन्यवाद देता हूँ। परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुंथु सागर जी महाराज के मंगलमय शुभाशीर्वाद से हमें (प्रतापगढ़) राजस्थान में इन्द्रध्वज महामण्डल पूजा विधान के पूजा शुभावसर पर शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त हो सका है। और इसी शुभावसर पर ग्रंथमाला समिति द्वारा प्रकाशित भद्रबाहु संहिता एवं सामुद्रिक शास्त्र करलखन की प्रथम प्रति परम पूज्य गणधराचार्य कुंथु सागर जी महाराज के कर-कमलों में भेंटकर नमोस्तु करता हुआ प्रार्थना करता हूँ कि आप इस ग्रंथ राज का विमोचन करके हमें लाभान्वित करने की कृपा करें। गुरु उपासक प्रकाशन संयोजक शान्ति कुमार गंगवाल (बी.काम) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दिगम्बर जैन कुन्थु विजय ग्रन्थमाला समिति का | परिचय श्री दिगम्बर जैन कुन्थु विजय ग्रन्थमाला समिति, जयपुर (राजस्थान) की स्थापना परम् पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुन्धुसागरजी महाराज व श्री 105 गणिनी आर्यिकारल विजयमती माताजी के नाम से वर्ष 1981 में की गई थी। इस ग्रन्थमाला समिति का प्रमुख उद्देश्य पूर्वाचार्यों द्वारा रचित तीर्थंकरों की वाणी के अनुसार साहित्य प्रकाशन करना है। लघुविधानुवाद इस ग्रन्थमाला समिति ने प्रथम पुष्प के रूप में 'लघुविद्यानुवाद' (यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र विद्या का एक मात्र सन्दर्भ ग्रन्थ) का प्रकाशन करवाकर इसका विमोचन श्री बाहुबली सहस्त्राभिषेक के शुभावसर पर चामुण्डराय मण्डप में दिनांक 24-2-81 को श्रवण बेलगोला में परम पूज्य सन्मार्ग दिवाकर निमित्त ज्ञान शिरोमणि श्री 108 आचार्य रत्न विमल सागरजी महाराज के कर-कमलों द्वारा करवाया गया था। इस समारोह में देश के विभिन्न प्रान्तों से पधारे हुए लाखों नर-नारियों के अलावा काफी संख्या में मंच पर दिगम्बर जैनाचार्य मुनिगण व अन्य साधु वर्ग उपस्थित थे। श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर अनाहत (यन्त्र मन्त्र विधि) ग्रन्थमाला समिति ने द्वितीय पुष्प "श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर अनाहत' यन्त्र मन्त्र विधि पुस्तक कनड़ से हिन्दी में अनुवादित करवाकर इसका प्रकाशन दिनांक 9-5-82 को श्री पार्श्वनाथ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूलगिरि अतिशय क्षेत्र, जयपुर (राजस्थान) में आयोजित पंचकल्याणक महोत्सव के शुभावसर पर भारत गौरव श्री 108 आचार्यरत्न देशभूषणजी महाराज के कर कमलों द्वारा विमोचन करवाया गया। तजो मान करो ध्यान में भारत गौरव आचार्यरत्न श्री 108 देशभूषणजी महाराज का चातुर्मास वर्ष 1982 में जयपुर हुआ और इसी वर्ष दशलक्षण पर्व के शुभावसर पर समिति ने अपने तृतीय पुष्प के रूप में "तजो मान करो ध्यान" पुस्तक का प्रकाशन करवाकर आचार्य श्री के ही कर-कमलों द्वारा दिनांक 29-8-82 को महावीर पार्क, जयपुर (राजस्थान) में हजारों नर-नारियों के बीच इस पुस्तक का विमोचन करवाया। यह समारोह भी बहुत ही सुन्दर था । हुम्बुज श्रमण सिद्धान्त पाठावलि ग्रन्थमाला समिति ने चतुर्थ पुष्प "हुम्बुज श्रमण सिद्धान्त पाठावलि" ग्रन्थ का प्रकाशन करवाया, इसका विमोचन परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुन्धुसागरजी महाराज के हासन (कर्नाटक) चातुर्मास में आयोजित इन्द्रध्वज विधान के विसर्जन के शुभावसर पर दिनांक 2-12-82 को हजारों जन-समुदाय के बीच बड़ी धूमधाम से इस महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रन्थराज का विमोचन करवाया। इस समारोह में मूड़बद्री के भट्टारक महास्वामीजी भी उपस्थित थे। हुम्बुज श्रमण सिद्धान्त पाठावलि एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ रत्न है। यह ग्रन्थ लगभग 75 ग्रन्थों का 1000 पृष्ठों का गुटका है। इसमें साधुओं के पाठ करने के सभी आवश्यक स्त्रोतों का संकलन कर प्रकाशन करवाया है। इस ग्रन्थ के प्रकाशन से साधुओं को अनेक ग्रन्थ साथ में नहीं रखने पड़ेंगे। साधु संघ के विहार के समय अनेक ग्रन्थों को मार्ग में ले जाने से जो दिक्कत होती थी, वह अब नहीं होगी और साथ ही साथ जिनवाणी की भी अविनय नहीं होगी ! मात्र एक ही ग्रन्थराज (हुम्बुज श्रमण सिद्धान्त पाठाबलि) के रखने से सारा कार्य हो जायेगा। इस प्रकार के ग्रन्थ का प्रकाशन प्रथम बार ही हुआ है ऐसा सभी साधुओं व विद्वानों का मत है । साधुवर्ग इस प्रकाशन से बहुत लाभान्वित हुआ है। यह ग्रन्थ सभी संघों में साधुओं को ग्रन्थमाला समिति की ओर से मात्र डाक खर्च पर स्वाध्याय हेतु वितरित किया गया है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनर्मिलन--- ग्रन्थमाला समिति ने पंचम पुष्प "पुनर्मिलन" (अंजना का चरित्र) पुस्तक का प्रकाशन करवाकर श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव (श्री दिगम्बर जैन आदर्श महिला विद्यालय श्री महावीरजी अतिशय क्षेत्र) के जन्म कल्याणक के शुभावसर पर दिनांक 12-2-84 को श्री 108 आचार्य सन्मतिसागरजी महाराज (अजमेर) के कर-कमलों द्वारा हजारों की संख्या में उपस्थित जन-समुदाय के बीच विमोचन करवाया। श्री शीतलनाथ पूजा विधान (संस्कृत) ग्रन्थमाला समिति ने षष्ठम पुष्प "श्री शीतलनाथ पूजा विधान" कनड़ से संस्कृत भाषा में अनुवादित करवाकर अलवर (राजस्थान) में आयोजित पचकल्याणक में जन्म कल्याणक के शुभावसर पर श्री 108 आचार्य सन्मतिसागरजी महाराज (अजमेर) के कर-कमलों द्वारा दिनांक 5-3-84 को बड़ी धूमधाम से इसका विमोचन कराया। शान्ति विधान के समान ही यह शीतलनाथ विधान है। इस विधान की पुस्तक के प्रकाशन से उत्तर भारत के लोग भी अब इससे लाभ उठा सकेंगे, जो कनड़ भाषा नहीं जानते हैं। वर्षायोग स्मारिका श्री 108 आचार्य सन्मतिसागरजी महाराज (अजमेर) ने वर्ष 1984 का चातुर्मास जयपुर में किया। ग्रन्थमाला समिति ने इस शुभावसर पर एक बहुत ही सुन्दर वर्षायोग स्मारिका का प्रकाशन करवाकर बुलियन बिल्डिंग, जयपुर (राजस्थान) में विशाल जनसमुदाय के बीच दिनांक 28-10-84 को श्री 108 आचार्य सन्मतिसागर जी महाराज (अजमेर) के कर-कमलों द्वारा विमोचन करवाया। इस स्मारिका में वर्षायोग में आयोजित कार्यक्रमों के चित्रों की झलक प्रस्तुत की गई है और अलग-अलग विषयों पर ही ज्ञानोपयोगी साधुओं द्वारा लिखित लेख प्रकाशित किये गये हैं। श्री सम्मेद शिखर माहात्म्यम्--- परम पूज्य श्री 108 आचार्यरत्न धर्मसागरजी महाराज ने विशाल संघ सहित अपना 1985 का वर्षायोग श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र लूणवां (राजस्थान) में किया। समिति ने इस अवसर पर अष्टम पुष्प के रूप में "श्री सम्मेदशिखर माहात्म्यम्" ग्रन्थ का प्रकाशन Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करवाकर आचार्य श्री के कर कमलों द्वारा दिनांक 14-7-85 को विशाल जनसमुदाय के बीच विमोचन करवाया। श्री सम्मेदशिखर माहात्म्यम् एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। श्री सम्मेदशिखर जी के महत्त्व पर प्रकाश डालने वाले इस प्रकार के ग्रन्थ का प्रकाशन आज तक नहीं हुआ है। इस ग्रन्थ में 24 तीर्थकरों के चित्र, प्रत्येक कूट का चित्र अर्घ व उसका फल प्रकाशित किया गया है। संसार में सम्मेदशिखर जी सिद्धक्षेत्र जैसा कोई नहीं है। क्योंकि यह तीर्थराज अनादिकाल का है और इस सिद्धक्षेत्र से हमारे 24 तीर्थकरों में से 20 तीर्थंकर मोक्ष पधारे और उनके साथ-साथ असंख्यात मुनिराज मोक्ष पधारे हैं। इसलिये इस क्षेत्र का कण-कण पूज्यनीय व वंदनीय है। इस क्षेत्र की वंदना करने से मनुष्य के जन्म-जन्म के पापों का क्षय हो जाता है और उसके लिए मोक्ष मार्ग आसान हो जाता है तथा उसे नरक व पशुगति में जन्म नहीं लेना पड़ता और नह 40वें भव में निश्चय ही मोक्ष की प्राप्ति करता है। कहा भी है भाव सहित वंदे जो कोई। ताहि नरक पशुगति नहीं होई॥ इस प्रकार इस ग्रन्थ के प्रकाशित होने से अनेक भव्यात्माओं ने इस ग्रन्थ को पढ़कर सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र की यात्रा कर धर्म लाभ प्राप्त किया है और कर रहे हैं। फोटो प्रकाशन एवं निःशुल्क वितरण माह फरवरी 87 में बोरीवली बम्बई में आयोजित मानस्तम्भ पंचकल्याणक महोत्सव के शुभावसर पर (जन्म-कल्याणक महोत्सव) दिनांक 5-2-87 को परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुन्थु सागरजी महाराज व श्री 105 गणिनी आर्यिका विजयमती माताजी के फोटो प्रकाशित कर इसका विमोचन न्यूयार्क निवासी धर्म स्नेही गुरुभक्त श्री महेन्द्रकुमार जी पाण्ड्या व उनकी धर्मपत्नी श्रीमती आशादेवीजी पाण्ड्या के कर कमलों द्वारा करवाया। दोनों फोटो बहुत ही सुन्दर व मनमोहक हैं। विशिष्ट गुरुभक्तों को निःशुल्क वितरण की गई है। इसके साथ-साथ जिन मन्दिरों व क्षेत्रों पर समिति द्वारा फ्रेम में जड़वाकर फोटो लगवाये गये हैं। रात्रि भोजन त्याग कथा -. .---. - परम पूज्य श्री 108 आचार्य रत्न निमित्तज्ञान शिरोमणि विमलसागर जी महाराज विशाल - Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ सहित राणाजी की नसियाँ खानियाँ, जयपुर (राजस्थान) में वर्षायोग करने हेतु दिनांक 3-7-87 को पधारे। ग्रन्थमाला समिति ने दिनांक 5-3-87 को ही अपना नवम् पुष्प रात्रि भोजन त्याग कथा पुस्तक का प्रकाशन करवाकर इसका विमोचन आचार्य श्री के कर कमलों से करवाया। रात्रि भोजन त्याग कथा पुस्तक का पुनः प्रकाशन- रात्रि भोजन त्याग कथा पुस्तक को पढ़कर अनेकों धर्म प्रेमी भाई बहिनों ने रात्रि भोजन का त्याग कर रात्रि भोजन से होने वाली हानियों से बचकर धर्म लाभ प्राप्त किया। पुस्तक बहुत ही लोक प्रिय होने के कारण अल्प समय में ही इसकी प्रतियाँ समाप्त हो गई और पुस्तक की माँग बराबर बनी रही। इसलिये ग्रन्थमाला समिति ने इस पुस्तक का पुनः प्रकाशन करवाकर दिनांक 22-7-91 को रोहतक नगर (हरियाणा) में परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुन्थुसागर जी महाराज ही के संघ सानिध्य में आयोजित मुनि दीक्षा समारोह के अवसर पर हजारों जन समुदाय की उपस्थिति में मुनि श्री जगदीश जी महाराज से विमोचन करवाया। केशञ्चन क्या और क्यों ? परम पूज्य श्री 108 आचार्य विमलसागर जी महाराज के जयपुर (राजस्थान) में वर्षायोग के समय आचार्य श्री की आरती, जिनवाणी स्तुति, वर्षायोग करने वाले साधुओं की सूची का प्लास्टिक कवरयुक्त कार्ड प्रकाशित करवाकर निःशुल्क वितरण किये गये। आचार्य श्री, उपाध्याय श्री, संघस्थ साधुओं के केशलुञ्चन समारोह के अवसर पर एक लघु पुस्तिका केशलुञ्चन क्या और क्यों ? का प्रकाशन करवाकर निःशुल्क वितरण किये गये जन्म जयन्ति पर्व क्यों ? दिनांक 14-7-87 को आचार्य श्री की 72वीं जन्म जयन्ति के शुभावसर पर जन्म जयन्ति पर्व क्यों ? एक लघु पुस्तिका का प्रकाशन करवाकर निःशुल्क वितरण किया। इससे जन्म-जयन्ति पर्व मनाने की जानकारी सुलभ हो गई। शीतलनाथ पूजा विधान (हिन्दी) - वर्षायोग समाप्ति पर परम पूज्य श्री 108 आचार्यरत्न विमलसागर जी महाराज विशाल | Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ (43) पिच्छी सहित दिनांक 27-11-87 को ग्रन्थमाला के कार्यालय पर पधारे। इतने विशाल संघ का समिति के कार्यालय पर पधारना ग्रंथमाला के इतिहास में स्वर्ण अवसर था। इस शुभावसर पर आचार्य श्री के कर-कमलों से श्री 1008 धर्मनाथ भगवान की मूर्ति विराजमान की गई। ग्रन्थमाला का कार्यालय हमारे निवास स्थान पर है अत: हमारे निजी खर्च से यह कार्यक्रम सम्पन्न करवाया। तत्पश्चात् समिति द्वारा प्रकाशित दशम् पुष्प श्री शीतलनाथ पूजा विधान (हिन्दी) का विमोचन आचार्य श्री के कर-कमलों द्वारा करवाया गया। श्री भैरव पद्यावती कल्प: परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुन्थुसागर जी महाराज विशाल संघ सहित वर्ष 1987 का वर्षायोग अकलूज (महाराष्ट्र) में पूर्ण धर्म प्रभावना के साथ समाप्त करके चतुर्विध संघ के साथ तीर्थराज श्री सम्मेदशिखरजी पहुँचे। ग्रन्थमाला समिति ने इस उपलक्ष्य में । 1वौं पुष्प "श्री भैरव पद्यावती कल्पः" ग्रन्थ का प्रकाशन करवाकर इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का विमोचन परम पूज्य श्री 108 आचार्य सन्मार्ग दिवाकर निमित्तज्ञान शिरोमणि विमलसागर जी महाराज के कर-कमलों द्वारा दिनांक 13-3-88 को विशाल जन-समूह के मध्य प्रवचन हाल में श्री महावीरजी अतिशय क्षेत्र पर अष्टाह्निका पर्व पर करवाया। यह समारोह बहुत ही सुन्दर रहा। सच्चा कवच परम पूज्य श्री 108 आचार्य विमलसागरजी महाराज विशाल संघ सहित कुछ दिनों तक श्री महावीर जी अतिशय क्षेत्र पर ही विराजे। इसी बीच दिनांक 31-3-88 को श्री महावीर जयन्ति का शुभावसर आया और ग्रन्थमाला समिति ने इस शुभावसर पर 12वाँ पुष्प "सच्चा कवच' का प्रकाशन करवाकर श्री शान्तिवीर नगर, सन्मति भवन में कार्यक्रम आयोजित करके परम पूज्य श्री 108 आचार्य विमलसागर जी महाराज के कर-कमलों द्वारा इस पुस्तक का विमोचन करवाया। श्री गोम्मट प्रश्नोत्तर चिंतामणी ग्रन्थमाला समिति ने तेरहवें पुष्प के रूप में श्री गोम्मट प्रश्नोत्तर चिंतामणि ग्रन्ध का प्रकाशन करवाकर आरा (बिहार) में आयोजित पंचकल्याणक महोत्सव में जन्म कल्याणक Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के शुभावसर पर दिनांक 11-12-88 को परमपूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुन्थु सागरजी महाराज के कर-कमलों द्वारा हजारों की संख्या में उपस्थित जन-समुदाय के बीच करवाया। श्री गोम्मट प्रश्नोत्तर चिंतामणि ग्रन्थ जैन रामायण सरिका (गागर में सागर) के समान 1100 पृष्ठों का वृहद् ग्रन्थ है। 38 ध्यान के रंगीन चित्र इसमें प्रकाशित किये गये हैं। इस ग्रन्थ के संकलनकर्ता परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुन्थुसागरजी महाराज ही हैं। ग्रन्थ के सम्बन्ध में गणधराचार्य महाराज के विचार निम्न प्रकार है "ग्रन्थ में करुणानुयोग, द्रव्यानुयोग आदि सभी प्रकार की चर्चायें संग्रहित की गई हैं और आधार लिया गया है जिनागम का मैं समझता हूँ, कि स्वाध्याय प्रेमियों को इस एक ही ग्रन्थ के स्वाध्याय करने से जिनागम का बहुत कुछ ज्ञान हो सकता है, इस ग्रन्थ में गुणस्थानानुसार श्रावक धर्म, मुनि धर्म, आत्म ध्यान पींडस्थ रूपातीत आदि ध्यान और उनके चित्रों सहित वर्णन किया गया है, और अनेक सामग्री संकलित की गई है। यह ग्रन्थ अपने आप में एक नया ही संग्रहित हुआ है, इस ग्रन्थ में सभी ग्रन्थों से लेकर 2,178 श्लोकों का संग्रह है।" इस ग्रन्थ में पूर्वाचार्यकृत गोम्मट्टसार, जीवकाण्ड, त्रिलोकसार, मूलाचार, ज्ञानार्णव, समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, रत्नकरंड श्रावकाचार, तत्त्वार्थ सूत्र, राजवार्तिक आचारसार, अष्टपाहुड, हरिवंश पुराण, आदि पुराण, वसुनंदी श्रावकाचार, परमात्म प्रकाश, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, समयसार कलश, धवलादि, उमास्वामी का श्रावकाचार, जैन सिद्धान्त प्र. दशभक्त्यादि संग्रह, चर्चाशतक, चर्चासमाधान, स्याद्वाद चक्र, चर्चासागर, सिद्धान्तसागर प्रदीप, मोक्ष मार्ग प्रकाशक, त्रिकालवर्ती महापुरुष आदि बड़े-बड़े ग्रन्थों का आधार लेकर संग्रह किया गया है। धर्म ज्ञान एवं विज्ञान ग्रन्थमाला समिति ने चौदहवें पुष्प के रूप में "धर्म ज्ञान एवं विज्ञान" पुस्तक का भी प्रकाशन करवाकर आरा (बिहार) में आयोजित पंचकल्याणक महोत्सव में जन्म कल्याणक के शुभावसर पर परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुन्थु सागरजी महाराज के कर-कमलों द्वारा दिनांक 11-12-88 को करवाया है। इस पुस्तक में जैन धर्म के तत्त्वों का सरल भाषा में उल्लेख किया गया है। पुस्तक के लेखक गणधराचार्य महाराज के परम शिष्य ऐलाचार्य उपाध्याय सिद्धान्त चक्रवर्ति परम पूज्य श्री 108 कनक नन्दि जी महाराज हैं। पुस्तक सभी के लिए पठनीय है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघाधिपति आचार्थों का फोटो कलैण्डर का प्रकाशन __ ग्रन्थमाला समिति ने संघाधिपति आचार्यों का फोटो कलैण्डर प्रकाशित करवाकर इस कलैण्डर की प्रथम प्रति परम पूज्य विमल सागर जी महाराज को दिनांक 23-12-88 को सिद्धक्षेत्र श्री सोनागिरजी में भेंट की गई। इस फोटो कलैण्डर के मध्य में जैनाचार्य परम पूज्य मुनि कुंजर समाधि सम्राट श्री 108 आचार्य आदि सागरजी महाराज (अंकलीकर) का फोटो प्रकाशित किया गया है। इसके चारों ओर परमपूज्य श्री 108 आचार्य शान्ति सागरजी महाराज आचार्य महावीर कीर्तिजी महाराज आदि 13 प्रमुख आचार्यों के फोटो प्रकाशित किये गये हैं। इसके नीचे श्री 105 गणिनी आर्यिका विजयमती माताजी, गणिनी आर्यिका कुलभूषण मति माताजी के फोटो प्रकाशित किये गये हैं। इस प्रकार यह कलैण्डर बहुत ही सुन्दर तथा मनमोहक है। इसके प्रकाशन में समिति का यही उद्देश्य है कि एक ही फोटो कलैण्डर के माध्यम से सभी भव्य आत्माओं को सभी साधुओं के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हो सके। शान्ति मण्डल कल्प: (पूजा) परम पूज्य श्री 108 आचार्य आदिसागरजी महाराज (अंकलीकर) की 46वीं पुण्य तिथि (समाधि दिवस) के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह में परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुन्थुसागरजी महाराज के कर-कमलों द्वारा श्री दिगम्बर जैन मन्दिर चम्पा बाग, ग्वालियर में भारी जनसमूह के बीच दिनांक 5-3-89 को विमोचन करवाया। प्रथम पुष्प लघुविद्यानुवाद ग्रन्थ का पुनः प्रकाशन---- ग्रन्थमाला समिति द्वारा प्रथम पुष्प के रूप में प्रकाशित 'लघुविद्यानुवाद' ग्रन्थ का पुनः प्रकाशन करवाकर इस ग्रन्थ का विमोचन दिनांक 8-2-90 को बड़ौत में आयोजित मुनि दीक्षा समारोह के शुभावसर पर परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुन्थुसागरजी महाराज से करवाया गया है। यह ग्रन्थ यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र विषय का एक मात्र सन्दर्भ ग्रन्थ है। ___ इस ग्रन्थ के द्वितीय संस्करण में विमल भाषा टीका (पद्मावती स्तोत्र वृत्याष्टक) का अध्याय यन्त्र-मन्त्र सहित और सम्मिलित करके प्रकाशित करवाया गया है जिससे अब यह Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ प्रथम संस्करण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ बन गया है। घण्टाकर्ण मन्त्र कल्प: ग्रन्थमाला समिति ने 16वें पुष्प के रूप में घण्टाकर्ण मन्त्र कल्पः ग्रन्थ का प्रकाशन करवाकर श्री दिगम्बर जैन चन्द्राप्रभु जिनमन्दिर अतिशय क्षेत्र तिजारा (अलवर) के प्रांगण में परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुन्थुसागरजी के कर कमलों द्वारा दिनांक 30-1-91 को विमोचन करवाया है। इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ में यन्त्र मन्त्र प्रकाशित किये गये हैं जिनके माध्यम से श्रद्धा सहित ग्रन्थ में वर्णित विधि से उपयोग करने पर अनेक प्रकार के रोग शोक आधि-व्याधि से भव्य जीव छुटकारा पा सकते हैं। व्रत कथा कोष ग्रन्थमाला समिति ने 17वें पुष्प के रूप में " व्रत कथा कोष" ग्रन्थ का प्रकाशन करवाकर श्री दिगम्बर जैन जतीजी भवन रोहतक (हरियाणा) के प्रांगण में मुनि दीक्षा समारोह के शुभावसर पर परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुन्थुसागरजी महाराज के कर कमलों द्वारा दिनांक 22-7-91 को करवाया है। इस ग्रन्थ में व्रतों की तिथियाँ निर्णय करने की विधि महत्वपूर्ण है । व्रतों की कथाएँ उपवासों की विधि अनेक फलादि का सुन्दर विवेचन है। लोग "भूखों मरने से क्या " लाभ कहकर, व्रतों की उपेक्षा कर देते हैं। गणधराचार्य कुन्धुसागरजी महाराज ने इस विशाल ग्रन्थ का संग्रह कर कथा साहित्य को तो प्रचलित किया ही है लेकिन साथ ही साथ वर्तमान अध्यात्मवाद के आभास में भटके भव्य जीवों को त्याग तपस्या की महान प्रेरणा प्रदान की है। व्रत अवास आत्मशुद्धि परिणाम विशुद्धि के सबल आधार समान है। व्रत करने की विधि तथा व्रत कथा विषय के अनेक साहित्य उपलब्ध हैं। किसी में 25 किसी में 20 या अधिक से अधिक 100 कथाओं का संकलन मिलता है। लेकिन इस वृहदाकार ग्रन्थ में लगभग 375 से भी अधिक कथाओं का संकलन है। इस प्रकार व्रत सम्बन्धी सर्वांग सुन्दर, वृहद् ग्रन्थ का आज तक प्रकाशन नहीं हुआ है। गणधराचार्य कुन्थुसागरजी महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय पुस्तक- परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुन्धुसागरजी महाराज ने अपने विशाल संघ सहित Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - , राजस्थान की राजधानी गुलाबी नगर जयपुर में दिनांक 29-12-91 को मंगल प्रवेश किया। इस अवसर पर ग्रन्थमाला समिति ने जिनागम सिद्धान्त महोदधि परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुन्थुसागरजी महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय पुस्तक का प्रकाशन करवाकर हजारों की संख्या में उपस्थित जनसमुदाय के मध्य रामलीला मैदान जयपुर में ऐलाचार्य उपाध्याय श्री 108 कनक नन्दि जी महाराज के कर कमलों से करवाया गया। प्रकाशित पुस्तक को पढ़कर सभी धर्मप्रेमी बन्धुओं ने गणधराचार्य महाराज बारे में पूर्ण परिचय पाकर लाभ प्राप्त किया। समाधि सम्राट तीर्थ भक्त शिरोमणि आचार्य महावीर कीर्तिजी महाराज जीवन परिचय पुस्तक परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य महाराज के संघ सानिध्य ने गुरुदेव आचार्य महावीर कीर्तिजी महाराज का 21वाँ स्मृति दिवस दिनांक 26-1-92 को रामलीला मैदान जयपुर में मनाया गया। इस अवसर पर ग्रन्थमाला समिति ने आचार्य महावीर कीर्तिजी महाराज का जीवन परिचय पुस्तक का प्रकाशन करवाकर इसका विमोचन परमपूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुन्थुसागरजी महाराज के कर कमलों से करवाया गया। स्टीकर एवं गणधराचार्य कुन्थुसागरजी महाराज के फोटो का प्रकाशन परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुन्थुसागरजी महाराज का जन्म जयन्ती महोत्सव जवाहर नगर जयपुर में कई धार्मिक कार्यक्रमों के साथ बड़ी धूमधाम से मनाया गया। इस अवसर पर ग्रन्थकाला समिति ने परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुन्धुसागर जी महाराज का सुन्दर फोटो प्रकाशित करके इसका विमोचन करवाया। प्रकाशित फोटो बहुत ही सुन्दर एवं मनमोहक है। इसके पूर्व दुर्गापुरा जयपुर में आयोजित वेदी प्रतिष्ठा महोत्सव के शुभावसर पर श्रुत पंचमी को गणधराचार्य श्री की 46वीं जन्म जयन्ती के उपलक्ष्य में स्टीकर का प्रकाशन करवाकर इसका विमोचन दिनांक 5-6-92 को संघस्थ प्रज्ञा श्रमण मुनि श्री 108 कल्पश्रुत नन्दिजी महाराज के कर कमलों से करवाया। स्टीकर बहुत ही सुन्दर तथा लोकप्रिय रहा। इस पर त्रय आचार्यो आचार्य आदिसागर जी (अंकलीकर), आचार्य महावीर कीर्तिजी महाराज तथा गणधराचार्य Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्थुसागरजी महाराज के चित्र प्रकाशित किये गये हैं। प्रतिष्ठा विधि दर्पण परम पूज्य भारत गौरव श्री 108 गणधराचार्य कुन्थुसागरजी महाराज के संघ सान्निध्य में भट्टारक जी की नसियाँ में विशाल रूप में जयपुर में पहली बार ऐतिहासिक कल्पद्रुम महामण्डल विधान हुआ। जिसमें हजारों की संख्या में लोगों ने भाग लेकर धर्म लाभ प्राप्त किया। ऐसे शुभावसर पर ग्रन्थमाला समिति ने प्रतिष्ठा विधि दर्पण ग्रन्थ का प्रकाशन करवाकर दिनांक 20-9-92 को परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुन्थुसागरजी महाराज के कर-कमलों द्वारा विमोचन करवाया। प्रतिष्ठा विधि दर्पण ग्रन्थ के प्रकाशन में परम पूज्य गणधराचार्य श्री यही भावना रही है कि जिनेन्द्र प्रभु की मूर्ति, मन्दिर निर्माण का कार्य तथा पंचकल्याणक का कार्य आदि सभी पक्षपातों को छोड़कर आगम के अनुसार किये जावे। इसलिये इस ग्रन्थ में प्रत्येक क्रिया को विस्तार से लिखी गई है और प्रतिष्ठाचार्यों को विषय सरल रूप से समझाने हेतु यंत्रों का भी प्रकाशन इस ग्रन्थ में किया गया है। इसके फलस्वरूप प्रतिष्ठाचार्य मात्र इस एक ग्रन्थ से प्रतिष्ठा महोत्सव का आयोजन करा सकेंगे। गणधराचार्य महाराज का पाकेट साईज फोटो का प्रकाशन परम पूज्य प्रातः स्मरणीय भारत गौरव श्री 108 गणधराचार्य कुन्थुसागरजी महाराज का वर्ष 1992 का वर्षायोग जयपुर में पूर्ण धर्म प्रभावना से पूर्ण हुआ। गणधराचार्य श्री की सभी को याद बनी रहे, इस भावना से ग्रन्थमाला समिति ने गणधराचार्य महाराज का लेमिलेशन युक्त पॉकेट साईज फोटो को प्रकाशन करवाकर इसका विमोचन राजस्थान जैन सभा द्वारा आयोजित श्री दिगम्बर जैन मन्दिर महावीर स्वामी में भगवान महावीर स्वामी निर्वाणोत्सव कार्यक्रम में 26-10-1992 को विमोचन करवाया। ग्रन्थमाला समिति के कार्यों में यह बात विशेष उल्लेखनीय है कि यह ग्रन्थमाला समिति सभी आचार्यों, साधुओं, विशिष्ट विद्वानों, पत्रों के प्रकाशकों, प्रकाशन ख़र्च में सहयोग करने वाले सभी दानदाता को सभी प्रकाशन व्यक्तिगत रूप से भेंट करती है या मात्र डाक खर्च पर भिजवाती है। इस प्रकार पाठकगण अवलोकन करें कि ग्रन्थमाला समिति के आर्थिक साधन न होते Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i हुए भी इतने कम समय में उपर्युक्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के प्रकाशन करवाने में सफलता प्राप्त की है। सभी ग्रन्थ एक से बढ़कर एक है और सभी ज्ञानोपार्जन के लिये लाभकारी सिद्ध हुए है। ऐसे सभी आचावी, सासुओं, विद्वानों के विवाद हमें समय-समय पर प्राप्त होते रहे हैं। यह सभी सफलता परम पूज्य सभी आचार्यों व साधुओं के शुभाशीर्वाद के साथ-साथ परम पूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुन्थुसागरजी महाराज व श्री 105 गणिनी आर्यिका विजयमती माताजी के विशेष शुभाशीर्वाद से ही हो सका है। इसके लिये हम सभी उनके कृतज्ञ हैं और उनके चरणों में नतमस्तक होकर शत शत बार नमोस्तु अर्पित करते हैं। मुझे आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि पाठकगण ग्रन्थमाला समिति द्वारा प्रकाशित ग्रन्थों का स्वाध्याय करके पूर्ण ज्ञानोपार्जन कर रहे हैं और आगे भी इस ग्रन्थमाला से जिन-जिन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन होगा, उनसे पूर्ण लाभ उठा सकेंगे और त्रुटियों के लिये क्षमा करेंगे। शान्तिकुमार गंगवाल प्रकाशन संयोजक जिनवाणी का माहात्म्य जिनवाणी का एकाग्रचित होकर सेवन करने का फल भात्मा की उन्नति करना है। यह उन्नति तभी सम्भव है जबकि ससाहित्य को पढ़कर धर्म के मर्म को समझने की जिसमें जिज्ञासा या आकांक्षा हो। सम्यग्ज्ञान के महत्व को जिन्होंने समझा है, उन्होंने स्वाध्याय को अपना कर सद्-साहित्यों का अध्ययन किया है। वह अपनी आत्मा के निज स्वभाव में रत रहते हैं। ज्ञानाराधना एक तपश्चर्या है । 000 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची पृष्ठ सं. अध्याय भद्रबाहु संहिता प्रथम अध्याय १-८२२ 1-22 मंगलाचरण ग्रन्थ उत्थानिका रबमा का उद्देश्य प्रतिपाद्य विषयों की तालिका उल्का परिवेष विद्युत् अभ्र सन्ध्या मेघ वात प्रवर्षण गन्र्धव नगर गर्भ यात्रा उत्पात ग्रहचार ग्रहयुद्ध वातिक या अर्धकाण्ड स्वप्न मुहूर्त Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथि तिथियों की संज्ञाएँ पक्षरन्ध्र तिथियाँ मासशून्य तिथियाँ सिद्धा तिथियों दग्ध, विष और हुताशन संज्ञक तिथियों करण का स्वरूप करणों के स्वामी निमित्त शकुन पाक ज्योतिष वास्तु दिव्येन्द्र सम्पदा लक्षण चिह्न लम मेष स्वरूप वृष स्वरूप मिथुन स्वरूप कर्क स्वरूप सिंह स्वरूप कन्या विरूप तुला स्वरूप वृश्चिक स्वरूप धनु स्वरूप मकर स्वरूप Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुम्भ स्वरूप मीन स्वरूप द्वितीय अध्याय भद्रबाहु स्वामी का उत्तर विकार का स्वरूप उत्पात का स्वरूप उल्काओं की उत्पत्ति रूप, प्रमाण, फल और आकृति का वर्णन उल्का का स्वरूप उल्का के विकार धिष्ण्य का स्वरूप और फल अशनि का स्वरूप और फल शुभ और अशुभ उल्काएँ सारा का स्वरूप और फल उल्काओं का वैज्ञानिक विवेचन उल्काओं के मार्ग उल्काओं के भेद पुण्यमयी उल्काओं का फल अनिष्ट सूचक और भयप्रद उल्काएँ उल्काओं का विशेष फल तृतीय अध्याय उल्काओं द्वारा नक्षत्र ताडन का फल नील वर्ण की उल्काओं का फल बिखरी हुई उल्काओं का फल सिंह व्याघ्रादि के आकार की उल्काओं का फलादेश उल्का, अशनि और विद्युत् का फल अग्रभागादि के अनुसार उल्काओं के गिरने का फल Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नेह-युक्त और विचित्र वर्ण की उल्काओं का फल श्याम वर्ण की उल्काओं का फल अनि, मंजिष्ट, नील आदि विभिन्न वर्ण और तलवार, क्षुरिका आदि विभिन्न आकृतियों की उल्काओं का फल ब्राह्मणादि वर्गों के लिए उल्काओं का इष्टानिष्ट फल दिशाओं के अनुसार उल्काओं का फल वत्साकार उल्का का फल हाथी, मगर के आकर की उल्काओं का फल गड़गड़ाती उल्काओं का फल वेगवाली, कठोर आदि नाना तरह की उल्काओं का फल अष्टापद, पद्य, श्रीवृक्ष, चन्द्र, सूर्य आदि आकारों की उल्काओं का फलादेश नक्षत्रों को छोड़कर गमन करने वाली उल्का का फल आक्रमण करने वाले व्यक्ति के लिए चन्द्रादि ग्रहों का बल विद्युत् संज्ञक उल्का और उसका फल उल्का के गिरने का स्थानानुसार फल राजभय सूचक उल्काएँ चारों वर्गों के लिए भयोत्पन्न करनेवाली उल्काएँ स्थायी नागरिकों को भय सूचक उल्काएँ अस्तकालीन उल्काओं का फल प्रतिलोभ मार्ग से जाने वाली उल्काएँ भयोत्पादक, जयसूचक और वधसूचक उल्काएँ सेनाओं के लिए उल्काओं का फल परिघा का स्वरूप विभिन्न मागों से गिरने वाली उल्काओं का सेना के लिए फल डिम्भरूप उल्का का फल जन्म नक्षत्र में बाणसदृश गिरने वाली उल्का का फल पापरूप उल्काओं का फल Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथि, नक्षत्र आदि के अनुसार शुभाशुभ का कथन आकार और वर्ण के अनुसार उल्काओं का फल नक्षत्र योग के अनुसार उल्काओं का फल कमल, वृक्ष, चन्द्रादि के आकार की उल्काओं का फल सन्ध्याकालीन उल्काओं का विशेष फल राष्ट्रघातक उल्कापात कृषि फलादेश सम्बन्धी उल्कापात फसल की अच्छाई-बुराई ज्ञात करने के लिए उल्का का निमित्त विचार उल्काओं का वैयक्तिक फलादेश व्यापारिक फल अन्न के भाव बतलाने वाला उल्कापात रोग और स्वास्थ्य सम्बन्धी फलादेश चतुर्थ अध्याय परिवेषों के भेद परिवेर्षो का स्वरूप परिवेषों के कतिपय फलादेश चाँदी और कबूतर के समान चन्द्र परिवेष वर्षा सूचक परिवेष चन्द्रोदयकालीन परिवेष का फल उदय के अनन्तर होने वाले चन्द्र परिवेष का फल सूर्य परिवेष का फल समस्त दिन रहने वाले परिवेष का फल धान्यनाश, इति-भीति एवं वृक्षादि के फलसूचक परिवेष वर्णानुसार परिवेर्षो के फल गाय मरण सूचक परिवेष महामारी सूचक परिवेष 53 55 56 57 58 59 60 63 64 65 66 67 68 69 69 RF F F P R R P K 2 2 70 71 71 72 73 73 73 75 75 76 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! नक्षत्र और ग्रहानुसार परिवेष दिशा के अनुसार परिवेषों का फल तिकोने परिवेषों का फल चौकोन परिवेषों का फल अर्धचन्द्राकार एवं अट्टालिका के सदृश परिवेष परिवेष को अन्य ग्रहों के आच्छादित करने का फल पूर्व-पश्चिम की सन्ध्याओं के अनुसार परिवेष का फल परिवेष द्वारा ग्रहों के अवरुद्ध करने का फल परिवेषों का साधारण फलादेश उदयास्तकाल, मध्याह्नकाल के परिवेष का विशेष फल नक्षत्रों के अनुसार परिवेषों का फल वर्षा और कृषि सम्बन्धी परिवेषों का फलादेश सूर्य परिवेष का विशेष फल परिवेषों का राष्ट्र सम्बन्धी फलादेश परिवेषों का व्यापारिक फलादेश पञ्चम अध्याय विद्युत् के भेद और उनका स्वरूप स्निग्धा, अस्निग्धा आदि विद्युत का स्वरूप वर्षा की सूचना देने वाली विद्युत् वर्षा के अभाव की सूचना देने वाली विद्युत् अनिष्ट सूचक और जलवर्षक विद्युत् निमित्त विद्युत् वर्णों का निरूपण विद्युत् वर्णों का फलादेश ताडित विद्युत् का फल नील, ताम्र, गौर आदि वर्ण की विद्युत् का विशेष कथन आकाश के मार्गानुसार विद्युत् का कथन 13 00 00 00 00 00 00 22 76 76 78 78 79 80 81 83 84 84 86 88 92 93 97 97 99 101 101 102 103 104 104 105 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 105 106 109 विद्युत् मार्गों का कथन विद्युत् के रूप-रंग, आकार तथा शब्द द्वारा वर्षा का निर्देश ऋतुओं के अनुसार विद्युत् निमित्त का फल बसन्त ऋतु का फल ग्रीष्म ऋतु का फल शरद् ऋतु का फल हेमन्त ऋतु का फल 110 112 षष्ठम अध्याय 113 113 113 114 114 .115 115 116 116 बादलों की आकृति के वर्णन की प्रतिज्ञा स्निग्ध बादलों का फल दिशाओं के अनुसार बादलों का फल बादलों के वर्गों का फल गमन द्वारा बादलों का फल शुभ चिह्नोंवाले बादलों का फल सौम्यभक्षी, सौम्य, द्विपद और सौम्य चतुष्पदों की आकृतिवाले बादलों का फल रथ, ध्वजा, पताका, घंटा, तोरण आदि आकृति के बादलों का फल श्वेत और चिकने बादलों का फल चौपायों और पक्षियों की आकृतिक बादलों का फल भाला, बळ, त्रिशूल आदि अस्त्रों की आकृति के बादलों का फल धनुष, कवच, बाल आदि आकृतियों के बादलों का फल वृक्षों की आकृतियों में बादल का फल तिर्यक् गमन के अनुसार बादलों का फल रुधिर के समान जल की वर्षा करने वाले बादलों का फल गर्जना सहित और गर्जना रहित बादलों का फल मलिन तथा वर्ण रहित बादलों का दीप्ति दिशा में फल नक्षत्र, ग्रह आदि के निमित्तों के संयोग से बादलों का फल 117 117 118 119 119 120 121 121 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 111 122 123 शीघ्रगामी बादलों का फल जल के समान वर्ण वाले बादलों का फल विरागी, प्रतिलोम गति, अनुलोम गति के बादलों का फल नागरिकों के लिए फल आक्रमण के लिए फल बादलों का अनेक दृष्टियों से सामान्य फल . बादलों का अनेक दृष्टियों से विशेष फल तिथियों के अनुसार बादलों का फल 123 124 125 127 सप्तम अध्याय 131 131 131 132 133 135 135 136 सन्ध्याओं के भेद सूर्योदय और सूर्यास्त की सन्ध्या का फल सूर्योदय कालीन सन्ध्या का वर्ण के अनुसार फल दिशाओं के अनुसार सन्ध्या का फल सन्ध्या की परिभाषा स्निग्ध वर्ण की सन्ध्या का फल तत्काल वर्षा सूचक सन्ध्या की स्थिति उदय-अस्त की सन्ध्या में सूर्य रश्मियों का फल सन्ध्या में सूर्य परिवेष का फल सन्ध्या में सूर्य के मण्डलों का फल सन्ध्या के सरोवर, तालाब, प्रतिमा आदि की आकृति का फल राजा को भयोत्पादक सन्ध्या का स्वरूप सन्ध्या काल बादलों की आकृतिका फल सन्ध्या में विद्युत् दर्शन का फल सन्ध्या का अन्य फलादेश सन्ध्या की परिभाषा और उसका स्थिति काल सन्ध्या समय के विभिन्न शकुन 136 --- - 136 137 137 137 138 138 140 140 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141 141 141 सन्ध्या के समय पूर्व की किरणों 7 फ:अभ्रतरु का फल सन्ध्या की विभिन्न स्थिति के अनुसार उसका विशेष फलादेश सूर्योदय काल की दिशाओं के वर्ण के अनुसार फल तिथि और मास के अनुसार सन्ध्या का फल मास और नक्षत्र के अनुसार सन्ध्या का फल . 142 142 144 अष्टम अध्याय 146 146 146 147 148 149 150 150 150 मेघों के भेद अंजन आकृति के मेघों का पश्चिम दिशा का फल पीतवर्ण के मेघ का पश्चिम दिशा के अनुसार फल जाति और वर्ण के अनुसार मेघों का फल अच्छी वर्षा की सूचना देने वाले मेघों का स्वरूप युद्ध की सन्धि की सूचना देने वाले मेघ सेनापति और युद्ध की सफलता और असफलता सूचक मेघ व्याधि सूचक मेघ सिंह, शृंगालादि की आकृतियों के मेघ का फल मांसभक्षी पक्षियों की आकृति के मेघ का फल तिथि, नक्षत्र, मुहूर्त आदि के अनुसार मेघों का फल धूलि, धूम्र और रक्तवर्ण के मेघों का वर्षा-फल देश नाशक मेष त्रासयुक्त मेघ सुभिक्ष सूचक मेघ उल्का तथा बादल के समान फलादेश मेघों की आकृति, उनका काल, वर्ण, दिशा आदि का फलादेश ऋतु के अनुसार मेघों का फल तिथियों के अनुसार मेघों का फल 151 151 152 152 153 153 154 155 156 158 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष - विशेष महीनों की तिथियों के अनुसार मेघों का फल नक्षत्रों के अनुसार मेघों का फल नवम अध्याय वायु के भेद वायु द्वारा वर्षण, भय, क्षेम और जय-पराजय का कथन बलवान् वायु का कथन दिशा के अनुसार वायु का फल पाचन और मारुत वायुओं का फल अषाढ़ी पूर्णिमा के दिन पूर्व दिशा की वायु का पक्ष आषाढ़ी पूर्णिमा की दक्षिण दिशा की वायु का फल आषाढ़ी पूर्णिमा की पश्चिम दिशा की वायु का फल आषाढ़ी पूर्णिमा की उत्तर दिशा की वायु का फल आषाढ़ी पूर्णिमा की अप्रिकोण की वायु का फल आषाढ़ी पूर्णिमा की नैर्ऋत्य कोण के वायु का फल आषाढ़ी पूर्णिमा की वायव्य कोण की वायु का फल आषाढ़ी पूर्णिमा की ईशान कोण की वायु का फल दिशा और विदिशाओं के वायु का संक्षिप्त फल एक दिशा के वायु के दूसरे दिशा के वायु के टकराने का फलादेश सव्य और अपसव्य भागों के अनुसार फल प्रदक्षिणा करते पवनों का फल हुए परस्पर एक दूसरे से टकरानेवाले पवन का फल प्रदक्षिणा करते हुए पवन का फल मध्याह्न और अर्धरात्रि के वायु का फल राजा के प्रयाण के समय प्रतिलोम और अनुलोम वायुओं का फल अशुभ वायु के 10 या 12 दिन तक चलने का फल अकाल के उत्पात वायु का फल 159 160 ៩ ៩៩៩ ៩៨ ៖ 162 162 162 164 166 167 168 169 170 171 171 172 173 173 173 176 176 176 177 177 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 178 179 179 179 180 181 182 184 186 187 189 ऊर्ध्वगामी और क्रूर वायु का फल सब ओर से चलने वाले शीघ्रगामी पवन का फल राजा की सेना में दुर्गन्धित प्रतिलोम वायु का फल पश्चिम दिशा की सेना का वध सूचक वायु सन्ध्या की सपरिघा वायु का फल प्रतिलोम वायु का फल दिशा और विदिशा के अनुसार वायुओं का फल वर्षाभाव सूचक वायु वायु के द्वारा वर्षा सम्बन्धी फलादेश श्रावण आदि महीनों में वायु के चलने का फल वायु द्वारा राष्ट्र, नगर सम्बन्धी फलादेश व्यापारिक फलादेश दशम अध्याय प्रवर्षण के वर्णन करने की प्रतिज्ञा ज्येष्ठ मास में मूल नक्षत्र को बिताकर वर्षा होते ही फलादेश के विचार करने का कथन आषाढ़ शुक्ला प्रतिपदा को पूर्वाषाढा नक्षत्र में प्रथम प्रवर्षण का फल उत्तराषाढा नक्षत्र के प्रथम प्रवर्षण का फल श्रवण नक्षत्र के प्रथम प्रवर्षण का फल धनिष्टा नक्षत्र के प्रथम प्रवर्षण का फल शतभिषा नक्षत्र के प्रथम प्रवर्षण का फल पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र के प्रथम प्रवर्षण का फल उत्तराभाद्रपद नक्षत्र के प्रथम प्रवर्षण का फल रेवती नक्षत्र के प्रथम प्रवर्षण का फल अश्विनी नक्षत्र के प्रथम प्रवर्षण का फल भरणी नक्षत्र के प्रथम प्रवर्षण का फल कृत्तिका नक्षत्र के प्रथम प्रवर्षण का फल 191 191 191 192 193 193 194 194 195 195 196 196 197 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 197 198 199 199 200 200 201 201 201 202 203 203 204 रोहिणी नक्षत्र के प्रथम प्रवर्षण का फल मृगशिर नक्षत्र के प्रथम प्रवर्षण का फल आर्द्रा नक्षत्र के प्रथम प्रवर्षण का फल पुनर्वसु नक्षत्र के अनुसार प्रथम वर्ष का फल पुष्य नक्षत्र के अनुसार प्रथम वर्षा का फल । आश्लेषा नक्षत्र में होने वाली प्रथम वर्षा का फल मघा नक्षत्र में होने वाली वर्षा का फल पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में होने वाली वर्षा का फल उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र की प्रथम वर्षा का फल हस्त नक्षत्र की प्रथम वर्षा का फल चित्रा नक्षत्र की प्रथम वर्षा स्वाति नक्षत्र की प्रथम वर्षा का फल विशाखा-नक्षत्र की प्रथम वर्षा का फल अनुराधा नक्षत्र की प्रथम वर्षा का फल ज्येष्ठा नक्षत्र की प्रथम वर्षा का फल मूल नक्षत्र की प्रथम वर्षा का फल श्रावण मास की प्रथम वर्षा का फल ऋषि पुत्र के अनुसार विभिन्न महीनों की वर्षा द्वारा फलादेश मघा और पूर्वाफाल्गुनी की प्रथम वर्षा का फल उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा और अनुराधा नक्षत्रों की वर्षा का फलादेश अनुराधा नक्षत्र की वर्षा का फलादेश ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा नक्षत्रों की वर्षा का फल पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती नक्षत्रों की वर्षा का फलादेश वर्षा का प्रमाण निकालने का विशेष विचार रोहिणी चक्र द्वारा वर्षा का विचार वर्षा का विशेष विचार एवं अन्य फलादेश रोहिणी चक्र 204 205 205 206 207 209 209 209 210 212 214 215 216 217 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 219 221 221 222 222 223 224 224 224 225 225 प्रश्नलग्रानुसार वर्षा का विचार एकादश अध्याय गन्धर्वनगर का फलादेश कहने की प्रतिज्ञा सूर्योदयकालीन गन्धर्वनगर का फल वर्णों के अनुसार पूर्वदिशा के गन्धर्वगर का फल सभी दिशाओं के गन्धर्वनगर का फल कपिल वर्ण के गन्धर्व नगर का फल राजभय सूचक गन्धर्वनगर कठोर गन्धर्वनगर का फल इन्द्रधनुष के समान वर्ण वाले गन्धर्वनगर का फल परकोटा सहित गन्धर्वनगर का फल पराक्रमण की सूचना देने वाले गन्धर्वनगर दक्षिण की ओर गमन करते हुए गन्धर्वनगर का फल जलते हुए गन्धर्वनगर दिखलाई पड़ने का फल राष्ट्रविषवसूचक गन्धर्वनगर ध्वजा-पताकायुक्त गन्धर्वनगर का फल सभी दिशाओं के गन्धर्वनगर का फल कई वर्ण के गन्धर्वनगर का फल अनेक वर्ण और आकार के गन्धर्वनगर का फल रक्तगन्धर्वनगर का फल अरण्य में गन्धर्वनगर दिखलाई देने का फल स्वच्छ आकाश में गन्धर्वनगर दिखलाई देने का फल ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्गों के लिए गन्धर्वनगर का फल वराहमिहिर के अनुसार गन्धर्वनगर का फल ऋषिपुत्र के अनुसार गन्धर्वनगर का फल पंचवर्ण के गन्धर्वनगर का फल 225 226 226 227 228 228 228 229 229 229 230 231 232 233 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 233 234 236 237 238 238 238 239 239 239 240 240 240 गन्धर्वनगर का स्थान के अनुसार फल मास और धार के अनुसार गन्धर्वनार का पालादेश ज्येष्ठ और आषाढ़ मास के गन्धर्वनगर का फल श्रावण मास के गन्धर्वनगर का फल भाद्रपद मास के गन्धर्वनगर का फल आश्विन मास के गन्धर्वनगर का फल कार्तिक मास के अनुसार गन्धर्वनगर का फल मार्गशीर्ष के गन्धर्वनगर का फल पौष मास के गन्धर्वनगर का फल माघ मास के गन्धर्वनगर का फल फाल्गुन मास के गन्धर्वनगर का फल चैत्र मास के अनुसार गन्धर्वनगर का फल वैशाख मास के गन्धर्वनगर का फल तत्काल वर्षा होने के निमित्त वर्षाज्ञान के लिए अत्युपयोगी सप्तनाड़ी का चक्र सप्तनाड़ी चक्र द्वारा वर्षा ज्ञान करने की विधि चक्र का विशेष फल अक्षरानुसार ग्राम नक्षत्र निकालने का नियम ग्रहों के प्रदेश, सूर्य के प्रदेश चन्द्रमा के प्रदेश मंगल के प्रदेश बुध के प्रदेश बृहस्पति के प्रदेश शुक्र के प्रदेश शनि के प्रदेश केतु के प्रदेश वृष्टिकारक अन्य योग 241 242 244 244 245 246 246 246 246 246 246 247 247 247 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 247 सुभिक्ष-दुर्भिक्ष का परिज्ञान अन्य नियम संवत्सर निकालने की प्रतिज्ञा प्रभवादि संवत्सर बोधक चक्र ब्रहानीसी, रुद्रबीसी और विधाजीसी का कान 247 248 248 249 द्वादश अध्याय 250-265 250 250 250 251 251 251 252 253 254 254 गर्भ के कथन की प्रतिज्ञा मेघों के गर्भ धारण करने का समय रात्रि और दिन के गर्भका फल गर्भ की परिपक्ववस्था का फल पूर्व सन्ध्या और पश्चिम सन्ध्या के गर्भ का फल मेघों के गर्भ धारण के चिह्नों का कथन मेघ गर्भ के भेद और लक्षण मेघ के मास और उनका फल सौम्य गर्भ के मास और उनका फल नक्षत्रों के अनुसार गर्भ का फल वैशाख मास के गर्भ का फल दिशा और विदिशाओं में गर्भ धारण का फल वायव्यकोण और पश्चिम के गर्भ का फल दक्षिण दिशा के गर्भ का फल नील, पीतादि गर्भ का फल देवानादि के आकार के गर्भ का फल स्निग्ध गर्भ का फल सुन्दर वर्ण और आकार के गर्भ का फल कृष्ण, रूक्ष और विकृत आकृति के गर्भ का फल कृष्ण पक्ष के गर्भ का फल 255 255 255 256 256 257 257 258 258 258 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 259 260 261 262 मेघ गर्भो से जलवृष्टि का विचार मैट गौं पर विशेः शिवार मेघ गर्भ के अभाव का फल वराहमिहिर के अनुसार मेघ गर्भ का फल मेघ गर्भ के समय का विशेष विचार चारों दिशाओं में गर्भ धारण का परिज्ञान मेघविजय गणित के अनुसार मेघ गर्भ का विचार तिथि और नक्षत्रों के अनुसार मेघ गर्भ का विचार 263 264 265 265 त्रयोदश अध्याय 269-346 269 269 269 270 270 271 271 271 राजयात्रा के वर्णन की प्रतिज्ञा सफल यात्रिक का लक्षण असफल यात्रिक यात्रा करने की विधि यात्रा में विचारणीय निमित्त यात्रा में निमित्त विचार की आवश्यकता राजा की चतुरग सेना और उसके लिए निमित्त शनिश्चर की यात्रा का फल सेनापति के वधसूचक यात्रा शकुन नैमित्त, राजा, वैद्य और पुरोहितरूप विष्कम्भ नैमित्तिक के लक्षण राजा का लक्षण वैद्य का स्वरूप पुरोहित का लक्षण पुरोहितादि के योग्य होने की बात नैमित्तिक के बिना राजा की दुरावस्था का कथन यात्रा के लिए शुभ योग 273 273 273 274 274 275 275 276 280 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभमुहूर्त की यात्रा का फल भूत, भविष्य और वर्तमान का ज्ञान निमित्तों से करना चाहिए निमित्तों की आवश्यकता पर जोर तीन प्रकार भौम, अन्तरिक्ष और दिव्य निमित्तों का कथन गमनकाल के अशुभ निमित्त शुभ निमित्तों का कथन गमन समय में अग्रि का फल गमन समय में हवन का फल धूम युक्त अमि का फल हवन के विशेष रूप के अनुसार फल गमन समय में नेवला, मूषक और शूकर के देखने का फल स्थान विशेष आर हवन में प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं के अनुसार हवन का फल सेना के गमन समय में भूकम्प आदि का फल यात्रा के समय के विशेष शकुनों का फल सेना प्रयाण के समय उल्का या उल्कापात का फल जय, पराजय और विजय सूचक यात्रा निमित्त निन्दित यात्रा सूचक निमित्त प्रयाण काल में पीड़ित आदि व्यक्तियों के दर्शन का फल बहिर्भाग की पताका के विकृत होने का फल पशु-पक्षियों के आक्रमण का फल पक्षियों की विकृत आवाज का फल मोटरगाड़ी आदि के टूटने या बिगड़ने का फल प्रयाणकाल की सूर्य किरणों का फल प्रयाण के समय होने वाले शुभाशुभ निमित्त प्रयाण के समय में राजा के विपरीत कार्य करने का फल सूर्य और चन्द्र नक्षत्रों के अनुसार यात्रा का फल यात्रा काल की वायु का विचार 281 282 283 283 284 285 285 285 287 287 289 290 291 291 291 292 294 295 295 295 295 296 296 296 299 299 301 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 301 303 304 306 307 308 308 311 313 313 316 318 321 यात्रा काल में विद्युत्पात आदि का फल यात्राकाल में शस्त्र, पक्कान, घृत आदि के दर्शन का फल प्रयाणकाल में द्विपद, चतुष्पद की आवाज का विचार द्विपदादि के गर्जनों का फल प्रयाणकाल में सेना के अस्त्र-शस्त्र का फल अतिथि सत्कार की आवश्यकता पर जोर द्विपदादि पक्षियों की दिशा, वार आदि के फल गमनकाल में पक्षियों के शब्दों का विचार गमनकाल में घोड़ों का घास खाना छोड़ देने का फल गमन समय में घोड़े के शब्द पर विशेष विचार गमनकाल में घोड़ों के रङ्ग, आकृति आदि का फल गमनकाल में घोड़े के शयन का फल गमनकाल में हाथी के स्वर का फल गमनकाल में हाथी और घोड़ों के विभिन्न प्रकार के दर्शनों का फल विशेष स्थान के अनुसार फलादेश यात्राकाल में अनेक प्रकार के वृक्षों का फल कुवेशधारी और रोगी व्यक्ति के दर्शन के अनुसार फलादेश राज्य, धर्मोत्सव, कार्यसिद्धि आदि के निमित्तों का निरूपण यात्रा के लिए विचारणीय बातें यात्रा के लिए शुभ नक्षत्र दिकुशलू और नक्षत्रशूल तथा प्रत्येक दिशा के यात्रा-दिन योगिनीवास विचार चन्द्रमा का निवास चन्द्रमा का फल राहु विचार यात्रा के लिए उपयोगी तिथि चक यात्रा मुहूर्त चक्र 321 323 326 327 329 329 330 330 330 330 331 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 333 333 333 333 334 334 334 335 336 139 339 चन्द्रवास, समयशूल, दिक् और योगिनी चक्र यात्रा के लिए शुभशुभत्व का गणित द्वारा ज्ञान घातक चन्द्र विचार घातक नक्षत्र घातक तिथि विचार घातक वार, घातक लग्न घातक लग्न राशि ज्ञान करने की विधि संक्षिप्त विधि यात्राकालीन शकुन यात्रा के समय में काक विचार यात्रा में उल्लू का विचार नीलकण्ठ विचार खजन विचार तोता विचार चिड़िया विचार मयूर विचार हाथी विचार अश्व विचार गधा विचार वृषभ विचार महिष विचार गाय विचार विडाल विचार कुत्ता विचार श्रृगाल विचार यात्रा में छींक विचार 340 340 341 341 341 341 342 342 342 342 342 342 342 342 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 367-416 347 347 348 348 349 350 351 351 352 352 आठों दिशाओं में प्रहरानुसार छींक फल बोधक चक्र चतुर्दश अध्याय उत्पातों के वर्णन की प्रतिज्ञा उत्पात का लक्षण और भेद ऋतुओं के उत्पातों द्वारा फल कथन पशु और पक्षियों के विपरीताचरण का फल विकृत सन्तानोत्पत्ति का फल मद्य, रुधिरादि के बरसने का फल सरीसृप और मेढ़क आदि के बरसने का फल बिना ईंधन के अनि के प्रज्वलित होने का फल वृक्षों से रस चूने का फल वृक्षों के गिरने का फल वृक्षों के स्रवेष्टित होने का फल वृक्षों के रस का फलादेश वृक्षों के आकार-प्रकार द्वारा अनेक प्रकार का फल देवों के हैंसने, रोने, नृत्य करने आदि का फल नदियों के हँसने रोने का फल बिना बजाये बाजा बजने का फल नदियों के जल, उनकी धारा आदि का फल अस्त्र-शस्त्रों के शब्दों का फल बिना बजाये बजने वाले वादित्रों का फल आकाश से अकारण घोर शब्द सुनने का फल भूमि के कंपित तथा वृक्षों के अकारण हरे होने का फल चीटियों के निमित्त द्वारा फल कथन राजा के उपकरणों के भंग होने का फल हाथी, घोड़ा आदि सवारियों के अचानक भंग होने का फल 353 354 355 358 359 359 359 360 361 361 362 362 363 364 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 364 366 367 367 368 369 369 370 371 371 372 372 असमय में पीपल के पेड़ के पुष्पित होने का फल इन्द्रधनुष के रंगों द्वारा फल कथन चन्द्रोत्पातों का फलादेश शिव और वरुण की प्रतिमाओं के उत्पातों का फल बलदेव की प्रतिमा के छन भंग का फल वासुदेव, प्रद्युम्न और सूर्य की प्रतिमा के उत्पातों का कथन लक्ष्मी की मूर्ति और श्मशान भूमि के उत्पात विश्वकर्मा, भद्रकाली, इन्द्राणी की प्रतिमा में उत्पातों का फल धन्वन्तरि और परशुराम की प्रतिमा के विकारों का फल सन्ध्याकाल में कबन्ध निमित्त का फल सुलसा और सूत मूर्ति के विकारों का फल अर्हन्त प्रतिमा के विकारों का फल रति प्रतिमा के उत्पात का फल सूर्य के वर्ण के अनुसार फल कथन चन्द्रोत्यात का विचार ग्रहों के परस्पर भेदन का विचार ग्रहों के वर्णोत्पात का कथन ग्रहयुद्ध और ग्रहोत्पात का कथन देवों के हैंसने, रोने आदि उत्पातों का कथन पृथ्वी के नीचे धैसने का फल धूल और राख बरसने का फल पशुओं की हड्डी और मांसादि के बरसने का फल विकृत और विचित्र आकार के मनुष्यों का फल सियारिनों के नगर में प्रवेश करने का फल विभिन्न ग्रहों के प्रताड़ित मार्ग में विभिन्न ग्रहों के गमन का फल निर्जीव पदार्थों के विकृत होने का फल पूजादि के स्वयमेव बन्द होने का फल 373 374 376 377 378 379 380 380 381 381 382 383 384 385 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 503 503 504 शनि के कृष्णवर्ण का फल शनि के युद्ध का फल शनि के अस्तोदय का फल द्वादश राशियों में शनि की स्थिति का फल शनि के उदय का विचार शनि के अस्त का विचार नक्षत्रानुसार शनि का फल 505 507 508 509 सप्तदश अध्याय 513-535 513 513 513 514 514 514 514 515 गुरु के उदयास्त के कथन की प्रतिज्ञा बृहस्पति के मंडल का अशुभत्व बृहस्पति के मेचकवर्ण के मंडल का फल बृहस्पति के तीन चार नक्षत्रों के बीच के गमन का फल बृहस्पति के मध्यम मार्ग का कथन बृहस्पति के दक्षिण मार्ग के नक्षत्र बृहस्पति का दक्षिणोत्तर मार्ग बृहस्पति और केतु के दक्षिण मार्ग का कथन बृहस्पति और केतु के दक्षिण मार्ग का फल बृहस्पति में दीप्त होकर उत्तर की ओर से स्वाति नक्षत्र के गमन का फल बृहस्पति के हस्वमार्ग, प्रतिलोम और अनुलोम मार्ग का कथन बृहस्पति के संवत्सर वर्ष का फल बृहस्पति के पुष्यादि दो नक्षत्रों के गमन का फल बृहस्पति के गुरुपुष्य योग के समान योग करने वाले नक्षत्र बृहस्पति के नक्षत्रों के अनुसार अंग-प्रत्यंगों का विवेचन बहस्पति द्वारा कत्तिका और रोहिणी के घात का फल पुष्य नक्षत्र के घात का फल सौम्यायन संवत्सर में विशाखा नक्षत्र पर बृहस्पति के गमन का फल 515 515 516 517 518 519 519 520 520 521 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 522 524 525 माघ, फाल्गुन, चैत्र आदि बृहस्पति के वर्षा का फल वैशाख वर्ष का फल आषाढ़ वर्ष का फल श्रावण, भाद्रपद, आश्विन वर्षों का फल बृहस्पति के नक्षत्रों का फल स्वाति, अनुराधा, मूल, विशाखा और शतभिषा में बृहस्पति के अभिघातित होने का फल बृहस्पति द्वारा बायीं और दाहिनी ओर नक्षत्रों का अभिघातित होने का फल बृहस्पति के चन्द्रमा की प्रदक्षिणा का फल चन्द्र द्वारा बृहस्पति के आच्छादन का फल मास के अनुसार गुरु के राशि परिवर्तन का फल द्वादश राशि स्थित गुरुफल बृहस्पति के वक्री होने का विचार गुरु का नक्षत्र भोग विचार गुरु के उदय का फलादेश गुरु के अस्त की विचार 526 526 528 530 532 533 534 535 अष्टादश अध्याय 536-551 536 536 537 537 बुध के प्रवासादि के वर्णन की प्रतिज्ञा सात प्रकार की बुध की गतियों के नाम बुध की शुभ और पाप गतियों का विवेचन बुध का नियतचार बुध की गतियों का कथन वर्णानुसार बुध का फल बुध की बीथियों का कथन नुध की कान्ति का फल अन्य ग्रह द्वारा बुध की दक्षिण वीथिका के भेदन का फल 538 539 540 541 541 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 541 543 544 544 544 545 बुध द्वारा अन्य ग्रहों के भेदन का फल कृत्तिका नक्षत्र में लालवर्ण के बुध का फल विशाखा में विवर्ण बुध का फल मासोदित बुध का अनुराधा में फल विकृत वर्ण के बुध का श्रवण नक्षत्र में रहने का फल दक्षिण मार्ग में बुध द्वारा नक्षत्र अस्त का फल ज्येष्ठा और स्वाति में बुध के रहने का फल शुक्र के सम्मुख बुध के रहने का फल विवर्ण और अशुभ आकृति के बुध का दक्षिण मार्ग का फल बुध के उदय का विशेष फल पाराशर के अनुसार बुध का फ्लादेश देवल के मत से फलादेश 545 545 546 548 549 551 उन्नीसवाँ अध्याय 552-565 552 552 552 553 553 554 मंगल के चार, प्रवासादि के कथन की प्रतिज्ञा मंगल के चार और प्रवास की समय गणना मंगल के शुभ और अशुभ का विचार प्रजापति मंगल का कथन ताम्रवर्ण के मंगल का फल रोहिणी नक्षत्र पर मंगल की कुचेष्टा का वर्णन दक्षिण मंगल के सभी द्वारों के अवलोकन का फल मंगल का पाँच प्रधान वक्र उष्ण वक्र का स्वरूप और फल शोषमुख वक्र का स्वरूप और फल व्याल वक्र का स्वरूप और फल लोहित वक्र का स्वरूप और फल लोहमुद्गर व्रका का स्वरूप और फल 554 555 555 556 557 557 558 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 558 559 560 561 562 563 565 568-593 568 568 570 मंगल के वक्रानुवक्रा का फल मंगल के वक्रगति द्वारा गमन और नक्षत्र घात का फल अपगति से गमन करने का फल वक्रगति से धनिष्ठादि ससात नक्षत्रों के भोग का फल क्रूर, क्रुद्ध और ब्रह्मघाती होकर मंगल के गमन का फल मंगल के वर्ण, कान्ति और स्पर्श का फल भौमका द्वादश राशियों में स्थित होने का फल नक्षत्रों के अनुसार मंगल का फल बीसवाँ अध्याय राहु-चार के कथन की प्रतिज्ञा राहु की प्रकृति, विकृति आदि के अनुसार फल प्राप्ति का काल चन्द्रमा की विकृति का फल राहु के आगमन के चिह्न और फल चन्द्रग्रहण के संकेत का कथन चन्द्रग्रहण लगने के चिह्न और पहिचान चन्द्रमा के परिवेष के अनुसार राहु का कथन चन्द्रमा द्वारा ग्रहण के रंग का वर्णन ग्रहण के आगम के चिह चन्द्रग्रहण के अन्य चिह्न चन्द्रमा की आभा का फल राशि तथा समय के अनुसार ग्रहण का फल चन्दग्रहण के दिन यात्रा का निषेध चन्द्रग्रहण का विभिन्न दृष्टियों से फल चन्द्रग्रहण के रंग द्वारा फल चन्द्रग्रहण सम्बन्धी अन्य शकुनों का वर्णन द्वादश राशियों के अनुसार राहु फल 571 572 575 576 577 578 580 580 581 582 582 584 586 587 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 387 388 389 389 390 391 392 392 393 399 400 401 वृक्षों की छाया तथा अन्य प्रकार से उनकी विकृति का फल चन्द्रमा के शृंगों का फल चन्द्रशृंग एवं अन्य चन्द्रोत्पातों द्वारा फल शिवलिंगों के विवाह और सवारियों के वार्तालाप का फल मंगल कलश के अकारण विध्वंस का फल नवीन वस्त्रों के अकारण जलने का फल मांसभक्षी पक्षियों की विकृति का कथन जिस सवारी पर जा रहे हो, उनके विकृत होने का फल दाहिनी ओर, बायीं ओर तथा मध्य में सवारी के भंग होने का फल घोड़ों के उत्पातों द्वारा फल का कथन नक्षत्रों के उत्पात का फलादेश सवारी, सेना आदि के विनाश सूचक उत्पात उत्पातों की विचार की अत्यावश्यकता उत्पातों के भेदों और स्वरूपों का विवेचन प्रतिमाओं के उत्पातों का विचार इन्द्रधनुष के उत्पात का फल आकाश सम्बन्धी उत्पात भूमि पर प्रकृति विपर्यय प्रसव विकार, सवारी विकार आदि का कथन रोग सूचक उत्पात धन धान्य नाश सूचक उत्पात वर्षाभाव सूचक उत्पात अग्निभय सूचक उत्पात राजनैतिक उपद्रव सूचक उत्पात वैयक्तिक हानिलाभ सूचक उत्पात नेत्र स्फुरण अंगस्फुरण-अंग फड़कने का फल 402 405 406 406 406 408 410 410 411 412 412 413 413 414 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 415 पल्ली पतन और गिरगिट आरोहण का फलबोधक चक्र गणित द्वारा छिपकली पल्ली के गिरने का फल 416 पशदश अध्याय 417-492 417 417 418 419 419 420 422 423 425 427 शुक्रवार का वर्णन करने की प्रतिज्ञा शुक्र का महत्त्व शुक्र के अस्त और उदय का सामान्य कथन शुक्र, वृहस्पति और चन्द्रमा की किरणों के घातित होने का फल शुक्र के छ: मण्डलों का कथन शुक्र के मण्डलों के नक्षत्र और उनके नाम मण्डलों में शुक्र के गमन का फल शुक्र के उदय और अस्त द्वारा विभिन्न देशों के शुभाशुभत्व का विचार द्वितीय और तृतीय मंडल के शुक्र का विचार चतुर्ध मंडल के शुक्र का फल पञ्चम मंडल के शुक्र का फल छठवें मंडल के शुक्र का फल शुक्र की नाग आदि वीथियों के नक्षत्र शक्र के वीथि गमन का फल कृत्तिकादि नक्षत्रों के उत्तर की ओर से शुक्र के गमन का फल कृत्तिकादि नक्षत्रों के दक्षिण की ओर से शुक्र के गमन का फल ऐरावण पक्ष के गमन का फल नागवीथि, वैश्वानरवीथियों की दिशाओं का कथन वार और नक्षत्रों के संयोग से शुक्रगमन का फल शुक्र के सूर्य में विचरण करने का फल शुक्र के तृतीय मण्डल में उसकी शयनावस्था का फल क्षीण और विलम्बी शुक्र का पञ्चम मंडल में फल लम्बायमान शुक्र का फल 448 449 429 433 433 435 437 438 438 439 440 440 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440 441 442 442 443 444 445 445 445 446 447 450 451 शुक्र के हीन-चार का फल कृत्तिकादि, नक्षत्र, दक्षिणादि दिशाओं में शुक्र के गमन का फल मघा और विशाखा में मध्यम गति से शुक्र के चलने का फल पुनर्वसु, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढ़ा और रोहिणी में शुक्र की मध्यम गति का फल वर्षा सूचक शुक्र का गमन प्रात:काल में पूर्व में शुक्र और पीछे की ओर बृहस्पति के रहने का फल विभिन्न आकार के शुक्र का कृत्तिकादि नक्षत्रों में गमन करने का फल शुक्र के बायीं ओर से गमन करने का फल शुक्र के दक्षिण ओर से गमन करने का फल शुक्र के घात का फल शुक्र के आरोहण का फल नक्षत्रों के भेदन करने का शुक्र का फल उत्तराफाल्गुनी आदि नक्षत्रों में शुक्र के बायीं और दायीं ओर सेआरूढ़ होने का फल विभिन्न नक्षत्रों में विभिन्न प्रकार से शुक्र के गमन करने का फल शुक्र के अस्तदिनों की संख्या शुक्र के मार्गों का फलादेश गज, ऐरावण, जरद्गव, अजवीथि और वैश्वानर वीथि का फल शुक्र के विभिन्न वर्गों का फल एक नक्षत्र पर शुक्र के विचार करने की दिन संख्या शुक्र के प्रवास और चक्र होने का कथन पूर्व दिशा में एक नक्षत्र पर कुछ दिनों तक शुक के रहने का फल अस्तकाल में शुक्र की स्थिति का कथन दीप्तवक्र का कथन तीनों बक्रों का कथन वायव्यवक्र का स्वरूप और फल शुक्र के अतिचारों का कथन शुक्र के अतिचारों का फल 454 464 465 466 468 469 472 473 474 475 475 475 476 477 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 479 479 480 482 484 486 दुबारा शुक्र के मृगवीथि में पहुँचने का फल अजवीथि की पुन: प्राप्ति का कथन जरद्गव, गोवीथि, ऐरावणवीथि, नागवीथि की पुन: प्राप्ति का कथन वीथियों में शुक्र के अस्त होने के पश्चात् पुनः प्राप्ति का समय शुक्र के वर्णों का फल शुक्र के चार, वक्र, उदय, अतिचार आदि का कथन शुक्रोदय का विचार शुक्रास्त का विशेष विचार शुक्र की वीथियों का विस्तृत कथन शुक्र के छहों मण्डलों का कथन तथा उनका विस्तृत फल शुक्र के उदयास्त का विशेष फल षोडश अध्याय 487 488 489 491 492 495-509 495 495 497 497 497 498 498 शनिचार के वर्णन की प्रतिज्ञा दक्षिण मार्ग में शनि के अस्त होने का समय प्रमाण शनि के दो नक्षत्र प्रमाण गमन करने का फल शनि के तीन या चार नक्षत्र प्रमाण गमन का फल उत्तर मार्ग में वर्ण के अनुसार शनि का फल मध्यमार्ग में शनि के उदयास्त का फल शनि के दक्षिण मार्ग में गगन करने का फल शनि की प्रदक्षिणा का फल शनि के अपसव्य मार्ग में गमन करने का फल शनि पर चन्द्र परिवेष का फल चन्द्रमा और शनि के एक साथ होने का फल शनि के वेध का फल शनि के कृत्तिका और गुरु के विशाखा नक्षत्र पर रहने का फल श्वेत रंग के शनि का फल 499 499 500 301 SO1 502 502 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 591 593 594 595-620 595 595 596 597 597 598 598 599 राहु द्वारा होने वाले चन्द्रग्रहण का फल नक्षत्रानुसार चन्द्रग्रहण का फल नक्षत्रों का विद्ध फल इक्कीसवाँ अध्याय केतुओं के वर्णन की प्रतिज्ञा केतुओं के चिह्न का कथन केतु वर्ण का फल तीन सिर के केतु फल छिद्र रहित केतु का फल धूम्रवर्ण के केतु का फल केतु की शिखा का फल गोल केतु का स्वरूप और फल विक्रान्त केतु का स्वरूप और फल कबन्ध केतु का स्वरूप और फल मंडली और मयूरपक्षी केतु धूमकेतु समान केतु का फल धूमकेतु का विशेष फल केतूदय का फल विपथ केतु का फल स्वाति नक्षत्र में उदित केतु का फल सदृश केतु का फल भय उत्पन्न करने वाले केतुओं की नामावली उत्पात नहीं करने वाले केतु केतु शान्ति के लिए पूजा विधान की आवश्यकता केतुओं के भेद और स्वरूप 1880 केतुओं की संख्या और फल 599 600 600 601 602 605 606 606 607 610 610 613 615 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 617 617 617 617 617 618 618 619 619 620 620 620 केतुओं का विशेष फल ऊर्मि शीत केतु का स्वरूप और फल भटकेतु और भवकेतु का स्वरूप और फल औद्दालककेतु का स्वरूप और फल पद्मकेतु कश्यप श्वेत केतु आवर्तकेतु, रश्मिकेतु, वसाकेतु, कुनुदकेतु, कपाल किरन, मगिकेतु और रौद्रकेतु का स्वरूप और फलादेश संवर्त केतु का स्वरूप और फल ध्रुव केतु का स्वरूप और फल अमृतकेतु का स्वरूप और फल दुष्टकेतु का फल 27 नक्षत्रों के अनुसार दुष्ट केतुओं का धातक फल बाइसवां अध्याय सूर्य-चार के कथन की प्रतिज्ञा उदयकालीन सूर्य के उदय का फल दिशाओं के अनुसार सूर्य के उदय काल की आकृति का फलादेश श्रृंगी वर्ण के सूर्य का फलादेश अस्तकालीन सूर्य का फल चन्द्रमा और सूर्य के पर्वकाल का फल सूर्य और चन्द्र नक्षत्रों का कथन सूर्य का संक्रान्तियों के अनुसार फलादेश तेईसवाँ अध्याय रात्रि में प्रत्येक महीने के चन्द्रमा का विचार चन्द्रमा की शृजोन्नति का विचार चन्द्रमा की आभा का कथन 622-630 622 623 624 626 627 627 627 630 633-653 633 633 634 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 634 635 635 636 636 636 636 637 638 चन्द्रमा के वर्ण का विचार चतुर्थी, पंचमी और पष्ठी तिथि में चन्द्रमा की विकृति का फल सप्तमी और अष्टमी को चन्द्र विकृति का फल नवमी ओर दशमी को होने वाली चन्द्रमा की विकृति का फल एकादशी और द्वादशी की चन्द्र विकृति का फल त्रयोदशी और चतुर्दशी को चन्द्रमा की विकृति का फल पूर्णिमा को चन्द्र विकृति का फल प्रतिपदादि तिथियों में चन्द्रमा में अन्य ग्रहों के प्रविष्ट होने का फल चन्द्रमा के विषर्यय होने का फल विवर्ण चन्द्रमा के विभिन्न बीथियों और नक्षत्रों में गमन करने का फल चन्द्रमा के वैश्वानर आदि मार्गों में विभिन्न प्रकार का फल विभिन्न नक्षत्रों में चन्द्रमा के घातित होने का फल सूर्यघात का फल केतुघात का फल क्षीण चन्द्रमा का फल चन्द्रमा के रूपवीथि, मार्ग, मंडल, आदि का कथन विभिन्न दृष्टियों से चन्द्रमा का फल द्वादश राशियों के अनुसार चन्द्र फल चौबीसवाँ अध्याय 640 642 645 647 647 649 649 651 653 655-669 655 656 656 ग्रहयुद्ध का वर्णन यायी संज्ञक ग्रह ग्रह युद्ध के साथ अन्य बातों का विचार यायी की परिभाषा जय-पराजय सूचक ग्रहों के स्वरूप चन्द्रघात और राहुघात का कथन शुक्रघात का कथन 656 657 658 658 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 660 661 662 662 665 665 666 669 672-704 ग्रहयुद्ध के समय होने वाले ग्रह वर्णों के अनुसार फलादेश युद्ध करने वाले ग्रह के वर्ण के अनुसार फल ग्रहों द्वारा परस्पर युद्ध का वर्णन रोहिणी नक्षत्र के घातित होने का फल ग्रहों की वात, पित्तादि प्रकृतियों का विचार ग्रहों के नक्षत्रों का कथन ग्रहयुद्ध के भेद और उनका स्वरूप ग्रहयुद्ध के अनुसार देश, विदेश का फल ज्ञात करना पच्चीसवाँ अध्याय ग्रह निमित्त की आवश्यकता पर जोर ग्रहों की आकृति, वर्ण तथा विभिन्न प्रकार के चिह्नों द्वारा तेजी मंदी का विचार शुक्र और चन्द्रमा के नक्षत्रों द्वारा तेजी मन्दी का विचार नक्षत्रों का सम्बन्धानुसार विभिन्न ग्रहों द्वारा तेजी मन्दी का विचार चन्द्रमा की आरोहण स्थिति का फल राहु, केतु, चन्द्रमा, शुक्र और मंगल के उत्तर से उत्तर द्वार के सेवन करने का फल चन्द्रमा की विशेष स्थिति द्वारा सोना, चौंदी आदि की तेजी-मन्दी को जानने की प्रक्रिया कमजोर ग्रहों के गमन का फल चन्द्रमा की विभिन्न कांति, उदय, अस्त द्वारा तेजी मन्दी का विचार नक्षत्रों के सम्बन्ध से ग्रहों की विशेष स्थिति द्वारा फलादेश द्वादश पूर्णमासियों का विचार भौमग्रह की स्थिति के अनुसार तेजी मन्दी का विचार बुध ग्रह की स्थिति के अनुसार तेजी मन्दी विचार गुरुग्रह की स्थिति का फलादेश शुक्र की स्थिति का फलादेश 672 674 675 676 679 679 680 68. 683 684 688 691 691 692 693 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 693 693 694 694 695 696 696 696 697 697 697 697 697 शुक्र के उदय दिन का नक्षत्रानुसार फल शनि का फलादेश तेजी मन्दी के लिए उपयोगी पंचवार का कथन संक्रान्ति के बोरों का फल मकर संक्रान्तिका फल संक्रान्ति के गणित द्वारा तेजी मन्दी का परिज्ञान वारानुसार संक्रान्ति का फलावयोधक चक्र ध्रुव, चर, उग्र, मिश्र, लघु, मृदु, तीक्ष्ण संज्ञक नक्षत्र अधोमुख संज्ञक अर्ध्वमुख संज्ञक तिर्यक् मुख संज्ञक दग्ध संज्ञक नक्षत्र मास शून्य नक्षत्र संक्रान्ति वाहन फलावबोधक चक्र रवि नक्षत्र फल शकाब्द पर से चैत्रादि मासों में समस्त वस्तुओं की तेजी मन्दी अवगत करने के लिए ध्रुवार उक्त चक्र द्वारा तेजी मन्दी निकालने की विधि दैनिक तेजी मन्दी जानने का नियम देश तथा नगर के ध्रुवा मासधुवा, सूर्यराशिध्रुवा, तिथिध्रुवा तथा चार युवा का कथन नक्षत्रों की ध्रुवा पदार्थों की ध्रुवा दैनिक तेजी मन्दी निकालने की अन्य रीति वस्तु विशोपक, नक्षत्र विशोषक, संक्रान्ति विशोषक और तिथि विशोषक तेजी मन्दी निकालने की विधि तेजी मन्दी निकालने के अन्य नियम 698 698 700 701 702 703 701 702 702 703 703 704 704 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीसवाँ अध्याय 705-743 705 705 707 710 710 711 712 714 714 116 717 719 मंगलाचरण स्वप्नों के आने का कारण और उनके भेद वात, पित्त और कफ प्रकृतिवालों के द्वारा दृश्य स्वप्न राज्य प्राप्ति सूचक स्वप्न लाभ सूचक स्वप्न जय सूचक स्वप्न विपत्ति मोचन सूचक स्वप्न धन-धान्य वृद्धि सूचक स्वप्न शस्त्रघात, पीड़ा तथा कष्ट सूचक स्वप्न स्त्री-प्राप्ति सूचक स्वप्न मृत्यु सूचक स्वप्न कल्याण-अकल्याण सूचक स्वप्न शोक सूचक अशुभ स्वप्न लक्ष्मी प्राप्ति सूचक स्वप्न धनवृद्धि सूचक स्वप्न निश्चय मृत्यु सूचक स्वप्न शीघ्र मृत्यु सूचक स्वप्न सामूहिक भय सूचक स्वप्न शरीर के विनाशक स्वप्न एक सप्ताह में फल देने वाले स्वप्न लाभ कराने वाले स्वप्न स्वप्नों के सात भेदों का वर्णन अवर्ग के स्वपों का फल कवर्ग के स्वप्नों का फल चवर्ग के स्वप्नों का फल तवर्ग के स्वप्नों का फल 720 721 123 723 724 725 725 727 730 734 735 737 738 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 738 739 740 741 पवर्ग के स्वप्नों का फल यवर्ग के स्वप्नों का फल तिथियों के अनुसार स्वप्नों के फल धन प्राप्ति सूचक स्वप्न सन्तानोत्पादक स्वप्न मरण सूचक स्वप्न पाश्चात्य विद्वानों के मतानुसार स्वप्न अकारादि क्रम से स्वप्नों का विचार 742 742 742 743 सत्ताईसवा अध्याय 747-755 747 747 749 753 753 753 754 754 755 तूफान सूचक उत्पात नक्षत्रों में चन्द्रमा की स्थिति का विचार नक्षत्रों के अनुसार नवीन वस्त्र धारण का फल शान्ति गृह, वाटिका विधायक नक्षत्र घोड़े की सवारी विधायक नक्षत्र विष शस्त्रादि विधायक नक्षत्र आभूषणादि विधायक नक्षत्र मित्रकर्मादि विधायक नक्षत्र ग्रहों का विकार तीसवाँ अध्याय [परिशिष्टाध्याय] निमित्त कथन की प्रतिज्ञा भौम, अन्तरिक्ष आदि आठ प्रकार के निमित्त रोगों की संख्या का कथन द्विधा सल्लेखना का वर्णन अरिष्टों का कथन ॐ णमों अरिहंताणं ... पुलिन्दिनी स्वाहा' इस मन्त्र को पढकर अरिष्टों के निरीक्षण का उपदेश 757-819 757 757 758 759 766 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 767 780 781 782 801 802 803 806 809 'ॐही रक्ते रक्ते... ह्रीं स्वाहा' इस मन्त्र से अभिमन्त्रित होकर छायादर्शन का उल्लेख कूष्माण्डिनी देवी के जाप पूर्वक छाया को देखने का विधान छाया पुरुष के दर्शन द्वारा अरिष्ट का कथन स्वप्न फल का कथन दोषज, दृष्ट आदि आठ प्रकार के स्वप्नों का कथन सफल तथा निष्फल प्रश्न का निरूपण स्वप्न का गुरु के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति के समक्ष प्रकाशित न करने का विधान अभिमन्त्रित तेल में मुख की छाया द्वारा अरिष्ट का विचार शब्दश्रवण द्वारा शुभाशुभ फल का कथन शकुन विचार भूमि पर सूर्य की छाया का दर्शन कर अरिष्ट के कथन का निरूपण रोगी के हाथ द्वारा रोगी के अरिष्ट का संकेत षोडशदल कमलचक्र द्वारा आयु परीक्षा अश्विनी आदि 27 नक्षत्रों में वस्त्रा धारण का फल कथन नूतन वस्त्र के कटने फटने छिद्र आदि के फल का निरूपण विवाह, राज्योत्सव आदि काल में वन धारण का शुभफल श्लोकानुक्रमणिका निमित्त शास्त्र 810 911 813 815 815 816 819 823-877 823 823 824 मंगलाचरण ग्रन्थ प्रतिज्ञा निमित्तों के भेद निमित्त के साधन आकाश प्रकरण मेघ के चिह्नों का फल चन्द्र प्रकरण उल्पात योग प्रकरण 825 825 830 833 833 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव उत्पात योग राजोत्पात योग उल्का वर्णन गन्र्धव नगर का फल नाना वर्ण गन्र्धव नगर का फल पत्थर की ऊर्जा का फल बिजली का लक्षण मेघ योग केतु योग हस्त रेखाओं का संक्षिप्त ज्ञान जीवन रेखा मस्तिष्क रेखा हृदय रेखा भाग्य रेखा आयु रेखा सम्पत्ति रेखा सन्तति रेखा भाई बहिन रेखा सूर्य रेखा स्वास्थ्य रेखा विवाह रेखा हस्त रेखा और आजीविका राज्याधीश रेखा हस्त व उसकी प्रमुख रेखाऐं सामुद्रिक शास्त्र करलखन मंगलाचरण 844 852 858 864 866 868 870 873 877 882-888 283 883 884 884 885 885 885 885 886 886 886 886 887 888 889 889 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 889 893 894 894 895 896 897 897 898 ४98 899 900 हस्तरेखा लक्षण कलात्मक हाथ या नुकीला हाथ मिश्रित हाथ साधारण हाथ आदर्शात्मक हाथ मंगल का पटका, शनि की चक्र अंगूठी तथा मणि बन्धन दार्शनिक हाथ लेनों के समान दार्शनिक हा शनि की अंगूठी मणि बन्धन अनुभव रेखा निर्धन रेखा गुप्त रेखा बृहस्पति की मुद्रिका या गण रेखा चौकोर भ्रमण, समुद्री यात्रा तथा आकस्मिक घटनाएँ विभिन्न प्रकार के अंगूठे अंगुलियाँ राशियाँ अंगुलियों के भेद प्रभाव उद्गम स्थान बनावट आवश्यक लम्बाई तर्जनी चन्द्रमा के उभार से आरम्भ पं. बालभट्टजी का आशय 901 901 902 905 909 910. 910 912 914 914 917 917 918 919 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 922 923 हथेली के बीच से शुरु प्रभाव डालने वाली रेखा सूर्य की रेखा भाग्य की दोहरी रेखा शादी सम्बन्धी चिह्न मंगल के उभार पर प्रभावशाली रेखाएं भारतीय संस्कृति के अनुसार आयु रेखादि का हाथ कलाई से आरम्भ अंगूठा अंगुलियाँ, एक दूसरे से लम्बाई 923 926 933 936 938 938 942 सूर्या 943 943 944 944 945 945 945 946 946 चौथी हाथ के नाखून लम्बे नाखून छोटे नाखून लम्बे सफेद नाखून चपटे नाखून नाखूनों पर चन्द्रमा हाथ के उभार और उनके अर्थ मणिबन्ध विषयक फल विद्या रेखा फल कुल रेखा विषयक फल धन प्राप्ति रेखा व भाग्य रेखा उर्द्ध रेखा का ज्ञान व फल व भाग्य रेखा आयुरेखा फल या जीवन रेखा जीवन रेखा तथा उसके परिवर्तन जीवन रेखा शुक्ररेखा या अन्दर की जीवन रेखा 946 949 949 950 951 952 953 954 959 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 961 962 966 967 968 970 972 973 975 976 978 जीवन रेखा से शुरु गृह क्षेत्र पर्वत हथेली पर 12 ग्रहों के क्षेत्र हथेली पर ग्रह क्षेत्र प्राचीन विधि ग्रह क्षेत्रों का निर्धारण ग्रह क्षेत्र विचार गुरु क्षेत्र शनि क्षेत्र सूर्य क्षेत्र बुध क्षेत्र मंगल क्षेत्र चन्द्र क्षेत्र शुक्र क्षेत्र राहू क्षेत्र केतु, हर्षल, नेपच्यून तथा प्लेटो के क्षेत्र सूर्य के उभार और उसके गुण सूर्य का उभार चन्द्र का उभार और उसके अर्थ चन्द्र का उभार मंगल का उभार और उसके अर्थ मंगल का उभार हाथ के 32 चिह्न व फल लक्षण 980 981 982 982 984 985 986 988 990 991 993 993 बुध का उभार तथा उसके अर्थ 995 995 बुध का (Positive) उभार बुध का {Negative) उभार वृहस्पति का उभार और उसके अर्थ 996 998 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति काgativel t शुक्र का उभार शुक्र का प्रथम उभार शुक्र का दूसरा उभार शनि का उभार और उसके अर्थ शनि का (Negative) उभार रेखा स्वरूप द्वारा गाथा आयुरेखा और धनरेखा मस्तिष्क रेखा और उसके परिवर्तन मस्तिष्क रेखा जीवन रेखा के अन्दर से मस्तिष्क रेखा जीवन रेखा से मिली हुई मस्तिष्क रेखा जीवन रेखा से अलग मस्तिष्क रेखा तथा उसके साथ के निशान मस्तिष्क की रेखा में परिवर्तन मस्तिष्क रेखा से सम्बन्ध रखने वाले गुणों के चिह्न दिमाग या मस्तिष्क की दोहरी रेखा मस्तिष्क रेखा सात प्रकार के हाथों पर स्वास्थ्य रेखा अंगूठा व मणि बन्ध का फल पुत्र पुत्रियों की रेखा कनिष्ठिका व अंगुली के नीचे की रेखा फल व्रत रेखा का फल खोज करने वाली रेखा अंगुली अंगूठे के ऊपर भौरी का फल नखों के फल मत्स्यादि का फल धनादि रेखा का फल धन विषय रेखा फल धर्माचार्य की सूचक रेखा स्त्रियों एवं पुरुषों के आंगों पांग के लक्षण व फल 999 1000 1001 1002 1004 1005 1008 1008 1009 1012 1014 1016 1019 1021 1024 1025 1026 1028 1031 1032 1034 1036 1036 1037 1038 1038 1043 1044 1046 1047 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बार भद्रबाहु संहिता मंगलाचरण पार्श्वनाथ भगवान को, और सरस्वती माँय। गणधर को मैं नमनकर, पाँऊ केवल ज्ञान॥१॥ आदि, शान्ति, आचार्यवर, महावीर कीर्ति गुरुराज। विमल, सन्मति गुण के भरे, पूरो मेरे काज॥२॥ इन सब को मैं नमनकर, भाषा लिखू बनाय। भद्रबाहु की संहिता, पूरो जग की आस ।। ३ ।। अष्टांग निमित्त ज्ञानी गुरु, अन्तिम श्रुत को धार । भद्रबाहु श्रुत केवली, नमन करूँ मैं आज ।। ४ ।। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽध्यायः उल्का नाम नमस्कृत्य जिनं वीरं सुरासुरनतक्रमम्। यस्यज्ञानाम्बुधेः प्राप्य किञ्चिद् वक्ष्ये निमित्तकम्॥१॥ (सुरासुरनतक्रमम्) क्रम से जिनको सुर (देव) और असुर 'राक्षस' ( भवनत्रिक ) आ.दे ननस्कार ते हैं. वीर जिन) इ. भगवान को नमस्कार करके (यस्य) जिनके (ज्ञानाम्बुधेः) ज्ञानरूपी समुद्र से (प्राप्य) प्राप्त करके (किञ्चिद्) थोड़े (निमित्तकम्) निमित्त ज्ञान को (वक्ष्ये) कहूँगा। भावार्थ-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी ऐसे चतुर्णिकाय देवों के द्वारा नमस्कार किये गये, भगवान महावीर को नमस्कार करके, उनके ज्ञानरूपी समुद्र से प्राप्त, मैं भद्रबाहु आचार्य थोड़े से निमित्त ज्ञान को कहूँगा॥१॥ मागधेषु पुरं ख्यातं नाम्ना राजगृहं शुभम्। नानाजनसमाकीर्णं नानागुण विभूषितम् ॥२॥ (नानागुणविभूषितम्) नाना गुणों से विभूषित (नानाजनसमाकीर्णं) और नाना प्रकार के जनसमुदाय से सहित (मागधेषु) मगध देश में (ख्यातं) प्रसिद्ध (शुभम्) और शुभ (राजगृह) राजगृह (नाम्ना:) नामका (पुरं) नगर है। भावार्थ-नाना गुणों से परिपूर्ण, नाना प्रकार के जनसमुदाय से भरे हुए ऐसे मगध देश में प्रख्यात जिसकी सभी दिशाओं में प्रसिद्धि फैली हुई है और शुभ है, सुन्दर है, मनोहर है, ऐसे देश में राजगृह नामका नगर है॥२।। तत्रास्ति सेनजिद् राजा युक्तो राजगुणैः शुभैः। तस्मिन् शैले सुविख्यातो नाम्ना पाण्डुगिरिः शुभः ।। ३॥ (राजगुणैः) राजा के गुणों से (युक्तों) सहित और (शुभैः) शुभ (सेनजिद् राजा) सेनजिद् नाम का राजा (तत्र) वहाँ (अस्ति) है (तस्मिन्) वहाँ पर (शुभ:) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रथमोऽध्यायः शुभ ( पाण्डुगिरि: ) पाण्डुगिरि (नाम्ना: ) नाम का (सुविख्यातो :) सुविख्यात् (शैले) पर्वत (अस्ति) है। भावार्थ — उस राजगृह नगर में नाना गुणों से परिपूर्ण सेनजिद् नाम का राजा रहता है उसी नगरी के निकटतम पाँच पर्वतों में मुख्य शोभायमान पाण्डुगिरि नाम का पर्वत है ॥ ३ ॥ नानावृक्ष समाकीर्णो सरोभिश्च नानाविहगसेवितः । साधुभिश्चोपसेवितः ॥ ४ ॥ चतुष्पदैः (नाना ) नाना प्रकार के ( विहग ) पक्षियों से (सेवितः ) सेवित है (नाना) नाना प्रकार के (वृक्षः) वृक्षों (समाकीर्णो ) से सहित ( चतुष्पदैः ) पशुओं से युक्त (सरोभिश्च ) सरोवरों से युक्त (साधुभिश्च ) साधुओं के द्वारा (उपसेवितः) उपसेवित है। भावार्थ - यह पर्वत पशुओं से युक्त नाना प्रकार के वृक्षों से सहित, जिस पर अनेक प्रकार के पक्षी क्रीड़ा कर रहे है, जिसकी शोभा सरोवरों से युक्त है और साधुओं के विहार तपस्या से पवित्र है ॥ ४ ॥ विज्ञानसागरम् । तत्रासीनं महात्मानं ज्ञान तपोयुक्तं च श्रेयांसं भद्रबाहुं द्वादशाङ्गस्य वेत्तारं निर्ग्रन्थं वृत्तं शिष्यैः प्रशिष्यैश्च निपुणं तत्त्ववेदिनाम् ॥ ६ ॥ निराश्रयम् ॥ ५ ॥ महाद्युतिम् । च (भद्रबाहु ) भद्रबाहु ( महात्मानं ) महात्मा का जो ( ज्ञानविज्ञान सागरम् ) ज्ञान विज्ञान के सागर (तपोयुक्तं ) तप से युक्त (श्रेयांसं ) कल्याण करने वाले ( निराश्रयम् ) निराश्रय ( द्वादशांङ्गस्य वेत्तारं ) द्वादशांग श्रुत के जानने वाले (निर्ग्रन्थं) निर्ग्रन्थ (च) और (महाद्युतिम् ) कान्तीमान ( वृत्तं शिष्यैः प्रशिष्यैश्च) शिष्य और प्रशिष्यों से गिरे हुए (निपुणं तत्त्व वेदिनाम् ) तत्त्वज्ञान प्ररूपण करने में निष्णात् (तत्रासीनं ) उस पर्वत पर आसीन थे। भावार्थ - भद्रबाहु नाम के आचार्य, महात्मा, ज्ञान विज्ञान के सागर तप से युक्त, सब जीवों का कल्याण करने वाले, निराश्रय, द्वादशांत श्रुत को जानने Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता वाले, निर्ग्रन्थ और जिनके शरीर की कान्ति दसों दिशाओं में फैल रही है। शिष्य और प्रशिष्यों से आवृत्त हो रहे है । तत्त्वज्ञान का व्याख्यान करने में निपुण है। सो उस पाण्डुगिरि पर्वत पर रहते थे॥५-६॥ प्रणम्य शिरसाऽऽचार्यमूचुः शिष्यास्तदागिरम्। सर्वेषु प्रीतमनसो दिव्यं ज्ञानं बुभुत्सवःः॥७॥ (तदागिरम्) उस पर्वत पर स्थित (शिष्याः) शिष्यों ने (सर्वेषुप्रीतमनसो) सम्पूर्ण जीवों का कल्याण करने वाला है (दिव्यं ज्ञानं) दिव्यज्ञान को (आचार्यम्) आचार्य को (शिरसा:) सिर से (प्रणम्य) नमस्कार करके (अचुः) पूछा। भावार्थ-उस पर्वत पर रहने वाले आचार्य को शिष्यों ने सिर नवाकर नमस्कार करते हुए, जीवों का कल्याण करने वाले दिव्यज्ञान को पूछा ।। ७॥ पार्थिवानां हितार्थाय शिष्याणां हितकाम्यया। श्रावकाणां हितार्थाय दिव्यं ज्ञानं ब्रवीहि नः॥८॥ (श्रावकाणां) श्रावकों के (हितार्थाय) हित के लिए (शिष्याणां) शिष्यों की (हितकाम्यया) हित कामना के लिए (पार्थिवानां) राजा और भिक्षुओं के लिए (हितार्थाय) हित के लिए (दिव्यं ज्ञानं) दिव्य ज्ञान को (ब्रवीहि न:) हमारे लिए कहो। भाथि—साधु, श्रावक, राजा और शिष्यों की हित कामना के लिए भगवन आप दिव्य ज्ञान का उपदेश दीजिये॥८॥ शुभाऽशुभं समुद्भूतं श्रुत्वा राजा निमित्ततः। विजिगीषुः स्थिरमतिः सुखं पाति महीं सदा॥९॥ (समुद्भूतं) उत्पन्न होने वाले (शुभाऽशुभं) शुभ अशुभ (निमित्तत:) निमित्तों को (श्रुत्वा) सुनकर (राजा) राजा (स्थिरमतिः) स्थिर बुद्धि होकर (सुखंपाति) सुखपूर्वक (महीं सदा) पृथ्वी का सदा (विजिगीषु:) पालन करता है। भावार्थ-राजा शुभाशुभ निमित्तों को सुनकर सुखपूर्वक पृथ्वी का पालन करता है, क्योंकि जिस राजा को शुभाशुभ निमित्तों का ज्ञान नहीं, वह सुखपूर्वक अपने राज्य को कभी भी ठीक नहीं चला सकता है। प्रजा का पालन करने के लिए, राज्य को स्थिर रखने के लिए निमित्तों को जानना परमावश्यक है।।९।। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽध्यायः राजभिः पूजिताः सर्वे भिक्षवो धर्मचारिणः। विहरन्ति निरूद्विग्नास्तेन राजाभियोजिताः ॥१०॥ (सर्वे) सर्व (धर्मचारिणः) धर्म का पालन करने वाले (भिक्षुवो) साधुओं (राजभिः) राजाओं के द्वारा (पूजिता:) पूजित होते हुए (राजाभियोजित:) और राजाओं की सेवा प्राप्त करते हुए (तेन) वहाँ पर (निरुद्विमा) उपद्रव्य रहित (विहरन्तिः) विहार करते हैं। भावार्थ----राजाओं के द्वारा पूजित होते हुए धर्म का पालन करते हुए मार्ग में सुखपूर्वक विहार करते हैं॥१०॥ पापमुत्पातिकं दृष्ट्वा ययुर्देशांश्च भिक्षवः । स्फीतान् जनपदांश्चैव संश्रयेयुः प्रचोदिताः ॥११॥ (भिक्षवः) साधु लोग (पापमुत्पातिक) पाप युक्त देश को (दृष्ट्वा) देखकर (देशांश्च) अन्य देशों में (ययु) चले जाते हैं। अन्यत्र (प्रचोदिताः) धन धान्यादि से पूर्ण (जनपदांश्चैव) नगरों में (स्फीतान्) अच्छी तरह से (संश्रयेयुः) विहार करते भावार्थ-अशुभ निमित्तों को देखकर साधु लोग पाप युक्त देश होने वाला है, ऐसा जानकर, जिन देशों में या नगरों में सुभिन है उन नगरों का आश्रय लेते है। सुखपूर्वक विहार करते है॥११॥ श्रावकाः स्थिरसङ्कल्पा दिव्यज्ञानेन हेतुना। नाश्रयेयुः परं तीर्थ यथा सर्वज्ञभाषितम् ।। १२ ।। (यथा) जैसे (दिव्यज्ञानेन) दिव्यज्ञान का (हेतुना) हेतु पाकर (स्थिरसंकल्पा) स्थिर संकल्प होते है। अन्यत्र (नाश्रयेयुः) अन्य मतों में श्रद्धा नहीं करते हैं। भावार्थ सर्वज्ञ भगवान के द्वारा दिव्य निमित्त ज्ञान कहा हुआ है, सो ऐसा जानकर श्रावक वर्ग दृढ़ संकल्पी होते है। दृढ़ श्रद्धानी हो जाते है, और दूसरे मतों के श्रद्धानी नहीं होते।।१२।। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संशिता सर्वेषामेव सत्त्वानां दिव्यज्ञानं सुखावहम्। भिक्षुकाणां विशेषेण परपिण्डोपजीविनाम् ।। १३॥ (दिव्य ज्ञानं) दिव्य निमित्त ज्ञान (सर्वेषाम्) सम्पूर्ण (सत्त्वानां) जीवों के लिए (सुखावहम्) सुख को देने वाला मेव ही है, और (परपिण्डोपजीविनाम्) पर अन्य के आश्रित (भिक्षुकाणां) साधुओं को (विशेषण) विशेष रीति से सुख देने वाला है। भावार्थ—सर्वज्ञ भगवान के द्वारा कहा हुआ दिव्य निमित्त ज्ञान सम्पूर्ण जीवों को सुख देने वाला है, और विशेष रीति से श्रावकों को एवं अन्य आश्रित साधुओं को तो बहुत ही सुख देने वाला है॥१३॥ विस्तीर्ण द्वादशाङ्गं तु भिक्षवश्चाल्पमेधसः। भवितारो हि बहवस्तेषां चैवेदमुच्यताम्॥१४॥ (द्वादशाङ्गतु) द्वादशाङ्ग ज्ञान तो (विस्तीर्ण) बहुत ही विस्तार रूप है (अल्पमेधसः) थोड़ी बुद्धि वाले (भिक्षव) साधु (बहव) बहुत (हि) ही (भवितारो) आगामी काल में होगें (तेषां) इसलिये (चैवेदमुच्यताम्) निमित्त ज्ञान का उपदेश कीजिये। भावार्थ-भगवान के द्वारा कहा हुआ द्वादशांङ्ग ज्ञान तो बहुत ही विस्तार रूप में है और अब आगे थोड़ी बुद्धि वाले साधु होंगे, उनके लिए दिव्य निमित्त ज्ञान को कहिये॥१४ ।। सुखग्राहं लघुग्रंथं स्पष्टं शिष्यहितावहम्। सर्वज्ञभाषितम् तथ्यं निमित्तं तु ब्रवीहि नः ॥१५॥ (सर्वज्ञभाषितम्) सर्वज्ञ के द्वारा भाषित हो (लघुग्रंथ) लघु रूप में ग्रंथ हो (सुखग्राह) सुख को देने वाला हो (शिष्यहितावहम्) शिष्यों के हित योग्य हो (स्पष्टं) स्पष्ट रूप हो (तथ्यं) तथ्य रूप हो ऐसे (निमित्तं तु) निमित्त ज्ञान को (ब्रवीहि नः) हमें आप कहो। भावार्थ---हे आचार्य भगवंत आज आप उस दिव्य निमित्त ज्ञान जो सर्वज्ञ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽध्यायः भगवान के द्वारा कहा हुआ हो, संक्षेप में हो, सुख को प्रदान करने वाला हो, शिष्यों का हित करने वाला हो, स्पष्ट रूप में हो, सार रूप हो, उसको हमें कहिये ।। १५ ।। उल्का: समासतो व्यासात् परिवेषांस्तथैव च। विद्युतोऽभ्राणि सन्ध्याश्च मेघान् वातान् प्रवर्षणम् ।।१६।। गन्धर्वनगरं गर्भान् यात्रोत्पातांस्तथैव च। ग्रहचारं पृथक्त्वेन ग्रहयुद्धं च कृत्स्नतः ॥१७॥ वातिकं चाथ स्वप्नांश्च मुहूर्ताश्च तिथींस्तथा। करणानि निमित्तं च शकुनंपाकमेव च ॥१८|| ज्यौतिषं केवलं कालं वास्तुदिव्येन्द्र सम्पदा। लक्षणं व्यञ्जनंचिह्न तथादिव्यौषधानि च ॥१९॥ बलाऽबलं च सर्वेषां विरोधं च पराजयम् । तत्सर्वमानुपूर्वेण प्रब्रवीहि महामते ! ॥२०|| सर्वानेतान् यथोद्दिष्टान् भगवन् वक्तुमर्हसि। प्रश्नान् शुश्रूषवः सर्वे वयमन्ये च साधव: ।।२१॥ (महामते) हे महाबुद्धिमान् (तत्सर्वमानुपूर्वेण) सबको क्रम से (समासतो) संक्षेप से (व्यासात) विस्तार से (उल्का) उल्का (परिवेषां) परिवेषों को (च) और (विद्युतो) विद्युतों को (अभ्राणि) अभ्र (सन्ध्याश्च) सन्ध्या को (च) और (मेघान्) मेघों को (वातान्) वात (प्रवृर्षणम्) प्रवर्षण (गन्धर्व नगरं) गन्धर्व नगर (गर्भान्) गर्भ (यात्रोत्पातांस्तथैव च) यात्रा, उत्पात, इसी प्रकार (ग्रहचारंपृथक्वेन) पृथक् गृहचार को (ग्रह युद्धं) गृह युद्ध (च) और (कृत्स्नतः) (वातिकं) वातिक (चाथ) अतः (स्वप्नांश्च) स्वप्न (मुहूर्ताश्च) मुहूर्त (तिथीस्तथा) तिथी (करणानि) करण (निमित्तं) निमित्त (च) और (शकुनं) शकुन (पाकमेव) पाक है (च) और (ज्योतिष) ज्योतिष (केवलं कालं) केवल काल (वास्तु) वास्तु (दिव्येन्द्र संपदा) दिव्येन्द्र संपदा (लक्षणं) लक्षण (व्यंजन) व्यंजन (चिह्न) चिह्न (तथादिव्यौषधानि) तदिव्य औषधि (च) और (बलाऽबलं) बलाबल (च) और (सर्वेषां) संपूर्ण (विरोधं) विरोध (च पराजयं) पराजय को (प्रब्रवीहि) कहो (यथोद्दिष्टान्) जो ऊपर कहे हुए (सर्वानेतान्) संपूर्ण Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता (भगवन्) भगवान (वक्तुमर्हसि) आपके द्वारा कहे जाने चाहिये (प्रश्न) जो प्रश्न है (सर्वे) उन सबको (वयमन्ये) हम सब (च) और (साधवः) साधु लोग (शुश्रूषव:) सुनना चाहते हैं॥ १६-१७-१८-१९-२०-२१॥ भावार्थ- हे भगवन् महामति के धारण, अनुक्रम से जो दिव्य निमित्त ज्ञान है जैसे उल्का, परिवेश, विद्युत, अभ्र सन्ध्या , मेघ, वात, प्रवर्षण, गंधर्व नगर, गर्भ यात्रा, उत्पात, अलग-अलग ग्रहाचार, गृह युद्ध, वातिक, स्वप्न, मुहूर्त, तिथी करण, निमित्त शकुन, पाक, ज्योतिष, वास्तु, दिव्येन्द्र संपदा, लक्षण, व्यंजन, चिह्न, दिव्यौषध, बलाबल, विरोध और जय पराजय का वर्णन कीजिये। हे गुरुदेव, जिस क्रम से इन का वर्णन किया है आपने उसी क्रम से हमें और सर्व साधुओं को कहिये यही हमारे प्रश्न हैं, प्रश्नों का उत्तर सुनने को हम लोग बहुत ही उत्कंठित इन सब उल्कादिकों का क्रमश: अध्यायानुसार वर्णन आगे करेंगे, इस अध्याय में प्रथम मंगलाचरण भद्रबाहु आचार्य ने कहा है, प्रथम मंगलाचरण में भगवान महावीर को नमस्कार किया गया है, फिर ग्रंथ रचना का स्थान, राजा आदि व पर्वत का वर्णन किया। उस पर्वत पर शिष्य समुदाय से सहित व श्रावक समुदाय से सहित आचार्य भद्रबाहु दिखाये गये हैं। उस के बाद शिष्य लोग गुरु से प्रार्थना कर रहे हैं कि हे गुरुदेव, जो सर्वज्ञ भगवान के मुख से निकला हुआ द्वादशांग रूप श्रुत ज्ञान तो बहुत विस्तार रूप में है। हमारे बुद्धि में नहीं उतरता सो आप उसमें से कुछ दिव्य निमित्त ज्ञान जो साधु और श्रावकों के उपकार के लिए कारण है उसको कहो। हमें बहुत ही प्रश्न उठ रहे हैं। आप ही समाधान कर सकते हैं। आगे भी बुद्धिहीन जीव ही होंगे, उनका भी उपकार होगा। शुभाशुभ निमित्तों को जानकर राजा भी सुख से प्रजा का पालन कर सकेगा, सुखी रहेगा और जो साधुगण है वो भी निमित्तों के बल से शुभाशुभ को जानकर ग्राम नगरादि को छोड़कर सुखपूर्वक अन्यत्र विहार कर सकेंगे। यह दिव्य निमित्त ज्ञान सर्वज्ञ भाषित है, अष्टांग निमित्तों से सहित है। पंचम काल में साधु हीन मति होंगे, सो आप ही अब उन निमित्तों का वर्णन संक्षिप्त, स्पष्ट, और सरल कह सकते हैं, और आप ही के मुख से हम सुनना चाहते हैं। इत्यादि प्रश्न आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी के सामने शिष्यों ने कहे। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽध्यायः विवेचन--इस ग्रन्थ में श्रावक और मुनि दोनों के लिए उपयोगी निमित्त का विवेचन आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने कहा है। इसके प्रथम अध्याय में ग्रन्थ में विवेच्य विषय का निर्देश किया गया है। इस ग्रन्थ में उन निमित्तों का निरूपण किया है, जिनके अवलोकन मात्र से कोई भी व्यक्ति अपने शुभाशुभ को अवगत कर सकता है। अष्टांग निमित्त ज्ञान को आचार्यों ने विज्ञान के अन्तर्गत रखा है : यत: “मोक्षे धीमा॑नमन्यत्र विज्ञानं शिल्पशास्त्रयोः" अर्थात्—निर्वाण प्राप्ति सम्बन्धी ज्ञान को ज्ञान और शिल्प तथा अन्य शास्त्र सम्बन्धी जानकारी को विज्ञान कहते हैं । यह उभय लोक की सिद्धि में प्रयोजक है, इसलिए गृहस्थों के समान मुनियों के लिए भी उपयोगी माना गया है। किसी एक निमित्त से यथार्थ से निर्णय नहीं हो सकता। निर्णय करना निमित्तों के स्वभाव, परिमाण, गुण एवं प्रकारों पर भी बहुत अंशों में निर्भर है। यहाँ प्रथम अध्याय में निरूपित वर्ण्य विषयों का संक्षिप्त परिभाषात्मक परिचय दे देना अप्रासंगिक न होगा। उल्का-“ओषति, उष षकारस्य लत्वं क तत: टाप्' अर्थात्-उष् धातु के षकार का ल' हो जाने से क प्रत्यय कर देने पर स्त्री लिंग में उल्का शब्द बनता है। इसका शाब्दिक अर्थ है तेज:पुञ्ज, ज्वाला या लपट। तात्पर्य लिया जाता है, आकाश से पतित अग्नि | कुछ मनीषी आकाश से पतित होने वाले उल्का काण्डों को टूटा तारा के नाम से कहते हैं। ज्योतिष शास्त्र में बताया गया है कि उल्का एक उपग्रह है। इसके आनयन का प्रकार यह है कि सूर्याक्रान्त नक्षत्र से पञ्चम विद्युन्मुख, अष्टम शून्य, चतुर्दश सन्निपात, अष्टादश केतु, एकविंशति उल्का, द्वाविंशति कल्प, त्रयोविंशति वज्र और चतुर्विंशति निघात संज्ञक होता है। विद्युन्मुख, शून्य, सन्निपात, केतु, उल्का, कल्प, बज्र और निघात ये आठ उपग्रह माने जाते हैं। इनका आनयन पूर्ववत सूर्य नक्षत्र से किया जाता है। उदाहरण__वर्तमान में सूर्य कृत्तिका नक्षत्र पर है। यहाँ कृत्तिका से गणना की तो पंचम पुनर्वसु नक्षत्र विद्युन्मुख संज्ञक, अष्टम, मघा, शून्य संज्ञक, चतुर्दश विशाखा नक्षत्र सनिन्पात संज्ञक, अष्टादश पूर्वाषाढ़ केतु संज्ञक, एकविंशति धनिष्ठा उल्का संज्ञक, द्वाविंशति शतभिषा कल्प संज्ञक, त्रयोविंशति पूर्वाभाद्रपद वज्र संज्ञक और चतुर्विंशति उत्तराभाद्रपद निघात संज्ञक माना जायेगा। इन उपग्रहों का फलादेश नामानुसार है तथा विशेष आगे बतलाया जायेगा। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १० निमित्त ज्ञान में उपग्रह सम्बन्धी उल्का विचार नहीं होता है। इसमें आकाश से पतित होने वाले तारों का विचार किया जाता है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने उल्का के रहस्य को पूर्णतया अवगत करने की चेष्टा की है। कुछ लोग इसे Shooting Stars टूटने वाला नक्षत्र, कुछ Fire Balls अग्नि- गोलक और कुछ इसे Astervids उप-नक्षत्र मानते हैं। प्राचीन ज्योतिषियों का मत है कि वायुमण्डल के ऊर्ध्वभाग में नक्षत्र जैसे कितने ही दीप्तिमान पदार्थ समय-समय पर दिखाई पड़ते हैं और गगनमार्ग में द्रुत वेग से चलते हैं तथा अन्धकार में लुप्त हो जाते हैं। कभी-कभी कतिपय वृहदाकार दीप्तिमान पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं पर वायु की गति से विपर्यय हो जाने के कारण उनके कई खण्ड हो जाते हैं और गम्भीर गर्जन के साथ भूमितल पर पतित हो जाते हैं। उल्काएँ पृथ्वी पर नाना प्रकार के आकार में गिरती हुई दिखलाई पड़ती हैं। कभी-कभी निरभ्र आकाश में गम्भीर गर्जन के साथ उल्कापात होता है। कभी निर्मल आकाश में झटिति मेघों के एकत्रित होते ही अन्धकार में भीषण शब्द के साथ उल्कापात होते देखा जाता है। यूरोपीय विद्वानों की उल्कापात के सम्बन्ध में निम्न सम्मति है— (१) तरल पदार्थ से जैसे धूम उठता है, वैसे ही उल्का सम्बन्धी द्रव्य भी अतिशय सूक्ष्म आकार में पृथ्वी से वायुमण्डल के उच्चस्थ मेघ पर जा जुटता है और रासायनिक क्रिया से मिलकर अपने गुरुत्व के अनुसार नीचे गिरता है। (२) उल्का के समस्त प्रस्तर पहले आप्रेय गिरि से निकल अपनी गति के अनुसार आकाश मण्डल पर बहुत दूर पर्यन्त चढ़ते हैं और अवशेष में पुनः प्रबल वेग से पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं। (३) किसी-किसी समय चन्द्रमण्डल के आय गिरि से इतने वेग में धातु निकलता है कि पृथ्वी के निकट आ लगता है और पृथ्वी की शक्ति से खिचकर नीचे गिर पड़ता है। (४) समस्त उल्काएँ उपग्रह हैं। ये सूर्य के चारों ओर अपने-अपने कक्ष में घूमती हैं। इनमें सूर्य जैसा आलोक रहता है । पवन से अभिभूत होकर उल्काएँ पृथ्वी पर पतित होती हैं। उल्काएँ अनेक आकार-प्रकार की होती हैं। आचार्य ने यहाँ पर दैदीप्यमान नक्षत्र - पुञ्जों की उल्का संज्ञा दी है, ये नक्षत्रपुञ्ज Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽध्यायः निमित्त सूचक हैं। इनके पतन के आकार-प्रकार, दीप्ति, दिशा आदि से शुभाशुभ का विचार किया जाता है। द्वितीय अध्याय में इसके फलादेश का निरूपण किया जायेगा। परिवेष—“परितो विष्यते व्याप्यतेऽनेन' अर्थात् चारों ओर से व्याप्त होकर मण्डलाकार हो जाना परिवेष है। यह शब्द विष धातु से धञ् प्रत्यय कर देने पर निष्पन्न होता है। इस शब्द का तात्पर्य यह है कि सूर्य या चन्द्र की किरणें जब वायु द्वारा मण्डलीभूत हो जाती हैं तब आकाश में नाना वर्ण आकृति विशिष्ट मण्डल बन जाता है, इसी को परिवेष कहते हैं। यह परिवेष रक्त, नील, पीत, कृष्ण, हरित आदि विभिन्न रंगों का होता है और इसका फलादेश भी इन्हीं रंगों के अनुसार होता है। विधुत-"विशेषेण द्योतते इति विद्युत्' धुत धातु से क्यप् प्रत्यय करने पर विद्युत शब्द बनता है। इसका अर्थ है बिजली, तडित, शम्पा, सौदामिनी आदि । विद्युत के वर्ण की अपेक्षा से चार भेद माने गये हैं- कपिला, अतिलोहिता, सिता और पीता। कपिल वर्ण की विद्युत होने से वायु, लोहित वर्ण की होने से आतप, पीत वर्ण की होने से वर्षण और सित वर्ण की होने से दुर्भिक्ष होता है। विद्युत्पति का एकमात्र कारण मेध है। समुद्र और स्थल भाग की ऊपर वाली वायु तडित् उत्पन्न करने में असमर्थ है, किन्तु जल के वाष्पीभूत होते ही उसमें विद्युत उत्पन्न हो जाती है। आचार्य ने इस ग्रन्थ में विद्युत द्वारा विशेष फलादेश का निरूपण किया है। अभ्र-आकाश के रूप-रंग, आकृति आदि के द्वारा फलाफल का निरूपण करना अभ्र के अन्तर्गत है। अभ्र शब्द का अर्थ गगन है। दिग्दाह-दिशाओं की आकृति भी अभ्र के अन्तर्गत आ जाती है। सन्ध्या--दिवा और रात्रि का सन्धिकाल है उसी को सन्ध्या कहते हैं। अर्द्ध अस्तमित और अर्द्ध उदित सूर्य जिस समय होता है, वहीं प्रकृत सन्ध्या काल है। यह काल प्रकृत सन्ध्या होने पर भी दिवा और रात्रि एक-एक दण्ड सन्ध्याकाल माना गया है। प्रात: और सायं को छोड़कर और भी एक सन्ध्या है, जिसे मध्याह्न कहते हैं। जिस समय सूर्य आकाश मण्डल के मध्य में पहुँचता है, उस समय Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता मध्याह्न सन्ध्या होती है। यह सन्ध्याकाल सप्तम मुहूर्त के बाद अष्टम मुहूर्त में होता है। प्रत्येक सन्ध्या का काल २४ मिनट या १ घटी प्रमाण है। सन्ध्या के रूप-रंग, आकृति आदि के अनुसार शुभाशुभ फल का निरूपण इस ग्रन्थ में किया जायेगा। मेघ-मिह धातु से अच् प्रत्यय कर देने से मेघ शब्द बनता है। इसका अर्थ है बादल। आकाश में हम कृष्ण, श्वेत आदि वर्ण की वायवीय जलराशि की रेखा वाष्पाकार में चलती हुई दिखलाई पड़ती है, इसी को मेघ (Clouds) कहते हैं। पर्वत के ऊपर कुहासे की तरह गहरा अन्धकार दिखलाई देता है, वह मेघ का रूपान्तर मात्र है। वह आकाश में संचित घनीभूत जलवाष्प से बहुत कुछ तरल होता है। यही तरल कुहरे की जैसी वाष्पराशि पीछे घनीभूत होकर स्थानीय शीतलता के कारण अपने गर्भस्थ उत्ताप को नष्टकर शिशिर बिन्दु की तरह वर्षा करती है। मेघ और कुहासे की उत्पत्ति एक ही है, अन्तर इतना ही है कि मेघ आकाश में चलता है और कुहासा पृथ्वी पर। मेघ अनेक वर्ण और अनेक आकार के होते हैं। फलादेश इनके आकार और वर्ण के अनुसार वर्णित किया जाता है। मेघों के अनेक भेद हैं, इनमें से चार प्रधान हैं- आवर्त, संवत, पुष्कर और द्रोण। आवर्त मेघ निर्मल, संवर्त मेघ बहुजल विशिष्ट, पुष्कर दुष्कर-जल और द्रोण शस्त्रपूरक होते हैं। बात--वायु के गमन, दिशा और चक्रद्वारा शुभाशुभ फल वात अध्याय में निरूपित किया गया है। वायु का संचार अनेक प्रकार के निमित्तों को प्रकट करने वाला है। प्रवर्षण-वर्षा विचार प्रकरण को प्रवर्षण में रखा गया है। ज्येष्ठ पूर्णिमा के बाद यदि पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में वृष्टि हो तो जल के परिमाण और शुभाशुभ सम्बन्ध में विद्वानों का मत है कि एक हाथ गहरा, एक हाथ लम्बा और एक हाथ चौड़ा गड्ढा खोदकर रखें। यदि यह गड्ढा वर्षा के जल से भर जावे तो एक आढ़क जल होता है। किसी-किसी का मत है कि जहाँ तक दृष्टि जाये वहाँ तक जल ही जल दिखलाई दे तो अतिवृष्टि समझनी चाहिए। वर्षा का विचार ज्येष्ठ की पूर्णिमा के अनन्तर आषाढ़ की प्रतिपदा और द्वितीया तिथि की वर्षा से ही किया जाता है। गन्धर्व नगर-गगन-मण्डल में उदित अनिष्टसूचक पुर विशेष को गन्धर्व Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ प्रथमोऽध्यायः नगर कहा जाता है। पुद्गल के आकार विशेष नगर के रूप में आकाश में निर्मित हो जाते हैं। इन्हीं नगरों द्वारा फलादेश का निरूपण करना गन्धर्व नगर सम्बन्धी निमित्त कहलाता है । गर्भ— बताया जाता है कि ज्येष्ठ महीने की शुक्ला अष्टमी से चार दिन तक मेघ वायु से गर्भ धारण करता है। उन दिनों यदि मन्द वायु चले तथा आकाश में सरस मेघ दिखाई पड़ें तो शुभ जानना चाहिए और उन दिनों में यदि स्वाति आदि चार नक्षत्रों में क्रमानुसार वृष्टि हो तो श्रावण आदि महीनों में भी वैसा वृष्टियोग समझना चाहिए। किसी-किसी का मत है कि कार्त्तिक मास के शुक्ल पक्ष के उपरान्त गर्भ दिवस आता है। गर्गादि के मत से अगहन के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के उपरान्त जिस दिन चन्द्रमा और पूर्वाषाढ़ा का संयोग होता है, उसी दिन गर्भलक्षण समझना चाहिए । चन्द्रमा के जिस नक्षत्र को प्राप्त होने पर मेघ के गर्भ रहता है, चन्द्रविचार से १९५ दिनों में उस गर्भ का प्रसवकाल आता है। शुक्ल पक्ष का गर्भ कृष्ण पक्ष में, कृष्ण पक्ष का गर्भ शुक्ल पक्ष में, दिवस जात गर्भ रात में, रात का गर्भ दिन में एवं सन्ध्या का गर्भ प्रातः और प्रातः का गर्भ सन्ध्या को प्रसव वर्षा करता है । मृगशिरा और पौष शुक्ल पक्ष का गर्भ मन्द फल देने वाला होता है। पौष कृष्ण पक्ष के गर्भ का प्रसवकाल श्रावण शुक्ल पक्ष, माघ शुक्ल पक्ष के मेघ का श्रावण कृष्ण पक्ष, माघ कृष्ण पक्ष के मेघ का श्रावण के शुक्ल पक्ष, फाल्गुन शुक्ल पक्ष के मेघ का भाद्रपद कृष्ण पक्ष, फाल्गुन कृष्ण पक्ष के मेघ का आश्विन शुक्ल पक्ष, चैत्र शुक्ल पक्ष के मेघ का आश्विन कृष्ण पक्ष एवं चैत्र कृष्ण के मेघ का कार्त्तिक शुक्ल पक्ष वर्षाकाल है। पूर्वका मेघ पश्चिम में और पश्चिम का मेघ पूर्व में बरसता है। गर्भ से वृष्टिका परिज्ञान तथा खेती का विचार किया जाता है। मेघ का गर्भ के समय वायु के योग का विचार कर लेना भी आवश्यक है। यात्रा - इस प्रकरण में मुख्य रूप से राजा की यात्रा का निरूपण किया है। यात्रा के समय में होने वाले शकुन-अशकुनों द्वारा शुभाशुभ फल निरूपित है। यात्रा के लिए शुभ तिथी, शुभ नक्षत्र, शुभ वार, शुभ योग और शुभ करण का होना परमावश्यक है। शुभ समय में यात्रा करने से शीघ्र और अनायास ही कार्य सिद्धि होती है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता उत्पात स्वभाव के विपरीत घटित होना ही उत्पात है। उत्पात तीन प्रकार के होते हैं दिव्य, अन्तरिक्ष और भौम। नक्षत्रों का विकार, उल्का, निर्घात, पवन और घेरा दिव्य उत्पात हैं, गन्धर्व नगर, इन्द्रधनुषादि अन्तरिक्ष उत्पात हैं और चर एवं स्थिर आदि पदार्थों से उत्पन्न हुए उत्पात भौम कहे जाते हैं। ग्रहचार—सूर्य, चन्द्र, भौम, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु इन ग्रहों के गमन द्वारा शुभाशुभ फल अवगत करना ग्रहचार कहलाता है। समस्त नक्षत्रों और राशियों में ग्रहों की उदय, अस्त, बक्री, मार्गी इत्यादि अवस्थाओं द्वारा फल का निरूपण करना ग्रहचार है। ग्रहयुद्ध-मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि इन ग्रहों में से किन्हीं दो ग्रहों की अधोपरि स्थिति होने से किरणें परस्पर में स्पर्श करें तो उसे ग्रहयुद्ध कहते हैं। बृहत्संहिता के अनुसार अधोपरि अपनी-अपनी कक्षा में अवस्थित ग्रहों में अतिदूरत्वनिबन्धन देखने के विषय में जो समता होती है, उसे ग्रहयुद्ध कहते हैं। ग्रहयुति और ग्रहयुद्ध में पर्याप्त अन्तर है। ग्रहयुति में मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि इन पाँच ग्रहों में से कोई भी ग्रह जब सूर्य या चन्द्र के साथ समरूप में स्थित होते हैं, तो ग्रहयुक्ति कहलाती है और जब मंगलादि पाँचों ग्रह आपस में ही समसूत्र में स्थित होते हैं तो ग्रहयुद्ध कहा जाता है। स्थिति के अनुसार ग्रहयुद्ध के चार भेद हैं- उल्लेख, भेद, अंशुविमर्द और अपसव्य । छायामात्र से ग्रहों के स्पर्श हो जाने का उल्लेख, दोनों ग्रहों का परिमाण यदि योगफल के आधे से ग्रहयुद्ध का अन्तर अधिक हो तो उसे युद्ध को भेद, दो ग्रहों की किरणों का संघट्ट होना अंशुविर्मद एवं दोनों ग्रहों के अन्तर साठ कला से न्यून हो तो उसको अपसव्य कहते हैं। वार्तिक या अर्धकाण्ड—ग्रहों के स्वरूप, गमन, अवस्था एवं विभिन्न प्रकार के बाह्य निमित्तों के द्वारा वस्तुओं की तेजी मन्दी अवगत करना अर्धकाण्ड स्वप्न-चिन्ताधारा दिन और रात दोनों में समान रूप से चलती है, लेकिन जागृतावस्था चिन्ताधारा पर हमारा नियंत्रण रहता है, पर सुषुप्तावस्था की चिन्ताधारा पर हमारा नियंत्रण नहीं रहता है, इसीलिए स्वप्न भी नाना अलंकारमयी प्रतिरूपों में दिखलाई पड़ते हैं। स्वप्न में दर्शन और प्रत्यभिज्ञानुभूति के अतिरिक्त शेषानुभूतियों Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽध्यायः का अभाव होने पर भी सुख, दुःख, क्रोध, आनन्द, भय, ईर्ष्या आदि सभी प्रकार के मनोभाव पाये जाते हैं। इन भावों के पाये जाने का प्रधान कारण हमारी अज्ञात इच्छा है। स्वप्न द्वारा भविष्य में घटित होने वाली शुभाशुभ घटनाओं की सूचना अलंकृत भाषा में मिलती है, अत: उस अलंकृत भाषा का विश्लेषण करना ही स्वप्न विज्ञान का कार्य है। अरस्तू (Aristote) ने स्वप्न के कारणों का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि जागृत अवस्था में जिन प्रवृत्तियों की और व्यक्ति का ध्यान नहीं जाता, वे ही प्रवृत्तियों अर्द्धनिद्रित अवस्था में उत्तेजित होकर मानसिक जगत में जागरुक हो जाती हैं। अत: स्वप्न में भावी घटनाओं की सूचना के साथ हमारी छिपी हुई प्रवृत्तियों का ही दर्शन होता है। दूसरे पाश्चात्य दार्शनिकों ने मनोवैज्ञानिक कारणों की खोज करते हुए बतलाया है कि स्वप्न में मानसिक जगत के साथ बाह्य जगत का सम्बन्ध रहता है, इसलिए हमें भविष्य में घटने वाली घटनाओं की सूचना स्वप्न की प्रवृत्तियों से मिलती है। डॉक्टर सी.जे. विटवे (Dr. C.J. Whitbey) ने मनोवैज्ञानिक ढंग से स्वप्न के कारणों की खोज करते हुए लिखा है कि गर्मी के कारण हृदय की जो क्रियाएँ जागृत अवस्था में सुषुप्त रहती हैं, वे ही स्वप्नावस्था में उत्तेजित होकर सामने आ जाती हैं। जागृत अवस्था में कार्य संलग्नता के कारण जिन विचारों की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता है, निद्रित अवस्था में वे ही विचार स्वप्नरूप से सामने आ जाते हैं। पृथगगोरियन सिद्धान्त में माना गया है कि शरीर आत्मा की कब्र है। निद्रित अवस्था में आत्मा स्वतन्त्र रूप से असल जीवन की ओर प्रवृत्त होती है और अनन्त जीवन की घटनाओं को लाकर उपस्थित कर देती है। अत: स्वप्न का सम्बन्ध भविष्यत्काल के साथ भी है। विवलोनियन (Bablyonian) कहते हैं कि स्वप्न में देव और देवियाँ आती हैं तथा स्वप्न में हमें उनके द्वारा भावी जीवन की सूचनाएँ मिलती हैं, अत: स्वप्न की बातों द्वारा भविष्यत्कालीन घटनाएँ सूचित की जाती हैं। गिलजेम्स (Giljames) नामक महाकाव्य में लिखा है कि वीरों को रात में स्वप्न द्वारा उनके भविष्य की सूचना दी जाती थी। स्वप्न का सम्बन्ध देवी-देवताओं से है, मनुष्यों से नहीं। देवी-देवता स्वभावतः व्यक्ति से प्रशन्न होकर उसके शुभाशुभ की सूचना देते हैं। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता उपर्युक्त विचारधाराओं का समन्वय करने से यह स्पष्ट है कि स्वप्न केवल अवदमित इच्छाओं प्रकाशन नहीं, बल्कि भावी शुभाशुभ का सूचक है। फ्राइड ने स्वप्न का सम्बन्ध भविष्यत् में घटने वाली घटनाओं से कुछ भी नहीं स्थापित किया है, पर वास्तविकता इससे दूर है। स्वप्न भविष्य का सूचक है। क्योंकि सुषुप्तावस्था में भी आत्मा तो जागृत ही रहती है, केवल इन्द्रियाँ और मन की शक्ति विश्राम करने के लिए सुषुप्त-सी हो जाती हैं। अत: ज्ञान की मात्रा की उज्ज्वलता से निद्रित अवस्था में जो कुछ देखते हैं, उसका सम्बन्ध हमारे भूत, वर्तमान और भावी जीवन से है। इसी कारण आचार्यों ने स्वप्न को भूत, भविष्य और वर्तमान का सूचक बताया गया है। मुहूर्त-मांगलिक कार्यों के लिए शुभ समय का विचार करना मुहूर्त है। अत: समय का प्रभाव प्रत्येक जड़ एवं चेतन सभी प्रकार के पदार्थों पर पड़ता है। अत: गर्भाधानादि षोडश संस्कार एवं प्रतिष्ठा, गृहारम्भ, गृह-प्रवेश, यात्रा प्रभृति शुभ कार्यों के लिए मुहूर्त का आश्रय लेना परमावश्यक है। तिथि–चन्द्र और सूर्य के अन्तरांशों पर से तिथि का मान निकाला जाता है। प्रतिदिन १२ अंशों का अन्तर सूर्य और चन्द्रमा के भ्रमण में होता है, यही अन्तरांश का मध्यम मान है। अमावस्या के बाद प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक तिथियाँ शुक्ल पक्ष की और पूर्णिमा के बाद प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक की तिथियाँ कृष्ण पक्ष की होती हैं। ज्योतिष शास्त्र में तिथियों की गणना शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ होती हैं। तिथियों की संज्ञाएँ—१/६/११ नन्दा, २/७/१२ भद्रा, ३/८/१३ जया, ४/९/१४ रिक्ता और ५/१०/१५ पूर्ण संज्ञक हैं। पक्षरन्ध्र-४/६/८/९/१२/१४ तिथियाँ पक्षरन्ध्र हैं। ये विशिष्ट कार्यों में त्याज्य हैं। मासशून्य तिथियाँ-चैत्र में दोनों पक्षों की अष्टमी और नवमी, वैशाख के दोनों पक्षों की द्वादशी, ज्येष्ठ में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी और शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी, आषाढ़ में कृष्ण पक्ष की षष्ठी और शुक्ल पक्ष की सप्तमी, श्रावण में दोनों पक्षों की द्वितीया और तृतीया, भाद्रपद में दोनों पक्षों की प्रतिपदा . द्वितीया, Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽध्यायः आश्विन में दोनों पक्षों की दशमी और एकादशी, कार्तिक में कृष्ण पक्ष की पंचमी और शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी, मार्गशीर्ष में दोनों पक्षों की सप्तमी और अष्टमी, पौष में दोनों पक्षों की चतुर्थी और पंचमी, माघ में कृष्ण पक्ष की पंचमी और शुक्ल पक्ष की षष्ठी एवं फाल्गुन में कृष्ण पक्ष की चतुर्थी और शुक्ल पक्ष की तृतीया मास शून्य संज्ञक हैं। सिद्धा तिथियाँ—मंगलवार को ३/८/१३. बुधवार को २/७/१२, गुरुवार को ५/१०/१५, शुक्रवार को १/६/११ एवं शनिवार को ४/९/१४ तिथियाँ सिद्धि देने वाली सिद्धा संज्ञक हैं। दग्ध, विष और हुताशन संज्ञक तिथियाँ-रविवार को द्वादशी, सोमवार को एकादशी, मंगलवार को पंचमी, बुधवार को तृतीया, गुरुवार को षष्ठी, शुक्र को अष्टमी, शनिवार को नवमी दग्धा संज्ञक, रविवार को चतुर्थी, सोमवार को षष्ठी, मंगलवार को सप्तमी, बधवार को द्वितीया, गुरुवार को अष्टमी, शुक्रवार को नवमी और शनिवार को सप्तमी, विषसंज्ञक एवं रविवार को द्वादशी, सोमवार को षष्ठी, मंगलवार को सप्तमी, बुधवार को अष्टमी, बृहस्पतिवार को नवमी, शुक्रवार को दशमी और शनिवार को एकादशी हुताशन संज्ञक है। ये तिथियाँ नाम के अनुसार फल देती हैं। करण—तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं अर्थात् एक तिथि में दो करण होते हैं। करण ११ होते हैं (१) वव (२) कालक (३) कौलव (४) तैतिल (५) गर (६) वणिज (७) विष्टि (८) शकुनि (९) चतुष्पद (१०) नाग और (११) किंस्तुघ्न। इन कारणों में पहले के ७ करण चर संज्ञक और अन्तिम ४ करण स्थिर संज्ञक हैं। करणों के स्वामी–ववका इन्द्र, बालव का ब्रह्मा, कौलव का सूर्य, तैतिल का सूर्य, गरकी पृथ्वी, वणिज की लक्ष्मी, विष्टिका यम, शकुनि का कलि, चतुष्पाद का रुद्र, नाग का सर्प एवं किंस्तुघ्न का वायु है। विष्टि करणका नाम भद्रा है, प्रत्येक पंचाग में भद्रा के आरम्भ और अन्त का समय दिया रहता है। निमित्त—जिन लक्षणों को देखकर भूत और भविष्य में घटित हुई और होने वाली घटनाओं का निरूपण किया जाता है, उन्हें निमित्त कहते हैं। निमित्त Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता -.. 1- के आठ भेद हैं-(१) व्यंजन- तिल, मस्सा, चट्टा आदि को देखकर शुभाशुभ का निरूपण करना, व्यंजन निमित्त ज्ञान है। (२) मस्तक, हाथ, पाँव आदि अंगों को देखकर शुभाशुभ कहना अंग निमित्त ज्ञान है। (३) चेतन और अचेतन के शब्द सुनकर शुभाशुभ का वर्णन करना स्वर निमित्त ज्ञान है। (४) पृथ्वी की चिकनाई और रूखेपन को देखकर फलादेश निरूपण करना भौम निमित्त ज्ञान है। (५) वस्त्र, शस्त्र, आसन, छत्रादि को छिदा हुआ देखकर शुभाशुभ फल कहना छिन्न निमित्त ज्ञान है। (६) ग्रह, नक्षत्रों के उदयास्त द्वारा फल निरूपण करना अन्तरिक्ष निमित्त ज्ञान है। (७) स्वस्तिक, कलश, शंख, चक्र आदि चिन्हों द्वारा एवं हस्तरेखा की परीक्षा कर फलादेश बतलाना लक्षण निमित्त ज्ञान है। (८) स्वप्न द्वारा शुभाशुभ फल कहना स्वप्न निमित्त ज्ञान है। ऋषिपुत्र निमित्त शास्त्र में निमित्तों के तीन ही भेद किये हैं जो दिट्ठ भुविरसण्ण जे दिट्ठा कुहमेण कत्ताणं। सदसंकुलेन दिट्ठा वउसट्ठिय ऐण णाणधिया।। अर्थात्-पृथ्वी पर दिखलाई देने वाले निमित्त, आकाश में दिखलाई देने वाले निमित्त और शब्द श्रवण द्वारा सूचित होने वाले निमित्त, इस प्रकार निमित्त के तीन भेद हैं। शकुन-जिससे शुभाशुभ का ज्ञान किया जाथ, वह शकुन है। वसन्तराज शाकुन में बताया गया है जिन चिन्हों के देखने से शुभाशुभ जाना जाय, उन्हें शकुन कहते हैं। जिस निमित्त द्वारा शुभ विषय जाना जाय उसे शुभ शकुन और जिसके द्वारा अशुभ जाना जाय उसे अशुभ शकुन कहते हैं। दधि, घृत, दूर्वा, आतप, तण्डुल, पूर्णकुम्भ, सिद्धान्त, श्वेत, सर्षप, चन्दन, शंख, मृत्तिका, गोरोचन, देवमूर्ति, वीणा, फल, पुष्प, अलंकार, अस्त्र, ताम्बुल, मान, आसन, ध्वज, छत्र, व्यञ्जन, वस्त्र, रत्न, सुवर्ण, पद्म, शृंगार, प्रज्वलित, वह्नि, हस्ती, छाग, कुश, रूप्य, ताम्र, वंग, औषध, पल्लव इन वस्तुओं की गणना शुभ शकुनों में की गयी है। यात्रा के समय इनका दर्शन स्पर्शन शुभ माना गया है। यात्रा काल में संगीत सुनना भी शुभ माना गया है। गमन काल में यदि कोई खाली घड़ा लेकर पथिक के साथ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽध्यायः जाय और घड़ा भर लौट आवे तो पथिक भी कृतकार्य होकर निर्विघ्न लौटता है। यात्रा काल में चुल्लु भर जल से कुल्ली करने पर यदि अकस्मात् कुछ जल गले के भीतर चला जाय तो अभीष्ट कार्य की सिद्धि होती है। अंगार, भस्म, काष्ठ, रज्जु, कर्दम-कीचड़, कपास, तुष, अस्थि, विष्ठा, मलिन व्यक्ति, लौह, कृष्णधान्य, प्रस्तर, केश, सर्प, तेल, गुड़, चमड़ा, खाली घड़ा, लवण, तिनका, तक्र, श्रृंखला आदिका दर्शन और स्पर्शन यात्रा काल में अशुभ माना जाता है। यदि यात्रा करते समय गाड़ी पर चढ़ते हुए पैर फिसल जाय अथवा गाड़ी छूट जाय तो यात्रा में विघ्न होता है। मार्जारयुद्ध, मार्जार शब्द, कुटुम्ब का परस्पर विवाद मिलाई पड़ेजो चाटाल अनि होती है। यात्रा करना वर्जित है। नये घर में प्रवेश करते समय शव दर्शन होने से मृत्यु अथवा बड़ा रोग होता है। ___जाते अथवा आते समय यदि अत्यन्त सुन्दर शुक्ल वस्त्र और शुक्ल मालाधारी पुरुष या स्त्री के दर्शन हों तो कार्यसिद्ध होता है। राजा, प्रशन्न व्यक्ति, कुमारी कन्या, गजारुढ़, या अश्वारुढ़ व्यक्ति दिखलाई पड़े तो यात्रा में शुभ होता है। श्वेत वस्त्र धारिणी, श्वेतचन्दनलिप्ता और सिर पर श्वेत माला धारण किये हुए गौरांग नारी मिल जाय तो सभी कार्य सिद्ध होते हैं। यात्राकाल में अपमानित, अंगहीन, नग्न, तैललिप्त, रजस्वला, गर्भवती, रोदनकारिणी, मलिनवेशधारिणी, उन्मत्त, मुक्तकेशी नारी दिखलाई पड़े तो महान् अनिष्ट होता है। जाते समय पीछे से या सामने खड़े हो दूसरा व्यक्ति कहे-'जाओ, मंगल होगा' तो पथिक को सब प्रकार से विजय मिलती है। यात्राकाल में शब्दहीन शृगाल दिखलाई पड़े तो अनिष्ट होता है। यदि शृगाल पहले हुआ-हुआ' शब्द करके पीछे 'टटा' ऐसा शब्द करे तो शुभ और अन्य प्रकार का शब्द करने से अशुभ होता है। रात्रि में जिस घर के पश्चिम ओर शृगाल शब्द करे, उसके मालिक का उच्चाटन, पूर्व ओर शब्द होने से भय, उत्तर और दक्षिण की ओर शब्द करने से शुभ होता है। यदि भ्रमर बाईं ओर गुन-गुन शब्द कर किसी स्थान में ठहर जाये अथवा भ्रमण करते रहें तो यात्रा में लाभ, हर्ष होता है। यात्राकाल में पैर में काँटा लगने से विघ्न होता है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता अंग का दक्षिण भाग फड़कने से शुभ तथा पृष्ठ और हृदय के वाम भाग का स्फुरण होने से अशुभ होता है। मस्तक स्पन्दन होने से स्थान वृद्धि तथा भ्रू और नासा स्पन्दन से प्रिय संगम होता है। चक्षु स्पन्दन से भृत्यलाभ, चक्षु के उपाना देश का स्वादन होने से अर्थलाभ और मध्य देश के फड़कने से उद्वेग और मृत्यु होती है। अपांग देश के फड़कने से स्त्री लाभ, कर्ण के फड़कने से प्रिय संवाद, नासिका फड़कने से प्रणय, अधर ओष्ठ के फड़कने से अभीष्ट विषय लाभ, कण्ठ देश के फड़कने से सुख, बाहु के फड़कने से मित्रस्नेह, स्कन्ध प्रदेश फड़कने से सुख, हाथ के फड़कने से धनलाभ, पीठ के फड़कने से पराजय और वक्षस्थल के फड़कने से जयलाभ होता है। स्त्रियों की कुक्षि और स्तन फड़कने से सन्तान लाभ, नाभि फड़कने से कष्ट और स्थान च्युति फल होता है। स्त्री का वामांग और पुरुष का दक्षिणांग ही फल निरूपण के लिए ग्रहण किया जाता है। पाक-सूर्यादि ग्रहों का फल कितने समय में मिलता है, इसका निरूपण करना ही इस अध्याय का विषय है। __ ज्योतिष-सूर्यादि ग्रहों के गमन, संचार आदि के द्वारा फल का निरूपण किया जाता है। इसमें प्रधानत: ग्रह, नक्षत्र, धूमकेतु आदि ज्योति पदार्थों का स्वरूप, संचार, परिभ्रमणकाल, ग्रहण और स्थिति प्रभृति समस्त घटनाओं का निरूपण एवं ग्रह, नक्षत्रों की गति, स्थिति और संचारानुसार शुभाशुभ फलों का कथन किया जाता है। कतिपय मनीषियों का अभिमत है कि नभोमंडल में स्थित ज्योति सम्बन्धी विविध विषयक विद्या को ज्योतिर्विद्या कहते हैं, जिस शास्त्र में इस विद्या का सांगोपांग वर्णन रहता है, वह ज्योतिष शास्त्र कहलाता है। वास्तु-वास स्थान को वास्तु कहा जाता है। वास करने के पहले वास्तु का शुभाशुभ स्थिर करके वास करना होता है। लक्षणादि द्वारा इस बात का निर्णय करना होता है कि कौन वास्तु शुभकारक है और कौन अशुभकारक है। इस प्रकरण में ग्रहों की लम्बाई, चौड़ाई तथा प्रकार आदि का निरूपण किया जाता है। दिव्येन्द्र संपदा-आकाश की दिव्य विभूति द्वारा फलादेश का वर्णन करना ही इस अध्याय के अन्तर्गत है। लक्षण-- इस विषय में दीपक, दन्त, काष्ठ, श्वान, गो, कुक्कुट, कूर्म, Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ प्रथमोऽध्यायः छाग, अश्व, गज, पुरुष, श्री नम्र, छत, प्रतिमा, शय्यासन, प्रासाद, प्रभृतिका स्वरूप गुण आदि का विवेचन किया जाता है। स्त्री और पुरुष के लक्षणों के अन्तर्गत सामुद्रिक शास्त्र भी आ जाता है। अंगोपात्रों की बनावट एवं आकृति द्वारा भी शुभाशुभ लक्षणों का निरूपण इस अध्याय में किया जाता है। चिह्न – विभिन्न प्रकार के शरीर बाह्य एवं शरीरान्तर्गत चिह्नों द्वारा शुभाशुभ फल निर्णय करना चिह्न के अन्तर्गत आता है। इसमें तिल, मस्सा आदि चिह्नों का विचार विशेष रूप से होता है। लग्न - जिस समय में क्रान्तिवृत्त का जो प्रदेश स्थान क्षितिज वृत्त में लगता है, वही लग्न कहलाता है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि दिन का उतना अंश जितने में किसी एक राशि का उदय होता है, लग्न कहलाता है। अहोरात्र में बारह राशियों का उदय होता है, इसलिए एक दिन रात में बारह लग्न मानी जाती हैं। लग्न निकालने की क्रिया गणित द्वारा की जाती है। मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन ये लग्न राशियाँ हैं। मेष - पुरुष जाति, चर संज्ञक, अग्नितत्त्व, रक्तपीत वर्ण, पित्त प्रकृति, पूर्व दिशा की स्वामिनी और पृष्ठोदयी है। वृष - स्त्री राशि स्थिर संज्ञक, भूमितत्त्व, शीतल स्वभाव, वात प्रकृति, श्वेतवर्ण, विषमोदयी और दक्षिण की स्वामिनी है । मिथुन– पश्चिम की स्वामिनी, वायु तत्त्व, हरित वर्ण, पुरुष राशि, द्विस्वभाव, उष्ण और दिनबली है। कर्क—चर, स्त्री जाति, सौम्य, कफ प्रकृति, जलचारी, समोदयी, रात्रिबली और उत्तर दिशा की स्वामिनी है। सिंह – पुरुषजाति, स्थिरसंज्ञक, अग्नितत्त्व, दिनबली, पित्तप्रकृति, पुष्टशरीर, भ्रमण प्रिय और पूर्व की स्वामिनी है । कन्या - पिंगलवर्ण, स्त्रीजाति, द्विस्वभाव, दक्षिण की स्वामिनी, रात्रिबली, वायुपित्त प्रकृति, पृथ्वीतत्त्व है। तुला - पुरुष, चर, वायु तत्त्व, पश्चिम की स्वामिनी, श्यामवर्ण, शीर्षोदयी, दिनबली और क्रूर स्वभाव है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता वृश्चिक-स्थिर, शुभ्रवर्ण, स्त्री जाति, जल तत्त्व, उत्तर दिशा की स्वामिनी, कफ प्रकृति, रात्रिबली और हठी है। धनु-पुरुष, कांचनवर्ण, द्विस्वभाव, क्रूर, पित्त प्रकृति, दिनबली, अग्नि तत्त्व और पूर्व की स्वामिनी है। मकर-चर, स्त्री, पृथ्वी तत्त्व, वात प्रकृति, पिंगल वर्ण, रात्रिबली, उच्चाभिलाषी और दक्षिण की स्वामिनी है। कुम्भ-पुरुष, स्थिर, वायु तत्त्व, विचित्र वर्ण, शीर्षोदय, अर्द्धजल, त्रिदोष प्रकृति और दिनबली है। मीन-द्विस्वभाव, स्त्री जाति, कफ प्रकृति, जलतत्त्व, रात्रिबली, पिंगलवर्ण और उत्तर की स्वामिनी है। इन लग्नों का जैसा स्वरूप बतलाया गया है, उन लग्नों में उत्पन्न हुए व्यक्तियों का वैसा ही स्वभाव होता है। इति श्री पंचम श्रुत केवली दिगम्बराचार्य श्री भद्रबाहुस्वामी रचित, भद्रबाहु संहिता का उल्कादि नाम का कहने वाला प्रथम अध्याय का हिन्दी भाषाकरण की क्षेमोकय नामक टीका का प्रथम अध्याय समाप्त। (इति प्रथमोऽध्याय: समाप्त:) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽध्यायः द्वितीयोऽध्यायः । उल्का लक्षण तत: प्रोवाच भगवान् दिग्वासाः श्रमणोत्तमः । यथावस्थासु विन्यासं द्वादशाङ्गविशारदः॥१॥ (श्रमणोत्तम) जो श्रमणों में उत्तम है (दिग्वासाः) दिगम्बर हैं (द्वादशाङ्ग विशारदः) द्वादशाङ्ग श्रुत को जानने वाले हैं (यथा) जैसा (वस्थासुविन्यासं) वस्तु का स्वरूप है (ततः) उसको (प्रोवाच) कहने लगे। भावार्थ-तब भद्रबाहु आचार्य जो दिगम्बर हैं, श्रमणों में उत्तम हैं, द्वादशाङ्ग को जानने में प्रवीण है, उन्होंने वस्तु का जैसा स्वरूप है वैसा कहो, माने, जो द्वादशाङ्ग श्रुत में दिव्य निमित्त ज्ञान कहा है उसी प्रकार शिष्यों को कहने लगे। ५ ।। भवद्भिर्यदहं पृष्टो निमित्तं जिनभाषितम्। समासव्यासतः सर्वं तन्निबोध यथाविधि ॥२॥ (जिन भाषितम्) जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा हुआ (निमित्तं) निमित्त ज्ञान को (भवद्भिर्यदह) आप के द्वारा (पृष्टो) पूछा गया (तन्निबोध) उसको तुम (यथा विधि) विधिपूर्वक (समासव्यासत:) जानो, में संक्षेप और विस्तार से कहता हूँ। भावार्थ-जो सर्वज्ञ भगवान के द्वारा जाना गया निमित्त ज्ञान है, उसको आप ने मुझ से पूछा, सो मैं भद्रबाहु संक्षेप और विस्तार के कहता हूँ सो सुनो॥२॥ प्रकृतेर्योऽन्यथाभावो विकारः सर्वउच्यते। एवंविकारे विज्ञेयं भयं तत्प्रकृतेः सदा ॥३॥ (प्रकृतर्यो) प्रकृति में जो (अन्यथाभावो) अन्यथा भाव होता है (विकार:) उसको विकार (सर्व उच्यते) कहते हैं, सर्व प्रकार का (एवं) इस प्रकार (विकारे) विकार (विज्ञेयं) जानना चाहिये (तत्प्रकृते:) उस प्रकृति में (सदा) सदा (भयं) भय होता है। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ-जो प्रकृति का मूल स्वभाव है, उसमें अगर विकार दिख रहा है तो समझो कोई भय उत्पन्न होने वाला है।। ३ ।। यः प्रकृतेर्विपर्यासः प्रायः संक्षेपत उत्पातः । क्षितिगगनदिव्यजातो यथोत्तरं गुरुतरं भवति ॥४॥ (य:) जो (प्रकृते) प्रकृति में (विपर्यास:) विपरीतता दिखती है (प्राय:) प्राय: (संक्षेपत) संक्षेप (उत्पात:) उत्पात है उसमें (क्षिति) भौमिक (गगन) आकाश और (दिव्य) दिव्य है (यथोत्तरं) उसमें भी, उत्तर रूप (गुरुतरं) वा गुरु रूप (भवति) होता है। ___ भावार्थ-जो प्रकृति में विपरीतता दिखती है तो प्राय: थोड़ा उत्पात होने वाला ऐसा समझो। वह भी तीन प्रकार का है- भौमिक, आकाशगत, और दिव्यरूप है। उसमें भी संक्षेप और बहुत होना है।। ४॥ उल्कानां प्रभवं रूपं प्रमाणं फलमाकृतिः । यथावत् संप्रवक्ष्यामि तन्निबोधाय तत्त्वतः ।।५।। (तत्त्वतः) यर्थाथ रूप से (उल्कानां) उल्काओं की (प्रभवं) उत्पत्ति (रूप) रूप (प्रमाणं) प्रमाण (फलं) फल (आकृति) और आकृति से (यथावत्) जैसा का तैसा (तन्निबोधाय) उसको जानने के लिये (संप्रवक्ष्यामि) कहता हूँ। भावार्थ-उल्का यथार्थ रूप से उत्पत्ति रूप प्रमाण, फल और आकृति रूप है, उसको जैसा का तैसा जानने के लिये मैं आपको कहता हूँ अथवा आप जानो।।५।। भौतिकानां शरीराणां, स्वर्गात् प्रच्यवतामिह । सम्भवश्चान्तरिक्षे तु तज्झेरूल्केति संज्ञिता॥६॥ (भौतिकानां) भौतिक (शरीराणां) शरीरों का धारण करने वाले देव (स्वर्गात्) स्वर्ग से (प्रच्यवतामिह) च्युत होते हैं (सम्भव) संभवत उनका शरीर (श्चान्तरिक्षे) आकाश में चमकता है (तज्ञ) उसको ही जानने वाले (उल्केति) उल्का (संज्ञिता) संज्ञा दी है। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽध्यायः भावार्थ-जो पाँच भूतों का शरीर धारण करने वाले स्वर्ग के देव जब स्वर्ग से मरण करते हैं तो उनका, शरीर आकाश में चमकता है, उन्हीं निमित्त शास्त्र के जानकारों ने उल्का कहा है॥६॥ तत्र तारा तथा धिष्ण्यं विद्युच्चाशनिभिः सह। उल्का विकारा बोद्धव्या निपतन्ति निमित्ततः ।। ७॥ (तत्र) वो (तारा) नारी (तथा) तथा (धिष्ण्यं) धिष्ण्य (विधुच्चाशनिभिः) विद्युत और अशनि (उल्का) उल्का के (विकारा) विकार (बोद्धव्या) जानना चाहिये (सह) वो सब (निमित्ततः) निमित्त पाकर (निपतन्ति) गिरते हैं। भावार्थ-वो सब तारा, धिष्ण्य, विद्युत और अशनि, ये सारे उल्का के विकार हैं और निमित्त पाकर आकाश से गिरते रहते हैं।।७।। ताराणां च प्रमाणं च धिष्ण्यं तदद्विगणं भवेत्। विधुद्विशालकुटिला रूपतः क्षिप्रकारिणी॥८॥ (ताराणांच) तारा नाम की उल्का से धिष्ण्य, उल्का (तद्विगुणं) उससे दो गुनी (भवेत्) होती है और विद्युत उल्का है और (विशाल) विशाल (कुटिला) कुटिल (रूपतः) रूप (क्षिप्रकारिणी) शीघ्र दौड़ने वाली होती है। भावार्थ-तारा नाम की उल्का से धिष्ण्य उल्का द्विगुणी होती है और विद्युत उल्का, शीघ्र दौड़ने वाली, कुटिल और विशाल होती है॥८॥ अशनिश्चक्रसंस्थाना दीर्घा भवति रूपतः।। पौरूषी तु भवेदुल्का प्रपतन्ती विवर्द्धते॥९॥ (अशनि) अशनि नाम की उल्का (श्चक्र) चक्राकार होती है (पौरूषी तु) पौरूषि नाम की उल्का (दीर्घा भवति) बड़ी दीर्घ (रूपत:) रूप भवनि होती है (प्रपतन्ती) गिरने के समय में (विवर्द्धते) बढ़ती जाती है। ___ भावार्थ-अशनि नाम की उल्का चक्राकार होती है, पौरूषी नाम की उल्का बड़ी दीर्घ गिरते समय लम्बी बढ़ती जाती है॥९॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | चतुर्भागफला तारा धिष्ण्यमर्धफलं भवेत् । पूजिताः पद्मसंस्थाना माङ्गल्या ताश्च पूजिताः॥१०।। (तारा) तारा नाम की उल्का (चतुर्भाग) चौथा भाग रूप (फला) फल देती है (धिष्ण्य) धिष्ण्य नाम की उल्का का (मर्धफलं) आधा फल होता है (पद्मसंस्थाना) पद्म नाम की उल्का जो कमलाकार होती है वो (माङ्गल्या) मंगल रूप और (पूजिता:) पूजने योग्य है। भावार्थ- तारा नाम की उल्का चतुर्थांस फल देती है, धिष्ण्य उल्का अर्धाफल देती है और जो कमलाकार दिखने वाली है, वह मंगल रूप और विद्वानों के द्वारा पूजने योग्य है माने शुभ फल देने वाली है।। १०॥ पापा: घोरफलं दधुः शिवाश्चापि शिवंफलम्। व्यामिश्राश्चापि व्यामिश्रं येषां तै: प्रतिपुद्गलाः॥११॥ (पापा:) पाप रूप उल्का (घोरफलं) घोर अशुभ फल के (दधुः) देती है (शिवाश्चापि) शुभ रूप उल्का (शिव) शुभ (फलम्) फल को देती है (व्यामिश्राश्चापि) और मिश्र रूप उल्का (व्यामिश्रं) मिश्र रूप फल देती है (येषां) इसी प्रकार (तैः) वह उल्का (प्रतिपुला) पुद्गल रूप है। भावार्थ-पाप रूप जो उल्काएं हैं वो महान् अशुभ घोर दुःख रूप फल देने वाली होती हैं। शुभ रूप उल्का महान् सुख को प्रदान करने वाली होती हैं। जीवों को सुख पहुँचाती हैं, शुभ होती हैं। मिश्र रूप उल्का याने शुभाशुभ रूप श्रता के लिए हुए होती है वो मिश्र फल देती है, उसका फल कुछ दुःख और कुछ सुख रूप होता है। इन पुद्गलों का ऐसा ही स्वरूप है।॥११॥ इत्येतावत् समासेन प्रोक्तुमुल्कासुलक्षणम्। पृथक्त्वेन प्रवक्ष्यामि लक्षणं व्यासतः पुनः ।।१२॥ (समासेन) संक्षेप से (इत्येतावत्) इतने तक (उल्का) उल्का का (सुलक्षणम्) सुलक्षण (प्रोक्तुम) कहा (पुन:) पुन: (पृथक्त्वेन) अलग से (व्यासत:) विशेषता से (लक्षणं) उल्काओं का लक्षण (प्रवक्ष्यामि) कहूंगा। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽध्यायः भावार्थ यहाँ तक उल्काओं का वर्णन संक्षेप से कहा, अब आगे विस्तार से उल्का का स्वरूप कहूंगा॥१२॥ विशेष—इस अध्याय में भद्रबाहु श्रुत केवली उल्काओं का वर्णन किया है, प्रथम आचार्य ने कहा कि वस्तु स्वभाव विपरीत दिखना ही, उपद्रव का कारण होता, जल, आकाश, वृक्ष, तारा, चंद्रमा, सूर्य, नक्षत्र, अग्नि, पवन आदि का जो-जो स्वभाव है उसी रूप रहना तो कुछ उपद्रव का कारण नहीं होता, किन्तु इनमें विपरीतता दिखना ही अनिष्ट का कारण होता है, उसी को लेकर आचार्य कहते हैं, उत्पात तीन प्रकार के रहे हैं। उनमें भूमिगत, अन्तरिक्ष और दिव्य। भूमि में विकार दिखना, भूमिगत उत्पात है, अन्तरिक्ष में विपरीत दिखना, आकाशगत उत्पात है, दिव्य उत्पात, जो दिव्यरूप होते हैं, प्रथम इन उत्पातों में उल्काओं का वर्णन किया है, उल्काओं की उत्पत्ति, फल, आकृति, प्रमाण को कहा, उल्का किसको कहा ? उल्का पाँच भूतों से तैयार होने वाले देवों का शरीर जब स्वर्ग से च्युत होने पर जो प्रकाश दिखता है, उसी का नाम उल्का कहा, उल्का चार प्रकार से कही, तारा, धिष्ण्य, विद्युत, असनी। ये सब उल्का विकार रूप होगी हैं निमित्त पाकर गिरती हैं, तारा उल्का का जो प्रमाण है उससे दुगनी लम्बी उल्का धिष्ण्या है, विद्युत नाम की उल्का बड़ी कुटिल, टेढ़ी-मेड़ी और शीघ्र दौड़ लगाने वाली होती है, असनी नाम की उल्का चक्राकार होती है, पौरूषी उल्का स्वभाव से ही लम्बी और पतन के समय बढ़ती जाती है। तारा नाम की उल्का का फल चतुर्थांस होता है, धिष्ण्या का आधा फल होता है, कमलाकार उल्का का फल शुभ रूप और मंगलकारी होती है, पूजने योग्य होती है। उल्का शुभ रूप और अशुभ रूप दोनों ही प्रकार की होती है, शुभ रूप शुभफल देती है, अशुभ रूप अशुभ फल देती है। जो मिश्ररूप होती है उन का फल मिश्ररूप होता है, किंचित सुख तो किंचित दुःख उत्पन्न करती है, उल्कानो एक पुद्गल है। इन पुद्गलों का ऐसा स्वभाव ही है निमित्तों को पाकर शुभ-अशुभ, मिश्ररूप को धारण करती हैं। इस दूसरे अध्याय में ये ही सब बातों का वर्णन आचार्य ने किया है। विवेचन—प्रकृति विपरीत परिणमन होते ही अनिष्ट घटनाओं के घटने की संभावना समझ लेनी चाहिए। जब तक प्रकृति अपने स्वभाव रूप में परिणमन करती Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता । है, तब तक अनिष्ट होने की आशंका नहीं। संहिता ग्रन्थों में प्रकृति को इष्टानिष्ट सूचक निमित्त माना गया है। दिशाएँ, आकाश, आतप, वर्षा, चाँदनी, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, उषा, सन्ध्या आदि सभी निमित्त सूचक हैं। ज्योतिष शास्त्र में इन सभी निमित्तों द्वारा भावी इष्टानिष्टों की विवेचना की गई है। इस द्वितीय अध्याय में उल्काओं के स्वरूप का विवेचन किया गया है और इनका फलादेश तृतीय अध्याय में वर्णित है। यद्यपि प्रथम अध्याय के विवेचन में उल्काओं के स्वरूप का संक्षिप्त और सामान्य परिचय दिया गया है, तो भी यहाँ संक्षिप्त विवेचन करना अभीष्ट है। रात को प्राय: जो तारे टूटकर गिरते हुए जान पड़ते हैं, ये ही उल्काएँ हैं। अधिकांश उल्काएँ हमारे वायुमण्डल में ही भस्म हो जाती हैं और उनका कोई अंश पृथ्वी तक नहीं आ पाता, परन्तु कुछ उल्काएँ बड़ी होती हैं। जब वे भूमि पर गिरती हैं, तो उनसे प्रचण्ड ज्वाला सी निकलती है और सारी भूमि उस ज्वाला से प्रकाशित हो जाती है। वायु को चीरते हुए भयानक वेग से उनके चलने का शब्द कोसों तक सुनाई पड़ता है और पृथ्वी पर गिरने की धमक भूकम्प सी जान पड़ती है। कहा जाता है कि आरम्भ में उल्कापिण्ड एक सामान्य ठण्डे प्रस्तर पिण्ड के रूप में रहता है। यदि यह वायुमण्डल में प्रविष्ट हो जाता है तो घर्षण के कारण उसमें भयंकर ताप और प्रकाश उत्पन्न होता है, जिससे वह जल उठता है और भीषण गति से दौड़ता हुआ अन्त में राख हो जाता है और जब यह वायुमण्डल में राख नहीं होता, तब पृथ्वी पर गिरकर भयानक दृश्य उत्पन्न कर देता है। उल्काओं के गमन का मार्ग नक्षत्र के आधार पर निश्चित किया जाय तो प्रतीत होगा कि बहुतेरी उल्काएँ एक ही बिन्दु से चलती हैं, पर आरम्भ में अदृश्य रहने के कारण वे हमें एक बिन्दु से आती हुई नहीं जान पड़तीं । केवल उल्का-झड़ियों के समान ही उनके एक बिन्दु से चलने का आभास हमें मिलता है। उस बिन्दु को जहाँ से उल्काएँ चलती हुई मालूम पड़ती हैं, संपात मूल कहते हैं। आधुनिक ज्योतिष उल्काओं केतुओं के रोड़े, टुकड़े या अङ्ग मानता है। अनुमान किया जाता है कि केतुओं के मार्ग में असंख्य रोड़े और ढोंके बिखर जाते हैं। सूर्य गमन करते-करते जब इन रोड़ों के निकट से जाता है तो ये रोड़े टकरा जाते हैं और उल्का के रूप में भूमि में पतित हो जाते हैं। उल्काओं की ऊँचाई पृथ्वी से ५०-६० मील के Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ द्वितीयोऽध्यायः लगभग होती है। ज्योतिष शास्त्र में इन उल्काओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इनके पतन द्वारा शुभाशुभ का परिज्ञान किया जाता है। उल्का के ज्योतिष में पाँच भेद हैं- धिष्ण्या, उल्का, अशनि, विद्युत और तारा! उल्का का फल १५५ दिनों में, धिष्ण्या और अशनिका ४५ दिन में एवं तारा और विद्युत का ६ दिनों में फल प्राप्त होता है। अशनि का आकार चक्र के समान है, यह बड़े शब्द के साथ पृथ्वी फाड़ती हुई मनुष्य, गज, अश्व, मृग, पत्थर, गृह, वृक्ष और पशुओं के ऊपर गिरती है। तड़-तड़ शब्द करती हुई विद्युत अचानक प्राणियों को त्रास उत्पन्न करती हुई कुटिल और विशाल रूप में जीवों और ईंधन के ढेर पर गिरती है । पतली और छोटी पूँछ वाली धिष्ण्या जलते हुए अंगारे के समान चालीस हाथ तक दिखलाई देती है। इसकी लम्बाई दो हाथ की होती है। तारा ताँबा, कमल, तार रूप और शुल्क होती है, इसकी चौड़ाई एक हाथ और खिंचती हुई-सी आकाश में तिरछी या आधी उठी हुई गमन करती है। प्रतनुपुच्छा विशाला उल्का गिरते-गिरते बढ़ती है, परन्तु इसकी पूँछ छोटी होती जाती है, इसकी दीर्घता पुरुष के समान होती है, इसके अनेक भेद हैं। कभी यह प्रेत, शास्त्र, खर, करभ, नाका, बन्दर, तीक्ष्ण दंत वाले जीव और मृग के समान आकार वाली हो जाती है। कभी गोह, साँप और धूम रूप वाली हो जाती है। कभी यह दो सिर वाली दिखाई पड़ती है। यह उल्का पापमय मानी गई है। कभी ध्वज, मत्स्य, हाथी, पर्वत, कमल, चन्द्रमा, अश्व, तप्तरज और हंस के समान दिखलाई पड़ती है, यह उल्का शुभकारक पुण्यमयी है। श्रीवत्स, वज्र, शंख और स्वस्तिक रूप में प्रकाशित होने वाली उल्का कल्याणकारी और सुभिक्षदायक है । अनेक वर्णवाली उल्काएँ आकाश में निरन्तर भ्रमण करती रहती हैं। जिन उल्काओं के सिर का भाग मकर के समान और पूँछ गाय के समान हो, वे उल्काएँ अनिष्ट सूचक तथा मनुष्य जाति के लिए भयप्रद होती हैं । चमक या प्रकाश वाली छोटी-छोटी उल्काएँ जिनका स्वरूप धिष्ण्या के समान है, किसी महत्त्वपूर्ण घटना की सूचना देती है । तार के समान लम्बी उल्काएँ, जिनका गमन सम्पात बिन्दु से भूमण्डल तक एक-सा हो रहा है, बीच में किसी भी प्रकार का विराम नहीं है, वे व्यक्ति जीवन की गुप्त और महत्त्वपूर्ण बातों को प्रकट करती Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता हैं। तार या लड़ी के रूप में रहना उसका व्यक्ति और समाज के जीवन की श्रृंखला की सूचक है। सूची रूप में पड़ने वाली उल्का देश और राष्ट्र के उत्थान की सूचिका इधर-उधर उठी हुई और विश्रृंखलित उल्काएँ आन्तरिक उपद्रव की सूचिका हैं। जब देश में महान् अशान्ति उत्पन्न होती है, उस समय इस प्रकार की छुट-पुट गिरती पड़ती उल्काएँ दिखलायी पड़ती हैं; उलाओं का पतन नाम: प्रतिदिन होता है। पर उनसे इष्टानिष्ट की सूचना अवसर-विशेषों पर ही मिलती है। उल्काओं का फलादेश उनकी बनावट और रूप-रंग पर निर्भर करता है। यदि उल्का फीकी, केवल तारे की तरह जान पड़ती है तो उसे छोटी उल्का या टूटता तारा कहते हैं। यदि उल्का इतनी बड़ी हुई कि उसका अंश पृथ्वी तर पहुँच जाय तो उसे उसका प्रस्तर कहते हैं और यदि उल्का इतनी बड़ी होने पर भी आकाश ही में फटकर चूर-चूर हो जाय तो उसे साधारणतः अग्निपिण्ड कहते हैं। छोटी उल्काएँ महत्त्वपूर्ण नहीं होती हैं। इनके द्वारा किसी खास घटना की सूचना नहीं मिलती है। यह केवल दर्शक व्यक्ति के जीवन के लिए ही उपयोगी सूचना देती है। बड़ी-बड़ी उल्काओं का सम्बन्ध राष्ट्र से है, ये राष्ट्र और देश के लिए उपयोगी सूचनाएँ देती हैं। यद्यपि आधुनिक विज्ञान उल्का पतन को मात्र प्रकृति लीला मानता है, किन्तु प्राचीन ज्योतिषियों ने इनका सम्बन्ध वैयक्तिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन के उत्थान-पतन के साथ जोड़ा है। इतिश्री पंचम श्रुत केवली दिगम्बराचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी रचित भद्रबाहु संहिता का विशेष उल्का का लक्षण फल वर्णन करने वाला द्वितीय अध्याय का हिन्दी भाषाकरण की क्षेमोदय नामक हिन्दी टीका का द्वितीय अध्याय समाप्त । (इति द्वितीयोऽध्याय: समाप्तः) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽध्यायः तृतीयोऽध्यायः उल्का वर्णन नक्षत्रं यस्य यत्युंसः पूर्णमुल्का प्रताडयेत्। भयं तस्य भवेद् घोरं यतस्तत् कम्पते हतम्॥१॥ (यस्य) जिस (यत्पुंसः) पुरुष के (नक्षत्र) नक्षत्र को (पूर्ण) पूर्णरूप से (उल्का) उल्का (प्रताड़येत्) प्रताड़ित करती है (तस्य) उस पुरुष को (घोरं) घोर (भयं) भय (भवेद) होता है (यतस्तत्) अथवा (कम्पतेहतम्) घात हो जाता है। भावार्थ-जिस पुरुष के जन्म नक्षत्र को उल्का प्रताड़ित करती है तो उसको महान् भय उत्पन्न होता है, और उस नक्षत्र को अगर कम्पित करती है तो उस व्यक्ति को घात ही कर देती है, नाम नक्षत्र को ताड़ित करना अथवा कम्पायमान करना मानो उस व्यक्ति पर प्राणघातक संकट आने वाला है॥१॥ अनेकवर्णनक्षत्रमुल्का हन्युर्यदा समाः । तस्यदेशस्य तावान्ति भयान्युग्राणि निर्दिशेत् ।। २ ।। (उल्का) उल्का (अनेक वर्ण) अनेक वर्ण वाली होकर (नक्षत्र) नक्षत्र को (र्यदासमा:) बार-बार (हन्यु) ताड़ित करे तो (तस्य) उस (देशस्य) देश को (न्युग्राणि) उग्र (भया) भय (निर्दिशेत) होता है, ऐसा निर्दिश किया है। भावार्थ-अनेक वर्ण वाली उल्का जिस देश के नाम नक्षत्र को ताड़ित करती है तो उस देश में व नगर में उग्र भय उत्पन्न होता है, तो वर्ष उत्पातों से सहित जाना है॥२॥ येन वर्णेन संयुक्ता सूर्यादुल्का प्रवर्तते। तेभ्य: सञ्जायते तेषां भर्यं येषां दिशं पतेत्॥३॥ (येन) जिस (वर्णेन) वर्ण से (संयुक्ता) संयुक्त होकर (उल्का) उल्का (सूर्याद्) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता । ३२ ---- ---..-'.-------..-...-- सूर्य के साथ (प्रवर्तते) प्रवर्तन करती हुई (येषां) जिस (दिशं) दिशा को (पतेत्) गिरती है तो (तेषां) उस टिणा को (भयं) भय (सञ्जायते) उत्पन्न करती है। भावार्थ-जिस-जिस वर्ण वाली उल्का सूर्य के साथ मिलकर जिस दिशा में गिरती है, उसी दिशा में महान भय उत्पन्न होता है, ये उल्का भय को उत्पन्न करने वाली होती है, जिस वर्ण की उल्का है, उसी वर्ण वाले को भय उत्पन्न होता है॥३॥ नीला पतन्ति या उल्का: सस्यं सर्वं विनाशयेत् । त्रिवर्णात्रीणि घोराणि भयान्युल्का निवेदयेत्॥४॥ (या) जो (उल्का:) उल्का (नीला) नील वर्ण की (पतन्ति) गिरती है (सर्व) सब (सस्य) धान्यों को (विनाशयेत्) विनाश करती है (त्रिवर्णा) तीन वर्ण वाली (उल्का:) उल्का (घोराणि) घोर (भयान्य) भय (त्रिणि) तीन प्रकार का (भयं) भय को (निवेदयेत्) निवेदन करती है। भावार्थ-जो नीलवर्ण वाली होकर उल्का गिरती है तो वो सर्व धान्यों को नाश कर देती है और तीन वर्ण वाली होकर उल्का गिरे तो उस देश में तीन प्रकार का भय उत्पन्न होता है।। ४ ॥ विकीर्यमाणा, कपिला विशेष वामसंस्थिता। खण्डा भ्रमन्त्यो विकृताः सर्वा उल्का: भयावहा॥५॥ (विकीर्यमाणा) बिखरी हुई (कपिला) कपिल वर्ण की (उल्का:) उल्का (विशेष) विशेष कर (वामसंस्थिता) वाम भाग में संस्थित (भ्रमन्त्यो) भ्रमण करने वाली (खण्डा) खण्डरूप (विकृता:) विकृत दिखे तो (सर्वा) सब (भयावहा) भय को उत्पन्न करती भावार्थ-कपिल वर्ण की उल्का वाम भाग में गमन करने वाली, खण्डरूप घूमती रूप, और विकृत रूप दिखाई दे तो ये सब महान भय उत्पन्न करती है॥५॥ उल्काऽशनिश्च, धिष्ण्यं च प्रपतन्ति यतो मुखाः। तस्यां दिशि विजानीयात् ततो भयमुपस्थितम्॥६॥ (उल्का) उल्का (अशनिश्च) अशनि और (धिष्ण्यं) धिष्ण्य (च) और (यतो) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .-: -.-. मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसामेल -- - - - तृतीयो अध्याय: श्लोक ४ FEMS तृतीयो अध्यायः श्लोक ४ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधासागर जी महाराज . AN SARAN T तृतीयो अध्यायः श्लोक ७ से ११ ... .. .... ..... . .. HARNAMIST A . . Rai तृतीयो अध्यायः श्लोकः ५ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्यायः जैसे ( मुखाः) मुख से ( प्रपतन्ति ) जिस दिशा में गिरती है ( तस्यां ) उसी ( दिशि ) दिशा में (भयं ) भय ( उपस्थितम् ) उपस्थित होगा (ततो) ऐसा (विजानीयात् ) जानना चाहिए। ३३ भावार्थ — जिस दिशा में उल्का, अशनि और धिष्ण्य, मुख से गिरती है तो उसी दिशा में भय उपस्थित होगा, ऐसा तुमको जानना चाहिए ॥ ६ ॥ सिंह, शूलपट्टिशसंस्थाना पाशवज्रासिसदृशा: व्याघ्र, वराहोष्ट्र, श्वानद्विपि - खरोपमाः । धनुर्वाण गदामयाः ।। ७।। परश्नर्थेन्दुसन्निभाः । गोधा, सर्प, श्रृंङ्गालानां सदृशाः शल्यकस्य च ॥ ८ ॥ मेषाजमहिषाकाराः काकाsकृतिवृकोपमाः । पक्ष्यकोदग्रसन्निभाः ॥ ९ ॥ कबन्धसदृशाश्च याः । शश मार्जार सहशा: ऋक्ष, वानर, संस्थाना: अलात चक्र सहशा: वक्राक्ष प्रतिमाश्चयाः ।। १० ।। शक्ति लागूल संस्थानां यस्याश्चोभयतः शिरः । सास्नन्ध माना नागाभा: प्रपतन्ति स्वभावतः ॥ ११ ॥ (सिंह) सिंह ( व्याघ्र ) व्याघ्र (वराह) सूकर (उष्ट्र) ऊंट (स्वान) कुत्ता (द्वीपि) तेंदुआ ( खरोपमाः) गधा (शूल: ) त्रिशूल ( पट्टि) एक प्रकार के आयुध का आकार (धनु) धनुष (र्वाण ) बाण ( गदामयाः) गदामय (पाश) पाश ( वज्रा ) वज्र (असि ) तलवार के सदृश (परश्न) फरसा (अर्धेन्दु) अर्द्ध चंद्राकार कुल्हाड़ी (सन्निभा) सरीके रहते हैं (गोधा ) गोह, सर्प ( श्रृगालानां ) सियाल ( सदृश: शल्यकस्य च ) शल्य के आकार के और (मेषा) भैंसा (अज) बकरा (महिषाकारा) महिषाकार ( काका कृति) काक के आकार वाले ( वृकोपमाः) भेड़िया सरीखे (शश) शसला ( मार्जार) बिल्ली के सदृश ( पक्ष्यकोदग्र सन्निभाः) बड़े-बड़े पंख वाले पक्षी के आकार (ऋक्ष) रीछ ( वानर ) बंदर के ( संस्थाना) संस्थान वाले ( कबन्ध सदृशाश्च) सिर रहित धड़ सदृश (च) और (या) जो ( अलात चक्र) कुम्हार के चक्के के (सहशा) आकार वाले ( वक्राक्ष) टेड़ी आँख वाली (प्रतिमाश्चयाः) प्रतिमा के समान (शक्ति) शक्ति (लाङ्गुल) Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता हल के (संस्थाना) संस्थान वाले (च) और (यस्या) जिसके (श्चोभयतः) दो (शिरः) सिर हैं (रजास्तन्यमाना) इसी प्रकार और भी (नागाभाः) हाथी के आकार वाली (स्वभावतः) स्वभाव से है (प्रपतन्ति) गिरती है। भावार्थ-उल्काएँ नाना प्रकार के आकार वाली होकर दिखेंगी उसी का वर्णन इन श्लोकों में है, जो सिंह, व्याघ्र, चीता, सूकर, ऊंट, कुत्ता, तेंदुआ, गधा, त्रिशुल एक प्रकार का आयुध धनुष, बाण, गधा, पाश (नागनास) वज्र, तलवार, फरसा, अर्द्ध चंद्राकार, गो, धा (गोह), सर्प, श्रृंगाल, भाला, मेंढा, बकरा, भैंसा, कौआ, भेड़िया, खरगोश, बिल्ली, ऊँचे उड़ने वाले पक्षी, रीछ, बंदर, सिर रहित धड़, कुम्हार का चक्र, टेडी आँख वाली (शक्ति) वा प्रतिमा, हल, दो सिर वाली, हाथी की आकार वाली और भी अन्य आकार की स्वभाव से ही गिरती है।। ७-८-९-१०-११।। उल्काऽनिश्च विद्युश्च सम्पूर्ण कुरुते फलम्। पतन्ती जनपदान् त्रीणि उल्का तीव्र प्रबाधते ।। १२॥ (उल्का) उल्का (अशनिश्च) अशनि और (विद्युच्च) विद्युत (सम्पूर्णं) सम्पूर्ण (फलम्) फल को (कुरुते ) करती है (त्रीणि) तीनों (उल्का) उल्का (पतन्ती) गिरती है तो (जनपादान) देशवासियों को (तीव्र) तीव्र रूप से (प्रबाधते) बाधा देती है। भावार्थ-उल्का चाहे उल्का रूप हो या अशनि रूप या विद्युत रूप से जब गिरती है तो देशवासियों को तीव्र रूप से भयभीत कर देती है याने दुःखित हो जाते हैं।। १२ ।। यथावदनु पूर्वेण तत् प्रवक्ष्यामि तत्त्वतः । अग्रतो देशमार्गेण मध्येनानन्तरं ततः॥१३॥ पुच्छेन पृष्ठतोदेशं पतन्त्युल्का विनाशयेत् । मध्यमा न प्रशस्यन्ते न भस्युल्काः पतन्ति याः॥१४॥ (यथा) जैसा (वनु पूर्वेण) कहा है (तत्) उसी प्रकार (तत्त्वत:) ज्ञान को (प्रवक्ष्यामि) मैं कहता हूँ (अग्रतो) अग्रभाग से (पतन्त्युल्काः ) उल्का गिरे तो (देश मार्गेण) देश के मार्ग का (विनाशयेत) विनाश करती है (मध्येनानन्तरं) मध्य भाग Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्यायः से गिरे तो मध्य देश का व (पुच्छेन) पूँछ की तरफ से हो तो (पृष्ठतो) पृष्ठ देश को (विनाशयेत्) विनाश करती है (मध्यमा) मध्यमा (प्रशस्यन्ते) प्रसन्त (न) नहीं है (या:) जो (नभस्यु) आकाश से (उल्का:) उल्का (पतन्ति) गिरती है। भावार्थ-जैसा पर्वकम से कहा है माने भगवान ने दिव्य ध्वनि में निमित्त ज्ञान का वर्णन किया है, उसी प्रकार मैं आपको कहता हूँ, यदि उल्का अग्र भाग से नीचे गिरे तो देश के मार्ग का नाश करती हैं, मध्य भाग से गिरे तो देश के मध्य भाग का नाश करती है, यदि उल्का पीछे के भाग से गिरे तो देश के पृष्ठ भाग का नाश करती है, आकाश से गिरने वाली उल्का मध्य भाग से गिरने वाली भी प्रशस्त नहीं तो और की तो बात ही क्या ? ।। १३-१४ ।। स्नेहवत्योऽन्यगामिन्यो प्रशस्ताः स्युः प्रदक्षिणा:। उल्का यदि पतेच्चित्रा पक्षिणा महिताय सा॥१५ ।। (उल्का) उल्का (यदि) यदि (स्नेहवत्यो) मध्यम स्नेह युक्त होकर (प्रदक्षिणा;) दक्षिण मार्ग से. (ऽन्यगामिन्यो) गमन करती (प्रशस्ता) प्रशस्त (स्युः) होती हैं (यदि) यदि (पतेच्चित्रा) चित्र विचित्र होकर गिरे तो (सा) वो (पक्षिणा महिताय) पक्षियों के लिए अहित कारक होती है। भावार्थ-यदि उल्का मध्यम स्नेह युक्त होकर प्रदक्षिणी (प्रदक्षिणा देती हुई) अथवा दक्षिण मार्ग से गमन करे तो वह अच्छी है, प्रशस्त मानी गई है चित्र-विचित्र उल्का यदि रंग-बिरंगी होकर वाम मार्ग से गमन करे तो पक्षियों के लिये हानिकारक है, पक्षियों को दुःख पहुँचता है॥१५॥ श्याम लोहित वर्णा च सधः कुर्याद् महद भयम्। उल्कायां भस्म वर्णायां पर चक्राऽऽगमो भवेत्॥१६॥ (श्याम) काली (लोहित) लाल (वर्णा) वर्ण वाली (उल्कायां) उल्का (महद) नित्य ही महान (भयम्) भय को (कुर्याद) करती है (च) और (भस्म) भस्म (वर्णायां) वर्ण वाली से (परचक्रा) पर चक्र का (अऽगमो) आगमन (भवेत्) होता है। भावार्थ-लाल वर्ण उल्का, काली वर्ण वाली उल्का गिरे तो महान भय उत्पन्न होता है और राख (भस्म) के रंग की उल्का गिरे तो समझो पर चक्र का Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भय देश में होने वाला है, याने दूसरे राज्य का आक्रमण स्वदेश पर होने वाला है ॥ १६ ॥ अग्निमाग्नि प्रभा कुर्याद् व्याधिमनिष्ठ सन्निभा । नीला कृष्णा च धूम्रा च शुक्ला वाऽसि समद्युतिः ॥ १७ ॥ उल्का नीचैः समास्निग्धा पतन्ति भयमादिशेत् । शुक्ला रक्ता च पीता च कृष्णा चापि यथा क्रमम् । चतुर्वर्णा विभक्तव्या साधुनोक्ता यथा क्रमम् ॥ १८ ॥ ३६ (अग्नि) अग्नि (अग्निप्रभां ) अग्निप्रभा (कुर्याद्) को करने वाली ( मञ्जिष्ठ) मनिष्ठ वर्ण की ( व्याधि) व्याधि को (सन्निभा) निकट लाने वाली होती है (नीला) नीलवर्ण की (कृष्णा) काले वर्ण की (च) और (धूम्रा ) धूऐं के समान वर्ण की (च) और (शुक्ला) सफेद वर्ण की (वा) अथवा (असि) तलवार के समान ( समुद्यति:) द्युति वाली (उल्काः) उल्का ( नीचैः) नीचे होती है ( समास्निग्धा ) समान स्निग्ध होकर (पतन्ति ) गिरती है तो ( भयमादिशेत्) भय को दिखाने वाली होती है (शुक्ला) सफेद (रक्ता) लाल (च) और (पीता) पीली (च) और (कृष्णा) काली ( चापि ) और भी ( यथा क्रमम्) यथा क्रम से ( चार्तुर्वर्णा) चार रंगों में (विभक्तव्या) विभक्त करना चाहिये (यथा ) यथा ( क्रमम्) क्रम से (साधुनोक्ता) साधुओं ने कहा है । भावार्थ — यहाँ पर पूर्वाचार्य श्री भद्रबाहु कहते है कि यदि उल्का अग्नि के समान वर्ण वाली होकर गिरे तो समझो अग्नि भय होगा, यदि मञ्जिष्ठ के रंग की उल्का हो तो समझो व्याधि उत्पन्न होगी, नीलवर्ण की उल्का, काली रंगी की उल्का, धुऐं के समान रंग की उल्का, सफेद उल्का और तलवार के समान कान्ति वाली उल्का अधम है, स्निग्ध रूप होकर गिरे तो भय को उत्पन्न करने वाली होती है, सफेद रंग की उल्का ब्राह्मणों को भय उत्पन्न करेगी, लाल वर्ण की उल्का क्षत्रियों को भय करेगी, पीले वर्ण की उल्का वैश्यों को भय देगी और काले वर्ण की उल्का शूद्रों को फल देगी, चारों वर्णों को क्रमशः भय उत्पन्न करेगी ।। १७-१८ ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक : आचार्य श्री सुधसागर जी महाराज तृतीयो अध्यायः श्लोक १६ तृतीयो अध्यायः श्लोक १५ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पादर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ... . तृतीयो अध्यायः श्लोक १७, १८ - .. .. तृतीयो अध्याय: श्लोक १७, १८ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ तृतीयोऽध्यायः उदीच्यां ब्राह्मणान् हन्ति प्राच्यामपि च क्षत्रियान् । वैश्याद् निति वा पतीच्यां शूद्र घातिनी ।। १९ ।। ( उदीच्यां ) उत्तर दिशा में गिरे तो (ब्राह्मणान् ) ब्राह्मणों को ( हन्ति ) धात करती है (च) और (प्राच्यामपि ) पूर्व में गिरे तो (क्षत्रियान् ) क्षत्रियों को ( याम्यायां ) दक्षिण में गिरे तो ( वैश्यान् ) वैश्यों को ( निहन्ति ) घात करती है ( प्रतिच्यां ) पश्चिम में गिरे तो ( शूद्र) शूद्रों का (घातिनी) घात करती है। भावार्थ — यदि उल्का उत्तर दिशा में गिरे तो ब्राह्मणों का नाश करती है, पूर्व में गिरे तो क्षत्रियों का घात करती है, दक्षिण में पतन हो तो वैश्यों को नष्ट करती है और पश्चिम में उल्का गिरे तो मानो शूद्रों को महान भय होगा ॥ १९ ॥ उल्का रूक्षेण वर्णेन् स्वं स्वं वर्ण प्रबाधते । स्निग्धा चैवानुलोमा च प्रसन्ना च न बाधते ॥ २० ॥ (उल्का) उल्का (रूक्षेण) रूक्ष (वर्णेन) वर्ण वाली होकर ( स्वं ) अपने (स्वं) अपने (वर्ण) वर्ण को (प्रबाधते) बाधा देती है (स्निग्धा) स्निग्ध (च) और (वानुलोम ) अनुलोम हो ( प्रसन्ना) प्रशन्न दिखती हो तो ( बाधते) बाधा (न) नहीं देती है। भावार्थ - उल्का प्रत्येक वर्ण के साथ रूक्ष होती हुई गिरे तो क्रमश: चारों रंगों के अनुसार चारों वर्ण वालों को बाधा देती है, किन्तु स्निग्ध व अनुलोम रूप और प्रशन्न दिखे तो किसी को भी बाधा नहीं दिखाई देती है ॥ २० ॥ या चादित्यात् पतेदुल्का वर्णतो वा दिशोऽपि वा । तं तं वर्णं निहन्त्याशु वैश्वानर इवार्चिभिः ॥ २१ ॥ (या) जो (उल्का) उल्का ( चादित्यात्) सूर्य के समान वर्ण वाली होकर (पतेद्) गिरे तो (वर्ण तो) वर्ण वाली होकर (दिशोऽपि वा ) दिशा में गिरे तो (तं) उसी (तं) उसी (वर्ण) वर्ण को ( निहन्त्याशु ) नाश करती है (वैश्वानर ) अग्नि की ( इवार्चिभि:) ज्वाला के समान । भावार्थ —— यदि उल्का सूर्य के अन्दर से निकलती हुई जिस-जिस रंग की हो और जिस दिशा में गिरे तो उसी उसी क्रमशः ब्राह्मणादि वर्ण वालों का नाश 258 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता करती है आप समझिये अग्नि की ज्वाला के समान उस-उस वर्ण वालों का शीघ्र नाश हो जाता है।॥२१॥ अनन्तरां दिशं दीप्ता येषामुल्काऽग्रतः पतेत्। तेषां स्त्रियश्च गर्भाश्च भयमिच्छन्ति दारूणम्॥२२॥ (येषां) जिस (दिशं) दिशा में (अनन्तरां) अनन्तर होकर (उल्का) उल्का (दीप्ता) दीप्तिमान होकर (अग्रत:) आगे से (पतेत्) गिरे तो (तेषां) उस दिशा की (स्त्रियश्च) स्त्रियों के (गर्भाश्च) गर्भ को (दारूणम्) दारूण (भयमिच्छन्ति भय को करती है। भावार्थ- उल्कादि प्रकाश करती हुई अव्यवहित दिशा को अग्र भाग से गिरे तो स्त्रियों के गर्भ को दारूण दुःख उत्पन्न होता है याने स्त्रियों के गर्भ गिरने की संभावना रहती है।॥२२॥ कृष्णा नीला च रूक्षाश्च प्रतिलोमाश्च गर्हिताः। पशुपक्षि सुसंस्थाना भैरवाश्च भयावहाः॥ २३ ॥ (कृष्णा) काली (नीला) नीली वर्ण की उल्का (रूक्षाश्च) रूक्ष होकर (प्रतिलोमाश्च) विपरीत मार्ग से होकर (गर्हिता) गिरे तो (च) और (पशु) पशु (पक्षि) पक्षी (सुसंस्थाना) के आकार वाली होकर गिरे तो (भैरवाश्च) भैरव रूप को धारण करने वाली (भयावहाः) भय को उत्पन्न करने वाली है। भावार्थ-काली वर्ण की उल्का, नीली वर्ण की उल्का रूक्ष होकर विपरीत मार्ग याने वाम मार्ग होकर और पशु-पक्षियों की आकार वाली होकर गिरे तो महान भैरव रूप भय को उत्पन्न करने वाली होती है॥२३ ।। अनुगच्छन्ति याश्चोल्का वाह्यास्तूल्का समन्ततः। वत्सानुसारिणी नाम सा तु राष्ट्र विनाशयेत् ।। २४ ॥ (या) जो (उल्का) उल्का (अनुगच्छन्ति) मार्ग में गमन करती हुई (वाह्यास्तु) बाहर की उल्काओं से टकरा जावे (सा) वो (वत्सानुसारिणीनाम) वत्सानुसारिणी नाम की उल्का है (तु) वह (राष्ट्र) राष्ट्र को (विनाशयेत) विनाश करती है। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HINE ... ::.:. मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधासागर जी महाराज तृतीयो अध्यायः श्लोक २१ १४ - तृतीयो अध्यायः श्लोक २४ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक - आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तृतीयो अध्यायः श्लोक २० तृतीयो अध्यायः श्लोक २० Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । I ! मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सविधित्सागर जी महाराज तृतीयो अध्यायः श्लोक २० तृतीयो अध्यायः श्लोक २० Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न R : FEE *.- १४ NE ततीयो अध्यायः श्लोक २३ 3 34 erest तृतीया अध्यायः श्लोक २५ से २६ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्यायः भावार्थ — यदि उल्का अपने मार्ग में जाती हुई दूसरी उल्का से टकरा जावे, उस उल्का को वत्सानुसारिणी बच्चे के रूप वाली उल्का कहते हैं, यह उल्का देश और राष्ट्र का नाश कर देती है ॥ २४ ॥ ३९ रक्ता पीता न भस्युल्काश्चेभ नक्रेण सन्निभाः । अन्येषां गर्हितानां च सत्त्वानां सदृशास्तु या: ।। २५ । उल्कास्ता न प्रशस्यन्ते निपतन्त्यः सुदारुणाः । यासु प्रपतमानासु मृगा विविध मानुषा: ।। २६ ।। ( नभस्यु ) आकाश में (उल्का) उत्पन्न होने वाली (रक्ता) लाल (पीता) पीली हो (श्च) और (इभ) हाथी के आकार वाली (नक्रेण ) मगर के आकार वाली होकर वा (अन्येषां ) अन्य (या) जो (सत्त्वानां ) प्राणियों के आकार (गर्हितानां ) ग्रहण किया है (स्ता) ऐसी (उल्का) उल्का ( प्रशस्यन्ते) प्रशस्त (न) नहीं है, यदि ( निपतन्त्य : ) गिरती है तो (सुदारुणा:) महान भयंकर है (यासु) जहाँ भी (प्रपतमानासु ) गिरती है तो ( मृगा ) मृगों को और विविध ( मानुषाः ) सब मनुष्यों को कष्ट देती है। भावार्थ — यदि लाल और पीली होकर आकाश से हाथी के आकार वाली या मगर के आकार वाली दिखती हुई उल्का व अन्य प्राणियों के आकार वाली होकर गिरे तो प्रशस्त नहीं है ऐसी उल्का मृगों को और मनुष्यों को दारूण दुःख पहुँचाती है, इसका फल शुभ नहीं है । २५-२६॥ शब्द मुञ्चान्ति दीप्तासु दिक्षु चासन्न काम्यया । क्रव्यादाश्चाऽशु दृश्यन्ते या खरा विकृताश्च या: ।। २७ ।। सधूम्रा या सनिर्घाता उल्का या भ्रमवाप्नुयुः । सभूमिकम्पा परुषा रजास्विन्योऽपसव्यगाः ॥ २८ ॥ ग्रहा नादित्य चन्द्रौ च याः स्पृशन्ति दहन्ति वा । चक्रभयं घोरं क्षुधाव्याधिजनक्षयम् ॥ २९ ॥ पर (या:) जो (उल्का) उल्का (शब्द) शब्द करती (मुञ्चन्ति छोड़ती है (दीप्तासु ) प्रकाश करती हुई (दिक्षु) दिशाओं में (यासन्न) निकट (काम्यया) कामना के लिए Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाह संहिता हुए (क्रव्यादाश्चासु) विकृत रूप को धारण करने वाली (दृश्यन्ते) दिखती है (या) अथवा (खरा) गधे; के समान (विकृताश्च) विकृत दिखती है (सधूम्रा) धूमवाली (या) वा (सनिर्घाता) निर्घात सहित (भ्रमवाप्नुयुः) घूमती हुई (स भूमिकम्पा) और भूमि को कम्पित करती हुई (परुषा) कठोर (रजस्विन्यो) धूल को उड़ाती हुई (अपसव्यगा:) वायु मार्ग से गमन करती हुई (ग्रहानादित्य चन्द्रौ) ग्रह सूर्य चन्द्र को (या:) जो (स्पृशन्ति) स्पर्श करती हुई (वा) वा (दहन्ति) जलाती हुई दिखे तो (परचक्र भयं) पर चक्र को भय उत्पन्न होगा और (क्षुधा व्याधि जन क्षयम्) जनता क्षुधा व्याधि से क्षय को प्राप्त करेगी। भावार्थ----जो उल्का शब्द करती हुई आकाश में प्रकाश छोड़ती हुई निकट. में ही जिसका फल मिलेगा ऐसा दिखाती हुई जो मांस भक्षी जीवों के समान विकृत रूप को धारण करने वाली, घूम वर्ण वाली होकर गड़गड़ाहट कर रही है भूमि को कम्पा रही है और घूम रही है वाम मार्ग से गमन करती हुई सूर्य चन्द्र ग्रहों को स्पर्श करती हुई या जलाती हुई दिखे तो समझो, देश में परराज्य का भय उत्पन्न होगा, और देश की जनता भूख से व्याधि से पीडित होगी, देश में दुर्भिक्ष फैलेगा और नाना प्रकार की व्याधियां फैलेगी, इन कारणों से जनता का नाश होगा॥२७-२८-२९ ।। एवं लक्षण संयुक्ताः कुर्वन्त्युल्का महाभयम्। अष्टापद वदुल्काभिर्दिशं पश्येद् यदाऽवृतम् ।। ३०॥ युगान्त इति विख्यातः षड्मासेनोपलभ्यते। पद्म श्री वृक्ष चन्द्रार्क नंद्यावर्त घटोपमाः ।। ३१ ।। वर्द्धमानध्वजाकाराः पताका मत्स्य कूर्मवत् । वाजि वारण रूपाश्च शङ्खवादिवछत्रवत्॥३२ ।। सिंहासनरथाकारा रूपपिण्डव्यवस्थिताः। रूपैरेतैः प्रशस्यन्ते सुखमुल्का: समाहिताः ।। ३३ ।। (एवं) इस प्रकार के (लक्षण) लक्षण से (संयुक्ताः) युक्त (त्युल्का) उल्का (महाभयम) महाभय को (कुर्वन्) करती है, (अष्टापदवदुल्काभि) अष्टापद के समान Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदक आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज । .../11- 01- Srini तृतीयो आध्यायः श्लोक २७ से २९ तृतीयो अध्यायः श्लोक ३० Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्यायः यदि उल्का (र्दिशं) दिशाओं में (यदाऽवृतम्) घूमती हुई (पश्येद्) दिखाई दे तो, (इतिविख्यातः) ऐसा विख्यात है कि (षद मासेनो) छह महीनों में (युगान्त) युगका अंत है, (उपलभ्यते) ऐसा देखा जाता है। (पद्य) कमल, (श्री वृक्ष) श्रीवृक्ष (चंदा) चंद्रमा (क) सूर्य (नंद्यावृत) नंद्यावृत, (घटोपमा) घड़ी के समान (बर्द्धमान ध्वजाकारा:) बढ़ती हुई ध्वजा के समान, (पताका) पताका (मत्स्य) मछली (क्रूर्मवत) कुछए के समान (वाजि) घोडा, (वारुण) हाथी, (रूपाश्च) के रूप वाली और (शंख) शंख, (वादित्र) वादित्र, (छत्रवत्) छात्र के समान, (सिंहासना) सिंहासन (रथाकारा) रथ के आकार वाली, (रूप पिण्ड) चांदी के पिंड के आकार की (व्यवस्थिता:) व्यवस्थित (रेतैः) इतने (रूपै) रूप वाली (उल्का:) उल्का (प्रशस्यन्ते) प्रशंसनीय है, (समाहिताः) सुख को देने वाली है। भावार्थ-इन लक्षणों वाली उल्का महाभय को उत्पन्न करने वाली होती है यदि आकाश में उल्का अष्टापद के रूप को धारण करने घूमती हुई दिखाई दे तो आप ऐसा समझो की अब युग का अन्त आ गया है युग के अंत आने में (समाप्त होने में) मात्र छह महीने का समय रह गया है। पद्य, श्री वृक्ष, चंद्रमा सूर्य, नंद्यावृत, कलश, बढ़ती हुई ध्वजाकार पताका, मछली, कछुआ, घोडा, हाथी, के रूप की शंख, वादित्र छत्र सिंहासन, रथ के आकार की चांदी के पिंड के समान व्यवस्थित, इतने रूप वाली उल्का यदि आकाश में दिखाई दे तो सुख को उत्पन्न करने वाली और प्रशस्थत मानी गई है।३०-३१-३२-३३॥ नक्षत्राणि विमुञ्चन्त्यः स्निग्धाः प्रत्युत्तमाः शुभाः। सुवृष्टिं क्षेममारोग्यं शस्य सम्पत्तिरुतमाः ॥३४॥ (नक्षत्राणि) नक्षत्रों को (विमुञ्चन्त्यः) छोड़ती हुई, (स्निग्धाः) चिकनी जो उल्का है वो (प्रत्युत्तमाः) उत्तम (शुभा:) शुभ, (सुवृष्टिं) अधिवृष्टि करने वाली (क्षेमम्) क्षेम करने वाली, (आरोग्य) आरोग्यता को देने वाली, (रूत्तमाः) उत्तम (शस्य) धान्यकी (सम्पत्ति) सम्पत्ति देने वाली है। भावार्थ-जो उल्का नक्षत्रों को स्पर्श न करती हुई स्निग्धा रूप में दिखाई दे तो उत्तम और शुभ है, उससे देश में सुवृष्टि होगी, क्षेत्र कुशल रहेगा, निरोगी जन होंगे, उत्तमरीति से धान्य उत्पन्न होगा ऐसा समझो॥३४॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्शदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तृतीयो अध्यायः श्लोक ३१ से ३३ तृतीयो अध्यायः श्लोक ३६ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | सोमो राहुश्च शुक्रश्च, केतु भीमश्च यायिनः। वृहस्पतिर्बुधः सूर्यः सौरिश्चाऽपीहनागराः ।। ३५॥ (यायिनः) यायिका, (सामो) सोम, (राहुः) राहु (च) और (शुक्रश्च) शुक्र, (केतु) केतु, (भौमिश्च) मंगल बलवान हो, (नागरा:) नगर में स्थित राजा के लिये, गुरु, बुध, सूर्य, शनि, बलवान होना चाहिए। भावार्थ-दूसरे राजा के ऊपर आक्रमण करने के लिये सोम, राहु, शुक्र, केतु, मंगल ये राजा के बलवान होना चाहिये, और प्रति आक्रमण करने के लिये स्थायी राजा के गुरु, बुद्ध, सूर्य, शनि ये बलवान हो तभी, आक्रमण करने वाला या प्रति आक्रमण करने वाला राजा विजयी होते हैं॥३५ ।। हन्यर्मध्येन या उल्का ग्रहाणां नाम विद्युता। सानिर्घाता सधूम्रा वा तत्र विन्द्यादिदं फलम् ॥ ३६॥ (या) जो (उल्का) उल्का, (ग्रहाणां) ग्रहों को (मध्येन) मध्य भाग से (हन्यु) हनन करती है, (नाम) उसका नाम (विद्युता) विद्युत उल्का है, (सानिर्घाता) वो निर्यात (सधूम्रा) और धूम सहित हो तो, (वा) उसका (तत्र) वहां पर, (विन्द्यादिद) विन्द्यादि (फल) फल होता है। भावार्थ-जो उल्क ग्रहों को मध्य से ताडित करती है तो उसका नाम विद्युत उल्का है, वो निर्घात और धूम सहित हो तो उसका फल आगे लिखे अनुसार होता है। उसका फल मैं आगे कहता हूं उसको तुम सुनो।। ३६॥ नगरेषूपसृष्टेषु नागराणां महद्भयम् । यायिषु चोपसृष्टेषु यायिनां सदभयं भवेत् ।। ३७ ।। (नगरेषु) नगरवासी (पसृष्टेषु) राजा की सैन्य पर गिरे तो (नागराणां) उस सैन्य को (महद्भयम्) महान भय होता है, (यायिषु चोप सृष्टेषु) आने वाले राजा सैन्य पर गिरे तो, (यायिनां) उसे सैन्य को वैसा ही भय (भवेत्) होता है। भावार्थ-यहां पर आचार्य ने लिखा है कि नगरस्थ राजा अपनी सेना लेकर किसी पर आक्रमण करने जाता है तो, वो यायि कहलाता है, उसी को आक्रमणिक Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्यायः कहा है, और जिसके ऊपर चढ़ाई की जाती है, उस राजा को स्थायी नागर कहा है, उसको प्रांते आक्रमणिक कहते हैं यदि विद्युत नाम की उल्का, आक्रमणिक राजा की सेना पर गिरे तो आया हुआ राजा अपनी सेना सहित नष्ट हो जायेगा, और यही उल्का प्रति आक्रमणिक नागर राजा के सैन्य दल पर गिरे तो उस सेना को महाभय उपस्थित होगा || ३७॥ संध्यानां रोहिणी पौष्ण्यं चित्रां त्रीण्युत्तराणि च। मैत्रं चोल्का यदा हन्यात् तदा स्यात् पार्थिवं भयम् ।। ३८॥ (संध्यानां) संध्या काल की (उल्का) उल्का, (रोहिणीं) रोहिणी, (पोष्ण्यं) पुष्य (चित्रां) चित्रा (त्रीण्युत्तराणि) तीनों उत्तरा (च) और अनुराधा को, (यदा) यदि (हन्यात्) हनन करते हैं (तदा) तब (पार्थिवं) राजा और प्रजा को (भयं) भय (स्यात्) होता है। भावार्थ-यदि सायंकालीन उल्का रोहिणी, पुष्य, चित्रा, उत्तराषाढ़ा उत्तराभाद्रपद, उत्तराफाल्गुनी व अनुराधा को हनन करती हुई गिरे तो समझो, राजा को और देशवासियों को भय उत्पन्न होना है।। ३८॥ वायव्यं वैष्ण्वं पुष्यं यधुल्काभिः प्रताडयेत्। ब्रह्मक्षनभयं विन्द्याद् राजश्च भयमादिशेत् ।। ३९॥ (यद्य) यदि (उल्काभिः) उल्का (वायव्यं) स्वाती, (वैष्णवं) श्रवण (पुष्यं) और पुष्य नक्षत्र को (प्रताडयेत्) प्रताडित करे तो, (ब्रह्म) ब्राह्मण (क्षत्र) क्षत्रियों को (भयं) भय को (विन्द्याद्) सूचित करता है (च) और (राज्ञः) राजा के (भयं) भय को (आदिशेत) दिखाता है। भावार्थ-यदि उल्का स्वाति श्रवण पुष्य नक्षत्र को प्रताडित करती हुई गिरे तो ब्राह्मण क्षत्रियों को भय उत्पन्न करेगी। और राजा को भी भय होगा ।। ३९ ।। यथा ग्रहं तथा अक्ष चातुर्वर्ण्य विभावयेत्। अतः परं प्रवक्ष्यामि सेनासूल्का यथाविधि ॥ ४० ॥ (यथा) जैसा (ग्रह) ग्रह को (तथा) वैसा ही नक्षत्र हो तो (चातुर्वर्ण्य) ब्राह्मणादि Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | चारों वर्गों के लिये (विभावयेत्) विभाजित करना चाहिये। (अत:) अत: (परं) आगे, (यथाविधि) यथाविधिनुसार (सेना) सेना की (उल्का) उल्का (प्रवक्ष्यामि) कहता हूँ। भावार्थ--जैसा ग्रह और नक्षत्र हो उसी के अनुसार फल को ब्राह्मणादि चारों वर्गों में लगा लेना चाहिये, अब आगे में सेना के ऊपर गिरने वाली उल्का का यथाविधि वर्णन करता हूँ।। ४०॥ सेनायास्तु समुद्योगे राज्ञोविविध मानवाः। उल्का यदा पतन्तीति तदा वक्ष्यामि लक्षणम् ।। ४१॥ (सेनायास्तु) सेना के लिये जो (समुद्योगों) उद्यम किया जाता है (राज्ञो) राजा और (विविधमानवा:) विविध मनुष्यों के लिये (उल्का) उल्का (यदा) जैसी (पतन्तीति) गिरती है (तदा) उसीका (लक्षणम् लक्षण (वक्ष्यामि) कहता हूँ। भावार्थ-जो सेना इकट्ठी करने के लिये उद्यम किया जाता है उस समय यदि उल्का गिरे उसका लक्षण कहता हूँ जो राजा और मनुष्यों के लिये होगा ।। ४१॥ उद्गच्छत् सोममक वा यधुल्का संविदारयेत। स्थावराणां विपर्यासं तस्मिन्नुत्पात दर्शने ।। ४२॥ (उद्गच्छत्) ऊपर को उठती हुई (यद्युल्का) यदि उल्का (सोममर्क) सोम, रवि, को (संविदारयेत्) विदारण करे तो (स्थावराणां) स्थावरों को (विपर्यासं) विपरीत, (तस्मिन्नुत्पातदर्शने) उन उत्पातों का दर्शन होता है। भावार्थ-यदि उल्का ऊपर से उठती हुई चंद्र सूर्य का विदारण करे तो स्थायी मनुष्यों को विपरीत उत्पाती दिखाई देते हैं।। ४२ ।।। अस्तं यातमथादित्यं सोममुल्का लिखेद् यदा। आगन्तुर्बध्यते सेना यथा चोशं यथागमम्॥४३॥ (आदित्यं) रवि (सोमं) सोम, (अस्तं) के अस्त होते हुये (उल्का) उल्का (लिखेद यदा) दिखे तो (यातम्) यायी की सेना में (यथागमम्) आने वाली (सेना) सेना का (आगन्तु) आते ही (बध्यते) वध हो जाता है। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचार्य श्री सविधिासागर जी महाराज * RSE •: : EENCE SHTRA : तृतीयो अध्यायः श्लोक ३९ **. तृतीयो अध्यायः श्लोक ४२ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्यायः भावार्थ-सोम और सूर्य के अस्त होते समय यदि उल्का दिखाई पड़े तो आने वाली आक्रमणिक सेना की दिशा में आगन्तुक सेना का नाश होगा ऐसी सूचना मिलेगी। ४३॥ उद्गच्छेत् सोममर्क वा यधुल्का प्रतिलोमतः । प्रविशेन्नागराणां स्याद् विपर्यास स्तथागते॥४४॥ (यद्युल्का) यदि उल्का, (प्रतिलोमत:) प्रतिलोम मार्ग से (सोम) सोम (वास) अर्क सूर्य के (उदगच्छेत्) उदय होते हुऐ (प्रविशेन्न) प्रवेश करे तो, (नागराणां) नगरों के लिए (विपर्यास) यायी के लिए (स्तथागते) दोनों के लिये विपरीतफल (स्याद्) होता है। भावार्थ-यदि उल्का प्रतिलोम मार्ग से चंद या सूर्य के उदय होते हुये मंडल में प्रवेश करते हुऐ दिखे तो नगरस्थ राजा के लिये और आक्रमणिक राजा के लिये, दोनों के लिये ही अशुभफल देने वाली होती है।। ४४॥ एषैवास्तगते उल्का आगन्तूनां भयं भवेत्। प्रतिलोमा भयं कुर्याद् यथास्तं चंद्रसूर्ययोः॥४५ ।। (एषैवा) इसी प्रकार (अस्तगते) अस्त होते हुऐ (चंद्र) चंद्रमा (सूर्य को) सूर्य के (प्रतिलोमा) प्रतिलोम मार्ग से समाप्त हो जावे तो (आगन्तूनां) आने वाले के लिये और स्थायी के लिये (भयं) भय (भवेत्) होता है। भावार्थ—इसी प्रकार सूर्य चंद्र के अस्त होते समय उसके मंडल में प्रतिलोम मार्ग से प्रवेश कर समाप्त हो जावे तो समझो आने वाले राजा को और स्थायी राजा को दोनों को ही भय उत्पन्न होगा ।। ४५॥ उदये भास्करस्योल्का यातोऽग्रतोऽभिसर्पति। सोमस्यापि जयं कुर्यादेषां पुरस्सरा वृत्तिः ।। ४६ ॥ (उदये) उदय होते हुये (भास्करस्यो) सूर्य के (अभिसर्पति) आगे-आगे (यातोऽ) गमन करे, (उल्का) उल्काओं (ऐषां) इसी प्रकार (सोमस्यापि) चंद्रमा के आगे (पुरस्सरावृत्ति) गमन करे तो (जयं) जयको (कुर्याद्) करने वाला होता है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | भावार्थ-यदि उल्का उदय होते हुये सूर्य या चंद्रमा के आगे-आगे गमन करे तो आक्रमणिक राजा का और प्रतिआक्रमणिक राजा को दोनों का शुभ होता है वह उल्का बाण के आकार होकर गमन करती है।॥ ४६॥ सेनामभिमुखी भूत्वा यधुल्का प्रतिग्रस्यते। प्रतिसेना वधं विन्धात् तस्मिन्नुत्पातदर्शने ॥४७॥ (यद्युल्का) यदि उल्का (सेनामभिमुखी) सेना के सामने (भूत्वा) होकर (प्रतिग्रस्यते) प्रतिग्रसति है तो, (प्रति सेना वधं) प्रतिसेना का वध (विन्द्यात) समझो, (तस्मिन्नुत्पात) उसी के अन्दर उत्पात (दर्शने) दिखाई देगा। भावार्थ-यदि उल्का सेना के सामने पतन होती हुई दिखाई दे तो समझो प्रतिद्वंदी राजा की सेना में उत्पात होगा, वह राजा विजयी होकर कभी नहीं जा सकता उसकी सेना का वहां ही क्षय हो जायगा ।। ४७॥ अथ यधुभयां सेनामेकैकं प्रतिलोमतः। उल्का तुर्ण प्रपद्येत उभयत्र भयं भवेत ॥४८॥ (अथ) अथ (या) यदि (उल्का) उल्का (उभयां) दोनों (सेनाम्) सेना के बीच (ऐकेकं) एकैक को (प्रतिलोमतः) प्रतिलोम होती हुई (तूण) तूर्ण रूप होकर (प्रपद्येत) गिरती है तो (उभयत्र) दोनो सेना को ही, (भयं) भय (भवेत्) होता भावार्थ-यदि उल्का दोनों सेना के सामने क्रम पूर्वक एकैक के सामने गिरती हुई दिखाई दे तो समझो दोनों ही राजा की सेना में उत्पात होगा॥४८॥ येषां सेनासु निपतेदुल्का नील महाप्रभा। सेनापति वधस्तेषामचिरात् सम्प्रजायते ॥४९ ।। (येषां) जिस (सेनासु) सेना में (उल्का) उल्का (नील महाप्रभा) नीलवर्ण की महाप्रभा को धारण करती हुई (निपतेद्) गिरती है तो (तेषां) उस सेना में (सेनापति) सेनापति का (वध:) वध होगा, (अचिरात) सब जगह ऐसा ही (सम्प्रजायते) कहा है Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- | | तृतीयोऽध्यायः । भावार्थ-यदि जिस सेना में उल्का नीलरंग की महाप्रभा को धारण करती हुई गिरे तो समझो उस सेना का सेनापति मरेगा, याने सेनापति का मरण अवश्य होगा ऐसा आचार्य ने सब जगह सूचित किया है इस का ऐसा ही फल होता है॥४९॥ उल्कास्तु लोहिता: सूक्ष्मा: पतन्स्यः पृतनां प्रति। यस्य राज्ञः प्रपद्यन्तं कुमारो हन्ति तं नृपम् ॥५०॥ (उल्कास्तु) उल्का (लोहिताः) लाल रंग की (सूक्ष्मा:) सूक्ष्म होकर (पृतनांप्रति) जिस राजा की सेना के प्रति (पतन्त्यः ) गिरे तो (यस्य) जिस (राज्ञ:) उसके (तं) उस (नृपं) राजा का (कुमारो) कुमार (हन्ति) मारता है (प्रपद्यन्तं) ऐसा वर्णन किया भावार्थ-यदि उल्का लाल वर्ण की सूक्ष्म होकर राजा की सेना के प्रति गिरे तो उस राजा को सामने वाले राजा का राजकुमार मार देता है, अर्थात् राजा का मरण राजकुमार के हाथ से होगा ॥५०॥ उल्कास्तु बहवः पीता: पतन्त्यः पृतनां प्रति । पृतनां व्याधितां प्राहुस्तस्मिन्नुत्पात दर्शने ॥५१ ।। (पीता:) पीले वर्ण की होकर (बहवः) बहुत (उल्कास्तु) उल्काओं (पृतनांप्रति) सेना के प्रति (पतन्त्य:) गिरे तो (पृथनां) उस सेना में (व्याधितां) व्याधि उत्पन्न होगी, (तस्मिन्नुत्पात) ऐसा उत्पात के (दर्शने) दर्शन होने पर (प्राहुः) कहा गया भावार्थ—यदि जिस सेना के अन्दर बहुत पीले वर्ण उल्का सूक्ष्म होकर गिर तो समझो उसी सेना में रोग उत्पन्न होगा, ऐसा निमित्त शास्त्रकारों ने कहा है यही उत्पात शास्त्र का कहना है॥५१॥ सस शस्त्रानुपद्येत? उल्का:श्वेताः समन्ततः । ब्राह्मणभ्यो भयं घोरें तस्य सैन्यस्य निर्दिशेत् ।। ५२|| (सशास्त्रानुपद्येत्) बहुत शास्त्रों के अनुसार (उल्का:) उल्का (श्वेता:) सफेद होकर (समन्ततः) चारों तरफ गिरे तो (ब्राह्मणेभ्यो)) ब्राह्मणों को और (तस्य) उस (सैन्यस्य) सेना का (घोर) घोर (भयं) भय होगा (निर्दिशेत्) ऐसा कहा गया है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ-बहत से निमित्त शास्त्रों में कहा गया है कि यदि उल्का सफेद वर्ण की होकर जिस सेना के चारों तरफ गिरे तो समझो उस सेना को और ब्राह्मणों को घोर भय उत्पन्न होगा, महान उत्पात का निर्देशन किया गया है॥५२॥ उल्का व्यूहेष्वनीकेषु या पतेत्तिर्यमागता। न तदा जायते युद्धं परिघा नाम सा भवेत् ।।५३॥ (उल्का) उल्का (व्यूहेष्व) सेना के (या) जो (व्यूहेषु) व्यूह रचना पर, (तिर्यमागता) तिर्यक रूप आती हुई (पतेत्) गिरे तो (परिघा नाम) परिघा नाम की (सा भवेत) वह उल्का होती है (तदा) तब (युद्ध) युद्ध (न) नहीं (जायते) होता है। भावार्थ- यदि उल्का सेना के व्यूह पर तिर्यक रूप होकर गिरे तो भयंकर युद्ध नहीं होगा थोड़ा होकर ही रह जाएगा इस उल्का को परिघा कहते हैं॥५३॥ उल्का व्यूहेष्वनीकेषु पृष्ठतोऽपि पतन्ति याः। क्षयव्ययेन पीडयेरन्नुभयोः सेनयोर्नुपान् ।। ५४ ॥ (उल्का) उल्का (व्यूहेष्वनीकेषु) व्यूह रचना के (याः) जो (पृष्ठतोऽपि) पीछे से भी (पतन्ति) गिरती है तो (क्षय व्ययेन) क्षय और खर्च (नुभयोः) दोनों तरह से (सेनयो) सेना को और (पान) राजा को (पीडयेरन्) पीड़ा देती है। भावार्थ-यदि उल्का व्यूहरचना के जो पीछे के भाग में गिरे तो राजा व सेना दोनों को ही क्षय भी होता है और खर्च भी होता है। इस प्रकार उल्का दोनों तरह से उस राज्य को नुकसान पहुंचाती है सेना का भी क्षय होता है और द्रव्य का भी बहुत खर्च होता है।। ५४ ।। उल्का व्यूहेष्वनीकेषु प्रतिलोमाः पतन्ति याः। संग्रामेषु निपतन्ति जायन्ते किंशुका वनाः ॥५५॥ (उल्का) उल्का (व्यूहेष्वनीकेषु) सेना के व्यूहरचना पर (या:) जो (प्रतिलोमा:) अपसव्य मार्ग होकर (पतन्ति) गिरे तो (संग्रामेषु) संग्राम में (निपतन्ति) सेना गिरती है (किंशुकावनाः) किंसुकवन के समान (जायन्ते) हो जाता है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : GANE तृतीयो अध्यायः श्लोक ४८ IAS-Sha :... : ektakaayaram. . P Hoर तृतीयो अध्यायः श्लोक ४२ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . .. .. . र . . ततीक्षा अध्यायः श्लोक ४७ ... . . ततीयो अध्यायः श्लोक ४१ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pata LEARNIML तृतीयो अध्यायः श्लोक ५० . x . X s: .. : SBE :.. . :: SHA P . . .. . .. मा R तृतीयो अध्यायः श्लोक ५१ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANTA . 8330925 तृतीयो अध्यायः श्लोक ५२ Airnveda MAA तृतीयो अध्यायः श्लोक ५३ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ तृतीयोऽध्यायः भावार्थ — यदि उल्का सेना के व्यूह रचना पर अपसव्य मार्ग होकर गिरे तो समझो संग्राम में सारी सेना मारी जाती है और रणभूमि रक्त रंजित होकर भयंकर हो जाती है ॥ ५५ ॥ उल्का यत्र समायन्ति यथाभावे तथासु च । येषां मध्यान्तिकं यान्ति तेषां स्याद्विजयो ध्रुवम् ॥ ५६ ॥ (यत्र) जहां (उल्का) उल्का ( यथाभावे ) जिस रूप में ( तथासु ) जहां से ( समयान्ति ) निकल जाती है (च) और (येषां ) जिसके ( मध्यान्तिकं ) मध्य होकर निकलती है ( तेषां ) उसकी (विजयो) विजय (ध्रुवम् ) अवश्य (स्यादि) होती है। भावार्थ जहां उल्का जिस रूप में जहां से निकल जाती है और जिसके मध्य होकर निकलती है उसकी अवश्य ही विजय होती है ॥ ५६ ॥ चतुर्दिक्षु यदा पृतना उल्का गच्छन्ति सन्ततम् । चतुर्दिशं तदायान्ति भयातुरमसंघशः ॥ ५७ ॥ ( यदा) जब, ( उल्का) उल्का (चतुर्दिक्षु) चारों दिशाओं में (सन्ततम् ) सतत रूप से (गच्छन्ति) जाती हुई सेना के ऊपर गिरे तो ( भयातुरम) भयातुर होकर ( संघशः) सेना भी ( चतुर्दिशं) चारों दिशाओं में (तदायान्ति) चली जाती है। भावार्थ- जब उल्का सेना के उपर चारों दिशाओं से गिरती हुई दिखाई दे तो समझो सेना भी युद्ध स्थल से इधर उधर भाग जायगी सेना तितर-बितर हो जायेगी, इतना भय उत्पन्न हो जायेगा ।। ५७ ।। अग्रतो या पतेदुल्का सा सेना तु प्रशस्यते । तिर्यगा चरते मार्ग प्रतिलोमा भयावहा ॥ ५८ ॥ (या) जो (उल्का) उल्का) (सेना) सेना के ( अग्रतो ) आगे (पतेद्) गिरे तो (सा) वह सेना के लिये ( तु प्रशस्यते) प्रशस्त है, सुख देने वाली है। यदि ( प्रतिलोमा) प्रतिलोम होकर ( तिर्यगा) तिरच्छों (मार्ग) मार्ग को (चरते ) आचरण करती है तो वह सेना के लिये ( भयावह) भय उत्पन्न करने वाली है । भावार्थ — जो उल्का सेना के आगे गिरे तो सेना के लिये प्रशस्त और Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रवाहु संहिता शुभ माना है किन्तु वही उल्का प्रतिलोम होकर तिरछे रूप में सेना के ऊपर गिर तो वह सेना को भय उत्पन्न करती है ।। ५८ ॥ यतः सेनामभिपतेत् तस्य सेनां प्रबाधयेत् । तं विजयं कुर्यात् येषां पत्तेत्सोल्का यदापुरा ॥ ५९ ॥ ५० ( यतः ) जो (उल्का) उल्का (सेनां) सेना ( अभिपतेत्) के बीच गिरे तो (तस्य) उस (सेना) सेना को ( प्रबाधयेत्) बाधा पहुँचाती है (तं) वही उल्का ( यदापुरा ) आगे (पतेत्) गिरे तो ( येषां ) उस सेना की, (विजय) विजय (कुर्यात् ) कराती है। भावार्थ — जो उल्का सेना के ठीक बीचों बीच गिरे तो उस सेना को अवश्य ही कष्ट पहुँचेगा और उल्का ठीक सेना के आगे गिरे तो उस सेना की युद्ध में विजय होगी ऐसा समझना चाहिये ॥ ५९ ॥ डिम्भरूपा नृपतये बन्धमुल्का प्रताडयेत । प्रतिलोमा विलोमा च प्रतिराजं भयं सृजेत् ॥ ६० ॥ (उल्का) उल्का (डिम्भ ) डिम्भ (रूपा ) रूप होकर ( प्रताडयेत् ) गिरे तो, 'ताडित करे तो (नृपतये) राजा को (बन्धं) बन्धन में डालेगी (च) और ( प्रतिलोमा ) प्रतिलोम व ( विलोमा) विलोम होकर गिरे तो ( प्रतिराजं ) प्रति राजा को ( भयं ) भय (सृजेत) उत्पन्न करेगा। भावार्थ-यदि उल्का डिम्भ रूप होकर सेना के ऊपर गिर तो समझो राजा शत्रु राजा के बन्धन में पड़ जायगा और यदि उल्का प्रतिलोम या विलोम होकर गिरे तो शत्रु राजा बन्धन में पड़ जायगा || ६० ॥ उल्का यस्यापि जन्मनक्षत्रं गच्छेच्छरोपमा । विदारणा तस्य वाच्या व्याधिना वर्णसङ्करैः ॥ ६१ ॥ (यस्यापि ) जिसके भी (जन्मनक्षत्रं) जन्म नक्षत्र को (उल्का) उल्का (च्छरोपमा) बाण सदृश होकर (गच्छेत) जावे तो, गिरे तो (तस्य) उस की ( विदारणा) विदारणा होगी, (वाच्या) वा (वर्णसङ्करैः ) नाना वर्ण वाली होकर गिर तो ( व्याधिना ) रोग उत्पन्न करती है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री राम जी महाराज " HOW तृतीयौ अध्यायः श्लोक ५७ 1:58 --03 S3 । ri V AA तृतीयो अध्यायः श्लोक ५९ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्यायः भावार्थ-जिसके जन्म नक्षत्र को उल्का बाण के सदृश होकर वाधित करे तो गिरे तो, उसका समझो अवश्य ही विदारण हो जायेगा, वो व्यक्ति चीरा फाड़ा जायगा और उल्का यदि नाना प्रकार के वर्णो को धारण करती हुई जन्म नक्षत्र पर गिरे तो जन्म नक्षत्र वाले को रोग उत्पन्न हो जाते है व रोगी हो जायगा यहाँ जन्म नक्षत्र से समझना चाहिये कि जिस दिन उसका जन्म हुआ हो, उस दिन कौनसा नक्षत्र था उसी नक्षत्र से यहाँ सम्बन्ध है उसे नक्षत्र पर जब उल्का गिरे तो उपर्युक्त फल होगा ।। ६१॥ उल्का येषां यथा रूपा दृश्यते प्रतिलोमतः। तेषांततो भयं विन्द्यादनुलोमा शुभागमम् ॥१२॥ (उल्का) उल्का (प्रतिलोमतः) प्रतिलोम मार्ग ले (कथा) जिस (रूपा) रूप होकर (दृश्यते) दिखाई देता है तो (तेषां) उसको (भयं) (विन्द्याद) होगा, (ततो) यदि (अनुलोमा) अनुलोम मार्ग से होकर दिखाई दे तो (शुभागमम्) शुभ का आगमन होगा। भावार्थ-यदि उल्का प्रतिलोम मार्ग होकर जिस रूप के व्यक्ति पर गिरती हुई दिखाई दे तो उस व्यक्ति को भय उत्पन्न होगा, और अनुलोम मार्ग में जिस रूप की उल्का दिखाई दे तो समझो शुभ होने वाला है कोई शुभ कार्य होगा॥६२॥ उल्का यत्र प्रसर्पन्ति भ्राज माना दिशो दश। सप्तरात्रान्तरं वर्ष दशाहादुत्तरं भयम्।। ६३|| (उल्का) उल्का (यत्र) जहां पर (प्रसर्पन्ति) फैलती हर्स दिखाई देती है तो (दिशो) दशों (दिशम्) दिशाओं में (भ्राज) जनता भाग जाती है। (सप्त) सात (रात्रान्तर) रात्रि के अन्तर में (वर्ष) वर्षा हो जाती है तो फल नहीं होगा, नहीं तो (दशाहाद) दस दिन में (उत्तरं) अवश्य ही (भयम्) भय उत्पन्न होगा। भावार्थ- यदि उल्का फैलती हुई जहांपर दिखाई दे तो जानना चाहिये वहां के लोगों को भय के कारण इधर उधर भागना पड़ेगा, भगदड़ मच जायेगी अगर सात रात्रि में वर्षा हो जाती है तो उपर्युक्त फल उपसम हो जायगा फिर वह उल्का जनता को कष्ट नहीं देगी, नहीं तो दस दिनों में अवश्य ही भगदड़ मच जायेगी॥६३ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | पापासूल्कासु यद्यस्तु यदा देवः प्रवर्षति । प्रशान्तं तद्भयं विन्द्याद् भद्रबाहुवचो यथा॥६४॥ (यद्यस्तु) यदि (पापासूल्का) पापरूप उल्का दिखाई देने पर (यदा) अगर (देव:) वर्षा (प्रवर्षति) बरस जाती है तो (प्रशान्तंतद्भयं) उस उल्का का भय शांत (विन्द्याद) हो जायगा, (यथा) ऐसा (भद्रबाहुवचो) भद्रबाहु स्वामी का वचन है। भावार्थ-अगर पापरूप उल्का दिखाई दे और उसी समय मेघ वर्षा हो जावे तो उस पाप रूप उल्का का भय खत्म हो जाता है फिर वह अशुभ रूप फल नहीं देती है ऐसा श्री अष्ठांगानिमित्तज्ञ भद्रबाहु स्वामी ने कहा है, उनका वचन है।। ६४।। यथाभिवृष्याः स्निग्धा यदि शान्ता निपतन्ति याः। उल्कास्वाशु भवेत् क्षेमं सुभिक्षं मन्दरोगवान् ।। ६५॥ (यथाभि) जैसे (वृष्या:) वृष (स्निग्धा) स्निग्ध और (शान्ता) शान्त (उल्का) उल्का (यदि) यदि (निपतन्ति) गिरती है तो (क्षेमं) क्षेम कुशल (सुभिक्षं) सुभिक्ष (स्वाशु) अथवा उस दिशा में (मन्दरोगवान) मंदरोग उत्पन्न (भवेत्) होता है। भावार्थ-उल्का, दुष्ट, या स्निग्ध वा शांत होकर जिस दिशायें गिरे तो . उस दिशा में क्षेत्र कुशल वा सुभिक्ष करती है, किन्तु थोड़ा रोग भी उत्पन्न करती है, इस प्रकार की उल्का तीन प्रकार का फल देती है यदि उल्का दुष्ट हो तो थोड़ा रोग करेगी, अगर शांत उल्का गिर तो सुभिक्ष करने वाली होती है।। ६५ ।। यथामार्गं यथा वृद्धि यथा द्वारं यथाऽऽगमम्। यथाविकारं विज्ञेयं ततो बूयाच्छुभाऽशुभम्॥६६॥ (यथामार्ग) जिस मार्ग (यथा वृद्धि) जिस वृद्धि (यथा द्वारं) जिस द्वार (यथाऽऽगमम्) जिस आगमन से (यथा विकार) यथा विकार (ततो) उसी के अनुसार (बूयाच्छ) कहा गया है, (शुभाऽशुभम्) शुभाशुभको को (विज्ञेयं) जानना चाहिये। भावार्थ-यदि उल्का जिस मार्ग से व जिस आगमन से व जिस विकार से व जिस वृद्धि व जिस द्वार से गिरे तो उसी के अनुसार शुभाशुभ फल कहा गया है, ऐसा जानना चाहिये॥६६॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्याय: तिथिश्च करणं चैव नक्षत्राश्च मुहूर्ततः। ग्रहाश्च शकुनञ्चैष दिशो वर्णाः प्रमाणतः॥६७॥ (तिथिश्च) तिथि, (करण) करण (च) और (नक्षत्राः) (मुहर्ततः) मुहर्तत (ग्रहाश्च) ग्रह (शकुनञ्चैव) शकुन (च) और (दिशो) दिशा (वर्णाः) वर्ण (प्रमाणत:) लम्बाई चौड़ाई आदि। भावार्थ-उल्का का पतन तिथि, करण, नक्षत्र, मुहूर्त, ग्रह शकुन और दिशा वर्ण और प्रमाण के अनुसार होता है उसी को देख कर फलानिर्देश करना चाहिये॥६७॥ निमित्तादनुपूर्वाच्च पुरुषः कालतो बलात्। प्रभावाच गोषमा काया फलमादिशेत् ।। ६८॥ (उल्कायां) उल्काओं का (निमित्तानु) निमित्तों के अनुसार (पूर्वाच्च) पूर्व में (पुरुषः) पुरुषों के द्वारा (कालतो) काल (बलात्) बल, (प्रभावाश्च) प्रभाव के (गतेश्चैव) जाने पर (फलमादिशेन) फल को कहना चाहिये। भावार्थ-उल्काओं का फल निमित्त मिलने पर पुरुषों के द्वारा काल, बल प्रभाव के जाने पर पुरुषों को फल कहना चाहिये।। ६८॥ एतावदुक्तमुल्कानां लक्षणं जिन भाषितम्। परिवेषान् प्रवक्ष्यामि तान्निबोधत तत्त्वतः ।। ६९॥ (एतावदुक्तं) इतने तक (उल्कानां) उल्काओं का (लक्षणं) लक्षण (जिन) जिनेन्द्र के द्वारा (भाषितम्) कहा गया है अब (परिवेषान्) परिवेषों को (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा, (तान्त्रि) उसका (तत्त्वतः) ज्ञान (बोधतः) करो, जानो। ___ भावार्थ-भगवान जिनेन्द्र के द्वारा कहा गया उल्काओं का स्वरूप अब तक मैंने कहा अब मैं परिवेषों व उनके फल का वर्णन करता हूँ, तुम अच्छी तरह से जानो। इति विशेष—इस तीसरे अध्याय में भद्रबाहु श्रुत केवली ने उल्काओं का वर्णन किया है जो उल्का निमित्त पाकर नाना प्रकार के ग्रहों के साथ मिलकर अनेक वर्णवाली होकर पृथ्वी पर गिरती हुई दिखती हैं, इन सब उल्काओं का वर्णन इस Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ भद्रबाहु संहिता अध्याय में किया है आचार्य कहते हैं, आकाश देखते समय टूटते हुऐ तारों को देखकर व्यक्ति अपने लिये अनेक प्रकार की जानकारी प्राप्त कर सकता है। उल्काएं माने, स्वर्ग की आयु पूर्ण कर देव के शरीर का प्रकाश पृथ्वी पर गिरता हुआ दिखे उसे ही उल्का म्हते हैं रात्रि में देखने पर तारा टटता हुआ दिखाई पड़े, जिसको जनसाधारण भाषा में तारा टूटना कहते हैं तारा भी एक ज्योतिषवासी देव है जब वो अपनी आयु पूर्ण कर लेता है तो पृथ्वी पर जन्म लेने के लिये आता है, उसके शरीर को जो कांति है उसी का नाम उल्का है अथवा इन ज्योतिषवासी देवों के विमान चलते समय आपस में टकरा जाने पर रगड़ से जो चिनगारी निकलती है, उसको भी किसी किसी ने उल्का कहा है ये उल्कायें विभिन्न वर्ण की विभिन्न आकार की होकर ग्रहों और नक्षत्रों के साथ मिलकर या स्वतन्त्र भी गिरती हुई दिखती हैं उल्काएं लाल, सफेद, पीली, नीली, हरी व मिश्र रंग की भी होती हैं, गाड़ी के आकार की, कमल वृक्ष, चन्द्र सूर्य स्वास्तिक, कलश ध्वजा, शंख, वाद्य, मंजीरा, तानपूरा, व गोलाकार की होती है, अलग-अलग नक्षत्रों में व वारों में पहरों में अलग-अलग फल देती है, राजाओं के लिये आचार्य श्री ने दो भेद किये एक नगरस्थ याने (नागर) और दूसरा (यादि) याने चढ़ाई करके आने वाला आक्रमणकारी, नागरिक राजा जब आक्रमणकारी से युद्ध कर ने अपने नगर के बाहर निकलता है उस रात्रि में ये उल्काएं अनेक वर्ण की और अनेक आकार की होकर सेना पर या आगे या पीछे व राजा पर व नगर पर गिरती हुई दिखे इसी प्रकार आक्रमणकारी राजा के आगे पीछे आजू-बाजू सेना पर यदि गिरे तो उसका क्या होता है इस अध्याय में पूरा-पूरा वर्णन श्रुत केवली ने किया है इसको पढ़कर हम अनेक जीवन, मरण, लाभ, अलाभ, हानि वृद्धि, शुभाशुभ आदि जानाकरी स्वयं और पर की दोनों की ही जान सकते हैं, जानकर शान्ति के लिये प्रयत्न कर सकते हैं, इसी विषय में डॉ. नेमीचन्द शास्त्री आरा वालों ने अन्य निमित्त शास्त्रों का आधार लेकर यहाँ उसका वर्णन किया है सौ मैं उसका उदाहरण दे देता हूँ ताकि पढ़ने वालों को जानकारी विशेष प्राप्त हो जावे। विवेचन-उल्कापात का फलादेश संहिता ग्रन्थों में विस्तार पूर्वक वर्णित है। यहाँ सर्वसाधारण की जानकारी के लिये थोड़ा-सा फलादेश निरूपित किया Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्यायः जाता है। उल्कापात से व्यक्ति, समाज, देश, राष्ट्र आदि का फलादेश ज्ञात किया जाता है। सर्वप्रथम व्यक्ति के लिए हानि, लाभ, जीवन, मरण, सन्तान-सुख, हर्ष-विषाद एवं विशेष अवसरों पर घटित होने वाली विभिन्न घटनाओं का निरूपण किया जाता है। आकाश का निरीक्षण कर टूटते हुए ताराओं को देखने से व्यक्ति अपने सम्बन्ध में अनेक प्रकार की जानकारी प्राप्त कर सकता है। रक्त वर्णकी टेढ़ी, टूटी हुई उल्काओं को पतित होते देखने से व्यक्ति को भय, पाँच महीने में परिवार के व्यक्तिकी मृत्यु, धन-हानि और दो महीने के बाद किये गये व्यापार में लाभ, राज्य से झगड़ा, मुकदमा एवं अनेक प्रकार की चिन्ताओं के कारण परेशानी होती है। कृष्णवर्ण की टूटी हुई, छिन्न-भिन्न उल्काओं का पतन होते देखने से व्यक्ति के आत्मीय की सात महीने में मृत्यु, हानि, झगड़ा, अशान्ति और परेशानी उठानी पड़ती है। कृष्ण वर्ण की उल्का का पात सन्ध्या समय देखने से भय, विद्रोह और अशान्ति; सन्ध्या के तीन घटी उपरान्त देखने विवाह, कलह, परिवार में झगड़ा एवं किसी आत्मीय व्यक्ति को कष्ट; मध्यरात्रि के मय उक्त प्रकार की उल्का का पतन देखने से स्वयं को महाकष्ट, अपनी या किसी आत्मीय की मृत्यु, आर्थिक कष्ट एवं नाना प्रकार की अशान्ति प्राप्त होती है। श्वेत वर्ण की उल्का का पतन सन्ध्या समय में दिखलाई पड़े तो धनलाभ, आत्मसन्तोष, सुख और मित्रों से मिलाप होता है। यह उल्का दण्डाकार हो तो सामान्य लाभ, मूसलाकार हो तो अत्यल्प लाभ और शकटाकार - गाड़ी के आकार या हाथी के आकार हो तो पुष्कल लाभ एवं अश्व के आकार प्रकाशमान हो तो विशेष लाभ होता है मध्यरात्रि में उक्त प्रकार की उल्का दिखलाई पडे तो पुत्रलाभ, स्त्रीलाभ, धनलाभ एवं अभीष्ट कार्य की सिद्धि होती है। उपर्युक्त प्रकार की उल्का रोहिणी, पुनर्वसु, धनिष्ठा और तीनों उत्तराओं में पतित होती हुई दिखलाई पड़े तो व्यक्ति को पूर्णफलादेश मिलता है तथा सभी प्रकार से धन धान्यादि की प्राप्ति के साथ, पुत्र-स्त्रीलाभ भी होता है। आश्लेषा, भरणी, तीनों पूर्वा - पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाफाल्गुनी और पूर्वाभाद्रपद - और रेवती इन नक्षत्रों में उपर्युक्त प्रकार का उल्कापतन दिखलाई पड़े तो सामान्य लाभ ही होता है इन नक्षत्रों में उल्कापतन देखने पर विशेष लाभ या पुष्कल लाभ की आशा नहीं करनी चाहिए, लाभ होते-होते क्षीण हो जाता Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता - ५६ है। आर्द्रा, पुष्य, मघा, धनिष्ठा, श्रवण और हस्त इन नक्षत्रों में उपर्युक्त प्रकार श्वेतवर्ण की प्रकाशमान उल्का पतित होती हुई दिखलाई पड़े तो प्राय: पुष्कल लाभ होता है। मघा, रोहिणी, तीनों उत्तरा उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा और उत्तराभाद्रपद, मूल, मृगशिर और अनुराधा इन नक्षत्रों में उक्त प्रकार का उल्कापात दिखलाई पड़े तो स्त्रीलाभ और सन्तानलाभ समझना चाहिये। कार्यसिद्धि के लिये चिकनी, प्रकाशमान, श्वेतवर्णकी उल्का का रात्रि के मध्यभाग में पुनर्वसु और रोहिणी नक्षत्र में पतन होना आवश्यक माना गया है। इस प्रकार के उल्कापतन को देखने से अभीष्ट कार्यों की सिद्धि होती है। अल्प आभास से भी कार्य सफल हो जाते हैं। पीत की उत्का सामान्यतया शुभप्रद है। सन्ध्या होने के तीन घटी पीछे कृत्तिका नक्षत्र में पीतवर्णका उल्कापात दिखलाई पड़े तो मुकदमें में विजय, बड़ी-बड़ी परीक्षाओं में उत्तीर्णता एवं राज्य कर्मचारियों से मैत्री बढ़ती है। आर्द्रा, पुनर्वसु, पुव्य और श्रवण में पीतवर्ण की उल्का पत्तित होती हुई दिखलाई पड़े तो स्वजाति और स्वदेश में सम्मान बढ़ता है । मध्यारात्रि के समय उक्त प्रकार की उल्का दिखलाई पड़े तो हर्ष, मध्यरात्रि के पश्चात एक बजे रात में उक्त प्रकार का उल्कापात दिखलाई पड़े तो सामान्य पीड़ा, आर्थिक लाभ और प्रतिष्ठित व्यक्तियों से प्रशंसा प्राप्त होती है। प्रायः सभी प्रकार की उल्काओं का फल सन्ध्याकाल में चतुर्थांश, दस बजे षष्ठांश, ग्यारह बजे तृतीयांश, बारह बजे अर्ध, एक बजे अर्धाधिक और दो बजे से चार बजे रात तक किञ्चित न्यून उपलब्ध होता है । सम्पूर्ण फलादेश बारह बजे के उपरान्त और एक बजे के पहले के समय में ही घटित होता है। उल्कापात भद्रा - विष्टिकाल में हो तो विपरीत फलादेश मिलता है। प्रतनुपुच्छा उल्का सिरभाग से गिरने पर व्यक्ति के लिए अरिष्टसूचक, मध्यभाग से गिरने पर विपत्ति सूचक और पृच्छ भाग से गिरने पर रोगसूचक मानी गई है। साँप के आकार का उल्कापात व्यक्ति के जीवन में भय, आतङ्क, रोग, शोक आदि उत्पन्न करता है । इस प्रकार का उल्कापात भरणी और आश्लेषा नक्षत्रों का घात करता हुआ दिखलाई पड़े तो महान् विपत्ति और अशान्ति मिलती है । पूर्वाफाल्गुनी, पुनर्वसु, धनिष्ठा, और मूल नक्षत्र के योग तारे को उल्का हनन करे तो युवतियों Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ तृतीयोऽध्यायः को कष्ट होता है। नारी जाति के लिए इस प्रकार का उल्कापात अनिष्ट का सूचक है। शूकर और चमगादड़ के समान आकार की उल्का कृत्तिका, विशाखा, अभिजित्, भरणी और आश्लेषा नक्षत्र को प्रताड़ित करती हुई पतित हो तो युवक-युवतियों के लिए रोग की सूचना देती है। इन्द्रध्वज के आकार की उल्का आकाश में प्रकाशमान होकर पतित हो तथा पृथ्वीपर आते-आते चिनगारियाँ उड़ने लगें तो इस प्रकार की उल्काएँ कारागार जाने की सूचना व्यक्ति को देती हैं। सिर के ऊपर पतित हुई उल्का चन्द्रमा या नक्षत्रों का घात करती हुई दिखलाई पड़े तो आगामी एक महीने में किसी आत्मीय की मृत्यु या परदेशगमन होता है। सामने कृष्ण वर्ण की उल्का गिरने से महान कष्ट, धनक्षय, विवाद, कलह और झगड़े होने की सूचना मिलती है। अश्निरी, कृतिका, आर्द्रा, आवा, मघा, विशाखा, अनुराधा, मूल, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा और पूर्वाभाद्रपद इन नक्षत्रों से पूर्वोक्त प्रकार की उल्का का अभिघात हो तो व्यक्ति के भावी जीवन के लिए महान कष्ट होता है। पीछे की ओर कृष्णवर्ण की उल्का व्यक्ति को असाध्य रोग की सूचना देती है । विचित्र वर्ण की उल्का मध्यरात्रि में च्युत होती हुई दिखलाई पड़े तो निश्चयतः अर्थह. नि होती है। धूम्रवर्ण की उल्काओं का पतन व्यक्तिगत जीवन में हानि का सूचक है। अग्नि के समान प्रभावशाली, वृषभाकार उल्कापात व्यक्ति की उन्नति का सूचक है । तलवार की द्युति समान उल्काएँ व्यक्ति की अवनति सूचित करती है। सूक्ष्म आकार वाली उल्काएँ अच्छा फल देती हैं और स्थूल आकार वाली उल्काओं का फलादेश अशुभ होता है। हाथी, घोड़ा, बैल आदि शूपओं के आकार वाली उल्काएँ शान्ति और सुख की सूचिकाएँ हैं । ग्रहों का स्पर्श कर पतित होने वाली उल्काएँ भयप्रद हैं और स्वतन्त्र रूप से पतित होनेवाली उल्काएँ सामान्य फलवाली होती हैं। उत्तर और पूर्व दिशा की ओर पतित होनेवाली उल्काएँ सभी प्रकार का सुख देती हैं; किन्तु इस फल की प्राप्ति रात के मध्य समय में दर्शन करने से ही होती है। कमल, वृक्ष, चन्द्र, सूर्य, स्वास्तिक, कलश, ध्वजा, शंख, वाद्य ढोल, मंजीरा, तानपूरा और गोलाकार रूप में उल्काएँ रविवार, भौमवार और गुरुवार को पतित होती हुई दिखलाई पड़े तो व्यक्ति को अपार लाभ अकल्पित धनकी प्राप्ति, - Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेद्रबाहु संहिता घर में सन्तान लाभ एवं आगामी मांगलिकों की सूचना समझनी चाहिए। इस प्रकार का उल्कापतन उक्त दिनों की सन्ध्या में हो तो अर्धफल, नौ-दस बजे रात में हो तो तृतीयांश फल और ठीक मध्यात्रि में हो तो पूर्ण फल प्राप्त होता है। मध्य रात्रि के पश्चात पतन दिखलाई पड़े तो षष्ठांश फल और ब्राह्ममुहूर्त में दिखलाई पड़े तो चतुर्थांश फल प्राप्त होता है। दिन में उल्काओं का पतन देखने वाले को असाधारण लाभ या असाधारण हानि होती है। उक्त प्रकार की उल्काएँ सूर्य चन्द्रमा नक्षत्रों का भेदन करें तो साधारण लाभ और भविष्य में घटित होने वाली असाधारण घटनाओं की सूचना समझनी चाहिए। रोहिणी, मृगशिरा और श्रवण नक्षत्र के साथ योग करानेवाली उल्काएँ उत्तम भविष्य की सूचिका हैं। कच्छप और मछली के आकार की उल्काएँ व्यक्ति के जीवन में शुभ फलों की सूचना देती हैं। उक्त प्रकार की उल्काओं का पतन मध्यरात्रि के उपरान्त और एक बजे के भीतर दिखलाई पड़े तो व्यक्ति को धरती के नीचे रखी हुई निधि मिलती है। इस निधि के लिये प्रयास नहीं करना पड़ता, कोई भी व्यक्ति उक्त प्रकार की उल्काओं का पतन देखकर चिन्तामणि पार्श्वनाथ स्वामी की पूजाकर तीन महीने में स्वयं ही निधि प्राप्त करता है। व्यन्तर देव उसे स्वप्न में निधि के स्थान की सूचना देते हैं और वह अनायास इस स्वप्न के अनुसार निधि प्राप्त करता है। उक्त प्रकार की उल्काओं का पतन सन्ध्याकाल अथवा रात में आठ या नौ बजे हो तो व्यक्ति के जीवन में विषम प्रकार की स्थिति होती है। सफलता मिल जाने पर भी असफलता ही दिखलाई पड़ती है। नौ-दस बजे का उल्कापात सभी के लिए अनिष्टकर होता है। सन्ध्याकाल में गोलाकार उल्का दिखलाई पड़े तो यह उल्का पतन समय में छिन्न-भिन्न होती हुई दृष्टिगोचर हो तो व्यक्ति के लिए रोग-शोक की सूचक है। आपस में टकराती हुई उल्काएँ व्यक्ति के लिए गुप्त रोगों की सूचना देती है। जिन उल्काओं को शुभ बतलाया गया है; उनका पतन भी शनि, बुध और शुक्र को दिखलाई पड़े तो जीवन में आने वाले अनेक कष्टों की सूचना समझनी चाहिए। शनि, राहु और केतु से टकराकर उल्काओं का पतन दिखलाई पड़े तो महान् अनिष्टकर है इससे जीवन में अनेक प्रकार की विपत्तियों की सूचना समझनी चाहिए। खोई हुई, भूली हुई या चोरी गई वस्तु के समय में गुरुवार की मध्यरात्रि Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्यायः में दण्डाकार उल्का पतित होती हुई दिखलाई पड़े तो उस वस्तुको प्राप्ति की तीन मास के भीतर की सूचना समझनी चाहिए। मंगलवार, सोमवार और शनिवार उल्कापात दर्शन के लिए अशुभ हैं; इन दिनों की सन्ध्या का उल्कापात दर्शन अधिक अनिष्टकर समझा जाता है। मंगलवार और आश्लेषा नक्षत्र में शुभ उल्कापात भी अशुभ होता है, इससे आगामी छ: मासों में कष्टों की सूचना समझनी चाहिए। अनिष्ट उल्कापात के दर्शन के पश्चात चिन्तामणि पार्श्वनाथ का पूजन करने से आगामी अशुभ की शान्ति होती है। राष्ट्रघातक उल्कापात-जब उल्काएँ चन्द्र और सूर्य का स्पर्श कर भ्रमण करती हुई पतित हों, और उस समय पृथ्वी कम्पायमान हो तो राष्ट्र दूसरे देश के अधीन होता है। सूर्य और चन्द्रमा के दाहिनी ओर उल्कापात हो तो राष्ट्र में रोग फैलते हैं तथा राष्ट्र की वनसम्पत्ति विशेष रूप से नष्ट होती है। चन्द्रमा से मिलकर उल्का समाने आवे तो राष्ट्र के लिए विजय और लाभ की सूचना देती है। श्याम, अरुण, नील, रक्त, दहन, असित और भस्म के समान रूक्ष उल्का देश के शत्रुओं के लिए बाधक होती है। रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपद, मृगशिरा, चित्रा और अनुराधा नक्षत्र को उल्का घातित करे तो राष्ट्र को पीड़ा होती है। मंगल और रविवार को अनेक व्यक्ति मध्यरात्रि में उल्कापात देखें तो राष्ट्र के लिए भयसूचक समझना चाहिए। पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा और पूर्वा भाद्रपद, मघा, आर्द्रा, आश्लेषा, ज्येष्ठा और मूल नक्षत्र को उल्का ताडित करे तो देश के व्यापारी वर्ग को कष्ट होता है तथा अश्विनी, पुष्य, अभिजित, कृत्तिका और विशाखा नक्षत्र को उल्का ताडित करे तो कलाविदों को कष्ट होता है। देवमन्दिर या देवमूर्ति को उल्कापात हो तो राष्ट्र में बड़े-बड़े परिवर्तन होते हैं, आन्तरिक संघर्षों के साथ विदेशीय शक्ति का भी मुकाबिला करना पड़ता है। इस प्रकार उल्कापतन देश के लिए महान् अनिष्टकारक है। श्मशान भूमि में पति उल्का प्रशासकों में भय का संचार करती है। तथा देश या राज्य में नवीन परिवर्तन उत्पन्न करती है। न्यायालयों पर उल्कापात हो तो किसी बड़े नेता की मृत्यु की सूचना अवगत करनी चाहिए। वृक्ष, धर्मशाला, तालाब और अन्य पवित्र भूमियों पर उल्कापात हो तो राज्य में आन्तरिक विद्रोह, वस्तुओं की महँगाई एवं देश के नेताओं में फूट होती है। संगठन के अभाव होने Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता से देश या राष्ट्र को महान क्षति होती है। श्वेत और पीत वर्ग की सूच्याकार अनेक उल्काएँ किसी रिक्त स्थान पर पतित हो तो देश या राष्ट्र के लिए शुभकारक समझना चाहिए। राष्ट्र के नेताओं के बीच मेल मिलाप की सूचना भी उक्त प्रकार के उल्कापात में ही समझनी चाहिए। मन्दिर के निकटवर्ती वृक्ष पर उल्कापात हो तो प्रशासकों के बीच मतभेद होता है, जिससे देश या राष्ट्र में अनेक प्रकार की अशान्ति फैलती है। पुष्य नक्षत्र में श्वेतवर्ण की चमकती हुई उल्का राजप्रासाद या देवप्रासाद के किनारेपर गिरती हुई दिखलाई पड़े तो देश या राष्ट्र की शक्ति का विकास होता है, अन्य देशों से व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित होता है तथा देश की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है। इस प्रकार का उल्कापात राष्ट्र या देश के लिए शुभ कारक है मघा और श्रवण नक्षत्र में पूर्वोक्त प्रकार का उल्कापात हो तो भी देश या राष्ट्र की उन्नति होती है। खलिहान और बगीचे में मध्यरात्रि के समय उक्त प्रकार की उल्का पतित हो तो निश्चय ही देश में अन्नाभाव होता है तथा अन्न का भाव द्विगुणित हो जाता है। शनिवार और मंगलवार को कृष्णवर्ण की मन्द प्रकाशवाली उल्काएँ श्मशान भूमि या निर्जन वन-भूमि में पतित होती हुई देखी जायें तो देश में कलह होता है। पारस्परिक अशान्ति के कारण देश की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था बिगड़ जाती है। राष्ट्र के लिए इस प्रकार की उल्काएँ भयोत्पादक एवं घातक होती हैं। आश्लेषा नक्षत्र में कृष्णवर्ण की उल्का पतित हो तो निश्चय ही देश के किसी उच्चकोटि के नेता की मृत्यु होती है। राष्ट्र की शक्ति और बल को बढ़ाने वाली श्वेत, पीत और रक्तवर्ण की उल्काएँ शुक्रवार और गुरुवार को पतित होती हैं। कृषिफलादेश सम्बन्धी उल्कापात—प्रकाशित होकर चमक उत्पन्न करती हुई उल्का यदि पतन के पहले ही आकाश में विलीन हो जाय तो कृषि के लिए हानिकारक है। मोर पूँछ के समान आकार वाली उल्का मंगलवार की मध्यरात्रि में पतित हो तो कृषि में एक प्रकार का रोग उत्पन्न होता है, जिससे फसल नष्ट हो जाती है। मण्डलाकार होती हुई उल्का शुक्रवार की सन्ध्या को गर्जन के साथ पतित हो तो कृषि में वृद्धि होती है। फसल ठीक उत्पन्न होती है और कृषि में कीड़े नहीं लगते। इन्द्रध्वज के रूप में आश्लेषा, विशाखा, भरणी और रेवती नक्षत्र Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्यायः में तथा रवि, गुरु, सोम और शनि इन वारों में उल्कापात हो तो कृषि में फसल पकने के समय रोग लगता है। इस प्रकार के उल्कापात में गेहूँ, जौ, धान और चने की फसल अच्छी होती है। तथा अवशेष धान्य की फसल बिगड़ती है। वृष्टिका भी अभाव रहता है। शनिवार को दक्षिण की ओर बिजली चमके तथा तत्काल ही पश्चिम दिशा की ओर उल्का पतित हो तो देश के पूर्वीय भाग में बाढ़, तूफान, अतिवृष्टि आदि के कारण फसल को हानि पहुँचती है तथा इसी दिन पश्चिम की ओर बिजली चमके और दक्षिण दिशा की ओर उल्कापात हो तो देश के पश्चिमीय भाग में सुभिक्ष होता है। इस प्रकार का उल्कापात कृषि के लिए अनिष्टकर ही होता है। संहिताकारों ने कृषि के सम्बन्ध में विचार करते समय समय-समय पर पतित होने वाली उल्काओं के शुभाशुभत्वका विचार किया है। बराहमिहिर के मतानुसार पुष्य, मघा, तीनों उत्तरा इन नक्षत्रों में गुरुवार की सन्ध्या या इस दिन की मध्यरात्रि में चने के खेत पर उल्कापात हो तो आगामी वर्ष की कृषि के लिए शुभदायक है। ज्येष्ठ महीने की पूर्णमासी के दिन रात को होने वाले उल्कापात से आगामी वर्ष के शुभाशुभ फलको ज्ञात करना चाहिए। इस दिन अश्विनी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, पुनर्वसु, आश्लेषा, पूर्वाफाल्गुनी और ज्येष्ठा नक्षत्र को प्रताडित करता हुआ उल्कापात हो तो फसल के लिए खराबी होती है। यह उल्कापात किसी के लिए अनिष्ट का सूचक है। शुक्रवार को अनुराधा नक्षत्र में मध्यरात्रि में प्रकाशमान उल्कापात हो तो कृषि के लिए उत्तम होता है। इस प्रकार के उल्कापात द्वारा श्रेष्ठ फसल की सूचना समझनी चाहिए। श्रवण नक्षत्र का स्पर्श करता हुआ उल्कापात सोमवार की मध्यरात्रि में हो तो गेहूँ और धान की फसल उत्तम होती है। श्रवण नक्षत्र में मंगलवार को उल्कापात हो तो गन्ना अच्छा उत्पन्न होता है, और चनेकी फसल में रोग लगता है। सोमवार, गुरुवार और शुक्रवार को मध्यरात्रि में कड़क के साथ उल्कापात हो तथा इस उल्का का आकार ध्वजा के समान चौकोर हो तो आगामी वर्ष में कृषि अच्छी होती है; विशेषत: चावल और गेहूँ की फसल उत्तम होती है। ज्येष्ठ मास की शुक्लपक्ष की एकादशी, द्वादशी और त्रयोदशी को पश्चिम दिशा की ओर उल्कापात हो तो फसल के लिए अशुभ समझना चाहिए। यहाँ इतनी विशेषता है कि उल्का का आकार त्रिकोण होने से यह फल यथार्थ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाह संहिता घटित होता है। यदि इन दिनों का उल्कापात दण्डे के समान हो तो आरम्भ में सूखा पश्चात् समयानुकूल वर्षा होती है। दक्षिण दिशा में अनिष्ट फल घटता है। शुक्लपक्ष की चतुर्दशी की समाप्ति और पूर्णिमा के आरम्भ काल में उल्कापात ही तो आगामी वर्ष के लिए साधारणत: अनिष्ट होता है। पूर्णिमाविद्ध प्रतिपदा में उल्कापात हो तो फसल कई गुनी अधिक होती है। पशुओं में एक प्रकार का रोग फैलता है, जिससे पशुओं की हानि होती है। आषाढ़ महीने के आरम्भ में निरभ्र आकाश में काली और लाल रंग की उल्काएँ पतित होती हुई दिखलाई पड़ें तो आगामी तथा वर्तमान दोनों वर्ष में कृषि अच्छी नहीं होती। वर्षा भी समय पर नहीं होती है। अतिवृष्टि और अनावृष्टि योग रहता है। आषाढ़ कृष्णा प्रतिपदा शनिवार और मंगलवार हो और इस दिन गोलाकार काले रंग की उल्काएँ टूटती हुई दिखलाई पड़े तो महान् भय होता है और कृषि अच्छी नहीं होती! इन दिनों में प्रयानि के बाद श्वेत रंग की उल्काएँ पतित होती हुई दिखलाई पड़े तो फसल बहुत अच्छी होती है। यदि इन पतित होनेवाली उल्काओं का आकार मगर और सिंह के समान हो तथा पतित होते समय शब्द हो रहा हो तो फसल में रोग लगता है और अच्छी होने पर भी कम ही अनाज उत्पन्न होता है। आषाढ़ कृष्ण तृतीया, पञ्चमी, षष्ठी एकादशी, द्वादशी और चतुर्दशी को मध्यरात्रि के बाद उल्कापात हो तो निश्चय से फसल खराब होती है। इस वर्षमें ओले गिरते हैं तथा पाला पड़नेका भी भय रहता है। कृष्णपक्ष की दशमी और अष्टमी को मध्यरात्रिके पूर्व ही उल्कापात दिखलाई पड़े तो उस प्रदेशमें कृषि अच्छी होती है। इन्हीं दिनोंमें मध्यरात्रिके बाद उल्कापा दिखलाई पड़े तो गुड़, गेहूँकी फल अच्छी अन्य वस्तुओंकी फसलमें कमी आती है। सन्ध्या समय चन्द्रोदयके पूर्व या चन्द्रास्तके उपरान्त उल्कापात दिखलाई पड़े तो फसल अच्छी नहीं होती है। अन्य समय में सुन्दर और शुभ आकार का उल्कापात दिखलाई पड़े तो फसल अच्छी होती हैं। शुक्लपक्ष में तृतीया, दशमी और त्रयोदशीको आकाश गर्जनके सात पश्चिम दिशा की ओर उल्कापात दिखलाई पड़े फसलमें कुछ कमी रहती है। तिल, तिलहन और दालवाले अनाजकी फसल अच्छी होती है। केवल चावल और गेहूँ की फसलमें कुछ त्रुटि रहती है। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्यायः फसल की अच्छाई और बुराई के लिए कार्तिक, पौष और माघ इन तीन महीनों के उल्कापात का विचार करना चाहिए। चैत्र और वैशाखका उल्कापात केवल वृष्टिकी सूचना देता है। कार्तिक मासके कृष्णपक्ष की प्रतिपदा, चतुर्थी, षष्ठी, अष्टमी, द्वादशी और चतुर्दशी को धूम्रवर्णका उल्कापात दक्षिण और पश्चिम दिशाकी ओर दिखलाई पड़े तो आगामी फसल के लिए अत्यन्त अनिष्टकारक और पशुओंकी महँगीका सूचक है। चौपायोंमें मरीके रोगकी सूचना भी इसी उल्कापात से समझनी चाहिए। यदि उक्त तिथियाँ शनिवार, मंगलवार और रविवारको पड़ें तो समस्त फल और सोमवार, बुधवार, गुरुवार और शुक्रवार को पड़ें तो अनिष्ट चतुर्थांश ही मिलता है। कार्तिक की पूर्णिमाको उल्कापात का विशेष निरीक्षण करना चाहिए। इस दिन सूर्यास्त उपरान्त ही उल्कापात हो तो आगामी वर्षकी फसल की बर्बादी प्रकट करता है। मध्यरात्रि के पहले उल्कापात हो तो श्रेष्ठ फसल का सूचक है, मध्यरात्रि के उपरान्त उल्कापात हो तो फसलमें साधारण गड़बड़ी रहने पर भी अच्छी ही होती है। मोटा धान्य खूब उत्पन्न होता है। पौष मासमें पूर्णिमा को उल्कापात हो तो फसल अच्छी, अमावस्या को हो तो खराब, शुक्ल या कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को हो तो श्रेष्ठ, द्वादशी को हो तो साधारण अनिष्ट, एकादशी को हो तो धान्यकी फसल बहुत अच्छी और गेहूँकी साधारण, दशमी को हो तो साधारण एवं तृतीया, चतुर्थी और सप्तमीको हो तो फसलमें रोग लगने पर भी अच्छी ही होती है। पौष मास में कृष्णपक्षकी प्रतिपदा को यदि मंगलवार हो और उस दिन उल्कापात हो तो निश्चय ही फसल चौपट हो जाती है। वराहमिहिरने इस योग को अत्यन्त अनिष्टकारक माना है। द्वितीया विद्ध माघ मास की कृष्ण प्रतिपदाको उल्कापात हो तो आगामी वर्ष फसल बहुत अच्छी उत्पन्न होती है और अनाज का भाव भी सस्ता हो जाता है। तृतीया विद्ध द्वितीयाको रात्रिको पूर्वभागमें उल्कापात हो तो सुभिक्ष और अन्न की उत्पत्ति प्रचुर मात्रामें होती है। चतुर्थी विद्ध तृतीयाको कभी भी उल्कापात हो तो कृषिमें अनेक रोग, अवृष्टि और अनावर्षणसे भी फसल को क्षति पहुँचती है। पञ्चमी विद्ध चतुर्थी को उल्कापात हों तो साधारणतया फसल अच्छी होती है। दालों की उपज कम होती है, अवशेष अनाज अधिक उत्पन्न होते हैं। तिलहन, Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६४ गुड़ का भाव भी कुछ महँगा रहता है। इन वस्तुओंकी फसल भी कमजोर ही रहती है। षष्ठी विद्ध पञ्चमी को उल्कापात हो तो फसल अच्छी उत्पन्न हो है। सप्तमी विद्ध षष्ठीको मध्यरात्रिके कुछ ही बाद उल्कापात हो तो फसल हल्की होती है। दाल, गेहूँ, बाजारा, और ज्वार की उपज कम ही होती है। अष्टमी विद्ध सप्तमी को रात्रिके प्रथम प्रहरमें उल्कापात हो तो अतिवृष्टिसे फसल को हानि, द्वितीय प्रहर में उल्कापात हो तो साधारणतया अच्छी वर्षा, तृतीय पहरमें उल्कापात हो तो फसलमें कमी, और चतुर्थ प्रहर में उल्कापात हो तो गेहूँ, गुड़, तिलहन की खूब उत्पत्ति होती है। नवमी विद्ध अष्टमीको शनिवार या रविवार हो और इस दिन उल्कापात दिखलाई पड़े तो निश्चयत: चनेकी फसल में क्षति होती है। दशमी, एकादशी और द्वादशी तिथियाँ शुक्रवार या गुरुवार को हों और इनमें उल्कापात दिखलाई पड़े तो अच्छी फसल उत्पन्न होती है। पूर्णमासीको लाल रंग या काले रंगका उल्कापात दिखलाई पड़े तो फसल की हानि; पीत और श्वेत रंगका उल्कापात दिखलाई पड़े तो श्रेष्ठ फसल एवं चित्र-विचित्र वर्णका उल्कापात दिखलाई पड़े तो सामान्यरूप से अच्छी फसल उत्पन्न होती है। होलीके दिन होलिकादाह से पूर्व उल्कापात दिखलाई पड़े आगामी वर्ष फसल की कमी और होलीकादाहके पश्चात् उल्कापात नीले रंगका या विचित्र वर्णका दिखलाई पड़े अनेक प्रकार से फसल को हानि पहुँचती है। वैयक्तिक फलादेश-सर्प और शूकरके समान आकारयुक्त शब्द सहित उल्कापात दिखलाई पड़े तो दर्शकको तीन महीनके भीतर मृत्यु या मृत्युतुल्य कष्ट प्राप्त हो है। इस प्रकारका उल्कापात आर्थिक हानि भी सूचित करता है। इन्द्रधनुषके आकार समान उल्कापात किसी भी व्यक्तिको सोमवारकी रात्रिमें दिखलाई पड़े तो धन हानि, रोगवृद्धि, सम्मानकी वृद्धि तथा मित्रों द्वारा किसी प्रकार की सहायताकी सूचक; बुधवारकी रात्रिमें उल्कापात दिखलाई पड़े तो वस्त्राभूषणों का लाभ, व्यापारमें लाभ और मन प्रशन्न होता है; गुरुवारकी रात्रिमें उल्कापात इन्द्रधनुष के आकार का दिखलाई पड़े व्यक्तिको तीन मासमें आर्थिक लाभ, किसी स्वजनको कष्ट, सन्तानकी वृद्धि एवं कुटुम्बियों द्वारा यशकी प्राप्ति होती है; शुक्रवारको उल्कापात उस आकारका दिखलाई पड़े तो राज-सम्मान, यश, धन एवं मधुर पदार्थ भोजनके Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्यायः लिए प्राप्त होते हैं तथा शनिकी रात्रिमें उस प्रकारके आकारका उल्कापात दिखलाई पड़े तो आर्थिक संकट, धनकी क्षति तथा आत्मीयोंमें भी संघर्ष होता है। रविवारकी रात्रि में इन्द्रधनुषके आकारकी उल्काका पतन देखना अनिष्टकारक बताया गया है। रोहिणी, तीनों उत्तरा-उत्तराषाढ़ा, उत्तराफाल्गुनी और उत्तराभाद्रपदा, चित्रा, अनुराधा और रेवती नक्षत्रमें इन्हीं नक्षत्रोंमें उत्पन्न हुए व्यक्तियोंको उल्कापात दिखलाई पड़े तो वैयक्तिक दृष्टिसे अभ्युदय सूचक और इन नक्षत्रोंसे भिन्न नक्षत्रोंमें जन्मे व्यक्तियोंको उल्कापात दिखलाई पड़े तो कष्ट सूचक होता है। तीनों पूर्वा--पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा और पूर्वाभाद्रपदा, आश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा और मूलनक्षत्रमें जन्मे व्यक्तियोंको इन्हीं नक्षत्रोंमें शब्द करता हुआ उल्कापात दिखलाई पड़े तो मृत्यु सूचक और भिन्न नक्षत्रों में जन्में व्यक्तियों को इन्हीं नक्षत्रों में उल्कापात शब्द दिखलाई पड़े तो किसी आत्मीयकी मृत्यु और शब्द रहित दिखलाई पड़े तो आरोग्यलाभ प्राप्त होता है। विपरीत आकार वाली उल्का दिखलाई पड़े–जहाँसे निकली हो, पुन: उसी स्थानकी ओर गमन करती हुई दिखलाई पड़े तो भय कारक, विपत्ति सूचक तथा किसी भयंकर रोगकी सूचक अवगत करना चाहिए। पवनकी प्रतिकूल दिशामें उल्का कुटिल भावसे गमन करती हुई दिखलाई पड़े तो दर्शनकी पत्नीको भय, रोग और विपत्तिकी सूचक समझना चाहिए। व्यापारिक फल-श्याम और असितवर्णकी उल्का रविवारकी रात्रिके पूर्वार्द्धमें दिखलाई पड़े तो काले रंगकी वस्तुओंकी महँगाई, पीतवर्णकी उल्का इसी रात्रिमें दिखलाई पड़े तो गेहूँ और चनेके व्यापारमें अधिक घटा-बढ़ी, श्वेतवर्णकी उल्का इसी रात्रिमें दिखलाई पड़े तो चाँदीके भावमें गिरावट और लालवर्णकी उल्का दिखलाई पड़े तो सुवर्णके व्यापारमें गिरावट रहती है। मंगलवार, शनिवार और रविवारकी रात्रिमें सट्टेबाज व्यक्ति पूर्व दिशामें गिरती हुई उल्का देखें तो उन्हें माल बेचनेमें लाभ होता है, बाजार का भाव गिरता है और खरीदने वाले को हानि होती है। यदि इन्हीं रात्रियोंमें पश्चिम दिशाकी ओरसे गिरती हुई उल्का उन्हें दिखलाई पड़े तो भाव कुछ ऊँचे उठते हैं और सट्टेवालोंको खरीदनेमें लाभ होता है। दक्षिणसे उत्तरकी ओर गमन करती हुई उल्का दिखलाई पड़े तो मोती, हीरा, पन्ना, माणिक्य आदिके व्यापारमें लाभ होता है। इन रत्नोंके मूल्योंमें आठ महीने तक घटा-बढ़ी Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | होती रही है। जवाहरातका बाजार स्थिर नहीं रहता है। यदि सूर्यास्त या चन्द्रास्त कालमें उल्कापात हरे और लाल रंगका वृत्ताकार दिखलाई पड़े तो सुवर्ण और चाँदीके भाव स्थिर नहीं रहते। तीन महीनों तक मातार घटा-बढ़ी चलती रहती है। कृष्ण सर्पके आकार और रंग वाली उल्का उत्तर दिशासे निकलती हुई दिखलाई पड़े तो लोहा, उड़द और तिलहनका भाव ऊँचा उठता है। व्यापारियोंको खरीदनेसे लाभ होता है। पतली और छोटी पूँछवाली उल्का मंगलवारकी रात्रिमें चमकती हुई दिखलाई पड़े तो गेहूँ, लाल कपड़ा एवं अन्य लाल रंगकी वस्तुओंके भावमें घटा-बढ़ी होती है। मनुष्य, गज और अश्वके आकारकी उल्का यदि रात्रिके मध्यभागमें शब्द सहित गिरे तो तिलहनके भावमें अस्थिरता रहती है। मृग, अश्व और वृक्षके आकारकी उल्का मन्द-मन्द चमकती हुई दिखलाई पड़े और इसका पतन किसी वृक्ष या घर के ऊपर हो तो पशुओंके भाव ऊँचे उठते हैं साथ ही साथ तृणके दाम भी महँगे हो जाते हैं। चन्द्रमा या सूर्यके दाहिनी ओर उल्का गिरे तो सभी वस्तुओंके मूल्यमें वृद्धि होती है। यह स्थिति तीन महीने तक रहती है, पश्चात् मूल्य पुन: नीचे गिर जाता है। वन या श्मशान भूमिमें उल्कापात हो तो दाल वाले अनाज महँगे होते हैं और अवशेष अनाज सस्ते होते हैं। पिण्डाकार, चिनगारी फूटती हुई उल्का आकाशमें भ्रमण करती हुई दिखलाई पड़े और इसका पतन किसी नदी या तालाबके किनारे पर हो तो कपड़े का भाव सस्ता होता है। रूई, कपास, सूत आदिके भावमें भी गिरावट आ जाती है। चित्रा, मृगशिर, रेवती, पूर्वाषाढ़, पूर्वाभाद्रपद, पूवाफाल्गुनी और ज्येष्ठा इन नक्षत्रोंमें पश्चिम दिशासे चलकर पूर्व या दक्षिणकी ओर उल्कापात हो तो सभी वस्तुओंके मूल्यमें वृद्धि होती है तथा विशेष रूपसे अनाजका मूल्य बढ़ता है। रोहिणी, धनिष्ठा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़, उत्तराभाद्रपद, श्रवण और पुष्य इन नक्षत्रोंमें दक्षिणकी ओर जाज्वल्यमान उल्कापात हो तो अन्नका भाव सस्ता, सुवर्ण और चाँदीके भावमें भी गिरावट, जवाहरातके भावमें कुछ महँगी, तृण और लड़कीके मूल्य में वृद्धि एवं लोहा, इस्पात आदि के मूल्य में भी गिरावट होती है। अन्य धातुओंके मूल्यमें वृद्धि होती है। दहन और भस्मके समान रंग और आकारवाली उल्काएँ आकाशमें गमन करती हुई रविवार, भौमवार और शनिवारकी रात्रिको अकस्मात् कि कुँए पर पतित Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ तृतीयोऽध्यायः होती हुई दिखलाई पड़े तो प्रात: अन्नका भाव आगामी आठ महीनोंसे महँगा होता है और इस प्रकार उल्कापात दुर्भिक्षका सूचक भी है। अन्न संग्रह करनेवालोंको विशेष लाभ होता है। शुक्रवार और गुरुवार को पुष्य या पुनर्वसु नक्षत्र हों और इन दोनों की रात्रिके पूर्वार्धमें श्वेत या पीत वर्णका उल्कापात दिखलाई पड़े साधारणया भाव सम रहते हैं। माणिक्य, मूंगा. मोती, हीरा, पद्मराग आदि रत्नोंकी कीमतमें वृद्धि होती है। स्वर्ण और चाँदी का भाव भी कुछ ऊँचा रहता है। गुरु, पुष्य योग में उल्कापात दिखलाई पड़े तो यह सोने चाँदी के भावोंमें विशेष घटा-बढ़ीका सूचक है। जूट, बादाम, घृत और तेलके भाव भी इस प्रकारके उल्कापातमें घटा-बढ़ीको प्राप्त करते हैं। रवि-पुष्य योगमें दीक्षणोत्तर आकाशमें जाज्वल्यमान उल्कापात दिखलाई पड़े तो सोनेका भाव प्रथम तीन महीने तक नीचे गिरता है और फिर ऊँचा चढ़ता है। घी और तेलके भावमें भी पहले गिरावट, पश्चात् तेजी आती है। यह योग व्यापारके लिए भी उत्तम है। नये व्यापारियोंको इस प्रकारके उल्कापातके पश्चात् अपने व्यापारिक कार्योंमें अधिक प्रगति करनी चाहिए। रोहिणी नक्षत्र यदि सोमवारको हो और उस दिन सुन्दर और श्रेष्ठ आकारमें उल्का पूर्व दिशो गमन करती हुई किसी हरे-भरे खेत या वृक्षके ऊपर गिरे तो समस्त वस्तुओंके मूल्य में घट-बी रहती है व्यापारियोंके लिए यह समय विशेष महत्त्वपूर्ण है, जो व्यापारी इस समयका सदुपयोग करते हैं, वे शीघ्र ही धनिक हो जाते हैं। रोग और स्वास्थ्य सम्बन्धी फलादेश---सछिद्र, कृष्णवर्ण या नीलवर्णकी उल्काएँ ताराओं का स्पर्श करती हुई पश्चिम दिशामें गिरें तो मनुष्य और पशुओंमें संक्रामक रोग फैलते हैं तथा इन रोगोंके कारण सहस्रों प्राणियों की मृत्यु होती है। आश्लेषा नक्षत्र में मगर या सर्प की आकृति की उल्का नील या रक्त वर्ण की भ्रमण करती हुई गिरे तो जिस स्थान पर उल्कापात होता है। उस स्थानके चारों ओर पचास कोश की दूरी तक महामारी फैलती है। यह फल उल्कापात तीन महीनेके अन्दर ही उपलब्ध हो जाता है। श्वेतवर्णकी दण्डाकार उल्का रोहिणी नक्षत्रमें पतित हो तो पतन स्थानके चारों ओर सौ कोश तक सुभिक्ष, सुख, शान्ति और स्वास्थ्य लाभ होता है। जिस स्थानपर यह उल्कापात होता है, उससे दक्षिण दिशामें दो सौ कोशकी दूरी पर रोग, कष्ट एवं नाना प्रकारकी शारीरिक बीमारियाँ प्राप्त होती Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाह संहिता है। इस प्रकारके प्रदेशका त्याग कर देना ही श्रेयस्कर होता है। गोपुच्छके आकारकी उल्का मंगलवारको आश्लेषा नक्षत्रमें पतित होती हुई दिखलाई पड़े तो यह नाना प्रकारके रोगोंकी सूचना देती है। हैजा, चेचक आदि रोगोंका प्रकोप विशेष रहता है। बच्चों और स्त्रियोंके स्वास्थ्यके लिए विशेष हानिकारक है। किसी भी दिन प्रात:कालके समय उल्कापात किसी भी वर्ण और किसी भी आकृतिका हो तो भी यह रोगों की सूचना देता है. इस समय का उल्कापात प्रकृति विपरीत है। अत: इसके द्वारा अनेक रोगों की सूचना समझ लेनी चाहिये। इन्द्रधनुष या इन्द्रकी ध्वजाके आकारमें उल्कापात पूर्वकी ओर दिखलाई पड़े तो उस दिशामें रोगकी सूचना समझनी चाहिए। किवाड़, बन्दूक और तलवारके आकारकी उल्का धूमिल वर्णकी पश्चिम दिशामें दिखलाई पड़े तो अनिष्टकारक समझना चाहिये। इस प्रकारका उल्कापात व्यापी रोग और महामारियोंका सूचक है। स्निग्ध, श्वेत, प्रकाशमान और सीधे आकारका उल्कापात शान्ति, सुख और निरोगताका सूचक है। उल्कापात द्वारपर हो तो विशेष बीमारियाँ सामूहिकरूपसे होती हैं। इतिश्री श्रुतके वर्णन भद्रबाहु विरचित भद्रबाहु संहिता का उल्का वर्णन का फल व वर्णन करने वाला तृतीया अध्याय का हिन्दी भाषानुवाद नामकी क्षेमोदय टीका समाप्त:। (इति तृतीयोऽध्याय: समाप्त:) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्यायः चतुर्थोऽध्यायः परिवेषवर्णन अथातः सम्प्रवक्ष्यामि परिवेषान् यथाक्रमम्। प्रशस्तान प्रशस्तांश्च यथा वदनु पूर्वतः॥१॥ (अथात:) अब (यथाक्रमम्) यथा क्रमसे (परिवेषान्) परिवेषोंका स्वरूप (सम्प्रवक्ष्यामि) कहूँगा वो (प्रशस्तानप्रशस्तांश्च) प्रशस्तरूप से और अप्रशस्तरूप से कहूँगा (यथा) जो (वदनुपूर्वतः) पूर्व के अनुसार कहा गया है। भावार्थ-अब मैं यथाक्रम से परिवेषोंका स्वरूप कहूँगा, वो परिवेश प्रशस्त रूप और अप्रशस्त रूप है जैसा पहले कहा गया है वैसा ही कहूँगा ॥१॥ पञ्चप्रकारा विज्ञेयाः पञ्चवर्णाश्च भौतिकाः। ग्रहनक्षत्रयोः कालं परिवेषाः समुत्थिताः ॥२॥ (पञ्चप्रकारा विज्ञेयाः) वह परिवेष पाँच प्रकार के जानना चाहिये (पञ्चवर्णाश्च) पाँच रंगों के और (भौतिका:) भौतिकरूप, (ग्रहनक्षत्रयोः) ग्रह, नक्षत्र (कालं) कालको पाकर (परिवेषाः) परिवेष (समुत्थिता) होते हैं परिणमन करते हैं। भावार्थ-वे परिवेष पाँच प्रकार के होते हैं, पाँच रंगों के होते है और भौतिक होते हैं, ग्रह, नक्षत्र, काल को पाकर परिवेष होते हैं।॥ २॥ रूक्षाः, खण्डाश्च, वामाश्च, क्रव्यादायुधसत्रिभाः। अप्रशस्ताः प्रकीर्त्यन्ते विपरीतगुणान्विताः ॥३॥ (रूक्षाः) रूक्ष, (खण्ड) खण्ड, (वामाश्च) वामरूप, (क्रव्यादा) टेढ़ेरूप, (आयुधसन्निभाः) आयुध रूप, (अप्रशस्ताः ) और ये सब अप्रशस्त होते हैं (विपरीत) विपरीत (गुणान्विताः) गुणों से सहित (प्रकीर्त्यन्ते) कहे गये हैं। भावार्थ-ये परिवेष, रूक्ष, खण्डरूप, वामरूप व नाना प्रकार के आयुध Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता व मांसभक्षी जीव अथवा चिता की अग्निरूप, तलवार, हल, मूसल, गदा शक्ति आदि आयुध रूप होते हैं वे सब अशुभ रूप होते है इनसे विपरीत शुभलक्षण वाले होते है और शुभ होते हैं जो, चन्द्र, सूर्य, ग्रह और नक्षत्रों के परिवेष हैं। ३ ।। रात्रौ तु सम्प्रवक्ष्यामि प्रथमं तेषु लक्षणम्। ततः पश्चाद्दिवा भूयो तन्निबोध यथाक्रमम्॥४॥ (रात्रौतु) रात्रि के परिवेष (सम्प्रवक्ष्यामि) कहँगा और (प्रथम) पहले (तेषु) उनके (लक्षणम्) लक्षणों को कहूँगा, (ततः) उसके (पश्चाद्दिवा) बाद दिन के परिवेषोंको (भूयो) कहूँगा (तन्निबोध) उसको (यथा) यथा (क्रमम्) क्रम से कहूँगा। भावार्थ-अब मैं रात्रिके परिवेषों को कहूँगा और पहले उनके लक्षणों को कहूँगा उसके बाद रात्रिमें होने वाले परिवेषोंको कहूँगा आप लोगों को जानने के लिये में क्रमश: सबका वर्णन करूँगा॥४॥ क्षीर शंखनिभचंद्रे परिवेषो यदा भवेत् । तदाक्षेमं सुभिक्षं च राज्ञो विजयमादिशेत् ॥५॥ (चन्द्रे) चन्द्रमा के इर्द-गिर्द (निभ) आकाशमें, (क्षीर) दूध के समान सफेद या (शंख) शंख के समान शुक्ल वर्णका (परिवेषो) परिवेष (यदा) अगर (भवेत्) होता है (तदा) तो (क्षेम) क्षेमकुशल (सुभिक्षं) व सुभिक्ष को करने वाला (च) और (राज्ञो) राजाकी (विजय) विजय को (आदिशेत्) कहता है। भावार्थ-यदि चन्द्रमा के घेरे हुऐ दूध के समान अथवा शंख के समान परिवेष होतो, सुभिक्ष करने वाला और क्षेमकुशल को करने वाला होता है राजाकी विजय का सूचक है ऐसा समझो राजा की युद्ध में विजय होगी, देश में क्षेमकुशल व सुभिक्ष होगा, ऐसी सूचना ये परिवेश देते हैं॥५॥ सर्पिस्तैलनिकाशस्तु परिवेषो यदा भवेत् । न चाऽऽकृष्टोऽति मात्रं च महामेघस्तदा भवेत्।।६।। (सर्पिः) घी, (तैल:) तेलके (निकाशस्तु) वर्णका चन्द्रमा के ऊपर (परिवेषो) परिवेष (यदा) जब (भवेत्) होता है (न चाऽऽकृष्टोऽतिमात्र) और उपर्युक्त के समान Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प ह . चतुर्थी अप्रायः श्लोक : चतुर्थी अध्यायः श्लोक Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोऽध्यायः । सफेद न होकर किञ्चित सफेद हो तो (महामेधस्तदा) तब महामेधों का आगमन (भवेत्) होता है। भावार्थ-यदि चन्द्रमा के ऊपर घी या तेल के वर्ण का परिवेष हो और किञ्चित सफेद हो गहरा सफेद न हो तो समझो महामेघों का आगमन होकर बहुत वर्षा होगी।।६।। रूप्यपाराताभश्च परिवेषो यदा भवेत् । महामेघास्तदा भीक्ष्णं तर्पयन्ति जलैर्महीम्॥७॥ (रूप्य) चाँदीके समान और कबूतर के समान चन्द्रमा के ऊपर (परिवेषो) परिवेष (यदा) जब (भवेत) होता है तो (महामेघाः) महामेघोंका (तदा) तब (भीक्ष्णं) भीषण (जलै) जलकी वर्षासे (महीम्) पृथ्वी को (तर्पयन्ति) तृप्त करता है। भावार्थ-यदि चन्द्रमा के ऊपर चाँदी व कबूतर के रंग के समान परिवेष हो तो समझो महामेघों का आगमन होकर इस पृथ्वी को तृप्त कर देंगे, याने घोर वषा की सूचना देते है यह परिव५।७i इन्द्रायुध सवर्णस्तु परिवेषो यदा भवेत्। सङ्ग्रामं तत्र जानीयाद् वर्ष चापि जलागमम्॥८॥ (इन्द्रायुध) इन्द्र धनुष के (सवर्णस्तु) समान रंग वाला चन्द्रमाके ऊपर (परिवेषो) परिवेष (यदा) जब (भवेत्) होता है तो (तत्र) वहाँ पर (सङ्ग्राम) युद्ध (चापि) और भी (जलागमम्) वर्षाका आगमन (जानीयाद्) जानना चाहिये। भावार्थ-यदि चन्द्रमा के ऊपर इन्द्र धनुष के रंग का परिवेष हो तो समझना चाहिये वहाँ पर युद्ध भी होगा और वर्षा भी होगी॥८॥ कृष्णे नीले ध्रुवं वर्ष पीते तु व्याधिमादिशेत्। रूक्षे भस्मनिभे चापि दुर्वृष्टिभयमादिशेत्॥९॥ (कृष्णे) काले, (नीले) नीले वर्णका चन्द्रमा के ऊपर परिवेष हो तो (ध्रुवं) निश्चये (वर्ष) वर्षा होती है (पीते तु) पीला हो तो (व्याधिमादिशेड्) व्याधिको उत्पन्न करता है (चापि) और भी (रूक्षे) रूक्ष (भस्मनिभे) भस्म के रंग की हो तो (दुर्वृष्टि) दुर्वृष्टि (भयं) का भय (आदिशेत्) उत्पन्न होता है। . . .-114:श्लाक८ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ---यदि चन्द्रमा के ऊपर काले व नीले रंग का परिवेष हो तो समझो निश्चय वर्षा होगी, यदि पीले रंग का हो तो व्याधि का प्रकोप होता है और भस्म के रंग का हो तो वर्षा का अभाव व दुर्वृष्टि हो है याने वर्षा का अभाव रहता है वायु तेज चलती है।।९।। यदा तु सोममुदितं परिवेषो रूणद्धिहि । जीमूत वर्ण स्निग्धश्च महामेघस्तदा भवेत्॥१०॥ (यदा) जब (सोममुदित) उदय होता हुआ चन्द्रमा (परिवेषो) परिवेष (रूणद्धिहि) रूद्ध करता है (तु) तो फिर (जीमूत) मेघो का वर्ण (श्च) और (स्निग्ध) स्निग्ध हो तो (तदा) तब (महामेघः) महामेघोंका आगमन (भवेत्) होता है। भावार्थ-यदि उगते हुऐ चन्द्रमाको परिवेष मेधों के वर्ण का हो या स्निग्ध हो तो समझो मेघों का आगमन होकर उत्तम वृष्टि होगी॥१०॥ अभ्युन्नतो यदा श्वेतो रूक्षः सन्ध्यानिशाकरः। अचिरेणैव कालेन राष्ट्र चौरविलुप्यते॥११॥ (अभ्युन्नतो) उदय होता हुआ चन्द्रमा (यदा) जब (श्वेतो) सफेद (रूक्षः) और रूक्ष हो, अथवा (सन्ध्या) सन्ध्या के वर्ण का परिवेष युक्त (निशाकरः) चन्द्रमा हो तो (राष्ट्र) राष्ट्र को (अचिरेणैव) बहुत ही (कालेन) काल तक (चौरैर्विलुप्यते) चोरों के द्वारा उपद्रव किया जाता है। भावार्थ- उदय होते हुऐ चन्द्रमा के ऊपर जब सफेद और रूक्ष अथवा सन्ध्या के वर्ण का परिवेष हो तो राष्ट्र को चोरो का उपद्रव होता है, उस राष्ट्र को चोरों का भय उत्पन्न होता है।। ११॥ चंद्रस्य परिवेषस्तु सर्वरात्रं यदा भवेत्। शस्त्रं जनक्षयं चैव तस्मिन् देशे विनिर्दिशेत ।। १२॥ (चंद्रस्य) चन्द्र के ऊपर (परिवेषस्तु) परिवेष (यदा) जब (सर्वरात्रं) पूरी रात (भवेत्) होता है तो (तस्मिन्) उस (देशे) देश में (शस्त्र) शस्त्र (जनक्षयं) जन क्षय होगा (चैव) ऐसा ही (विनिर्दिशेत्) आचार्य ने निर्देशन किया है। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक : आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज चतुर्थी अध्यायः श्लोक ७ O चतुर्थी अध्यायः श्लोक ८ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ".MARN मार्गदर्शक र जी महाराज Hease 7854 चतुर्थो अध्यायः श्लोक ९ चतुर्थों अध्यायः श्लोक १ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक आचार्य श्री ::.:. :..:. - . 4 :: :: . * *:*. चतुर्थो अध्याय: श्लोक ९ " VRAN VEHIN . . "..5280 VATSAR .. . '-8 SINow...in .. .... .. . चतुर्थो अध्यायः श्लोक १० Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक आचार्य श्री सुविहिता File PROTH HARMA ECH: चतुर्थो अध्यायः श्लोक ११ । Sidha Sigr: चतुर्थी अध्यायः श्लोक १३ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | चतुर्थोऽध्यायः | भावार्थ-यदि सारी रात्रि चन्द्रमा के ऊपर परिवेष रहे तो उस देश के लोगों का शस्त्रों के द्वारा क्षय होगा ऐसा समझना चाहिये, निमित्तज्ञों ने ऐसा ही निर्देशन किया है॥१२॥ भास्करं तु यदा रूक्षः परिवेषो रूणद्धि हि। मदा. - मरणसारख्याति · . नागरस्य .. : महीपतेः ॥१३॥ (यदा) जब (भास्करंतु) सूर्य को (रूक्षः) रूक्ष (परिवेषो) परिवेष (रूणद्धिहि) घेरता है तो (तदा), तब (नागरस्य) नगर के. (महीपतेः) राजा का (मरणं) मरण (आख्याति) कहा गया है। भावार्थ- जब सूर्य को परिवेष रूक्ष होकर आवृत करता है तो समझो नगर के राजा का मरण होगा। यह परिवेष राजा के अनिष्ट का सूचक है, राजा को सावधान रहना चाहिये उसके साथ-साथ प्रजा को भी॥१३॥ . आदित्य परिवेषस्तु यदा सर्वदिनं भवेत्। ' क्षुद्धयं जनमारिञ्च शस्त्रकोपं च निर्दिशेत्॥१४॥ (आदित्य) सूर्य के ऊपर (यदा) जब (परिवेषस्तु) परिवेष (सर्वदिन) सारे दिन ही (भवेत्) होता है तो (क्षुद्रय) क्षुधा भय (जनमारिञ्च) लोगों को भारी रोग का फैलना (च) और (शस्त्रकोप) शस्त्र भय (निर्दिशेत्) को कहा गया है। भावार्थ—यदि सूर्य के ऊपर परिवेष सारे दिन हो तो प्रजा में मारी रोग व क्षुद्र रोग, शस्त्र भय याने युद्धादिक का होना, क्षुद्र रोगों में भूखों मर जाना व अन्य छोटे-मोटे रोगों का भय उत्पन्न होता है ।। १४ ॥ हरते सर्व सस्यानामीतिर्भवति दारूणा। वृक्षगुल्म लतानां च वर्तनीनां तथैव च ॥१५ ।। (मीति) इति इस प्रकार (दारूण) विकट परिवेष (भवति) होते हैं तो (सर्वसस्यानां) सम्पूर्ण धान्यो को (हरते) नाश करता है (च) और (तथैव) उसी प्रकार (वृक्ष) वृक्ष (गुल्म) गुल्म (लतानां) लताओं का (वर्तनीनां) भी वर्तन करना चाहिये। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ — इस प्रकार अगर उपर्युक्त परिवेष हो तो समझो सर्वधान्यो का नाश होगा, और वृक्ष गुल्म, लताओं का भी नाश होगा, ऐसे परिवेष सब प्रकार के नाश की सूचना देते हैं, ऐसे परिवेषों से जनता को भी हानि होती है ॥ १५ ॥ यतः ततः खण्डस्तु प्रयत्नं प्रविशतेपर: । exयेत तत: रक्षणे पुरराष्ट्रयोः ।। १६ ।। कुर्वीत ( यतः ) यत ( खण्डस्तु) खण्डरूप में परिवेश (दृश्येत् ) दिखाई दे तो, ( तत: ) उसी दिशा से (परः) परचक्र ( प्रविशेत) प्रवेश करता है (ततः) इसलिये ( पुरराष्ट्रयोः) पुर राष्ट्र का ( रक्षणे ) रक्षा करने के लिये ( प्रयत्नं ) प्रयत्न ( कुर्वीत) करना चाहिये । भावार्थ — जब दिशा का सूर्य के ऊपर होने वाला परिवेष खण्ड रूप दिखाई दे, समझो उस दिशा से परशत्रु का आक्रमण स्वदेश के ऊपर होने वाला है ऐसा जानकर उसी दिशा में परचक्र को रोकने का प्रयत्न राजा को करना चाहिये, नहीं तो आक्रमण होकर जनता को कष्ट पहुँचेगा ॥ १६॥ रक्तो वा यथाभ्युदितं कृष्ण पर्यन्त एव च । परिवेषो रविं रुन्ध्याद् राजव्यसनमादिशेत् ॥ १७ ॥ ( यथाभ्युदितं ) जैसे उदय होते हुऐ (रवि) रवि को (रक्तो) लाल (बा) व (कृष्ण) काले ( पर्यंत) पर्यन्त (एव च ) ही (परिवेषो) परिवेष (रुन्ध्याद्) रुन्धन करता है तो (राज) राज्य ( व्यसनं) व्यसन रूप (आदिशेत् ) हो जायगा । यदात्रिवर्ण तद्राष्ट्रमचिरात् भावार्थ यदि सूर्य को आच्छादित कर परिवेष लाल, पीला, हरा, काला वर्ण वाला वर्ण का हो तो समझो पूरे राज्य के लोग व्यसन में व्याप्त हो जायगें । उस राजा की प्रजा व्यसनी बन जायगी राजा का राज्य अस्त-व्यस्त हो जायगा ॥ १७ ॥ ७४ पर्यन्तं परिवेषो दस्युभिः दिवाकरम् । परिलुप्यते ॥ १८ ॥ कालाद् (दिवाकरम् ) सूर्य के ऊपर ( यदा) जब (त्रिवर्ण) तीन वर्ण का ( परिवेषो ) परिवेष होता है तो (तद्) उस (राष्ट्र) राष्ट्र में (अचिरात् ) चिर (कालाद) काल तक ( दस्युभिः) डाकुओं के द्वारा (परिलुप्यते) परिलिप्त होकर उन्हीं का भय बढ़ जायगा । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधासागर जी महाराज चतुर्थी अध्यायः श्लोक १७ चतुर्थो अध्यायः श्लोक १८ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोऽध्यायः भावार्थ-जिस देश में यदि सूर्य तीन वर्ण के परिवेश से आच्छादित हो जाय तो समझो उस देश में चोर-डाकुओं का भय उत्पन्न हो जायगा, उन्हीं का जोर सर्वत्र होकर प्रजा को कष्ट पहुँचेगा।।१८॥ . हरितो नीलपर्यन्तः परिवेषो यदा भवेत। आदित्ये यदि वा सोमे राज व्यसनमादिशेत् ।। १९॥ (आदित्ये) सूर्य (यदि वा) वा (सोमे) चन्द्रमा के ऊपर (यदा) जब (हरितो) हो वर्ण से, (नीलपर्यन्तः) नीले रंगका (परिवेषो) परिवेश (भवेत्) होता है तो, (राज) राज्य की प्रजा को (व्यसनं) व्यसन कष्ट (आदिशेत्) दिखाई देता है। भावार्थ—सूर्य अथवा चन्द्रमा के ऊपरे हरे से नील वर्ण का परिवेश हो तो जानना चाहिये उस देश की प्रजा को व्यसन कष्ट होगा॥१९॥ दिवाकरं बहुविधः परिवेषो रूणद्धिहि। भिद्यते बहुधा वापि गवां मरणमादिशेत्॥२०॥ (दिवाकर) सूर्य को (बहुविधः) बहुत प्रकार के रंग वाला (परिवेषो) परिवेष (रूणद्धिहि) आच्छादि करता है (वापि) और भी (बहुधा) बहुत प्रकार के (भिद्यते) खण्ड-खण्ड दिखे तो (गवां) गायों का (मरणम्) मरण (आदिशेत्) दिखता है। भावार्थ-यदि सूर्य के ऊपर बहुत प्रकार के वर्णों वाला परिवेष और वो भी खण्ड-खण्ड रूप दिखे तो समझो गोधन का नाश होगा, गायों का मरण होगा ।। २०॥ यदाऽतिमुच्यते शीघ्रं दिशिचैवाभिवर्धते। गवांविलोपमपि च तस्य राष्ट्रस्यनिर्दिशेत् ।। २१॥ (यदाऽतिमुच्यते) जिस दिशा का सूर्य के ऊपर का परिवेश छूटता जाय और (दिशिश्चैव) और जिस दिशा में (शीघ्रं) शीघ्र (अभिवर्धते) बढ़ता जाय तो (तस्य) उस (राष्ट्रस्य) राष्ट्र के (गवां) गायों का (विलोपमपि) विलोप भी (निर्दिशेत्) हो जाता है। भावार्थ-जिस दिशा के सूर्य के ऊपर परिवेष बिगड़ता जाता है और बनता जाता है, जिस दिशा में सूर्य बढ़े, उसी दिशा के गोधनों का लोप हो जायगा, गोधन का अपहरण हो जायगा ॥२१॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंशुमाली यदा तु स्यात् परिवेषः समन्ततः । सपुरराष्ट्रस्य देशस्य तदा ग्रहः : भद्रबाहु संहिता ( यदातु ) जब (अंशुमाली) सूर्य का ( परिवेषः) परिवेष (समन्ततः) चारों तरफ से (स्यात्) होता है तो (तदा) तब (सपुरराष्ट्रस्य) नगर और राष्ट्र को व (देशस्य ) देश के मनुष्य ( रुजमादिशेत्) रोगी दिखेगे !. :. भावार्थ — जब सूर्य के ऊपर रहने वाला परिवेष सूर्य के चारों तरफ हो तो समझो राष्ट्र या देश या नगर की प्रजा को कोई न कोई रोग हो जायगा ॥ २२ ॥ नक्षत्र : चंद्राणां परिवेषः . अभीक्ष्णं यत्र वर्तेत तं देशं .. परिवेषो कालेषु रुजमादिशेत् ॥ २२ ॥ (ग्रह) ग्रह (नक्षत्र) नक्षत्र (चंद्राणां ) चन्द्रमा को (परिवेषः) परिवेष (प्रगृह्यते) आवेष्टित करता है. (अभीक्ष्णं) और हर समय (यत्र) वहाँ ( वर्तेत) उस पर रहता है तो (तं) उस (देश) देश को (परिवर्जयेत् ) शीघ्र छोड़ देना चाहिये । भावार्थ — नौ ग्रहों, २८ नक्षत्रों और चन्द्र को यदि परिवेष ग्रहण कर लेता है और प्रतिक्षण उनके ऊपर ही आच्छादित रहता है तो समझो उस देश में महान् कोई भय उत्पन्न होना वाला है आचार्य कहते हैं कि उसे देश को शीघ्र ही छोड़ देना चाहिये ॥ २३ ॥ ," नक्षत्रेषु प्रगृह्यते । ... परिवर्जयेत् ।। २३ ।। विरुद्धेषु वृष्टिर्विज्ञेया संत यदि (परिवेषो) परिवेषा (नक्षत्रेषु) नक्षत्रों पर (च) और (गृहेषु) ग्रहों के ऊपर (विरुद्धेषु) विरुद्ध रहता है तो (कालेषु) थोड़े ही समय में (वृष्टि) वर्षा (र्विज्ञेया) होगी जानना चाहिये (भयम्) भय भी (अन्यंत्र) दूसरी जगह होगा (निर्विशेत् ) ऐसा निर्देश किया गया है। '५: i भावार्थ- नक्षत्रों के ऊपर और ग्रहों के ऊपर यदि परिवेष रहता है तो समझना चाहिये थोड़े ही समय में वर्षा होगी, अन्यत्र कहीं भय भी होगा ॥ २४ ॥ ७६ ग्रहेषु घ। भयमन्त्रनिर्दिशेत् ॥ २४ ॥ अभ्रशक्तिर्यतो गच्छेत् ता दिशं त्वभियोजयेत्। " रिक्ता वा विपुला चाग्रे जयं कुर्वीत शाश्वतम् ॥ २५ ॥ REGA Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " AI मार्गदर्शक :- आचार्य IC चतुर्थी अध्यायः श्लोक २१ FREE चतुर्थी अध्यायः श्लोक २६ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ¦ आता पी सवितडित्साणार जी महारा चतुर्थी अध्यायः श्लोक २० चतुर्थी अध्यायः श्लोक १९ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोऽध्यायः ( अभ्रशक्तिर्यतो ) बादलों की शक्ति (रिक्ता ) रिक्त हो (वा) व ( विपुला ) भरे हुऐ (चाग्रे) आगे-आगे (गच्छेत्) जावे, ( तां) उसी ( दिशं ) दिशा के प्रति ( त्वभियोजयेत् ) योजना करना चाहिये, ऐसा कहा की ( शाश्वतम् ) शास्त्रत (जयं ) जय को ( कुर्वीत ) करती है। भावार्थ - जिस दिशा के प्रति भरे हुऐ वारिक्त बादल जावे तो समझो की जय होगी, उस दिशा में अवश्य ही विजय होगी ॥ २५ ॥ समन्विता । यदाऽभ्रशक्तिर्द्दश्येत यायिनो परिवेष हन्युस्तदा यत्नेन् संयुगे ॥ २६ ॥ नागरान् ( परिवेष ) परिवेष से ( समन्विता ) संयुक्त ( यदा) जब (अभ्रशक्ति) बादलों की शक्ति (दश्येत् ) दिखाई दे तो, (नागरान् ) नगरवासियों का (यायिनो) आक्रामणकारी शत्रु ( हन्यु) नाश करता है, ( तदा) तब ( यत्नेन ) यत्नपूर्वक (संयुगे) नगरवासियों की रक्षा करनी चाहिये । ७७ भावार्थ बादलों के परिवेष से सहित देखे तो समझो आक्रमणकारी शत्रु के द्वारा नगरवासी लोगों का नाश होगा। इसलिये उस नगर के राजा को चाहिये की अपनी प्रजा की यत्नपूर्वक रक्षा करे ॥ २६ ॥ नानारूपो नागरास्तत्र यदा बध्यन्ते दण्ड: यायिनो परिवेषं प्रमर्दति । संशयः ॥ २७ ॥ नात्र ( नानारूपो ) नाना प्रकार का रूप वाला ( यदा) जब ( दण्डः ) दण्ड ( परिवेषं) परिवेष को ( प्रमदति ) प्रमादित करता है तो (तत्र) वहाँ के ( नागराः) नगरवासी सेना या प्रजा ( बध्यन्ते) वध को प्राप्त होते है (यायिनो) आने वाले आक्रमणकारी शत्रु के द्वारा ( नात्र संशयः ) यहाँ पर कोई संशय नहीं करना चाहिये । भावार्थ- नाना रूप वाला दण्ड आदि परिवेष को मर्दित करता हुआ दिखलाई पड़े समझो आक्रमणकारी शत्रु के द्वारा नगरवासी, प्रजा का नाश होगा, इसमें किसी प्रकार का यहाँ पर संशय नहीं करना चाहिये ॥ २७ ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता त्रिकोटि यदि दृश्येत परिवेषः कथञ्चन। त्रिभाग शरत्र वध्योऽसाविति निर्ग्रन्थशासने॥२८।। (कथञ्चन) कदाचित (परिवेष) परिवेष (त्रिकोटि ) तीन कोणे वाला (यदि) यदि (दृश्येत्) दिखलाई पड़े तो (त्रिभाग शस्त्र) तीन भाग शस्त्र से (वध्यो) लोग मारे जाते हैं (असाविति) ऐसा (निर्ग्रन्थ) निर्ग्रन्थ (शासने) शासन में कहा गया है। भावार्थ-निर्ग्रन्थ शासन में ऐसा कहा गया है कि परिवेष यदि तीन कोणे वाला दिखलाई पड़े जानो युद्ध के अन्दर सेना का तीन भाग युद्ध में शस्त्र से मारा जाता है॥२८॥ चतुरस्त्रो यदा चापि परिवेष: प्रकाशते। क्षुधया व्याधिभिश्चापि चतुर्भागोऽवशिष्यते।। २९ ।। (यदा) जब (चापि) भी (चतुरस्त्रो) चार कोने वाला (परिवेष:) परिवेष (प्रकाशते) दिखलाई दे तो, (क्षुधया) क्षुधा (व्याधि) व्याधि (भिश्चापि) और भी रोग होकर (चतुर्भागो) चार भाग (अवशिष्यते) जनसंख्या बाकी बच जाती है। भावार्थ-यदि चार कोने वाला परिवेष दिखलाई पड़े जनता क्षुधा से पीड़ित होकर और नाना प्रकार के रोगों से पीड़ित होकर मर जाती है लोग चतुर्थास ही बच पाते है बाकी सब समाप्त हो जाते है॥२९॥ अर्द्ध चन्द्र निकाशस्तु परिवेषो रूणद्धि हि। आदित्यं यदि वा सोमंराष्ट्र सङ्कुलतां व्रजेत॥३०॥ (अर्द्धचन्द्र) अर्द्धचन्द्र के (निकाशस्तु) आकार वाला (परिवेषोः) परिवेष यदि (आदित्यं) रवि को (यदि वा) या (सोम) चन्द्र को (रूणाद्धिहि) आच्छादित करता है तो (राष्ट्र) देश में (संकुलतां) आकुलता (व्रजेत) बढ़ जाती है। भावार्थ-यदि अर्द्ध चन्द्राकार परिवेष, सूर्य या चन्द्रमा को आवृत करता है तो देश में व्याकुलता बढ़ जाती है देशवासी किसी भी कारणों से परेशान रहते है॥३०॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज चतुर्थो अध्यायः श्लोक ३१ चतुर्थो अध्यायः श्लोक ३३ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I चतुर्था अध्याय: जोक ३६ चतुर्थी अध्यायः श्लोक ३४ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोऽध्यायः । प्रकार के पुँच्छ वाले तारे को आच्छादित करता है तो आक्रमणकारी राजा की यात्रा कभी सफल नहीं होती है, याने उसको हार खाकर जाना पड़ेगा।।३६ ।। ददा तु ग्रहनक्षत्रे परिवेषो रूणद्धि हि। आभावस्तस्य देशस्य विज्ञेयः पर्युपस्थितः ॥ ३७॥ (परिवेषो) परिवेष (यदि) यदि (ग्रह नक्षत्रे) ग्रह और नक्षत्र को (ददा तु) देता हुआ (रूणद्धि हि) आच्छादित करे तो (तस्य) उस (देशस्य) देश का (अभाव:) अभाव हो जायेगा, (पयुपस्थित) ऐसा पूर्व निमित्तज्ञों ने (विज्ञेयः) कहा है ऐसा जानना चाहिये। भावार्थ-परिवेष यदि ग्रह और नक्षत्र को आच्छादित करते तो उस देश का पूरे का पूरा अभाव हो जायगा, उसे देश में कोई नहीं रहेगा ।। ३७॥ अयो याऽत्रावरुद्ध्यन्ते नक्षत्रं चंद्रमा ग्रहः। त्र्यहाद् वा जायते वर्ष मासाद् वा जायते भयम् ।। ३८॥ (त्रीणि) तीनों की (याऽत्रावरुद्ध्यन्ते) यात्रा का अवरुद्ध करता है (नक्षत्र) नक्षत्र, (चंद्रमा) चन्दमा, (ग्रह) ग्रहों का तो (त्र्यहाद्) तीन दिन में (जायते वर्ष) वर्षा होगी (वा) अथवा (मासाद्) एक महीने में (भयं) भय (जायते) उत्पन्न होगा। भावार्थ-ग्रहों को चन्द्रमा को और नक्षत्रों को इन तीनों को यदि परिवेष अवरुद्ध करता है तो समझो तीन दिन में वर्षा होगी, और एक महीने में अवश्य भय उत्पन्न होगा ।। ३८।। उल्कावत् साधनं ज्ञेयं परिवेषेषु तत्त्वतः । लक्षणं सम्प्रवक्ष्यामि विद्युतां तन्निबोधत ।। ३९ ।। (उल्कावत्) उल्का के समान ही (साधनं) फल (परिवेषेषु) परिवषो का (तत्त्वत:) तत्त्व (ज्ञेयं) जानना चाहिये। (विद्युतां) अब विद्युत् का (लक्षणं) लक्षण (सम्प्रवक्ष्यामि) कहूँगा। (तन्निबोधत) उस का ज्ञान करना चाहिये। भावार्थ- उल्का के समान ही परिवेषों का फल जानना चाहिये। अब मैं विद्युत का ज्ञान कराता हूँ आप उसको जानो॥३९ ।। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता विशेष—इस चतुर्थ अध्याय में आचार्य श्री श्रुतकेवली, परिवेषों का वर्णन कर रहे हैं, इन परिवेषों से भी मेघ, वर्षा, शुभाशुभ, अनिष्ट, विनाश, लाभ आदि देखे जाते हैं, परिवेष, चन्द्र या सूर्य पर एक धूमिलाकार गोलावृत्त होता है उसी को परिवेष कहते है, ये परिवेष दिन में सूर्य के ऊपर और रात्रि में चन्द्र के ऊपर दिखाई पड़ते हैं विभिन्न रंग के होते हैं कभी-कभी सूर्य या चन्द्र को अति नजदीक या दूरी कर दिखाई पड़ते है, लेकिन परिवेषो का उद्भव जब ही होता है जब आकाश कुछ बादलों से गिरे हुऐ रहते हैं, निर्मल आकाश होने पर सूर्य या चन्द्रमा में कभी परिवेष नहीं पड़ता है, परिवेष भी विभिन्न रंगों में व विभिन्न आकारों में पड़े है उसी के अनुसार उनका शुभाशुभ फल होता है, परिवेष स्निग्ध रूक्ष भी होते हैं, अलग-अलग ग्रहों व नक्षत्रों के अनुसार फल भी अलग-अलग हो जाता है जो नक्षत्र व ग्रह इस परिवेष में दिखलाई पड़े उसी के अनुसार हानि-लाभ प्राप्त होता है, तिथियों के अनुसार भी परिवेषों का फलादेश देखना चाहिये, चन्द्रमा पर होने वाला परिवेष मेघ व वर्षा का सूचक होता है वर्षा होगी या नहीं होगी आदि-आदि। सूर्य पर परिवेष यह सूचित करता है कि इस वर्ष धान्योत्पति कितनी होगी या होगी या नहीं होगी, ये परिवेष आषाढादि महिनों में भी दिखलाई पड़ते हैं, और इनका प्रभाव देश व राजा के ऊपर भी होता है दुर्भिक्ष या सुभिक्ष शान्ति या युद्ध और वस्तु संबधिभाव महँगे या सस्ते रहेंगे सब कुछ अवगत होता है कौन से वार को चन्द्रमा सूर्य परिवेष पड़ा तो कौन-कौन सी वस्तुएँ तेजी या सस्ती होगी, परिवेष देखने वाला अत्यन्त ज्ञानी और सब प्रकार के दृष्टिकोण से फलादेश का विचार करने वाला होना चाहिये तब ही उसका निमित्त ज्ञान सच्चा निकल सकता है ऐसा निमित्त ज्ञानी हो, देश, राष्ट्र, नगर, राजा और प्रजा, श्रमणादिक को बचा सकता है निमित्तज्ञानी को अष्टांग निमित्तका वेत्ता होना चाहिये, दृढ़ श्रद्धानि होना चाहिये, सच्चा आगमज्ञ होना चाहिये वीतराग वाणी पर सच्चा श्रद्धान करने वाला हो संयमी हो इन्द्रिय विजय हो, परिवेषों का संचार कैसा हो रहा है जानकर फलादेश कहे ऐसे निमित्त ज्ञानी की ही बात सच्ची हो सकती है। परिवेष के दिखने पर कोई परिवेष शीघ्र फल देता है तो कोई थोड़े दूर जाकर तो कोई अतिदूर समयों में शुभाशुभ फल देता है। इन सब बातों का खुलासा आगे डॉ. नेमिचन्द आरा वालों के अनुसार दे रहे है। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - Price - चतुर्थो अध्याय: श्लोक ४ चतुर्थो अध्यायः श्लोक ३९ ... . F PRAHARWismom RamSHAN - - sini - -- RAPARI ... 1506ASRTA रि Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोऽध्यायः विवेचनपरिवेषों के द्वारा शुभाशुभ अवगत करने की परम्परा निमित्तशास्त्रके अन्तर्गत है। परिवेषोंका विचार ऋग्वेदमें भी आया है। सूर्य अथवा चन्द्रमा की किरणें पर्वत के ऊपर प्रतिबिम्बित और पवनके द्वारा मंडलाकार होकर थोड़े से मेघवाले आकाश में अनेक रंग और आकार की दिखलाई पड़ती हैं, इन्हीं को परिवेष करते हैं। वर्षाऋतु में सूर्य या चन्द्रमा के चारों ओर एक गोलाकार अथवा अन्य किसी आकारमें एक मंडल-सा बनता है, इसी को परिवेष कहा जाता है। परिवेषोंका साधारण फलादेश-जो परिवेष नीलकण्ठ, मोर, चाँदी, तेल, दूध और जलके समान आभावाला हो, स्वकालसम्भूत हो, जिसका वृत्त खण्डित न हो और स्निग्ध हो, वह सुभिक्ष और मंगल करने वाला होता है। जो परिवेष समस्त आकाशमें गमन करे, अनेक प्रकार की आभावाला, हो, रुधिरके समान हो, रूखा हो, खण्डित हो तथा धनुष और शृङ्गाटिकके समान हो तो वह पापकारी, भयप्रद और रोगसूचक होता है। मोर की गर्दन के समान परिवेष हो तो अत्यन्त वर्षा, बहुत रंगोंवाला हो तो राजाका वध, धूमवर्णका होनेसे भय और इन्द्रधनुषके समान या अशोकके फूलके समान कान्तिवाला हो तो युद्ध होता है। किसी भी ऋतुमें यदि परिवेष एक ही वर्णका हो, स्निग्ध हो तथा छोटे-छोटे मेघोंसे व्याप्त हो और सूर्यकी किरणें पीत वर्णकी हों तो इस प्रकारका परिवेष शीघ्र ही वर्षाका सूचक है। यदि तीनों कालोंकी सन्ध्यामें परिवेष दिखलाई पड़े तथा परिवेषकी ओर मुख करके मृग या पक्षी शब्द करते हों तो इस प्रकारका परिवेष अत्यन्त अनिष्टकारक होता है। यदि परिवेषका भेदन उल्का या विद्युत द्वारा हो तो इस प्रकार के परिवेष द्वारा किसी बड़े नेताकी मृत्युकी सूचना समझनी चाहिए। रक्तवर्णका परिवेष भी किसी नेताकी मृत्युका सूचक है। उदयकाल, अस्तकाल और मध्याह्र या मध्यरात्रिकालमें लगातार परिवेष दिखलाई पड़े तो किसी नेताकी मृत्यु समझनी चाहिए। दो मण्डलका परिवेष सेनापतिके लिए आतङ्ककारी, तीन मण्डलका परिवेष शस्त्रकोपका सूचक, चार मण्डलका परिवेष देशमें उपद्रव तथा महत्त्वपूर्ण युद्धका सूचक एवं पाँच मण्डलका परिवेष देश या राष्ट्रके लिए अत्यन्त अशुभ सूचक है। मंगल परिवेषमें हो तो सेना एवं सेनापतिको भय, बुध परिवेषमें हो तो कलाकार, कवि, लेखक एवं मन्त्रीको भय, बृहस्पति परिवेष में हो तो पुरोहित, मन्त्री और राजाको भय, Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता शुक्र परिवेष में हो तो क्षत्रियोंको कष्ट एवं देशमें अशान्ति और शनि परिवेषमें हो तो देशमें चोर, डाकुओंका उपद्रव वृद्धिगत हो तथा साधु, सन्यासियोंको अनेक प्रकारके कष्ट हों। केतु परिवेषमें हो तो अग्निका प्रकोप तथा शस्त्रादिका भय होता है। परिजनों को ग्रह हों तो कृषिके लिए हानि, हर्षाका अभाव, अशान्ति और साधारण जनताको कष्ट; तीन ग्रह परिवेषमें हों तो दुर्भिक्ष, अन्नका भाव महँगा और धनिकवर्गको विशेष कष्ट; चार ग्रह परिवेषमें हों तो मन्त्री, नेता एवं किसी धर्मात्माकी मृत्यु और पाँच ग्रह परिवेषमें हों तो प्रलयतुल्य कष्ट होता है। यदि मंगल बुधादि पाँच ग्रह परिवेषमें हों तो किसी बड़े भारी राष्ट्रनायक की मृत्यु तथा जगत् में अशान्ति होती है। शासन परिवर्तनका योग भी इसीके द्वारा बनता है। यदि प्रतिपदासे लेकर चतुर्थी तक परिवेष हो तो क्रमानुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंको कष्टसूचक होता है। पञ्चमीसे लेकर सप्तमी तक परिवेष हो तो नगर, कोष एवं धान्यके लिए अशुभकारक होता है। अष्टमीको परिवेष हो तो युवक, मन्त्री या किसी बड़े शासनाधिकारी की मृत्यु होती है। इस दिनका परिवेष गाँव और नगरोंकी उन्नतिमें रुकावटकी भी सूचना देता है। नवमी, दशमी और एकादशीमें होने वाला परिवेष नागरिक जीवनमें अशान्ति और प्रशासक या मण्डलाधिकारी की मृत्युकी सूचना देता है। द्वादशी तिथिमें परिवेष हो तो देश या नगर में घरेलू उपद्रव, त्रयोदशी में परिवेष हो तो शस्त्र का क्षोभ, चतुर्दशी में परिवेष हो तो नारियोंमें भयानक रोग, प्रशासनाधिकारीकी रमणीको कष्ट एवं पूर्णमासीमें परिवेष हो तो साधारणत: शान्ति, समृद्धि एवं सुखकी सूचना मिलती है। यदि परिवेषके भीतर रेखा दिखलाई पड़े तो नगरवासियोंको कष्ट और परिवेषके बाहर रेखा दिखलाई पड़े तो देशमें शान्ति और सुखका विस्तार होता है। स्निग्ध, श्वेत और दीप्तिशाली परिवेष विजय, लक्ष्मी, सुख और शान्ति की सूचना देता है। रोहिणी, धनिष्ठा और श्रवण नक्षत्रमें परिवेष हो तो देशमें सुभिक्ष, शान्ति, वर्षा एवं हर्षकी वृद्धि होती है। अश्विनी, कृत्तिका और मृगशिरामें परिवेष हो तो समयानुकूल वर्षा, देशमें शान्ति, धन-धान्यकी वृद्धि एवं व्यापारियोंको लाभ; भरणी और आश्लेषामें परिवेष हो तो जनताको अनेक प्रकारका कष्ट, किसी महापुरुषकी मृत्यु, देशमें उपद्रव, अन्न कष्ट एवं महामारीका प्रकोप; आर्द्रा नक्षत्रमें परिवेष हो Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोऽध्यायः तो सुख-शान्ति कारक; पुनर्वसु नक्षत्रमें परिवेष हो तो देशका प्रभाव बढ़े, अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति मिले, नेताओंको सभी प्रकारके सुख प्राप्त हों तथा देशकी उपज वृद्धिगत हो; पुष्य नक्षत्रमें परिवेष हो तो कल-कारखानोंकी वृद्धि हो; आश्लेषा नक्षत्रमें परिवेष हो तो सब प्रकारसे भय, आतंक एवं महामारीकी सूचना, मघा नक्षत्र में परिवेष हो तो श्रेष्ठ वर्षाकी सूचना तथा अनाज सस्ते होनेकी सूचना; तीनों पूर्वाओंमें परिवेष हो तो व्यापारियोंको भय, साधारण जनताको भी कष्ट और कृषक वर्गको चिन्ताकी सूचना; तीनों उत्तराओंमें परिवेष हो तो साधारणत: शान्ति, चेचकका प्रकोप, फसलकी श्रेष्ठता और पर शासन से भय; हस्त नक्षत्रमें परिवेष हो तो सुभिक्ष, धान्यकी अच्छी उपज और देशमें समृद्धि; चित्रा नक्षत्रमें परिवेष हो तो प्रशासकोंमें मतभेद, परस्पर कलह और देश की राशि स्वाति क्षत्रमें परिवेश सोलो समयानुकूल वर्षा, प्रशासकोंमें विजय और शान्ति; विशाखा नक्षत्र में परिवेष हो तो अग्निभय, शस्त्रभय और रोगभय; अनुराधा नक्षत्रमें परिवेष हो तो व्यापारियोंको कष्ट, देशकी आर्थिक क्षति और नगरमें उपद्रव; ज्येष्ठा नक्षत्रमें परिवेष हो तो अशान्ति, उपद्रव और अग्निभय; मूल नक्षत्रमें परिवेष हो तो देश में घरेलू कलह, नेताओं में मतभेद और अन्न की क्षति, पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में परिवेष हो तो कृषकोंको लाभ, पशुओंकी वृद्धि और धन-धान्यकी वृद्धि; उत्तराषाढ़ा नक्षत्रमें परिवेष हो तो जनतामें प्रेम, नेताओंमें सहयोग, देशकी उन्नति और व्यापारमें लाभ; शतभिषामें परिवेष हो तो शत्रुभय, अग्निका विशेष प्रकोप और अन्नकी कमी; पूर्वाभाद्रपदमें परिवेष हो तो बाढ़ से कष्ट, कलाकारों का सम्मान और प्राय: शान्ति, उत्तराभाद्रपदा नक्षत्रमें परिवेष हो तो जनतामें सहयोग, देशमें कलकारखानोंकी वृद्धि और शासनमें तरक्की एवं रेवती नक्षत्रमें परिवेष हो तो सर्वत्र शान्तिकी सूचना समझनी चाहिए। परिवेषके रंग, आकृति और मण्डलोंकी संख्याके अनुसार फलादेशमें न्यूनता या अधिकता हो जाती है। किसी भी नक्षत्र में एक मण्डलका परिवेष साधारणतः प्रतिपादित फलकी ही सूचना देता है, दो मण्डलका परिवेष निरूपित फल से प्राय: डेढ़ गुने फलकी सूचना, तीन मण्डलका परिवेष द्विगुणित फलकी सूचना, चार मण्डल का परिवेष त्रिगुणित फल की सूचना और पाँच मण्डल का परिवेष चौगुने की सूचना देता है। परिवेषमें पाँच से अधिक मण्डल नहीं होते हैं। साधारणत: एक मण्डलका परिवेष शुभ ही माना जाता है। मण्डलोंमें उनकी आकृति की स्पष्टताका भी विचार कर लेना उचित ही होगा। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता वर्षा और कृषि सम्बन्धी परिवेष का फलादेश—वर्षाका विचार प्रधान रूपसे चन्द्रमाके परिवेषसे किया जाता है और कृषि सम्बन्धी विचारके लिए सूर्य परिवेषका अवलम्बन लिया जाता है। यद्यपि दोनों ही परिवेष उभय प्रकारके फलकी सूचना देते हैं, फिर भी विशेष विचारके लिए पृथक परिवेषको ही लेना चाहिए। चन्द्रमाका परिवेष कपोत रंगका हो और उसमें अधिकसे अधिक दो मण्डल हों तो लगातार सातदिनों तक वर्षाकी सूचना समझनी चाहिए। इस प्रकारका परिवेष फसलकी उत्तमता की सूचना भी देता है। वर्षा ऋतुमें समय पर वर्षा होती है। आश्विन और कार्तिकमें भी वर्षा होनेसे धान्यकी उत्पत्ति अच्छी होती है। यदि उक्त प्रकारके परिवेषके समय चन्द्रमाका रंग श्वेतवर्ण हो तो माघ मास में भी वर्षा होने की सूचना समझ लेनी चाहिए कदाचित् चन्द्रमा का रंग नीला या काला दिखलाई पड़े तो निश्चयसे अच्छी वर्षा होनेकी सूचना समझनी चाहिए। कदाचित् चन्द्रमाका रंग नीला या काला दिखलाई पड़े तो निश्चयसे अच्छी वर्षा होनकी सूचना समझनी चाहिए। चन्द्रमाके नीले या काले होनेसे सुभिक्ष भी होता है। गेहूँ, धान और गुड़की फसल अच्छी उत्पन्न होती है। काले रंगके चन्द्रमाके होनेसे आश्विन मासमें वर्षाका दस दिनोंतक अवरोध रहता है, जिससे धानकी फसलमें कमी आती है। चन्द्रमा हरित वर्णका मालूम हो और परिवेष दो मण्डलोंके घेरेमें हो तो वर्षा सामान्य ही होती है, पर फसल अच्छी ही उत्पन्न होती है। चन्द्रमा जिस समय रोहिणी नक्षत्रके मध्यमें स्थित हो, उसी समय विचित्र वर्णका परिवेष रात्रिके मध्य भागमें दिखलाई पड़े तो इस प्रकारके परिवेषके द्वारा देशकी उन्नतिकी सूचना समझनी चाहिए। देशमें धन-धान्यकी उत्पत्ति प्रचुर रूपमें होती है, वर्षा भी समय पर होती है तथा देशमें सर्वत्र सुभिक्ष व्याप्त रहता है। चन्द्रमाका परिवेष रक्तवर्णका दिखलाई पड़े और चन्द्रमाका रंग श्वेत या कापोत तथा एक ही मण्डल वाला परिवेष हो तो वैर्षी आषाढ़ में नहीं होती, श्रावण, भाद्रपदमें अच्छी वर्षा और आश्विनमें वर्षाका अभाव ही रहता है। फसल भी उत्पन्न नहीं होती। यदि आषाढ़ मासमें चन्द्रमाका परिवेष सन्ध्या समय ही दिखलाई पड़े तो श्रावणमें धूप होती है, वर्षाका अभाव रहता है। आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदाको सन्ध्याकालमें चन्द्रमाका परिवेष दो मण्डलोंमें दिखलाई पड़े तो वर्षाका अभाव, एक मण्डलमें रक्तवर्णका परिवेष दिखलाई दे तो साधारण वर्षा, Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोऽध्यायः एक मण्डल में ही श्वेतवर्ण और हरित वर्ण मिश्रित परिवेष दिखलाई दे तो प्रचुर वर्षा, तीन मण्डल में परिवेष दिखलाई दे तो दुष्काल, वर्षा का अभाव और चार मण्डल में परिवेष दिखलाई पड़े तो फसल में कमी और दुर्भिक्ष, वर्षा ऋतु के चारों महीनों में अल्पवृष्टि और अन्न की कमी होती है। आषाढ़ कृष्ण द्वितीया को चन्द्रोदय होते हरित और रक्तवर्ण मिश्रित परिवेष दिखलाई पड़े तो पूरी वर्षा होती है। तृतीया को चन्द्रोदय के तीन घड़ी बाद यदि लाल वर्ण का एक मण्डलवाला परिवेष दिखलाई पड़े तो निश्चयतः अधिक वर्षा होती है। नदी-नाले जल से भर जाते हैं। श्रावण के महीनों में वर्षा की कुछ कमी रहती है, फिर भी फसल उत्तम होती है। यदि इसी तिथि को मध्य रात्रिके उपरान्त परिवेष दो मण्डलवाला दिखलाई पड़े तो वर्षाका अभाव, कृषिमें गड़बड़ी और सभी प्रकारकी फसलों में रोगादि लग जाते हैं। चतुर्थी तिथि को चन्द्रोदय के साथ ही परिवेष दिखलाई पड़े तो फसल उत्तम होती है और वर्षा भी समयानुकूल होती है, यदि इसी दिन चन्द्रोदय के चार-पाँच घड़ी उपरान्त परिवेष दिखलाई पड़े तो वर्षा का भादों मास में अभाव ही समझना चाहिए। उपर्युक्त प्रकारका परिवेष फसल के लिए भी अनिष्टकारक होता है। आषाढ़ कृष्ण पंचमी, षष्ठी और सप्तमी को चन्द्रास्त कालमें विचित्र वर्ण का परिवेष दिखलाई पड़े तो निश्चयत: अल्पवर्षा होती है। अष्टमी तिथि को चन्द्रोदय काल में ही परिवेष दिखलाई पड़े तो वर्षा प्रचुर परिमाण में तथा फसल उत्तम होती है। अष्टमीके उपरान्त कृष्ण पक्षकी अन्य तिथियों में अस्त या उदय काल में चन्द्रपरिवेष दिखलाई पड़े तो वर्षा की कमी ही समझनी चाहिए। फसल भी सामान्य ही होती है। आषाढ़ शुक्ला द्वितीयाको चन्दोदय होते ही परिवेष घेर ले तो अगले दिन नियमत: वर्षा होती है। इस परिवेषका फल तीन दिनों तक लगातार वर्षा होना भी है। आषाढ़ शुक्ला तृतीया को चन्द्रोदयके तीन घड़ी भीतर ही विचित्र वर्णका परिवेष चन्द्रमाको घेर ले तो नियमत: अगले पाँच दिनों तक तेज धूप पड़ती है, पश्चात् हल्की वर्षा होती है। आषाढ़ शुक्ला चतुर्थी को चन्द्रोदय काल में ही परिवेष रक्तवर्णका हो तो आषाढ़ मासमें सूखा पड़ता है और श्रावणमें वर्षा होती है। आषाढ़ी पूर्णिमाको लालवर्णका परिवेष दिखलाई पड़े तो यह सुभिक्षका सूचक है, इस वर्ष Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता वर्षा विशेष रूपसे होती है। फसल भी अच्छी होती है। अन्नका भाव भी सस्ता रहता है। श्रावण कृष्ण प्रतिपदाको पक्षमा सानिमें चन्द्रमाका परिवेष दिखलाई पड़े तो अगले आठ दिनोंमें वर्षाका अभाव समझना चाहिए। यदि यह परिवेष श्वेत वर्णका हो तो श्रावण भर वर्षा नहीं होती। कड़ाकेकी धूप पड़ती है, जिससे अनेक प्रकारकी बीमारियाँ भी फैलती हैं। उदयकालीन चन्द्रमाको श्रावण कृष्ण द्वितीयाके दिन परिवेष वेष्टित करे तो वर्षा अच्छी होती है। किन्तु गुर्जर, द्राविड़ और महाराष्ट्रमें वर्षाका अभाव सूचित होता है। वर्षा ऋतुमें ग्रहों और नक्षत्रोंकी जिस दिशामें परिवेष हो उस दिशामें वर्षा अधिक होती है, फसल भी अच्छी होती है। श्रावण कृष्णा सप्तमीको उदय कालमें चन्द्र परिवेष दिखलाई पड़े तो वर्षा सामान्यत: अल्प समझनी चाहिए। यदि प्रात:काल चन्द्रास्तके समय ही इस दिन परिवेष दिखलाई पड़े तो वर्षा अगले पाँच दिनोंमें खूब होती है। यदि त्रिकोण परिवेष श्रावण कृष्णा तृतीयाको दिखलाई पड़े तो वर्षाका अभाव, दुर्भिक्ष और उपद्रव समझना चाहिए। नक्षत्रोंका परिवेष भी होता है। श्रावणमासमें नक्षत्रोंका परिवेष हो तो वर्षाका अभाव उस देशमें अवगत करना चाहिए। यदि श्रावण मासकी किसी भी तिथिमें चन्द्र परिवेष चन्द्रोदय से लेकर चन्द्रस्त तक बना रहे तो श्रावण और भाद्रपद इन दोनों ही महीनोंमें वर्षाका अभाव रहता है। आश्विन मासमें किसी भी तिथिको चन्द्रोदय काल या चन्द्रास्त कालमें चक्रपरिवेष दिखलाई पड़े तो वह फसल के लिए अच्छाई की सूचना देता है। वर्षा कम होनेपर भी फसल अच्छी उत्पन्न होती है। ज्येष्ठ, वैशाख और चैत्र महीनेका परिवेष घोर दुर्भिक्ष की सूचना देता है। इन तीनों महीनोंमें चन्द्रादयकालमें या चन्द्रास्तकालमें परिवेष दिखलाई पड़े तो फसलके लिए अत्यन्त अनिष्टकारक समझना चाहिए। उक्त महीनोंकी प्रतिपदाविद्ध पूर्णिमाको परिवेष दिखलाई पड़े तो वर्षा के लिए उस वर्ष हा हाकार होता रहता है। बादल आकाशमें व्याप्त रहते हैं, पर वर्षा नहीं होती। तृण और घासकी भी कमी होती है जिससे पशुओंको भी कष्ट होता है। द्वितीयाविद्ध प्रतिपदाको परिवेष हो तो साधारण वर्षा होती है। द्वितीयाविद्ध पूर्णिमामें चन्द्रपरिवेष दिखलाई पड़े तो उस वर्ष निश्चयत: सूखा पड़ता है। कुंओंका पानी भी सूख जाता है। फसलका अभाव ही उस वर्ष रहता है।। सूर्य परिष का फल-यदि सूर्योदय काल में ही सूर्य परिवेष दिखलाई Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोऽध्यायः पड़े तो साधारणत: वर्षा होनेकी सूचना देता है। मध्याह्नमें परिवेष सूर्यको घेरकर मण्डलाकार हो जाय तो आगामी चार दिनोंमें घोर वर्षाकी सूचना देता है। इस प्रकारके परिवेषसे फसलभी अच्छी होती है। सूर्यके परिवेष द्वारा प्रधान रूपसे फसलका विचार किया जाता है। यदि किसी भी दिन सूर्योदयसे लेकर सूर्यास्त तक परिवेष बना रह जाय तो घोर दुर्भिक्षका सूचक समझना चाहिए। दिनभर परिवेषका बना रह जाना वर्षाका अवरोधन भी करता है तथा अनेक प्रकार की विपत्तियोंकी भी सूचना देता है। वर्षा ऋतुमें सूर्यका परिवेष प्रायः वर्षा सूचक समझा जाता है। वैशाख और ज्येष्ठ इन महीनोंमें यदि सूर्यका परिवेष दिखलाई पड़े तो निश्चयत: फसल की बर्बादी का सूचक होता है। उस वर्ष वर्षा भी नहीं होती और यदि वर्षा होती है तो इतनी अधिक और असामायिक होती है, जिससे फसल मारी जाती है। इन दोनों महीनोंका सूर्यका परिवेष मंगलावार, शनिवार और रविवार इन तीन दिनोंमें से किसी दिन हो तो संसार के लिए महान् भयकारक, उपद्रवसूचक और दुर्भिक्षकी सूचना समझनी चाहिए। सूर्यका परिवेष यदि आश्लेषा, विशाखा और भरणी इन नक्षत्रोंमें हो तथा सूर्य भी इन नक्षत्रों में से किसी एक पर स्थित हो तो इस परिवेष का फल फसलके लिए अत्यन्त अशुभसूचक होता है। अनेक प्रकारके उपाय करने पर भी फसल अच्छी नहीं हो पाती। नाना वर्णका परिवेष सूर्यमण्डलको अवरुद्ध करे अथवा अनेक टुकड़ोंमें विभक्त होकर सूर्यको आच्छादित करे तो उस वर्ष में वर्षाका अभाव एवं फसल की बर्बादी समझनी चाहिए। रक्त अथवा कृष्णवर्णका परिवेष उदय होते समय सूर्य को आच्छादित कर ले तो फसल का अभाव और वर्षा की कमी सूचित होती हैं। मध्याह्न में सूर्य को कृष्ण वर्ण का परिवेष आच्छादित करे तो दाल वाले अनाजों की उत्पत्ति अधिक तथा अन्य प्रकार के अन्य अनाज कम उत्पन्न होते है। मवेशी को कष्ट भी इस प्रकार के परिवेष से समझना चाहिए। यदि रक्तवर्णका परिवेष सूर्यको आच्छादित करे और सूर्यमण्डल श्वेतवर्णका हो जाय तो इस प्रकारका परिवेष श्रेष्ठ फसल होनेकी सूचना देता है। आषाढ़, श्रावण और भाद्रपद मासमें होनेवाले परिवेषोंका फलादेश विशेष रूपसे घटित होता है। यदि आषाढ़ शुक्ला प्रतिपदाको सन्ध्या समय सूर्यास्त कालमें परिवेष दिखलाई पड़े तो फसलका अभाव, प्रात: सूर्योदयकालमें परिवेष दिखलाई पड़े तो अच्छी फसल एवं Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० भद्रबाहु संहिता मध्याह्न समयमें परिवेष दिखलाई पड़े तो साधारण फसल उत्पन्न होती है। इस तिथिको सोमवार पड़े तो पूर्णफल, मंगलवार पड़े तो प्रतिपादित फल से कुछ अधिक फल, बुधवार हो तो अल्प फल, गुरुवार को तो पूर्णफल, शुक्रवार हो तो सामान्यफल एवं शनिवार हो तो अधिक फल ही प्राप्त होता है। यदि आषाढ़ शुक्ला द्वितीया तिथिको पीतवर्णका मण्डलाकार परिवेष सूर्य के चारों ओर दिखलाई पड़े तो समयपर वर्षा श्रेष्ठ फसलकी उत्पत्ति, मनुष्य और पशुओंको सब प्रकारसे आनन्दकी प्राप्ति होती है। इस तिथिको त्रिकोणाकार, चौकोर या अनेक कोणाकार टेढ़ा-मेढ़ा परिवेष दिखलाई पड़े तो फसल में बहुत कमी रहती है। वर्षा भी समय पर नहीं होती तथा अनेक प्रकारके रोग भी फसलमें लग जाते हैं। सूर्य मण्डलको दो या तीन वलयोंमें वेष्टित करनेवाला परिवेष मध्यम फलका सूचक है। आषाढ़ शुक्ला चतुर्थी या पंचमीको कृष्णवर्णका परिवेष सूर्यको चार घड़ी तक वेष्टित किये रहे तो आगामी ग्यारह दिनों तक सूखा पड़ता है, तेज धूप होती है, जिससे फसल के सभी पौधे सूख जाते हैं। इस प्रकारका परिवेष केवल बारह दिनों तक अपना फल देता है, इसके पश्चात् उसका फल क्षीण हो जाता है । आषाढ़ शुक्ला षष्ठी, अष्टमी और दशमीको सूर्योदय होते ही पीतवर्णका त्रिगुणाकार परिवेष चेष्टित करे तो उस वर्ष फसल अच्छी नहीं होती; वृत्ताकार आच्छादित करे तो फसल साधारणत: अच्छी; दीर्घ वृत्ताकार- -अण्डाकार या ढ़ोलकके आकार आच्छादित करे तो फसल बहुत अच्छी, चावलकी उत्पत्ति विशेष रूप में; चौकोर रूपमें आच्छादित करे तो तिलहनकी फसल और अन्य प्रकारकी फसलोंमें गड़बड़ी एवं पंच भुजाकार आच्छदित करे तो गन्ना, घी, मधु आदि की उत्पत्ति प्रचुर परिमाणमें तथा रूईकी फसल को विशेष क्षति होती है। दशमीको सूर्यास्त कालमें कृष्ण वर्णका परिवेष दिखलाई पड़े तो वर्षाका अभाव, फसलकी क्षति और पशुओंमें रोग फैलता है। षष्ठी और अष्टमीका फल जो उदयकालका है, वही अस्तकालका भी है। विशेषता इतनी ही है कि उक्त तिथियोंको अस्तकालीन परिवेष द्वारा प्रत्येक वस्तुकी उपज अवगत की जा सकती है। आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी और पूर्णिमाको दोपहरके पश्चात् सूर्यके चारों ओर परिवेष दिखलाई पड़े तो सुभिक्ष, -धान्य और तृणकी विशेष उत्पत्ति होती है। श्रावण मासका सूर्य परिवेष फसलके Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | चतुर्थोऽध्यायः । लिए हानिकारक माना गया है। भौमादि कोई ग्रह और सूर्य नक्षत्र यदि एक ही परिवेषमें हों तो तीन दिनमें वर्षा होती है। यदि शनि परिवेष मण्डलमें हो तो छोटे धान्यको नष्ट करता है और कृषकोंके लिए अत्यन्त अनिष्टकारी होता है, तीव्र पवन चलता है। श्रावणी पूर्णिमाको मेघाच्छन्न आकाशमें सूर्यका परिवेष दृष्टिगोचर हो तो अत्यन्त अनिष्टकारक होता है। भाद्रपद मासमें सूर्यके परिवेष का फल केवल कृष्णपक्षकी ३/६/७/१०/११ और १३ तथा शुक्ल पक्षमें २/५/७/८/१३/१४/१५ तिथियोंमें मिलता है। कृष्णपक्षमें परिवेष दिखलाई दे तो साधारण वर्षाकी सूचनाके साथ कृषिके जघन्य फलको सूचित करता है। विशेषत: कृष्णपक्षकी एकादशीको सूर्यपरिवेष दिखलाई पड़े तो नाना प्रकारके धान्यों की समृद्धि होती है, वर्षा समयपर होती है। अनाजका भाव भी सस्ता रहता है और जनतामें सुखशान्ति रहती है। शुक्लपक्षकी द्वितीया और पंचमी तिथिका परिवेष सूर्योदय या मध्याह्न कालमें दिखलाई पड़े तो साधारणतः फसल अच्छी और अपराह्न कालमें दिखलाई पड़े तो फसलमें कमी ही समझनी चाहिए। सप्तमी और अष्टमीको अपराह्नकाल में परिवेष दिखलाई पड़े तो वायुकी अधिकता समझनी चाहिए। वर्षा के साथ वायु का प्राबल्य रहने से वर्षा की कमी रह जाती है और फसल में भी न्यूनता रह जाती है। यदि चार कोनों वाला परिवेष इसी महीने में सूर्य के चारों ओर दिखलाई पड़े तो संसारमें अपकीर्तिके साथ फसलमें भी कमी रहती है। आश्विन मासका सूर्य परिवेष केवल फसलमें ही कमी नहीं करता, बल्कि इसका प्रभाव अनके व्यक्तियों पर भी पड़ता है। सूर्यका परिवेष यदि उदयकालमें हो और परिवेषके निकट बुध या शुक्र कोई ग्रह हो तो शुभ फसलकी सूचना समझनी चाहिए। रेवती, अश्विनी, भरणी, कृत्तिका और मृगशिरके नक्षत्र परिवेषकी परिधिमें आते हों तो पूर्णतया वर्षाका अभाव, धान्य की कमी, पशुओंको कष्ट एवं विश्वके समस्त प्राणियों को भय का संचार होता है। कार्तिक मासका परिवेष अत्यन्त अनिष्टकारी और माघ मासका परिवेष समस्त आगामी वर्षका फलादेश सूचित करता है। माघी पूर्णिमाको आकाशमें बादल छा जाने पर विचित्र वर्णका परिवेष सूर्यके चारों ओर वृत्ताकारमें दिखलाई पड़े तो पूर्णतया सुभिक्ष आगामी वर्षमें होता है। इस दिनका परिवेष प्राय: शुभ होता है। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | परिवेषों का राष्ट्र सम्बन्धी फलादेश–चन्द्रमाका परिवेष मंगल, शनि और रविवारको आश्लेषा, विशाखा, भरणी, ज्येष्ठा, मूल और शतभिषा नक्षत्रमें काले वर्णका दिखलाई पड़े तो राष्ट्रके लिए अत्यन्त अशुभ सूचक होता है। इस प्रकारके परिवेषका फल राष्ट्रमें उपद्रव, घरेलू कलह, महामारी और नेताओंमें मतभेद तथा झगड़ोंके होने से राष्ट्रकी क्षति आदि समझना चाहिए। तीन मण्डल और पाँच मण्डलका परिवेष सभी प्रकारसे राष्ट्रकी क्षति करता है। यदि अनेक वर्णवाला दण्डाकार चन्द्र परिवेष मर्दन करता हुआ दिखलाई पड़े तो राष्ट्रके लिए अशुभ समझना चाहिए। इस प्रकारके परिवेषसे राष्ट्रके निवासियोंमें आपसी कलह एवं किसी विशेष प्रकारकी विपत्तिकी सूचना मिलती है। जिन देशोंमें पारस्परिक व्यापारिक समझौते होते हैं, वे भी इस प्रकारके परिवेष से भंग हो जाते हैं अत: परराष्ट्रका भय और आतङ्क व्याप्त हो जाता है। आर्थिक क्षति भी देशकी होती है। देशमें चोर, डाकुओंका अधिक आतंक बढ़ता है और देश की व्यापाररिक स्थिति असन्तुलित हो जाती है। रात्रिमें शुक्लपक्षके दिनोंमें जब मेघाच्छन्न आकाश हो, उन दिनों पूर्व दिशाको ओर बढ़ता हुआ चन्द्रपरिवेष दिखलाई पड़े और इस परिवेषका दक्षिणका कोण अधिक बड़ा और उत्तरवाला कोण अधिक छोटा भी मालूम पड़े तो इस परिवेषका फल भी राष्ट्र के लिए घातक समझना चाहिए इस प्रकार के परिवेष से राष्ट्र की प्रतिष्ठा में भी कमी आती है। तथा राष्ट्रकी सम्पत्ति भी घटती हुई दिखलाई पड़ती है। अच्छे कार्य राष्ट्र हितके लिए नहीं हो पाते हैं, केवल ऐसे ही कार्य होते रहते हैं, जिनसे राष्ट्रमें महान अशान्ति होती है। राष्ट्रके किसी अच्छे कर्णधारकी मृत्यु होती है, जिससे राष्ट्रमें महान् अशान्ति छा जाती है। प्रशासकोंमें भी मतभेद होता है, देश के प्रमुख-प्रमुख शासक अपने-अपने अहंभावकी पुष्टिके लिए विरोध करते हैं, जिससे राष्ट्रमें अशान्ति होती है। मध्यरात्रिमें निरभ्र आकाशमें दक्षिण दिशाकी ओर से विचित्र वर्णका परिवेष उत्पन्न होकर चन्द्रमाको वेष्टित करे तथा इस मण्डलमें चन्द्रमाका उस दिनका नक्षत्र भी वेष्टित हो तो इस प्रकारका परिवेष राष्ट्र उत्थानका सूचक होता है। कलाकारोंके लिए यह परिवेष उन्नतिसूचक है। देशमें कल-कलकारखानोंकी उन्नति होती है। नदियोंपर पुल बाँधनेका कार्यं विशेष रूपसे होता है। धन-धान्यकी उत्पत्ति विपुल परिमाणमें होती है और राष्ट्रमें चारों ओर समृद्धि और शान्ति व्याप्त हो जाती है। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | चतुर्थोऽध्यायः । सूर्य परिवेष द्वारा भी राष्ट्रके भविष्यका विचार किया जाता है। चैत्र और वैशाखमें बिना बादलोंके आकाशमें सूर्य-परिवेष दिखलाई पड़े और यह कमसे कम डेढ़ घण्टेतक बना रहे तो राष्ट्रके लिए अत्यन्त अशुभकी सूचना देता है। इस परिवेषका फल तीन वर्षोंतक राष्ट्रको प्राप्त होता है। वर्षाका अभाव होने से तथा राष्ट्रके किसी हिस्सेमें अतिवृष्टिसे बाढ़, महामारी आदिका प्रकोप होता है। इस प्रकारका परिवेष राष्ट्रमें महान् उपद्रवका सूचक है। ऐसा परिवेष तभी दिखलाई पड़ेगा, जब देश के ऊपर महान् विपत्ति आयेगी। सिकन्दरके आक्रमणके समय भारतमें इस प्रकारका परिवेष देखा गया था। सूर्यके अस्तकालमें, जब नैर्ऋत्य दिशासे वायु बह रहा हो, इसी दिशासे वायुके साथ बढ़ता हुआ परिवेष सूर्यको आच्छादित कर ले तो राष्ट्रके लिए अत्यन्त शुभकारक होता है । देशमें धन-धान्यकी वृद्धि होती है। सभी निवासियोंको सुख-शान्ति मिलती है। अच्छे व्यक्तियोंका जन्म होता है। परराष्ट्रीसे सन्धियों होता हैं तथा राष्ट्रकी आर्थिक स्थिति दृढ़ होती है। देशमें कला-कौशलका प्रचार होता है नैतिकता, ईमानदारी और सच्चाईकी वृद्धि होती है। परिवेषोंका व्यापारिक फलादेश-रविवारको चन्द्र-परिवेष दिखलाई पड़े तो रूई, गुड़, कपास और चाँदीका भाव महँगा, तिल, तिलहन, घी और तेलका भाव सस्ता होता है। सोनेके भावमें अधिक घटा-बढ़ी रहती है, तथा अनाजका भाव सम दिखलाई पड़ता है। फल और तरकारियोंके भाव ऊँचे रहते हैं। रविवारके चन्द्रपरिवेषका फल अगले दिनसे ही आरम्भ हो जाता है और दो महीनों तक प्राप्त होता है। जूट, मशाले एवं रत्नोंकी कीमत घटती है तथा इन वस्तुओंके मूल्योंमें निरन्तर घटा-बढ़ी होती रहती है। उक्त दिन को सूर्य-परिवेष दिखलाई पड़े तो प्रत्येक वस्तुकी महँगाई होती है तथा विशेष रूपसे तृण, पशु, सोना, चाँदी और मशीनों के कल-पुर्जीके मूल्यमें वृद्धि होती है। व्यापारियोंके लिए रविवारका सूर्य और चन्द्र-परिवेष विशेष महत्त्वपूर्ण होता है। इस परिवेष द्वारा सभी प्रकारके छोटे-बड़े व्यापारी लाभान्वित होते हैं। ऊन एवं ऊनी वस्त्रोंके व्यापारमें विशेष लाभ होता है। इनका मूल्य स्थिर नहीं रहता, उत्तरोत्तर मूल्यमें वृद्धि होती जाती है। सोमवारको सुन्दर आकार वाला चन्द्र-परिवेष निरभ्र आकाशमें दिखलाई पड़े तो प्रत्येक प्रकारकी वस्तु सस्ती होती है। विशेष रूपसे घृत, दुग्ध, तेल, तिलहन और अन्नका मूल्य Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाह संहिता सस्ता हो जाता है। व्यापारिक दृष्टिसे इस प्रकार का परिवेष घाटे की ही सूचना देता है, सट्टेबाजोंको यह परिवेष विशेष हानिसूचक है। जो लोग चाँदी, सोने, रूई, सूत, कपास, जूट आदिका सट्टा करते हैं, उन्हें विशेष रूपसे घाटा लगता है। यदि इसी दिन सूर्य-परिवेष दिखलाई पड़े तो गेहूँ, गुड़, लाल वस्त्र, लाख, लाल रंग तथा लाल रंग की सभी वस्तुएँ महँगी होती हैं और इस प्रकारके परिवेषसे उक्त प्रकारकी वस्तुओंके खरीददारोंको दुगुना लाभ होता है। यह परिवेष व्यापारिक जगत्के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, सीमेन्ट, चूना, रंग, पत्थर आदिके व्यापारमें भी विशेष लाभकी सम्भावना रहती है। सोमवारको सूर्य परिवेष देखनेवाले व्यापारियोंको सभी प्रकारकी वस्तुओंमें लाभ होता है। ईंट, कोयला और अल्प प्रकारके इमारती सामानके मूल्यमें भी वृद्धि होती है। मंगलवारको चन्द्रपरिवेष दिखलाई पड़े तो लाल रंगकी वस्तुओंका मूल्य गिरता है और श्वेत रंगके पदार्थोंका मूल्य बढ़ता है। धातुओंके मूल्यमें प्राय: समता रहती है। सुवर्णके मूल्यमें परिवेषके एक महीने तक वृद्धि पश्चात् कमी होती है। चाँदीका मूल्य आरम्भमें गिरता है पश्चात् ऊँचा हो जाता है। श्वेत रंग का कपड़ा, सूत, कपास, रूई आदिका मूल्य तीन महीनों तक सस्ता होता रहता है। जवाहरातका मूल्य भी गिरता है। मंगलवारका चन्द्र-परिवेष तीन महीनों तक व्यापारिक स्थितिके क्षेत्रमें सस्ते भावों की सूचना ही देता है। यदि मंगलवारको ही सूर्य-परिवेष दिखलाई पड़े तो प्रत्येक वस्तु का मूल्य सवाया बढ़ जाता है, यह स्थिति आरम्भसे एक महीने तक रहती है पश्चात् सोना, चाँदी, जवाहरात, रूई, चीनी, गुड़ आदि वस्तुओंके मूल्यमें गिरावट आ जाती है और बाजारकी स्थिति बिगड़ने लगती है। मसाला, फल एवं मेवोंके मूल्यमें भी गिरावट आ जाती है। दो महीनोंके पश्चात् कपड़ा तथा श्वेत रंगकी अन्य वस्तुओंकी स्थिति सुधर जाती है। अनाजका भाव कुछ सस्ता होता है, पर कालान्तरमें उसमें महँगाई आ जाती है। यदि मंगलवारको पुष्य नक्षत्र हो और उस दिन सूर्य-परिवेष दिखलाई पड़ा हो तथा वह कमसे कम दो घण्टे तक बना रहा हो तो सभी प्रकारकी वस्तुओंके मूल्यमें वृद्धि होती है। व्यापारियोंके लिए यह परिवेष कई गुने लाभकी सूचना देती है। प्रत्येक वस्तु के व्यापारमें लाभ होता है। लगभग चार महीने तक इस प्रकारकी व्यापारिक स्थिति अवस्थित रहती है। उक्त प्रकार के परिवेषसे सट्टेके व्यापारियोंको अपने लिए घाटेकी ही सूचना समझनी चाहिए। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोऽध्यायः । बुधवारको चन्द्र-परिवेष स्वच्छ रूपमे दिखलाई पड़े और इस परिवेषकी स्थिति कम से कम आधे घण्टे तक रहे तो मसाला, तेल, घी, तिलहन, अनाज, सोना, चाँदी, रूई, जूट, वस्त्र, मेवा, फल, गुड़ आदिका मूल्य गिरता है और यह मूल्यकी गिरावट कमसे कम तीन महीनों तब बनी रहती है। केवल रेशमी वस्त्रका मूल्य बढ़ता है और इसके व्यापारियोंको अच्छा लाभ होता है यदि इसी दिन सूर्य-परिवेष दिखलाई पड़े और यह एक घण्टे तक स्थित रहे तो सभी प्रकारकी वस्तुओंके मूल्यकी स्थिरता का सूचक समझना चाहिए। बुधवारको सूर्य-परिवेष सूर्योदय काल में दिखलाई पड़े तो श्वेत, लाल और काले रंगकी वस्तुओंको भाव बढ़ते हैं। यदि परिवेष काल में आकाशका रंग गायकी आँखके समान हो जाय तो इस परिवेष का फल लाल रंग की वस्तुओंके व्यापारमें लाभ एवं अन्य रंगकी वस्तुओंके व्यापारमें हानिकी सूचना समझनी चाहि, इस प्रकारकी व्यापारिक स्थिति एक महीने तक ही रहती है। गुरुवारको चन्द्र-परिवेष चन्द्रोदयकाल या चन्द्रास्तकालमें दिखलाई पड़े तो तो इसका फल महर्घता होता है। रसादि पदार्थों में विशेषरूपसे महँगी आती है। औषधियोंके मूल्यमें भी वृद्धि होती है। घृत, तेल आदि स्निग्ध पदार्थोंका मूल्य अनुपाततः ही बढ़ता है। गुरुवारको सूर्य-परिवेष मण्डलाकारमें दिखलाई पड़े तो लाल, पीले और हरे रंगकी वस्तुएँ सस्ती होती हैं, अनाजका मूल्य भी घटता है। वस्त्र, चीनी, गुड़ आदि उपभोगकी वस्तुओंमें भी सामान्यत: कमी आती है। सट्टेबाजोंके लिए यह परिवेष अनिष्टसूचक है; अत: उन्हें हानि ही होती है, लाभ होने की सम्भावना बिल्कुल नहीं। यदि उक्त प्रकारका सूर्य-परिवेष दो घण्टेसे अधिक समय तक ठहर जाय तो पशुओंके व्यापारियोंको विशेष लाभ होता है। श्वेत रंगके सभी पदार्थ महँगे होते हैं और उपभोगकी वस्तुओंका मूल्य बढ़ता है। बाजारमें यह स्थिति चार महीनों तक रह सकती है। शुक्रवारको चन्द्र-परिवेष लाल या पीले रंगका दिखलाई पड़े तो दूसरे दिनसे ही सोना, पीतल आदि पीतवर्णकी धातुओंकी कीमत बढ़ जाती है। चाँदीके भावमें थोड़ी गिरावटके पश्चात् बढ़ती होती है। मसाला, फल और तरकारियोंके मूल्यमें वृद्धि होती है। हरे रंगकी सभी वस्तुएँ सस्ती होती हैं। पर तीन महीनोंके पश्चात् हरे रंगकी वस्तुओंके भावमें भी महँगी आ जाती है। रूई, कपास और सूतके व्यापारमें सामान्य लाभ होता है। काले रंगकी वस्तुओंमें अधिक Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता लाभकी सम्भावना है। यदि शुक्रवारको सूर्य-परिवेष दिखलाई पड़े तो आरम्भमें वस्तुओंके भाव तटस्थ रहते हैं, परन्तु औषधियों, विदेशसे आनेवाली वस्तुएँ और पशुओंकी कीमतमें वृद्धि हो जाती है। श्वेत रंगकी वस्तुओंका मूल्य सम रहता है, लाल और नीले रंगके सभी पदार्थोंका मूल्य बढ़ जाता है। शनिवारको चन्द्र-परिवेष दिखलाई पड़े तो काले रंगके सभी पदार्थ तीन महीनों तक सस्ते रहते हैं। लाल और श्वेत रंग के पदार्थ तीन महीनों तक महँगे रहते हैं। जवाहरात विशेषरूपसे महंगे होते हैं। सोना, चाँदी आदि खनिज पदार्थों के मूल्यमें असाधारणरूपसे वृद्धि होती है। यदि इमी दिन सूर्य-परिवेष दिखलाई पड़े तो सभी प्रकार की वस्तुओंके मूल्यमें वृद्धि होती है। विशेषरूपसे जूट, सीमेन्ट, कागज एवं विदेशसे आनेवाली वस्तुएँ अधिक महँगी होती हैं। चीनी, गुड़, शहद आदि मिष्ठ पदार्थोक मूल्य गिरते हैं। यदि उक्त प्रकारका सूर्यपरिवेष दिन भर रह जाय तो इसका फल व्यापारके लिए अत्यन्त लाभप्रद है। वस्तुओंके मूल्य चौगुने बढ़ जाते हैं और व्यापारियोंको अपरिमित लाभ होता है। बाजारमें यह स्थिति अधिक से अधिक पाँच महीनों तक रह सकती है। आरम्भके तीन माह विशेष महँगाईके और अवशेष दो महीने साधारण महँगाई के होते हैं। इति श्री पंचमश्रुतकेवली दिगम्बराचार्य भद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिताका परिवेषोंके लक्षण व फलोंका वर्णन करने वाला चतुर्थ अध्याय की हिन्दी भाषानुवाद क्षेमोदय टीका समाप्तः । (इति चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः) Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . : ... .. . " : . ... . : MA ॐR : SENA XMAP -799 : ..1SLIM PAGE ... RAYAN SIP पंचमो अध्यायः श्लोक २९ awra RATH CHESHARE :: 63641 4. STAASIK SANSA STER - ..-- . hers. पंचमो अध्यायः श्लोक २२ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्यायः श्लोक २१ पंचमो अध्यायः श्लोक २१ घसागर जी महाराज Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमोऽध्यायः विद्युतलक्षण अथातः संप्रवक्ष्यामि विद्युतां नामविस्तरम्। प्रशस्ता वाऽप्रशस्ता च यथा वदनुपूर्वतः॥१॥ (अथात:) अब मैं (विद्युतां) विद्युतों का (नामविस्तरम्) विस्तार पूर्वक नाम (संप्रवक्ष्यामि) कहूँगा, वो विद्युत (प्रशस्ता) प्रशस्त (वा) वा (च) और (अप्रशस्ता) अप्रशस्त होते हैं (यथा) जैसा (वद्नुपूर्वत:) पूर्व में परिवेषोंका स्वरूप कहा वैसा कहूँगा। भावार्थ-जैसे पहले उल्का और परिवेषों का स्वरूप व उनका फल कहा था उसी प्रकार अब मैं प्रशस्त और अप्रशस्त विद्युतों का भेद, स्वरूप, फलादि कहूँगा॥१॥ सौदामिनी च पूर्वा च कुसुमोत्पलनिभा शुभा। निरभ्रा निकेशी च क्षिप्रगा चाशनिस्तथा॥२॥ एतासां नाभिर्वर्षं ज्ञेयं कर्मनिरुक्तिता। भूयो व्यासेन वक्ष्यामि प्राणिनां पुण्यपापजाम् ॥३॥ (सौदामिनी) सौदामिनी (च) और (पूर्वा) पूर्वा बिजली (कुसुमोत्पलनिभा) कमलके पुष्पके समान प्रकाश वाली हो तो, (शुभा) शुभ है, (निरभ्रा) बादलों से रहित, (मिश्रकेशी) मिश्रकेशी (च) और (क्षिप्रगा) शीघ्रगमन करने वाली, (च) और (तथा) तथा (अशनि) बज्र के समान हो तो (एतासां) इतने नाम वाली हो तो, वर्षा लाने वाली है (कर्मनिरुक्तिता) इसकी निरुक्तिके द्वारा (ज्ञेयं) जान लेना चाहिये। (प्राणिनां) प्राणियों के (पुण्यपापजाम्) पुण्य और पाप से उत्पन्न होने वाली ऐसी बिजली को मैं (व्यासेन) विस्तारपूर्वक (वक्ष्यामि) कहूँगा। भावार्थ—जो प्राणियों के पुण्य और पाप से उत्पन्न होने वाली बिजली Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता का विस्तार पूर्वक उनका नाम, फलादिक का वर्णन करूँगा, सौदामिनी और पूर्वा बिजली शुभ है, निरभ्रा, मिश्रकेशी और क्षिप्रगा, याने शीघ्रगमन करने वाली, अशनि, वज्रके समान, इतने नामवाली बिजली को वर्षा भी कहते हैं और शीघ्र वर्षा को लाने वाली होती है ऐसा जानना चाहिये इन सबका स्वरूप अपनी-अपनी निरुक्ती के द्वारा जान लेना चाहिये ।। २-३।। स्निग्धा स्निग्धेषु चाभेषु विद्युत् प्राच्या जलावहा। कृष्णा तु कृष्ण मार्गस्थ वात वर्षावहा भवेत् ।। ४॥ (चाभ्रषु) यदि आकाशमें (विद्युत) बिजली (प्राच्या) पूर्वदिशा की ओर (स्निग्धा) स्निग्ध होकर चमकती है तो (स्निग्धेषु) उसको स्निग्ध कहते है और वो (जलावहा) वर्षा को बरसाने वाली होती है, (कृष्ण) काले बादलों के साथ (मार्गस्था) चलती हुई हो तो, उसको कृष्णा कहते है वह (वात) वायु के साथ (वर्षा) वर्षा को (वहा) लाने वाली (भवेत्) होती है। भावार्थ-यदि आकाश में स्निग्धा बिजली चमके और वो भी पूर्व दिशामें तो अच्छी वर्षा होगी, जब वृद्धि लाने वाली बिजलीको स्निग्धा कहते हैं। काले बादलों के साथ चमके तो कृष्णा बिजली कहते हैं और ऐसी बिजली अग्निकोण में चमके तो जोर से वायु चलेगी ऐसा समझना चाहिए ।। ४ ।। अथ रश्मिगतोऽस्निग्धा हरिता हरितप्रभा। दक्षिणा दक्षिणावर्ता कुर्यादुदक संभवम् ॥५॥ (अथ) अथ (रश्मिगतो) चमक से रहित बिजली (अस्निग्धा) अस्निग्धा कही जाती है जिसकी (हरितप्रभा) हरी प्रभा हो उसको (हरिता) हरिता कहते हैं (दक्षिणावर्ता) दक्षिण दिशा से चमकने वाली को (दक्षिणा) दक्षिणा कहते हैं (दुदक) वर्षा को (संभवम्) सम्भवत (कुर्याद) वर्षा करने वाली होती है। भावार्थ-चमक से रहित बिजली को अस्निग्धा कहते है, हरितप्रभा बिजली को हरिता कहते हैं इसकी प्रभा हरे रंग की होगी, और दक्षिण दिशामें चमकने वाली बिजली को दक्षिणा कहते है, ये बिजलियाँ शीघ्र ही वर्षा के आने की सूचना देती है समझो जल वृष्टि होगी॥५॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pata...34 ...! ... .. . . -AIR sh. ::: : 20-1- 23 पंचमो अध्यायः श्लोक ४ . . - . POL ::02-2 8 . 25.- .. :: . NE.'' :. . . .. . ToMe TOP ST I ... " Atline .NAMK BE : :.'.... -11112 . .... 58 HAMA AREKHAVGAMADHAAR. ... 4. पंचमो अध्यायः श्लोक ४ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचमोऽध्यायः रश्मिवती मेदिनी भाति विधुदपरदक्षिणे। हरिता भाति रोमाञ्चं सोदकं पातयेद् बहुम् ॥ ६॥ (मेदिनी) पृथ्वीको (रश्मेिवती) प्रकाशमान करती हुई (भाति) दिखे तो उसको रश्मिवती कहती है, (विधुदपरदक्षिणे) अगर विद्युत नैर्ऋत्य कोण में चमके (हरिता) हरे रंगके (भाति) समान चमके (रोमाञ्चं) और रोम सहित हो तो (बहुम्) बहुत (सोदकं) पानी (पातयेद्) गिरानेवाली होती है। भावार्थ-यदि विद्युत धरा को प्रकाशमान करती हुई दिखे तो उस बिजली को रश्मिवती कहती है नैर्ऋत्य कोण में चमकती हुई बिजली रोमाच लिये हुऐ हो तो उसको हरिता कहते है, इसका रंग हरा होगा, इस प्रकार बिजली चमकने का फल शीघ्र ही बहुत पानी की वर्षा होगी ऐसा समझना चाहिये॥६॥ अपरेण तु या विधुच्चरते चोत्तरामुखी। कृष्णाभ्रसंश्रिता स्निग्धा साऽपि कुर्याञ्जलागमम्॥७॥ (अपरेणतुया) जो पश्चिम दिशामें चमके (चोत्तरामुखी) और उत्तरामखी होकर (विद्युच्चरते) बिजली चमके (साऽपि) और भी (स्निग्धा) स्निग्ध होकर (कृष्णाभ्रसंश्रिता) काले बादलों से सहित हो तो (जलागमम्) जलके आगमनको (कुर्याद्) करने वाली होती है। भावार्थ-ये चार प्रकार की बिजली भी शीघ्र वर्षा होने की सूचना देती है, जैसे पश्चिम दिशामें चमके, उत्तराभिमुखी होकर चमके, हरिता हो और स्निग्धा हो, इस प्रकार की अगर बिजलियाँ चमकती हुई दिखलाई पड़े तो आप समझो पृथ्वी पर पानी ही पानी वर्षा के द्वारा होने वाला है।॥७॥ अपरोत्तरा तु या विद्युन्मन्द तोया हि सा स्मृता। उदीच्या सर्व वर्णस्था रूक्षा तु सा तु वर्षति॥८॥ (या) जो (विद्युन्) बिजली (अपरोत्तरा तु) वायव्य कोण हो तो (मन्द तोया हि) थोड़ी वर्षा करेगी (सा स्मृता) ऐसा याद रखना चाहिये। (उदीच्या) उत्तर दिशा में चमकने वाली बिजली (सर्व वर्णस्था) चाहे कि सभी रंग की हो (रूक्षा तु) रूक्ष भी हो तो भी (सा तु वर्षति) वह वर्षा लायेगी ही लायेगी। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १०० भावार्थ-यदि बिजली वायव्य कोण में चमके तो स्मरण रखो थोड़ी वर्षा होगी, उत्तर में चमकने वाली बिजली चाहे किसी भी वर्ण की क्यों न हो चाहे रूक्ष भी हो तो भी अदा नृष्टि कोगी ही करेगी।॥ ८ या तु पूर्वोत्तराविद्युत् दक्षिणा च पलायते। चरत्यूर्वं च तिर्यंस्था साऽपि श्वेताजलावहा॥९॥ (या तु) जो (विद्युत) बिजली (पूर्वोत्तरा) ईशान कोण में (दक्षिणा च) दक्षिण में (चरत्यूचं) उर्द्धहोकर (तिर्यकस्था) तिरछी बहती हुई (फ्लायते) भागती है तो (साऽपि) वो भी (श्वेता) सफेद रंगकी हो तो (जलावहा) जल वर्षा करने वाली होती है। भावार्थ-जो बिजली ईशान कोण से चमकती हुई दक्षिण दिशामें ऊपर होकर तिरच्छी बहती हई भागती है और वो भी सफेद रंग की हो तो, अवश्य ही जल वर्षा करने वाली होती है।। ९ ।। तथैवोर्ध्वमधो वाऽपि स्निग्धा रश्मिमती भृशम् । सघोषा चाप्य घोषा वा दिक्षु सर्वासु वर्षति ।।१०।। (तथैव) उसी प्रकार (ऊर्ध्व) ऊपर (मधो) नीचे जाने वाली, (वाऽपि) और भी (स्निग्धा) स्निग्ध (रश्मिमती) बहुत रश्मि वाली (भृशम्) जानो (सघोषा) शब्द करने वाली (चाप्य) और (घोषा वा) शब्द नहीं करने वाली बिजली चमके तो . (सर्वासु) सब (दिक्षु) दिशाओंमें (वर्षति) वर्षा होती है। भावार्थ-यदि बिजली उर्द्ध व नीचे होती हुई स्निग्ध दिखे और बहुत रश्मि वाली हो कड-कड़ शब्द करती हुई हो तो और शब्द नहीं भी करती हो तो समझो सब दिशाओंमें वर्षा करने वाली होती है।।१०।। शिशिरे चापि वर्षन्ति रक्ताः पीताश्च विद्युतः। नीला: श्वेता वसन्तेषु न वर्षन्ति कथञ्चन ॥११॥ यदि (विद्युतः) बिजली (शिशिरे) शिशिर ऋतु में (रक्ताः) लाल, (पीताश्च) पीले रंग की हो तो, (वर्षन्ति) वर्षा करती है (कथञ्चन) कथञ्चन (वसन्तेषु) Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐA SATAR RSSHRAM BHARAT सुविधिसागर जी महाराज --- - .....१६१ पंचमो अध्यायः श्लोक ६ Magar ... पंचमो अध्यायः श्लोक ७ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . ...... . .... ........... .. .. ......... .... . . .. .. ........ .... . .. . ssa SES . .. E ... " E R .... .. . . .. ... . .. .. अBOSS SEASE RAN *TERT SINGER WARNEPAL . . ... .... पंचमो अध्यायः श्लोक ७ स 8 1555 ... .:..388 : . SMS ....... .: : BAR NS IRE - /... 2 - SANSAR HAREP HAR . 3 ." . .. " १. - 14 (02 - - ... ६. : - .. . RE . .. .. .. ''- -- -: 1 . - .-." : . .: . PRES P : ....." ..... .. . ...... * * * .. :: . MARTHERE i... it.. ..... RANAPANEE ... . . . .. । " Th: ... .! . .. L ... .. .. EENA ETENT. - MA ..AMA AATM " : . . ARSHANRARENESo it.. ' : SENTENCE . HRSS8ER PRAH A RAJASTHANI R पंचमो अध्यायः श्लोक Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : :: .... : ........... : ..... . . :: .... । .. 27 . . : . : . ... ....... S RRY . :.... . ....* | - १७* * . ... . Title":"! . . X STE -23 HS FIR । .. R .:: HESA पंचमो अध्यायः श्लोक ९ YRICS ' AATEENAAMIRI -01-358 Ha HWARA R ... 2 - 3 -- S : *** -- .....:' ----- पंचमो अध्यायः श्लोक १० Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. * ..." POST मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सागर जी महाराज, कार . . ..... .. - act . -".- - . .. - F "... ..... . पंचमो अध्यायः श्लोक ११ 3.:..:..---:*.. .. . .. .. .. ........ . . ... . . . .. :. : - -17--1.."" .. .. SSSTER : .. PRERA PRESENS -12 .. . .. . . . . . .. ........ ... . .. ...... .. . .. .. .. .... .....*०-12--01 ----------22:- R .. .... -- -- - - .... . . ."BAR . EP E FERENA T H EME - ... . .... .. . ..: 25 ". . '.. . श JKSSBAN . ... ... . .. .. 23 -01-1 - . ८..":...... . .... .. . Hom. पंचमो अध्यायः श्लोक ११ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमोऽध्यायः वसन्त ऋतुमें, (नीला:) नीली हो, (श्वेता) सफेद हो तो (न) नहीं (वर्षन्ति) वर्षा होती है। भावार्थ-बिजली शिशिर ऋतु में याने माघ, फाल्गुन में नीले रंग की व पीले रंग की हो तो समझो वर्षा अच्छी होगी और वसन्त ऋतु, याने चैत्र, वैशाख में नीले रंग की अथवा सफेद रंग की होकर चमके तो समझो वर्षा नहीं बरसेगी ॥११॥ हरिता नामाच नीगो रूक्षाश्च निश्चलाः। भवन्ति ताम्न गौराश्च वर्षास्वपि निरोधिकाः॥१२॥ (ग्रीष्मे) ग्रीष्मकाल में यदि बिजली, (हरिता) हरे रंग की (श्च) और (मधुवर्णा) मधु के वर्णकी हो (रक्षा) रूण हो (श्च) और निश्चल हो और भी (ताम्र) तांबे के रंग की हो, (गौरा) गौर वर्णकी (भवन्ति) होती है तो (वर्षास्वपि) वह वर्षा को (निरोधिका:) निरोधक होती है। भावार्थ-यदि बिजली ग्रीष्मकाल में याने ज्येष्ठ और आषाढ़ में हरे रंग की अथवा मधु के वर्ण की होकर रूक्ष हो, निश्चल हो और भी ताम्रवर्ण की अथवा गौर वर्ण की होती है तो समझो यह बिजली वर्षा की निरोधक होती है वर्षा नहीं आएगी इसी प्रकार वर्षा ऋतु में भी समझना चाहिये श्रावण या भाद्रपद में।।१२।। शारद्यो नाभि वर्षन्ति नीला वर्षाश्चविद्युतः। हेमन्ते श्याम ताम्रास्तु ताडितो निर्जलाः स्मृताः ।।१३।। (नीला) नीले रंगकी (विद्युतः) बिजली (शारद्यो) शरद ऋतुमें हो तो (नाभि वर्षन्ति) वर्षा नहीं होती है (श्च) और (हेमन्ते) हेमन्त ऋतु में (श्याम) काले रंगकी (ताम्रास्तु) ताँबे के रंग की (तडितो) बिजली चमके तो (निर्जलास्मृता) स्मरण रखो वर्षा नहीं होगी। भावार्थ-बिजली यदि शरद् ऋतुमें याने आश्विन, कार्तिक में नीले रंग की होकर चमके तो वर्षा नहीं बरसेगी, और हेमन्त ऋतु में याने मार्गशीर्ष और पौषमें काले रंग की या ताम्रके रंग की होकर चमके तो भी समझो वर्षा नहीं होगी ये बिजलियाँ वर्षा की निरोधक हैं॥१३॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता रक्तारक्तेषु चाभ्रेषु हरिताहरितेषु च।। नीलानीलेषु वा स्निग्धा वर्षन्तेऽनिष्टयोनिषु ॥१४॥ (रक्तारक्तेषु) लाल या अलाल (हरिताहरितेषु) हरी या अहरी (च) और (नीलानीलेषु) नीली या अनीली (नाशेषु, नाटलोंमें गदि लिलली (स्निग्धा) स्निग्ध होकर चमके तो (अनिष्ट) अनिष्ट (योनिषु) योग होने पर भी (वर्षन्ते) वर्षा होती है। __ भावार्थ-लाल या अलाल, हरित या अहरित, नीले या अनीले रंग के बादलों में स्निग्ध होकर यदि बिजली चमके तो समझो अनिष्ट कारक होने पर भी वर्षा अवश्य होगी, याने वर्षा भी होगी और अनिष्ट भी होगा। दोनों की सूचक यह बिजली है।। १४ ॥ अथ नीलाच पीताश्च रक्ताः श्वेताश्च विद्युतः। एतां श्वेतां पतत्यूध्व विधुदुदकसंप्लवम्।।१५।। (अथ) अथ (नीलाश्च) नीले रंगकी, (पीताश्च) पीले रंग की (रक्ता:) लाल रंग (श्वेताश्च) सफेद रंग की (विद्युतः) बिजली होती है (एता) इसमें (विधुद) बिजली (पतन्यूज़) आकाश में गिरे तो (उदकसंप्लवम्) पानी से पृथ्वी भर जाती भावार्थ-अथ बिजली नीले रंग की, पीले रंग की लाल रंग की और सफेद रंग की होती है इन सबमें यदि सफेद रंग की बिजली आकाश से नीचे गिरे तो याने ऊपर चमके तो समझो बहुत जोर से पानी बरसेगा, इतना बरसेगा की पृथ्वी पर पानी ही पानी हो जायेगा॥१५॥ वैश्वानर पथे विद्युत् श्वेता रूक्षा चरेद् यतः। विन्द्यात् तदाऽशनि वर्ष रक्तायामग्नितो भयम्॥ १६ ॥ (वैश्वानरपथे) अग्निकोण में (विद्युत) बिजली (श्वेता) सफेद रंगकी होकर (रूक्षा) रूक्ष रूप (चरेद्यत:) आचरण करे तो (तदाऽशनिवर्ष) तब अशनि की वर्षा (विन्ध्यात) जानो और (रक्तायाम्) लालरंगकी हो तो (अग्नितो) अग्निका (भयम्) भय होगा। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...".::" : 00A M-1. . .' . ...... . #. ' . .. ६...: 5.... Paye 945 RA .:.::.. "पागदकि:- मापा AATREAM ESTIONS STRESex SHARE पंधमो अध्यापः श्लोक १२ पंचमो अध्यायः श्लोक १२ . 'PER ... 38 ... SMARRIVARENA ' .. . .. RA SAHARANSAR RAMPARAN Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो अER..क [ .६ . पंचमो अध्यायः प्रलोक १३ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - RASH 13.. .' '.. ' KAR Brgu0930 SOME ":२० औचार्य श्री विधिसागर महाराज E : N 455 : :. dawa पंचमो अध्यायः श्लोक १५ . .. MYHAI GASCINAL .. . ::.... ... . .. पंचमो अध्यायः श्लोक १६ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमोऽध्यायः भावार्थ—यदि बिजली सफेद या रूक्ष होकर अग्नि कोण में चमके तो समझो अशनि वर्षा की सूचक है अगर लाल वर्ण की हो तो अवश्य हो अग्नि भय उत्पन्न होगा, ये दोनों ही हानिकार की बिजली अनिष्टकारक है अग्नि भय उत्पन्न करेगी।। १६ ।। यदाश्वेताऽभ्रवृक्षस्य विद्युच्छिरसि संचरेत। अथवा गृहयोर्मध्ये वात वर्ष सृजेन्महत्॥१७॥ (श्वेता) यदि सफेद (विद्युत) बिजली (अभ्रवृक्षस्य) आकाश वृक्ष को (छिरसि) चिरती हुई (संचरेत) गिरे तो, (महत) महान् (वात) वायु (वर्ष) और वर्षा (सृजेन्) का सृजन करती है। भावार्थ—यदि सफेद रंग की बिजली आकाश से वृक्षों को चिरती हुई गिरे और दो ग्रहों के मध्य गिरे तो समझो बहुत तो वायु चलेगी और उसके साथ वर्षा भी बहुत होगी ।। १७॥ अथ चन्द्राद् विनिष्क्रम्य विद्युन्मंडलसंस्थिता। श्वेताऽऽभा प्रविशेदक विन्द्यादुदकसंप्लवम् ॥१८॥ (अथ) अथ (चन्द्राद्) चन्द्रमा के अन्दर (विनिष्क्रम्य) निकल करके (विद्युत) बिजली (श्वेताऽऽभा) सफेद आभा वाली होकर (प्रविशेदक) (मंडल) मण्डल में (संस्थिता) स्थित हो जाती है तो (उदकसंप्लवम्) पृथ्वी पानी से संप्लव हो जायगी। __ भावार्थ-यदि बिजली श्वेत बादलों से निकल कर चन्द्र मण्डल में प्रवेश करती हुई सूर्य मण्डल में स्थित हो जावे तो समझो पृथ्वी पर पानी ही पानी बरस जायेगा। याने घोर वर्षा की सूचक ये बिजली है॥१८॥ अथ सूर्याद् विनिष्क्रम्य रक्ता समलिना भवेत् । प्रविश्य सोमं वा तस्य तत्र वृष्टिर्भयङ्करा ॥१९॥ (अथ) अथ (सूर्याद) सूर्य मण्डलसे (विनिष्क्रम्य) निकलकर बिजली (रक्ता) लाल वर्णकी (समलिना) वो भी मलिन (भवेत्) होती है और (सोमं वा) चन्द्रमण्डलमें (प्रविश्य) प्रवेश करे तो (तस्य) उस जगह (तत्र) वहाँ पर (वृष्टिर्भयंकरा) भयंकर वृष्टि होगी। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १०४ भावार्थ-अथ सूर्य मण्डल से निकल कर बिजली लाल वर्ण की होती हुई मलिन दिखे फिर चन्द्र मण्डल में प्रवेश करती हुई दिखलाई दे तो समझो वहाँ पर भयंकर वर्षा होगी ।। १९॥ विद्युतं तु यथा विद्युत् ताडयेत् प्रविशेद् यदा। अन्योऽन्यं वा लिखेयातां वर्ष विन्द्यात् तदाऽशुभम् ॥२०॥ (विद्युतं तु) विद्युत ही (यथा विद्युत) विद्युत को (ताडयेत्) ताडित करे और (यदा) जब (अन्योऽन्यं) एक-दूसरेमें (प्रविशेद) प्रवेश करती हुई (वा लिखेयातां) दिखे तो (विद्यात्) समझो (तदाऽशुभम्) वहाँ पर शुभ और वर्षा होगी। भावार्थ--अगर बिजली ही बिजली को ताड़ित करता हुई एक-दूसरे में प्रवेश करती हुई दिखाई दे तो समझो वहाँ पर वर्षा होगी, शुभ होगा ॥२०॥ राहुणां संवृतं चंद्रमादित्यं चापि सर्वतः। कुर्यात् विद्युत यदा सा भ्रा तदा सस्यं न रोहति ।। २१॥ (राहणा) राहु के द्वारा (चंद्रम्) चन्द्रमा को (आदित्यं) केतु के द्वारा (आदित्यं) सूर्य को (यदा) जब (विद्युत) बिजली (संवृत) संवृत करे (साभ्रा) आकाश बादलों में तो (तदा) तब (सस्य) धान्य (न) नहीं (रोहति) उगते है। भावार्थ-यदि बादलों में बिजली राहु के द्वारा चन्द्र को केतु के द्वारा सूर्य को आच्छादित करती हुई चमके तो समझो उस देश के खेतों में धान्य उत्पन्न नहीं होगा, याने वहाँ पर वर्षा नहीं होगी तो धान्य कहाँ से उगेगा॥२१॥ नीला ताम्रा च गौरा च श्वेता चाऽभ्रान्तरं चरेत् । सघोषा मन्दघोषा वा विन्द्यादुदकसंप्लवम् ।। २२ ।। (नीला) नीले रंग के (ताम्रा) ताँबे के रंग के (गौरा) गौर वर्ण के (च) और (श्वेता) सफेद रंग के (चाऽभ्रान्तरं) बादलों में बिजली (सघोषा) शब्द करती हुई (मन्दघोषा वा) व कम शब्द करती हुई चमके तो (विन्द्याद्) जानो (उदकसंप्लवम्) वर्षा अच्छी होगी। भावार्थ-नीले रंग के बादल व ताम्र रंग के बादल व गौर वर्ण के बादल Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- - - मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज . - - --- पंचमो अध्याय: श्लोक १७ TOPIXE20 ONA . . ... A .. पंचमो अध्यायः श्लोक १८ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAAW -- . पंसमो अध्यायः श्लोक १९ - " SOSIA SHARESSES SMANEERINE पंचमो अध्यायः श्लोक २० Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ पंचमोऽध्याय: अथवा सफेद रंग के बादलों में से बिजली शब्द करती हुई अथवा थोड़ी गर्जती हुई दिखे तो समझो अवश्य वर्षा होगी॥२२॥ मध्यमे मध्यम वर्ष अधमे अधम दिशेत् । उत्तमं चोत्तमे मार्गे चरन्तीनां च विद्युताम् ।।२३।। आकाश के (मध्यमें) मध्यमे चमके तो (मध्यम) मध्यम (वर्ष) वर्षा होती है और (अधमे) जघन्य मार्ग से चमके तो (अधमं) जघन्य वर्षा को (दिशेत्) दिखाती है यदि (विद्युताम्) बिजली (उत्तम) उत्तम (मार्गे) मार्ग से चमके तो (चोत्तमे) वह उत्तम वर्षा (चरन्तीनां) करती है आचरती है। भावार्थ-यदि बिजली आकाश मार्ग में मध्यम चमके तो मध्यम वर्षा होती है, जघन्य दिखे तो जघन्य वर्षा होती है, उत्तम रूप से चमके तो उत्तम रीति से वर्षा होती है ऐसा जानना चाहिये । २३ । वीथ्यन्तरेषु या विधुच्चरतामफलं विदुः । आभीक्ष्णं दर्शयेच्चापि तत्र दूरगतं फलम् ॥ २४॥ (या) जो (विधु च) बिजली (वीथ्यन्तरेषु) चन्द्रमा की विथि के अन्दर में (चरताम्) चमकती है तो (अफलं विदु:) उसका कोई फल नहीं होता है, (अभीक्ष्णं) बार-बार (दर्शयेच्चापि) दिखाई पड़े तो (तत्र) उसका (दूरगतं फलम्) दूर जाकर फल होगा। भावार्थ----जो बिजली चन्द्रमा की वीथी के अन्दर चमकती हुई दिखे तो समझो उसका कोई फल नहीं होगा और जो बार-बार भी चमकती है तो उसका फल दूर जाकर मिलेगा याने कुछ समय बाद होगा॥२४॥ उल्कावत् साधनं ज्ञेयं विधुतामपि तत्त्वतः । अथाभ्राणां प्रवक्ष्यामि लक्षणं तन्निबोधत ।। २५।। (उल्कावत्) उल्काओं के (साधनं) समान ही (विद्युतामपि) बिजली का (तत्त्वत:) ज्ञान (ज्ञेयं) जानना चाहिये। (अथ) अब (अभ्राणां) बादलों का (लक्षणं) लक्षण को (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा (तन्निबोधत) उसको जानो। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता । भावार्थ-उल्काओं के समान ही बिजलियों का ज्ञान है अब बादलों का लक्षण उनका ज्ञान कराने के लिये मैं आपको कहूँगा आप अच्छी तरह से बादलों का ज्ञान करों॥२५॥ विशेष—अब आचार्य बिजली के लक्षण व फल का निरूपण करते है, जो आकाश में मेघ पटलों के बीच में चमकती है अन्धेरे में उसके चमकने पर एक क्षण के सिर उजाला ही जाला हो जाता है, इसका नाम विद्युत है, यह बड़ी चंचल होती एक क्षण में कहाँ चमकती है तो एक क्षण में कहाँ, निर्मल आकाश में यह बिजली नहीं चमकती है, चारों दिशाओं में ये बिजली चमकती है प्रत्येक दिशा का फल अलग-अलग होता है, बिजली के चमकते समय अति निकट चमकती है तो शीघ्र फल अति दूर चमकती है तो देर से फल होता है इस विद्युत के कई नाम आचार्य कहते है इसके वर्ण भी काले, नीले, लाल, सफेद, पीले आदि होते है वर्गों के अनुसार इसका फल भी अवगत करना चाहिये। इसके आचार्य श्री, सौदामिनी, पूर्वा, निरभ्रा, मिश्रकेशी, क्षिप्रगा, अशनि, कृष्णा, स्निग्धा, अस्निग्धा आदि भेद है। इस प्रकार से बिजली के चमकने पर वर्षा का ज्ञान होता है बिजली कहाँ चमक रही है किस दिशा में चमक रही है किस वर्ण की चमक रही है स्निग्ध है या रूक्ष है, ऋतुओं के अनुसार विद्युत चमकने का अलग फल हो जाता है, यह बिजली सौम्य भी होती है और क्रूर भी होती है भयंकर रूप होकर जहाँ पर गिर पड़ती है वहाँ विनाश हो जाता है मकानों पर गिरे तो मकान गिर पड़े, पेड़ों पर गिरे तो पेड नष्ट हो जावे किसी व्यक्ति के ऊपर गिरे तो उसके प्राण हरण कर लेवे, शान्त और सौम्य बिजली चमके शुभ हो तो वह सुभिक्ष, सुवर्षा और शुभ की सूचक होती है, सर्वत्र वर्षा अच्छी होती है धान्य अच्छा पकता है, नदी नाले जोर से बहने लगते हैं कुप, तालाब, बावड़ी, सरोवर आदि भर जाते हैं, इससे राष्ट्र के लिये भी शुभाशुभ मालूम पड़ता है। डॉ. नेमीचन्द्र आरा का मन्तव्य विवेचन—बिजली के निमित्तों द्वारा प्रधानत: वर्षाका विचार किया जाता है। रात्रिमें चमकनेसे वर्षाके सम्बन्धमें शुभाशुभ अवगत करनेके साथ फसलका भविष्य भी ज्ञात किया जा सकता है। जब आकाशमें घने बादल छाये हुए हों, उस समय पूर्व दिशामें बिजली कड़के और इसका रंग श्वेत या पीत हो तो निश्चयतः वर्षा Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ पंचमोऽध्यायः होती है। यह फल बिजली कड़कने के दूसरे दिन ही प्राप्त होता है। विशेषता यहाँ यह भी है कि यह फलादेश उसी स्थान पर प्राप्त होता है, जिस स्थान पर बिजली चमकती है। इस बातका सदा ध्यान रखना होता है कि बिजली चमकने का फल तत्काल और तद्देशमें प्राप्त होता है । अत्यन्त इष्ट या अनिष्टसूचक यह निमित्त नहीं है और न इस निमित्त द्वारा वर्ष भरका फलादेश ही निकाला जा सकता है । सामान्यरूपसे दो-चार दिन या अधिकसे अधिक दस-पन्द्रह दिनोंका फलादेश निकालना ही इस निमित्तका उद्देश्य है। जब पूर्वदिशामें रक्तवर्णकी बिजली जोर-जोरसे कड़क कर चमके तो वायु चलती है तथा अल्प वर्षा होती है। मन्द मन्द चमकके साथ जोर-जोर से कड़कने पर शब्द सुनाई दे तथा एकाएक आकाशसे बादल हट जावे तो अच्छी वर्षा होती है और साथ ही ओले भी बरसते हैं। पूर्व दिशामें केशरिया रंग की बिजली तेज प्रकाश के साथ चमके तो अगले दिन तेज धूप पड़ती है, पश्चात् मध्याह्नोत्तर जलकी वर्षा होती है। जल भी इतना अधिक बरसता है, जिसे पृथ्वी जलमयी दिखाई पड़ती है। यदि पश्चिम दिशामें साधारण रूपसे मध्य रात्रिमें बिजली चमके तो तेज धूप पड़ती है। स्निग्ध विद्युत् पश्चिम दिशामें कड़ाके के शब्दके साथ चमके यहाँ इतनी बात और अवगत करनी चाहिए कि जलकी वर्षा के साथ तूफान भी रहता है। अनेक वृक्ष धराशायी हो जाते हैं, पशु और पक्षियोंको अनेक प्रकारके कष्ट होते हैं। जिस समय आकाश काले-काले बादलोंसे आच्छादित हो, चारों ओर अन्धकार-ही-अन्धकार हो, उस समय नील प्रकाश करती हुई बिजली चमके, साथ ही भयंकर जोरका शब्द भी हो तो अगले दिन तीव्र बायु बहनेकी सूचना समझनी चाहिए। वर्षा तीन दिनोंके बाद होती है यह भी इसी निमित्तका फलादेश है। फसल के लिए इस प्रकार की बिजली विनाशकारी ही मानी गई है। पश्चिम दिशासे निकलकर विचित्रवर्ण की बिजली चारों ओर घूमती हुई चमके तो अगले तीन दिनोंमें वर्षा होने की सूचना अवगत करनी चाहिए। इस प्रकारकी बिजली फसल को भी समृद्धिशाली बनाने वाली होती है। गेहूँ, जौ, धान और ईख की वृद्धि विशेष रूपसे होती है। पश्चिम दिशामें रक्तवर्णकी प्रभावशाली बिजली मन्द मन्द शब्दके साथ उत्तरकी ओर गमन करती हुई दिखलाई पड़े तो अगले दिन तेज हवा चलती है और कड़ाके की धूप पड़ती है। इस प्रकारकी बिजली दो दिनों में वर्षा होनेकी सूचना देती है। जिस बिजलीमें रश्मियाँ निकलती हों, ऐसी बिजली पश्चिम Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ भद्रबाहु संहिता दिशा में गड़गड़ाहट के साथ चमके तो निश्चयतः अगले तीन दिनों तक वर्षा का अवरोध होता है। आकाशमें बादल छाये रहते हैं, फिर भी जल की वर्षा नहीं होती । कृष्णवर्णक बादलोंमें पश्चिम दिशासे पीतवर्णकी विद्युत् धारा प्रवाहित हो और यह अपने तेज प्रकाशके द्वारा आँखोंमें चकाचौंध उत्पन्न कर दे तो वर्षाकी कमी समझनी चाहिए। वायुके साथ बूँदा-बूंदी होकर ही रह जाती है। धूप भी इतनी तेज पड़ती है, जिससे इस बूँदा- बूँदीका भी कुछ प्रभाव नहीं होता। पश्चिमसे बिजली निकल कर पूर्वकी ओर जाय तो प्रातः काल कुछ वर्षा होती है और इस वर्षाका जल फसलके लिए अत्यन्त लाभप्रद सिद्ध होता है। फसलके लिए इस प्रकार की बिजली उत्तम समझी गई है। उत्तर दिशामें बिजली चमके तो नियमतः वर्षा होती है । उत्तरमें जोर-जोरसे कड़कके साथ बिजली चमके और आकाश मेघाच्छन्न हो तो प्रातः काल घनघोर वर्षा होती है। जब आकाशमें नीलवर्णके बादल छाये हों और इनमें पीतवर्णकी बिजली चमकती हो तो साधारण वर्षाके साथ वायुका भी प्रकोप समझना चाहिए। जब उत्तरमें केवल मन्द मन्द शब्द करती हुई बिजली कड़कती है, उस समय वायु चलनेके की सूचना समझनी चाहिए। हरे और पीले रंगके बादल आकाशमें हों तथा उत्तर दिशामें रह-रहकर बार-बार बिजली चमकती हो तो जल वर्षाका योग विशेषरूप से समझना चाहिए। यह वृष्टि उस स्थानसे सौ कोशकी दूरी तक होती है तथा पृथ्वी जलप्लावित हो जाती है। लालवर्णके बादल जब आकाशमें हों, उस समय दिनमें बिजलीका प्रकाश दिखलाई पड़े तो वर्षाके अभावकी सूचना अवगत करनी चाहिए। इस प्रकारकी बिजली दुष्काल पड़नेकी सूचना भी देती है। यदि उक्त प्रकारकी बिजली आषाढ़ मासके आरम्भमें दिखलाई पड़े तो उस वर्ष दुष्काल समझ लेना चाहिए। वायव्य कोणमें बिजली कड़ाकके शब्दके साथ चमके तो अल्प जलकी वर्षा समझनी चाहिए। वर्षाकालमें ही उक्त प्रकारकी बिजली का निमित्त घटित होता है। ईशान कोणमें तिरछी चमकती हुई बिजली पूर्व दिशाकी ओर गमन करे तो जलकी वर्षा होती है। यदि इस कोणकी बिजली गर्जन - तर्जनके साथ चमके तो तूफानकी सूचना समझनी चाहिए। आषाढ़ मास और श्रावणमासमें उत्तम प्रकारकी विद्युत्का फल घटित होता है। दक्षिण दिशामें बिजलीकी चकाचौंध उत्पन्न हो और श्वेत रंगकी चमक दिखलाई Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ पंचमोऽध्यायः | पड़े तो सात दिनों तक लगातार जलकी वर्षा होती है। यदि दक्षिण दिशामें केवल बिजलीकी चमक ही दिखलाई पड़े तो धूप होनेकी सूचना अवगत करनी चाहिए। जब लाल और काले वर्णके मेध आकाशमें आच्छादित हों और बार-बार तेजी से बिजली चमकती हो तो, साधारणतया दिन भर धूप रहनेके पश्चात् रातमें वर्षा होती है। दक्षिण दिशासे पूर्वोत्तर गमन करती हुई बिजली चमके और उत्तर दिशामें इसका तेज प्रकाश भर जाय तो तीन दिनों तक लगातार जलकी वर्षा होती है। यहाँ इतना विशेष और है कि वर्षाके साथ ओले भी पड़ते हैं। यदि इस प्रकारकी बिजली शरद् ऋतुमें चमकती है तो निश्चयत: ओले ही पड़ते हैं, जलकी वर्षा नहीं होती। ग्रीष्म ऋतुमें उक्त प्रकारकी बिजली चमकती है तो वायुके साथ तेज धूप पड़ती है, वृष्टि नहीं होती। गोलाकार रूपमें दक्षिण दिशामें बिजली चमके तो आगामी ग्यारह दिनों तक जलकी अखण्ड वर्षा होती है। इस प्रकारकी बिजली अतिवृष्टिकी सूचना देती है। आषाढ़ बदी प्रतिपदाको दक्षिण दिशामें शब्द रहित बिजली चमके तो आगमी वर्षमें फसल निकृष्ट, उत्तर दिशामें शब्द रहित बिजली चमके तो फसल साधारण; पश्चिम दिशामें शब्दरहित बिजली चमके तो फसलके लिए मध्यम और पूर्व दिशामें शब्दरहित बिजली चमके तो बहुत अच्छी फसल उपजती है। यदि इन्हीं दिशाओं में शब्दसहित बिजली चमके तो क्रमश: आधी, तिहाई, साधारणत: पूर्व और सवाई फसल उत्पन्न होती है। यदि आषाढ़ बदी द्वितीया चतुर्थीसे विद्ध हो और उसमें दक्षिण दिशासे निकलती हुई बिजली उत्तरकी ओर जावे तथा इसकी चमक बहुत तेज हो तो घोर दुर्भिक्ष की सूचना मिलती है। वर्षा भी इस प्रकारकी बिजलीसे अवरुद्ध ही होती है। चट चटाहट करती हुई बिजली चमके तो वर्षाभाव एवं घोरोपद्रवकी सूचना देती है। ऋतुओं के अनुसार विद्युत् निमित्त का फल-शिशिर-माघ और फाल्गुन मासमें नीले और पीले रंगकी बिजली चमके तथा आकाश श्वेतरंगका दिखलाई पड़े ओलोंके साथ जलवर्षा एवं कृषिके लिए हानि होती है। माघ कृष्ण प्रतिपदाको बिजली चमके तो गुड़, चीनी, मिश्री आदि वस्तुएँ महँगी होती हैं तथा कपड़ा, सूत, कपास, रूई आदि वस्तुएँ सस्ती और शेष वस्तुएँ सम रहती हैं। इस दिन बिजलीका कड़कना बीमारियोंकी सूचना भी देती है। माघ कृष्णा द्वितीया, षष्ठी और अष्टमीको पूर्व दिशामें बिजली दिखलाई पड़े तो आगामी वर्षमें अधिक व्यक्तियोंके Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ११० अकालमरण होनेकी सूचना समझनी चाहिए। यदि चन्द्रमाके बिम्बके चारों ओर परिवेष होनेपर उस परिवेषके निकट ही बिजली चमकती प्रकाशमान दिखलाई पड़े तो आगामी आषाढ़ में अच्छी वर्षा होती है । माघ कृष्ण द्वितीयाको गर्जन - तर्जनके साथ बिजली दिखलाई पड़े तो आगामी वर्षमें फसल साधारण तथा वर्षा की कमी होती है । माघी पूर्णिमाको मध्य रात्रिमें उत्तर-दक्षिण चमकती हुई बिजली दिखलाई पड़े तो आगामी वर्ष राष्ट्रके लिए उत्तम होता है। व्यापारियोंको सभी वस्तुओंके व्यापारमें लाभ होता है। यदि दूसरी रातमें चन्द्रोदय के समयमें ही लगातार एक मुहूर्त - ४८ मिनट तक बिजली चमके तो आगामी वर्षमें राष्ट्रके लिए अनेक प्रकारसे विपत्ति आती है । फाल्गुन मासकी कृष्णपक्षकी प्रतिपदा, द्वितीया और तृतीयाको मेघाच्छन्न आकाश हो और उसमें पश्चिम दिशाकी ओर बिजली चमकती हुई दिखलाई पड़े तो आगामी वर्षमें फसल अच्छी होती है और तत्काल ओलोंके साथ जलकी वर्षा होती है। यदि होलीकी रात्रिमें पूर्व दिशामें बिजली चमके तो आगामी वर्ष में अकाल, वर्षाभाव, बीमारियों एवं धन-धान्यकी हानि और दक्षिण दिशामें बिजली चमके तो आगामी वर्षमें साधारण वर्षा, विशेष प्रकोप, अकी जहाँ एवं खनिज पदार्थ सामान्यतया महँगे होते हैं। पश्चिम दिशाकी ओर बिजली चमके तो उपद्रव, झगड़े, मार-पीट, हत्याएँ, चोरी एवं आगामी वर्ष में अनेक प्रकार की विपत्ति और उत्तर दिशा में बिजली चमके तो अग्निभय आपसी विरोध, नेताओं में मतभेद, आरम्भमें वस्तुएँ सस्ती पश्चात् महँगी एवं आकस्मिक दुर्घटनाएँ घटित होती हैं होलीके दिन आकाशमें बादलोंका छाना और बिजलीका चमकना अशुभ है। वसन्त ऋतु — चैत्र और वैशाखमें बिजलीका चमकना प्रायः निरर्थक होता है । चैत्र कृष्ण प्रतिपदाको आकाशमें मेघ व्याप्त हों और बूँदा बूँदीके साथ बिजली चमके तो आगामी वर्षके लिए अत्यन्त अशुभ होता है। फसल तो नष्ट होती ही है, साथ ही मोती, माणिक्य आदि जवाहरात भी नष्ट होते हैं। दिनमें इस दिन मेघ छा जायें और वर्षाके साथ बिजली चमके तो अत्यन्त अशुभ होता है। आगामी वर्षके लिए यह निमित्त विशेष अशुभकी सूचना देता है। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा तृतीय विद्ध हो तथा इस दिन भरणी नक्षत्र हो तो इस दिन चमकने वाली बिजली आगामी वर्षमें मनुष्य और पशुओंके लिए नाना प्रकारके अरिष्टोंकी सूचना देती है : पशुओंमें आगामी अश्विन, कार्तिक, माघ और चैत्रमें भयानक रोग फैलता है तथा मनुष्यों में Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ पंचमोऽध्यायः भी इन्हीं महीनोंमें बीमारियाँ फैलती हैं। भूकम्प होनेकी सूचना भी उक्त प्रकारकी बिजलीसे ही अवगत करनी चाहिए। चैत्री पूर्णिमाको अचानक आकाशमें बादल छा जायें और पूर्व - पश्चिम बिजली कड़के तो आगामी वर्ष उत्तम रहता है और वर्षा भी अच्छी होती है। फसलके लिए यह निमित्त बहुत अच्छा है। इस प्रकार के निमित्त से सभी वस्तुओंकी सस्ताई प्रकट होती है। वैशाखी पूर्णिमाको दिनमें तेज धूप हो और रात में बिजली चमके तो आगामी वर्षभं वषां अच्छी होती है। ग्रीष्म ऋतु — ज्येष्ठ और आषाढ़ में साधारणतः बिजली चमके तो वर्षा नहीं होती । ज्येष्ठ मासमें बिजली चमकनेका फल केवल तीन दिन घटित होता है, अवशेष दिनोंमें कुछ भी फल नहीं मिलता। ज्येष्ठ कृष्ण प्रतिपदा, ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या और पूर्णिमा इन तीन दिनोंमें बिजली चमकनेका विशेष फल प्राप्त होता है। यदि प्रतिपदाको मध्यरात्रिके उपरान्त निरभ्र आकाशमें दक्षिण-उत्तरकी ओर गमन करती हुई बिजली दिखलाई पड़े तो आगामी वर्षके लिए अनिष्टकारक फल होता है। पूर्व-पश्चिम सन्ध्याकालके दो घण्टे बाद तड़-तड़ करती हुई बिजली इसी दिन दिखलाई पड़े तो घोर दुर्भिक्ष और शब्दरहित बिजली दिखलाई पड़े तो समयानुकूल वर्षा होती है। अमावस्या के दिन बूँदा- बूँदीके साथ बिजली चमके तो जङ्गली जानवरोंको कष्ट, धातुओं की उत्पत्तिमें कमी और नागरिकोंमें परस्पर कलह होती है। ज्येष्ठ पूर्णिमाको आकाशमें बिजली तड़-तड् शब्दके साथ चमके तो आगामी वर्षके लिए शुभ समयानुकूल वर्षा और धन-धान्यकी उत्पत्ति प्रचुर परिमाणमें होती है। वर्षाऋतु — श्रावण और भाद्रपदमें ताम्रवमर्णकी बिजली चमके तो वर्षाका अवरोध होता है। श्रावण मासमें कृष्ण द्वितीया, प्रतिपदा, सप्तमी, एकादशी, चतुर्दशी, अमावस्या, शुक्ला प्रतिपदा, पञ्चमी, अष्टमी, द्वादशी और पूर्णिमा तिथियाँ विद्युत् निमित्तको अवगत करने के लिए विशेष महत्त्वपूर्ण हैं, अवशेष तिथियोंमें रक्त और श्वेत वर्णकी बिजली चमकनेसे वर्षा और अन्य वर्णकी बिजली चमकनेसे वर्षाका अभाव होता है। कृष्ण प्रतिपदाको रात्रिमें लगातार दो घण्टे तक बिजली चमके तो श्रावणके महीने में वर्षाकी कमी ; द्वितीयाको रह-रहकर बिजली चमके और तथा गर्जन-तर्जन भी हो तो भादोंमें अल्पवर्षा और श्रावण के महीनमें साधारण वर्षा; सप्तमीको पीले रंग की बिजली चमके तथा आकाशमें बादल चित्र-विचित्र रंगके एकत्रित हों तो सामान्यतया वर्षा होती है। एकादशीको निरभ्र आकाशमें बिजली चमके तो - Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता फसलमें कमी और अनेक प्रकारसे अशान्ति की सूचना समझनी चाहिए। चतुर्दशीको दिनमें बिजली चमके तो उत्तम वर्षा और रातमें बिजली चमके तो साधारण वर्षा होती है। अमावस्याको हरित, नील और ताम्रवर्णकी बिजली चमके तो वर्षाका अवरोध होता है। भाद्रपद मासमें कृष्णपक्ष और शुक्लपक्षकी प्रतिपदाको निरभ्र आकाशमें बिजली चमके तो अकालकी सूचना और मेघाच्छादित आकाशमें बिजली चमकती हुई दिखलाई पड़े तो सुकालकी सूचना समझनी चाहिए। कृष्ण पक्षकी सप्तमी और एकादशीको गर्जन-तर्जनके साथ स्निग्ध और रश्मियुक्त बिजली चमके तो परम सुकाल, समयानुकूल वर्षा, सब प्रकारके नागरिकोंमें सन्तोष एवं सभी वस्तुएं सस्ती होती हैं। पूर्णिमा और अमावस्याको बूंदा-बूंदीके साथ बिजली शब्द करती हुई चमके और उसकी एक धारा-सी बन जाय तो वर्षा अच्छी होती है तथा फसल भी अच्छी ही होती है। शरदऋतु-आश्विन और कार्तिकमें बिजलीका चमकना प्राय: निरर्थक है। केवल विजयादशमीके दिन बिजली चमके तो आगामी वर्षके लिए अशुभसूचक समझना चाहिए। कार्तिक मासमें भी बिजली चमके तो आगमी वर्षके लिए अशुभसूचक समझना चाहिए। कार्तिक मासमें भी बिजली चमकनेका फल अमावस्या और पूर्णिमाके अतिरिक्त अन्य तिथियोंमें नहीं होता है। अमावस्याको बिजली चमकनेसे खाद्य पदार्थ महँगे और पूर्णिमाको बिजली चमकनेसे रासायनिक पदार्थ महँगे होते हैं। हेमन्तऋतु-मार्गशीर्ष और पौषमें श्याम और ताम्रवर्णकी बिजली चमकने से वर्षाभाव तथा रक्त, हरित, पीत और चित्र-विचित्र वर्णकी बिजली चमकनेसे वर्षा होती है। इति श्री पंचम श्रुत केवली दिगम्बराचार्य भद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिता का विशेषवर्णन विद्युतों का लक्षण व फलों का वर्णन करने वाले पंचम अध्याय की हिन्दी भाषानुवाद करने वाली क्षेमोदय टीका समाप्त । (इति पंचमोऽध्यायः समाप्तः) । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽध्यायः बादलों का लक्षण अभ्राणां लक्षणं कृत्स्नं प्रवक्ष्यामि यथाक्रमम्। प्रशस्तमप्रशस्तं च तन्निबोधत तत्त्वतः॥१॥ (यथाक्रमम्) यथाक्रमसे (अभ्राणां) बादलों के (लक्षणं) लक्षण को (कृत्स्नं) अच्छी तरह से (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा वो (प्रशस्तं) शुभ (च) और (अप्रशस्तं) अशुभ रूप है, (तन्नि) उसको (बोधत) ज्ञान (तत्त्वतः) करो। भावार्थ-अब यथाक्रम से बादलों का लक्षण अच्छी तरह से कहूँगा वो बादल प्रशस्त शुभ और अप्रशस्त अशुभ रूप दोनों ही तरह के होते है, जब शुभ लक्षण बादलों के होते हैं तब शुभ फल देते हैं, और अशुभ लक्षण दिखते हैं तो समझो अशुभ फल देंगे॥१॥ स्निग्धान्यभ्राणि यावन्ति वर्षदानि न संशयः । उत्तरं मार्गमाश्रित्य तिथौ मुखे यदा भवेत्।।२।। (यावन्ति) जितने भी (स्निग्धान्य भ्राणि) चिकने बादल होते है वो (वर्षदागि अवश्य बरषते है (न संशय:) उसमें कोई संशय नहीं है, (उत्तरं मार्ग) उत्तरदिशा को (आश्रित्य) आश्रित कर आने वाले बादल (तिथौ) तिथि के (मुखे यदा) मुखपर (भवेत्) होते हैं। भावार्थ-जितने भी चिकने बादल होकर आते है तो वो बादल अवश्य वर्षा करेगें, उसमें कोई संशय नहीं करना चाहिये, ये समझो जब भी उत्तरदिशा से उठकर आने वाले बादल भी तिथि के प्रात:काल में अवश्य वर्षा करेंगे॥२॥ उदीच्यान्यथ पूर्वाणि वर्षदानि शिवानि च। दक्षिणाण्यपराणि स्युः समूत्राणि न संशयः ॥३॥ (अथ) अथ (उदीच्यान्य) उत्तरदिशाके (च) और (पूर्वाणि) पूर्व के बादल Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ११४ (शिवानि) अच्छे (वर्षदानि) बरषते है (दक्षिणाण्य पराणिस्यु:) दक्षिणदिशा के बादल अथवा, पश्चिम दिशाके बादल (समूत्राणि) मूत्र के समान बरषते है, (न संशयः) इसमें कोई संशय नहीं है। भावार्थ-आचार्य कहते है कि पूर्वदिशा से आनेवाले बादल या उत्तरदिशासे आने वाले बादल अवश्य वर्षा करते हैं, और दक्षिण और पश्चिमदिशा से आने वाले बादल मूत्र के समान वर्षा करते हैं इसमें कोई संशय नहीं है॥३॥ कृष्णानि पीत ताम्राणि श्वेतानि च यदा भवेत्। तयोर्निर्देशमासृत्य वर्षदानि शिवानि च॥४॥ (यदा) जब बादल (कृष्णानि) काले, (पीत) पीले (ताम्राणि) ताँबे के रंग (च) और (श्वेतानि) सफेद (भवेत्)) होते है तो, (तयोर्निर्देशं) समझो ये सूचित कर रहे हैं (आसृत्य) की (शिवानि) शुभ अच्छी (वर्षदानि) वर्षा होगी। भावार्थ-यदि बादल काले हो, पीले हो, सफेद हो, ताम्र के रंग के हो तो ऐसा निर्देश समझो की बहुत ही शुभ याने अच्छी वर्षा होगी।॥ ४॥ अप्सराणां च सत्त्वानां सहशानि चराणि च। सुस्निग्धानि च यानि स्युर्वर्षदानि शिवानि च ॥५॥ यदि (अप्सराणां) देवांगना के समान (च) और (सत्त्वानां) जीवों के (सदृशानि) समान (चराणि) आचरण करे (च) और (स्निग्धानि) स्निग्ध हो तो (शिवानिस्यु:) शुभ रूप से (वर्षदानि) वर्षा होगी। भावार्थ-यदि बादल देवांगनाओं के समान या जीवों के समान आचरण करते हो और स्निग्ध हो तो समझो उत्तम वर्षा होगी॥५॥ शुक्लानि स्निग्ध वर्णानि विधुच्चित्र घनानि च। सद्यो वर्ष समाख्यान्ति तान्यभ्राणि न संशयः ।। ६ ।। (शुक्लानि) सफेद, (वर्णानि) रंगके (स्निग्ध) स्निग्ध (च) और (घनानि) घन रूप (चित्र) नाना प्रकारके (विद्युत) बिजली सहित (तान्यभ्राणि) अगर बादल हो तो (सद्यो) नित्य ही (वर्ष) वर्षा को (समाख्यान्ति) बरसाने वाले होते हैं (न संशय:) उसमें कोई संदेह नहीं करना चाहिये॥६॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REASTER । :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज FORE .. . . PERS षष्टो अध्यायः श्लोक SAN SER:58E .::.... ....... - . षष्ठो अध्यायः श्लोक ३ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टो अध्यायः श्लोक ४ षष्टो अध्यायः श्लोक ६ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१५ षष्ठोऽध्यायः भावार्थ-यदि बादल सफेद हो, स्निग्ध हो, और घनरूप हो विचित्र हो साथमें बिजली भी चमकती हो तो समझो निरन्तर वर्षा होगी, इसमें कोई संशय नहीं करना चाहिये॥६॥ शकुनै: कारणैश्चापिसम्भवन्ति शुभैर्यदा। तदा वर्ष च क्षेमं च सुभिक्षं च जयं भवेत्॥७॥ (यदा) जब बादल (शकुनै:) अच्छे शकुन के (कारणैः) कारण हो तो (शुभैः) शुभ का (संम्भवन्ति) सम्भव होगा, (तदा) तब (वर्ष) वर्षा होगी, (क्षेमं) क्षेम होगा (च) और (सुभिक्षं) सुभिक्ष होगा (जयं भवेत्) राजा की विजय होगी। भावार्थ-जब बादल शुभ शकुन और अच्छे चिह्नो सहित हो तो शुभ होगा, वर्षा अच्छी होगी, क्षेम कुशल होगा, सुभिक्ष होगा, और राजा की युद्ध में विजय होगी, ऐसा समझना चाहिए॥७॥ पक्षिणां द्विपदानां च सदृशानि यदा भवेत्। चतुष्पदानां सौम्यानां तदा विन्द्यान्महञ्जलम् ॥ ८॥ (यदा) जब बादल (पक्षिणां) पक्षियों के आकार वाले, (द्विपदानां) मनुष्यों के (सदृशानि) समान आकार वाले (भवेत्) होते है (च) और (चतुष्पदानां) चार पांव वाले के आकार (सौम्यानां) वो भी सौम्य हो तो (तदा) तब (विन्द्यान्) जानो (महञ्जलम्) महान वर्षा होगी। भावार्थ——यदि बादल नाना प्रकार के मयूर, कबूतर, हंस आदि पक्षियों के आकार हो और मनुष्यों के आकार हों चार पाँव वाले पशुओं के आकार हों जैसे हाथी, घोड़ा, बैल, गाय, भैंस आदि के आकार के हो और वो भी सौम्य शांत हो तो समझो शुभ सूचक है, उस वर्ष महान जल करेगा॥८॥ यदाराज्ञः प्रयाणे तु यान्य भ्राणि शुभानि च। अनुमार्गाणि स्निग्धानि तदाराज्ञो जयं वदेत् ।।९।। (यदा राज्ञप्रयाणे तु) जब राजा को प्रयाण के समय (यान्य) जो (भ्राणि) बादल (शुभानि) शुभ (च) और (स्निग्धानि) स्निग्ध होकर (अनुमाणि) आगे-आगे जावे (तदा) तो (राज्ञो) राजा की (जयं) जय (वदेत्) कहते हैं। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ-यदि राजा के प्रयाण काल में बादल शुभ स्निग्ध होकर राजा के आगे.. भागे जाडे तो समझो राजा की युद्ध में विजय अवश्य होगी. ऐसी सूचना देते हैं।।९।। स्थायुधानामश्वानां हस्तिनां सदृशानि च। यान्यग्रतो प्रधावन्ति जयमाख्यान्त्युपस्थितम् ।।१०।। बादल यदि (रथ) रथ, (अयुद्धानाम्) अयुद्ध (च) और (अश्वानां) घोड़े के हाथी के (सदृशानि) आकार होकर राजा के (न्यायग्रनो) आगे-आगे (प्रधावन्ति) चलते हैं दौड़ते हैं तो (जन्यमाख्यान्त्युपस्थितम्) राजा के विजय की सूचना करते भावार्थ-- यदि बादल रथ के आकार होकर आयुद्धोहं के आकार जैसे—तलवार, भाला, बरछी, अंकुस, धनुष, बाणादिके आकार होकर अथवा घोड़ोंके आकार होकर अथवा हाथियोंके आकार होकर राजा के आगे-आगे दौड़ते हैं तो समझना चाहिये राजा की युद्ध में विजय होगी यह निमित्त राजा के युद्ध प्रयाण काल में होने चाहिये।।१०।। ध्वजानां च पताकानां घण्टानां तोरणस्य च। सदृशान्यग्रतो यान्ति जयमाख्यान्त्युपस्थितम् ॥ ११॥ और भी (ध्वजानां) ध्वाजा के आकार (पताकानां) पताका के आकार (च) और (घण्टानां) घण्टेके आकार (च) और (तोरणस्य) तोरणों के (सदृशान्यग्रतो) आकार होकर आगे-आगे (यान्ति) चलते हैं तो (जयमाख्यान्त्य) राजा के जय को सूचित करते (उपस्थितम्) उपस्थित होते हैं। भावार्थ-यदि बादल ध्वजाके आकार होकर पताकाके आकार होकर, घण्टाओं के आकार होकर तोरणों के आकार होकर राजा के आगे-आगे दौड़ते हुऐ, उपस्थित होते हैं तो समझो राजा की युद्ध में अवश्य विजय होगी ।। ११॥ शुक्लानि स्निग्धवर्णानि पुरत: पृष्ठतोऽपि वा। अभ्राणि दीप्तरूपाणि जयमाख्यान्त्युपस्थितम् ॥१२॥ (अभ्राणि) बादल, (शुक्लानि) सफेद, (वर्णानि) वर्णके और (स्निग्ध) स्निग्ध Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 1 दिर्शक आचार्य भी सुनिशिसागर जी महाराज षष्टो अध्यायः श्लोक ८ षष्टो अध्यायः श्लोक ८ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I जैर्य षष्टो अध्यायः श्लोक १० षष्टो अध्यायः श्लोक ११ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ षष्ठोऽध्यायः होकर (दीप्तरूपाणि) प्रकाश के लिये हुऐ, (पुरत:) नगर सैनिक लेते हुऐ राजा के आगे (वा पृष्ठतोऽपि) पीछे-पीछे दौड़ते हो तो राजा के (जयमाख्यान्त्युपस्थितम्) जय की उपस्थित करते हैं। _ भावार्थ-बादल सफेदवर्णके स्निग्ध और प्रकाशमान होते हुऐ राजा के प्रयाण के समय आगे व पीछे दौड़े तो समझो राजा की अवश्य विजय होगी।। १२॥ चतुष्पदानां पक्षिणां क्रव्यादानां च दंष्ट्रिणाम् । सदृशप्रतिलोमानि बधमाख्यान्त्युपस्थितम् ।। १३ ॥ बादल (प्रतिलामानि) अपसव्यमार्गसे गमन करे और (चतुष्पदानां) चार पाँव वाले, (पक्षिणां) पक्षियों के आकारवाले (च) और (कठ्यादानं मांसभक्षी (दंष्टिणाम्) दुष्ट स्वभाव वाले भयंकर दाड़ वाले दांत वाले के (सदृश) आकार होकर आगे-आगे (उपस्थितम्) उपस्थित होते है तो (बधमाख्यान्त्य) राजा के वध की सूचना देते भावार्थ-यदि बादल चार पाँव वाले दुष्ट पशुओं के आकार होकर अथवा दुष्ट पक्षियों के आकार होकर अथवा जिनके भयंकर दांत व दाड़ें है उनके आकार होकर अपसव्य मार्ग से गमन करते हो तो समझो राजा का युद्ध में पराजय और वध हो जायेगा। राजा युद्ध में मारा जायेगा ।। १३ ।।। असि शक्ति तोमराणां खङ्गानां चक्रचर्मणाम्। सदृश प्रतिलोमानि सङ्ग्रामं तेषु निर्दिशेत् ।। १४॥ बादल युद्ध प्रयाण के समय (असि) तलवार, (शक्ति) शक्ति, (तोमराणां) तोमर, (खजानां) खड्ग (चक्र) चक्र (चर्मणाम्) ढाल के (सश) आकार होकर (प्रतिलोमानि) अपसव्य मार्ग से गमन करे तो (तेषु) उनके (संग्राम) संग्राम को (निर्दिशेत्) निर्देश देते हैं। भावार्थ-यदि बादल राजा के प्रयाण समय में तलवार, शक्ति, तोमर, दाल, चक्रादि के आकार होकर राजा के अपसव्य मार्ग से गमन करे तो समझो वहाँ लड़ाई अवश्य होगी, ये बादल युद्ध होने की सूचना देते हैं ।। १४॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता धनुषां कवचानां च बालानां सहशानि च। खण्डान्यभ्राणि रूक्षाणि सभामं तेषु निर्दिशेत् ॥ १५ ।। (अभ्राणि) बादल यदि, (धनुषां) धनुष, (कवचानां) कवच (च) और (बालानां) पशुओं के पुंछ के (सदृशानि) आकार होकर वो भी (रूक्षाणि) रूक्ष व (खण्डान्य) खंड-खंड राजा के आगे दौड़े तो (तेषु) वहाँ पर (संग्राम) युद्ध (निर्दिशेतु) का निर्देश करते हैं। भावार्थ-यदि युद्ध के प्रयाण में राजा के आगे-आगे बादल धनुष के आकार कवच के आकार पूंछ के आकार खण्ड-खण्ड होकर रूक्ष हो तो समझो वहाँ पर संग्राम (युद्ध) अवश्य होगा ॥१५॥ नानारूप प्रहरणैः सर्वे यान्ति परस्परम् । सङ्ग्रामं तेषु जानीयादतुलं प्रत्युपस्थितम्।।१६।। यदि बादल (नानारूप) नानाप्रकार के रूप को (प्रहरणैः) धारण कर (सर्वे) सब बादल (यान्ति) यदि जावे तो (तेषु) वहाँ पर (सङ्ग्राम) अवश्य संग्राम (जानीयाद्) होगा ऐसा जानना चाहिये, (अतुलं) बहुत ही (प्रत्युपस्थितम्) ऐसा अवसर उपस्थित होगा। ___भावार्थ-यदि बादल नाना प्रकार के रूप धारण कर परस्पर टकरावे तो समझो वहाँ पर युद्ध का अवसर अवश्य उपस्थित होगा, राजा और प्रजा को समझ लेना चाहिये॥१६॥ अभ्र वृक्षं समुच्छाध योऽनुलोमसमं व्रजेत्। यस्य राज्ञो वधस्तस्य भद्रबाहु वचो यथा ।। १७॥ (अभ्र वृक्षं) बादल वक्ष के समान (समुच्छाद्य) उखड़ते हुऐ (योऽनुलोम सम) जो अनुलोम के सदृश (व्रजेत्) दिखाई दे तो, (यस्य) जो राजा युद्ध के लिए चलता है (तस्य) उसका (वधः) वध अवश्य होगा। (यथा) ऐसा (भद्रबाहुवाचो) भद्रबाहु स्वामी का वचन है। भावार्थ-यदि बादल वृक्षके उखड़ते हुऐ दिखे और अनुलोम के समान Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ET T मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज षटी अध्यायः श्लोक १२ षष्टो अध्यायः श्लोक १३ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rota सुविधिसागर जी महाराज - . SS CHHI15 SHA षष्टो अध्यायः श्लोक १४ Me . SHARE 3 ... . . .. . Suck .. 3.:. SEAN 5T: AWAR . . 2PSCKAGA .. ..: : stre. ' षष्टो अध्यायः श्लोक १५ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 :Sn SEVE 5 :. षष्ठो अध्यायः श्लोक १६ PEEcircle -1 S Saree NSKETan REPARE BHARATI सी ... E XPREAM MER षष्टो अध्यायः श्लोक १८ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टो अध्यायः श्लोक २० .... sucle: .... .. . .. . ig.. S BETI 2.८ ise Raci. . ... .. .. 300-. षष्टो अध्यायः श्लोक २१ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक आचार्य श्री सुविधिसागर जी महारा षष्टो अध्यायः श्लोक २२ पटो अध्यायः श्लोक २३ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ षष्ठोऽध्यायः दिखाई दे तो समझो जाते हुऐ युद्ध में राजा का अवश्य वध (मरण) होगा ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है ॥ १७ ॥ बालाभ्रवृक्षमरणं कुमारामात्ययोर्वदेत् । एवमेवं च विज्ञेयं प्रतिराजं यदा भवेत् ॥ १८ ॥ ( बालाऽभ्र) छोटेमोटे वृक्ष को उखड़ते हुऐ बादल दिखाई दे तो (कुमार) युवराज और (अमात्य) मन्त्रीका ( मरणं) मरण होगा ( वदेत्) ऐसा कहो (च) और ( एवमेवं ) इसी प्रकार ही ( विज्ञेयं) जानना चाहिये जो ( प्रतिराज्ञां ) प्रतिराजा को भी ( भवेत् ) होता है । भावार्थ — यदि बादल छोटेमोटे वृक्ष के आकार को धारण कर उखड़ते हुऐ दिखलाई दे तो समझो युवराज और मन्त्री दोनों का ही मरण होगा, यदि ऐसा निमित्त प्रतिराजा के और भी हो तो वहाँ भी ऐसा ही फल होगा ।। १८ ।। तिर्यक्षु यानि गच्छन्ति रूक्षाणि च निवर्तयन्ति तान्याशु चमूं सर्वा घनानि च । सनायकाम् ॥ १९॥ ( तिर्यक्षु) तिरछे (यानि ) जो बादल (गच्छन्ति) जाते हुऐ (घनानि) घनरूप हो (च) और रूक्ष हो ( तान्याशु ) तब जानो, (सर्वां) सब ( चमूं ) सेना सहित ( सनायकाम) और उसके नायक सहित (निवर्तयन्ति ) समाप्त हो जाते हैं। भावार्थ — यदि बादल रूक्ष हो, घन रूप हो, और तिरछे चलने वाले हो तो समझो सेना सहित नायक का भी मरण हो जायगा, याने इस युद्ध में न राजा बचेगा और न सेना ही सभी समाप्त हो जायगे ॥ १९ ॥ अभिद्रवन्ति घोषेण महता यां चमूं पुनः । सविद्युतानि चाऽभ्राणि तदा विन्द्याच्चमूषधम् ॥ २० ॥ (अभ्राणि), जो बादल ( अभिद्रवन्ति) भेदन नहीं करते हुऐ (महताघोषेण ) जोर-जोर से गर्जना करे (चा) और (सविद्युतानि ) बिजली से सहित हो (यां) जो फिर (चमूं) सेना के ऊपर (पुनः) पुन: पुन: बरसते हो तो (तदा) तब ( चमू) सेना का ( वधम् ) वध ( विन्द्यात्) जानो । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १२० भावार्थ-यदि सेना के ऊपर बादल बहुत ही गर्जना करते हुऐ बिजली सहित चमके तो समझो राजा की सेना का नाश होगा, राजा की सेना में कोई नहीं बचेगा ।। २०॥ रुधिरोदक वर्णानि निम्बगन्धीनि यानि च। व्रजन्त्य भ्राणि अत्यन्तं सङ्ग्रामं तेषु निर्दिशेत् ॥ २१ ॥ (याने मानि (हिमोदका वन कधिर रंगके समान (च) और (निम्बगन्धीनि) नीम जैसी गन्ध आती हो ऐसी यदि वर्षा बरसते हुऐ (अभ्राणि) बादल (व्रजन्त्य) जाते हुऐ दिखे तो (तेषु) वहाँ पर (अत्यन्त) बहुत ही (सङ्ग्राम) युद्ध होगा (निर्दिशेत्) ऐसा निर्देश हैं। भावार्थ-यदि बादल रुधिर के रंग के वर्ण का पानी बरसावे और उस पानी में नाम के समान गन्ध आवे और बादल जाते हुए दिखाई दे तो समझो वहाँ पर बहुत भारी युद्ध होगा।॥ २१॥ विस्वरं रखमाणाश्च शकुना यान्ति पृष्ठतः। यदा चाभ्राणि धूम्राणि तदा विन्द्यान्महद् भयम् ।। २२॥ (विस्वरं) शब्द रहित (रवमाणाश्च) या शब्द सहित शकुन के समान (धूम्राणि) धुएं के लिये हुऐ, (यदा चाभ्राणि) यदि बादल (पृष्ठतः) पीछे से (यान्ति) आते हुऐ दिखाई दे तो, (तदा) तब (महद्) बहुत ही (भयम्) भयको (विन्द्यात्) जानो। भावार्थ-यदि बादल शब्द रहित हो, या शब्द सहित हो और शकुन के समान धुएं से सहित जाते हुए दिखाई दे तो समझो वहाँ पर बहुत ही भय उत्पन्न होने वाला है।। २२।। मलिनानि विवर्णानि दीप्तायां दिशि यानि च। दीप्तान्येव यदायान्ति भय माख्यान्त्युपस्थितम्॥ २३ ।। बादल (मलिनानि) मलीन हो, (विवर्णानि) विवर्ण हो, (दीप्तायां) सूर्य की (दिशि) दिशा में (च) और (यानि) उस तरफ ही, (दीप्तान्येव) याने सूर्य की तरफ हो (यदा यान्ति) जब दिखे तो (भयमाख्यान्त्य) समझो महान भय (उपस्थितम्) उपस्थित होगा। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ षष्ठोऽध्यायः भावार्थ-मलिन और विवर्ण बादल सूर्य के ऊपर स्थित हो जाय तो समझो वहाँ पर महान भय उपस्थित होगा।॥ २३॥ सग्रहे चापि नक्षत्रे ग्रहयुद्धेऽशुभे तिथौ। सम्भ्रमन्ति यदाऽभ्राणि तदा विन्द्यान्महद् भयम् ।। २४ ।। (सग्रहे) ग्रह से सहित (चापि) और भी (नक्षत्रे) नक्षत्रों के समय में (ग्रह युद्धे) ग्रहों के युद्ध समय में (अशुभे) अशुभ (तिथौ) तिथीयों में (यदाऽभ्राणि) जब बादल (सम्भ्रमन्ति) भ्रमण करते दिखाई दे तो (तदा) तब (महद् भयम्) महान भय को (विन्द्यात्) जानो। भावार्थ-अशुभ ग्रहों से सहित नक्षत्र हो, ग्रह युद्ध हो अशुभ तिथी हो और यदि बादल भ्रमण करे तो समझो महान भय होगा॥२४॥ मुहूर्ते शकुने वापि निमित्ते वाऽशुभे यदा। सम्भ्रमन्ति यदाऽभ्राणि तदा विन्द्यान्महद्भयम् ।। २५ ।। उसी प्रकार (ऽशुभेयदा) जब अशुभ (मुहूर्ते) मुहूर्त हो, (शकुने) शकुन हो (वापि) और भी (निमित्ते) निमित्त हो और (यदाऽभ्राणि) जब बादल (सम्भ्रमन्ति) घुमे तो (तदा) तब (महद् भयम्) महान भय को (विन्द्यात्) जानो। भावार्थ उसी प्रकार जब अशुभ मुहूर्त, शकुन निमित्त हो और बादलों का भ्रमण दिखाई दे तो समझो वहाँ पर महान भय होगा।॥ २५॥ अभ्रशक्तिर्यतो गच्छेत् तां दिशां चाभियोजयेत् । विपुला क्षिप्रगा स्निग्धा जयमाख्याति निर्भयम् ॥ २६॥ (अभ्र) बादल जिस दिशा में (शक्तिर्यतो) शक्तिमान होकर (विपुला) बहुत मात्रा में (स्निग्धा) स्निग्ध होकर (क्षिप्रगा) शीघ्र (गच्छेत्) जावे तो (तां) उसी (दिशां) दिशा में (चाभियोजयेत्) योजना करनी चाहिये, शत्रु राजा की (जयमाख्याति) जय कराती है (निर्भयम्) निर्भय होकर। भावार्थ—यदि बादल शीघ्र गमन करे, स्निग्ध हो और विपुल प्रमाण में हो, शक्ति से जाते हुऐ जिस दिशा में दिखे उसी दिशा में आक्रमणकारी राजा Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता की विजय होगी ऐसा समझो यानि आक्रमणकारी राजा को उसी दिशा में युद्ध के लिये गमन करना चाहिये ।। २६ ॥ यदा तु धान्य सङ्घानां सदृशानि भवन्ति हि। अभ्राणि तोयवर्णानि सस्यं तेषु समृद्धयते॥२७॥ (अभ्राणि) बादल (यदातु) यदि (धान्य संघानां) धान्य के (सदृशानि) समान (भवन्ति) होते है (हि) वा (तोय वर्णानि) पानी के रंग के हो तो (सस्य) धान्य की (तेषु) (समृद्धयते) बहुत वृद्धि होती है। भावार्थ-यदि बादलों का रंग पानी के समान हो व धान्य के समान हो तो समझो वहाँ पर धान्य की वृद्धि होती है उस वर्ष धान्य की बहुत ही उत्पत्ति होगी ॥२७॥ विरागान्यनुलोमानि शुक्ल रक्तानि यानि च। स्थावराणीति जानीयात् स्थावराणां च संश्रये ॥२८॥ यदि बादल (विरागान्यनुलोमानि) विरागी हो, अनुलोम मार्ग हो, (शुक्ल) सफेद (च) और (रक्तानि) लाल हो (स्थावराणीति) स्थिर हो तो समझो (स्थावराणां) स्थाई राजा (संश्रये) आश्रित होना चाहिये। भावार्थ-यदि बादल, विरागी, अनुलोमी, सफेद और लाल उनमें भी स्थित हो तो समझो स्थाई राजा के आश्रित रहना चाहिये क्योंकि नगरस्थ राजा की युद्ध में विजय होगी ।। २८॥ क्षिप्रगानि विलोमानि नीलपीतानि यानि च।। चला नीति विजानीयाच्चलानां च समागमे॥ २९॥ यदि बादल (क्षिप्रगानि) शीघ्रगामी हो, (विलोमानि) विलोममार्गी हो (च) और (नील) नीले (पीतानि) पीले हो तो, (चलानीति) आये हुऐ राजा का (चलानांच) स्थायी राजा के साथ (समागमे) समागम (विजानीयात्) जानना चाहिये। भावार्थ-आकाश में यदि बादल शीघ्र गमन करने वाले प्रतिलोम मार्ग Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SEAN. 2 .. . षष्टो अध्याय: श्लोक २६ S : .'. REE एक षष्टो अध्यायः श्लोक २७ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ षष्ठोऽध्यायः से गमन करते है नीले हो और पीले हो तो समझो स्थाई राजा के साथ आने वाले राजा का समागम हो जायेगा ॥२९॥ स्थावराणां जयं विन्द्यात् स्थावराणां धुतिर्यदा। यायिनां च जयं विन्धाच्चलाध्राणां धुतावपि ॥ ३० ।। (अभ्राणां) बादल (स्थावराणां द्युतिर्यदा) स्थाई निवासीयों के प्रति (द्युतिः) प्रकाश देते है तो (स्थावराणां) स्थाई राजा की (जयं) जय (विन्द्यात्) जानो, (यायिनां) आने वाले राजा की (च) और (धुतावपि) बादल का प्रकाश हो तो आने वाले राजा की (जयं) जय (विन्द्यात्) समझो। भावार्थयदि बादल स्थाई राजा के प्रति प्रकाश और चिह्न वाले हो तो स्थाई राजा की जय होगी, अगर आने वाले राजा के प्रति यही चिह्न हो तो आने वाले राजा की विजय होगी।। ३०॥ राजा तत्पतिरूपैस्तु ज्ञेयान्यभ्राणि सर्वशः। तत् सर्वं सफलं विन्धाच्छुभं वा यदि वाऽशुभम् ॥३१॥ (राजा) राजा को (तत्प्रति) अपने प्रति (रूपैस्तु) रूप हो (अभ्राणि) बादल तो (सर्वश:) सब प्रकार से राजा को (तत् सर्वं) सब प्रकार सफल (ज्ञेयान्य) जानना चाहिये, और (छुभंवा यदि वाऽशुभम्) शुभ या अशुभ राजा को स्वयं (विन्द्यात्) जान लेना चाहिये। भावार्थ-बादल यदि राजा के प्रतिरूप या अनुरूप चलते हुए दिखाई दे तो स्वयं राजा को शुभाशुभ जान लेना चाहिये राजा शुभाशुभ निमित्तो का जानकार नहीं वो अपना राज्य स्थायी रूप में नहीं चला सकता है, उसका राज्य असमय में ही नष्ट हो जाता है।। ३१॥ विशेष—अन यहाँ पर बादलों का लक्षण कहते हैं बादल अनेक प्रकार के होते हैं अनेक आकार के होते हैं अनेक वर्ण के होते हैं शीघ्रगामी या धीरे-धीरे चलने वाले होते हैं सभी दिशाओं में होते हैं, इन बादलों का प्रभाव राजा व प्रजा दोनों के ही ऊपर पड़ता है, इन सब बातों से हानि लाभ, वर्षा, शान्ति या युद्ध, रोग यानि रोग सुभिक्ष या दुर्भिक्ष, धान्योत्पति या उसका नाश आदि मालूम पडता Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता है, मास के अनुसार इन बादलों का विशेष फल होता है आचार्य श्री ने ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी से आषाढ़ शुक्ल नवमी तक बादलों का विशेष फल वर्णन किया है नक्षत्रों के अनुसार भी फल होता है अमुक महीने अमुक तिथी को अमुक नक्षत्र में अमुक दिशा में बादल अमुक वर्ण के व अमुक आकार के हो तो उसका फल अच्छा या बुरा मालूम होता है ये शुभाशुभ जानने में निमित्त कारण हैं। जैसे ज्येष्ठ शुक्ल सप्तमी शनिवार आश्लेषा नक्षत्र के दिन यदि बादल श्वेत रंग धारण किये हुऐ दिखे तो उत्तम है देश के उन्नत होने की सूचना देता है। इसी प्रकार वस्तुएँ महँगी होगी या सस्ती होगी ये भी इन बादलों के संचार से देखा जाता है। आचार्यों ने लिखा है की मेघपटल कैसे हैं यह देखकर सभी प्रकार का भविष्य ज्ञान, कर सकते है मात्र बादलों के विषय में पूर्ण ज्ञान होना चाहिये। विवेचन-आकाशमें बादलोंके आच्छादित होनेसे वर्षा, फसल, जय, पराजय, हानि, लाभ आदिके सम्बन्धमें जाना जाता है। यह एक प्रकारका निमित्त है, जो शुभ-अशुभकी सूचना देता है। बादलोंकी आकृतियाँ अनेक प्रकार की होती हैं। कतिपय आकृतियाँ पशु-पक्षियों के आकारकी होती हैं और कतिपय मनुष्य, अस्त्र-शस्त्र एवं गेंद, कुर्सी आदिके आकार की भी। इन समस्त आकृतियोंको फलकी दृष्टिसे शुभ और अशुभ इन दो भागोंमें विभक्त किया गया है। जो पशु सरल, सीधे और पालतू होते हैं, उनकी आकृति के बादलोंका फल शुभ और हिंसक, क्रूर, पुष्ट जंगली जानवरों की आकृतिके बादलों का फल निकृष्ट होता है। इसी प्रकार सौम्य मनुष्य की आकृतिके बादलोंका फल शुभ और क्रूर मनुष्योंकी आकृतिके बादलोंका फल निकृष्ट होता है। अस्त्र-शस्त्रोंकी आकृतिके बादलोंका फल साधारणतया अशुभ होता है। स्निग्ध वर्णके बादलोंका फल उत्तम और रूक्ष वर्णके बादलोंका फल सर्वदा निकृष्ट होता है। पूर्व दिशामें मेघ गर्जन-तर्जन करते हुए स्थित हों तो उत्तम वर्षा होती है तथा फसल भी उत्तम होती है। उत्तर दिशामें बादल छाये हुए हों तो भी वर्षाकी सूचना देते हैं। दक्षिण और पश्चिम दिशामें बादलोंका एकत्र होना वर्षावरोधक होता है। वर्षाका विचार ज्येष्ठकी पूर्णिमाकी वर्षासे किया जाता है। यदि ज्येष्ठकी पूर्णिमाके Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽध्यायः दिन पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र हो और उस दिन बादल आकाशमें आच्छादित हों तो साधारण वर्षा आगामी वर्षमें समझनी चाहिए। उत्तराषाढ़ नक्षत्र यदि इस दिन हो तो अच्छी वर्षा होनेकी सूचना जाननी चाहिए। आषाढ़ कृष्णपक्षमें रोहिणीके चन्द्रमा योग हो और उस दिन आकाशमें पूर्व दिशाकी ओर मेघ सुन्दर, सौम्य आकृतिमें स्थित हों तो आगामी वर्षमें सभी दिशाएँ शान्त रहती हैं, पक्षीगण या मृगगण मनोहर शब्द करते हुए आनन्दसे निवास करते हैं, भूमि सुन्दर दिखलाई पड़ती है और धन-धान्यकी उत्पत्ति अच्छी होती है। यदि आकाशमें कहीं कृष्ण-श्वेत मिश्रित वर्णके मेघ आच्छादित हों, कहीं श्वेत वर्णके ही स्थित हों, कहीं कुण्डली आकारमें स्थित सर्पके समान मेघ स्थित हों, कहीं बिजली चमकती हुई; मेघोंमें दिखलाई पड़े, कहीं कुमकुम और टेसू के पुष्पके समान रंगके बादल समाने दिखलाई पड़ें, कहीं मेघोंके इन्द्र-धनुष दिखलाई पड़ें तो आगामी वर्षमें साधारणत: वर्षा होती है। आचार्यों ने ज्येष्ठ शुक्ल पंचमीके आषाढ़ शुक्ल नवमी तकके मेघोंका फल विशेषरूपसे प्रतिपादित किया है। विशेष फल-यदि ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीको प्रात: निरभ्र आकाश हो और एकाएक मेघ मध्याह्नकालमें छा जायें तो पौष मासमें वर्षाकी सूचना देते हैं तथा इस प्रकारके मेघोंसे गुड़, चीनी आदि मधुर पदार्थोक महँगे होने की भी सूचना समझनी चाहिए। यदि इसी तिथिको रात्रिमें गर्जन-तर्जन के साथ बूंदा-बांदी हो और पूर्व दिशामें बिजली भी चमके तो आगामी वर्ष में सामान्यतया अच्छी वर्षा होनेकी सूचना देते हैं। यदि उपर्युक्त स्थितिमें दक्षिण दिशामें बिजली चमकती है तो दुर्भिक्ष सूचक समझना चाहिए। ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीको उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र हो और इस दिन उत्तर दिशाकी ओरसे मेघ एकत्र होकर आकाशको आच्छादित करें तो वस्त्र और अन्न सस्ते होते हैं और आषाढ़ से आश्विन तक अच्छी वर्षा होती है, सर्वत्र सुभिक्ष होनेकी सूचना मिलती है। केवल यह योग चूहों, सर्पो और जंगली जानवरोंके लिए अनिष्टप्रद है। उक्त तिथिको गुरुवार, शुक्रवार और मंगलावारमेंसे कोई भी दिन हो और पूर्व या दक्षिण दिशाकी ओरसे बादलों का उमड़ना आरम्भ हो रहा तो निश्चयत: मानव, पशु, पक्षी और अन्य समस्त प्राणियोंके लिए वर्षा अच्छी होती है। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ज्येष्ठ शुक्ला षष्ठीको आकाशमें मंडलाकार मेघ संचित हों और उनका लाल या काला रंग हो तो आगामी वर्षमें वृष्टिका अभाव अवगत करना चाहिए । यदि इस दिन बुधवार और मधा नक्षत्रका योग हो तथा पूर्व या उत्तरसे मेध उठ रहे हों तो श्रावण और भाद्रपदमें वर्षा अच्छी होती है, परन्तु अन्नका भाव महँगा रहता है। फसलमें कीड़े लगते हैं तथा सोना, चाँदी आदि खनिज धातुओंके मूल्यमें भी वृद्धि होती है। यदि ज्येष्ठ शुक्ला षष्ठी रविवारको हो और इस दिन पुष्य नक्षत्रका योग हो तो मेघका आकाशमें छाना बहुत अच्छा होता है। आगामी वर्ष वृष्टि बहुत अच्छी होती है, धन-धान्यकी उत्पत्ति भी श्रेष्ठ होती है। ज्येष्ठ शुक्ला सप्तमी शनिवारको हो और इस दिन आश्लेषा नक्षत्रका भी योग हो तो आकाशमें श्वेत रंगके बादलोंका छाजाना उत्तम माना गया है। इस निमित्तसे देशकी उन्नति की सूचना मिलती है। देशका व्यापारिक सम्बन्ध अन्य देशोंसे बढ़ता है तथा उसकी सैन्य और अर्थ शक्तिका पूर्ण विकास होता है। वर्षा भी समय पर होती है, जिससे कृषि बहुत ही उत्तम होती है। यदि उक्त तिथिको गुरुवार और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रका योग हो और दक्षिण से बादल गर्जना करते हुए एकत्र हों तो आगामी आश्विन मासमें जलकी उत्तम वर्षा होती है तथा फसल भी साधारणत: अच्छी होती है। ज्येष्ठ शुक्ला अष्टमीको रविवार या सोमवार दिन हो और इस दिन पश्चिमकी ओर पर्वताकृति बादल दिखलाई पड़े तो आगामी वर्षके शुभ होनेकी सूचना देते हैं। पुष्य, मघा और पूर्वा फाल्गुनी इन नक्षत्रोंमेंसे कोई भी नक्षत्र उस दिन हो तो लोहा, इस्पात तथा इनसे बनी समस्त वस्तुएँ महँगी होती हैं। जूटका बाजार भाव अस्थिर रहता है। तथा आगामी वर्षमें अन्नकी उपज भी कम ही होती है। देशमें गोधन और पशुधनका विनाश होता है। यदि उक्त नक्षत्रोंके साथ गुरुवारका योग हो तो आगामी वर्ष सब प्रकारके सुखपूर्वक व्यतीत होता है। वर्षा प्रचुर परिमाणमें होती है। कृषक वर्गको सभी प्रकारसे शान्ति मिलती है। ज्येष्ठ शुक्ला नवमी शनिवारको यदि आश्लेषा, विशाखा और अनुराधामेंसे कोई भी नक्षत्र हो तो इस दिन मेघोंका आकाशमें व्याप्त होना साधारण वर्षाका सूचक है। साथ ही इन मेघोंसे माघ मासमें जलके बरसने की भी सूचना मिलती Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ | षष्ठोऽध्यायः । है। जौ, धान, चना, मूंग और बाजरा की उत्पत्ति अधिक होती है। गेहूँका अभाव रहता है या स्वल्प परिमाणमें गेहूँको उत्पत्ति होती है। ज्येष्ठ शुक्ला दशमीको रविवार या मंगलवार हो और इस दिन ज्येष्ठा या अनुराधा नक्षत्र हो तो आगामी वर्ष में श्रेष्ठ फसल होनेकी सूचना समझनी चाहिए। तिल, तेल और तिलहनों का भाव महँगा होता है तथा घृतमें विशेष लाभ होता है। उक्त प्रकारका मेध व्यापारी वर्गके लिए भयदायक है तथा आगामी वर्षमें उत्पातोंकी सूचना देता है। ज्येष्ठ शुक्ला एकादशीको उत्तर दिशाकी ओर सिंह, व्याघ्रके आकारमें बादल छा जायें तो आगामी वर्षके लिए अनिष्टप्रद समझना चाहिए। इस प्रकारकी मेघस्थिति पौष या माघ मासमें देशके किसी नेताकी मृत्यु भी सूचित करती है। वर्षा और कृषिके लिए उक्त प्रकारकी मेघस्थिति अत्यन्त अनिष्टकारक है। अन्न और जूटकी फसल सामान्यरूपसे अच्छी नहीं होती। कपास और गन्नेकी फसल अच्छी ही होती है। यदि उक्त तिथिको गुरुवार हो तो इस प्रकारकी मेघस्थिति द्विज लोगोंमें भय उत्पन्न करती है तथा देशमें अधार्मिक वातावरण उपस्थित करनेका कारण बनती ___ ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशीको बुधवार हो और इस दिन पश्चिम दिशामें सुन्दर और सौम्य आकारमें बादल आकाशमें छा जावें तो आगामी वर्ष में अच्छी वर्षा होती है। यदि इस दिन ज्येष्ठा या मूल नक्षत्रमेंसे कोई नक्षत्र हो तो उक्त प्रकारकी मेघकी स्थितिसे धन-धान्यकी उत्पत्तिमें डेढ़ गुनी वृद्धि हो जाती है। उपयोगकी समस्त वस्तुएँ आगामी वर्षमें सस्ती होती हैं। ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशीको गुरुवार हो और इस दिन पूर्व दिशाकी ओरसे बादल उमड़ते हुए एकत्र हों तो उत्तम वर्षाकी सूचना देते हैं। अनुराधा नक्षत्र भी हो तो कृषिमें वृद्धि होती है। ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्दशीकी रात्रिमें वर्षा हो और आकाश मण्डालाकार रूपमें मेघाच्छन्न हो तो आगामी वर्षमें खेती होती है। ज्येष्ठ पूर्णिमाको आकाशमें सघन मेघ आच्छादित हों और इस दिन गुरुवार हो तो आगामी वर्षमें सुभिक्षकी सूचना समझनी चाहिए। आषाढ़ कृष्णा प्रतिपदाको हाथी और अश्वके आकारमें कृष्णवर्णके बादल आकाशमें अवस्थित हो जायँ तथा पूर्व दिशासे वायु भी चलती हो और हल्की Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता । १२८ वर्षा हो रही हो तो आगामी वर्षमें दुष्कालकी सूचना समझनी चाहिए। आषाढ़ कृष्णा प्रतिपदाके दिन आकाशमें बादलोंका आच्छादित होना तो उत्तम होता है, पर पानीका बरसना अत्यन्त अनिष्टप्रद समझा जाता है। इस दिन अनेक प्रकारके निमित्तोंका विचार किया जाता है—यदि रातमें उत्तर दिशामें शृगाल मन्द-मन्द शब्द करते हुए बोले तो आश्विन गारमें बना अभाव होता है तथा समस्त खाद्य पदार्थ महँगे होते हैं। तेज धूपका पड़ना श्रेष्ठ समझा जाता है और यह लक्षण सुभिक्षका द्योतक होता है। आषाढ़ कृष्णा द्वितीयाको पर्वत, या समुद्रके आकारमें उमड़ते हुए बादल एकत्रित हों और गर्जना करें, पर वर्षा न हो तो साधारणत: अच्छा समझा जाता है। आगामी श्रावण और भाद्रपदमें वर्षा होती है। आषाढ़ कृष्णा द्वितीयाको सुन्दर द्विपदाकार मेघ आकाशमें अवस्थित हों तो उत्तम समझा जाता है। वर्षा भी उत्तम होती है तथा आगामी वर्ष फसल भी अच्छी होती है। यदि आषाढ़ कृष्ण द्वितीया को सोमवार हो और इस दिन श्रवण नक्षत्र हो तो उक्त प्रकारके मेघका विशेष फल प्राप्त होता है। तिलहनकी उत्पत्ति प्रचुर परिमाणमें होती है तथा पशुधनकी वृद्धि भी होती रहती है। इस तिथिको मेघाच्छन्न आकाश होने पर रात्रिमें शूकर और जंगली जानवरों का कर्कश शब्द सुनाई पड़े तो जिस नगरके व्यक्ति इस शब्दको सुनते हैं, उसके चारों ओर दस-दस कोशकी दूरी तक महामारी फैलती है। यह फल कार्तिक मासमें ही प्राप्त होता है, सारा नगर कार्तिकमें वीराना हो जाता है। फसल भी कमजोर होती है और फसलको नष्ट करनेवाले कीड़ोंकी वृद्धि होती है। यदि उक्त तिथिको प्रात:काल आकाश निरभ्र हो और सन्ध्या समय रंग-बिरंगे वर्णके बादल पूर्वसे पश्चिमकी ओर गमन करते हुए दिखलाई पड़ें तो सात दिनोंके उपरान्त घनघोर वर्षा होती है तथा श्रावण महीने में भी खूब वर्षा होनेकी सूचना समझनी चाहिए। यदि उक्त तिथिको दिन भर मेघाच्छन्न आकाश रहे और सन्ध्या समय निरभ्र हो जाय तो आगामी महीनेमें साधारण जलकी वर्षा होती है तथा भाद्रपदमें सूखा पड़ता है। ___ आषाढ़ कृष्ण तृतीयाको प्रात:काल ही आकाश मेघाच्छन्न हो जाय तो आगामी दो महीनोंमें अच्छी वर्षा होती है तथा विश्वमें सुभिक्ष होनेकी सूचना समझनी चाहिए। काले रंगके अनाज महँगे होते हैं और श्वेत रंगकी सभी वस्तुएँ सस्ती होती हैं। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ षष्ठोऽध्यायः यदि उक्त तिथिको मंगलवार हो तो विशेष वर्षाकी सूचना समझनी चाहिए। धनिष्ठा नक्षत्र सन्ध्या समयमें स्थित हो और इस तिथिको मंगलवार मेघ स्थित हों तो भाद्रपद मासमें भी वर्षाकी सूचना समझनी चाहिए। आषाढ़ कृष्णा चतुर्थी मंगलवार या शनिवार हो, पूर्वाषा, उत्तराषाढ़ और श्रावणमें से कोई भी एक नक्षत्र हो तो उक्त तिथिको प्रातः काल ही मेघाच्छन्न होने से आगामी वर्ष अच्छी वर्षाकी सूचना मिलती है। धन-धान्यकी वृद्धि होती है। जूटकी उपजके लिए उक्त मेघस्थिति अच्छी समझी जाती है। आषाढ़ कृष्णा पञ्चमीको मनुष्यके आकारमें मेघ आकाशमें स्थित हों तो वर्षा और फसल उत्तम होती हैं। देशकी आर्थिक स्थितिमें वृद्धि होती है। विदेशोंसे भी देश का व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित होता है। गेहूँ, गुड़ और लाल वस्त्रके व्यापारमें विशेष लाभ होता है। मोती, सोना, रत्न और अन्य प्रकारके बहुमूल्य जवाहरात की महँगी होती है। आषाढ़ कृष्णा षष्ठीको निरभ्र आकाश रहे और पूर्व दिशासे तेज वायु चले तथा सन्ध्या समय पीतवर्णके बादल आकाशमें व्याप्त हो जायँ तो श्रावणमें वर्षाकी कमी, भाद्रपदमें सामान्य वर्षा और आश्विनमें उत्तम वर्षाकी सूचना समझनी चाहिए। यदि उक्त तिथि रविवार, सोमवार और मंगलवारको हो तो सामान्यतः वर्षा उत्तम होती है तथा तृण और काष्ठका मूल्य बढ़ता है। पशुओंके मूल्यमें भी वृद्धि हो जाती है। यदि उक्त तिथि को अश्विनी नक्षत्र हो तो वर्षा अच्छी होती है, किन्तु फसल में कमी रहती है। बाढ़ और अतिवृष्टिके कारण फसल नष्ट हो जाती है। माघ मासमें भी वृष्टिकी सूचना उक्त प्रकार के मेघ की स्थिति से मिलती है। यदि आषाढ़ कृष्णसप्तमी को रात्रि में एकाएक मेघ एकत्रित हो जाय तथा वर्षा न हो तो तीन दिन के पश्चात् अच्छी वर्षा होने की सूचना समझनी चाहिए उक्त तिथिको प्रातः काल ही मेघ एकत्रित हों तथा हल्की वर्षा हो रही हो तो आषाढ़ मासमें अच्छी वर्षा, श्रावणमें कमी और भाद्रपदमें वर्षाका अभाव तथा आश्विन मासमें छिटपुट वर्षा समझनी चाहिए। यदि उक्त तिथि सोमवारको पड़े तो सूर्यकी मेघस्थिति जगत् में हा हाकार होने की सूचना देती है। अर्थात् मनुष्य और पशु सभी प्राणी कष्ट पाते हैं। आश्विन मासमें अनेक प्रकारकी बीमारियाँ भी व्याप्त होती हैं। आषाढ़ कृष्ण अष्टमीको प्रातःकाल सूर्योदय ही न हो अर्थात् सूर्य मेघाच्छन्न हो और मध्याह्नमें Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता तेज धूप हो तो श्रावण मासमें वर्षाकी सूचना समझनी चाहिए। भरणी नक्षत्र हो तो इसका फलादेश अत्यन्त अनिष्टकर होता है। फसल में अनेक प्रकार के रोग लग जाते हैं तथा व्यापारमें भी हानि होती है। आषाढ़ कृष्णा नवमीको पर्वताकार बादल दिखलाई पड़े तो शुभ, ध्वजा-घण्टा-पताकाके आकारमें बादल दिखलाई पड़े तो प्रचुर वर्षा और व्यापारमें लाभ होता है तथा आन्तरिक गृह कलहके साथ अन्य शत्रु राष्ट्रोंकी ओरसे भी भय होता है। यदि तलवार, त्रिशूल, भाला, बर्ची आदि अस्त्रोंके रूपमें बादलोंकी आकृति उक्त तिथिको दिखलाई पड़े तो युद्धकी सूचना समझनी चाहिए। यदि आषाढ़ कृष्ण दशमीको उखड़े हुए वृक्षकी आकृतिके समान बादल दिखलाई पड़े तो वर्षाका अभाव तथा राष्ट्रमें नाना प्रकारके उपद्रवोंकी सूचना समझनी चाहिए। आषाढ़ कृष्ण एकादशीको रुधिर वर्णके बादल आकाशमें आच्छादित हों तो आगामी वर्ष प्रजाको अनेक प्रकारका कष्ट होता है तथा खाद्य पदार्थों की कमी होती है। आषाढ़ कृष्ण द्वादशी और त्रयोदशीको पूर्व दिशाकी ओरसे बादलों का एकत्र होना दिखलाई पड़े तो फसलकी क्षति तथा वर्षाका अभाव और चतुर्दशीको ग़र्जन-तर्जनके साथ बादल आकाशमें व्याप्त हुए दिखलाई पड़ें तो श्रावणमें सूखा पड़ता है। आमावस्याको वर्षा होना शुभ है और धूप पड़ना अनिष्टकारक है। शुक्ला प्रतिपदाको मेघोंका एकत्र होना शुभ, वर्षा होना सामान्य और धूप पड़ना अनिष्टकारक है। शुक्ला द्वितीया और तृतीयाको पूर्वमें मेघोंका एकत्रित होना शुभ सूचक है। इति श्री पंचम श्रुत केवली दिगम्बराचार्य भद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिता का विशेष वर्णन बादलों का लक्षण व फलों का वर्णन करने वाला पष्टम. अध्याय का हिन्दी भाषानुवाद करने वाला क्षेमोदय टीका समाप्त इति षष्टम अध्याय समाप्त। (इति षष्ठोऽध्यायः समाप्त:) Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽध्यायः सन्थ्याओं का लक्षण अथातः सम्प्रवक्ष्यामि सन्ध्यानां लक्षणं ततः। प्रशस्तमप्रशस्तं च यथा तत्त्वं निबोधत ॥१॥ (अथात:) अथ (सन्ध्यानां) सन्ध्याओं के (लक्षणं) लक्षण को (सम्प्रवक्ष्यामि) में कहूँगा (तत:) वह (प्रशस्तं) प्रशस्त (च) और (अप्रशस्तं) अप्रशस्त होते हैं (यथा) उसका स्वरूप (स्व) निमितशशास्त्रों के अनुसार (निबोधत) जानना चाहिये। भावार्थ-अब में सन्ध्याओं के लक्षण को कहूँगा, वो दो प्रकार की होती है प्रशस्त और अप्रशस्त, इनका लक्षण निमित्त शास्त्रके अनुसार जान लेना चाहिये ।। १ ।। उद्गच्छमाने चादित्ये यदासन्ध्या विराजते। नागराणां जयं विन्द्यादस्तं गच्छति यायिनाम् ।। २॥ (उद्गच्छमाने) उदय होते हुऐ (चादित्ये) सूर्यकी (यदा) जब (सन्ध्या) सन्ध्या (विराजते) विराजमान होती है तो (नागराणां) नगरवासी राजा की (जयं) जय (विन्द्याद्) समझो (अस्तं) यदि सूर्यके अस्तमान (गच्छति) हो जाता है तो (यायिनाम्) यायि की विजय होगी। भावार्थ- उदय होते हुऐ सूर्य के समय सन्ध्या हो तो नगरस्थ राजा की विजय होगी, यदि अस्त होते हुऐ सूर्य के समय सन्ध्या हो तो आने वाले आक्रमणकारी राजा की विजय होगी॥२॥ उद्गच्छमाने चादित्ये शुक्ला सन्ध्या यदा भवेत्। उत्तरेण गता सौम्या ब्राह्मणानां जयं विदुः ॥३॥ (यदा) जब (उद्गच्छमाने चादित्ये) उगते हुऐ सूर्य की (सन्ध्या) सन्ध्या (शुक्ला) सफेद (भवेत्) होती है (सौम्या) सौम्य और (उत्तरेणगता) उत्तर में हो तो (ब्राह्मणानां) ब्राह्मणों की (जयं) जयको (विदुः) जानो। भावार्थ-यदि उगते हुऐ सूर्य की सन्ध्या सफेद हो सौम्य हो और उत्तरदिशामें हो तो समझो ब्राह्मणों की विजय होगी॥३।। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १३२ उद्गच्छमाने चाऽदित्ये रक्ता सन्ध्या यदा भवेत्। पूर्वेण च गता सौम्या क्षत्रियाणां जयावहा॥४॥ (यदा) जब (उद्गच्छमाने) उदय होते हुऐ (चाऽदित्ये) सूर्य की (सन्ध्या) सन्ध्या (रक्ता) लाल (भवेत्) होती है (च) और वो भी (पूर्वेण) पूर्व में हो (सौम्या) सौम्य हो तो (क्षत्रियाणां) क्षत्रियों की (जयावहा) जय कराती है। भावार्थ- यदि उदित सूर्यकी सन्ध्या लाल और सौम्य व पूर्व में हो तो समझो क्षत्रियों की विजय होगी॥४॥ उद्गच्छमाने चाऽदित्ये पीता सन्ध्या यदा भवेत्। दक्षिणेन गता सौम्या वैश्यानां सा जयावहा॥५॥ (यदा) जब (उद्गच्छमाने) उदय होते हुऐ (चाऽदित्ये) सूर्यकी (सन्ध्या) सन्ध्या (पीता) पीली (भवेत्) होती है (सा) वो (सौम्या) सौम्य हो (दक्षिणेन गता) दक्षिणदिशा में हो तो (वेश्यानां) वैश्यों की (जयवहा) जय कराती हैं। भावार्थ-जंब उदय होते हुऐ सूर्य की सन्ध्या पीली हो सौम्य हो दक्षिण की हो तो समझो वैश्यों की विजय होगी॥५॥ उद्गच्छमाने चाऽदित्ये कृष्णसन्ध्या यदा भवेत्। अपरेणगता सौम्या शूद्राणां च जयावहा ।।६।। (यदा) जब (उद्गच्छमाने) उदय होते हुऐ (चाऽदित्ये) सूर्यकी (सन्ध्या) सन्ध्या (कृष्ण) काली (भवेत्) होती है (सौम्या) सौम्य हो (च) और (अपरेणगता) पश्चिमदिशामें हो तो (शूद्राणां) शूद्रोको (जयावहा) जय कराती है। भावार्थयदि उगते हुऐ सूर्य की सन्ध्या काली हो सौम्य हो और पश्चिम में हो तो समझो वहाँ पर शूद्रों की विजय होगी॥६॥ सन्थ्योत्तरा जयं राज्ञः ततः कुर्यात् पराजयम्। पूर्वा क्षेमं सुभिक्षं च पश्चिमा च भयङ्करा ॥७॥ (उत्तरा) उत्तर की (सन्ध्या) सन्ध्या (राज्ञः) राजाकी (जयं) जय कराती है (ततः) उसी प्रकार दक्षिण की (पराजयम) पराजय (कुर्यात्) कराती है (पूर्वा) पूर्वकी Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 3 PRESE S .... age HitHORE HARE 1-RRE .. 10. MAHARASH STRALI ...10 ... 1 011- 2011"1:01.-".. . 2 RA TERTIST ARTIST सातमो अध्यायः श्लोक ३ TAAI सममो अध्याय: श्लोक ५ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PARINEER PRATARNAMAVARLI PRONION सप्तमोध्याय श्लोक ६ 43252200 ह RASHTRA S सप्तमोध्याय श्लोक ५ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽध्यायः (क्षेमं) क्षेम कुशल (च) और (सुभिक्षं) सुभिक्ष करती है (च) और (पश्चिमा) पश्चिम की (भयङ्करा) महान भयंकर होती है। भावार्थ-उत्तर दिशामें दिखने वाली सन्ध्या राजा के विजय की सूचक है, दक्षिणदिशा में सन्ध्या हो तो राजाकी पराजय होगी ऐसा जानना चाहिये पूर्वदिशा की सन्ध्या हो तो समझो सर्वत्र क्षेमकुशल व सुभिक्ष होगा, और पश्चिमदिशा में सन्ध्या दिखे तो महान भयंकर होगा ॥७॥ आग्नेयी अग्निमाख्याति नैर्ऋती राष्ट्र नाशिनी। वायव्या प्रावृषं हन्यात् ईशानी च शुभावहा ।। ८॥ यदि सन्ध्या (आग्नेयी) आग्नेदिशा की हो तो, (अग्निमाख्याति) अग्नि का कारण है नैर्ऋत्य दिशा की हो तो (राष्ट्र) देश का (नाशिनी) नाश करने वाली है, (वायव्या) वायव्यकोण में हो तो (प्रावृष) वर्षा का (हन्यात्) नाश करती है (च) और (ईशानी) ईशानी दिशा में हो तो (शुभावहा) शुभ है। भावार्थ-यदि सन्ध्या आग्नेय कोण की हो तो अग्नि का भय होगा, नैरृती दिशा की हो तो समझो राष्ट्र का नाश होगा, वायव्यकोण की हो तो समझो वर्षा का नाश होगा और ईशान कोण की हो तो शुभ की सूचक है।॥ ८॥ एवं सम्पत्करायेषु नक्षश्रेष्वपि निर्दिशेत् । जयं सा कुरुते सन्ध्या साधकेषु समुत्थिता।। ९॥ (एवं) इस प्रकार (सम्पत्करायेषु) सम्पत्ति के लाभ में भी (नक्षत्रेष्वपि) और नक्षत्रों में भी (निर्दिशेत्) निर्देशकरना चाहिये (सन्ध्या) सन्ध्या (साधकेषु) साधक को (समुत्थिता) समुत्थित रूप में (जयं सा कुरुते) जय कराने वाली होती है। भावार्थ-इस प्रकार की सन्ध्या सम्पत्ति के लाभ में नक्षत्रों में व्यवस्थित करना चाहिये अगर नक्षत्रों में सन्ध्याओं का दिखाई देना साधक को सब प्रकार से जय प्राप्त कराने वाली होती है।।९।। उदयास्तमनेऽर्कस्य यान्य भ्राण्य ग्रतो भवेत्। स प्रभाणि सरश्मीनि तानि सन्ध्या विनिर्दिशेत्॥१०॥ (अर्कस्य) सूर्यके (उदयास्तमने) उदय और अस्त के समय (यान्य) जो (भ्राण्य) Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १२४ बादलों के (ग्रतो) आगे ( सभ्राणि) प्रभा सहित ( सरश्मीनि) रश्मियां ( भवेत् ) होती है (तानि) उसीको ( सन्ध्या) सन्ध्या (विनिर्दिशेत् ) कहा गया हैं । भावार्थ- सूर्यके उदय और अस्त के समय जो बादल प्रभा से युक्त और रश्मियों वाला होता है लाल पीली रश्मियाँ होती है, उसीको आचार्य ने सन्ध्या कहा है, ये सन्ध्याऐं नियम से सूर्य के उदय समय में या अस्त समय में होती है॥ १०॥ अभ्राणां यानि रूपाणि सौम्यानि विकृतानि च । सर्वाणि तानि सन्ध्यायां तथैव प्रतिवारयेत् ॥ ११ ॥ (यानि) यानि जो (अभ्राणां) बादलों के (रूपाणि) रूपस्वरूप (सौम्यानि) सौम्य (च) और विकृत दिखते हैं (तानि) उन (सर्वाणि) सबको (सन्ध्यायां) सन्ध्या के लक्षणों में (तथैव) उसी प्रकार (प्रतिवारयेत् ) ले लेना चाहिये । भावार्थ — जो बादलों के लक्षण आचार्यों ने लिखे है, उसी प्रकार यहाँ सन्ध्याओं के लक्षण भी समझना चाहिये, बादलों के जो फल होते है उसी प्रकार सन्ध्याके लक्षण व फल होते है बुद्धिमान निमित्तज्ञ बादलों के फल के अनुसार सन्ध्या का फल और लक्षण लगा लेता है ।। ११ ।। एवमस्तमने काले या सन्ध्या सर्व उच्यते । लक्षणं यत् तु सन्ध्यानां शुभं वा यदि वाऽशुभम् ।। १२ ।। (एवम्) इस प्रकार (अस्तमनेकाले) सूर्य के अस्तकाल में (या) जो (सर्व) सब प्रकार का ( सन्ध्या) सन्ध्या (उच्यते ) कही गई है और उनके लक्षण कहे गये है (यत्) उसी प्रकार सूर्योदय की सन्ध्या का ( लक्षणं) लक्षण कहे गये है (तु) इसलिये ( सन्ध्यानां ) सन्ध्याओं का ( शुभं वा ) शुभ या (यदि वाऽशुभम् ) यदि अशुभ, उसी प्रकार समझे। भावार्थ - जिस प्रकार सूर्यअस्तके समयकी सन्ध्या का लक्षण या फल कहा गया है उसी प्रकार सूर्योदय की सन्ध्याओं के लक्षण व फल समझना चाहिये, दोनों में कोई अन्तर नहीं होता है ॥ १२ ॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सममो अध्यायः श्लोक ८ (ब) सप्तमो अध्यायः श्लोक ८ (स) Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमो अध्याय: श्लोकरद सप्तमो अध्यायः श्लोक १४ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ सप्तमोऽध्यायः स्निग्ध वर्णमती सन्ध्या वर्षदा सर्वशो सर्वा वीथिगता वाऽपि सुनक्षत्रा भवेत् । विशेषतः ॥ १३ ॥ (स्निग्ध वर्णमती) स्निग्ध हो वर्ण वाली हो यदि (सन्ध्या) सन्ध्या तो (सर्वशो) सब प्रकार से ( वर्षदा) वर्षा करने वाली ( भवेत्) होती है (बाऽपि ) उनमें भी ( वीथिंगता) वीथिंगत और (विशेषतः) विशेषता से, (सर्वा) सब ( सुनक्षत्रा) सुनक्षत्र वाली हो तो वर्षा कराने वाली होती है। भावार्थ - यदि सन्ध्या स्निग्धवर्ण वाली हो तो बरसात को करने वाली होती, उसमें भी विशेषकर वीथि में हो और सुनक्षत्र वाली हो तो बहुत बारिश कराने वाली होती है ॥ १३ ॥ पूर्वरात्रपरिवेषा सविद्युत्परिखायुता । सरश्मी सर्वतः सन्ध्या सद्यो वर्ष प्रयच्छति ॥ १४ ॥ (पूर्वरात्रपरिवेषा) रात्रि के पिछले समय परिवेश से युक्त (सविद्युत्परिखायुता) बिजली से युक्त परिखा हो ( सरश्मी) रश्मियों से युक्त ( सर्वतः ) सब ( सन्ध्या ) सन्ध्या (सद्यो) नित्य ही ( वर्षं) बरसात को ( प्रयच्छति ) लाने वाली होती है। भावार्थ — पूर्व रात्रि के पिछले प्रहर में परिवेश हो, बिजली भी परिखा से युक्त हो और सन्ध्या भी रश्मियों से युक्त हो तो समझो निकटकाल में शीघ्र ही वर्षा होगी ।। १४ । शक्रचापरजस्तथा । प्रतिसूर्यागमस्तत्र सन्ध्यायां यदि दृश्यन्ते सद्यो वर्षं प्रयच्छति ॥ १५ ॥ ( प्रतिसूर्यागमस्तत्र ) प्रति सूर्यका आगमन हो वहाँ पर ( शक्रचाप) इन्द्र धनुष ( रजस्तथा ) धूली सहित ( सन्ध्यां ) सन्ध्या में (यदि) यदि (दृश्यन्ते) दिखाई दे तो, (सद्यो) सद्य ही (वर्ष) वर्षा को ( प्रयच्छति ) लाने वाली होती है। भावार्थ — रज से युक्त इन्द्रधनुष प्रतिसूर्यके आगमन काल में सन्ध्याके समयमें दिखलाई पड़े तो समझो शीघ्र ही वर्षा होगी ।। १५ ।। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता यदा सृजति भास्करः । सन्ध्यायमेकरश्मिस्तु उदितोऽस्तमितो चापि विन्द्याद् वर्षमुपस्थितम् ।। १६ ।। ( यदा) जब ( भास्करः ) सूर्य ( उदितोऽस्तमितो ) उदय या अस्त समय ( सन्ध्यायमेक) सन्ध्या एक (रश्मिस्तु) रश्मिवाला हो तो (सृजति) शोभा वाला हो तो (वर्ष) वर्षा की ( उपस्थितम् ) उपस्थित ( विन्द्याद्) जानो । भावार्थ- -जब सूर्य के उदय समय में या अस्त समय में सन्ध्या एक रश्मि बाली हो तो समझो शीघ्र ही वर्षा होने वाली है ।। १६ ।। आदित्यपरिवेषस्तु सन्ध्यायां यदि वर्ष महद् विजानीयाद् भयं वाऽथ दृश्यते । प्रवर्षणे ॥ १७ ॥ ( सन्ध्यायां) सन्ध्या के समय (आदित्य) सूर्य के ऊपर (यदि) यदि (परिवेषस्तु ) परिवेष ( दृश्यते) दिखाई दे तो (महद् ) महान (वर्ष) वर्षा (विजानीयाद्) होगी ऐसा जानना चाहिये, ( वाऽथ ) अथवा ( भयं ) भयको ( प्रवर्षणे) वर्षा के समय उत्पन्न होगा। त्रि मण्डलपरिक्षिप्तो यदि वा पञ्च संध्यायां दृश्यते सूर्यो महावर्षस्य १३६ भावार्थ- -सन्ध्या के समय में सूर्य के ऊपर यदि परिवेश दिखाई दे तो भारी वर्षा के साथ में जनना को बहुत ही भारी भय उत्पन्न होगा ॥ १७ ॥ मण्डलः । सम्भवः ॥ १८ ॥ ( यदि ) यदि (त्रिमण्डल) तीन मण्डल (वा) वा (पञ्चमण्डलः) पाँच मण्डलसहित (परिक्षिप्तो) परिवेशसहित (सूर्यो) सूर्य ( सन्ध्यायां) सन्ध्या को (दृश्यते) दिखाई दे तो (महावर्षस्य ) महा वर्षा की ( सम्भव:) सम्भावना होती है। भावार्थ-यदि सूर्य मण्डल के ऊपर सन्ध्या के समय में तीन मण्हल अथवा पाँच मण्डल सहित परिवेश हो तो समझो महा वर्षा होगी ॥ १८ ॥ द्योतयन्ती दिशः सर्वा यदा सन्ध्या प्रदृश्यते । महामेघास्तदा विन्द्यात् भद्रबाहुवचो ( यदा) जब ( सन्ध्या) सन्ध्या (सर्वा) सब ( दिश:) दिशा ( द्योतयन्ती ) उद्योत यथा ।। १९ ।। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. दर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज सप्तमोध्याय श्लोक १८ PER PAIMER SAROKANDE सप्तमोध्याय श्लोक १७ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ सप्तमोऽध्यायः करती हुई (प्रदृश्यते) दिखाई दे तो (महामेघाँस्तदा) महामेघों का आगमन (विन्द्यात्) जानना चाहिये, (यथा) ऐसा (भद्रबाहुवचो) भद्रबाहु स्वामी का वचन है। भावार्थ-जब सन्ध्या सब दिशाओंमें उद्योत रूप दिखाई दे तो समझो महामेघों का आगमन होकर बहुत ही वर्षा की वृष्टि होगी पृथ्वी पर पानी ही पानी बरस जायेगा ।। १९॥ सरस्तडागप्रतिमा कूप कुम्भनिभा च या। यदा पश्यति सुस्निग्धा सा सन्ध्या वर्षदा स्मृता ।। २० ॥ या) जोसमा समाः) सरोवर, (तड़ाग) तालाब (प्रतिमा) प्रतिमा (कूप) कूप (कुम्भ) कुम्भ (निभा) आकार वाले (च) और (सुस्निग्धा) सुस्निग्धा (यदा) जब (पश्यति) दिखती है तो (सा) वो (सन्ध्या) सन्ध्या (वर्षदास्मृता) वर्षा करायेगी ऐसा स्मरण रखना चाहिए। भावार्थ-जो सन्ध्या, सरोवर, तालाब, प्रतिमा, कुम्भ के आकार की हो और अच्छी तरह स्निग्ध हो, ऐसी दिखने वाली सन्ध्या वर्षा की वृष्टि करायेगी, ऐसा स्मरण रखना चाहिये॥२० ।। धूम्रवर्णा बहुच्छिद्रा खण्डपापसमा यदा। या सन्ध्या दृश्यते नित्यं सा तु राज्ञो भयङ्करा ॥२१॥ (यदा) जब (सन्ध्या) सन्ध्या (धूम्रवर्णा) धूएँ के रंग की, (बहुच्छिद्रा) बहुत छेदवाली, (खण्ड) खण्ड (पापसमा) पापरूप (दृश्यते) दिखाई दे तो (सा तु) वह (नित्यं) नित्य ही (राज्ञो) राजाको (भयंकरा) भय उत्पन्नकरने वाली है। भावार्थ-- जब सन्ध्या धूएं के आकार व रंग की हो बहुत छेदवाली खण्डरूप और पापरूप दिखलाई पड़े स्निग्ध हो तो समझो राजा को भय उत्पन्न करेगी।। २१॥ द्विपदाश्चतुष्पदा: क्रूराः पक्षिणश्च भयङ्कराः। सन्ध्यायां यदि दृश्यन्ते भय माख्यान्त्युपस्थितम्॥२२॥ (द्विपदा:) दो पाँव वाले (चतुष्पदा) चार पाँव वाले (क्रूरा:) क्रूर हो (पक्षिणश्च) और पक्षियों के आकार वाले (भयङ्कराः) भयंकर (यदि) यदि (सन्ध्यायां) सन्ध्या Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता अनावृष्टि रूक्षायां ( दृश्यन्ते) दिखाई दे तो ( भयम्) भय ( उपस्थितम् ) उपस्थित होगा ऐसा (आख्यान्त्य) कहा गया है। भावार्थ - यदि सन्ध्या द्विपदा याने क्रूर मनुष्य, चार पाँव वाले पशुओं के आकार भयंकर पक्षियों के आकार दिखाई दे तो समझो कोई न कोई भय अवश्य उपस्थित होगा || २२ ॥ भयं रोगं विकृतायां १३८ दुर्भिक्षं राजविद्रवम् । सन्ध्यामभिनिर्दिशेत ॥ २३ ॥ च यदि ( सन्ध्यां ) रूक्ष (च) और ( विकृतायां ) विकृत रूप दिखाई दे तो, ( अनावृष्टि) वर्षा का नहीं होना (भय) भयको ) रोगको (दुर्धियां) दुर्भिक्ष और (राजविद्रवम्) राजउपद्रव होगा ( अभिनिर्दिशेत ) ऐसानिर्दिश किया है। भावार्थ-यदि सन्ध्या रूक्ष, विकृत रूप दिखलाई पड़े तो समझो अनावृष्टि यानि वर्षा का अभाव, भय कोई भय होगा, रोग, याने नाना प्रकार का रोग उत्पन्न होगा, दुर्भिक्ष याने दुर्भिक्ष पड़ जायेगा, नहीं तो राजा का ही उपद्रव हो जायेगा ऐसा आचार्य श्री ने कहा है ॥ २३ ॥ च विंशतिर्योजनानि स्युर्विद्युद्धाति ततोऽधिकं तु स्तनितं अभ्रं यत्रैव दृश्यते ॥ २४ ॥ सुप्रभा । पञ्चयोजनिका सन्ध्या वायुवर्षं च दूरतः । त्रिरात्रं सप्तरात्रं च सद्यो वा पाकमादिशेत् ।। २५ ।। (विंशतिर्योजनानि ) बीस योजन दूर यदि ( स्युर्विद्युद्भाति) बिजली की चमक (च) और (अभ्रं) बादल को ( दृश्यते) दिखता है तो, (ततोऽधिकं) उतने ही अधिक दूर वर्षा या वायु होगा। (पञ्च योजनिकां) पांच योजन तक ( सन्ध्या) सन्ध्या दिखाई दे तो, (वायु) वायु (च) और (वर्ष) वर्षा तभी ( दूरतः ) दूर होगी, (च) और इसका फल ( त्रिरात्रं) तीन रात्रि (वा) वा ( सप्तरात्रं) में (सद्यो) नित्य ऐसा ही (पराकमादिशेत् ) फल होगा। भावार्थ — यदि बादल, सन्ध्या, बिजली का चमकना बीस योजन याने ८० Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोध्याय श्लोक २१ सप्तमोध्याय श्लोक २० Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सममा अध्यायः श्लोक २२ Vaste ... . . ... . . .. .. . 4 . . SERN A.. सप्तमो अध्याय: श्लोक Khorth . .. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ सप्तमोऽध्यायः कोश की दूरी पर दिखलाई पड़े तो समझो वायु या वर्षा व मेघ उतने ही दूर समझो और सन्ध्या अगर पाँच योजन माने बीस कोश की दूरी पर दिखाई दे तो समझो वर्षा और वायु उतने ही दूर समझो इन निमित्तों का फल तीन रात्रि या सात रात्र में होगा, जितने दूरी पर ये बादल, बिजली, सन्ध्या, दिखलाई पड़े उतनी दूरी पर ही वायु या वर्षा होगी ।। २४- २५ ॥ उल्कावत् साधनं अतः परं सर्व सन्ध्यायामभिनिर्दिशेत् । प्रवक्ष्यामि मेघानां तन्निबोधत ।। २६ ॥ (सर्व) सब (उल्कावत्) उल्काओं के समान ही (साधनं) साधन (सन्ध्यायाम्) सन्ध्याओं का लक्षण (अभिनिर्दिशेत् ) कहा (अतः ) अब (मेघानां ) मेघों का लक्षण ( परं) अच्छी तरह कहूँगा (तन्नि) उसको (बोधत) आप जानो । भावार्थ मैंने सब उल्काओं के समान ही सन्ध्याओं के लक्षण व फल कहे अब में मेघों का लक्षण व फल कहूँगा, उसको आप अच्छी तरह से जानो ।। २६ ।। विशेष- अब आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी सन्ध्याओं का स्वरूप कहते हैं। सूर्यके अर्ध अस्त होने के समय और जब तक आकाशमें तारा न दिखे उसके पहले सन्ध्या का समय बतलाया है, यह समय सूर्योदय के पूर्व व सूर्यास्त के समय का होता है इसी को सन्ध्या का काल माना है यह सन्ध्या भी अनेक वर्ण की होती है, इसका फलादेश भी वार, नक्षत्रों के व ग्रहों के अनुसार देखा जाता है। सांयकाल की सन्ध्या यदि रक्त वर्ण की हो तो अच्छा माना है और अन्य वर्ण की हो तो कहीं शुभ और कहीं अशुभ फल देती है। इन सन्ध्याओं से जय पराजय हानि, लाभ, सुख-दुःख इत्यादि देखे जाते है, प्रातः काल की सन्ध्या से अलग फल और सांयकाल को सन्ध्याओं का अलग-अलग फल होता है, इस सन्ध्या का फल अलग-अलग महीनों के अनुसार भी होता हैं, पदार्थों के भाव भी मालूम होते हैं, किंचित बादलों के प्रभाव से सन्ध्या फूलती है, अमुक महीने के अमुक दिन अमुक वर्ण की अमुक दिशा में वायु के साथ अगर सन्ध्या फूले तो उसका फल भी विशेष या साधारण होता है इन सन्ध्याओं का फल नाना प्रकार का होता है। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० भद्रबाहु संहिता वृष्टि कारक सन्ध्या के लिये कहा है नीलकमल वैडुर्य और पद्म केशर के समान कान्तियुक्त, वायुरहित सूर्य की किरणों को प्रकाशित करे तो समझो घोर वर्षा होगी। ज्येष्ठ कृष्ण षष्ठी को आश्लेषा नक्षत्र हो और सांयकालीन सन्ध्या रक्त वर्ण की भास्वर रूप हो तो आगामी वर्ष अच्छी वर्षा होने की सूचना मिलती है याने आगे के वर्ष में वर्षा बहुत अच्छी होती है। सूर्योदयकाल में दिशाएँ पीली हो हरी हो चित्र विचित्र हो तो समझो सात दिनों में प्रजा में भयंकर रोग होता है। इत्यादि आचार्य श्री ने सन्ध्या का अलग-अलग फल कहा है निमित्तज्ञानी को यह सब सावधानी से देखकर ही फलादेश को दूसरे से कहे। विशेष निमित्तज्ञानी ही राजा के द्वारा सम्मान पूजा को प्राप्त हो सकता है, राजा को व प्रजा को व साधु सन्तों को बचा कर रख सकता है, नहीं तो स्वयं के साथ में राजा का ब प्रजा का भी नाश कर देता है यहाँ पर थोड़ा डॉक्टर नेमीचन्द आरा का भी अभिप्राय देना अच्छा समझता हूँ । विवेचन-प्रतिदिन सूर्यके अर्धास्त हो जानेके समयसे जब तक आकाशमें नक्षत्र भली भाँति दिखाई न दें तब तक सन्ध्या काल रहता है, इसी प्रकार अर्धोदित सूर्यसे पहले तारा दर्शन तक सन्ध्याकाल माना जाता है । सन्ध्या समय बार-बार ऊँचा भयंकर शब्द करता हुआ मृग ग्रामके नष्ट होने की सूचना करता है । सेनाके दक्षिण भागमें स्थित मृग सूर्यके सम्मुख महान् शब्द करें तो सेना का नाश समझना चाहिए । यदि पूर्व में प्रातः सन्ध्याके समय सूर्यकी ओर मुख करके मृग और पक्षियों के शब्द से युक्त सन्ध्या दिखलाई पड़े तो देशके नाशकी सूचना मिलती है। दक्षिण दिशामें स्थित मृग सूर्यकी ओर मुख करके शब्द करें तो शत्रुओं द्वारा नगर ग्रहण किया जाता है। गृह, वृक्ष, तोरण मथन और धूलिके साथ मिट्टीके ढेलोंको भी उड़ानेवाला पवन प्रबल वेग और भयंकर रूखे शब्दसे पक्षियोंको आक्रान्त करें तो शुभकारी सन्ध्या होती है। सन्ध्याकालमें मन्द पवनके प्रवाहसे हिलते हुए पलाश अथवा मधुर शब्द करते हुए विहङ्ग और मृग निनाद करते हों तो सन्ध्या पूज्य होती है। सन्ध्याकालमें दण्ड, तडित, मत्स्य, मण्डल, परिवेष, इन्द्रधनुष, ऐरावत Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १४१ सप्तमोऽध्यायः और सूर्यकी किरणें इन सबका स्निग्ध होना शीघ्र ही वर्षाको लाता है। टूटी-फूटी, क्षीण, विध्वस्त, विकराल, कुटिल, बाईं ओरको झुकी हुई छोटी-छोटी और मलिन सूर्य किरणें सन्ध्याकालमें हों तो उपद्रव या युद्ध होनेकी सूचना समझनी चाहिए । उक्त प्रकारकी सन्ध्या वर्षावरोधक होती है। अन्धकारविहीन आकाशमें सूर्यकी किरणोंका निर्मल, प्रशन्न, सीधा और प्रदक्षिणके आकार में भ्रमण करना संसारके मंगलका कारण है। यदि सूर्यरश्मियाँ आदि, मध्य और अन्तगामी होकर चिकनी, सरल, अखण्डित और श्वेत हों तो वर्षा होती है। कृष्ण, पीत, कपिश, रक्त, हरित आदि विभिन्न वर्णोंकी किरणें आकाशमें व्याप्त हो जायँ तो अच्छी वर्षा होती है तथा एक सप्ताह तक भय भी बना रहता है। यदि सन्ध्या समय सूर्य की किरणें ताम्र रंगकी हों तो सेनापति की मृत्यु, पीले और लाल रंगके समान हों तो सेनापतिको दुःख, हरे रंगकी होनेसे पशु और धान्यका नाश, धूम्रवर्णकी होने से गायोंका नाश, मंजीठके समान आभा और रंगदार होनेसे शस्त्र व अग्निभय, पीत हों तो पवन के साथ वर्षा, भस्मके समान होनेसे अनावृष्टि और मिश्रित एवं कल्माष रंग होने से वृष्टिका क्षीणभाव होता है। सन्ध्याकालीन धूल दुपहरियाके फूल और अंजनके चूर्णके समान काली होकर जब सूर्य के सामने आती है, तब मनुष्य सैकड़ों प्रकारके रोगोंसे पीड़ित होता है। यदि सन्ध्याकालमें सूर्यकी किरणें श्वेत रंगकी हों तो मानवका अभ्युदय और उसकी शान्ति सूचित होती है। यदि सूर्यकी किरणें सन्ध्या समय जल और पवनसे मिलकर दण्डके समान हो जायँ, तो यह दण्ड कहलाता है। जब यह दण्ड विदिशाओं में स्थित होता है तो राजाओं के लिए और जब दिशाओंमें स्थित होता है तो द्विजातियों के लिए अनिष्टकारी है। दिन निकलनेसे पहले और मध्य सन्धिमें जो दण्ड दिखलाई दे तो शस्त्रभय और रोगभय करनेवाला होता है, शुक्लादि वर्णका हो तो ब्राह्मणों को कष्टकारक, भयदायक और अर्थविनाश करनेवाला होता है। आकाशमें सूर्यके ढकनेवाले दहीके समान किनारेदार नीले मेघको अभ्रतरु कहते हैं। यह पीले रंगका मेघ यदि नीचेकी ओर मुख किये हुए मालूम पड़े तो अधिक वर्षा करता है । अभ्रतरु शुत्रके ऊपर आक्रमण करनेवाले राजाके पीछे-पीछे चलकर अकस्मात् शान्त हो जाय तो युवराज और मन्त्रीका नाश होता है। नीलकमल, वैडूर्य और पद्मकेसरके समान कान्तियुक्त, वायुरहित सूर्यकी Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता किरणोंको प्रकाशित करे तो घोर वर्षा होती है। इस प्रकारकी सन्ध्याका फल तीन दिनोंमें प्राप्त हो जाता है। यदि सन्ध्याके समय गन्धर्वनगर, कुहासा और धूम छाये हुए दिखलाई पड़े तो वर्षाकी कमी होती है। सन्ध्याकाल में शस्त्र धारण किये हुए नर रूपधारीके समान मेघ सूर्यके सम्मुख छिन्न-भिन्न हों तो शुत्रभय होता है। शुक्लवर्ण और शुक्ल किनारेवाले मेघ सन्ध्या समयमें सूर्यको आच्छादित करें तो वर्षा होनेका योग समझना चाहिए। सूर्यके उदयकालमें शुक्ल वर्णकी परिधि दिखलाई दे तो राजाको विपद् होती है, रक्तवर्णसे सेनाको और कनकवर्णकी हो तो बल और पुरुषार्थकी वृद्धि होती है। यदि प्रात:कालीन सन्ध्याके समय सूर्यके दोनों ओरकी परिधि, यदि शरीरवाली हो जाय तो बहुत सा जल बरसता है और सब परिधि दिशाओंको घेर ले तो जल का कण भी नहीं बरसता। सन्ध्या कालमें मेघ, ध्वज, छत्र, पर्वत, हस्ती और घोड़ेका रूप धारण करें तो जयका कारण हैं और रक्तके समान लाल हों तो युद्धका कारण होते हैं। पलाल के धुएँके समान स्निग्ध मूर्तिधारी मेघ राजा लोगोंके बलको बढ़ाते हैं। सन्ध्याकालमें सूर्यका प्रकाश तीक्ष्ण आकार हो या नीचेकी ओर झुकमे आकार का हो तो मंगल होता है। सूर्यके सम्मुख होकर पक्षी, गीदड़ और मृग सन्ध्याकालमें शब्द करें तो सुभिक्षका नाश होता है, प्रजामें आपसमें संघर्ष होता है और अनेक प्रकारसे देशमें कलह एवं उपद्रव होते हैं। यदि सूर्योदयकालमें दिशाएँ पीत, हरित और चित्र-विचित्र वर्णकी मालूम हों तो सात दिनमें प्रजामें भयंकर रोग, नील वर्णकी मालूम हो तो समय पर वर्षा और कृष्ण वर्णकमी मालूम हो तो बालकोंमें रोग फैलता है। यदि सायंकालीन सन्ध्याके समय दक्षिण दिशामें मेघ आते हुए दिखलाई पड़ें तो आठ दिनों तक वर्षाभाव, पश्चिम दिशासे आते हुए मालूम पड़ें तो पाँच दिनोंका वर्षाभाव, उत्तर दिशासे आते हुए मालूम पड़ें तो खूब वर्षा और पूर्व दिशासे आते हुए मेघ गर्जन सहित दिखलाई पड़ें तो आठ दिनों तक घनघोर वर्षा होने की सूचना मिलती है। प्रात:कालीन और सांयकालीन सन्ध्याओंके वर्ग एक समान हों तो एक महीने तक मशाला और तिलहनका भाव सस्ता, सुवर्ण और चाँदीका भाव महँगा तथा वर्ण परिवर्तन हो तो सभी प्रकारकी वस्तुओं के भाव नीचे गिर जाते हैं। ज्येष्ठ कृष्ण प्रतिपदाको प्रात:कालीन सन्ध्या श्वेतवर्णकी हो तो आषाढ़ में Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ सप्तमोऽध्यायः श्रेष्ठ वर्षा, लाल वर्णकी हो तो आषाढ़में वर्षाका अभाव और श्रावणमें स्वल्प वर्षा, पीतवर्णकी हो तो भी आषाढ़ में समयोचित वर्ण एवं विचित्र वर्णकी हो तो आगामी वर्षा ऋतुमें सामान्य रूपसे अच्छी वर्षा होती है। उक्त तिथिको सायंकालीन सन्ध्या श्वेत या रक्त वर्णकी हो तो सात दिनके उपरान्त वर्षा एवं मिश्रित वर्णकी हो तो वर्षा ऋतुमें अच्छी वर्षा होती है। ज्येष्ठ कृष्ण द्वितीयाको प्रातःकालीन सन्ध्या श्वेत वर्णकी हो और पूर्व दिशासे बादल घुमड़कर एकत्र होते हुए दिखलाई पड़ें तो आषाढ़में वर्षाका अभाव और वर्षा ऋतुमें भी अल्प वर्षा तथा सायंकालीन सन्ध्यामें बादलोंकी गर्जना सुनाई पड़ें या बूंदा-बूंदी हो तो घोर दुर्भिक्षका अनुमान करना चाहिए। उक्त प्रकारकी सन्ध्या व्यापारमें लाभ सूचित करती हैं। सट्टेके व्यापारियोंके लिये उत्तम फल देती हैं। वस्तुओंके भाव प्रतिदिन ऊँचे उठते जाते हैं। सभी चिकने पदार्थ और तिलहन आदि पदार्थों का भाव कुछ सस्ता होता है। उक्त सन्ध्याका फल एक महीने तक प्राप्त होता है। यह सन्ध्या जनतामें रोगको उत्पन्नकारक होती है। ज्येष्ठ कृष्ण तृतीयाका क्षय हो और इस दिन चतुर्थी पंचमी तिथिसे विद्ध हो तो उक्त तिथिकी प्रात:कालीन सन्ध्या अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। यदि इस प्रकारकी सन्ध्यामें अर्थोदयके समय सूर्यके चारों ओर नीलवर्णका मंडलाकार परिवेष दिखलाई पड़ें तो माघ और फाल्गुन मासमें भूकम्प होनेकी सूचना समझनी चाहिए। इन दोनों महीनोंमें भूकम्पके साथ और भी प्रकारकी अनिष्ट घटनाएँ घटित होती हैं। अनेक स्थानोंपर जनतामें संघर्ष होता है, गोलियाँ चलती हैं और रेल या विमान दुर्घटनाएँ भी घटित होती हैं। आकाशसे ओले बरसते हैं तथा किसी प्रसिद्ध व्यक्ति की मृत्यु दुर्घटना द्वारा होती है। एक बार राज्यमें क्रान्ति होती है तथा ऐसा लगता है कि राज-परिवर्तन ही होनेवाला है। चैत्र में जाकर जनतामें आत्म-विश्वास उत्पन्न होता है तथा सभी लोग प्रेम और श्रद्धाके साथ कार्य करते हैं। यदि उक्त प्रकारकी सन्ध्याका वर्ण रक्त और श्वेत मिश्रित हो तो यह सन्ध्या सुकाल तथा समयानुकूल वर्षा और अमन-चैनकी सूचना देती है। यदि उक्त प्रकार की सन्ध्यको उत्तर दिशासे सुमेरु पर्वतके आकारके बादल उठे और वे सूर्यको आच्छादित कर लें तो विश्वमें शान्ति समझनी चाहिए। सायंकालीन सन्ध्या यदि इस दिन हँसमुख मालूम पड़े तो आषाढ़में खूब वर्षा और रोती हुई मालूम पड़े तो वर्षाभाव जानना चाहिए। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १४४ ज्येष्ठ कृष्णा षष्ठीको आश्लेषा नक्षत्र हो और सायंकालीन सन्ध्या रक्तवर्ण भास्वर रूप हो तो आगामी वर्ष अच्छी वर्षा होनेकी सूचना समझनी चाहिए। इस सन्ध्याके दर्शक मीन, कर्क और मकर राशिवाले व्यक्तियोंको कष्ट होता है और अवशेष राशिवाले व्यक्तियोंका वर्ष आनन्दपूर्वक व्यतीत होता है। प्रात:कालीन सन्ध्या इस तिथिकी रक्त, श्वेत और पीत वर्णकी उत्तम मानी गई है और अवशेष वर्णकी सन्ध्या हानिकारक होती है। ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमीको उदयकालीन सन्ध्यामें सिंह आकृतिके बादल दिखलाई पड़ें तो वर्षाभाव और निरभ्र आकाश हो तो यथोचित वर्षा तथा श्रेष्ठ फसल उत्पन्न होती है। सायं सन्ध्यामें अग्निकोणकी ओर रक्त वर्णके बादल तथा उत्तर दिशामें श्वेतवर्णके बादल सूर्यको आच्छादित कर रहे हों तो इसका फल देशके पूर्व भागमें यथोचित जलवृष्टि और पश्चिम भागमें वर्षाकी कमी तथा सुवर्ण, चाँदी, मोती माणिक्य, हीरा, पासा, गोमेद आदि समों की कीमत तीन दिनोंके पश्चात् ही बढ़ती है। वस्त्र और खाद्यान्नका भाव कुछ नीचे गिरता है। ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमीको भी प्रात: सन्ध्या निरभ्र और निर्मल हो तो आषाढ़ कृष्ण पक्षमें वर्षा होती है। यदि यह सन्ध्या मेघाच्छन्न हो तो वर्षाभाव रहता है तथा आषाढ़का महीना प्रायः सूखा निकल जाता है। उक्त तिथिको सायं सन्ध्यामिश्रित वर्ण हो तो फसल उत्तम होती है तथा व्यापारमें लाभ होता है। ज्येष्ठकृष्णा नवमीको प्रात:सन्ध्या रक्तके समान लालवर्णकी हो तो घोरे दुर्भिक्षकी सूचक तथा सेना में विद्रोह कराने वाली होती है सांयकालीन संन्ध्या उक्त तिथि को श्वेत वर्ण की हो तो सुभिक्ष और सुकालकी सूचना देती है। यदि उक्त तिथिको विशाखा या शतभिषा नक्षत्र हो तथा इस तिथिका क्षय हो तो इस सन्ध्याकी महत्ता फलादेशके लिए अधिक बढ़ जाती है। क्योंकि इसके रंग आकृति और सौम्य या दुर्भग रूप द्वारा अनेक प्रकार के स्वभाव-गुणानुसार फलादेश निरूपित किये गये हैं। यदि ज्येष्ठ कृष्ण दशमीकी प्रात:कालीन सन्ध्या स्वच्छ और निरभ्र हो तो आषाढ़में खूब वर्षा एवं श्रावणमें साधारण वर्षा होती है। सायं सन्ध्या स्वच्छ और निरभ्र हो तो सुभिक्षकी सूचना देती है। ज्येष्ठकृष्णा एकादशीको प्रात:सन्ध्या धूम्र वर्णकी मालूम हो तो भय, चिन्ता और अनेक प्रकारके रोगों की सूचना समझनी चाहिए। इस तिथिकी सायं सन्ध्या स्वच्छ और निरभ्र हो तो आषाढ़में वर्षाकी सूचना समझ लेनी चाहिए। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽध्यायः ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशीकी प्रातःसन्ध्या भास्वर हो और सायं सन्ध्या मेघाच्छन्न हो तो सुभिक्षकी सूचना समझनी चाहिए। ज्येष्ठ कृष्णा त्रयोदशीकी प्रात: सन्ध्या निरभ्र हो तथा सायं सन्ध्याकालमें परिवेष दिखलाई पड़े तो श्रावणमें वर्षा, भाद्रपदमें जलकी कमी एवं वर्षा ऋतुमें खाद्यान्नोंकी महँगी समझ लेनी चाहिए। यदि ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशीकी सन्ध्याएँ परिध या परिधिसे युक्त हों तथा सूर्यका त्रिमंडलाकार परिवेष दिखलाई पड़े तो महान् अनिष्टकी सूचना समझनी चाहिए ! ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या और शुक्ला प्रतिपदा इन दोनों ही सन्ध्याएँ छिद्र युक्त विकृत आकृतिवाली और परिवेष या परिध युक्त दिखलाई दें तो वर्षा साधारण होती है और फसल भी साधारण ही होती है। इस प्रकारकी सन्ध्या तिलहन, गुड़ और वस्त्रकी उपजकी सूचना देती है। ज्येष्ठ मासकी अवशेष तिथियोंकी सन्ध्याके वर्ण-आकृतिके अनुसार फलादेश अवगत करना चाहिए। आषाढ़ मासमें कृष्णप्रतिपदा की सन्ध्या विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। इस दिन दोनों ही सन्ध्या स्वच्छ निरभ्र और सौम्य दिखलाई पड़ें तो सुभिक्ष नियमत: होता है। नागरिकोंमें शान्ति और सुख व्याप्त होता है। यदि इस दिनकी किसी भी सन्ध्यामें इन्द्रधनुष दिखलाई पड़े तो आपसी उपद्रवोंकी सूचना समझनी चाहिए। आषाढ़ मासकी अवशेष तिथियोंकी सन्ध्याका फल पूर्वोक्त प्रकारसे ही समझना चाहिए। स्वच्छ, सौम्य और श्वेत, रक्त, पीत और नीलवर्णकी सन्ध्या अच्छा फल सूचित करती है और मलिन, विकृत आकृति तथा छिद्र युक्त सन्ध्या अनिष्ट फल सूचित करती है। इति श्री पंचम श्रुत केवली दिगम्बराचार्य भद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिता का विशेष वर्णन सन्ध्याओंका लक्षण व फल का वर्ण करने वाला सातवाँ अध्याय का हिन्दी भाषानुवाद करने वाली क्षेमोदय टीका समाप्त। (इति सप्तमोऽध्यायः समाप्त:) Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽध्याय मेघों का लक्षण अत: परं प्रवक्ष्यामि मेघानामपि लक्षणम् । प्रशस्तमप्रशस्तं यथावदनुपूर्वशः ॥ १ ॥ च ( अतः ) अतः (परं) में (मेघानाम् ) मेघोंके (लक्षणम्) लक्षण (अपि) भी, ( प्रवक्ष्यामि) कहूँगा, वो मेघों के लक्षण (प्रशस्तं ) प्रशस्त (च) और (अप्रशस्तं ) अप्रशस्त है । (यथा ) जैसे ( वदनुपूर्वशः) पूर्व में संध्यादिकके लक्षण कहे वैसे में कहूँगा । भावार्थ- -अब में मेघों के लक्षण कहूँगा, वो मेघ दो प्रकार के होते हैं प्रशस्त और अप्रशस्त जैसे पूर्व में कहा था वैसा ही कहूँगा ॥ १ ॥ यदाञ्जननिभो मेघः शान्तायां दिशि दृश्यते । स्निग्धो मन्द गतिश्चापि तदा विन्द्याद् जलं शुभम् ॥ २ ॥ ( यदा) जब (मेघ: ) मेघ (अंजननिभो ) अंजन गिरि की प्रभा के समान हो, ( शान्तायां ) शान्त हो, (दिशि ) दिशाओंमें ( दृश्यते) दिखते हो (स्निग्धो ) स्निग्ध हो, (च) और (मन्दगतिः) धीरे-धीरे चलने वाले हो तो ( तदा) तब ( शुभम् ) शुभ ( जलं ) जल की वर्षा (विन्धाद् ) जानो । भावार्थ-जब दिशाओं में मेघ अंजन गिरि के समान काले, स्निग्ध मन्दगति से चलने वाले और शान्त दिखे तो समझो मेघों का आगम न होने वाला है शुभ है ॥ २ ॥ पीतपुष्पनिभो यस्तु यदा मेघः समुत्थितः । शान्तायां यदि दृश्येत स्निग्धो वर्षं तदुच्यते ॥ ३ ॥ ( यदा) जब (मेघः ) मेध ( पीतपुष्पनिभो ) पीले पुष्प के समान प्रभा वाले ( यस्तु ) जब ( शान्तायां ) शान्त और (स्निग्धो ) स्निग्ध (यदि) यदि (दृश्यते) दिखाई दे तो (वर्ष) वर्षा होगी (तदुच्यते) ऐसा कहा गया है। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'L मार्गदर्शक अष्टम अध्यायः श्लोक २ अष्टम अध्यायः श्लोक ३ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ अष्टमोऽध्यायः भावार्थ-जब मेघ पीले पुष्प के समान आभा वाले हो, शांत हो, स्निग्ध हो तो समझो अवश्य ही वर्षा होगी ।। ३॥ रक्तवर्णो यदामेघः शांतायांदिशि दृश्यते। स्निग्धो मदगतिश्चापि तदा विन्द्याज्जलं शुभम् ॥४॥ (यदा) जब (मेघः) मेघ (रक्तवर्णो) लाल रंगके होकर (शांतायां) शान्त (स्निग्धो) स्निग्ध (चापि) और भी (मन्दगति) मन्द गति से चलते (दिशि) दिशाओं में (दृश्यते) दिखाई दे तो (तदा) तब (शुभम्) शुभ (जलं) जल की वर्षा (विन्द्याद्) जानो। भावार्थ-जब मेघ लाल रंगके शान्त, स्निग्ध और मन्द गति से चलने वाले दिशाओं में दिखाई दे तो समझो शुभ जल की वर्षा होगी॥४॥ शुक्ल वर्णो यदा मेघः शान्तायां दिशि दृश्यते। स्निग्धो मन्दगतिश्चापि निवृत्तः स जलावहः ॥ ५॥ (यदा) जब (मेघ:) मेघ (दिशि) दिशाओं में (शुक्लवर्णो) सफेद रंग के (शान्तायां) शान्त (चापि) और (स्निग्धो) स्निग्ध (मन्दगतिः) मन्द गति चलते हुऐ (दृश्यते) दिखाई दे (स) वह (जलावहा:) जल का आगमन कराके (निवृत्तः) निवृत्त हो जाते हैं। भावार्थ-जब मेघ सफेद होकर दिशाओं में शान्त और स्निग्ध दिखाई दे और मन्दगति से चले तो समझो अवश्य ही जल की वर्षा करायेगें और वर्षा होने के बाद वो मेघ निवृत्त हो जाते हैं।। ५ ।। स्निग्धाः सर्वेषु वर्णेषु स्वां दिशं संसृता यदा। स्ववर्ण विजयं कुर्युर्दिक्षु शान्तासु ये स्थिताः ।।६।। (यदा) जब मेघ (सर्वेषु वर्णेषु) सब वर्णो के होकर (स्वां) अपनी (दिशं) दिशाओं में (संसृता) दिखे (शान्ता) शान्त हो (स्थिता:) स्थित हो तो (स्व) अपने-अपने (वर्ण) वर्ण की (विजयं) विजयको (कुर्यु:) कराती है। भावार्थ-जब मेघ सब वर्गों में अपनी दिशाओं में शान्त होकर स्थित हो तो समझो अपने-अपने वर्गों की विजय कराता है॥६॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १४८ यथास्थितं शुभं मेघमनुपश्यन्ति पक्षिणः । जलाशया जलधरास्तदा विन्द्याञ्जलं शुभम् ।।७।। (यदि) मेघ (यथास्थित) यथा स्थित होकर (पक्षिणः) पक्षियों के सदृश्य, (शुभं) शुभ (जलाशया) जलाशय के आकार (जलधरा:) जलधर हो (तदा) तब (शुभं) शुभ (जलं) जल को (विन्द्यात्) जानो। भावार्थयदि मेघ सरोवर और पक्षीयों के आकार के दिखाई दे तो समझो अच्छी जल की वर्षा होगी, खूब मेघ बरसेंगे धरा जल से तृप्त हो जायेगी ।। ७। स्निग्ध वर्णाश्च ते (ये) मेघा स्निग्धनादाश्च ते (ये) सदा। मन्दगा: सुमुहूर्ताश्च ये (ते) सर्वत्र जलावहाः॥८॥ (ते) वे (मेघा) मेघ (स्निग्धवर्णाश्च) स्निग्ध वर्ण के (ते) वे (सदा) सदा (स्निग्धनादाश्च) स्निग्ध रूप दिखाई देने वाले, (मन्दगाः) मन्द गति वाले (सुमुहूर्ताश्च) सुमुहूर्तरूप हो तो (ते) वे (सर्वत्र) सर्वत्र (जलावहा:) जल को बरसाने वाले होते भावार्थ-जो मेघ स्निग्धवर्ण के अतिस्निग्ध, मन्दगति से गमन करने वाले, सुमुहूर्त वाले यदि आकाशमें दिखाई दे तो समझो सब जगह बहुत ही वर्षा होती है।। ८॥ सुगन्धगन्धा ये मेघाः सुस्वराः स्वादुसंस्थिताः। मधुरोदकाश्च ये मेघा जलाय जलदास्तथा ॥९॥ (ये) जो (मेघाः) मेघ (सुगन्धगन्धा) अत्यन्त सुगन्धिकी गन्धसे युक्त (सुस्वराः) सुस्वरा करने वाले, (स्वादु) अच्छे स्वाद वाले, (संस्थिताः) संस्थित (च) और (मधुरोदका:) मीठे जल वाले यदि होते है (जलाय) जलवाले (जलदास्तथा) जल बरसाने वाले होते हैं। भावार्थ-जो मेघ बहुत ही सुगन्धि से युक्त अच्छे शब्द वाले स्वादु संस्थित और मिले जलवाले हो तो समझो जल से परिपूर्ण मेध है और ऐसे मेघ बहुत ही जल बरसाने वाले होते हैं मानो अच्छी वर्षा होगी॥९।। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज । अष्टमो अध्यायः श्लोक ४ अष्टमा अध्यायः श्लोक ५ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ अष्टमोऽध्यायः मेघा यदाऽभिवर्षन्तिप्रयाणे मधुरेणैल मधुराः तदा ( यदा) जब (मेघा ) मेघ (मधुराः) मधुर और (मधुरेणैव ) मनोहर होकर ( पृथिवीपतेः) राजाके (प्रयाणे ) युद्ध प्रयाण के समय (अभिवर्षन्ति) बरसते हैं ( तदा ) तब (सन्धिर्भविष्यति ) सन्धि हो जाती है। भावार्थ — जब मेघ राजा के युद्ध प्रयाण समय में मनोहर और मधुर होकर बरसते हैं तो समझो अवश्य ही युद्ध न होकर दूसरे राजा के साथ सन्धि हो जायेगी ॥ १० ॥ वर्षत: श्रेष्ठं अग्रतोविजयङ्करम् । मेघाः कुर्वन्ति ये दूरे सगर्ज्जित सविद्युतः ॥ ११ ॥ पृष्ठतो ( मेघा : ) मेघ यदि राजाके शुद्ध प्रयाण समय में ( दूरेसगर्जित) दूर गर्जना करते हो, (सविद्युतः ) बिजली की चमक से सहित होकर (पृष्ठतो) पीछे से (वर्षतः) वर्षा करते है तो श्रेष्ठ है, (अग्रतो) आगे से वर्षे तो ( विजयङ्करम्) राजा की विजय कराने के सूचक है। भावार्थ — यदि मेघ दूरवर्ति होकर गर्जते हैं उसमें बिजली चमकती हो और पीछे से वर्षा करते हैं तो श्रेष्ठ है और यदि उसी प्रकार मेघ आगे से बरसते हैं तो राजा के विजय कराने वाले हैं ॥ ११ ॥ पृथिवीपतेः । सन्धिविष्यति ॥ १०॥ पार्थिवः । दुर्जयम् ॥ १२ ॥ मेघशब्देन महता यदा निर्याति गर्जमानेन तदा जयति पृष्ठतो ( यदा) जब (पार्थिवः) राजा के ( निर्याति) प्रयाण समय में (मेघ) मेघ ( शब्देन महता ) महान शब्द करते हुऐ ( पृष्ठतो) पीछे से (गर्जमानेन) गर्जना करते है ( तदा) तब (दुर्जयम्) प्रतिशत्रु राजा की ( जयति) जय होती है। भावार्थ — यदि मेघ राजाके प्रयाणसमयमें पीछे से बड़ी जोर से गर्जना करते हों तो समझो दूसरे राजाकी विजय हो जायगी ॥ १२ ॥ महता यदा तिर्यग् मेघशब्देन प्रधावति । न तत्र जायते सिद्धि रुभयोः परि सैन्ययोः ॥ १३ ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | १५० (मेघ) मेघ (महता) महान (शब्देन) शब्द करते हुऐ (यदा) जब (तिर्यग्) तिरच्छे रूपमें (प्रधावंति) दौड़ते हैं (तत्र) वहाँ पर (सिद्धि) सिद्धि (न) नहीं (जायते) होती है (रुभयोः) दोनों ही (परिसैन्ययोः) परिसेना में। भावार्थ-मैध यादे महान् शब्द करते हुऐ राजा के तिरच्छे रूपमें चलते है तो समझो शत्रु और प्रतिशुत्र दोनों ही राजाकी सेना को सिद्धि नहीं मिलेगी, दोनों ही सेना युद्ध में असफल रहेगी॥१३॥ मेघा यत्राभि वर्षान्ति स्कन्धावार समन्ततः। स नायका विद्रवते सा चमूर्नात्र संशयः ।। १४॥ (मेघायत्राभि) मेघ जहाँ पर ही (वर्षान्ति) बरसते हैं (स्कन्धावार) वो भी मूसलाधार (समन्नत:) हो चारों तरफ से हो तो (स नायका) नायक सहित (सा चमू) सेना भी (विद्रवते) रक्त से द्रवित होती है (नात्रसंशय) उसमें कोई संशय नहीं करना चाहिये। ___ भावार्थ-मेध यदि सेना पर मूसलाधार होकर अच्छी तरह से बरसते है तो समझो राजा और राजा की सेना दोनों ही युद्ध में रक्त रंजित हो जायगें।।१४।। रूक्षा वाताः प्रकुर्वन्ति व्याधयो विष्टगन्धितः। कु शब्दाश्च विवर्णाश्च मेघो वर्षं न कुर्वते॥१५ ।। यदि (रूक्षावाता:) रूक्ष वायु (विष्टगन्धित:) विष्टा के समान गन्ध वाली वायु चले तो (व्याधयो) व्याधि को (प्रकुर्वन्ति) उत्पन्न करती है अगर (कुशब्दाश्च) मेघ कुशब्द करते हो, (विवर्णाश्च) विवर्ण हो तो (मेघो) मेघ (वर्ष) वर्षा को (न) नहीं (कुर्वते) करते हैं। भावार्थ-वायु यदि रूक्ष हो और विष्टा के समान दुर्गन्धित हो तो सब जगह रोग उत्पन्न होगा, यदि मेघ विवर्ण होते हुऐ कुशब्द करते हो तो वहाँ पर वर्षा नहीं होगी॥१५॥ सिंहा शृगाल मार्जारा व्याघ्र मेघाः द्रवन्ति ये। महता भीम शब्देन रुधिरं वर्षन्ति ते घनाः ॥१६॥ (ये) जो (मेघा:) मेघ (सिंहा) सिंहरूप (शृगाल) शृगालरूप (मार्जारा) बिल्ली Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ अष्टमोऽध्यायः के आकार ( व्याघ्र ) चीता के रूप होकर (महता भीम शब्देन ) बहुत ही भयंकर गर्जना के साथ (द्रवन्ति) जगाते हैं तो (ते) से (म:) ऐघ (रूधियं) रुधिर की ( वर्षान्त) वर्षा करते हैं । भावार्थ — जो मेघ सिंह, शृगाल, बिल्ली व चीता के आकार होकर महान भयंकर गर्जना करते हुऐ वर्षा करते हैं तो मेघ रक्त की वर्षा करते हैं ॥ १६ ॥ पक्षिणश्चापि क्रव्यादा वा पश्यन्ति समुत्थिताः । मेघास्तदाऽपि रुधिरं वर्षं वर्षन्ति से मेघ यदि (पक्षिण) पक्षीओं के आकार व ( क्रव्यादा ) उड़ने वाले पक्षीयों के आकार (समुत्थिताः) उपस्थित होकर (पश्यन्ति ) दिखाई देते है (मेघाः) आकाश में ( तदाऽपि ) तो भी (ते) वे (घनाः) मेघ ( रुधिरं ) रक्तकी ( वर्षं) वर्षा ( वर्षन्ति ) बरसते हैं। घनाः ।। १७ ॥ भावार्थ-यदि मेघ दुष्ट पक्षियों के आकार जो आकाश में उड़ते हैं होकर दिखाई पड़े तो भी समझो वहाँ पर रक्त की वर्षा होगी ॥ १७ ॥ अनावृष्टि भयं घोरं दुर्भिक्षं मरणं निवेदयन्ति ते मेघा ये भवन्ती तथा। दृशादिवि ॥ १८ ॥ (ते) वे (मेघा ) मेघ, (अनावृष्टि) अनावृष्टि करते है (घोरं ) घोर ( भयं ) भयको (तथा) तथा ( दुर्भिक्षं) दुर्भिक्ष व ( मरणं) मरण को (निवेदयन्ति ) निवेदन करते हैं (ये) इन (मेघा ) मेघों का (हशा) ऐसा ही (दिवि) फल ( भवन्ति ) होता है। भावार्थ — वे मेघ, जो उपर्युक्त कह आये है, उन सबका फल, अनावृष्टि करना भय उपस्थित होना दुर्भिक्षका पड़ जाना वा मरण की सूचना देते है इन मेघों का ऐसा ही फल होता है ऊपर जो मेघों की दृष्ट पक्षियों के आकार की कही है वैसे दिखे तो समझो मरणादिक के भय की सम्भावना बनती है ॥ १८ ॥ करणे मेघाः शकुने शुभे । तिथौ मुहूर्त्त नक्षत्रे सम्भवन्ति पापदास्ते भयङ्कराः ॥ १९ ॥ (अशुभ) अशुभ (तिथौ ) तिथी, (मुहूर्त्त ) मुहूर्त ( करणे) करण, (नक्षत्रे) नक्षत्र यदा Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता (शकुने) शकुन आदि में (यदा) जब (मेघाः) मेघ आकाशमें (सम्भवन्ति) दिखलाई पड़े तो (पापदास्ते) पापरूप व (भयङ्कराः) भयंकर होते हैं। भावार्थ-यदि मेघ आकाश में अशुभ तिथि नक्षत्र मुहूर्त करण, शकुन आदि को दिखलाई पड़े तो समझो मेघ पाप रूप है उन का फल बहुत ही भयंकर होने वाला है।।१९॥ एवं लक्षण संयुक्ताश्चमूं वर्षन्ति ये घनाः। चमूं सनायकां सर्वां हन्तुमाख्यान्ति सर्वशः ।। २०॥ (ये) वे (घनाः) मेघ (एवं) हम पकार के (लक्षण) लक्षण से (संयुक्ताश्चमूं) संयुक्त होकर सेना के ऊपर (वर्षन्ति) बरसते है तो, (चमूं) सेना व (सनायकां) उसके नायक सहित (सर्वां) सबका (हन्तुमाख्यान्ति) हनन होगा ऐसा कहा गया है, (सर्वश:) सब तरह से। ___ भावार्थ-इस प्रकार के लक्षण वाले यदि मेघ जिस सेनाके ऊपर बरस जाते हैं तो समझो अवश्य ही, उस सेना के नायकसहित सबका विनाश हो जायेगा, ऐसा आचार्यश्री ने सूचित किया है।। २० ॥ रक्ते: पांशुः सघूमं वा क्षौद्रं केशाऽस्थिशर्कराः। मेघाः वर्षन्ति विषये यस्य राज्ञो हतस्तु सः॥२१॥ मेघ (रक्ते:) लालरंग के (पांशु) धुलि (सघूम) धुम (वा) वा (क्षौद्र) मधु (केशा) केश (अस्थि) हड्डी (शर्करा:) शकर के समान होकर (विषये) जिसके ऊपर (वर्षन्ति) बरषते है (यस्य) तो उसी का (राज्ञो) राजा (हतस्तु स:) मारा जाता है। भावार्थ-यदि मेघ लालरंग के होकर धूली समान हो धूम्र के समान हो मधु के समान हो केश के समान हो हड्डी के समान हो शर्करा के समान होकर जिस राजा के ऊपर बरसते हैं वही राजा मारा जाता है।। २१॥ क्षारं वा कटुकं वाऽथ दुर्गन्धं सस्य नाशनम्। यस्मिन् देशेऽभि वर्षन्ति मेघा देशो विनश्यति ।। २२॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ अष्टमोऽध्यायः (यस्मिन्देशे) जिस देश के ऊपर (मेघा) मेघ, (क्षार) खार रूप, (वा) वा (कटुक) चरपरा (वाऽथ) अथवा (दुर्गन्धं) दुर्गन्ध युक्त होकर (अभिवर्षन्ति) बरषते है तो (देशो) उस देश का (विनश्यति) नाश हो जायेगा और (सस्य नाशनम्) धान्य का नाश करने वाले हैं। भावार्थ-जिस देश के ऊपर मेघ यदि खार रूप, चरपरेरूप का दुर्गन्ध युक्त होकर बरसते हैं तो समझो उस देश में सब प्रकार के धान्य नष्ट हो जायगे और उस देश का भी नाश हो जायेगा । २२।। प्रयानं पार्शिवं गन मेघो विनास्य वर्षति। वित्रस्यो बध्यते राजा विपरीतस्तदाऽपरे॥२३॥ (यत्र) जहाँ (मेघो) मेघ (वित्रास्य) त्राशयुक्त (वर्षति) होकर बरसते है तो भी (पार्थिवं) राजा (प्रयातं) के प्रयाण समय में तो (राजा) राजा (वित्रस्यो) त्रासयुक्त होकर (बध्यते) मारा जाता है (विपरीतस्तदाऽपर) उससे विपरीत त्राशयुक्त होकर नहीं बरसते हैं तो ऐसा फल नहीं होता। भावार्थ-यदि मेघ राजा के प्रयाण समय में त्राशदायक होकर बरसते हैं तो समझो राजाका मरण भी कष्टदायक अवस्था में होगा, यदि कष्टदायक मेघ नहीं बरसते हैं तो समझो राजा का मरण नहीं होगा ।। २३ ॥ सर्वत्रैव प्रयाणेन नृपोयेनाभिषिच्यते। रुधिरादिविशेषेण सर्वघाताय निर्दिशेत् ।। २४ ।। (नृपो) राजा के (सर्वत्रैवप्रयाणेन) प्रयाण के समय (विशेषण) विशेष रूप से (रुधिरादि) रक्तादिकसे (येनाभिषिच्यते) वर्षा हो तो (सर्वधाताय) सबके घात का (निर्दिशेत्) निर्देशन किया गया हैं। भावार्थ-राजा के प्रयाण समय में विशेष रीतिसे रक्तादिक से वर्षा हो तो समझो उस राजा की सेना में कोई नहीं बचेगा ॥ २४ ॥ मेघाः सविद्युतश्चैव सुगन्धाः सुस्वराश्च ये। सुवेषाश्च सुवाताश्च सुधियाश्च सुभिक्षदाः ॥२५॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रकुचला (मेघाः ) मेघ ( सविद्युतश्चैव) बिजली सहित हो ( सुगन्धाः ) सुगन्धयुक्त हो, (सुस्वराश्च) सुस्वर वाले है (च) और (सुवेषाश्च) अच्छी आकृति वाले ( सुत्राताश्च) अच्छी वायु वाले (सुधियाश्च) और अच्छे हो तो (सुभिक्षदा) सुभिक्ष को लाने वाले होते हैं। भावार्थ - यदि मेघ बिजली की चमक सहित हो, सुगन्ध युक्त हो अच्छी गर्जना से युक्त हो अच्छी आकृति वाले हो अच्छी वायु से युक्त हो तो समझो देश में सुभिक्ष करेंगे ॥ २५ ॥ १५४ तानि अभ्राणां यानि रूपाणि सन्ध्यायामपि यानि च । मेघेषु सर्वाणि समासव्यासतो विदुः ॥ २६ ॥ (यानि) जो (आभ्राणां ) बादलों का ( रूपाणि) स्वरूप है वही ( सन्ध्यायामपि ) सन्ध्याओंका भी वर्णन है ( तानि) उसी प्रकार (सर्वाणि) सब ( मेघेषु) मेघों का वर्णन भी (समासव्यासतो ) विस्तार से ( विदुः ) जानना चाहिये । भावार्थ — जो बादलों के लक्षण व फल कहे गये हैं वैसे ही सन्ध्याओं का लक्षण व फल जानो, उसी प्रकार लक्षण व फल मेघों का भी जानना चाहिये ॥ २६ ॥ साधनं ज्ञेयं मेघेष्वपि उल्कावत् अत: परं प्रवक्ष्यामि वातानामपि तदादिशेत् । लक्षणम् ॥। २७ ॥ (उल्कावत् ) उल्काओं के समान ही ( मेघेष्वपि ) मेघों का भी ( साधनं ) लक्षण (ज्ञेयं) जानना चाहिये, ( तदादिशेत् ) ऐसी आज्ञा है (अतः ) अब मैं (वातानामपि ) वायुके भी (लक्षणम्) लक्षण को ( परं) अच्छी तरह से ( प्रवक्ष्यामि) कहूँगा । भावार्थ—उल्काओं के समान ही मेघों का लक्षण व फल समझो अब मैं वायुओं के लक्षण व फल कहूँगा ।। २७ । विशेष वर्णन- अब आचार्य इस अष्टम अध्याय में मेघों का वर्णन कर रहे हैं इस अध्याय में मेघों का वर्ण आकृति, काल आदि के अनुसार शुभाशुभ का वर्णन करेंगे। मेघों का फल जहाँ पर दिखता हैं उसी स्थान पर उसका फल होता है, मेघों से सुभिक्ष या दुर्भिक्ष, शुभ या अशुभ, हानि या लाभ, अतिवृष्टि या अनावृष्टि आदि मालूम पड़ते हैं, मेघों की आकृतियाँ चारों वर्णों के लिये शुभाशुभ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F १५५ अष्टमोऽध्यायः कहते हैं, विशेषकर इस अध्याय में वर्षा का ही विशेष वर्णन किया गया तो भी थोड़ा अन्य बातों का भी वर्णन किया गया है, कौन से महीने में कौन दिशा से मेघ दिखे और कौन सी ऋतु चल रही हैं उसके अनुसार फलादेश होता है । ऋतु के अनुसार विचार करने पर वर्षा ऋतु शरद् ऋतु, ग्रीष्म ऋतु इन तीनों ही ऋतुओं के फल अलग-अलग होता है, वर्षा ऋतु के मेघों से वर्षा का विचार किया जाता है। शरद ऋतु के मेघों से शुभाशुभ का विचार किया जाता है। ग्रीष्म ऋतु के मेघों से वर्षा की भी सूचना मिलती है और विशेषकर विजय, यात्रा लाभ अलाभ, इष्ट अनिष्ट, जीवन, मरण आदि का विचार किया जाता है । जैसे कार्तिक की पूर्णिमां को मेघ वर्षा करे तो उस प्रदेश की आर्थिक स्थिति अच्छी हो जाती है, धान्योत्पत्ति भी बहुत अच्छी होती है प्रजामें शान्ति हो जाती है । कोई व्यक्ति कार्तिक पूर्णिमां को नीले रंग के बादलों को देखता है तो, उसको उदर पीड़ा तीन महीनों में अवश्य होगी। शुक्ल वर्ण के मेघ दर्शन से व्यक्ति को लाभ होता हैं, जीवों को पुण्य पापानुसार दिशाओं में बादल दिखलाई पड़ते है, और उसी प्रकार शुभाशुभ फल होता है, सुभिक्ष भी ऐसी जगह ही होता है मेघ वर्षा भी ऐसी जगह ही करते हैं जहाँ के लोग पुण्यात्मा व धर्मात्मा, साधु सेवा करने वाले हो । जहाँ के लोग पापी, दुरात्मा, हिंसक, परपीडाकारक व्यसनी, धर्म से रहित हो तो ऐसे स्थान पर दुर्भिक्ष, आरि-मारी चोर, राजा का उपद्रव अनावृष्टि आदि होते हैं और दुःखित होते है, धर्म के प्रभाव से ही वर्षादि अच्छे होते हैं। विशेष जानकारी के लिये डॉ. नेमीचन्द का अभिप्राय देखे । विवेचन — मेघोंकी आकृति, उनका काल, वर्ण, दिशा प्रभृतिके द्वारा शुभाशुभ फलका निरूपण मेघ अध्यायमें किया गया है। यहाँ एक विशेष बात यह है कि मेघ जिस स्थान में दिखलाई पड़ते हैं उसी स्थानपर यह फल विशेषरूपसे घटित होता है । इस अध्यायका महत्त्व भी वर्षा, सुकाल, फसलकी उत्पत्ति इत्यादिके सम्बन्धमें Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १५६ ही विशेषरूपसे फल बतलाना है। यों तो पहलेके अध्यायों द्वारा भी वर्ष और सुभिक्ष सम्बन्धी फलादेश निरूपित किया गया है, पर इस अध्यायमें भी यही फल प्रतिपादित है। मेघोंकी आकृतियाँ चारों वर्णके व्यक्तियोंके लिए भी शुभाशुभ बतलाती हैं। अत: सामाजिक और वैयक्तिक इन दोनों ही दृष्टिकोणों से मेघों के फलादेशका विवेचन किया जायगा। ___ मेघोंका विचार ऋतुके क्रमानुसार करना चाहिए। वर्षा ऋतुके मेघ केवल वर्षाकी सूचना देते हैं। शरद् ऋतुके मेघ शुभाशुभ अनके प्रकारका फल सूचित करते हैं। ग्रीष्म ऋतुके मेघोंसे वर्षाकी सूचना तो मिलती ही है, पर ये विजय, यात्रा, लाभ, अलाभ, इष्ट, अनिष्ट, जीवन, मरण आदिको भी सूचित करते हैं। मेघोंकी भी भाषा होती है। जो व्यक्ति मेघोंकी भाषा—गर्जनाको समझ लेते हैं, वे कई प्रकार के महत्त्वपूर्ण फलादेशोंकी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। पशु, पक्षी और मनुष्योंके समान मेघोंकी भी भाषा होती है और गर्जन-तर्जन द्वारा अनेक प्रकारका शुभाशुभ प्रकट हो जाता है। यहाँ सर्व प्रथम ग्रीष्म ऋतुके मेघोंका निरूपण किया जायगा। ग्रीष्म ऋतुका समय फाल्गुनसे ज्येष्ठ तक माना जाता है। यदि फाल्गुनके महीनमें अंजनके समान काले-काले मेघ दिखलाई पड़ें तो इनका दर्शकों के लिये शुभ, यशप्रद और आर्थिक लाभ देनेवाला होता है। जिस स्थान पर उक्त प्रकारके मेघ दिखलाई पड़ते हैं, उस स्थान पर अन्नका भाव सस्ता होता है, व्यापारिक वस्तुओंमें हानि तथा भोगोपभोगी वस्तुएँ प्रचुर परिमाणमें उपलब्ध होती हैं। वस्त्रके भाव साधारणरूपसे कुछ ऊँचे चढ़ते हैं। स्निग्ध, श्वेत और मनोहर आकृतिवाले मेघ जनतामें शान्ति, सुख, लाभ और हर्ष सूचक होते हैं। व्यापारियोंको वस्तुओंमें साधारणतया लाभ होता है। अवशेष ग्रीष्म ऋतुके महीनों में सजल मेघ जहाँ दिखलाई पड़ें उस प्रदेशमें दुर्भिक्ष, अन्नकी फसलकी कमी, जनताको आर्थिक कष्ट एवं आपसमें मनमुटाव उत्पन्न होता है। चैत्र मासके कृष्णपक्षके मेघ साधारणतया जनतामें उल्लास, आगामी खेतीका विकास और सुभिक्षकी सूचना देते हैं। चैत्र कृष्ण प्रतिपदाको वर्षा करने वाले मेघ जिस क्षेत्रमें दिखलाई पड़ें तो उस क्षेत्र में आर्थिक संकट रहता है। हैजा और चेचक की बीमारी विशेष रूप से फैलती है। यदि इस दिन रक्त वर्णके मेघ आकाशमें संघर्ष करते हुए दिखलाई पड़ें तो वहाँ सामाजिक संघर्ष होता Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ अष्टमोऽध्यायः । है। चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को भी मेघों की स्थिति का विचार किया जाता है। यदि इस दिन गर्जन-तर्जन करते हुए मेघ आकाशमें बूंदा-बूंदी करे ता उस प्रदेशके लिए भयदायक समझना चाहिए। फसलकी उत्पत्ति भी नहीं होती है तथा जनतामें परस्पर संघर्ष होता है। चैत्र पूर्णिमाको पीतवर्णके मेघ आकाशमें घूमते हुए दिखलाई पड़ें तो आगामी वर्ष उस प्रदेशमें फसलकी क्षति होती है। तथा पन्द्रह दिनों तक अन्नका भाव महँगा रहता है। सोना और चाँदीके भावमें भी घटा-बढ़ी होती है। शरबत्तुके मेघ वर्षा और सुभिक्षके साथ उस स्थानकी आर्थिक और सामाजिक उन्नति-अवनतिकी भी सूचना देते हैं। यदि कार्तिककी पूर्णिमाको मेघ वर्षा करें और उस प्रदेशकी आर्थिक स्थिति दृढ़तर होती है, फसल भी उत्तम होती है तथा समाजमें शान्ति रहती है। पशुधनकी वृद्धि होती है, दूध और घी की उत्पत्ति प्रचुर परिमाणमें होती है तो उस प्रदेशके व्यापारियोंको अच्छा लाभ होता है। जो व्यक्ति कार्तिकी पूर्णिमाको नील रंगके बादलोंको देखता है, उसके उदरमें भयंकर पीड़ा तीन महीनोंके. भीतर होती है। पीत वर्णके मेघ उक्त दिनको दिखलाई पड़ें तो किसी स्थान विशेषसे आर्थिक लाभ होता है। श्वेतवर्णके मेयके दर्शनसे व्यक्तिको सभी प्रकार के लाभ होते हैं। मार्गशीर्ष मासकी कृष्ण प्रतिपदाको प्रात:काल वर्षा करनेवाले मेघ गोधूम वर्णके दिखलाई पड़ें तो उस प्रदेशमें महामारीकी सूचना अवगत करनी चाहिए | इस दिन कोई व्यक्ति स्निग्ध और सौम्य मेघों का दर्शन करे तो अपार लाभ, रूक्ष और विकृत वर्णके मेघों का दर्शन करे तो आर्थिक क्षति होती है। उक्त प्रकारके मेघ वर्षाकी भी सूचना देते हैं। आगामी वर्षमें उस प्रदेशमें फसल अच्छी होती है। विशेषत: गन्ना, कपास, धान, गेहूँ, चना और तिलहनकी उपज अधिक होती है। व्यापारियोंके लिए उक्त प्रकारके मेघका दर्शन लाभप्रद होता है। मार्गशीर्ष कृष्णा अमावस्याको छिद्र युक्त मेघ बूंदा-बूंदीके साथ प्रात:कालसे सन्ध्याकाल तक अवस्थित रहें तो उस प्रदेशमें वर्तमान वर्षमें फसल अच्छी तथा आगमी वर्षमें अनिष्टकारक होती है। इस महीनेकी पूर्णिमाको सन्ध्या समय रक्तपीत वर्णके मेघ दिखलाई पड़ें तथा गर्जनके साथ वर्षण भी करें तो निश्चयसे उस प्रदेशमें आगामी आषाढ़ मासके सम्यक् वर्षा होती है तथा वहाँके निवासियोंको सन्तोष और शान्तिकी प्राप्ति हो है। यदि उक्त दिन प्रात:काल आकाश निरभ्र रहे तो आगामी वर्ष वर्षा साधारण Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाह संहिता १५८ होती है तथा फसल भी साधारण ही होती है। जो व्यक्ति उक्त तिथिको अंजनवर्णके समान मेघोंका भी दर्शन प्रात:काल ही करता है, उसे राजमम्मान प्राप्त होता है, तथा किसी प्रकारकी उपाधि भी उसे प्राप्त हो है। रक्त वर्णके मेघका दर्शन इस दिन व्यक्तिगत रूपसे अनिष्टकारक माना गया है। यदि कोई व्यक्ति उक्त तिथिको मध्य रात्रिमें सछिद्र आकाशका दर्शन करे तथा दर्शन करने के कुछ ही समय उपरान्त वर्षा होने लगे तो व्यक्तिगत रूप से इस प्रकार के मेघ का दर्शन बहुत उत्तम होता है। पृथ्वीसे निधि प्राप्त होती है तथा धार्मिक कार्योंके करनेमें विशेष प्रवृत्ति बढ़ती हैं। संसार में जिन-जिन स्थानों पर उक्त तिथि को वर्षा करते हुए मेघ देखे जाते है। उन-उन स्थानों पर सुभिक्ष होता है तथा वर्तमान और आगामी दोनों ही वर्ष श्रेष्ठ समझे जाते हैं। पौषमासकी अमावस्याको आकाशमें बिजली चमकनेके उपरान्त वर्षा करते हुए मेघ दिखलाई पड़ें तो उत्तम फल होता है। इस दिन श्वेत वर्णके मेघोंका दर्शन बहुत शुभ माना जाता है। पौषमासकी अमावस्याको यदि सोमवार, शुक्रवार और गुरुवार हो और इस दिन मेघ आकाशमें घिरे हुए हों तो जलकी वर्षा आगामी वर्ष अच्छी होती है। फसल भी उत्तम होती है और प्रजा भी सुखी रहती है। यदि यही तिथि शनिवार, रविवार और मंगलवार को तथा आकाश निरभ्र हो या सछिद्र विकृत वर्णके मेघ आकाशमें आच्छादित हों तो अनावृष्टि होती है और अन्न महँगा होता है। "डाक" कविने हिन्दीमें पौषमासकी तिथियोंको मेघोंका फलादेश निम्न प्रकार बतलया है पौष इजोड़िया सप्तमी अष्टमी नवमी वाज। डाक जलद देखे प्रजा, पूरण सब विधि काज॥ अर्थात्---पौष शुक्ला प्रतिपदा, सप्तमी, अष्टमी, नवमी तिथिको यदि आकाशमें बादल दिखलाई पड़े तो उस वर्ष वर्षा अच्छी होती है। धन-धान्यकी उत्पत्ति अधिक होती है और सर्वत्र सुभिक्ष दिखलाई पड़ता है। जो व्यक्ति उन तिथियोंमें प्रात:काल या सायंकाल मयूर और हंसाकृति के मेघों का दर्शन करता है, वह जीवनमें सभी प्रकारकी इच्छाओंको प्राप्त कर लेता है। उक्त प्रकार के मेघका दर्शन व्यक्ति और समाज दोनोंके लिए मंगल करनेवाला होता है। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i १५१ अष्टारो ऽन पौषबदी सप्तमी तिथि मांहीं, बिन जल बादल गंजत आहीं । पूनो तिथि सावनके मास, अतिशय वर्षा राखो आस ॥ पौषबदी दशमी तिथि मांही, जौ वर्ष मेघा अधिकाहीँ । तो सावन वदि दशमी दरसे, सा मेघा पुहुमी बहु बरसे ।। रवि या रवि सुत ओ अंगार, पूस अमावस कहत गोआर । अपन अपन घर चेतहु जाय, रतनक मोल अन्न विकाय ॥ पौष वदी सप्तमीको बिना जल बरसाये बादल गर्जना करें तो श्रावणमासमें अत्यन्त वर्षा होती है। यदि पौष वदी दशमी तिथिको अधिक वर्षा हो तो श्रावण वदी दशमीको इतना अधिक जल बरसता है कि पानी पृथ्वी पर नहीं समाता । पौष, अमावास्या, शनिवार और रविवार को मंगलवार हो तो अन्नका भाव अत्यन्त महँगा होता है । वर्षाकी कमी रहती है। पौष मासमें वर्षा होना और मेघोंका छाया रहना अच्छा समझा जाता है। यदि इस महीनेमें आकाश निरभ्र दिखलाई पड़े तो दुष्कालके लक्षण समझने चाहिए। पौषकी पूर्णिमाको प्रातः काल श्वेत रंगके बादल आकाशमें आच्छादित हों तो आषाढ़ और श्रावण मासमें अच्छी वर्षा होती है और सभी वर्णवाले व्यक्तिको आनन्दकी प्राप्ति होती है। यदि पौष शुक्ला चतुर्दशीको आकाशमें गर्जना करते हुए बादल दिखलाई पड़ें और हल्की वर्षा हो तो भाद्रपदमासमें अच्छी वर्षा होती है । माघमासके मेघोंका फल डाक ने निम्न प्रकार बतलाया है— माघ बदी सप्तमीके ताईं, जो विज्जु चमके नभ माईं। मास बारहो बरसे मेह, मत सोचो चिन्ता तजि देह || माघ सुदी पडिवाके मध्य, दमके विज्जु गरजे बद्ध । तेल आस सुरही दीनन मार, महँगो होवे 'डाक' गोआर ॥ माघ वदी तिथि अष्टमी, दशमी पूस अन्हार । 'डाक' मेघ देखी दिना, सावन जलद माघ द्वितीया चन्द्रमा, वर्षा बिजुली "डाक" कहथि सुनह नृपति अन्नक मंहगी माघ तृतीया सूदिमें, वर्षा बिजुली अपार ॥ होय । होय ।। देख । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १६० देख | शेष ॥ 'डाक' कहथि जौ गहुँम अति, मँहग वर्ष दिन लेख || माघ सुदीके चौथमें, जौं लागे धन मँहगो होवे नारियल, रहे न पाना माघ- पञ्चमी चन्द्र तिथि, वहय जो उत्तर तो जानौ भरि भाद्रमें, जलबिन पृथ्वी माघ सुदी षष्ठी तिथि, यदि वर्षा न होय । वाय । जाय ॥ 'डाक' कपास मँहगो मिले, राखें ता नहिं कांय ॥ अर्थ —— माघवदी सप्तमीके दिन आकाशमें बिजली चमके और बरसते हुए मेघ दिखलाई पड़ें तो अच्छी फसल होती है और वर्षा भी उत्तम होती है। बारह महीनोंमें ही वृष्टि होती रहती है, फसल उत्तम होती है । माघ सुदी प्रतिपदा के दिन आकाशमें बिजली चमके, बादल गर्जना करें तो तेल, घृत, गुड़ आदि पदार्थ महँगे होते हैं। इस दिनका मेघदर्शन वस्तुओंकी मँहगाई सूचित करता है । माघ कृष्ण अष्टमीको वर्षा हो तो सुभिक्ष सूचक है। मेघ स्निग्ध और सौम्य आकृतिके दिखलाई पड़ें तो जनताके लिए सुखदायी होते हैं। माघ वदी अष्टमी और पौष वदी दशमीको आकाशमें बादल हों तथा वर्षा भी हो तो श्रावण के महीनेमें अच्छी वर्षा होती है । माघ शुक्ला द्वितीयाको वर्षा और बिजली दिखलाई पड़े तो जी और गेहूँ अत्यन्त मँहगे होते हैं। व्यापारियोंको उक्त दोनों प्रकारके अनाजके संग्रहमें विशेष लाभ होता है । यद्यपि सभी प्रकार के अनाज महँगे होते हैं, फिर भी गेहूँ और जौ की तेजी विशेषरूपसे होती है। यदि माघ शुक्ला चतुर्थीके दिन आकाशमें बादल और बिजली दिखलाई पड़े तो नारियल विशेषरूपसे मँहगा होता है। यदि माघ शुक्ला पञ्चमीको वायुके साथ मेघोंका दर्शन होतो भाद्रपदमें जलके बिना भूमि रहती है । माघ शुक्ला षष्ठीको आकाश में केवल मेघ दिखलाई पड़ें और वर्षा न हो तो कपास महँगा होता है। माघ शुक्ला अष्टमी और नवमीको विचित्र वर्णके मेघ आकाशमें दिखलाई पड़ें और हल्की-सी वर्षा हो तो भाद्रपद मासमें खूब वर्षा होती है। वर्षा ऋतुके मेघ स्निग्ध और सौम्य आकृतिके हों तो खूब वर्षा होती है। आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदाके दिन मेघ गर्जन हो तो पृथ्वी पर अकाल पड़ता है और युद्ध होते हैं। आषाढ़ कृष्णा एकादशीको आकाशमें वायु, मेघ और बिजली दिखलाई - Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽध्यायः | पढ़ें तो श्रावण और भाद्रपदमें अल्पवृष्टि होती है। आषाढ़ शुक्ला तृतीया बुधवारको हो और इस दिन आकाशमें मेघ दिखलाई पड़ें तो अधिक वर्षा होती है। श्रावण शुक्ल सप्तमीके दिन आकाश मेघाच्छन्न हो तो देवोत्थान एकादशीपर्यन्त जल बरसता है। श्रावण माणा दिनु को जन वर्षे लो का दिनते ४५ दिन तक खूब वर्षा होती है। उक्त तिथिको आकाशमें केवल मेघ दिखलाई पड़ें तो भी फसल अच्छी होती है। श्रावणबदी पञ्चमीको तर्षा हो और आकाशमें मेघ छाये रहें तो चातुर्मास पर्यन्त वर्षा होती रहती है। श्रावण मासकी अमावस्या सोमवारको हो और इस दिन आकाशमें घने मेघ दिखलाई पड़ें तो दुष्काल समझना चाहिए। इसका फल कहीं वर्षा, कहीं सूखा तथा कहीं पर महामारी और कहीं पर उपद्रव होद समझना चाहिए। भाद्रपद सुदी पञ्चमी स्वाति नक्षत्रमें हो और इस दिन मेघ आकाशमें सघन हों तथा वर्षा हो रही हो तो सर्वत्र सुख-शान्ति व्याप्त होती है और जगत्के सभी दुःख दूर हो जाते हैं तथा सर्वत्र मंगल होता है। इस महीनेमें भरणी नक्षत्रमें वर्षा हो और मेघ आकाशकमें व्याप्त हों तो सर्वत्र सुभिक्ष होता है। गेहूँ, चना, जौ, धान, गन्ना, कपास और तिलहन की फसल खूब उत्पन्न होती है। भाद्रपद मासकी पूर्णिमाको जल बरसे तो जगतमें सुभिक्ष होता है। भाद्रपद मासमें अश्विनी और रोहिणी नक्षत्र में आकाशमें बादल व्याप्त हों, पर वर्षा न हो तो पशुओंमें भयंकर रोग फैलता है। आर्द्रा और पुष्यमें रक्तवर्णके मेघ संघर्षरत दिखलाई पड़ें तो विद्रोह और अशान्तिकी सूचना समझनी चाहिए। यदि इन नक्षत्रोंमें वर्षा भी हो जाय तो शुभ फल होता है। श्रवण नक्षत्रकी वर्षा उत्तम मानी गयी है। भाद्रपद कृष्णा प्रतिपदाको श्रवण नक्षत्र हो और आकाशमें मेघ हों तो सुभिक्ष होता है। इति श्री पंचम श्रुतकेवली दिगम्बराचार्य श्रीभद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहुसंहिता का विशेष वर्णन मेघों का लक्षण व उनका फल वर्णन करने वाला अष्टम अध्याय का हिन्दीभाषानुवाद की क्षेमोदय नाम की टीका समाप्त । (इति अष्टमोध्यायः समाप्त:) Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽध्यायः वायुओं का लक्षण व फल अथातः सम्प्रक्ष्यामि वात लक्षणमुत्तमम्। प्रशस्तमप्रशस्तं च यथा वदनुपूर्वशः ॥१॥ (अथातः) अब मैं (उत्तमम्) उत्तमरीति से (वातलक्षणं) वायुओं के लक्षण को (सम्प्रक्ष्यामि) कहूँगा। वायु भी (प्रशस्तं) प्रशस्त (च) और (अप्रशस्तं) अप्रशस्त रूप (यथा) जैसे (पूर्वश:) पूर्वमें (वदनु) कहा। भावार्थ-अब मैं उत्तमरीति से वायुओं के लक्षण को कहूँगा एवं वायु प्रशस्त और अप्रशस्त ऐसे दो प्रकार के कहे गये है मैं भी उसी प्रकार कहूँगा॥१॥ वर्ष भयं तथाक्षेमं राज्ञो जयपराजयम्। मारुतः कुरुते लोके जन्तूनां पुण्यपापजम्॥२॥ (मारुत:) वायु (लोके) संसार में (जन्तूना) प्राणियों के (पुण्यपापजम्) पुण्य और पाप के अनुसार (वर्ष) वर्षा (भयं) भय (तथा) तथा (क्षेम) क्षेम आदि और (राज्ञो) राजा की (जयपराजयम्) जय और पराजय (कुरुते) करते हैं। भावार्थ-संसार में वायु प्राणियों के पुण्य और पाप के अनुसार वर्षा, भय, क्षेम और राजा की जय पराजय करती है॥२॥ आदानाच्चैव, पाताच्च पचनाच्च विसर्जनात्। मारुतः सर्वगर्भाणां बलवान्नायकश्च सः॥३॥ (मारुत:) वायु (आदानात्) आदान (पाताच्च) पातन, (पचनाच्च) पचन, (विसर्जनात्) विसर्जनका कारण होने से (बलवान्) बलवान होता है (स:) वह (सर्वगर्भाणां) सब गर्मों का (नायकः) नायक है। भावार्थ-वह वायु आदान, पातन, पचन और विसर्जन का कारण होता है इसलिये सब गर्मों का नायक होता है।। ३ ।। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ नत्रमोऽध्यायः दक्षिणस्यां दिशि यदा वायुर्दक्षिण काष्ठिकः । समुद्रानुशयो नाम स गर्भाणां तु सम्भवः॥४॥ (दक्षिणस्यां) दक्षिण (दिशि) दिशा की (यदा) जब (वायु:) वायु (दक्षिणकाष्ठिकः) दक्षिण दिशा में ही चले तो (समुद्रानुशयो) उसका समुद्रानुशय (नाम) नाम है, (स) वह (गर्भाणां तु) गर्भो को (सम्भव:) उत्पन्न करता है। भावार्थ-यदि दक्षिण दिशा को वायु दक्षिण दिशा में ही चले तो उस का नाम समुद्रानुशय है और ये वायु गर्थों को उत्पन्न करता है।॥ ४॥ तेन सञ्जनितं गर्भ वायर्दशिक्षण काष्ठिकः।। धारयेत् धारणे मासे पाचयेत् पाचने तथा ।।५।। (तेन) उस समुद्रानुशय वायु से (सञ्जनितं) उत्पन्न (गर्भ) गर्भ को (वायु:) वायु (दक्षिणकाष्ठिका) दक्षिण में ही बहता हुआ, (धारयेत् धारणे मासे) धारण मासमें ही धारण करता है और (पाचयेत् पाचने तथा ) पाचन मासमें पकाता है। भावार्थ—उस समुद्रानुशय से उत्पन्न होने वाला गर्भ अगर दक्षिण दिशामें बहता हुआ धारण मासमें धारण करता है और पाचन मासमें पकाता है, याने जब आकाशमें वायु पूर्वक गर्भ दिखे तो समझो गर्भ धारण हो गया है वो कुछ अवधि बाद पककर फल देता है ।। ५॥ धारितं पाचितं गर्भ वायुरुत्तर काष्ठिकः । प्रमुञ्चति यतस्तोयं वर्ष तन्मरूदुच्यते॥६॥ (धारित) धारण किया हुआ और (पाचित) पका हुआ (गर्भ) गर्भ (रुत्तर) उत्तर की (वायु) वायु चलाता हुआ (यतस्तोयं) जब जल (वर्ष) बरसता हुआ (प्रमुञ्चति) छोड़ता है (तत्) तो उसको (मरूदुच्यते) मरूतवायु कहते हैं। भावार्थ-यदि गर्भ धारण करके पक कर वायु उत्तर दिशा को होकर बरसता हुआ छूटता है तो उस वायु को मरूत् वायु कहते हैं।। ६ ।।। आषाढ़ीपूर्णिमायां तु पूर्ववातो यदा भवेत्। प्रवाति दिवसं सर्वं सुवृष्टिः सुषुमा तदा॥७॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १६४ (यदा) जब (आषाढ़ीपूर्णिमायांतु) आषाढ़ीपूर्णिमां को (पूर्ववातो) पूर्वका वायु (भवेत्) होता है और (सर्व) पूरे (दिवस) दिन (प्रवाति) चलती है तो, (तदा) तब (सुवृष्टि) अच्छी वर्षा होगी, और (सुषमा) वर्ष भी अच्छा रहेगा। भावार्थ-जब आषाढ़ी पूर्णिमां को पूर्व में सारे दिन वायु चले तो समझो उस वर्ष अच्छी वर्षा होगी और वह वर्ष भी अच्छा जायगा।७।। वाप्यानि सर्ववीजानि जायन्ते निरुपद्रवम्। शूद्राणामुपघाताय सोऽत्र लोके परत्र च॥८॥ (सर्ववीजानि) सब प्रकार बीजों को (वाप्यानि) बोने पर (निरुपद्रवम्) वो बीज निरुपद्रवरूपमें (जायन्ते) उत्पन्न होते हैं (शूद्राणाम्) शूद्रों के लिये (सो) वह (अत्रलोके) इस लोक में (च) और (परत्र) परलोक में (उपधाताय) उपघातका कारण है। भावार्थ-इस प्रकार के वायु में यदि बीजों को बोने पर वो सब बीज उपद्रव रहित होकर उपजते हैं कोई उपद्रव उनके फलने में नहीं आता, किन्तु शूद्रों के लिये इस लोक और परलोक दोनों में ही दुःख का कारण है।॥८॥ दिवसाधु यदा वाति पूर्वमासौ तु सोदकौ। चतुर्भागेण मासस्तु शेषं ज्ञेयं यथाक्रमम् ।। ९ ।। (यदा) यदि (वाति) वायु (दिवसाधू) आषाढ़ीपूर्णिमा के आधे दिन चले (तु) तो (पूर्वमासौ) दो महिने (सोदकौ) वर्षा होती है (चतुर्भागणमासतु) पाव भाग चले तो एक महीना वर्षा अच्छी होती है (शेष) बाकी (यथाक्रमम) इसी प्रकार क्रमसे (ज्ञेयं) जान लेना चाहिये। भावार्थ-आषाढ़ीपूर्णिमा की वायु उस दिन पूरे दिन न चल कर आधे दिन चले तो श्रावण और भाद्रमास में वर्षा अच्छी होगी, अगर दिन के एक भाग में याने चतुर्थांच भागमें वायु चले तो समझो श्रावण महीने में वर्षा अच्छी होगी, इसी क्रम से वायु से वर्षा का क्रम जान लेना चाहिये ॥९॥ पूर्वार्धदिवसे ज्ञेयौ पूर्वमासौ तु सोदको। पश्चिमे पश्चिमौ मासौ ज्ञेयौ बावपि सोदकौ ॥१०॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽध्यायः यदि वायु आषाढीपूर्णिमा को (पूर्वार्धदिवसौ) दिन के पहले पहरसे दूसरे पहर तक चले तो (पूर्वमासौ सोदको) पहले के दो मासमें वर्षा होगी (पश्चिमेपश्चिमौज्ञेयो) दिन के तीसरे पहर से वायु चालू होकर चौथे पहर तक याने पश्चिम भाग में चले तो, पिछले दो महीने में (द्वावपि) आश्विन और कार्तिकमें (सोदकौ) वर्षा होगी। भावार्थ-यदि वायु आषाढ़ी पूर्णिमां के पहले और दूसरे भाग में चले तो श्रावण और भाद्र मास में वर्षा अच्छी होगी, यदि पिछले तीसरे और चौथे भाग में वायु चले तो समझो आश्विन और कार्तिक मासमें वर्षा अच्छी होगी, प्रत्येक क्रम इसी तरह वायु के अनुसार वर्षा का क्रम जान लेना चाहिये ।।१०।। हित्वा पूर्वं तु दिवसं मध्याह्ने यदि वाति चेत्। वायुर्मध्यममासात्तु तदादेवो न वर्षति ॥११॥ (यदि) यदि (वाति) वायु (दिवस) दिनके (पूर्व) पूर्व भागको (हित्वा) छोड़कर (मध्याह्ने) मध्याह्नमें चले (तु) तो (वायु:) वह वायु (मध्यम मासातु) मध्य के महीनेमें (देवो न वर्षति) वर्षा नहीं करती है। भावार्थ-यदि वायु दिनके पूर्व भागको छोड़कर मध्याह्र में चले तो वह वायु मध्य के महीने में वर्षा नहीं करायेगी॥११॥ आषाढ़ी पूर्णिमायां तु दक्षिणो मारुतो यदि । न तदा वापयेत् किञ्चित् ब्रह्मक्षत्र च पीडयेत्॥१२॥ (यदि) यदि (मारुतो) वायु (आषाढ़ी) आषाढ़ मास को (पूर्णिमायां) पूर्णिमा को (दक्षिणो) दक्षिण दिशासे चले (तु) तो (तदा) तब (किञ्चित्) कुछ भी (न) नहीं (वापयेत्) बीज बोने चाहिये (च) और वह (ब्रह्मक्षत्र) ब्राह्मण व क्षत्रियों को (पीडयेत्) पीडाकारक है। भावार्थ-दक्षिण दिशा से यदि वायु आषाढ़ी पूर्णिमा को चले तो समझो वर्षा नहीं होगी इसलिये बीज बोने के कार्य नहीं करना चाहिये ये वायु ब्राह्मण और क्षत्रियों को पीड़ा पहुँचाने वाली होती है॥१२ ।। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १६६ धनधान्यं न विक्रेयं बलवन्तं च, संश्रयेत् । दुर्भिक्षं मरणं व्याधिस्त्रासं मासं प्रवर्तते॥१३॥ उपर्युक्त वायु में (धनधान्यं न विक्रेय) धन धान्य की बिक्री नहीं करनी चाहिये (च) और (बलवन्तं) बलवान राजाका (संश्रयेत्) आश्रय लेना चाहिये क्योंकि (मासं) एक महीने में ही (दुर्भिक्षं) दुर्भिक्ष (व्याधि) व्याधि, (त्रासं) संकट (मरणं) मरण आदि (प्रवर्तते) की प्रवृति होगी। भावार्थ-उपर्युक्त दक्षिण की वायु में, धन धान्यकी बिक्री कभी नहीं करे और किसी बलवान राजा का आश्रय पकड़े, वहाँ पर एक महीने में ही दुर्भिक्ष, व्याधि, संकट और मरणादिक के भय उत्पन्न होंगे ।। १३॥ आषाढ़ पूर्णिमा को पश्चिम वायु का फल आषाढीपूर्णिमायां तु पश्चिमो यदि मारुतः । मध्यम वर्षणं सस्यं धान्यार्थो मध्यमस्तथा ॥१४ ।। (यदि) यदि (मारुत:) वायु (आषाढ़ी पूर्णिमायां) आषाढ़ी पूर्णिमां को (पश्चिमों) पश्चिमदिशा से चले (तु) तो (मध्यम) मध्यम (वर्षणं) वर्षा होगी (तथा) तथा (सस्य) सस्य और (धान्यार्थो) धान्य भी (मध्यम) मध्यम होगा। भावार्थ-यदि वायु आषाढ़ी पूर्णिमा को पश्चिम दिशा से चले तो समझो वर्षा भी मध्यम होगी और धान्यादिक की उत्पत्ति भी मध्यम होगी, न ज्यादा कम और न ज्यादा अधिक॥१४॥ उद्विजन्ति च राजानो वैराणि च प्रकुर्वते। परस्परोपघाताय स्वराष्ट्र परराष्ट्रयोः ॥१५॥ ऐसी वायु (राजानो) राजा लोगोंको (उद्विजन्ति) उद्विग्न कराके (च) और (वैराणि) बैर भाव धारण (प्रकुर्वते) करा देती है (स्वराष्ट्र परराष्ट्रयोः) स्वदेश और परदेश के राजा लोग (परस्परोपघाताय) एक-दूसरे को घात पहुँचाने के लिये तैयार रहते हैं। भावार्थ-आषाढी पूणिमां को यदि पश्चिम दिशा में चले तो राजा लोग Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | T १६७ नवमोऽध्यायः परस्पर में एक-दूसरे के प्रति उद्विघ्न हो उठते हैं और वैर भाव धारण कर एक-दूसरे का घात करने की तैयारी करते हैं बहुत ही मतभेद पड़ जाता है । । १५ ॥ उत्तर दिशा की वायु यदि । आषाढीपूर्णिमायां तु वायुः स्यादुत्तरो वापयेत् सर्वबीजानि सस्यं ज्येष्ठं समृद्धयति ॥ १६ ॥ (यदि) यदि (वायुः) वायु (आषाढीपूर्णिमायां) आषाढ़ पूर्णिमां को (स्यादुत्तरो) उत्तर दिशा में चले (तु) तो ( सर्वबीजानि ) सब बीजों का ( वापयेत् ) वपन करना चाहिये, ( सस्यं ) धान्य ( ज्येष्ठं) अच्छी तरह से ( समृद्धयति ) समृद्धि को प्राप्त होता है। भावार्थ – यदि वायु आषाढ़ी पूर्णिमा को उत्तर दिशा की ओर चले तो समझो धान्यों का वपन कर देना चाहिये, उस वर्ष धान्य अच्छी-अच्छी तरह से उत्पन्न होंगे || १६ | पार्थिवास्तथा । क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं प्रशान्ता: बहुदकास्तदामेघा मही धर्मोत्सवा कुला ।। १७ ।। ( यदि ) यदि उत्तर दिशाकी वायु चले तो (क्षेमं ) क्षेम् (सुभिक्षं) सुभिक्ष, ( आरोग्यं) निरोगता ( पार्थिवाः प्रशान्ताः ) सब राजा लोग शान्त (तथा) तथा (मेघा ) मेघ (बहुदकास्तदा) बहुत पानी बरसाते हैं और (मही धर्मोत्सवाकुला) पृथ्वी पर लोग धर्मोत्सव के लिये आकुलित हो जाते हैं । भावार्थ - अगर आषाढ़ी पूर्णिमां को उत्तर दिशा की वायु चले तो समझो इस पृथ्वी पर लोग धर्मोत्सव के लिये आकुलित रहते हैं, सब राजा लोग परस्पर शान्त भाव धारण करते है, मेघ बहुत ही जल बरसाते है देश में क्षेम हो जायगा, सुभिक्ष हो जायगा जनता के सब रोग भाग जायगें ॥ १७ ॥ अग्निकोण की वायु का फल आषाढी पूर्णिमायां तु वायुः स्यात् पूर्व राजमृत्युर्विजानीयच्चित्रं सस्यं तथा दक्षिणः । जलम् ॥ १८ ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १६८ (वायुः) वायु (आषाढीपूर्णिमायां) आषाढ़ीपूर्णिमां को (पूर्वदक्षिणः) पूर्व और दक्षिण कोणकी (स्यात्) होवे (तु) तो (राजमृत्युः) राजा की मृत्यु (विजानीय:) जानना चाहिये (सस्य) धान्य (तथा) तथा (जलम्) जल (चित्रं) विचित्र रहेंगे। भावार्थ-यदि वायु अग्नि कोणमें आषाढीपूर्णिमा को चले तो समझो देश के राजा की मृत्यु होगी, वर्षा और धान्य भी चित्र-विचित्र रहेंगे॥१८॥ क्वचिनिष्पद्यतेसस्यं क्वचिच्चापि विपद्यते। धान्यार्थो मध्यमो ज्ञेयः तदाऽग्नेश्च भयं नृणाम् ॥१९॥ (कचिनिष्पद्यतेसस्य) कहीं पर धान्य की उत्पत्ति होती है तो (क्वचिच्चापि विपद्यते) कहीं पर धान्य के ऊपर आपत्ति आती है (धान्यार्थो) धान्य के अर्थी को (मध्यमो) मध्यम लाभ होगा (ज्ञेय:) ऐसा जानना चाहिये (तदा) वहाँ (नृणाम्) मनुष्यों को (अग्नेश्च भयं) अग्नि भय होगा। ___ भावार्थ-यदि अग्नि कोण की वायु आषाढ़ पूर्णिमा को चले तो कहीं पर धान्य की उत्पत्ति होती है तो कहीं पर धान्य के ऊपर आपत्ति आती है धान्य के पाने के इच्छुक को मध्यम लाभहोगा, और मनुष्यों को अग्निभय उत्पन्न होगा ।। १९ ।। नैर्ऋतत्यकोण की वायुका फल आषाढ़ी पूर्णिमायां तु वायुः स्याद् दक्षिणापरः।। सस्यानामुपघाताय चौराणां तु विवृद्धये ।। २०॥ (आषाढ़ी पूर्णिमायां) आषाढ़ की पूर्णिमाको (वायुः) वायु (दक्षिणापर:) नैर्ऋत्यकोण की (स्याद्) होवे (तु) तो (सस्यानामुपघाताय) धान्यो के घात का कारण होता है और (चौराणां) चौरों की (विवृद्धये) वृद्धि होती है। भावार्थ-यदि वायु आषाढ़ पूर्णिमा को नैर्ऋत्य कोण से चले तो समझो चौरों का उपद्रव विशेषरीति से होगा, और धान्यो का घात का कारण बनेगा, अर्थात् सब प्रकार के धान्य नाश हो जायगा ।। २०॥ भस्मांशुरजस्कीर्णा यदा भवति मेदिनी। सर्व त्यागं तदा कृत्वा कर्तव्यो धान्य संग्रहः ॥२१॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽध्यायः (यदा) जब (मेदिनी) पृथ्वी (भस्म) राख (पांशु) धूलि के (रजस्कीर्णा) रज कणों से व्याप्त (भवति) होती है तो (तदा) तब (सर्वत्यागं) सब कर्तव्यों का त्याग (कृत्वा) करके (धान्य संग्रह) धान्यों का संग्रह (कर्तव्यो) करना चाहिये। भावार्थ- जब पृथ्वी भस्म, धूलि के रज कणों से व्याप्त हो जाती है आकाश में कहीं बादल मेघ आदि शुभ निमित्त नहीं दिख रहे हो तो अवश्य ही दुर्भिक्ष होगा, ये सब लक्षण अनावृष्टि के कारण है इसलिये आचार्य यहाँ पर कह रहे हैं कि धर्मात्मा जीवों को दूसरा सब कार्य छोड़कर अपना जीवन और परिवार की रक्षा के लिये धान्यो का संग्रह करना चाहिये ।।२१11 विद्रवन्ति च राष्ट्राणि क्षीयन्ते नगराणि च। श्वेतास्थिर्मेदिनी ज्ञेया मांस शोणितकर्दमा।। २२॥ (राष्ट्राणि च विद्रवन्ति) राष्ट्रका नाश होता है, (च) और (नगराणि) नगरों का (क्षीयन्ते) क्षय होता है, (श्वेतास्थिर्मेदिनी) पृथ्वी सफेद हड्डीयों से भर जाती है, (मांसशोणित कर्दमा) और मांस, खून की कीचड़ हो जाती है ऐसा (ज्ञेया) जानना चाहिये। भावार्थ-यदि नैर्ऋत्य कोण की वायु आषाढ़ पूर्णिमां को चले तो समझो उस देश का नाश हो जाता है, नगरों का क्षय हो जाता है धरती हड्डीयों से भर जाती है और मांस खून से पृथ्वी पर कीचड़ हो जाता है ऐसा भयंकर समय ये वालु लाकर उपस्थित कर देती है।। २२ ॥ ___ वायव्यकोण की वायु का फल आषाढीपूर्णिमायां तु वायुः स्यादुत्तरापरः । मक्षिकादंश मशका जायन्ते प्रबलास्तदा ॥२३॥ मध्यम क्वचिदुत्कृष्टं वर्ष सस्यं च जायते। नूनं च मध्यम किञ्चिद् धान्यार्थ तत्रनिर्दिशेत् ॥ २४ ॥ (वायु:) वायु यदि (आषाढ़ीपूर्णिमायां) आषाढ़ी पूर्णिमां में, (उत्तरापरः) वायव्यकोणकी (स्याद्) हो (तु) तो (तदा) तब (दंशमशका) दंश, मच्छर (मक्षिकां) - - - - - Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १७० मक्खियाँ (प्रबला:) प्रबल (जायन्ते) उत्पन्न हो जाते हैं। (मध्यम) कहीं पर मध्यम (क्वचिदुत्कृष्टं) कहीं पर उत्कृष्ट (वर्ष) वर्षा (च) और (संस्य) धन्यि (जायते) उत्पन्न होते हैं (धान्यार्थ) धान्य का लाभ (किञ्चिद्) भी कहीं पर (नून) न्यून (च) और (मध्यम) मध्यम होगा (तत्र) वहाँ पर (निर्दिशेत्) निर्देशन किया है। भावार्थ-यदि वायु वायव्य कोणमें आषाढ़ी पूर्णिमा को चले तो समझो उस वर्ष डांस, मच्छर, मक्खियाँ आदि का उपद्रव बहुत हो जाता है वर्षा और धान्य कहीं पर उत्कृष्ट तो कहीं पर मध्यम होते हैं धान्यो का लाभ कहीं पर नून तो कहीं पर मध्यम होता है ऐसा निर्देशन किया गया है।। २३-२४॥ आषाढ़ी पूर्णिमायां तु वायुः पूर्वोत्तरो यदा। वापयेत् सर्व बीजानि तदा चौरांश्च घातयेत् ॥२५॥ स्थलेष्वपि च यद्वीजमुप्यते तत् समृद्धयति। क्षेमं चैव सुभिक्षं च भद्रबाहुवचो यथा॥२६॥ बहूदका सस्यवती यज्ञोत्सव समाकुला। प्रशान्तडिम्भडमरा शुभा भवति मेदिनी।। २७ ।। (यदा) जब (वायु:) वायु (आषाढ़ीपूर्णिमां) आषाढ़ी पूर्णिमां को (पूर्वोत्तरा) ईशान कोणकी चले (तु) तो (तदा) तब (वापयेत् सर्वबीजानि) सब बीजों का वपन करना चाहिये, (च) और (चौराश्च) चौरों का (धातयेत्) घात करती है (स्थलेष्वपि) पृथ्वीपर भी (यबीजमुप्यते) जो बीज उत्पन्न होता है (तत्) उनकी (समृद्ध्यति) वृद्धि होती है (च) और (क्षेम) क्षेम, (चैव सुभिक्षं च) और सुभिक्ष हो जाता है (यथा) ऐसा (भद्रबाहुवचो) भद्रबाहु स्वामी वचन है (बहूदका) बहुत वर्षा होती है (सस्यवती) पृथ्वी धान्य युक्त होती है (यज्ञोत्सवसमाकुला) धरती के लोग यज्ञ को उत्सव से आकुलित हो जाती है (डिम्भडमरा) सब आडम्बर (प्रशान्त) शान्त हो जाते हैं (मेदिनी) पृथ्वी (शुभा) मंगलमय (भवति) हो जाती है। भावार्थ- यदि वायु ईशान कोण की आषाढ़ी पूर्णिमां को चले तो, चोरों का घात हो जाता है चौर उपद्रव शान्ति होता है, उस समय जमीन में सब बीजों का वपन करना चाहिये, कैसी ही जमीन में बीज डाल दिया जाय तो भी उगकर Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ नवमोऽध्यायः फलवीत होंगे, सब जगह क्षेम कुशल और सुभिक्ष होगा, ऐसा भद्रबाहु स्वामीका वचन है और भी कह रहे है यह पृथ्वी वर्षा के पानी से भर जाती है, पृथ्वी धान्ययुक्त होती है, सब लोग धार्मिक उत्सव करने के लिये आकुलित रहते है, सब प्रकार के आडम्बर शान्त हो जाते है इस जगमें सब जगह शान्ति ही शान्ति हो जाती है। २५-२६-२७॥ पूर्वोवातः स्मृतः श्रेष्ठः तथा चाप्युत्तरो भवेत् । उत्तमस्तु तथैशानो मध्यमस्त्व परोत्तरः ॥ २८॥ अपरस्तु तथा न्यूनः शिष्टो वात: प्रकीर्तितः। पापे नक्षत्र' करणे मुह र सथा नृशम् ॥२९ ।। (पूर्वोवात:) पूर्वकी वायु (श्रेष्ठः) श्रेष्ठ है (स्मृत:) ऐसा जानो, (तथा) उसी प्रकार (चाप्युत्तरो भवेत्) उत्तरकी वायु भी श्रेष्ठ है (तथैशानो) उसी प्रकार ईशान की वायु भी (उत्तमस्तु) उत्तम है (परोत्तरः) वायव्य कोणव पश्चिम की वायु (मध्यमस्त्व) मध्यम है। (तथा) तथा (अपरस्तु) दक्षिण दिशा, अग्निकोण और नैर्ऋत्य कोण का वायु, (न्यून:) अधम है, (शिष्टोवात:) अगर अच्छी वायु भी नहीं (प्रकीर्तिता) कही गयी हो और (पापे नक्षत्रकरणे) पापरूप नक्षत्र करण (च) और (मुहूर्ते) मूहुर्ते हो तो (तथा) वैसा ही फल (भृशम्) कहा गया है। भावार्थ-यदि पूर्व की वायु उस दिन चले तो श्रेष्ठ है, उत्तर की भी वायु श्रेष्ठ है और ईशानकोण की वायु उत्तम है, किन्तु वायव्य कोण पश्चिम की वायु मध्यम है और दक्षिण, अग्नि कोण, नैर्ऋत्य कोण की वायु अधम है इन वायुओं का फल भी निकृष्ट है, वायु भी अच्छी न हो फिर पापरूप नक्षत्र, करण व मुहूर्त हो तो उसका फल अशुभ ही होगा महान अधम है, यहाँ विशेष बात यह है कि वायु भी अधम हो और पाप रूप नक्षत्र करण मुहूर्त हो तो उसका फल कभी ठीक नहीं हो सकता॥२८-२९ ।। पूर्वधातं यदा हन्यादुदीर्णो दक्षिणोऽनिलः। न तत्र वापयेद् धान्यं कुर्यात् सञ्चयमेव च ॥३०॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १७२ दुर्भिक्षं चाप्यवृष्टिं च शस्त्रं रोग जनक्षयम्। कुरुते सोऽनिलो घोरं आषाढाभ्यन्तरं परम् ।। ३१ ।। (पूर्ववातं) पूर्व के चलते हुए वायु को (यदा) जब (दक्षिणऽनिल:) दक्षिण की वायु (हन्याद्) घातकर (उदीर्णो) समाप्त कर देवे तो (तत्र) वहाँ पर (धान्यं) धान्यको (न) नहीं (वापयेद) वपन करना चाहिये किन्तु (सञ्चयमेव च) धान्य का संग्रह ही (कुर्यात्) करना चाहिये। (सोऽनिलो) वह वायु (दुर्भिक्षं) दुर्भिक्ष, (चाप्यवृष्टि) अनावृष्टि (च) और (शस्त्रं) शस्त्र का उपद्रव, (रोग) रोग, (जनक्षयम्) जनों का क्षय, (घोरं) महानरूप (कुरुते) करते है क्योंकि ये वायु (आषाढ़ाभ्यन्तरं परम्) परमरूप आषाढाभ्यंतर की है। भावार्थ-जब पूर्व से चलते हुऐ वायु को दक्षिण दिशा से वायु उठकर पूर्व के वायु को घात करता हुआ नष्ट कर दे तो समझो महान अनिष्ट का कारण होगा, ऐसी स्थिति में वहाँ पर कभी खेतों में बीजो का वपन नहीं करना चाहिये आचार्य कहते है ऐसी स्थिति में धान्य का संग्रह बुद्धिमानो को करना चाहिये, क्योंकि ये वायु निश्चित रूप से, दुर्भिक्ष, अनावृष्टि, शस्त्रउपद्रव, नाना प्रकार के रोग, लोगों का नाश करती है, महान उपद्रव का कारण है, आषाढ़भ्यंतर की वायु है।। ३०-३१॥ पापघाते तु वातानां श्रेष्ठं सर्वत्र चादिशेत् । श्रेष्ठानपि यदा हन्युः पापा: पापं तदाऽऽदिशेत् ॥३२॥ (पापघातेतु वातानां) पाप वायु को यदि श्रेष्ठ वायु घात करे तो (सर्वत्र) सब तरफ से (श्रेष्ठं) श्रेष्ठ है (चादिशेत्) ऐसा कहा गया है, (श्रेष्ठानपि यदाहन्युः पाप) अगर श्रेष्ठ वायु को पाप वायु घात करे तो (पापं तदाऽऽदिशेत्) समझो वह भी अशुभ हैं। भावार्थ-यदि पाप वायु को श्रेष्ठ वायु घात करे तो समझो वहाँ पर अच्छा ही अच्छा होगा, यदि श्रेष्ठ वायु को पाप वायु घात करे तो समझो वहाँ पर अनिष्ट ही अनिष्ट होगा॥३२॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बमोऽध्यायः । यदा तु वाता श्चत्वारो भृशं वान्त्यपसख्यतः । अल्पोदकं शस्त्राघातं भयं व्याधिं च कुर्वते।। ३३ ।। (यदा) जब (चत्वारो) चारो ही (वान्यपसव्यतः) अपसव्य मार्ग से (भृशं) निकलती हुई दिखे (तु) तो (अल्पोदकं) थोड़ी वर्षा (शस्त्राघात) शस्त्रों से घात (भयं) भय की उत्पत्ति (च) और (व्याधि) नाना प्रकार के रोग (कुर्वते) करती भावार्थ-जब वायु चारों ही वायुओं के अपसव्यमार्ग होकर निकले तो समझो अच्छा नहीं है, अनिष्ट की सूचक है वहाँ पर वर्षा थोड़ी होगी लोगों का शस्त्रों से घात होगा, नाना प्रकार के भय उत्पन्न हो जायगें व्याधियां उत्पन्न होगी॥३३ ।। प्रदक्षिणं यदा वान्ति त एव सुखशीतलाः। क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं राज्यवृद्धिर्जयस्तथा ॥ ३४॥ (यदा) जब (वान्ति) वायु (प्रदक्षिणं) प्रदक्षिणारूप होकर बहे तो (त एव) वहाँ (सुख शीतला:) सुख और शान्ति होती (नथा) तथा (क्षेमं) क्षेम, (सुभिक्षं) सुभिक्ष (आरोग्यं) आरोग्य (राज्यवृद्धि) राज्य की वृद्धि होकर (जयः) जय होगी। भावार्थ-जब वायु उस दिन प्रदक्षिणा करती हुई चलती है तो वहाँ सुख और शान्ति और जायगी, क्षेम होगा, सुभिक्ष हो जायगा, सब रोग नष्ट हो जायगें, राज्य की वृद्धि होती है, राजा को युद्ध में विजय होती है।। ३४ ॥ समन्ततो यदा बान्ति परस्पर विघातिनः। शस्त्रं जनक्षयं रोगं सस्थधातं च कुर्वते॥ ३५॥ (यदा) जब (वान्ति) वायु (समन्ततो) चारो वायुओं का (परस्परविघातिनः) परस्पर घात करती हुई बहे तो वहाँ पर (शस्त्रं) शस्त्र उपद्रव (जनक्षयं) लोगों का घात (रोग) रोगों की उत्पत्ति, (च) और (सस्यधात) धान्यो का घात (कुर्वते) करती है। भावार्थ- यदि वायु चारों वायुओं का परस्पर विघात करती हुई चले समझो, शस्त्रों का उपद्रव होकर जनक्षय होगा, नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होंगे धान्यो का घात होगा ऐसा जानो।॥ ३५॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं विज्ञाय प्रशस्तंयत्र भद्रबाहु संहिता वातानां संयता भैक्ष वर्तिनः । पश्यन्ति वसेयुस्तत्रनिश्चितम् ॥ ३६ ॥ १७४ ( एवं ) इस प्रकार के (वासना) वावुओं को (विज्ञाय ) जानकर (भैक्षवर्तिनः ) भिक्षावृत्ति वाले ( संयता) साधुओं को (अन्यत्र ) अन्यत्र ( प्रशस्त ) प्रशस्त स्थान ( पश्यन्ति ) देखकर (तत्र ) वहाँ (निश्चितम् ) निश्चित रूप से ( वसेयुः ) वास करना चाहिये । भावार्थ — इस प्रकार के वायुओं को जानकर भिक्षावृत्ति वाले साधुओं को कोई अच्छा निरूपद्रव स्थान देखकर वहाँ निवास के लिये चले जाना चाहिये || ३६ ॥ आहारस्थितयः सर्वे जङ्गम स्थावरा स्तथा । जल सम्भवं च सर्वं तस्यापि जनकोऽनिलः ॥ ३७ ॥ (सर्वे) सब ( जनमस्थावरा :) जनम और स्थावर जीवों की (स्थितयः) स्थिति ( आहार : ) आहार पर है (तथा) तथा ( सर्वं ) सब भोजन पदार्थ के लिये (जल सम्भवं) जल के ऊपर निर्भर है (च) और ( तस्यापि ) तो भी (जनकोऽनिलः ) पानी वायु के ऊपर निर्भर है। भावार्थ - यहाँ पर आचार्य महाराज कह रहे हैं कि सब जीवों की स्थिति भोजन पर निर्भर होती है अन्न पदार्थ पानी से उत्पन्न होते हैं और जल ल्पयु के ऊपर निर्भर है ॥ ३७ ॥ वातानां सर्वकालंप्रवक्ष्यामि लक्षणंपरम् । आषाढीवत् तत् साध्यं यत् पूर्वं सम्प्रकीर्तितम् ॥ ३८ ॥ (वातानां ) वायुओं का (सर्वकालं) सर्वकालिक (परम लक्षणं) परम लक्षणको (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा (यत्) जैसे (पूर्वं ) पहले ( सम्प्रकीर्तितम् ) कहा गया ( आषाढ़ीवत्) आषाढ़ी पूर्णिमा के समान (तत्) उसको (साध्यं) साध्य करना चाहिये । भावार्थ — अब में सर्व कालिक वायुओं का लक्षण कहूँगा जो आषाढ़ी पूर्णिमां के समान ही साध्य करना चाहिये, उसको हमने पहले कह दिया है ।। ३८ ।। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ पूर्व वातो यदातूर्ण सप्ताहं वाति स्व स्थाने नाभिवर्षेत् महदुत्पद्यते प्राकारपरिखाणाञ्च शस्त्राणां निवेदयति राष्ट्राणां विनाशं नवमोऽध्यायः च समन्ततः । ताशोऽनिलः ॥ ४० ॥ ( यदा) जब (पूर्व वातो) पूर्व का वायु (तूर्ण) शीघ्रगति ( कर्कशः ) कर्कश होकर (वाति) चलता है तो, (स्वस्थाने) स्वस्थान पर ( वर्षेत ) वर्षा ( नाभि ) नहीं होती है, और (महदुत्पद्यते ) महान् (भयम् ) भय ( उत्पद्यते ) उत्पन्न होता है ( तादृशोऽनिल) इस प्रकार का वायु ( समन्ततः) चारों ओर से ( प्राकारपरिखाणाञ्च ) प्राकार, परिखा, ( शस्त्राणां ) शस्त्रों का ( राष्ट्राणां) देशका (विनाशं) विनाश को (निवेदयति ) निवेदन करता है। पूर्वसंध्यां पुरावरोधं कर्कशः । भयम् ।। ३९ ।। भावार्थ- जब वायु पूर्व दिशा को शीघ्र गमन करने वाली कर्कश होकर चले तो स्वस्थान पर वर्षा नहीं होती है और प्राकार, खातिका शस्त्रों का व देश काचारों से करती है इस बहु का ऐसा ही फल होता है ॥ ३९-४० ॥ सप्तरात्रं दिनार्थं च यः कश्चिद् वाति महद्भयं विविज्ञेयं वर्ष वाऽथ महद् यदा कुरुते ( य:) जो ( कश्चिद्) कोई भी ( मारुतः ) वायु ( सप्तरात्रं दिनार्थं ) सात रात्रि आधादिति तक ( वाति) चले तो (महद्भयं विज्ञेयं) महान भयका सूचक जानना चाहिये, ( वाऽथ ) अथवा (वर्ष) वर्षा से ( महद् ) महान भय ( भवेत् ) होता है। भावार्थ — जो भी वायु चाहे किसी दिशा की हो अगर साढ़े सात दिन तक लगातार चले तो समझो महान भय उपस्थित होगा अनावृष्टि से जनता में आतंक फैलेगा || ४१॥ मारुतः । भवेत् ॥ ४१ ॥ वायुरपसव्यं यायिनां तु (यदा) जब (वायु) बायु (पूर्वसंध्या) पूर्वसंध्या को (रपसव्यं) अपसव्य मार्ग से ( प्रवर्तते ) प्रवर्तन करता है (तु) तो ( पुरावरोधं ) नगर के अवरोध को (कुरुते ) करता है और (यायिनां ) आक्रमणकारी प्रतिशत्रुके (जयावहः ) विजयका सूचक है। प्रवर्तते । जयावहः ।। ४२ ।। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ- -जब वायु पूर्व संध्या को अपसव्य मार्ग से चले तो नगर का अवरोध होकर आक्रमणकारी प्रतिशत्रु की विजय होती है प्रतिशत्रु को ही यायि आचार्य ने कहा है ॥ ४२ ॥ पूर्वसंध्यां यदा वायुः सम्प्रवाति प्रदक्षिणः । नागराणां जयं कुर्याद् सुभिक्षं यायि विंद्रवम् ॥ ४३ ॥ ( यदा) जब (आयुः) वायु (पूर्व संध्या) पूर्व संध्याको (प्रदक्षिण:) प्रदक्षिणरूप में (सम्प्रवाति) चलता है तो ( नागराणां ) नगरवासी राजाकी (जयं) जय ( कुर्याद) कराता है और (सुभिक्षं) सुभिक्ष होगा (यायि) आने वाले राजाको ( विद्रवम्) हार हो जाती है। भावार्थ- वायु जब पूर्व संध्या को प्रदक्षिणारूपमें चलती है तो नगरवासी राजाकी विजय होती है प्रतिशत्रु आक्रमणकारी राजा की हार हो जाती है नगर में सुभिक्ष रहता है ॥ ४३ ॥ वा तथा मध्याह्ने वार्धरात्रे वास्तमनोदये । वायुस्तूर्णयदा वाति तदाऽवृष्टि भयं रुजाम् ॥ ४४ ॥ १७६ ( मध्याह्ने ) मध्याह्न में (वार्ध रात्रे वा ) वा अर्ध रात्रि में (तथा) तथा ( वास्तमनोदये) सूर्य अस्त या उदय के समय में (वायुः) वायु ( तूर्णं) शीघ्र ( यदा) जब ( वाति) चले तो (तदा) तब ( अवृष्टि) अवृष्टि (भयं) भय ( रुजाम् ) और रोग होंगे। यदा अपसव्यो भावार्थ - यदि वायु सूर्य के अस्त या उदय समय में मध्याह्न में व अर्धरात्रि में शीघ्र गति से चले तो अनावृष्टि रोग और भय उत्पन्न होंगे, ऐसा समझना चाहिये ॥ ४४ ॥ राज्ञ: प्रयातस्य प्रतिलोमोऽनिलो समार्गस्थस्तदा सेनावधं भवेत् । विदुः ।। ४५ ।। ( यदा) जब (राज्ञः ) राजा के ( प्रयातस्य) प्रयाण के समय ( प्रतिलोमो) प्रतिलोम मार्ग (अनिलो) वायु (भवेत्) होती है और ( अपसव्य) अपसव्य मार्ग से निकलती है ( तदा) तब ( सेनावधं ) सेना का वध (विदुः ) जानो । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ नवमोऽध्यायः भावार्थ - जब राजा के प्रयाण समय में प्रतिलोम वायु होती है और वो अपसव्य मार्ग से निकले तो तब उस सेना का वध हो जाता है अर्थात् जिस ओर राजाकी सेना का प्रयाण हो रहा हो और उसी ओर वायु चले याने पूर्व दिशा में राजा का प्रयाण है और आगे से वायु चले तो समझो उस सेना का अवश्य ही वध होगा ।। ४५ ।। अनुलोमो यदा स्निग्धः सम्प्रवाति नागराणां जयं कुर्यात् सुभिक्षं च प्रदक्षिण: । प्रदीपयेत ॥ ४६ ॥ यदि वायु (अनुलोमो) अनुलोम मार्ग से (स्निग्ध:) स्निग्ध होकर ( प्रदक्षिण:) प्रदक्षिणा रूप ( यदा) जब (सम्प्रवाति) चले तो (नागराणां) नगरस्थराजा की (जयं ) जय को (कुर्यात् ) करती है (च) और ( सुभिक्षं) सुभिक्ष की (प्रदीपयेत ) सूचना प्राप्त होती है। भावार्थ- -जब वायु अनुलोमी मार्ग होकर स्निग्ध होकर प्रदक्षिणा करती हुई चले तो नगरस्थ राजाकी विजय कराती है और सुभिक्ष होने की सूचना देती है ॥ ४६ ॥ दशाहं द्वादशाहं वा पापवातो यदा भवेत् । अनुबन्धं तदा विन्द्याद् राजमृत्युं जनक्षयम् ॥ ४७ ॥ ( यदा) जब (पापवातो) अशुभ वायु (दशाहं ) दस दिन (वा) व ( द्वादशाहं ) बारह दिन (भवेत् ) तक होती है तो ( अनुबन्धं) सेना का बन्धन (राजमृत्यु) राजा का मरण ( जनक्षयम्) लोगों का क्षय ( तदा) तब ( विन्द्याद्) जानो । भावार्थ - यदि पाप वायु याने अशुभकारक बायु दस दिन या बारह दिन तक लगातार चलती रहे तो समझो राजा का मरण होगा, सेना का बन्धन होगा, प्रजा का क्षय होगा ॥ ४७ ॥ यदाभ्रवर्जितो वाति वायुस्तूर्णमकालजः । पांशु भस्म समाकीर्णः सस्यघातो भयावहः ।। ४८ ।। ( यदा) जब (अभ्र) बादल (वर्जितो ) से रहित (वाति) वायु ( स्तूर्णं ) उत्पात Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता । से सहित (अकालज:) अकाल में चले और वो भी (पांशु भस्म, समाकीर्णः) धूलि और भस्म से सहित चले तो (सस्यघातो) धान्यो का घात करने वाली और (भयावहः) भय को उत्पन्न कराने वाली होती है। भावार्थ-यदि वायु मेघरहित उत्पात से सहित धूलि व भस्म से सहित चले तो धान्यो का घात होगा, प्रजा को भय उत्पन्न होगा॥४८॥ सविद्युत्सरजो वायुरुर्ध्वगो वायुभिः सह । प्रवाति पक्षिशब्देन क्रूरेण स भयावहः ।। ४९ ।। (सविद्यत्सरजोवायु) यदि वायु बिजली से और धूलि से युक्त होता हुआ (रुर्ध्वगो) उर्द्ध चले और वो भी (वायुभिःसह) अन्य वायु के साथ चले (पक्षिशब्देन) पक्षीके समान शब्द करे तो (स) वह वायु (क्रूरेण) क्रूर है (भयावह:) भय की उत्पादक है। __ भावार्थ-यदि वायु पक्षी के समान शब्द करती हुई बिजली की चमक से युक्त धूलि से सहित ऊपर को गमन करती हुई चले तो समझो वो वायु क्रूर परिणामक और भय की उत्पादक है॥४९।।। प्रवान्ति सर्वतो वाता यदा तूर्णं मुहुर्मुहुः। यतो यतोऽभिगच्छन्ति तत्र देशं निहन्ति ते॥५०॥ (यदा) जब (वाता) वायु (मुहुर्मुहुः) बार-बार (तूर्णं) शीघ्र (सर्वतो) सब ओर से (प्रवान्ति) बहे (यतो यतोऽभिगच्छन्ति) और जिस दिशा की ओर बहे (ते) तो (तत्र) उस (देशनिहन्ति) देश को नष्ट करेगा। भावार्थ-जब वायु बार-बार शीघ्रगति से जिस दिशा में बहे तो समझो उसी देश का नाश होगा।। ५० ।। अनुलोमो यदाज्नीको सुगन्धो वाति मारुतः। अयत्ततस्ततो राजा जयमाप्नोति सर्वदा॥५१॥ (यदाऽनिके) जब सेना में (अनुलोमो) अनुलोम रूप (सुगन्धो) सुगन्धित (मारुत:) वायु (वाति) चले (ततो) तो उस (राजा) राजा को (अयत्नतः) प्रयत्न किये बिना ही (सर्वदा) सब प्रकार से (जयमाप्नोति) जय को प्राप्त कराती है। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ माऽध्यायः भावार्थ- जब राजा की सेना में अनुलोम रूप सुगन्धित वायु चले तो राजा को प्रयत्न किये बिना ही विजय प्राप्त होता है।।१५१॥ प्रतिलोमो यदाज्नीके दुर्गन्धो वाति मारुतः। यदा यत्नेन साध्यन्ते वीर कीर्ति सुलब्धयः॥५२॥ (यदानीके) जब सेनामें (दुर्गन्धो) दुर्गन्धित (मारुत:) हवा (वाति) चले और वो भी (प्रतिलोमो) प्रतिलोम रूप हो तो (यदा) जब (यत्नेन) महान प्रयत्न किया जाता है तब (सुलब्धय:) प्राप्त होने वाली (वीर कीर्ति) वीर कीर्ति (साध्यन्ते) प्राप्त होती है। भावार्थ-यदि वायु प्रतिलोम हो दुर्गन्धित हो, ऐसी वायु सेना के अन्दर चले तो वीर कीर्ति कष्ट साध्य होती है, याने बड़ा प्रयत्न किये जाने पर वीरकीर्ति प्राप्त होती है।। ५२॥ यदा सपरिघा सन्ध्या पूर्वोवात्यनिलो भृशम् । पूर्वस्मिन्नेव दिग्भागे पश्चिमा बध्यते चमूः ॥५३॥ (यदा) जब (सपरिघा) परिघा सहित (अनिलो) वायु सायंकाल को या (पूर्वोवात्य) प्रात:काल में चले तो (पूर्वस्मिन्नेव) पूर्व की ही (दिग्भागे) दिशा में (पश्चिमा) पश्चिम दिशाकी (चमू:) सेनाका (बध्यते) वध हो जायेगा। भावार्थ-जब सन्ध्या परिघा सहित हो वायु प्रात:काल में सन्ध्या को अतिशीघ्र चले तो पूर्व दिशा में ही पश्चिम दिशाकी सेना का नाश हो जायगा ।। ५३ ।। यदा सपरिघा सन्ध्या पश्चिमो वाति मारुतः। अपस्मिन् दिशो भागे पूर्वा सा वध्यते चमूः ॥५४॥ (यदा) जब (सन्ध्या ) सन्ध्या (सपरिघा) परिघा से युक्त हो (मारुत:) वायु (पश्चिमो) पश्चिम में (वाति) चले तो (अपरस्मिन् दिशोभागे) अपर दिशा भाग में ही (पूर्वा) पूर्व दिशामें (सा) वह (चमू:) सेना (वध्यते) मारी जाती है। भावार्थ-जब सन्ध्या परिघा से युक्त हो और वायु पश्चिम की हो तो पूर्व दिशा के सेना पश्चिम में मारी जाती है।। ५४ ।। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | यदा सपरिघा सन्ध्या दक्षिणो वाति मारुतः । अपरस्मिन् दिशो भागे उत्तरा वध्यते चमूः ।। ५५॥ (यदा) जब (सन्ध्या) सन्ध्या (सपारेषा) परिघा से सहित हो (मारुत:) वायु (दक्षिणो) दक्षिण (वाति) चले तो (उत्तरा) उत्तरकी (चमू:) सेनाका (अपरस्मिन् दिशो भागे) पश्चिम दिशामें (वध्यते) वध हो जाता है। भावार्थ-जब सन्ध्या परिघा से युक्त हो और वायु दक्षिण दिशा को चले तो उत्तर की सेना का पश्चिम दिशा में वध हो जाता है॥५५।। यदा सपरिधा सन्ध्या उत्तरो वाति मारुतः । अपरस्मिन् दिशो भागे दक्षिणा वध्यते चमूः॥५६॥ (यदा) जब (सन्ध्या) सन्ध्या (सपरिघा) परिघा से युक्त हो और (मारुत:) वायु (उत्तरो) उत्तर को (वाति) चले तो (दक्षिणा) दक्षिण की (चमू:) सेना का (अपरस्मिन् दिशो भागे) पश्चिम में (वध्यते) वध हो जाता है। भावार्थ-यदि सन्ध्या परिधा से युक्त हो, उत्तर की वायु चले तो समझो दक्षिण की सेना का उत्तर भाग में वध हो जाता है।। ५६ ।। प्रशस्तस्तु यदावातः प्रतिलोमोऽनुपद्रवः। तदा यान् प्रार्थयेत् कामांस्तान् प्राप्नोति नराधिपः ।। ५७ ।। (यदा) जब (वात:) वायु (अनुपद्रव:) उपद्रवसे रहित हो (प्रतिलोमो) प्रतिलोम रूप हो (प्रशस्तस्तु) प्रशस्त हो, (तदा) तब (नराधिपः) राजा (यान्) जिस (कामां:) कार्यकी (प्रार्थयेत्) इच्छा करता है (स्तान्) उसीको (प्राप्नोति) प्राप्त करता है। ____ भावार्थ-जब वायु प्रतिलोम रूप चले और उपद्रव रहित प्रशस्त हो तो राजा जिस भी कार्य की इच्छा करता है उसी को प्राप्त करता है, याने राजा को इच्छित पदार्थ की प्राप्ति होती है।५७ ।। अप्रशस्तो यदा वायु भिपश्यत्युपद्रवम्। प्रयातस्य नरेन्द्रस्य चमूर्हारयते सदा ।। ५८।। (यदा) जब (वायु:) वायु (अप्रशस्तो) अप्रशस्त हो और (नाभिपश्यत्युपद्रवम्) Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ नवमोऽध्यायः उपद्रव से रहित हो तो (नरेन्द्रस्य) राजा की ( चमूः) सेना ( प्रयातस्य ) प्रयाण कर (सदा) सदा (हारयते ) हार जाती है। भावार्थ- जब वायु अप्रशस्त हो और उपद्रव रहित दिखता हो उस समय यदि राजा युद्ध के लिये प्रयाण करता हो तो उस राजा की सेना नित्य हार जाती है ॥ ५८ ॥ तिथिनां करणानां च मुहूर्तानां च ज्योतिषाम् । मारुतो बलवान् नेता तस्माद् यत्रैव मारुतः ।। ५९ ।। ( तिथीनां ) तिथियों ( करणानां ) करणों (च) और ( मुहूर्तानां ) मुहूतों (च) और (ज्योतिषाम् ) ज्योतिषियों का ( मारुतो) वायु (बलवान्) बलवान (नेता) मुखिया है, (तस्माद ) इस कारण से ( यत्रैव ) वहाँ ही ( मारुतः ) वायु को देखना चाहिये। भावार्थ- वायु बलवान प्रमुख है क्योंकि वायु ही सबको चलाता है वायु नहीं तो सब निमित नहीं होंगे इसलिये आचार्य श्री ने तिथियों का, कारणों का मुहूर्तों का व ज्योतिषियों का स्वामी वायु को कहा है इसलिये वायु का अवलोकन करना चाहिये ।। ५९ ॥ वायमानेऽनिले उत्तरेवाय पूर्वे मेघांस्तत्र समादिशेत् । माने तु जलं तत्र समादिशेत् ।। ६० ।। (पूर्वे) पूर्व में (अनिले) वायु (वायमाने) चले तो समझो (मेघां:) मेघ (तत्र) उसी दिशा में ( समादिशेत् ) कहना चाहिये । (उत्तरे) उत्तर में (वायमाने ) वायु चले (तु) तो (जलं) वर्षा (तत्र) उत्तरदिशामें ( समादिशेत् ) कहना चाहिये । भावार्थ-यदि वायु पूर्वदिशा में चल रही हो तो समझो बादल पूर्व दिशामें है, यदि उत्तर की वायु चल रही हो तो समझो वर्षा का जल भी उत्तर दिशामें है पवन के अनुसार ही मेघ या पानी का अनुमान लगाना चाहिये ॥ ६० ॥ ईशाने वर्षणं ज्ञेयमाये नैर्ऋतोऽपि च । याम्ये च विग्रहं ब्रूयाद् भद्रबाहुवचो यथा ॥ ६१ ॥ ( ईशाने ) ईशान में वायु चले तो (वर्षणं) वर्षा है (ज्ञेयम्) ऐसा जानना चाहिये Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १८२ (आग्नेये) आग्नेय में (च) और (नैर्ऋतेऽपि) नैर्ऋत्यदिशामें भी चले (च) और (याम्ये) दक्षिण में पवन चले तो (विग्रह) युद्ध होगा (ब्रूयाद्) ऐसा कहना चाहिये, यहाँ पर (भद्रबाहु वचो यथा) भद्रबाहु स्वामी का ऐसा ही वचन है। भावार्थ-जब ईशान कोण में लागु को लो बालश्य ही वर्ण होगी, अम्मियी वायु नैर्ऋत्यी कोण की वायु और दक्षिण कोण की वायु चले तो वहाँ पर अवश्य युद्ध होगा, ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है॥६१॥ सुगन्धेषु प्रशान्तेषु स्निग्धेषु मार्दवेषु च। वायमानेषु वातेषु सुभिक्षं क्षेममेव च॥६॥ (वायमानेषु वातेषु) चलने वाली वायु में यदि सगन्धी हो (प्रशान्तेषु) प्रशान्त हो (स्निग्धेषु) स्निग्ध हो (मार्दवेषु) कोमल हो तो (सुभिक्षं) सुभिक्ष (च) और (क्षेममेव) क्षेमकुशल ही होगा। भावार्थ-चलने वाली वायु में यदि सुगन्धी हो, वह वायु प्रशान्त हो स्निग्ध हो, हल्की हो तो समझो सुभिक्ष और क्षेम कुशल होगा॥६२॥ महतोऽपि समुद्भूतान् सतडित् साभिगर्जितान्। मेधान्निहनते वायु नैर्ऋतो दक्षिणाग्निजः ॥१३॥ (नैर्ऋतो) नैर्ऋत्तकोण की (दक्षिणाग्निज:) दक्षिण दिशाकी ओर आग्नेय दिशा की (वायु) वायु (मेघान्) मेघों को चाहे वो (सतडित्) बिजली सहित हो (साभिगर्जितान्) बादलों की गड़गड़ाहट से (समुदभूतान्) सहित हो और (महतोऽपि) महान भी हो तो (निहनते) नष्ट कर देता है। भावार्थ---यदि मेघ काले-काले हो गड़गड़ाहट से युक्त हो उसमें बिजली चमकती हो और ऐसा लगेगा की अभी-अभी ही पानी बरसने वाला है ऐसी स्थिति वाले बादल भी, नैर्ऋत्य कोण की वायु दक्षिण कोण की वायु अग्निकोण की वायु चले तो उन मेघों को क्षणभर में नष्ट कर देती है, पानी बरसने देती है।। ६३ ।। सर्वलक्षण सम्पन्ना मेघा मुख्या जलावहाः। मुहूर्तादुत्थितो वायुहन्यात् सर्वोऽपि नैर्ऋतः॥६४॥ (मेघा) मेघ (जलावहा:) जल से भरे हुए हो, (सर्वलक्षणसम्पन्ना) सर्व लक्षणों Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ नवमोऽध्यायः से सम्पन्न हो ( मुख्या) मुख्य हो, ( मुहूर्तादुत्थितो) मुहूर्त के लिये उठा हुआ (नैर्ऋत) नैर्ऋत्य कोण (वायु) वायु ( सर्वोऽपि ) उन सत्र ( हन्यात्) नष्ट कर देता है। भावार्थ-नैऋत्यकोण से उठा हुआ वायु मेघ चाहे सर्व लक्षणों से सम्पन्न हो, जल से भरे हुए हो, मुख्य हो तो भी एक क्षण में नष्ट कर देता है, पानी को नहीं बरसने देगा, ऐसी वायु मेघों को उड़ाकर ले जाती है ॥ ६४ ॥ सर्वथा बलवान् वायुः स्वचक्रे निरभिग्रहः । करणादिभिः संयुक्तो विशेषेण शुभाशुभ: ॥ ६५॥ (निरभिग्रह: ) अभिग्रह से रहित (वायुः) वायु (स्वचक्रे) अपने चक्रमें (सर्वथा ) सब तरह से (बलवान्) बलवान होता है (विशेषेण) विशेष रीति से (करणादिभि; ) करणादिक से (संयुक्तो) संयुक्त हो तो (शुभाशुभ:) शुभ या अशुभ हो जाती है। भावार्थ — निरभिग्रह से युक्त वायु अपने चक्र में बलवान हो जाता है और करणादिक युक्त होने पर वहीं वायु शुभ या अशुभ रूप हो जाती है ॥ ६५ ॥ विशेष- अब आचार्य यहाँ पर वायुओं का लक्षण व फल बतलाते हैं, वायु के चलने पर अनेक बातों का ज्ञात होता है, वायु से शुभाशुभ सुभिक्ष व दुर्भिक्ष, वर्षा, कृति सेना व सेनापति, राजा तथा देश के शुभाशुभत्व का ज्ञान करना चाहिये ! पुण्य और पाप के उदय से शुभाशुभ का लक्षण जीवों के लिये होता है, जैसा पुण्य होगा वैसी ही वायु चलेगी, अगर पुण्य हीनाधिक है तो वायु भी हीनाधिक चलकर फल को भी हीनाधिक कर देगी, वायुओं में, आषाढ़ी प्रतिपदा व पूर्णिमां मुख्य है इन दोनों तिथियों में जैसी दिशा की वायु चले तो वर्षा, कृषि, व्यापार, रोग, उपद्रव की जानकारी प्राप्त होती है जो जानकार निमित ज्ञानी है वो वायु के चलने पर सब प्रकार के फल को जान लेता है । अमुक दिशा की वायु अमुख दिन में, अमुक महीने में हो तो अमुख महीने के अमुख दिन में वर्षा या अवर्षा होगी, जैसे आषाढ़ी प्रतिपदा के दिन सूर्यास्त के समय में पूर्व दिशा में वायु चले तो आश्विन महीने में अच्छी वर्षा होती है । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता १८४ श्रावण में पश्चिम की हवा, भाद्रपद में पूर्वीय हवा आश्विन में ईशान कोण की हवा चले तो वर्षा अच्छी होती है धान्योत्पती भी अच्छी होती है। आषाढ़ी पूर्णिमा को पश्चिमीय वायु जिस प्रदेश में चले तो उस प्रदेश में उपद्रव होता है, रोग का फैलाव होता है राजाओं में मतभेद पड़ता है। वारों के अनुसार भी फलादेश होता है स्निग्ध, मन्द, सुगन्ध, दक्षिणीय वायु भी अच्छी होती ये वायु देश में सुख-शान्ति प्राप्त कराती है। व्यापारिक विभाग के लिये आचार्य कहते हैं कि आषाढ़ी पूर्णिमा को प्रात:काल की पूर्वीय हवा, मध्याह्न में दक्षिणीय वायु अपराह्न काल में पश्चिमीय हवा चले सांयकाल में उत्तरीय हवा चले तो सर्राफो को स्वर्ण में सवाया लाभ होता है। इसी प्रकार अन्य तरह से भी जान लेना चाहिये। आगे डॉ. नेमीचन्द का अभिप्राय भी यहाँ देना अच्छा समझाता हूँ। विवेचन-वायुके चलने पर अनेक बातोंका फलादेश निर्भर है। वायु द्वारा यहाँ पर आचार्यने केवल वर्षा, कृषि और सेना, सेनापति, राजा तथा राष्ट्रके शुभाशुभत्वका निरूपण किया है। वायु विश्वके प्राणियोंके पुण्य और पापके उदयसे शुभ और अशुभ रूपमें चलता है। अत: निमित्तों द्वारा वायु जगत्के निवासी प्राणियोंके पुण्य और पापको अभिव्यक्त करता है। जो जानकार व्यक्ति हैं, वे वायुके द्वारा भावी फलको अवगत कर लेते हैं। आषाढ़ी प्रतिपदा और पूर्णिमा ये दो तिथियाँ इस प्रकारकी हैं, जिनके द्वारा वर्षा, कृषि, व्यापार, रोग, उपद्रव इत्यादिके सम्बन्धमें जानकारी प्राप्त की जा सकती है। यहाँ पर प्रत्येक फलादेशका क्रमश: निरूपण किया जाता है। वर्षा सम्बन्धी फलादेश-आषाढ़ी प्रतिपदाके दिन सूर्यास्तके समयमें पूर्व दिशामें वायु चले तो आश्विन महीनेमें अच्छी वर्षा होती है तथा इस प्रकारके वायुसे अगले महीनेमें भी वर्षाका योग अवगत करना चाहिए। रात्रिके समय जब आकाशमें मेघ छाये हुए हों और धीमी-धीमी वर्षा हो रही हो, उस समय पूर्वका वायु चले तो भाद्रपद मासमें अच्छी वर्षाकी सूचना समझनी चाहिए। इस तिथिको यदि मेघ प्रातःकालसे ही आकाशमें हों और वर्षा भी हो रही हो, तो पूर्व दिशाका वायु चातुर्मासमें वर्षाका अभाव सूचित करता है। तीव्र धूप दिन भर पड़े और पूर्व दिशाका वायु दिन भर चलता रहे तो चातुर्मास में उत्तम वर्षाका योग होता है। आषाढ़ी Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽध्यायः प्रतिपदाका तपना उत्तम माना गया है, इससे चातुर्मासमें उत्तम वर्षा होने का योग समझना चाहिए। उपर्युक्त तिथिको सूर्योदय कालमें पूर्वीय वायु चले और साथ ही आकाशमें मेघ हों पर वर्षा न होती हो तो श्रावण महीनेमें उत्तम वर्षाकी सूचना समझनी चाहिए। उक्त तिथिको दक्षिण और पश्चिम दिशाका वायु चले तो वर्षा चातुर्मासमें बहुत कम या उसका बिल्कुल अभाव होता है। पश्चिम दिशाका वायु चलनेसे वर्षा का अभाव नहीं होता, बल्कि श्रावण में घनघोर वर्षा, भाद्रपद में अभाव और अश्विन में अल्प वर्षा होती है। दक्षिण दिशा का वायु वर्षा का अवरोध करता है। उत्तर दिशा का वायु चलने से भी वर्षाका अच्छा योग रहता है। आरम्भमें कुछ कमी रहती है, पर अन्त तक समयानुकूल और आवश्यकतानुसार होती जाती है। आषाढ़ी पूर्णिमाको आधे दिन—दोपहर तक पूर्वीय वायु चलता रहे तो श्रावण और भाद्रपदमें अच्छी वर्षा होती है, पूरे दिन पूर्वीय पवन चलती रहे तो चातुर्मास पर्यत अशी वाई होती है और एक प्रहर पूर्वीय पवन चले तो केवल श्रावणके महीनेमें अच्छी वर्षा होती है। यदि उक्त तिथिको दोपहरके उपरान्त पूर्वीय पवन चले और आकाशमें बादल भी हों तो भाद्रपद और आश्विन इन दोनों महीनोंमें उत्तम वर्षा होती है। यदि उक्त तिथिको दिनभर सुगन्धित वायु चलती रहे और थोड़ी-थोड़ी वर्षा भी होती रहे तो चातुर्मासमें अच्छी वर्षा होती है। माघ महीनेका भी इस प्रकार की वायु वर्षा होनेकी सूचना देता है। यदि आषाढ़ी पूर्णिमाको दक्षिण दिशाकी वायु चले तो वर्षाका अभाव सूचित होता है। यह पवन सूर्योदयसे लेकर मध्याह्नकाल तक चले तो आरम्भमें वर्षाका अभाव और मध्याह्नोत्तर चले तब अन्तिम महीनोंमें वर्षाका अभाव समझना चाहिए। यदि आधे दिन दक्षिण पवन और आधे दिन पूर्वीय या उत्तरीय पवन चले तो आरम्भमें वर्षाभाव, अनन्तर उत्तम वर्षा तथा आरम्भमें पर अवलम्बित समझनी चाहिए। यदि उक्त तिथिको पश्चिमीय पवन चले, आकाशमें बिजली तड़के तथा मेघोंकी गर्जना भी हो तो साधारणत: अच्छी वर्षा होती है। इस प्रकारकी स्थिति मध्यम वर्षा होनेकी सूचना देती है। पश्चिमीय पवन यदि सूर्योदयसे लेकर दोपहर तक चलती है तो उत्तम वर्षा और दोपहरके उपरान्त चले तो मध्यम वर्षा होती है। श्रावण आदि महीनोंके पवनका फलादेश ‘डाक' ने निम्न प्रकार बताया है Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता । १८६ साँओन पछवा भादव पुरिया, आसिन बह ईसान । कात्तिक कन्ता सिकियोने डोलै, कहाँ तक रखवह धान ।। साँओन पछवा बह दिन चारि, चूल्हीक पाछाँ उपजै सारि। बरिसै रिमझिम निशिदिन वारि, कहिगेल वचन डाक परचारि॥ साँओन पुरिवा भादव पछवा आसिन बह नैर्ऋत। कात्तिक कन्ता सिकियोने डोले, उपजै नहि भरिबीत ॥ साँओन पुरिवा वह रविवार, कोदो मडुआक होय बहार । खोजत भेटै नहिं थोड़ो अहार, कहत बैन यह 'डाक' गोओर ॥ जो साँओन पुरवैआ बहै, शाली लागु करीन । भादव पछवा जो बहै होंहिं सकल नर दीन ।। साँओन बह जो बडदांसा, बीआ काटि करू मैं घासा । साँओन जो बह पुरवैया, बडद बेचिकैं कीनहु गैया ।। अर्थ—यदि श्रावणमासमे पश्चिमीय हवा, भाद्रपदमासमें पूर्वीय हवा और आश्विन मासमें ईशान कोणकी हवा चले तो अच्छी वर्षा होती है तथा फसल भी बहुत उत्तम उत्पन्न होती है। श्रावणमें यदि चार दिनों तक पश्चिमीय हवा चले तो रात-दिन पानी बरसता है तथा अन्नकी उपज भी खूब होती है। यदि श्रावणमें पूर्वीय, भाद्रपदमें पश्चिमीय और आश्विनमें नैर्ऋत कोणीय हवा चले तो वर्षा नहीं होती है तथा फसलकी उत्पत्ति भी नहीं होती। यदि श्रावणमें पूर्वीय, भाद्रपदमें पश्चिमीय हवा चले तथा इस महीनेमें रविवार के दिन पूर्वीय हवा चले तो अनाज उत्पन्न नहीं होता और वर्षाकी भीर कमी रहती है। श्रावणमासमें पूर्वीय वायुका चलना अत्यन्त अशुभ समझा जाता है। अत: इस महीनेमें पश्चिमीय हवाके चलनेसे फसल अच्छी उत्पन्न होती है। श्रावणमासमें यदि प्रतिपदा तिथि रविवारको हो, और उस दिन तेज पूर्वीय हवा चलती हो तो वर्षाका अभाव आश्विनमासमें अवश्य रहता है। प्रतिपदा तिथिका रविवार और मंगलवारको पड़ना भी शुभ नहीं है। इससे वर्षाकी कमीकी और फसलकी बर्वादीकी सूचना मिलती है। भाद्रपदमासमें पश्चिमीय हवाका चलना अशुभ और पूर्वीय हवाका चलना अधिक शुभ माना गया है। यदि श्रावणी पूर्णिमा शनिवारको हो और इस दिन दक्षिणीय वायु चलती हो तो वर्षाकी कमी Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ | नवमोऽध्यायः । आश्विनमासमें रहती है। शनिवारके साथ शतभिषा नक्षत्र भी हो तो और भी अधिक हानिकार होता है। भाद्रपद प्रतिपदाको प्रातःकाल पश्चिमीय हवा चले और यह दिन भर चलती रह जाय, तो खूब वर्षा होती है आश्विन मासके अतिरिक्त कार्तिक मासमें भी जल बरसता है। गेहूँ और धान दोनोंकी फसलके लिए यह उत्तम होता है। भाद्रपद कृष्णा पञ्चमी शनिवार या मंगलवारको हो और इस दिन पूर्वीय हवा चले तो साधारण ही फसल तथा दक्षिणीय हवा चले तो फसलके अभावके साथ वर्षाका भी अभाव होता है। पञ्चमी तिथिको भरणी नक्षत्र हो और इस दिन दक्षिणी हवा चले तो वर्षाका अभाव रहता है तथा फसल भी अच्छी नहीं होती। पञ्चमी तिथिको गुरुवार और अश्विनी नक्षत्र हो तो अच्छी फसल होती है। कृत्तिका नक्षत्र हो तो साधारणतया वर्षा होती है। राष्ट्र, नगर सम्बन्धी फलादेश-आषाढ़ी पूर्णिमाको वायु जिस प्रदेशमें चलती है, उस प्रदेशमें उपद्रव होता है, अनेक प्रकारके रोग फैलते हैं तथा उस क्षेत्रके प्रशासकों में मतभेद होता है। यदि पूर्णिमा शनिवारको हो तो उस प्रदेशके शिल्पी कष्ट पाते हैं, रविवार को हो तो चारों वर्णके व्यक्तियोंके लिए अनिष्टकर होता है। मंगलवारको पूर्णिमा तिथि हो और दिनभर पश्चिमीय वायु चलती रहे तो उस प्रदेशमें चोरोंका उपद्रव बढ़ता है तथा धर्मात्माओंको अनेक प्रकारके कष्ट होते हैं। गुरुवार और शुक्रवारको पूर्णिमा हो और इस दिन सन्ध्या समय तीन घण्टे तक पश्चिमीय वायु चलती रहे तो निश्चयत: उस नगर, देश या राष्ट्रका विकास होता है। जनतामें परस्पर प्रेम बढ़ता है, धन-धान्यकी वृद्धि होती है और उस देशका प्रभाव अन्य देशों पर भी पड़ता है। व्यापारिक उन्नति होती है तथा शान्ति और सुखका अनुभव होता है। उक्त तिथिको दक्षिणी वायु चले तो उस क्षेत्रमें अत्यन्त भय, उपद्रव, कलह और महामारीका प्रकोप होता है। आपसी कलहके कारण आन्तरिक झगड़े बढ़ते जाते हैं और सुख-शान्ति दूर होती जाती है। मान्य नेताओंमें मतभेद बढ़ता है, सैनिक शक्ति क्षीण होती है। देशमें नये-नये करोंकी वृद्धि होती है और गुप्त रोगोंकी उत्पत्ति भी होती है। यदि रविवारके दिन अपसव्य मार्गसे दक्षिणीय वायु चले तो घोर उपद्रवोंकी सूचना मिलती है। नगरमें शीतला और हैजेका प्रकोप होता है। जनता अनेक प्रकारका त्रास उठाती है, भयंकर भूकम्प होनेकी सूचना भी इसी प्रकार के वायुसे समझनी चाहिए। यदि अर्धरात्रिमें दक्षिणीय वायु शब्द Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भद्रबाहु संहिता १८८ करता हुआ बहे तो इसका फलादेश समस्त राष्ट्रके लिए हानिकारक होता है। राष्ट्रको आर्थिक क्षति उठानी पड़ती है तथा राष्ट्रके सम्मानका भी ह्रास होता है। देशमें किसी महान् व्यक्ति की मृत्युसे अपूरणीय क्षति होती है। यदि यही वायु प्रदक्षिण करता हुआ अनुलोम गतिसे प्रवाहित हो तो राष्ट्रको साधारण क्षति उठानी पड़ती है। स्निग्ध, मन्द, सुगन्ध दक्षिणीय वायु भी अच्छा होती है तथा राष्ट्रमें सुख-शान्ति उत्पन्न करती है। मंगलवारको दक्षिणीय वायु सायं-सायंका शब्द करता हुआ चले और एक प्रकारकी दुर्गन्धि आती हो तो राष्ट्र और देशके लिए चार महीनों तक अनिष्टसूचक होता है। इस प्रकारके वायुसे राष्ट्रको अनेक प्रकारके संकट सहन करने पड़ते हैं। अनेक स्थानों पर उपद्रव होते हैं, जिससे प्रशासकोंको महती कठिनाइयोंका सामना करना पड़ता है। देशके खनिज पदार्थोकी उपज कम होती है और वनोंमें अग्नि लग जाती है। जिससे देशका धन नष्ट हो जाता है। शनिवार की आषाढ़ी पूर्णिमाको दक्षिणीय वायु चले तो देशको अनेक प्रकारके कष्ट उठाने पड़ते हैं जिस प्रदेशमें इस प्रकारकी वायु चलती है उस प्रदेशके सौ-सौ कोश चारों ओर अग्नि प्रकोप होता है। आषाढ़ी पूर्णिमाको पूर्वीय वायु चले तो देशमें सुख-शान्ति होती है तथा सभी प्रकारकी शक्ति बढ़ती है। वन, खनिजपदार्थ, कल-कारखाने आदिकी उन्नति होनेका सुन्दर अवसर आता है। सोमवारको यदि पूर्वीय हवा प्रात:कालसे मध्याह्नकाल तक लगातार चलती रहे और हवामें से सुगन्धि आती हो तो देशका भविष्य उज्ज्वल होता है। सभी प्रकारसे देशकी समृद्धि होती है। नये-नये नेताओंका नाम होता है, राजनैतिक प्रमुख बढ़ता जाता है, सैनिक शक्तिका भी विकास होता है। यदि थोड़ी वर्षाके साथ उक्त प्रकारकी हवा चले तो देशमें एक वर्ष तक आनन्दोत्सव होते रहते हैं, सभी प्रकारका अभ्युदय बढ़ता है। शिक्षा, कला-कौशलकी वृद्धि होती है और नैतिकताका विकास नागरिकोमें पूर्णतया होता है। नेताओंमें प्रेमभाव बढ़ता है जिससे वे देश या राष्ट्रके कर्मोंको बड़े सुन्दर ढंगसे सम्पादित करते हैं। गुरुवारको पूर्वीय वायु चले तो देशमें विद्याका विकास, नये-नये अन्वेषणके कार्य, विज्ञानकी उन्नति एवं नये-नये प्रकारकी विद्याओंका प्रसार होता है। नगरोंमें सभी प्रकारका अमन चैन रहता है। शुक्रवारको पूर्वीय वायु दिनभर चलती रहे तो शान्ति, सुभिक्ष और उन्नतिकी सूचक है, इस प्रकारके वायुसे देशकी सर्वाङ्गीण उन्नति होती Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽध्यायः व्यापारिक फलादेश-आषाढ़ी पूर्णिमाको प्रात:काल पूर्वीय हवा, मध्याह्नकाल दक्षिणीय हवा, अपराह्नकाल पश्चिमीय हवा और सन्ध्यासमय उत्तरीय हवा चले तो एक महीनेमें स्वर्णके व्यापारमें सवाया लाभ, चाँदीके व्यापारमें डेढ़गुना तथा गुड़के व्यापारमें बहुत लाभ होता है। अन्नका भाव सस्ता होता है तथा कपड़े और सूतके व्यापारमें तीन महीनों तक लाभ होता रहता है। यदि इस दिन प्रात:कालसे सूर्यास्त काल तक दक्षिणीय हवा ही चलती रहे तो सभी वस्तुएँ पन्द्रह दिनके बाद ही महँगी होती हैं और यह महँगीका बाजार लगभग छ: महीने तक चलता है। इस प्रकारके वायुका फल विशेषत: यह है कि अन्नका भाव बहुत मँहगा होता है तथा अन्नकी कमी भी हो जाती है। यदि आधे दिन दक्षिणीय वायु चले, उपरान्त पूर्वीय या उत्तरीय वायु चलने लगे तो व्यापारिक जगत्में विशेष हलचल रहती है तथा वस्तुओंके भाव स्थिर नहीं रहते हैं। सट्टेके व्यापारियोंके लिए उक्त प्रकारका निमित्त विशेष लाभ सूचक है। यदि पूर्वार्ध भागमें उक्त तिथिको उत्तरीय वायु चले और उत्तरार्द्ध में अन्य किसी भी दिशाकी वायु चलने लगे तो जिस प्रदेशमें यह निमित्त देखा गया है, उस प्रदेशके दो-दो सौ कोश तक अनाजका भाव सस्ता तथा वस्त्रको छोड़ अवशेष सभी वस्तुओं का भाव भी सस्ता ही रहता है। केवल दो महीने तक वस्त्र तथा श्वेत रंगके पदार्थों के भाव ऊँचे चढ़ते हैं तथा इन वस्तुओंकी कमी भी रहती है। सोना, चाँदी और अन्य प्रकारको खनिज धातुओंका मूल्य प्राय: सम रहता है। इस निमित्तके दो महीने के उपरान्त सोनेके मूल्यमें वृद्धि होती है। यद्यपि कुछ ही दिनोंके पश्चात् पुन: उसका मूल्य गिर जाता है। पशुओंका मूल्य बहुत बढ़ जाता है। गाय, बैल और घोड़ेके मूल्यमें पहलेसे लगभग सवाया अन्तर आ जाता है। यदि आषाढी पूर्णिमाकी रातमें ठीक बारह बजेके समय दक्षिणीय वायु चले तो उस प्रदेशमें छ: महीनों तक अनाजकी कमी रहती है और अनाजका मूल्य भी बहुत बढ़ जाता है। यदि उक्त तिथिकी मध्यरात्रिमें उत्तरीय हवा चलने लगे तो मशाला, नारियल, सुपाड़ी आदिका भाव ऊँचा उठता है, अनाज सस्ता होता है। सोना, चाँदीका भाव पूर्ववत् ही रहता है। यदि श्रावण कृष्णा प्रतिपदाको सूर्योदय कालमें पूर्वीय हवा मध्याह्न में उत्तरीय, अपराह्न में पश्चिमीय हवा और सन्ध्या काल में उत्तरीय हवा चलने लगे तो लगभग एक वर्ष तक अनाज सस्ता रहता है, केवल आश्विन मासमें अनजा महँगा होता है, अवशेष सभी महीनोंमें Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता अनाज सस्ता रहता है, केवल आश्विन मासमें अनाज महंगा होता है, अवशेष सभी महीनोंमें अनाज सस्ता ही रहता है। सोना, चाँदी और अभ्रक का भाव आश्विनसे माघ तक सस्ता तथा फाल्गुनसे ज्येष्ठ तक महँगा रहता है। व्यापारियोंको कुछ लाभ ही रहता है। उक्त प्रकारके वायु निमित्तसे व्यापारियोंके लिए शुभ फलादेश ही समझा जाता है। यदि इस दिन सन्ध्याकालमें वर्षा के साथ उत्तरीय हवा चले तो अगले दिनसे ही अनाज महँगा होने लगता है। उपयोग और विलासकी सभी वस्तुओंके मूल्यमें वृद्धि हो जाती है, विशेष रूपसे आभूषणोंयके मूल्य भी बढ़ जाते हैं । जूट, सन, मूंज आदिका भाव भी बढ़ता है। रेशमकी कीमत पहलेसे डेढगुनी हो जाती है। काले रंगकी प्राय: सभी वस्तुओंके भाव सम रहते है। हरे, लाल और पीले रंगकी वस्तुओंका मूल्य वृद्धिंगत होता है। श्वेतरंगके पदार्थों का मूल्य सम रहता है। यदि उक्त तिथिको ठीक दोपहरके समय पश्चिमीय वायु चले तो सभी वस्तुओंका भाव सस्ता रहता है। फिर भी व्यापारियोंके लिए यह निमित्त अशुभ सूचक नहीं; उन्हें लाभ होता है। यदि श्रावणी पूर्णिमाको प्रात:काल वर्षा हो और दक्षिणीय वायु भी चले तो अगले दिनसे ही सभी वस्तुओंकी महँगाई समझ लेनी चाहिए। इस प्रकारके निमित्तका प्रधान फलादेश खाद्य पदार्थोक मूल्यमें वृद्धि होना है। खनिज धातुओंके मूल्योंमें भी कुछ वृद्धि होती है, पर थोड़े दिनोंके उपरान्त उनका भाव भी नीचे उतर आता है। यदि उक्त तिथिको पूरे दिन एक ही प्रकारकी हवा चलती रहे तो वस्तुओंके भाव सस्ते और हवा बदलती रहे तो वस्तुओंके भाव ऊँचे उठते हैं। विशेषतः मध्याह्न और मध्यरात्रिमें जिस प्रकारकी हवा हो, वैसा ही फल समझना चाहिए। पूर्वीय और उत्तरीय हवासे वस्तुएँ सस्ती और पश्चिमीय और दक्षिणीय हवाके चलने से वस्तुएँ महँगी होती हैं। इति श्री पंचम श्रुत केवली दिगम्बराचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिता का विशेष वर्णन वायुओं का लक्षण व फल आदि का वर्ण करने वाला नवम अध्याय का हिन्दी भाषानुवाद नामक क्षेमोदय टीका समाप्तः । (इति नवमोऽध्यायः समाप्त:) Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽध्यायः वर्षा का लक्षण व फल अथातः सम्प्रवक्ष्यामि प्रवषणं निबोधत। प्रशस्तमप्रशस्तं च यथा वदनुपूर्वतः॥१॥ (अथातः) अब मैं (प्रवर्षणं) वर्षा का (निबोधत) ज्ञान (सम्प्रवक्ष्यामि) कहूँगा वो (प्रशस्त) शुभ (च) और (अप्रशस्त) अप्रशस्त रूप है (यथा) जैसे (पूर्वतः) पहले (वदनु) कहा था। भावार्थ-अब में वर्षा का ज्ञान कराने के लिये कहूँगा, वह वर्षा भी पूर्वकी तरह दो प्रकार की हो जाती है, प्रशस्त और अप्रशस्त ।।१।। ज्येष्ठे मूलमतिक्रम्य पतन्ति बिन्दवो यदा। प्रवर्षणं तदा ज्ञेयं शुभं वा यदि वाऽशुभम् ।।२॥ (ज्येष्ठे) ज्येष्ठ मासके (मूलम्) मूलको (अतिक्रम्य) अतिक्रमण कर (यदा) तक (विन्दवो) वर्षा (पतन्ति) गिरती है तो (तदा) तब (प्रवर्षणं) वर्षा को (शुभं) शुभ (वा) वा (यदिवाऽशुभम्) अशुभ होती है। भावार्थ-ज्येष्ठ मासके मूल नक्षत्र को उलंगन करके यदि वर्षा होती है तो उसी वर्षा से शुभाशुभ जान लेना चाहिये॥२॥ आषाढ़े शुक्लपूर्वासु ग्रीष्मे मासे तु पश्चिमे। देव: प्रतिपदायां तु यदा कुर्यात् प्रवर्षणम्॥३॥ चतुः षष्टिमाढकानि तदा वर्षति वासवः । निष्पद्यन्ते च सस्यानि सर्वाणि निरुपद्रवम्॥४॥ (ग्रीष्मे) ग्रीष्म ऋतुके (आषाढ़े) आषाढ़ (मासे) मासमें (शुक्ल) शुक्लपक्षके अन्तर्गत (प्रतिपदायां) द्वितीयाको (पश्चिमे) पश्चिम दिशासे बादल उठकर (यदा) जब (देवः) इन्द्र (प्रवर्षणम) वर्षा (कुर्यात्) करे तो (तदा) तब (चतु: षष्टिमाढ कानि) चौषठ आढ़क प्रमाण (वासवः वर्षति) वर्षा होती है (च) और (सर्वाणि) Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता सब ( सस्यानि ) प्रकार के धान्य ( निरुपद्रवम्) निरुपद्रवरूप (निष्पद्यन्ते) उत्पन्न होते है। १९२ भावार्थ ---- ग्रीष्म ऋतु की आषाढ़ मासके शुक्लपक्षकी प्रतिपदा को पूर्वाषाढा नक्षत्र में यदि पश्चिम दिशा से बादल उठकर वर्षा होती है तो समझो चौसठ आढ़क प्रमाण वर्षा होती है और सब धान्य निरुपद्रव रूप उत्पन्न होती है ।। ३-४ ॥ प्रणश्यति । धर्मकामार्था वर्तन्ते पर चक्रं क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं दशरात्रं त्वपग्रहम् ।। ५ ।। उपर्युक्त प्रवर्षण से ( धर्मकामार्थ) धर्म, काम, अर्थकी सिद्धि ( वर्तन्ते) देखी जाती है और (क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं) क्षेम, सुभिक्ष और आरोग्य का कारण होता है, ( परचक्रं प्रणश्यति) पर राजा नगरस्थ राजा को प्रणाम करता है, (दक्षरात्र) दशरात्रि में (त्वपग्रहम् ) भय उत्पन्न होता है । भावार्थ — उपर्युक्त प्रकार की वर्षा हो तो समझो धर्म, अर्थ, काम की जनता को सिद्धि होगी और क्षेम होगा, सुभिक्ष होगा, निरोगता बढ़ेगी और दस दिन में किंचित भय भी उपस्थि होगा लेकिन अवश्य ही परचक्र को राजा प्रणाम करेगा ॥ ५ ॥ प्रवर्षति । उत्तराभ्यामाषादाभ्यां यदा देवः विज्ञेया द्वादश द्रोणा अतो वर्षं सुभिक्षदम् ॥ ६॥ तदानिम्नानि वातानि मध्यभं वर्षणं भवेत् । सस्यानां चापि निष्पत्ति: सुभिक्षं क्षेम मेव च ॥ ७ ॥ ( यदा) जब (देव:) इन्द्र (उत्तराभ्यामाषादाभ्यां ) उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में (प्रवर्षति ) बरसता है तो समझो ( द्वादशद्रोणा ) बाहर द्रोण प्रमाण वर्षा होगी ऐसा ( विज्ञेया ) जानना चाहिये ( अतो) वह ( वर्षं) वर्ष (सुभिक्षदम् ) सुभिक्ष वाला है । ( तदा) तब (निम्नानि) निम्नप्रकार के (वातानि) वायु से, (वर्षणं) वर्षा ( मध्यमं ) मध्यम ( भवेत् ) होती है। ( सस्यानां चापि निष्पति) धान्यो की उत्पति होती है (सुभिक्षं क्षेम मेव च) और निश्चित रूप से क्षेमकुशल सुभिक्ष होगा ही । भावार्थ — यदि उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में वर्षा होती है तो बारह द्रोण प्रमाण वर्षा Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ दशमोऽध्यायः होगी, वह वर्ष सुभिक्ष से सहित होगा, इस प्रकार की वर्षा व वायु से वह वर्ष मध्यम जायगा, धान्यो की उत्पत्ति होगी और नियम से सुभिक्ष ही होगा, प्रजा सुखी हो जायगी ।। ६-७॥ श्रवणेन वारि विज्ञेयं श्रेष्ठं सस्यं च निर्दिशेत्। चौराश प्रबला ज्ञेया व्याधयोऽत्र पृथग्विधाः॥८॥ क्षेपाण्यत्रप्ररोहन्ति दष्टानां नास्ति जीवितम्। अष्टादशाहं जानीयादपग्रहं न संशयः ॥९॥ (श्रवणेन्) श्रवण नक्षत्र में यदि (वारि) वर्षा होती है तो (विज्ञेयं) ऐसा जानना चाहिये कि, (श्रेष्ठ) अच्छी (सस्यं) धान्यकी (निर्दिशेत) उत्पति होती है ऐसा निर्देशन किया है (च) और (चौराश्च) चोरोंकी शक्ति (प्रबलाज्ञेया) प्रबल हो जायगी, और (व्याधयोऽत्र) वहाँ पर व्याधियों (पृथग्विधा:) अलग से होगी। (क्षेपाण्यत्रप्ररोहन्ति) खेतों में अंकुर अच्छे उत्पन्न होंगे, (दष्टानां जीवितम् नास्ति) चूहों का जीवन नहीं रहेगा, व (अष्टादशाह) अठारह दिनों में (अपग्रह) व्याधियोंकी उत्पत्ति (जानीयाद्) जानना चाहिये, (न संशय:) इसमें कोई संशय नहीं करना चाहिये। भावार्थ-जब श्रवण नक्षत्र में पानी की वर्षा हो तो समझो धान्यो की उत्पत्ति अच्छी होगी, चोरों का उपद्रव बहुत बढ़ेगा, नाना प्रकार की व्याधियाँ बढ़ेगी, खेतों में धान्यों के अंकुर उत्पन्न होंगे चूहों को रोग लगेगा और मर जायेंगे और अठारह दिनों में अवश्य ही कोई रोग अवश्य फैलेगा इसमें कोई संशय नहीं करना चाहिये ।। ८-९॥ आढका निधनिष्ठायां सप्तपञ्च समादिशेत् । मही सस्यवती ज्ञेया वाणिज्यं च विनश्यति॥१०॥ क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं सप्तरात्र भयग्रहः। प्रबला दंष्ट्रिणो ज्ञेया मूषकाः शलभाः शुकाः॥११॥ (धनिष्ठायां) धनिष्ठा नक्षत्रमें यदि वर्षा हो तो (सप्तपञ्च आढकानि) सत्तावन आढ़क प्रमाण वर्षा (समादिशेत्) कही गई है (महीसस्यवती) पृथ्वी धान्यों से युक्त (ज्ञेया) जानना चाहिये (च) और (वाणिज्य) व्यापारादिक (नश्यति) नष्ट हो जाते Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता हैं (क्षेम) क्षेम (सुभिक्ष) सुभिक्ष (आरोग्य) निरोगता बढ़ेगी (सप्तरात्र भयग्रहः) सात रात्रि में भय उत्पन्न होगा, (दैष्ट्रिणो) दांतवाले (मूषकाः) चूहा, (शलभाः) पतंग, (शुकाः) तोता आदि (प्रबला) शक्तिशाली (ज्ञेया) जानना चाहिये। भावार्थ-धनिष्ठा नक्षत्रमें यदि वर्षा हो तो सत्तावन आढ़क प्रमाण होती है पृथ्वी धान्यो से युक्त हो जाती है, व्यापारादि सब नष्ट हो जाते हैं क्षेम, सुभिक्ष निरोगता हो जाती है और सात रात्रि के अन्दर कोई भय उत्पन्न हो जायगा, दांत वाले प्राणी जैसे चूहे, तोता पतंगादिकका जोर बढ़ जायगा। इनका उपद्रव बढ़ जायगा ।।१०-११।। खारीस्तु वारिणो विन्द्यात् सस्यानां चाप्युपद्रवम् । चौरास्तुप्रवला ज्ञेया न च कश्चिदयग्रहः ॥१२ ।। (वारिणो) यदि वर्षा (खारीस्तु) शतभिखा नक्षत्र में बरसे तो (सस्यानां) धान्यो को (चाप्युपद्रवम्) उपद्रव होता है (च) और (चौरास्तु) चोरोंका उपद्रव भी (प्रबला) शक्ति सहित (ज्ञेया) जानना चाहिये, (कश्चिदयग्रह:) लेकिन कोई अशुभ नहीं होता। भावार्थ-यदि वर्षा शतभिखा नक्षत्र में बरसे तो धान्यो को क्षति पहुँचती है और चोरों का उपद्रव ज्यादा हो जाता है किन्तु अनिष्ट किसी का भी नहीं होता ।। १२॥ पूर्वाभाद्रपदायां तु यदा मेघ: प्रवर्षति । चतुःषष्टिमाढकानि तदा वर्षति सर्वश: ।। १३ ।। सर्वधान्यानि जायन्ते बलवन्तश्च तस्काराः । नाणकं क्षुभ्यते चापि दशरात्रमपग्रहः ॥१४ ।। (यदा) जब (मेघः) बादल (पूर्वाभाद्रपदायां) पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रको (प्रवर्षति) बरसते हैं, (तु) तो (चतुःषष्टिमाढकानि) चौषट आढ़कप्रमाण (तदा) तब (सर्वश:) सब जगह (वर्षति) बरसता है। (सर्वधान्यानि जायन्ते) सब प्रकार के धान्य अच्छे होते हैं (तस्कराः) चोर लोग (बलवन्तश्च) बलवान हो जाते हैं, (नाणकं क्षुभ्यते) अधिकारी लोग भी क्षुभित हो जाते हैं (चापि) और भी, (दशरात्रमपग्रहः) दस रात्रि में कोई अशुभ हो जाता है। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ दशमोऽध्यायः भावार्थ — यदि वर्षा पूर्वाभाद्रा नक्षा होती है तो आढक प्रमाण वर्षा होती है सब प्रकार के धान्य अच्छे होते हैं चोरों का जोर बढ़ जाता है अधिकारी लोग भी क्षुभित हो जाते हैं उनके मन में भी लोभ हो जाता है और दस रात्रि में कोई न कोई अशुभ घटना अवश्य हो जाती है ॥ १३-१४ ॥ समादिशेत् । सर्वसस्यं समृद्ध्यति ॥ १५ ॥ विंशद्रात्रमपग्रहः । भद्रबाहुवचो यथा ।। १६ ।। यदि वर्षा ( समादिशेत्) हो तो (रुत्तरायां) उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में ( नवतिराढकानिस्यु ) नब्बे आढक प्रमाण वर्षा होती है (बीजं) बीजको (स्थलेषु) पृथ्वीपर (वापयेद) बोना चाहिये। (सर्व) सब ( सस्यं ) धान्यों की ( समृद्धयति ) समृद्धि होती है। (क्षेमं ) क्षेम (सुभिक्ष) सुभिक्षं (आरोग्यं) और निरोगता होती है। (विंशदात्रम् दिवसानां ) बीस रात्रि या दिनोंमें (उपग्रहः) अशुभ हो ( विजानीयाद्) ऐसा जानना चाहिये, (भद्रबाहु वचो यथा) भद्रबाहु स्वामीका ऐसा ही वचन है। भावार्थ-यदि वर्षा उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में बादल चढ़कर वर्षे तो नब्बे आढ़क प्रमाण वर्षा होगी, उसी समय बीजों का वपन कर देना चाहिये बोये गये बीजों की वृद्धि अच्छी होगी, पृथ्वी पर क्षेम आरोग्य और सुभिक्ष होगा, भद्रबाहु स्वामी का ऐसा कहना है कि उपर्युक्त सब होने पर भी बीस रात्रि या बीस दिनमें कोई न कोई अशुभ घटना अवश्य होगी ।। १५-१६॥ नवतिराढकानि स्युरुत्तरायां स्थलेषु वापयेद् बीजं क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं दिवसानां विजानीयाद् चतुःषष्टिमाढकानीह रेवत्यामभिनिर्दिशेत् । सस्यानि च समृद्ध्यन्ते सर्वाण्येव यथाक्रमम् ॥ १७ ॥ उत्पद्यन्ते च परस्परविरोधिन: । यानयुग्या शोभन्ते बलवद्दष्ट्रि वर्धनम् ।। १८ ।। राजान: ( रेवत्याम्) रेवती नक्षत्र को जल बरसे तो ( चतुःषष्टिमाढकानीह ) चौसठ आक प्रमाण वर्षा ( अभिनिर्दिशेत् ) होगी ऐसा निर्देश है (च) और ( सस्यानि ) धान्यो की (समृद्ध्यन्ते) वृद्धि होगी ( यथाक्रमम् सर्वाण्येव) उसी प्रकार यथा क्रमसे Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता (परम्पर) परस्पर (राजानः) राजाओंका (विरोधिनः) विरोध (उत्पद्यन्ते) उत्पन्न होता है (यानयुग्यानिशोभन्ते) सेना की वृद्धि (च) और (बलवइंष्ट्रिवर्धनम्) दांत वाले चूहों की भी वृद्धि होती है। भावार्थ-यदि वर्षा रेवती नक्षत्र को बरसे तो चौसठ आढ़क प्रमाण वर्षा होती है धान्यो की समृद्धि होती है सजाओंमें परस्पर बहुत विरोध बढ़ता है दांत वाले जीवों की वृद्धि होती है सेना की भी वृद्धि होती है।। १७-१८॥ एकोनानि तु पञ्चाशदाढकानि समादिशेत् । अश्विन्यां कुरुते यत्र प्रवर्षणम संशयः॥१९॥ भवेतामुभये सस्ये पीड्यन्ते यवना: शकाः । गान्धारिकाश्च काम्बोजा: पाञ्चालाश्च चतुष्पदाः॥२०॥ (अश्विन्यां) अश्विनी नक्षत्रको यदि मेघ (प्रवर्षणम्) वर्षा (कुरुते) करे (तु) तो (एकोनानि पञ्चाशदाढकानि) उनपचास आढ़क प्रमाण वर्षा होगी, (समादिशेत्) ऐसा कहा गया है (यत्र) यहाँ पर (असंशयः) संशय नहीं करना चाहिये (भये सस्ये भवेताम्) दोनों ही महीनोमें (सस्य) धान्य उत्पन्न होगा, (यवानः शका:) पवन, शक (गान्धारिकाश्च) गान्धार (काम्बोजाः) कम्बोज (पञ्चालाश्च) पाञ्चाल (च) और (चतुष्पदा) चौपायोंको (पीड्यन्ते) पीडा पहुँचती है। भावार्थ-यदि अश्विन नक्षत्रमें वर्षा होवे तो चौसठ आढ़क प्रमाण वर्षा होती है और क्रमश: सभी प्रकार के धान्यो की उत्पत्ति होती और प्रथम के दो माह में ही हो जाती है और पक्न शक गान्धार काम्बोज पाञ्चाल के चतुष्पद माने चार पाँवों वाले जीवों को कष्टदायक है॥१९-२० ।। एकोनविंशतिर्विन्द्यादाढकानि न संशयः । भरण्यां वासवश्चैव यदा कुर्यात् प्रवर्षणम्॥२१॥ व्यालाः सरी सृपाश्चैवमरणं व्याधयो रुजः। सस्यं कनिष्ठं विज्ञेयं प्रजा: सर्वाश्च दुःखिता ।। २२ ।। (यदा) जन्न (भरण्या) भरणी नक्षत्रमें (वासवश्चैव) वर्षा प्रारम्भ हो और (प्रवर्षणम्) वषा हो (कुर्यात) हो तो (यदा) तब (एकोनविंशतिः) उन्नीस (आढकानि) Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ दशमोऽध्यायः आढ़क प्रमाण वर्षा होती है ( विन्द्याद्) जानो, ( न संशयः) उसमें कोई संशय नहीं हैं । ( व्यालाः ) सर्प ( सरीसृपाश्चैव) समर्नादिक का (त्यायोजन ) ना प्रकार के रोगों से ( मरणं) मरण होता है, ( सस्यं ) धान्यो को (कनिष्ठ) कनिष्ठ ( विज्ञेयं) जानो (प्रजा) प्रजा (सर्वाश्च) सब (दुःखिता ) दुःखित होती है । भावार्थ — यदि भरणी नक्षत्र में वर्षा प्रारम्भ हो और उसमें ही वर्षा होती है तो उन्नीस आढ़क प्रमाण वर्षा होती है उसमें कोई संशय नहीं हैं, व्याल, सरी सर्पादिक का नाना प्रकार के रोगों से मरण होगा, धान्यो की उत्पत्ति थोड़ी होगी, सब प्रजा दुःखी होगी ।। २१-२२ ॥ आढकान्येक पञ्चाशत् कृत्तिकासु समादिशेत् । तदा ज्ञेयः त्वपग्रहो द्वैमासिकस्तदा देवाश्चित्रं निम्नेषु वापयेद् बीजं भय सप्तविंशतिरात्रकः ॥ २३ ॥ सस्यमुपद्रवम् । मग्नेर्विनिर्दिशेत् ॥ २४ ॥ (कृत्तिकासु) कृत्तिका नक्षत्र में यदि वर्षा हो (आढकान्येक पञ्चाशत् ) इक्कावन आदक प्रमाण वर्षा होगी, ( तदा) तब ( सप्तविंशतिरात्रक : ) सत्ताइस रात्रि दिवस में (त्वपग्रहो ) अशुभ होगा, (ज्ञेयः) ऐसा जानना चाहिये और (द्विमासिकस्तदादेव) दो महीने तक ही तब वर्षा होगी ( सस्यम् ) धान्य (चित्र) भी चित्र विचित्र रूप होगा (उपद्रवम्) उपद्रव भी होगा, (निम्नेषुवापयेद्बीजं ) निम्न स्थानों में बीजों का वपन करना चाहिये और (अग्ने) अग्निका ( भयम् ) भय होगा (विनिर्दिशेत् ) ऐसा निर्देश किया गया है । अपग्रहं निजानीयात् भावार्थ-यदि वर्षा कृत्तिका नक्षत्र में हो तो समझो इक्कावन आढक प्रमाण वर्षा होगी, सत्ताइस रात्रि - दिनों में कोई अशुभ होगा, वर्षा दो महीने तक ही होगी धान्यो की उत्पत्ति में उपद्रव आयगा, इसलिये नीचे की ओर जो खेत है उसी में बीजों का वपन करना चाहिये, वहाँ पर अग्नि का भय भी अवश्य होगा ।। २३-२४ ॥ आढकान्येकविंशच्च रोहिण्यामभिवर्षति । सर्वमेका दशाहिकाम् ॥ २५ ॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १९८ सुभिक्षं शेममारोग्यं नैतीयं बहूदकम्। स्थलेषु वापयेद् बीजं राज्ञो विजयमादिशेत् ।। २६ ।। . (रोहिण्याम्) रोहिणी नक्षत्र को यदि वर्षा हो तो (आढकान्येकविंशच्च) इक्कावन आढ़क प्रमाण (अभिवर्षति) वर्षा होती है (सर्वमेका दशाहिकाम्) ग्यारह दिनों में सर्व रहसे (अपग्रह) अनिष्ट (विजानीयात्) जानना चाहिये और (नैरृतीयं) नैर्ऋत्यदिशा की ओर से बादल उठकर (बहुदकम) बहुत वर्षा होगी, (सुभिक्ष) सुभिक्ष (क्षेमं) क्षेम (आरोग्य) निरोगता बढ़ेगी, (स्थलेषुवापयेद् बीजं) पृथ्वी में बीजों का वपन करना चाहिये, (राज्ञो) राजा की (विजय) विजय (आदिशेत्) होगी ऐसा कहा है। भावार्थ-यदि रोहिणी नक्षत्र में वर्षा हो तो इक्कावन आढ़क प्रमाण वर्षा होगी, ग्यारह दिन-रात में अनिष्ट होगा, नैर्ऋत्य दिशा से बादल उठकर बहुत वर्षा करेगें, सुभिक्ष होगा, क्षेम कुशल होगा, निरोगता बढ़ेगी, पृथ्वी पर उस समय बीजों का वपन कर देना चाहिये, राजाकी युद्ध में विजय होगी। ऐसा आचार्यश्री ने कहा है।।२५-२६ ॥ आढकान्येकनवतिः सौम्ये प्रवर्षते यदा। अपग्रहं तदा विन्धात् सर्वमेकादशाहिकम्॥२७॥ तदाऽप्यपग्रहं विन्द्याद् वासराणि चतुर्दश। महामात्याश्चपीड्यन्ते क्षुधा व्याधिश्च जायते। क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं दंष्ट्रिण: प्रबलस्तदा ॥२८॥ (यदा) जब (सौम्ये प्रवर्षते) मगशिरा नक्षत्र में वर्षा हो तो समझो (अन्येक नवति आढक) इक्कावन आढ़क प्रमाण वर्षा होगी, (सर्वमेकादशाहिकम्) सर्व ग्यारह दिनों व रात्रियों में (अपग्रह) अनिष्ट (तदा) तब (विन्द्याद्) जानो। अथवा (चतुर्दश वासराणि) चौदह रात्रि दिनों में (तदाऽप्यपग्रहं विन्द्याद्) अनिष्ट होगा। (महामात्याश्च पीड्यन्ते) राज्य के प्रधानमन्त्री को पीडा (क्षुधा व्याधिश्च) क्षुधा व्याधि का (जायतते) होना, (क्षेम) क्षेम, (सुभिक्ष मारोग्यं) सुभिक्ष, निरोगता भी बढ़ेगी (दंष्ट्रिण:) चूहों का (तदा) तब (प्रबला:) उपद्रव प्रबल होगा। भावार्थ-यदि मृगशिर नक्षत्रमें वर्षा हो तो इक्कावन आढ़क प्रमाण वर्षा Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९ दशमोऽध्यायः | होती है और ग्यारह दिन-रात्रि में अथवा चौदह दिन-रात्रि में अशुभ अवश्य होगा, प्रधानमन्त्री को पीडा होगा, सुधा व्याधेि की उत्पत्ति होगी, किन्तु क्षेम सुभिक्ष और निरोगता भी बढ़ेगी दांत वाले जीवों (चूहों) का उपद्रव ज्यादा हो जायगा ।। २७-२८॥ आढकानि तु द्वात्रिंशदाायाञ्चापि निर्दिशेत्। दुर्भिक्षं व्याधिमरणं सस्यघातमुपद्रवम्॥२९॥ श्रावणेप्रथमेमासे वर्ष वा न च वर्षति । प्रोष्ठपदं च वर्षित्वा शेष कालं न वर्षति ॥३०॥ (आद्रायां) आद्रा नक्षत्र में वर्षा हो तो (तु) तो (द्वात्रिंशद) बत्तीस (आढ़कानि) आढ़क प्रमाण (चापिनिर्दिशेत्) वर्षा होगी ऐसा निर्दिश किया है। (दुर्भिक्षं) दुर्भिक्ष (व्याधि) रोग (मरण) मरण और (सस्यघातं) धान्यो का घात (उपद्रवम्) और उपद्रव होंगे। (श्रावणे) श्रावण (मासे) मासके (प्रथमे) प्रथम पक्ष में (वर्ष) वर्षा होती है (वा) वा, (न च) नहीं भी (वर्षति) वर्षा होती (प्रोष्ठपद) भाद्रपद (वर्षित्वा) बरसकर (च) और (शेषकालं) शेषकाल में (न) नहीं (वर्षति) बरसती है। भावार्थ-भाद्रा नक्षत्रमें यदि वर्षा हो तो समझो बत्तीस आढ़क प्रमाण वर्षा होगी, दुर्भिक्ष होगा रोग उत्पन्न होंगे, श्रावण मास के कृष्ण पक्ष में बहुत वर्षा होती है, द्वितीया शुक्ल पक्ष में नहीं भाद्रपद मासमें भी एकादि वर्षा होती है बाकी समय में नहीं ।। २९-३०॥ आढ़कान्येकनवतिं विन्धाच्चैव पुनर्वसौ। सस्यं निष्पधते क्षिप्रं व्याधिश्चप्रबला भवेत्॥३१॥ (पुनर्वसौ) पुनर्वसुनक्षत्र में वर्षा हो तो (अन्येक नवति) इक्कावन (आढक) आढ़क प्रमाण वर्षा होगी (चैव) और (क्षिप्रं) शीघ्र ही (सस्य) धान्योकी (निष्पद्यते) उत्पत्ति होती है (च) और (व्याधि) रोग (प्रबला) प्रबल (भवेत) होते है। भावार्थ—पुनर्वसु नक्षत्रमें वर्षा हो तो इक्कावन आढ़क प्रमाण वर्षा होती है और धान्यो की उत्पत्ति शीघ्र हो जाती है रोगादिक प्रबल होकर भयकर रूप धारण करते है॥३१॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता चत्वारिंशच्च द्वे वाऽपि जानीयादाढकानि च। पुष्येण मन्द वृष्टिञ्च निम्ने वीजानि वापयेत् ॥३२ ।। पक्षमश्वयुजे चापि पक्षं प्रोष्ठपदे तथा। अपग्रहं विजानीयात् बहुलेऽपि प्रवर्षति ॥३३॥ (पुण्येण) पुष्प नक्षत्रमें वर्षा हो तो (चत्वारिच्चद्वे) ब्यालिस (आढकानि) आढ़क प्रमाण वर्षा (जानीयाद्) जानना चाहिये (वाऽपि) और (मन्दवृष्टिश्च) मन्द वृष्टि होती है इसलिये (निम्ने वीजानि वापयेत्) निम्न स्थानों में बीजों का वपन करना चाहिये, (च) और (अपग्रह) अशुभ होगा (विजानीयात्) ऐसा जानो (बहुलेऽपि प्रवर्षति) वर्षा बहुल रूप होती है (पक्षमश्वयुजें चापि पक्षं प्रोष्ठपदे तथा) तथा आश्विनमास में और भाद्रपद में वर्षा होती है। भावार्थ-यदि पुष्य नक्षत्रमें वर्षा हो तो ब्यालिस आढ़क प्रमाण वर्षा होती है मन्द-मन्द वर्षा होती है कभी होती है तो कभी नहीं होती, इसलिये निम्न स्थानों में ही बीजों का वपन करना चाहिये आश्विन मासमें व भाद्रपदमें वर्षा होती है कुछ अशुभ भी होता है और वर्षा भी बहुल रूप होती है॥३२-३३॥ चतुष्पष्टिमाढकानीह तदा वर्षति वासवः । यदाः: श्लेषाश्च कुरुते प्रथमे च प्रवर्षणम् ।। ३४ ॥ सस्य घातं विजानीयात् व्याधिभिश्चोदकेनतु। साधवो दुःखिता ज्ञेया प्रोष्ठपदमपग्रहः ।। ३५ ॥ (यदा) जब (श्लेषाश्च) आश्लेषा के (प्रथमे) प्रथम चरण में (प्रवर्षणम्) वर्षा (कुरुते) करते है तो (तदा) तब (चतुषष्टिमाढकानीह) चौसठ आढ़क प्रमाण (वासव:) बर्षा (वर्षति) बरसती है (सस्यधातं विजानीयात्) धान्यो का घात जानो, (व्याधिभिश्चोदकेनतु) पानी से व्याधि उत्पन्न हो अथवा नहीं हो (साधवो) साधु लोग (दुःखिता) दुःखित (ज्ञेया) होंगे ऐसा जानो (च) और (प्रोष्ठपदमपग्रह) भाद्रमास में अनिष्ट हो। भावार्थ-जब आश्लेषा नक्षत्र के प्रथम चरण में वर्षा हो तो चौसठ आढ़क प्रमाण वर्षा होगी और धान्यो का धात अवश्य होगा, व्याधियां फैलेगी फिर ठीक Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ दशमोऽध्यायः भी हो जायगी, साधु-सन्त दुःखी रहेंगे भाद्रपद में अनिष्ट की सम्भावना होगी, माने कुछ अनिष्ट होगा ।। ३४-३५ ॥ मघासु खारी विज्ञेया सस्यानाञ्च कुक्षि व्याधिच बलवान नीतिश्च तु जायते ॥ ३६ ॥ समुद्भवः । ( मघासु ) मघा नक्षत्र में वर्षा हो (खारी) सोलह द्रोण वर्षा होती है (सस्यानाञ्च ) धान्यो का ( समुद्भवः) उद्भव होगा ( विज्ञेया) ऐसा जानना चाहिये ( कुक्षि व्याधिश्च ) और पेट के रोग होंगे, (नीतिश्च बलवान तु जायते) राजनीतियाँ बलवान होगी । भावार्थ — मघा नक्षत्र में वर्षा होने से धान्यो की उत्पत्ति अच्छी होगी, पेट के रोग होंगे राजनीति बलवान होगी || ३६ || देव: प्रवर्षति । फाल्गुनीषु च पूर्वासु यदा खारी तदाऽऽदिशेत् पूर्णा तदा स्त्रीणां सस्यानि फलवन्ति स्युर्वाणि ज्यानि अपग्रहश्चतुस्त्रिंशच्छ्रावणे सप्त सुखानि च ॥ ३७ ॥ दिशन्ति च । रात्रिकः ॥ ३८ ॥ ( यदा) जब (देव) वर्षा (पूर्वाफाल्गुनीषु) पूर्वाफाल्गुनी में (प्रवर्षति ) व होती है तो (खारी) सोलह द्रोण प्रमाण वर्षा (ssदिशेत् ) दिखे (तदा) तब ( स्त्रीणां सुखानि च ) स्त्रीयों के लिये सुख का कारण है, ( सस्यानि फलवन्तिस्यु ) धान्यो की उत्पति होगी, (र्वाणिज्यानिदिशन्ति च ) व्यापार अच्छा दिखेगा, ( चतुस्त्रिंशत् ) चौबीस दिन में व (छ्रावणे सप्त रात्रिक) श्राणव के सात दिनों में ( अपग्रह) अशुभ होगा । भावार्थ — यदि पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में वर्षा हो तो सोलह द्रोण प्रमाण वर्षा होती है, स्त्रीयों के लिये सुख का कारण, धान्यो की अच्छी उत्पत्ति, व्यापारादिक अच्छे चले श्रावण मास के सात दिन या चौबीस दिन रात्रि में कुछ अनिष्ट हो ऐसा जानना चाहिये ।। ३७-३८ ।। उत्तरायां तु फाल्गुन्यां षष्टिसप्त च आढकानि सुभिक्षं च क्षेममारोग्य निर्दिशेत् । मेव च ॥ ३९ ॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता शीलाश्च धर्मशीलाश्च साधवः । बहुजादीना अपग्रहं विजानीयात् कार्तिके द्वादशाहिकम् ॥ ४० ॥ यदि वर्षा (उत्तरायां तु फाल्गुन्यां) उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमें बरसे तो ( षष्टिसप्त) सढ़षठ (आढकानी) आढक प्रमाण वर्षा होती है ऐसा (निर्दिशेत्) निर्देशन किया गया है (सुभिक्षं) सुभिक्ष ( क्षेमं ) क्षेम (मारोग्यं) निरोगता बढ़ेगी (च) और ( बहुजादीनाशीलाश्च) मनुष्यों में दानशीलता बढ़ेगी, (धर्मशीलाश्च साधवः) साधुओं में धर्मशीलता बढ़ेगी, (कार्तिके द्वादशाहिकम्) कार्तिक के बारह रात्रि या दिन में ( अपगतं ) उपद्रव (विजानीयात्) जानो । भावार्थ — यदि उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रमें वर्षा होती है तो सढ़ष्ठ आढ़क प्रमाण वर्षा होगी, फिर सुभिक्ष होगा, निरोगता बढ़ेगी, क्षेमकुशल होगा धर्मात्माओं में दानशीलता व साधुओं में धर्मशीलता बढ़ेगी और कार्तिक महिने के बारह दिन या रात्रि में कोई न कोई अशुभ घटना घटेगी ॥ ३९-४० ॥ पञ्चाशीर्ति विजानीयात् हस्ते प्रवर्षणं यदा । तदानिम्नानि वाप्यानि पञ्चवर्णं च सुखोत्तमम् । सङ्ग्रामाश्चानु वर्धन्ते शिल्पिकानां श्रावणाश्वयुजे मासि तथा कार्तिक मेव च ।। ४२ ।। अपग्रहं विजानीयान्मासि मासी चौराश्च बलवन्तः स्युरुत्पद्यन्ते च जायते ।। ४१ ।। २०२ दशाहिकम्। पार्थिवाः ॥ ४३ ॥ ( यदा) जब (हस्ते ) हस्ता नक्षत्रमें पानी (प्रवर्षणं) वर्षा हो तो (पञ्चाशीतिं) पच्चीस आढ़क प्रमाण वर्षा होती है (विजानीयात्) ऐसा चानो ( तदा) तब (निम्नानि वाप्यानि ) निम्न स्थानों की बावडीयाँ (पञ्चवर्णं च जायते) पाँच वर्ण की हो जाती है (च) और (सङ्ग्रामाश्चानु वर्धन्ते ) युद्धादिक की वृद्धि होती (शिल्पिकानां सुखोत्तमम् ) शिल्पियों को सुख मिलता है (श्रावणाश्च) श्रावण (युजे) के ( मासि ) महीने से लगाका (तथा) तथा (कार्तिकमेव च ) कार्तिक महीने तक ( मासि मासी) प्रत्येक महीने के ( दशाहिकम् ) दस-दस दिनों में ( अपग्रहं ) अशुभ (विजानीयात्) जानो ( चौसश्च बलवन्तः) चोर बलवान होंगे (च) और ( पार्थिवा:) राजाओं की (रुत्पद्यन्ते) उत्पत्ति होती है। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ दशमोऽध्यायः । भावार्थ-यदि हस्ता नक्षत्रमें वर्षा हो तो पच्चीस आढ़क प्रमाण वर्षा होगी, इसलिये निम्न स्थानों की बावडियाँ पाँच वर्गों की हो जाती है, युद्ध की तैयारियाँ होती है शिल्पीयर्यों को सुख मिलता है श्रावण भाद्र आश्विन कार्तिक मास के दस-दस दिन अशुभ होता है चोर, राजा, सेनादिक की वृद्धि होती है।। ४१-४२-४३॥ द्वात्रिंशमाढकानि स्युश्चित्रायाञ्च प्रवर्षणम्। चित्रं विन्यात् तदा सस्यं चित्रं सर्ष प्रवर्षति ।। ४४ ।। निम्नेषु वापयेद् बीजं स्थलेषु परिवर्जयेत्। मध्यमं तं विजानीयाद् भद्रबाहुवचो यथा ॥४५॥ (चित्रायाञ्च) चित्रा नक्षत्रमें (प्रवर्षणम्) वर्षा हो तो (द्वात्रिंशं) बाईस (आढकानि) आढ़क प्रमाण वर्षा होती है (तदा) तब (चित्र) विचित्र (सस्य) धान्योकी उत्पत्ति होती है (विन्द्यात्) ऐसा जानो (वर्ष) वर्षा भी (चित्र) विचित्र ही (प्रवर्षतित) बरसती है (निम्नेषु) निम्न स्थानों में (बीजं) बीज को (वापये) बोना चाहिये (स्थलेषुपरिवर्जयेत्) ऊँचे स्थानों में बीजों का वपन नहीं करना चाहिये, यह वर्ष (मध्यमं तं विजानीयाद्) मध्यम जानो (भद्रबाहुवचो यथा) ऐसा भद्रबाहु का वचन भावार्थ-यदि चित्रा नक्षत्र में वर्षा हो तो बाईस आढ़क प्रमाण वर्षा होगी, वर्षा भी विचित्र और धान्यो की उत्पत्ति भी विचित्र होगी, इसलिये नीचे के स्थानो में ही बीजों का वपन करे, ऊँचे स्थान पर नहीं, यह वर्ष मध्यम रहता है ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है।। ४४-४५॥ द्वात्रिंशदाढकानिस्युः स्वातौ स्याच्चेत् प्रवर्षणम्। वायुरग्निरनावृष्टिः वर्षमेकं तु वर्षति ।। ४६॥ यदि (स्वातौ) स्वाति नक्षत्र में वर्षा (प्रवर्षणम्) बरसे तो (द्वात्रिंशदढकानिस्युः) बत्तीस आढ़क प्रमाण वर्षा (स्यात्) होती है और (वायुरग्निरनावृष्टिः) वायु, अग्नि, अनावृष्टिका उपद्रव होता है, (वर्षमेकं तु वर्षति) एक वर्ष में एक महीना ही वर्षा होती है। भावार्थ-यदि स्वाति नक्षत्र में वर्षा हो तो बत्तीस आढ़क प्रमाण वर्षा Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता । २०४ होती है और वायु, अग्नि, अनावृष्टि आदि की वृद्धि होती है एक वर्ष में एक महीने तक ही वर्षा होती है।। ४६।।। विशाखासु विजानीयात् खारि मेकौ न संशयः । सस्यं निष्पद्यते चापि वाणिज्यं पीड्यते तदा ॥४७॥ अपग्रहं तु विजानीयाद् दशाहं प्रौष्ठपादिकम्। क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं तां समां नाऽन्न संशयः ।। ४८ ॥ (विशाखासु) विशाखा नक्षत्रमें वर्षा हों तो (विजानीयात्) जानो (खारि मेकां न संशय:) सोलह द्रोष वर्षा होती है इसमें कोई सन्देह नहीं है (सस्यनिष्पद्यते चापि) धान्यो की उत्पत्ति तो अच्छी होती है (वाणिज्य) व्यापार (तदा) तब (पीड.ते) पीडित होता है (प्रौष्ठपादिकम्) भाद्रके (दशाह) दस दिनों में (अपग्रह) अशुभ (विजानीयाद्) होगा ऐसा जानो, (क्षेमं) क्षेम (सुभिक्षं) सुभिक्ष, (आरोग्य) निरोगता होगी, (तां) उसमें (समांनाऽत्र संशयः) कोई सन्देह नहीं करना चाहिये। भावार्थ-विशाखा नक्षत्र में वर्षा हो तो सोलह द्रोण प्रमाण वर्षा होगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है धान्यो की उत्पत्ति तो अच्छी होती है किन्तु व्यापार मन्द हो जाते हैं भाद्र के दस दिनों में कोई न कोई अशुभ अवश्य होगा, क्षेम, सुभिक्ष, निरोगता बढ़ेगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है।। ४७-४८ ।। जानीयादनुराधायां खारिमेकां प्रवर्षणम्। तदा सुभिक्षं सक्षेमं परचक्रं प्रशाम्यति॥४९॥ दूरं प्रवासिका यान्ति धर्मशीलाच मानवाः। मैत्री च स्थावरा ज्ञेया शाम्यन्ते चेतयस्तदा ॥५०॥ (अनुराधायां) अनुराधा नक्षत्रको जल बरसे तो (खारिमेकां) सोलह द्रोण प्रमाण (प्रवर्षणम्) वर्षा होगी, (जानीयाद्) ऐसा जानो, (तदा) तब (सुभिक्ष) सुभिक्ष (सक्षेम) क्षेम के साथ (परचक्रं प्रशाम्यति) परचक्र भी शान्त हो जायगा, (दूर प्रवासिकायान्ति) दूर के यात्री भी वापस लौट आते हैं (मानवा:) मानव (धर्मशीलाश्च) धर्मशील रहेंगे, (मैत्री च स्थावरा ज्ञेया) स्थावरों में मैत्रीभाव जानो (शाम्यन्ते चेतयस्तदा) सर्व उपद्रव शान्त हो जाते हैं। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ दशमोऽध्यायः भावार्थ-यदि अनुराधा नक्षत्र को वर्षा हो तो सोलह द्रोण प्रमाण वर्षा होगी, सुभिक्ष होगा, क्षेमकुशल होगा, परचक्र सारे के सारे शान्त हो जायगें, दूर जाने वाले यात्री भी वापस लौट आएगे; सर्व मानव धर्मशील हो जायगें, स्थावर जीवों में भी मैत्री भाव प्रकट हो जायगा, सारे के सारे उपद्रव भी शान्त हो जायगें।। ४९-५० ॥ ज्येष्ठायामाढकानि[ दशश्चाष्ठी विनिर्दिशेत्। स्थलेषु वापयेद् बीजं तदा भूदाह विद्रवम् ।। ५१।। (ज्येष्ठायाम्) ज्येष्ठा नक्षत्रको वर्षा हो तो (दशश्चाष्टौर्यु) अठारह (आढकानि) आढ़क प्रमाण वर्षा (विनिर्दिशेत्) कही गई है (स्थलेषु वापयेद् बीजं) ऊँचे स्थानों पर भी बीज वपन कर देना चाहिये, (तदा) तब (भूदाहविद्रवम्) भूदाह, भूकम्पादिक उपद्रव होते हैं। भावार्थ-ज्येष्ठा नक्षत्र में वर्षा हो तो अठारह आढ़क प्रमाण वर्षा होती है इसलिये ऊँचे स्थानों पर भी बीजो को बो देना चाहिये, उस वर्ष भूदाह भूकम्पादिक के उपद्रव भी होंगे।। ५१॥ मूलेन खारी विज्ञेया सस्यं सर्व समृद्धयति । एकमूलानि पीड्यन्ते वर्द्धन्ते तस्करा अपि ॥५२॥ , (मूलेन) मूल नक्षत्र में यदि वर्षा हो तो (खारी) एक द्रोण प्रमाण वर्षा होती है (सर्व) सर्व (सस्य) धान्योकी (समृद्धयति) समृद्धि (विज्ञेयां) जानना चाहिये (एकमूलानिपीड्यन्तते) योद्धा भी पीडा को प्राप्त होते हैं (तस्करा अपि) चोरों की भी (वर्द्धते) वृद्धि होती है। भावार्थ-भूल नक्षत्र में यदि वर्षा हो तो एक द्रोण प्रमाण वर्षा होती है, सर्व धान्यो की समृद्धि होती है, योद्धा भी पीडित होते हैं चोरों की वृद्धि होती है।॥५२॥ एतद् व्यासेन कथितं समासाच्छूयतां पुनः । भद्रबाहुवचः श्रुत्वा मतमानवधारयेत्॥५३॥ (एतद् व्यासेन कथितं) इस प्रकार विस्तार से वर्णन किया (समासाच्छूयतां Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु मंहिता २०६ पुन:) पुनः संक्षेप से वर्णन करता हूँ, (भद्रबाहुवचः श्रुत्वा ) भद्रबाहु स्वामी के वचन सुनकर ( मतिमानवधारयेत् ) बुद्धिमानो के अवधारण करना चाहिये भावार्थ - इस प्रकार भद्रबाहु स्वामी ने विस्तार से वर्णन किया अब संक्षेप से पुनः वर्णन करते है है बुद्धिमानो भद्रबाहु के वचन सुनकर मनमें अवधारण करो ॥ ५३ ॥ द्वात्रिंशदाढकानिस्युः नक्रमासेषु निर्दिशेत् । सक्षेत्रे द्विगुणितं तत् त्रिगुणं वाहिकेषु च ॥ ५४ ॥ (नक्रमासेषु) श्रावणमासमें यदि वर्षा हो तो बत्तीस आदक प्रमाण वर्षा (निर्दिशेत्) निर्देशन किया है (समक्षेत्रे ) समक्षेत्रमें फसल ( द्विगुणितं ) दिगुणित होगी, (तत्) उसी प्रकार (वाहिकेषु च त्रिगुणं) उसे स्थल में तीन गुणित फसल होगी। भावार्थ श्रावणमासमें वर्षा हो तो बत्तीस आदक प्रमाण वर्षा होगी और समक्षेत्र में फसल द्विगुणित ऊँचे स्थान में फसल तीन गुणित होती है ॥ ५४ ॥ उल्कावत् साधनं चात्र वर्षणं च विनिर्दिशेत् । शुभाशुभं तदा वाच्यं सम्यग् ज्ञात्वा यथाविधि ॥ ५५ ॥ (उल्कावत साधनं ) उल्का के समान ही (चात्र ) यहाँ ( वर्षणं) वर्षा के फलका (विनिर्दिशेत् ) निर्देशन किया है। ( तदा) तब ( यथाविधि ) यथाविधि (सम्यग्ज्ञात्वा ) सम्यक् प्रकारसे जानकर ( शुभाशुभं ) शुभाशुभ को फल ( वाच्यं) निरूपण करना चाहिये । भावार्थ — उल्काओं के समान ही वर्षा का फल कहा, उसको अच्छी तरह से जानकर शुभाशुभका फल निरूपण किया है ॥ ५ ॥ विशेष वर्णन — इस दशम अध्याय में आचार्य श्री ने प्रवर्षण का वर्णन किया है, इस अध्याय में विशेष वर्णन वर्षाका है इसका वर्णन पहले भी कर आये हैं तो भी विशेष वर्णन इस अध्याय में किया है महीनों व नक्षत्रों व वारों में व पहरों में बरसने वाली मन्द या तेज वर्षा हो तो उसका फल भी वैसा ही होता है । इन निमित्तों के द्वारा वर्ष भर की अतिवृष्टि या अनावृष्टि मालूम पड़ती है, नक्षत्रों के अनुसार विशेषवर्षा हो तो उसका फल भी विशेष इस प्रकार होगा, प्रत्येक महीने में आकाश बादलों से आच्छादि रहे तो बीमारी का कारण होती है, उस प्रदेश में अनेक प्रकार के रोग होते है प्रजा रोगों से पीड़ित होती है । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ दशमोऽध्यायः वर्ष के आरम्भ में कृत्तिका नक्षत्र के अन्दर वर्षा हो तो समझो अनाज की हानि होती है, अतिवृष्टि वा अनावृष्टि से जनसाधारण दुःखी रहता है। इसी प्रकार प्रत्येक नक्षत्रों के अनुसार वर्षा का फल होता है स्वाति नक्षत्र में प्रथम वर्षा होने से मामूली वर्षा होती किन्तु श्रावण महीने में अच्छी वर्षा होती है । ग्रहों के अनुसार भी वर्षा का ज्ञान किया जाता है, सब बातों का ज्ञान होता है। जैसे प्रश्न लग्न के समय चतुर्थ स्थान में राहु और शनि हों तो उस वर्ष में घोर दुर्भिक्ष होता है। वर्षा नहीं होती। चौथे स्थान में गुरु और शुक्र हो तो वर्षा उत्तम रीति से होती है। इन ग्रहों से पदार्थों के भाव का ज्ञान भी होता है प्रश्न लग्न में गुरू हो और एक या दो ग्रह उच्च के हो चतुर्थ सप्तम् दशम भाव में स्थित हों तो वर्ष बहुत अच्छा होता है दर्षा उत्तम होती है स त्यानुसार गेहूँ, चना, धान, जौ तिलहन, गन्ना आदि की उत्पत्ति अच्छी होती है जूट का भाव तेज होता है, जूट अच्छी पकती है व्यापारियों के लिये भी यह वर्ष उत्तम होता है इत्यादि । आगे डॉ. नेमी चन्द आरा का मन्तव्य दे देता हूँ । विवेचन — वर्षाका विचार यद्यपि पूर्वोक्त अध्ययाओंमें भी हो चुका है, फिर भी आचार्य विशेष महत्ता दिखलानेके लिए पुन: विचार करते हैं प्रथम वर्षा जिस नक्षत्रमें होती है, उसीके अनुसार वर्षाके प्रमाणका विचार किया गया है। आचार्य ऋषिपुत्रने निम्नप्रकार वर्षाका विचार किया है । यदि मार्गशीर्ष महीनेमें पानी बरसता है तो ज्येष्ठके महीनेमें वर्षाका अभाव रहता है। यदि पौषमासमें बिजली चमक कर पानी बरसे तो आषाढ़के महीनेमें अच्छी वर्षा होती है । माघ और फाल्गुन महीनोंके शुक्लपक्षमें तीन दिनों तक पानी बरसता रहे तो छठवें और नौवें महीनेमें अवश्य पानी बरसता है। यदि प्रत्येक महीनेमें आकाशमें बादल आच्छादित रहें तो उस प्रदेशमें अनेक प्रकारकी बीमारियाँ होती हैं। वर्षके आरम्भमें यदि कृत्तिका नक्षत्रमें पानी बरसे तो अनाजकी हानि होती है और उस वर्षमें अतिवृष्टि या अनावृष्टिका भी योग रहता है। रोहिणी नक्षत्रमें प्रथम वर्षा होने पर भी देशकी हानि होती है तथा असमयमें वर्षा होती है, जिससे फसल अच्छी नहीं उत्पन्न होती। अनेक प्रकारकी व्याधियाँ तथा अनाजकी महँगी भी इस Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ! २०८ नक्षत्रमें पानी बरसने से होती है। परस्परमें कलह और विसंवाद भी हाते हैं। मृगाशर नक्षत्रमें प्रथम वर्षा होने से अवश्य सुभिक्ष होता है। फसल भी अच्छी उत्पन्न होती है। यदि सूर्य नक्षत्र मृगशिर हो तो खण्डवृष्टि होती है तथा कृषिमें अनेक प्रकार के रोग भी लगते हैं। इस नक्षत्रकी वर्षा व्यापारके लिए भी उत्तम नहीं है। राजा या प्रशासकको भी कष्ट होते हैं। मन्त्रीपुत्र या किसी बड़े अधिकारीकी मृत्यु भी दो महीनेमें होती है। आर्द्रा नक्षत्रमें प्रथम जलकी वर्षा हो तो खण्डवृष्टिका योग रहता है, फसल साधारणतया आधी उत्पन्न होती है। चीनी, गुड़ और मधुका भाव सस्ता रहता है। श्वेत रंगके पदार्थों में कुछ मँहगी आती है। पुनर्वसु नक्षत्रमें प्रथम वर्षा हो तो एक महीने तक लगातार जल बरसता है। फसल अच्छी नहीं होती तथा बोया गया बीज भी मारा जाता है। आश्विन और कार्तिकमें वर्षाका अभाव रहता है और सभी वस्तुएँ प्रायः महँगी होती हैं, लोगोंमें धर्माचरणकी प्रवृत्ति होती है, यद्यपि रोग-व्याधियोंके लिए उक्त प्रकार का वर्ष अत्यन्त अनिष्टकर होता है, सर्वत्र अशान्ति और असन्तोष दिखलाई पड़ता है; फिर साधारण जनताका ध्यान धर्मसाधन की ओर अवश्य जाता है। पुष्य नक्षत्रमें प्रथम जल वर्षा होने पर समयानुकूल जलकी वर्षा एक वर्ष तक होती रहती है, कृषि बहुत उत्तम होतीहै, खाद्यान्नों के सिवाय फलों और मेवोंकी अधिक उत्पत्ति होती है। प्रायः समस्त वस्तुओंके भाव गिरते हैं। जनतामें पूर्णतया शान्ति रहती है, प्रशासक वर्गकी समृद्धि बढ़ती है। जनसाधारणमें परस्पर विश्वास और सहयोगकी भावनाका विकास होता है। यदि आश्लेषा नक्षत्रमें प्रथम जलकी वर्षा हो तो वर्षा उत्तम नहीं होती, फसलकी हानि होती है, जनतामें असन्तोष और अशान्ति फैलती है। सर्वत्र अनाजकी कमी होनेसे हाहाकार व्याप्त हो जाता है। अग्निभय और शास्त्रभयका आतङ्क उस प्रदेशमें अधिक रहता है। चोरी और लूटका व्यापार अधिक बढ़ता है। दैन्यता और निराशाका संचार होने से राष्ट्रमें अनेक प्रकारके दोष प्रविष्ट होते हैं। यदि इस नक्षत्रमें वर्षाके साथ ओले भी गिरें तो जिस प्रदेशमें इस प्रकारकी वर्षा हुई है, उस प्रेदश के लिए अत्यन्त भयकारक समझना चाहिए । उक्त प्रदेश में प्लेग, हैजा जैसी संक्रामक बीमारियाँ अधिक बढ़ती हैं, जनसंख्या घट जाती है। जनता सब तरहसे कष्ट उठाती है। आश्लेषा नक्षत्रमें तेज वायुके साथ वर्षा हो एक वर्ष पर्यन्त उक्त प्रदेशों को कष्ट Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ दशमोऽध्यायः उठाना पड़ता हैं। धूल और कंकड़-पत्थर की वर्षा हो तथा चारों ओर बादल मैंडलाकार बन जावें तो निश्चयत: उस प्रदेशमें अकाल पड़ता है तथा पशुओंकी भी हानि होती है और अनेक प्रकारके कष्ट उठाने पड़ते हैं। प्रशासक वर्गके लिए उक्त प्रकारकी वर्षा भी कष्टकारक होती है। यदि मघा और पूर्वाफाल्गुनीमें प्रथम वर्षा हो तो समयानुकूल वर्षा होती है, फसल भी उत्तम होती है। जनतामें सब प्रकारका अनम-चैन व्याप्त रहता है। कलाकार और शिल्पियोंके लिए उक्त नक्षत्रोंकी वर्षा कष्टप्रद है तथा मनोरंजनके साधनोंकी कमी रहती है। राजनैतिक और सामाजिक दृष्टिसे उक्त नक्षत्रोंकी वर्षा साधारण फल देती है। देशमें सभी प्रकारकी समृद्धि बढ़ती है और नागरिकमें अभ्युदयकी वृद्धि होती है। यद्यपि उक्त नक्षत्रोंकी वर्षा फसलकी वृद्धिके लिए शुभ है, पर आन्तारिक शान्तिमें बाधक होती है। भीतरी आनन्द प्राप्त नहीं हो पाता और आन्तरिक अशान्ति बनी ही रह जाती है। उत्तराफाल्गुनी और हस्त नक्षत्रमें प्रथम वर्षा होनेसे सुभिक्ष और आनन्द दोनोंकी ही प्राप्ति होती है। वर्षा प्रचुर परिणाममें होती है, फसलकी उत्पत्ति भी अच्छी होती है। विशेषत: धानकी फसल खूब होती है। पशु पक्षियोंको भी शान्ति और सुख मिलता है। तृण और धान्य दोनोंकी उपज अच्छी होती है, आर्थिक शान्ति के विकास के उक्त नक्षत्रों के वर्षा होना अत्यन्त शुभ हैं गुड़ की फसल बहुत अच्छी होती है। तथा गुड़का भाव भी सस्ता रहता है। जूट की फसल साधारण होती है। इसका भाव भी आरम्भ में सस्ता पर, आगे जाकर तेज हो जाता है। व्यापारियोंके लिए भी उक्त नक्षत्रोंकी वर्षा सुखदायक होती है। साधारणत: व्यापार बहुत ही अच्छा चलता है। देशमें कल-कारखानोंका विकास भी अधिक होती है। चित्रा नक्षत्रमें प्रथम जलकी वर्षा हो तो वर्षा अत्यन्त कम होती है, परन्तु भाद्रपद और आश्विनमें वर्षाका योग अच्छा रहता है। स्वाति नक्षत्रमें प्रथतम वर्षा होनेसे मामूली वर्षा हो है। श्रावण मासमें अच्छा पानी बरसता है, जिससे फसल अच्छी हो जाती है। कार्तिकी फसल साधारण ही रहती है, पर चैत्री फसल अच्छी हो जाती है; क्योंकि उक्त नक्षत्रकी वर्षा आश्विनमासमें भी जलकी वर्षाका योग उत्पन्न करती है। यदि विशाखा और अनुराधा नक्षत्रमें प्रथम जलकी वर्षा हो तो उस वर्ष में खूब जलकी वर्षा होती है। तालाब और पोखर प्रथम जलकी वर्षासे Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्राहुरिका २१० ही भर जाते हैं । धान, गेहूँ, जूट और तिलहनकी फसल विशेषरूपसे उत्पन्न होती है । व्यापारके लिए यह वर्ष साधारणतया अच्छा होता है। अनुराधामें प्रथम वर्षा होने से गेहूँ में एक प्रकारका रोग लगता है जिससे गेहूँकी फसल मारी जाती है । यद्यपि गन्ना की फसल बहुत ही अच्छी उत्पन्न होती है। व्यापारकी दृष्टिसे अनुराधा नक्षत्रकी वर्षा बहुत उत्तम है। इस नक्षत्रमें वर्षा होनेसे व्यापारमें उन्नति होती है। देशका आर्थिक विकास होता है तथा कला-कौशलकी भी उन्नति होती है। ज्येष्ठ नक्षत्रमें प्रथम वर्षा होनेसे पानी बहुत कम बरसता है, पशुओंको कष्ट होता है। तृणकी उत्पत्ति अनाजकी अपेक्षा कम होती है, जिससे पालतू पशुओंको कष्ट उठाना पड़ता है। मवेशीका माल सस्ता भी रहता है। दूधकी उत्पत्ति भी कम होती है, उक्त प्रकारकी वर्षा देशकी आर्थिक क्षति की द्योतिका है। धन-धान्यकी कमी होती है, संक्रामक रोग बढ़ते हैं। चेचकका प्रकोप विशेषरूपसे होता है। समशीतोष्णवाले प्रदेशोंको मौसम बदल जानेसे यह वर्षा विशेष कष्टकी सूचिका है। तिलहन और तेलका भाव महँगा रहता है, घृतकी भी कमी रहती है तथा प्रशासक और बड़े धनिक व्यक्तियोंको भी कष्ट उठाना पड़ता है । सेनामें परस्पर विरोध और जनतामें अनेक प्रकार के उपद्रव होते हैं। साधारण व्यक्तियोंको अनेक प्रकारके कष्ट उठाने पड़ते हैं। आश्विन और भाद्रपदके महीनों में केवल सात दिन वर्षा होती है तथा उक्त प्रकारकी वर्षा फाल्गुन मासमें घनघोर वर्षाकी सूचना देती है जिससे फसल और अधिक नष्ट होती है। चैत्रके महीनोंमें जल बरसता है तथा ज्येष्ठमें भयंकर गर्मी पड़ती है जिससे महान कष्ट होता है। यदि मूल नक्षत्र में प्रथम वर्षा हो तो उस वर्ष सभी महीनोंमें अच्छा पानी बरसता है। फसल भी अच्छी उत्पन्न होती है। विशेषरूपसे भाद्रपद और आश्विनमें समय पर उचित वर्षा होती है, जिससे दोनों ही प्रकारकी फसलें बहुत अच्छी उत्पन्न होती हैं। व्यापारके लिए भी उक्त प्रकारकी वर्षा अच्छी होती है। खनिज पदार्थ और वन-सम्पत्तिकी वृद्धिके लिए उक्त प्रकारकी वर्षा अच्छी होती है। मूल नक्षत्रकी वर्षा यदि गर्जनाके साथ हो तो माघमें भी जलकी वर्षा होती है। बिजली अधिक कड़के तो फसलमें कमी रहती है। शान्त और सुन्दर मन्द मन्द वायुके चलते हुए वर्षा हो तो सभी प्रकारकी फसलें अत्युत्तम होती हैं । धानकी उत्पत्ति अत्यधिक Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ दशमोऽध्यायः होती है। गाय बैल आदि मवेशीको भी चावल खानेको मिलते हैं। चावलका भाव भी सस्ता रहता है। गेहूँ, जौ और चनाकी फसल भी साधारणतः उत्तम होती है। चनेका भाव अन्य अनाजोंकी अपेक्षा महँगा रहता है तथा दालवाले सभी अनाज महँगे होते हैं। यद्यपि इन अनाजोंकी उत्पत्ति भी अधिक होती है फिर भी इनका मूल्य वृद्धिंगत होता है। उत्तराषाढा नक्षत्रमें प्रथम वर्षा हो तो अच्छी वर्षा होती है तथा हवा भी तेजीसे चलती है। इस नक्षत्रमें वर्षा होनेसे चैत्रवाली फसल बहुत अच्छी होती है अगहनी धान भी अच्छा होता है; किन्तु कार्तिकी अनाज कम उत्पन्न होते हैं। नदियोंमें बाढ़ आती है, जिससे जनताको अनेक प्रकारके कष्ट सहन करने पड़ते हैं । भाद्रपद और पौषमें हवा चलती है, जिससे फसलको भी क्षति होती है। श्रावण नक्षत्रमें प्रथम वर्षा हो तो कार्तिकमासमें जलका अभाव और अवशेष महीनोंमें जलकी वर्षा अच्छी होती हैं। भाद्रपदमें अच्छा जल बरसता है, जिससे धान, मकई, ज्वार और बाजराकी फसलें भी अच्छी होती है। आश्विनमें जलकी वर्षा शुक्ल पक्षमें होती है जिससे फसल अच्छी हो जाती है। गेहूँ में एक प्रकारका कोड़ा लगता है, जिससे इसकी फसल क्षति उठानी पड़ती है। उत्तम प्रकारकी वर्षा आश्विन, कार्त्तिक और चैत्रके महीनों में रोगोंकी सूचना भी देती हैं। छोटे बच्चोंको अनेक प्रकारके रोग होते हैं। स्त्रियोंके लिए यह वर्षा उत्तम है, उनका सम्मान बढ़ता है तथा वे सब प्रकारसे शान्ति प्राप्त करती हैं। धनिष्ठा नक्षत्रमें जलकी प्रथम वर्षा होने पर पानी श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, माघ और वैशाखमें खूब बरसता है। फसल कहीं-कहीं अतिवृष्टिके कारण नष्ट भी हो जाती है। आर्थिक दृष्टिसे उक्त प्रकारकी वर्षा अच्छी होती है। देशके वैभवका भी विकास होता है। यदि गर्जन तर्जनके साथ उक्त नक्षत्रमें वर्षा हो तो उपर्युक्त फलका चतुर्थांश फल कम समझना चाहिए। व्यापारके लिए भी उक्त प्रकारकी वर्षा मध्यम है । यद्यपि विदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध बढ़ता है तथा प्रत्यके वस्तुके व्यापारमें लाभ होता है । धनिष्ठा नक्षत्रके आरम्भमें ही जलकी वर्षा हो तो फसल उत्तम और अन्तिम न घटियोंमें जल बरसे तो साधारण फल होता है और वर्षा भी मध्यम ही होती है। शतभिषा नक्षत्रमें जलकी प्रथम वर्षा हो तो बहुत पानी बरसता है। अगहनी फसल मध्यम होती है, पर चैती फसल अच्छी उपजती है। व्यापारमें हानि उठानी पड़ती है, जूट Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाह संहिता और चौनाके व्यापारमं साधारण लाभ होता है। पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रके आरम्भकी पाँच घाटियोंमें जल बरसे तो फसल मध्यम होती है। माघ मासमें वर्षाका अभाव होनेसे चैती फसलमें कमी आती है। यद्यपि चातुर्मासमें जल खूब बरसता है, फिर भी फसलमें न्यूनता रह जा है। अन्तिमकी घाटियोंमें जलकी वर्षा होनेसे अगहनमें पानीकी वर्षा हो है, फसल भी अच्छी उत्पन्न होती है। धानकी फसलमेरोग लग जाते हैं, फिर भी फसल मध्यम हो ही जाती है। यदि उक्त नक्षत्रके मध्य भागमें वर्षा हो तो अधिक जलकी वर्षा होती है तथा आवश्यकतानुसार जल बरसनेसे फसल बहुत उत्तम होती है। व्यापारियोंके लिए उक्त प्रकारकी वर्षा हानि पहुँचानेवाली होती है। यदि उत्तराभाद्रपद विद्ध पूर्वाभाद्रपदमें वर्षा आरम्भ हो तो शासकोंके लिए अशुभ कारक होती है तथा देशकी समृद्धि में भी कमी आती है। उत्तराभाद्रपद नक्षत्रमें प्रथम वर्षा हो तो चातुर्मासमें अच्छी वर्षा होती है। फसल अधिक वृष्टिके कारण कुछ बिगड़ जाती है। कार्तिक मासमें आनेवाली फसलोंमें कमी होती है। चैती फसल अच्छी होती है। ज्वार और बाजाराकी उत्पत्ति बहुत कम होती है। उत्तराभाद्रपदके प्रथम चरणमें वर्षा आरम्भ होकर बन्द हो जाय तो कार्तिकमें पानी नहीं बरसता, अवशेष महीनोंमें वर्षा होती है। फसल भी उत्तम होती है। द्वितीय चरणमें वर्षा होकर तृतीय चरणमें समाप्त हो तो वर्षा समयानुकूल होती है और फसल भी उत्तम होती है। यदि उत्तराषाढ़ाके तृतीय चरणमें वर्षा हो तो चातुर्मासमें वर्षा होनेके साथ मार्गशीर्ष और माघमासमें भी पर्याप्त वर्षा होती है। चतुर्थचरणमें वर्षा आरम्भ हो तो भाद्रपद मासमें अत्यल्प पानी बरसता है। आश्विनमासमें साधारण वर्षा होती है। माघमें वर्षा होनेके कारण गेहूँ और चनेकी फसल बहुत अच्छी होती है। रेवती नक्षत्र में वर्षा आरम्भ हो तो भाव ऊँचा हो जाता है। वर्षा साधारणतः अच्छी होती है। श्रावणमासके शुक्लपक्षमें केवल पाँच दिन ही वर्षा होनेका योग रहता है। भाद्रपद और आश्विनमें यथेष्ट जल बरसता है। भाद्रपद मासमें वस्त्र और अनाज महँगे होते हैं। कार्तिक मासके अन्तमें भी जलकी वर्षा होती है। रेवती नक्षत्रके प्रथम चरणमें वर्षा होनेपर चातुर्मासमें यथेष्ट वर्षा होती है तथा पौष और माघमें भी वर्षा होने का योग रहता है। वस्तुओंके भाव अच्छे रहते हैं। गुड़के व्यापारमें अच्छा लाभ होता है। देशमें सुभिक्ष और सुख-शान्ति Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ देशमोऽध्यायः रहती है। यदि रेवती नक्षत्र लगते ही वर्षा आरम्भ हो जाय तो फसलके लिए मध्यम है; क्योंकि अतिवृष्टिके कारण फसल खराब हो जाती है। चैती फसल उत्तम होती है, अगहनीमें भी कमी नहीं आती; केवल कार्तिकीय फसलमें कमी आती है। मोटे अनाजोंकी उत्पत्ति कम होती है। श्रावणके महीनमें प्रत्येक वस्तु महँगी होती है। यदि रेवती नक्षत्रके तृतीय चरणमें वर्षा हो तो भाद्रपद मास सूखा जाता है; केवल हल्की वर्षा होकर रुक जाती है। आश्विनमासमें अच्छी वर्षा होती है, जिससे फसल साधारणतः अच्छी हो जाती है। श्रावणसे आश्विनमास तक सभी प्रकारका अनाज महँगा रहता है। अन्य वस्तुओंमें साधारण लाभ होता है। घी का भाव इस वर्षमें अधिक ऊँचा रहता है। मवेशीकी भी कमी रहती है, मवेशीमें एक प्रकारका रोग फैलता है, जिससे मवेशीकी क्षति होती है। द्वितीय चरणके अन्तमें वर्षा आरम्भ होनेपर वर्षके लिए अच्छा फलादेश होता है। गेहूँ, चना और गुड़का भाव प्रायः सस्ता रहता है, केवल मूल्यवान् धातुओंका भाव ऊँचा उठता है। खनिज पदार्थोंकी उत्पत्ति इस वर्षमें अधिक होती है तथा इन पदार्थोक व्यापारमें भी लाभ रहता है। रेवती नक्षत्रके तृतीय चरणमें वर्षा हो तो प्राय: अनावृष्टिका योग समझना चाहिए। श्रावणके पाँच दिन, भादोंमें तीन दिन और आश्विनमें आठ दिन जलकी वर्षा होती है। फसल निकृष्ट श्रेणीकी उत्पन्न होती है, वस्तुओंके भाव महँगे रहते हैं। देशमें अशान्ति और लूट-पाट अधिक होती है। चतुर्थ चरणमें वर्षा होनेसे समयानुकूल पानी बरसता है, फसल भी अच्छी होती है। व्यापारियोंके लिए भी यह वर्षा उत्तम होती है। यदि रेवती नक्षत्रका क्षय हो और अश्विनीमें वर्षा आरम्भ हो तो इस वर्ष अच्छी वर्षा होती है; पर मनुष्य और पशुओंको अधिक शीत पड़नेके कारण महान् कष्ट होता है। फसलको भी पाला मारता है। यदि अश्विनी नक्षत्रके प्रथम चरणमें वर्षा आरम्भ हो तो चातुर्मासमें अच्छी वर्षा होती है, फसल भी अच्छी उत्पन्न होती है। विशेषत: चैती फसल बड़े जोरकी उपजती है तथा मनुष्य और पशुओंको सुख-शान्ति प्राप्त होती है। यद्यपि इस वर्ष वायु और अग्निका अधिक प्रकोप रहता है। फिर भी किसी प्रकारकी बड़ी क्षति नहीं होती है। ग्रीष्म ऋतुमें लू अधिक चलती है, तथा इस वर्ष गर्मी भी भीषण पड़ती है। देशके नेताओंमें मतभेद एवं उपद्रव होते हैं। व्यापारियोंके लिए उक्त प्रकारकी वर्षा अधिक लाभदायक होती Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ भद्रबाहु संहिता है। प्रथम चरणके लगते ही वर्षा आरम्भ हो और समस्त नक्षत्रके अन्त तक वर्षा होती रहे तो वर्ष उत्तम नहीं रहता है। चातुर्मासके उपरान्त जल नहीं बरसता, जिससे फसल अच्छी नहीं होती । तृतीय चरणमें वर्षा होनेपर पौषमें वर्षाका अभाव तथा फाल्गुनमें वर्षा होती है। इस चरण में वर्षाका आरम्भ होना साधारण होता है। वस्तुओंके भाव नीचे गिरते हैं। आश्विनमाससे वस्तुओंके भावोंमें उन्नति होती है। व्यापारियोंको अशान्ति रहती है, बाजारभाव प्राय: अस्थिर रहता है। चतुर्थचरणमें वर्षा आरम्भ होने पर इस वर्ष उप वर्षा होती है। अनाज अच्छी तादाद में उत्पन्न होते हैं। भरणीनक्षत्रमें वर्षा आरम्भ हो तो इस वर्ष प्रायः अस्थिर रहता है। चतुर्थचरणमें वर्षा आरम्भ होने पर इस वर्ष उत्तम वर्षा होती है। सभी प्रकारके अनाज अच्छी तादाद में उत्पन्न होते हैं। भरणीनक्षत्रमें वर्षा आरम्भ हो तो वर्ष प्रायः वर्षाका अभाव रहता है या अल्प वर्षा होती है। फलसके लिए भी उक्त नक्षत्रमें जलकी वर्षा होना अच्छा नहीं है । अनेक प्रकारकी बीमारियाँ भी उक्त नक्षत्रमें वर्षा होने पर फैलती हैं। यदि भरणीका क्षय हो और कृत्तिका भरणीके स्थान पर चल रहा हो तो प्रथम वर्षाके लिए बहुत उत्तम है। भरणीका प्रथम और तृतीय चरण अच्छे हैं, इनके वर्षा होने पर फसल प्राय: अच्छी होती है तथा जनतामें शान्ति रहती है । यद्यपि उक्त चरणमें वर्षा होने पर भी जलकी कमी ही रहती है, फिर भी फसल हो जाती है । द्वितीय और चतुर्थ चरणमें वर्षा हो तो वर्षा के अभावके साथ फसलका भी अभाव रहता है । प्रायः सभी वस्तुएँ महंगी हो जाती हैं, व्यापारियोंको भी साधारण ही लाभ होता है। नाना प्रकारकी व्याधियाँ भी फैलती है। यहाँ वर्षका आरम्भ श्रावण कृष्णा प्रतिपदाको मानना होगा तथा उसके बाद ही या उसी दिन जो नक्षत्र हो उसके अनुसार उपर्युक्त क्रमसे फलाफल अवगत करना चाहिए | समस्त वर्षका फल श्रावणकृष्ण प्रतिपदासे ही अवगत किया जाता हैं । वर्षा का प्रमाण निकालने का विशेष विचार - जिस समय सूर्य रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करे, उस समय चार घड़ा सुन्दर स्वच्छ जल मँगावे और चतुष्कोण घर में गोबर या मिट्टीसे लीपकर पवित्र चौक पर चारों घड़ोंको उत्तर, पूर्व, दक्षिण और पश्चिम क्रमसे स्थापित कर दे और उन जलपूरित घड़ोंको उसी स्थान पर रोहिणी Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ दशमोऽध्यायः । नक्षत्र पर्यन्त १५ दिन तक रखें, उन्हें तनिक भी अपने स्थान से इधर-उधर न उठावें। रोहिणी नक्षत्र के बीत जाने पर उत्तर दिशावाले घड़ेके जलका निरीक्षण करे। यदि उस घड़ामें पूर्णवार समस्त जल मिले तो श्रावणभर खूब वर्षा होगी। आधा खाली होवे तो आधे महीने वृष्टि और चतुर्थांश जल अवशेष हो तो चौथाई वर्षा एवं जलसे शून्य घड़ा देखा जाय तो श्रावणमें वर्षाका अभाव समझना चाहिए। तात्पर्य यह है कि उत्तर दिशा के घड़े के जल प्रमाण से श्रावण में वर्षा का अनुमान लगाया जा सकता है। जितना कम जल घड़में रहेगा, उतनी ही कम वर्षा होगी। इसी प्रकार पूर्व दिशाके धडेसे भादपद मासकी वर्षा, दक्षिण दिशाके पड़ेसे आश्विन मासकी वर्षा, और पश्चिमके घड़ेके जलसे कार्तिककी वर्षाका अनुमान करना चाहिए | यह एक अनुभूत और सत्य वर्षा परिज्ञान का नियम है। चित्र पूर्व-भाद्रपद उत्तर—श्रावण | वेदी या चतुष्कोण घर का भाग । दक्षिण-आश्विन कार्तिक–पश्चिम वर्षाका विचार रोहिणी चक्रके अनुसार भी किया जाता है। 'वर्षप्रबोध' में मेघविजय प्राणिने इस चक्रका उल्लेख निम्न प्रकार किया हैं। राशिचक्रं लिखित्वादौ मेषसंक्रान्ति भादिकम् । अष्टाविंशतिकं तत्र लिखेनक्षत्रसङ्घले।। सन्धौ द्वयं जलं दद्यादन्यत्रैकैकमेव च । चत्वार: सागरस्तत्र सन्धयश्चासंख्यया ।। शृङ्गाणि तत्र चत्वारि तटान्यष्टौ स्मृतानि च । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ भद्रबाहु संहिता रोहिण पतिता यत्र ज्ञेयं तत्र शुभाशुभम् || जाता जलप्रदस्यैषा चन्द्रस्य परमप्रिया । समुद्रेति महावृष्टिस्तटे वृष्टिश्च शोभना ॥ पर्वते विन्दुमात्रा च खण्डवृष्टिश्च सन्धिषु । सन्धौ वणिक् गृहे वासः पर्वते कुम्भकृद्गृहे ॥ मालाकारगृहे सिन्धौ रजकस्य गृहे तटे । अर्थात् सूर्यकी मेष संक्रान्तिके समय जो चन्द्रनक्षत्र हो, उसको आदिकर अट्ठाईस नक्षत्रों को क्रमसे स्थापित करना चाहिए। इनमें दो-दो श्रृंगमें, एक-एक नक्षत्र सन्धिमें, और एक-एक तटमें स्थापित करे। यदि उक्त क्रमसे रोहिणी समुद्र में पड़े तो अधिक वर्षा, शृङ्गमें पड़ें तो थोड़ी वर्षा, सन्धिमें पड़े तो वर्षाभाव और तटमें पड़े तो अच्छी वर्षा होती है। यदि रोहिणी नक्षत्र सन्धिमें हो तो वैश्यके घर, पर्वत पर हो तो कुम्हारके घर, सिन्धमें हो तो मालीके घर और तटमें हो तो धोबीके घर रोहिणीका वास समझना चाहिए। रोहिणीचक्रमें अश्विनी नक्षत्रके स्थान पर मेष सूर्यसंक्रान्तिका नक्षत्र रखना होगा। वर्षका विशेष विचार एवं अन्य फलादेश- -यदि माघमासमें मेघ आच्छादित रहें और चैत्रमें आकाश निर्मल रहे तो पृथ्वीमें धान्य अधिक उत्पन्न हों और वर्षा अधिक मनोरम होती है। चैत्र शुक्लपक्षमें आकाशमें बादलोंका छाया रहना शुभ समझा जाता है। यदि चैत्र शुक्ला पंचमीको रोहिणी नक्षत्र हो और इस दिन बादल आकाश में दिखलायी पड़ें तो निश्चयसे आगामी वर्ष अच्छी वर्षा होती है । सुभिक्ष रहता है तथा प्रजामें सुख-शान्ति रहती है। सूर्य जिस समय या जिस दिन आर्द्रामें प्रवेश करता है, उस समय या उस दिनके अनुसार भी वर्षा और सुभिक्षका फल ज्ञात किया जाता है। आचार्य मेघ महोदय गार्गने लिखा है कि सूर्य रविवारके दिन आर्द्रा नक्षत्रमें प्रवेश करें तो वर्षाका अभाव या अल्पवृष्टि, देशमें उपद्रव, पशुओंका नाश, फसलकी कमी, अन्नका भाव महँगा एवं देशमें उपद्रव आदि फल घटित होते हैं। सोमवारको आर्द्रामें रवि का प्रवेश हो तो समयानुकूल यथेष्ट वर्षा, सुभिक्ष, शान्ति, परस्पर मेल-मिलापकी वृद्धि, सहयोगका विकास, देशकी, उन्नति, व्यापारियों को लाभ, तिलहनमें विशेष लाभ, वस्त्रव्यापारका विकास एवं घृत सस्ता Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७ होता है। मंगलवारको आर्द्रामें रवि का प्रवेश हो तो देश में धन की हानि, अग्निभय, कलह विसंवादों की वृद्धि जनता में परस्पर संघर्ष, चोर लुटेरोंकी उन्नति, साधारण रोहिणी - चक्र सतभिषा सन्धि उत्तरा भाद्रपद सन्धि पूर्वाभाद्रपद घनिष्टा तट सिन्धु अभिजित श्रवण उत्तराषाढा तट पूर्वाषाढा सन्धि मूल ज्येष्ठा सन्धि तट रेवती 웰 श्रृङ्ग तट अनुराधा m Y २ 50 LLT दशमोऽध्यायः ६ सिन्धु अश्विनी भरणी १ G सिन्धु स्वाती विशाखा १२ १० ८ ११ तट कृत्तिका श्रृङ्ग 。 तट चित्रा सन्धि रोहिणी सन्धि हस्त मृगशिर नट पुनर्वसु सिन्धु पुष्य आश्लेषा मधा तट पूर्वाफाल्गुनी/ आट्री सन्धि Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ भद्रबाहु संहिता वर्षा, फसल में कमी और वन एवं खनिज पदार्थोंकी उत्पत्तिमें कमी होती है । बधुवारको आर्द्रामें सूर्यका प्रवेश हो तो अच्छी वर्षा, सुभिक्ष, धान्य भाव सस्ता, रस भाव महँगा, खनिज पदार्थोंकी उत्पत्ति अधिक, मोती माणिक्यकी उत्पत्तिमें वृद्धि, घृतकी कमी, पशुओंमें रोग और देशका आर्थिक विकास होता है। गुरुवारके दिन आर्द्रामें सूर्यका प्रवेश हो तो अच्छी वर्षा, सुभिक्ष, अर्थ वृद्धि, देशमें उपद्रव, महामारियोंका प्रकोप, गुड़-गेहूँका भाव महँगा तथा अन्य प्रकारके अनाजोंका भाव सस्ता; शुक्रवारमें प्रवेश हो तो चातुर्मासमें अच्छी वर्षा, पर माघमें वर्षाका अभाव तथा कार्तिक में भी की कमी भी है। इसके अतिरिक्त फसल में साधारणतः रोग, पशुओंमें व्याधि और अग्निभय एवं शनिवारको प्रवेश हो तो दुष्काल, वर्षाभाव या अल्पवृष्टि, असमय पर अधिक वर्षा, अनावृष्टिके कारण जनतामें अशान्ति, अनेक प्रकारके रोगोंकी वृद्धि, धान्यका अभाव और व्यापारमें भी हानि होती है । वर्षाका परिज्ञान रवि का आर्द्रा में प्रवेश होनेमें किया जा सकेगा। पर इस बातका ध्यान रखना होगा कि प्रवेशके समय चन्द्र नक्षत्र कौन सा है ? यदि चन्द्र नक्षत्र मृदु और जलसंज्ञक हो तो निश्चयतः अच्छी वर्षा होती है और उग्र तथा अग्नि संज्ञक नक्षत्रोंमें जलकी वर्षा नहीं होती । प्रातः काल आर्द्रामें प्रवेश होने पर सुभिक्ष और साधारण वर्षा, मध्याह्नकालमें प्रवेश होने पर चातुर्मासके आरम्भ में वर्षा, मध्यमें कमी और अन्तमें अल्पवृष्टि एवं सन्ध्या समय प्रवेश होने पर अतिवृष्टि या अनावृष्टिका योग रहता है। रात्रिमें जब सूर्य आर्द्रामें प्रवेश करता है, तो उस वर्ष वर्षा अच्छी होती है, किन्तु फसल साधारण ही रहती है। अन्नका भाव निरन्तर ऊँचा - नीचा होता रहता है। सबसे उत्तम समय मध्य रात्रिका है, इस समयमें रवि आर्द्रामें प्रवेश करता है तो अच्छी वर्षा और धान्य की उत्पत्ति उत्तम होती है। जब सूर्य आद्रा में प्रवेश हो उस समय चन्द्रमा केन्द्र या त्रिकोणमें प्रवेश करे अथवा चन्द्रमाकी दृष्टि हो तो पृथ्वी धान्य से परिपूर्ण हो जाती है। जिस ग्रहके साथ सूर्यका इत्थशाल सम्बन्ध हो, उसके अनुसार भी फलादेश घटित होता है। मंगल, चन्द्रमा और शनिके साथ यदि सूर्य इत्थशाल कर रहा हो तो उस वर्ष घोर दुर्भिक्ष तथा अतिवृष्टि या अनावृष्टिका योग समझना चाहिए। गुरूके साथ यदि सूर्यका इत्थशाल हो तो यथेष्ट वर्षा, सुभिक्ष और जनतामें शान्ति रहती है। व्यापारके लिए भी यह योग उत्तम है। देशका आर्थिक Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ दशमोऽध्यायः विकास होता है। बुधके साथ सूर्यका इत्थशाल हो तो पशुओंके व्यापारमें विशेष लाभ, समयानुकूल वर्षा धान्यकी वृद्धि और सुख-शान्ति रहती है। शुक्रके साध इत्थशाल होने पर चातुर्मासमें कुल तीस दिन वर्षा होती है। प्रश्नलग्नानुसार वर्षाका विचार—यदि प्रश्नलग्नके समयमें चौथे स्थानमें राहु और शनि हों तो उस वर्षमें घोर दुर्भिक्ष होता है तथा वर्षाका अभाव रहता है। यदि चौथे स्थानमें मंगल हो तो उस वर्षमें घोर दुर्भिक्ष होता है तथा वर्षाका अभाव रहता है। यदि चौथे स्थानमें मंगल हो तो उस वर्ष वर्षा साधारण ही होती है और फसल भी उत्तम नहीं होती। चौथे स्थानमें गुरु और शुक्रके रहने से वर्षा उत्तम होती है। चन्द्रमा चौथे स्थानमें हो तो श्रावण और भाद्रपदमें अच्छी वर्षा होती है; किन्तु कार्तिकामें वर्षाका अभाव और आश्विनमें कुल सात दिन वर्षा होती है। हर बहुत सेज चलाती है, जिससे फसल भी अच्छी नहीं हो पाती। यदि प्रश्नलग्नमें गुरु हो और एक या दो ग्रह उच्चके चतुर्थ, सप्तम, दशम भावमें स्थित हों तो वर्ष बहुत ही उत्तम होता है। समयानुसार यथेष्ट वर्षा होती है, गेहूँ, चना, धान, जौ, तिलहन, गन्ना आदि की फसल बहुत अच्छी रहती है। जूट का भाव ऊपर उठता है। तथा इसकी फसल भी बहुत अच्छी रहती है। व्यापारियोंके लिए वर्ष बहुत ही अच्छा रहता है। यदि प्रश्नलग्नमें कन्याराशि हो तो अच्छी वर्षा, पूर्वीय हवाके साथ होती है। वर्षमें कुल ९० दिन वर्षा होती है, फसल भी अच्छी होती है। मनुष्य और पशुओंको सुख-शान्ति मिलती है। केन्द्र स्थानोंमें शुभ ग्रह हों तो सुभिक्ष और वर्षा होती है। जिस दिशामें क्रूर ग्रह हों अथवा शनि देखें तो उस दिशामें अवश्य दुर्भिक्ष होता है। यदि वर्षाके सम्बन्धमें प्रश्न करनेवाला पाँचों अँगुलियोंको स्पर्श करता हुआ प्रश्न करे तो अल्पवर्षा, फसलकी क्षति एवं अँगूठेका स्पर्श करता हुआ प्रश्न करे तो साधारण वर्षा होती है। यदि वर्षाके प्रश्नकालमें पृच्छक सिरका स्पर्श करता हुआ प्रश्न करे तो आश्विनमें वर्षाभाव तथा अन्य महीनों में साधारण वर्षा; कनका स्पर्श करता हुआ प्रश्न करे तो साधारण वर्षा, पर भाद्रपदमें कुल दस दिन वर्षा; आँखोंको मलता हुआ प्रश्न कर तो चातुर्मासके सिवा अन्य महीनोंमें वर्षाका अभाव तथा चातुर्मासमें भी कुल सत्ताईस दिन वर्षा; घुटनोंका स्पर्श करता हुआ प्रश्न करे तो सामान्यतया सभी महीनोंमें वर्षा, फसल उत्तम जनताका Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता २२० आर्थिक विकास, कला-कौशलकी वृद्धि; पेटका स्पर्श करता हुआ प्रश्न करे तो साधारण वर्षा, श्रावण और भाद्रपदमें अच्छी वर्षा, फसल साधारण, देशका आर्थिक विकास, अग्निभय, जलभय, बाढ़ आनेका भय; कमरका स्पर्श करता हुआ प्रश्न करे तो परिमित वर्षा, धान्यकी सामान्य उत्पत्ति, अनेक प्रकारके रोगोंकी वृद्धि, वस्तुओंके भाव महंगे; पाँवका स्पर्श करता हुआ प्रश्न करे तो श्रावणमें वर्षाकी कमी, अन्य महीनोंमें अच्छी वर्षा, फसलकी अच्छी उत्पत्ति जौ, और गेहूँकी विशेष उपज एवं जंघाका स्पर्श करता हुआ प्रश्न करे तो अनेक प्रकारके धान्योंकी उत्पत्ति, मध्यम वर्षा, देशमें समृद्धि, उत्तम फसल और देशका सर्वाङ्गीण विकास होता है। प्रश्नकालमें यदि मनमें उत्तेजना आवे, या किसी कारणसे क्रोधादि आ जावे तो वर्षाका अभाव समझना चाहिए। यदि किसी व्यक्तिको प्रश्नकाल में रोते हुए देखें तो चातुर्मासमें अच्छी वर्षा होती है, किन्तु फासतमें भी रहती है। व्यापारियोंके लिए भी यह वर्ष उत्तम नहीं होता। प्रश्नकालमें यदि काना व्यक्ति भी वहाँ उपस्थित हो और वह अपने हाथसे दाहिने कानको खुजला रहा हो तो घोर दुर्भिक्षकी सूचना समझनी चाहिए। विकृत अंगवाला किसी भी प्रकारका व्यक्ति वहाँ रहे तो वर्षाकी कमी ही समझनी चाहिए। फसल भी साधारण ही होती है। सौम्य और सुन्दर व्यक्तियोंका वहाँ उपस्थित रहना उत्तम माना जाता है। इतिश्री पंचमश्रुत केवली दिगम्बराचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिता का विशेष वर्णन वर्षा का लक्षण व फल आदि का वर्णन करने वाली दशमो अध्याय का हिन्दी भाषानुवाद करने वाला क्षेमोदय टीका समाप्त। (इति दशमोऽध्यायः समाप्तः) Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽध्यायः गन्धर्व नगरो का लक्षण व फल अथातः सम्प्रवक्ष्यामि गन्धर्व नगरं तथा। शुभाऽशुभार्थ भूतानां निर्ग्रन्थस्य च भाषितम्॥१॥ (अथात:) अब मैं (गन्धर्वनगर) गन्धर्व नगरों का वर्णन (सम्प्रवक्ष्यामि) कहँगा (तथा) जो (भूतानां) जीवों के (शुभाऽशुभार्थ) शुभाशुभ के लिये होता है, (च) और जो (निर्ग्रन्थस्य) निर्ग्रन्थों के द्वारा (भाषितम्) कहा गया है। भावार्थ-अब मैं निर्ग्रन्थ आचार्य द्वारा कहा गया गन्धर्व नगरों का स्वरूप फाल को कहूँ। जो जीवों के शुभ और अशुभ फल का कारण है इन गन्धर्व नगरों को देखकर स्वयं पर क्या शुभ और क्या अशुभ होगा, जान सकते है॥४॥ पूर्वसूरे यदा घोरं गन्धर्व नगरं भवेत। नागराणां वधं विन्द्यात् तदा घोरमसंशयम् ।।२।। (यदा) जब (पूर्वसूरे) पूर्व दिशा के सूर्योदय समय में (घोरं) महान (गन्धर्व नगरं) गन्धर्व नगर (भवेत) होता है (तदा) तब (नागराणां) नगरस्थ जनोंका (वध) वध होगा (विन्द्यात्) ऐसा जानो और (घोरमसंशयम्) घोरसंशयमें पड़ जायगे। भावार्थ—सूर्योदय के समय पूर्व दिशामें यदि गन्धर्व नगर दिखाई दे तो समझो नगरस्थ राजा व प्रजाका वध होगा, महान संकट में पड़ जायगें।। २॥ अस्तमायाति दीप्तांशो गन्धर्व: नगरं भवेत्।। यायिनां च तु भयं विन्द्याद् तदा धोरमुपस्थितम्॥३॥ (यदा) जब (दीप्तांशी) सूर्य (अस्तमायाति) अस्त के समय (गन्धर्व नगर) गन्धर्व नगर (भवेत्) होता है (तु) तो (यायिनां) आक्रमणकारी आने वाले राजा को (तदा) तब (घोरं) घोर (भयं) भय (उपस्थितम्) उपस्थित होगा (विन्द्याद्) ऐसा जानो। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता २२२ भावार्थ-यदि सूर्यास्त के समय पश्चिम दिशा के अन्दर गन्धर्व नगर दिखाई दे तो समझो आने वाले आक्रमणकारी राजा को महान भय उपस्थित होगा।३।। रक्तं गन्धर्व नगरं दिशं दीप्तां यदा भवेत्। शस्त्रोत्पातं तदा विन्धाद् दारुणं समुपस्थितम्॥४॥ (यदा) जब (रक्तं) लालरंग का (गन्धर्वनगरं) गन्धर्व नगर पूर्व (दिशं) दिशाको (दीप्तां) सूर्योदयके समय (भवेत्) होता है (तदा) तब (दारुणं) महान (शस्त्रोत्पात) शस्त्रोका उत्पात (समुपस्थितम्) उपस्थित होगा ऐसा (विन्द्याद्) जानो। भावार्थ-यदि गन्धर्व नगर पूर्व दिशा में सूर्योदय के समय में दिखाई दे तो समझो महान शस्त्रोत्पात होगा ।। ४॥ पीले गन्धर्व नगर का फल पीतं गन्धर्वनगरं दिशं दीप्तां यदा भवेत्। व्याधिं तदा विजानीयात् प्राणिनां मृत्युसन्निभम् ॥५॥ (यदा) जब (पीतं) पीलेरंग का (गन्धर्वनगर) गन्धर्व नगर पूर्व (दिशं) दिशामें (दीप्तां) सूर्योदयके समय (भवेत्) होता है (तदा) तब (प्राणिनां) जीवों को (व्याधि) व्याधि होगी, और (मृत्युसन्निभम्) मृत्यु के, निकट है ऐसा (विजानीयात्) जानना चाहिये। भावार्थ—सूर्योदयके समयमें पूर्व दिशा की ओर पीले रंग का गन्धर्व नगर दिखाई दे तो समझो वहाँ के लोग व्याधि से ग्रसित होकर मृत्यु के निकट पहुँच जायगें|| ५॥ काले गन्धर्व नगर का फल कृष्णं गन्धर्वनगरमपरां दिशिमासृतम्। वधं तदा विजानीयाद् भयं वा शुद्रयोनिजम्।। ६ ।। यदि (कृष्ण) काले रंगके (गन्धर्वनगर) गन्धर्व नगर (अपरांदिशिमासृतम्) पश्चिमदिशा को दिखाई दे तो (तदा) तब (वधं) वध होगा (विजानीयाद्) ऐसा जानो (वा) वा (शुद्रयोनिजम् भयं) शुद्रयोनीवाले को भय होगा। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय ११ श्लोक नं. ४ अध्याय ११ श्लोक नं. ५ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 2 . .... ... .. .. . ..... . 1:3S: ..: :.... .. RAMA . : By:.: EARNEL : na... : * 8 .. . .:: views PRASTA सा MAP एकादशो अध्यायः श्लोक ... .... .. एकादशो अध्यायः श्लोक ७ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ २२३ एकादशोऽध्यायः भावार्थ — पश्चिम दिशा की और सूर्यास्त समय में यदि काले रंग का गन्धर्व नगर दिखलाई पड़े तो समझो वहाँ के जीवों का वध होगा ऐसा जानो अथवा शूद्रों को भय उत्पन्न होगा ॥ ६ ॥ श्वेतं राज्ञो सफेद रंगके गन्धर्व नगर का फल गन्धर्व नगरं दिशं सौम्यां यदा भृशम्। विजयमाख्याति नगरच धनान्वितम् ॥ ७ ॥ ( यदा) जब (सौम्यां ) उत्तर (दिशं) दिशामें ( श्वेतंगन्धर्वनगरं ) सफेद रंग के गन्धर्वनगर दिखाई पड़े तो ( राज्ञो) राजकी (विजय) विजय (आख्यात) कही गई हैं (च) और (नगर) नगर (धनान्वितम् ) धन सम्पन्न हो जाता है । भावार्थ — यदि सफेद रंग का गन्धर्व नगर उत्तर दिशा में दिखलाई पड़े तो समझो राजा की विजय होगी, नगर धन सम्पन्न हो जायगा ॥ ७ ॥ सभी दिशाओं के गन्धर्व नगर का फल यदादिक्षु गन्धर्वनगरं वर्णा विरुध्यन्ते सर्वदिक्षु सर्वास्वापि सर्वो भवेत् । परस्परम् ॥ ८ ॥ ( यदा) जब ( सर्वास्वपि) सभी ही (दिशु) दिशाओं में (गन्धर्वनगरं भवेत् ) गन्धर्व नगर दिखे तो ( सर्वोवर्णा) सब वर्ण वाले (सर्वदिक्षु) सर्वदिशाओं में (परस्परम् ) परस्पर ( विरुध्यन्ते) विरोध करते हैं । भावार्थ — जब सभी ही दिशाओं में गन्धर्व नगर दिखलाई पड़े पड़े तो समझो सभी वर्ण वाले सभी दिशाओं में परस्पर विरोध करते है लड़ते-झगड़ते है ॥ ८ ॥ कपिल वर्ण के गन्धर्व नगर का फल कपिलं सस्यघाताय माञ्जिष्टं हरिणं अव्यक्तवर्ण कुरुते बल क्षोभं गवाम् । न संशयः ।। ९ ।। गन्धर्वनगर (कपिलं) कपिल वर्ण का हो तो ( सस्यघाताय ) धान्यघात का कारण है (माञ्जिष्ठं) माञ्जिष्ठ वर्ण का हो तो (हरिणं) हरिणों का व ( गवाम् ) Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ૨૨૪ गायों के घात का कारण है (अव्यक्तवर्ण) अगर अव्यक्त वर्ण का है तो (बलक्षोभं) बल का क्षोभ (कुरुते) करता है (न संशयः) इसमें कोई संशय नहीं है। भावार्थ-यदि गन्धर्व नगर कपिल वर्ण का है तो धान्यो का नाश होगा, मञ्जिष्ठवर्णका है तो हरिणों व गायों के नाश का कारण है, अव्यक्त वर्णवाला है तो राजा के बलका क्षोभ करने वाला है इसमें कोई संशय नहीं है॥९॥ गन्धर्व नगरं स्निग्धं सप्राकारं सतोरणम्। शान्तादिशि समाश्रित्य राज्ञस्तद्विजयं वदेत् ॥ १०॥ यदि (गन्धर्व नगर) गन्धर्व नगर (स्निग्ध) स्निग्ध है (सप्राकार) प्राकार सहित है (सतोरणम्) तोरण सहित है और (शांत दिशि) दिशाएँ भी शान्त है (समाश्रित्य) तो समझो (तद) वहाँ पर (राज्ञः) राजा की (विजय) विजय होगी (वदेत्) ऐसा कहे। भावार्थ-यदि गन्धर्व नगर स्निग्ध है प्राकार व तोरणों से सहित है दिशाएँ भी शान्त है तो समझो वहाँ पर राजा की विजय अवश्य होगी।। १०॥ गन्धर्वनगरं व्योम्नि पुरुषं यदि श्यते। वाताशनिनिपातांस्तु तत् करोति सुदारुणम्॥११॥ (यदि) यदि (व्योम्नि) आकाशमें (पुरुष) कठोर (गन्धर्वनगर) गन्धर्व नगर (दृश्यते) दिखाई पड़े (तत्) तब (वाता) वायु और (शनि) बिजलीके (निपातांस्तु) गिरने से (सुदारुणम्) महान भयंकर भय (करोति) करते है। भावार्थ-यदि कठोर गन्धर्व नगर आकाश में दिखाई पड़े तो समझो महान भयंकर वायु और बिजली पड़ेगी, जिससे भय उपस्थितत होगा॥११।। इन्द्रायुध सवर्णं च धूमाग्नि सदृशं च यत् । तदाग्नि भयमाख्याति गन्धर्वनगरं नृणाम् ॥१२॥ (यदि) यदि (गन्धर्वनगर) गन्धर्व नगर (इन्द्रयुध सवर्ण) इन्द्र धनुध के रंग का हो (च) और (धूमाग्नि सदृशं) धूम या अग्नि के समान हो (तद्) तब (अग्निभयं) अग्नि का भय (नृणाम्) मनुष्योको (आख्याति) होता है ऐसा कहा गया है। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशों अध्यायः श्लोक ९ एकादशो अध्यायः श्लोक १० Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशो अध्यायः श्लोक १२ जिERY एकादशो अध्यायः श्लोक १३ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ भावार्थ - इन्द्र धनुष के रंग का या अग्निके समान या धूम्रके वर्ण का हो तो मनुष्यों को अवश्य ही अग्नि भय उपस्थित होता है ॥ १२ ॥ खण्डं तदा एकादशोऽध्यायः विशीर्ण सच्छिद्रं गन्धर्वनगरं तस्कर संङ्घानां भयं सञ्जायते ( यदा) जब (गन्धर्वनगरं ) गन्धर्व नगर ( खण्डं ) खण्ड-खण्ड हो ( विशीर्णं ) विशीर्ण हो ( सच्छिद्रं) छिद्र सहित हो ( तदा ) तब ( सदा ) सदा ( तस्करसंघानां ) चोरों के गिरोह का ( भयं ) भय ( सञ्जायते) उत्पन्न होता है । भावार्थ- -जब गन्धर्व नगर खण्ड रूप दिखे, विसीर्ण रूप दिखे और छिद्रों से युक्त हो तो वहाँ पर चोरों के गिरोह से भय उत्पन्न होगा || १३ ॥ यदा गन्धर्वनगरं सप्राकारं सतोरणम् । दृश्यते तस्करान् हन्ति तदा चानूपवासिनः ॥ १४ ॥ यदा । सदा ।। १३ ।। ( यदा) जब ( गन्धर्वनगरं ) गन्धर्व नगर ( सप्राकारं ) प्राकार सहित ( सतोरणम् ) तोरण सहित हो तो (तदा) तब ( तस्करान् ) चोरों का (च) और ( अनुपवासिनः ) अनुप निवासियों (दृश्यते हन्ति) देखते ही मारे जाते हैं। भावार्थ- - जब गन्धर्व नगर प्राकार सहित हो तोरण सहित हो तो चोर और अनुपवासि देखते ही मारे जाते हैं । १४ ॥ विशेषतापसव्यं परचक्रेण तु गन्धर्वनगरंक्षिप्रं स्वपक्षागमनं चैव गन्धर्वनगरं चाभि जायते जयं महता नगरं ( यदा) जब (गन्धर्वनगरं ) गन्धर्व नगर (विशेषतापसव्यं) विशेषकर के अपसव्य रूप दिखाई पड़े (तु) तो (नगर) नगरको (परचक्रेण ) पर चक्रका ( महता ) महान ( चाभिभूयते) घेरा पड़ता है। भावार्थ- जब गन्धर्व नगर विशेष कर दक्षिण में दिखाई पड़े तो समझो नगर पर चक्र से घेरित होगा, याने उस नगर पर चक्र का आक्रमण हो जायगा ।। १५ ।। यदा । भूयते ।। १५ ।। चाभिदक्षिणम् । वृद्धिं जलंवहेत् ॥ १६ ॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २२६ यदि (गन्धर्वनगर) गन्धर्व नगर (क्षिप्रं) शीघ्रगतिसे (चाभिदक्षिणम्) दक्षिणदिशा की ओर (जायते) जाते है तो (स्वपक्षागमन) अपने पक्ष का आगमन (चैव) और (जयं) जयको (वृद्धिं) वृद्धि को करते है (जलंवहेत) वर्षा भी अच्छी करता है। __ भाजार्ण-यदि गन्धर्व नगर दक्षिण दिशा की ओर शीघ्र गतिसे जाते हुए दिखलाई पड़े तो समझो स्वपक्ष की विजय, सिद्धि, जय वृद्धि, बल सामर्थ्य की सिद्धि होती है वर्षा भी अच्छी होती है।। १६॥ यदागन्धर्वनगरं प्रकटं तु दवाग्निवत् । दृश्यते पुररोधाय तद् भवेन्नात्र संशयः॥ १७ ।। (यदा) जब (गन्धर्वनगरं) गन्धर्व नगर (प्रकटं) प्रकटरूप (दवाग्निवत्) दवाग्निके समान (दृश्यते) दिखलाई पड़े (तु) तो (तद् तब (पुररोधाय) नगर का अवरोध (भवेत्) होता है (नात्रसंशय) इसमें कोई सन्देह नहीं है। भावार्थ-जब गन्धर्व नगर प्रकट रूप से दवाग्नि के समान दिखलाई पड़े तो अवश्य ही नगर का अवरोध होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है॥१७ ।। अपसव्यं विशीर्ष तु गन्धर्व नगरं यदा। तदा विलुप्यते राष्ट्र बल क्षोभश्च जायते ।। १८॥ (यदा) जब (गन्धर्वनगरं) गन्धर्वनगर (अपसव्यं) दक्षिणमें हो (विशीर्ण) विशीर्णरूप हो (तु) तो (तदा) तब (राष्ट्र) राष्ट्रका (बल) शक्तिका (विलुप्यते) लोप होती हुई (क्षोभश्च) क्षोभरूप (जायते) हो जाती है। भावार्थ-जब गन्धर्व नगर दक्षिणमें विशीर्ण रूप दिखाई पड़े तो समझो राष्ट्रकी शक्ति का लोप हो जायगा, सब क्षुभित हो जायगें॥१८॥ यदा गन्धर्वनगरं प्रविशेच्चाभिदक्षिणम। अपूर्वां लभते राजा तदा स्फीतां वसुन्धराम्॥१९।। (यदा) जब (गन्धर्वनगर) गन्धर्व नगर (चाभिदक्षिणम्) दक्षिणकी ओर से (प्रविशेच्) चारों ओर फैले तो (तदा) तब (स्फीतां) शीघ्र ही (अपूर्वां) अपूर्व (राजा) राजा (वसुन्धराम्) पृथ्वी को (लाभते) प्राप्त करता है। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 एकादशो अध्यायः श्लोक १४ एकादश अध्यायः श्लोक १५ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशो अध्यायः श्लोक २० एकादशी अध्यापः श्लोक १७ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ एकादशोऽध्यायः भावार्थ-जब गन्धर्वनगर दक्षिण से फैलकर चारों तरफ फैल जावे तो राजा को अपूर्व राजधानी प्राप्त होती है।। १९ ।। सध्वजं सपताकं वा सुस्निग्धं सु प्रतिष्ठितम्। शांतां दिशं प्रपद्येत राज वृद्धिस्तथा भवेत् ॥२०॥ यदि गन्धर्व नगर (सध्वज) ध्वजा के समान (सपताक) पताका के समान (वा) वा (सुस्निग्ध) सुस्निग्ध (सुप्रतिष्ठितम्) और सुप्रतिष्ठित और (शांतां) शान्त रूप (दिशं) दिशाएँ दिखे तो (तथा) तथा (राजवृद्धि: भवेत्) राज वृद्धि होती है। भावार्थ-यदि गन्र्धव नगर ध्वजा के समान, पताका के समान व सुस्निग्ध और सुप्रतिष्ठित और शान्त रूप दिशाएँ दिखे तो राजवृद्धि होती है॥२०॥ यदा चार्घनर्मिश्रं सधनैः सबलाहकम्। गन्धर्वनगरं स्निग्धं विद्यादुदक संप्लवम् ।। २१॥ (यदा) जब (गन्धर्वनगर) गन्धर्व नगर (चाभ्रेघनर्मिश्र) बादलों से युक्त घन रूप (सघने:) सघन हो (सबलाहकम्) सबल हो (स्निग्धं) स्निग्ध हो तो (उदक) जल से धरा (संप्लवम्) प्लावित हो जाती है (विद्याद) ऐसा जानो। भावार्थ-जब गन्धर्व नगर घन हो, बादलों से युक्त हो सघन हो सबल हो स्निग्ध हो तो यह धरा जलवृष्टि से भर जाती है, याने चारो तरफ पानी ही पानी वर्ष जाता है। नदियाँ , तालाब, सरोवरादिक जल से भर जाते है।। २१॥ सध्वज सपताकं वा गन्धर्व नगरं भवेत् । दीप्तां दिशं समाश्रित्य नियतं राजमृत्युदम् ॥२२॥ यदि (गन्धर्वनगर) गन्धर्व नगर (सध्वज) ध्वजाओं से सहित (सपताकं) पताकाओं से सहित (भवेत्) होता है तो (वा दीप्तांदिशं समाश्रित) दिशाएं शान्त और पूर्व दिशा में दिखे तो (नियत) नियत रूप से (राजमृत्युदम्) राजा की मृत्यु होगी। भावार्थ-यदि गन्धर्व नगर पताकाओं से सहित ध्वजाओं से सहित पूर्व दिशा में दिखें तो नियम रूप से राजा की मृत्यु होती है।। २२॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | २२८ विदिक्षु चापि सर्वासु गन्धर्व नगरं यदा। सङ्करः सर्व वर्णानां तदा भवति दारुणः ॥२३॥ (यदा) जब (गन्धर्वनगरं) गन्धर्व नगर (सर्वासु) सब (विदिक्षु) विदिशाओं में दिखे तो (सर्ववर्णानां) सभी वर्गोंका (दारुण:) दारुण रूप (शङ्करः) संमिश्रण (तदा) तब (भवति) हो जाता है। भावार्थ-जब गन्धर्व नगर सब दिशाओंमें दिखलाई पड़े तो समझो सब जातियों का वर्ण शंकर होता है, एक-दूसरे में संमिश्रणक्ष हो जाते हैं॥२३ ।। हिला वर लिहणं वा गन्धर्वनगरं भवेत् । चातुर्वर्ण्य मयं भेदं तदाऽत्रापि विनिर्दिशेत् ॥ २४॥ - यदि (गन्धर्वनगर) गन्धर्व नगर (द्विवर्ण) दो रंगो का (वा) वा (त्रिवर्ण) तीन रंगो का (भवेत्) हो तो (चातुर्वर्ण्यमयं भेदं) चारों वर्गों के जीवों में भेद (अन्नापि) यहाँ पर (विनिर्दिशेत्) का निर्देशन किया गया है। भावार्थ-गन्धर्व नगर यदि दो रंगो का हो अथवा तीन रंगों का हो तो समझो चारों वर्गों के जीवों में भेद पड़ जायगा ऐसा निर्देशन आचार्यश्री ने कहा है।। २४॥ अनेक वर्ण संस्थानं गन्धर्व नगरं यदा। क्षुभ्यन्ते तत्र राष्ट्राणि ग्रामाश्च नगराणि च ।। २५॥ सङ्ग्रामाश्चापि जायन्ते मांस शोणित कदमा: । ऐतैश्च लक्षणैर्युक्तं भद्रबाहु वचो यथा ।। २६ ।। (यदा) जब (गन्धर्वनगर) गन्धर्व नगर (अनेक वर्ण संस्थानं) अनेक वर्ण और संस्थान वाला हो तो (राष्ट्राणि) देश (ग्रामाच) ग्राम (नगराणि) नगर (क्षुभ्यन्ते) क्षुभित होते हैं। (चापि) और भी (तत्र) वहाँ पर (सङ्ग्रामा:) संग्राम (मांस) मांस (शोणित) रक्तका (कर्दमाः) कीचड़ वाला (जायन्ते) होता है (एतैश्च लक्षणैर्युक्तं) इन लक्षणों से युक्त उत्पात होता है (यथा) ऐसा (भद्रबाहु वचो) भद्रबाहु स्वामी का वचन है। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . Kut.x.... .. . REATIVE : म .... . REAKER ':23 .. : .N Essi. R . पद- . ... . . . .:: . एकादशो अध्यायः श्लोक २४ .... .. . . . . . एकादशो अध्यायः श्लोक २२ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ g २२९ एकादशोऽध्यायः भावार्थ- -यदि गन्धर्व नगर अनेक वर्ण और अनेक संस्थान वाला हो तो ग्राम, नगर, देश सब क्षुभित हो जाते हैं वहाँ पर रक्त मांस का कीचड़ करने वाला युद्ध होता है इनके लक्षण ही ऐसे होते है ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है ॥ २५-२६ ॥ रक्तं गन्धर्वनगरं क्षत्रियाणां भयावहम् । पीतं वैश्यान् निहल्याशु कृष्णं शूद्रासितं द्विजान् ।। २७ ।। ( रक्तं ) लालरंग का ( गन्धर्वनगरं ) गन्धर्व नगर (क्षत्रियाणां ) क्षत्रियों को (भयावहम्) भय उत्पन्न करता है ( पीतं वैश्यान् ) पीला वैश्यो को ( निहन्त्याशु) नष्ट करता है (कृष्णं शूद्रान् ) काला शूद्रोको व ( सितंद्विजान् ) सफेद ब्राह्मणों को नष्ट करता है। भावार्थ - लाल रंगका गन्धर्व नगर क्षत्रियों के लिये भय उत्पन्न करने वाला है, पीला गन्धर्व नगर वैश्यों के घातका कारण है काला शुद्रों को नष्ट करता है और सफेद ब्राह्मणों का घात करता है ।। २७ ॥ अरण्यानि तु सर्वाणि गन्धर्वनगरं यदा । आरण्यं जायते सर्वं तद्राष्ट्र नान संशयः ।। २८ ।। ( यदा) जब ( गन्धर्वनगर) गन्धर्व नगर ( सर्वाणिअरण्यानि ) सब अरण्यमें दिखे (तु) तो ( तदा ) तब ( सर्वं ) सब ( आरण्यं) जंगल के समान ही (तद्राष्ट्र) वह देश ( जायते) हो जाता है ( नात्र संशयः ) इसमें कोई संशय नहीं है । भावार्थ — यदि गन्धर्व नगर अरण्य में दिखाई पड़े तो वह देश भी जंगल के समान ही हो जाता है इसमें कोई संशय नहीं है ॥ २८ ॥ विन्द्याद् भयं प्रहरणेषु अम्बरेषूदकं अग्निजेषुपकरणेषु यदि गन्धर्व नगर ( अम्बरेषु) आकाश में दिखे तो (उदकं ) वर्षा हो (च) और (प्रहरणेषु) शस्त्रों के बीज दिखे तो ( भयं ) भय होता है (अग्निजेषुपकरणेषु) अग्नि के उपकरणों में दिखे तो (भयमग्नेः ) अग्नि का भय ( विन्द्याद्) जानो ( समादिशेत् ) ऐसा कहा गया है। च । भयमग्नेः समादिशेत् ॥ २९ ॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २३० भावार्थ-यदि गन्धर्व नगर आकाश में दिखलाई पड़े तो वर्षा अच्छी होती है अगर, शानों के बीच धर्म लगा दिखलाई पड़े तो भय उत्पन्न होगा, अग्नि के उपकरणों में दिखाई पड़े तो अग्नि का भय होगा, ऐसा कहा गया है।।२९ ।। शुभाऽशुभं विजानीयाच्वातुर्वण्य यथा क्रमम्। दिक्षु सर्वासु नियतं भद्रबाहुवचो यथा॥३०॥ (चातुर्वर्ण्य) चारो वर्ण वालों को (यथाक्रमम्) यथा क्रमसे (शुभाऽशुभं) शुभाशुभ को (विजानीयात्) जान लेना चाहिये जो (सर्वासुदिक्षुनियतं) सर्वदिशाओं के लिये (भद्रबाहुवचो यथा) भद्रबाहु स्वामी का ऐसा वचन है। भावार्थ---भद्रबाहु स्वामी ने ऐसा कहा है कि चारों वर्ण को यथा क्रमसे गन्धर्व नगरों का फल शुभाशुभ रूपमें सर्वदिशा वालों को जान लेना चाहिये ।। ३०॥ उल्कावत् साधनंदिक्षु जानीयात् पूर्वकीर्तितम्।। गन्धर्वनगरं सर्व यथा वदनुपूर्वशः ॥३१॥ (उल्कावत्) उल्काओं के (साधन) समान ही (दिक्ष) दिशाओंमें (गन्धर्वनगरं सर्व) सब गन्धर्व नगरों के लक्षणों को (पूर्वकीर्तितम्) जो पहले कह दिया गया है (जानीयात्) उसको जान लेना चाहिये। (यथावदनुपूर्वश:) जिस प्रकार पहले कहा। भावार्थ—उल्काओं के समान जो पहले कह दिया गया है यहाँ पर भी जान लेना चाहिये, गन्धर्व नगरों का फल, वर्णन, लक्षण आदि पूर्व के समान ही मैंने यहाँ पर कहा है सो आपको जान लेना ।। ३१॥ विशेष वर्णन—इस अध्याय में आचार्य ने गन्धर्व नगर का वर्णन किया है, गन्धर्व नगर आकाश में बादलों के आच्छादित होने पर उन बादलों में नगर, महल आदिका आकार बनना उसी को आचार्य श्री ने गन्धर्व नगैर कहा है। गन्धर्व नगर के दिखने पर क्रमश: पुरोहित राजा सेनापति और युवराज को कष्ट देने वाला होता है। यह गन्धर्व नगर सफदे, पीले, काले, नीले आदि वर्गों के होते हैं और इन वर्गों के गन्धर्व नगर दिखने पर क्रमश: ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शुद्र के ऊपर असर होता है और इन चारों ही वर्गों के लोगों को कष्ट होता है। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक : आचार्य श्री सुविधिय एकादशो अध्यायः श्लोक २७ एकादशो अध्यायः श्लोक २८ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । vedio REER : :: a. . .. . : : एकादशी अध्यायः श्लोक ८ ASSIANCARN THAPRANAERN PARAN MIER AGINIA . '. . .:.. ..:: . RAYAN HAMRORS87) ... ... MARRIE ENAME एकादशो अध्यायः श्लोक २९ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i २३९ एकादशोऽध्यायः चारों ही दिशाओं में गन्धर्व नगर दिख सकता है किन्तु प्रत्येक दिशाके गन्धर्वनगर का अलग-अलग फल होता है ऋतुओं के अनुसार भी गन्धर्व नगर दिखाई पड़ते हैं और प्रजाओं में रोगादिक फैलता है। पूर्वदिशा में दिखने वाला गन्धर्व नगर पश्चिम दिशाका अवश्य नाश करता है। पश्चिम में गन्धर्व नगर दिखे तो अनाज और वस्त्र की हानि होती है बहुत कष्ट पश्चिम दिशामें रहने वाले को भोगने पड़ते हैं। राजा का नाश दक्षिण दिशा के गन्धर्व नगर दिखलाई पड़ने पर होता है। उत्तर दिशाके गन्धर्व नगर से उत्तर निवासियों के लिये कष्टदायक होता है यह धन-जन वैभव का नाश करता है। हेमन्त ऋतु के गन्धर्व नगर रोगों का अन्त करते है गन्धर्व नगर जिस स्थान पर दिखाई पड़े तो उसका फल भी उन्हीं स्थानों पर होता है। जिस दिशा में दिखाई पड़े उन्हीं दिशा में भी हानि-लाभ पहुँचता है । यदि गन्धर्व नगर इन्द्र धनुषाकार सर्पाकार दिखाई पड़े तो देश नाश, दुर्भिक्ष, मरण व्याधि आदि अनेक प्रकार के अनिष्ट होते हैं। टूटते फूटते गन्धर्व नगर दिखाई दे तो उनका फल अच्छा नहीं होता है। इसके विषय वराहमिहर, ऋषिपुत्रादि क्या कहते है उसका वर्णन भी डॉ. नेमीचन्द आरा ने किया है उसको भी यहाँ दे देता हूँ। विवेचन - वराहमिहिरने उत्तर, पूर्व, दक्षिण और पश्चिम दिशाके गन्धर्वनगरका फलादेश क्रमश: पुरोहित, राजा, सेनापति और युवराजको विघ्नकारक बताया है। श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण वर्गके गन्धर्वनगरको ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंके नाशका कारण मात्र है। उत्तर दिशामें गन्धर्वनगर हो तो राजाओंको जयदायी, ईशान, अग्नि और आयुकोणमें स्थित हो तो नीच जातिका नाश होता है। शान्त दिशामें तोरणयुक्त गन्धर्वनगर दिखलाई दे तो प्रशासकों की विजय होती है। यदि सभी दिशाओंमें गन्धर्वनगर दिखलाई दे तो राजा और राज्यके लिए समान रूप से भयदायक होता हैं। धूम, अनल और इन्द्रधनुषके समान हो तो चोर और वनवासियोंको कष्ट देता है। कुछ पाण्डुरंगका गन्धर्वनगर हो तो वज्रपात होता है, भयंकर पवन भी चलता है । दीप्त दिशामें गन्धर्वनगर हो तो राजाकी मृत्यु, वाम दिशामें हो तो शत्रुभय और दक्षिण भागमें स्थित हो तो जयकी प्राप्ति होती है। नाना रंगकी पताकासे Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २३२ युक्त गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो रणमें हाथी, मनुष्य और घोड़ोंका अधिक रक्तपात होता है। 1 आचार्य ऋषिपुत्र ने बतलाया है कि पूर्व दिशामें गन्धर्वनगर दिखाई पड़े तो पश्चिम दिशाका नाश अवश्य होता है। पश्चिममें अन्न और वस्त्र की कमी रहती है । अनेक प्रकारके कष्ट पश्चिम निवासियोंको सहन करने पड़ते हैं। दक्षिण दिशामें गन्धर्वनगर दिखलाई दे तो राजाका नाश होता है, प्रशासक वर्गमें आपसी मनमुटाव भी रहता है, नेताओंमें पारस्परिक कलह होती है, जिससे आन्तरिक अशान्ति होती रहती है। पश्चिम दिशाका गन्धर्वनगर पूर्वके वैभवका विनाश करता है। पूर्वमें हैजा, प्लेग जैसी संक्रामक बीमारियाँ फैलती हैं और मलेरिया का प्रकोप भी अधिक रहेगा । उक्त दिशाका गन्धर्वनगर पूर्व दिशाके निवासियोंको अनेक प्रकारका कष्ट देता है। उत्तर दिशाका गन्धर्वनगर उत्तर निवासियोंके लिए ही कष्टकारक होता है। यह धन, जन और वैभवका विनाश करता है। हेमन्तऋतुके गन्धर्वनगरसे रोगोंका विशेष आतंक रहता है । वसन्तऋतुओं में दिखाई देनेवाला गन्धर्वनगर सुकाल करता है, तथा जनता का पूर्ण रूप से आर्थिक विकास होता है। ग्रीष्म ऋतु में दिखलाई देने वाला गन्धर्वनगर नगरका विनाश करता है, नागरिकोंमें अनेक प्रकारसे अशान्ति फैलाता है। अनाजकी उपज भी कम होती है। वस्त्राभावके कारण भी जनतामें अशान्ति रहती है। आपसमें भी झगड़े बढ़ते हैं, जिससे परिस्थिति उत्तरोत्तर विषम होती जाती है। वर्षा ऋतुमें दिखलाई देनेवाला गन्धर्वनगर वर्षाका अभाव करता है। इस गन्धर्वनगरका फल दुष्काल भी है। व्यापारी और कृषक दोनोंके लिए ही इस प्रकारके गन्धर्वनगरका फलादेश अशुभ होता है। जिस वर्षमें उक्त प्रकारका गन्धर्वनगर दिखलाई पड़ता है, उस वर्ष में गेहूँ और चावलकी उपज भी बहुत कम होती है। शरदऋतु गन्धर्वनगर दिखाई पड़े तो मनुष्योंको अनेक प्रकारकी पीड़ा होती है। चोट लगना, शरीरमें घाव लगना, चेचक निकलना, एवं अनेक प्रकारके फोड़े होना आदि फल घटित होता है। अवशेष ऋतुओं में गन्धर्वनगर दिखलाई दे तो नागरिकों को कष्ट होता है। साथ ही छ: महीने तक उपद्रव होते रहते हैं । प्रकृतिका प्रकोप होनेसे अनेक प्रकारकी बीमारियाँ भी होती हैं। रात्रिमें गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो देशकी आर्थिक हानि, वैदेशिक सम्मानका अभाव, तथा देशवासियोंको अनेक प्रकार के कष्ट सहन करने Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ एकादशोऽध्यायः पड़ते हैं। यदि कुछ रात्रि शेष रहे तब गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो चोर, नृपति, प्रबन्धक एवं पूँजीपतियोंके लिए हानिकारक होता है। रात्रिके अन्तिम पहरमें ब्रह्ममुहूर्त कालमें गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो उस प्रदेशमें धनका अधिक विकास होता है। भूमिके नीचेसे धन प्राप्त होता है। यह गन्धर्वनगर सुभिक्ष कारक है। इसके द्वारा धन-धान्यकी वृद्धि होती है। प्रशासक वर्गका भी अभ्युदय होता है। कला-कौशलकी वृद्धिके लिए भी इस समयका गन्धर्वनगर श्रेष्ठ माना गया है। ___ पंचरंगा गन्धर्वनगर हो तो नागरिकोंमें भय और आतङ्कका सञ्चार करता है, रोगभय भी इसके द्वारा होते हैं। हवा बहुत तेज चलती है, जिससे फसलको भी क्षति पहुँचती है। श्वेत और रक्तवर्णकी वस्तुओंकी महँगाई विशेषरूपसे रहती है। जनतामें अशान्ति और आतङ्क फैलता है। श्वेतवर्णका गन्धर्वनगर हो तो घी, तेल और दूधका नाश होता है। पशुओंकी भी कमी होती है और अनेक प्रकार की व्याधियाँ भी व्याप्त हो जाती हैं। गाय, बैल और घोड़ों की कीमतमें अधिक वृद्धि होती है। तिलहन और तिलका भाव ऊँचा बढ़ता है। विदेशोंसे व्यापारिक सम्बन्ध दृढ़ होता है। काले रंगका गन्धर्वनगर वस्त्रनाश करता है, कपासकी उत्पत्ति कम होती है। तथा वस्त्र बनाने वाली मिलों में भी हड़ताल होती हैं। जिसमें वस्त्र का भाव तेज हो जाता है। कागज तथा कागजके द्वारा निर्मित वस्तुओंके मूल्यमें भी वृद्धि होती है। पुरानी वस्तुओंका भाव भी बढ़ जाता है तथा वस्तुओंकी कमी होनेके कारण बाजार तेज होता जाता है। लालरंजका गन्धर्वनगर अधिक अशुभ होता है, यह जितनी ज्यादा देर तक दिखलाई पड़ता रहता है, उतना ही हानिकारक होता है। इस प्रकारके गन्धर्वनगरका फल मारपीट, झगड़ा, उपद्रव अस्त्र-शस्त्रका प्रहार एवं अन्य प्रकारसे झगड़े-टण्टोंका होना आदि है। सभी प्रकारके रंगोंमें लालरंगका गन्धर्वनगर अशुभ कहा गया है। इसका फल रक्तपात निश्चित है। जिसरंगका गन्धर्वनगर जितने अधिक समय तक रहता है, उसका फल उतना ही अधिक शुभाशुभ समझना चाहिए। गन्धर्वनगर जिस स्थान या नगरमें दिखलाई देता है, उसका फलादेश उसी स्थान और नगरमें समझना चाहिए। जिस दिशामें दिखलाई दे उस दिशामें भी हानि या लाभ पहुंचता है। इसका फलादेश विश्वजनी नहीं होता, केवल थोड़ोसे प्रदेश में Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता । ही होता है। जब गन्धर्वनगर आकाशके तारोंकी तरह बीचमें छाया हुआ दिखलाई दे तो मध्य देश को अवश्य नाश करता है। यह जितनी दूर तक फैला हुआ दिखाई दे तो समझ लेना चाहिए कि उतनी दूर तक देश का नाश होगा। रोग, मरण, दुर्भिक्ष आदि अनिष्टकारक फलादेशोंकी प्राप्ति होती है। इस प्रकारका गन्धर्वनगर जनता, प्रशासक और उच्चवर्गके लोगोंके लिए भयदायक होता है। अवर्षण, सूखा आदिके कारण फसल भी मारी जाती है। यदि गन्धर्वनगर इन्द्रधनुषाकार या साँपके बिलके आकारमें दिखलाई पड़े तो देशनाश दुर्भिक्ष, मरण, व्याधि आदि अनेक प्रकारके अनिष्टकारक फल प्राप्त होते हैं। यदि चारदीवारीके समान गन्धर्वनगरकी भी चारदीवारी दिखलाई पड़े तो और ऊपरसे गुम्बज भी दिखलाई पड़ें तो निश्चयत: प्रशासक या मन्त्री का विनाश होता है। नगरके मुखियाके लिए भी इस प्रकारका गन्धर्वनगर अत्यन्त दु:खदायक बताया गया है। जिस गन्धर्वनगरका ऊपरी हिस्सा टूटा हुआ दिखलाई दे तो दस दिन के भीतर ही किसी प्रधान व्यक्तिकी मृत्यु करता है। ऊपर स्वर्णकी गुम्बजें दिखलाई पड़ें और उनपर स्वर्ण-कलश भी दिखलाई देते हों तो निश्चयतः उस प्रदेशकी आर्थिक हानि, किसी प्रधान व्यक्तिको मृत्यु, वस्तुओंकी महँगाई और रोगादि उपद्रव होते हैं। जब गन्धर्वनगरके घरोंकी स्थिति ऊँचे मन्दिरोंके समान दिखलाई दे और उनके कलशों पर मालाएँ लटकती हुई दिखलाई पड़ें तो सुभिक्ष, समयानुसार वर्षा, कृषिका विकास, अच्छी फसल और धन-धान्यकी समृद्धि होती है। टूटते-ढहते गन्धर्वनगर दिखलाई दें तो उनका फल अच्छा नहीं होता। रोग और मानसिक आपत्तियोंके साथ पारस्परिक कलहकी भी सूचना समझनी चाहिए। जिस गन्धर्व नगरके द्वारपर सिंहाकृति दिखलाई दे, वह जनतामें बल, पौरुष और शक्तिका विकास करता है। वृषभाकृतिवाला गन्र्धवनगर जनताको धर्म-मार्गकी ओर ले जानेवाला है। उस प्रदेशकी जनतामें संयम और धर्मकी भावनाएँ विशेषरूप से उत्पन्न होती हैं। जो व्यक्ति उक्त प्रकारके गन्धर्वनगरोंको स्वर्णाकृतिमें देखता है, उसे उस क्षेत्रमें शान्ति समझ लेनी चाहिए। ____ मास और वार के अनुसार गन्धर्वनगर का फलादेश-यदि रविवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जनताको कष्ट, दुर्भिक्ष, अन्नका भाव तेज, तृणकी कमी, वृश्चिक-सर्प आदि विषैले जन्तुओंकी वृद्धि, व्यापारमें लाभ, कृषिका विनाश Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽध्यायः और अन्य प्रकारके उपद्रव भी होते हैं। तेज वायु चलती है, आश्विन मासमें कुछ बर्षा होती है, जिससे साधारण रूपसे चैती फसल हो जाती है। रविवारको सन्ध्यामें गन्धर्वनगर देखने से भूकम्पका भय, मध्याह्न में गन्धर्वनगर देखनेसे जनतामें अराजकता एवं प्रातःकाल सूर्योदयके साथ गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो नगरमें साधारणत: शान्ति रहती है। सन्ध्याकालका गन्धर्वनगर बहुत अधिक बुरा समझा जाता है । रातमें दिखलाई देनेसे कम फल देता है । मेघविजय गणिने रविवारके गन्धर्वनगरको अधिक अशुभकारक बतलाया है। इस दिनका गन्धर्वनगर वर्षाका अभवा करता है तथा व्यापारिक दृष्टिसे भी हानिकारक होता है। सोमवारको गन्धर्वनगर दीप्तियुक्त दिखलाई पड़े तो कलाकारोंके शुभफल, प्रशासकवर्ग और कृषकोंके लिए भी शुभ फलदायक होता है। इस प्रकारके गन्धर्वनगरके देखनेसे श्रावण और आषाढ़ मासमें अच्छी वर्षा होती है । भाद्रपद और आश्विनमें वर्षाकी कमी रहती है। यदि इस प्रकारका गन्धर्वनगर श्रेष्ठमासमें रविवारको दिखलाई पड़े तो निश्चयतः दुर्भिक्ष होता है। आषाढ़में रविवारको दिखलाई पड़े तो अश्विनमें वर्षा, अवशेष महीनोंमें वर्षाका अभाव तथा साधारण फसल, श्रावणमें दिखलाई पड़े तो भूकम्पका भय, मार्गशीर्ष में अल्प वर्षा, वन-बगीचोंकी वृद्धि, खनिज पदार्थोंकी उपजमें कमी, भाद्रपद मासमें रविवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो आश्विन और कार्तिकमें अनेक प्रकारके रोग, जनतामें अशान्ति का उपद्रव होते हैं। आश्विन मासमें रविवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो साधारण कष्ट, माघ में ओलोंकी वर्षा, भयङ्कर शीतका प्रकोप और चैती फसलकी हानि होती है । कार्तिक और अगहन मासमें रविवारके दिन गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो अनेक प्रकारके रोगों के साथ घृत, दूध, तेल आदि पदार्थोंका अभाव होता है, पशुओंके लिए चारेकी भी कमी रहती है। पौष और माघ मासमें गन्धर्वनगर रविवारको दिखलाई पड़े तो छः महीनों तक जनताको आर्थिक कष्ट रहता है। निमोनिया और प्लेग दो महीने तक विशेष रूपसे उत्पन्न होते हैं। होलीके दिन गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो आगामी वर्ष घोर दुर्भिक्ष पड़ता है । अन्नकी अत्यन्त कमी रहती है, चोर और लुटोरोंका भय आतंक बढ़ता चला जाता है। फाल्गुन और चैत्रमें रविवार के दिन गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जिस दिन गन्र्धवनगरका दर्शन हो उससे ग्यारह दिनके भीतर भूकम्प या अन्य किसी भी प्रकारका महान् उत्पात होता है। वज्रपात होना या आकस्मिक घटनाओंका घटित होना आदि फलादेश समझना चाहिए। वैशाख २३५ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु 'संहिता महीनमें रविवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो साधारणतः शुभ फल होता है। केवल उस प्रदेशके प्रशासकाधिकारीके लिए अनिष्टप्रद समझना चाहिए । इसी प्रकार ज्येष्ठमासमें सोमवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जनतामें साधारण शान्ति, आषाढ़ मासमें सोमवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़ें तो श्रावणमें वर्षाकी कमी, धान्योत्पत्तिकी साधारण कमी, वस्त्रके व्यापारमें लाभ, घी, नमक और चीनीके व्यापारमें अत्यधिक लाभ, सोना-चाँदीके व्यापार में साधारण हानि और अन्नके व्यापारमें लाभ होता है। श्रावण मास में सोमवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो चातुर्मासमें अच्छी वर्षा श्रेष्ठ फसल और जनतामें सुख-शान्ति रहती है। व्यापारियोंके लिए भी इस महीनेका गन्धर्वनगर उत्तम माना गया है। भाद्रपद और आश्विनमासमें सोमवार के दिनका गन्धर्वनगर अनिष्टकारक, लोहा, सोना, चाँदी आदि धातुओंके व्यापार में अत्यधिक लाभ, फसल साधारण एवं जनतामें शान्ति रहती है। कार्तिकमासके सोमवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो शरदऋतुमें अत्यधिक हवा चलती है, जिससे शीतका प्रकोप बढ़ जाता है। अगहन मासमें गन्धर्वनगर सोमवारको दिखलाई पड़े तो सुभिक्ष, शान्ति और आर्थिक विकास होता है। मांगलिक कार्योंकी वृद्धिके लिए यह गन्धर्वनगर उत्तम माना गया है। पौष, माघ और फाल्गुन मासमें सोमवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो आगामी वर्ष सुभिक्ष, अनेक प्रकारके रोगोंकी वृद्धि, देशकी समृद्धि और व्यापार में साधारण लाभ होता है। चैत्रमासमें सोमवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जनताको कष्ट, आर्थिक क्षति, अनेक प्रकारकी व्याधियाँ और प्रशासकवर्गका विनाश होता है। अन्य प्रदेशोंसे संघर्षका भी भय रहता है। वैशाखमासमें सोमवारको गन्धर्वनगर दिखलाई दे तो जनतामें धार्मिक रूचि उत्पन्न होती है, उस वर्ष अनेक धार्मिक महोत्सव होते हैं। राजा, प्रजा सभी में धर्माचरणका विकास होता है। २३६ ज्येष्ठमासमें मंगलावारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़ें तो उस वर्ष आषाढ़ में साधारण वर्षा होती है, श्रावण और भाद्रपदमें वर्षाकी कमी रहती है तथा आश्विनमासमें पुनः वर्षा हो जाती है, जिससे फसल अच्छी हो जाती है। व्यापारिक दृष्टिसे वर्ष अच्छा नहीं रहता। लोहा, सोना और वस्त्रके व्यापारमें हानि उठानी पड़ती है। पुराने पदार्थोक व्यापारमें लाभ होता है। कागजके मुल्यमें भी वृद्धि होती है। इसी महीने में बुधवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो अशान्ति, कष्ट, भूकम्प, वज्रपात, रोग, धनहानि आदि फल प्राप्त होता है। गुरुवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ एकागोयामः जनताको लाभ, पारस्परिक प्रेम, शान्ति और सुभिक्ष होता है। शुक्रवारको इस महीनमें गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो साधारण व्यक्तियोंको विशेष लाभ, धनी-मानियोंको कष्ट प्रशासकवर्गकी हानि, तत्प्रदेशीय किसी नेताकी मृत्यु, कलाकारोंको कष्ट और वर्षा साधारणत: अच्छी होती है। फसल भी अच्छी होती है। इसी महीनमें शनिवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो वर्षाका अभाव, दुर्भिक्ष, जनताको कष्ट, तेज वायु या तूफानोंका प्रकोप, अग्निभय, शस्त्रभय, विषैले, जन्तुओंका विकास तथा उनके प्रभावसे जनतामें अधिक आतंक होता है। आषाढ़ महीनमें मंगलवारके दिन गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो अच्छी वर्षा, सुभिक्ष, अन्नका भाव सस्ता, सोना, चाँदीके मूल्यमें भी गिरावट, कलाकार और शिल्पियोंको सुख-शान्ति, देशका आर्थिक विकास, व्यापारी समाजको सुख और प्रशासकोंको भी शान्ति मिलती है। केवल लोहेकी बनी वस्तुओंमें हानि होती है। इसी महीनेमें बुधवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जनताको साधारण कष्ट, अच्छी वर्षा, सुभिक्ष और व्यापारमें साधारण लाभ होता है। वज्रपातका योग अधिक होता है। इस दिन गुरुवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो भी जनताको विशेष लाभ, अच्छी वर्षा, सुभिक्ष, श्रेष्ठ फसल, व्यापारमें लाभ और सभी प्रकारका अमन-चैन रहता है। शुक्रवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो साधारण वर्षा, पर फसल अच्छी, वस्त्रके व्यापारमें अधिक लाभ, मशीनोंके कल-पुोंमें अधिक लाभ, गुड़, चीनीका भाव सस्ता एवं प्रतिदिन उपभोगमें आनेवाली वस्तुएँ महँगी होती हैं। शनिवारको गन्धर्वनगर उक्त महीनेमें दिखलाई पड़े तो साधारण वर्षा, फसलकी कमी और व्यापारियोंको कष्ट होता है। श्रावणमासमें मंगलवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो वर्षाकी कमी, किन्तु भाद्रपदमें अच्छी वर्षा, फसल साधारण, धन-धान्यकी वृद्धि, व्यापारियोंको लाभ, जनताको कष्ट, वस्त्रका अभाव, आपसी कलह और उक्त प्रदेशमें उपद्रव होते हैं। बुधवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो अल्पवर्षा, साधारण फसल, घी की महंगी, तेलकी भी महँगी, वस्त्रका बाजार सस्ता, सोना-चाँदीका बाजार भी सस्ता, शरद् ऋतुमें अधिक शीत, अन्नका भाव भी महँगा रहता है। साधारण जनताको तो कष्ट होता ही है, पर धनी-मानियोंको भी अनेक प्रकारके कष्ट सहन करने पड़ते हैं। गुरुवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो अच्छी वर्षा, सुभिक्ष, जनतामें शान्ति और Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भद्रबाहु संहिता | २३८ व्यापारियोंको साधारण लाभ होता है। शुक्रवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो वर्षाभाव, दुर्भिक्ष और जनताको आर्थिक कष्ट होता है। शनिवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़ें तो घोर दुर्भिक्ष और नाना प्रकार के उपद्रव होते है। भाद्रपद मासमें मङ्गलवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो अल्पवर्षा, फसलकी कमी, जनताको कष्ट एवं आर्थिक क्षति होती है। बुधवारको दिखलाई पड़े तो अच्छी वर्षा, सुभिक्ष, व्यापारी समाजको लाभ, मसालेके व्यापारमें हानि एवं पशुओंमें अनेक प्रकारके रोग फैलते हैं। गुरुवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो अतिवृष्टि, फसलकी कमी, बाढ़, राजाकी मृत्यु, नागरिकों को प्रशान्ति. घत, तेलके व्यापारमें लाभ और गुड़, चीनीका भाव घटता है। शुक्रवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जनताको कष्ट, अनेक प्रकारके उपद्रव, व्यापारमें हानि और अभिजात्य वर्गके व्यक्तियोंको कष्ट होता है। शनिवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो वर्षामें रुकावट, फसलकी कमी और धान्यका भाव महँगा होता है। आश्विन मासमें मंगलवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो सामान्य वर्षा, माघमें विशेष वर्षा और शीतका प्रकोप, फसल साधारण, खनिज पदार्थों का विकास और देशकी समृद्धि होती है। बुधवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो अच्छी वर्षा, सामान्य शीत, माघमें वज्रपात, अन्नका भाव महँगा और व्यापारीवर्ग या धोबी, कुम्हार, नाई आदिके लिए फाल्गुन, चैत्र और वैशाखमें कष्ट होता है। गुरुवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जिस दिन इसका दर्शन होता है, उस दिनके आठ दिन पश्चात् ही घोर वर्षा होती है। इस वर्षासे नदियोंमें बाढ़ आनेकी सम्भावना रहती है। व्यापारीवर्गके लिए यह दर्शन उत्तम माना गया है। शुक्रवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जनताको आनन्द, सुभिक्ष, परस्परमें सहयोग की भावनाका विकास, धन-जनकी वृद्धि एवं नागरिकोंको सुख-शान्ति मिलती है। शनिवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो साधारण जनताको भी कष्ट होता है। वर्षा अच्छी होती है, पर असामयिक वर्षा होने के कारण जनताके साथ पशुवर्गको भी कष्ट उठाना पड़ता कार्तिक मासमें मंगलवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो अग्निका प्रकोप होता है, अनेक स्थानों पर आग लगनेकी घटनाएँ सुनाई पड़ती हैं। व्यापारमें घाटा होता है। देशमें कुछ अशान्ति रहती है। पशुओंके लिए चारेका अभाव रहता है। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ एकादशोऽध्यायः बुधवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो शीतका प्रकोप होता है। शहरोंमें भी ओले बरसते हैं। पशुओं और मनुष्योंको अपार कष्ट होता है। गुरुवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जनताको अपार कष्ट होता है। यद्यपि आर्थिक विकासके लिए इस प्रकारके गन्धर्वनगर दिखलाई पड़ना उत्तम होता है। शुक्रको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो शान्ति रहती है। जनतामें सहयोग बढ़ता है। औद्योगिक विकासके लिए उत्तम होता है। शनिवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक पशुओं द्वारा जनताको कष्ट होता है। व्यापारके लिए इस प्रकारके गन्धर्वनगरका दिखलाई पड़ना शुभ नहीं है। मार्गशीर्ष मासमें मंगलवारके दिन गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जनताको कष्ट, आगामी वर्ष उत्तम वर्षा, फसल अच्छी और बड़े पूँजीपतियोंको कष्ट होता है। बुधवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो भी जनताको कष्ट होता है। गुरुवारको गन्धर्वनगरका दिखलाई पड़ना अच्छा होता है, देशका सर्वाङ्गीण विकास होता है। शुक्रवारको गन्धर्वनगरका देखा जाना लाभ, सुख, आरोग्य और शनिवारको देखनेसे हानि होती है। शनिवारकी शामको यदि पश्चिम दिशामें गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो गदर होता है। कोई किसीको पूछता नहीं, मारकाट और लूटपाटकी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। पौषमासमें मंगलवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो प्रजाको कष्ट, रोग और अग्निभय; बुधवारको दिखलाई पड़े तो शान्ति, धन और यशकी प्राप्ति; गुरुवारको दिखलाई पड़े तो पूर्ण सुभिक्ष, धान्यका भाव सस्ता, सोना-चाँदीका भाव महँगा; शुक्रवारको दिखलाई पड़े तो आगामी वर्ष घनघोर वर्षा, आर्थिक कष्ट, आवासकी समस्या और अन्नकष्ट; एवं शनिवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो राजा और प्रजा दोनोंको अपार कष्ट होता है। माघमासमें मंगलवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो चैती फसल बहुत उत्तम, लोहाके व्यापारमें पूर्ण लाभ, रबर या गोंदके व्यापारमें हानि, राजनैतिक उपद्रव और अशान्ति; बुधवारको दिखलाई पड़े तो उत्तम वर्षा, सुभिक्ष, आर्थिक विकास और शान्ति; गुरुवारको दिखलाई पड़े तो सुख, सुभिक्ष और प्रसन्नता; शुक्रवारको दिखलाई पड़े तो शान्ति, लाभ और आनन्द एवं शनिवारको दिखलाई पड़े तो अपार कष्ट होता है। प्रातःकाल शनिवारको इस महीनेमें गन्धर्वनगरका देखना शुभ होता है। उस प्रदेशमें सुभिक्ष, सुख और शान्ति रहती है। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता फाल्गुनमासमें मंगलवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो आषाढ़से आश्विन तक अच्छी वर्षा होती है, गेहूँ, धान, ज्वार, जौ, गन्नाके भावमें महँगी रहती है। यद्यपि कार्तिकके पश्चात् ये पदार्थ भी सस्ते हो जाते हैं। व्यापारियों, कलाकारों और राजनीतिज्ञोंके लिए वर्ष उत्तम रहता है। बुधवारको गन्धर्वनगर दिखलाई देनेसे फसलमें कमी, राजा या अधिकारी शासकका विनाश, पंचायतमें मतभेद एवं सोना-चाँदीके व्यापारमें लाभ; गुरुवारको दिखलाई दे तो पीले रंगकी वस्तुओंका भाव सस्ता, लाल रंगकी वस्तुओंका भाव महँगा और तिल, तिलहन आदिका भाव समर्ष, शुक्रको दिखलाई पड़े तो पत्थर, चूनेके व्यापारमें विशेष लाभ, जूटमें घाटा और वर्षा समयानुसार एवं शनिवारको दिखलाई पड़े तो वर्षा अच्छी और फसल सामान्यतया अच्छी ही होती है। चैत्र मासमें मंगलवारको सन्ध्यासमय गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो नगरमें अग्निका प्रकोप, पशुओंमें रोग, नागरिकोंमें कलह और अर्थहानि; बुधवारको मध्याह्नमें दिखलाई पड़े तो अर्थविनाश, नागरिकोंमें असन्तोष, रसादि पदार्थोका अभाव और पशुओंके लिए चारेकी कमी; गुरुवारको रात्रिमें गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जनताको अत्यन्त कष्ट, व्यसनोंका प्रचार, अधार्मिक जीवन एवं अर्थक्षति, शुक्रवारको दिखलाई पड़े तो चातुर्मासमें अच्छी वर्षा, उत्तम फसल, अनाजका भाव सस्ता, घी, दूधकी अधिक उत्पत्ति, फलोंकी अधिक उत्पत्ति, व्यापारियोंको लाभ एवं शनिवारको मध्यरात्रि या मध्य दिनमें गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जनतामें घोर संघर्ष, मारकाट एवं अशान्ति होती है। अराजकता सर्वत्र फैल जाती है। वैशाख मासमें मंगलवारको प्रात:काल या अपराह्न कालमें गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो चातुर्मासमें अच्छी वर्षा और सुभिक्ष, बुधवारको दिखलाई पड़े तो व्यापारियोंमें मतभेद, आपसमें झगड़ा और आर्थिक क्षति; गुरुवारको दिखलाई पड़े, तो अनेक प्रकारके लाभ और सुख, शुक्रवारको दिखलाई पड़े, तो समय पर वर्षा, धान्यकी अधिक उत्पत्ति और वस्त्र-व्यापारमें लाभ एवं शनिवारको गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो सामान्यतया अच्छी फसल होती है। गन्धर्वनगर सम्बन्धी फलादेश अवगत करते समय उनकी आकृति, रंग और सौम्यता या कुरूपता का भी ख्याल करना पड़ेगा। जो गन्धर्वनगर स्वच्छ होगा उसका फल उतना ही अच्छा और पूर्ण तथा कुरूप और अस्पष्ट गन्धर्वनगरका फलादेश अत्यल्प होता है। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ एकादशोऽध्यायः तत्काल वर्षा होनेके निमित्त वर्षा ऋतुमें जिस दिन सूर्य अत्यन्त जोशीला, दुस्सह और घृतके रंगके समान प्रभावशाली हो उस दिन अवश्य वर्षा होती है। वर्षाकालमें जिस दिन उदयके समयका सूर्य अत्यन्त प्रकाशके कारण देखा न जाय, पिघले हुए स्वर्णके समान हो, स्निग्ध वैडूर्य मणिकी-सी प्रभावाला हो और अत्यन्त तीव्र होकर तप रहा हो अथवा आकाशमें बहुत ऊँचा चढ़ गया हो तो उस दिन खूब अच्छी वर्षा होती है। उदय या अस्तके समय सूर्य अथवा चन्द्रमा फीका होकर शहदके समान दिखलाई पड़े तथा प्रचण्ड वायु चले तो अतिवृष्टि होती है। सूर्यकी अमोध किरणे सन्ध्याके समय निकली रहें और बादल पृथ्वीपर झुके रहें तो ये महावृष्टिके लक्षण समझने चाहिए। सूर्यपिण्डसे एक प्रकारकी जो सीधी रेखा कभी-कभी दिखलाई देती है, वह अमोघ किरण कहलाती है। चन्द्रमा यदि कबूतर और तोतेकी आँखोंके सदृश हो अथवा शहदके रंगका हो और आकाशमें चन्द्रमाका दूसरा बिम्ब दिखलाई दे तो शीघ्र ही वर्षा होती है। चन्द्रमाके परिवेष चक्रवाककी आँखोंके समान हों तो वे वृष्टिके सूचक होते हैं और यदि आकाश तीतरके पंखोंके समान बादलोंके समान हों तो वे वृष्टिके सूचक होते है। चन्द्रमाके परिवेष हो, तारागणोंमें तीव्र प्रकाश हो, तो वे वृष्टिके सूचक होते हैं, दिशाएँ निर्मल हो और आकाशश काक के अण्डे की कान्ति वाला हो वायु गमन रुक कर होता हो एवं आकाश गोने विक्रि सी कान्ति वाला हो यह भी वृष्टि के आगमनका लक्षण है। रातमें तारे चमकते हों, प्रात:काल लालवर्णका सूर्य उदय हो और बिना वर्षाके इन्द्रधनुष दिखलाई पड़े तो तत्काल वृद्धि समझनी चाहिए। प्रात:काल इन्द्रधनुष पश्चिम दिशामें दिखलाई देता हो तो शीघ्र वर्षा होती है। नीलरंजवाले बादलोंमें सूर्यके चारों ओर कुण्डलता हो और दिनमें ईशानकोण के अन्दर बिजली चमकती हो तो अधिक वर्षा होती है। श्रावण महीने में प्रात:काल गर्जना हो और जल पर मछलीका भ्रम हो तो अठारह प्रहरके भीतर पृथ्वी जल से पूरित हो जाती है। श्रावणमें एक बार ही दक्षिणकी प्रचण्ड हवा चले तो हस्त, चित्रा, स्वाति, मूल, पूर्वाषाढ़ा, श्रवण, पूर्वाभाद्रपद, रेवती, भरणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद और रोहिणी इन नक्षत्रोंके आने पर वर्षा होती है। रातमें गर्जना हो और दिनमें दण्डाकार बिजली चमकती हो और प्राची दिशामें शीतल हवा चलती हो तो शीघ्र ही वर्षा होती है। पूर्व दिशामें धूम्रवर्ण बादल यदि सूर्यास्त होने पर काला हो जाय और उत्तरमें Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २४२ मेघमाला हो तो शीघ्र ही वर्षा होती है। प्रात:काल सभी दिशाएँ निर्मल हों और मध्याह्रके समय गर्मी पड़ती हो तो अर्द्ध रात्रिके समय प्रजाके सन्तोषके लायक अच्छी वर्षा होती है। अत्यन्त वायुका चलना, सर्वथा वायुका न चलना, अत्यन्त गर्मी पड़ना, अत्यन्त शीत पड़ना, अत्यन्त बादलोंका होना और सर्वथा ही बादलोंका न होना छः प्रकारके मेघके लक्षण बदलाए गए हैं। वायुका न चलना, बहुत वायु चलना, अत्यन्त गर्मी पड़ना वर्षा होनेके लक्षण हैं। वर्षाकालके आरम्भमें दक्षिण दिशाके अन्दर याद वायु, बादल या बिजली चमकती हुई दिखलाई पड़े तो अवश्य वर्षा होती है। शुक्रवार के निकले हुए बादल यदि शनिवार तक ठहरे रहें तो वे बिना वर्षा किए कभी नष्ट नहीं होते। उत्तरमें बादलोंका घटाटोप हो रहा हो और पूर्वसे वायु चलता हो तो अवश्य वर्षा होती है। सांयकालके समय अनेक तहवाले बादल यदि मोर, घनुष, लाल, पुष्प और तोतेके तुल्य हों अथवा जल-जन्तु, लहरों एवं पहाड़ोंके तुल्य हों तो शीघ्र ही वर्षा होती है। तीतरके पंखोंकी-सी आभा वाले विचित्र वर्णके मेघ यदि उदय और अस्तके समय अथवा रात-दिन दिखलाई दे तो शीघ्र ही बहुत वर्षा होती है। मोटे तहवाले बादलोंसे जब आकाश ढका हुआ हो और हवा चारों ओरसे रुकी हुई हो तो शीघ्र ही अधिक वर्षा होती है। घड़ेमें रखा हुआ जल गर्म हो जाय, सब लताओंका मुख ऊँचा हो जाय, कुंकुमका-सा तेज चारों ओर निकलता हो, पक्षी स्नान करते हों, गीदड़ सायंकालमें चिल्लाते हों, सात दिन तक आकाश मेघाच्छान्न रहे, रात्रिमें जुगुनू जलके स्थानके समीप जाते हों तो तत्काल वृष्टि होती है। गोबरमें कीटोंका होना, अत्यन्त कठिन परितापका होना, तक्र—छाछका खट्टा हो जाना, जलका स्वाद रहित हो जाना, मछलियोंका भूमिकी ओर कूदना, बिल्लीका पृथ्वीको खोदना, लोहकी अंगसे दुर्गन्ध निकलना, पर्वतका काजलके समान वर्णका हो जाना, कन्दराओंसे भापका निकलना, गिरगिट, कृकलास आदिका वृक्षके चोटी पर चढ़कर आकाशको स्थिर होकर देखना, गायोंका सूर्यको देखना, पशु-पक्षी और कुत्तोंका पंजों और खुरों द्वारा कानका खुजलाना, मकानकी छत पर स्थित होकर कुत्तेका आकाशको स्थिर होकर देखना, बुगलोंका पंख फैलाकर स्थिरतासे बैठना, वृक्षपर चढ़े हुए सोका चीत्कार शब्द होना, मेढकोंकी जोरकी आवाज आना, चिड़ियोंका मिट्टीमें स्नान करना, टिटिहरीका जलमें स्नान करना, चातकका जोरसे शब्द करना, छोटे-छोटे सोका वृक्ष पर चढ़ना, बकरीका Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ एकादशोऽध्यायः अधिक समय तक पवनकी गतिकी ओर मुँह करके खड़ा रहना, छोटे पेड़ोंकी कलियोंका जल जाना, बड़े पेड़ोंमें कलियोंका निकल आना, बड़की शाखाओंमें खोखलोंका हो जाना. दाढ़ी-मूछोंका चिकना और नरम हो जाना, अत्यधिक गर्मीसे प्राणियोंका व्याकुल होना, मोरके पंखोंमें भन-भन शब्दका होना, गिरगिटका लाल आभा युक्त हो जाना, चातक-मोर-सियार आदि का रोना, आधी रातमें मुर्गोंका रोना, मक्खियोंका अधिक घूमना, भ्रमरों अधिक घूमना और उनका गोबरकी गोलियों को ले जाना, काँसेके बर्तनमें जंग लग जाना, वृक्षतुल्य लता आदिका स्निग्ध, छिद्र रहित दिखलाई पड़ना, पित्त प्रकृतिके व्यक्तिका गाढ निद्रामें शयन करना, कागज पर लिखनेसे स्याहीका न सूखना, एवं वातप्रधान व्याक्तिके सिरका घूमना तत्काल वर्षका सूचक है। वर्षाज्ञानके लिए अत्युपयोगी सप्तनाड़ी चक्र—शनि, बृहस्पति, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध और चन्द्रमा इनकी कम्रसे चण्डा, समीरा, दहना, सौम्या, नीरा, जला और अमृता ये सात नाड़ियाँ होती हैं। कृत्तिकासे आरम्भ कर अभिजितू सहित २८ नक्षत्रोंको उपर्युक्त सात नाड़ियोंमें चार बार घुमाकर विभक्त कर देना चाहिए। इस चक्रमें नक्षत्रोंका क्रम इस प्रकार होगा कि कृत्तिकासे अनुराधा तक सरलक्रमसे और मघासे घनिष्ठा तक विपरीत क्रमसे नक्षत्रोंको लिखे। सात नाड़ियों के मध्यमें सौम्य नाड़ी रहेगी और इसके आगे-पीछे तीन-तीन नाड़ियाँ । दक्षिण दिशामें गई हुई नाड़ियाँ क्रूर कहलायेंगी और उत्तर दिशामें गई हुई नाड़ियाँ सौम्य कहलायेंगी। मध्यमें रहनेवाली नाड़ी मध्यनाड़ी कही जायगी। ये नाड़ियौं ग्रहयोगके अनुसार फल देती हैं। दिशा । दक्षिणमें निर्जल नाड़ी मध्य | उत्तरमें सजल नाड़ी नाड़ीके नाम चण्डा | समीरा | दहना | सौम्या नीरा जला अमृता स्वामी शनि | गुरु या सूर्य | मंगल | सूर्य या गुरु | शुक्र चन्द्रमा कृत्तिका रोहिणी मृगशिर आर्द्रा पुनर्वसु पुष्य आश्लेषा विशाखा स्वाती | चित्रा | हस्त उ.फाल्गुनी पूर्वाफाल्गुनी मधा अनुराधा ज्येष्ठा मूल . पूर्वाषाढा | उत्तराषाढ़ा |अभिजित् श्रवण | अश्विनी रेवती उत्तराभाद्रपद पूर्वाभाद्रपद शतभिषा धनिष्ठा भरणी Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ર૪૪ सप्तनाड़ी चक्रद्वारा वर्षाज्ञान करनेकी विधि - जिस ग्राममें वर्षाका ज्ञान करना हो, उस ग्रामके नामानुसार नक्षत्रका परिज्ञान कर लेना चाहिए। अब इष्टग्रमाके नक्षत्रको उपर्युक्त चक्रमें देखना चाहिए कि वह किस नाड़ीका है। यदि ग्राम नक्षत्रकी सौम्यनाड़ी— आर्द्रा, हस्त, पूर्वाषाढ़ा और पूर्वाभाद्रपद हो और उसपर चन्द्रमा शुक्रके साथ हो अथवा ग्राम नक्षत्र, चन्द्रमा और शुक्र ये तीनों सौम्य नाड़ीके हों तथा उसपर पापग्रहकी दृष्टि या संयोग नहीं हो तो अच्छी वर्षा नहीं होती है। पापयोग दृष्टि बाधक होती है। इस विचारके अनुसार चण्डा वायु और अग्नि नाड़ियाँ अशुभ हैं, शेष सौम्या, नीरा, जला और अमृता शुभ हैं। चक्रका विशेष फल — चण्डानाड़ीमें दो-तीनसे अधिक स्थित हुए ग्रहप्रचण्ड हवा चलाते हैं। समीर नाड़ीमें स्थित होने पर वायु और दहननाड़ी पर स्थित होनेसे ऊष्मा पैदा करते हैं। सौम्यानाड़ी में स्थित होनेसे समता करते हैं, नीरा नाड़ीमें स्थित होने पर मेघोंका सञ्चय करते हैं, जला नाड़ीमें प्रविष्ट होनेसे वर्षा करते हैं तथा वे ही दो - तीनसे अधिक एकत्रित ग्रह अमृता नाड़ीमें स्थित होनेपर अतिवृष्टि करते हैं। अपनी नाड़ीमें स्थित हुआ एक भी ग्रह उस नाड़ीका फल दे देता है । किन्तु मंगल सभी नाड़ियों में स्थित नाड़ीके अनुसार ही फल देता है । पुंग्रहों- गुरु, मंगल और सूर्यके योगसे धुँआ, स्त्री-चन्द्रमा और शुक्र और पुंग्रहोंके योगसे वर्षा तथा केवल स्त्री ग्रहोंके योगसे छाया होती है, जिस नाड़ीमें क्रूर और सौम्यग्रह मिले हुए स्थित हों उसमें जिस दिन चन्द्रमाका गमन हो, उस दिन अच्छी वर्षा होती है । यदि एक नक्षत्र में ग्रहोंका योग हो तो उस कालमें महावृष्टि होती है । जब चन्द्रमा पापग्रहोंसे या केवल सौम्यग्रहोंसे विद्ध हो तब साधारण वर्षा होती है तथा फसल भी साधारण ही होती है। चन्द्रमा जिस ग्रहकी नाड़ीमें स्थित हो, उस ग्रहसे यदि यह मुक्त हो जावे तथा क्षीण न दिखलाई देता हो तो वह अवश्य वर्षा करता है। तात्पर्य यह है कि शुक्लपक्षकी षष्ठीसे कृष्णपक्षकी दशमी तक्का चन्द्रमा जिस नाड़ीमें हो और नाड़ीका स्वामी चन्द्रमाके साथ बैठा हो या उसे देखता हो तो वह अवश्य वर्षा करता है। चन्द्रमा सौम्य एवं क्रूर ग्रहोंके साथ यदि अमृत नाड़ीमें हो तो वह अवश्य वर्षा Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽध्याय: करता है। चन्द्रमा सौम्य एवं क्रूर ग्रहोंके साथ यदि अमृतनाड़ीमें हो तो एक, तीन या सात दिनमें दो, पाँच या सातवार वर्षा होती है। इसी प्रकार चन्द्रमा क्रूर और सौम्य गहोंसे युक्त हो और जल नाड़ीमें स्थित हो तो इस योगसे आधा दिन, एक पहर या तीन दिन तक वर्षा होती है। यदि सभी ग्रह अमृत नाड़ीमें स्थित हों तो १८ दिन, जलनाड़ीमें हो तो १२ दिन और नीरा नाड़ीमें हो तो ६ दिन तक वर्षा होती है। मध्य नाड़ीमें गए हुए सब ग्रह तीन दिन तक वर्षा करते हैं। शेष नाड़ियोंमें गए हुए सब ग्रह महावायु और दुष्ट वृष्टि करते हैं। अधिक शूरग्रहोंके भोग निर्जला नाड़ियाँ भी जलदायिनी तथा क्रूर ग्रहोंके भोग से सजल नाड़ियौँ भी निर्जला बन जाती हैं। दक्षिणकी तीनों नाड़ियोंमें गए हुए ग्रह अनावृष्टि की सूचना देते हैं और ये ही क्रूरग्रह शुभ-ग्रहोंसे युक्त हों और उत्तरकी तीन नाड़ियोंमें स्थित हों तो कुछ वर्षा कर देते हैं। जलनाड़ीमें स्थित चन्द्र और शुक्र यदि क्रूर ग्रहोंसे युक्त हो जावें तो वे इस क्रूर योगसे अल्पवृष्टि करते हैं। जलनाड़ी में स्थित हुए बुध, शुक्र और बृहस्पति ये चन्द्रमासे युक्त होने पर उत्तम वर्षा करते हैं। जलनाड़ीमें चन्द्रमा और मंगल आरूढ़ हों तो वे चन्द्रभासे समागम होनेपर अच्छी वर्षा करते हैं। जलनाड़ीमें चन्द्रमा और मंगल,शनिद्वारा दृष्ट हों तो वर्षाकी कमी होती है।गमनकाल, संयोगकाल, वक्रगतिकाल, मार्गगतिकाल, अस्त या उदयकालमें इन सभी दशाओंमें जलनाड़ीमें प्राप्त हुए सभी ग्रह महावृष्टि करनेवाले होते हैं। __ अक्षर क्रमानुसार ग्राम नक्षत्र निकालने का नियम-चू चे चो ला = अश्विनी, ली लू ले लो = भरणी, अ ई उ ए = कृत्तिका, ओ बा बी बू = रोहिणी, वे वो का की = मृगशिर, कू घ ङ छ = आर्द्रा, के को हा ही = पुनर्वसु, हू हे हो डा = पुण्य, डी डू डे डो = आश्लेषा, मा मी मू मे = मघा, मो टा टी टू = पूर्वाफाल्गुनी, टे टो पा पी = उत्तराफाल्गुनी, पू ष ण ठ = हस्त, पे पो रा री = चित्रा, रू रे रो ता - स्वाति, ती तू ते तो = विशाखा, ना नी नू ने - अनुराधा, नो या यी यू = ज्येष्ठा, ये यो भा मी = मूल, भू धा फा ढा = पूर्वाषाढ़ा, भे भो जा जी = उत्तराषाढ़ा, खी खू खे खो - श्रावण, गा गी गू गे - धनिष्ठा, गो सा सी सू = शतभिषा, से सो दा दी = पूर्वाभाद्रपद, दू थ झ ञ = उत्तराभाद्रपद, दे दो चा ची = रेवती। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २४६ वर्षाके सम्बन्धमे एक आ म बात : ला देनी चाहिए कि भारतमें तीन प्रकारके प्राकृतिक प्रदेश हैं-अनूप, जोगल और मिश्र। जिस प्रदेशमें अधिक वर्षा होती है, वह अनूप; कम वर्षा वाला जोगल और अल्पजलवाला मिश्र कहलाता है। मारवाड़में मामूली भी अशुभ योग वर्षाको नष्ट कर देता है और अनूप देशमें प्रबल अशुभ योग भी अल्पवर्षा कर ही देता है। जिस ग्रहके जो प्रदेश बदलाये गए हैं, वह ग्रह अपने ही प्रदेशोंमें वर्षाका अभाव या सद्भाव करता है। ___ ग्रहों के प्रदेश-सूर्य के प्रदेश-द्रविड़ देशका पूर्वार्द्ध, नर्मदा और सोन नदीका पूर्वार्द्ध, यमुनाके दक्षिणका भाग, इक्षुमती नदी, श्री शैल और विन्ध्याचलके देश, चम्प, मुण्डू, चेदीदेश, कौशाम्बी, मगध, औण्डू, सुङ्म, बंग, कलिङ्ग, प्रागज्योतिष, शबर, किरात, मेकल, चीन, बाह्रीक, यवन, काम्बोज और शक चन्द्रमा के प्रदेश-दुर्ग, आर्द्र, द्वीप, समुद्र, जलाशय, तुषार, रोम, स्त्रीराज, मरुकच्छ और कौशल हैं। मंगल के प्रदेश–नासिक, दण्डक, अश्मक, केरल, कुन्तल, कोंकण, आन्ध्र, कान्ति, उत्तर पाण्ड्य, द्रविड, नर्मदा, सोन नदी और भीमरथीका पश्चिम अर्धभाग, निर्बिन्ध्या, क्षिप्रा, बेत्रवती, वेणा, गोदावरी, मन्दाकिनी, तापी, महानदी, पयोष्णी, गोमती तथा बिन्ध्य, महेन्द्र और मलयाचलकी नदियाँ आदि हैं। बुध के प्रदेश–सिन्धु और लौहित्य गंगा, मंदीरका, रथा, सरयू और कौशिकीके प्रान्तके देश तथा चित्रकूट, हिमालय और गोमन्त पर्वत, सौराष्ट्र देश और मथुराका पूर्व भाग आदि हैं। बृहस्पति के प्रदेश–सिन्धुका पूर्वार्द्ध, मथुराका पश्चिमार्द्धभाग तथा विराट और शतद्गु नदी, मत्स्यदेश (धौलपुर, भरतपुर, जयपुर आदि) का आधा भाग, उदीच्यदेश, अर्जुनायन, सारस्वत, वारधान, रमट, अम्बष्ठ, पारत, सुध्न, सौवीर, भरत, साल्व, त्रैगर्त, पौरव और यौधेय हैं। शुक्र के प्रदेश–वितस्तार, इरावती और चन्द्रभागा नदी, तक्षशिला, गान्धार, पुष्कलावत, मालवा, उशीनर, शिवि, प्रस्थल मार्तिकावत, दशार्ण और कैकेय हैं। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ एकादशोऽध्यायः शनि के प्रदेश-वेदस्मृति, विदिशा, कुरु क्षेत्रका समीपवर्ती देश, प्रभास क्षेत्र, पश्चिम देश, सौराष्ट्र, आभीर, शूद्रकदेश तथा आनर्तसे पुष्कर प्रान्त तकके प्रदेश, आबू और रैवतक पर्वत हैं। __ केतुके प्रदेश—मारवाड़, दुर्गाचलादिक, अवगाण, श्वेत, हूणदेश, पल्लव, चोल और चौलक हैं। वृष्टिकारक अन्य योग-सूर्य, गुरु और बुधका योग जलकी वर्षा करता है। यदि इन्हींके ग्रहोंके साथ मंगलका योग हो जाय तो वायुके साथ जलकी वर्षा होती है। गुरु और सूर्य, राहु और चन्द्रमा, गुरु और मंगल, शनि और चन्द्रमा, गुरु और मंगल, गुरु और बुध तथा शुक्र और चन्द्रमा इन ग्रहोंके योग होनेसे जलकी वर्षा होती है। सुभिक्ष-दुर्भिक्ष का परिज्ञानप्रभवाद् द्विगुणं कृत्वा विभिन्यूँनं च कारयेत्। सप्तभिस्तु हरेन्द्रागं शेषं ज्ञेयं शुभाशुभम्॥ एक चत्वारि दुर्भिक्षं पञ्चद्वाभ्यां सुभिक्षकम्। विषष्ठे तु समं ज्ञेयं शून्ये पीडा न संशयः ।। अर्थात् प्रभवादि क्रमसे वर्तमान चालू संवत् की संख्याको दुगना कर उसमें से तीन घटाके सातका भाग देनेसे जो शेष रहे, उससे शुभाशुभ फल अवगत करना चाहिए। उदाहरण साधारण नामका संवत् चल रहा है। इसकी संख्या प्रभवादिसे ४४ आती है, अत: इसे दुगुना किया। ४४ x २ - ८८, ८८ - ३ = ८५, ८५ - ७ = १२ ल. १ शेष, इसका फल दुर्भिक्ष है। क्योंकि एक और चार शेषमें दुर्भिक्ष, पाँच और दो शेषमें सुभिक्ष, तीन या छ: शेषमें साधारण और शून्य शेषमें पीड़ा समझनी चाहिए। अन्य नियम—विक्रम संवत्की संख्याको तीनसे गुणा कर पाँच जोड़ना चाहिए। योगफलमें सातका भाग देनेसे शेष क्रमानुसार फल जानना। ३ और ५ शेषमें दुर्भिक्ष, शून्यमें महाकाल और १,२,४,६ शेषमें सुभिक्ष होता है। उदाहरण—विक्रम संवत् २०१३, इसे तीनसे गुणा किया; २०१३ x ३ = ६०३९, ६०३९ + ५ = ६०४४, इसमें ७ का भाग दिया, ६०४४ में ७ भाग = ८६३ लब्धि, शेष ३ रहा। इसका फल दुर्भिक्ष हुआ। संवत् २०१३ में साधारण संवत्सर भी है, इसका फल भी दुर्भिक्ष आया है। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सर निकालनेकी प्रक्रिया संवत्कालो ग्रहयुत कृत्वा शून्यसैर्हतः । शेषाः संवत्सरा ज्ञेयाः प्रभवाद्या बुधैः क्रमात् ॥ अर्थात — विक्रम संवत् ९ जोड़कर ६० का भाग देनेमें जो शेष रहे, वह प्रभवादि गत संवत्सर होता है, उससे आगेवाला वर्तमान होता है। उदाहरण - विक्रम संवत् २०१३, इसमें ९ जोड़ा तो २०१३ + ९ = २०२२ ६० २३ उपलब्धि, शेष ४२वीं संख्या कीलक की थी, जो गत हो चुका है, वर्तमानमें सौम्य संवत् है, जो आगे बदल जायगा, और वर्षान्तमें साधारण ही हो जायगा । प्रभवादि संवत्सरबोधक चक्र संख्या संवत्सर संख्या संवत्सर संख्या १६ चित्रभानु १ २ ३ ४ ५ ६ अंगिरा २१ 67 प्रजापति प्रभव विभव १७ सुभानु शुक्ल १८ तारण प्रमोद पार्थिव भाव ८ ९ १० धाता १९ श्रीमुख २२ युवा २० 2 a x m x 2 w 2 ↓ & २३ २४ २५ ११ ईश्वर १२ १३ १४ विक्रम २९ १५ वृष २६ बहुधान्य २७ प्रमाथी भद्रबाहु संहिता २८ ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ सर्वधारी ३७ व्यय सर्वजित् विरोधी ३८ ३९ ४० ४१ ४२ ४३ ૪૪ ४५ विकृति स्वर नन्दन विजय जय मन्मथ ३० दुर्मुख = शुभकृत् शोभन क्रोधी विश्वावसु पराभव प्लवंग कीलक सौम्य २४८ संवत्सर हेमलम्बी ४६ विलम्बी ४७ विकारी ४८ शार्वरी ४९ प्लव ५० ५१ ५२ ५३ संख्या संवत्सर परिधावी प्रमादी आनन्द राक्षस नल पिंगल मालयुक्त सिद्धार्थी ५४ रौद्र ५५ दुर्मति ५६ दुन्दुभि ५७ रूधिरोद्वारी ५८ रक्ताक्षी साधारण ५९ क्रोधन विरोधकृत् ६० क्षय Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ एकादशोऽध्यायः पाँच वर्षका एक युग होता है, इसी प्रमाणसे ६० वर्षके १२ युग और उनके १२ स्वामी हैं—विष्णु, बृहस्पति, इन्द्र, अग्नि, ब्रह्मा, शिव, पितर, विश्वेदेवा, चन्द्र, अग्नि, अश्विनीकुमार और सूर्य। ___ मतान्तरसे प्रथम बीस संवत्सरोंके स्वामी ब्रह्मा, इसके आगे बीस संवत्सरोंके स्वामी विष्णु और इससे आगेवाले बीस संवत्सरोंके स्वामी रुद्र-शिव हैं। आजकल रूद्रबीसी चल रही है। इति श्री पंचमश्रुत केवली दिगम्बराचार्य भद्रबाह स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिताका विशेषवर्णन करने वाला गन्धर्वनगर व लक्षण उनका फल वर्णन करने वाला ग्यारहवाँ अध्याय का हिन्दी भाषानुवाद करने वाली क्षेमोदय नामकी टीका समाप्त:। H (इति एकादशोऽध्यायः समाप्तः) । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशोध्यायः अथात: सम्प्रवक्ष्यामि गर्भान् सर्वान् सुखावहान्। भिक्षुकाणां विशेषेण परदत्तोप जीविनाम् ॥१॥ (अथात:) अब मैं (सर्वान्) सबको (सुखावहान्) सुखकी प्राप्ति के लिये (गर्भान्) गर्भोको (सम्प्रवक्ष्यामि) अच्छी तरह से कहूँगा (विशेषण) विशेष रीति से (परदत्तोप जीविनाम्) परदत्त भिक्षा पर निर्भर ऐसे (भिक्षुकाणां) साधुओंके लिये। भावार्थ-अब मैं सबको सुख देने वाले ऐसे गर्मों के लक्षण व उनके फल को कहूँगा विशेष रीति से जिनका आहार पानी श्रावकाश्रित है ऐसे साधुओं के लिये कहूँगा, क्योंकि वे ही तो स्वयंको और पर को समार्ग पर ले जाने वाले है॥१॥ ज्येष्ठा मूलममावस्यां मार्गशीर्ष प्रपद्यते। मार्गशीर्ष प्रतिपादि गर्भाधानं प्रवर्तते॥२॥ (मार्गशीर्ष) मार्गशीर्ष (अमावस्यां) अमावश्या को (ज्येष्ठामूलम्) ज्येष्ठा नक्षत्र या मूल नक्षत्र (प्रपद्यते) होता है वा (मार्गशीर्षप्रतिपदि) मार्गशीर्ष प्रतिपदाको (गर्भाधानं प्रवर्तते) गर्भाधान होता है। भावार्थ-जब मार्गशीर्ष अमावश्याको ज्येष्ठा नक्षत्र हो या मूल नक्षत्र हो अथवा मार्गशीर्ष द्वितीया हो तब आकाश में गर्भधान होता है गर्भ दिखाई देते है॥२॥ दिवा समुत्थितो गर्भो रात्रौ विसजते जलम। रात्रौ सुमुत्थितश्चापि दिवा विसृजते जलम् ।। ३।। (दिवा समुत्थितो) दिनमें दिखने वाले (गर्भो) गर्भ (रात्रौ) रात्रीमें (जलम्) जलकी (विसृजते) वर्षा करते हैं (चापि) और भी (रात्रौ) रात्रिमें (समुत्थितः) दिखने वाले गर्भ (दिवा) दिनमें (जलम्) जलको (विसृजते) बरसते हैं। भावार्थ:-यदि दिन में गर्भ उठकर दिखे तो समझो वो गर्भ रात्रिमें अवश्य Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशोऽध्यायः ही पानी बरसायेंगे, और रात्रि में यदि गर्भ दिखे तो दिन में जलकी वर्षा करेगे ऐसा समझना चाहिये॥३॥ सप्तमे सप्तमे मासे सप्तमे सप्तमेऽहनि। गर्भाः पाकं विगच्छन्ति यादृशं तादृशं फलम् ॥ ४॥ (सप्तमे सप्तमे मासे) सात-सात महीने और (सप्तमे सप्तमेऽहनि) सात-सात दिन में, (गर्भाः) गर्भ (पाकं) एक (विगच्छन्ति) जाते है (यादृशं तादृशं फलम्) जैसा गर्भ वैसा ही फल। भावार्थ- सातवें महीने के गर्भ सात महीने में और सात दिन के गर्भ सातवें महीनेमें गर्भ पक जाते हैं जैसा गर्भ वैसा ही फल होता है अर्थात् आज अगर गर्भ दिखाई पड़ा तो समझो वो गर्भ सात महीना और सात दिन में वर्षा करेगा, यद्यपि वराह संहिता में १९६ दिन है किन्तु जैनाचार्यों ने सात महीना और सात दिन माना है।। ४ ।। पूर्वसन्ध्या समुत्पन्नः पश्चिमायां प्रयच्छति। पश्चिमायां समुत्पन्नः पूर्वायां तु प्रयच्छति ।।५।। (पूर्वसन्ध्यासमुत्पन्न:) पूर्व संध्यामें धारण किया गया गर्भ (पश्चिमायां) पश्चिमसंध्यामें (प्रयच्छति) बरसता है और (पश्चिमायां समुत्पन्न:) पश्चिमसंध्यामें गर्भ धारण हो तो (पूर्वायांतु प्रयच्छति) पूर्व सन्ध्यामें फल देता है। भावार्थ-गर्भ यदि प्रात:काल धारण करे तो समझो सन्ध्या काल में वो गर्भफल देने लगेगा याने बरसने लगेगा और सन्ध्याकालमें यदि गर्भ धारण हो तो प्रात:काल वर्षा होगी ऐसा समझो।।५।। नक्षत्राणि मुहर्ताश्च सर्वमेवं समादिशेत्। षण्मासं समतिक्रम्य ततो देवः प्रवर्षति ।। ६॥ (सर्वमेवं) सब ही (नक्षत्राणि) नक्षत्रोंमें (च) और (मुहूर्ताः) मुहूर्तों में गर्भ धारण (समादिशेत) कहे गये हैं इसलिये (षण्मासं) छह महीने के (समतिक्रम्य) कालमें (ततो) वह (देव:) वर्षा (प्रवर्षति) होती है। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ सभी नक्षत्रों में और सभी मुहूर्तों में गर्भ धारण होता है ऐसा कहा गया है वो गर्भ धारण छह महीने फलरूप पानी वर्षा होती है ॥ ६ ॥ गर्भधानादयो मासास्तेन माला अवधारिणः । विपाचन त्रयश्चापि त्रयः कालाभिवर्षणाः ॥ ७ ॥ (गर्भाधानाद) गर्भधानका (यो) जो (मासा) महीना है (ते) उसही (मासा) महीने में ( अवधारिण: ) अवधारण करता है उसका काल (त्रयश्चापि ) तीन मासमें ( विपाचन ) पाचन होता है और (त्रयः) तीन महीनेके ( कलाभिवर्षणा) कालमें बरसता है । भावार्थ गर्भाधान का जो समय है उसही काल में गर्भ धारण होता है गर्भधारण होने के बाद वो गर्भ तीन महीनेमें पकने लगता है और फिर तीन महीनेमें बरसने लगता है ॥ ७ ॥ शीतवातश्च सर्वगर्भेषु विद्युच्च शस्यन्तेनिर्ग्रन्थाः (सर्वगर्भेषु) सब गर्भधारण के समय में (शीतवातश्च) शीतवायु हो, (विद्युच्च) बिजली चमकती हो (गर्जितं ) गर्जना सहित हो ( परिवेषणम्) परिवेषसे युक्त हो उनको (दर्शिनः ) देखकर (निर्ग्रन्थाः साधु) निर्ग्रन्थ साधु (शस्यन्ते) प्रशंसा करते हैं। गर्जितं २५२ परिवेषणम् । साधुदर्शिनः ॥ ८ ॥ भावार्थ - यदि गर्भ शीतवायु सहित हो, गर्जना सहित हो बिजली सहित हो, परिवेषों से युक्त हो तो उन गर्भोका निग्रन्थसाधु प्रशंसा करते हैं ॥ ८ ॥ शुभाशुभा यदा तदा । घुर्न गर्भास्तुविविधाज्ञेया: पापलिङ्गा निरुदका भयं उत्कापातोऽथ निर्घाताः दिग्दाहा गृहयुद्धं निवृत्तिश्च ग्रहणं ग्रहाणां चरितं चक्रं साधूनां कोप गर्भाणामुपघाताय न प्राह्मा (गर्भास्तुविविधाज्ञेयाः) गर्भ विविध प्रकार के जानना चाहिये ( यदाशुभा ) वो संशयः ॥ ९ ॥ पांशुवृष्टयः । चन्द्रसूर्ययोः ॥ १० ॥ सम्भवम् । विचक्षणैः ॥ ११ ॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ द्वादशोऽध्यायः शुभ और (तदाऽशुभा) अशुभ रूप है अशुभरूप गर्भ (पापलिङ्गा) पापरूप है (निरुदका) पानी से रहित होते है (भयंदधुर्नसंशय:) भय को उत्पन्न करते हैं इसमें कोई सन्देह नहीं है, और भी (उल्कापातो) उल्कापातसे (अथनिर्घाता:) घात होता है (दिग्-दाहा) दिग्दाह होगा, (पांशुवृष्टयः) धूलि की वर्षा होगी (गृहयुद्धं) गृहयुद्ध होगा, (निवृत्तिश्च) निवृत्ति का होना (चन्द्र सूर्ययोः ग्रहण) चन्द्र सूर्य को ग्रहण लगना (ग्रहाणां चरितं चक्रं) ग्रहों का चक्र विचित्र होना, (साधूनां कोप सम्भवम्) साधुओं को क्रोध होना (गर्भाणामुपघाताय) गर्भा का घात होना इसलिये (न) न (ते) वे अशुभ गर्भ (ग्राह्या) ग्रहण नहीं करना चाहिये (विचक्षणैः) बुद्धिमानो को। __ भावार्थ- गर्भ विविध प्रकार के होते हैं एक शुभ और एक अशुभ, अशुभ गर्भ पापरूप होते है, पानी नहीं बरसने देते है भय को उत्पन्न करते है इसमें कोई सन्देह नहीं है वो अशुभ गर्भ उल्कापात करते है दिशा दाह करते है धूलि की वृष्टि करते है, गृहयुद्ध होता है गृह से निवृत्ति होती है चन्द्र सूर्य को ग्रहण लगाने वाले होते हैं ग्रहों के विचित्र चक्र होते हैं साधुओं को क्रोध आयेगा, ग्रहोंका घात होगा इसलिये बुद्धिमानो को अशुभ गर्भ ग्रहण नहीं करना चाहिये॥९-१०-११।। धूमं रजः पिशाचांश्च शस्त्रमुल्का सनागजः। तैलं घृतं सुरामस्थि क्षारं लाक्षां वासं मधु ॥१२॥ अङ्गारकान् मखान् केशान् मांसशोणित कईमान् । विपच्यमाना मुञ्चन्ति गर्भाः पापभयावहाः ।।१३।। (पापगर्भाः) पापरूप गर्भ (विपच्यमाना) पकजाने पर (भयावहा:) भयानक होते हैं (धूम) धूम, (रज:) धूलि, (पिशाचांश्च) पिशाच रूप (शस्त्र) शस्त्र रूय (उल्कां) उल्कारूप (स नागजः) हाथीयोंका विनाश (तैलं) तेल, (घृतं) घी (सुरामस्ति) शराब हड्डीरूप (क्षार) खार, (लाक्षां) लाख (वसां) मेघ (मधु) मधु (अङ्गारकान्) अंगारे, (मरवान्) नख (केशान) केश (मांस शोणित कईमान्) मास, रक्त कीचड, (मुञ्चन्ति) को छोड़ते हैं याने इन पदार्थों की वर्षा करते हैं। भावार्थ- जो गर्भ पापरूप याने अशुभ हो पक्के हुऐ हो तो समझो वो गर्भ भयानक होते है और धूम, धूलि, पिशाच, शस्त्र, मुल्का, हाथी, तेल, घी, Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २५४ शराब, हड्डी, खार, लाख, मेघ, मधु, आगके अङ्गारे, नख, केश, मांस, शोणित (रक्त) कीचड आदि की वर्षा करते हैं। ऐसे गर्भ बहुत ही भयानक होते है सर्वत्र विनाश की ही सूचना देते हैं॥१२-१३ ।। कार्तिकं चाऽथ पौषं च चैत्र वैशाख मेव च। श्रावणं चाश्चिनं सौम्यं गर्भ विन्द्याद् बहूदकम् ।। १४॥ (कार्तिकं) कार्तिक (पौषं) पौष (चैत्र) चैत्र (वैशाख) वैशाख (च) और (श्रावणं) श्रावण, (चाश्विनं) और आश्विन मासके (गर्भ) गर्भ (सौम्यं) सौम्य होते हैं (बहूदकम्) बहुत पानी बरसाने वाले (विन्द्याद्) होते है ऐसा जानो। भावार्थ-यदि सौम्य गर्भ कार्तिक, पौष, चैत्र, वैशाख और श्रावण, आश्विन मासमें हो तो समझो बहुत वर्षा होगी। इन महीनों के गर्भ सौम्य होते हैं॥१४ ।। ये तु पुष्येण दृश्यन्ते हस्तेनाभिजिता तथा। अश्विन्यां सम्भवन्तश्च ते पश्चान्नैव शोभनाः॥१५॥ आर्द्राऽऽश्लेषासु ज्येष्ठासु मूले वा सम्भवन्ति ये। ये गर्भागमदक्षाश्च मतास्तेऽपि बहूदकाः ॥१६॥ (ये तु) जो (पुष्येण) पुष्य नक्षत्र को वा (हस्तेनाभिजिता) हस्त, अभिजित (तथा) तथा (अश्विन्यां) अश्विनि नक्षत्रोंमें गर्भ (दृश्यन्ते) दिखाई पड़े तो (सम्भवन्तश्च) सम्भव होते है तो शुभ है, (ते) उसके (पश्चान्नैवशोभनाः) बादके शुभ नहीं है। (च) और (ये) जो गर्भ (आर्द्रा) आद्रा (अऽश्लेषासु) अश्लेषु, (ज्येष्ठासु) ज्येष्ठा (वा) वा (मूले) मूल नक्षत्रको (सम्भवन्ति) दिखाई पड़े (ये) तब (गर्भागमदक्षाश्च) गर्भागममें दक्ष जनका (मतास्तेऽपि) ऐसा ही मत है कि (बहूदकाः) बहुत वर्षा हो। भावार्थ-यदि पुष्य नक्षत्र हस्त, अभिजितद अश्विन, नक्षत्रमें गर्भ दिखे तो शुभ है अन्य नक्षत्रों को शुभ नहीं है, आद्रा आश्लेषा ज्येष्ठा मूल नक्षत्र में यदि गर्भ दिखे तो बहुत वर्षा होगी ऐसा जानो, गर्भ के लक्षण व फल को जानने वाले निमित्तज्ञों का ऐसा ही कहना है॥१५-१६॥ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ द्वादशोऽध्यायः उच्छितं चापि वैशाखात् कार्तिके दधते जलम् । हिमागमेन गमिका तेऽपि मन्दोदकाः स्मृताः॥१७॥ (वैशाखात) वैशाखमें (उच्छित) दिखने वाले गर्भ (कार्तिकेदधते जलम) कार्तिक में पानी देते है (चापि) और भी, (हिमागमेनगमिका) हिमआगम के साथ गमन करते है (तेऽपि) वो भी (मन्दोदका:स्मृता) मन्दउदक वाले होते हैं ऐसा जानो। भावार्थ-वैशाख मासमें दिखने वाले गर्भ कार्तिक महीनेमें बरसते है, और हिम के समान ठण्डे मन्द गति से गमन करने वाले होते है ऐसा जानो।। १७॥ स्वातौ च मैत्र देवे च वैष्णवे च सुवारुणे। गर्भाः सुधारणा ज्ञेया ते प्रवन्ते बहूदकम्॥१८ ।। (स्वातौ) स्वाति नक्षत्रमें (मैत्रदेवे च) अनुराधा, (वैष्णवै) श्रवण (च) और (सुवारुणे) शतभिखा इन नक्षत्रोंमें यदि (गर्भा:) गर्भ (सुधारणा) धारण हो तो (ते) वे गर्भ (बहूदकम्) बहुत जल की वर्षा (म्रवन्ते) करते हैं (ज्ञेया) जानना चाहिये। भावार्थ-स्वाति नक्षत्र अनुराधा श्रवण शतभिखा नक्षत्रमें यदि गर्भ दिखलाई पड़े तो समझो बहुत जल की वर्षा करेगें ऐसा जानना चाहिये ।। ५८ ॥ पूर्षामुदीची मैशानीं ये गर्भा दिशमाश्रिताः। ते सस्यवन्तस्तोयाद्यास्ते गर्भास्तु सुपूजिताः ।। १९ ।। (पूर्वामुदीची) पूर्व, उत्तर (मैशानी) इशान में (दिशमाश्रिताः) दिशामें आश्रित रहने वाले (ये) जो (गर्भा) गर्भ है (ते) वे (सु पूजिता:) अच्छे होते हैं पूजित हैं (ते गर्भास्तु) वो गर्भ (स्तोयाद्या:सस्यवन्त) बहुत ही जल बरसाने वाले होते है, धान्यो के उत्पादक है। भावार्थ-पूर्व, उत्तर, ईशान दिशा के गर्भ धान्यो के उत्पादक और बहुत ही जल की वर्षा करने वाले होते हैं।॥ ५९॥ वायव्यामथ वारुण्यां ये गर्भा नवन्ति च। ते वर्ष मध्यमं दधुः शस्य सम्पत्यमेव च ॥२०॥ (अथ) अथ (ये) जो (गर्भा) गर्भ (वायव्याम्) वायव्यदिशा (च) और पश्चिम Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ — भद्रबाहु संहिता | २५६ दिशा में उठकर दिखे तो (ते) वे (मध्यम) मध्यम (वर्ष) वर्षा को (सम्रवन्ति) बरसाते है (शस्य सम्पत्यमेव च) और धान्य रूपी सम्पति (दधुः) देते हैं। भावार्थ----जो गर्भ वायव्य कोण या पश्चिम दिशा से दिखे तो समझो मध्यम वर्षा होगी, लेकिन धान्यो की उत्पति अच्छी होगी॥२० ।। शिष्टं सुभिक्षं विज्ञेयं जघन्या नात्रसंशयः। मन्टगाश्च घना वा च मर्वतश्च सुपूजिताः ।। २१ ।। यदि दक्षिणा दिशा के गर्भ (शिष्ट) शिष्ट, (सुभिक्षं) सुभिक्षता को करने वाले, (जघन्या) जघन्य (मन्दगाश्च) मन्दगति वाले (घना) गर्भ अच्छे (विज्ञेया) जानना चाहिये (सर्वतश्चसुपूजिता:) सब जगह ही पूजे जाने वाले होते है (नात्र संशय:) इसमें कोई सन्देह नहीं हैं। भावार्थ--यदि गर्भ दक्षिण दिशासे दिखे और वो भी शान्त हो, शिष्ट हो, सामान्य हो तो सुभिक्षता करने वाले है मन्दगति से चलने वाले गर्भ की सब जगह पूजा होती है इसमें कोई सन्देह नहीं करना चाहिये ।। २१ ।। मारुतः तत्प्रभवा; गर्भा धूयन्ते मारुतेन च । वातो गर्भश्च वर्षश्च करोत्यप करोति च ॥ २२॥ (मारुतः) हवासे (तत्प्रभवा) प्रभावित (गर्भा) गर्भ (मारुतेनच धूयन्ते) हवासे ही धोये जाते है (वातो) वायुसे प्रभावित (गर्भश्च) गर्भ है (करोत्यप करोति च) उनको वायु ही नष्ट कर देती है। ___ भावार्थ-हवा से प्रभावित गर्भ हवामें ही उड़ते रहते है क्योंकि वायु गर्भो को टिकने नहीं देता, वायु चलते ही गर्भ पलायमान हो जाते हैं।२२।। कृष्णा नीलाश्च रक्ताश्चपीता: शुक्लाश्च सर्वतः । व्यामिश्राश्चापि ये गर्भाः स्निग्धाः सर्वत्र पूजिताः॥२३॥ (ये) जो (गर्भाः) गर्भ, (स्निग्धा:) स्निग्ध हो, (कृष्णा नीला श्च) काले, नीले और (रक्ताश्च) लाल हो (पीताशुक्लाश्च) पीले हो सफेद हो (व्यामिश्राश्चापि) मित्र हो तो वो भी (सर्वत:) सब जगह (सर्वत्र पूजिता:) सब तरह से पूजित होते Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ द्वादशोऽध्यायः भावार्थ---जो गर्भ स्निग्ध हो काले हो लाल हो पीले हो सफेद हो व्यामिश्र हो तो सर्वत्र पूजित हैं शुभ हैं।। २३ ॥ अप्सराणां तु सदृशाः पक्षिणां जल चारिणाम। वृक्ष पर्वत संस्थाना गर्भाः सर्वत्र पूजिताः ।। २४ ॥ (अप्सराणांतु) अप्सराओं के समान व (पक्षिणां जल चारिणाम्) पक्षियों के सदृश जलचर जीवों के समान (वृक्षपर्वतसंस्थानां) वृक्ष, पर्वत के आकार वाले (गर्भाः) जो गर्भ होते है तो (सर्वत्र पूजिता:) वो गर्भ सब जगह पूजे जाते हैं। ___ भावार्थ-जो गर्भ अप्सराओं के आकार पक्षियों के आकार, जलचरजीवी के आकार वृक्ष या पर्वत के आकार के हो तो समझो वे गर्भ सर्वत्र पूजित और शुभ होते हैं।। २४ ।। वापीकूप तडागाश्च नद्यश्चापि मुहुर्मुहुः । पूर्यन्ते ताशैर्ग: स्तोयक्लिन्ना नदीवहैः ।। २५ ।। (तादृशेर्गभै) इस प्रकार के गर्भ (मुहर्मुहः) धीरे-धीरे बरसते है (वापीकूप) कुआँ, बावडी, (तडागाश्च) तालाब (नद्यश्चापि) नदी आदि का भी (पूर्यन्ते) भर जाते हैं (स्तोयक्लिन्ना नदीवहै:) नदियों में पूर आ जाते हैं। भावार्थ-इस प्रकार के गर्भ धीरे-धीरे पानी बरसाते हैं बावड़ी, कुएँ, तालाब, नदी, सरोवरादिक भर जाते हैं नदियों पूर आ जाते है॥२५ ।। नक्षत्रेषतिथौ चापि मुहर्ते करणे दिशि। यत्रयत्रसमुत्पन्नाः गर्भाः सर्वत्र पूजिताः ॥२६॥ (नक्षत्रेषु) नक्षत्रोंमें (तिथौचापि) तिथियों में (मुहूर्ते) मुहूर्तो में (करणे) करण में (दिशि) दिशाओंमें (यत्रयत्रसमुत्पन्नाः) जहाँ-जहाँ उत्पन्न होने वाले (गर्भाः) गर्भ (सर्वत्र पूजिता:) सब जगह पूजित होते हैं शुभ है। भावार्थ-यदि गर्भ नक्षत्रों में तिथियों में मुहर्तों के करणों में दिशाओं में जहाँ-जहाँ दिखते है वहाँ-वहाँ ही पूजित होते हैं।। २६ ।। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता सुसंस्थाना: सुवर्णाश्च सुवेषा स्वभ्रजा सुविन्दवः स्थितागर्भाः सर्वे सर्वत्र घनाः । पूजिताः ॥ २७ ॥ यदि गर्भ (सुसंस्थाना) अच्छे संस्थान वाले, (सुवर्णाश्च) सुवर्ण वाले (सुवेषा) सुवेष वाले ( स्वभ्राजा घनाः) बादलों से सहित (सुविन्दवः) बिन्दुओं सहित (स्थितागर्भा:) स्थित हो तो वो (सर्वे) सब ही ( सर्वत्र पूजिता: ) सब जगह पूजित है | २५८ भावार्थ- गर्भ यदि अच्छे संस्थान वाले, सुवर्ण वाले सुवेष वाले बादलों से सहित, सुबिन्दुओं से सहित हो और गर्भ स्थित हो तो वे गर्भ सर्वत्र पूजित होते हैं ॥ २७ ॥ कृष्णा रूक्षा: सुखण्डाश्च विद्रवन्तः पुनः पुनः । विस्वरा रूक्षशब्दाश्च गर्भाः सर्वत्रनिन्दिताः ॥ २८ ॥ (कृष्णा) काले, ( रूक्षा) रूक्ष, (सुखण्डाश्च) खण्ड-खण्ड रूप, (विद्रवन्तः ) बनते बिगड़ते (पुनः पुनः ) पुन: पुन: ( विस्वरा) विश्वर करने वाले ( रूक्षशब्दाश्च ) रूक्ष शब्द करने वाले (गर्भा:) गर्भ ( सर्वत्रनिन्दिता: ) सब जगह निन्दित होते हैं। भावार्थ -- जो गर्भ काले हो, रूक्ष हो, खण्ड-खण्ड हो, बार-बार बनते बिगड़ते हो, विश्वर करने वाले हो, कठोर शब्दों से युक्त हो ऐसे गर्भ सर्वत्र निन्दित होते हैं ।। २८ ।। अन्धकार समुत्पन्ना गर्भास्ते तु न पूजिता: । चित्रा: स्रवन्ति सर्वाणि गर्भाः सर्वत्रनिन्दिताः ॥ २९ ॥ ( अन्धकार समुत्पन्ना ) कृष्णपक्ष में उत्पन्न (गर्भा:) गर्भ (ते) वे (पूजिता: ) पूजित (न) नहीं हैं ( चित्रा : ) चित्रा नक्षत्र में ( सर्वाणिगर्भाः ) सब गर्भ ( सवन्ति ) देखकर स्रवित होते है (तु) तो ( सर्वत्र ) सब जगह ( निन्दिताः) निन्दित होते हैं। भावार्थ - यदि गर्भ कृष्ण पक्ष में दिखे तो वे गर्भ शुभ नहीं है और चित्रा नक्षत्र में गर्भ उत्पन्न होते है तो वो भी निन्दित है, ऐसे गर्भों से कोई लाभ नहीं होता अशुभ होते हैं ।। २९ ।। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशोऽध्यायः मन्दवृष्टिमनावृष्टिभयं राजपराजयम्। दुर्भिक्षं मरणं रोगं गर्भाः कुर्वन्ति तादृशम् ॥ ३०॥ वे (गर्भाः) गर्भ, (मन्दवृष्टिं) मन्दवृष्टि, (अनावृष्टि) अनावृष्टि, (भयं) भय, (राजपराजयम्) राजा की पराजय (दुर्भिक्षं) दुर्भिक्ष, (मरणं) मरण, (रोग) रोगादि (तादृशम्) उसी प्रकार (कुर्वन्ति) करते हैं। भावार्थ---उपर्युक्त गर्भ, अनावृष्टि, मन्द वृष्टि भय, राजाकी पराजय, दुर्भिक्ष, प्रजाका मरण, रोग इत्यादि उत्पन्न करते हैं। ३० ।। मार्गशीर्षे तु गर्भास्तु ज्येष्ठामूलं समादिशेत् । पौषमासस्य गर्भास्तु विन्द्यादाषादिकां बुधाः॥३१॥ माघजात् श्रवणे विन्द्यात् प्रोष्ठपदे च फाल्गुनात् । चैत्रमश्वयुजेविन्द्याद् गर्भ जल विसर्जनम् ।। ३२ ।। (मार्गशीर्षे) मार्गशीर्ष में (गर्भाः) गर्भ दिखे (तु) तो (ज्येष्ठा मूलं) ज्येष्ठा या मूलनक्षत्र में बरसते है (समादिशेत्) ऐसा कहा है, (पौसमासस्य गर्भास्तु) पौष महीनेके गर्भ (आषाढिका) पूर्वाषाढ़ामें बरसे ऐसा (बुधाः) बुद्धिमानो को (विन्द्याद्) जानना चाहिये, (माघजात) माघ में दिखने वाले गर्भ (श्रवणे) श्रवण नक्षत्रमें बरसते हैं (विन्द्याद्) जानना चाहिये, (चैत्रामश्वयुजेविन्द्याद्) चैत्र में दिखने वाले गर्भ अश्विनी नक्षत्रमें (जलविसर्जनम्) जल विर्सजन करते हैं (प्रोष्ठपदे च फाल्गुनात्) भाद्र में दिखे तो (पूर्वाफाल्गुनीमे) पानी बरसे। भावार्थ—मार्गशीर्ष में गर्भ दिखे तो ज्येष्ठा या मूल नक्षत्रमें जल की वर्षा होती है तो पौष में गर्भ दिखाई पड़े तो पूर्वाषाढ़ा में जल बरसाते हैं। माघ महीनेमें गर्भ दिखे तो श्रवण नक्षत्रमें बरसे और भाद्र में दिखे तो पूर्वाफाल्गुनी में वर्षा होती है, चैत्र मास में गर्भ दिखे तो अश्विनीनक्षत्र में वर्षा होती है ऐसा जानो।। ३१-३२।। मन्दोदाप्रथमे मासे पश्चिमें ये च कीर्तिताः। शेषा बहूदका ज्ञेयाः प्रशस्तैर्लक्षणैर्यदा ।। ३३ ।। (प्रथमे मासे मन्दोदा) उपर्युक्त गर्भ पहले महीने में कम वर्षा होती है। (च) Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | २६० और (ये) जो (पश्चिमे) बादके महीनेमें जल बरसता है (कीर्तिता:) ऐसा कहा गया है, (यदा) जो (प्रशस्तै:) प्रशस्त (लक्षण) लक्षणों से युक्त ऐसे (शेषा) शेष गर्भ (बहूदका) बहुत पानी बरसाते हैं (ज्ञेया:) जानना चाहिये। भावार्थ—पहले कहे अनुसार गर्भ पहले महीनेमें कम जल बरसाते हैं बाकी आगे के महीनेमें बहुत ही वर्षा करते है, शुभ लक्षणों से युक्त नित्य ही अच्छी वर्षा करते हैं।। ३३ ।। यानि रूपाणि दृश्यन्ते गर्भाणां यत्र यत्र च। तानि सर्वाणि ज्ञेयानि भिक्षूणां भैक्षवर्तिनाम् ।। ३४॥ (गर्भाणां) गर्भो का (यानि) जो-जो (रूपाणि) रूप (यत्र यत्र च) जहाँ-जहाँ (दृश्यन्ते) दिखाई दे तो, (तानि) उन, (सर्वाणि) सबको, (भैक्षवर्तिनाम् भिक्षूणां) भिक्षावृत्ति वाले साधुओं को (ज्ञेयानि) जानना चाहिये। भावार्थ—गर्भो का जो-जो रूप जहाँ-जहाँ दिखे वहाँ-वहाँ के भिक्षावृत्ति वाले साधुओं को शुभाशुभ जान लेना चाहिये ॥ ३४॥ सन्ध्यायां यानि रूपाणि मेघेष्वभ्रेषु यानि च। तानि गर्भेषु सर्वाणि यथावदुपलक्षयेत् ॥ ३५॥ (यानि) जो (सन्ध्यायां) सन्ध्याओं (रूपाणि) के लक्षण (च) और (मेघेष्वभ्रेषु) मेघों में व बादलों में जानो (तानि) उसी प्रकार (सर्वाणि) सब (गर्भेषु) गर्भोमें (यथावदुपलक्षयेत्) भी उपलक्षित कर देना चहिये । भावार्थ-जो सन्ध्याओं के रूप कहे हैं उसी प्रकार मेघोंमें व आकाशमें गों को भी जान लेना चाहिये ।। ३५॥ ये केचिद् विपरीतानि पठ्यन्ते तानि सर्वशः। लिङ्गानितोय गर्भेषु भयदेषु भवेत तदा ॥३६ ।। (ये केचिद) जो कोई भी (विपरीतानि) विपरीत (लिङ्गानि) चिह्न वाले (तानि सर्वश:) उन सब गर्भीको (पठचन्ते) जानना चाहिये (तदा) तब (तोय) पानी वाले (गर्भेषु) गर्भो में (भयदेषु भवेत्) भय ही उत्पन्न होता है। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशोऽध्यायः । भावार्थ—जो कोई भी विपरीत चिह्न वाले गर्भ है वो सब गर्भ भय को ही उत्पन्न करते हैं॥३६॥ गर्भा यत्र न दृश्यन्ते तत्र विन्द्यान्महद्भयम् । उत्पन्ना वा सवन्त्याशु भद्रबाहुवचो यथा ॥ ३७॥ (यत्र) जहाँ पर (गर्भा) गर्भ (न) नहीं (दृश्यन्ते) दिखलाई पड़े तो (तत्र) वहाँ पर (महद्रयम्) महान भय होगा (विन्द्यान्) ऐसा जानो (उत्पन्ना वा स्रवन्याशु) उत्पन्न हुऐ बीज भी नष्ट होते है (यथा) इसी प्रकार (भद्रबाहुवचो) भद्रबाहु स्वामी का वचन है। भावार्थ-जहाँ पर गर्भ दिखाई नहीं पड़े तो समझो वहाँ पर महान भय उत्पन्न होगा, और धान्य अंकुरित होने पर भी वापस नष्ट हो जायगें ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है॥ ३७॥ निIत्था यत्र गर्भाश्च न पश्येयुः कदाचन । तं च देशं परित्यज्य सगर्भ संश्रयेत् त्वरा ॥३८॥ (निर्ग्रन्था) निग्रन्थ साधु (बत्र) जहाँ पर (कदाचन) कभी-भी (गर्भाश्च न पश्येयुः) गर्भो को नहीं देखे तो (तं च) उस (देश) देश को (परित्यज्य) छोड़ कर (त्वरा) शीघ्र ही (सगर्भ) गर्भ सहित देश (संश्रयेत) आश्रय लेवे। भावार्थ-निर्ग्रन्थ साधु जिस देश में गर्भ नहीं देखे उस देश को अपने संयमकारक्षण करने के लिये शीघ्र छोड देना चाहिये और गर्भ वाले देश का आश्रय पकड़ना चाहिये॥३८॥ विशेष वर्णन इस अध्याय में आचार्यश्री ने गर्भ व वायु का लक्षण व फल कहा है। ये गर्भ किसी भी महीने में दिख सकते है, इन गर्भो के दिखाई पड़ने पर वर्षा का ज्ञान होता है, इस अध्याय में अड़तीस श्लोक ही है किन्तु इतने ही श्लोकों में भी पूर्ण गर्भ व वात का लक्षण आचार्यश्री ने कह दिया है। किस महीने में कौन-सी तिथि को कौन से वार व नक्षत्र, ऋतुओं में गर्भ दिखे तो उसी प्रकार का उतने ही दिनों में वर्षा या अनावृष्टि होने का ज्ञान कराता है। चारों प्रकार की दिशाओं के मेघ हवा के कारण अदला-बदली करते रहते Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २६२ तो मेघ का गर्भ काल जानना चाहिये। जब उत्तर, ईशान कोण और पूर्व दिशा वायुमें आकाश विमल स्वच्छ और आनन्द युक्त होता है तथा चन्द्रमा और सूर्य स्निग्ध श्वेत और बहुत घेरेदार होता है उस समय भी मेघों के गर्भ धारण का समय रहता हैं। मेघों के गर्भ धारण करने का सर मार्गीर्य, पौष, गए, फाल्गुन है इन्हीं महीनों में मेघ गर्भ धारण करते हैं। गणित में निष्पात् निमित्त ज्ञानी ही गर्भों के लक्षण जानकर आज का गर्भ कब बरसेगा यह जान लेता है जो गर्भ आज दिखाई दिया है वो एक सौ पच्चाणवें दिनो में वर्षा करता है। मार्गशीर्ष के महीने में जिस तिथि को गर्भ धारण होता है उस तिथि से ठीक ९९५ वें दिन में वह पककर अवश्य वर्षा करता है। गर्भ तिथिका ज्ञान धारण तिथि के लक्षणों से ही किया जाता है । स्थूल और स्निग्ध मेघ जब आकाश में आच्छादित हों और आकाश का रंग काक के अण्डे और मोर के पंख के समान हो तो मेघों का गर्भधारण समझो। इस प्रकार अन्य समझो। यहाँ डॉ. नेमीचन्द का अभिप्राय देते हैं। विवेचन मेघ गर्भकी परीक्षा द्वारा वर्षाका निश्चय किया जाता है। वराहमिहिर ने बतलाया है — " दैवविदवहितचित्तो घुनिशं यो गर्भलक्षणे भवति । तस्य मुनेरिव वाणी न भवति मिथ्याम्बुनिर्देशे ॥" अर्थात् जो दैवका जानकार पुरुष रात-दिन गर्भ लक्षणमें मन लगाकर सावधान चित्तसे रहता है, उसके वाक्य मुनियोंके समान मेघगणितमें कभी मिथ्या नहीं होते। अतः गर्भकी परीक्षाका परिज्ञान कर लेना आवश्यक है। आचार्यके इस अध्यायमें गर्भधारणका निरूपण किया है। मार्गशीर्षमासमें शुक्लपक्षकी प्रतिपदासे जिस दिन चन्द्रमा पूर्वाषाढा नक्षत्रमें होता है, उस दिनसे ही सब गर्भो का लक्षण जानना चाहिए। चन्द्रमा जिस नक्षत्रमें रहता है, यदि उसी नक्षत्रमें गर्भ धारण हो तो उस नक्षत्रसे १९५ दिनके उपरान्त प्रसवकाल — वर्षा होनेका समय होता है। शुक्लपक्षका गर्भ कृष्णपक्षमें और कृष्णपक्षका गर्भ शुक्लपक्षमें, दिनका गर्भ रात्रिमें, रातका गर्भ दिनमें, प्रात: कालका गर्भ सन्ध्यामें और सन्ध्याका गर्भ प्रात: कालमें जलकी वर्षा करता है। मार्गशीर्षके आदिमें उत्पन्न गर्भ एवं पौष मासमें उत्पन्न गर्भ मन्दफल युक्त हैं— अर्थात् कम वर्षा होती है । माघमासका गर्भ श्रावण कृष्णपक्ष में प्रातः काल को प्राप्त होता है । माघके कृष्णपक्ष द्वारा भाङ्गपदमासका Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ द्वादशोऽध्याय: शुक्लपक्ष निश्चित है। फाल्गुन मासके शुक्लपक्षमें उत्पन्न गर्भ भाद्रपदमासके शुक्लपक्षमें जलकी वर्षा करता है। फाल्गुनके कृष्णपक्षका गर्भ आश्विनके शुक्लपक्षमें जलकी वृष्टि करता है। पूर्वदिशाके मेघ जब पश्चिमकी ओर उड़ते हैं और पश्चिमके मेघ पूर्वदिशामें उदित होते हैं, इसी प्रकार चारों दिशाओंके मेध पवनके कारण अदला-बदली करते रहते हैं, तो मेघका गर्भ काल जानना चाहिए। जब उत्तर, ईशानकोण और पूर्व दिशा वायुमें आकाश विमल, स्वच्छ और आनन्द युक्त होता है तथा चन्द्रमा और सूर्य स्निग्ध, श्वेत और बहुत घेरेदार होता है, उस समय भी मेघोंके गर्भ धारणका समय रहता है। मेघोंके गर्भधारण करनेका समय मार्गशीर्ष अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन है। इन्हीं महीनोंमें मेघ गर्भ धारण करते हैं। जो व्यक्ति गर्भधारणका काल पहचान लेता, वह गणित द्वारा बड़ी ही सरलतासे जान सकता है कि गर्भधारणके १९५ दिन के उपरान्त वर्षा होती है। अगहनके महीनमें जिस तिथिको मेघ गर्भ धारण करते हैं, उस तिथिसे ठीक १९५३ दिनमें अवश्य वर्षा होती है। अत: गर्भधारणकी तिथिका ज्ञान लक्षणोंके आधार पर ही किया जा सकता है स्थूल और स्निग्ध मेघ जब आकाशमें आच्छादित हों और आकाशका रंग काकके अण्डे और मोरके पंखके समान हो तो मेघोंका गर्भ धारण समझना चाहिए । इन्द्रधनुष और गम्भीर गर्जनायुक्त, सूर्याभिमुख, बिजलीका प्रकाश करने वाले मेघ हों तो; ईशान और पूर्व दिशामें गर्भधारण करते हैं। जिस समय मेघ गर्भधारण करते हैं उस समय दिशाएँ शान्त हो जाती हैं, पक्षियोंका कलरव सुनाई पड़ने लगता है। अगहनमासमें जिस तिथिको मेघ सन्ध्याकी अरुणिमासे अनुरक्त और मण्डलकार होते हैं, उसी तिथिको उनकी गर्भ धारणकी क्रिया समझनी चाहिए। अगहनमासमें जिस तिथिको प्रबल वायु चले, लाल-लाल बादल आच्छादि हों. चन्द्र और सूर्यकी किरणें तुषारके समान कलुषित और शीतल हो तो छिन्न-भिन्न गर्भ समझना चाहिए। गर्भ धारणके उपर्युक्त चारों मासोंके अतिरिक्त ज्येष्ठामास भी माना गया है। ज्येष्ठमें शुक्लपक्षकी अष्टमीसे चार दिनों तक गर्भ धारणकी क्रिया होती है। यदि ये चारों दिन एक समान हो तो सुखदायी होते है. तथा गर्भधारण क्रिया बहुत उत्तम होती है। यदि इन दिनोंमें एक दिन जल बरसे, एक दिन पवन चले, एक दिन तेज धूप पड़े और एक दिन Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २६४ आँधी चले तो निश्चयतः गर्भ शुभ नहीं होता । ज्येष्ठमासका गर्भ मात्र ८९ दिनों में बरसता है। अगहनका गर्भ १९५ दिनमें वर्षा करता है; किन्तु वास्तविक गर्भ अगहन, पौष और माघका ही होता है। अगहनके गर्भ द्वारा आषाढ़में वर्षा, पौषके गर्भसे श्रावण, माघके गर्भ से भाद्रपद और फाल्गुनके गर्भले आश्विनमें जलकी वर्षा होती है। फाल्गुनमें तीक्ष्ण पवन चलनेसे, स्निग्ध बादलोंके एकत्र होनेसे, सूर्यके अग्निसमान पिङ्गल और ताम्रवर्ण होने से गर्भ क्षीण होता है। चैत्रमें सब गर्भपवन, मेघ, वर्षा और परिवेष युक्त होनेसे शुभ होते हैं। वैशाखमें मेघ, वायु, अल और बिजलीकी चमक और कड़कड़ाहटके होनेसे गर्भकी पुष्टि होती है। उल्का, वज्र, धूलि, दिग्दाह, भूकम्प, गन्धर्वनगर, कीलक, केतु, ग्रहयुद्ध, निर्घात, परिघ, इन्द्रधनुष, राहुदर्शन, रुधिरादिका वर्षण आदिके होनेसे गर्भका नाश होता है। सभी ऋतुएँ पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा और रोहिणी नक्षत्रमें धारण किया गया गर्भ पुष्ट होता है। इन पाँच नक्षत्रोंमें गर्भ धारण करना शुभ माना जाता है तथा मेघ प्रायः इन्हीं नक्षत्रोंमें गर्भ धारण करते भी हैं । अगहन महीने में जब ये नक्षत्र हों, उन दिनों गर्भकालका निरीक्षण करना चाहिए। पौष, माघ और फाल्गुनमें भी इन्हीं नक्षत्रोंका मेघगर्भ शुभ होता है, किन्तु शतभिषा, आश्लेषा, आर्द्रा और स्वाति नक्षत्र में भी गर्भधारणकी क्रिया होती है। अगहनसे वैशाख मास तक छः महीनों में गर्भ धारण करनेसे ८, ६, १६, २४, २० और ३ दिन तक निरन्तर वर्षा होती है। क्रूरग्रहयुक्त होने पर समस्त गर्भ में ओले, अशनि और मछली की वर्षा होती है। यदि गर्भ समयमें अकारण ही घोर वर्षा हो तो गर्भका स्खलन हो जाता है। गर्भ पाँच प्रकारके निमित्तों से पुष्ट होता है। जो पुष्टगर्भ है, वह सौ योजन तक फैल कर जलकी वर्षा करता है । चतुर्निमित्तक पुष्ट गर्भ ५० योजन, त्रिनिमित्तक २५ योजन, द्विनिमित्तक १२|| योजन और एक निमित्तक ५ योजन तक जलकी वर्षा करता है । पञ्चनिमित्तों में पवन, जल, बिजली, गर्जना और मेघ शामिल हैं । वर्षाका प्रभाव भी निमितोंके अनुसार ही ज्ञात किया जाता है । पञ्चनिमित्तक मेघगर्भ से एक द्रोण जलकी वर्षा, चतुर्निमित्तकसे बारह आढ़क जलकी वर्षा, त्रिनिमित्तक ८ आढक जलकी वर्षा, द्विनिमित्तकसे ६ आढक और एक निमित्तकसे Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ द्वादशोऽध्यायः ३ आढक जलकी वर्षा होती है। यदि गर्भकालमें अधिक जलकी वर्षा हो जाय तो प्रसवकालके अनगार ही जलकी वर्षा होती है । मेघविजयमणिने मेघगर्भ का विचार करते हुए लिखा है कि मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदाके उपरान्त जब चन्द्रमा पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र पर स्थित हो, उसी समय गर्भके लक्षण अवगत करने चाहिए। जिस नक्षत्र में मेघ गर्भ धारण करते हैं, उससे १९५ वें दिन जब वही नक्षत्र आता है तो जलकी वर्षा होती है। मार्गशीर्ष शुक्लपक्षका गर्भ तथा पौष कृष्णपक्षका गर्भ अत्यल्प वर्षा करनेवाला होता है । माघ शुक्लपक्षका गर्भ श्रावण कृष्णमें, और माघ कृष्ण का गर्भ भाद्रपद शुक्ल में जल की वर्षा करता है, फाल्गुन शुक्लका गर्भ भाद्रपद कृष्णमें, फाल्गुन कृष्णके आश्विन शुक्लमें, चैत्र शुक्लका गर्भ आश्विन कृष्णमें, चैत्र कृष्णका गर्भ कार्त्तिक शुक्लमें जलकी वर्षा करता है । सन्ध्या समय पूर्वमें आकाश मेघाच्छादित हो और ये मेघ पर्वत या हाथी के समान हों तथा अनेक प्रकारके श्वेत हाथियोंके समान दिखलाई पड़ें तो पाँच या सात रातमें अच्छी वर्षा होती है। सन्ध्या समय उत्तरमें आकाश मेघाच्छादित हो और मेघ पर्वत या हाथीके समान मालूम पड़े तो तीन दिनमें उत्तम वर्षा होती है। सन्ध्या समय पश्चिम दिशामें श्याम रंजके मेघ आच्छादित हों तो सूर्यास्तकालमें ही जलकी उत्तम वर्षा होती है। दक्षिण और आग्नेय दिशाके मेघ, जिन्होंने पौष में गर्भ धारण किया है वे अल्पवर्षा करते हैं। श्रावण मासमें ऐसे मेघों द्वारा श्रेष्ठ वर्षा होनेकी सम्भावना रहती है। आग्ने दिशामें अनेक प्रकारके आकार वाले मेघ स्थित हों तो इति, सन्तापके साथ सामान्य वर्षा करते हैं । वायव्य और ईशान दिशाके बादल शीघ्र ही जल बरसाते हैं। जिन मेघों ने किसी भी महीनेकी चतुर्थी, पञ्चमी, षष्ठी और सप्तमीको गर्भ धारण किया है, वे मेघ शीघ्र ही जलकी वर्षा करते हैं । मार्गशीर्ष कृष्ण पक्षमें मघा नक्षत्रमें मेघ गर्भ धारण करे अथवा मार्गशीर्ष कृष्णा चतुर्दशीको मेघ और बिजली दिखलाई पड़े तो आषाढ़ शुक्लपक्षमें अवश्य ही जलकी वर्षा होती है। मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्थी, पंचमी और षष्ठी इन तिथियोंमें आश्लेषा, मघा और पूर्वाफाल्गुनी ये नक्षत्र हों और इन्हींमें गर्भधारणकी क्रिया हुई हो तो आषाढ़ में केवल Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ર૬૬ तीन दिनों तक ही उत्तम वर्षा होती है। यदि मार्गशीर्षमें उत्तरा, हस्त और चित्रा ये नक्षत्र सप्तमी तिथिको पड़ते हों और इसी तिथिको मेघ गर्भ धारण करें तो आषाढ़में केवल बिजली चमकती है और मेघोंकी गर्जना होती है। अन्तिम दिनोंमें तीन दिन वर्षा होती है। आषाढ़ शुक्ला अष्टमीको स्वाति नक्षत्र पड़े तो इस दिन महावृष्टि होनेका योग रहता है। मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी, एकादशी और द्वादशी और अमावश्याको चित्रा, स्वाति, विशाखा नक्षत्र हों और इन तिथियोंमें मेघों ने गर्भधारण किया हो तो आषाढ़ी पूर्णिमाको घनघोर वर्षा होती है। जब गर्भका प्रसवकाल आता है, उस समय पूर्वमें बादल धूमिल, सूर्यास्तमें श्याम और मध्याह्नमें विशेष गर्मी रहती है। यह रक्षण प्र ल का । अण, भाद्रपद और आश्विनका गर्भ सात दिन या नौ दिनमें ही बरस जाता है। इन महीनोंका गर्भ अधिक वर्षा करनेवाला होता है। दक्षिणकी प्रबल हवाके साथ पश्चिमकी वायु भी साथ ही चले तो शीघ्र ही वर्षा होती है। यदि पूर्व पवन चले और सब दिशा धूम्रवर्ण हो जाये तो चार प्रहरके भीतर मेघ बरसता है। यदि उदयकालमें सूर्य पिघलाये गये स्वर्णके समान या वैडूर्य मणिके समान उज्ज्वल हो तो शीघ्र ही वर्षा करता है। गर्भकालमें साधारणत: आकाशमें बादलों का छाया रहना शुभ माना गया है। उल्कापात, विद्युत्पातद, धूलि, वर्षा, भूकम्प, दिग्दाह, गर्धवनगर, निर्यात शब्द आदिका होना मेघगर्भ कालमें अशुभ माना गया है। पंचनक्षत्र–पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, रोहिणी, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदामें धारण किया गया गर्भ सभी ऋतु वर्षाका कारण होता है। शतभिषा, आश्लेषा, आर्द्रा, स्वाति, मघा इन नक्षत्रोंमें धारण किया गया गर्भ भी अधिक शुभ होता है। अच्छी वर्षाके साथ सुभिक्ष, शान्ति, व्यापार में लाभ और जनतामें सन्तोष रहता है। पूर्वाषाढ़ा नक्षत्रका गर्भ पशुओंके लिए लाभदायक होता है। इस गर्भका निमित्त नर और मादा पशुओंकी उन्नतिका कारण होता है । पशुओंके रोग-शोभादि नष्ट हो जाते हैं और उन्हें अनेक प्रकारसे लोग अपने कार्यों में लाते हैं। पशुओंकी कीमत भी बढ़ जाती है। देशमें कृषिका विकास पूर्णरूपसे होता है तथा कृषिके सम्बन्धमें नये-नये अन्वेषण होते हैं। पूर्वाषाढ़ामें गर्भधारण चार्तुमासमें उत्तम वर्षा होती है और माघके महीनेमें भी वर्षा होती है, जिससे फसलकी उत्पत्ति अच्छी होती है। पूर्वाषाढ़ाका गर्भ देशके निवासियोंके आर्थिक विकासका भी कारण बनता है! यदि इस नक्षत्रके मध्य में गर्भ धारणका कार्य होता है, तो प्रशासकके लिए हानि होती है तथा राजनैतिक दृष्टिसे उक्त प्रदेशका सम्मान गिर जाता है। उत्तराषाढ़ामें गर्भधारणकी क्रिया होती है तो भाद्रपदके महीनेमें अल्प वर्षा होती है, अवशेष Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ द्वादशोऽध्यायः महीनों में खूब वर्षा होती है। कलाकार और शिल्पियोंके लिए उक्त प्रकारका गर्भ अच्छा होता है। देशमें कला-कौशलकी भी वृद्धि होती है। यदि उक्त नक्षत्रमें सन्ध्या समय गाई कारगकी प्रिया होतो व्यापारियों के लिए अशुभ होता है। वर्षा प्रचुर परिमाणमें होती है। विद्युत्पात अधिक होता है, तथा देशके किसी बड़े नेताकी मृत्यु होती है। उत्तराषाढ़ाके प्रथम चरणमें गर्भ धारणकी क्रिया हो तो साधारण वर्षा आश्विनमासमें होती है द्वितीय चरण में गर्भ धारण की क्रिया हो तो भाद्रपद मास में अल्प वर्षा होती है। और यदि तृतीया चरणमें गर्भधारण की क्रिया हो तो पशुओंको कष्ट होता है। अतिवृष्टिके कारण बाढ़ अधिक आती है तथा समस्त बड़ी नदियाँ जलसे आप्लावित हो जाती हैं। दिग्दाह और भूकम्प होने का योग भी आश्विन और माघमासमें रहता है। कृषिके लिए उक्त प्रकारकी जलवृष्टि हानिकारक ही होती है। उत्तराषाढ़ाके चतुर्थचरणमें गर्भधारण होनेपर उत्तम वर्षा होती है और फसलके लिए यह वर्षा अमृतके समान गुणकारी सिद्ध होती है। पूर्वा भाद्रपदमें गर्भ धारण हो तो चातुर्मासके अलावा पौषमें भी वर्षा होती है और फसलमें अनेक प्रकारकेरोग उत्पन्न होते हैं, जिससे फसलकी क्षति होती है। यदि इस नक्षत्रके प्रथम चरण में गर्भ धारणकी क्रिया मार्गशीर्ष कृष्णपक्षमें हो तो गर्भधारणके १९३ दिन बाद उत्तम वर्षा होती है और आषाढ़के महीनेमें आठ दिन वर्षा होती है। प्रथम चरणकी आरम्भवाली तीन घटियोंमें गर्भ धारण हो तो पाँच आढक जल आषाढ़में, सात आढक श्रावणमें, छ: आढक भाद्रपद और चार आढक आषाढ़ तथा आश्विनमें बरसता है। गर्भ धारणके दिनसे ठीक १९३वें दिन में निश्चयत जल बरस जाता है। यदि द्वितीय चरणमें गर्भ धारणकी क्रिया मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष हो तो १९२ दिनके पश्चात् या १९२वें दिनमें ही जलकी वर्षा होती है। आषाढ़ कृष्णपक्षमें उत्तम जल बरसता है, शुक्लपक्षमें केवल दो दिन अच्छी वर्षा और तीन दिन साधारण वर्षा होती है। द्वितीय चरणका गर्भ चार सौ कोशकी दूरीमें जल बरसाता है। यदि इसी नक्षत्रके इसी श्रावणमासमें पानी बरसना आरम्भ होता है, भाद्रपद में भी अल्प ही वर्षा होती है। चरणमें मार्गशीर्ष शुक्लपक्षमें गर्भ धारण किया हो तो आषाढमें प्राय: वर्षा का अभाव रहता है। यद्यपि उक्त नक्षत्रके उक्त चरणमें गर्भधारण करनेका फल वर्षमें एक खारी जल बरसता है; किन्तु यह जल इस प्रकार बरसता है, जिससे इसका सदुपयोग पूर्णरूपसे नहीं हो पाता। यदि पूर्वाभाद्रपदके तृतीय चरणमें मेघ मार्गशीर्ष कृष्णपक्षमें गर्भधारण करें तो १९०वें दिन वर्षा होती है। वर्षाका आरम्भ आषाढ़ कृष्ण सप्तमीसे हो जाता है तथा आषाढ़में ग्यारह दिनों Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २६८ तक वर्षा होती रहती है। श्रावणमें कुल आठ दिन, भाद्रपदमें चौदह दिन और आश्विनमें नौ दिन वर्षा होती है। कार्तिक मासमें कृष्णपक्षकी त्रयोदशीसे शुक्लपक्षकी पञ्चमी तक वर्षा होती है। इस चरणका गर्भधारण फसलके लिए भी उत्तम होता है तथा सभी प्रकारके धान्योंकी उत्पत्ति उत्तम होती है। अब नक्षत्रके चतुर्थ चरणमें गर्भ धारणकी क्रिया हो तो १९६वें दिन घोर वर्षा होती है। सुभिक्ष, शान्ति और देशके आर्थिक विकासके लिए उक्त गर्भ धारणका योग उत्तम है। वर्ष में कुल ४ दिन वर्षा होती है। आषाढ़में १६, श्रावणमें १९, भाद्रपदमें १४ आश्विनमें १९, कार्तिकमें १०, मार्गशीर्षमें ३ और माघमें ३ दिन पानी बरसता है। अन्नका भाव सस्ता रहता है। गुड़, चीनी, घी, तेल, तिलहनका भाव कुछ तेज रहता है। उत्तराभाद्रपदके प्रथम चरणमें मार्गशीर्ष शुक्लपक्षमें गर्भधारण हो तो गर्भधारणके १८८वें दिन वर्षा होती है। वर्षाका आरम्भ आषाढ़ शुक्ल तृतीयासे होता है। वर्षमें ७३ दिन वर्षा होती है। आषाढ़में ६ दिन, श्रावणमें १८ दिन, भाद्रपदमें १८ दिन, आश्विनमें १४, कार्तिक १०, मागशीषम ५ और पौषमें २ दिन वर्षा होती है। द्वितीय चरणमें गर्भधारण होने पर १८५वें दिन वर्षा आरम्भ होती है तथा वर्षमें कुल ६६ दिन जल बरसता है। तृतीय चरणमें गर्भधारण होने पर १८३वें दिन ही जलकी वर्षा होने लगती है। यदि इसी नक्षत्रमें आषाढ़ या श्रावणमें मेघ गर्भ धारण करे तो वें दिन ही वर्षा होती है। चतुर्थचरणमें गर्भधारण करने पर १७८वें दिन वर्षा आरम्भ हो जाती है तथा फसलभी अच्छी होती है। ज्येष्ठमें उक्त नक्षत्रके उक्त चरणमें गर्भधारण हो तो ११वें दिन वर्षा, आषाढ़में गर्भधारण हो तो वें दिन वर्षा, और श्रावणमें गर्भधारण हो तो तीसरे दिन वर्षा आरम्भ होती है। रोहिणी नक्षत्रमें गर्भधारण होने पर अच्छी वर्षा होती है तथा वर्षमें कुल ८१ दिन जल बरसता है। आषाढ़में १२ दिन, श्रावणमें १६; भाद्रपदमें १८, आश्विनमें १४, कार्तिकमें ५, मार्गशीर्षमें ७, पौषमें ३ और माघमें ६ दिन पानी बरसता है। फसल उत्तम होती है। गेहूँकी उत्पत्ति विशेषरूपसे होती है। इति श्री श्रुत केवली दिगम्बराचार्य श्रीभद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिता का विशेष वर्णन करने वाला गर्भ व वायुओं के लक्षण फल आदिको कहने वाला बारहवां अध्याय का हिन्दी भाषानुवाद करने वाली क्षेमोदय टीका समाप्तः। (इति द्वादशोऽध्यायः समाप्तः) Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशोऽध्यायः राजयात्रा का लक्षण व फल संचातः लगतामानि यात्रां मुख्यां जयावहाम्। निर्ग्रन्थदर्शनं तथ्यं पार्थिवानां जयैषिणाम्॥१॥ (अथात:) अब मैं (निर्ग्रन्थदर्शनं) निर्ग्रन्थ आचार्योंके द्वारा कहा हुआ (तथ्यं) निमित्तज्ञान रूप तथ्य है उसको (मुख्या) मुखरूप से (पार्थिवानां) राजाओं की (यात्रा) यात्रा को (जयावहाम्) जय देने वाली है उसको (सम्प्रवक्ष्यामि) अच्छी तरह से कहूँगा, (जयैषिणाम्) जो सुख देने वाली है। भावार्थ-अब मैं राजाओं की विजय यात्रा के लिये जो निर्ग्रन्थ आचार्यों ने निमित्तज्ञान रूप तथ्य को कहा है उसको अच्छी तरह से कहूँगा। जो प्रतिक्षण राजाओं की विजययात्रा में शुभाशुभ का ज्ञान करायगी।। १! अस्तिकाय विनीताय श्रद्दधानायधीमते। - कृतज्ञाय सुभक्ताय यात्रा सिद्धयति श्रीमते॥२॥ जो राजा (धीमते) धीमान है, (श्रीमते) श्रीमान है (आस्तिकाय) आस्तिक है, (विनीताय) विनीत है (श्रद्दधानाय) श्रद्धावान है (कृतज्ञाय) कृतज्ञ है (सुभक्ताय) अच्छा भक्त है उसकी (यात्रा) यात्रा (सिद्धयति) सिद्ध होती है। भावार्थ-जो राजा अच्छी बुद्धिवाला है लक्ष्मी सम्पन्न है, जिनेन्द्र कथित वाणीके ऊपर आस्था रखने वाला हो, अपने से बड़ो जन में विनयवान हो। देवशास्त्र गुरु पर अटल श्रद्धा रखने वाला हो, किये हुऐ उपकार को न भुलने वाला हो, जिनशासन का परम भक्त हो उस ही की यात्रा सिद्धि देने वाली होती है राजा में इतने गुण होने चाहिये, धर्मात्मा, गुणवान राजा को कभी कष्ट नहीं आते हर समय उसका धर्म रक्षा करता है॥२॥ अहं कृतं नृपं क्रूरं नास्तिकं पिशुनं शिशुम्। कृतघ्नं चपलं भीरु श्रीर्जहात्य बुधं शठम्॥३॥ (अहं कृत) अहंकारी, (कूर) क्रूर (नास्तिक) नास्तिक (पिशुन) चुगलखोर, Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २७० (शिशुम्) बालक (कृतघ्नं) कृतघ्न (चपलं) चंचल, (भीरूं) भयवान, (शठम्) शठ (श्रीर्जहात्य) राजाकी लक्ष्मी नष्ट हो जाती है (बुध) ऐसा बुद्धिमान् जानो। भावार्थ-यदि राजा अहंकारी हो, क्रूर हो याने दया से रहित हो। नास्तिक है, माने धर्म से रहित हो, चुगलखोर हो बालक हो, किये हुऐ उपकार भुलाने वाला हो, अत्यन्त चंचल बुद्धिवाला हो, भयवान हो धूर्त हो तो उसकी लक्ष्मी शीघ्र नष्ट हो जाती है।। ३। वृद्धान् साधून् समागम्य दैवज्ञांश्च विपश्चितान्। ततो यात्राविधिं कुर्यान् नृपस्तान् पूज्य बुद्धिमान्॥४॥ __ (पूज्य) पूज्य (वृद्धान्) वृद्धोंका (साधून) साधुओंका (देवज्ञांश्च) निमित्तज्ञों का (विपश्चितान समागम्य) अच्छी रह से सम्मान कर (बुद्धिमान्) बुद्धिमान (नृपस्तान) राजा को (ततोयात्राविधिं कुर्यान्) उसी तरह यात्रा करनी चाहिये। भावार्थ-बुद्धिमान राजा को प्रथम वृद्धोंका, निर्ग्रन्थ साधुओं का और ज्योतिषियों का अच्छी तरह सम्मान करके यात्रा करे ।। ४ ।। राज्ञा बहुश्रुतेनापि प्रष्टज्या ज्ञाननिश्चिताः। अहंकारं परित्यज्य तेभ्यो गृह्णीत निश्चयम्॥५॥ (राज्ञा) राजा को (बहुश्रुतेनापि) बहुश्रुतवानका (अहंकार) अहंकार (परित्यज्य) छोड़कर (ज्ञाननिश्चिता:) निमित्तज्ञ से (प्रष्टव्या) पूछकर (तेभ्यो) उसका, यात्राका (निश्चयम्) निश्चय (गृह्णीत) करना चाहिये। भावार्थ—यदि राजा अनेक शास्त्रों का जानकार भी हो तो भी अपने ज्ञान का अहंकार छोड़कर यात्रा के समय निमित्तज्ञ से पूछकर ही यात्रा करनी चाहिये ।। ५॥ ग्रहनक्षत्रतिधयो मुहूर्त करणं स्वराः। लक्षणं व्यञ्जनोत्पातं निमित्तं साधु मङ्गलम्॥६॥ (ग्रह) ग्रह (नक्षत्र) नक्षत्र, (तिथयो) तिथि (मुहूर्त) मुहूर्त (करण) करण (स्वरा:) स्वर (लक्षणं) लक्षण, (व्यञ्जनोत्पातं) व्यञ्जन, उत्पात और (साधुमङ्गलम्) साधु मंगलादि (निमित्तं) निमित्तो का यात्राके समय अवश्य ही विचार करना चाहिये। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ प्रयोदशोऽध्यायः भावार्थ-यात्राके समय अवश्य ही यात्री को इन बातों का ध्यान देना चाहिये तबही उसकी यात्रा सफलता को प्राप्त होती है, ग्रह, नक्षत्र, तिथि, मुहूर्त, करण, स्वर, लक्षण, व्यंजन, उत्पात, साधु, मंगल आदि निमित्तो को परदेश गमनार्थि अवश्य देखे।।६।। यस्माद्देवासुरे युद्धेनिमित्तं दैवतैरपि। कृतं प्रमाणं तस्मात् विविधं दैवतं मतम्॥७॥ (यस्माद्देवासुरे युद्धे) जिस प्रकार देव व असुरों के युद्ध में (दैवतैरपि) देवताओं ने भी (निमित्तं) निमित्त को (प्रमाणं) प्रमाण (कृत) किया था, (तस्मात्) इस कारण से (विविध) विविध प्रकार के (दैवतंमतम्) निमित्तोको यात्रा करने वाले को देखना चाहिये। __ भावार्थ-जब देवों का और असुरों का युद्ध हुआ था, तब देवों ने मिलकर अपनी विजय के लिये इन उपर्युक्त निमित्तों को देखा था, इसलिये राजा हो या कोई भी यात्रा के पहले उपर्युक्त निमित अवश्य देखे नहीं तो यात्रा की सिद्धि कभी नहीं हो सकती है।।७|| हस्त्यश्वरथपदातं बलं खलु चतुर्विधम् । निमित्ते तु तथा ज्ञेयं यत्र तत्र शुभाऽशुभम्॥८॥ (हस्त्य) हाथी, (अश्व) घोड़ा, (रथ) रथ (पादातं) पैदल चलने वाले (बल) इस प्रकार राजा की सेना का (खलु) निश्चिय से (चतुर्विघम्) चार भेद हैं (तथा) उसी प्रकार (निमित्तेनु) निमित्तज्ञको (यत्र तत्र शुभाऽशुभम्) जहाँ-तहाँ सेना का शुभाशुभको (ज्ञेयं) जान लेना चाहिये। भावार्थ-राजाकी सेनाके चारभेद हैं, हाथी, घोड़े, रत, पैदल और ये ही चार प्रकार की शक्ति हैं इसलिये निमित्तज्ञ को इनके ऊपर ही विचार कर शुभाशुभ जान लेना चाहिये।॥ ८॥ शनैश्वरगता एव हीयन्ते हस्तिनो यदा। अहो रात्रान्यमाक्रोधुः तत्प्रधान वधस्मृतः ॥९॥ (यदा) जब कोई राजा (शनैश्वरगता) शनिवार को यात्रा के लिये चले तो Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भदबाहु संहिता | २७२ (हस्तिनो हीयन्ते) हाथियों का घात होता है। (अहोरात्रान्यमाक्रोद्युः) और अहोरात्र उसके ऊपर यमराज क्रोधित रहता है (तत्प्रधान वधस्मृतः) और उस सेना के प्रधान का वध जानो। भावार्थ-राजा यदि शनिवार को यात्रा के लिये याने युद्ध के लिये निकले तो समझो उस राजा की सेना के हाथी मारे जाते हैं और समझो उसकी सेना के ऊपर यमराज ही कुद्ध हो गया है और सेना के प्रधान का तो अवश्य मरण होता ही है॥९॥ यावच्छायाकृतिरावैहीयन्ते वाजिनो यदा। विमनस्का विमतयः तत्प्रधान वधःस्मृतः॥१०॥ (यदा) जब (वाजिनो) घोड़े, (विमनस्का) विमनस्क होकर चले, (विमतयः) विमत होकर चले, (यावच्छायाकृतिरावैः) और उनकी इच्छा, आकृति आदि भी विचित्र (हीयन्ते) दिखे तो (तत्प्रधान) उस सेना के प्रधान का (वधः स्मृतः) वध होगा ऐसा स्मरण रखना चाहिये। भावार्थ-जिस राजा की सेना के घोड़े, विमनस्क होकर चले, जिनकी छाया, आकृति आदि भी सब अस्त-व्यस्त हो तो समझो उस सेना के प्रधान का वध होता है॥१०॥ मेघशंखस्वराभास्तु हेमरत्नविभूषिताः। छायाहीनाः प्रकुर्वन्तिः तत्प्रधानवधस्तथा ॥११॥ ___ यदि सेना के घोड़े, (हेमरत्नविभूषिताः) सोने रत्न के विभूषण सहित होकर (मेघशंखस्वराभास्तु) मेघ की ध्वनि, शंख ध्वनि, करते हुऐ और (छायाहीनाः प्रकुर्वन्तिः) छाया को हीन करते हैं तो (तत्प्रधानवधस्तथा) सेना के प्रधान का मरण होगा। भावार्थ-यदि राजा की सेना के घोड़े रत्न आभूषणों से सहित होकर मेघ के समान शब्द करे व शंख की ध्वनि करे और छाया भी हीन दिखे तो समझो सेना के प्रधान का मरण होगा।। ११ ।। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशोऽध्याय: शौर्यशस्वबलोपेता विख्याताश्च पदातयः।। परस्परेण भियन्ते तत्प्रधानवधस्तदा ।। १२ ।। यदि राजा के (पदातयः) पदाती, (शौर्यशस्त्रबलोपेता) शौर्य, शस्त्रसे शक्तिमान हो (विख्याताश्च) विख्यात रूप से (परस्परेण भिद्यन्ते) आपस में ही लड़ जाते हैं तो (तत्प्रधानवधस्तदा) उस सेना के प्रधान का मरण होता है। भावार्थ-यदि राजा की सेना बल, वीर्य, शस्त्र से युक्त होकर परस्पर ही लड़ने लगे तो समझो सेना के सेनापति का वध होगा ।। १२ ।। निमित्ते लक्षयेदेतां चतुरङ्गां तु वाहिनीम्। नैमित्तः स्थपतिवैधः पुरोधाश्च ततोविदुः ॥१३॥ (चतुरङ्गां तु वाहिनीम्) चतुरंग सेना के गमन समय (निमित्ते) निमित्तों का (लक्षयेदेतां) लक्ष्य देना चाहिये, (नैमित्तः) नैमित्तक (स्थपतिर्वैद्य) राजा वैद्य (पुरोधाश्च) पुरोहित (ततो विदुः) को जाना चाहिये। भावार्थ, राजा की चतुरंग सेना प्रयाण के समय निमित्तों के प्रति लक्ष्य देना चाहिये, और वो नैमित्तिक, राजा, वैद्य और पुरोहित इन चारों के लक्षणों को जानकर अवगत करे।। १३ ।। चतुर्विधोऽयं विष्कम्भस्तस्य बिम्बाः प्रकीर्तिताः। स्निग्धो जीमूतसङ्काशः सुस्वप्नः सापविच्छुभः ।। १४॥ (चतुर्विधोऽयं विष्कम्भः) चार प्रकार विष्कंभ है (तस्य बिम्बाः प्रकीर्तिताः) उसको ही बिम्ब कहा हैं इसके (स्निग्ध) स्निग्ध, (जीमूत सङ्काश:) बादलो का स्निग्ध, (सुस्वप्नः) सुस्वप्न और (सापविच्छुभ) धनुषज्ञ भेद है। भावार्थ-चार प्रकार के विष्कंभ को बिम्ब कहते है, चार प्रकार के विष्कम्भ कौन-कौन से हैं, तो कहा है-नैमित्त, राज्ञा, वैद्य और पुरोहित है इनके बिम्ब स्निग्ध बादलों का निकटतम, सुस्वप्न और धनुषज्ञ हैं ऐसा कहा है।। १४ ।। नैमित्तः साधुसम्पन्नो राज्ञः कार्यहिताय सः। सङ्घाता पार्थिवेनोक्ताः समानस्थाप्यकोविदः ॥१५॥ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २७४ (नैमित्तः) नैमित्तज्ञ (साधुसम्पन्नों) साधु स्वभाव वाला हो (राज्ञ: कार्यहिताय स:) व राजा का हित करने वाला हो (पार्थिवेनोक्ताः) राजा के अनुसार चलने वाला और कहा करने में (सङ्घाता) संलग्न (समानस्थाप्यकोविदः) और समान भाव स्थापित करने वाला निमित्तज्ञ होता है। भावार्थ-निमित्तज्ञ के लक्षण बताते हुऐ आचार्य कहते हैं कि निमित्तज्ञ बहुत ही सरल स्वभाव का हो, प्रतिक्षण राजा के कार्य में संलग्न और हित का ही विचार करने वाला हो और समताभाव धारण करने वाला हो इन लक्षणों से युक्त ही निमित्तज्ञ होता है, अगर ये लक्षण ज्योतिषि में नहीं है तो वह निमित्तज्ञ नहीं बने, उसे ज्ञानी बनने का अधिकार नहीं।। १५ ।। स्कन्धावारनिवेशेषु कुशल: स्थापको मतः। कायशल्यशलाकासु विषोन्मादज्वरेषु च ।। १६॥ (स्कन्धावारनिवेशेषु) छावनी आदि बनाने में (कुशल:) निपुण राजा को (मत:) माना है और (कायशल्य) शरीर चिकित्सा (शलाकासु) चीरफाड़ करने में निपुण (विषोन्माद) विषहर चिकित्सा, (उन्माद च ज्वरेषु) ज्वरादि को नष्ट करने में समर्थ वैद्य होता है। भावार्थ-निमित्तज्ञ राजा छावनी आदि बनाने में निपुण होता है। शरीर चिकित्सा, शल्यचिकित्सा में प्रवीण होता है विषहर प्रयोग करने में निपुण होता है, उन्माद नष्ट हर प्रयोग में निपुण ज्वरादिक को नष्ट करने में निपुण होता है, वही राजवैद्य हो सकता है॥१६॥ चिकित्सानिपुणः कार्यः राज्ञा वैद्यस्तु यात्रिकः । ज्ञानवानल्प वाग्धीमान् कांक्षामुक्तो यशः प्रियः ॥१७॥ (चिकित्सानिपुणः) जो चिकित्सा शास्त्र निपुण, (राज्ञा कार्यः) राजा का कार्य करने में दक्ष, ऐसा (वैद्यस्तु) वैद्य को ही (यात्रिक:) यात्राकाल में राजा रखे। (ज्ञानवानल्प) ज्ञानवान अल्प भाषण करने वाला (वाम्धीमान्) मितभाषी, बुद्धिमान, (कांक्षामुक्तो) आकांक्षाओं से रहित (यशः प्रियः) यश: प्रिय हो। भावार्थ-जो चिकित्साशास्त्र निपुण हो राजा के कार्य करने में निपुण हो Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५ त्रयोदशोऽध्यायः ऐसे वैद्य को ही राजा रखे, ज्ञानवान हो अल्पभाषण करने वाला हो, मतिमान हो, मितभाषी हो। अनेक प्रकार की आकांक्षाओं से रहित हो, यश की कामना करने वाला है।। १७॥ मानोन्मानप्रभायुक्तो पुरोधा गुणवाच्छितः। स्निग्धो गम्भीरघोषश्च सुमनाश्चाशुमान् बुधः॥१८॥ छायालक्षणपुष्टश्च सर्वणः पुष्टकः सुवाक् । सबल: पुरुषो विद्वान् क्रोधश्च यतिः शुचिः ।। १९ ।। हिंस्रो त्रिवर्णः पिङ्गो वा नीरोमा छिद्रवर्जितः। रक्तश्मश्रुः पिङ्गनेत्रो गौरस्तान: पुरोहितः॥२०॥ (मानोन्मानप्रभायुक्तो) समान कद वाला, (पुरोधागुणवाच्छित:) गुणोका वांछक (स्निग्धो) स्निग्ध और (गम्भीर) गम्भीर, (घोषश्च) स्वरवाला (सुमनाश्चा शुमान् बुध:) श्रेष्ठचित वाला और बुद्धिमान हो, (छायालक्षणपुष्टश्च) छायालक्षण से युक्त, पुष्ट शरीरवाला (सर्वणः) सुन्दर वर्ण वाला, (पुष्टक:) सुन्दर आकृति व (सुवाक्) सुन्दर भाषण वाला हो, (सबल:) बलवान हो (विद्वान्) विद्वान हो (क्रोधश्चयतिः शुचिः) अक्रोधी हो (हिंम्रो) शान्तचित हो (त्रिवर्ण:) द्विज हो (पिङ्गो वा) पिङ्गवर्ण वाला हो, (नीरोमा) लोभ रहित हो (छिद्रवर्जित:) चेचक के दाग से रहित हो, (रक्तश्मशुः) लाल मूंछ वाला हो (पिङ्गनेत्रो) पिङ्ग आँखें वाला हो (गौरस्तान:) गौर वर्ण, ताम्र-कांचनदेव वाला (पुरुषो) पुरुष ही (पुरोहित:) पुरोहित होता है। भावार्थ—समान पद वाला, गुणों का वांछक श्रेष्ठचित वाला बुद्धिमान, छाया लक्षणो से युक्त याने शरीर लक्षणों से सहित हो, पुष्ट शरीर वाला, सुन्दर वर्ण वाला, सुन्दर आकृति वाला मितभाषी है, बलवान्, विद्वान्, क्रोध से रहित, हिंसाभाव से रहित द्विज पिङ्गवर्ण वाला लोभ रहित, चेचक के दाग से रहित लाल मूंछ वाला पिङ्ग आँखें वाला, गौर वर्ण और कांचन देह वाला पुरुष ही पुरोहित होता है। यहाँ पर आचार्यश्री ने राजा, वैद्य, ज्योतिषि और पुरोहित के लक्षण उपर्युक्त श्लोकों के अन्दर कहा है, इन चारों के आधार पर ही देश निर्भर रहता हैं, इसलिये बड़ी ही कुशलता से ऐसे पदवीधारियों का चुनाव करना चाहिये, अयोग्य व्यक्ति Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता को कभी भी उपर्युक्त पदवीयों का कार्य न सौपे, नहीं तो राज्य व प्रजा दोनों ही नष्ट हो जायगें ।। १८-१९-२० ॥ सदाहितः । योजयेत् ॥ २१ ॥ नित्योद्विनो नृपहिते युक्तः प्राज्ञः एवमेतान् यथोद्दिष्टान् सत्कर्मेषु च (नित्योद्विग्नो) नित्य ही उद्विग्न (नृपहिते युक्त:) राज के हित में युक्त ( प्राज्ञः ) बुद्धिमान (सदाहितः) सदा ही राजा का हित करने वाला ( एवमेतान् ) उपर्युक्त गुण ( यथोद्दिष्टान् ) जो कहे गये है ऐसे पुरोहित को ही (सत्कर्मेषु च योजयेत् ) सत्कार्यों में योजना करना चाहिये । २७६ भावार्थ- - राजा के कार्य का नित्य ही सद् विचार करने वाला, राजा के उद्विग्नचित्त को समाहित करने वाला, बुद्धिमान, पुरोहित को ही राजकार्य में राजा को नियुक्त करना चाहिये ।। २१ ।। न सिद्धयन्ति कदाचन । इतरेतरयोगेन अशान्तौ शान्तकारो यो शान्तिपुष्टिशरीरिणाम् ॥ २२ ॥ ( इतरेतरयोगेन) गुण से रहित व्यक्तियों को अगर राजा पुरोहितादि बनाया जाय तो ( न सिद्धयन्ति कदाचन) कभी-भी कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती है पुरोहितादि तो वही हो ( अशान्तौ शान्तकारी यो ) जो अशान्त को भी शान्त कर दे और (शान्तिपुष्टि शरीरिणाम्) जीवों को शान्ति पुष्टि देने वाला हो । भावार्थ — उपर्युक्त गुणों से रहित राजा, पुरोहित, वैद्य, ज्योतिषि कभी नही होना चाहिये, अगर अयोग्य व्यक्ति इन पदभार को सम्भाले तो राजा के यात्रा सम्बन्धी कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता, राजादिक तो गुणवान हो जो अशान्त को शान्त कर दे व प्रजाजनों को शान्ति पुष्टि का कारण बने ॥ २२॥ देवतैरपि । मतम् ॥ २३ ॥ 'यद्देवासुरयुद्धे च निमित्तं कृतप्रमाणं च तस्माद्धि द्विविधं दैवतं ( यद्देवाऽसुरयुद्धे च ) देव और असुरों के युद्ध में (दैवतैरपि ) देवताओं ने भी ( निमित्तं) निमित्तों को (प्रमाणकृत) प्रमाण किया था, (तस्माद्धि) इसलिये वो (दैवतं ) निमित्त ( द्विविधं मतम् ) दो प्रकार के माने गये हैं । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ त्रयोदशोऽध्यायः भावार्थ — जब देवता और असुरों का युद्ध हुआ था तब देवताओं ने इन निमित्ततों को प्रमाणिक माना था इसलिये वे निमित्त दो प्रकार के कहे गये है ।। २३ ॥ ज्ञानविज्ञानयुक्तोऽपि लक्षणैर्येविवर्जितः । न कार्यसाधको ज्ञेयो यथा चक्रो रथस्तथा ॥ २४ ॥ पुरोहितादि (ज्ञानविज्ञानयुक्तोऽपि ) ज्ञानविज्ञान से युक्त होने पर भी (लक्षणैयविवर्जित) उपर्युक्त लक्षणों से अगर रहित है ( कार्यसाधको न ज्ञेयो) वह कार्य सिद्धि करने वाला नहीं हो सकता ऐसा जानना चाहिये, (यथा ) जैसे (चक्रो रथस्तथा) पहिये के बिना रथ । भावार्थ — पुरोहितादि अगर ज्ञानविज्ञान से युक्त होने पर भी उपर्युक्त लक्षण से रहित है तो वह राजकार्य कभी भी सिद्धि नहीं कर सकता जैसे— पहिये के बिना रथ नहीं चल सकता ।। २४ ।। लक्षणसम्पन्नो यस्तु ज्ञानने च समायुतः । स कार्यसाधनो ज्ञेयो यथा सर्वाङ्गिको रथः ॥ २५ ॥ (यस्तु लक्षणसम्पन्नो) उपर्युक्त लक्षणों से युक्त (च) और (ज्ञानेन समायुक्तः ) ज्ञान से युक्त (स कार्यसाधनो ज्ञेयो ) वो ही पुरोहितादि कार्य सिद्धि कर सकता है ऐसा जानना चाहिये, (यथासर्वाङ्गिको रथ: ) जैसे सर्व आंगोपान से युक्त रथ । भावार्थ — उपर्युक्त लक्षणों से युक्त पुरोहितादि राजाके कार्य को सिद्धि प्राप्त करा सकता है, ज्ञानी ही पुरोहितादि सभी सिद्धि का साधन है जैसे सम्पूर्ण सांगोपांग से सहित रथ ॥ २५ ॥ अल्पेनापि तु ज्ञानेन कर्मज्ञो लक्षणान्वितः । तद् विन्द्यात् सर्वमतिमान् राजकर्मसुसिद्धये ॥ २६ ॥ (अल्पनापि तु ज्ञानेन ) थोड़ा ज्ञानी होने पर भी (कर्मज्ञो) कर्मठ (लक्षणान्वितः ) और उपर्युक्त लक्षणों से युक्त हो (तु) तो (तद् विन्द्यात्) ऐसा जानो ( सर्वमतिमान् ) वह सर्वमतिमान है और ( राजकर्मसु सिद्धये) वही राजकार्य की सिद्धि कर सकता है। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २७८ भावार्थ-जो पुरोहितादि अल्पज्ञानी होने पर भी उपर्युक्त लक्षणों से यदि सम्पन्न हो तो वही बुद्धिमान है और वही सभी राजकार्य की सिद्धि में कारण बन जाता हैं इसलिये ऐसे ही व्यक्ति को नियुक्त करे ।। २६॥ अपि लक्षणवान् मुख्यः कञ्चिदर्थ प्रसाधयेत्। __ न च पक्षण दिगस्तु गिजामपि न झाल्येत्॥२७।। थोड़ा ज्ञानी होने पर (अपि) भी (लक्षणवान् मुख्यः) उपर्युक्त लक्षण उसमें हो तो (कञ्चिदर्थं प्रसाधयेत्) कार्य को सिद्धि करने वाला होता है (च) और (लक्षण हीनस्तु न) लक्षणों से रहित है तो (विद्वानपि न साधयेत्) विद्वान होने पर भी कार्य की सिद्धि नहीं कराता है। भावार्थ-लक्षणों से सहित थोड़ा ज्ञानी भी सभी कार्य सिद्ध करा सकता है, विशेष विद्वान् भी हो और उपर्युक्त लक्षणों से रहित हो तो कार्य को नष्ट कर देता है कार्य सिद्धि नहीं करा सकता है।। २७।।। यथान्धः पथिको भ्रष्टः पथिक्लिश्यत्यनायकः। अनैमित्तस्तथा राजा नष्टे श्रेयसि क्लिश्यति॥२८॥ (यथान्धः) जैसे अन्धा (पथिको) पथिक (नायकः) नायक के बिना (पथि भ्रष्ट:) पथ भ्रष्ट होकर (क्लिश्यत्य) क्लेश उठाता है (तथा) उसी प्रकार (अनैमित्तः) निमित्त ज्ञानी के बिना (राजा नष्टे) राजा का कार्य नष्ट हो जाता है। __ भावार्थ-जैसे नायक के बिना अन्धा पथभ्रष्ट हो जाता है. उसी प्रकार निमित्त ज्ञानी के बिना राजाका कार्य नष्ट हो जाता है॥२८॥ यथा तमसि चक्षुष्मान रूपं साधु पश्यति। अनैमित्तस्तथा राजा न श्रेयः साधु यास्यति॥२९॥ (यथा) जिस प्रकार (तमसि) अन्धेरे में (चक्षुष्मान्) आँखों वाला भी (रूपं न पश्यति) रूप को नहीं देख सकता है (तथा) उसी प्रकार (अनैमित्तः) अनैमित्तक के बिना (साधु) राजा (श्रेयः) श्रेय (यास्यति) प्राप्त (न) नहीं कर सकता है। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशोऽध्यायः भावार्थ-जिस प्रकार अन्धेरे में आँखों वाला होने पर भी रूप को व्यक्ति नहीं देख सकता है उसी प्रकार निमित्त ज्ञानी के बिना राजा कभी-भी कार्य सिद्ध नहीं कर सकता है।। २९ ।। यथा वक्रो रथो गन्ता चित्रं यति यथा च्युतम्। अनैमित्तस्तथा राजा न साधुफलमीहते॥३०॥ (यथा) जैसे (वक्रो) टेड़े (यति) मार्ग में (रथो) रथ (गन्ता) जाता हुआ भी (चित्र) अच्छी तरह से नहीं जाता (च्युतम्) है मार्गच्युत हो जाता है। (तथा) उसी प्रकार (राजा) राजा (अनैमित्तः) भी नैमित्त के बिना (श्रेय:) श्रेयता को (साधु) राजा (न) नहीं (फलमीहते) प्राप्त करता है। भावार्थ—जिस प्रकार टेड़े मार्ग से चलता हुआ रथ मार्ग भ्रष्ट हो जाता है उसी प्रकार निमित्तक के बिना राजा राजकार्य से भ्रष्ट हो जाता है॥३०॥ चतुरङ्गान्वितो युद्धं कुलालो वर्तिनं यथा। अवनिष्टं न गृह्णाति वर्जितं सूत्रतन्तुना ॥३१॥ (यथा) जैसे (कुलालो) कुम्हार (सूत्र तन्तुना वर्जित) सूत्र, तन्तु से रहित होकर (वर्तिन) मिट्टी के बर्तन नहीं बना सकता है, उसी प्रकार राजा भी (चतुरङ्गान्वितो) चतुरङ्ग सेना से युक्त होने पर भी (युद्ध) युद्ध में (अवनिष्ट न गृह्णाति) निमित्तक के बिना सफलता नहीं प्राप्त कर सकता है। भावार्थ-जैसे कुम्हार दण्ड, चाक, मिट्टी आदि से सहित होने पर भी सूत्र के बिना बर्तन नहीं बना सकता उसी प्रकार राजा भी चतुरंग सेना सहित होने पर भी निमित्तक के बिना सफलता नहीं प्राप्त कर सकता है॥३१ ।। चतुरङ्गबलोपेतस्तथा राजा न शक्नुयात्। अविनष्टफलं भोक्तुं नैमित्तेन विवर्जितः ॥३२॥ (चतुरंग बलोपेतः) चतुरंग सेना से युक्त होने पर भी, (तथा) जैसे (नैमित्तेन) नैमित्तक (विवर्जित:) रहित हो तो (राजा) राजा (अविनष्टफलं भोक्तं न शक्नुयात्) युद्ध में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता है। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | २८० भावार्थ-जैसे राजा चतुरङ्ग सेना से युक्त होने पर भी निमित्त ज्ञानी के बिना युद्ध में कभी-भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता है।। ३२ ।। तस्माद्राजा निमितज्ञ अष्टाङ्गकुशलो वरम्। विभृयात् प्रथमं प्रीत्याऽभ्यर्थयेत् सर्व सिद्धये ॥३३॥ (तस्माद्राजा) इसलिये राजा को (प्रथम) पहले (प्रीत्या) प्रीति से (सर्व सिद्धये) सर्व कार्य की सिद्धि के लिये (अष्टाङ्ग निमितज्ञ) अष्टाङ्ग निमित्तों में (वरम्) श्रेष्ठ हो (कुशलो) कुशल हो उसको (अभ्यर्थयेत्) प्रार्थना पूर्वक (विभृयात्) नियुक्त करे। भावार्थ—इसलिये पहले राजा को जो अष्टांग निमित्त को जानने में कुशल है श्रेष्ठ हो ऐसे ज्ञानो को अपने राज्य में प्रार्थना पूर्वक नियुक्त करे ।। ३३ ।। आरोग्यं जीवितं लाभं सुखं मित्राणि सम्पदः । धर्मार्थकाममोक्षाय तदा यात्रा नृपस्य हि॥३४॥ (आरोग्य) निरोगता (जीवितं) जीवन, (लाभ) लाभ (सुख) सुख (मित्राणि) मित्र, (सम्पदः) सम्पदा प्राप्त करने के लिये (व) व (धर्मार्थकाममोक्षाय) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के लिये (तदा) तब (यात्रा) यात्रा (नृपस्य) राजा को (हि) यात्रा करना चाहिये। भावार्थ-राजा को, धर्म अर्थ, काम, मोक्ष के लिये व निरोगता, जीवन लाभ, सुख, मित्र, सम्पदा के लिये यात्रा करनी चाहिये॥३४॥ शय्याऽऽसनं यानयुग्मं हस्त्यश्वं स्त्रीनरं स्थितम्। वस्त्रान्तस्वप्नयोधांश्च यथास्थानं स योक्ष्यति ।। ३५॥ (शय्या) शय्या, (अऽसन) आसन, (यान) सवारी, (युग्मं) का जोड़ा, (हस्त्यश्व) हाथी, घोड़े, (स्त्री) स्त्री, (नरं) मानव, (वस्त्रान्तस्वप्नयोधांश्च) वस्त्र, योद्धादिको राजा (यथास्थानं स योक्ष्यति) यथा स्थान को प्राप्त करता है। भावार्थ-राजा यथा स्थान यात्रा से शय्या, आसन, सवारी, हाथी, घोड़े, नर-नारी का जोड़ा, वस्त्र, योद्धादि प्राप्त होते हैं, और असमय में यात्रा करने से कुछ भी प्राप्त नहीं होता और अलाभ हो जाता है॥३५ ।। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E २८१ त्रयोदशोऽध्यायः भृत्यामात्यास्त्रियः पूज्या राज्ञा स्थाप्याः सुलक्षणाः । एभिस्तु लक्षणै राजा लक्षणोऽप्यवसीदति ॥ ३६ ॥ (राजा) राजा को (भृत्य) नौकर (अमात्या) मन्त्री (स्त्रियः) स्त्रियाँ (सुलक्षणा :) जो सुलक्षण से सहित हो उनको राज्य में (स्थाप्याः ) स्थापन करना चाहिये (एभिस्तु लक्षणै राजा ) इस प्रकार के लक्षणों से युक्त राजा ही (लक्षणोऽप्यवसीदति ) अपने लक्ष्य की सिद्धि कर सकता है। भावार्थ राजा की अपने राज्य में अच्छे भृत्य, मन्त्री सुलक्षणों से सहित स्त्रियाँ आदि राज्य चलाने के लिये स्थापन करना चाहिये, ऐसा राजा ही राज्य चला सकता है ॥ ३६ ॥ तस्माद् देशे च काले च सर्वज्ञानवतां वरम् । सुमनाः पूजयेद् राजा नैमित्तं दिव्यचक्षुषम् ॥ ३७ ॥ ( तस्माद् ) इसलिये ऐसे (देशे ) देश में (च) और (काले) काल में (वरम् ) श्रेष्ठ (सर्वज्ञानवतां ) सर्व अष्टाङ्ग ज्ञान के धारी ( दिव्यचक्षुषम् ) दिव्य चक्षु से सहित (नमित्तं) निमित्तज्ञ को (सुमनाः) अच्छे भाव से (राजा) राजा को ( पूजयेद्द) पूजना चाहिये । भावार्थ -- इसलिये राजा को अच्छे भाव से श्रेष्ठ दिव्य चक्षु से सहित अष्टांग ज्ञानधारी निमित्तज्ञ की पूजा करनी चाहिये ॥ ३७ ॥ न वेदा नापि चाङ्गानि न विद्याश्च पृथक् पृथक् । प्रसाधयन्ति तानर्थान्निमित्तं यत् सुभाषितम् ॥ ३८ ॥ (यत्) जिस प्रकार (तान) उस (सुभाषितम्) अच्छे भाषण करने वाले (निमित्तं) निमितज्ञ से ( अर्थान् प्रसाधयन्ति ) अर्थ की सिद्धि होती ही वैसे ( न वेदा) न वेद से ( नापि चात्रानि) और न कोई अर्को से (न विद्याश्च पृथक् पृथक् ) न कोई अलग-अलग विद्या से सिद्धि होगी । भावार्थ — अच्छे भाषण करने वालेनिमित्तज्ञसे जो सिद्धि राजा को होगी, उस प्रकार की सिद्धि न कोई वेद ज्ञान कोई विद्या, न कोई शरीर बल से सिद्धि होगी। वेदादिक से ऐसी सिद्धि नहीं प्राप्त हो सकती है ॥ ३८ ॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीतं वर्तमानं सर्व विज्ञायते भद्रबाहु संहिता च येन तज्ज्ञानं भविष्यद्यच्च स्वर्गेण यद्वेष्टः किञ्चन । नेतरं ( अतीतं) भूतकाल, (वर्तमानं ) वर्तमान काल (च) और (भविष्यद्यच्च किञ्चन) भविष्यकाल का जो भी ज्ञान है तो सब (सर्व विजायते) ज्ञान निमित्तज्ञ से राजा को मिलता है (येन) उतना ( तज्ज्ञानं नेतरं मतम् ) ज्ञान अन्य किसी से भी नहीं । मतम् ॥ ३९ ॥ भावार्थ-भूत भविष्यत और वर्तमान का ज्ञान जितना निमित्तज्ञ से मिलता है उतना ज्ञान अन्य किसी से भी नहीं प्राप्त होता है ।। ३९ ।। स्वर्गप्रीतिफलं प्राहुः सौख्यं धर्मविदो जनाः । तस्मात् प्रीतिः सखा ज्ञेया सर्वस्य जगतः सदा ॥ ४० ॥ तादृशा स्यानिमित्तेन (धर्मविदो जनाः) धर्म को जानने वाले महापुरुषों ने (प्रीतिफलं स्वर्गप्राहुः ) प्रेम का फल स्वर्ग कहा है ( तस्मात् ) इस कारण से (सदा) सदा ( सर्वस्य ) सब ( जगतः ) जगत की (सखा) मित्र (प्रीति: ज्ञेया) प्रीति है ऐसा जानो । भावार्थ — धर्म को जानने वालों ने ज्ञानीयों ने प्रेम का फल स्वर्ग लिखा है, इसलिये इस जगत का मित्र ही प्रेम से सब कुछ साध्य कर सकते हैं ॥ ४० ॥ प्रीतिर्विषयैर्वापि सतां प्रीतिस्तु ( तादृशा ) जिस प्रकार ( मानुषैः) मनुष्यों की (प्रीति:) प्रीति (स्वर्गेण) स्वर्ग से ( वापि ) वा (विषय) विषयों से होती है उसी प्रकार ( यद्देष्टः स्यान्निमित्तेन्) कथित निमित्तज्ञ से ( सतां ) सज्जनों की (प्रीतिस्तु जायते) प्रीति होती है । भावार्थ — जिस प्रकार मानवों की प्रीति स्वर्ग और विषयों से होती है उसी प्रकार की प्रीति निमित्तों से होती हैं क्योंकि निमित्तों के द्वारा अपना शुभाशुभ जान सकते है ॥ ४१ ॥ २८२ मानुषैः । जायते ॥ ४१ ॥ तस्मात् स्वर्गास्पदं पुण्यं निमित्तं जिनभाषितम् । पावनं परमं श्रीमत् कामदं च प्रमोदकम् ॥ ४२ ॥ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ त्रयोदशोऽध्यायः ( तस्मात् ) इस कारण से (जिन भाषितम् ) जिन भाषित हो जो ( निमित्तं) निमित्त ज्ञान है, वह (पुण्यं ) पुण्यरूप ( स्वर्गास्पदं ) स्वर्ग के सुख को देने वाला (पावनं ) पावन (परमं श्रीमत् ) परम लक्ष्मी को देने वाला (काम) सर्व इच्छा की पूर्ति करने वाला (च) और (प्रमोदकम् ) प्रमोद को बढ़ाने वाला है। भावार्थ – इस कारण से जिनेन्द्र प्रभु के द्वारा कहा हुआ निमित्त ज्ञान हैं, वह पुण्यरूप सर्व इच्छाओं की पूर्ति करने वाला, स्वर्ग के सुख को देने वाला, परम पावन सर्व लक्ष्मी का धाम व प्रमोद को बढ़ाने वाला हैं ॥ ४२ ॥ निमित्तवित् । रागद्वेषौ च मोहञ्च वर्जयित्वा देवेन्द्रमपि निर्भीको यथाशास्त्रं समादिशेत् ।। ४३ ।। ( निमित्तवित्) निमित्त ज्ञानी को (रागद्वेषौ च मोहञ्च ) राग, द्वेष और मोह को (वर्जयित्वा ) छोड़कर (देवेन्द्रमपि निर्भीको) देवेन्द्रादिक से भी नहीं डरते हुए ( यथा शास्त्रं समादिशेत् ) जैसा शास्त्र में लिखा है वैसा ही निमित्त जानकर कहे। भावार्थ --- निमित्तज्ञानी को सर्वराग, द्वेष, मोह छोड़कर देवेन्द्रादिक से भी नहीं डरते हुए जैसा शास्त्र में लिखा है वैसा ही कहें। क्योंकि निमित्त ज्ञानी किसी भी परिस्थिति में भयभीत नहीं होता है यथावत् राजा को सर्व परिचित करा देता है ॥ ४३ ॥ सर्वाण्यपि निमित्तानि अनिमित्तानि सर्वशः । नैमित्ते पृच्छतो याति निमित्तानि भवन्ति च ॥ ४४ ॥ (सर्वाण्यपि निमित्तानि) सम्पूर्ण निमित्त (च) और (सर्वशः) सभी ( अनिमित्तानि) अनिमित्त (नैमित्ते ) निमित्त ज्ञानी से (पृच्छतो) पूछने पर ( निमित्तानि) निमित्त ही ( भवन्ति च ) हो जाते हैं। भावार्थ — जितने भी निमित्त या अनिमित्त है वो सब निमित्त ज्ञानी को पूछने पर निमित्त हो जो है ॥ ४४ ॥ यथान्तरिक्षात् पतितं यथा भूमौ च तिष्ठति । तथाङ्गजनिता चेतं निमित्तं फलमात्मकम् ।। ४५॥ ( यथा ) यथा ( अन्तरिक्षात् पतितं ) आकाश में दिखने वाले, (यथा भूमौ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २८४ च तिष्ठति) और भूमि पर ठहरने वाले, (तथाङ्गजनिता चेष्ठ) व शरीर से उत्पन्न होने वाले (निमित्त) निमित्त (फलमात्मकम) फलको देते हैं। भावार्थ-निमित्त तीन प्रकार के होते हैं, प्रथम आकाश में दिखाई देने वाले, दूसरे पृथ्वी पर दिखने वाले, तीसरे शरीर में उत्पन्न होने वाले, ये तीनों ही निमित्त स्वयं को या पर को फल देते हैं॥४५॥ पतेनिम्ने यथाप्यम्भो सेतुबन्धे च तिष्ठति। चेतो निम्ने तथा तत्त्वं तद्विद्यादफलात्मकम्॥ ४६॥ (यथा) जैसे (प्यम्भो) पानी (पतेन्निम्ने) नीचे की ओर गिरता जाता है किन्तु (सेतु बन्धे च तिष्ठन्ति) सेतु बांध देने पर ठहर जाता है, (तथा) उसी प्रकार (चेतो निम्न तत्त्वं) चित्त भी निम्नता की ओर ही ठहरता है (तद्विद्याद फलात्मकम्) लेकिन उसका फल निष्फल होता है। भावार्थ-जिस प्रकार पानी नियम से नीचे-नीचे की तरफ ही बहता है किन्तु वही पानी के लिये सेतु बांध दिया तो ठहर जाता है उसी प्रकार मानव का चित्त भी निम्नता की ओर ही जाता है लेकिन उसका फल कुछ भी नहीं होता॥ ४६॥ बहिरङ्गाश्च जायन्ते अन्तरङ्गाश्च चिन्तितम् । तज्ज्ञः शुभाशुभं ब्रूयानिमित्तज्ञानकोविदः ।। ४७॥ (अन्तरजाश्च चिन्तितम्) अन्तरज में चिन्ता करने पर ही (बहिरङ्गाश्च जायन्ते) बहिरङ्ग में विकार आता है (तज्ज्ञः) इसलिये उसको जानकर (निमित्तज्ञानकोविदः) निमित्त ज्ञान के जानकार को (शुभाऽशुभं ब्रूयान्) शुभाशुभ कहना चाहिये। भावार्थ-निमित्त ज्ञान के जानकार को सब प्रकार के शुभाशुभ को जानकर ही कहना चाहिये, क्योंकि अन्तरंग में जो विचार होता है वही बहिरंग में विकार रूप होकर दिखता है, और बहिरंग से ही निमित्त दिखाई पड़ते हैं॥४७॥ सुनिमित्तेन संयुक्तस्तत्परः साधुवृत्तयः । अदीनमन संकल्पो भव्यादि लक्षयेद् बुधः॥४८ ।। (सुनिमित्तेन संयुक्तः) सुनिमित्तों से संयुक्त होकर (साधु वृत्तय: तत्परः) साधु Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोदशोऽध्यायः वृत्ति वाला निमित्तज्ञ तत्पर होकर (अदीनमनसंकल्पो) दीनता का भाव छोड़ हद संकल्पपूर्वक (भव्यादि) भव्यजीवों को (बुधः) बुद्धिमान (लक्षयेद्) लक्ष्य करे। ___ भावार्थ निमित्त ज्ञानी, दृढ़ता पूर्वक निमित्तों के शुभाशुभ का निरूपण करे, क्योंकि साधु नि बाला निमित्तन्न ही निपिनों को जानने में समर्थ होता है॥४८॥ कुञ्जरस्तु यदा नर्देत् ज्वालमाने हुताशने। स्निग्धदेशे ससम्भ्रान्तो राज्ञां विजयमावहेत्॥४९॥ (स्निग्धदेशे) स्निग्ध देश में (यदा) जब (कुञ्जरस्तु नर्देत) हाथी चिंघाड़ ने लगे और (हुताशने ज्वलमाने) अग्नि जलती हुई (स सम्भ्रान्तो) दिखाई दे तो (राज्ञां) राजा की (विजयमावहेत्) विजय होगी, ऐसा जानो। भावार्थ-यदि स्निग्ध देश में अकस्मात् हाथीयों की चिंघाड़ते हुए और अग्नि जलती हुई दिखाई दे तो समझो राजा की विजय अवश्य होगी॥४९॥ एवं हयवृषाश्चाऽपि सिंहव्याघ्राश्च सुस्वराः । नर्दयन्ति तु सैन्यानि तदा राजा प्रमर्दति॥५०॥ (एवं) इसी प्रकार (हय) घोड़े, (वृषाश्चाऽपि) बैल, और भी (सिंह व्याघ्राच सुस्वरा:) सिंह, व्याघ्र आदि सुस्वर कर (तु) तो (तदा) तब (राजा) राजा और राजा की (सैन्यानि) सेना (नर्दयन्ति) दूसरे राजा की सेना को (प्रमदति) प्रमर्दित करता है। भावार्थ-इसी प्रकार घोड़े, बैल, सिंह, व्याघ्र पशु सुस्वर कर बोले और उसी समय राजा का युद्ध के लिये प्रयाण हो तो समझो वो राजा दूसरे राजा की सेना का मर्दन कर डालेगा || ५०॥ स्निग्धोऽल्पघोषो धूम्रोऽथ गौरवर्णो महानृजुः । प्रदक्षिणोऽप्यवच्छिन्न: सेनानी विजयावहः ॥५१॥ यदि अग्नि (स्निग्धो) स्निग्ध हो (अल्पघोषो) थोड़ा-थोड़ा शब्द करती हो (धूम्रो) धुएँ से सहित हो (अथ) और (गौरवर्णो) गौर वर्ण वाली हो (महानृजु:) महान् ऋतुरूप हो (प्रदक्षिणोऽप्यवच्छिन्न) अवच्छिन्न रूप प्रदक्षिण करती दिखाई पड़े तो (सेनानी विजायवहः) सेनानी की विजय होगी। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | २८६ भावार्थ-यदि अग्नि, स्निग्ध दिखे, थोड़ा-थोड़ा शब्द करे, धूम्र युक्त हो, गौर वर्ण वाली हो ऋजु हो अवच्छिन्न रूप प्रदक्षिणा करती हुई सेना के चारों तरफ दिखाई पड़े तो समझो सेना के सेनानी की विजय होगी॥५१॥ कृष्णा वा विकृतो रूक्षो वामवर्तो हुताशनः। हीनाथूिमबहलः स प्रस्थाने भयावहः॥५२॥ राजा के (प्रस्थाने) प्रस्थान समय में (हुताशन:) अग्नि (कृष्णो) काले रूपमें (विकृतो) विकृत होती हुई (वा) और (रूक्षो) रूक्ष होकर (वामवर्तो) वाम भाग में (हीनाधूिमबहल:) थोड़ी अग्नि और बहुत धूएँ के साथ दिखाई पड़े तो समझो (स) वह (भयावहः) राजा को भय उत्पम करेगी। भावार्थ-युद्ध के लिये राजा प्रस्थान कर रहा हो, उस समय में यदि अग्नि काली हो, विकृत हो, रूक्ष हो, वाम भाग से जाती हुई दिखाई पड़े और थोड़ी अग्नि ज्यादा धुआँ दिखे तो समझो उस राजा को भय उत्पन्न होगा॥५२॥ सेनाग्रे हूयमानस्य यदि पीता शिखा भवेत्। श्यामाऽथवा यदा रक्ता पराजयति सा चमूः॥५३॥ (सेनाग्रे) सेना के आगे (यदि) यदि (हूयमानस्य) अग्नि (पीता) पीली (शिखा) शिखावाली (भवेत्) होती है (अथवा) अथवा (श्यामा) काली हो, (रक्ता) लाल हो (यदा) तब (स) वह (चमू:) सेना की (पराजयति) पराजय होती है। भावार्थ-सेना के आगे यदि अग्नि जलती हुई पीली शिखावाली हो या काली व लाल शिखा से युक्त हो तो समझो राजा की सेना की पराजय ही है।! ५३ ।। यदि होतुः पथे शीघ्रं ज्वलत्स्फुल्लिङ्गमग्रतः। पार्श्वत: पृष्ठतो. वाऽपि तदैवं फलमादिशेत्॥ ५४॥ (यदि) यदि (पथे) मार्ग में (होतुः) हवन कर रहा हो उस अग्नि से (ज्वलत्स्फुल्लिङ्गमग्रत) जलते हुए स्फुलिङ्ग आगे पड़ते हुए दिखाई दे अथवा, (पार्श्वत:) बगल में व (पृष्ठतो) पीछे गिरते हुए दिखाई पड़े तो (तदैवं फलमादिशेत्) उसी प्रकार का फल जानो। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ प्रयोदशोऽध्यायः भावार्थ-युद्ध के लिये प्रयाण हो रहा हो, और मार्ग में कही हवन हो रहा हो, उस हवन से अग्नि के स्फुलिंग जलते हुए आगे या पीछे या बगल में पड़ते हुए दिखाई पड़े तो समझो सेना की अवश्य पराजय होगी।। ५४॥ यदि धूमाभिभूता स्याद् वो भस्म निपातयेत् । अहूतः कम्पते वाऽऽज्यं न सा यात्रा विधीयते॥५५॥ (यदि) यदि (धूमाभिभूतास्याद्) धुएँ से अभिभूत अग्नि हो, (वातो भस्म निपातयेत्) और वायु से उसकी राख उसी में गिरती हो (अहूत: कम्पते वाऽऽज्य) अथवा आहुति देते समय घी कम्पित हो रहा हो तो, (न सा यात्रा विधीयते) उसमें यात्रा नहीं करनी चाहिये। भावार्थ-यदि धूएँ से सहित अग्नि हो उसकी राख हवा से इधर-उधर उड़ती हुई दिखे, अथवा उसीमें पड़े और आहुति देते समय धी कम्पित होता हुआ दिखे समझो राजा का व सेना का अनिष्ट होगा ऐसे समय में राजा को विजय यात्रा नहीं करनी चाहिये।। ५५ ॥ राजा परिजनो वाऽपि कुप्यते मन्त्रशासने। होतुराज्यविलोपे च तस्यैव वधमादिशेत्॥५६॥ (मन्त्र शासने) मन्त्री के शासन से (राजा परिजनो वाऽपि कुप्यते) राजा और परिजन कुपित होते हैं (होतुराज्यविलोपे च) अथवा हवन का घी नष्ट हो जाय तो (तस्यैव वधमादिशेत्) उसका वध होगा ऐसा समझो। भावार्थ-मन्त्री के अनुशासन से राजा व उसके परिजन क्रोधित होते है और हवन घी अकस्मात् नष्ट हो जाय तो राजा को अपनी यात्रा रोक देनी चाहिये, नहीं तो राजा का वध हो जायगा, यह निमित्त राजा के मरण की सूचना करता है।। ५६ ।। यद्याज्यभाजने केशा भस्मास्थीनि पुनः पुनः । सेनाने हूयमानस्य मरणं तत्र निर्दिशेत् ।। ५७॥ (यद्याज्य) यदि घी के (भाजने) पात्र में (केशा) केश (भस्म) राख, (अस्थीनि) Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २८८ और हड्डी (सेनाग्रे) सेना के आगे (यमानस्य) हवन के समय (पुन: पुन:) बार-बार गिरे तो (तत्र) वहाँ (मरणं) मरण का (निर्दिशेत) निर्देशन किया है। भावार्थ-यदि सेना के आगे हवन के समय घी के पात्र में केश, राख, हड्डी बार-बार गिरे तो समझो राजा का और उसकी सेना का अवश्य मरण होगा ऐसी सूचना यह निमित्त देते है।। ५७॥ आपो होतुः पतेद्धस्तात् पूर्णपात्राणि वा भुवि। कालेन स्याद्वधस्तत्र सेनाया नात्र संशयः॥५८॥ यदि (होतुः) हवन करने वाले के हाथ से (आपो) पानी (पतेद्धस्तात्) नीचे गिर पड़े (वा) और (भुवि) भूमि पर (पूर्णपात्राणि) पूर्ण पात्र ही गिर पड़े तो (कालेन) कुछ ही समय में (तत्र) वहाँ की (सेनाया) सेना (स्याद्वधः) का अध पतन हो जाता है (नात्र संशयः) इसमें कोई संशय नहीं है। भावार्थ-यदि हवन करने वाले के हाथ से पानी गिर पड़े व पूरा पात्र ही हाथ से गिर पड़े तो भी राजा को अपना प्रयाण रोक देना चाहिये नहीं तो सेना सहित राजा का मरण हो जायगा इसमें कोई सन्देह नहीं है॥५८॥ यदा होता तु सेनायाः प्रस्थाने स्खलते महः । बाधयेद् ब्राह्मणान् भूमौ तदा स्ववधमादिशेत् ।। ५९॥ (सेनायाः प्रस्थाने) सेना के प्रस्थान काल में (यदा) जब (होता) हवन करने वाला (स्खलते मुहुः) बार-बार स्खलित होता है (भूमौ) पृथ्वी पर (ब्राह्मणान् बाधयेद) बाहाणों को बाधा पहुंचाता हो (तु) तो (तदा) तब (स्ववधमादिशेत्) अपना वैध समझो। भावार्थ—सेना के प्रयाण काल में यदि हवन करने वाला बार-बार स्खलित हो और भूमि पर ब्राह्मणों को बार-बार पीड़ा पहुँचाए तो समझो राजा के वध की सूचना मिलती है याने राजा का स्वयं वध हो जायगा ।। ५९॥ धूमः कुणिपगन्धो वा पीतको वा यदा भवेत्। सेनाग्रे हूयमानस्य तदा सेना पराजयः॥६०॥ (सेनाग्रे हूयमानस्य) सेना के आगे हवन करते समय (धूमः) धुआँ (कुणिप Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ त्रयोदशोऽध्यायः गन्धो) मुद्रा जैसी दुर्गन्ध वाला हो (वा) अथवा (पीतको वा भवेत्) पीले रंग का होता (तदा) तब (सेनापराजयः) सेना की पराजय समझो। भावार्थ-यदि सेना के आगे हवन करते समय धुआँ मुद्रा के समान दुर्गन्ध देता हो अथवा पीले रंग का हो तो समझो सेना की पराजय होगी।६०॥ मूषको नकुलस्थानो वराहो गच्छत्तोऽन्तरा। धामावर्तः पतङ्गो वा राज्ञो व्यसनमादिशेत् ।। ६१॥ यदि प्रयाण काल में (मूषको) मूषक (नकुल) नेवला (वराहो) शूकर (स्थानो गच्छतोऽन्तरा) स्वस्थान से पीछे की ओर आते हुए दिखाई पड़े (वा) अथवा (धामावर्तः पतङ्गो) पतग आदि उड़ती हुई दिखे तो, (राज्ञो) राजा के (व्यसनमादिशेत्) व्यसन की सूचना देता है। भावार्थ-यदि प्रयाणकाल में चूहा, नेवला, शूकर पीछे से आते हुए दिखे अथवा पतकादि उड़ते हुए दिले तो साझोपना को कष्ट होगा॥६१।। मक्षिका वा पतङ्गो वा यदूऽप्यन्यः सरीसृपः। सेनाग्रे निपतेत् किञ्चिद्धूयमाने वधं वदेत्॥१२॥ (सेनाग्रे) सेना के आगे, (मक्षिका वा) मधुमक्खियाँ, (पतङ्गो वा) और पतले (यद्वऽप्यन्य:) व अन्य (सरीसृपः) पेट से रेंगने वाले जीव (किञ्चिद्भूयमाने निपतेत) उड़ते हुए आगे गिरे तो (वधं वदेत्) सेना का वध समझो। भावार्थ-यदि सेना के आगे उड़ते हुए, पतङ्ग अथवा मधुमक्खियाँ और भी सरीसृपादिक गिरे तो समझो सेना का वध होगा।। ६२॥ शुष्कं प्रदह्यते यदा वृष्टिश्चाप्यप वर्षति । ज्याला धूमाभिभूता तु तत: सैन्यो निवर्वते।।६३॥ (यदा) जब सेना के प्रयाण काल में (शुष्कं प्रदह्यते) सूखे काष्ठ जलने लगे और (वृष्टिश्चाप्यपवर्षति) मन्द-मन्द वर्षा भी हो (ज्वालाधूमाभिभूता) अग्नि की ज्वाला धुएँ से सहित हो (तु) तो (ततः) उस राजा की (सैन्यो निवर्तते) सेना निवृत हो जाती है। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | २९० भावार्थ—सेना के प्रयाण काल में यदि सूखी लकड़ियाँ जलने लगे धीरे-धीरे यही हो और जनि की माला धुएँ से सहित हो तो समझो युद्ध क्षेत्र में राजा की सेना वापस लौट आयगी॥६३॥ जुह्वतो दक्षिणं देशं यदि गच्छन्ति चार्चिषः । राज्ञो विजयमाचष्टे वामतस्तु पराजयम् ॥ ६४।। यदि सेना के (गच्छन्ति) जाते समय (जुह्वतो) हवन की (चार्चिषः) अग्नि (दक्षिणं देशं) दक्षिण दिशा में दिखाई पड़े तो (राज्ञो विजय माचष्टे) राजा के विजय की सूचना मिलती है (वामतस्तु पराजयम्) और वामभाग में दिखाई पड़े तो राजा की पराजय होगी। भावार्थ- सेना के दक्षिण भाग में हवन की अग्नि दक्षिण में दिखे तो राजा की विजय होगी, और वाम भाग में दिखे तो समझो राजा की पराजय होगी॥६४॥ जुह्वत्यनुपसर्पणस्थानं तु यत् पुरोहितः। जित्वा शत्रून् रणे सर्वान् राजा तुष्टो निवर्तते॥६५॥ यदि (पुरोहितः) पुरोहित (जुसत्यनुपसर्पणस्थानं) ढालु स्थान पर हवन करता दिखे और राजा भी उधर ही जा रहा हो (तु) तो (सर्वान्) सबको (रणे) रणमें (शत्रून) शुत्रओं को (जित्वा) जीतकर (राजा तुष्टो निवर्तते) राजा सन्तुष्टि को प्राप्त करता है। ____ भावार्थ-यदि पुरोहित राजा जिधर गमन कर रहा हो और उधर ही ढलाव स्थान पर बैठकर हवन करता हो तो समझो राजा युद्ध में सब शत्रुओं को जीतकर सन्तुष्ट होता है॥६५॥ यस्य वा सम्प्रयातस्य सम्मुखो पृष्ठतोऽपि वा। पतत्युल्का सनिर्घाता वधं तस्य निवेदयेत् ।। ६६॥ (यस्य वा) जिस राजा के (सम्प्रयातस्य) प्रयाण समय में (उल्का) उल्का (सम्मुखो पृष्ठतोऽपि वा) सामने व पीछे (सनिर्घाता) घर्षण करती हुई (पतत्य) गिरे तो (तस्य) उस राजा का विधं) वध होगा ऐसा (निवेदयेत्) निवेदन किया Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ त्रयोदशोऽध्यायः भावार्थ राजा के प्रयाण समय में उल्का घर्षण करती हुई सामने या पीछे गिरे तो समझो राजा का वध अवश्य होगा॥६६।।। सेनां यान्ति प्रयातां यां क्रव्यादाश जुगुप्सिताः। अभीक्षणं विस्वरा धोराः सा सेना वध्यते परैः ॥६७॥ (सेनां प्रयातां यान्ति) सेना प्रयाण करती है (यां) उस समय में (क्रव्यादा: जुगुप्सिताः) मांस भक्षी जीव जुगुप्सा भाव से (अभीक्ष्ण) प्रतिक्षण (घोरा: विस्वरा) घोर विस्वर करते है तो (सा) उस (सेना) सेना का (वध्यतेपरै) वध हो जाता है। भावार्थ सेना के प्रयाण समय में यदि शेर, व्याघ्र, गिद्धादि मांस भक्षी जीव भयंकर शब्द बार-बार करे, और सेना के आगे-आगे जावे तो समझो राजा सहित सेना का वध हो जायगा ॥६७॥ प्रयाणे निपतेदुल्का प्रतिलोमा यदा चमूः। निवर्तयति मासेन तत्र यात्रा न सिध्यति॥१८॥ (यदा) जब (प्रयाणे) सेना के प्रयाण काल में (प्रतिलोमा) प्रतिलोमरूप में (उल्का) उल्का (निपतेद्) गिरे तो (चमूः) सेना (मासेन) एक महिने में (निवर्तयति) निवृत हो जाती है (तत्र यात्रा न सिध्यति) और वहाँ की यात्रा की सिद्ध नहीं होती है। भावार्थ-जब सेना के प्रयाण काल में सेना के प्रतिलोम भाग में उल्का गिरे तो समझो, सेना युद्ध क्षेत्र से एक महीने में वापस लौट आयेगी, और उसकी यात्रा भी सिद्ध नहीं होगी।६८॥ छिन्ना भिन्ना प्रदृश्येत तदा सम्प्रस्थिता चमूः। निवर्तयेत सा शीघ्रं न सा सिद्धयति कुत्रचित् ॥ ६९॥ यदि उल्का (छिन्ना) छिन्न रूप व (भिन्ना) भिन्न रूप (प्रदृश्येत) दिखाई पड़े (तदा) उस समय (सम्प्रस्थिता) प्रयाण करे (चमू:) सेना तो (सा शीघ्रं) वह सेना शीघ्र ही (निवर्तयेत) निवृत्त हो जायगी, (न सा सिद्धयति कुचित्) उसकी यात्रा सिद्ध नहीं होगी। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २१२ भावार्थ प्रयाण समय में सेना के आगे उल्का छिन्न-भिन्न रूप दिखाई पड़े तो समझो युद्ध से सेना निवृत्त हो जायगी, राजा की यात्रा सफल नहीं होगी॥६९।। यस्याः प्रयाणे सेनायाः सनिर्घाता मही चलेत। न तया सम्प्रयातव्यं साऽपि वध्येत सर्वशः॥७॥ (यस्या) जिस (सेनायाः) सेना की (प्रयाणे) प्रयाणके समय (सनिर्घाता) घर्षण करती हुई (महीचलेत्) पृथ्वी कम्पित होती है तो (तया) उसके साथ (न) नहीं (सम्प्रयातव्यं) जाना चाहिये (साऽपि) नहीं तो उनका भी, (सर्वशः) सबके साथ (वध्येत) वध हो जायगा। भावार्थ-जिस सेना के प्रयाण समय में घर्षण करती हुई पृथ्वी कम्पित होती है तो उस सेना के साथ कभी नहीं जाना चाहिये, नहीं तो उसका भी साथ में अवश्य नाश हो जाया ७ ॥ - अग्रतस्तु सपाषाणं तोयं वर्षति वासवः। सनामं घोरमत्यन्तं जयं राज्ञश्च शंसति ॥७९॥ यदि सेना के (अग्रतस्तु) आगे (सपाषाणं) ओला सहित (वासव:) मेघ (तोयं) पानी (वति) बरसता है और (राज्ञश्च) राजा का (घोरमत्यन्तं) घोर अत्यन्त (संग्राम) संग्राम होता है और (जयं शंसति) जय में भी संशय होता है। भावार्थ-यदि सेना की आगे मेघ औला सहित पानी बरसावे तो राजा का अत्यन्त घोर युद्ध होता है और विजय में भी संशय रहता है।। ७१ ।। प्रतिलोमो यदा वायुः सपाषाणो रजस्करः। निवर्तयति प्रस्थाने परस्पर जयावहः॥७२॥ (यदा वायु:) जब वायु (प्रतिलोमो) विपरीत (सपाषाणो रजस्करः) पाषाण और धूल सहित चले तो (प्रस्थाने निवर्तयति) प्रस्थान करने वाले राजा को वापस लौटना पड़ता है। (परस्पर जयावहः) परस्पर दोनों की विजय होगी। भावार्थ-जब वायु विपरीत दिशा की धूल और पाषाण सहित चले तो समझो राजा को युद्ध स्थान से वापस लौटना पड़ता है, और दोनों राजाओं की विजय होती है।।७२ ।। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३ योदशोऽध्यायः मारुतो दक्षिणो वापि यदा हन्ति परां चमूम्। प्रस्थितानां प्रमुखतः विन्द्यात् तत्र पराजयम्॥७३॥ (यदा) जब (दक्षिणोमारुतो) दक्षिण की वायु (वापि) वो भी (चमूम् परां हन्ति) सेना का घात करे तो (तत्र) वहाँ (प्रस्थितानां) प्रयाण करने वाले (प्रमुखतः) प्रमुख राजा की (पराजयम् विन्द्यात्) पराजय होती हैं। भावार्थ-जब दक्षिण दिशा की वायु सेना का घात करती हुई चले तो राजा की पराजय होगी ऐसा जानो॥७३॥ यदा तु तत्परां सेनां समागम्य महाघनाः । तस्य विजयमाख्याति भद्रबाहुवचो यथा॥७४॥ (यदा) जब (सेनां) सेना के युद्ध में (तत्परां) तत्पर होने पर (महाघनाः समागम्य) महामेघों का समागम हो जाय तो (तस्य) उसकी (विजयमाख्याति) विजय होगी, ऐसा (भद्रबाहुवचो यथा) भद्रबाहु स्वामी का वचन है। भावार्थ-जब सेना के युद्ध क्षेत्र में तत्पर होने पर समझो महामेघों का समागम हो जाय तो उस राजा की विजय होगी, ऐसा भद्रबाहु स्वामी ने कहा है।। ७४ 11 हीनाङ्गा जटिला बद्धा व्याधिता: पापचेतसः। षण्ढाः पापस्वरा ये च प्रयाणे ते तु निन्दिताः॥७५॥ (प्रयाणे) प्रयाण समय में, (हीनाङ्गा) हीन अङ्ग वाला (जटिला बद्धा) जटिल बेड़ी से युक्त, (व्याधिता:) नाना व्याधियों से युक्त (पापचेतसः) पापचित्त वाला (षण्डाः ) नपुंसक (पापस्वरा) पापरूप वचन बोलने वाला (ये) जो (ते तु) उस समय सामने मिल जावे तो (निन्दिताः) यात्रा निन्दित होती है। भावार्थ-राजा के प्रयाण समय में हीन अङ्ग वाला बेड़ीयों से जकड़ा व्याधियों से युक्त पापबुधि वाला नपुंसक, पाफ्रूप बोलने वाला न्यायोचित्त वचन बोलने वाला समाने मिल जावे तो समझो उस दिन राजा को नहीं जाना चाहिये अपना प्रयाण रोक देना चाहिये || ७५॥ नग्नं प्रवृजितं दृष्ट्वा मङ्गलं मङ्गलार्थिनः । कुर्यादमङ्गलं यस्तु तस्य सोऽपि न मङ्गलम्॥७६॥ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २९४ ( मङ्गलार्थिन: ) मलार्थि (नग्नं प्रव्रजितं दृष्ट्वा ) नग्न दीक्षित मुनि को देखा तो ( मङ्गलं ) समझो उसका मंगल ही होगा। (यस्तु) और (तस्य) जिसको (कुर्याद मंत्र) मंगल रूप नहीं है (सोऽपि न मंडलम् ) उसको मङ्गल नहीं होता है। भावार्थ-नग्न दिगम्बर साधुओं का रूप प्रतिक्षण मंगल रूप होता है, जो नग्न साधुओं से ग्लानि करके देखता है उसके लिये अमंगल रूप ही होगा, क्योंकि उसको पाप बंध होगा, और ग्लानि का पाप कष्टदायक होता है ॥ ७६ ॥ कुर्यादाकृष्टो पीडितोऽपचयं ताडितो यदि प्रयाण काल में ( पीडितोऽपचयं कुर्याद्) पीड़ित व्यक्ति दिखाई पड़े तो समझो हानि होगी, (आक्रुष्टो वधबन्धनम् ) चीखता हुआ दिखे तो वध बन्धन होगा, ( ताडितो मरणं दद्याद्) किसीके द्वारा ताडित व्यक्ति दिखे तो मरण को देने वाला होता है (तथा) तथा ( रुदितं) रोता हुआ दिखे तो त्रासित होगा । भावार्थ — प्रयाण करने वाले राजा के आगे पीड़ित व्यक्ति सामने पड़े तो हानि होगी, बहुत ही चिल्लाता हुआ दिखे तो समझो वध बन्धन होगा, अगर ताडित व्यक्ति दिखे तो समझो मरण होगा, रोता हुआ दिखे तो त्रास का कष्ट भोगना पड़ेगा ।। ७७॥ वधबन्धनम् । मरणं दद्याद् वासितो रुदितं तथा ॥ ७७ ॥ पूजितः सानुरागेण लाभं राज्ञः समादिशेत् । तस्मात्तु मङ्गलं कुर्यात् प्रशस्तं साधुदर्शनम् ॥ ७८ ॥ (सानुरागेण) अनुरागपूर्वक (पूजितः ) पूजित व्यक्ति ( राज्ञः ) राजा को ( समादिशेत् ) दिखाई पड़े तो (लाभ) लाभ होता है (तस्मात् मंत्रलं कुर्यात् ) इसलिये मंङ्गल करना चाहिये, क्योंकि ( साधुदर्शनम् प्रशस्तं ) साधुओं का दर्शन प्रशस्त माना गया है। भावार्थ – अनुरागपूर्वक पूजित व्यक्ति राजा के प्रयाण समय में दिखलाई पड़े तो समझो मंगल होने वाला है। राजा को कोई न कोई लाभ अवश्यक होगा, इसलिये आनन्द मनाना चाहिये। यात्रा काल में साधु दर्शन मंगलप्रद है॥ ७८ ॥ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशोऽध्यायः दैवतं तु यदा बाह्यं राजा सत्कृत्य स्वं पुरम्। प्रवेशयति तद्राजा बाह्यस्तु लभते पुरम्॥७९॥ (यदा) जब (राजा) राजा (स्वं) स्वयं (दैवत) देवता की (सत्कृत्य) पूजा करके (पुरम्) नगर में (प्रवेशयति) प्रवेश करे (तु) तो समझो (बाह्य) नगर के बाहर ही (तद्राजा) उस राजा को (पुरम् लभते) नगर की प्राप्ति (बाह्यस्तु) बाहर से ही हो जाती है। भावार्थ-यदि राजा मन्दिर में जाकर किसी देवता की पूजा करके नगर में प्रवेश करे तो समझो उस राजा को नगर के बाहर ही नगर प्राप्त हो गया है॥७९॥ वैजयन्त्यो विवर्णास्तु बाह्ये राज्ञो यदाग्रतः। पराजयं समाख्याति तस्मात् तां परिवर्जयेत् ।। ८० ।। यदि (वैजयन्त्यो) पताका (बाह्ये) बाहर भाग की (राज्ञो) राजाके (अग्र:) आगे (विवर्णास्तु) विवर्ण रूप दिखे तो (पराजय) राजा की पराजय को (ममाख्याति) कहा है (तस्मात्) इस कारण से (तां) उस यात्रा को (परिवर्जयेत्) छोड़ देना चाहिये। भावार्थ-यदि बाहरी भाग की पताका राजाके आगे विवर्ण रूप दिखलाई पड़े तो समझो राजा की पराजय होगी इसलिये राजा अपनी यात्रा को रोक देवे॥ ८०॥ सर्वोथेषु प्रमत्तश्च यो भवेत् पृथिवीपतिः। हितं न श्रृण्वतश्चापि तस्य विन्द्यात् पराजयम्॥८१।। (यो पृथिवीपतिः) जो राजा (सर्वार्थेषु) सम्पूर्ण कार्यों में (प्रमत्तश्च भवेत्) प्रमादि हाता है और (हितं न श्रृण्वतश्चापि) हित की कोई बात नहीं सुनना चाहता है, (तस्य) उसकी (पराजयम) पराजय होगी (विन्द्यात्) ऐसा जानो। भावार्थ-जो राजा अपने सम्पूर्ण कार्यों में प्रमादि है और अपने हित की बात किसी की भी नहीं सुनना चाहता है उसकी पराजय अवश्य होगी ।। ८१ ।। अभिद्रवन्ति यां सेनां विस्वरं मृगपक्षिणाः। श्रमानुषशृगाला वा सा सेना वध्यते परैः ।। ८२॥ (यां) जिस (सेना) सेना का (विस्वर) विश्वर करते हुए (मृगपक्षिणः) पशु-पक्षी Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २९६ ( अभिद्रवन्ति) आक्रमण करे (वा) वा (श्व) कुत्ता, (मानुष) मनुष्य (शृगाला ) भृगाल सेना का पीछा करे तो (सा) वो (सेना) सेना (वध्यते परैः) बांधी जाती है। भावार्थ — जिस सेना पर कौआदि विस्वर करते हुए बार-बार आक्रमण करे अथवा कुत्ता, शृगाल, मनुष्य उस सेना का पीछा कर तो समझो उस सेना का शत्रु राजा बन्ध में डाल देगा ।। ८२ ।। भग्नं दग्धं च शकटं यस्य राज्ञः प्रयाविणः । हेवोपसृष्टं जानीयात्र तंत्र गमनं शिवम् ॥ ८३ ॥ (यस्य राज्ञः ) जिस राजा के ( प्रयायिणः) प्रयाण समय में ( शकटं ) घाटी आदि (भग्नं) टूट जाय (च) और ( दग्धं) जल जाय तो, (देवोपसृष्ट) देवकृत उपसर्ग है ऐसा ( जानीयात्) जानना चाहिये, (तत्र गमनं न शिवम् ) उस राजा का गमन शिवप्रद नहीं है। भावार्थ - राजा के प्रयाण समय में उसकी सेना की गाड़ी आदि टूट जाय अथवा उसमें आग लग जाय तो समझो यह दिव्य घटना है ऐसे समय में राजा अपनी यात्रा रोक ले आगे न जावे ॥ ८३ ॥ उल्का वा विद्युतोऽभ्रं वा कनकाः सूर्यरश्मयः । स्तनितं यदि वा छिद्रं सा सेना वध्यते परैः ॥ ८४ ॥ राजा के प्रयाण काल में (उल्का) उल्का (वा) वा (विद्युतोऽभ्रं) बिजली अभ्र (वा) वा (सूर्यरश्मयः कनका: ) सूर्य की रश्मि सवर्ण रूप हो और ( स्तनितं यदि वा छिद्रं) स्तनित छिद्र सहित हो तो (सा) वह (सेना) सेना ( वध्यते परैः ) बाँधी जायगी। भावार्थ राजा के प्रयाण समय में, बिजली, उल्का, अभ्र अथवा सवर्ण वर्ण की सूर्य किरणें हो और बिजली छिद्र सहित हो तो समझो उस राजा की सेना बाँधी जायगी ॥ ८४ ॥ प्रयातायास्तु सेनाया यदि कश्चिनिवर्तते । चतुःपदो द्विपदो वा न सा यात्रा विशिष्यते ॥ ८५ ॥ ( यदि सेनाया ) यदि सेना के ( प्रयातायास्तु) प्रयाण समय में ( कश्चिन् ) कोई Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशोऽध्यायः ( चतुःपदो द्विपदो वा ) मनुष्य या तिर्यञ्च ( निवर्तते ) लौटकर वापस आवे तो (सा) उसकी (यात्रा) यात्रा ( विशिष्यते ) सफल (न) नहीं होगी। भावार्थ — राजा के प्रयाण समय में उसकी सेना से कोई मनुष्य या पशु स्व गाँव की तरफ वापस लौटकर आ जावे तो समझो राजा की यात्रा सफल नहीं होगी, अनिष्टकारी है ।। ८५ ।। २९७ प्रयातो यदि वा राजा निपतेद् वाहनात् क्वचित् । अन्यो वाऽपि गजाश्वो वा साऽपि यात्रा जुगुप्सिता ॥ ८६ ॥ ( यदि ) यदि (प्रयातो) प्रयाण के समय (राजा) राजा ( वाहनात् ) वाहनादि से ( क्वचित् ) अगर ( निपतेद् ) गिर पड़े (अन्यो वाऽपि ) व अन्य भी ( गजाऽश्वो ) हाथी, घोड़े गिरे पड़े तो (साऽपि ) वो भी (यात्रा) यात्रा (जुगुप्सिता) जुगुप्सत को प्राप्त होती है। भावार्थ-यदि राजा प्रयाण के समय अपनी सवारी से नीचे गिर पड़े अथवा हाथी, घोड़े आदि चाहन से गिर पड़े तो समझो पल की हार होती है राजा अपनी यात्रा में सफल नहीं होता ॥ ८६ ॥ क्रव्यादाः निवेदयन्ति पक्षिणो यत्र निलीयन्ते ते राज्ञस्तस्य ध्वजादिषु । घोरं चमूवधम् ॥ ८७ ॥ राजा के प्रयाण समय में (ध्वजादिषु ) ध्वजादिक पर ( क्रव्यादाः पक्षिणो यत्र निलीयन्ते) मांस भक्षी पक्षी बैठ जाय तो (ते) वे (तस्य) उस (राज्ञः) राजा क (चमू) सेना का ( घोरं ) घोर (वधम् निवेदयन्ति ) वध होने की सूचना देता है । भावार्थ-यदि राजा युद्ध के लिये प्रयाण करता हो उस समय में राजा की ध्वजा, छत्रादि पर कोई मांस भक्षी पक्षी बैठ जाय तो समझो राजा की सेना का भयंकर वध हो जायगा, ऐसी सूचना देता है ॥ ८७ ॥ राजा निवर्तन्तो मुहुर्मुहुर्यदा प्रयातः निमित्ततः । संयुगे ॥ ८८ ॥ परचक्रेण सोऽपि वध्येत ( यदा) यदा (राजा) राजा ( मुहुर्मुहुः ) धीरे-धीरे ( निमित्ततः ) निमित्त पाकर Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २१८ (निवर्तन्तो) युद्ध प्रयाण से वापस लौट आता है तो (प्रयातः) आने वाली (परचक्रेण) परचक्र के द्वारा (सोऽपि) वो भी (संयुगे वध्येत) सेना के साथ मारा जाता है। भावार्थ-निमित्तों को पाकर यदि राजा प्रयाण कर बीच में ही से वापस अपने नगर को लौट आता है तो समझो, आने वाले शत्रु की सेना से राजा मारा जायगा॥८८॥ यदा राज्ञः प्रयातस्य रथश्च पथि भज्यते। भग्नानि चोपकरणानि तस्य राज्ञो वधं दिशेत् ।। ८९॥ (यदा) जब (राज्ञः) राजा के युद्ध (प्रयातस्य) प्रयाण समय में राजा (रथश्च) रथ (पथि) मार्ग से (भज्यते) टूट जाय और (चोपकरणानि) उपकरण वगैरह (भग्नानि) टूट जाय तो (तस्य) उस (राज्ञो) राजा का (वधं) मरण होगा (दिशेत्) ऐसा समझो। भावार्थ---युद्ध के लिये प्रयाण करते हुए राजा का रथ मार्ग में भग्न हो जाय अथवा उसके उपकरण टूट जाय तो समझो राजा का मरण होगा ऐसा जानो॥ ८९ ॥ प्रयाणे पुरुषा वाऽपि यदि नश्यन्ति सर्वशः। सेनाया बहुशश्चाऽपि हता दैवेन सर्वशः ॥१०॥ (प्रयाणे) राजा के प्रयाण समय में (सर्वश:) अनेक (पुरुषा) पुरुष (यदि) यदि (नश्यन्ति) मरते हैं (वाऽपि) तो (सेनाया) सेना के भी (सर्वशः) अनेक पुरुष (दैवेन हता) भाग्यवश मारे जाते हैं। भावार्थ-राजा के युद्ध प्रयाण समय में यदि अनेक लोग अकस्मात मरण को प्राप्त होते हैं तो समझो सेना के भी अनेक लोग मारे जाते हैं॥९०॥ यदा राज्ञः प्रयातस्य दानं न कुरुते जनः। हिरण्यव्यवहारेषु साऽपि यात्रा न सिद्धयति ॥११॥ (यदा राज्ञः) जब राजा के (प्रयातस्य) प्रयाण काल में (हिरण्य) सोने का (दान) दान (जनः) उनके ही जन (कुरुते) करते हैं तो (व्यहारेषु) व्यवहार में (साऽपि) उसको भी (यात्रा न सिद्धयति) यात्रा सफल नहीं होती हैं। भावार्थ-राजा के प्रयाण काल में उसके ही लोग यदि सोने का दान करने लगे तो उस राजा की यात्रा सिद्ध नहीं होती है।। ९१ ।।। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ त्रयोदशोऽध्यायः प्रवरं घातयेद् भृत्यं प्रयाणे यस्य पार्थिवः । अभिषिञ्चेत् सुतं चापि चभूस्तस्यापि बध्यते॥१२॥ (प्रयाणे) प्रयाण काल में (यस्य) जिस (पार्थिवः) राजा के (प्रवर) प्रधान (भृत्यं) नौकर का (धातयेद्) घात हो जावे और (सुतं) उसके पुत्र का (अभिषिञ्चेत्) अभिषेक राजा करे तो (चापि) उसकी भी (चमूस्तस्यापि बध्यते) सेना मारी जाती भावार्थ- युद्ध प्रयाण काल में यदि राजा के प्रधान नौकर का मरण हो जाय और राजा को उसके पुत्र का नियुक्ति प्रधान के स्थान पर करना पड़े तो समझो राजा की सेना युद्ध में हार जायगी॥१२॥ विपरीतं यदा कुर्यात् सर्वकार्य मुहर्मुहः। तदा तेन परित्रस्ता सा सेना परिवर्तते ।। ९३॥ यदि राजा (सर्वकार्य) अपने सब काम को (मुहर्मुहुः) धीरे-धीरे (विपरीत) विपरीत (यदा) जब (कुर्यात्) करता है (तदा) तब (तेन) उससे (सा सेना) उसकी सेना (परित्रस्ता) कष्ट उठाकर (परिवर्तते) वापस लौट आती है। भावार्थ-युद्ध प्रयाण काल में अगर राजा ही अपने सर्व कार्य को विपरीत करने लगे तो समझो उसकी ही सेना राजा से त्रस्त होकर वापस लौट आती है उसका साथ नहीं देती। ९३ ।। परिवर्तेद् यदा वातः सेनामध्ये यदा यदा। तदा तेन परित्रस्ता सा सेना परिवर्तते॥१४॥ (परिवर्ते) परिवर्तित करती हुई (यदा) जब (वात:) वायु (सेनामध्ये) सेना के अन्दर (यदा यदा) जब-जब चले तो (तदा) तब (तेन) उसके द्वारा (परित्रस्ता) सेना परित्रस्त होकर (सा सेना परिवर्तते) वो सेना वापस लौट आती है। भावार्थ-जब भी वायु सेना के अन्दर परिवर्तित होकर चले तो वो सेना युद्ध भूमि से वापस लौटकर आ जाती है।। ९४ ।। विशाखारोहिणीभानु नक्षत्रैरुत्तरैश्च या। पूर्वाह्ने च प्रयाता बा सा सेना, परिवर्तते॥१५॥ यदि सेना (विशाखारोहिणी भानु) विशाखा नक्षत्र, रोहिणी नक्षत्र सूर्य के Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता (नक्षत्रै) नक्षत्र (रुत्तरैश्चया) और जो उत्तरात्रय नक्षत्र इन नक्षत्रों के (पूर्वाह्ने) पूर्वाह्न काल में (प्रयाता) प्रयाण करे तो (सा सेना) वो सेना (परिवर्तते) वापस आ जाती भावार्थ-यदि सेना विशाखा, रोहिणी, सूर्य के नक्षत्र और तीनों उत्तरा नक्षत्रों में प्रयाण करे तो समझो सेना वापस आ जायगी, युद्ध नहीं होगा ।। ९५॥ पुष्येण मैत्रयोगेन योऽश्विन्यां च नराधिपः । अपराह्ने विनर्याति वाच्छितं स समाप्नुयात्॥९६ ।। (पुष्येण) पुष्य नक्षत्र (मैत्रयोगेन) अनुराधा (च) और (योऽश्विन्यां) जो अश्विनि नक्षत्र के (अपराह्वे) अपराह्न काल में (नराधिपः) राजा (विनर्याति) प्रयाण करे (स) वह (वाच्छितं समाप्नुयात्) वांछित कार्य करके लौटता है। भावार्थ-पुष्य, अनुराधा, अश्विनी नक्षत्रों के अपराह्न काल में प्रयाण करने वाला राजा अपने इष्ट कार्य की सिद्धि करके वापस आ जाता है।। ९६॥ दिवा हस्ते तु रेवत्यां वैष्णवे च न शोभनम्। प्रयाणं सर्व भूतानां विशेषेण महीपतेः ।। ९७॥ (दिवा हस्ते) हस्त नक्षत्र के दिन में (च) और (रेवत्यां) रेवती नक्षत्र (वैष्णवे) श्रवण नक्षत्रों में (सर्वभूतानां) सब जीवों का (प्रयाणं) प्रयाण (शोभनम् न) शोभास्पद नहीं है और (विशेषेण महीपते:) विशेष रीति से राजा के लिये तो शोभास्पद नहीं भावार्थ-हस्त नक्षत्र के दिन में और रेवती नक्षत्र श्रवण नक्षत्रों में प्रयाण किसी भी जीव का अच्छा नहीं है और राजा के लिये अच्छा है ही नहीं॥१७॥ हीने मुहूर्ते नक्षत्रे तिथौ च करणे तथा। पार्थिवो योऽभिनिर्याति अचिरात् सोऽपि बध्यते ।। ९८॥ (मूहुर्ते) मुहूर्त (नक्षत्रे) नक्षत्र (तिथौ) तिथि (च) और (करणे) करण के (हीने) हीन होने पर (पार्थिवो) राजा (योऽभिनिर्याति) अगर प्रयाण करे तो (सोऽपि) वो भी (अचिरात्) शीघ्र (बध्यते) मारा जाता है। भावार्थ-मुहुर्त, नक्षत्र, करण, तिथि आदि के हीन होने पर राजा अगर युद्ध के लिये प्रयाण करे तो समझो वो शीघ्र ही मारा जाएगा ।। ९८ ।। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३०१ युक्तो मात्रयात्यधिक सैन्यं यदि वा न ( यदाप्य युक्तो मात्रयात्यधिको ) यदि प्रयाण से भी ज्यादा ( मारुतस्तदा) हवा चले सेना को रोके और (यदि वा न निवर्त्तते) यदि सेना नहीं रुके और फिर जावे तो (परते सैन्यं) व्हनारायणा । भावार्थ — प्रयाण काल में मात्रा से अधिक हवा चल कर सेना का मार्ग अवरोध करे तो भी सेना नहीं रुके तो समझो वो राजा अवश्य मारा जायगा ।। ९९ । पार्थिवः । स यथा ॥ १०० ॥ ( पार्थिवः) राजा यदि (पथि) मार्ग में ही ( विहारानुत्सवांश्चापि ) विहारोत्सव भी ( कारयेत् ) करे तो ( स ) वह (सिद्धार्थो ) सफल मनोरथ करके वापस (निवर्तेत ) लौट आता है (भद्रबाहुवचो यथा ) ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है। भावार्थ — राजा युद्ध के लिये प्रयाण कर मार्ग में ही उत्सव कर ले तो राजा का अवश्य मनोरथ सिद्ध होगा, मनोरथ सिद्ध कर ही वापस लौटता है ॥ १०० ॥ यदाप्य परैस्तद्वध्यते त्रयोदशोऽध्यायः विहारानुत्सवांश्चापि सिद्धार्थो कारयेत् पथि निवर्तेत भद्रबाहुवचो मारुतस्तदा । वा वसुधा वारि वज्रादयो निपतन्ते प्रतिहीयते । वक्ष्यते नृपः ।। १०१ ।। प्रयाण काल में (वसुधा ) पृथ्वी (वारि) पानी से भर जाय (वा) अथवा (यस्य) जिसके ( यानेषु ) वाहन आदि (प्रतिहीयते ) हीनता को प्राप्त हो व सेनाके ऊपर (वज्रादयोनिपतन्ते) वज्र गिरे तो ( स ) उस (नृपः ) राजा की ( सैन्योवध्यते) सेना वध को प्राप्त हो जाती है। भावार्थ राजा के प्रयाण काल में उसके वाहनादि हीनता को प्राप्त हो अथवा सेना के ऊपर वज्र बिजली आदि गिरे तो समझो राजा की सेना का नाश हो जायगा ॥ १०१ ॥ यस्य यानेषु ससैन्यो निर्वर्त्तते ।। ९९ ।। सर्वेषां शकुनानां च प्रशस्तानां स्वरः पूर्णं विजयमाख्याति प्रशस्तानां च ( सर्वेषां ) सम्पूर्ण ( शकुनानां ) शकुनों में (स्वरः ) स्वर शकुन (शुभः) शुभ शुभः । दर्शनम् ॥। १०२ ।। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता (च) और ( प्रशस्तानां ) प्रशस्त होता है। (च) और (दर्शनम्) अच्छी वस्तुओं का दर्शन भी ( प्रशस्तानां ) प्रशस्त है (पूर्ण विजयमाख्याति) पूर्ण विजय को देने वाला है । ३०२ भावार्थ — सम्पूर्ण शकुनों में स्वर ज्ञान बहुत शुभ है और वस्तुओं का दर्शन बहुत ही प्रशस्त हैं राजा के विजय की सूचना देता है ॥ १०२ ॥ फलं वा यदि वा पुष्पं ददते यस्य पादपः । अकालजं प्रयातस्य सा यात्रा विधीयते ॥ १०३ ॥ (यस्य) जिस (पादपः) वृक्ष पर ( अकालजं) अकालमें ही, ( फलं) फल (वा) और (पुष्पं ) पुष्प (यदि ) यदि (ददते) आ जावे तो ( प्रयातस्य ) प्रयाणकारी का (सा) वह (यात्रा) यात्रा (न) नहीं ( विधीयते ) करनी चाहिये । भावार्थ — जिन वृक्षों पर अकाल में ही फल या पुष्प राजा के प्रयाण काल में आने लगे तो राजा को अपनी युद्ध यात्रा रोक देनी चाहिये ।। १०३ ॥ येषां निदर्शने किञ्चित् विपरीतं मुहुर्मुहुः । स्थालिका पिठरो वाऽपि तस्य तद्वधमीहते ॥ १०४ ॥ राजा के प्रयाणकाल में (येषां ) जिन वस्तुओं का (विपरीत) विपरीत ( निदर्शने) दर्शन होता है और वह (किञ्चित् मुहुर्मुहुः ) थोड़ा-थोड़ा होता है ( वाऽपि ) उसमें भी (स्थालिका) थाली (पिठरो) मथनी आदि दिखे तो (तस्य) उसकी ( तद्वधमीहते ) यात्रा सफल मत समझो। सेना का वध हो जायगा । भावार्थ- वस्तुओं के विपरीत दर्शन से और थाली, मथनी आदि दिखने पर राजा को अपना प्रयाण रोक लेना चाहिये ॥ १०४ ॥ अचिरेणैव कालेन् तद् विनाशाय निवर्तयन्ति ये केचित् प्रयाता बहुशो कल्पते । नराः ॥ १०५ ॥ ( प्रयाता) प्रयाण काल में ( बहुशो नराः) बहुत ही मानव (केचित् ) थोड़े में ही से वापस (निवर्तयन्ति ) लौटकर आ जावे तो (अचिरेणैव कालेन ) थोड़े ही काल में (तद्) उस सेना के ( विनाशाय ) विनाश की ( कल्पते ) सूचना मिलती है। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ त्रयोदशोऽध्यायः भावार्थ-प्रयाण काल में यदि सेना के लोग थोड़े चल कर बीच ही में से वापस कुछ लौटकर आ जावे तो शीघ्र ही असमय में सेना का विध्वंश हो जायगा॥१०५॥ यात्रामुपस्थितोपकरणं तेषां च स्याद् ध्रुवं वधः। पकानां विरसं दग्धं सर्पिभाण्डो विभिद्यते।।१०६॥ तस्य व्याधिभयं चाऽपि मरणं वा पराजयम्। स्थानां प्रहरणानाञ्च ध्वजानामथ यो नृपः ॥१०७॥ चिहं कुर्यात् क्वचिन्त्रीलं मन्त्रिणा सह बध्यते। नियते पुरोहितो वाऽस्य छत्रं वा पथि भज्यते॥ १० ॥ (यात्रामुपस्थितोपकरणं) यात्राकालमें उपकरण दिखे तो (तेषां) उस राजा का (वध:) वध (ध्रुवस्याद) निश्चित ही होता हैं। (पक्कानां) पक्वान (विरसं दग्धं सर्पिभाण्डोविभिद्यते) विरस, जला हुआ, घी का बर्तन वो भी फूटा हुआ दिखे तो (तस्य) उसको (व्याधिभयं) रोग भय होगा, (चाऽपि) और भी (मरण वा पराजयम) मरण अथवा पराजय होगा, (यो) जो (नृपः) राजा (स्थानां) रथों में (प्रहरणानाञ्च) वाहनों में (ध्वजानाम्) ध्वजाओंमें (क्वचिन्नीलं चिह्नकुर्यात्) अगर नीले रंग के चिह्न बनावे तो (मन्त्रिणा सह बध्यते) मन्त्री के साथ राजा भी मारा जाता है (वा) अथवा {अस्य) जिसके (छत्रं वा पथि भज्यते) छत्रादिक मार्ग में भंग हो जाय तो (पुरोहितो म्रियते) समझो राजा का पुरोहित मारा जायगा। भावार्थ-युद्ध प्रयाण काल में यदि उपकरण दिखे तो निश्चित ही राजा का वध होगा पक्कान, विरस, जला हुआ घी दिखे अथवा फुटा हुआ बर्तन दिखे तो समझो सेना में नाना प्रकार के रोग होंगे, अथवा पराजय होगी व मरण होगा। रथों में वाहनों में ध्वजाओं में यदि राजा नीले रंग के चिह्न बनावे तो मन्त्री सहित राजा मारा जाता है। अथवा राजा के छत्रादि मार्ग में भंग हो जाय तो पुरोहित का मरण हो जायगा ।। १०६-१०७-१०८।। जायते चक्षुषो व्याधिः स्कन्धवारे प्रयायिनाम्। अनग्निज्वलनं वा स्यात् सोऽपि राजा विनश्यति॥१०९॥ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ३०४ (प्रयायिनाम्) युद्ध प्रयाण को (स्कन्धवारे चक्षुषो व्याधिः) अगर चक्षु रोग उत्पन्न (जायते) हो जाय (वा) अथवा (अनाग्निज्वलनं स्यात्) अकस्मात अग्नि जलने लगे तो (सोऽपि राजा विनश्यति) तो भी राजा नष्ट हो जायगा। भावार्थ-युद्ध यात्री को अगर नेत्र रोग उत्पन्न हो अथवा अकस्मात अग्नि जलने लगे तो समझो राजा नष्ट हो जायगा | १०९॥ द्विपदश्चतुः पदो वाऽपि स कृन्मुञ्चति विस्वरः। बहुशो व्याधिता" वा सा सेना विद्रवं व्रजेत् ॥११०॥ यदि सेना के प्रयाण काल में (द्विपदश्चतु: पदो वाऽपि) दो पाँव वाले और चार पाँव पारो (सकृयति विस्तारःमक साथ मिलकर विस्वर करे तो (सेना) सेना (बहुशो व्याधितार्ता) बहुत ही व्याधि ग्रस्त होकर (विद्रवं वज्रेत) उपद्रव को प्राप्त करती है। भावार्थ सेना प्रयाण काल में अगर मनुष्य और पशु विस्वर शब्द करे तो सेना में बहुत ही रोग उत्पन्न होकर लोग उपद्रव को प्राप्त होंगे। ११०॥ सेनायास्तु प्रयाताया कलहो यदि जायते। द्विधा त्रिधा वा सा सेना विनश्यति न संशयः॥१११ ॥ (सेनायास्तु प्रयाताया) सेना के प्रयाण समय में (यदि) यदि (कलहो जायते) कलह हो जाता है और वह भी (द्विधा) दो भाग में (वा) और (त्रिधा) तीन भाग में बट जाय तो (सा) वो (सेना) सेना (विनश्यति) नाश हो जाती है (नसंशयः) उसमें कोई सन्देह नहीं हैं। भावार्थ-सेना के यात्रा समय में यदि सेना के लोग परस्पर लड़ जाय और दो-तीन भाग में बंट जाय तो वो सेना नष्ट हो जायगी इसमें कोई सन्देह नहीं हैं॥१११।। जायते चक्षुषो व्याधिः स्कन्धावारे प्रयायिणाम्। अचिरेणैव कालेन साऽग्निना दह्यते चमूः॥११२।। (प्रयायिणाम्) युद्ध यात्री का सेना में (स्कन्धावारे) अकस्मात (चक्षुषो व्याधिः Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशोऽध्यायः जायते) आँख का रोग उत्पन्न हो जाय तो (अचिरेणैव कालेन्) थोड़े ही काल में (साऽग्निना दह्यते चमू:) वह सेना अग्नि में जलने लगेगी। भावार्थ-युद्ध करने वाले राजा की सेना में सैनिकों यदि आँख में रोग हो जाय तो वह सेना थोड़े ही समय में अग्नि के उपद्रव को प्राप्त हो जायगी, अग्नि से जलकर नष्ट हो जाएगें।। ११२।। व्याधयश्च प्रयातानामतिशीतं विपर्ययेत्। अत्युष्णं चाति रूक्षं च राज्ञो यात्रा न सिध्यति || ११३॥ (प्रयातानाम्) प्रयाण करने वाले राजा को (अतिशीत) अत्यन्त शीत (व्याधयश्च) और व्याधियाँ (विपर्ययेत्) विपरीत (अत्युष्णं) अति उष्णता (चातिरूक्षं) अति रूक्षता हो जाय तो (राज्ञो यात्रा न सिध्यति) राजा की यात्रा सिद्ध नहीं होती है। भावार्थ-युद्ध के लिये प्रयाणार्थिको रास्ते में ही यदि व्याधियों उत्पन्न हो जाय विपरीत अतिशीत अति उष्णता, अति रूक्षता हो जाय तो समझो राजा की यात्रा सफल नहीं होगी॥११३ ।।। निविष्टो यदि सेनाग्निः क्षिप्रमेव प्रशाम्यति। उपवह नदन्तश्च भज्यते सोऽपि वध्यते॥११४ ॥ (यदि सेनाग्निः निविष्टो) यदि सेना की अग्नि (क्षिप्रमेव प्रशाम्यति) शीघ्र ही जलती हुई नष्ट हो जाय तो (उपवानदन्तश्च) अच्छा और शान्त व्यक्ति भी (भज्यते) भागते हुए (सोऽपि) वो भी (वध्यते) नष्ट हो जाते हैं। भावार्थ—यदि सेना की अग्नि जलती हुई शीघ्र शान्त हो जाय तो अच्छा और शान्त भागता हुआ व्यक्ति मारा जायगा अन्य की तो बात ही क्या ।। ११४ ।। देवो वा यत्र नो वर्षेत् क्षीराणां कल्पना तथा। विद्यान्महद्भयं घोरं शान्तिं तत्र तु कारयेत्॥११५॥ (देवो वा यत्र नो वर्षे) जहाँ जल की वर्षा नहीं होती हो (क्षीराणां कल्पना तथा) और मात्र पानी की कल्पना ही रह जाती हो तो (महद्भयं घोरं विद्याद) वहाँ महान भय उपस्थित होगा, (शान्तिं तत्र तु कारयेत्) इसलिये वहाँ पर शान्ति करनी चाहिये। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ३०६ भावार्थ-जिन स्थानों पर कभी जल नहीं वर्षा हो और मात्र कल्पना के विषय ही वर्षा होती हो तो समझो उन स्थानों पर महान भय उपस्थित होगा, इसलिये कोई न कोई शान्ति अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। ऐसे स्थानों पर शान्ति कर्म से शान्ति हो सकती है।। ११५|| दैवतम् दीक्षितान् वृद्धान् पूजयेत् ब्रह्मचारिणः। ततस्तेषां तपोभिश्च पापं राज्ञां प्रशाम्यति॥११६॥ शान्ति कर्म के लिये राजा को (दैवतम्) देवताओं की (दीक्षितान्) साधुओं की (वृद्धान्) वृद्धजनो की और (ब्रह्मचारिण:) ब्रह्मचारियों की और (तपोभिश्च) महान तपस्वियों की (ततस्तेषां) यथानुसार (पूजयेत्) पूजा करनी चहिये, (राज्ञा पापं प्रशाम्यति) तब राजा का पाप शान्त हो सकता है। भावार्थ-शान्ति कर्म के लिये राजा को देवता, साधु, वृद्ध, ब्रह्मचारी और तपस्वी जनों की सेवा करनी चाहिये जिससे राजा का पाप शान्त हो॥११६ ।। उत्पाताश्चापि जायन्ते हस्त्यश्वरथपत्तिषु। भोजनेष्वप्यनीकेषु राजबन्धश्चमूवधः॥१९७।। (हस्त्यश्वरथपत्तिषु) हाथी, घोड़े, रथ, पैदलों में (उत्पाताश्चापि) अगर उत्पात होता हो (नीकेषु) और सेना (भोजनेषु) भोजन में भी उत्पात हो तो (राजबन्धश्चमूवधः) राजा का बधन और और सेना का वध होगा। भावार्थ-राजा की सेना में और हाथी, घोड़े, रथ, पैदल सैनिक आदि में उत्पाद दिखलाई पड़े और सैनिकों के भोजन में कोई उपद्रव दिखाई पड़े तो समझो राजा बन्धन में पड़ेगा, सेना के लोग मारे जायगें।। ११७ ।। उत्पाता विकृताश्चापि दृश्यन्ते ये प्रयायिणाम्। सेनायां चतुरङ्गायां तेषामौत्पातिकं फलम् ।। ११८॥ (ये प्रयायिणाम) जो प्रयाण करने में (उत्पाताविकृताश्चापि) उत्पात और विकार (दृश्यन्ते) दिखलाई पड़े तो समझो (चतुरङ्गायां) चतुरंग सेना में (तेषां) उसका (औत्पातिक फलम्) औत्पातिक फल समझना चाहिये। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशोऽध्यायः भावार्थ राजा के प्रयाण समय में यदि उत्पात और विकार दिखलाई पड़े तो समझो उसका चतुरंग सेना में औत्पातिक फल होता है ॥ ११८ ॥ इला ये मेरी निबध्यन्ते ३०७ यथोचिताः । प्रयातानां विस्वरा वाहनाश्च ये ॥ ११९ ॥ ( प्रयाणे) प्रयाण के समय में (ये) जो (भेरीशत मृदङ्गाश्च) भेरी, शंख, मृदग आदि के शब्द ( यथोचिता) यथोचित है ( प्रयातानां ) सैनिकों के ( वाहनाश्च ) वाहन आदि भी ठीक हो ( विस्वरा) विश्वर नहीं करते हो तो ( निबध्यन्ते) समझो सब क्षेम कुशल होगा उसका फल शुभ है। भावार्थ — सेना के प्रयाण समय में जो भेरी, शंख, मृदगादि का शब्द यथोचित हो विश्वर नहीं हो और सैनिकों के वाहनादि भी ठीक हो तो समझो उसका फल शुभ होता है ॥ ११९ ॥ यद्यग्रतस्तु प्रयायिणाम् । प्रयायेत् काकसैन्यं विस्वरं निभृतं वाऽपि येषां विद्याच्चमूवधम् ॥ १२० ॥ (प्रयायिणाम् ) प्रयाण करने वाली सेना के ( यद्यग्रतस्तु) आगे-आगे (काकसैन्यं) कौओं की सेना (प्रयायेत्) जावे और ( वाऽपि ) वह भी (विस्वरंनिभृतं) विस्वर और कठोर शब्द करे तो ( येषां ) उसकी (चमू) सेना का ( वधम् ) वध ( विद्यात्) जानो । भावार्थ — यदि सेना के आगे-आगे कौओं की पंक्ति विश्वर और कठोर शब्द करती हुई जावे तो समझो उस सेना का वध हो जायगा || १२० ॥ राज्ञो यदि प्रयातस्य गायन्ते ग्रामिका: पुरे | चण्डानिलो नदीं शुष्येत् सोऽपि बध्येत पार्थिवः ।। १२१ ॥ (यदि राज्ञो प्रयातस्य) यदि राजा के प्रयाण करते समय (पुरे) नगर के (ग्रामिका:) ग्रामीण लोग (गायन्ते) भजन गाते हुये और वह भी रोने रूप गाते हैं ( चण्डानिलो नदीं शुष्येत्) चण्डवायु नदी को शुष्क कर दे तो समझो ( सोऽपि बध्येत् पार्थिवः) वह भी राजा का वध करवा देता है। भावार्थ — राजा प्रयाण समय में यदि ग्रामवासी लोग रोते हुए भजन गायें Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ३०८ और प्रचण्ड वायु क्षण में ही नदी के पानी को सुखा देवे तो समझो राजा का वध हो जायगा ॥१२१॥ देवताऽतिथि भृत्येभ्योऽदत्वा तु भुञ्जते यदा। यदा भक्ष्याणि भोज्यानि तदा राजा विनश्यति॥१२२ ।। (देवताऽतिथि भृत्येभ्यो) देवताओं की पूजा के बिना अतिथि को भोजन न देकर नौकरों को (अदत्वा) भोजन न देकर (यदा भक्ष्याणि भोज्यानि भुञ्जते) जो भक्ष्य भोजन है उसको स्वयं भोजन करता है तो (तदा) तब वह (राजाविनश्यति) राजा नाश हो जाता है। भावार्थ-अगर राजा भोजन करने योग्य भोजन के पदार्थों को अतिथि की पूजा के बिना देवताओं की पूजा के बिना, नौकरों को भोजन दिये बिना ही स्वयं भोजन कर लेता है तो समझो वह राजा मारा जायगा ।। १२२ ।। द्विपदाश्चतुःपदा वाऽपि यदाऽभीक्ष्णं रदन्ति वै। परस्परं सुसम्बद्धा सा सेना बध्यते परैः॥१२३ ।। (द्विपदाश्चतुःपदा) दो पाँव वाले मनुष्य चार पाँव वाले पशु (वाऽपियदा) जब भी (परस्परंसुसम्बद्धा) परस्पर मिलकर (अभीक्ष्णंरदन्तिवै) वे प्रतिक्षण रोते हुए दिखाई पड़े तो (सा) वो (सेना) सेना (बध्यतेपरैः) बन्धन को प्राप्त हो जाती है। भावार्थ-चार पाँव वाले पशु दो पाँव वाले मनुष्य परस्पर एक साथ मिलकर रोवे और कठोर शब्द करे तो समझो सेना बन्धन को प्राप्त हो जायगी॥ १२३ ।। ज्वलन्ति यस्य शस्त्राणि नमन्ते निष्क्रमन्ति बा। सेनायाः शस्त्रकोशेभ्य: साऽपि सेना विनश्यति॥१२४॥ (यस्य) जिसके (शस्त्राणि) शस्त्र (ज्वलन्ति) जलने लगे (वा) वा (सेनायाः शास्त्रकोशेभ्य:) सेना के शस्त्रकोष से (निष्क्रमन्ति) स्वयं निकलने लगे, (नमन्ते) नमने लगे तो (साऽपि) वो भी (सेनाविनश्यति) सेना नाश हो जाती है। भावार्थ-जिस सेना के शस्त्र अपने-आप ही जलने लगे अपने-आप ही कोष से बाहर निकलने लगे, और नम्र होने लगे तो समझो उस सेना का विनाश हो जायगा ।। १२४ ।। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९ त्रयोदशोऽध्याय: नर्दन्ति द्विपदा यत्र पक्षिणो वा चतुःपदाः। क्रव्यादास्तु विशेषेण तत्र संग्राममादिशेत् ॥१२५॥ (यत्र जहाँ पर (द्विपना वा चतुःपदा) दो पाँव वाले व चार पाँव वाले (पक्षिणो) पक्षी (विशेषेण) विशेषता से (क्रव्यादास्तु) मांसभक्षी जीव (नन्ति) शब्द करने लगे तो (तत्र) वहाँ (संग्राममादिशेत) संग्राम होने की सूचना समझनी चाहिये। भावार्थ-दो पाँव वाले अथवा चार पाँव वाले विशेषकर मांसभक्षी पशु-पक्षी प्रयाण के समय में शब्द करे तो समझो वहाँ पर संग्राम अवश्य होगा ।। १२५॥ विलोमसु च वातेषु प्रतीष्ठे वाहनेऽपि च। शकुनेषु च दीप्तेषु युध्यतां तु पराजयः ।। १२६॥ (विलोमसु च वातेषु) वायु विलोम रूप होकर चले, (च) और (वाहनेऽपि प्रतीष्ठे) वाहनादिक प्रदीप्त दिखे, (शकुनेषु च दीप्तेषु) शकुन दीप्त दिखे (तु) तो (युध्यतां पराजयः) युद्ध में पराजय होगी। भावार्थ-वायु विलोम रूप चले वाहनादिक प्रदीप्त हो और शकुन दीप्त दिखे तो समझो युद्ध में सेना की पराजय होगी ।। १२६॥ युद्धप्रियेषु हृष्टेषु नर्दत्सु वृषभेषु च। रक्तेषु चाभ्रजालेषु सन्ध्यायों युद्धमादिशेत्॥१२७ ॥ (युद्धप्रियेषु हृष्टषु) युद्ध में प्रियों के प्रशन्न होने पर (च) और (वृषभेषु) बैलादिकों के (नर्दत्सु) गर्जना करने पर (चाभ्रजालेषु) और बादलों (सन्ध्यायां) सन्ध्याकाल में (रक्तेषु) लाल होने पर (युद्धमादिशेत) युद्ध होगा ऐसी सूचना मिलती भावार्थ---युद्ध में अगर हमारे प्रिय प्रशन्न हो रहे हो, गाय, बैलादिक गर्जना कर रहे हो, और सांयकाल के बादल लाल वर्ण के दिख रहे हो तो समझो युद्ध होगा ।। १२७॥ अभ्रेषु च विवर्णेषु युद्धोपकरणेषु च। दृश्यमानेषु सन्ध्यायां सद्यः संग्राममादिशेत्॥१२८॥ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ( सन्ध्यायां ) सांयकाल में (अध्रेषु) बादलों में (च) और (युद्धोपकरणेषु) युद्धके उपकरणों में (विवर्णेषु दृश्यमानेषु ) विवर्णता दिखलाई पड़ने पर (सद्य: संग्राममादिशेत्) शीघ्र ही संग्राम की सूचना मिलेगी । भावार्थ — सन्ध्याकाल के बादलों में और युद्धोपकरणों में अगर विवर्णता दिखलाई पड़े तो समझो शीघ्र ही युद्ध की सूचना मिलेगी ॥ १२८ ॥ ३१० कपिले रक्तपीते वा हरिते च तले स सद्य: परसैन्येन बध्यते नाऽत्र यदि ( चमूः) सेना (कपिले रक्तपीते वा) कपिल वर्ण के और लाल वर्ण के व पीले वर्ण के (च) और (हरिते ) हरे रंग के बादलों के ( तले) नीचे गमन करे तो ( स सद्यः पर सैन्येन बध्यते) वो सेना शीघ्र ही दूसरी सेना के द्वारा बांधी जायगी (नाऽत्र संशयः) इसमें कोई सन्देह नहीं है । भावार्थ — यदि सेना कपिल वर्ण के बादलों के नीचे अथवा लाल, पीले व हरे रंग के बादलों के नीचे जाती हुई दिखाई पड़े तो समझो वो सेना दूसरी सेना के द्वारा बाँधी जायगी ।। १२९ ।। चमूः । संशयः ।। १२९ ।। काका गृध्राः शृगालाश्च कङ्का ये चामिषप्रियाः । पश्यन्ति यदि सेनायां प्रयातायां भयं भवेत् ॥ १३० ॥ (काका) कौआ (गृध्रा :) गृद्ध, ( शृगालश्च) और शृगाल (कङ्का) चिड़ियादि (ये चामिषप्रियाः) जो मांस प्रिय है ऐसे जीव (यदि सेनायां पश्यन्ति ) यदि सेना को देखते हैं तो ( प्रयातायां भयं भवेत् ) प्रयाण करने वाली सेना को भय होगा । भावार्थ- प्रयाण करने वाली सेना को यदि कौआ, गिद्ध, शृगाल आदि मांसभक्षी पशु-पक्षी देखते हैं तो समझो सेना को भय उत्पन्न होगा ॥ १३० ॥ उलूका वा विडाला वा मूषका वा यदा भृशम् । वासन्ते यदि सेनायां निश्चितः स्वामिनो वधः ।। १३१ ॥ ( यदि सेनायां ) यदि सेना के अन्दर (उलूका ) उल्लू (वा विडाला) व बिल्लीयाँ ( वा मूषका) व चूहा आदि ( पदाभृशम् ) अधिक मात्रा में ( वासन्ते) वास करे तो (निश्चित: स्वामिनोवधः ) निश्चित ही स्वामी का वध हो जायगा | Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशोऽध्यायः भावार्थ-यदि सेना के अन्दर चूहा, उल्लू, बिल्ली आदि अधिक मात्रा में वास करे तो समझो उस सेना का स्वामी अवश्य मर जायगा ।। १३१ ।। ग्राम्या वा यदि वारण्या दिवा वसन्ति निर्भयम्। सेनायां संप्रयातायां स्वामिनोऽत्र भयं भवेत्॥१३२॥ (ग्राम्या वा यदि वाऽरण्या) ग्राम के व जंगल के (दिवा) कौए (सेनायां) सेना के अन्दर (निर्भयम् वसन्ति) निर्भय होकर वास करे तो (संप्रयातायां) सेना के (स्वामिनोऽत्र भयं भवेत्) स्वामी को यहाँ पर भय उत्पन्न होगा। भावार्थ-यदि प्रयाण करने वाली सेना के अन्दर गाँव अथवा जंगल के कौए निर्भय होकर वास करे तो समझो सेना के स्वामी को भय होगा ।। १३२ ।। मैथुनेन विपर्यासं यदा कुर्युर्विजातयः। रात्री दिवा च सेनायां स्वामिनो बथमादिशेत्॥१३३॥ यदि प्रयाण के समय (सेनायां) सेना के अन्दर (रात्री दिवा च) रात्रि हो या दिन में (यदा) जब (विजातयः) विजाती के साथ (विपर्यास) विपरीत रूप में (मैथुनेन) मैथुन (कुर्युः) करे तो (स्वामिनो वधमादिशेत्) सेना के स्वामी का अवश्य वध हो जायगा ऐसा कहा गया है। भावार्थ-सेना के प्रयाण समय में सेना के अन्दर रात्रि हो या दिन अगर विजातीय पशु-पक्षी विपरीत रूप में मैथुन क्रिया करे तो समझो सेना के स्वामी का वध हो जायगा ।। १३३॥ चतुःपदानां मनुजा यदा कुर्वन्ति वाशितम्। मृगा वा पुरुषाणां तु तत्रापि स्वामिनो वधः ।। १३४ ॥ (यदा) जब (चतुःपदानां) चतुष्पदों की (वाशितम्) आवाज (मनुजा कुर्वन्ति) मनुष्य करे और (मृगा वा पुरुषाणां) पुरुषों की आवाज मृग करे (तु) तो (तत्रापि) तो भी (स्वामिनोवधः) समझो स्वामी का वध हो जायगा। भावार्थ-पशुओं की आवाज मनुष्य करे और मनुष्यों की आवाज मृग करे तो समझो स्वामी का वध होगा ॥१३४॥ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ३१२ एकपादास्त्रिपादो वा त्रिशृङ्गो यदि वाऽधिकः। प्रसूयते पशुर्यत्र तत्रापि सौप्तिको वधः ।। १३५।। (यत्र) जहाँ पर (एकपादास्त्रिपादो) एक पाँव वाला, तीन पाँव वाला, (वा) और (त्रिशृङ्गो) तीन सींग वाला (यदि वाऽधिकः) व अधिक सींग वाला (पशुः प्रसूयते) पशु उत्पन्न होता है (तत्रापि) तो भी (सौप्तिको वधः) स्वामी का वध हो जायगा। भावार्थ-यदि पशु एक पाँव वाले, तीन पाँव वाले, व तीन सींग वाले व अधिक सीगं वाले उत्पन्न हो तो भी राजा का वध हो जायगा ।। १३५ ।। अश्रुपूर्णमुखादीनां शेरते च यदा भृशम्। पदान्विलिखमानास्तु हया यस्य स बध्यते ॥१३६ ।। (यस्य हया) जिसके घोड़े, (अश्रुपूर्णमुखादीनां शेरते) आँसओं से भरी आँखों पूर्वक मुख को दीन करते हुए सोते है (च) और (यदा पदन्विलिखमानास्तु भृशम्) जब पाँव की टॉप से पृथ्वी खोदने लगे तो समझो (स बध्यते) उसके राजा का वध होता है। भावार्थ-जिसकी सेना के घोड़े आँसूओं से भरी आँखों में मुखदीन करते हुए शयन करे व अपने पॉवों के खुर से पृथ्वी को खोदे तो समझो राजा का वध हो जायगा ।। १३६।। निष्कुटयन्ति पादैर्वा भूमौ वालान् किरन्ति च । प्रहृष्टाश्च प्रपश्यन्ति तत्र संग्राममादिशेत् ।। १३७ ।। यदि घोड़े (निष्कुटयन्तिपादैः) अपने पाँव पृथ्वी पर कूटते हो (वा) और (भूमौ वालान् किरन्ति च) भूमि पर बाल गिराते हो और (प्रहृष्टाश्च प्रपश्यन्ति) प्रसन्नचित्त दिखते हो तो (तत्र) वहाँ पर युद्ध (संग्राममादिशेत्) की शंका उत्पन्न होगी। भावार्थ-जिस सेना के घोड़े अपने पाँवो से पृथ्वी को कूटते हो अथवा अपने बाल पृथ्वी पर गिराते हो अथवा घोड़े प्रसन्नचित्त दिखते हो तो समझो वहाँ पर युद्ध होने वाला हैं यह संकेत है।। १३७॥ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ त्रयोदशोऽध्यायः न चरन्ति यदा ग्रासं न च पानं पिबन्ति वै। श्वसन्ति वाऽपि धावन्ति विन्द्यादग्निभयं तदा॥१३८ ॥ सेना के घोड़े, (न चरन्ति यदा ग्रास) जब घास भी न खाये (च) और न पानं पिबन्ति वै) पानी भी नहीं पीवे (वा) और (श्वसन्तिवाऽपिधावन्ति) श्वांस लेकर दौड़े भी तो (तदा) तब (अग्निभयं विन्द्याद) अग्नि भय होगा ऐसा समझो। __ भावार्थ-यदि सेना के घोड़े न तो खाना खावे न पानी पीवे और श्वांस लेते हुए इधर-उधर दौड़े तो समझो वहाँ पर अग्नि भय होगा ।। १३८॥ क्रौञ्चस्वरेण स्निग्धेन मधुरेण पुनःपुनः । हेषले गतिरष्टास्ता राज्ञो जयावहाः॥१३९ ।। (क्रौञ्च) क्रौंच पक्षी (स्निग्धेन) स्निग्ध रूप (मधुरेण) मुधर (स्वरेण) स्वर से (पुन:पुनः) बार-बार (गर्वितास्तुष्टा:) तुष्ट होते हुए गविर्त होकर (हेषन्ते) शब्द करे तो (तदा) तब (राज्ञो जयावहा:) राजा की जय होगी ऐसा कहते हैं। भावार्थ-क्रोंच पक्षी स्निग्ध रूप मधुरता से पुन:-पुन: शब्द करे और सन्तुष्ट होता हुआ गर्वित दिखे तो समझो राजा की विजय होगी ॥ १३९॥ प्रहेषन्ते प्रयातेषु यदा वादित्रनि:स्वनैः । लक्ष्यन्ते बहवो हृष्टास्तम्य राज्ञो ध्रुवं जयः॥१४०॥ (यदा) जब (वादित्र) बाजे (प्रयातेषु) प्रयाण के समय (निःस्वनैप्रहेषन्ते) शब्द करते हुए दिखाई दे और (बहवोहृष्टाः लक्ष्यन्ते) बहुत व्यक्ति प्रशन्न दिखाई दे तो समझो राजा की अवश्य विजय होगी। । भावार्थ राजा के प्रयाण समय में बाजे शब्द करते हुए दिखाई दे और बहुत लोग प्रशन्नचित्त दिखे तो अवश्य ही राजा की विजय होगी।। १४० ।। यदा मधुरशब्देन हेषन्ति खलु वाजिनः। कुर्यादभ्युत्थितं सैन्यं तदा तस्य पराजयम्॥१४१ ।। (यदा) जब (वाजिनः) घोड़े (मधुरशब्देन हेषन्ति) मधुर शब्द करके हँसते Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ३१४ हों (तदा) तब (खलु) निश्चिय से (कुर्यादभ्युत्थितं सैन्यं पराजयम्) उठती हुआ सेना का पराजय होगा। भावार्थ प्रयाण करने वाली सेना के वाहन और प्रहरणों में जो-जो शुभाशुभ घटित हो तो है उसी के अनुसार फल होता है। १४२ ॥ सन्नाहिको यदा युक्तो नष्टसैन्यो बहिर्वजेत्। तदा राज्यप्रणाशस्तु अचिरेण भविष्यति॥१४३॥ (यदा) जब (नष्टसैन्यो) सेना के नष्ट होने पर (सन्नाहिकोयुक्तो) सेना से युक्त नायक (बहिर्ब्रजेत्) बाहर चला जावे तो (तदा) तब (अचिरेण) शीघ्र ही (राज्यप्रणाशस्तु भविष्यति) राज्य नष्ट हो जायगा। भावार्थ-जब राजा की सेना नष्ट हो जाय और सेना नायक पलायन हो जाय तो समझो उस राज्य का नाश होने वाला है सेना नायक बिना राज्य स्थिर नहीं रह सकता है॥ १४३|| सौम्यं बाह्यं नरेन्द्रस्य हयममारुह्यते हयः। सेनायामन्यराजानां तदा मार्गन्ति नागराः ॥१४४॥ (नरेन्द्रस्य) राजा के (सौम्यं बाह्य) बाहर निकलने पर (हयममारुह्यते हयः) उत्तर दिशा में घोड़ा-घोड़े पर चढ़े तो (सेनायामन्यराजानां) सेना के लोग अन्य राजा की (तदा) तब (मार्गन्ति नागरा:) शरण में चले जाते हैं। भावार्थ-यदि युद्ध प्रयाण के समय में राजा के उत्तर की ओर घोड़ा-घोड़े पर चढ़े तो समझो उस नगर के लोग अन्य राजा की शरण में चले जाते हैं। १४४ ।। अर्द्धवृत्ता: प्रधावन्ति वाजिनस्तु युयुत्सवः। हेषमाना: प्रमुदितास्तदा ज्ञेयो जयो ध्रुवम् ।। १४५॥ (वाजिनस्तु) जब घोड़े, (हेषमाना:) हंसते हुए, (प्रमुदिता:) प्रमोद मन से (युयुत्सवः) उत्सव सहित (अर्द्धवृत्ता:) अर्द्धवृत्ताकार (प्रधावन्ति) दौड़ते हैं तो समझो राजा की (ध्रुवम्) निश्चय से (जयो शेयो) जय समझनी चाहिये। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५ त्रयोदशोऽध्यायः भावार्थ-जब घोड़े हँसते हुए अर्द्धवृत्ताकार होकर प्रमोदित मन होकर दौड़ते हैं तो समझो राजा की विजय होगी ।। १४५ ॥ पादं पादेन मुक्तानि निःक्रमन्ति यदा हयाः । पृथन् पृथम् संस्पृश्यन्ते तदा विन्द्याद्भयावहम् ॥ १४६ ॥ (यदा हयाः) जब घोड़े ( पादं पादेन मुक्तानि ) पाँव से पाँव पृथक् करके ( निःक्रमन्ति) निकले और वह भी ( पृथग्पृथग्संस्पृश्यन्ते) पृथक्-पृथक् स्पर्श करे तो ( तदा ) तब ( भयावहम् विन्द्याद्) भय को उत्पन्न करेंगे ऐसा जानो । भावार्थ— जब घोड़े पाँव से पाँव अलग करके चले और अलग-अलग स्पर्श करे तो राजा को भय होगा ऐसा जानो ॥ १४६ ॥ यदा राज्ञः प्रयातस्य वाजिनां संप्रणाहिकः । पथि च म्रियते यास्मिन्नचिरात्मा नो भविष्यति ।। १४७ ।। ( यदा राज्ञः प्रयातस्य ) जब राजा के प्रयाण समय में ( वाजिनां ) घोड़ों को ( संप्रणाहिक: ) पालन करने वाला (पथि च म्रियते) मार्ग में ही मर जाय तो ( यस्मिन्नचिरात्मा नो भविष्यति ) राजा का मरण निकट है वह चिरकाल तक नहीं जी सकता है। भावार्थ — राजा के प्रयाण समय में घोड़ों का पालन करने वाला मार्ग में ही मर जाय तो समझो राजा का शीघ्र ही मरण हो जाने वाला है ।। १४७ ।। शिरस्यास्ये च दृश्यन्ते यदा हृष्टास्तु वाजिनः । तदा राज्ञो जयं विन्द्यान्नचिरात् समुपस्थितम् ॥ १४८ ॥ ( यदा वाजिनः ) जब घोड़े (शिरस्यास्ये च हृष्टास्तु दृश्यन्ते) सिर और मुख से प्रशन्न दिखे तो ( तदा राज्ञो) तब राजा को (जयं विन्द्यात्) जय होगी (अचिरातसमुपस्थितम् ) ऐसा शीघ्र तुम भावार्थ- जब घोड़े सिर से राजा की शीघ्र ही जय होगी ।। १४८ ॥ जानो ! और मुख से प्रशन्न दिखलाई पड़े तो समझो Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता हयानां ज्वलिते चाग्निः पुच्छे पाणी पदेषु वा । जघने च नितम्बे च तदा विद्यान्महद्भयम् ॥ १४९ ॥ (हयानां ) जब घोड़ों के (पुच्छे ) पूंछ से (पाणौपदेषुवा) हाथों में व पाँवों में व ( जघने व नितम्बे च) जघन स्थानों में व नितम्ब स्थानों में (ज्वलितेचाग्निः ) यदि अग्नि प्रज्वलित दिखे तो ( तदा विद्यान्महद्भयम् ) तब महान भय होगा ऐसा समझो । हेमानस्य अश्वस्यविजयं भावार्थ — जब घोड़ो के पाँवों में नितम्बों में पुच्छों में जघन्य स्थानों में अग्नि प्रज्वलित दिखे तो समझो राजा को महान भय उपस्थित होगा ।। १४९ ॥ ३१६ दीप्ता सुनिपतन्त्यर्चिषो श्रेष्ठ मूर्ध्वदृष्टिश्च श्वेतस्य कृष्णं दृश्येत पूर्वकाये तु हन्यात् तं स्वामिनं क्षिप्रं विपरीते मुखात् । शंसते ॥। १५० ।। (हेषमानस्य) हँसते हुए (दीप्तासु) बोड़े के (मुखात्) मुख हे (दितन्त्यर्चिनो) अनि लगती हुई दिखाई पड़े व (अश्वस्य ) घोड़े का (मूर्ध्वदृष्टिश्च श्रेष्ठ) ऊपर की ओर मुँह करके देखना भी श्रेष्ठ है वह (विजयं शंसते ) राजा की विजय होती है ऐसी सूचना करता है। भावार्थ - हँसते हुए घोड़े के मुँह से यदि अग्नि लगती हुई दिखाई पड़े और घोड़े ऊपर मुँह करके देखे तो राजा की विजय होगी ऐसा समझना चाहिये ॥ १५० ॥ वाजिनः । धनागमम् ॥ १५१ ॥ ( वाजिनः ) घोड़ों के ( पूर्वकाये) पूर्वभाग ( श्वेतस्यकृष्णं दृश्येत ) सफेद का काला दिखाई दे (तु) तो (तं) उस सेना के ( स्वामिनं हन्यात्) स्वामी का मरण होगा (विपरीते क्षिप्रं धनागमम् ) विपरीत दिखे तो शीघ्र ही घन का आगमन होता | भावार्थ — यदि घोड़े का पूर्वभाग सफेद का काला दिखाई पड़े तो समझो सेना के राजा का मरण होगा, और विपरीत दिखे तो याने उत्तर भाग काले का सफेद दिखे तो समझो शीघ्र ही राजा को धन लाभ मिलेगा ॥ १५१ ॥ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ त्रयोदशोऽध्यायः वाहकस्य वधं विन्द्याद् यदा स्कन्धे हयो ज्वलेत् । पृष्टतो ज्वलमाने तु भयं सेनापतेर्भवेत् ॥ १५२ ॥ ( यदा) जब (हयो) घोड़े का ( स्कन्धे) कन्धा (ज्वलेत्) जलता हुआ दिखाई पड़े तो (वाहकस्य वधं विन्द्याद्) सवार का मरण समझो और ( पृष्ठतो ज्वलमानेतु) पृष्ठ भाग जलता हुआ दिखाई पड़े तो समझो ( सेनापतेर्भवेत् ) सेनापति को भय उत्पन्न होगा । भावार्थ-यदि घोड़े का कन्धा जलता हुआ दिखाई पड़े तो समझो घुड़सवार मारा जायगा, और पृष्ठ भाग जलता हुआ दिखे तो समझो सेनापति को भय उत्पन्न होगा ॥ १५२ ॥ तस्यैव तु यदा गुरख्यात ला बाई धूमो निर्धावति प्रहेषतः । निर्दिशेत् अनुपस्थितम् ॥ १५३ ॥ ( यदा) जब (प्रहेषतः ) घोड़ों के ( निर्धावति) दौड़ते हुए का (धूमो ) धुआँ पीछा करे (तु) तो ( तस्यैव ) उसके ही (पुरस्यापि ) नगर का भी ( नाशं) नाश ( प्रत्युपस्थितम् ) उपस्थित होगा ऐसा (निर्दिशेत् ) निर्देश दिया है। भावार्थ - जब दौड़ते हुए घोड़ों का पीछा धुआँ करे तो समझो राजा के नगर का नाश हो जायगा, यहाँ ऐसा निर्देश है ॥ १५३ ॥ सेनापतिवधं विद्याद् बालस्थानं यदा ज्वलेत् । त्रीणि वर्षान्यनावृष्टिस्तदा तद्विषये भवेत् ॥ १५४ ॥ ( यदा) जब घोड़े के ( बालस्थानं ज्वलेत्) बाल स्थान जलता हुआ दिखे तो ( सेनापति वधं विद्याद्) सेनापति का वध समझो। और ( त्रीणिवर्षान्यनावृष्टिस्तदा तद्विषये भवेत् ) तीन वर्ष तक अनावृष्टि होगी ऐसा समझना चाहिए। भावार्थ-जब घोड़े के वाल स्थान जलते हुए दिखाई पड़े तो समझो सेनापति का वध होगा, और तीन वर्ष तक अनावृष्टि होगी ऐसा आचार्यश्री ने कहा हैं ।। १५४ ॥ अन्तःपुर विनाशाय मेंद्र प्रज्वलते यदा । उदरं ज्वलमानं च कोशनाशाय वा ज्वलेत् ॥ १५५ ॥ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ३१८ (यदा) जब घोड़े का (मेंद्र) अण्डकोष (प्रज्वलते) जलता हुआ दिखे तो (अन्त:पुरविनाशाय) अन्तपुर का विनाश होगा, (च) और (उदरं ज्वलमान) पेट जलता हुआ दिखाई देतो (कोशनाशाय वाजवलेत्) समझो धनागार का नाश हो जायगा। भावार्थ-जब सेना के घोड़े का अण्डकोष जलता हुआ दिखे तो समझो अन्तपुर का नाश हो जायगा, और पेट जलता हुआ दिखे तो भण्डार नाश होगा।। १५५ ।। शेरते दक्षिणे पार्वे हयो जयपुरस्कृतः। स्वबन्धशायिनशाहुर्जयमाश्चर्य साधकः॥१५६ ॥ (यदि) यदि (हयो) घोड़ा (दक्षिणे पार्वे शेरते) दक्षिणपार्श्व से सोता है तो (जयपुरस्कृत:) जय देना वाला होता है और (स्वबन्धायिनश्चाहु) पेट की तरफ से शयन करे तो समझो (साधकः) साधक की (आश्चर्य) आश्चर्यपूर्वक (जयम्) जय होगी। भावार्थ-यदि घोड़ा पेट के सहारे प्रयाण समय में सोता है तो समझो राजा की आश्चर्यपूर्वक जय होगी और दक्षिण की ओर शयन करता है तो राजा की विजय होगी॥१५६॥ वामार्धशायिनश्चैव तुरङ्गा नित्यमेव च। राज्ञो यस्य न सन्देहस्तस्य मृत्युं समादिशेत् ।। १५७॥ (नित्यमेवतुरङ्गा) नित्य ही घोड़ा (वामार्धशायिनश्चैव) वाम भाग से और वो भी अर्ध भाग से शयन करे तो यस्य) जिस (राज्ञो) राजा की सेना है (तस्य) उसी (मृत्यु) मृत्यु होगी (यस्य न सन्देहः) उसमें कोई सन्देह नहीं है। (समादिशेत) ऐसा कहा है। भावार्थ-नित्य ही घोड़ा वाम भाग से वह भी आधे ही से शयन करे और नित्य करे तो राजा की मृत्यु होने में कोई सन्देह नहीं है।। १५७॥ सौसुप्यते यदा नाग: पश्चिमश्चरणस्तथा। सेनापतिवधं विद्याद् यदाऽनं च न मुञ्जते॥१५८॥ (यदा नगाः) यदि हाथी (पश्चिमश्चरणसौ सुप्यते) पश्चिम की तरफ पाँव कर Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१९ त्रयोदशोऽध्यायः सोवे (तथा) तथा (यदाऽनंचनभुञ्जते) जब अन्न भी नहीं खाता हो तो (सेनापति वधं विद्या) सेनापति का वध होगा ऐसा समझो। भावार्थ-जब हाथी पश्चिम दिशा की ओर पाँव करके शयन करे, और भोजन भी न करे तो समझो सेनापति का वध हो जायगा । १५८॥ यदान्नं पादवारौं वा नाभिनन्दन्ति हस्तिनः। यस्यां तस्यां तु सेनायामचिराद्वधमादिशेत्॥१५९॥ (यस्यां) जिस (सेनायाम्) सेना के (हस्तिन:) हाथी (यदान्नं पादवारी वा नाभिनन्दन्ति) अन्न-पानी ग्रहण नहीं करे (तो तो (तयां) उस सेना के लोग (अचिराद्वधमादिशेत्) शीघ्र ही मरण को प्राप्त हो जायगें। भावार्थ-सेना के हाथी आहार पानी छोड़कर पड़ जाय तो समझो उस सेना का विनाश हो जायगा कोई नहीं बचेगा।। १५९॥ निपतन्त्यग्रतो यद्वै त्रस्यन्ति वा रुदन्ति वा। निष्पदन्ते समुद्विग्नां यस्य तस्य वधं वदेत्॥१६॥ (यस्य) जिस राजा की सेना के आगे कोई व्यक्ति (यद्वै) यदि (त्रस्यन्ति वा रुदन्ति वा) त्रसित होकर रोता हुआ (अग्रतो) आगे (निपतन्त्य्) गिरे और वो भी (समुद्विग्न) उद्विग्न होकर तो (तस्य) उस राजा का (वधं) मरण (निष्पदन्ते) निष्पादन करेगा (वदेत्) ऐसा कहो। भावार्थ-अगर कोई व्यक्ति प्रयाण काल में राजा की सेना के आगे रोता हुआ, कष्ट से उद्विग्न होकर गिरे तो समझो राजा का मरण होगा ऐसा कहो।। १६० ।। क्रूरं नदन्ति विषमं विश्वर निशि हस्तिनः। दीप्यमानास्तु केचित्तु तदा सेनावधं ध्रुवम् ॥१६१॥ यदि (हस्तिनः) हाथी (निशि) रात्रि में (क्रर) र (विषमं) विषम (विश्वर) विश्वर (नदन्ति) करते हैं, (केचित्तु दीप्यमानास्तु) और जलते हुए दिखाई पड़े तो (तदा) तब (सेमावधं ध्रुवम्) निश्चय से सेना का मरण होगा। ___ भावार्थ- यदि रात्रि में हाथी क्रूर, विषम और विश्वर करे और अग्नि में जलते हुए दिखे तो समझो सेना का वध हो जायगा॥१६१ ।। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रवार सहिता गो-नागवाजिनां स्त्रीणां मुखाच्छोणितबिन्दवः। द्रवन्ति बहुशो यत्र तस्थ राज्ञः पराजयः॥१६२॥ राजा के प्रयाण काल में (गो) गाय (नाग) हाथी, (वाजिनां) घोड़े, (स्त्रीणां) स्त्रियों के (मुखाच्छोणितबिन्दव:) मुख पर रक्तकी बून्द दिखे (बहुशोयत्र द्रवन्ति) बहुत जगह दिखे तो (तस्य राज्ञः पराजय:) उस राजा की पराजय होगी। भावार्थ-युद्ध के लिये निकलते समय में गाय, हाथी, घोड़े व स्त्रीयों के मुख पर सर्वत्र रक्त की बूंदे दिखलाई पड़े तो समझो राजा की पराजय होगी।। १६२॥ नरा यस्य विपद्यन्ते प्रयाणे वारणैः पथि। कपालं गृह्य धावन्ति दीनास्तस्य पराजयः ।।१६३॥ (यस्य) जिस राजा के (प्रयाणे) प्रयाण काल में (वारणैः) हाथी (पथि) मार्गस्थ (नरा) मनुष्यों को (विपद्यन्ते) पीड़ा पहुँचावे, और लोग (कपालं गृह्य धावन्ति) सिर पकड़ कर दौड़े वो भी (दीना:) दीन होकर तो (तस्य) उसकी (पराजयः) पराजय होगी। भावार्थ-युद्ध के लिये प्रयाण काल में हाथी लोगों को पीड़ित करे और लोग सिर पकड़ कर करुण शब्द करते हुए दौड़े तो समझो उसकी पराजय होगी॥१६३ ।। यदा धुनन्ति सीदन्ति निपतन्ति किरन्ति च। खादमानास्तु खिद्यन्ते तदाऽऽख्याति पराजयम् ॥१६४॥ (यदा) जिसके घोड़े (धुनन्ति) धुनते हो, (सीदन्ति) दुःखित होते हो, (निपतन्ति) गिरते हो, (किरन्ति च) और खिन्न होते हो, (खादमानास्तु खिद्यन्ते) खाते हुए भी खेदित हो तो (तदाऽऽख्याति पराजयम्) तब उस की पराजय होगी ऐसा कहना भावार्थ-जिस सेना के घोड़े खाते हुए खेद-खिन्न हो, सिर धुनते.हो, दुःखित हो, गिरते हो, खिन्न होते हो तो समझो राजा की पराजय होगी॥१६४ ।। हेषन्त्यभीक्ष्णमश्वास्तु विलिखन्ति खुरैर्धराम्। नदन्ति च यदा नागास्तदा विन्द्याद् ध्रुवं जयम्॥१६५॥ (अश्वास्तु) जब घोड़े (हेषन्त्य भीक्ष्ण) बार-बार हँसते हो (विलिखन्ति Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१ प्रयोदशोऽध्यायः खुरैर्धराम्) और अपने खुर से पृथ्वी को खोदते हो (च) और (यदा) जब (नागा:) हाथी (नदन्ति) प्रशन्नता से चिंधाड़ते हो तो समझो (ध्रुवं) निश्चय से (जयम्) जय (विन्द्याद्) होगी ऐसा समझो।। भावार्थ-जब घोड़े बार-बारे हंसे और प्रशन्न होकर अपने खुर से पृथ्वी को खोदे और हाथी प्रसन्नतापूर्वक चिंघाड़े तो समझो राजा की जय होगी।। १६५।। पुष्पाणि पीतरक्तानि शुक्लानि च यदा गजाः। अभ्यन्तराग्रदन्तेषु दर्शयन्ति तदा जयम्॥१६६॥ (यदा) जब (गजा:) हाथी (पीतरक्तानि, शुक्लानि) पीले, लाल, सफेद रंग के (पुष्पाणि) पुष्प (अभ्यन्तराग्रदन्तेषु) अभ्यन्तरगतदांतो के ऊपर (दर्शयन्ति) दिखाते है तो समझो (तदा जयम्) तब राजा की जय होगी। भावार्थ-जब हाथी अभ्यन्तरदांतों के ऊपर लाल, पीले, सफेद रंग के फूल दिखता है तो समझो राजा की विजय को सूचित कर रहा है। १६६ ।। यदा मुञ्चन्ति शुण्डाभिर्नागा नादं पुनःपुनः। परसैन्योपघाताय तदा विन्द्याद् ध्रुवम् जयम् ।। १६७।। (यदा) जब (नागा) हाथी (शुण्डाभिः) सुण्ड से (पुन:पुन:) बार-बार (नादं मुञ्चन्ति) शब्द को छोड़ता है (तदा) तब (परसैन्योपघाताय) पर आक्रमणकारी सेना घात के लिये और (ध्रुवम् जयम् विन्द्याद) निश्चय से नगरस्थ राजा की जय होगी ऐसा जानो। भावार्थ-पर सेना के ऊपर विजय पाने वाले राजा के प्रयाण के समय में यदि हाथी सूंड से बार-बार शब्द करते हो तो समझो पर सेना का नाश कर राजा शीघ्र ही विजयी होकर वापस आयेगा ।। १६७॥ पादैः पादान् विकर्षन्ति तलैर्वा विलिखन्ति च। गजास्तु यस्य सेनायां निरुध्यन्ते ध्रुवं परैः ।।१६८॥ (यस्य) जिस (सेनायां) सेना के (गजास्तु) हाथी (पादैः पादान् विकर्षन्ति) पाँव से पाँव को घिसते हो (वा) व (च) और (तलैः) तलसे (विलिखन्ति) लेखन करते हो तो (ध्रुवं परे: निरुध्यन्ते) निश्चय से उस सेना का निरोध हो जायगा। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ३२२ भावार्थ-जिसे सेना के हाथी पौव से पॉव घिसते हो अथवा तलों से लिखते हुए के समान करे तो समझो उस सेना का निरोध हो जायगा॥१६८ ।। मत्ता यत्र विपद्यन्ते न माद्यन्ति च योजिताः। नागास्तत्र वधो राज्ञो महाऽमात्यस्य वा भवेत्॥१६९॥ (नागा:) जिस सेना के हाथी (यत्र) जहाँ (मत्ता) मदोन्मत्त होते हुए भी (विपद्यन्ते) विपत्ति को प्राप्त हो (च) और (न माद्यन्ति योजिताः) मदोन्मत्त नहीं है और उनको मदोन्मत्त करने की योजना करने पर भी नहीं होते हो तो (तत्र) वहाँ (राज्ञो) राजा का (वधो) वध होगा, (वा) व (महाऽमात्यस्य भवेत्) महामन्त्री का मरण होता है। भावार्थ-जिस सेना का हाथी मदोन्मत्त करने पर भी मदोन्मत्त नहीं होते हो अथवा मदोन्मत्तों को विपरीत करते हो तो समझो राजा का या महामन्त्री का अवश्य मरण हो जायगा ।। १६९ ।। यदा राजा निवेशेत भूमौ कण्टकसङ्कले। विषमे सिकताकीर्णे सेनापतिवधो ध्रुवम् ॥ १७०॥ (यदा राजा) जब राजा (कण्टकसङ्घले) कांटे से युक्त अथवा (विषमे) विषम (सिकताकीर्णे) बालु से युक्त (भूमौ) भूमि पर (निवेशेत) निवास करावे तो (ध्रुवम्) निश्चय से (सेनापतिबधो) सेनापति का वध होगा। भावार्थ-यदि राजा अपनी सेना को कांटे वाली भूमिपर या विषमभूमि पर अथवा बालु से (रेत) युक्त भूमिपर निवास करावे तो समझो अवश्य ही सेनापति का मरण होगा ।। १७०।। श्मशानास्थिरजः कीर्णे पञ्चदग्धवनस्पतौ। शुष्कवृक्ष समाकीर्णे निविष्टो वधमीहते॥१७१॥ यदि राजा अपनी सेना को (श्मशानास्थिरज: कीर्णे) श्मशान में अथवा हड्डी से युक्त ब धूल से युक्त (पञ्चपदग्धवनस्पती) अथवा जले हुए वन में व (शुष्कवृक्ष समाकीर्णे) सुकड़े वृक्षों वाली भूमि में (निविष्टो) निवास करावे तो (वधमीहते) राजा के वध होगा। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ त्रयोदशोऽध्यायः भावार्थ-राजा अपनी सेना को श्मशान भूमि में अथवा हड्डी से युक्त भूमि में अथवा धूल से युक्त भूमि में अथवा जले हुए वन में व सूखे हुए वृक्षों की भूमि में निवास करावे तो समझो राजा का वध होगा ।। १७१ ।। कोविदारसमाकीणे श्लेष्मान्तकमहाद्रुमे। पिलूकालविविष्टस्य प्राप्नुयाच्च चिराद् वधम्॥१७२॥ यदि सेना को (कोविदारसमाकीर्णे) लाल कचनार के वृक्षों की अथवा (श्लेष्मान्तकमहाद्रुमे) गोंद वाले वृक्षों की व (पिलूकालविविष्टस्य) पीलू के वृक्षों की भूमि पर निवास कराया जाय तो (चिराद्) शीघ्र ही (वधम्) वध को (प्राप्नुयाच्च) प्राप्त हो जारगा। भावार्थ-यदि सेना को लाल कचनेर की भूमि पर व गोंद वाले वृक्षों की भूमि पर व पीलू के वृक्षों वाली भूमि पर ठहरावे तो समझो शीघ्र ही राजा का वध होगा ।। १७२।। असारवृक्षभूयिष्ठे पाषागतृणकुत्सिते। देवतायतनाक्रान्ते निविष्टो वधमाप्नुयात्॥१७३॥ (असारवृक्षभूयिष्ठे) अरण्ड के वृक्षों वाली भूमि पर (पाषाण तृण कुत्सिते) पाषाण या तृण से युक्त भूमि पर (देवतायतनाक्रान्ते) अथवा देवता के निवास स्थान पर यदि सेना का (निविष्टो) निवास करावे तो समझो (वधमाप्नुयात्) सेना का वध होगा। ___ भावार्थ-अरण्ड के वृक्षों की व पाषाण से युक्त भूमि पर व तृणों से युक्त भूमि पर व देवताओं के स्थानों पर सेना को निवास करावे तो समझो राजा का वध होगा। १७३ ।। अमनोज्ञैः फलैः पुष्पैः पापपक्षिसमन्विते। अधोमार्गे निविष्टश्च युद्धमिच्छति पार्थिवः ॥१७४ ॥ यदि सेना को (अमनोज्ञैः फलैः पुष्पैः) अमनोज्ञ फल पुष्पों के स्थान पर अथवा (पापपक्षि: समन्विते) मांसभक्षी पक्षियों के वृक्षों के नीचे (अधोमार्गे निविष्टश्च) Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ३२४ व दलाव वाली भूमि की ओर निवास करावे तो ( पार्थिवः) राजा ( युद्धमिच्छति ) युद्ध चाहता है। भावार्थ - यदि सेना को राजा अमनोज्ञ फलों और पुष्पों के स्थानों पर अथवा मांसभक्षी पक्षियों के निवास स्थानों पर अथवा दलाव वाली जगह पर निवास करावे तो समझो राजा युद्ध की इच्छा करता है ।। १७४ ॥ नीचैर्निविष्टभूपस्य नीचेभ्यो भयमादिशेत् । यथा दृष्टेषु देशेषु तज्झेभ्यः प्राप्नुयाद् वधम् ॥ १७५ ॥ (नीचैर्निभूपस्य) नीने स्थानों पर हो हुए राजा को (नीचेभ्यो भयमादिशेत् ) नीच लोगों के द्वारा भय होता है ( यथा दृष्टेषु देशेषु) जिस स्थान व देश में देखे गये ( तज्झेभ्यः प्राप्नुयाद् वधम् ) उन्हीं स्थानों में राजा का वध हो जायगा । भावार्थ --- नीचे की ओर ठहरे हुए राजा को नीच लोगों से भय उत्पन्न होगा, जिस स्थान पर देखे गये उन्हीं स्थानों में राजा का वध होगा ।। १७५ ।। यत् किञ्चित् परिहीनं स्यात् तत् पराजयलक्षणम् । परिवृद्धं च यद् किञ्चिद् दृश्यते विजयावहम् ॥ १७६ ॥ ( यत् किञ्चित् परिहीनं स्यात् ) जो कुछ भी हीनता दिखलाई पड़ती है तो समझो (तत् पराजयलक्षणम्) वह सब पराजय के लक्षण है (परिवृद्धं च यद् किञ्चिद्) और जो कुछ भी वृद्धि देखी जाती है तो ( विजयावहम दृश्यते ) समझो विजय के लक्षण है। भावार्थ- सेना में जो कुछ भी हीनता दिखती है तो समझना चाहिये पराजय के लक्षण है और वृद्धि दिखती है तो समझो विजय के लक्षण हैं ।। १७६ ॥ कुवेषा दुर्वर्णाश्च दुर्गन्धाश्च व्याधिनस्तथा । सेनाया ये नराश्च स्युः शस्त्रवध्या भवन्त्यथ ।। १७७ ।। ( दुर्वर्णाश्च) दुर्वर्ण वाले ( दुर्गन्धाश्च ) दुर्गन्ध वाले, ( कुवेषा) कुवेष वाले (तथा) तथा ( व्याधिनः ) व्याधि से पीड़ित ( सेनाया ये नराश्च ) अगर सेना के लोग हो तो ( शस्त्रवध्या भवन्त्यथ) समझो सेना शस्त्रों के द्वारा मारी जायगी। * Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५ त्रयोदशमः भावार्थ — अगर सेना के लोग दुर्वर्ण वाले, दुर्गन्ध वाले, कुवेष वाले और व्याधियों से पीड़ित हो तो समझो सेना शस्त्रों से मारी जायगी ॥ ९७७ ॥ राज्ञो यथाज्ञानप्ररूपेण विज्ञेयः सम्प्रयातस्य भद्रबाहुवचो ( यथा ) इस प्रकार ( राज्ञो) राजा के (जयपराजय ) जय-पराजय का (ज्ञान) ज्ञान (प्ररूपेण) प्ररूपण के द्वारा (सम्प्रयातस्य) प्रमाण काल निश्चित (विज्ञेयः ) जानना चाहिये (यथा भद्रबाहुबचो ) इसी प्रकार भद्रबाहु स्वामी का वचन है। भावार्थ — इस प्रकार प्रयाण काल में राजा के जय-पराजय का ज्ञान भद्रबाहु स्वामी ने कहा आपको जानना चाहिये ।। १७८ ॥ जयपराजयः । यथा ।। १७८ ।। परस्य विषयं लब्ध्वा अग्निदग्धा न लोपयेत् । परदारां हिंस्येत् पशून वा पक्षिणस्तथा ॥ १७९ ॥ न ( परस्य विषयं लब्ध्वा ) दूसरे देश के राजा का राज्य मिलने पर (अग्निदग्धा न लोपयेद्) उस राज्य में अग्नि लगाकर उसका लोप नहीं करना चाहिये, (परदारां न हिंस्येत् पशून वा पक्षिणस्तथा) और परस्त्री का शील लूटे, पशु और पक्षियों की हिंसा न करे । वशीकृतेषु मध्येषु न च निरापराधचित्तानि नाददीत भावार्थ- दूसरे राजा का राज्य प्राप्त कर लेने पर उस राज्य को अनि जलाकर उस राज्य का लोप न करे, वहाँ की परस्त्री का शील भंग न करे और वहाँ के पशु-पक्षियों की भी हिंसा न करे ।। १७९ ।। शस्त्रं निपातयेत् । क्रदाचन ।। १८० ॥ ( वशीकृतेषु मध्येषु ) बस में किये हुए प्रदेशों में ( न शस्त्रं निपातयेत् ) शस्त्र प्रयोग कभी नहीं करना चाहिये, (निरापराधचित्तानि) निरपराधी चित्तवालो को ( कदाचन नाददीत) कभी भी पीड़ा नहीं देनी चाहिये । भावार्थ - राजा को चाहिये कि जिन प्रदेशों पर विजय प्राप्त की है उन प्रदेशों के लोगों पर कभी शस्त्रपात न करे, याने निरपराधी लोगों को न मारे न किसी प्रकार की पीड़ा पहुंचावे, यही न्यायी राजा का कर्त्तव्य है ।। १८० ।। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भदबाहु संहिता ३२६ देवतान् पूजयेत् वृद्धान् लिङ्गिनो ब्राह्मणान् गुरून्। परिहारेण नृपती राज्यं मोदति सर्वतः ॥१८१॥ जो राजा (देवतान्) देवताओं की (वृद्धान) वृद्धों की (लिङ्गिनो) साधुओं (ब्राह्मणान) ब्राह्मणों की (गुरून) गुरुओं की (पूजयेत्) पूजा करके (राज्य) राज्य के दोषों का (नृपति) राजा (परिहारेण) परिहार करे वही राजा (सर्वत:) सब जगह (मोदति) आनन्द पाता है। भावार्थ-राजा देवताओं की पूजा करके वृद्धों का सम्मान करके साधुओं की अर्चना करके ब्राह्मणों का आदर करके गुरुओं की सेवा करके राज्य के सब दोषों को परिहार करता है वो ही राजा देश को आनन्दित होता है॥ १८१॥ राजवंशं न वोच्छिद्यात् बालवृद्धांश्च पण्डितान्। न्यायेनार्थान् समासाद्य सार्थो राजा विवर्द्धते ।। १८२ ।। विजय पा लेने के बाद (राजवंशं न वोच्छिद्यात्) शत्रु राजा के वंश का नाश कभी नहीं करना चाहिये (बालवृद्धांश्चपण्डितान्) और बालक, वृद्ध, पण्डितों का भी नाश नहीं करना चाहिये, (न्यायेनार्थान् समासाद्य) न्याय से जो राजा राज्य करता है वो ही (राजा) राजा (सार्थो विवर्द्धते) वृद्धि को प्राप्त होता है। भावार्थ-राज्य प्राप्त कर लेने पर राजा कभी-कभी शत्रु राजा के वंश का नाश नहीं करना चाहिये, और बालक, वृद्ध, पण्डितजनों को भी कष्ट न देवे, न्याय से राज्य करने वाला राजा ही वृद्धि को प्राप्त होता है ।। १८२॥ धर्मोत्सवान् विवाहांश्च सुतानां कारयेद् बुधः। न चिरं धारयेद् कन्यां तथा धर्मेण वर्द्धते॥९८३॥ बुद्धिमान राजा को चाहिये की जिस राज्य पर विजय पायी है (धर्मोत्सवान) उस राज्य में धर्मोत्सव करे, (सुतानां विवाहांश्च) उस राजा की कन्याओं का विवाह कर देवे (न चिरं धारयेद् कन्यां) क्योंकि कन्याओं को ज्यादा रखना ठीक नहीं है (तथा धर्मेणवर्द्धते) इसी प्रकार करने वाला राजा ही वृद्धि को प्राप्त होता है। भावार्थ-बुद्धिमान राजा को पर राज्य के ऊपर विजय पा लेने के बाद उस राजा की कन्याओं का विवाह शीघ्र कर देना चाहिये, उस राज्य में धर्मोत्सव Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ त्रयोदशोऽध्यायः करावे, कन्याओं को ज्यादा अविवाहिता रखना ठीक नहीं है, न्याय से राज्य करने वाले की ही वृद्धि होती है।। १८३ ।। कार्याणि धर्मतः कुर्यात् पक्षपातं विसर्जयेत्। व्यसनैर्विप्रयुक्तश्च तस्य राज्यं विवर्द्धते ।। १८४॥ (पक्षपातं विसर्जयेत्) सम्पूर्ण पक्षपातों को छोड़कर (धर्मतः कार्याणि) धर्म के कार्य (कुर्यात्) करे (व्यसनैर्विप्रयुक्तश्च) और सम्पूर्ण व्यसनों से रहित होकर राज्य करे (तस्य) उसी (राज्य) राजा की (विवर्द्धते) वृद्धि होती है। भावार्थ:--राजा को सम्पूर्ण पक्षपात को छोड़कर राज्य करना चाहिये, धर्म से रहे, सात व्यसनों से रहित रहे ऐसा राजा ही वृद्धि को प्राप्त कर सकता है॥१८४ ।। यथोचितानि सर्वाणि यथा न्यायेन पश्यति। राजा कीर्ति समाप्नोति परत्रह च मोदते॥१८५॥ जो राजा (यथोचितानि) यथोचित (सर्वाणि) सबको (यथान्यायेनपश्यति) न्यायपूर्वक देखता है वही राजा (राजाकीर्तिं समाप्नोति) राजाकीर्ति को प्राप्त होता है, (च) और (परत्रेह मोदते) परभव में भी सुखी होता है। भावार्थ-जो राजा यथोचित सबको न्यायपूर्वक देखता है वही राजा कीर्ति को पा सकता है और वहाँ पर परलोक में सुखी होता है।। १८५॥ इमं यात्राविधिं कृत्स्नं थोऽभिजानाति तत्त्वतः। न्यायतश्च प्रयुञ्जति प्राप्नुयात् स महत् पदम्॥१८६ ॥ (इमं यात्राविधिकृत्स्न) इस प्रकार की यात्रा विधि को करता हुआ (योऽभिजानाति तत्त्वत:) अच्छी तरह से जानता है (न्यायतश्चप्रयुञ्जति) न्यायपूर्वक सबके साथ व्यवहार करता है तो (स) वह (महत् पदम् प्राप्नुयात्) महान् पद को प्राप्त करता है। ___ भावार्थ-जो राजा इस प्रकार की यात्रा विधि को अच्छी तरह से जानता है न्यायपूर्वक राज्य करता है वह महान् पद प्राप्त करता है।। १८६ !! विशेष वर्णन—इस अध्याय में आचार्य श्री राजाओं के यात्रा का वर्णन करते है, यात्रा को निकलते समय, चन्द्र, नक्षत्र, वार, तिथि, दिशाशूल, योगीनि Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ३२८ चक्र, शकुन आदि को अवश्य देखना चाहिये। भारत स्वतन्त्र होने के बाद राजाओं का अस्तित्व खत्म हो चुका है, इसलिये सामान्यत साधारण जनता की यात्रा के लिये यह सब देखना चाहिये, प्रत्येक यात्री को अपने यात्रा के निकलने पर इसी प्रकार विचार करना चाहिये । प्रत्येक यात्री के लिये यह सब देखना परम आवश्यक है अगर यात्रा के समय में योगीनि अशुभ है, तिथी अशुभ है, नक्षत्र अशुभ है, वार घातक है, चन्द्र विपरीत है तो यात्रा के लिये नहीं निकलना चाहिये। उपर्युक्त स्थिति वाले अशुभ मुहूर्त में यात्रा पर निकलने से रोगादिक-मरणादिक भय उपस्थित हो जाते हैं। बहुत विघ्न आता है यात्रा में अशान्ति बन जाती है। यात्राकालीन शकुन को भी अवश्य देखना चाहिये शुभ शकुन मिलने पर ही यात्रा के लिये प्रस्थान करे | अशुभ शकुन हो तो यात्रा के लिये कभी नहीं निकले। यात्रा में छींक का भी विचार करे, यात्रा को निकलते समय अगर सामने से छींक हो तो मृत्यु लाने वाली होती है, सीधे हाथ की छींक अशुभ व अनिष्ट करती है। ग्राही की यात्रा कभी सिद्ध नहीं होती है, सूखे वृक्ष पर कौआ बैठ कर बोले तो यात्री को आगे अवश्य ही झगड़े के कारण बनते हैं अगर वही कौआ घनिष्ठ छायादार वृक्ष के ऊपर बैठकर बोलता है तो अवश्य शुभ होता है मित्रलाभदिक प्राप्त होते है । यात्रा में उल्लू, नीलकण्ठ, खंजनपक्षी, तोता, चिड़िया, मयूर, हाथी, अश्व, गधा, बैल, महिष, गाय, बिडाल, कुत्ता, सियाल आदि के मिलने पर या इनके शब्द सुनने पर अवश्य विचार करे इनमें कुछ तो शुभ है कुछ अशुभ है शुभ में यात्रा करे, अशुभ में यात्रा करना छोड़े यानी यात्रा नहीं करें। इस प्रकार यात्रा को निकलते समय शकुनादि का विचार करे प्रत्येक व्यक्ति को इसका ध्यान अवश्य रखना चाहिये जिसको इन मुहूर्तादिक का ज्ञान नहीं हो तो, वह निमित्तज्ञानी को अवश्य पूछ कर अपनी यात्रा करे। यहाँ पर अब कुछ अन्य लेखक का भी अभिप्राय दे देता हूँ पाठकगण को सुविधा होगी । विवेचन — इस प्रस्तुत यात्रा प्रकरणमें राजा महाराजाओंकी यात्राका निरूपण आचार्यने किया है। अब गणतन्त्र भारतमें राजाओंकी परम्परा ही समाप्त हो चुकी है | अतः यहाँ पर सर्व सामान्यके लिए यात्रा सम्बन्धकी उपयोगी बातों पर प्रकाश डाला जायगा । सर्वप्रथम यात्रा के मुहूर्त्त के सम्बन्धमें कुछ लिखा जाता है। क्योंकि Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशोऽध्यायः समयके शुभाशुभत्वका प्रभाव प्रत्येक जड़ या चेतन पदार्थ पर पड़ता है। यात्राके मुहूर्त्तके लिए शुभ नक्षत्र, शुभ तिथि, शुभ वार और चन्द्रवासके विचारके अतिरिक्त वारशूल, नक्षत्रशूल, समयशूल, योगिनी और राशिके क्रमका विचार करना चाहिए। यात्रा के लिए शुभ नक्षत्र निम्न है ___ अश्विनी, पुनर्वसु, अनुराधा, मृगशिरा, पुण्य, रेवती, हस्त, श्रवण और धनिष्ठा ये नक्षत्र यात्राके लिए उत्तम; रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, ज्येष्ठा, मूल और शतभिषा ये नक्षत्र मध्यम एवं भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, आश्लेषा, मघा, चित्रा, स्वाति, विशाखा ये नक्षत्र यात्राके लिए निन्द्य हैं। तिथियोंमें द्वितीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी और त्रयोदशी शुभ बताई गई हैं। दिक् शूल और नक्षत्र शूल तथा प्रत्येक दिशा के शुभ दिन ___ ज्येष्ठा नक्षत्र, सोमवार तथा शानिवारको पूर्वमें; पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र और गुरुवार को दक्षिणमें; शुक्रवार और रोहिणी नक्षत्रको पाश्चम एवं भगल तथा बुधवारको उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमें उत्तर दिशामें यात्रा करना वर्जित है। पूर्व दिशामें रविवार, मंगलवार और गुरुवार; पश्चिममें शनिवार, सोमवार, बुधवार और गुरुवार; उत्तर दिशामें गुरुवार, रविवार, सोमवार और शुक्रवार एवं दक्षिण दिशामें बुधवार, मंगलवार, सोमवार, रविवार और शुक्रवारको गमन करना शुभ होता है। जो नक्षत्रका विचार नहीं कर सकते हैं, वे उक्त शुभावारोंमें यात्रा कर सकते हैं। पूर्वदिशामें ऊषाकालमें यात्रा वर्जित है। पश्चिम दिशामें गोधूलिकी यात्रा वर्जित है। उत्तर दिशामें अर्धरात्रि और दक्षिण दिशामें दोपहर की यात्रा वर्जित है। योगिनी वास विचार नवभूम्य: शिववह्नयोऽक्षविश्वेऽर्क कृताः शक्ररसास्तुरंगा तिथ्यः। द्विदशोमा वसवश्च पूर्वत: स्युः तिथयः समुखवामगा च शस्ताः। अर्थ-प्रतिपदा और नवमीको पूर्व दिशामें; एकादशी और तृतीयको अग्निकोण, पञ्चमी और त्रयोदशीको दक्षिण दिशामें, चतुर्थी और द्वादशीको नैर्ऋत्य कोणमें, षष्ठी और चतुर्दशीको पश्चिम दिशामें, सप्तमी और पूर्णिमाको वायव्यकोणमें; द्वितीया और दशमी को उत्तर दिशामें एवं अमावस्या और अष्टमीको ईशान कोणमें Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता योगिनी का वास होता है। सम्मुख और बायें तरफ अशुभ एवं पीछे और दाहिनी ओर योगिनी शुभ होती है। चन्द्रमा का निवास ३३० चन्द्रश्चरति पूर्वादी क्रमान्त्रिर्दिक्चतुष्टये । मेषादिष्वेष यात्रायां सम्मुखस्त्वतिशोभनः ॥ अर्थात् मेष, सिंह और धनु राशिका चन्द्रमा पूर्वमें; वृष, कन्या और मकर राशिका चन्द्रमा दक्षिण दिशामें; तुला, मिथुन और कुम्भ राशिका चन्द्रमा पश्चिम दिशामें एवं कर्क, वृश्चिक और मीन राशिका चन्द्रमा उत्तर दिशामें वास करता है। चन्द्रमा का फल सम्मुख दक्षिणः सर्वसम्पदे । पश्चिमः कुरुते मृत्युं वामश्चन्दो धनक्षयम् ॥ अर्थ — सम्मुख चन्द्रमा धन लाभ करनेवाला; दक्षिण चन्द्रमा सुख सम्पत्ति देनेवाला; पृष्ठ चन्द्रमा शोक सन्ताप देनेवाला और वाम चन्द्रमा धन नाश करनेवाला होता है। राहु विचार अष्टासु प्रथमाद्येषु प्रहारार्थेष्वहर्निशम् । पूर्वस्यां वामतो राहुस्तु तुर्यां व्रजेद्धिशम् ॥ अर्थ- -राहु प्रथम अर्धमासमें पूर्व दिशामें, द्वितीय अर्धमासमें वायव्यकोणमें, तृतीय अर्धमासमें दक्षिण दिशामें, चतुर्थ अर्धमासमें ईशानकोणमें, पञ्चम अर्धमासमें पश्चिम दिशामें, षष्ठ अर्धमासमें आग्नेयी दिशामें, सप्तम अर्धमासमें उत्तर दिशा में और अष्टम अर्धमासमें नैर्ऋत्यकोणमें राहुका वास रहता है। यात्रा के लिए राहु आदि का विचार I जयाय दक्षिणो राहु योगिनी वामतः स्थिता । पृष्ठतो द्वयमप्येतच्चन्द्रमाः सम्मुखः पुनः ॥ अर्थ - दिशाशूलका बायीं ओर रहना, राहुका दाहिनी ओर या पीछेकी ओर रहना, योगिनीका बायीं ओर या पीछेकी ओर रहना एवं चन्द्रमा का सम्मुख रहना यात्रा शुभ होता है। द्वादश महीनोंमें पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तरके क्रमसे प्रतिपदासे पूर्णिमा तक क्रमसे सौख्य, क्लेश, भीति, अर्थागम, शून्य, निःस्वत्स, मित्रता, द्रव्य Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३१ त्रयोदशोऽध्यायः क्लेश, दुःख, इष्टाप्ति, अर्थलाभ, लाभ, मंगल, वित्तलाभ, लाभ, द्रव्यप्राप्ति, धन, सौख्य, भीति, लाभ, मृत्यु, अर्थागम, सुख, कष्ट, सौख्य, क्लेश, लाभ, सुख, सौख्यलाभ, कार्य सिद्धि, कष्ट, क्लेश, कष्टसे सिद्धि, अर्थ, मृत्यु, लाभ, द्रव्यलाभ, शून्य, सौख्य, मृत्यु अत्यन्त कष्ट फल होता है। १३, १४ और १५ तिथिका फल ३, ४ और ५ तिथिके फल समान जानना चाहिए। तिथि चक्र प्रकार पो. मा. फा. चै. वै. ज्ये. आ. श्रा. भा. आ. का. मा. पूर्व दक्षिण पश्चिम उत्तर १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ सौख्यं क्लेश भीति: अर्थांग २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १ शून्यम् नै:स्वम् निःस्व मित्रघाः ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १ २ ट्रव्यले दुःखम् इष्टमिः अर्थ: ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १ २ ३ लाभ: सौख्यं मालम् वित्तला ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १ २ ३ ४ लाभः द्रव्यादि धनम् सौख्यं ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १ २ ३ ४ ५ भीति: लाभः मृत्युः अर्थाग ७ ८ ९ १० ११ १२ १ २ ३ ४ ५ ६ लाभः कष्टम् द्रव्यला सुखम् ८ ९ १० ११ १२ १ २ ३ ४ ५ ६ ७ कष्टम् सौख्यम् क्लेश सुख ९ १० ११ १२ १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ सौख्य लाभ: कार्यसि कर. १० ११ १२ १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ क्लेश; कष्टम् अर्थ: धन ११ १२ १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० मृत्युः लाभ: द्रव्यला शून्यम् १२ १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ शून्यम् सौख्यं मृत्युः कष्ट यात्रा मुहूर्त चक्र अश्वि० पुन० अनु० मृ० पु० रे० ह० श्र० घ० ये उत्तम हैं। रो० उषा० उभा० उभा० पूषा० पूभा० ज्ये० मू० श० ये मध्यम नक्षत्र भ० कृ० आ० आश्ले० भ० ज्ये० मू० श० वि० ये निन्ध हैं। २। ३ । ५। ७।१०। ११ । १२ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भदबाहु संहिता चन्द्रवास चक्र समय शूल चक्र पश्चिम दक्षिण | उत्तर मिथुन । वृष | कर्क तुला |कन्या | वृश्चिक धनु | कुम्भ | मकर | मीन दिक्शूल चक्र प्रात:काल पश्चिम सायंकाल दक्षिण | मध्याहकाल उत्तर | अद्धरात्रि | | पूर्ण चं० श० | दक्षिण | पश्चिम __ वृ० । सू० शु० योगिनी चक्र उत्तर मं० बु० पू० | आ० | द० | २० | प० | वा० । उ० ई० । दिशा ९।१/३।११/१३ । ५/१२। ४/१४। ६/१५। ७/१०। २३०। ८ | तिथि यात्राके शुभाशुभत्वका गणित द्वारा ज्ञान शुक्लपक्षकी प्रतिपदासे लेकर तिथि, वार, नक्षत्र इनके योगको तीन स्थानमें स्थापित करें और क्रमश: सात, आठ और तीनका भाग देनेसे यदि प्रथम स्थानमें शेष रहे तो यात्रा करनेवाला दुःखी होता है। द्वितीय स्थानमें शून्य बचने से धन नाश होता है और तृतीय स्थानमें शून्य शेष रहनेसे मृत्यु होती है। उदाहरण—कृष्णपक्ष की एकादशी रविवार और विशाखा नक्षत्रमें भुवनमोहनरायको यात्रा करनी है। अत: शुक्लपक्षकी प्रतिपदासे कृष्णपक्षकी द्वादशी तिथि तक गणना की तो २७ संख्या आई; रविवारकी संख्या एक ही हुई और अश्विनीसे विशाखा तक गणना की तो १६ संख्या हुई। इन तीनों अंकका योग किया तो २७+१+१६ = ४४ हुआ। इसके तीन स्थानों पर रखकर ७, ८ और ३ का भाग दिया। ४४ - ६ = ६ लब्ध और २ शेष; ४४ - ८ = ५ लब्ध और ४ शेष; ४४ - ३ = १४ लब्ध और २ शेष । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३३३ त्रयोदशोऽध्यायः यहाँ एक भी स्थान पर शून्य शेष नहीं आया है। अतः फलादेश उत्तम है, यात्रा करना शुभ है। घातक चन्द्र विचार - मेषराशि वालोंको जन्मका, वृषराशि वालोंका पाँचवाँ, मिधुराशि वालोंको नौवाँ, कर्कराशि वालोकों दूसरा, सिंहराशि वालोको छठवाँ, कन्याराशि वालोंको दशवाँ, तुलाराशि वालोंको तीसरा, वृश्चिकराशि वालोंको सातवाँ, धनुराशि वालोंको चौथा, मकरराशि वालोंको आठवाँ, कुम्भराशि वालोंको ग्यारहवाँ और मीन राशि वालोंको बारहवाँ चन्द्र घातक होता है। यात्रामें घातक चन्द्र त्यक्त है। घातक नक्षत्र — कृत्तिका, चित्रा, शतभिषा, मघा, धनिष्ठा, आर्द्रा, मूल, रोहिणी, पूर्वाभाद्रपद, मघा, मूल और पूर्वाभाद्रपद ये नक्षत्र मेषादि बारह राशिवाले व्यक्तियोंके लिए घातक हैं। किसी-किसी आचार्यका मत है कि मेष राशिवालोंको कृत्तिका का प्रथम चरण, वृषराशि वालको चित्राका दूसरा चरण, मिथुन राशिवालोंको शतभिषाका तीसरा चरण, वृषराशि वालोंको मघाका तीसरा चरण, सिंहराशि वालोंको धनिष्ठाका प्रथम चरण, कन्याराशि वालोंको आर्द्राका तीसरा चरण, तुलाराशि वालोंको मूलका दूसरा चरण, वृश्चिक राशिको रोहिणीका चौथा चरण धनुराशि वालोंको पूर्वाभाद्रपदका चौथा चरण, मकरराशि वालोंको मघाका चौथा चरण, कुम्भराशि वालोंको मूलका चौथा चरण और मीनराशि वालोंको पूर्वाभाद्रपदका तीसरा चरण त्याज्य है। घात तिथि विचार - वृष, कन्या और मीन राशिवालोको पञ्चमी, दशमी और पूर्णिमा घाततिथि है। मिथुन और कर्क राशिवाले व्यक्तियोंको द्वितीया, द्वादशी और सप्तमी धाततिथियाँ हैं। वृश्चिक और मेष राशिवालोंको प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी घात तिथि हैं। मकर और तुलाराशिवालों को चतुर्थी, चतुर्दशी और नवमी घाततिथियाँ एवं धन, कुम्भ और सिंह राशिवाले व्यक्तियोंके लिए तृतीया, त्रयोदशी और अष्टमी घाततिथियाँ हैं। इनका यात्रामें त्याग परम आवश्यक है। घातवार - मकर राशिवाले व्यक्तियोंको मंगलवार घातक है; वृष, सिंह और कन्या राशिवालोंको शनिवार; मिथुन राशिवाले व्यक्तिके लिए सोमवार, मेष राशिवालोंको रविवार, कर्क राशिवालोको बुधवार; मीन और वृश्चिकको शुक्रवार एवं कुम्भ और तुला राशिवालोंको गुरुवार घातक है। इन घातक वारोंमें यात्रा करना वर्जित है । Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ३३४ घातक लग्न मेष, वृष आदि द्वादश राशिवालोंको क्रमशः मेष, वृष, कर्क, तुला, मकर, मीन, कन्या, वृश्चिक, धनु, कुम्भ, मिथुन और सिंह लग्न घातक हैं। अतः यात्रामें वर्जित हैं। राशि ज्ञात करने की विधि - चू, चे, चोला, ली, लू, ले, लो और आ इन अक्षरों में से कोई भी अक्षर अपने नामके आदिका हो तो मेषराशि; ई, उ, ए, ओ, बा, बी, बू, बे और बो इन अक्षरोंमें से कोई भी अक्षर अपने नामका आदि अक्षर हो तो मिथुन राशि; ही, हू, हे, हो, डा, डी, डू, डे और डो इन अक्षरों से कोई भी अक्षर अपने नामका आदि अक्षर हो तो कर्क राशि; मा, मी, मू, मे, मो, टा, टी, टू और टे इन अक्षरोंमेंसे कोई भी अक्षर नामका आदि अक्षर हो तो सिंह राशि टो, पा, पी, पू, ष, ण, ठ, पे और पो इन अक्षरोंमें से कोई भी अक्षर नामका आदि अक्षर हो तो कन्याराशि; रा, री, रू, रे, रो, ता, ती, तू और ते इन अक्षरोंमेंसे कोई भी अक्षर नामके आदिका अक्षर हो तो तुला राशि; तो, ना, नी, नू, ने, नो या, यी और यू इनं अक्षरोंमें से कोई भी अक्षर नामके आदि का अक्षर हो तो वृश्चिक राशि; ये, यो, भा, भी, भू, धा, फा, ढा और भे इन अक्षरोंमें से कोई भी अक्षर नामका आदि अक्षर हो तो धनु राशि; भो, जा, जी, खी, खू, खे, खो, गा और गी इन अक्षरोंमें से कोई भी अक्षर नामके आदि का अक्षर हो तो मकर राशि; गू, गे, गो, सा, सी, सू, से, सो और दा इन अक्षरोंमें से कोई भी अक्षर नामका आदि अक्षर हो तो कुम्भ राशि एवं दी, दू, थ, झ, ञ, दे, दो, चा और ची इन अक्षरोंमें से कोई भी अक्षर नामका आदि अक्षर हो तो मीन राशि होती है। संक्षिप्त विधि- आला = मेष, उवा = वृष, काछा = मिथु, डाहा = कर्क, माटा = सिंह, पाठा = कन्या, राता = तुला, नोया = वृश्चिक, मू, धा फा, ढ = मकर, गो सा = कुम्भ, दा चा = मीन। उपर्युक्त अक्षर विधि परसे अपनी निकालकर घाततिथि, घातनक्षत्र, घातवार और घातलग्न का विचार करना चाहिए। 4 Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ त्रयोदशोऽध्यायः ___ यात्राकालीन शकुन-ब्राह्मण, घोड़ा, हाथी, फल, अन्न, दूध, दही, गौ, सरसों, कमल, वस्त्र, वेश्या, बाजा, मोर, पपैया, नवेला, बंधा हुआ पशु, मांस, श्रेष्ठ वाक्य, फूल, ऊख, भरा कलश, छाता, मृत्तिका, कन्या, रत्न, पगड़ी, बिना बँधा हुआ सफेद बैल, मदिरा, पुत्रवती स्त्री, जलती हुई अग्नि और मछली आदि। पदार्थ यात्राके लिए गमन करते हुए दिखलाई पड़ें तो शुभ शकुन समझना चाहिए। सीसा, काजल, धुला वस्त्र अथवा धोये हुए वस्त्र लिये हुए धोबी, मछली, घृत, सिंहासन, रोदनरहित मुर्दा, ध्वजा, शहद, मेढा, धनुष, गोरोचन, भरद्वाजपक्षी, पालकी, वेदध्वनि, श्रेष्ठ स्तोत्रपाठकी ध्वनि, मांगलिक गायन और अकुंश ये पदार्थ यात्राके समय सम्मुख आवें और बिना जलका घड़ा लिये हुए आदमी पीछे जाता हो तो अत्युत्तम है। बाँझ स्त्री, चमड़ा, धानको भूसी, हाड़, सर्प, लवण, अंगार, ईधन, हिजड़ा, विष्ठा लिये पुरुष, तेल, पागल व्यक्ति, चर्बी, औषध, शत्रु, जटावाला व्यक्ति, संन्यासी, तृण, रोगी, मुनि और बालकके अतिरिक्त अन्य नंगा व्यक्ति, तेल लगाकर बिना स्नान किये हुए, छूटे केश, जाति से पतित, कान-नाक कटा व्यक्ति, भूखा, रुधिर, रजस्वला स्त्री, गिरगिट, निज घरका जलना, बिलावों का लड़ना और सम्मुख छींक यात्रामें अशुभ है। गेरूसे रंगा कपड़ा या इस प्रकारके वस्त्रों को धारण करने वाला व्यक्ति, गुड़, छाछ, कीचड़, विधवा स्त्री, कुबड़ा व्यक्ति, लड़ाई, शरीरसे वस्त्र गिर जाना, भैंसोंकी लड़ाई, काला अन्न रुई, वमन, दाहिनी और गर्धव शब्द, अतिक्रोध, गर्भवती, सिरमुण्डा, गीले वस्त्र वाला, दुष्ट वचन बोलनेवाला, अन्धा और बहिरा ये सब यात्रा समय में सम्मुख आवें तो अतिनिन्दित हैं। गोहा, जाहा, शूकर, सर्प और खरगोश का शब्द शुभ होता है। निज या परके मुखसे इनका नाम लेना शुभ है, परन्तु इनका शब्द या दर्शन शुभ नहीं है। रीछ और वानरका नाम लेना और सुनना अशुभ है, पर शब्द सुनना शुभ होता है। नदीका तैरना, भयकार्य, गृहप्रवेश और नष्ट वस्तुका देखना साधारण शुभ है। कोयल, छिपकली, पोतकी, शूकरी, रता, पिंगला, छछुन्दरि, सियारिन, कपोत, खञ्जन, तीतर इत्यादि पक्षी यदि राजाकी यात्राके समय वाम भागमें हों तो शुभ हैं। छिक्कर, पपीहा, श्रीकण्ठ, वानर और रुरुमग यात्रा समय दक्षिण भागमें हों Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता तो भुग है। दाहिनी ओर नारे हुए युग और पक्षी यात्रामें शुभ होते हैं। विषम संख्यक मृग अर्थात् तीन, पाँच, सात, नौ, ग्यारह, तेरह, पन्द्रह, सत्रह, उन्नीस, इक्कीस आदि संख्यमें मृर्गोका झुण्ड चलते हुए साथ दें तो शुभ है। यात्रा समय बायीं ओर गदहेका शब्द शुभ है। यदि सिरके ऊपर दही की हाणी रखे हुए कोई ग्वालिन जा रही हो और दहीके कण गिरते हुए दिखलाई पड़ें तो यह शकुन यात्राके लिए अत्यन्त शुभ है। यदि दहीकी हाण्डी काले रंगकी हो और वह काले रंगके वस्त्रसे आच्छादित हो तो यात्रा में आधी सफलता मिलती है। श्वेतरंगकी हाण्डी श्वेतवस्त्रसे आच्छादित हो तो पूर्ण सफलता प्राप्त होती है। यदि रक्तवस्त्रसे आच्छादित हो तो यश प्राप्त होता है, पर यात्रामें कठिनाइयाँ अवश्य सहन करनी पड़ती हैं। पीतवर्णके वस्त्रसे आच्छादित होने पर धनलाभ होता है तथा यात्रा भी सफलतापूर्वक निर्विघ्न हो जाती है। होरंगका वस्त्र विजयकी सूचना देता है तथा यात्रा करनेवालेकी मनोकामना सिद्ध होनेकी ओर संकेत करता है। यदि यात्रा करनेके समय कोई व्यक्ति खाली घड़ा लेकर सामने आवे और तत्काल भरकर साथ-साथ वापस चले तो यह शकुन यात्राकी सिद्धिके लिए अत्यन्त शुभकारक है यदि कोई व्यक्ति भरा घड़ा लेकर सामने आवे और तत्काल पानी गिराकर खाली घड़ा लेकर चले तो यह शकुन अशुभ है। यात्राकी कठिनाइयों के साथ धनहानिकी सूचना देता है। __ यात्रा समय में काक का विचार यदि यात्राके समय काक वारी बोलता हुआ वामभागमें गमन करे तो सभी प्रकारके मनोरथोंकी सिद्धि होती है। यदि काक मार्गमें प्रदक्षिण करता हुआ बायें हाथ आ जावे तो कार्यकी सिद्धि, क्षेम, कुशल तथा मनोरथोंकी सिद्धि होती है। यदि पीठ पीछे काक मन्दरूपमें मधुर शब्द करता हुआ गमन करे अथवा शब्द करता हुआ उसी ओ: मार्गमें आगे बढ़े, जिधर यात्राके लिए जाना है, अथवा शब्द करता हुआ काक आगे हरे वृक्षकी हरी डाली पर स्थित हो और अपने पैरसे मस्तकको खुजला रहा हो, तो यात्रा में अभीष्ट फलकी सिद्धि होती है। यदि गमनकालमें काक हाथीके ऊपर बैठा दिखलाई पड़े या हाथी पर बजते हुए बाजों पर बैठा हुआ दिखलाई पड़े तो यात्रामें सफलता मिलती है, साथ ही धन-धान्य, सवारी, भूमि आदिका लाभ होता है। यदि काक धोड़ेके ऊपर स्थित दिखलाई पड़े तो भूमिलाभ, मित्रलाभ एवं धनलाभ करता है। देवमन्दिर, Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ त्रयोदशोऽध्यायः ध्वजा, ऊँचे महल, धान्य की राशि अनके ढेर एवं उन्नत भूमि पर बैठा हुआ काक मुँहमें सूखी घास लेकर चबा रहा हो तो निश्चय यात्रा में अर्थ लाभ होता है। इस प्रकारकी यात्रामें सभी प्रकारके सुख साधन प्रस्तुत रहते हैं। यह यात्रा अत्यन्त सुखकर मानी जाती है। आगे-पीछे काक गोबरके ढेर पर बैठा हो या दूधवालेबड़, पीपल आदि पर स्थित होकर बीट कर रहा हो अथवा मुँहमें अन्न, फल, मूल, पुष्प आदि हों तो अनायास ही यात्राकी सिद्धि होती है। यदि कोई स्त्री जलका भरा हुआ कलश लेकर आवे और उस पर काक स्थित होकर शब्द करने लगे तथा जलके भरे हुए घड़े पर स्थित हो काक शब्द करे स्त्री और धनकी प्राप्ति होती है। यदि शय्या के ऊपर स्थित होकर काक शब्द करे तो आप्तजनों की प्राप्ति होती है। गायकी पीठ पर बैठकर या दूर्बा पर बैठकर अथवा गोबर पर बैठकर काक चोंच घिसता हो तो अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थों की प्राप्ति होती है। धान्य, दूध, दही, मनोहर अंकुर, पत्र, पुष्प, फल, हरे-भरे वृक्ष पर स्थित होकर काक बोलता जाय तो सभी प्रकार के इच्छित कार्य सिद्ध होते हैं। वृक्षों के ऊपर स्थित होकर काक शान्त शब्द बोले तो स्त्रीप्रसंग हो, धन-धान्य पर स्थित होकर शान्त शब्द करे तो धन-धान्यका लाभ हो एवं गायकी पीठ पर स्थित होकर शब्द करे तो स्त्री, धन, यश और उत्तम भोजनकी प्राप्ति होती है। ऊँटकी पीठ पर स्थित होकर शान्त शब्द करे, गधेकी पीठ पर स्थित होकर शान्त शब्द करे तो धनलाभ और सुखकी प्राप्ति होती है। यदि शूकर, बैल, खाली घड़ा, मुर्दा मनुष्य या मुर्दा पशु, पाषाण और सूखे वृक्षकी डाली पर स्थिर होकर काक शब्द करे तो यात्रामें ज्वर, अर्थहानि, चोरों द्वारा धनका अपहरण एवं यात्रामें अनेक प्रकारके कष्ट होते हैं। यदि काक दक्षिण की ओर गमन करे, दक्षिणकी ओर ही शब्द करे, पीछेसे सम्मुख आवे, कोलाहल करता हो और प्रतिलोम गति करके पीठ पीछेकी ओर चला आवे तो यात्रामें चोट लगती है, रक्तपात होता है तथा और भी अनेक प्रकारके कष्ट होते हैं। बलिभोजन करता हुआ काक बाईं ओर शब्द करता हो और वहाँसे दक्षिणकी ओर चला आवे एवं वामप्रदेशमें प्रतिलोम गमन करता हो, तो यात्रा में अनेक प्रकार के विघ्न होते हैं। आर्थिक हानि भी होती है। यदि गमनकालमें काक दक्षिण बोलकर पीठ पीछेकी ओर चला जाय तो किसीकी हत्या सुनाई पड़ती Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भदवार संहिता ३३८ है। गायकी पूँछ या सर्पके बिल पर बैठा हुआ काक दिखलाई पड़े तो माने में सर्पदर्शन, नाना तरहके संघर्ष और भय होते हैं। यदि काक आगे कठोर शब्द करता हुआ स्थित हो तो हानि, रोग; पीठ पीछे स्थित हो कठोर शब्द करे तो मृत्यु एवं खाली बैठकर शब्द कर रहा हो तो यात्रा सदा निन्दित है। सूखे काठके ट्रॅकको तोड़कर चोंचके अग्रभागमें दबाकर रखा हो और बायें भागमें स्थित हो तो मृत्यु, नाना प्रकारके कष्ट होते हैं। यदि चोंचमें काक हड्डी दबाये हो तो अशुभ फल होता है। वामभागमें सूखे वृक्ष पर काक स्थित हो तो अतिरोग, खाली या तीखे वृक्ष पर बैठा हो तो यात्रामें कलह और कार्यनाश एवं काँटेदार वृक्षपर स्थित होकर रूखा शब्द करे तो यात्रामें मुत्यु होती है। भग्नशरणके वृक्ष पर स्थिति काक कठोर शब्द करता हो तो यात्रा में धनक्षय, कुटुम्बी मरण एवं नाना तरहसे अशुभ होता है। यदि छत पर बैठकर काक बोलता हो तो यात्रा नहीं करनी चाहिए। इस शकुनके होने पर यात्रा करनेसे वज्रपात—बिजली गिरती है। यदि कूड़े के ढेर पर या राख-भस्मके ढेर पर स्थित होकर काक शब्द करे तो कार्यका नाश होता है। अपयश, धनक्षय एवं नाना तरहके कष्ट यात्रामें उठाने पड़ते हैं। लता, रस्सी, केश, सूखी लकड़ी, चमड़ा, हड्डी, फटे-पुराने चिथड़े, वृक्षोंकी छाल, रुधिरयुक्त वस्तु, जलती लकड़ी एवं कीचड़ काक की चोंचमें दिखलाई पड़े तो यात्रामें पापयुक्त कार्य करने पड़ते हैं, यात्रामें कष्ट होता है, धनक्षय या धनकी चोरी, अचानक दुर्घनाएँ आदि घटित होती हैं। छाया, आयुध, छत्र, घड़ा, हड्डी, वाहन, काष्ठ एवं पाषाण चोंचमें रखे हुए काक दिखलाई पड़े तो यात्रा करनेवाले की मृत्यु होती है। एक पाँव समेटकर, चञ्चल चित्त होकर जोर-जोरसे कठोर शब्द करता हो तो काक युद्ध, झगड़े, मार-पीट आदिकी सूचना देता है। यदि यात्रा करते समय काक अपनी बीट यात्रा करनेवालेके मस्तक पर गिरा दे तो यात्रामें विपत्ति आती है। नदीतट या मार्गमें काक तीव्रस्वर बोले तो अत्यन्त विपत्तिकी सूचना समझ लेनी चाहिए। यात्राके समयमें यदि काक रथ, हाथी घोड़ा और मनुष्यके मस्तक पर बैठा दीख पड़े तो पराजय, कष्ट, चोरी और झगड़ेकी सूचना समझनी चाहिए। शस्त्र, ध्वजा, छत्र पर स्थित होकर काक आकाशकी ओर देख रहा हो तो यात्रामें सफलता समझनी चाहिए। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३१ त्रयोदशोऽध्यायः यात्रा में उल्लू का विचार—यदि यात्राकालमें उल्लू बाईं ओर दिखलाई पड़े तथा उल्लु अपना भोजन भी साथमें लिये हो तो यात्रा सफल होती है। यदि उल्लू वृक्षपर स्थित होकर अपना भोजन सञ्चय करता हुआ दिखलाई पड़े तो यात्रा करनेवाला इस यात्रामें अवश्य धनलाभ कर लौटता है। यदि गमन करनेवाले पुरुषके वाम भागमें उल्लूका प्रशान्तमय शब्द हो और दक्षिण भागमें असम शब्द हो तो यात्रामें सफलता मिलती है। किसी भी प्रकारकी बाधा नहीं आती है। यदि यात्राककि वामभागमें उल्लू शब्द करता हुआ दिखलाई पड़े अथवा बाईं ओर से उल्लूका शब्द सुनाई पड़े तो यात्रा प्रशस्त होती है। यदि पृथ्वी पर स्थित होकर उल्लू शब्द कर रहा हो तो धनहानि, आकाश में स्थित होकर शब्द कर रहा हो तो कलह, दक्षिण भागमें स्थित होकर शब्द कर रहा हो तो कलह या मृत्युतुल्य कष्ट होता है। यदि उल्लूका शब्द तैजस और पवनयुक्त हो तो निश्चयत: यात्रा करनेवाले की मृत्यु होती है। यदि उल्लू पहले बायीं ओर शब्द करे, पश्चात् दक्षिणकी ओर शब्द करे तो यात्रामें पहले समृद्धि, सुख और शान्ति; पश्चात् कष्ट होता है। इस प्रकारके शकुनमें यात्रा करनेसे कभी-कभी मृत्यु तुल्य भी कष्ट भोगना पड़ता है। नीलकण्ठ विचारयदि यात्राकालमें नीलकण्ठ स्वस्तिक गति में भश्य पदार्थों को ग्रहण कर प्रदक्षिणा करता हुआ दिखलाई पड़ तो सभी प्रकारके मनोरथोंकी सिद्धि होती है। यदि दक्षिण–दाहिनी ओर नीलकण्ठ गमन समयमें दिखलाई पड़े तो विजय, धन, यश और पूर्ण सफलता प्राप्त होती है। यदि नीलकण्ठ काकको पराजय करता हुआ सामने दिखलाई पड़े तो निर्विघ्न यात्राकी सिद्धि करता है। यदि वनमध्यमें रुदन करता हुआ नीलकण्ठ सामने आवे अथवा भयङ्कर शब्द करता हुआ या घबड़ाकर शब्द करता हुआ आगे आवे तो यात्रामें विघ्न आते हैं। धन चोरी चला जाता है और जिस कार्यकी सिद्धिके लिए यात्रा की जाती है वह सफल नहीं होती। यदि यात्राकालमें नीलकण्ठ मयूरके समान शब्द करे तो यशप्राप्ति, धनलाभ, विजय एवं निर्विघ्न यात्रा सिद्धि होती है। गमन करनेवाले व्यक्ति के आगे-आगे कुछ दूर तक नीलकण्ठ के दर्शन हों तो यात्रा सफल होती है। धन, विजय और यश प्राप्त होता है। शत्रु भी यात्रामें मित्र बन जाते हैं तथा वे सभी तरह की सहायता करते हैं। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता खंजन विचार – यदि यात्राकालमें खंजनपक्षी हरे पत्र, पुष्प और फल युक्त वृक्षपर स्थित दिखलाई पड़ें तो यात्रा सफल होती है; मित्रोंसे मिलन, शुभ कार्योंकी सिद्धि एवं लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है। हाथी, घोड़ाके बंधनके स्थानमें, उपवन, घरके समीप, देवमन्दिर, राजमहल आदिके शिखर पर खंजन बैठा हुआ सशब्द दिखलाई पड़े तो यात्रा सफल होती है। दही, दूध, घृत आदिको मुख में लिये हुए खंजन पक्षी दिखलाई पड़े तो नियमतः लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है। यात्रामें इस प्रकारके शुभ शकुन मिलते हैं, जिनसे चित्त प्रसन्न रहता है तथा बिना किसी प्रकारके कष्टके यात्रा सिद्ध होजाती है। सहस्रों व्यक्ति सहायक मिल जाते हैं। छाया सहित, सुन्दर, फल-पुष्प युक्त वृक्षपर खंजन पक्षी दिखलाई पड़े तो लक्ष्मीकी प्राप्ति के साथ विजय, यश और अधिकारोंकी प्राप्ति होती है। खंजनका दर्शन यात्राकालमें बहुत ही उत्तम माना जाता है। गधा, ऊँट श्वानकी पीठपर खंजन पक्षी दिखलाई पड़े अथवा अशुचि और गन्दे स्थानों पर बैठा हुआ खंजन दिखलाई पड़े तो यात्रामें बाधाएँ आती हैं, धनहानि होती है और पराजय भी होता है । ३४० तोता विचार – यदि गमन समयमें दाहिनी ओर या सम्मुख तोता दिखलाई पड़े तथा मधुर शब्द कर रहो, बन्धन मुक्त हो तो यात्रामें सभी प्रकारसे सफलता प्राप्त होती है। यदि तोता मुखमें फल दबाये और बायें पैरसे अपनी गर्दन खुजला रहा हो तो यात्रामें धन-धान्यकी प्राप्ति होती है। हरित फल, पुष्प और पत्तोंसे युक्त वृक्षके ऊपर तोता स्थित हो तो यात्रामें विजय, सफलता, धन और यशकी प्राप्ति समझनी चाहिए। किसी विशेष व्यक्तिसे मिलनेके लिए यदि यात्रा की जाय और यात्रा आरम्भमें तोता जयनाद करता हुआ दिखलाई पड़े तो यात्रा पूर्ण सफल होती है। यदि गमनकालमें तोता बाईं ओरसे दाहिनी ओर चला आवे और प्रदक्षिण करता हुआ सा प्रतीत हो तो यात्रामें सभी प्रकारकी सफलता समझनी चाहिए। यदि ताते शरीरको कँपाता हुआ इधरसे उधर घूमता जाय अथवा निन्दित, दूषित और घृणित स्थलों पर जाकर स्थित हो जाय तो यात्राकी सिद्धिमें कठिनाई होती है। मुक्त विचरण करनेवाला तोता यदि सामने फल या पुष्पको कुरेदता हुआ दिखलाई पड़े तो धनप्राप्तिका योग समझना चाहिए। यदि तोता रुदन करता हुआ या किसी प्रकारके शोक शब्दको करता हुआ सामने आवे तो यात्रा अत्यन्त अशुभ होती है । इस प्रकारके शकुनमें यात्रा करनेसे प्राणघातका भी भय रहता है। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૨ त्रयोदशोऽध्यायः चिड़िया विचार — यदि छोटी लाल मुनैया सामने दिखलाई पड़े तो विजय, पीठ पीछे शब्द करे तो कष्ट, दाहिनी ओर शब्द करती हुई दिखलाई पड़े तो हर्ष एवं बाईं ओर धनक्षय, रोग या अनेक प्रकारकी आपत्तियोंकी सूचना देती है। जिस चिड़ियाके सिर पर कलंगी हो, यदि वह सामने या दाहिनी ओर दिखलाई पड़े तो शुभ, बाईं ओर और पीठ पीछे उसका रहना अशुभ होता है। मुँहमें चारा लिये हुए दिखलाई पड़े तो यात्रामें सभी प्रकारकी सिद्धि, धन-धान्यकी प्राप्ति, सांसारिक सुखका लाभ एवं लगी गोरखोंकी सिद्धि होती है। यदि किसी भी प्रकारकी चिड़ियाँ आपसमें लड़ती हुईं सामने गिर जाँय तो यात्रा में कलह, विवाद, झगड़ाके साथ मृत्यु भी प्राप्त होती है। चिड़ियाके परोंका टूटकर सामने गिरना यात्राकर्त्ताको विपत्तिकी सूचना देती है। चिड़ियाका लंगड़ाकर चलना और धूलमें स्नान करना यात्रामें कष्टोंकी सूचना देता है। मयूर विचार — यात्रामें मयूरका नृत्य करते हुए देखना अत्यन्त शुभ होता है । मधुर शब्द करते एवं नृत्य करते हुए मयूर यदि यात्रा करते समय दिखलाई पड़े तो यह शकुन अत्यन्त उत्तम है, इसके द्वारा धन-धान्यकी प्राप्ति, विजय की प्राप्ति सुख एवं सभी प्रकारके अभीष्ट मनोरथोंकी सिद्धि समझ लेनी चाहिए। मयूरका एक ही झटके में उड़कर सूखे वृक्षपर बैठजाना यात्रामें विपत्तिकी सूचना देता है। हाथी विचार-यदि प्रस्थान कालमें हाथी सूँड़को ऊपर किये हुए दिखलाई पड़े तो यात्रामें इच्छाओंकी पूर्ति होती है । यदि यात्रा करते समय हाथी का दाँत ही टूटा हुआ दिखलाई पड़े तो भय, कष्ट और मृत्यु होती है। गर्जना करता हुआ मन्दोन्मत्त हाथी यदि सामने आता हुआ दिखलाई पड़े तो यात्रा सफल होती है। जो हाथी पीलवानको गिराकर आगे दौड़ता हुआ आवे तो यात्रामें कष्ट, पराजय, आर्थिक क्षति आदि फर्लोकी प्राप्ति होती है। अश्व विचार - यदि प्रस्थानकालमें घोड़ा हिनहिनाता हुआ दाहिने पैरसे पृथ्वीको खोद रहा हो और दाहिने अंगको खुजला रहा हो तो वह यात्रामें पूर्ण सफलता दिलाता है तथा पद वृद्धिकी सूचना देता है। घोड़ेका दाहिनी ओर हिनहिनाते हुए निकल जाना, पूछको फटकारते हुए चलना एवं दाना खाते हुए दिखलाई पड़ना शुभ है। घोड़ेका लेटे हुए दिखलाई पड़ना, कानोंको फटफटाना, मल-मूत्र त्याग करते हुए दिखलाई पड़ना यात्राके लिए अशुभ होता है । Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ३४२ गधा विचार —– वामभागमें स्थित गर्दभ अतिदीर्घ शब्द करता हुआ यात्रामें शुभ होता है। आगे या पीछे स्थित होकर गधा शब्द करे तो भी यात्राकी सिद्धि होती है। यदि प्रयाणकालमें गधा अपने दाँतोंसे अपने कन्धेको खुजलाता हो तो धनकी प्राप्ति, सफल मनोरथ और यात्रामें किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होता है । यदि सम्भोग करता हुआ गधा दिखलाई पड़े तो स्त्रीलाभ, युद्ध करता हुआ दिखलाई पड़े तो बध - बंधन एवं देह या कानको फटफटाता हुआ दिखलाई पड़े तो कार्य नाश होता है। खच्चरका विचार भी गधेके विचारके समान ही है। वृषभ विचार — प्रयाणकालमें वृषभ बाईं ओर शब्द करे तो हानि, दाहिनी ओर शब्द कर और सींगोंसे पृथ्वीको खोदे तो शुभ; घोर शब्द करता हुआ साथ-साथ चले तो विजय एवं दक्षिणकी ओर गमन करता हुआ दिखलाई पड़े तो मनोरथ सिद्धि होती है। बैल या साँड़ दाई ओर आकर बायीं सींगसे पृथ्वीको खोद, बाईं करवट लेटा हुआ दिखाई पड़े तो अशुभ होता है। यात्राकालमें बैल या साँड़का बाईं ओर आना भी अशुभ कहा गया है। महिष विचार - दो महिष सामने लड़ते हुए दिखलाई पड़ें तो अशुभ, विवाद, कलह और युद्धकी सूचना देते हैं। महिषका दाहिनी ओर रहना, दाहिनी सींगसे या दाहिनी ओर स्थित होकर दोनों सीगोंसे मिट्टीका खोदना यात्रामें विजयकारक है। बैल और महिष दोनोंकी छींक यात्रामें वर्जित है। गाय विचार गर्भिणी गाय, गर्भिणी भैंस और गर्भिणी बकरीका यात्रा कालमें सम्मुख या दाहिनी ओर आना शुभ है। रंभाती हुई सामने आवे और बच्चेको दूध पिला रही हो तो यात्राकालमें अत्यधिक शुभ माना जाता है। जिस गायका दूध दूहा जा रहा हो, वह भी यात्राकालमें शुभ होती है। रंभाती हुई, बच्चेको देखने के लिए उत्सुक, हर्षयुक्त गायका प्रयाणकालमें दिखलाई पड़ना शुभ होता है। विडाल विचार – यात्राकालमें बिल्ली रोती हुई, लड़ती हुई, छींकती हुई दिखलाई पड़े तो यात्रामें नाना प्रकारके कष्ट होते हैं। बिल्लीका रास्ता काटना भी यात्रामें संकट पैदा कराता है। यदि अकस्मात् बिल्ली दाहिनी ओरसे बाईं ओर आवे तो किञ्चित् शुभ और बाईं ओर से दाहिनी ओर आवे तो अत्यन्त अशुभ होता है। इस प्रकार का बिल्ली का आना यात्रा में संकटों की सूचना देता है, Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ त्रयोदशोऽध्यायः यदि बिल्ली चूहे को मुख में दबाये सामने आ जाये तो कष्ट, रोटी का टुकड़ा दबाकर सामने आवे तो यात्रा में लाभ एवं दही या दूध पीकर सामने आवे तो साधारणत: यात्रा सफल होती है। बिल्लीका रुदन यात्राकालमें अत्यन्त वर्जित है, इससे यात्रामें मृत्यु या तत्तुल्य कष्ट होता है। कुत्ता विचार-यात्रा कालमें कुत्ता दक्षिण भागसे वाम भागमें गमन करे तो शुभ और कुत्तिया वाम भागसे दक्षिण भागकी ओर आवे तो शुभ; सुन्दर वस्तुको मुखमें लेकर यदि कुत्ता सामने दिखलाई पड़े तो यात्रामें लाभ होता है। व्यापारके निमित्त की गई यात्रा अत्यन्त सफल होती है। यदि कुत्ता थोड़ी-सी दूर आगे चलकर, पुन: पीछेकी ओर लौट आवे तो यात्रा करने वालेको सुख; प्रसन्न क्रीड़ा करता हुआ कुत्ता सम्मुख आनेके उपरान्त पीछेकी ओर लौट जाय तो यात्रा करनेवालेको धन-धान्यकी प्राप्ति होती है। इस प्रकारके शकुनसे यात्रामें विजय, सुख और शान्ति रहती है। यदि श्वान ऊँचे स्थानसे उतर कर नीचे भागमें आ जाय तथा यह दाहिनी ओर आ जावे तो शुभकारक होता है। निर्विघ्न यात्राकी सिद्धि तो होती ही है, साथ ही यात्रा करनेवालेको अत्यधिक सम्मानकी प्राप्ति होती है। हाथी के बँधनेके स्थान, घोड़ाके स्थान, शय्या, आसन, हरी, घास, छत्र, ध्वजा, उत्तम, वृक्ष, घड़ा, ईटोंके ढेर, चमर, ऊँची भूमि आदि स्थानों पर मूत्र करके कुत्ता यदि मनुष्य के आगे गमन करे तो अभीष्ट कार्योंकी सिद्धि हो जाती है। यात्रा सभी प्रकारसे सफल होती है। सन्तुष्ट, पुष्ट, प्रसन्न, रोगरहित, आनन्दयुक्त, लीला सहित एवं क्रीड़ा सहित कुत्ता सम्मुख आवे तो अभीष्ट कार्योंकी सिद्धि होती है। नवीन अन्न, घृत, निष्ठा, गोबर इनको मुखमें धारण कर दाहिनी ओर और बाईं ओर देखता हुआ श्वान सामने आवे तो सभी प्रकारसे यात्रा सफल होती है। यदि श्वान आगे पृथ्वीको खोदता हुआ यात्रा करने वालेको देखे तो निस्सन्देह इस यात्रासे धनलाभ होता है। यदि कुत्ता गमन करनेवालाको आकर सूंघे, अनुलोम गतिसे आगे बढ़े, पैरसे मस्तको खुजलावे तो यात्रा सफल होती है। श्वान गमन कर्ताके साथ-साथ बाई ओर चले तो सुन्दर रमणी, धन और यशकी प्राप्ति कराता है। श्वान जूता मुँहमें लेकर सामने आवे या साथ-साथ चले हड्डी लेकर सामने आवे या साथ-साथ चले; केश, वल्कल, पाषाण, जीर्णवस्त्र, अंगार, भस्म, ईंधन, ठीकरा इन पदार्थोंको Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ३४४ मुँहमें लेकर श्वान सामने आवे तो यात्रामें रोग, कष्ट, मरण, धन-हानि आदि फल प्राप्त होते हैं। काष्ठ, पाषाणको कुत्ता मुखमें लेकर यात्रा करनेवालेके सामने आवे; पूँछ, कान और शरीरकी यात्रा करनेवालेके सामने हिलावे तो यात्रामें धन हरण, कष्ट एवं रोग आदि होते हैं। यदि ना करनेवाला गुप्तादो गर, वृक्षकी लकड़ी, अग्नि, भस्म, केश, हड्डी, काष्ठ, सींग, श्मशान, भूसा, अंगार, शूल, पाषाण, विष्ठा, चमड़ा आदि पर मूत्र करते हुए देखे तो यात्रामें नाना प्रकारके कष्ट होते शृगाल विचार-जिस दिशामें यात्राकी जा रही हो, उसी दिशामें शृगाल या शृगालीका शब्द सुनाई पड़े तो यात्रामें सफलता प्राप्त होती है। यदि पूर्व दिशाकी यात्रा करनेवाले व्यक्तिके समक्ष शृगाल या शृगाली आजाय और वह शब्द भी कर रही हो तो यात्रा करनेवालेको महान् संकटकी सूचना देती है। यदि सूर्य सम्मुख देखती हुई शृगाली बाईं ओर बोले तो भय, दाहिनी ओर बोले तो अर्थनाश और पीठ पीछे बोले तो कार्यहानि फल होता है। दक्षिण दिशाकी यात्रा करनेवाले व्यक्तिके दाहिनी ओर शृगाली शब्द करे तो यात्रामें सफलताकी सूचना देती है। इसी दिशाके यात्रीके आगे सूर्यकी ओर मुँहकर शृगाली बोले तो मृत्युकी प्राप्ति होती है। पश्चिम दिशाको गमन करनेवालेके सम्मुख शृगाली बोले तो किञ्चित् हानि और सूर्यकी ओर मुँह करके बोले तो अत्यन्त संकटकी सूचना देती है। यदि पश्चिम दिशाके यात्रीके पीठ पीछे शृगाली शब्द करती हुई चले तो अर्थनाश, बाईं ओर शब्द करे तो अर्थागम होता है। उत्तर दिशाको गमन करनेवाले व्यक्तिके पीठ पीछे शृगाली सूर्यकी ओर मुँहकर बोले तो यात्रामें अर्थहानि और मरण होता है। यदि यात्राकालमें शृगाली दाहिनी ओरसे निकलकर बाईं ओर चली जाय और वहीं पर शब्द करे तो यात्रामें सफलताकी सूचना समझनी चाहिए। शृगालीके शब्दकी कर्कशता और मधुरताके अनुसार फलमें ही अनाधिकता हो जाती है। यात्रामें छींक विचार छौंक होनेपर सभी प्रकारके कार्योंको बन्दकर देना चाहिए। गमन कालमें छौंक होनेसे प्राणों की हानि होती है। सामने छींक होनेपर कार्यका नाश, दाहिने नेत्रके पास छींक हो तो कार्यका निषेध, दाहिने कानके पास छींक हो तो धन का क्षय, दक्षिण कान के पृष्ठ भाग में छींक हो तो शत्रुओं की Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ त्रयोदशोऽध्यायः वृद्धि बायें कान के पास छींक हो तो जय, बायें कानके पृष्ठ भागकी ओर छींक हो तो भोगोंकी प्राप्ति, बायें नेत्रके आगे छींक होतो धनलाभ होता है। प्रयाण कालमें सम्मुखकी छींक अत्यन्त अशुभ खाकर है और दाहिनी छींक धन नाश करनेवाली है। अपनी छींक अत्यन्त अशुभकारक होती है। ऊँच स्थानकी छींक मृत्यमय है, पीठ पीछेकी छींक भी शुभ होती है। छींक का विचार डाकने निम्न प्रकार किया दक्षिन छींक धन लै दीजै, नैरित कोन सिंहासन दीजै॥ पच्छिम छौंकै मिठ भोजना, गेलो पलटै वायव कोना॥ उत्तर छींकै मान समान, सर्व सिद्ध लै कोन ईशान ।। पुरब छिंका मत्यु हंकार. अग्निकोण में दुःख के भार ।। सबके छिक्का कहिगेल 'डाक' अपने छिक्का नहिं कस काज॥ आकाशक छिक्के जे नर जाय, पलटि अन्न मन्दिर नहिं खाय॥ अर्थात् दक्षिण दिशासे होनेवाली छींक धन हानि करती है, नैर्ऋत्यकोणकी छींक सिहासन दिलाती है, पश्चिम दिशाकी छींक मीठा भोजन और वायव्य कोणकी छींक द्वारा गया हुआ व्यक्ति सकुशल वापस लौट आता है। उत्तरकी छींक मान-सम्मान दिलाती है, ईशानकोण की छींक समस्त मनोरथोंकी सिद्धि करती है। पूर्वकी छींक मृत्यु और अग्निकोणकी दुःख देती है। यह अन्य लोगोंकी छींक फल है। अपनी छींक तो सभी कार्योंको नष्ट करनेवाली होती है। अत: अपनी छीकका सदा त्याग करना चाहिए। ऊँच स्थान की छींकमें जो व्यक्ति यात्राके लिए जाता है, वह पुनः वापस नहीं लौटता है। नीचे स्थान की छींक विजय देती है। बसन्तराज शकुनमें दशों दिशाओंकी अपेक्षा छींकके दस भेद बतलाये हैं। पूर्व दिशामें छींक होने से मृत्यु, अग्निकोणमें शोक, दक्षिणमें हानि, नैर्ऋत्यमें प्रियसंगम, पश्चिममें मिष्ट आहार, वायव्यमें श्रीसम्पदा, उत्तरमें कलह, ईशानमें धनागम, ऊपरकी छींकमें संहार और नीचेकी छींकमें सम्पत्तिकी प्राप्ति होती है। नीचे आठों दिशाओंमें प्रहर-प्रहरके अनुसार छींकका शुभाशुभत्व दिखलाया जाता है। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ३४६ आठो दिशाओंमें प्रहरानुसार छींकफल बोधकचक्र ईशान १ हर्ष २ नाश ३व्याधि ४ मित्र संगम | पूर्व आग्नेय १ लाभ १ लाभ २ धन लाभ २ मित्र दर्शन ३ मित्र लाभ ३ शुभवार्ता ४ अग्नि भय | ४ अग्नि भय उत्तर यात्रा १ शत्रु भय २ रिपु संग ३ लाभ * भोजन दक्षिण १ लाभ २ मृत्यु भय ३ नाश ४ काल वायव्य कोण पश्चिम नैर्ऋत्य १ स्त्री लाभ १ दूर गमन १ लाभ २ लाभ २ हर्ष २ मित्र भेंट ३ मित्र लाभ ३ कलह ३ शुभ वार्ता ४ दूर गमन ! ४ चोर ४ लाभ इति श्रीपंचमश्रुत केवली दिगम्बराचार्य भद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिता का विशेष वर्णन करने वाला यात्रा मुहूर्त आदि का वर्णन करने वाला तेरहवें अध्याय का हिन्दी भाषानुवाद करने वाली क्षेमोदय टीका समाप्त:। (इति त्रयोदशोऽध्यायः समाप्त:) Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽध्यायः उत्पातों का वर्णन अथातः सम्प्रवक्ष्यामि पूर्वकर्मविपाकजम्। शुभाशुभतथोत्पातं राज्ञो जनपदस्य च॥१॥ (अथातः) अब मैं (पूर्वकर्मविपाकजम्) पूर्वकर्म से उपार्जित (राज्ञोजनपदस्य च) राजा के व प्रजाके (शुभाशुभतथोत्यातं) शुभाशुभ से होने वाले उत्पातों को (सम्प्रवक्ष्यामि) अच्छी तरह से कहूँगा। भावार्थ-अब मैं राजा के व प्रजा के पूर्वोपार्जित शुभाशुभसे होने वाले उत्पातों को अच्छी तरह से कहूँगा ।। १ ।। प्रकृतेर्यो विपर्यासः स चोत्पात: प्रकीर्तितः। दिव्याऽन्तरिक्षभीमाश्च व्यासमेषां निबोधत॥२॥ (प्रकृतेर्यो विपर्यास:) प्रकृतिके विपरीत होने को (स चोत्पातः प्रकीर्तितः) उत्पात कहा है, वो तीन प्रकार के हैं (दिव्या) दिव्य (अन्तरिक्ष) अन्तरिक्ष (भौमाश्च) और भूमिगत (व्यासमेषां निबोधत) इनका विस्तार से वर्णन करता हूँ आप जानो। भावार्थ-प्रकृति के विपरीत दिखने को उत्पात कहते है, वह तीन प्रकार के होते हैं, दिव्य, अन्तरिक्ष और भूमिरूप इन सबका विस्तार से वर्णन करूँगा आपको ज्ञान कराने के लिये।।२।। यदात्युष्णं भवेच्छीते शीतमुष्णे तथा ऋतौ। सदा तु नवमे मासे दशमे वा भयं भवेत्॥३॥ (यदात्युष्णं भवेच्छीते) जब गर्मी के दिन में शीत पड़े (तथा) तथा (शीत ऋतौ मुष्णे) शीत ऋतु में गर्मी पड़े (तदा तु) तब (नवमे मासे वा दशमे) नौ महीने या दसवें महीने में (भयं भवेत्) महाभय उत्पन्न होगा। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ३४८ भावार्थ-गर्मी के दिन में ठण्डी और ठण्डी के दिनों में गर्मी पड़ने लगे तो समझो नवें या दसवें महीने में महान भय उत्पन्न होगा॥३॥ सप्ताहमष्टरानं वा नवरात्रं दशाह्निकम्। यदा निपतते वर्ष प्रधानस्य वधाय तत् ॥ ४॥ (यदा वर्ष) जब वर्षा (सप्ताहमष्टरानं वा) सप्ताह के आठवीं रात्रि तक व (नवरात्रं दशाह्निकम्) नौ दिम और दस रात्रि तक (भिपतते) बरसती है तो (तत्) वहाँ (प्रधानास्य वधाय) प्रधान के वध का कारण बनेगा। भावार्थ-जब वर्षा सात दिन और आठवीं रात्रि में समाप्त हो और नौ दिन पूरी बरस कर दशवीं रात्रि को समाप्त हो तो समझो वहाँ प्रधान का मरण होगा॥४॥ पक्षिणच यदा मत्ताः पशवश्च पृथग्विधाः। विपर्ययेण संसक्ता विद्याद् जनपदे भयम्॥५॥ (पक्षिणश्च यदामत्ताः) यदि पक्षी उन्मत्त दिखे (पशवश्च पृथग्विधाः) और पश विपरीत स्वभाव वाले हो जाय, (विपर्ययेण संसक्ता) भिन्न जाति वाले पशुओं पर आसक्त हो जाय तो (जनपदे भयम् विद्याद्) समझो देश में महान् भय होगा ऐसा समझो। भावार्थ-जब पक्षी उन्मत्त दिखे पशु विपरीत स्वभाव वाले हो जाय भिन्न जाति के पशु-पक्षी भिन्न जाति वाले पशु-पक्षियों के साथ सम्भोग करे तो समझो देश में भय उत्पन्न होगा ।।५।। आरण्या ग्राममायान्ति वनं गच्छन्ति नागराः । रुदन्ति चाथ जल्पन्ति तदापायाय कल्पते॥६॥ अष्टादशषु मासेषु तथा सप्तदशषु च। राजा च म्रियते तत्र भयं रोगश्च जायते॥७॥ (आरण्या ग्राममायान्ति) जंगली पशु नगर में आने लगे, (वनं गच्छन्ति नागराः) नगर के जंगल में जाने लगे (रुदन्ति चाथजल्पन्ति) रोवे और बोलने लगे तो (तदापायाय कल्पते) तब समझो जनो का पाप उदय आ गया है। (अष्टादशषु मासेषु) अठारह Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४९ चतुर्दशोऽध्यायः । महीनमें (तथासप्तदशषु च) और तथा सत्रह महीनेमें (राजा च प्रियते) राजा का मरण हो अथवा (तत्र) वहाँ पर (भयं रोगश्च जायते) भय हो अथवा रोग उत्पन्न होगा। भावार्थ-यदि जंगल के पशु नगर में आने लगे व नगर के जंगल में जाने लगे, फिर रोवे भी शब्द भी करे तो समझो वहाँ के लोगों का पाप उदय आ गया, इसका फल अदारद गतीनो - सत्रह महीनों में राजा का मरण होगा अथवा भय उत्पन्न होगा व नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होंगे।६-७॥ स्थिराणां कम्पसरणे चलानां गमने तथा। ब्रूयात् तत्र वधं राज्ञः षण्मासात् पुत्रमन्त्रिणः॥८॥ (स्थिराणां कम्पसरणे) स्थिर पदार्थ कम्पित होने लगे (तथा) तथा (चलानां गमने) चलित पदार्थ अचानक स्थिर हो जाय तो (तत्र ब्रूयात) वहाँ पर ऐसा कहना चाहिये की (षण्मासात् राज्ञः वा मन्त्रिण:पुत्रवधं) छह महीने के अन्दर राजा या मन्त्रीपुत्र का मरण होगा। भावार्थ-यदि चंचल या चलित पदार्थ अगर स्थिर हो जाय स्थिर पदार्थ चलित हो जाय तो समझो छह महीने के अन्दर राजा का या मन्त्रीपुत्र का मरण हो जायगा ||८॥ सर्पणे हसने चापि क्रन्दने युद्धसम्भवे । स्थावराणां वधं विन्द्यात्रिमासं नात्र संशयः ॥ ९॥ (युद्धसम्भवे) युद्धकालमें (सर्पणे हसने) चलने, हँसने (चापि) और भी (क्रन्दने) रोने लगे तो (त्रिमासं) तीन महीने के अन्दर । (स्थावराणां वधं) स्थावर जीवों को वध होगा (नात्र संशयः विन्द्यात्) इसमें कोई सन्देह मत समझो। भावार्थ युद्ध के समय अकस्मात लोग, चलने लगे, हँसने लगे, रोने लगे तो समझना चाहिये तीन महीनेमें स्थावर जीवों का वध होगा॥९॥ पक्षिण: पशवो माः प्रसूयन्ति विपर्ययात्। यदा तदा तु षण्मासाद् भूयात् राजवधो ध्रुवम्॥१०॥ (यदा) जब (पक्षिण:पशवो मां विपर्ययात्) पक्षी और पशु विपरीत रूप Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ३५० में (प्रसूयन्ति) प्रसूती करते हैं (तदा) तब (तु) तो (षण्मासाद्) छह महीने में (ध्रुवम्) निश्चय से (राजवधो भूयात्) राजा का वध होगा ऐसा कहा है। भावार्थ-जब पशु माने चार पाँव वालो के गर्भ से पक्षी या मनुष्य की आकृति वाले जीव अथवा मनुष्य के गर्भ से पशु या पक्षी के आकृति वाले जीव पैदा हो तो समझो छह महीने के अन्दर राजा का वध होगा॥१०।। विकृतैः पाणिवादातचाप्यधिकार जया। यदा त्वेते प्रसूयन्ते क्षुद्भयानि तदादिशेत् ॥११॥ (यदा) जब (विकृतैपाणिपादाद्यै) विकृत हाथ-पैर वाले (न्यूनैश्चाप्यकैस्तथा) तथा और भी हीनाग व अधिकला वाले (त्वेते प्रसूयन्ते) जीव पैदा करे तो (तदा) तब (क्षुद् भयानिदिशेत्) शुद्र भय होगा समझो। भावार्थ-जब जीव विकृत हाथ पैर वाले व अधिक या हीन अंग वाली सन्तान पैदा करे तो समझो शुद्र भय उत्पन्न होगा॥११॥ षण्मासं द्विगुणं चापि परं वाथ चतुर्गुणम्। राजा च म्रियते तत्र भयानि च न संशयः॥१२॥ उक्त घटना जहाँ पर भी घटित हो वहाँ {षण्मासंद्विगुणं) छह महीना या एक वर्ष (चापि) और भी (परं वाथचतुर्गुणम्) व अथवा दो वर्ष के अन्दर (तत्र) वहाँ पर (राजा प्रियते) राजा की मृत्यु होगी (च) और महान् भय उत्पन्न होंगे (न संशय:) इसमें सन्देह नहीं है। भावार्थ-जहाँ पर भी उपर्युक्त निमित्त उत्पन्न हो तो समझो छह महीनेमें व एक वर्षमें या दो वर्ष में वहाँ के राजा की मृत्यु होगी और महान भय उत्पन्न होंगे॥१२॥ मद्यानि रुधिराऽस्थीनि धान्याऽङ्गारवसास्तथा। मघवान् वर्षते यत्र तत्र विन्द्यात् महद्भयम्॥१३॥ (यत्र) जहाँ पर (मघवान्) मेघ (मद्यानि) मध्य (रुधिरा) रक्त (अस्थीनि) हड्डी, (धान्याऽजारवसास्तथा) अंगार की चिनगारियाँ, चर्बी आदि (वर्षते) बरसाते है (तत्र) वहाँ पर (महद्भयम् विन्द्यात्) महान भय उत्पन्न होगा। Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१ चतुर्दशोऽध्यायः भावार्थ-जहाँ पर बादल शराब, रक्त, हड्डी और चर्बी, अंगारों की चिनगारियाँ बरसायें तो वहाँ पर महान भय उपस्थित होगा॥१३॥ सरीसृपा जलचराः पक्षिणो द्विपदास्तथा। वर्षमाणा जलधरात् तदाख्यान्ति महाभयम्॥१४॥ जहाँ पर (जलधरात्) मेघों से (सरीसृपा) सरीसर्प (जलचरा:) जलचर (तथा) तथा (द्विपदा:) दो पाँव वाले जीव (वर्षमाणा) बरसे तो (तदा) तब (ख्यान्तिमहाभयम्) महाभय होगा ऐसा कहा है। भावार्थ-जहाँ पर बादलों से सरीसर्प, मछली, मेढ़क, पक्षी आदि बरसे तो समझो वहाँ पर महान् भय होगा ऐसा जानो॥१४ ।। विरानो यदा चाग्निरीक्ष्यते सततं पुरे। स राजा नश्यते देशाच्छपमासात् परतस्तदा॥१५॥ (यदा राजा) जब राजा (निरिन्धनो चाग्नि) ईधन न होते हुए भी अग्नि को (पुरे सततं) नगर में सतत (रीक्ष्यते) देखता है। (स) वह (च्छण्मासात् परतस्तदा नश्यते) छह महीने के अन्दर ही नष्ट हो जायगा। भावार्थ--जब राजा निरन्तर अग्नि के अभाव में भी नगर को जलता हुआ देखे तो समझो वो राजा छह महीनेके भीतर ही नष्ट हो जायगा।।१५॥ दीप्यन्ते यत्र शस्त्राणि वस्त्राण्यश्वा नरा गजाः। वर्षे च नियते राजा देशस्य च महद्भयम्॥१६।। (यत्र) जहाँ पर (शस्त्राणि) शस्त्र, (वस्त्राण्यश्वा नरा गजा:) वस्त्र, घोड़े, मनुष्य, हाथी आदि (दीप्यन्ते) जलते हुए दिखे तो (वर्षे च म्रियते राजा) एक वर्ष में ही राजा का मरण होगा, (देशस्य च महद्भयम्) और देश के अन्दर महान भय उत्पन्न होगा। भावार्थ-जहाँ पर शस्त्र, वस्त्र, घोड़े, हाथी, मनुष्य जलते हुए दिखाई दे तो समझो वहाँ पर एक वर्ष में राजा का भरण और उस देश में महान् भय उपस्थित होगा ।। १६॥ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ३५२ चैत्य वृक्षा रसान् यद्वत् प्रसवन्ति विपर्ययात्। समस्ता यदि वा व्यस्तास्तदा देशे भयं वदेत्॥१७॥ (चैत्यवृक्षा) चैत्य वृक्षोंसे (विपर्ययात्) विपरीत (यद्वत्) जैसा का तैसा (रसान्) रस (प्रस्रवन्ति) गिराते है (तदा) तब उस (देशे) देश में (समस्ता यदि वा व्यस्ता:) व समस्त देश में (भयं वदेत्) भय होगा, ऐसा समझो। भावार्थ-यदि वृक्षों से विपरीत रस टपके (निकले) तो उस देश में भय उत्पन्न होगा॥१७॥ दधि क्षौद्रं घृतं तोयं दुग्धं रेतविमिश्रितम्। प्रसवन्ति यदा वृक्षास्तदा व्याधिभयं भेवत्॥१८॥ (यदा वृक्षाः) जब वृक्ष, (दधि क्षौद्रं घृतं तोयं दुग्धं रेतविमिश्रितम्) दही, शहद, घी, पानी, दूध, वीर्य मिश्रित रस (प्रस्रवन्ति) गिरावे तो (तदा) तब (व्याधि भयं भवेत्) व्याधिक का भय होगा। ___ भावार्थ-जब वृक्ष दही, शहद, दूध, घी, वीर्य मिश्रित रस गिरावे तो समझो महान् व्याधि का भय होगा ।। १८ ।। रक्ते पुत्रभयं विन्यात् नीले श्रेष्ठिभयं तथा। अन्येष्वेषु विचित्रेषु वृक्षेषु तु भयं विदुः ॥१९॥ (वृक्षेषु) वृक्षोंमें (रक्तेपुत्रभयं) लाल रस निकले तो पुत्र भय होगा, (नीलेश्रेष्ठि भयं) नीले रंग का रस हो तो सेठों को भय (तथा) तथा (अन्वेष्वेषु) और भी अन्य प्रकार विश्रित्र रूप निकले (तु) तो (भयं विदुः) जनपद को भय होगा ऐसा जानो। भावार्थ-अगर वृक्षों में लाल रस निकले तो जानो पुत्र भय उत्पन्न होगा, नीले रंग का रस निकले तो नगर में रहने वाले श्रेष्ठि वर्गों को कष्ट होगा और भी अन्य प्रकार विचित्र रूप रस निकले तो समस्त जनपदों को भय उत्पन्न होगा ॥ १९ ॥ विस्वरं रवमानस्तु चैत्यवृक्षो यदा पतेत् । सततं भयमाख्याति देशजं पञ्चमासिकम्॥२०॥ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽध्यायः (यदा) जन (चैत्यवृक्षो) चैत्य वृक्ष (रव मानस्तु पतेत्) रोने रूप व कष्ट रूप शब्द करता हुआ (पतेत्) नीचे गिरे तो (देशज) देश वासियों को (पञ्चमासिकम्) पाँच महीनेमें (सततं भयमाख्याति) सतत् भय उत्पन्न होगा। भावार्थ-जब चैत्यवृक्ष या (गुलर का वृक्ष) रोता हुआ या आर्त रूप शब्द करके नीचे गिरे जाय तो समझो देशवासियों को सतत् पाँच महीने में भय का कारण उत्पन्न होगा ॥२०॥ नाना वस्त्रैः समाच्छन्ना दृश्यन्ते चैव यद् द्रुमाः। राष्ट्रजं तद्भयं विन्द्याद् विशेषेण तदा विषे॥२१॥ (यद् द्रुमाः) जब वृक्ष (नाना वस्त्रैः समाच्छन्ना दृश्यन्ते) नाना वस्त्रों से सहित दिखते हैं तो (राष्ट्रज) देशवासियों के लिये (तदा विषे विशेषेण) तब विशेष रीति से (भयं विन्द्या भय उत्पन्न होगा। भावार्थ-जब वृक्ष नाना वस्त्रों से सहित दिखाई देता है तो विशेष रीति से देशवासियों को भय उत्पन्न होगा ।। २१ ॥ शुक्ल वस्त्रोद्विजान-हन्ति रक्त: क्षत्रं तदाश्रयम्। पीतवस्त्रो यदा व्याधिं तदा च वैश्यघातकः ॥२२॥ (शुक्ल वस्त्रो द्विजान-हन्ति) यदि वृक्षों पर सफेद कपड़ा दिखे तो ब्राह्मणों का नाश करेगी, (रक्तः क्षत्रं तदाश्रयम्) लाल वस्त्र दिखे तो क्षत्रियों का नाश (पीत वस्त्रो यदा व्याधि) पीला वस्त्र दिखे तो व्याधि होगी, (तदा च वैश्यघातकः) विशेषता से वैश्यों का घातक होगी। भावार्थ-वृक्षों पर सफेद कपड़ा दिखे तो ब्राह्मणों के विनाश का कारण होगा, लाल कपड़ा दिखे तो क्षत्रियों के नाश का कारण होगा, पीला दिखे तो व्याधि होगी, विशेषता से वैश्यों के घात का कारण होगा ।। २२॥ नीलवस्त्रैस्तथा श्रेणीन् कपिलैम्लेंच्छमण्डलम्। धूर्तीनिहन्तिश्वपचान् चाण्डालानप्यसंशयम्॥२३॥ (नीलवस्त्रैस्तथाश्रेणीन्) नीले वस्त्रों से युक्त वृक्ष दिखे तो शुद्रादिकों का Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता नाश, (कपिलैम्लेंच्छमण्डलम्) कपिल वस्त्र दिखे तो म्लेच्छ लोगों का नाश (धूमै) धूम्रवर्ण का वस्त्र दिखे तो (श्वपचान् चाण्डाला) चांडालादिकका (निहन्ति नाप्यसंशय:) नाश करता है इसमें कोई सन्देह नहीं है। भावार्थ-यदि वृक्ष नीले वस्त्रों से युक्त दिखे तो शूद्रादिक का नाश होगा, कपिल वस्त्रों से युक्त दिखे तो म्लैक्ष लोंगो का नाश होगा, धूम्रवर्ण का दिखे तो चाण्डालादिक का नाश होगा इसमें कोई सन्देह नहीं है।। २३ ॥ मथुरा: क्षीरवृक्षाश्च श्वेतपुष्पफलाश्च ये। सौम्यायां दिशि यज्ञार्थं जानीयात् प्रतिपुद्गलाः ।। २४॥ (ये) जो (सौम्यायां) उत्तर (दिशि) दिशामें (मधुरा:) मधुर (क्षीरवृक्षाश्च) क्षीर वृक्ष (स्नेह पुष्प फलाब) सफेद गुल और पल दिहे तो (यज्ञार्थ प्रतिपुद्गला: जानीयात्) यज्ञ के लिये उत्पात का कारण जानो। भावार्थ-जो मधुर वृक्ष श्वेतपुष्पों व फलों से सहित उत्तर दिशा में अगर दिखे तो ब्राह्मणों के यज्ञ के लिये उत्पात का कारण बनेगा ।। २४ ।। कषाय मधुरास्तिक्ता उष्णवीर्य विलासिनः । रक्तपुष्पफलाः प्राच्या सुदीर्घ नृपक्षत्रयोः ॥२५॥ यदि (प्राच्या) पूर्वदिशामें वृक्ष (कषाय) कषाय, (मधुरास्तिक्ता) मधुर, तिक्त, (उष्णवीर्यविलासिनः) उष्णवीर्य, विलासिन (रक्तपुष्पफला:) लाल पुष्प और फलों से युक्त हो तो (सुदीर्घ नृप क्षत्रयोः) बलवान् राजा व क्षत्रियों के लिये उत्पात का कारण होगा। भावार्थ-यदि वृक्ष पूर्व दिशामें कषाय, मधुर, तिक्त, उष्णवीर्य विलास, लाल पुष्प व फलादिक से सहित दिखे तो समझो राजा व क्षत्रियों के लिये उत्पात का कारण होगा॥२५॥ अम्लाः सलवणाः स्निग्धाः पीतपुष्पफलाश्च ये। दक्षिण दिशि विज्ञेया वैश्यानां प्रतिपुद्गलाः ॥२६॥ यदि (दक्षिणदिशि) दक्षिण दिशा के वृक्ष (ये) जो (अम्ला:) आम्ल (स Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽध्यायः लवणा:) लवण से युक्त (स्निग्धा:) स्निग्ध ( पीतपुष्पफलाश्च) पीले पुष्प और फलों से युक्त दिखे तो ( वैश्यानां प्रतिपुद्गलाः ) वैश्यों के लिये उत्पात का कारण होता है । ३५५ भावार्थ - यदि दक्षिण दिशा में वृक्ष, आम्ल, खारे, स्निग्ध, पीले पुष्पों से युक्त और फलों से सहित दिखे तो वैश्यों के लिये उत्पात का कारण बनता है ॥ २६ ॥ कटुकण्टकिनो रूक्षाः कृष्णपुष्पफलाश्च ये । वारुण्यां दिशि वृक्षाः स्युः शूद्राणां प्रतिपुद्गलाः ॥ २७ ॥ ( यदि वारुण्यां दिशिवृक्षाः ) यदि पश्चिमदिशा के वृक्षों में (कटु) कडवा, ( कण्टकिनो) कण्टक सहित ( रूक्षा:) रूक्ष ( कृष्ण पुष्पफलाश्च ये) और जो काले पुष्प फल दिखे तो (शूद्रणां प्रतिपुद्गलाः स्युः) शूद्रों के लिये उपद्रवकारी होते हैं। भावार्थ जो पश्चिम दिशा के वृक्ष कड़वे काण्टों से सहित, रूक्ष हो और काले पुष्प फलों से सहित हो तो समझो शूद्रों को उपद्रव होगा ॥ २७ ॥ महान्तश्चतुरस्रश्च गाढाश्चापि विशेषिणः । वनमध्येस्थिताः सन्तः स्थावरा: प्रतिपुद्गलाः ॥ २८ ॥ यदि वृक्ष (वनमध्येस्थिताः) वन में स्थित हों (महान्तश्चतुरस्त्राश्च) महान् चारों तरफ से गाढ ( श्चापि विशेषिणः) और भी विशेष रीति से हैं (सन्त:) है तो (स्थावराः प्रतिपुद्गलाः) स्थावर जीवों के लिये उपद्रवकारी हैं। भावार्थ — जो वृक्ष, विशेष रीति से वन के अन्दर स्थित हो, गाढ़ हो चौकोर हो तो वहाँ के निवासियों को उपद्रव करते हैं ॥ २८ ॥ हस्वाश्च तरवो येऽन्ये अन्त्ये जाता वनस्य च । अचिरोद्भवकारा ये यायिनां प्रतिपुद्गलाः ।। २९ । ( ये ) जो (तरवो) वृक्ष ( ह्रस्वाश्च) छोटे हैं (येऽन्ये अन्त्ये जातावनस्य च ) अन्य वन में अन्त में उत्पन्न हुए हैं (अचिरोद्भवकारा) शीघ्र ही उत्पन्न होने के आकार में हैं तो (यायिनां प्रतिपुद्गलाः) आने वाले प्रतिशत्रु के लिये उपद्रव करने वाले हैं। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ-जो वृक्ष छोटे है वन के अन्त में उत्पन्न होने वाले है शीघ्र ही उत्पन्न होने के आकार के हैं ऐसी स्थिति के वृक्ष प्रतिशत्रु के लिये घातक हैं।॥ २९॥ ये विदिक्षु विमिश्राश्च विकर्मस्था विजातिषु। प्रतिपुद्गलाश्च येषां तेषामुत्पातजं फलम्।।३०॥ (ये) जो वृक्ष (विदिक्षु) विदिशामें हो (विमिश्राश्च) मिश्रित हो (विकर्मस्था) विपरीत कर्मवाले हो (विजातिषु) विजातिरूप हो (येषां) इस प्रकार वृक्ष के निमित्त (प्रति पुद्गलाश्च) उत्पात के कारण होते है (तेषामुत्पातजं फलम्) वहाँ पर समाज के लिये कष्टदायी है। भावार्थ—जो वृक्ष विदिशामें मिश्ररूप विपरीत कर्म के दिखने वाले विजातीय हो तो समझो जनपद के लिये घातक हैं॥३०॥ श्वेतो रसो द्विजान् हन्ति रक्त: क्षत्रनृपान् वदेत्। पीतो वैश्य विनाशाय कृष्णः शूद्रनिषूदये॥३१॥ यदि वृक्षों से (श्वेतरसो द्विजान् हन्ति) सफेद रस निकले तो ब्राह्मणों का घात होगा, (रक्तः क्षत्रनृपान् वदेत्) लाल निकले तो क्षत्रिय राजाओं का नाश, (पीता वैश्य विनाशाय) पीला निकले तो वैश्यों का नाश (कृष्ण: शूद्रनिषूदये) काला निकले तो शूद्रों का नाश होता है।। भावार्थ-यदि वृक्षों से सफेद रस निकले तो ब्राह्मणों का नाश होगा, लाल निकले तो राजा व क्षत्रियों का नाश होगा, पीला निकले तो वेश्यों का नाश काला निकले तो शूद्रों का नाश होगा ऐसा कहे।। ३१ ।। । परचक्रं नृपभयं क्षुधाव्याधि धनक्षयम्। एवं लक्षणसंयुक्ताः स्रावा: कुर्युर्महद्भयम्॥३२॥ इस प्रकार (एवं लक्षण संयुक्ता नावा:) के लक्षणों से सहित मिश्रित रूप से रस वृक्षों से गिरे तो (परचक्रं नृपभयं) पर चक्र के राजा का भय हो (क्षुधा व्याधि धनक्षयम्) लोग भूखों मरे, व्याधियाँ उत्पन्न हो धन का क्षय हो (महद्भयम् कुर्युः) और महान् भय उत्पन्न हो। भावार्थ-यदि वृक्षों से मिश्रित वर्ण के रस गिरे तो समझो पर चक्र के Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽध्यायः राजा का भय होगा लोग भूखे मर जायंगे व्याधियां उत्पन्न होगी धन का नाश हो जायगा, इत्यादि महान भय उत्पन्न होता है ॥ ३२ ॥ ३५७ कीटदष्टस्य वृक्षस्य व्याधि तस्य च यो रसः । विवर्णः स्रवते गन्धं न दोषाय स कल्पते ॥ ३३ ॥ यदि (वृक्षस्य ) वृक्षको (कीटदष्टस्य) कीड़े के खा लेने पर ( च यो) और जो ( तस्य ) उसको ( व्याधि) रोग हो तो ( विवर्ण रसः स्रवते गन्धं) विवर्णरस के व दुर्गन्धित रस के क्षरण होने पर भी ( न दोषायसकल्पते) कोई दोष नहीं हैं। भावार्थ- -जब वृक्षों में रोग हो कीड़े खा लिये हो और पेड़ में से विवर्ण व दुर्गन्धित रस निकले तो कोई दोष नहीं है क्योंकि रोग से ऐसा हो रहा है, इसका कोई निमित्त नहीं हैं ॥ ३३ ॥ स्रवन्त्याशु मरणे पर्युपस्थिताः । वृद्धा द्रुमा ऊर्ध्वाः शुष्का भवन्त्येते तस्मात् तांल्लक्षयेद् बुधः ॥ ३४ ॥ (ऊर्ध्वाः शुष्का भवन्त्येते ) जो ऊपर से सूखे हुए हैं (वृद्धा) वृद्ध हो गये हैं ( मरणेपर्युपस्थिताः) मरने के नजदीक हैं ऐसे (दुमास्रवन्त्याशु ) वृक्ष अगर रस गिरा रहें तो ( तस्मात् तांल्लक्षयेद्बुधः ) इसलिये बुद्धिमान निमित्तज्ञानी का अवश्य लक्ष्य देकर बोलना चाहिये । भावार्थ — निमित्तज्ञानी का अवश्य उपर्युक्त बातों पर ध्यान देकर निमित्तको बोले नहीं तो जूठा पड़ जायगा क्योंकि वृक्षों में उपर्युक्त कारणों से भी रस गिरता है जैसे- जो वृक्ष ऊपर से सूखे हैं नीचे से हरे हैं बुढ़े हो गये है जिनका मरण निकट में इन कारणों से भी पेड़ रस छोड़ सकते हैं इसलिये निमित्तज्ञानी पूरा लक्ष्य दे ॥ ३४ ॥ यथा वृद्धो नरः तथा वृद्धो द्रुमः कश्चित् प्राप्य हेतुं विनश्यति । कश्चित् प्राप्य हेतुं विनश्यति ॥ ३५ ॥ ( यथावृद्धोनरः कश्चित् ) जैसे कोई वृद्ध पुरुष ( हेतुं प्राप्त विनश्यति) हेतु को पाकर नष्ट हो जाता है (तथा वृद्धो द्रुमः कश्चितः) उसी प्रकार वृद्ध वृक्ष भी कोई भी ( हेतुं प्राप्त विनश्यति) कारण को पाकर नष्ट हो जाता है। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | ३५८ भावार्थयहाँ आचार्य उदाहरण देकर कह रहे हैं कि जैसे कोई वृद्ध पुरुष कारण को पाकर मर जाता है उसी प्रकार वृद्ध वृक्ष भी कारण पाकर मर जाता है॥३५॥ इतरेतरयोगास्तु वृक्षादि वर्ण नामभिः। वृद्धाबलोन मूलाश्च चलच्छैाश्च साधयेत॥३६॥ (इतरेतरयोगास्तु) इतरेतरयोग से (वृक्षादि वर्णनामभिः) वृक्षों के वर्णों का नाम है उसमें (वृद्धाबलोग्र मूलाश्च) वृद्ध और बाल वृक्षों से संबध हो इसलिये उसी प्रकार जाने (चालयाश्च साधयेत्) उसी प्रकार का ज्ञान करे वैसा ही बनावे। भावार्थ-जैसे पुराने वृक्ष और बुढ़े आदमी का इतरेतर संबध हो उसी प्रकार नवीन वृक्ष और वृद्ध वृक्ष का संबध है निमित्तज्ञानी को सब बातों का ज्ञान कर कहना चाहिये॥ ३६।।। हसने रोदने नृत्ये देवतानां प्रसर्पणे। महद्भयं विजानीयात् षण्मासाद्विगुणात्परम्॥३७॥ (देवतानां) देवताओं के (हसने) हँसने से (रोदने) रोने से (नृत्ये) नाचने से व (प्रसर्पणे) चलने से (षण्मासाद्विगुणात्परम्) छह महीने से लगाकर एक वर्ष तक (महद्रयं विजानीयात्) महान् भय उत्पन्न होगा। भावार्थ-देवता की प्रतिमा के हँसने से, रोने से, नाचने से, चलने से समझो छह महीने से लगाकर एक वर्ष तक जनता में महान भय उत्पन्न होगा॥ ३७॥ चित्राश्चर्यसुलिङ्गानि निमीलन्ति वदन्ति वा। ज्वलन्ति च विगन्धीनि भयं राजवधोद्भवम्॥३८॥ (चित्र) विचित्र (आश्चर्यसुलिङ्गानि) आश्चर्य कार्यचिह्न (निमीलन्ति) छुपा हुआ हो या (वदन्ति वा) प्रकट रूप (ज्वलन्ति च विगन्धीनि) और हीन गुट का वृक्ष सहसा जलने लगे तो (भय) भय उत्पन्न होगा (राजवधोद्भवम्) राजा का वध होगा। भावार्थ-विचित्र आश्चर्य से सहित, सुलिङ्गरूप छुपा हुआ, बोलता हुआ और जलता हुआ हिंगुट का वृक्ष दिखे तो भय उत्पन्न होगा और राजा का मरण होगा॥३८॥ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५९ | चतुर्दशोऽध्यायः । तोयावहानि सहसा रुदन्ति च हसन्ति च। मार्जारवच्च वासन्ति तत्र विन्द्यामहद्भयम्।। ३९। (तोयावहानि) नदीयां (सहसा) सहज रूप (रुदन्ति) रोने लगे और (हसन्ति) हँसने लगे (च) और (मार्जारवच्च वासन्ति) बिल्ली के समान दुर्गन्ध आवे तो (तत्र) वहाँ पर (महद्भयम् विन्द्याद्) महान भय होगा। भावार्थ-यदि अकस्मात बहती हुई नदीयाँ रोने लगे हँसने लगे बिल्ली की दुर्गन्ध के समान बुदबुदे तो समझो वहाँ पर महान् भय उपस्थित होगा ।। ३९ ।। वादित्रशब्दाः श्रूयन्ते देशे यास्मिन मानुषैः । स देशो राजदण्डेन पीड्यते नात्र संशयः॥४०॥ (यस्मिन्त्रदेश) जिस देश के (भानुः) मनुष्य (वादित्रशब्दाः श्रूयन्ते) वादित्रों के शब्द सुनने लगे (स देशो राजदण्डे न पीड्यते) वह देश राजदण्ड के द्वारा पीडित होगा (नात्र संशय) इसमें कोई सन्देह नहीं हैं। भावार्थ-जिस देश के मनुष्य अकस्मात् बाजों की आवाज सुनने लगे तो समझो वह देश राजदण्ड से पीडित होगा, यानी राजा उस देश पर नाना प्रकार के संकट डालेगा।। ४०॥ तोयावहानि सर्वाणि वहन्ति रुधिरं यदा। षष्ठे मासे समुद्भूते संग्राम: शोणिताकुलः ।।४१ ।। _जिस देश की (तोयावहानि) नदीयां (सर्वाणि) सब ही (यदा) जब (रुधिर वहन्ति) रुधिर के समान वर्ण की होकर बहे तो (षष्ठेमासे) छह महीने में (शोणिताकुल: संग्रामः समुद्भूते) रक्त से आकुलित संग्राम का समुद्भव होगा। भावार्थ-जिस देश में नदीयां जब रक्त के समान वर्ण की होकर बहे तो समझो छह महीने में रक्त की नदियाँ बह जाय, ऐसा संग्राम होगा॥४१॥ चिरस्थायीनि तोयानि पूर्वयान्ति पयः क्षयम्। गच्छन्ति वा प्रतिस्रोतः परचक्रागमस्तदा॥४२॥ (चिरस्थायीनि तोयानि) चिरस्थायी नदीयों का (पयः) जल (पूर्वयान्ति क्षयम्) Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता पूर्वरूप से क्षय हो जाय ( प्रतिस्रोतः गच्छन्ति वा ) व नदी का प्रवाह उल्टा बहने लगे तो ( परचक्रगमस्तदा) समझो पर शत्रु का आगमन होंगा। भावार्थ — जो स्थिर नदियाँ है उसका अकस्मात जल सूख जाय व नदियों की धारा उल्टी बहने लगे तो समझो परचक्र का आक्रमण होगा ॥ ४२ ॥ वर्धन्ते चापि शीर्यन्ते चलन्ति वा तदाश्रयात् । सशोणितानि दृश्यन्ते यत्र तत्र महद्भयम् ॥ ४३ ॥ ३६० जहाँ पर नदियाँ ( वर्धन्ते) बहती हो ( शीर्यन्ते) विशीर्ण होती हो (वा) व (चलन्ति ) चलती हो ( तदाश्रयात् ) उसके आश्रय से (सशोणितानि दृश्यन्ते) वह नदीयों का पानी रक्त के समान दिखे तो ( यत्र तत्र महद्भयम् ) जहाँ-तहाँ महान् भय उत्पन्न होगा । भावार्थ — जिस देश में नदियाँ अकस्मात बढ़ने लगे, क्षीण होने लगे, चलने लगे और रक्त के समान लाल दिखने लगे तो समझो जहाँ तहाँ महान् भय उत्पन्न होगा ॥ ४३ ॥ शस्त्रकोषात् प्रधावन्ते नदन्ति विचरन्ति व्रा । रुदन्ति दीप्यन्ते संग्रामस्तेषुनिर्दिशेत् ॥ ४४ ॥ यदा यदि (शस्त्रकोषात् ) शस्त्र कोषसे अपने आप (प्रधावन्ते) निकलने लगे (नदन्ति) शब्द करते हो ( विचरन्ति ) विचरण करते हों व (यदा) जब ( रुदन्ति) रोते हों (दीप्यन्ति ) चमकते हो ( तेषु) वहाँ पर (संग्राम : निर्दिशेत् ) संग्राम होगा ऐसा कहे । भावार्थ — यदि शस्त्र अपने आप ही कोष से बाहर निकलने लगे, शब्द करने लगे, विचरण करने लगे रोने लगे, चमकने लगे, वहाँ पर संग्राम अवश्य होगा ॥ ४४ ॥ यानानि वृक्ष वेश्मानिधूमायन्ति ज्वलन्ति वा । अकालजं फलं पुष्पं तत्र मुख्यो विनश्यति ॥ ४५ ॥ (यानानि) सवारी, (वृक्षवेश्मानि ) वृक्ष, घर, (धूमायन्ति ) धूओं से युक्त हो जाय (ज्वलन्ति वा ) जलने लग जाय (अकालजं) अकालमें ही ( फलं पुष्पं ) फल पुष्प वृक्षों पर आने लगे ( तत्र ) वहाँ पर ( मुख्योविनश्यति) मुख्य पुरुष का विनाश होता है। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽध्यायः भावार्थ-जहाँ पर सवारियों वृक्ष, घर आदि धुंए से अपने आप भर जाय तो जलने लगे, अकाल में फल-पुष्प वृक्षों पर आने लगे, तो समझो वहाँ पर प्रधान पुरुष का नाश होगा!|४५।।। भवने यदि श्रूयन्ते गीत वादित्रनिस्वनाः। यस्य तद्धवनं तस्य शारीरं जायते भयम्॥४६॥ (यदि) यदि (भवने) भवनमें (गीतवादिननिस्वना:) वादित्र सूने घर में (श्रूयन्ते) सुनाई पड़े तो (यस्यतद्भवनं) उसी घर वाले के (शारीरं) शरीरमें (भयम् जायते) भय उत्पन्न होगा। भावार्थ-जिसके सूने भवन में वादित्र नहीं होते हुए भी वादित्र का शब्द सुनाई पड़े तो उसके शरीर में भय उत्पन्न होता है॥४६॥ पुष्पं पुष्पे निबध्येत फलेन च यदा फलम्। वितथं च तदा विन्द्यात् महज्जनपद क्षयम्॥४७॥ (पुष्पं पुष्पेनिबध्येत) पुष्प में पुष्प हो (च) और (फलेन यदा फलम्) फल में फल उत्पन्न हो (वितथं च तदा विन्द्यात्) तो वितन्डा वाद होगा (महज्जनपदक्षयम्) महाजनों का क्षय होगा। भावार्थ-यदि पुष्प में पुष्प उत्पन्न हो फल में फल हो तो वितन्डावाद का प्रचार और जनपद का अवश्य क्षय होता है।। ४७॥ चतुःपदानां सर्वेषां मनुजानां यदाऽम्बरे। श्रूयते व्याहृतं घोरं तदा मुख्यो विपद्यते॥४८॥ (यदाऽम्बरे) जब आकाश में (सर्वेषां) सम्पूर्ण (चतुःपदानां मनुजानां) चार पाँव वाले पशु व मनुष्य के (घोरं) घोर (व्याहतं) व्यवहार के शब्द (श्रूयते) सुनाई पड़े तो (तदा) तब (मुख्योविपद्यते) मुखिया विपत्ति में पड़ जायगा।। भावार्थ-जब आकाश में चार पाँव वाले पशुओं के व मनुष्यों के शब्द सुनाई पड़े तो नगर मुखिया विपत्ति में पड़ जायगा।। ४८॥ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ३६२ निर्घाते कम्पने भूमौ शुष्कवृक्षप्ररोहणे। देशपीडा विजानीयान्मुख्यश्चात्र न जीवति ॥४९॥ (भूमौ) भूमि के अकारण ही (निर्घातेकम्पने) निर्घातित और कम्पित होने पर व (शुष्कवृक्षप्ररोहणे) सूखे वृक्ष पुनः हरे हो जाने पर (देशपीडां विजानीयान्) देश को पीडा होगी (मुख्यश्चात्र न जीवति) अथवा मुखिया की मृत्यु होगी। भावार्थ-भूमि के अकस्मात निर्घातित व कम्पित होने पर व सूखे हुऐ वृक्ष के पुनः हरे होने पर उस देशवासियों को पीडा होगी, अथवा देश के मुखिया का मरण होगा।। ४९॥ यदा भूधरशृङ्गाणि निपतन्ति महीतले। तदा राष्ट्रभयं विन्द्यात् भद्रबाहुवचो यथा॥५०॥ (यदा) जब (भूधर) पर्वतकी (शृङ्गाणि) चोटी (महीतलेनिपतन्ति) भूमि पर गिर पड़े (तदा) तब (राष्ट्रभयं विन्द्यात्) राष्ट्र भय होगा ऐसा (भद्रबाहुवचो यथा) भद्रबाहु स्वामी का वचन है। भावार्थ-अब पर्वत की चोटियाँ अकस्मात पृथ्वी पर गिर पड़े तो समझो राष्ट्र को भय उत्पन्न होगा, ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है॥५०॥ वल्मीकस्याशु जनने मनुजस्यनिवेशने। अरण्यं विशतश्चैव तत्र विन्द्यान्महद्भयम्॥५१॥ (मनुजस्यनिवेशने) मनुष्यों के घरों में चीटियाँ (वल्मीकस्याशुजनने) अपने रहने का बिल बनावे और (अरण्यं विशतश्चैव) अरण्य में जावे तो (तत्र) वहाँ पर (महद्भयम् विन्द्यात्) महान भय उत्पन्न होगा। भावार्थ-यदि मनुष्यों के निवास स्थान में चींटियाँ अपनी बिल बनावे और नगर से अरण्य की ओर जावे तो देश के लिये महान् भय होगा ।। ५१॥ महापिपीलिकावृन्दं सन्द्रकाभृत्यविप्लुतम् । तत्र तत्र च सर्व तद्राष्ट्र भङ्गस्य चादिशेत् ॥५२॥ (महापिपीलिकावृन्द) महान चींटियों के झुण्ड (सन्द्रकाभृत्यविप्लुतम्) मिलकर Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३ चतुर्दशोऽध्यायः । कहीं भाग रही हो (तत्र तत्र च सर्व) वहाँ-वहाँ के सर्व (तद्राष्ट्रभास्यचादिशेत्) देश भंगो का निर्देश है। भावार्थ-चींटियों के झुण्ड मिलकर कहीं जाकर विलुप्त हो जावे तो वहाँ राष्ट्र भंग का भय समझना चाहिये ।।५२।।। महापिपीलिकाराशिर्विस्फुरन्ती उह्यानुत्तिष्ठते यत्र तत्र विन्यान्महद्भयम्॥५३॥ (महापिपीलिकाराशि) महा चींटियों का झुण्ड (विस्फुरन्तीविपद्यते) विस्फुरित होती हुई मर जाय (उद्यानुत्तिष्टते यत्र) और जहाँ पर उह्यक्षतविक्षत दिखे (तत्र) वहाँ पर (महद्भयम् विन्द्यात्) महान भय उत्पन्न होगा। भावार्थ-जहाँ पर चींटियों का झुण्ड विस्फुरित होकर मर जाय और उह्यक्षत-विक्षत दिखे तो महान् भय उपस्थित होगा।। ५३ ।। श्वश्वपिपीलिका वृन्दं निम्नमूद्ध विसर्पति। वर्ष तत्र विजानीयाद् भद्रबाहुवचो यथा ॥५४।। (श्वश्वपिपीलिका वन्द) जहाँ पर चीटियाँ (निम्नमूर्द्ध विसर्पति) रूप बदलकर याने पंख वाली होकर ऊपर की ओर जावे तो (तत्र) वहाँ पर (वर्ष) वर्षा अच्छी होगी (विजानीयाद्) ऐसा जानो (भद्रबाहुवचो यथा) ऐसा ही भद्रबाहु स्वामी का वचन है। भावार्थ-जहाँ पर चीटियों के झुण्ड रूप बदल कर याने पंख वाली होकर ऊपर की ओर जावे तो वहाँ पर बहुत ही अच्छी वर्षा होगी, ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है ।। ५४॥ राजोपकरणे भग्ने चलिते पतितेऽपि वा। क्रव्यादसेवने चैव राजपीडां समादिशेत् ।। ५५॥ (राजोपकरणे भग्ने) राजा के उपकरण भग्न होने पर (चलिते पतितेऽपि वा) चलित होने पर गिरने पर और भी (क्रव्याद्सेवने चैव) मांसाहारी के सेवा करने पर (राजपीडांसमादिशेत्) समझो राजा को पीड़ा होगी। Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ३६४ भावार्थ-अगर राजा के उपकरण अकस्मात भंग हो जाय तो चलित होने पर गिर जाने पर और मांसाहारी के सेवा करने पर समझो राजा को पीड़ा होगी।। ५५!! वाजिवारण यानानां मरणे छेदने द्रुते। परचक्रागमात् विन्धादुत्पातझो जितेन्द्रियः॥५६॥ (वाजिवारण यानानां) घोड़े, हाथी आदि सवारियों के अकारण ही (मरणे) मरण (छेदने द्रुते) छेदन या घायल हो जाने पर (परचक्रागमात्) परचक्र का आगमन रूप (उत्पातज्ञो जितेन्द्रियः) उत्पाद होगा ऐसा जितेन्द्रिय निमित्तज्ञ को (विन्द्याद्) जानना चाहिये। भावार्थ-घोड़ो, हाथी सवारियों के अकारण ही मर जाने पर छेदन हो जाने पर या घायल हो जाने पर समझो उस देश में परचक्र का आगमन होगा ऐसा श्री जितेन्द्रिय निमित्तज्ञ ने कहा है ऐसा आप समझो।। ५६॥ क्षत्रियाः पुष्पितेऽश्वत्थे ब्राहाणाश्चाप्यु दुम्बरे। वैश्याः प्लक्षेऽथ पीड्यन्ते न्यग्रोधे शूद्रदस्यवः ॥५७॥ (अश्वत्थेपुष्पिते क्षत्रियाः) अचानक पीतल के पुष्पित होने पर क्षत्रिय और (दुम्बरे श्चाप्यु ब्राह्मणा) उदम्बर के पुष्पि हो जाने पर ब्राह्मण और (अथ प्लक्षे वैश्याः) पाकर के पुष्पित होने पर वैश्य (न्याग्रोधे शूद्रदस्यवः) वट वृक्ष के पुष्पित हो जाने पर शूद्र पीड़ित होते हैं। भावार्थ-अकारण पीपल के पुष्पित हो जाने पर क्षत्रिय लोग पीड़ित होंगे उदम्बर वृक्ष के पुष्पित हो जाने पर ब्राह्मण पीड़ित होंगे, पाकर के पुष्पित हो जाने पर वैश्य पीड़ित होंगे और वट वक्ष के पुष्पित हो जाने पर शूद्र पीड़ित होंगे।। ५७! इन्द्रायुधं निशिश्वेतं विप्रान् रक्तं च क्षत्रियान्। निहन्ति पीतकं वैश्यान् कृष्णं शुद्रभयङ्करम् ॥ ५८॥ (इन्द्रयुधं) इन्द्रधनुष रात्रि में यदि (श्वेत) सफेद दिखे तो (विप्रान्) ब्राह्मणों को (रक्तं च क्षत्रियान्) लाल दिखे तो क्षत्रियों को (पीतकं वैश्यान्) पीला दिखे तो वैश्यों को (कृष्णं शूद्र भयंकरम्) काला दिखे तो शूद्रों को भयंकर रूप में (निहन्ति) मारता है। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽध्यायः भावार्थ — यदि इन्द्रधनुष रात्रि में दिखे वो भी सफेद दिखे तो ब्राह्मणों को मारेगा, लाल हो तो क्षत्रियों को मारेगा, पीला हो तो वैश्यों को मारेगा, काला दिखे तो समझो शूद्रों को महान मरण उत्पात होगा ॥ ५८ ॥ ३६५ भज्यते नश्यते तत्तु कम्पते शीर्यते चतुर्मासं परं राजा म्रियते भज्यते जलम् । तदा ।। ५९ । यदि इन्द्रधनुष (भज्यते नश्यते तत्तु) टूटता है, नाश होता है (कम्पते) कम्पित होता है ( जलम् शीर्यते) अथवा जल की वर्षा करता हो तो (तदा) तब ( परं चतुर्मासं राजा म्रियते ) समझो चार मास में राजा की मृत्यु होगी, (भज्यते) अथवा इसके समान कष्ट होगा। भावार्थ — यदि इन्द्रधनुष भग्र होता हुआ दिखे, नाश होता हुआ दिखे, कम्पित होता हुआ दिखे अथवा जल की वर्षा करता हुआ दिखे तो समझो चार महीने में राजा की मृत्यु होगी व मरण के समान कष्ट होगा ॥ ५९ ॥ पितामहर्षयः सर्वे सोमं च क्षत संयुतम् । विजानीयादुत्पातं त्रैमासिकं ब्राह्मणेषुवे ॥ ६० ॥ (पितामहर्षयः सर्वे सोमं च ) पिता, महर्षय और चन्द्रमा आदि सब ( क्षत संयुतम् ) क्षत-विक्षत से सहित दिखे तो (त्रैमासिकं उत्पातं ब्राह्मणेषु वै) तीन महीने में ब्राह्मणों में उत्पात (विजानीद्) जानना चाहिये | भावार्थ-पिता, महर्षि, चन्द्रमा आदि सब क्षत-विक्षत दिखे तो समझो ब्राह्मणों को तीन महीने में उत्पात होगा ऐसा समझो ॥ ६० ॥ रूक्षा विवर्णा विकृता यदा सन्ध्या भयानका । मार्री कुर्युः सुविकृतां पक्षत्रिपक्षकं भयम् ॥ ६१ ॥ ( यदा सन्ध्या) जब सन्ध्या ( रूक्षाविवर्णाविकृता) रूक्ष विवर्ण विकृत (भयानका ) भयानक (सु विकृतां ) और सुविकृत दिखे तो ( पक्ष त्रिपक्षकं मारीं कुर्युः भयम् ) पक्ष या तीन पक्ष में मारी का भय होगा । भावार्थ — जब सन्ध्या रूक्ष दिखे, विवर्ण दिखे, विकृत दिखे भयानक दिखे तो तीन पक्ष या एक पक्ष में ही मारी रोग का भय उत्पन्न होगा ।। ६१ ॥ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि राजानश्च भद्रबाहु संहिता वैश्रवणे कश्चिदुत्पातं सचिवाश्चपञ्चमासान् ( यदि) जब (वैश्रवणे) श्रवण नक्षत्रमें ( कश्चिदुत्पातं समुदीरयेत् ) कोई भी उत्पात दिखे तो ( पञ्चमासान् ) पाँच महीनों में ( राजानश्चसचिवाश्च) राजा को या मन्त्री को ( स पीडयेत्) पीड़ा देता है। स समुदीरयेत् । पीडयेत् ॥ ६२ ॥ ३६६ भावार्थ — जब श्रवण नक्षत्र में कोई भी उत्पात दिखता है तो समझो राजा को पाँच महीने में कष्ट होगा या मन्त्री को कष्ट होगा ॥ ६२ ॥ यदोत्यातोऽयमेकश्चिद् दृश्यते विकृतः तदा व्याधिश्च मारी च चतुर्मासात् परं क्वचित् । भवेत् ॥ ६३ ॥ ( यदोत्पातोऽय मेकश्चिद्) यदि कहीं पर किसी प्रकार का उत्पात ( विकृतः क्वचित् दृश्यते) विकृतरूप दिखे तो (तदा) तब (चतुर्मासात् ) चार महीने में (परं व्याधिश्च च मारी) व्याधियाँ या मारी रोग उत्पन्न ( भवेत् ) होगा। भावार्थ — जब कहीं पर किसी प्रकार का विकृत उत्पात दिखलाई पड़े तो समझो चार महीनों में व्याधि या मारी रोग उत्पन्न होगा || ६३ ॥ यदा चन्द्रे वरुणे वोत्पातः कश्चिदुदीर्यते । मारक: सिन्धुसौवीर सुराष्ट्र वत्स भूमिषु ॥ ६४ ॥ भोजनेषु भयं विन्धात् पूर्वे च म्रियते नृपः । पञ्चमासात् परं विन्द्याद् भयं घोरमुपस्थितम् ॥ ६५ ॥ ( यदा) जब (चन्द्रे वरुणे ) चन्द्र या वरुण में ( कश्चिदुदीयति वोत्पातः) कहीं कोई उत्पात दिखे तो ( सिन्धु सौवीर सुराष्ट्र वत्स भूमिषु) सिन्धु देशोंमें, सौवीर देश में, सुराष्ट्र में और वत्सभूमि में (मारकः) मरण का भय उपस्थित होगा। (भोजनेषु भयं विन्द्यात्) भोजन में भय जानो ( पूर्वे च म्रियते नृपः ) पहले ही राजा का मरण हो जायगा, (पञ्चमासात् ) पाँच महीनों में (परं घोर भयं उपस्थितम् विन्द्याद्) महान घोर भय उपस्थित होगा । भावार्थ जब चन्द्रमा या वरुण के अन्दर कोई भी विकार रूप उत्पाद Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ चतुर्दशोऽध्यायः दिखाई पड़े तो, सिन्धु देश सौवीर देश सुराष्ट्र देश, वत्स भूमि में मरण उत्पात होगा। भोजनादिक में भय होगा, पहले ही राजा का मरण होगा, पाँच महीने में ही महाभय उपस्थित होगा॥ ६४-६५ ।। रुद्रे च वरुणे कश्चिदुत्पात समुदीर्यते। सप्तपक्षं भयं विन्द्याद् ब्राह्मणानां न संशयः॥६६॥ (रुद्रे च वरुणे) शिव प्रतिमा या वरुण प्रतिमा में (कश्चिदुत्पातसमुदीर्यते) कहीं कोई उत्पात दिखाई पड़े तो (ब्राह्मणानां) ब्राह्मणों के लिये (सप्तपक्षं भयं विन्द्याद्) सात पक्ष में भय होगा (न संशयः) इसमें कोई सन्देह नहीं हैं। भावार्थ-अगर शिवजी की प्रतिमा या वरुण की प्रतिमा में कोई भी उत्पात दिखे तो समझो सात पक्ष याने तीन महीने पन्द्रह दिनों में ब्राह्मणों को भय उपस्थित होगा॥६६॥ इन्द्रस्य प्रतिमायां तु यधुत्पातः प्रदृश्यते। संग्रामे त्रिषु मासेषु राज्ञः सेनापतेर्वधः॥१७॥ (यद्य) यदि (इन्द्रस्य प्रतिमायां) इन्द्र की प्रतिमा में (उत्पातः प्रदृश्यते) उत्पात दिखे (तु) तो (त्रिषु मासेषु) तीन महीने में ही (संग्रामें) युद्ध भूमि में (राज्ञ: सेनापते र्वधः) राजा का और सेनापति का मरण होगा। __ भावार्थ-यदि इन्द्र की प्रतिमा में कोई भी उत्पात दिखे तो तीन महीने के अन्दर युद्ध भूमि में राजा और सेनापति का मरण हो जायगा ।। ६७॥ यद्युत्पातो बलन्देवे तस्योपकरणेषु च। महाराष्ट्रान् महायोद्धान् सप्तमासान् प्रपीडयेत्॥६८॥ (यदि) यदि (उत्पातो) उत्पात (बलन्देवे) बलदेव की मूर्ति में व (तस्योप करणेषु च) व उसके उपकरणों में दिखाई पड़े तो (सप्तमासान्) सात महीनों में (महराष्ट्रान् महायोद्धान) महाराष्ट्र के महायोद्धाओं को (प्रपीडयेत्) पीड़ा होती हैं। भावार्थ-यदि बलदेव की मूर्ति में व उसके उपकरणों में कोई उत्पात दिखाई पड़े तो समझो सात महीनों में महाराष्ट्र के महायोद्धाओं में पीड़ा होगी।। ६८।। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ३६८ वासुदेवे यधुत्पातस्तस्योपकरणेषु च। चक्रारूढ़ाः प्रजा ज्ञेयाश्चतुर्मासान् वधो नृपे॥१९॥ (वासुदेवेयद्युत्पात:) वासुदेव की प्रतिमा में यदि उत्पात दिखे (च) और (तस्योपकरणेषु) उसके उपकरणों में उत्पात दिखे तो (चर्मासान्) चार महीने में (प्रजा चक्रारूढाः) प्रजा चक्रारूढ हो जायगी (नृपे वधोज्ञेया:) और राजा का वध हो जायगा। भावार्थ-यदि वासुदेव की मूर्ति में अथवा उसके उपकरणों में उत्पात दिखाई दे तो समझो चार महीने में प्रजा चक्र के समान भ्रमण करने लगेगी और राजा का भी मरण हो जायगा॥६९॥ प्रचुरे सार उत्पातो गणिकानां भयावहः। कुशीलानां च दृष्टव्यं भयं चेद्वाऽष्टमासिकम्॥७॥ (प्रद्युम्नेवाऽथ उत्पातो) वा प्रद्युम्न की मूर्ति में उत्पाद दिखाई पड़े तो समझो (गणिकानां भयावहः) वेश्याओं के लिये भयावह होगा, (चेद्वाऽष्ट मासिकम्) और आठ महीने तक (कुशीलानां च भयंदृष्टव्यं) कुशील लोगों के लिये भय का कारण होगा। भावार्थ-प्रद्युम्न की मूर्ति में उत्पात दिखे तो वेश्याओं के लिये भय होगा, और आठ महीने तक कुशील लोगों को भय का कारण बना रहेगा।। ७०॥ यदार्यप्रतिमायां तु किञ्चिदुत्पातजं भवेत्। चौरा मासात्रिपक्षाद्वा विलीयन्ते रुदन्ति वा॥७१।। (यदि) यदि (आर्यप्रतिमायां) सूर्य की प्रतिमा में (किञ्चिदुत्पातजं भवेत्) थोड़ा बहुत भी उत्पात दिखे (तु) तो (मासा) एक महीने में व (त्रिपक्षाद्वा) तीन पक्ष में (चौरा) चोर (विलीयन्ति वारुदन्ति) विलीन हो जाते हैं व रोते हैं। भावार्थ-यदि सूर्य की प्रतिमा में थोड़ा-बहुत भी उत्पात दिखे तो एक महीने व डेढ़ महीनेमें चोर जन नष्ट हो जाते हैं व दुःख उठाते हैं॥७१॥ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६९ चतुर्दशोऽध्यायः यधुत्पात: श्रियाः कश्चित् त्रिमासात् कुरुतेफलम्। वणिजा पुष्प बीजानां वनिता लेख्य जीविनाम्॥७२॥ (यद्युत्पात: श्रियाः कश्चित्) यदि लक्ष्मी की मूर्ति में कोई उत्पात दिखे तो (त्रिमासात् कुरुतेफलम्) तीन महीने में फल मिलता है (वणिजां) वेश्यो को (पुष्प) फूलों को (बीजानां) बीजों को (वनिता लेख्यजीविनाम) लेखन कार्य करने वालों की स्त्रियों को कष्ट होता हैं। भावार्थ-यदि लक्ष्मी की मूर्ति में उत्पात दिखे तो तीन महीनों में वैश्यों को पुष्पों को बीजों को लेखन कार्य करने वालों की स्त्रियों को फल प्राप्त होता है इनको कष्ट होता है।। ७२॥ वीरस्थाने श्मशाने च यद्युत्पातः समीर्यते। चतुर्मासान् क्षुधामारी पीड्यन्ते च यतस्ततः॥७३॥ (वीरस्थाने) युद्ध भूमिमें व (श्मशाने) श्मशान भूमिमें (यधुत्पात: समीर्यते) यदि उत्पात दिखे तो (चतुर्मासान्) चार महीने में (च) और (यतस्ततः क्षुधामारी पीड्यन्ते) भूख की बाधा और मारी रोग होता है। भावार्थ युद्ध भूमि में व श्मशान भूमि में यदि उत्पात दिखे तो चार महीने में क्षुधा की बाधा व मारी रोग हो जाता हैं।७३ ।। यधुत्पात: प्रदृश्यते विश्वकर्मणि माश्रितः । पीड्यन्तेशिल्पिन: सर्वेपञ्चमासात्परं भयम् ।। ७४ ।। (यदि) यदि (विश्वकर्मणि) विश्वकर्मा की मूर्ति में (माश्रित; उत्पात: प्रदृश्यते) उत्पात दिखे तो (सर्वे शिल्पिनः) सभी शिल्पी (पीड्यन्ते) पीडा को प्राप्त होते हैं (पञ्चमासात्परं भयम्) और पाँच महीनों में भय उत्पन्न होता है। ___ भावार्थ-यदि विश्वकर्मा की मूर्ति में उत्पात दिखे तो सम्पूर्ण शिल्पियों को पाँच महीने में पीड़ा मिलती हैं।। ७४ ।। भद्रकाली विकुर्वन्ती स्त्रियो हन्तीह सुव्रताः। आत्मानं वृत्तिनो ये च षण्मासात् पीडयेत् प्रजाम्॥७५॥ (यदि) यदि (भद्रकाली विकुर्वन्ती) भद्र काली की मूर्ति में उत्पात दिखे Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता ३७० तो (सुव्रता: स्त्रियो हन्तीय) अच्छे व्रत वाली स्त्रियाँ मारी जाती है (आत्मानं वृत्तिनो ये च) और जो व्रत सहित आत्मा है उनको भी पीड़ा होती है (प्रजाम् षण्मासात् पीडयेत) व प्रजा को भी छह महीने में पीड़ा पहुँचती है। भावार्थ-यदि भद्र काली की मूर्ति में उत्पात दिखाई दे तो समझो सुशील स्त्रियों को व व्रतवती आत्माओं को पीड़ा होगी और छह महीनेमें प्रजा दुःखी होगी॥७५॥ इन्द्राण्याः समुत्पात: कुमार्यः परिपीडयेत्। त्रिपक्षादक्षिरोगेण कुक्षिकर्ण शिरोज्वरैः ।।७६॥ यदि (इन्द्राण्या: समुत्पात:) इन्द्राणि की मूर्ति में उत्पात दिखे तो (कुमार्यः) कुमारियों को (त्रिपक्षाद) तीन पक्ष में (अक्षिरोगेण कुक्षिकर्ण शिरोज्वरैः) आँख का रोग होगा, पेट का रोग होगा, कान का रोग होगा, सिर का रोग हो (ज्वर में परिपीडयेत्) पीड़ा होगी। भावार्थ-इन्द्राणी की मूर्ति में उत्पात दिखे तो कुमारियों को पीडा होगी और वह आँख का रोग, पेट का रोग, कान का रोग, सिर का रोग और ज्वर से पीडित होगी॥७६॥ धन्वन्तरे समुत्पातो वैद्यानां स भयङ्करः। षण्मासिकविकारांश्च रोगजान् जनयेन्नृणाम्।।७७॥ यदि (धन्वन्तरे समुत्पातो) धन्वंतरी की प्रतिमा में उत्पात दिखे तो (वैद्यानां स भयङ्कर:) वह वैद्यों के लिये भयंकर होता है (नृणाम्) मनुष्यों को (षण्मासिक) छह महीने में (विकारांश्च रोगजान् जनयेन्) रोग के विकार उत्पन्न होंगे। भावार्थ-धन्वंतरी की प्रतिमा में उत्पात से वैद्यो को पीड़ा होगी और मनुष्यों को छह महीनेमें रोग के विकार उत्पन्न होंगे। ७७॥ जामदग्न्ये यदा रामे विकारः कश्चिदीर्यते। तापसांश्च तपाढयांश्च त्रिपक्षेण जिघांसति ॥७८॥ (यदा) जब (जामदग्न्ये यदा रामे) जमदग्नि परशुराम की मूर्ति में व रामचन्द्र Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | T | ! I चतुर्दशोऽध्यायः की मूर्ति में (विकारः कश्चिदीर्यते) कोई भी विकार दिखे तो (त्रिपक्षेण ) तीन में पक्ष में (तापसंश्च तपाढ्यांश्च) तापसियों का व तपोयुक्त साधुओं को (जिघांसति) विनाश करती है। ३७१ भावार्थ-- जब परशुराम या राम की मूर्ति में विकार दिखे तो तपस्वीयों का अथवा तापसियों का नाश होता है ॥ ७८ ॥ पञ्चविंशतिरात्रेण कबन्धंयदि दृश्यते । महापुरुषविद्रवम् ॥ ७९ ॥ सन्ध्यायां भयमाख्याति ( यदि ) यदि ( सन्ध्यायां) सन्ध्याकाल में ( कबन्धं दृश्यते ) धड़ से रहित शरीर दिखे तो ( पञ्चविंशतिरात्रेण) पच्चीस रात्रियों में ( भयमाख्याति ) भय उत्पन्न होगा, ( महापुरुषविद्रवम्) महापुरुषों का विनाश होगा । भावार्थ — यदि सांय काल में धड़ से रहित शरीर दिखे तो पच्चीस रात्रि में महापुरुषों को भय उत्पन्न होगा || ७९ ॥ सुलासायांयदोत्पातः षण्मासं सर्पिजीविनः । पीडयेद् गरुडे यस्य वासुकास्तिक भक्तिषु ॥ ८० ॥ ( यदि ) यदि (सुलसायां उत्पातः) सुलसा की प्रतिमा में उत्पात दिखे (षण्मासं) छह महीने तक (सर्पि जीविनः) सपेरों को (पीडयेद्) कष्ट होता है (यस्य) और जिसमें भी, (गरुडे वासुकास्तिक भक्तिषु) गरुड़ की मूर्ति में विकार हो तो और वासुकी की भक्ति करने वालों को भी पीडा होती है। भावार्थ — यदि सुलसा की प्रतिमा में उत्पात दिखे तो समझो छह महीनों तक सपेरों को पीड़ा, गरुड़ की मूर्ति में विकार दिखे तो वासुकी भक्तों में पीड़ा होगी ॥ ८० ॥ भूतेषु मासेन यः समुत्पात: सदैव पीडयेत्तूर्ण निर्ग्रन्थ वचनं ( भूतेषुयः समुत्पातः ) भूतों में उत्पात दिखे तो ( मासेन ) एक महीने तक ( परिचारिकाः ) दासियों को (सदैव ) सदा (पीडयेतूर्णं ) पीडा देता है (यथा निर्ग्रन्थ वचनं) ऐसा निर्गन्ध साधुओं का वचन है। परिचारिकाः । यथा ।। ८१ ।। Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता । કર भावार्थ-यदि भूतों की प्रतिमा में उत्पात दिखे तो एक महीने तक दासियों को पीड़ा होता है ऐसा निग्रन्थ साधुओं का वचन है॥८१ ।। अर्हत्सु वरुणे रुद्रे ग्रहे शुक्रे नृपे भवेत् । पञ्चाल गुरुशुक्रेषु पावकेषु पुरोहिते॥ ८२॥ वातेऽग्नौ वासुभद्रे च विश्वकर्म प्रजापतौ। सर्वस्य तद् विजानीयात् वक्ष्ये सामान्यजं फलम्॥८३ ।। (अर्हत्सु वरुणे रुद्रे) अर्हत् की प्रतिमा, वरुण की प्रतिमा, रुद्र की प्रतिमा (ग्रहे शुक्रे नृपे) ग्रहों प्रतिमा, शुक्र की प्रतिमा (नृपे) राजा की प्रतिमा (पञ्चाल गुरुशुक्रेषु) पञ्चालों की प्रतिमां, गुरु प्रतिमा, शुक्र प्रतिमा (पावकेषु पुरोहिते) अग्नि प्रतिमा, पुरोहित प्रतिमा (वातेऽग्नौ वासु भद्रे च) वायु, अग्नि और वासुभद्र की प्रतिमा (विश्वकर्मप्रजापतौ) विश्वकर्मा की प्रतिमा, प्रजापति की प्रतिमा में उत्पात दिखे तो (तद्) इन (सर्वस्य) सबका (फलम्) फल (सामान्यज) सामान्य ही (वक्ष्ये) कहा (विजानीयात्) ऐसा जानना चाहिये। भावार्थ-यदि अर्हतो की प्रतिमां में, वरुण प्रतिमा, रुद्र प्रतिमा, ग्रहों की प्रतिमा, शुक्र की प्रतिमा, द्रोण प्रतिमा, इन्द्र प्रतिमा, अग्नि प्रतिमा, वायु, अग्नि, समुद्र, विश्वकर्मा, प्रजापति आदि की प्रतिमाओं में यदि उत्पात दिखे तो समझो इसका फल सामान्य ही होता है, ऐसा जानना चाहिये।। ८२-८३ ।। चन्द्रस्य वरुणस्यापि रुद्रस्य च वधूषु च। समाहारे यदोत्पातो राजानमहिषी भयम्।। ८४॥ (यदि) यदि (चन्द्रस्य) चन्द्रमा की प्रतिमा (वरुणस्यापि) वरुण की प्रतिमा और भी (रुद्रस्य च वधूषु च) रुद्र की प्रमि व पार्वती की प्रतिमा में (उत्पातो समाहारे) उत्पात दिखे (राजाग्रमहिषी भयम्) राजा की रानी को भय उत्पन्न होगा। भावार्थ-यदि चन्द्रमा की प्रतिमा में रुद्र व पार्वती की प्रतिमा में उत्पात दिखे तो राजा की रानीको उत्पात होगा ।। ८४ ।। Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ चतुर्दशोऽध्याय: । कामजस्य यदा भार्या या चान्याः केवलाः स्त्रियः। कुर्वन्ति किञ्चिद् विकृतं प्रधानस्त्रीषु तद्भयम्॥८५॥ (यदा) जब (कामजस्य भार्या) कामदेव की पत्नी (या चान्या: केवला: स्त्रियः) या अन्य स्त्रियों में (किञ्चिद् विकृतं कुर्वन्ति) कोई भी विकार रूप कार्य करे हैं (प्रधान स्त्रीषु तद्भयम्) प्रधान पुरुष की स्त्रियों को भय होगा। भावार्थ-जब कामदेव की प्रतिमा में व उनकी पत्नीयों में या अन्य किसी भी स्त्रियों में विकार दिखता है तो प्रधान पुरुष की पत्नी को भय उत्पन्न होगा ।। ८५ ।। एवं देशे च जातौ च कुले पाखण्डि भिक्षुषु। तम्जातिप्रतिरूपेण स्वैः स्वैर्देवैः शुभं वदेत् ॥८६॥ (एवं देशे च जातौ च) इस प्रकार अपने देश जाति (कुले) कुल के अनुसार व (पाखण्डि भिक्षुषु) अपने-अपने धर्म के अनुसार (तज्जाति प्रतिरूपेण) अपनी-अपनी जाति की प्ररूपणा के अनुसार। (स्वैः स्वैर्देवै: शुभं वदेत्) अपना-अपना शुभाशुभ ज्ञान लेना चाहिये। भावार्थ----इस प्रकार अपने-अपने देश जाति कुल की प्रतिमा में दिखने वाला उत्पात अपने-अपने शुभाशुभ को जान लेना चाहिए।। ८६ । उद्गच्छमानः सविसापूर्वतो विकृतो यदा। स्थावरस्य विनाशाय पृष्ठतो यायिनाशनः ।। ८७॥ (उद्गच्छमान:) उदय होता हुआ (सवितापूर्वतो) सूर्य पूर्व में (यदा) जब (विकृतो) विकृत दिखे तो (स्थावरस्यविनाशाय) नगरस्थ राजा के विनाश का कारण होगा, (पृष्ठतोयायि नाशन:) पीछे के सूर्य में उत्पात दिखे तो समझो आने वाले आक्रमणकारी राजा का नाश होगा। भावार्थ- उदय होता हुआ सूर्य पूर्व में विकृत दिखे तो नगरस्थ राजा का विनाश होगा, और पृष्ठतो पीछे से सूर्य विकृत दिखे तो आने वाले आक्रमणकारी राजा का नाश करता है।। ८७।। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमवर्ण: शुक्ले च भद्रबाहु संहिता सुतोयाय मधुवर्णो भयङ्करः । सूर्यवर्णेऽस्मिन् सुभिक्षं क्षेममेव च ॥ ८८ ॥ यदि सूर्य उगता हुआ (हेमवर्ण:) सुवर्ण के वर्ण का हो तो (सुतोयाय) वर्षा होती है (मधुवर्णा भयङ्करः ) मधु के वर्ण का हो तो भयङ्कर होता है ( शुक्ले च सूर्य वर्णेऽस्मिन्न) शुक्ल वर्ण का सूर्य हो तो (सुभिक्षं क्षेममेव च ) निश्चित ही सुभिक्ष क्षेम होगा ही । भावार्थ — उगता हुआ सूर्य सुवर्ण वर्ण का हो तो अच्छी वर्षा होगी, मधुके वर्ण का हो तो भयंकर होता है, सफेद वर्ण का हो तो नियम से सुभिक्ष और क्षेम कुशल करेगा ॥ ८८ ॥ हेमन्ते शिशिरे रक्तः पीते ग्रीष्म वर्षासु शुक्लो विपरीतो शरदि वसन्तयोः । ३७४ भयङ्करः ।। ८९ ॥ ( हेमन्ते शिशिरे रक्तः ) हेमन्त व शिशिर ऋतु में सूर्य लाल (ग्रीष्मवसन्तयोः पीते ) ग्रीमकाल व वसन्त ऋतु में पीला ( वर्षासु शरदि शुक्लो) वर्षा व शरद ऋतु का सूर्य सफेद हो तो शुभ होता है। (विपरीतो भयङ्करः ) विपरीत हो तो भयंकर होता है। भावार्थ-यदि सूर्य हेमन्त ऋतु व शिशिर ऋतु में लाल, ग्रीष्म व वसन्त ऋतु में पीला, वर्षा व शरद ऋतु में सफेद रंग का हो तो शुभ फल देने वाला होता है, और उपर्युक्त कथन से विपरीत दिखे तो महान् भयंकर करने वाला होता है ॥ ८९ ॥ दक्षिणे चन्द्र शृङ्गे तु यदा तिष्ठति भार्गवः । अभ्युद्गतं तदा राजा बलं हन्यात् सपार्थिवम् ॥ ९० ॥ ( यदा) जब (दक्षिणेचन्द्र शृ) चन्द्रमा के दक्षिण भृंग पर ( भार्गवः तिष्ठति ) शुक्र हो (तु) तो ( तदा) तब (अभ्युद्गतं राजा ) उठते हुए राजा का (बल) बल का (सपार्थिवम् हन्यात्) व सेना का नाश करता है। भावार्थ - यदि उगते हुए चन्द्र के दक्षिण श्रृंग पर शुक्र हो तो सेना सहित राजा का नाश होता है ।। ९० ।। Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CH: : : :: VEER . ... ... ... asiy.... ::: .. - -... :: : : : STREE:. सा BANSAR म चर्तुदशो अध्यायः श्लोक ८७ - ---- -- : म : . .: . .... . ::12... ... ..... . . .... .... . . . ........ . चर्तुदशो अध्यायः श्लोक ८८ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . ..... . . महाराज -- - -- - चर्तुदशो अध्यायः श्लोक ८८ ."..." . . . .. चर्तुदशो अध्यायः श्लोक ८ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनकाम a ANSAR 13.3 चर्तुदर्शो अध्यायः श्लोक ८९ - - . ... . .. :RX ... ... . .. .......... . . SE - - - - . ....... . . - - - चर्तुदी अध्यायः श्लोक ८५ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .SHAMATA चर्तुदशो अध्यायः श्लोक ९० RERNA स whapa *58 . .. . - - - - - - - -- - ---- - - - - Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | चतुर्दशोऽध्यायः चंद्रशृंगे यदा भौमो विकृतस्तिष्ठतेतराम्। भृशं प्रजा विपद्यन्ते कुरवः पार्थिवाश्चलाः॥ ९१ ।। (यदा) जब (चंद्रशृंगे) चन्द्रमा के शृंग पर (भौमो विकृतस्तिष्ठतेतराम्) विकृत । मंगल ठहरता हो तो (प्रजा शं विपद्यन्ते) प्रजा को अत्यन्त कष्ट होता है (पार्थिवाश्चला: कुरवः) राजा व पुरोहित कष्ट में रहते हैं। भावार्थ-जब चन्द्रमा के विपरीत शृंग पर मंगल ठहरे तो प्रजा को बहुत दुःख होता है और राजा का व उसका पुरोहित कष्ट में पड़ता है।। ९१॥ शनैश्चरो यदा सौम्यशृङ्गे पर्युपतिष्ठति। तदा वृष्टि भयं घोरं दुर्भिक्षं प्रकरोति च ॥१२॥ (यदा) जब (सौम्य शृङ्गे) चन्द्रमा के भंग पर (शनैश्चरो) शनि (पर्युपतिष्ठति) रहता है तो (तदा) तब (धोरं वृष्टिभयं) घोर वृष्टि का भय (च) और (दुर्भिक्षं प्रकरोति) दुर्भिक्ष को करेगा। भावार्थ-जब चन्द्रमा के भंग पर शनि हो तो वर्षा का भय उपस्थित होगा, दुर्भिक्ष को करने वाला होगा ।। ९२ ।। भिनत्ति सोमं मध्येन ग्रहेष्वन्यतमोयदा। तदा राजभयं विन्द्यात् प्रजा क्षोभं च दारुणम्॥ ९३ ।। जब (सोम) चन्द्रमा को (मध्येन) मध्यसे (ग्रहेष्चन्यतमो भिनत्ति) कोई ग्रह भेदन करता है तो (तदा) तब (राज भयं विन्द्यात्) राजभय उत्पन्न होगा, (च) और (प्रचा क्षोभं दारुणम्) प्रजा को क्षोभ होगा। भावार्थ-जब चन्द्रमा को मध्यसे कोई भी ग्रह भेदन करे तो समझो राजभय होगा, और प्रजा को क्षोभ का कारण बनेगा।।९३॥ राहुणा गृह्यते चन्द्रो यस्य नक्षत्रजन्मनि । रोगं मृत्युभयं वाऽपि तस्य कुर्यान्न संशयः॥ ९४॥ (यस्य) जिसके (जन्मनि) जन्म (नक्षत्र) नक्षत्रपर (राहुणा चन्द्रो गृह्यते) राहु और चन्द्र को ग्रहण करता है (तस्य) उसको (रोगं मृत्युभयं वाऽपि) रोग होगा मृत्यु भय होगा। उसमें कोई (कुर्यान्न संशय) सन्देह नहीं करना चाहिये। Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ — जिसके जन्म नक्षत्र का राहु चन्द्र का ग्रहण करे उसको रोग होगा, मृत्यु भय होगा इसमें कोई सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ ९४ ॥ क्रूर ग्रहयुतश्चन्द्रो गृह्यते दृश्यतेऽपि वा । यदा क्षुभ्यन्ति सामन्ता राजा राष्ट्रं च पीड्यते ॥ ९५ ॥ ( यदा) जब ( क्रूरग्रहयुतश्चन्द्रो ) चन्द्र को क्रूर ग्रह युक्त होकर (गृह्यते दृश्यतेऽपि वा) ग्रहण करते हुऐ दिखाई दे तो भी ( राजा सामन्ता क्षुभ्यन्ति) राजा और सामन्त शोभित होते है (च) और (राष्ट्र पीड्यते) देश को पीड़ा देता है। भावार्थ --- जब क्रूर ग्रहों के द्वारा राहु चन्द्रमा को ग्रहण करता हुआ दिखाई दे तो समझो राजा व सामान्त पीड़ित होंगे, और देश को पीड़ा होगी ॥ ९५ ॥ लिखेत सोमः शृङ्गेन भौमं शुक्रं गुरुं यथा । शनैश्नां नाभिकृतं षड्भयानि तदादिशेत् ॥ ९६ ॥ ३७६ ( यथा ) जैसे (सोम: शृंङ्गन्) चन्द्रमा के श्रृंग द्वारा (भौमं, शुक्रं, गुरुं) मंगल, शुक्र, गुरु का ( लिखेत्) स्पर्श करता हो ( शनैश्चरं चाधिकृतं ) शनि अधीन हो रहा हो तो (तदा) तब (षड्भयानि दिशेत् ) छह प्रकार के भय होते हैं। भावार्थ — जैसे चन्द्रमा के श्रृंग द्वारा मंगल, शुक्र, गुरु स्पर्शित हो रहे हो और शनि अधीन दिखता हो तो वहाँ पर छह भय उपस्थित होंगे ॥ ९७ ॥ यदा बृहस्पति: शुक्रं भिद्येदथ पुरोहितास्तदाऽमात्याः प्राप्नुवन्ति विशेषतः । महद्भयम् ॥ ९७ ॥ जन (बृहस्पतिः) गुरु (शुक्रं ) शुक्र का (भिद्येदथ विशेषतः) विशेषता भेदन करे तो ( तदाः ) तब ( पुरोहिता: अमात्याः) मन्त्री पुरोहित को (महद्भयम् प्राप्नुवन्ति ) महान् भय उत्पन्न होगा | भावार्थ--- -- जब गुरु शुक्र को विशेष रीति से घाते तो पुरोहित व मन्त्री को महान् भय उत्पन्न करेगा ॥ ९७ ॥ ग्रहाः परस्परं यत्र भिन्दन्ति प्रविशन्ति वा । तत्र शस्त्र वाणिज्यानि विन्द्यादर्थ विपर्ययम् ॥ ९८ ॥ ( यत्र ) जहाँ पर ( ग्रहाः परस्परं ) ग्रह परस्पर ( भिदन्दन्ति प्रविशन्ति वा ) भेदन Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 चतुर्दशोऽध्यायः करे व प्रवेश करे तो (तत्र) वहाँ पर ( शस्त्र वाणिज्यानि) शस्त्रों के व्यापार में (विपर्ययम् विन्धादर्थ) विपरीत होगा याने युद्ध होगा । भावार्थ — जहाँ पर ग्रह परस्पर एक-दूसरे का भेदन करे, अथवा प्रवेश करे तो वहाँ पर शस्त्रों से युद्ध होता है ॥ ९८ ॥ ३७७ स्वतो गृहमन्यं श्वेतं प्रविशेत लिखेत् तदा । ब्राह्मणानां मिथो भेदं मिथः पीडां विनिर्दिशेत् ॥ ९९ ॥ जब ( स्वतो) स्वयं (गृहमन्यं) गृह चन्द्रमा शुक्र (श्वेतं ) सफेद वर्ण के ग्रहों का (प्रविशेत लिखेत्) स्पर्श करे व प्रवेश करे तो (तदा) तब (ब्राह्मणानां मिथोभेदं) ब्राह्मणों में परस्पर भेद पड़ेगा ( मिथ: पीड़ां विनिर्दिशेत् ) व परस्पर में एक-दूसरे को पीड़ा पहुँचायेंगे । भावार्थ — जब स्वयं चन्द्रमा शुक्र सफेद वर्ण के ग्रहों का प्रवेश करे व स्पर्श करे, तो समझो ब्राह्मण भी परस्पर में झगड़ेंगे व एक-दूसरे को पीड़ा देंगे ॥ ९९ ॥ एवं शेषेषु वर्णेषु व वर्णैश्चारयेद् ग्रहः । वर्णत: स्वभयानि स्युस्तद्युतान्युफलक्षयेत् ॥ १०० ॥ ( एवं शेषेषु वर्णेषु) इसी प्रकार शेष वर्णों में (स्व वर्णेश्चारयेद् ग्रहः ) अपने वर्णों के ग्रहों का चार करना चाहिये, (वर्णतः स्वभयानिस्युः) वर्णों के अनुसार ही (तद्युतान्युपलक्षयेत्) भय, पीड़ादि लगा लेना चाहिये । भावार्थ — इसी प्रकार प्रत्येक वर्णों के साथ ग्रहों के वर्णानुसार शुभाशुभ फल लगा लेना चाहिये, जैसे लाल वर्ण के ग्रह लाल वर्णों के ग्रहों का स्पर्श और प्रवेश करे, तो क्षत्रियों को पीड़ा होगी ऐसा ही अन्य ग्रहों के साथ लगा लेना चाहिये ॥ १०० ॥ ग्रहों के रंग ज्योतिषशास्त्रानुसार डॉ. नेमिचन्द, आरा लिखते हैं वर्ण ग्रह सूर्य चन्द्र मंगल लाल श्वेत लाल Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ASHTRA मार्गदर्शक :- आचार्य चतुर्दशो अप्यायः श्लोक ९२ चतुर्दशो अध्यायः श्लोक ११ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुध गुरु शुक्र शनि राहु केतु भद्रबाहु संहिता श्याम पीला श्यामगौर कृष्ण कृष्ण कृष्ण श्वेतो ग्रहो यदा पीतो रक्त कृष्णोऽथवा भवेत् । सवर्णविजयं कुर्यात् यथास्वं वर्णशङ्करम् ॥ १०१ ॥ ३७८ ( यदा) जब (श्वेतोग्रहो ) श्वेत गह ( पीतो) पीला हो, (रक्त) लाल हो (अथवा कृष्णो भवेत् ) काला हो तो ( सवर्ण विजयं कुर्यात्) अपने-अपने वर्णों की विजय कराता है । ( यथास्वं वर्णशङ्करम् ) मिश्रित वर्ण के होने से वर्ण शंकरों को पीड़ा होती है। भावार्थ- रक्त वर्ण होने पर क्षत्रियों को पीड़ा होती है, पीला होने पर वैश्यो को, काला वर्ण होने पर शुद्रों को मिश्रित वर्ण होने पर वर्ण शंकरों की विजय होती है ॥ १०१ ॥ उत्पाता विविधा ये तु ग्रहाऽघाताश्च दारुणाः । सर्वभूतानां दक्षिणा मृगपक्षिणाम् ॥ १०२ ॥ उत्तराः ( ये ) जो (उत्पाताविविधा) नाना प्रकार के उत्पात है उनमें (ग्रहाऽघाताञ्चदारुणाः ) ग्रहों के घात का उपद्रव बहुत दारुण होता है (उत्तरा सर्वभूतानां ) उत्तर का ग्रह घात सब जीवों को कष्ट देता है (दक्षिण मृग पक्षिणाम् ) और दक्षिण का पशु-प -पक्षियों को कष्ट देता है। भावार्थ उत्पात नाना प्रकार के होते है, सब उत्पातों में ग्रहों के धात का उत्पात अत्यन्त कष्ट देने वाला होता है, उत्तर का ग्रह घात सब जीवों को कष्ट देता है तो दक्षिण का ग्रह घात पशु और पक्षियों के लिये कष्टदायी होता है ॥ १०२ ॥ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७९ चतुर्दशोऽध्यायः -- - - करई शोणितं मांसं विद्युतश्च भयं वदेत्। दुर्भिक्षं जनमारि च शीघ्रमाख्यान्त्युपस्थितम्॥१०३॥ (कर) अस्थि (शोणितं) रक्त (मासं) मांस (विद्युतश्च) और बिजली का उत्पात हो तो (भयं वदेत्) भय होगा, ऐसा कहना चाहिये, (उपस्थितम्) जहाँ पर ये उत्पात दिखे समझो वहाँ पर (दुर्भिक्षं) दुर्भिक्ष (च) और (जनमारि) जनो में भारी रोग (शीघ्रमाख्यान्त्य) शीघ्र उपस्थित होगा। भावार्थ-अस्थि या रक्त, मांस और बिजली का उत्पात दिखना भय का कारण है, जहाँ पर भी ये उत्पात होते है वहाँ दुर्भिक्ष, लोगों में भारी रोग का फैलना आदि सब होता है।। १०३ ।। शब्देन महता भूमिर्यदा रसति कम्पते। सेनापतिरमात्यश्च राजा राष्ट्रं च पीडयते॥१०४ ।। (यदा) जब (भूमिः) पृथ्वी (महनाशब्देनरसति कम्पते) महान शब्द करती हुई अकस्मात काँपने लगे तो (सेनापतिरमात्यश्च) सेनापति और मन्त्री को (राजा राष्ट्रं च) राजा और देश को (पीड़यते) पीड़ा देती है। भावार्थ-जब पृथ्वी महान् शब्द करके अकस्मात काँपने लगे तो समझो सेनापति, मन्त्री, राजा और देश को पीड़ा होती है।।१०४ ।। फले फलं यदा किञ्चित् पुष्पे पुष्पं च दृश्यते। गर्भाःपतन्ति नारीणां युवराजा च वध्यते॥१०५॥ (यदा) जब (फले फलं) फर्लो में फल (किंचित्) किंचित (च) और (पुष्पे पुष्पं दृश्यते) पुष्पों में पुष्प दिखाई दे तो समझो (गर्भा:पतन्ति नारीणां) स्त्रीयों के गर्भ गिर जाते है (च) और (युवराजा वध्यते) युवराज का मरण होता है। भावार्थ-जल फलों में फल दिखे पुष्पों में पुष्प दिखलाई पड़े तो स्त्रियों के गर्भ पतन का कारण उपस्थित होगा और राजकुमार का वध होगा ।। १०५॥ नर्तनं जल्पनं हासमुत्कीलननिमीलने। देवाः यत्र प्रकुर्वन्ति तत्र विन्धान् महद्भयम्॥१०६॥ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ३८० (यत्र देवा:) जहाँ पर देव (नर्तन) नाचते हो (जल्पन) बोलते हो (हासमुत्कीलन) हँसते हो, उत्कीलन करते हो (निमीलने) आँख झपकाते हो इस प्रकार की क्रिया (प्रकुर्वन्ति) करते हो तो (तत्र) वहाँ पर (महद्भयम् विन्द्यान्) महान भय उपस्थित होगा। भातर्थ-जहाँ पर देन हैंगते हो, नाचते हो. आँख झपकाते हो, ऐसी क्रिया करते हो तो, वहाँ पर महान् भय होगा ऐसा समझो ॥ १०६॥ पिशाचा यत्र दृश्यन्ते देशेषु नगरेषु वा। अन्यराजो भवेत्तत्र प्रजानां च महद्भयम्।। १०७॥ (यत्र) जहाँ (देशेषु नगरेषु वा) देश में व नगरों में (पिशाचा दृश्यन्ते) पिशाच दिखाई दे तो (तत्र) वहाँ पर (अन्य राजो भवेत) दूसरा राजा होता है। (प्रजानां च महद्भयम्) और प्रजा को महान् भय होता है। भावार्थ-जिस देश में या नगरों में पिशाच दिखाई दे तो वहाँ पर राजा अन्य होगा, और प्रजाओं में महान् कष्ट होगा ।। १०७ ।। भूमिर्यत्र नभो याति विंशति वसुधा जलम्। छश्यन्ते वाऽम्बरे देवास्तदा राजवधो ध्रुवम्॥१०८॥ (यत्र) जहाँ पर (भूमि) पृथ्वी (नभो याति) आकाश में जाती हो (विंशति वसुधा जलम) व धरती में घुसती हुई दिखाई पड़े व (अम्बरे देवा: दृश्यन्ते) आकाश देव दिखाई दे तो (तदा) तब (ध्रुवम्) निश्चय से (राजवधो) राजा का वध होगा। भावार्थ-जहाँ पर भूमि आकाश में जाती हुई दिखे व पाताल में जाती हुई दिखाई दे, और आकाश में देव दिखे तो समझो राजा का वध होगा ।। १०८॥ धूम ज्वालां रजो भस्म यदामुञ्चन्ति देवताः। तदा तु म्रियते राजा मूलतस्तु जनक्षयः ।। १०९॥ (यदा) जब (देवता:) देवता, (धूमज्वाला रजोभस्म) धूआँ, ज्वाला, धूल, राख की (मुञ्चन्ति) वर्षा करे (तु) तो (तदा) तब (राजाम्रियते) राजा का मरण होता है (मूलतस्तु जनक्षयः) और मूलत: जनता का क्षय हो जाता है। Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८५ चतुर्दशोऽध्यायः भावार्थ-जब देवता धूम, ज्वाला, धूल, भस्म बरसावे तो राजा का मरण होगा और जनता का क्षय होगा॥१०९॥ अस्थिमांसः पशूनां च भस्मनां निचयैरपि। जनक्षयाः प्रभूतास्तु विकृते वा नृपवधः ॥११०॥ (पशूनां) पशुओं का (अस्थिमासै: च) अस्थि और मांस (भस्मनां निचयैरपि) भस्म बरसे तो निश्चय (प्रभूतास्तु जनक्षयाः) महान जनक्षय होगा (विकृते वा नृप वध:) व विकृत हो तो राजा का वध होगा। भावार्थ-यदि पशुओं के मांस व हड्डीयाँ व भस्म आकाश से बरसे तो निश्चय महान् जनक्षय होगा, अगर विकृत दिखे तो राजा का वध होगा ।। ११० ।। विकृताकृति संस्थाना जायन्ते यत्र मानवाः। तत्र राजवधो ज्ञेयो विकृतेन सुखेन वा॥१११ ॥ (यत्र) जहाँ पर (मानवाः) मानव (विकृताकृति संस्थाना) विकृत आकृति संस्थान वाले (जायन्ते) होते है (तत्र राजवधो ज्ञेयो) वहाँ पर राजा का वध जानना चाहिये। (विकृतेन सुखेन वा) विकृत दिखे तो सुख का क्षय होता है। भावार्थ-जहाँ पर मनुष्य विकृत आकृति संस्थान वाले होते हुए दिखाई पड़े तो राजा का मरण होगा, विकृत दिखाई दे तो सुख का क्षय होगा ॥ १११ ।। वधः सेनापतेश्चापि भयं दुर्भिक्षमेव च। अग्नेर्वा हाथवा वृष्टिस्तदा स्यान्नात्र संशयः॥११२॥ (अग्नेर्वा ह्यथवा वृष्टिः) यदि अग्नि की वर्षा आकाश से हो (तदा) तब (सेनापते: वध:) सेनापति का वध होगा, (चापि) और भी (भयं) भय होगा, (च) और (दुर्भिक्ष मेव) दुर्भिक्ष ही होगा, (स्यान्नात्र संशयः) इसमें कोई सन्देह नहीं हैं। भावार्थ--अगर आकाश से अग्नि वर्षा हुई दिखे तो समझो सेनापति का वध होगा, भय उत्पन्न होगा, दुर्भिक्ष होगा इसमें कोई सन्देह नहीं है।। ११२॥ द्वारं शस्त्रगृहं वेश्म राज्ञो देवगृहं तथा। धूमायन्ते यदा राज्ञस्तदा मरणमादिशेत्।। ११३।। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ३८२ (यदा) जब (राज्ञो) राजा का (वेश्म द्वार) महल द्वार (शस्त्रगृह) शस्त्र गृह (तथा) तथा (देवगृह) देवता गृह (धूमायन्ते) धुएं से सहित दिखे तो (तदा) तब (राज्ञ: भरणमादिशेत्) राजा का मरण होगा ऐसा निर्देश किया गया है। भावार्थ-जब राजा का महल द्वार, शस्त्र गृह, देवता गृह धुएं से सहित दिखे तो राजा का मरण होगा ऐसा कहा है॥११३ ।। परियाऽर्गला कपाटं द्वारं रुन्धन्ति वा स्वयम्। पुररोधस्तदा विन्द्यान्नैगमानां महद्भयम्॥११४॥ (वा) और (परिघा) बेडा (अर्गला) अर्गल (द्वारं कपाट) कपाट के द्वार (स्धन्ति स्वयम्) स्वयम् ही बन्द हो जाय तो समझो (तदा) तब (पुररोध:) नगर का निरोध होगा (नैगमानां महद्भयमूविद्यात्) और नगर को महान भय होगा। भावार्थ-यदि बेडा, अर्गल, कपाट, द्वार अपने आप बन्द होते दिखाई पड़े तो समझो नगर का निरोध होगा और पुरोहितों को या वैद्य के व्याख्याता को महान् भय होगा॥११४॥ यदा द्वारेण नगरं शिवा प्रविशते दिवा। वास्यमाना विकृता वा तदा राजवधो ध्रुवम्॥११५॥ (यदा) जब (नगर द्वारेण) नगर के द्वार से (दिवा) दिन में (वास्यमाना वा विकृता शिवा) विकृत या सिक्त हो सियार (प्रविशते) प्रवेश करे (तदा) तब (राजवधो ध्रुवम्) राजा का वध निश्चय से होगा। भावार्थ-जब नगर के द्वार से लोमड़ी (सियार) दिन में विकृत रूप को पाकर सिक्त रूप होकर निकले तो समझो राजा का वध निश्चय से होगा ।। ११५ ।। अन्तःपुरेषु द्वारेषु विष्णुमित्रे तथा पुरे। अट्टालकेऽथ हद्देषु मधु लीनं विनाशयेत्।। ११६॥ (यदि) यदि (अन्तःपुरेषु) अन्तपुर के (द्वारेषु) द्वार में (तथा) तथा (विष्णुमित्रे पुरे) नगर में वा तीर्थ में (अट्टालकेऽथ) अट्टलिकामें (हट्टेषु) बाजार में सियार प्रवेश करे तो (मधु लीनं विनाशयेत्) सुख का विनाश होता हैं। Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८३ चतुर्दशोऽध्याय: भावार्थ-यदि सियारिन अन्त:पुर से, द्वार से, तीर्थ से, नगर से, अट्टालिका से व बाजार से निकले तो सुख का नाश होता है।।११६ ॥ धूमकेतुहतं मार्ग शुक्रश्चरति वै यदा। तदा तु सप्तवर्षाणि महान्तमनयं वदेत्॥११७॥ (यदा) जब (शुक्रः) शुक्र (धूमकेतुहत) धूमकेतु के द्वारा आक्रान्त (मार्ग) मार्ग में (चरति पै) गमन करे तो (तदा) तब (तु) तो (सप्तवर्षाणि) सात वर्ष तक लगातार (महान्तमनयं वदेत्) महान अन्याय होगा। भावार्थ:-जब शुक्र धूमकेतु के द्वारा आक्रान्त मार्ग में गमन करे तो सात वर्ष तक महान् भय होगा ॥११७॥ गुरुणा प्रहतं मार्ग यदा भौमः प्रपद्यते। भयं सार्वजनिकं करोति बहुधा नृणाम् ।। ११८॥ (यदा) जब (गुरुणाप्रहतं मार्ग) गुरु के द्वारा प्रताडित मार्ग में (भौम:) मंगल (प्रपद्यते) गमन करे तो (सार्वजनिक भयं करोति) सार्वजनिक भय होता है (बहुधा नृणाम्) बहुधा मनुष्यों को होता है। भावार्थ-जब गुरु के द्वारा प्रताड़ित मार्ग से मंगल गमन करे तो सार्वजनिक भय उत्पन्न होता है और ज्यादा से मनुष्यों को भय उत्पन्न होता है॥ ११८॥ भौमेनापि हतं मार्ग यदा सौरिः प्रपद्यते। तदाऽपि शूद्र चौराणमनयं कुरुते नृणाम्॥ ११९॥ (यदा) जब (भौमेनापि हमार्ग) मंगल के द्वारा प्रताडित मार्ग से (सौरिः) शनि (प्रपद्यते) गमन करे तो (तदाऽपि) तो भी (शूद्र चौराणमन्यं कुरुते नृणाम्) शूद्रों व चोरों का अकल्याण होता हैं। भावार्थ-जब मंगल के द्वारा प्रताडित मार्ग से शनि गमन करे तो शूद्र और चोरों के ऊपर आपत्ति आती है॥११९।। सौरेण तु हतं मार्ग वाचस्पतिः प्रपद्यते। भयं सर्वजनानां तु करोति बहुधा तदा ॥१२०॥ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ३८४ उसी प्रकार (सौरेण तु हतं मार्ग) शनि के द्वारा प्रताडित मार्ग में (वाचस्पतिः) गुरु (प्रपद्यते) गमन करे तो (तदा) तदा (बहुधा) बहुतेक (सर्वजनानां तु भयं करोति) सब जनो को भय उत्पन्न होता है। भावार्थ-जब शनि के द्वारा प्रताडित मार्ग में गुरु गमन करे तो समझो सब जीवों को भय उत्पन्न होगा ।। १२०॥ राजदीपोनिपतते भ्रश्यतेऽधः कदाचन । षण्मासात् पञ्चमासाद्वा नृपमन्यं निवेदयेत्।। १२१ ॥ (यदि) यदि (राजदीपो) राजा का दीपक (भ्रश्यतेऽध:) भ्रष्ट होकर नीचे (निपतते) गिर पड़े तो (षण्मासात् पाञ्चमासाद्वा) तो छह महीने में व पांच महीने में (अन्यं नृपम् निवेदयेत्) अन्य राजा होगा। भावार्थ-यदि राजा का दीपक अकस्मात नीचे गिर पड़े तो समझो उस राजा के स्थान पर छह महीने में व पाँच महीने में अन्य राजा आ जाता है।। १२१॥ हसन्ति यत्र निर्जीवाः धावन्ति प्रवदन्ति च। जातमात्रस्य तु शिशोः सुमहद्भयमादिशेत्॥१२२॥ (यत्र) जहाँ (निर्जीवा:) निर्जीव पदार्थ (हसन्ति) हँसते हो, (धावन्ति) दौड़ते हो (च) और (प्रवदन्ति) बातें करते हो (जातमात्रस्य शिशोः) अथवा उत्पन्न होते हो बच्चे उपर्युक्त करे (तु) तो (सुमहद्भयमादिशेत्) महान भय उत्पन्न होगा ऐसा कहे। भावार्थ-जहाँ निर्जीव पदार्थ व यथा जात शिशु, हँसता हो, दौड़ता हो, बोलता हो तो महान् भय उत्पन्न होगा ।। १२२॥ निवर्तते यदा छाया परितो वा जलाशयान्। प्रश्यते च दैत्यानां सुमहद्भयमादिशेत्॥१२३॥ (यदा) जब (जलाशयात्) जलाशय के (परितो) चारों तरफ से (छायानिवर्तते) छाया लौटती हुई (प्रदृश्यते) दिखाई पड़े तो (दैत्यानां सुमहद्भयमादिशेत्) दैत्यों का महान् भय उत्पन्न होता। Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८५ चतुर्दशोऽध्यायः । भावार्थ-जब जलाशय को चारों ओर से छाया लौटती हुई दिखे तो समझो दैत्यों का उपसर्ग होगा। १२३ ।। अद्वारे द्वारकरणं कृतस्य च विनाशनम्। हतस्य ग्रहणं वाऽपि तदा झुत्पात लक्षणम् ।। १२४॥ (अद्वारे द्वारकरणं) जहाँ द्वार नहीं है वहाँ द्वार करना (कृतस्य च विनाशनम्) किये हुऐ का विनाश करना (हत्यस्य ग्रहणं वाऽपि) नष्ट वस्तु को ग्रहण करना, (तदाहृत्पातलक्षणम्) यह सब उत्पात के लक्षण हैं। भावार्थ- जहाँ द्वार नहीं है वहाँ द्वार किये हुऐ का विनाश करना, नष्ट वस्तु को ग्रहण करना यह सब उत्पात का लक्षण है।। १२४ ॥ यजनोच्छेदनं यस्य ज्वलिताङ्गमथाऽपि वा। स्पन्दते वा स्थिरं किञ्चित् कुलहानि तदाऽऽदिशेत् ।। १२५॥ (यस्य) जिसके (यजनोच्छेदन) यज्ञ के पदार्थों का छेद हो जाय, (ज्वलिताङ्गमथाऽपि वा) अथवा जलते हुऐ अंग दिखे तो (किञ्चित् स्थिरं वा स्पन्दते) व किञ्चित स्थिर पदार्थ चंचल दिखे तो (कुलहानि तदाऽऽदिशेत्) कुल हानि होगी ऐसा कहे। भावार्थ-जिसके पूजा पाठ की वस्तुओं का छेद हो जाय और वह पदार्थ जलते हुऐ दिखे तो व स्थिर पदार्थ चंचल दिखे तो समझो उसके कुल की हानि होगी।। १२५॥ दैवज्ञा भिक्षवः प्राज्ञाः साधवश्च पृथग्विधाः। परित्यजन्ति तं देशं ध्रुवमन्यन्न शोभनम्॥१२६ ।। (देवज्ञा) निमित्त ज्ञानीयों को (भिक्षवः) भिक्षुओं को (प्राज्ञा:) विद्वानों को (साधवश्च) और साधुओं को (पृथग्विधाः) पृथग्विध होकर (तं देशं) उस उत्पाती देश को (परित्यजन्ति) छोड़कर (ध्रुवमन्यत्र शोभनम्) निश्चय से दूसरे देश में चला जाना चाहिये। भावार्थ-ज्योतिषियों को भिक्षुओं को, विद्वानोंको, साधुओंको उत्पात क्षेत्र देखकर उस क्षेत्र को छोड़कर निरूपद्रवस्थानों में चला जाना चाहिये || १२६ ।। 11 Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु सहिता ३८६ युद्धानि कलहा बाधा विरोधाऽरिविवृद्धयः। अभीक्ष्णं यत्र वर्तन्ते तं देशं परिवर्जयेत्॥१२७॥ (युद्धानि कलहा बाधा) युद्ध, कलह, बाधा, (विरोधाऽरिविवृद्धय:) शत्रु के विरोध की वृद्धि (यत्र) जहाँ पर (अभीक्ष्णं वर्तन्ते) अभीक्ष्ण दिखाई देते हो तो (तं) उस देशं) देश को (परिवर्जयेत्) शीघ्र छोड़ देना चाहिये। भावार्थ-जिस देश में निरन्तर युद्ध हो, झगड़े होते हो, अन्य बाधा हो, शत्रुओं के विरोध की वृद्धि दिखे तो उस देश को शीघ्र छोड़ देना चाहिये ।। १२७ ।। विपरीता यदा छाया दृश्यन्ते वृक्ष-वेश्मनि। यदा ग्रामे पुरे वाऽपि प्रधानवधमादिशेत्॥१२८॥ (यदा) जब (ग्रामे पुरे) ग्राम और नगर में (वृक्ष-वेश्मनि) घरों की व वृक्षों की (छाया विपरीता दृश्यन्ते) छाया विपरीत दिखाई पड़े (वाऽपि) तो भी (प्रधानवधमादिशेत) प्रधान का वध होता है। भावार्थ-जब ग्राम, नगर के वृक्षों व घरों की छाया विपरीत दिखलाई पड़े तो नगर प्रधान का वध होता है।। १२८॥ महावृक्षो यदा शाखामुत्करां मुञ्चते द्रुतम्। भोजकस्य वधं विन्यात् सर्पाणां वधमादिशेत्॥१२९॥ (यदा) जब (महावृक्षो) महावृक्ष (उत्करां) अकारण ही (द्रुतम्) शीघ्र ही (शाखां मुञ्चते) शाखा को नीचे गिराता है तो (भोजकस्य वध) सपेरों का वध होता है (सर्पाणां वधमादिशेत्) और सों का भी वध होता है। भावार्थ-यदि महावृक्षों से अपने आप ही शाखा टूट कर नीचे अकस्मात गिराता है, तो समझो सपेरों का और सर्पो का वध होता है॥१२९॥ पांशुवृष्टितथोल्का च निर्घाताश्च सुदारुणाः। यदा पतन्ति युगपद् ध्वन्ति राष्ट्र सनायकम्॥१३०॥ (यदा) जब (सुदारुणा:) महा भयंकर (पांशुवृष्टिः) धुलि की वृष्टि (तथोल्का च) और उल्का का पतन (निर्घाताश्च) बिजली के कड़कड़ाहट (पतन्ति) गिरती Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽध्यायः है तो (युगपद्) युगपद् (राष्ट्रं स नायकम्) देश व देश के नायकों का (घ्नन्ति) नाश करती है। भावार्थ-जब महान भयंकर धुल की वृष्टि हो उल्का पतन हो बिजली की गड़गड़ाहट हो तो देश व देश के नायक का नाश हो जाता है।। १३०॥ रसाच विरसा यत्र नायकस्य च दूषणम्। तुलामानस्य हसनं राष्ट्रनाशाय तद्भवेत्॥१३१॥ (रसाश्च विरसा यत्र) जहाँ पर रस विरस हो जाय तो (नायकस्य च दूषणम्) नायक को दोष लगता है (तुलामान्य हर तराजू के हरने पर रमाशाय जलत) राष्ट्र का नाश होता है। भावार्थ-जहाँ पर अकस्मात् रस निरस हो जाय तो वहाँ के नायक को दूषण लगता है, और तराजू अपने आप ही हंसने लगे तो देश का नाश होता है॥१३१॥ शुक्लप्रतिपदि चन्द्रे समं भवति मण्डलम्। भयङ्करं तदा तस्य नृपस्याथ न संशयः ॥ १३२ ॥ (शुक्ल प्रतिपदि चन्द्रे) शुक्ल पक्ष की द्वितीया या प्रतिपदा को (समं भवति मण्डलम्) दोनों शृंग बराबर रहता है तो (तदा) तब (तस्य) उस (नृपस्य) राजा को महा (भयङ्कर) भयंकर होता है (अथ न संशय:) इसमें सन्देह नहीं हैं। भावार्थ-शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को चन्द्रमा के दोनों शृंग बराबर रहे तो राजा को भय उत्पन्न करता है।। १३२ ।। समाभ्यां यदि शृङ्गाभ्यां यदा दृश्येत चन्द्रमाः। धान्यं भवेत् तदा न्यूनं मन्द वृष्टिं विनिर्दिशेत्॥१३३।। (यदा) जब उसी दिन (चन्द्रमा:) चन्द्रमा के (शृङ्गांभ्यां) शृग दोनों (समाभ्यां) सम (दृश्येत्) दिखे तो (तदा) तब (धान्यं न्यूनं भवेत्) धान्य कम होगा और (मन्दवृष्टिं विनिर्दिशेत्) थोड़ी वर्षा होगी। भावार्थयदि शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा का चन्द्रमा के शृंग समान हो तो धान्य थोड़ा होगा, वर्षा भी कम होगी।। १३३ ।। Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भद्रबाहु संहिता भद्रबाह संहिता ३८८ वामशृङ्गं यदा वा स्यादुन्नतं दृश्यते भृशम्। तदा सृजति लोकस्य दारुणत्वं न संशयः॥१३४ ॥ (यदा) जब (वाम श) वाम भृक्ष चन्द्रमा का (उन्नतं दृश्यते भृशम्) उन्नत दिखाई पड़े (तदा) तब (दारुणत्वं सृजति लोकस्य) महान् भय का लोक में सृजन होगा (न संशय) इसमें कोई सन्देह नहीं हैं। भावार्थ-जब शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा का वाम शृंग ऊपर हो तो समझो लोक में महान भय होगा इसमें कोई सन्देह नहीं हैं॥१३४ ।। ऊर्ध्वस्थितं नृणां पापं तिर्यक्रस्थं राजमन्त्रिणाम्। अधोगतं च वसुधां सर्वां हन्यादसंशयम्॥१३५।। (ऊर्ध्वस्थितं नृणां पापं) ऊर्ध्व में स्थित चन्द्रमा मनुष्यों के पाप को नाश करता है (राजमन्त्रिणामतिर्यकस्थं) तिर्यक्रराजमन्त्रियों के पाप नाश करता है, (अधोगतं च) अधोगत चन्द्रमा (सर्वां) सम्पूर्ण (वसुधां) पृथ्वी के पाप को (हन्याद्) नाश करता है (असंशयम्) इसमें कोई संशय नहीं हैं। भावार्थ-जब चन्द्रमा ऊर्ध्वगामी हो तो मनुष्यों के पाप नाश करता है तिरछा हो तो राजमन्त्री के पाप नाश करता है, अधोगत हो ता सम्पूर्ण वसुधा के पाप नाश करता है, इसमें कोई संशय नहीं हैं।। १३५ ।। शस्त्रं रक्ते भयं पीते धूमे दुर्भिक्षविद्रवे। चन्द्रे तदोदिते ज्ञेयं भद्रबाहुवचो यथा॥१३६ ।। (चन्द्रे) चन्द्रमा यदि (तदोदिते) उदय होने के समय में (रक्ते) लाल हो तो (शस्त्र) शस्त्र भय होता है (पीते भयं) पीला हो तो भय होगा, (धूमे दुर्भिक्षविद्रवे) धूमवर्ण का हो तो दुर्भिक्षका उपद्रव होता है (ज्ञेयं) ऐसा जानना चाहिये। (भद्रबाहुवचो यथा) ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है। भावार्थ-यदि चन्द्रमा उदय होते समय लाल हो तो शस्त्र भय होगा, पीला हो तो भय होगा, धूम्रवर्ण का हो तो दुर्भिक्ष होगा ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है।।१३६॥ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८१ चतुर्दशोऽध्यायः दक्षिणमालो हष्टः चौरदूत भयङ्करः । अपरे तोय जीवानां वायव्ये हन्ति वै गदम्॥१३७ ।। यदि चन्द्रमा के (दक्षिणात्परतो दृष्ट:) दक्षिण तरफ लाल दिखे तो चोर भय होता है दूत को भय होता है, पूर्व की ओर दिखे तो महाभयंकर होता है (अपरेतोय जीवानां) पूर्व की ओर दिखने पर जल के जन्तुओं को कष्ट होता है (वायव्ये हन्ति वै गदम्) वायव्यमें हो तो रोग का नाश होता है। भावार्थ-यदि चन्द्रमा उदय के समय दक्षिण की तरफ लाल हो तो चोर भय दूत को भय होता है, पूर्व की ओर हो तो जल के जीवों को भय होता है, वायव्य में हो तो रोग का नाश होता है।। १३७॥ __विवदत्सु च लिनेषु यानेषु प्रवदत्सु च। वाहनेषु च हृष्टेषु विन्धाद्भयमुपस्थितम् ॥१३८॥ (विवदत्सु च लिङ्गेषु) शिव लिङ्ग में विवाह हो तो (यानेषु प्रवदत्सु च) सवारियों में वार्तालाप होने पर (वाहनेषु च हृष्टेषु) वाहनों में प्रशन्नता दिखने पर (भय उपस्थितम विन्धाद) भय उपस्थित होगा। भावार्थ-शिवलिङ्गों में विवाह होने लगे, सवरियों में वार्तालाप करे वाहनों में प्रशन्नता दिखे तो महान भय उपस्थित होगा॥१३८॥ उध्वं वृषो यदा नर्देत् तदा स्याच्च भयङ्करः। ककुदं चलते वापि तदाऽपि स भयङ्करः॥१३९ ।। (यदा) जब (वृषो) बैल (उर्ध्वं नर्देत्) ऊँचा मुँह करके शब्द करे तो (तदा) तब (भयङ्करस्याच्च) महान भयंकर होता है (वापि) और (ककुद) खंदा (चलते) चलायमान करे (तदाऽपि) तो भी (स भयङ्करः) वह भयंकर होता है। भावार्थ-जब बैल ऊँचा मुँह करके शब्द करे तो भयंकर होता है, और अपना खंदा चलायमान करे तो भी भयंकर होता है ।। १३९ ।। व्याधयः प्रबला पत्र माल्यगन्धं न वायते। आहूति पूर्ण कुम्भाश्च विनश्यन्ति भयं वदेत्॥१४०॥ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाह संहिता ३१० (यत्र) जहाँ (व्याधय: प्रबला) व्याधियाँ प्रबल हो जाय (माल्यगन्धं न वायते) माला मगन्म देना छोड़ दे (आहूतिपूर्ण कुम्भाश्च विनश्यन्ति) आहूति का मंगल कलश नष्ट हो जाय वहाँ पर (भयंवदेत्) भय उत्पन्न होगा ऐसा कहना चाहिये।। भावार्थ-जहाँ अकस्मात् रोग शक्तिमान हो जाय फूलों की माला सुगन्ध देना छोड़ दे, और आहूति का मंगल कलश नष्ट हो जाय, तो समझो वहाँ पर भय उत्पन्न होगा॥ १४०॥ नववस्त्रं प्रसङ्गेन ज्वलते मधुरा गिरा। अरुन्धती न पश्येत स्वदेहं यदि दर्पणे॥१४१॥ यदि (नववस्त्रप्रसङ्गेन ज्वलते) नया कपड़ा अकारण ही जल जाय, (मधुरा गिरा अरुन्धतीं) मधुर वचन मुँह से निकले (यदि) जब (स्वदेहं दर्पणे न पश्येत्) अपना शरीर दर्पण में न दिखे तो मृत्यु भय होता है। भावार्थ-अकस्मात् नवीन वस्त्र जलजाय, मुँह से अच्छे व मीठे शब्द निकले और अपना शरीर दर्पण में न दिखे तो भी मरण भय उत्पन्न होगा ।। १४१ ।। न पश्यति स्व कार्याणि परकार्यविशारदः। मैथुने यो निरक्तश्च न च सेवति मैथुनम्॥१४२॥ न मित्रचित्तो भूतेषु स्त्री वृद्धं हिंसते शिशुम्। विपरीतश्च सर्वत्र सर्वदा स भयावहः॥१४३॥ (न पश्यति स्वकार्याणि) जो अपने कार्य तो नहीं देखता (परकार्य विशारदः) दूसरे के कार्य करने में विशारद है (मैथुने यो निरक्तश्च न च सेवति मैथुनम्) जो मैथुन करने में उद्यमशील होने पर भी मैथुन नहीं कर पा रहा है (न मित्रचित्तो) मित्र में जिसका चित्त आसक्त नहीं है। (स्त्री, वृद्धं शिशुम्) स्त्री वृद्ध और बालक की हिंसा होती है (सर्वत्र सर्वदा भूतेषुविपरीतश्च) सर्वत्र सर्वदा सम्पूर्ण जीवों में विपरीता दिखे तो (स भयावहः) वह भय उत्पन्न करती है। भावार्थ-जो अपने कार्य में दक्ष न होकर पर कार्य करने में निपूर्ण हो, मैथुन करने में आसक्त होने पर भी मैथुन न कर पा रहा हो, और अपने मित्र के चित्त में आसक्त न हो पाने के कारण उसके ऊपर विश्वास नहीं करता हो, Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽध्यायः वह स्त्री, वृद्ध, बालक की हिंसा करता है। जो प्राणियों में कुछ भी विपरीतता दिखती हो वह सब भय को उत्पन्न करती है ।। १४२-१४३ ।। अभीक्ष्णं चापि सुप्तस्य निरुत्साहाविलम्बिनः । अलक्ष्मीपूर्णचित्तस्य प्राप्नोति स महद्भयम् ॥ १४४ ॥ (अभीक्ष्णं चापि सुप्तस्य ) जो निरन्तर सोता हो और भी (निरुत्साहा) निरुत्साहा ( विलम्बिनः ) आलम्बन से रहित हो ( अलक्ष्मी पूर्णचित्तस्य) धन से रहित हो तो ( स महद्भयम् प्राप्नोति ) वह महान भय को प्राप्त होता है। भावार्थ — जो निरन्तर सोने में युक्त हो, निरुत्साही हो, आलम्बन से रहित हो, धन से रहित हो तो उसे महान् भय उत्पन्न होता है ।। १४४ ॥ ३९१ क्रव्यादाः शकुना यत्र बहुशो विकृतस्वनाः । तत्रेन्द्रियार्थं विगुणाः श्रिया हीनाश्च मानवाः ।। १४५ ।। ( यत्र ) जहाँ (क्रव्यादाः) मांस भक्षी पक्षी (बहुशो विकृतस्वनाः) बहुत विकृत शब्द करते हो (तत्रेन्द्रियार्थ विगुणाः) इन्द्रियों के विषय में गुण रहित हो, ( श्रिया हीनाश्च मानवाः) लक्ष्मी से रहित मानव हो तो भी उपद्रव का कारण होता है। (शकुना) ये खराब शकुन है । भावार्थ – जहाँ मांसभक्षी पक्षी बहुत विकृत शब्द करते हो मानव इन्द्रियों के विषय में निर्गुणी हो, और मनुष्य लक्ष्मी से रहित हो तो समझो वहाँ भी उपद्रव होगा, क्योंकि ये सब अशुभ शकुन है ।। १४५ ॥ निपतति द्रुमश्छिन्नो स्वप्नेष्वभयलक्षणम् । रत्नानि यस्य नश्यन्ति बहुशः प्रज्वलन्ति वा ॥ १४६ ॥ (स्वनेष्व) स्वप्न में (द्रुमश्छिन्नो निपतति ) वृक्ष की शाखा टूटती हुई (अभय लक्षणम्) निर्भय होकर देखे तो (रत्नानि यस्य नश्यन्ति ) उसके रत्न नष्ट हो जाते हैं (बहुश: प्रज्वलन्ति वा ) और उसके आग लग जाने से बहुत कुछ नष्ट हो जाता है। भावार्थ — जो स्वप्न में वृक्ष की शाखा निर्भय होकर टूटती हुई देखे तो Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ३१२ उसके रत्न नष्ट हो जाते हैं, और उसके घर में अग्नि लग जाने पर बहुत कुछ नष्ट हो जाता है।। १४६ ।। क्षीयते वा म्रियते वा पञ्चमासात् परं नृपः। गजस्यारोहणे यस्य यदा दन्तः प्रभिद्यते॥१४७॥ (यदा) जब (यस्य) जिस (गजस्यारोहणे) हाथी के ऊपर सवारी करते समय (दन्त: प्रभिद्यते) हाथी का दांत टूट जाय तो (नृपः) राजा (पञ्चमासात् परं) पाँच महीने में या छह महीने में (क्षीयते वा म्रियते वा) मर जायगा या क्षय को प्राप्त हो जायगा। भावार्थ-जब हाथी पर सवारी करते समय हाथी का दांत टूट जाय तो समझो राजा का क्षय हो जायगा, या मरण हो जायगा॥१४७॥ दक्षिणे राजापीडास्यात्सेनायास्तु वधं वदेत्। मूलभङ्गस्तु यातारं करिकानं नृपं वदेत् ॥१४८॥ यदि हाथी का (दक्षिणे) दक्षिण दाँत टूटे तो (राजपीडास्यात्) राजा को पीड़ा होगी, (सेनायास्तु वधं वदेत्) सेना का भी वध होगा, ऐसा कहते है (करिकान) हाथी का दाँत (मूल भङ्गस्तु) मूल से ही भङ्ग हो जाय तो (यातारं नृपं) गमन करने वाले राजा को भय होगा ऐसा कहते हैं। भावार्थ-यदि हाथी का दक्षिण दाँत टूट जाय तो राजा का वध होगा, दाँत जड़ मूल से ही टूट जाय तो राजा को महान् भय उत्पन्न होगा॥१४८।। मध्यमंसे गजाध्यक्षमग्रजे स पुरोहितम्। विडालनकुलोलूक काक कर सम प्रभः ।। १४९ ।। (यदि) (गजा) हाथी का (मध्यमं से) दाँत मध्यम से टूटे और वह भी (विडाल) बिल्ली (नकुलो) नेवला (लूक) उल्लू (काक) कौआ (कङ्क समप्रभः) बगुलाओं के आकार का टूटे तो (अध्यक्षमग्रजे स पुरोहितम) राजा का अग्र अध्यक्ष व पुरोहित का असत् फल होगा। भावार्थ-हाथी का दाँत मध्य से टूटे और वह भी बिल्ली, नेवला, उल्लू, Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९३ चतुर्दशोऽध्यायः कौआ, बगुलाओं के आकार का टूटे तो राजा का अग्र अध्यक्ष व पुरोहित का असत् फल होता है॥१४९ ।। यदा भङो भवत्येषां तदब्रूयादसत् फलम्। शिरो नाशाग्न कण्ठेन सानुस्वारं निशंसनैः ॥१५०॥ (यदा) जब (भगो) इस प्रकार का भङ्ग (भवत्येषां) हो जाने पर (तदा) तब (असत् फलम् ब्रूयात) असत फल होगा ऐसा बोले, (शिरो) सिर (नाशाग्र) नाक का अग्रभाग (कण्ठेन) कण्ठ से (सानुस्वार) शब्द होने से (निशंसनैः) ग्रहीत भोजन भी ग्राह्य नहीं होता है। भावार्थ-जब इस प्रकार के दाँतों का भङ्ग हो जाय तो समझों राजा को असत् फल होगा, नाक का अग्रभाग, से कण्ठ से, सिर से शब्द निकले तो समझो ग्रहीत भोजन भी खाया नहीं जाता है।। १५० ।। भक्षितं सञ्चितं यच्च न तद् ग्राह्यन्तु वाजिनाम्। नाभ्यङ्गतो महोरस्कः कण्ठे वृत्तो यदेरितः ।।१५१ ।। जब (वाजिनाम्) घोड़ा (नाभ्यङ्गतो महोरस्क:) नाभि से लगाकर छातीतान (कण्ठेवृत्तो यदेरित:) कण्ठपर्यन्त ऊपर उठता हुआ शब्द करे (तद्) तब (भक्षितं सञ्चितं यच्च न ग्राह्यन्तु) संच्चित किया हुआ भी नहीं खाया जायगा! भावार्थ-जब घोड़ा नाभि से लगाकर छाती तानता हुआ कण्ठ से शब्द करे तो ग्रहण किया हुआ भी नहीं खाया जायगा, ऐसा भय उपस्थित होगा ।। १५१।। पार्वे तदाभयं ब्रूयात् प्रजानामशुभंकरम्। अन्योन्यं समुदीक्षन्ते हेष्यस्थानगता हया॥१५२॥ (हया) घोड़ा (हेष्यस्थानगता) हँसने के साथ (अन्योन्यंसमुदीक्षन्ते) एक दूसरे को परस्पर देखे तो (तदा) तब (पार्वे भयं ब्रूयात्) पीछे से भय होगा ऐसा कहे (प्रजानामशुभंकरम्) प्रजा को अशुभ होगा। भावार्थ-जब घोड़े परस्पर देखते हुए हंसते हो तो प्रजा को अशुभकारी और पीछे से भय उपस्थित होगा ।। १५२ ।। Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | शयनासने परीक्षा ग्राममारी वदेत् ततः।। सन्ध्यायां सुप्रदीप्तायां यदा सेनामुखा हयाः॥१५३।। (यदा हया) जब घोड़े (सन्ध्यायां) सांयकाल में (सुप्रीप्तायां सेनामुखा) सुदीप्त होता हुआ सेना के सम्मुख में हँसते है (ततः) वह (शयनासनेपरीक्षा) शयन आसन की परीक्षा के टाइम भी हँसते हो तो (ग्राममारी वदेत्) ग्राम में भारी रोग फैलेगा ऐसा कहते हैं। भावार्थ-जब घोड़े सांयकाल में दीप्तिमान हुऐ सेना के सम्मुख हैंसते हो तो समझो ग्राम में भारी रोग फैलेगा। १५३॥ त्रासयन्तो विभेषन्तो घोरात् पादसमुद्धृताः। दिवसं यदि वा रात्रिं हेषन्ति सहसा हयाः ॥१५४॥ यदि (हयाः) घोड़े (सहसा) सहज ही (दिवसं यदि वा रात्रि) दिन में व रात्रि में (हेषन्ति) हँसने लगे तो भय होगा, और (त्रासन्तो विभेषन्तो) दुःखित होता हुआ छुपकर (घोरात् पादसमुद्धृता) पाँव से मिट्टी उखाड़े तो भी भय होगा। भावार्थ-जब घोड़े अकस्मात् सहज ही में दिन में रात्रि में हँसने लगे तो भय होगा, और दुःखित होकर छुपकर पाँवों से मिट्टी उखाड़े तो भी भय होगा ऐसा समझो॥ १५४।। सन्ध्यायां सुप्रदीप्तायां तदा विन्द्यात् पराजयम्। उन्मुखा रुदन्तो वा दीनं दीनं समन्ततः॥१५५॥ यदि घोड़े (सन्ध्यायां सुप्रदीप्तायां) सूर्यास्त के समय (उन्मुखा) ऊपर को मुँह करके (समन्तत:) चारों तरफ से (दीनं दीनं वा रुदन्तो) दीन होकर रोने लगे (तदा) तब (पराजयविन्द्यात् पराजय होगी ऐसा समझो। भावार्थ-जब घोड़े सांयकाल में ऊपर को मुँह करके चारों तरफ से हीन-दीन होकर रोने लगे तो समझो राजा की पराजय होगी॥१५५ ।। हया यत्र तदोत्पातं निर्दिशेद्राजमृत्यवे। विच्छिद्यमाना हेषन्ते यदा रूक्षस्वरं हयाः॥१५६ ॥ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । चतुर्दशोऽध्यायः ( यदा) जब (हया) घोड़े (विच्छिद्यमानारूक्षस्वरं हेषन्ते) टूटती हुई आवाज में रूक्ष स्वर से हँसते हैं और (हया) घोड़े (यत्र ) जहाँ पर (तदोत्पातं) ऐसे उत्पात दिखे तो (द्राजमृत्यवे निर्द्दिशे ) वहाँ पर राजा की मृत्यु का निर्देश कहना चाहिये । भावार्थ — जब घोड़े टूटी-फूटी आवाज में शब्द करे तो और जहाँ पर ऐसे उत्पात दिखाई दे तो समझो राजा की मृत्यु होगी ॥ १५६ ॥ ३९५ खर वद् भीमनादेन तदा विद्यात् पराजयम् । उत्तिष्ठन्ति निषीदन्ति विश्वसन्ति भ्रमन्ति च ॥ १५७ ॥ जब घोड़े ( खरवद् भीमनादेन ) गधे के समान भीम शब्द करे ( उतिष्ठन्ति ) खड़े हो (निषीदन्ति ) रेंके (विश्वसन्ति) बैठे (च) और ( भ्रमन्ति) दौड़े तो (तदा) तब ( पराजयम् विन्द्यात्) राजा की पराजय समझो । भावार्थ — जब घोड़े गधे के समान खड़े होकर शब्द करें, रेंके, बैठे और इधर-उधर दौड़े तो समझो राजा की पराजय होगी ॥ १५७ ॥ रोगार्त्ता इव हेषन्ते तदा विन्द्यात् पराजयम् । ऊर्ध्व मुखा विलोकन्ते विद्याः ज्जनपदे भयम् ॥ १५८ ॥ यदि घोड़े (उर्ध्वमुखा विलोकन्ते ) ऊपर को देखे तो (जनपदे भयम् विद्यान्) जनपद को भय होगा, ( रोगार्त्ता इव हेवन्ते) रोगी के समान हँसते हैं तो ( तदा ) तब ( विन्द्यात् पराजयम् ) पराजय समझो । भावार्थ — यदि घोड़े ऊपर मुँह करके देखे तो समझो जनपदों को भय होगा और रोगी के समान हँसे तो समझो पराजय होगी ।। १५८ ।। शान्ता प्रहृष्टा धर्मार्त्ता विचरन्ति यदा हयाः । बालानां वीक्ष्यमाणास्ते न ते ग्राह्या विपश्चितैः ॥ १५९ ॥ (यदा हयाः) जब घोड़े ( शान्ता प्रहृष्टा धर्मार्त्ता) शान्त, प्रशन्नचित्त और कमिक ( विचरन्ति ) विचरण करे (ते) और वे (बालानां वीक्ष्यमाणास्ते) स्त्रियों के द्वारा देखे जाते हो तो ( न ग्राह्यविपश्चितैः ) विद्वानों को कोई शुभाशुभ ग्रहण नहीं करना चाहिये । Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ३९६ भावार्थ-जब घोड़े शान्त, प्रशन्न, काम से पीड़ित होकर स्त्रियों के द्वारा देखे जाते हो तो उसका शुभाशुभ ग्रहण नहीं करना चाहिये ।। १५९॥ मूत्रं पुरीषं बहुशो विलुप्ताङ्गा प्रकुर्वतः। हेषन्ते दीननिद्रार्तास्तदा कुर्वन्ति ते जयम्॥१६०॥ यदि घोड़े (बहुशो विलुप्ताझा) विलुप्ताज होकर (मूत्रं पुरीषं) मूत्र और लीद (प्रकुर्वतः) करे तो (दीननिद्रार्ताः हेषन्ते) दीन होकर सोते हुऐ आर्त स्वर करे तो (ते) (जयम् कुर्वन्ति) जय को कराते हैं। भावार्थ-यदि घोड़े विलुप्त अंग होकर बहुत सारा मूत्र करे, और लीद करे, दीन होकर आर्तश्वर से हँसे तो, विजय की सूचना मिलती है।। १६० ।। स्तम्भयन्तोऽथ लांगूलं हेषन्तो दुर्मनो हयाः। मुहुर्मुहुश्च जुभन्ते तदा शस्त्रभयं वदेत् ॥१६१॥ यदि (हयाः) घोड़े (दुर्मनो) खिन्न होकर (लांगूलं) पूंछ को (स्तम्भयन्तोऽथ) स्तम्भित करता हुआ (हेषन्तो) हँसे और (मुहुर्मुहुश्च भन्ते) धीरे-धीरे जंभाई ले तो (तदा) तब (शस्त्र भयं वदेत्) शस्त्र भय कहे। भावार्थ-जब घोड़े खिन्न होकर अपनी पूंछ को स्तम्भित करता हुआ धीरे-धीरे जुभाई ले तो समझो शस्त्र भय होगा ऐसा कहे॥१६॥ यदा विरुद्धं हेषन्ते स्वल्पं विकृतिकारणम्। तदोपसर्गो व्याधिर्वा सद्यो भवति रात्रिजः ॥१६२ ।। (यदा) जब घोड़े (स्वल्पं विकृति कारणम् हेषन्ते) थोड़ा ही विकृत कारण मिलने पर हँसते हो (तद) तब (रात्रिजः) रात्रिमें होनेवाले (उपसर्गो व्याधिर्वा सद्योभवति) उपसर्ग व्याधि शीघ्र होती है। भावार्थ-जब घोड़े थोड़ा ही विकृत कारण मिलने पर हँसते हो तो रात्रि में होने वाली व्याधियाँ या उपसर्ग शीघ्र होते हैं।। १६२॥ भूम्यां ग्रसित्वा ग्रासं तु हेषन्ते प्राङ्मुखा यदा। अश्वारोधाश्च बद्धाश्च तदा क्लिश्यति क्षुभयम्।। १६३॥ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽध्याय: (यदा) जब घोड़े (भूम्यां ग्रसित्वानासं तु) भूमि से घास को ग्रहण करते हुऐ (प्राङ्मुखाहेषन्ते) पूर्व की ओर मुँह करके हँसे (अश्वारोधाश्च बद्धाश्च) और घोड़ा का रोध ही बद्ध हो तो (तदा) तब (क्लिश्यतिक्षुद्भयम्) शुद्रभवों से क्लेश होगा। भावार्थ-जब घोड़े अबरोधित होकर बद्ध रूप में पृथ्वी से घास तिनका मुँह में लेकर पूर्व की ओर मुँह करके हँसते हो तो प्रजा को शुद्र भय उत्पन्न होगा॥१६३॥ शरीरं केसरं पुच्छ यदा ज्वलति वाजिनः। परचक्रं प्रयातं च देश भङ्गं च निर्दिशेत्॥१६४॥ (यदा) जब (वाजिनः) घोड़े के (शरीरं केशरं ज्वलति) शरीर के बाल जलते हुए दिखाई दे तो (परचक्रं प्रयातं च) पर शासन का आगमन होगा और देश (भा च निर्दिशेत्) देश के नष्ट होने का सूचक है। भावार्थ-जब घोड़े के शरीर और बाल अपने आप ही जलने लगे तो परचक्र का भय होगा और देश का नाश हो जायगा॥ १६४॥ यदा बालाप्रक्षरन्ते पुच्छं चटपटायते। वाजिनः सस्फुलिङ्गा वा तदाविन्द्यामहद्भयम्॥१६५॥ (यदा) जब (वाजिनः) घोड़े (वालाप्रक्षरन्ते) बाल गिरावे (पुच्छं चटपटायते) पूंछ को चटपटावे (वा) वा (वाजिन: सस्फुलिङ्गा) शरीर से स्फुलिङ्ग निकले तो (तदा) तब (महद्भयविद्याद्) महान् भय उपस्थित होगा। भावार्थ-जब घोड़े अपने बाल गिराने लगे, पूंछ को चटपटावे और शरीर से स्फुलिंग निकलने लगे तो समझो महान भय उपस्थित होगा॥१६५ ॥ हेषन्ते तु तदा राज्ञः पूर्वाह्ने नागवाजिनः। तदा सूर्यग्रहं विन्द्यादपराहे तु चन्द्रजम्॥१६६॥ जब (राज्ञः) राजा के (नाग वाजिनः) हाथी, घोड़े (पूर्वाह्ने) पूर्वाह्वे में (हेषन्ते) हँसते हो (तु) तो (तदा) तब (सूर्यग्रहं विन्द्याद्) सूर्य ग्रहण होगा ऐसा समझो (अपराह्ने तु चन्द्रजम्) अपराह्न में ऐसा हो तो चन्द्र ग्रहण समझो। भावार्थ-जब राजा के हाथी, घोड़े पूर्वाह्न में हँसते हो तो सूर्य ग्रहण समझो और अपराह्न में हँसे तो चन्द्र ग्रहण समझो। १६६॥ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | ३९८ शुष्कं काष्ठं तृणं वाऽपि यदा संदंशते हयः। हेषन्ते सूर्यमुदीक्ष्य तदाऽग्नि भयमादिशेत्॥१६७ ॥ (यदाहयः) जब घोड़े (सूर्यमुदीक्ष्य) सूर्य की तरफ मुँह करके (शुष्कं काष्ठं तृणंवाऽपि) सुखे हुऐ तृण, घास और भी लकड़ी (संदंशते) मुँह में लेकर (हेषन्ते) हँसते हों तो (तदाऽग्नि भयमादिशेत्) तब अग्निभय होगा ऐसा कहे। भावार्थ- जब घोड़े सूर्य की तरफ मुँह कर सूखे हुऐ घास, लकड़ी तृण को मुँह में लेकर हंसे तो समझो अग्नि भय होगा ।। १६७।। यदा शेवालजले वाऽपि मग्नं कृत्वा मुखं हयाः। हेषन्ते विकृता यत्र तदाप्यग्नि भयं भवेत् ।। १६८॥ (यदा हयाः) जब घोड़े (शेवालजले वाऽपि मुखंमग्नंकृत्वा) शेवाल से सहित जल मुँह को मग्न करके (विकृतायत्रहेषन्ते) जहाँ पर विकृत होकर हँसते हैं (तदा) तब (अग्निभयं भवेत्) अग्नि का भय होगा। भावार्थ-जब घोड़े शेवाल से सहित जल में मुख करके घोड़े विकृत रूप हँसे तो अग्नि का भय होगा॥१६८॥ उल्कासमाना हेषन्ते संद्दश्य दशनान् हयाः। संग्रामेविजयं क्षेमं भर्तुः पुष्टिं विनिर्दिशेत् ॥१६९॥ (हयाः) घोड़े (उल्कासमाना) उल्का के समान (दशनान) दांतो को (संदृश्य) दिखाते हुऐ (हेषन्ते) हँसते है तो (संग्रामे) युद्ध में (विजय) विजय (क्षेमं) क्षेम (भर्तुः पुष्टिं विनिर्दिशेत) और पुष्टि को कहे। भावार्थ-यदि घोड़े उल्का के समान अपने दाँतो को दिखाते हुऐ हँसे तो समझो युद्ध में विजय, क्षेम कुशल पुष्टि होगी ऐसा कहे ।। १६९ ।। प्रसारयित्वा ग्रीवां च स्तम्भयित्वा च वाजिनाम्। हेषन्ते विजयं ब्रूयात्संग्रामे नात्र संशयः॥ १७०।। यदि (गीवां प्रसारयित्वा) अपनी ग्रीवा प्रसार करके (वाजिनाम्) घोड़े (स्तम्भयित्वा च) स्तम्भित होकर (हेषन्ते) हँसते है तो (संग्रामे विजयं ब्रूयात्) संग्राम में विजय होगी ऐसा कहे (नात्र संशयः) इसमें सन्देह नहीं है। Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१९ चतुर्दशोऽध्यायः भावार्थ यदि घोड़े अकड़कर अपनी गर्दन को फैलाकर कर हँसे तो समझो युद्ध में विजय होगी ऐसा कहते है।। १७० ॥ श्रमणा ब्राह्मणा वृद्धा न पूज्यन्ते यथा पुरा। सप्तमासात् परं यत्र भयमाख्यात्युपस्थितम्॥१७१॥ (यथा पुरा) जिस नगर में (श्रमणा ब्राह्मणा वृद्धा न पूज्यन्ते) श्रमण, ब्राह्मण और वृद्धों की पूजा न होती है तो (यत्र) वहाँ पर समझो (सप्तमासात् परं) सात महीने में (भयं) भय (आख्यात्युपस्तितम्) उपस्थित होगा ऐसा कहते हैं। भावार्थ-जिस नगर में श्रमण, (निर्ग्रन्थ महासाधु) ब्राह्मण और वृद्धों की पूजा न होती हो तो समझो वहाँ पर सात महीने में भय उपस्थित होगा ऐसा कहते हैं॥१७१॥ अनाहतानि तूर्याणि नर्दन्ति विकृतं यदा। षष्टे मासे नृपो वध्यः भयानि च तदाऽदिशेत् ॥१७२॥ (यदा) जब (अनाहता नितूर्याणि) बाजे अपने आप ही (विकृत) विकृत शब्द करते हुऐ (नन्ति) बजने लगे तो समझो (षष्टे मासे नृपोवध्यः) छह महीने में राजा मारा जाता है (भयानि च तदाऽऽदिशेत्) और भय भी उपस्थित होता है। भावार्थ-जब बाजे अपने आप ही विकृत शब्द करते हुऐ बजने लगे तो समझो वहाँ पर छह महीने में ही राजा का मरण हो जायगा और भय भी उपस्थित होगा ॥१७२।। कृत्तिकासु यदोत्पातो दीप्तायां दिशि दृश्यते। आग्नेयीं वा समाश्रित्य त्रिपक्षादग्नितो भयम् ।। १७३॥ यदि (दीप्तायां दिशि) पूर्व दिशा में (कृत्तिकासु यदोत्पातो दृश्यते) कृत्तिका नक्षत्र में उत्पात दिखे तो (वा) वा (आग्नेयी) आग्नेय दिशा में उत्पात दिखे तो (समाश्रित्यत्रिपक्षादग्नितो भयम्) समझो डेढ़ महीने में वहाँ पर भय उपस्थित होगा। भावार्थ-यदि पूर्व दिशा या आग्नेय दिशा में कृत्तिका नक्षत्र में कोई उत्पात दिखे तो डेढ़ महीने में उत्पात का भय उपस्थित होगा॥१७३ ।। Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | रोहिण्यां तु यदा घोषो निर्वातो यदि दृश्यते। सर्वाः प्रजाः प्रपीड्यन्ते षण्मासात्परतस्तदा ॥१७४॥ (यदा) जब (रोहिण्या) रोहिणी नक्षत्र में (निर्वातो) वायु के न होने पर भी (घोषो दृश्यते) शब्द सुनाई पड़े (तु) तो (षण्मासात्परतस्तदा) छह महीने के अन्दर (सर्वाः प्रजाप्रपीड्यन्ते) सभी प्रजा पीड़ा को प्राप्त होगी। भावार्थ-जब रोहिणी नक्षत्र में वायु के न होते हुऐ भी शब्द सुनाई पड़े तो छह महीने में सभी प्रजा पीड़ा को प्राप्त होगी। १७४।। उल्कापातः सनिर्यात: सवातो यदि दृश्यते। रोहिण्यां पञ्चमासेन कुर्याद् धोरं महद्भयम्॥ १७५ ॥ (रोहिण्या) रोहिणी नक्षत्र में (सनिर्घात:) घर्षण सहित (सवातो यदि दृश्यते) यदि वायु हो (उल्कापात:) उल्कापात हो तो (पञ्चमासेन धोरं महद्भयम्) पाँच महीने में महान् भय उपस्थित होगा। भावार्थ-जब रोहिणी नक्षत्र में घर्षण पूर्वक उल्कापात और वायु हो तो समझो पाँच महीने में महा भय होगा ।। १७५।।। एवं नक्षत्रशेषेषु यद्युत्पाताः पृथग्विथाः । देवतार्जनलीनं च प्रसाध्यं भिक्षुणा सदा॥१७६॥ (एवं) इसी प्रकार (नक्षत्रशेषेषुपृथाग्विधायद्युत्पाता:) शेष नक्षत्रों में भी उत्पात दिखाई पड़े तो (सदा) सदा (भिक्षुणा) साधुओं को (देवतार्जन लीनं च) देवताओं की पूजा में लीन होकर (प्रसाध्यं) शान्ति करनी चाहिये। भावार्थ-इस प्रकार अन्य भी नक्षत्रों पर अगर उत्पात दिखे तो साधुओं को धर्मात्माओं को पूजा पाठ करके शान्ति करनी चाहिये क्योंकि उत्पातों की शान्ति भगवान की पूजा आराधना से ही हो सकती है दूसरा कोई उपाय नहीं है॥१७६ ॥ वाहनं महिषीं पुत्रं बलं सेनापति पुरम्। पुरोहितं नृपं वित्तंध्वन्त्युत्पाता: समुच्छ्रिताः ।। १७७॥ इसी प्रकार (उत्पाता: समुच्छ्रिताः} उत्पात होते है तो (वाहन) सवारी (महिषीं) Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ चतुर्दशोऽध्यायः भैंसे (पुत्रं ) पुत्र ( बलं ) बल (सेनापतिं) सेनापति (पुरम् ) नगर (पुरोहितं) पुरोहित (नृपं ) राजा (वित्तं ) धन आदि का (ध्वत्यु) नाश करता है। भावार्थ — इस प्रकार के उत्पात अगर दिखे तो समझो बाहन, सवारी, भैंसें, पुत्र, बल, सेनापति, नगर, पुरोहित, राजा, धन आदि का नाश करते हैं ।। १७७ ॥ एषामन्यतरं हित्वा निर्वृत्तिं यान्ति ते सदा । परं द्वादशरात्रेण सद्यो नाशयिता पिता ।। १७८ ॥ ( एषामन्तरं हित्वा निवृत्तिं यान्ति ते सदा ) जो इस प्रकार के उत्पातों को देखकर जो कोई उनकी अवहेलना करता है तो ( परं द्वादशरात्रेण ) समझो बारह रात्रियों में (सद्योनाशयिता पिता ) शीघ्र ही उसका पिता मर जायगा या अन्य कोई नाश को प्राप्त होगा । भावार्थ - इस प्रकार के उत्पातों को देखकर भी इन उत्पातो की जो कोई अवहेलना करता है तो बारह रात्रियों में मर जायगा व उसका पिता मर जाया व अन्य परिवार के लोग नष्ट होंगे ।। १७८ ॥ यत्रोत्पाताः न दृश्यन्ते यथा कालमुपस्थिताः । सञ्चयदोषेण राजादेशश्च तेन नश्यति ॥ १७९ ॥ ( यथा कालमुपस्थिता: ) जिस काल में उपस्थित ( यत्रोत्पाताः न दृश्यन्ते) जो उत्पात हैं उनको नहीं देखता तो ( तेन) उस (सञ्चयदोषेण ) संचित दोष से ( राजादेशश्च नश्यति) राजा और देश का नाश होगा | भावार्थ — जिस काल में उत्पन्न होने वाले उत्पातों को नहीं देखता उन उत्पात दोष से राजा और देश दोनों का ही नाश हो जाता है ॥ १७९ ॥ देवान् प्रब्रजितान् विप्रांस्तस्माद्राजाऽभिपूजयेत् । तदा शाम्यति तत् पापं यथा साधुभिरीरितम् ॥ १८० ।। ( यथा) जो ( साधुभिरीरितम् ) साधुओं के द्वारा कहा हुआ उत्पातों का ( पापं ) पाप है (तत्) वह (देवान्) देवों की ( प्रब्रजितान् ) साधुओं की (विप्रांस्तस्माद्राजाऽभिपूजयेत्) ब्राह्मणों की, राजा की पूजा करने से (शाम्यति) नष्ट हो जाता है। Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ४०२ भावार्थ-जो साधुओं के द्वारा कहा हुआ उत्पातों का स्वरूप है, उस पाप का देवों की पूजा साधुओं की पूजा, ब्राह्मणों की पूजा राजा की पूजा करने से शान्ति होती है।। १८० ।। यत्र देशे समुत्पाता दृश्यन्ते भिक्षुभिः क्वचित्। ततो देशादतिक्रम्य व्रजेयुरन्यतस्तदा ॥१८१॥ (यत्र देशे) जिस देश में (समुत्पाता) उत्पात (भिक्षुभिः क्वचित दृश्यन्ते) साधुओं को कहीं पर दिखाई दे तो (ततो देशदतिक्रम्य) उस देश को छोड़कर (व्रजेयुरन्यस्तदा) अन्यत्र चले जावें। भावार्थ-जिस देश में साधु उत्पात देखे उस देश को शीघ्र छोड़ कर अन्य देश में चला जाना चाहिये॥१८१॥ सचित्ते सुभिक्षे देशे दिरुत्पाते प्रियातिथौ। विहरन्ति सुखं तत्रभिक्षवो धर्मचारिण: ॥१८२।। (सचित्ते सुभिक्षे देशे) सचित्त सुभिक्ष देश में व (दिरुत्पातौ प्रियातिथी) उत्पात से रहित व अतिथि सत्कार से सहित देश में (तत्र) वहाँ पर ही (सुखं विहरन्ति) सुख से विहार करते है (भिक्षवोधर्मचारिण:) धर्म का पालन करने वाले साधु। भावार्थ:-निरुपद्रव देश में जहाँ पर अतिथि सत्कार विशेष होता हो उसमें धर्म का पालन करने वाले साधु विहार करे ।। १८२ ।। विशेष—इस अध्याय में आचार्य श्री ने उत्पातों का वर्णन किया है उत्पात तीन प्रकार के होते है, आन्तरिक्ष, भौमिक और दैविक (दिव्य) देवों को प्रतिमास से जो उत्पातों की सूचना मिलती है उसको दैविक या दिव्य उत्पात कहते हैं। नक्षत्रों का विचार, उल्का, निर्घात, पवन, विद्युत्पात, गन्धर्वनगर, इन्द्रधनुषादि अन्तरक्षि उत्पात है। भूमि पर चल व स्थिर पदार्थों का विपरीत दिखलाई पड़ना भौम उत्पात देव प्रतिमा का छत्र भंग, चलना, हाथ-पाँव मस्तक, आभामण्डल का भंग होना अशुभ कारक होता है। तीर्थंकर की प्रतिमा से पसीना निकलता है, तो भी Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०३ चतुर्दशोऽध्यायः अशुभ है वो धार्मिक संघर्ष कराता है। प्रतिमा चलती हुई दिखे व एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच जाय तो समझो वहाँ पर तीसरे महीने में विपत्ती पड़ती हैं, उस नगर के प्रमुख व्यक्तियों को मरने के समान कष्ट आता है जनता के लोगों में आधि-व्याधि के कष्ट उठाने पड़ते हैं। प्रतिमा के रोने पर राजा, मन्त्री या किसी महान व्यक्ति की मृत्यु होती है आदि। आकाश में असमय में इन्द्र धनुषादिक दिखने लगे तो प्रजा को कष्ट, अनावृष्टि धन हानि होती है, आकाश से यदि रक्त, मांस, अस्थि चर्बी की वर्षा होने पर संग्राम, जनता को भय, महामारी और राज्य शासकों में मतभेद होता है, दिन में धलि की वर्षा मेघ विहीन आकाश में नक्षत्रों का विनाश दिन में नक्षत्रों का दिखना दिखे तो संघर्ष, मरण, भय और धन-धान्य का विनाश कराता है। असमय में वृक्षों के फल-फूल आना वृक्ष का हँसना-रोना दूध निकलना आदि दिखे तो उत्पात, धन क्षय, बच्चों के रोग आपस में झगड़ा होने की सूचना देता है। इस प्रकार ये तीनों ही उत्पात प्रजा व राजा का नाश कराता है। अशुभ उत्पातों को देखते ही धार्मिक जन को शान्ति कर्म अवश्य करना चाहिये। आगे डॉ. नेमिचन्द्र जी क्या कहते हैं वह भी देख लीजिए। विवेचन स्वभावके विपरीत होना उत्पात है ये उत्पात तीन प्रकार के होते हैं—दिव्य, अन्तरिक्ष और भौम । देव प्रतिमाओं द्वारा जिन उत्पातोंकी सूचना मिलती है, वे दिव्य कहलाते हैं। नक्षत्रोंका विचार, उल्का, निर्घात, पवन, विद्युत्पात, गन्धर्वपुर एवं इन्द्रधनुषादि अन्तरिक्ष उत्पात हैं। इस भूमिपर चल एवं स्थिर पदार्थोंका विपरीतरूपमें दिखलायी पड़ना भौम उत्पात है। आचार्य ऋषिपुत्रने दिव्य उत्पातोंका वर्णन करते हुए बतलाया है कि तीर्थंकर प्रतिमाका छत्र भंग होना, हाथ-पाँव, मस्तक, भामण्डलका भंग होना अशुभ सूचक है। जिस देश या नगरमें प्रतिमाजी स्थिर या चलित भंग हो जायें तो उस देश या नगरमें अशुभ होता है। छत्र भंग होनेसे प्रशासक या अन्य किसी नेताकी मृत्यु, रथ टूटनेसे राजाका मरण तथा जिस नगरमें रथ टूटता है, उस नगरमें छ: महीने के पश्चात् अशुभ फलकी प्राप्ति होती है। शहरमें महामारी, चोरी, डकैती या अन्य अशुभ कार्य छ: महीनोंके भीतर होता है। भामण्डलके भंग होने से तीसरे या पाँचवें महीनमें आपत्ति आती है। उस प्रदेशके शासक या शासन Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ४०४ परिवारमें किसीकी मृत्यु होती है। नगरमें धन-जनकी हानि होती है। प्रतिमा के हाथ भंग होने से तीसरे महीनेमें कष्ट और पांव भंग होनेसे सातवें महीनेमें कष्ट होता है। हाथ और पौवके भंग होनेका फल नगरके साथ नगरके प्रासक, मुखिया एवं पंचायतके प्रमुखको भी भोगना पड़ता है। प्रतिमा का अचनाक भंग होना अत्यन्त अशुभ है। यदि रखी हुई प्रतिमा स्वयमेव ही मध्याह्न या प्रात:कालमें भंग हो जाय तो उस नगरमें तीन महीनेके उपरान्त महान् रोग या संक्रामक रोग फैलते हैं। विशेष रूपसे हैजा, प्लेग एवं इनफ्ल्युएंजा की उत्पत्ति होती है। पशुओंमें भी रोग उत्पन्न होता है। यदि स्थिर प्रतिमा अपने स्थानसे हटकर दूसरी जगह पहुँच जाय या चलती हुई मालूम पड़े तो तीसरे महीने अचानक विपत्ति आती है। उस नगर या प्रदेश के प्रमुख अधिकारीको मृत्युतुल्य कष्ट भोगना पड़ता है। जनसाधारणको भी आधि-व्याधिजन्य कष्ट उठाना पड़ता है। यदि प्रतिमा सिंहासनसे से नीचे उतर जावे अथवा सिंहासनसे नीचे गिर जाये तो उस प्रदेशके प्रमुखकी मृत्यु होती है। उस प्रदेशमें अकाल, महामारी और वर्षाभाव रहता है। यदि उपर्युक्त उत्पात लगातार सात दिन या पन्द्रह दिन तक हों तो निश्चयत: प्रतिपादित फलकी प्राप्ति होती है। यदि एकाध दिन उत्पात होकर शान्त हो गया तो पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता है। यदि प्रतिमा जीभ निकालकर कई दिनों तक रोती हुई दिखलाई पड़े तो जिस नगरमें यह घटना घटती है, उस नगरमें अत्यन्त उपद्रव होता है। प्रशासक और प्रशास्योंमें झगड़ा होता है। धन-धान्यकी क्षति होती है। चोर और डाकुओंका उपद्रव अधिक बढ़ता है। संग्राम, मारकाट एवं संघर्षकी स्थिति बढ़ती जाती है। प्रतिमा का रोना राजा, मन्त्री या किसी महान् नेताकी मृत्युका सूचक; हँसना पारस्परिक विद्वेष संघर्ष एवं कलहका सूचक; चलना और कॉपना बीमारी, संघर्ष, कलह, विषाद, आपसी फूट एवं गोलाकार चक्कर काटना भय, विद्वेष, सम्मानहानि तथा देशकी धन-जन हानिका सूचक है। प्रतिमाका हिलना तथा रंग बदलना अनिष्ट सूचक एवं तीन महीनोंमें नाना प्रकारके कष्टोंका सूचक अवगत करना चाहिए। प्रतिमाका पसीजना अग्निभय, चोरभय एवं महामारीका सूचक है। धुंआ सहित प्रतिमासे पसीना निकले तो जिस प्रदेशमें यह घटना घटित होती है, उससे सौ कोशकी दूरीमें चारों Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०५ चतुर्दशोऽध्याय: ओर धन-जनकी क्षति होती है। अतिवृष्यि या अनावृष्टिके कारण जनताको महान् कष्ट होता है। तीर्थंकरकी प्रतिमासे पसीना निकलनः धार्मिक विद्वेष एवं समर्षकी सूचना देता है। मुनि और श्रावक दोनोंपर किसी प्रकारकी विपत्ति आती है तथा दोनोंको विधर्मियों द्वारा उपसर्ग सहन करना पड़ता है। अकाल और अवर्षणकी स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है। यदि शिवकी प्रतिमासे पसीना निकले तो ब्राह्मणोंको कष्ट, कुबेरकी प्रतिमासे पसीना निकले तो वैश्यों को कष्ट, कामदेवकी प्रतिमासे पसीना निकले तो आगमकी हानि, कृष्ण की प्रतिमासे पसीना निकले तो सभी जातियोंको कष्ट; सिद्ध और बौद्ध की प्रतिमाओंसे धुंआ सहित पसीना निकले तो उस प्रदेशके ऊपर महान् कष्ट, चण्डिका देवीकी प्रतिमा में से पसीना निकले तो स्त्रियोंको कष्ट, बाराही देवीकी प्रतिमासे पसीना निकले तो हाथियोंका ध्वंस; नागिनी देवीकी प्रतिमासे धुंआ सहित पसीना निकले तो गर्भनाश; रामकी प्रतिमा से पसीना निकले तो देशमें महान् उपद्रव, लूट-पाट, धननाश; सीता या पार्वतीकी प्रतिमासे पसीना निकले तो नारी-समाजको महान् कष्ट एवं सूर्यकी प्रतिमासे पसीना निकले तो संसारको अत्यधिक कष्ट और उपद्रव सहन करने पड़ते हैं। यदि तीर्थङ्करकी प्रतिमा भग्न हो और उससे अग्निकी लपट या रक्तकी धारा निकलती हुई दिखलाई पड़े तो संसारमें मार-काट निश्चय होती है। आपसमें मार-काट हुए बिना किसीको भी शान्ति नहीं मिलती है। किसी भी देवकी प्रतिमाका भंग होना, फूटना व हँसना, चलना आदि अशुभकारक है। उक्त क्रियाएँ एक सप्ताह तक लगातार होती हों तो निश्चय तीन महीनके भीतर अनिष्टकारक फल प्राप्त होता है। ग्रहोंकी प्रतिमाएँ, चौबीस शासन देवोंका शासन देवियोंकी प्रतिमाएँ क्षेत्रपाल और दिक्पालोंकी प्रतिमाओंमें उक्त प्रकारकी विकृति होनेसे व्याधि, धनहानि, मरण एवं अनेक प्रकारकी व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। देवकुमार, देवकुमारी, देववनिता एवं देवदूतोंके जो विकार उत्पन्न होते हैं, वे समाजमें अनेक प्रकारकी हानि पहुँचाते हैं। देवोंके प्रासाद, भवन, चैत्यालय, वेदिका, तोरण, केतु आदिके जलने या बिजली द्वारा अग्नि प्राप्त होनेसे उस प्रदेशमें अत्यन्त अनिष्टकर क्रियाएँ होती है। उक्त क्रियाओंका फल छ: महीनोंमें प्राप्त होता है। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी देवोंके प्रकृति विपर्दय लोगोंके नाना प्रकारके कष्टोंका सामना करना पड़ता है। Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ४०६ आकाशमें असमय इन्द्रधनुष दिखलायी पड़े तो प्रजाको कष्ट, वर्षाभाव और धन हानि होती है। इन्द्रधनुषका वर्षा ऋतुमें होना भी शुभ सूचक माना जाता है, अन्य ऋतुमें अशुभ सूचक कहा गया है। आकाशसे रुधिर, मांस, अस्थि और चर्बीकी वर्षा होनेसे संग्राम, जनताको भय, महामारी एवं प्रशासकों में मतभेद होता है । धान्य, सुवर्ण, वल्कल, पुष्प और फलकी वर्षा हो तो उस नगरका विनाश होता है, जिसमें यह घटना घटती है। जिस नगरमें कोयले और धूल की वर्षा होती है, उस नगरका सर्वनाश होता है। बिना बादलके आकाशसे ओलोंका गिरना, बिजलीका तड़पना तथा बिना गर्जनके अकस्मात् बिजलीका गिरना उस प्रदेशके लिए भयोत्पादक तथा नाना प्रकारकी हानियाँ होती हैं। किसी भी व्यक्तिको शान्ति नहीं मिल सकती है । निर्मल सूर्यमें छाया दिखलायी न दे अथवा विकृत छाया दिखलायी दे तो देशमें महाभय होता है। जब दिन या रातमें मेघ हीन आकाशमें पूर्व या पश्चिम दिशामें इन्द्रधनुष दिखलाई देता है; तब उस प्रदेशमें घोर दुर्भिक्ष पड़ता है। जब आकाशमें प्रतिध्वनि हो, तूर्य - तुरई की ध्वनि सुनाई दे एवं आकाशमें घण्टा, झालरका शब्द सुनाई पड़े तो दो महीने तक महाध्वनिसे प्रजा पीड़ित रहती है। आकाश में किसी भी प्रकारका अन्य उत्पात दिखलायी पड़े तो जनताको कष्ट, व्याधि, मृत्यु एवं संघर्ष जन्य दुःख उठाना पड़ता है। दिन में धूल का बरसना, रात्रि के समय मेघविहीन आकाश में नक्षत्रों का नाश या दिन में नक्षत्रों का दर्शन होना संघर्ष, मरण, भय और धन-धान्य का विनाश सूचक है। आकाश बिना बादलों का रंग-बिरंग होना, विकृत आकृति और संस्थानका होना भी अशुभसूचक है। जहाँ छ: महीनों तक लगातार हर महीने उल्का दिखलाई देती रहे, वहाँ मनुष्य का मरण होता है। सफेद और घूंघर रंग की उल्काएँ पुण्यात्मा कहे जाने वाले व्यक्तियों को कष्ट पहुँचाती है। पचरंगी उल्का महामारी और इधर-उधर टकराकर नष्ट होने वाली उल्का देश में उपद्रव उत्पन्न करती है। अन्तरिक्ष निमित्तों का विचार करते समय पूर्वोक्त विद्युत्पात, आदि का विचार अवश्य कर लेना चाहिए। भूमि पर प्रकृति विपर्यय — उत्पात दिखलायी पड़ें तो अनिष्ट समझना चाहिए। ये उत्पात जिस स्थान में दिखलायी देते हैं, अनिष्ट फल उसी जगह घटित होता Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ चतुर्दशोऽध्यायः । -. -- है। अस्त्र-शस्त्रों का जलना, उनके शब्द होना, जलते समय अग्नि से शब्द होना तथा ईधन के बिना जलाये अग्निका जल जाना अनिष्ट सूचक है। इस प्रकारके उत्पातमें किसी आत्मीयकी मृत्यु होती है। असमयमें वृक्षोंमें फल-फूलका आना, वृक्षोंका हंसना, रोना, दूध निकलना आदि उत्पात धनक्षय, शिशुओंमें रोग तथा आपसमें झगड़ा होनेकी सूचना देते हैं। वृक्षोंसे मद्य निकले तो वाहनोंका नाश, रुधिर निकलनेसे संग्राम, शहद निकलनेसे रोग, तेल निकलनेसे दुर्भिक्ष, जल निकलनेसे भय और दुर्गन्धित पदार्थ निकलनेसे पशुक्षय होता है। अंकुर सूख जानेसे वीर्य और अन्नका नाश, रोगहीन वृक्ष अकारण सूख जायें तो सेनाका विनाश और अन्नक्षय, आप ही वृक्ष खड़े होकर उठ बैठे तो देवका भय, कुसमयमें फल-फूलोंका आना प्रशासक और नेताओंका विनाश, वृक्षोंसे ज्वाला और धुंआ निकले तो मनुष्यों का क्षय होता है। वृक्षोंसे मनुष्यके जैसा शब्द निकलता हुआ सुनाई पड़े तो अत्यन्त अशुभकारी होता है। इससे मनुष्यों में अनेक प्रकारकी बीमारियों फैलती है, जनतामें अनेक प्रकारसे अशान्ति आती है। कमल आदि के एक काल में दो या तीन बालकी उत्पत्ति हो अथवा दो फूल या फल दिखलायी पड़े तो जिस जगह यह घटना घटित होती है, वहाँ के प्रशासक का मरण होता है। जिस किसान के खेत में यह निमित्त दिखलायी पड़ता है, उस की भी मृत्यु होती है। जिस गाँवमें यह उत्पात दिखलायी पड़ता है, उस गाँव में धन-धान्य के विनाश के साथ अनेक प्रकार के उपद्रव होते हैं। फल-फूलों में विकार का दिखलायी पड़ना, प्रकृति विरुद्ध फल-फूलों का दृष्टिगोचर होना ही उस स्थान की शान्ति को नष्ट करने वाला तथा आपस में संघर्ष उत्पन्न करने वाला है। शीत और ग्रीम में परिवर्तन हो जाने से अर्थात् शीत ऋतु में गर्मी और ग्रीष्म ऋतु में शीत पड़ने से अथवा सभी ऋतुओं में परस्पर परिवर्तन हो जानेसे दैवभय, राजभय, रोगभय और नाना प्रकार के कष्ट होते हैं। यदि नदियाँ नगर के निकटवर्ती स्थान को छोड़कर दूर हटकर बहने लगें तो उन नगरों की आबादी घट जाती हैं, वहाँ अनेक प्रकार के रोग फैलते हैं। यदि नदियों का जल विकृत हो जाय, वह रुधिर, तेल, घी, शहद आदिकी गन्ध और आकृति के समान बहता हुआ दिखलायी पड़े तो भय, अशान्ति और धनक्षय होता है। कुओं से धूम निकलता हुआ दिखलायी पड़े, कुआँ का जल स्वयं ही खौलने लगे, रोने और गाने का शब्द जल से निकले - - Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ४०८ तो महामारी फैलती है। जल का रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में परिवर्तन हो जाय तो महामारी की सूचना समझनी चाहिए। स्त्रियोंका प्रसव विकार होना, उनके एक साथ तीन-चार बच्चोंका पैदा करना, उत्पन्न हुए बच्चोंकी आकृति पशुओं और पक्षियोंके समान हो तो, जिन कल में यह घटना घटित होती है, उस कुल का विनाश, जिस गाँव या नगरमें घटना घटित होती है, उस गाँव या नगरमें महामारी, अवर्षण और अशान्ति रहती है। इस प्रकारके उत्पातका फल ६ महीनेसे लेकर एक वर्ष तक प्राप्त होता है। घोड़ी, ऊँटनी, भैंस, गाय और हथिनी एक साथ दो बच्चे पैदा करें तो इनकी मृत्यु हो जाती है तथा उस नगरमें मारकाट होती है। एकजाति का पशु दूसरे जातिके पशुके साथ मैथुन करे तो अमंगल होता है, दो बैन परस्परमें स्तनपान करें तथा कुत्ता गायके बछड़ेका स्तनपान करे तो महान् अमंगल होता है। पशुओंके विपरीत आचरणसे भी अनिष्टकी आशंका समझनी चाहिए। यदि दो स्त्री जातिके प्राणी आपसमें मैथुन करें तो भय, स्तनपान अकारण करें तो हानि, दुर्भिक्ष एवं धन विनाश होता है। रथ, मोटर, बैल आदि की सवारी बिना चलाये चलने लगे और बिना किसी खराबीके चलानेपर भी न चले तथा सवारियाँ चलाने पर भूमिमें गढ़ जाय तो अशुभ होता है। बिना बजाये तुरहीका शब्द होने लगे, और बजाने पर बिना किसी प्रकारकी खराबीके तुरही शब्द न करे तो इससे परचक्रका आगमन होता है, अथवा शासकका परिवर्तन होता है। नेताओंमें मतभेद होता है और वे आपसमें झगड़ते हैं। यदि पवन स्वयं ही साँय-सांय की विकृत ध्वनि करता हुआ चले तथा पवनसे घोर दुर्गन्ध आती हो तो भय होता है, प्रजाका विनाश होता है तथा दुर्भिक्ष भी होता है। परके पालतू पक्षिगण वनमें जावें और बनैले पक्षी निर्भय होकर पुरमें प्रवेश करें, दिनमें चरनेवाले रात्रिमें अथवा रात्रिके चरने वाले दिनमें प्रवेश करें तथा दोनों सन्ध्याओंमें मृग और पक्षी मण्डल बाँधकर एकत्रित हों तो भय, मरण, महामारी एवं धान्यका विनाश होता है। सूर्यकी ओर मुँहकर गीदड़ रोवें, कबूतर या उल्लू दिनमें राजभवनमें प्रवेश करे, प्रदोषके समय मृर्गा शब्द करे, हेमन्त आदि ऋतुओंमें कोयल बोले, आकाशमें बाज आदि पक्षियोंका प्रतिलोम मण्डल विचरण करे तो भयदायी होता Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽध्याय: है। घर, चैत्यालय और द्वारपर अकारण ही पक्षियोंका झुण्ड गिरे तो उस घर या चैत्यालयका विनाश होता है। यदि कुत्ता हड्डी लेकर घरमें प्रवेश करे तो रोग उत्पन्न होनेकी सूचना देता है। पशुओंकी आवाज मनुष्यों के समान मालूम पड़ती हो तथा वे पशु मनुष्यों के समान आचरण भी करें तो उस स्थान पर घोर संकट उपस्थित होता है। रातमें पश्चिम दिशाकी ओर से कुत्ता शब्द करते हों और उनके उत्तरमें शृगाल शब्द करे अर्थात् पहले कुत्ता बोले, पश्चात् शृगाल अनन्तर पुन: कुत्ता, पश्चात् शृगाल इस प्रकार शब्द करें तो उस नगरका विनाश छ: महीनेके बाद होने लगता है और तीन वर्षों तक उस नगरपर आपत्ति आती रहती है। भूकम्प हुए बिना पृथ्वी फट जाय, बिना अग्निके धुंआ दिखलायी पड़े और बालकगण मार-पीटका खेल-खेलते हुए कहें—मार डालो, पीटो, इसका विनाश कर दो तो उस प्रदेशमें भूकम्प होनेकी सूचना समझनी चाहिए। बिना बनाये किसी व्यक्तिके घरकी दीवालों पर गेरूके लाल चिह्न या कोयलेसे काले चित्र बन जायें तो उस घरका पाँच महीनेके बाद विनाश होता है। जिस घरमें अधिक मकड़ियाँ जाला बनाती हैं उस घर में कलह होती है। गाँव या नगरके बाहर दिनमें शृगाल और उल्लू शब्द करें तो उस गाँवके विनाशकी सूचना समझनी चाहिए। वर्षाकालमें पृथ्वीका काँपना, भूकम्प होना, बादलोंकी आकृतिका बदल जाना, पर्वत और घरों का चलायमान होना, भयंकर शब्दोंका चारों दिशाओंसे सुनायी पड़ना, सूखे हुए वृक्षोंमें अंकुरका निकल आना, इन्द्रधनुषका काले रूपमें दिखलायी पड़ना एवं श्यामवर्णकी विद्युतका गिरना भय, मृत्यु और अनावृष्टिका सूचक है। जब वर्षा ऋतुमें अधिक वर्षा होनेपर भी पृथ्वी सूखी दिखलायी पड़े, तो उस वर्ष दुर्भिक्ष की स्थिति समझनी चाहिए ग्रीष्म ऋतु में बादल दिखलाई पड़ें बिजली कड़के और चारों ओर वर्षाऋतुकी बहार दिखलायी पड़े तो भय तथा महामारी होती हैं। वर्षाऋतुमें तेज हवा चले और त्रिकोण और चौकोर ओले गिरे तो उस वर्ष अकालकी आशंका समझनी चाहिए। यदि गाय, बकरी, घोड़ी, हथिनी और स्त्रीके विपरीत गर्भकी स्थिति हो तथा विपरीत सन्तान प्रसव करें तो राजा और प्रजा दोनोंके लिए अत्यन्त कष्ट होता है। ऋतुओंमें अस्वाभाविक विकार दिखलायी पड़े तो जगत् में पीड़ा, भय, संघर्ष आदि होते हैं। यदि आकाशमें Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ४१० धूल, अग्नि और धुंआकी अधिकता दिखलायी पड़े तो दुर्भिक्ष, चोरोंका उपद्रव एवं जनतामें अशान्ति होती है। रोग-सूचक उत्पात-चन्द्रमा कृष्ण वर्णका दिखलायी दे तथा ताराएँ विभिन्न वर्णकी टूटती हुई मालूम पड़ें तो, सूर्य उदयकालमें कई दिनों तक लगातार काला और रोता हुआ दिखलायी पड़े तो दो महीने उपरान्त महामारीका प्रकोप होता है। बिल्ली तीन बार रोकर चुप हो जाय तथा नगरके भीतर आकर शृगाल-सियार तीन बार रोकर चुप हो जाय तो उस नगरमें भयंकर हैजा फैलता है। उल्कापात हरे वर्णका हो, चन्द्रमा भी हरे वर्णका दिखलायी पड़े तो सामूहिक रूपसे ज्वरका प्रकोप होता है। यदि सूखे वृक्ष अचानक हरे हो जाये तो उस नगरमें सात महीनेके भीतर महामारी फैलती है। चूहोंका समूह-सेना बनाकर नगरसे बाहर जाता हुआ दिखलायी पड़े तो प्लेग का प्रकोप समझना चाहिए। पीपल वृक्ष और वट वृक्षमें असमयमें फल पुष्प आवें तो नगर या गाँवमें पाँच महीनोंके भीतर संक्रामक रोग फैलता है, जिससे सभी प्राणियोंको कष्ट होता है। गोधा मेढ़क और मोर रात्रिमें . भ्रमण करें तथा श्वेत काक एवं गृद्ध घरोंमें घुस आवें तो उस नगर या गाँवमें तीन महीनेके भीतर बीमारी फैलती है। काक मैथुन देखनेसे छ: मासमें मृत्यु होती है। धन-धान्य नाश सूचक उत्पात वर्षाऋतुमें लगातार सात दिनों तक जिस प्रदेशमें ओले बरसते हैं, उस प्रदेशके धन-धान्यका नाश हो जाता है। रात या दिन उल्लू किसीके घरमें प्रविष्ट होकर बोलने लगे तो उस व्यक्तिको सम्पत्ति छ: महीनेमें विलीन हो जाती है। घरके द्वार पर स्थित वृक्ष रोने लगें तो उस घरकी सम्पत्ति विलीन होती है घरमें रोग एवं कष्ट फैलते हैं। अचानक घरकी छतके ऊपर स्थित होकर श्वेत काक पाँच बार जोर-जोरसे काँव-काँव करे, पुनः होकर तीन बार धीरे-धीरे काँव-काव करे तो उस घरकी सम्पत्ति एक वर्षमें विलीन हो जाती है। यदि यह घटना नगरके बाहर पश्चिम द्वार पर घटित हो तो नगरकी सम्पत्ति विलीन हो जाती है। नगरके मध्यमें किसी व्यन्तर की बाधा या व्यन्तरका दर्शन लगातार कई दिनों तक हो तो नगरकी श्री विलीन हो जाती है। यदि आकाशसे दिनभर धूल बरसती रहे, तेज वायु चले और दिन भयंकर मालूम हो तो उस नगरकी Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | चतुर्दशोऽध्यायः सम्पत्ति नष्ट होती है, जिस नगरमें यह घटना घटती है। जंगलमें गई हुई गायें मध्याह्नमें ही रंभाती हुई लौट आवें और वे अपने बछड़ोंको दूध न पिलावें तो सम्पत्तिका विनाश समझना चाहिए। किसी भी नगरमें कई दिनों तक संघर्ष होता रहे वहाँके निवासियोंमें मेलमिलाप न हो तो पांच महीनोंमें समस्त सम्पत्तिका विनाश हो जाता है। वरुण नक्षत्रका केतु दक्षिणमें उदय हो तो भी सम्पत्तिका विनाश समझना चाहिए। यदि लगातार तीन दिनों तक प्रातः सन्ध्याकाली, मध्याह्न सन्ध्या नीली और सायं सन्ध्या मिश्रित वर्णकी दिखलाई पड़े तो भय, आतंकके साथ द्रव्य विनाशकी भी सूचना मिलती है। रातको निरभ्र आकाशमें ताराओंका अभाव दिखलाई पड़े या ताराएँ टूटती हुई मालूम हो, तो रोग और धन नाश दोनों फल प्राप्त होते है। यदि ताराओं का रंग गरम के समान मालूम हो दक्षिण दिशा रुदन करती हुयी और उत्तर दिशा हंसती हुई सी दिखलाई पड़ें तो धन-धान्यका विनाश होता है। पशुओंकी वाणी यदि मनुष्यके समान मालूम हो तो धन-धान्यके विनाशके साथ संग्रामकी सूचना भी मिलती है। कबूतर अपने पंखोंको पटकता हुआ जिस घरमें उल्टा गिरता है और अकारण ही मृत जैसा हो जाता है, उस घर की सम्पत्तिका विनाश हो जाता है। यदि गाँव या नगरके बीस पच्चीस बच्चे जो नग्न होकर धूलिमें खेल रहे हों, वे अकस्मात् नष्ट हो गया 'नष्ट हो गया' इस शब्दका व्यवहार करें तो उस नगरसे सम्पत्ति रूठकर चली जाती है। रथ, मोटर, इक्का, रिक्शा, साइकिल आदि की सवारीपर चढ़ते ही कोई व्यक्ति पानी गिराते हुए दिखलायी पड़े तो भी धन नाश होता है। दक्षिण दिशाकी ओरसे शृगालका रोते हुए नगरमें प्रवेश करना धन-हानिका सूचक है। वर्षाभाव सूचक उत्पात-ग्रीष्म ऋतुमें आकाशमें इन्द्रधनुष दिखलाई पड़े, माघमासमें गर्मी पड़े तो उस वर्ष वर्षा नहीं होती है। वर्षाऋतुके आगमनसे कुहासा छा जावे तो उस वर्ष वर्षाका अभाव जानना चाहिए। आषाढ़ महीनेके प्रारम्भमें इन्द्रधनुषका दिखलाई पड़ना भी वर्षाभाव सूचक है। सर्पको छोड़कर अन्य जातिके प्राणी सन्तानका भक्षण करें तो वर्षाभाव और घोर दुर्भिक्षकी सूचना समझनी चाहिए। यदि चूहे लड़ते हुए दिखलाई पड़ें, रातके समय श्वेत धनुष दिखलायी दे, सूर्यमें छेद मालूम पड़ें, चन्द्रमा टूटा हुआ-सा दिखलाई पड़ें, धूलिमें चिड़ियाँ स्नान करें Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ भद्रबाहु संहिता और सूर्यके अस्त होते समय सूर्यके पास ही दूसरा उद्योतवाला सूर्य दिखाई दे तो वर्षाभाव होता है तथा प्रजाको कष्ट उठाना पड़ता है। अग्निभय सूचक - उत्पात — सूखे काठ, तिनके, घास आदिका भक्षण कर घोड़े सूर्यकी ओर मुँहकर हँसने लगे तो तीन महीने में नगरमें अग्नि प्रकोप होता है। घोड़ोंका जलमें हँसना, गायोंका अग्नि चाटना या खाना, सूखे वृक्षोंका स्वयं जल उठना, एकत्र घास या लकड़ीमेंसे स्वयं धुआँ निकलना, लड़कोंका आगसे खेल करना, या खेलते-खेलते बच्चे घरसे आग ले आवें पक्षी आकाशमें उड़ते हुए अकस्मात् गिर जावें तो उस गाँव या नगरमें पाँच दिनसे लेकर तीन महीने तक अग्निका प्रकोप होता है। राजनैतिक उपद्रव सूचक — जिस स्थान पर मनुष्य गाना गा रहे हों, वहाँ गाना सुननेके लिए यदि घोड़ी, हथिनी, कुत्तियाँ एकत्र हो तो राजनैतिक उपद्रव होते हैं। जहाँ बच्चे खेलते-खेलते आपसमें लड़ाई करें, क्रोधसे झगड़ा आरम्भ करें वहाँ युद्ध अवश्य होता है तथा राजनीतिके मुखियोंमें आपसमें फूट पड़ जाने से देशकी हानि भी होती है। बिना बैलोंका हल यदि आपमें आप खड़ा होकर नाचने लगे तो परचक्र जिस पार्टीका शासन है, उससे विपरीत पार्टीका शासन होता है। शासन प्राप्त पार्टी या दलको पराजित होना पड़ता है। शहरके मध्य में कुत्ते ऊँचा मुँह कर लगातार आठ दिन तक भोंकते दिखलाई पड़ें तो भी राजनैतिक झगड़े उत्पन्न होते हैं। जिस नगर या गाँव में गीदड़, कुत्ते और चूहा बिल्लीको मार लगावे, उस नगर या गाँवमें राजनीतिको लेकर उपद्रव होते हैं। उसमें अशान्ति इस घटना के बाद दस महीने तक रहती है। जिस नगर या गाँवमें सूखा वृक्ष स्वयं ही उखड़ता हुआ दिखलाई पड़े, उस नगर या गाँवमें पार्टी बन्दी होती है। नेताओं और मुखियोंमें परस्पर वैमनस्य हो जाता है, जिससे अत्यधिक हानि होती है। जनतामें भी फूट हो जानेसे राजनीतिकी स्थिति और भी विषम हो जाती है। जिस देश में बहुत मनुष्योंकी आवाज सुनाई पड़े, पर बोलनेवाला कोई नहीं दिखलाई दे, उस देश या नगर में पाँच महीनों तक अशान्ति रहती है। रोग बीमारीका प्रकोप भी बना रहता है । यदि सन्ध्या समय गीदड़, लोमड़ी किसी नगर या ग्रामके चारों ओर रुदन करें तो भी राजनैतिक झंझट रहता है। Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 | चतुर्दशोऽध्यायः वैयक्तिक हानि-लाभ चक उत्पात — यनि कोई व्यक्ति बार्जोके न बजाने पर भी लगातार सात दिनों तक बाजोंकी ध्वनि सुने तो चार महीनेमें उसकी मृत्यु तथा धन हानि होती है। जो अपनी नाकके अग्रभाग पर मक्खीके न रहने पर भी मक्खी बैठी हुई देखता है, उसे व्यापारमें चार महीने तक हानि होती है। यदि प्रातःकाल जागने पर हाथोंकी हथेलियों पर दृष्टि पड़ जाय तथा हाथमें कलश, ध्वजा और छत्र यों ही दिखलाई पड़ें तो उसे सात महीने तक धनका लाभ होता है तथा भावी उन्नति भी होती है। कहीं गन्धके साधन न रहने पर भी सुगन्ध मालूम पड़े तो मित्रों से मिलाप, शान्ति एवं व्यापारमें लाभ तथा सुखकी प्राप्ति होती है। जो व्यक्ति स्थिर चीजोंको चलायमान और चञ्चल वस्तुओंको स्थिर देखता है, उसे व्याधि, मरणभय एवं धननाशके कारण कष्ट होता है। प्रातःकाल यदि आकाश काला दिखलाई पड़े और सूर्यमें अनेक प्रकारके दाग दिखलाई दें तो उस व्यक्तिको तीन महीने के भीतर रोग होता है । ४१३ सुख दुःख की जानकारी के लिए अन्य फलादेश नेत्रस्फुरण — आँख फड़कने का विशेष फलादेश – दाहिनी आँखका नीचे का हिस्सा कानके पासका फड़कनेसे हानि, नीचेका मध्यका हिस्सा फड़कने से भय और नाकके पास वाला नीचेका हिस्सा फड़कनेसे धनहानि, आत्मीयको कष्ट या मृत्यु, क्षय आदि फल होते हैं। इसी आँख का ऊपरी भाग अर्थात् वरौनीका कानके पासवाला भाग फड़कनेसे हानि होती है । बायीं आँख का नीचेवाला भाग नाकके पासवाला भाग फड़कनेसे सुख, मध्यका हिस्सा फड़कनेसे मंत्र और कानके पासवाला नीचे का हिस्सा फड़कनेसे सम्पत्ति लाभ होता है। ऊपर बरौनीका नाकके पासवाला भाग फड़कने से भय, मध्यका हिस्सा फड़कनेसे चोरी या धनहानि और कानके पासवाला हिस्सा फड़कनेसे कष्ट, मृत्यु अपनी या किसी आत्मीयकी अथवा अन्य किसी भी प्रकारकी अशुभ सूचना चाहिए। साधारणतया स्त्रीकी बाँयी आँख का फड़कना और पुरुषकी दाहिनी आँखका फड़कना शुभ माना जाता है, पर विशेष जानने के लिए दोनों ही नेत्रों के पृथक्-पृथक् भागोंके फड़कनेका विचार करना चाहिए। Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ४१४ अंगस्फुरण फल-अंग फड़कने का फल स्थान फल स्थान स्थान फल मस्तक स्फुरण पृथ्वी लाभ वक्षःस्फुरण विजय कण्ठ स्फुरण ऐश्वर्य लाभ ललाट स्फुरण | स्थान लाभ हृदय स्फुरण वांछित सिद्धि | ग्रीवा स्फुरण रिपु भय कन्धा स्फुरण | भोग समृद्धि कटि स्फुरण प्रमोद-बल पृष्ठ स्फुरण | युद्ध पराजय भूमध्य सुख प्राप्ति वाघोलप प्राप्ति धूयुग्म महान् सुख नाभि स्फुरण स्त्री नाश मुख स्फुरण मित्र प्राप्ति कपाल फुरण | शुभ आंत्रक स्फुरण कोश वृद्धि बाहु स्फुरण | मधुर भोजन नेत्र स्फुरण धन प्राप्ति भग स्फुरण पति प्राप्ति बाहु मध्य धनागम नेत्रकोण स्फुरण लक्ष्मी लाभ कुक्षि स्फुरण सुप्रीति लाभ वस्तिदेश स्फुरण अभ्युदय नेत्रसमीप प्रिय समागम उदर स्फुरण कोश प्राप्ति उर:स्फुरण वस्त्र लाभ नेत्रपक्ष स्फुरण || सफलता, राज | लिंग स्फुरण स्त्रीलाभ जानु स्फुरण शत्रु वृद्धि सम्मान नेत्रपक्ष-पलक | मुकदमेमें विजय गुदा स्फुरण वाहन प्राप्ति जंधा स्फुरण | स्वामी प्राप्ति स्फुरण नेत्रकोपाम देश | कलत्र लाभ वषण स्फुरण पुत्र प्राप्ति पादोपरि स्थान लाभ स्फुरण नासिका स्कुरण प्रीति सुख ओष्ठ स्फुरण | प्रियवस्तु लाभ| पादतल नृपत्व हस्त स्फुरण | सद् द्रव्यलाभ | | हनु स्फुरण भय पाद स्फुरण अलाभ पल्लीपतन और गिरगिट आरोहण फल बोधक चक्र नासाग्र स्थान | फल स्थान | फल स्थान फल स्थान | फल स्थान | फल शिर | लाभ | ललाट | बन्धुदर्शन भ्रूमध्य राजसंबंध उत्तरोष्ठ | धननाश अधरोष्ट नवतुल्यता | व्याधि | दक्षिणकं. आयुवृद्धि वामकर्ण बहुलाभ नेत्र २ | धन प्राप्ति द. भुज बुद्धिनाश बामभुजा राजभय कंठ शत्रुनाश स्तनद्वय दुर्भाग्य उदर भूषणलाभपृष्ठदेश | बहुधन जानुय | शुभागम जंघा | शुभ हस्सदय वस्त्रलाभ स्कन्ध विजय प्राप्ति कटिभाग सवारी दक्षिण किष्ट, धन वाममणि कीर्ति नाशहदय धन लाभ नासिका मिष्ठान लाभ | मणिबंध नाश बंध भोजन गुल्फ बन्धन | केशान्त | मरण दक्षिणपाद गमन मुख | स्त्री नाश पादमध्य मरण Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽध्यायः पैर, जंघा, घुटने, गुदा और कमर पर छिपकली के गिरने से बुरा फल होता है, अन्यत्र प्राय: शुभ फल होता है। पुरुषोंके बायें अंगका जो फल बतलाया गया है, उसे स्त्रियोंके दाहिने भागका तथा पुरुषोंके दाहिने अंगके फलादेशको स्त्रियोंके बायेंभागका फल जानना चाहिए। छिपकलीके गिरनेसे और गिरगिटके ऊपर चढ़नेसे बराबर ही फल होता है। संक्षेप में बतलाया गया है। यदि पतित च पल्ली दक्षिणाने नराणां; स्वजनजनविरोधो वामभागे च लाभम्। उदरशिरसि कण्ठे पृष्ठभागे च मृत्यु; करचरणहृदिस्थे सर्वसौख्यं मनुष्यः॥ अर्थात् दाहिने अंगपर पल्ली पतन हो तो आत्मीय लोगोंमें विरोध हो और वाम अंग पर पल्लीके गिरनेसे लाभ होता है। पेट, सिर, कण्ठ, पीठपर पल्लीके गिरनेसे मृत्यु तथा हाथ, पाँव और छातीपर गिरने से सब सुख प्राप्त होते हैं। गणित द्वारा पल्ली पतन के प्रश्न का उत्तर 'तिथिप्रहरपुक्ता तारकावारीमानता, नाथस्तु हरेद् भागं शेष ज्ञेयं फलाफलम्। पातं नाशं तथा लाभंकल्याणं जयमङ्गले। उत्साहहानी मृत्युश्च छिक्का पल्लीच जाम्बुक।।' अर्थात--जिस दिन जिस प्रहरमें पल्ली पतन हुआ हो-छिपकली गिरी हो उस दिन की तिथि शुक्ल प्रतिपदासे गिनकर लेना, प्रातःकालसे प्रहर और अश्विनीसे पतनके नक्षत्र तक लेना अर्थात् तिथि संख्या, नक्षत्र संख्या और प्रहर संख्याको योग कर देना, उस योग में नौ का भाग देनेपर एक शेषमें घात, दो में नाश, तीनमें लाभ, चारमें कल्याण पाँचमें जय, छ:में मंगल, सातवेंमें उत्साह, आठमें हानि और नौ शेषमें मृत्यु फल कहना चाहिए। उदाहरण—रामलालके ऊपर चैत्र कृष्ण द्वादशीको अनुराधा नक्षत्रमें दिनमें १० बजे छिपकली गिरी है। इसका गणित द्वारा विचार करना है, अत: तिथि संख्या १७ (फाल्गुन शुक्ला १ से चैत्र कृष्णा द्वादशी तक) नक्षत्र संख्या १७ (अश्विनीसे अनुराधा तक), प्रहर संख्या २ (प्रातःकाल सूर्योदय से तीन-तीन घण्टेका एक-एक प्रहर लेना चाहिए) अत: २७ + १० + २ = ४६ में ९ का भाग देने पर ५ ल. शेष १ यहाँ उदाहरणमें एक शेष रहा है, अत: इसका फल घात होता है। किसी दुर्घटनाका शिकार यह व्यक्ति होगा। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ! पल्ली-पतनका फलादेश इस प्रकारका भी मिलता है तो प्रात:कालसे लेकर मध्याह्न काल तक पल्ली पतन होनेसे विशेष अनिष्ट, मध्याह्नसे सायंकाल तक पल्लीपतन होनेसे साधारण अनिष्ट और सन्ध्याकालके उपरान्त पल्ली-पतन होनेसे फलाभाव होता है। किसी-किसीका यह भी मत है कि तीनों कालोंकी सन्ध्याओंमें पल्लीपतन होने से अधिक अनिष्ट होता है। इसका फल किसी-न-किसी प्रकारकी अशुभ घटनाका घटित होना है। दिनमें सोमवारको पल्ली-पतन होने से साधारण फल, मंगलवारको पल्लीपतनका विशेष फल, बुधवारको पल्लीपतन होनेसे शुभ फलकी वृद्धि तथा अशुभ फलकी हानि, गुरुवारको पल्लीपतन होनेससे सामान्य फलादेश, शनिवारको पल्लीपतन होनेसे अशुभ फलकी वृद्धि और शुभ फलकी हानि एवं रविवारको पल्लीपतन होनेसे शुभ फल भी अशुभ फलके रूपमें परिणत हो जाता है। पल्लीपतनका अनिष्ट फल तभी विशेष होता है, जब शनि या रविवारको भरण या आश्लेषा नक्षत्रमें चतुर्थी या नवमी तिथिको सन्ध्याकालमें पल्ली-छिपकली गिरती है। इसका फल मृत्युकी सूचना या किसी आत्मीयकी मृत्यु सूचना अथवा किसी मुकद्दमेकी पराजय की सूचना समझनी चाहिए। इति श्री पंचम श्रुत केवली दिगम्बराचार्य भद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिता का उत्पात व उसके फलों का वर्णन करने वाला चौदहवाँ अध्याय का हिन्दी भाषानुवाद करने वाली क्षेमोदर टीका समाप्तः। (इति चर्तुदशोऽध्यायः समाप्तः) Saroka । Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशोऽध्यायः ग्रहचार का लक्षण अथातः सम्प्रवक्ष्यामि ग्रहचारं जिनोदितम्। तत्रादितः प्रवक्ष्यामि शुक्रचारं निबोधत ॥१॥ (अथात:) अब मैं (जिनोदितम्)) भगवान के द्वारा कहा हुआ (ग्रहचार) ग्रहचारको (सम्प्रवक्ष्यामि) कहूँगा (तत्रादित:} उसमें पहले (शुक्रचार) शुक्राचार को (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा (निबोधत) आप सब जानो। भावार्थ-अब मैं जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा हुआ ग्रहवार को कहूँगा, उसमें सबसे पहले शकानार याने शक के संचार को कहूँगा। सो आप सबके लिये अच्छी तरह से जानने के योग्य है||१|| भूतं भव्यं भववृष्टिमवृष्टिं भयमग्निजम्। जयाऽजयोरुजं चापि सर्वान् सृजति भार्गवः ॥२॥ (भूतं भव्य) भूतकाल, भविष्यतकाल (भवद्) फल, (वृष्टिं) वर्षा (अवृष्टि) वर्षा का नहीं होना (भयम्) भय (अग्निजम्) अग्निका प्रकोप, (जयाऽजयोरुज) जय, पराजय, रोग (चापि) आदि भी (सर्वान्) सबको (सृजति) सृजन (भार्गव:) शुक्र करता है। भावार्थ-भूत, भविष्यत, फल, वर्षा, अवृष्टि, भय, अग्नि का प्रकोप जय, पराजय, रोग आदि सबकी उत्पत्ति शुक्र करता है।। २॥ नियन्ते वा प्रजास्तत्र वसुधा वा प्रकम्पते। दिवि मध्ये यदा गच्छेदर्धरात्रेण भार्गवः ॥३॥ (यदा) जब (दिविमध्ये अर्धरात्रेण भार्गव:) सूर्य कि स्थिति में स्थित होकर अर्ध रात्रि में शुक्र जब (गच्छेद) संचार करता है तो (तत्र) वहाँ पर (प्रजाः म्रियन्ते बा) प्रजा मर जाती है वा (वसुधा वा प्रकम्पते) पृथ्वी काँपती है। Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ — जब अर्धरात्रि में शुक्र संचार करता है तब वहाँ की प्रजा को मरण भय होता है अथवा भूमि कम्प होता है, लेकिन सूर्य की स्थिति में स्थित होना चाहिये शुक्र ॥३॥ दिवि मध्ये यदा दृश्येच्छुक्रः सूर्यपथास्थितः । कुर्याद्विशेषाद्वर्णसङ्करम् ॥ ४ ॥ सर्वभूतभयं (दिविमध्ये यदाहश्येत् ) सूर्य की स्थिति में स्थित होकर (छुक्रः) शुक्र ( सूर्यपथास्थितः ) सूर्य पथ पर दिखे तो ( सर्वभूत भयंकुर्याद) सम्पूर्ण जीवों को भय करता है, उसमें भी (विशेषाद्वर्णसङ्करम् ) विशेष रीति से वर्ण संकरों को भय होता है। ४१८ भावार्थ-जब शुक्र सूर्य की स्थिति में स्थित होकर सूर्य पथ पर दिखे तो सब जीवों को भय होता है, विशेष प्रकार से वर्ण संकरों को ज्यादा भय होता है ॥ ४॥ अकाले उदितः शुक्रः प्रस्थितो वा यदा भवेत् । तदा त्रिसांवत्सरिकं ग्रीष्मे वपेत्सरसु खा ॥ ५ ॥ ( यदा) जब (शुक्रः) शुक्र (अकाले उदितः प्रस्थितो भवेत् ) अकालमें उदय या अस्त होता हुआ दिखे तो ( तदा ) तब (त्रिसांवत्सरिकं ) तीन वर्ष तक (ग्रीष्मे वपेत्सरसु वा ) ग्रीष्म व शरद ऋतु में महामारी होती है। भावार्थ- जब शुक्र अकाल में उदय या अस्त होता हुआ दिखाई तो तीन वर्ष तक गर्मी व शरद् ऋतु में महामारी का भय होता है ॥ ५ ॥ गुरु भार्गव चन्द्राणां रश्मयस्तु यदा एकाहमपि दीप्यन्ते तदा विन्द्याद्भयं हता: । खलु ॥ ६ ॥ ( यदा) जब ( गुरु भार्गव चन्द्राणां रश्मयस्तु हताः ) गुरु शुक्र और चन्द्रमा की किरणें घातित होकर ( एकाहमपि दीप्यन्ते) एक दिन भी दीप्त होती है ( तदा ) तब ( खलु ) निश्चय से ( विन्द्याद्भयं ) भय समझो । भावार्थ — जब गुरु शुक्र चन्द्र की किरणें घातित करता हुआ एक दिन भी दीप्त दिखे तो निश्चय से भय होगा समझो ॥ ६ ॥ r " Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१९ पञ्चदशोऽध्यायः भरण्यादीनि चत्वारि चतुर्नक्षत्रकाणि हि। षदेव मण्डलानिस्युस्तेषां नामानि लक्षयेत्।। ७॥ (भरण्या दीनि चत्वारि) भरणी नक्षत्र से आदि लेकर चार-चार (चतुर्नक्षत्रकाणि हि) नक्षत्रों के (षडेवमण्डलानिस्युः) छ; मण्डल होते है (तेषां) उनके (नामानि लक्षयेत्) नाम अवगत करना चाहिये। भावार्थ-भरणी नक्षत्र से लेकर चार-चार नक्षत्रों में छह-छह मण्डल होते हैं उनके नाम अवगत करना चाहिये।।७॥ सर्वभूतहितं रक्तं परुषं रोचनं तथा। ऊवं चण्डं च तीक्ष्णं च निरुक्तानि निबोधत ॥८॥ (सर्वभूतहित) सम्पूर्ण प्राणियों के हित के लिये (रक्त) लाल (परुष) पुरुष (रोचन) दीप्तिमान् (ऊर्ध्वं) ऊपर (चण्ड) चण्ड (च) और (तीक्ष्णं च) तीक्ष्ण यह छह मण्डल (निरुक्तानि) कहे गये है (निबोधत) उसको जानना चाहिये। भावार्थ-सब प्राणियों के हित के लिये लाल, कठोर, प्रकाशमान, ऊर्ध्व, चण्ड, तीक्ष्ण ये छह मण्डल है आचार्य श्री ने कहे है आप जानो।।८।। चतुष्कं च चतुष्कञ्च पञ्चकं त्रिकमेव च। पञ्चकं षट्कविज्ञेयो भरण्यादौ तु भार्गवः ॥ ९॥ (चतुष्कं च चतुष्कञ्च) भरणी से चार नक्षत्र, आर्द्रा से चार नक्षत्र (पञ्चक त्रिकमेव च) और मघा से पाँच नक्षत्र, स्वाति से तीन नक्षत्र (पञ्चकं) ज्येष्ठा से पाँच नक्षत्र (षट्कविज्ञेयो) धनिष्ठा से छहं नक्षत्र जानना चाहिये (भरण्यादौ तु भार्गवः) भरणी आदि से शुक्र के यह छह मण्डल है। भावार्थ-भरणी से चार नक्षत्र लेना भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, यह प्रथम मण्डल हुआ, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य और आश्लेषा यह दूसरा मण्डल है मघा, पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी हस्त और चित्रा यह तीसरा मण्डल है, स्वाति, विशाखा और अनुराधा यह चतुर्थ मण्डल है। ज्येष्ठ मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा और श्रावण यह पाँचवा मण्डल है। धनिष्ठा, शतभिखा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ४२० और रेवती यह छठा मण्डल है। इन मण्डलों के नाम क्रमशः लाल, पुरुष, रोचन, ऊर्ध्व, चण्ड और तीक्ष्ण है॥९॥ प्रथमं च द्वितीयं च मध्यमे शुक्र मण्डले। तृतीयं पञ्चमं चैव मण्डले साधुनिन्दिते ।। १०॥ (शुक्र) शुक्र के (प्रथमं च द्वितीयं च) प्रथम और द्वितीय (मण्डले) मण्डल (च मध्यमें) और मध्य हैं (तृतीयं पञ्चमं चैव मण्डले) तीसरा और पाँचवा मण्डल (साधुनिन्दिते) साधुओं के निन्दित हैं। भावार्थ-शुक्र का प्रथम और द्वितीय मण्डल मध्यम है पञ्चम और तृतीय मण्डल साधुओं के द्वारा निन्दित है। चतुर्थ चैव षष्टं च मण्डले प्रवरे स्मृते। आद्ये द्वे मध्यमे विन्द्यानिन्दिते त्रिकपञ्चमे॥११ ।। (चतुर्थं चैव षष्टं च) चौथा और छठा (मण्डले प्रवरे स्मृते) मण्डल उत्तम हैं (आद्ये द्वे मध्यमे विन्द्यान्) आदिके दो मध्यम मण्डल है (त्रिकपञ्चमे निन्दिते) तीसरा और पांचवाँ निन्दित है भावार्थ-चतुर्थ और षष्ठ मण्डल उत्तम है आदि के दो मध्यम है तीसरे और पाँचवे मण्डल निन्दित हैं।।११।।। श्रेष्ठे चतुर्थषष्ठे च मण्डले भार्गवस्य हि। शुक्लपक्षे प्रशस्येत् सर्वेष्वस्तमनोदये।। १२॥ (शुक्लपक्षे) शुक्ल पक्ष में अनुदित (अस्तं) अस्त (भार्गवस्यहि) शुक्र के (चतुर्थषष्टे च मण्डले श्रेष्ठे सर्वे प्रशस्येत्) चतुर्थ और षष्ठ जो मण्डल है उसको सर्व प्रकार से श्रेष्ठ माना गया है। - भावार्थ-शुक्लपक्ष में कहे गये अस्त शुक्र के चौथे और छठे मण्डल की प्रशंसा की गई है, उसीको प्रशस्त माना है॥१२॥ अथ गोमूत्र गतिमान् भार्गवो नाभिवर्षति। विकृतानि च वर्तन्ते सर्वमण्डलदुर्गतौ ।। १३॥ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१ पञ्चदशोऽध्यायः (अथगोमूत्र गतिमान्) गोमूत्र के समान चलने वाला (भार्गवो) शुक्र (नाभिवर्षति) नहीं वर्षा होती है (सर्वमण्डल दुर्गतौ) अन्य सभी मण्डलों में रहने वाले शुक्र (विकृतानि च वर्तन्ते) उत्पातकारक है। भावार्थ-जो गोमूत्र के समान टेड़ा चलने वाला शुक्र वर्षा नहीं होने देता है। चौथा और छठा मण्डल शुक्र छोड़कर अन्य सभी मण्डलों में रहने वाला शुक्र विकृत मनात करने वाला होता हैं।।:३१ प्रथमे मण्डले शुक्रो यदास्तं यात्युदेति च। मध्यमा सस्य निष्पत्तिमध्यमं वर्षमुच्यते ॥ १४ ॥ (प्रथमे मण्डले शुक्रो) प्रथम मण्डलमें शुक्र (यदास्तं यात्युदेति च) जब उदय या अस्त हो तो (मध्यम वर्ष मुच्यते) वर्षा मध्यम होती है (सस्यनिष्पत्ति: मध्यमा) धान्यो की उत्पति भी मध्यम होती है। भावार्थ-प्रथम मण्डल में शुक्र याने भरणी कृत्तिका, रोहिणी और मृगशिरा नक्षत्रमें अस्त हो या उदय हो तो उस वर्ष वर्षा मध्यम होती है और धान्य भी मध्यम होता है।।१४॥ भोजान् कलिङ्गानुङ्गांच काश्मीरान् दस्यु मालवान्। यवनान् सौर सेनांश्च गोद्विजान् शबरान् वधेत्॥१५॥ (भोजान्) भोज (कलिऑनुगांश्च) कलिङ्ग, उङ्ग (काश्मीरान्) काश्मीर, (दस्यु) यवन् (मालवान्) मालव (यवनान्) यवन देश (सौर सेनांश्च) सोरसेन और (गोद्विजान्) गोत्र, द्विज, (शबरान्) और शबरों का उक्त प्रकार का शुक्र अस्त उदय हो तो वध करता है। भावार्थ-भोज कलिंग, उङ्ग काश्मीर यवन, मालव सोरसेन गोत्र द्विज और शबरों का उक्त शुक्र अस्त या उदय हो तो समझो इन सबका वध होता है, उक्त प्रदेश के लोगों का वध होता है।। १५|| पूर्वतः शीर कालिङ्गान् मागधो जयते नृपः। सुभिक्षं क्षेममारोग्यं मध्य देशेषु जायते॥१६॥ (पूर्वतः) पूर्व में (शीर: कालिनान्) शीर और कालिङ्ग (मागधो नृपः जयते) Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ४२२ मागध का राजा जीतता है (मध्यदेशेषु) मध्यदेशमें (सुभिक्षं क्षेममारोग्यं जायते) सुभक्षि क्षेम और निरोगता का बढ़ाता है। भावार्थ-यदि उपर्युक्त शुक्र पूर्व में हो तो, शीर और कलिङ्ग देश के मागधराजा जीतता है तथा मध्यमें हो तो सुभिक्ष, क्षेम, निरोगता बढ़ती है।। १६॥ यदाचान्ये तिरोहन्ति तत्रस्थं भार्गवं ग्रहाः । कुण्डानि अङ्गा वधयः क्षत्रियाः लम्बशाकुनाः ।। १७॥ धार्मिका: सूर सेनाश्च किराता मांससेवकाः । यवना भिल्लदेशाश्च प्राचीनाश्चीन देशजाः ॥१८॥ (यदा) जब (अन्ये) अन्य (ग्रहा:) ग्रह (भार्गव) शुक्रको (तत्रस्थ) वहाँ पर (तिरोहन्ति) तिरोहित करते हैं तो (कुण्डानि अङ्गा) विदर्भ अङ्ग देशके (क्षत्रियाः) क्षत्रिय (लम्बशाकुना:) लवादिपक्षियों का वध करते है, (धार्मिकाः सूरसेनाश्च) धार्मिक सूरसेन और (किराता) किरात वर्ग (मासंसेवका:) मांस भोजीवर्ग (यवना) यवन देशवासी, (भिल्लदेशाच) भिल्ल देश के वासियों को (प्राचीना चीनदेशजा:) और प्राचीन चीन देशवासियों को शुक्र की पीड़ा होती है। भावार्थ-जब अन्य ग्रह शुक्र को आच्छादित करे तो विदर्भ अंग देश के क्षत्रिय लम्बपक्षियों का वध करते हैं, धार्मिक सूरसेनवासी, मांसहार करने वाले किरात, यवन, भील चीन देश वासियोंको शुक्रकी पीड़ा होती है।। १७-१८॥ द्वितीयमण्डले शुक्रो यदास्तं यात्युदेति वा। शारदस्योपघाताय विषमां वृष्टिमादिशेत् ।। १९॥ (यदा) जब (द्वितीयमण्डले शुक्रो) द्वितीयमण्डल में शुक्र (अस्तं यात्युदेति वा) अस्त ही या उदय हो तो (शारदस्ययघाताय) शरदऋतु के फल नष्ट हो जाते हैं (वृष्टिं विषमां आदिशेत्) और वर्षा हीनाधिक होती हैं। भावार्थ-जब द्वितीय मण्डल में शुक्र अस्त हो तो शरद ऋतु के फलादि सब नष्ट हो जाते हैं और वर्षा हीनाधिक होती है॥१९॥ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२३ पञ्चदशोऽध्यायः अहिच्छत्रं च कच्छं च सूर्यावर्त च पीडयेत्। ततोत्पात निवासानां देशानां क्षयमादिशेत् ॥२०॥ (अहिच्छत्रं च कच्छंच) अहिच्छत्र देश और कच्छ देश (सूर्यवर्त च पीडयेत) सूर्यावर्त को भी पीड़ा होती है और (ततोत्पातनिवासानां) उससे उत्पात देश वासियों का (देशानां क्षयमादिशेत्) क्षय होता है। भावार्थ-अहिच्छत्र वासियों को व कच्छ देशवासियों को सूर्यावत वालों को पीड़ा होती है और शुक्र के उत्पात वाले देशवासियों का क्षय होता है॥२० ।। यदा वाऽन्ये तिरोहन्ति तत्रस्थं भार्गवं ग्रहाः । निषादाः पाण्डवाम्लेच्छा: सङ्कुलस्थाश्च साधवः ।। २१॥ कौण्डजा: पुरुषादाश्चशिल्पिनो बर्बरा: शकाः । वाहीका यवनाश्चैव मण्डूकाः केकरास्तथा ।। २२॥ पाञ्चाला: कुरवश्चैव पीड्यन्ते सयुगन्धरा: (गान्धाराः)। एकमण्डलसंयुक्ते भार्गवे पीडितेफलम्॥२३॥ (यदा) जब द्वितीय मण्डल स्थित (भार्गवं) शुक्र को (वाऽन्ये) अन्य (ग्रहाः) ग्रह (तत्रस्थं तिरोहन्ति) वहाँ पर तिरोहित करते हैं तो, (निषादा:) निषाद (पाण्डवाम्लेच्छा:) पाण्डव, म्लेच्छ, (सङ्कुलस्थाश्च) कुल और (साधव:) साधु (कौण्डजाः) कोण्डेय (पुरुषादाश्च) पुरुषार्थी (शिल्पिनो) शिल्पि (बर्बरा) बर्बर, (शकाः) शक (वाहीका) वाहिका, (यवनाश्चैव) यवन, (मण्डूकाः) मण्डूक (केकरास्तथा) केकर तथा (पाञ्चाला:) पाञ्चाल, (कुरवश्चैव) कौरव (सयुगन्धरा) व गांधार देश को पीड़ा होती हैं (एकमण्डलसंयुक्ते) यह एक मण्डल शुक्र से संयुक्त (भार्गवे) शुक्र के (पीडितेफलम्) पीडा होना फल है। भावार्थ-जब द्वितीय मण्डल में स्थित शुक्र को अन्य ग्रह आच्छादित करे तो समझो निषाद, पाण्डव, म्लेच्छ, संकुल, साधु, कोण्डेज, पुरुषार्थी, शिल्पी, बर्बर, शक, वाहिक, यवन, मण्डूका, केकर, पाञ्चाल, कौरव व गांधार देशादिक के लोग पीड़ित होते हैं यह एकमण्डल स्थित शुक्र का फल है, इस प्रकार का शुक्र बको पीड़ा देता है॥२१-२२-२३॥ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता तृतीये मण्डले शुक्रो यदास्तं यात्युदेति वा । तदा धान्यं सनिचयं पीडयन्ते व्यूह केतवः ॥ २४ ॥ यदि (तृतीयेमण्डले शुक्रो ) तीसरे मण्डल में स्थित शुक्र ( यदास्तं यात्युदेति वा ) उदय या अस्त हो तो, (तदा) तब ( धान्यं) धान्य (सनिचयं पीडयन्ते व्यूह केतवः) और उसका समूह पीड़ा को प्राप्त होता है। भावार्थ-यदि तीसरे मण्डल में स्थित शुक्र अस्त हो या उदय हो तो समझो धान्यों का समूह नाश को प्राप्त हो जायगा ॥ २४ ॥ धाना: कालकूटश्च कुनाटाश्च कुरुपाञ्चालाश्चातुवर्णश्च पर्वतः । पीड्यते ॥ २५ ॥ ४२४ वाट ऋषय: ( वाट धानाः ) वाट धान ( कुनाटाश्च) कुनाट् ( कालकूटश्च पर्वतः ) कालकूट पर्वत (ऋषयः ) ऋषि ( कुरुपाञ्चाला:) कुरु, पाञ्चाल, (चातुर्वर्णश्च) और चातुवर्ण को ( पीड्यते) पीडा होती हैं। भावार्थ - तृतीय मण्डल का उदय अत शुक्र, वाट धान, कुनाट् कालकूट पर्वत, ऋषि, कुरु, पाञ्चाल और चातुवर्ण को लोगों की पीड़ा देता है॥ २५ ॥ वाणिजश्चैव कालज्ञः पण्या वासास्तथाऽश्मकाः । अवन्तिश्चापरान्ताश्च सपल्या: स चराचराः ।। २६॥ पीडयन्ते भयेनाथ क्षुधारोगेण चार्दिताः । महान्तश्शवराचैव पारसीकास्तथावनाः ॥ २७ ॥ (वाणिजश्चैवकालज्ञः) व्यापारी, ज्योतिषि, (पण्या) दुकानदार (वास्तथाऽश्मका) वनवासी, ऋषिमुनि, (अवन्तीश्चापन्ताश्च) अवन्ति निवासी, विपरीत दिशा में रहने वाले, (सपल्या: स चराचराः) गोमांस भक्षी शवरादी वासी को भी ( पीडयन्ते) पीडा होती है ( भयेनाथ क्षुधारोगेणचार्दिताः) भय और क्षुधा रोग भी पीड़ित होते हैं ( महान्तश्शवराश्चैव ) महान शवरादिक भी और (पारसीका: ) पारसी लोग (सयावना) और यवन लोग भी पीड़ित होते हैं। भावार्थ - उपर्युक्त मण्डल हो तो व्यापारी, ज्योतिषि, दुकानदार, वनवासी, Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२५ पञ्चदशोऽध्यायः ऋषि मुनि, अवन्तिनिवासी और उससे विपरीत दिशा में रहने वाले गोमांस भक्षी शदिवासी और पारसी आदि भी पीड़ित होते हैं और महान् भय, रोग आदि से पीड़ित होते हैं । २६-२७॥ चतुर्थेमण्डले शुक्रो कुर्यादस्तमनोदयम् । तदा सस्यानि जायन्ते महामेघाः सुभिक्षदाः ॥ २८ ॥ (चतुर्थेमण्डले शुक्रो ) चतुर्थ मण्डल का शुक्र (कुर्यादस्तमनोदयम्) यदि अस्त और उदय हो तो ( तदा) तब ( महामेघाः ) महान वर्षा होता है (सुभिक्षदा : ) सुभिक्ष करने वाला होता है ( सस्यानि जायन्ते ) धान्यो की उत्पत्ति अच्छी कराता हैं। भावार्थ-चतुर्थ मण्डल का शुक्र यदि उदय और अस्त हो तो समझो धान्य की उत्पत्ति अच्छी होगी, सुभिक्ष होगा, वर्षा भी महान् होगी ॥ २८ ॥ प्रजानां विद्यादुत्तमं ( पुण्यशीलो जनो राजा ) राजा भी पुण्यशाली होगा, (प्रजानां मधुरोहितः) प्रजा और पुरोहित धर्मात्मा होंगे, (बहुधान्यां महीं) पृथ्वी पर बहुत धान्य उत्पन्न होंगे, (उत्तमदेवर्षणम् विद्याद्) उस वर्ष वर्षा भी उत्तम जानो । पुण्यशीलो जनो राजा बहुधान्यां महीं मधुरोहितः । देववर्षणम् ।। २९ ।। भावार्थ --- राजा पुण्यशाली होगा, प्रजा और पुरोहित धर्मात्मा होंगे, पृथ्वी पर बहुत धान्य उत्पन्न होंगे, वर्षा भी उत्तम होगी ॥ २९ ॥ अन्तवश्चादवन्तश्च शूलका : बाह्यो वृद्धोऽर्थवन्तश्च पीडयन्ते कास्यपास्तथा । सर्षपास्तथा ॥ ३० ॥ (अन्तवश्चादवन्तश्च ) अन्तद्या अवन्ति (शूलका) शूलका, ( कास्यपास्तथा ) तथा कास्य, (बाह्योवृद्धोऽर्थ वन्तश्च ) और भी बाहर से आने वाली वृद्धो व सभी ( सर्षपास्तथा ) रोग होंगे व सर्पों को भी रोग होगा । भावार्थ - उपर्युक्त शुक्र हो तो अन्नधारोग, अवन्ति रोग, शूल रोग, कास्य रोग होंगे, वृद्धों को पीड़ा होगी, सर्प को भी पीड़ा होगी ये रोग फैल जायगा ॥ ३० ॥ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता । ४२६ यदा चान्ये ग्रहा यान्ति गैरवा म्लेच्छासकुलाः। टणाश्च पुलिन्दाश्च किराताः सौरकर्णजाः ।। ३१॥ (यदाचान्यग्रहायान्ति) यदि शुक्र अन्य ग्रहों द्वारा आच्छादित हो तो (रौर वा) रौरव (म्लेच्छ सङ्घला) म्लेच्छ, संकुल, (टंकणाश्च) और टंकण देशवासी, (पुणिन्दाश्च) पुलिन्द (किराता:) भील, (सौरकर्णजाः) सौर कर्णज। भावार्थ-यदि शुक्र अन्य ग्रहों द्वारा आच्छादित हो तो रौरव, मलेच्छ, संकुल और टंकण देशवासी, पुलिन्द, भील, सौर कर्णज और पूर्ववत् अन्य सभी दुर्भिक्ष से पीड़ित होते है।। ३१॥ पीड्यन्तेपूर्ववत्सर्वे दर्भिक्षेण भयेन च। ऐक्ष्वाको नियते राजा शेषाणां क्षेममादिशेत्॥३२ ।। ये सब (पूर्ववत्सर्वे) पहले के समान ही (दुर्भिक्षेण भयेन च) दुर्भिक्ष और भय से (पीड्यन्ते) पीड़ित होते हैं और (ऐक्ष्वाको म्रियते राजा) इक्ष्वाकुंवासी राजा का मरण होता है (शेषाणां क्षेममादिशेत) शेष बाकी बच्चे सबको क्षेम होता है। भावार्थ-उपर्युक्त कथनानुसार ये सब पहले के समान ही दुर्भिक्ष और भय से पीड़ित होते हैं और इक्ष्वाकुवासी राजा का मरण होता है बाकी बचे हुए को क्षेम होता है।। ३२॥ यदातुपञ्चमे शुक्रः कुर्यादस्तमनोदयौ। अनावृष्टिभयं घोरं दुर्भिक्षं जनयेत् तदा ।। ३३॥ (यदातुपञ्चमे शुक्रः) जब पंचम मण्डल में शुक्र (कुर्यादस्तमनोदयौ) उदय अस्त हो तो समझो (तदा) तब (अनावृष्टि घोरं भयं) घोर अनावृष्टि का भय होगा (दुर्भिक्षं जनयेत्) दुर्भिक्ष को उत्पन्न करेगा। भावार्थ-यदि पंचम मण्डल में शुक्र उदय या अस्त हो तो समझो वहाँ पर अनावृष्टि होगी, दुर्भिक्ष पड़ेगा ।। ३३ ।। । सर्वश्वेतं तदा धान्यं क्रेतव्यं सिद्धिमिच्छता। त्याज्यादेशास्तथा चेमे निर्ग्रन्थैः साधुवृत्तिभिः ॥ ३४।। Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७ पञ्चदशोऽध्यायः (सिद्धिमिच्छता) सिद्धि को चाहने वाले लोगों को चाहिये की वो (सर्वश्वेतं तदा धान्यं क्रेतव्यं) सब प्रकार के सफेद पदार्थ धान्यों को खरीद लेना चाहिये (तथा) तथा (चेमे देशा:) देशवासियों को व ( निर्ग्रन्थैः साधुवृत्तिभिः) साधुवृत्ति वाले निग्रन्थों को (त्याज्या) देश का त्याग कर देना चाहिये । भावार्थ- सुख की इच्छा करने वालों को चाहिये की वो सफेद पदार्थ व धान्यों को खरीदे, निर्ग्रन्थ साधु उस देश को छोड़कर अन्यत्र विहार करे ॥ ३४ ॥ स्त्रीराज्यं ताम्रकर्णाश्च कर्णाटा: कमनोत्कटाः । बाह्रीकाश्चविदर्भाश्च मत्स्य काशीसतस्कराः ॥ ३५ ॥ स्फीताश्च रामदेशाश्च सूरसेनास्तथैव च । जायन्ते वत्सराजाश्च परं यदि तथा रोगेभ्यश्चतुर्भागे हताः ॥ ३६ ॥ भविष्यति । चान्येषु भद्रबाहुवचो यथा ॥ ३७ ॥ मरण क्षुधा एषु देशेषु चान्येषु ( स्त्रीराज्यं ) स्त्री राज्य में (ताम्रकर्णाश्च) ताम्र कर्ण और ( कर्णाटा:) कर्नाटक (कमनोत्कटाः) आसाम (बाहीकाश्च) बाह्लीक (विदर्भाश्च) विदर्भ (मत्स्य) मत्स्य (काशी) काशी ( सतस्काराः) तस्कर, (स्फीताश्च) स्फीत (रामदेशाश्च) और रामदेश ( सूरसेनासस्तथैव च ) सौर सेन देश और ( वत्स राजाश्च) वत्स राजा आदि देशों में (यदि ) यदि ( परं तथाहता: जायन्ते) परं उपर्युक्त शुक्तहत होता है तो ( क्षुधा ) भूख, ( मरण) मरण (रोगेभ्यः) रोगों के द्वारा (एषुदेशेषु चान्येषु) इन देशों का (चतुर्भागे भविष्यति ) प्रजा चतुर्थ भाग कष्ट में (भविष्यति ) हो जायगी (भद्रबाहुवचो यथा ) ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है। भावार्थ — स्त्रीराज्य, ताम्रकर्ण, कर्नाटक, कमनोत्कटा, बाह्लीक, विदर्भ, मत्स्य, काशी, तस्कर, स्फीत, रामदेश, सूरसेन, वत्सराज आदि राज्योंकी प्रजा कम से कम चौथाई भाग क्षुधा, मरण, रोगों के द्वारा कष्ट में हो जायगी ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है ।। ३५-३६-३७ ॥ यदा चान्येऽभिगच्छन्ति तन्त्रस्थं भार्गवं ग्रहाः । सौराष्ट्राः सिन्धुसौवीराः मन्तिसाराश्चसाधवः ॥ ३८ ॥ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ४२८ अनार्याः कच्छयौधेयाः सांदृष्टार्जुन नायकाः। पीड्यन्ते तेषु देशेषु म्लेच्छों वै म्रियते नृपः॥ ३९ ।। (यदा) जब (चान्ये) अन्य (ग्रहा:) ग्रह (तत्रस्थं) वहाँ के (भार्गवं) शुक्र को (अभिगच्छन्ति) का घात करे तो (सौराष्ट्राः) सौराष्ट्र देश (सिन्धुसौवीरा:) सिन्धु देश, सौवीर देश, (मन्तिसाराश्च) अन्तिसार देश (साधवः) साधु जन (अनार्या:) अनार्यदेश, (कच्छयौधेयाः) कच्छ देश, यौधेय देश, (सांदृष्टार्जुन नायका:) न देशों से विरोध करना ठीक नहीं सन्धि कर लेनी चाहिये राजाओं को (तेषु) इन (देशेषु) देशों में (पीड्यन्ते) पीड़ा होती है (म्लेच्छो वै म्रियन्ते नृपः) तथा म्लेच्छ देश के राजा का मरण होता हैं। भावार्थ-जब पंचम मण्डल में शुक्र अन्य ग्रहों के द्वारा अगर घात किया जाता है तो समझो सौराष्ट्र, सिन्धु, सौवीर, मतिसार (अन्तिसार देश) और साधुजन, अनार्य देश, कच्छ देश, योधैयदेश के साथ सन्धि कर लेनी चाहिये। इन देश के लोगों को पीड़ा होती है और म्लेच्छ देश के राजा का मरण होता है।। ३८-३९ ।। यदा तु मण्डले षष्ठे कुर्यादस्तमथोदयम्। शुक्रस्तदा प्रकुर्वीत भयानि तत्र क्षुद्भयम् ।। ४०॥ __(यदा) जब (षष्ठेमण्डले) छठे मण्डल में (शुक्र) शुक्र (अस्तमथोदयम्) अस्त या उदय (कुर्याद्) होता है (तु) तो (तदा) तब (तत्र) वहाँ पर (क्षुद्भयम् भयानि प्रकुर्वीत) शुद्र भयों को उत्पन्न करता है। भावार्थ-जब छठे मण्डल में शुक्र उदय या अस्त होता हो तो शुद्र भय उत्पन्न करेगा॥४०॥ रसाः पाञ्चाल बाह्रीका गन्धाराश्च गवोलकाः। विदर्भाश्च दशार्णाश्च पीड्यन्ते नात्र संशयः॥४१॥ द्विगुणं धान्य मर्पणनोत्तरं वर्षयेत् तदा। क्षतैः शस्त्रं च व्याधि च मूर्छयेत् तादृशेन यत् ।। ४२॥ (रसा: पाञ्चाल बाह्रीका) वत्स, पाञ्चाल, बाह्रीक, (गन्धाराश्च) गान्धार Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२९ पञ्चदशोऽध्यायः और (गवोलकाः) गवोलक (विदर्भाश्च) विदर्भ (दशार्णाश्च) दशार्णादि देशों के जन (पीड्यन्ते) पीड़ित होते हैं (नात्र संशयः) इसमें सन्देह नहीं हैं (द्विगुणधान्य मर्पण) धान्य का भाव द्विगुण महँगा होगा, (नोत्तरं वर्षयेत् तदा) तब वर्षा भी उत्तम भाग में नहीं होगी (तादृशेनयत्) इस प्रकार के शुक्र में (क्षतैः शस्त्रं च) शस्त्र घात और (व्याधि च) व्याधियाँ (मूर्छयेत्) मूर्छा उत्पन्न होती हैं। भावार्थ-उपर्युक्त मण्डल में शुक्र हो तो वत्स, पाञ्चाल, बाहीक, गान्धार, गवोलक, विदर्भ, दशार्णादि देशों के लोग पीड़ित होते हैं इसमें सन्देह नहीं है, द्विगुरा धान्य महँगा होता है चातुर्मास के अन्तिम दो महीने में वर्षा नहीं होती है याने आश्विन और कार्तिक में वर्षा नहीं होती है शस्त्र घात होगा, व्याधियों और मूर्छा रोग होगा॥४२॥ यदा चान्येऽभिगच्छन्ति तत्रस्थं भार्गवं ग्रहाः। हिरण्यौषधयश्चैव शौण्डिका दूतलेखकाः ।। ४३ ।। काश्मीरा बर्बराः पौण्ड्राभृगुकच्छं अनुप्रजाः। पीड्यन्तेऽवान्तिगाश्चैव नियन्ते च नृपास्तथा॥४४ ।। (यदा) जब (चान्ये) अन्य (ग्रहाः) ग्रह (तत्रस्थभार्गवं) वहाँ के शुक्र को (अभिगच्छन्ति) घात करे तो, (हिरण्यौषधयश्चैव) सोना, औषधी, और (शौण्डिका) शोण्डिक (दूत) दूत, (लेखका:) लेखक (कश्मीरा) कश्मीर (बर्बरा) बर्बरा (पौण्ड्रा) पौण्ड्र (भृगुकच्छं) भृगुकच्छ (अनुप्रजाः) आदि की प्रजा (पीड्यन्ते) पीड़ित होती है (अवन्ति गाश्चैव) और अवन्ति देश के (नृपाः) राजा का (म्रियन्ते) मरण होता हैं। भावार्थ-जब अन्य ग्रह से शुक्र पीड़ित होता है तो सोना, औषधी और शोण्डिक, दूत, लेखक, कश्मीर, बर्बर, पौण्ड्र, भृगुकच्छ आदि पीड़ित होते हैं और अवन्ति देश के राजा का मरण होगा।। ४३-४४ ।। नागबीथीति विज्ञेया भरणी कृत्तिकाऽश्विनी। रोहिण्यार्दा मृगशिरगजवीथीति निर्दिशेत्॥४५॥ (अश्विनी) अश्विनी नक्षत्र (कृत्तिका) कृत्तिका नक्षत्र, (भरणी) भरणी नक्षत्र Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ( नागवीथीति विज्ञेया) ये नागवीथी की संज्ञा वाले जानो, (रोहिण्याद्रामृगशिर) रोहिणी, आर्द्रा, मृगशिर, (गजवीथीति निर्दिशेत् ) ये तीन नक्षत्र गज वीथी वाले हैं ऐसा निर्देश किया है ।। भावार्थ — नागविधि के तीन नक्षत्र जानो— अश्विनी, भरणी, कृत्तिका । गजवीथि के भी तीन नक्षत्र है— रोहिणी, आद्री, मृगशिर ॥ ४५ ॥ ४३० ऐरावणपथं विन्द्यात् पुष्याऽऽश्लेषा पुनर्वसुः । फाल्गुनौ च मघा चैव वृष वीथीति संज्ञिता ॥ ४९ ॥ (पुष्याऽऽश्लेषा) पुष्य, आश्लेषा ( पुनर्वसुः ) पुनर्वसुः (ऐरावणपथं विन्द्यात्) ऐरावण पथ वाले जानो (फाल्गुनी च ) पूर्वाफाल्गुनी और (मघा ) मघा (चैत्र) उत्तराफाल्गुनी को (वृषवीधिति संज्ञितः) वृष विधि वाली संज्ञा है । भावार्थ — ऐरावण वीथी के नक्षत्र तीन है— पुष्य, आश्लेषा, पुनर्वसु । वृषवीथी के तीन नक्षत्र हैं—पूर्वफाल्गुनी, मघा और उत्तराफाल्गुनी ॥ ४६ ॥ गोवीथी रेवती चैव द्वे च प्रोष्ठपदे तथा । जरद्रवपथं विन्द्याच्छवणे वसुवारुणे ।। ४७ ।। ( रेवती चैव द्वे च प्रोष्ठपदे तथा ) तथा, रेवती और पूर्वाभाद्रपद उत्तरापद (गोवीथी ) गोवीति संज्ञा वाले नक्षत्र हैं (छवणे वसुवारुणे ) श्रवण, धनिष्ठा और शतभिखा (जरद्रवपथं विन्द्यात्) जरद्रववीथि की संज्ञा वाले हैं। भावार्थ -- गोवीथि संज्ञा वाले नक्षत्र रेवती, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और जरद्रव वीथी की संज्ञा वाले नक्षत्र - श्रवण, धनिष्ठा, शतभिखा ॥ ४७ ॥ अजवीथी विशाखा च चित्रा स्वाति: करस्तथा । ज्येष्ठा मूलाऽनुराधासु मृग वीथिति संज्ञिता ॥ ४८ ॥ अभिजिद् द्वे तथाषाढे वैश्वानरपथ: स्मृतः । शुक्रस्याग्रगताद्वर्णात् संस्थानाच्चफलं वदेत् ॥ ४९ ॥ (विशाखा च चित्रा स्वाति: करस्तथा ) विशाखा, चित्रा, स्वाति, (अजवीथी) अजवीथी वाले हैं (ज्येष्ठामूलाऽनुराधासु) ज्येष्ठामूला, अनुराधा की संज्ञा (मृगवीथी Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३१ पञ्चदशोऽध्यायः -- - संज्ञिता) मृगवीथि संज्ञा है। (तथा) तथा (अभिजिद् द्वे षाढे) अभिजित नक्षत्र एवं पूर्वाषाढा उत्तराषाढा और स्वाति की (वैश्वानरपथः स्मृतः) संज्ञा वैश्वानर है ऐसा जानो (शुक्रसस्याग्रगताद्वर्णात्) शुक्र के अग्रगत वर्ण (संस्थानाच्चफलं वदेत) और आकार से फल का निरूपण करे। भावार्थ-अजवीथी-विशाखा, चित्रा, स्वाति । मृगवीथी—ज्येष्ठा, मूला, अनुराधा । वैश्वानरवीथी—अभिजीत, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, स्वाति ये नक्षत्र शुक्र के अग्रगत हो तो उसके संस्थान और आकार के अनुसार फल को कहो।। ४८-४९॥ तज्जातप्रतिरूपेण जघन्योत्तममध्यमम्। स्नेहादिषु शुभं ब्रूयाद् ऋक्षादिषु न संशयः॥५०॥ (तज्जातप्रतिरूपेण) तज्जाती की प्ररूपणा से नक्षत्रों में (जघन्योत्तममध्यमम्) जघन्य, उत्तम, मध्यम भेद होता है (स्नेहादिषु) स्नेहादिक में (ऋक्षादिषु) नक्षत्रों पर (शुभं ब्रूयाद्) शुभाशुभ कहे (न संशय:) इसमें सन्देह नहीं करना।। भावार्थ--एक वीथी तीन-तीन नक्षत्रों की होती है अपनी-अपनी बीधी पर शुक्र का संचार को देखकर उत्तम, मध्यम, जघन्य, शुभाशुभफल होता है ज्योतिषि को यह सब देखकर निर्णय कर फल कहे, इन नक्षत्रों में सन्देह रहित होकर शुभाशुभफल को कहे।। ५०॥ तिष्यो ज्येष्ठा तथाऽऽश्लेषा हरिणोमूल मेव च।। हस्तं चित्रा मघाऽषाढे शुक्रो दक्षिणतो व्रजेत् ॥५१॥ (तिप्यो) पुष्य (ज्येष्ठा) ज्येष्ठा (तथाऽऽश्लेषा) तथा अश्लेषा (हरिणोमूल मेव च) और मृगशिरा, मूल (हस्तं) हस्त, (चित्रा) चित्रा, (मघाऽषाढे) मधा, पूर्वाषाढा (शुक्रोदक्षिणतोव्रजेत्) इन नक्षत्रों में शुक्र दक्षिण से गमन करता हैं। भावार्थ-पुष्य, ज्येष्ठा, आश्लेषा, मृगशिरा, मूल, हस्त, चित्रा, मघा, पूर्वाषाढा इन नक्षत्रों में शुक्र गमन करता है तो॥५१॥ शुष्यन्ते तोय धान्यानि राजानः क्षत्रियास्तथा। उग्रमोगाश्च पीड्यन्ते धननाशो विनायकः ॥५२॥ (तोयधान्यानि) पानी के बिना धान्य के अंकुर (शुष्यन्ते) सूख जाते हैं (तथा) Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | तथा (राजानः क्षत्रियाः) राजा और क्षत्रियों के (उग्रभोगाश्च) उग्रभोगपदार्थों के निमित्त (पीड्यन्ते) पीड़ा को प्राप्त होते है (धननाशो विनायकः) और धन का नाश हो जाता है। भावार्थ-पानी के बिना धान्यों के अंकुर सूख जाते हैं तथा राजा और क्षत्रियों के भोगपभोग पदार्थों को पीड़ा होती है सम्पूर्ण धन का नाश हो जाता है॥५२॥ वैश्वानरपथो नामा यदा हेमन्तग्रीष्मयोः। मारुताऽग्निभयं कुर्यात् वारी च चतुःषष्टिकाम्॥५३॥ (यदा) जब (वैश्वानरपथो) वैश्वानर विथी में शुक्र (हेमन्तग्रीष्मयोः) हेमन्त ऋतु और ग्रीष्म ऋतु के अन्दर गमन करे तो समझो (मारुताऽग्निभयं कुर्यात्) वायु का अनि क हा , (२.६ च चतुःषष्टिकाम्) और वर्षा भी एक आढ़क प्रमाण वर्षा होती है। भावार्थ-जब वैश्वानर वीथि में शुक्र का गमन हेमन्त ऋतु वा ग्रीष्म ऋतु में हो तो समझो अग्नि भय और वायु भय होगा, पानी भी एक आढ़क प्रमाण वर्षा होगी॥५३॥ एतेषामेव मध्येन यदा गच्छति भार्गवः। विषमं वर्षमाख्याति स्थले बीजानि वापयेत्॥५४॥ (यदा) जब (एतेषामेवमध्येन) इनके मध्य में होकर (भार्गवगच्छति) शुक्र जाता है तो (वर्षविषमंमाख्याति) वह वर्ष विषम है ऐसा कहना चाहिये (स्थले बीजानि वापयेत्) पृथ्वी में बीज बोना चाहिये।। ___ भावार्थ-जब इनके मध्य में होकर शुक्र जाता है तो वह वर्ष विषम रहेगा, और बीज पृथ्वी में बोना चाहिये।। ५४ ।। खारी द्वात्रिंशिका ज्ञेया मृगवीथीति संज्ञिता। व्याधयः त्रिषुविज्ञेयास्तथा चरति भार्गवे॥५५॥ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशोऽध्यायः (मृगवीथिति संज्ञिता) मृगवीथि संज्ञामें यदि (भार्गवेचरति) शुक्र गमन करता है तो (खारी द्वात्रिंशिका ज्ञेया) वर्षा ३२ खारी प्रमाण वर्षा होती है। (व्याधः त्रिषुविज्ञेयाः) तीन प्रकार की व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। __ भावार्थ-अगर मृगवीथि में शुक्र का गमन होता है तो समझो बत्तीस खारी प्रमाण वर्षा होती है तीन प्रकार की व्याधियाँ दैहिक, दैविक, भौतिक उत्पन्न हो जाती है॥५५॥ एतेषां तु यदा शुक्रो व्रजत्युत्तरतस्था। विषमं वर्षमाख्याति निम्ने बीजानि वापयेत् ॥५६॥ (यदा) जब (शुक्रो) शुक्र (एतेषां ब्रजत्युत्तरत् तथा) उत्तर दिशा में गमन करे (तु) तो (वर्ष विषमं माख्याति) वर्ष विषम होता है ऐसा कहना चाहिये, (निम्ने बीजानि वापयेत्) निम्न स्थानों में बीजों का वपन करना चाहिये। भावार्थ-जब शुक्र उत्तर दिशा में गमन करे तो वह वर्ष विषम रहता है इसलिये नीचे के स्थानों में बीजों का वपन करना चाहिये ।। ५६।। कोद्रवाणां बीजानां खारी षोढशिका वदेत्। अजवीथीति विज्ञेया पुनरेषा न संशयः ।। ५७॥ (अजवीथीतिविज्ञेया) अगर शुक्र अजवीथी में गमन करे तो जानना चाहिये (क्रोद्रवाणां बीजानां) क्रोद्रव के बीज (खारी षोढशिका वदेत्) सोलह खारी प्रमाण उत्पन्न होगा ऐसा कहे (पुनरेषा न संशयः) इसमें कोई सन्देह नहीं हैं। भावार्थ- अगर शुक्र अज वीथी में गमन करता है तो क्रोद्रव का बीज सोलह खारी प्रमाण उत्पन्न होता है इसमें कोई सन्देह नहीं है।। ५७ ।। कृत्तिका रोहिणी चार्दा मघा मैत्रं पुनर्वसुः । स्वातिस्तथा विशाखासु फाल्गुन्यो रुभयोस्तथा।। ५८।। (कृत्तिका) कृत्तिका (रोहिणी) रोहिणी (चा ) और आर्द्रा (मघा) मघा (मैत्र) अनुराधा, (पुनर्वसुः) पुनर्वसु (स्वाति) स्वाति (तथा) तथा (विशाखासु) विशाखा (तथा) तथा (फाल्गुन्योरुभयोः) पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी। Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ४३४ भावार्थ-कृत्तिका, रोहिणी, आर्द्रा, मघा, अनुराधा, पुनर्वसु, स्वाति तथा विशाखा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी ॥ ५८॥ दक्षिणेन यदा शुक्रो व्रजत्येतैर्यदा समम्। मध्यमं वर्षमाख्याति समे बीजानि वापयेत्॥ ५९॥ (यदा) जब (शुक्रो) शुक्र (दक्षिणेन) दक्षिण से (व्रजत्येतैर्यदासमम्) इन नक्षत्रों में गमन करता है तो समझो (मध्यमं वर्षमाख्याति) मध्यम वर्ष रहेगा और (समे बीजानि वापयेत्) समान भूमि पर बीजों का वपन करे। __भावार्थ-जब शुक्र दक्षिण दिशा से इन नक्षत्रों में गमन करे तो समझो वर्षा व वर्ष दोनों ही मध्यम रहेगा, सम भूमि पर बीजों का वपन करे।॥ ५९॥ निष्पद्यन्ते च शस्यानि मध्यमेनापि वारिणा। जरद्वपथश्चैव खारीं द्वात्रिंशकां भवेत्॥६०॥ (मध्यमे नापि वारिणा) मध्यम वर्षा होने पर भी (निष्पद्यन्ते च शस्यानि) धान्यों की उत्पत्ति अच्छी होती है (जरद्वपथश्चैव) जरद्वीथी में शुक्र का गमन हो तो (खारी द्वात्रिंशकां भवेत्) बत्तीस खारी प्रमाण वर्षा होती है। भावार्थ-धान्यो की उत्पत्ति अच्छी होती है मध्यम वर्षा और वर्ष रहता है, अगर जरद्ववीथी में शुक्र का गमन हो तो बत्तीस खारी प्रमाण वर्षा होती हैं ।। ६० ।। एतेषामेव मध्येन यदा गच्छति भार्गवः। तदापि मध्यमं वर्ष मीषत् पूर्वाविशिष्यते॥६१॥ (यदा) जब (भार्गव:) शुक्र (एतेषामेवमध्येनगच्छति) इन नक्षत्रों में होकर जाता है तो (तदापिमध्यम वर्ष) तो भी वर्षा और वर्ष मध्यम रहता है (मीषत् पूर्वा विशिष्यते) पहले वर्ष से यह वर्ष कुछ उत्तम रहता है। भावार्थ-इन नक्षत्रों के मध्य से यदि शुक्र जाता है तो समझो यह वर्ष मध्यम रहेगा किन्तु पहले वर्ष से यह वर्ष कुछ उत्तम रहेगा।। ६१॥ सर्व निष्पद्यते धान्यं न व्याधि पि चेतयः । खारी तदाऽष्टिका झेया गोवीथीति च संजिता ॥२॥ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३५ पञ्चदशोरयायः (सर्व निष्पद्यते धान्यं) सब प्रकार के धान्यों की उत्पत्ति होती है (न व्याधिर्नापि चेतयः) व्याधियाँ भी उत्पन्न नहीं होती है, (गोवीथी च संज्ञिता) जब गोवीथी में शुक्र गमन करे तो (खारी तदाऽष्टिका ज्ञेया) आठ खारी प्रमाण वर्षा जानना चाहिये। भावार्थ-गोवीथी का शुक्र सब प्रकार के धान्यों की उत्पति करता है, और आठ खारी प्रमाण वर्षा होती हैं।। ६२॥ एतेषामेव यदा शुक्रो व्रजत्युत्तरतस्तदा। मध्यमं सर्वमाचष्टे नेतयो नापिव्याधयः॥६३॥ (यदा) जब (शुक्रो) शुक्र (एतेषामेव) नक्षत्रों में होकर (व्रजत्युत्तरस्तदा) उत्तर दिशा की ओर गमन (मध्यम) मध्यम (सर्वचामष्टे) महामारी (व्याधयः) व्याधियाँ होती है। भावार्थ--जब उपर्युक्त नक्षत्रों में शुक्र की ओर गमन करता है, तो मध्यम वर्ष होता है। तथा महामारी और व्याधियों का अभाव होता है।। ६३ ।। निष्पत्तिः सर्व धान्यानां भयं चात्र न मूर्च्छति। खारी चतुष्का विज्ञेया वृषवीथीति संज्ञिता॥६४॥ जब (वृषवीथीति संज्ञिता) वृष वीथी में शुक्र गमन करे तो (खारी चतुष्का विज्ञेया) चार खारी प्रमाण धान्य उत्पन्न होता है तुमको जानना चाहिये, (निष्पत्तिः सर्दधान्यानां) सब धान्यों की उत्पति होती है (भयं चात्र न मूर्च्छति) भय का व आतङ्क का अभाव रहेगा। भावार्थ-जब वृषवीथीं में शुक्र गमन करे तो चार खारी प्रमाण धान्यो को उत्पत्ति होती है, सब प्रकार का धान्य उत्पन्न होता है किसी प्रकार का भय उत्पन्न नहीं होता हैं।। ६४ ।। अभिजिच्छवणं चापि धनिष्ठावारुणे तथा। रेवती भरणी चैव तथा भाद्रपदाऽश्विनी।। ६५।। निश्चयास्तदा विपद्यन्ते खारी विन्द्याच्च पञ्चिका। ऐरावणपथो ज्ञयोऽश्रेष्ठ एव प्रकीर्तितः ॥६६॥ (अभिजिच्छ्रवणं) अभिजित नक्षत्र (चापि) और भी (धनिष्ठा) धनिष्ठा (वारुणे Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ४३६ तथा) शतभिखा तथा (रेवती, भरणी चैव) रेवती, भरणी और (तथा भाद्रपदाऽश्विनी) तथा भाद्र पद, अश्विनी को (ऐरावण पथो ज्ञेयो) ऐरावण पथ समझना चाहिये (श्रेष्ठ एव प्रकीर्तित:) इसी को श्रेष्ठ कहा है, इस वीथी में शुक्र गमन होने से (निश्चयास्तदाविपद्यन्ते) तब निश्चय से जन समुदाय पर आपत्ती आती है (खारी विन्द्याच्चपञ्चिका) और पाँच खारी प्रमाण धान्य उत्पन्न होते हैं। भावार्थ-ऐरावण पथ में शुक्र गमन करे तो समझो निश्चय से जन समुदाय पर आपत्ति आती है और पाँच खारी धान्य होता है, अभिजित, धनिष्ठा, शतभिखा, रेवती, भरणी, पूर्वाभाद्रपद, अश्विनी को ऐरावणवीथी कहा है।। ६५-६६॥ एषां यदा दक्षिणतो भार्गवः प्रतिपद्यते। बहूदकं तदा विन्द्यात् महाधान्यानि वापयेत्॥१७॥ (एषां यदा दक्षिणतो) इस प्रकार के नक्षत्रों में यदि (भार्गव:) शुक्र (दक्षिण तो) दक्षिण में (प्रतिपद्यते) गमन करे तो (तदा) तब (बहूदक) बहुत वर्षा (विन्द्यात्) होगी ऐसा समझो (महाधान्यानि वापयेत्) बहुत ही धान्यों को बोना चाहिये। भावार्थ-इस प्रकार के नक्षत्रों में यदि शुक्र दक्षिण दिशा में गमन करे तो समझो बहुत ही वर्षा होगी, धान्य भी बहुत उत्पन्न होगी, इसलिये धान्यो का वपन अच्छा करना चाहिये।। ६७।। जल जानि तु शोभन्ते ये च जीवन्ति वारिणा। खारी तदाष्टिका ज्ञेया गजवीथीति संज्ञिता॥६८॥ (जल जानि तु शोभन्ते) जलचर जीव शोभा पाते हैं (ये च जीवन्ति वारिणा) और आनन्दित होते है (खारी तदाष्टि का ज्ञेया) आठ खारी प्रमाण धान्य होगा (गजवीथीति संज्ञिता) तब समझो गजवीधी में शुक्र का गमन है। भावार्थ-यदि गजवीथी में शुक्रगमन कर रहा हो तो समझो आठ खारी प्रमाण तो धान्य होगा, और सभी जलचर जीव आनन्दित होकर शोभा पायेगें॥६८॥ एताषामेव तु मध्येन यदा याति तु भार्गवः। स्थलेष्वप्तबीजानि जायन्ते निरुपद्रवन ।। ६९॥ (एताषामेव तु मध्येन) इस प्रकार के नक्षत्रों में (यदायाति तु भार्गव:) यदि Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३७ पञ्चदशोऽध्यायः तुका गमन को तो (मालेमन्तलीजारि जमीन में बोये हुए बीज (निरुपद्रवन जायन्ते) निरुपद्रव उत्पन्न होते हैं। भावार्थ-इस प्रकार उपर्युक्त नक्षत्रों में यदि शुक्र गमन करे तो समझो जमीन में बोये हुए बीज निरुपद्रव उत्पन्न होते हैं।। ६९॥ निचयाश्च विनश्यन्ति खारी द्वादशिका भवेत्। दानशीला नरा हृष्टा नागवीथीति संज्ञिता॥७॥ (नागवीथीति संज्ञिता) यदि नाग वीथी में शुक्र गमन करे तो (दानशीला नरा हृष्टा) दानशील मनुष्य प्रशन्न होते हैं। (निचयाश्च विनश्यन्ति) समुदायों की हानि होती हैं (खारी द्वादशिकाभवेत्) बारह खारी प्रमाण धान्य उत्पन्न होता है। ___ भावार्थ-यदि नागवीथी में शुक्र गमन करे तो समझो दानशील मनुष्य प्रशन्न रहते हैं, समुदायों की हानि होती है बारह खारी प्रमाण धान्य उत्पन्न होता है।। ७० ॥ एवमेव यदा शुक्रो व्रजत्युत्तरतस्तदा। स्थले धान्यानि जायन्ते शोभन्ते जलजानि वा ।। ७१॥ (एवमेव यदा शुक्रो) इस प्रकार की वीथी में जब शुक्र (व्रजत्युत्तरतस्तदा) गमन करता है तो (स्थले धान्यानि जायन्ते) पृथ्वी पर धान्य होता है (शोभन्ते जलजानि वा) जल चर जीव शोभा पाते हैं। भावार्थ-यदि उपर्युक्त वीथी में यदि शुक्र उत्तर दिशा में गमन करे तो समझो पृथ्वी पर धान्य बहुत होता है और जलचर जीव आनन्दित होते हैं॥७१ ।। सर्वोत्तरा नागवीथी सर्वदक्षिणतोऽग्निजा। गोवीथी मध्यमा ज्ञेया मार्गश्चैवं त्रयः स्मृताः॥७२॥ (सर्वोत्तरा नागवीथी) सन उत्तर नागवीथि है (सर्वदक्षिणतोऽग्निजा) वैश्वानर वीथी दक्षिण (गोवीथी मध्यमा ज्ञेया) गोवीर्थी मध्यम जानना चाहिये (मार्गश्चैवं त्रय: स्मृताः) इस प्रकार यह तीन मार्ग जानना चाहिये। भावार्थ-वीथीयों के तीन मार्ग है-सब उत्तर नागवीथि, वैश्वानर वीथि दक्षिण और गोवीथि मध्यम जानना चाहिये॥७२॥ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ४३८ उत्तरेणोत्तमं विधात् मध्यमे मध्यमं फलम्। दक्षिणे तु जघन्यं स्याद् भद्रबाहुवचो यथा॥७३॥ (उत्तरेणोउत्तमं विद्यात्) उत्तर वीथी में शुक्रगमन करे तो उत्तम फल जानो (मध्यमे मध्यम फलम्) मध्यम में गमन करे तो मध्यम फल होता है (दक्षिणे तु जघन्यं स्याद्) दक्षिणमें गमन हो तो जघन्य फल होता है (भद्रबाहुचो यथा) ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है। भावार्थ-उत्तर वीथि में यदि शुक्र गमन करे तो उत्तम फल होता है मध्यम वीथि में गमन करे तो फल भी मध्यम होता है यदि दक्षिण में गमन करे तो फल भी जघन्य होता है ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है।। ७३ ।। यत्रोदितश्च विचरनक्षतं पार्गवस्तथा। नृपं पुरं धनं मुख्यं पशुं हन्याद् विलम्बकः॥७४ ।। (यत्रोदितश्चविचरेत्) इस प्रकार के (नक्षत्रं) नक्षत्रों में (भार्गवस्तथा) शुक्र गमन करे तो (नृपं) राजा का (पुर) नगर का (धन) धन का और (मुख्य) मुख्य रूप से (विलम्बकः) अविलम्बित (पशुं हन्याद्) पशुओं का नाश करता है। भावार्थ-इस प्रकार के उत्तम, मध्यम, जघन्य वीथियों में शुक्र का गमन हो तो समझो राजा का धन का और मुख्य रूप से पशुओं को मारता है, नाश करता है।७४॥ आदित्ये विचरेद् रोगं मार्गेऽतुल्यामयं भयम्। गर्भोपघातं कुरुते ज्वलनेनाविलम्बितम्॥७५॥ ईति व्याधिभयं चौरान् कुरुतेऽन्तः प्रकोपनम्। प्रविशन् भार्गवः सूर्येजिटेथ विलम्बिना ।।७६।। (आदित्येविचरेद् रोग) शुक्र के सूर्य में विचरण करने पर (रोग) रोग होगा (मार्गेऽतुल्यामयं भयम्) मार्ग में बहुत भय होगा (गर्भोपघातं कुरुते) गर्भो का घात होता है (ज्चलेनाविलम्बितम) अविलम्बित अग्नि का भय होता है (भार्गव: सूर्ये प्रविशन) शुक्र का सूर्य में प्रवेश करने पर (ईतिव्याधि भयं) ईति, व्याधि (भयं) Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३९ पञ्चदशोऽध्यायः भय, (चौरान कुरुतेऽन्तः प्रकोपनम्) और चोरों का प्रकोप बहुत होता है, (जिह्मनाथ विलम्बिना) ऐसा आचार्य ने कहा है। भावार्थ-शुक्र के सूर्य में विचरण करने पर रोग अधिक भय शीघ्र ही अग्नि का भय, गर्भोपघात आदि होता है और शुक्रका सूर्य में प्रवेश हो तो व्याधिभय, चोरों का भय अविलम्बित होता है॥७५-७६॥ प्रथमे मण्डले शक्रो विलम्बी डमरायते। पूर्वापरा दिशो हन्यात् पृष्ठे तेन विलम्बिना ॥७७॥ (प्रथमे मण्डले शुक्रो) प्रथम मण्डल में शक्र (विलम्बी डमरायते) अविलम्बित रूप लम्बायमान होता है तो (पूर्वापरा दिशो हन्यात्) पूर्व पश्चिम दिशामें (पृष्ठेतेन विलम्बिना) अविलम्बित धात करता है। भावार्थ—प्रथम मण्डल में शुक्र अविलम्बित रूप लम्बायमान होता है तो समझो पूर्व और पश्चिम दिशा में घात करता है।। ७७॥ द्वितीयमण्डले शुक्रश्चिरगो मण्डलेरितः। हन्याद्देशान् धनं तोयं सकलेन विलम्बिना॥७८॥ (द्वितीयमण्डले) यदि द्वितीय मण्डल में (शुक्रश्चिरगोमण्डलेरितः) शुक्र सूर्य से प्रेरित होकर अधिक समय तक रहे तो (देशान्) देश के (धन) धन (तोयं) पानी (सकलेनविलम्बिना हन्यात्) का सम्पूर्ण रीति से अबिलम्बित घात करता है। भावार्थ-द्वितीय मण्डल में शुक्र लम्बायमान होकर बहुत काल तक गमन करे तो देश के धन धान्य जलादिक का शीघ्र नाश करता है॥७८ ।। तृतीये चिरगो व्याधिं मृत्यु सृजति भार्गवः। चलितेन विलम्बेन मण्डलोक्ताश्च या दिशः॥७९॥ (तृतीये चिरगो भार्गव:) तृतीय मण्डल में शुक्र (व्याधि मृत्यु सृजति) व्याधि मृत्यु का सृजन करता है और (या दिश:) जिस दिशा में (चलितेन विलम्बन मण्डलोक्ताश्च) चलित विलम्ब रूप मण्डलों को कहा है। भावार्थ-जिस दिशा में अविलम्बित रूप से तृतीय मण्डल में यदि शुक्र गमन चिरकाल तक गमन करे तो व्याधियाँ और मरण को पैदा करता है॥७९॥ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता चतुर्थेविचरन् शुक्रो शयी हन्यात् सुयानकान् । शस्यशेषं च सृजते निन्दितेन विलम्बिना ॥ ८० ॥ ( चतुर्थे शुक्रो शयी विचरन्) चतुर्थ मण्डल में सोता हुआ शुक्र गमन करे तो ( सुयानकान् हन्यात्) अच्छे वाहनों का नाश करता है (निन्दितेन विलम्बिना ) और निन्दित होने पर विलम्बित होने पर ( शस्य शेष च सृजते ) धान्यों का विनाश करता है। भावार्थ-यदि चतुर्थ मण्डल में सोता हुआ शुक्र गमन करे तो अच्छे वाहनों का नाश करता है और निन्दित शुक्र व विलम्बित शुक्र धान्यों का नाश करता है ॥ ८० ॥ पञ्चमे विचरन् शुक्रो हन्याच्च मण्डलं देणं दुर्भिक्षं जनयेत् तदा । श्रीनाथ शिवि x (पञ्चमे विचरन् शुक्रो ) पंचम मण्डल में यदि शुक्र (क्षीणेनाथ विलम्बिना ) क्षीण और विलम्ब हो तो ( तदा) तब ( दुर्भिक्षं जनयेत् ) दुर्भिक्ष की उत्पति करता है ( देशमण्डलं हन्याच्च) उस मण्डल और देश का नाश करता है । भावार्थ – यदि पंचम मण्डल में शुक्र क्षीण और विलम्बित हो तो उस मण्डल या देश का नाश करता है दुर्भिक्ष की उत्पत्ति करता है ॥ ८१ ॥ यदा तु भण्डले षष्ठे भार्गवश्चिरगो भवेत् । तदा तं मण्डलं देशं हन्ति लम्बेन् पाशिना ॥ ८२ ॥ ( यदा) जब (षष्ठेमण्डले) षष्ठ मण्डल में (भार्गवश्चिरगो भवेत् ) शुक्र अधिक समय तक गमन करे तो (तदा) तब (तं) उस ( मण्डलं ) मण्डल और (देश) देश को (लम्बेन पाशिना हन्ति ) लम्बायमान पास के समान नाश करता है । भावार्थ- -जब षष्ठ मण्डल में शुक्र अधिक समय तक गमन करे तो उस देश व मण्डल का लम्बायमान पास के समान नाश करता है ॥ ८२ ॥ हीन चारे जनपदानारिकते नृपं समे तु समतां विन्द्याद्विषमे विषमं वधेत् । वदेत् ॥ ८३ ॥ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशोऽध्याय: (हीने चारे) हीनाचार वाला शुक्र (जनपदान्) जनपद का विनाश कराता है (अतिरिक्ते नृपं वधेत्) अधिक गति वाला शुक्र राजा का नाश करता है (समेतु समतां विन्द्यात्) सम शुक्र हो तो समता होता है (विषमेविषमं वदेत्) विषम शुक्र हो तो विषमता करता है ऐसा कहो। भावार्थ-यदि शुक्र हीनाचार रूप गमन करे तो जनपद का विनाश करता है, अधिक गति वाला शुक्र राजा का नाश करता है, समगति वाला शुक्र समता पैदा करता है और विषमगति वाला शुक्र विमता पैदा करता है।। ८३ ।। कृत्तिकां रोहिणी चित्रां मैत्रमित्रं तथैव च। वर्षासु दक्षिणाद्यासु यदा चरति भार्गवः ।। ८४॥ व्याधिश्चेतिश्चदुर्वृष्टिस्तदा धान्यं विनाशयेत्। महायं जनमारिश्च जायते नात्र संशयः ॥८५॥ (कृत्तिका) कृत्तिका (रोहिणी) रोहिणी (चित्रां) चित्रा (तथैव च) उसी प्रकार और (मैत्रमित्रं) अनुराधा, विशाखा इन नक्षत्रोंमें (वर्षामुदक्षिणाद्यासु) व वर्षा काल में दक्षिणदिशा में (यदा चरति भार्गव:) यदि शुक्र गमन करता है तो (व्याधिश्चेतिश्चदुर्वृष्टिः) व्याधियाँ और दुर्वृष्टि होती है (तदा धान्यं विनाशयेत्) तदा धान्यों का भी नाश होता है (महाघु जनमारिश्च) महँगाई होगी, जनमारि फैलेगी, (जायते नात्र संशयः) इसमें कोई सन्देह नहीं हैं। भावार्थ- कृत्तिका, रोहिणी, चित्रा, अनुराधा, विशाखा इन नक्षत्रों के व वर्षा काल में दक्षिण दिशा में यदि शुक्रगमन करता है तो व्याधियाँ होगी दुर्वष्टियाँ होगी, धान्यों का नाश होगा, महँगाई फैलेगी, मारीरोग फैलेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं हैं।। ८४-८५॥ एतेषामेव मध्येन मध्यम फलमादिशेत्। उत्तरेणोत्तरं विद्यात् सुभिक्षं क्षेममेव च॥८६॥ (एतेषामेव मध्येन) इस प्रकार के नक्षत्रों के बीच शुक्र मध्यमें होकर गमन करे तो (मध्यमं फलमादिशेत्) मध्यम प्रकार का फल होता है ऐसा कहे (उत्तरेणोत्तर Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता विद्यात्) उत्तरदिशा में शुक्र गमन करे तो (सुभिक्षं क्षेम मेव च ) सुभिक्ष और क्षेम कुशल होता है। ४४२ भावार्थ — इस प्रकार के नक्षत्रों के मध्यमें होकर शुक्र गमन करे तो समझो मध्यम फल होता है उत्तर दिशा का शुक्र सुभिक्ष क्षेम करता है ।। ८६ । मघायां च विशाखायां वर्षासु मध्यमस्थितः । तदा सम्पद्यते सस्यं समर्थ च सुखं शिवम् ॥ ८७ ॥ ( वर्षासु ) वर्षा कालमें जब शुक्र ( मघायां च ) मघा और (विशाखायां ) विशाखा नक्षत्र में (मध्यम स्थितः ) मध्यम होकर गमन करे तो ( तदा) तब ( सस्यं सम्पद्यते ) धान्यो की उत्पति होती है (सम व सुखं शिवम् ) वस्तुओं के भाव सस्ते होते है, सुख की प्राप्ति होती है, आनन्द प्राप्त होता है। भावार्थ- वर्षा काल में जब शुक्र मघा और विशाखा नक्षत्रों में मध्यम जगति से गमन करता है तो समझो छान्यों की उत्पत्ति अच्छी होती हैं वस्तुओं के भाव सस्ते होते हैं आनन्द और सुख की प्राप्ति होती है ॥ ८७ ॥ च याति मध्येन भार्गवः । पुनर्वसुमाषाढां तदा सुवृष्टिश्च विन्द्यात् व्याधिश्च समुदीर्यते ॥ ८८ ॥ ( पुनर्वसुमाषाढां च ) पुनर्वसु और पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में यदि ( भार्गवः) शुक्र ( मध्येन याति ) मध्यम गति से गमन करे तो ( तदा) तब ( सुवृष्टिश्च व्याधिश्च ) सुवृष्टि और व्याधि (समुदीर्यते विन्द्यात्) करता है ऐसा जानो । भावार्थ- पुनर्वसु पूर्वाषाढ़ा नक्षत्रों में यदि शुक्र मध्यम गति से गमन करे तो व्याधियाँ और वृष्टि दोनों ही सर्वत्र होती है ॥ ८८ ॥ आषाढां श्रवणं चैव यदि मध्येन कुमाराँश्चैवपीताऽनार्याञ्चन्त गच्छति । वासिनः ।। ८९ ।। ( आषाढ़ां श्रवणं चैव ) उत्तराषाढ़ा और श्रवण नक्षत्र में (यदि ) यदि शुक्र ( मध्येन गच्छति ) मध्यम गति से गमन करे तो (कुमारोंश्चैवपीड्येता) कुमारों को पीड़ा होती है (अनार्याञ्चन्त वासिन: ) अनार्य और अन्त्यजों की पीड़ा होती है। Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४३ पञ्चदशोऽध्यायः भावार्थ- उत्तराषाढ़ा, श्रवण नक्षत्र में यदि शुक्र मध्यम रूप से गमन करे तो कुमारों को पीड़ा और अनार्य व अन्त्यजों को पीड़ा होती है।। ८९॥ प्रजापत्यमाषाढां च यदा मध्येन गच्छति। तदा व्याधित: चौराश्च पीड्यन्ते वणिजस्तथा ॥१०॥ (यदा) जब (प्रजापत्यमाषाढां च) रोहिणी व उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में यदि शुक्र (मध्येन गच्छतिः) मध्य से जाता है तो (तदा) तब (चौराश्च वाणिजस्तथा) चोरों को और व्यापारियों को (व्याधित: पीडयन्ते) व्याधि से पीड़ा होगी। भावार्थ- यदि रोहिणी और उत्तराषाढ़ा नक्षत्रमें शुक्र मध्यम गति से गमन करे तो चोरों को और व्यापारियों को व्याधि जनित पीड़ा होगी॥९० ॥ चित्रामेव विशाखां च याम्यमाद्री च रेवतीम्। मैत्रे भद्रपदां चैव याति वर्षति भार्गवः ॥११॥ (चित्रामेव विशाखां च) चित्रा, विशाखा और (याम्यमानॊ च रेवतीम्) भरणी, आर्द्रा, रेवती (मैत्रे भद्रपदां चैव) अनुराधा, पूर्वभाद्रपद नक्षत्रों में (यातिवर्षति भार्गव:) शुक्र गमन करे तो वर्षा होती है। ___ भावार्थ-चित्रा, विशाखा, भरणी, आर्द्रा, रेवती, अनुराधा, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रों में यदि शुक्र गमन करे तो समझो वर्षा अच्छी होती है।९१॥ फल्गुन्यथ भरण्यां च चित्रवर्णस्तु भार्गवः। तदा तु तिष्ठेद् गच्छेद् तु वक्रं भाद्रपदं जलम् ।। ९२॥ (चित्रवर्णस्तु भार्गव:) विचित्र वर्ण का शुक्र (फल्गुन्यथ भरण्यां च) पूर्वा फाल्गुनी और भरणी नक्षत्र में (तिष्ठेद् वा गच्छेद्) ठहरे या गमन करे (तु) तो (तदा) तब (वक्र भाद्रपदं जलम्) भाद्रपद मास में जल की वर्षा होगी। भावार्थ-यदि पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्रमें भरणी में शुक्र विचित्र वर्ण का होकर गमन करे या ठहरे तो समझो भाद्रपद में वर्षा होती है।। ९२॥ प्रत्यूषे पूर्वतः शुक्रः पृष्ठतश्च बृहस्पतिः। यदाऽन्योऽन्यं न पश्येत् तदा चक्रं परिवर्तते ॥ ९३ ।। Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | धर्मार्थ कामा लुप्यन्ते सम्भ्रमो वर्णसङ्करः। नृपाणां च समुद्योगो यतः शुक्रस्ततो जयः॥९४॥ अवृष्टिश्च भयं घोरं दुर्भिक्षं च तदा भवेत्। आढकेन तु धान्यस्य प्रियो भवति ग्राहकः ।। ९५॥ (प्रत्यूषे पूर्वत: शुक्रः) पूर्व में प्रातःकाल के अन्दर शुक्र हो (पृष्ठतश्च बृहस्पति:) पीछे से शुरु हो (यदाऽन्योऽन्यं । पश्यत्) और एक-दूसरे को न देखता हो तो (तदा) तब (चक्रं परिवर्तते) शासन चक्र में परिवर्तन होता है। (धर्मार्थ कामा लुप्यन्ते) धर्म, अर्थ, काम का लोप करता है (सम्भ्रमो वर्ण सकरः) वर्ण संकरों में सम्भ्रम पैदा होता है (नृपाणां च समुद्योगो) राजाओं को उद्योग प्राप्त होता है (यत: शुक्रस्ततोजयः) जहाँ शुक्र हो वहाँ जय होती है। (अवृष्टिश्च भयं घोरं) अनावृष्टि, घोर भय, (दुर्भिक्षं च तदा भवेत्) दुर्भिक्ष होता है (आढकेन तु धान्यस्य) एक आढ़क प्रमाण धान्य उत्पन्न होता है (प्रियो भवति ग्राहकः) ग्राहक प्रिय होता है। भावार्थ-पूर्व में प्रात:काल में शुक्र हो उसके पीछे गुरु हो, एक-दूसरे को न देखते हो तो शासन चक्र में परिवर्तन होता है धर्म, अर्थ, काम का लोप होगा, वर्ण संकरों में सम्भ्रम पड़ता है, राजाओं को उद्योग होता है कहा है जहाँ शुक्र है वहीं पर जय होती है। अवृष्टि होगी घोर भय होगा, दुर्भिक्ष पड़ेगा, धान्य एक आढ़क प्रमाण होगा, ग्राहकों को प्रिय होगा॥९३-९४-९५॥ यदा च पृष्ठः शुक्रः पुरस्ताच्च बृहस्पतिः । यदा लोकयतेऽन्योन्यं तदेव हि फलं तदा ॥१६॥ (यदा च पृष्ठत: शुक्रः) जब शुक्र पीछे हो (पुरस्ताच्च बृहस्पति) और गुरु आगे हो (यदा लोकयतेऽन्योन्यं) जब एक-दूसो को देखते हो (तदेव हि फलं तदा) तो वैसा ही फल होता है। भावार्थ-जब शुक्र पीछे हो गुरु आगे हो एक-दूसरे को देखते हो तो उपर्युक्त के समान ही फल होगा ।।९६ ॥ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशोऽध्यायः कृत्तिकायां यदा शुक्रः विकृष्य प्रतिपद्यते। ऐरावणपथे यद् वत् तद् वद् ब्रूयात् फलं तदा ॥९७॥ (कृत्तिकायां यदा शुक्र) कृत्तिका नक्षत्र का शुक्र जब (विकृष्य प्रतिपद्यते) विकृष्य दिखलाई पड़े तो समझो (ऐरावणपथे यद् वत्) ऐरावणपथ का जो फल कहा गया था (तद् वद् ब्रूयात् फलं तदा) उसी प्रकार इसका भी फल कहे।। भावार्थ-कृत्तिका नक्षत्र में जब शुक्र विकृष्य दिखे तो समझो ऐरावण विथी को जो फल कहा था यहीं फल यहाँ पर समझना चाहिए।। ९७।। रोहिणी शकटं शुक्रो यदा समभिरोहति। चक्रारूढाः प्रज्ञा ज्ञेया महद्भयं विनिर्दिशेत् ॥ ९८ ।। पाण्ड्य केरल चोला चेधाश्च करनाटकः। चेरा विकल्पकाश्चैव पीयन्ते ताद्दशेन यत्॥९९॥ (यदा) जब (शुक्रो) शुक्र (रोहिणी) रोहिणी नक्षत्र में (शकटं समभिरोहति) शकट के आकार गमन करे तो (प्रजा चक्रारूढा: ज्ञेया) प्रजा चक्ररूढ के समान भ्रमण करेगी (महद्रयं विनिर्दिशेत्) महान् भय उत्पन्न होगा (पाण्ड्य) पाण्ड्य (केरल) केरल (चोलाश्च) चौल (चेद्याश्च) चेदि (करनाटकाः) कर्नाटक (चेरा विकल्पकाश्चैव) चेर, विदर्भ (पीड्यन्ते तादृशेनयत्) आदि देशों को पीड़ा होती है। भावार्थ-जब शुक्र रोहिणी नक्षत्र में शकटाकार शुक्र गमन करे तो प्रजा चक्रारूढ रूप भ्रमण करेगी, महान् भय होगा। पाण्ड्य, केरल, चोल, चेदि कर्नाटक, चेर विदर्भ देशों में महान् पीड़ा होगी। ९९ ।।। प्रदक्षिणं यदा याति तदाहिंसति स प्रजाः। उपघातं बहुविधं वासन् कुरुते भूवि ।। १००॥ (प्रदक्षिणं यदा याति) जब शुक्र प्रदक्षिणी रुप गमन करे तो (तदा हिंसति स प्रजाः) तब वहाँ की प्रजा का नाश होता है (उपघातं बहुविधं) बहुत प्रकार से उपघात होगा (भुवि) पृथ्वी पर (वा सन् कुरुते) नाना प्रकार के उत्पात करता है। भावार्थ-जब दक्षिण में शुक्र गमन करता है तो वहाँ की प्रजा का नाश होता है पृथ्वी पर उपधात, परघात आदि नाना प्रकार के उत्पात होता है।। १००॥ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता संव्यात्रभुपसेवानो भवेयं सोमशर्मणः। सोमं च सोमजं चैव सोमपाश्वं च हिंसति ॥१०१॥ (संव्यानमुपसेवानो) बांयी ओर से शुक्र गमन करे तो (भवेयं सोमशर्मण:) सोम और शर्मा नामधारियों के लिये कल्याणकारी होता है (सोमं च सोमजं चैव) सोम-सोम से उत्पन्न (सोमपाश्व च हिंसति) और सोमपार्श्व की हिंसा करता है। भावार्थ-अगर बांयी ओर से शुक्र का गमन हो तो सोम और शर्माओं के लिये कल्याणकारी होता है, सोम से उत्पन्न सोमपार्श्व की हिंसा करता है।। १०१॥ वत्सा विदेहजिह्माश्च वसा मद्रास्तथोरगाः। पीड्यन्ते ये च तद्भक्ताः सन्ध्यानमारोहेत् यथा ॥१०२॥ (वत्सा) वत्स (विदेह) विदेह (जिहाश्च) कुन्तल (वसा) वसा (मद्रास्त्थोरगा:) मद्रा, उरगपुर आदि प्रदेश (सन्ध्यानमारोहेत् यथा) शुक्र के बांयी ओर जाने पर (तद्भक्ताः च ये पीड्यन्ते) उसके भक्त पीड़ित होते हैं। ___ भावार्थ- यदि शुक्र के बांयी ओर जाने पर वत्स, विदेह, कुन्तल, वसा, मद्रास, उरगपुर, आदि प्रदेश के भक्तों को पीड़ा होती है।। १०२॥ अलंकारोपघाताय यदा दक्षिणतो व्रजेत्। सौम्ये सुराष्ट्रे च तदा वामगः परिहिंसति॥१०२॥ (यदा) जब (दक्षिणतोव्रजेत्) दक्षिण में शुक्र गमन करे तो (अलंकारोपघाताय) अलंकारों का घात होता है (वामगः) वहीं बांयी ओर गमन करे तो (सौम्ये सुराष्ट्र च तदा परिहिंसति) तब सौम्य सुराष्ट्र प्रदेश का घात करता है। भावार्थ-जब दक्षिण में शुक्र गमन करे तो अलंकारों का घात होता है वहीं शुक्र बांयी ओर गमन करे तो सौम्य सौराष्ट्र प्रदेश का घात करता है।। १०२॥ आद्रा हत्वा निवर्तेत यदि शुक्रः कदाचन। संग्रामास्तत्र जायन्ते मांश शोणितकईमाः ।। १०४॥ (यदि) यदि (शुक्रः) शुक्र (कदाचन) कदाचित (आद्रौहत्वानिवर्तेत्) आर्द्रा Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 : I T i ૪૫ पञ्चदशोऽध्यायः नक्षत्र का घात करे तो (तन्त्र ) वहाँ पर (मांश शोणित कर्द्दमाः) मांस रक्त का कीचड़ करने वाला (संग्रामाः जायन्ते) संग्राम होता है। भावार्थ--- अगर शुक्र आर्द्रा नक्षत्र का घात कर परिवर्तित करे तो मांस, रक्त कीचड़ करने वाला संग्राम वहाँ पर होता है ॥ १०४ ॥ तैलिका: सारिकाश्चान्तं चामुण्डामांसिकास्तथा । आषण्डाः क्रूरकर्माणः पीडयन्ते ताद्दशेन यत् ॥ १०५ ॥ ( ताशेन यत् ) उसी प्रकार शुक्र के होने से (तैलिकाः सारिकाश्चान्तं) तैली, सैनिक, सारिका, (चामुण्डामांसिकास्तथा ) तथा, चामुण्ड, मांसिक ( आषण्डाः क्रूर कर्माणः ) इस प्रकार क्रूर कर्म करने वाले (पीडयन्ते) पीड़ित होते हैं । भावार्थ — उसी प्रकार शुक्र के होने पर (तैली, सैनिक, सारिक चमार, इस प्रकार के क्रूर कर्म करने वाले पीड़ा को प्राप्त होते हैं ॥ १०५ ॥ माँसिक ) दक्षिणेन यदा गच्छेद् द्रोणमेधं तदा दिशेत् । वामगो रुद्र कर्माणि भार्गवः परिहिंसति ॥ १०६ ॥ ( यदा भार्गवः) जब शुक्र (दक्षिणेन गच्छेद्) दक्षिण से गमन करे तो (द्रोणमेघं तदादिशेत्) एक द्रोण प्रमाण जल की वर्षा होती है (वामगो) और बांयी ओर शुक्र गमन करे तो ( रुद्र कर्माणिपरि सति) रोद्र कर्म करने वालों की हिंसा हो है । भावार्थ-जब शुक्र दक्षिण से गमन करे तो पानी एक द्रोण प्रमाण वर्षा होती है, और बांयी ओर गमन करे तो क्रूर कर्म करने वालों की हिंसा होती है ॥ १०६ ॥ रोहेद्गाश्च पुनर्वसुं यदा गोजीविनस्तथा । हासं प्रहासं राष्ट्रं च विदर्भान् दासकांस्तथा ॥ १०७ ॥ ( यदा) जब शुक्र ( पुनर्वसुं ) पुनर्वसु नक्षत्र में ( रोहेद्गाश्च) आरोहण करे तो ( गोजीविनस्तथा ) गायों का धन्धा करने वालों का ( हासं प्रहासं राष्ट्रं च ) हास - प्रहास होता है राष्ट्र में और (विदर्भान् दासकांस्तथा ) विदर्भ में दासों को प्रशन्नता प्राप्त होती है। Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु मंहिता ४४८ भावार्थ-जब शुक्र पुनर्वसु नक्षत्र में आरोहण करे तो गोधनों का धन्धा करने वालों का हास-प्रहास होता है राष्ट्र में व विदर्भ में दासों को प्रशन्नता प्राप्त होती है॥१०७॥ शम्बरान् पुलिन्दकाच श्वानषण्ढांश्च वल्कलान्। पीडयेच्च महासण्डान् शुक्रस्ताशेन यत्॥१०८॥ (यत्) जो (तादृशेन) उसी प्रकार का (शुक्र;) शुक्र है (शम्बरान्) भील (पुलिन्दकाश्च) पुलिन्द (श्वान) श्वान, (षण्ढाश्च) नपुंसक, (वल्कलान्) वल्कधारी (महासण्डान्पीडयेच्च) महान नपुंसक को पीड़ा देता है। भावार्थ-जो उसी प्रकार का शुक्र है वो भील, पुलिन्द, श्वान नपुंसक वल्कधारी और महान नपुंसक को पीड़ा देता है।। १०८ ।। प्रदक्षिणे प्रयाणे तु द्रोणमेकं तदा दिशेत् । वामयाने तदा पीडां ब्रूयात्तत्सर्व कर्मणाम् ॥ १०९॥ पुनर्वसु नक्षत्र का घात कर शुक्र के (प्रदक्षिणेप्रयाणे तु) प्रदक्षिणी रूप गमन करे तो (द्रोणमेकं तदा दिशेत्) एक द्रोण प्रमाण वर्षा या धान्य होगा ऐसा कहे (वामयाने) इसी प्रकार वाम भाग में हो तो (तत्सर्व कर्मणाम् पीड़ा ब्रूयात्) वहाँ पर सभी कार्यों में पीड़ा होगी। भावार्थ-यदि पुनर्वसु नक्षत्र का घात करता हुआ दक्षिण भाग में शुक्र का गमन हो तो एक द्रोण प्रमाण जल की वर्षा व धान्य होता है और वाम भाग से उसी प्रकार गमन करे तो वहाँ के सभी कार्यों में विघ्न पड़ता है।। १०९।। पुष्यं प्राप्तो द्विजान् हन्ति पुनर्वसावपि शिल्पिनः । पुरुषान् धर्मिणश्चापि पीड्यन्ते चोत्तरायणाः॥११०॥ (पुष्यं प्राप्तो) पुष्य नक्षत्र को प्राप्त होने वाला (चोत्तरायणा:) उत्तरायण शुक्र (द्विजान् हन्ति) ब्राह्मणों का घात करता है (पुनर्वसावपि) पुनवसु में उसी प्रकार शुक्र हो तो (शिल्पिन:) शिल्पियों को पीड़ा देता है (धर्मिणश्चापि पुरुषान् पीड्यन्ते) और धार्मिक पुरुषों को भी पीड़ा देता है। Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T 23 पञ्चदशौ भावार्थ-पुष्य नक्षत्र को प्राप्त होने वाला उत्तरायण शुक्र ब्राह्मणों का घात करता है, और पुनर्वसुका शुक्र उसी प्रकार हो तो शिल्पियों का व धर्मात्माओं का घात करता है ॥ ११० ॥ वङ्गा उल्कल चाण्डाला: पार्वतेयाश्च ये नराः । इक्षुमन्त्याश्च पीडयन्ते आर्द्रामारोहणं यथा ।। १११ । उसी प्रकार (आर्द्रामारोहणं यथा) आर्द्रा नक्षत्र में शुक्र आरोहण करे तो (वन) वंगवासी (उल्कल) उल्कलवासी ( चाण्डाला:) चाण्डाल, ( पार्वतेयाश्चयेनरा ) पर्वत पर रहने वाले मनुष्य (इक्षुमन्त्याश्च ) इक्षुमति नदी के किनारे पर निवास करने वाले ( पीडयन्ते) पीड़ा को प्राप्त होते हैं। भावार्थ — आर्द्रा नक्षत्र में शुक्र आरोहण करे तो वज्रवासीयों को उत्कलवासियों को पर्वत पर रहने वालों को व इक्षुमति नदी के किनारे पर रहने वालों की पीड़ा होती है ।। १११ ॥ मत्स्यभागीरथीनां तु शुक्रोऽश्लेषां यदाऽऽरुहेत् । वामगः सृजते व्याधिं दक्षिणो हिंसते प्रजाः ॥ ११२ ॥ ( यदा) जब (शुक्रो ) शुक्र (वामगः सृजते ) वाम भाग जाता हुआ (अश्लेषांऽऽरुहेत्) आश्लेषा का आरोहण करे (तु) तो (मत्स्यभागीरथीनां व्याधिं ) मत्स्य देशवासी और भागीरथी नदी के किनारे पर रहने वालों को व्याधियाँ उत्पन्न होती है, (दक्षिणो हिंसते प्रजाः) और उसी प्रकार दक्षिण भाग में शुक्र है तो प्रजा की हिंसा करेगा। भावार्थ- जब शुक्र वाम भाग होता हुआ आश्लेषा पर आरोहण करे तो मत्स्य देशवासी भागीरथी तट के वासीयों को व्याधियाँ उत्पन्न होगी, उसी प्रकार दक्षिण भाग का शुक्र हो तो प्रजा की हिंसा करेगा ॥ ११२ ॥ मघानां दक्षिणं पाश्र्व भिनत्ति यदि भार्गवः । आढकेन तदा धान्यं प्रियं विन्द्यादसंशयम् ॥ ११३ ॥ ( यदि भार्गवः) यदि शुक्र ( मघानां दक्षिणं पार्श्व) मघा नक्षत्र का दक्षिण Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता । ४५० भाग (भिनात्ति) भेदन करता है तो (तदा) तब (आढकेनधान्यं) आढ़क प्रमाण धान्योत्पति होगी, (प्रियं विन्द्यादसंशयम्) है प्रिय ऐसा जानो इसमें सन्देह मत करो। भावार्थ-यदि शुक्र मघा नक्षत्र का दक्षिण की तरफ से घात करता है, तो आढ़क प्रमाण धान्यों की उत्पत्ति होगी, इसमें हे बन्धु ! कोई सन्देह मत समझो।। ११३।। विलम्बेन यदा तिष्ठेत् मध्येमित्त्वा यदा मघाम्। आढकेन हि धान्यस्य प्रियो भवति ग्राहकः॥११४॥ (यदा) जब शुक्र (मघाम्) मघा नक्षत्र को (विलम्बेन) देर तक (भित्वा) भेदन करता हुआ (मध्येतिष्ठेत्) मध्यमे ठहरे तो (आढकेनहि धान्यस्य) आढ़क प्रमाण धान्य होगा, (प्रियो भवति ग्राहक:) ग्राहक को प्रिय होगा। भावार्थ-जब शुक्र मघा नक्षत्र देर तक घात करता हआ मध्यम में ठहरे तो आढ़क प्रमाण तो धान्य होता है और महँगा होता है॥११४॥ मघानामुत्तरं पाव भिनत्ति यदि भार्गवः। कोष्ठागाराणि पीड्यन्ते तदा धान्यमुपहिंसन्ति ॥११५॥ (यदि भार्गव:) यदि शुक्र (मघानामुत्तरं पाव भिनति) मघा नक्षत्र के उत्तर भाग का भेदन करता है तो (तदा) तब (कोष्ठगाराणि पीड्यन्ते) खंजाची लोग पीड़ित होते हैं और (धान्यमुपहिंसन्ति) धान्यों की उत्पत्ति का घात होता है। भावार्थ-यदि शुक्र मघा नक्षत्र के उत्तरीय भाग का भेदन करे तो खंजाची लोगों को पीड़ा होती है धान्यों का घात होता है।। ११४॥ प्राज्ञा महान्तः पीड्यन्ते ताम्रवर्णों यदा भृगुः। प्रदक्षिणे विलम्बश्च महदुत्पादयेज्जलम्॥११६॥ (यदा) जब (शुक्र) शुक्र (ताम्रवर्णो) ताम्रवर्ण का होता है तो (प्रज्ञा महान्तः पीड्यन्ते) बुद्धिमान विद्वान पीड़ा को प्राप्त होती हैं (प्रदक्षिणे विलम्बश्च) और प्रदक्षिणा में शुक्र देर करे तो (महदुत्पादयेज्जलम्) महान् वर्षा होती है। भावार्थ-जब शुक्र ताम्रवर्ण का हो तो बुद्धिमान विद्वानों को पीड़ा होती है यदि शुक्र प्रदक्षिणा करने में देर करे तो बहुत वर्षा होती हैं।। ११६ ।। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५१ पञ्चदशोऽध्यायः पूर्वाफाल्गुन: सेवेत निकां रूपजीविनीः। पीडयेद्वामगः कन्यामुग्रकर्माणं दक्षिणः ॥ ११७ ॥ (पूर्वाफाल्गुनीं) पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में शुक्रका (वामगः) बाँयी ओर से (सेवेत) आरोहण करे तो (रूपजीविन गणिकां) वैश्याओं को (पीडयेद) पीड़ा देता है (दक्षिण:) और दक्षिण रूप शुक्र हो तो (कन्यामुग्रकर्माणं) कन्याओं की व उग्र कर्म करने वालों को पीड़ा देता है। भावार्थ--पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्रमें शुक्र का वाम भाग आरोहण हो तो समझो (रूपजीवी) वैश्याओं को पीड़ा होती है और दक्षिण रूप हो तो कन्याओं को व उग्रकर्म करने वालों को पीड़ा होती है।। ११७ ।। शबरान् प्रतिलिङ्गानि पीडयेदुत्तरा श्रितः। वामगः स्थविरान् हन्ति दक्षिणः स्त्रीनिपीडयेत्॥११८॥ (उत्तराश्रितः) यदि शुक्र उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमें (वामग:) वामभाग में आरोहण करे तो (शबरान्) शबर, (स्थविरान्) साधुओं को, (प्रतिलिजानि) प्रतिलिङ्गधारीयों को (पीडयेद्) पीड़ा देता है (हन्ति) मारता है (दक्षिण:) दक्षिण भाग से आरोहण करे तो (स्त्रीनिपीडयेत्) स्त्रीयों को पीड़ा होती हैं। भावार्थ-यदि शुक्र उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में वाम भाग से आरोहण करे तो शबर, स्थविर, प्रतिलिङ्गधारीयों को पीड़ा व मारता है और दक्षिण से उसी प्रकार शुक्र आरोहण करे तो स्त्रियों का विनाश करता है।। ११७ ।। काशाँश्च रेवती हस्ते पीडयेत् भार्गवः स्थितः। दक्षिणे चौरघाताय वामश्चौर जयावहः ॥११९ ॥ (रेवतीहस्ते) रेवती नक्षत्र और हस्तनक्षत्र में यदि (भार्गव:) शुक्र (स्थित:) स्थित है तो (काशाँश्च पीडयेत्) काश का घात होता है (दक्षिणे चौरघाताय) दक्षिण में हो तो चोरों का घात करता है (वामश्चौर जयावहः) वाम हो तो चोरों की जय करता है। भावार्थ-यदि शुक्र रेवती, हस्त नक्षत्र में आरोहण करे तो समझो काश Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता का घात होता है, दक्षिण में हो तो चोरों का घात करता है वामभाग में हो तो चोरों की विजय कराता है ।। ११९ ।। चित्रास्थः पीडयेत् सर्वं विचित्रं गणितं लिपिम् । कोशलान् मेखलान् शिल्पं द्यूतं कनक वाणिजान् ॥ १२० ॥ ४५२ ( चित्रास्थ : ) चित्रा नक्षत्र को शुक्र आरोहण करे तो (सर्व) सब प्रकार के (विचित्र ) विचित्र ( गणितं ) गणित ( लिपिम्) लिपि (कोशलान्) कौशल (मेखलान् ) मेखलाको ( शिल्पं ) शिल्प को (धुतं) जुआरीओं को (कनक) सोना के (वाणिजान् ) व्यापारियों को (पीडयेत् ) पीड़ा देता है। भावार्थ- जब शुक्र चित्रा नक्षत्र को कारोहण करे तो गणित, व्यापारी, कौशल, मेखला, शिल्प, धुत, सोने के व्यापारी इन सबका घात करता है ॥ १२० ॥ आरूढपल्लवान् हन्ति मारीचोदार कोशलान् । मार्जारनकुलांश्चैव कक्षमार्गे 리 पीडयते ।। १२१ ।। जिस नक्षत्र पर शुक्र ( आरूढ ) आरोहण होने पर ( पल्लवान) पल्लव ( मारीचोदार) सौराष्ट्र और ( कोशलान् ) कौशल देश को ( हन्ति) मारता है (च) और (कक्षमार्गे) कक्ष मार्ग में होने पर ( मार्जारनकुलांश्चैव) मार्जार, नकुलादि को ( पीडयते) पीड़ा देता है । भावार्थ - यदि शुक्र चित्रा नक्षत्र पर आरूढ करता है तो पल्लववासी, सौराष्ट्रवासी और कौशल देशवासियों को मारता है अगर कक्ष मार्ग में शुक्र हो तो मार्जार, नेवलादि को पीडादेता है ॥ १२१ ॥ चित्रमूलाश्च त्रिपुरां arrant च। वामगः सृजते व्याधिं दक्षिणो वणिकान् वधेत् ॥ १२२ ॥ (चित्रमूलाश्च ) चित्रा नक्षत्र के अन्तिम चरण में (त्रिपुरां ) शुक्र ( वातन्वत मथापि च ) आरोहण करे और वो भी (वामाग: व्याधिं सृजते ) वाम भाग में हो तो व्याधियों को करता है (दक्षिणो वणिकान् वधेत्) दक्षिण में हो तो वैश्यों को मारता है। Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशोऽध्यायः भावार्थ-यदि चित्र नक्षत्र के अन्तिम चरण में शुक्र आरूढ हो और वो भी वाम भाग में हो तो व्याधियों को उत्पन्न करता है अगर दक्षिण में हो तो बनियों का विनाश करता है। १२२॥ स्वातौ दशाणाश्चेति सुराष्ट्रं चोपहिंसति। आरूढो नायकं हन्ति वामो वामं तु दक्षिणः॥१२३॥ (स्वाती) स्वाति नक्षत्र में शुक्र (आरूढो) आरूढ करे तो (दशार्णाश्चेति) दशार्ण देश और (सुराष्ट्र चोपहिंसति) सौराष्ट्र देश का नाश करता है (वामौ) अगर वाम भाग से आरूढ करे तो वाम भाग के (नायकं हन्ति) नायक का नाश करता है (दक्षिणे तु) दक्षिण भाग से आरोहण करे तो दक्षिण भाग के नायक को मारता भावार्थ-स्वाति नक्षत्र में शुक्र आरूढ हो तो दक्षिण देश व सौराष्ट्र देश का नाश होता है, अगर वाम भाग से हो तो वाम भाग के नायक को मारेगा और दक्षिण भाग का हो तो दक्षिण के नायक को मारेगा॥१२३॥ विशाखायां समारूढो वरसा मन्त जायते। अथ विन्द्यात् महापीडां उशना सवते यदि ॥१२४ ॥ (विशाखायां समारूढो) विशाखा नक्षत्र में शुक्र आरूढ हो तो (वर सामन्त जायते) श्रेष्ठ सामन्त उत्पन्न होते हैं (यदि) यदि (उशानाम्रवते) शुक्र म्रवित होता दिखे तो (अथ महापीडां विन्द्यात्) समझो वहाँ पर महापीडा होगी। भावार्थ-विशाखा नक्षत्र में आरूढ होने वाला शुक्र श्रेष्ठ सामन्तों को पैदा करता है अगर शुक्र च्युत होता हुआ दिखाई पड़े तो समझो वहाँ पर महापीडा उत्पन्न होगी॥१२४ ॥ दक्षिणस्तु मृगान हन्ति पश्चिमो पाक्षिणान् यथा। अग्निकर्माणि वामस्थो हन्ति सर्वाणि भार्गवः ॥ १२५॥ उपर्युक्त (भार्गव:) शुक्र (दक्षिणस्तु मृगान हन्ति) दक्षिण दिशा का हो तो मृगों का नाश करता है (यथा) यथा (पश्चिमो पाक्षिणान्) पश्चिम का हो तो पक्षियों Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ४५४ का नाश करता है (अग्नि कमाणि वामस्थो) वाम भाग में हो तो अग्नि कार्यों की (सर्वाणि हन्ति) सब प्रकार से नाश करता है। भावार्थ-यदि उपर्युक्त शुक्र दक्षिण में दिखे मृगों का नाश, पश्चिमा में दिखे तो पक्षियों का नाश और वाम भाग में दिखे तो सब अग्नि कार्यों का नाश करता है। १२५॥ मध्येन् प्रज्वलन् गच्छन् विशाखामश्वजे नृपम्। उत्तरोऽवन्तिजान् हन्ति स्त्री राज्यस्थांश्च दक्षिणः ।।१२६ ॥ ___ यदि शुक्र (प्रज्वलन) प्रज्वलित हो तो हुआ (विशाखामश्वजे) विशाखा नक्षत्र और अश्विनी नक्षत्र के (मध्येन) मध्य में (गच्छन्) जाता हुआ दिखाई पड़े और वह भी (उत्तरो) उत्तर दिशा में हो तो (अवन्तिजान् नृपम् हन्ति) अवन्ती देश के राजा का नाश करता है (दक्षिण:) यदि वही दक्षिण में हो तो (स्त्रीराजस्थांश्च) स्त्रीराज्य की प्रजा का नाश करेगा। __भावार्थ-यदि शुक्र विशाखा और अश्विनी नक्षत्र के मध्य में होकर प्रज्वलित होता हुआ उत्तर से गमन करे तो समझो अवन्ति देश के राजा का नाश होगा और दक्षिण से गमन करे तो समझो स्त्रीराज्य की प्रजा का नाश होगा।। १२६ ॥ अनुराधास्थितो शुक्रो यायिनः प्रस्थितान् वधेत् । मदते च मिथो भेदं दक्षिणे न तु वामगः॥१२७॥ (अनुराधास्थितोशुक्रो) अनुराधा नक्षत्र पर शुक्र आरूढ दिखे तो (यायिनः प्रस्थितान् वधेत्) आक्रमण करने के लिये प्रस्थान करने वाले राजा का वध होगा ऐसा सूचित करता है (मर्दते च) और मर्दित करता हुआ दिखे तो (मिथो भेद) परस्पर भेद होता है (दक्षिणेन तु वामगः) यह दक्षिण होने का फल है किन्तु वाम भाग का नहीं है। भावार्थ-यदि शुक्र अनुराधा नक्षत्र पर आरूढ दिखे तो प्रस्थान करने वाले आक्रमणकारी राजा की मृत्यु का सूचक है अगर शुक्र मर्दित करता हुआ दिखे तो परस्पर भेद हो जाता है यह फल दक्षिण की तरफ शुक्र के रहने का है न की वाम भाग का॥१२७॥ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशोऽध्यायः मध्यदेशे तु दुर्भिक्षं जयं विन्धादुदये ततः। फलं प्राप्यन्ति चारेण भद्रबाहुवचो यथा॥१२८॥ यदि अनुराधा नक्षत्र में शुक्र का (उदये) उदय हो तो (ततः) उसका फल (मध्यदेशे दुर्भिक्ष) मध्यप्रदेश में दुर्भिक्ष होगा और (जयंविन्द्यात्) जय भी होगी, (चोरण फलंप्राप्यन्ति) शुक्र के संचार का यही फल है (यथा) ऐसा (भद्रबाहुवचो) भद्रबाहु स्वामी का वचन है। भावार्थ-अनुराधा नक्षत्र में शुक्र का उदय होता है तो उसका फल मध्यप्रदेश में दुर्भिक्ष होगा, शुक्र के संचार का फल ऐसा ही है ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है॥१२८॥ ज्येष्ठास्थः पीडयेज्ज्येष्ठान इक्ष्वाकून् गन्धमादजान्। मर्दनारोहणे व्याधि मध्यदेशे ततो वधेत् || १२९॥ (ज्येष्ठास्थ:) ज्येष्ठा नक्षत्रमें शुक्र (मर्दनारोहणे) मर्दन करता हुआ आरोहण करे तो (इक्ष्वाकून् गन्धमादजान्) इक्ष्वाकुवंश वाले व गन्धमादन देश वाले (ज्येष्ठान्) ज्येष्ठ व्यक्तियों को (पीडयेत्) पीडा देता है, (मध्यदेशे) मध्यदेश में (व्याधिं ततो वधेत्) व्याधियाँ और मारण करता है। भावार्थ-ज्येष्ठा नक्षत्र में शुक्र आरोहण करे तो इक्ष्वाकुवंशी गन्धमादनपर्वत वंशीयों के किसी ज्येष्ठ (बड़े) व्यक्तियों का नाश करता है, पीडा देता है, अगर मर्दन करता हुआ आरोहण करे तो मध्य देश में व्याधियाँ करेगा व जनता को मारेगा॥१२९॥ दक्षिणः क्षेम कृज्ज्ञेयो वामगस्तु भयङ्करः। प्रशन्नवर्णों विमलः स विज्ञेयो सुखङ्करः ।।१३०॥ यदि शुक्र (दक्षिण: क्षेमकृज्ज्ञेयो) दक्षिण का हो तो क्षेम करेगा, (वामगस्तु भयङ्करः) वाम भाग का हो तो भयंकर होता है (प्रशन्न वर्णोविमल:) विमल और प्रशन्न वर्ण वाला हो तो (स) वह (सुखकर ज्ञेयो) सुखकर जानना चाहिये। भावार्थ- यदि उपर्युक्त शुक्र दक्षिण का हो तो क्षेम करेगा, वाम भाग Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता का हो तो भयंकर फल देगा और विमल प्रशन्न वर्ण का शुक्र हो तो समझो वह सुखकारी जानना चाहिये ।। १३० ।। हन्ति मूलफलं मूले कन्दानि च वनस्पतिम् । औषध्योर्मलग चार भावकाण्णवसीडिकः ॥ १३१ ॥ (मूल) मूल नक्षत्र में शुक्र आरोहण करे तो (फलं) फल (मूले) मूल (कन्दानि ) कन्द (च) और (वनस्पतिम् ) वनस्पतियाँ (औषध्योर्मलयंचाऽपि ) औषधि मलयागिरी चन्दन का और भी (माल्य काष्ठोपजीविनः ) मालाकाष्ठादि को जीवी का करने वालों को ( हन्ति) मारता है। भावार्थ — मूल नक्षत्र पर शुक्र आरोहण करे तो फल, मूल, कन्द, वनस्पति, औषधि, चन्दन का काम करने वाले और मालाकाष्ठादिक का व्यापार करने वालों का घात करता है ।। १३१ ।। यदाऽऽरुहेत् प्रमर्देत कुटुम्बाभूश्च दुःखिताः । कन्दमूलं फलं हन्ति दक्षिणो वामगो जलम् ॥ १३२ ॥ ४५६ ( यदाऽऽरुहेत् प्रमर्देत) जब शुक्र आरोहण या प्रमर्दन करता हुआ मूल नक्षत्र में (दक्षिण) दक्षिण का हो तो (कुटुम्बाभूश्च दुःखिताः) कुटुम्ब भूमि आदि दुःखित होते हैं (कन्दमूलंफलं हन्ति) कन्दमूल और फलों का नाश करता है (वामगो जलम् ) वाम भाग में हो तो जल का विनाश करता है। भावार्थ - यदि मूल नक्षत्र का शुक्र प्रमर्दित होता हुआ दक्षिण में आरोहण करे, तो समझो कुटुम्ब और भूमि आदि दुःखित होते है कन्द, फल, मूल को नाश करता है, वाम भाग में हो तो जल का नाश करता है ॥ १३२ ॥ आषाढस्थ: वामभूमिजलेचारं शान्तिकरश्च प्रपीडयेत् । मेघश्च तालीरारोह यदि शुक्र ( आषाढस्थः) पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में ( तालीरारोह मर्दने) आरोहण करे या मर्दन करता हुआ गमन करे तो ( वाम भूमि जले चारं प्रपीडयेत् ) सभी भूमिचर व जलचर आदि को पीड़ा देता है और (शांतिकरश्चमेघश्च) वर्षा भी शान्ति कर होती है। मर्दने ।। १३३ ।। Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशोऽध्यायः भावार्थ-यदि शुक्र पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में गमन करे तो और आरोहण करता हुआ मर्दन करे तो भूमिचर और जलचर जीवों को पीड़ा होती है किन्तु वर्षा भी शान्तिकर होती है॥१३३ ।। दक्षिणः स्थविरान् हन्ति वामगो भयमावहेत्। सुवर्णो मध्यमः स्निग्धो भार्गव: सुखमावहेत्॥१३४॥ (दक्षिण: स्थविरान् हन्ति) यदि शुक्र उपर्युक्त रीति से दक्षिण में हो तो (स्थविरों) का घात करती है (वामगो भयमावहेत) बायीं ओर का हो तो भय उत्पन्न करता है (सुवर्णो) सुवर्ण (मध्यमः) मध्यम (स्निग्धो) स्निग्ध शुक्र हो तो (सुखमावहेत) सुख उत्पन्न करता है। भावार्थ-यदि शुक्र उपर्युक्त रीति से दक्षिण का हो तो स्थावरों का घात करता है, यदि शुक्र सवर्ण वाला हो मध्यमें गमन करे, स्निग्ध हो तो सुख को उत्पन्न करता है ।। १३४॥ यधुत्तरासु तिष्ठेच्च पाञ्चालान् मालवत्रयान्। पीडयेन्मईयेद्रोहाद् विश्वासाढ़ेद कृत्तथा ।। १३५॥ (यद्युत्तरासु तिष्ठेच्च) यदि उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में शुक्र ठहरे तो (पाञ्चालान्) पाञ्चाल (मालवत्रयान्) मालवत्रय, (पीडयेनन्तमईयेद्) पीडा देता है, मर्दन करता है (द्रोहाद्) द्वेष से (विश्वाससानेहद कृतथा) विश्वास देकर भेद करता है। भावार्थ-यदि उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में शुक्र ठहरता है, तो पाञ्चाल मालवत्रय को पीड़ा देता है मर्दन करता है द्रोह करता है विश्वास देकर भेद करेगा॥ १३५ ।। अभिजित्स्थः कुरून् हन्ति कौरल्यान् क्षत्रियांस्तथा। पशवः साधवश्चापि पीडयते रोह मर्दने ।। १३६ ।। (अभिजित्स्थ:) अभिजित नक्षत्र में शुक्र (रोह मर्दने) आरोहण व मर्दन करे तो (कौरव्यान) कौरवों को (तथा) तथा (क्षत्रियां:) क्षत्रियों को (पशवः) पशुओं को (साधवश्चापि) साधुओं को (पीड्यते) पीड़ा देता है (हन्ति) मारता है। भावार्थ यदि अभिजित नक्षत्र में शुक्र आरोहण करे मर्दन करे तो कौरवों को क्षत्रियों को पशुवों को, साधुओं को पीडा देता है मारता है॥१३६ ।। Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ४५८ यदा प्रदक्षिणं गच्छेत् पञ्चत्वं कुरुमादिशेत्। वामतो गच्छमानस्तु ब्राह्मणानां भयङ्करः ॥१३७॥ (यदा) जब शुक्र अभिजित नक्षत्र का (प्रदक्षिणं गच्छेत) दक्षिणरूप होकर गमन करे तो (पञ्चत्वंकुरुमादिशेत्) कौरवों को मृत्यु प्राप्त करता है (वामतो गच्छमानस्तु) वाम भाग में गमन करे तो (ब्राह्मणानां भयङ्करः) ब्राह्मणों के लिये भयंकर है। भावार्थ-जब शुक्र अभिजित नक्षत्र में दक्षिण का होकर गमन करे तो कौरवों को मृत्यु प्राप्त करता है और वाम भाग में हो तो ब्राह्मणों के लिये महान् भयंकर होता है।। १३७॥ सौरसेनांश्च मत्स्यांश्च श्रवणस्थः प्रपीडयेत्। वङ्गाङ्गमगधान् हन्यादारोहणप्रभर्दने॥१३८॥ यदि (श्रवणस्थः) श्रवण नक्षत्रमें शुक्र गमन करता हुआ हो तो (सौरसेनांश्च) सौरसेना (मत्स्यांश्च) मत्स्य देशवासी को (प्रपीडयेत्) को पीड़ा देता है (रोहण) यदि शुक्र रोहण करे (प्रमर्दने) प्रमर्दन करे तो (वा) बंग, अंगदेश को व (मगधान्) मगधवासियों को (हन्याद्) मारता है। भावार्थ—यदि श्रवण नक्षत्र को शुक्र आरोहण करे तो सौरसेना, मत्स्यवासीयों को पीडा देता है, वहीं शुक्र प्रमर्दन करता हुआ गमन करे तो बंग, अंग, मगधवासियों को मारता है॥१३८ ।। दक्षिणः श्रवणं गच्छेद् द्रोणमेघं निवेदयेत् । वामगस्तूपघाताय नृणां च प्राणिनां तथा।।१३९॥ यदि (दक्षिण:) दक्षिण से (श्रवणं) श्रवण नक्षत्र को शुक्र (गच्छेद्) गमन करे तो (द्रोणमेघ) एक द्रोण प्रमाण वर्षा (निवेदयेत्) होगी, ऐसा निवेदन करे, (तथा) तथा (वामगस्तूपघाताय नृणा च प्राणिनां) और बौयी और से गमन करे तो मनुष्यों के लिये और प्राणियों के लिये घात का कारण है। भावार्थ-यदि शुक्र दक्षिण से श्रवण नक्षत्र को गमन करे तो एक द्रोण Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशोऽध्यायः प्रमाण वर्षा होगी ऐसा निवेदन करे, तथा वाम भाग से उसी प्रकार गमन करे तो मनुष्यों को व प्राणियों को घात करेगा॥१३९ ॥ धनिष्ठास्थो धनं हन्ति समृद्धांश्च कुटुम्बिनः। पाञ्चाला: सूरसेनांश्च मत्स्यानारोहमर्दने॥१४० ।। यदि शुक्र (धनिष्ठास्थो) धनिष्ठा नक्षत्रों में गमन करे तो (समृद्धाश्च) समृद्धशाली (कुटुम्बिनः) कुटुम्बो का (धनं हन्ति) धन का हरण करेगा वही धनिष्ठा नक्षत्र में शुक्र (आरोहमर्दने) आरोहण व मर्दन करे तो (पाञ्चाला:) पाञ्चाल देश (सूरसेनाश्च) सूरसेना देश (मत्स्यान्) मत्स्य देश का नाश करता है। भावार्थ-यदि धनिष्ठा नक्षत्र को शुक्र गमन करे तो समृद्धशाली धनिक परिवारों का नाश करेगा और उसी नक्षत्र को आरोहण व मर्दन करे तो पाञ्चाल सूरसेन और मत्स्य देशों का विनाश करेगा ॥ १४० ॥ दक्षिणो धनिनो हन्ति वामगो व्याधिकृद् भवेत्। मध्यगः सुप्रसन्नश्च सम्पशस्यति भार्गवः ।। १४१॥ यदि शुक्र (दक्षिणो धनिनो हन्ति) उसी नक्षत्र को दक्षिण की ओर गमन करे तो धनवानों का नाश करता है। (वामगो व्याधि कृद् भवेत्) वामभाग में गमन करे तो व्याधि उत्पन्न करता है (मध्यगः) मध्यमें गमन करे तो (सुप्रसन्नश्चसम्प्रशस्यति) प्रसन्नरूप और प्रशस्त होता है। भावार्थ-यदि शुक्र उपर्युक्त नक्षत्रमें दक्षिण और गमन करे तो धनवानों का नाश करता है, वामभाग में जाय तो व्याधियाँ उत्पन्न होगी, मध्यमें हो तो सुखरूप उत्तम रहता है।। १४१॥ शलाकिनः शिलाकृतान् वारुणस्थः प्रहिंसति। कालकूटान् कूनाटांश्च हन्यादारोहमर्दने ।। १४२ ॥ यदि शुक्र (वारुणस्थः) शतभिखा नक्षत्र को गमन करे तो (शलाकिन:) शालकी (शिला कृतान्) शिलाकृतों का (प्रहिंसति) नाश करता है (आरोहमर्दने) उसी प्रकार आरोहण व मर्दन करे तो (कालकुटान्) काल कूट (कूनाटांश्च) कुनाटों को (हन्याद्) नाश करता है। Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ-यदि शुक्र शतभिखा नक्षत्र को गमन करे तो शलाकिण व शीलकुटों का नाश करता है उसी प्रकार आरोहण व मर्दन करे तो कालकूट व कुनाटों का नाश करेगा ॥ १४२ ॥ दक्षिणो नीचकर्माणि हिंसते वामगो दारुणं व्याधिं ततः यदा भाद्रपदां सेवेत् मलयान्मालवान् हन्ति उसी नक्षत्र को यदि (भार्गवः) शुक्र (दक्षिणो) दक्षिण का हो तो। (नीचकर्मिणः हिंसते ) नीच कर्मधारियों का नीचकर्म नाश होता है (वामागो) वाम भाग का हो तो (ततः) वहाँ पर (दारुणं व्याधिं सृजति) दारुण दुःख को उत्पन्न करता है। भावार्थ -- यदि उसी नक्षत्र शुक्र दक्षिण भाग में हो तो नीच कर्म करने व लोके नीचकर्म का नाश होता है और वाम भाग में हो तो महान् व्याधि और दारुण दुःख को उत्पन्न करता है ॥ १४३ ॥ ४६० कर्मिणः । नीच सृजति भार्गवः ॥ १४३ ॥ दूतोप जीविनो वैद्यान् वामगः स्थविरान् हन्ति धूर्तान् दूतांश्चहिंसति । मर्दनारोहणे तथा ।। १४४ ॥ ( यदा) जब शुक्र (भाद्रपद) पूर्वा भाद्र पद नक्षत्र ( सेवेत ) की सेवा करे तो ( धूतान् दूतांश्च) धूत और दूतों की (हिंसति) हिंसा करता है उसी प्रकार ( मदनारोहणे तथा ) तथा मर्दन व आरोहण करे तो (मलयान्मालवान् हन्ति ) मलय व मालव देश का नाश करता है । भावार्थ — जब शुक्र पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र को गमन करे तो धूर्त और दूतों का नाश करता है उसी प्रकार मर्दन और आरोहण करे तो मलय और मालव देशवासीयों का नाश करता है ॥ १४४ ॥ प्रहिंसति । दक्षिणस्थ: भद्रबाहुवचो यदि शुक्र उपर्युक्त नक्षत्र में (दक्षिणस्थः) दक्षिण दिशा का हो तो ( दूतोप जीविनो वैद्यान् प्रहिंसति) दूत की आजीविका करने वालों का त्र वैद्यो का नाश करता है (वामगः ) वाम भाग का हो तो ( स्थविरान् हन्ति) स्थविरों का नाश करता है (भद्रबाहुवचो यथा) ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है। यथा ॥ १४५ ॥ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६१ पञ्चदशोऽध्याय: भावार्थ-यदि शुक्र उपर्युक्त नक्षत्र में दक्षिण का हो तो वैद्यां का व दूतों का नाश करता है वाम भागका हो तो स्थविरों का नाश करता है । ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है॥१४५ ।। उत्तरां तु यदा सेवेज्जलजान् हिंसते सदा। वत्सान् बाहीक गान्धारानारोहणप्रमर्दने॥१४६॥ यदि शुक्र (उत्तरांतु यदासेवेत्) उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में गमन करे तो (जलजान् सदा हिंसते) जलकाय जीवों की सदा हिंसा करता है (रोहणप्रमर्दने) उसी प्रकार मर्दन व आरोहण करे तो (वत्सान्) वत्स, (बाह्रीका) वाहीक (गान्धाराना) गान्धारवासियों की हिंसा करता है। भावार्थ-यदि शुक्र उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में गमन करे तो जलकाय जीवों की हिंसा करता है उसी प्रकार उक्त नक्षत्र मर्दन व आरोहण करे तो वत्स व वाहीक गान्धारवासियों का नाश करता है ।। १४६ ।। दक्षिणे स्थावरान् हन्ति वामगः स्याद् भयङ्करः। मध्यगः सुप्रसन्नश्च भार्गव: सुखमावहेत् ।। १४७॥ यदि (भार्गवः) शुक्र (दक्षिणे) दक्षिण में दिखे तो (स्थावरान् हन्ति) स्थावरों का नाश करता है (वामगः स्याद् भयङ्करः) वाम भाग में हो तो भयंकर होता है (मध्यग:) यदि मध्यमें हो तो (सुप्रसन्नश्च सुखभावहेत) उत्तम और सुख देने वाला होता है। भावार्थ-यदि दक्षिण दिशा का शुक्र उपर्युक्त नक्षत्र में दिखे तो स्थावरों का नाश करेगा, वाम भाग में दिखे तो महान् भयंकर होता है मध्यम का हो तो प्रशन्न रूप और सुख देने वाला होता है।। १४७॥ भयान्तिकं नागराणां नागरांश्चोप हिंसति। भार्गवो रेवतीप्राप्तो दुःप्रभश्च कृशो यदा॥१४८॥ यदि (भार्गवो) शुक्र (रेवतीप्राप्तो) रेवती नक्षत्र में गमन करे तो (नागराणां Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता કર नागरांश्चोप) नगरवासी और नगर की (दुः प्रभश्चकृशो यदा) जिस प्रकार दुष्प्रभाव होता है उसी प्रकार ( भयान्तिकं हिंसति) भय को उत्पन्न करने वाली हिंसा करता है। भावार्थ — रेवती नक्षत्र को यदि शुक्रगमन करे तो नगर और नगरवासीयों की हिंसा करता है ॥ १४८ ॥ मर्दनारोहणे हन्ति नाविकानथ नागरान् । दक्षिणे गोपिकान् हन्ति चोत्तरो भूषणानि तु ॥ १४९ ॥ यदि शुक्र उपर्युक्त नक्षत्र को (मर्दनारोहणे ) मर्दन व रोहण करे तो ( नाविकारथ नागरान् हन्ति) नाविकों व नगरवासियों का घात करता है (दक्षिणे गोपिकान् हन्ति ) दक्षिण का हो तो गोपियों का नाश करता है, (उत्तरे भूषणानि तु ) उत्तर का हो तो भूषणों का नाश करता है। भावार्थ-यदि शुक्र उपर्युक्त नक्षत्र को मर्दन अथवा आरोहण करे तो नाविको व नागरिकों का नाश करता है दक्षिण का हो तो गोपियों का नाश करेगा, उत्तर का हो तो भूषणों का नाश करता है ।। ९४९ ॥ हन्यादश्विनीप्राप्तः सिन्धुसौवीरमेव च। मत्स्याश्च कुनटान् रूढो मर्दमानश्च हिंसति ॥ १५० ॥ ( अश्विनीप्राप्तः ) अश्विनी नक्षत्र में शुक्र गमन करे तो (सिन्धु सौवीरमेव च) सिन्धु और सौवीर देश को ( हन्याद्) मारता है ( रूढोमर्दमानश्च ) और आरोहण कर अथवा मर्दन करे तो (मत्स्याश्च कुनटान् हिंसति) मत्स्य और कुनटान का घात करता है। भावार्थ — अश्विनी नक्षत्र में शुक्र गमन करे तो सिन्धु सौवीर का घात करेगा, और आरोहण मर्दन करे तो मत्स्य कुनटान का घात करेगा ।। १५० ॥ अश्वपण्योपजीविनो दक्षिणो हन्ति भार्गवः । तेषां व्याधिं तथा मृत्युं सृजत्यथ तु वामगः ॥ १५१ ॥ यदि अश्विनी नक्षत्र का ( भार्गवः) शुक्र (दक्षिणो) दक्षिण में हो तो Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६३ पञ्चदशोऽध्यायः - - - - - (अश्वपण्योपजाविनो हन्ति) अश्व के व्यापारियों का (हन्ति) घात करता है (अथ तु वामग:) और यदि वाम भाग का हो तो (तेषां) उनमें (व्याधि तथा मृत्यु सृजत्यथ) व्याधि तथा मृत्यु का सृजन करता है। भावार्थ-यदि उपर्युक्त नक्षत्रका शक दक्षिण में हो तो घोड़े के व्यापारियों को मारता है और वाम भाग का हो तो उनमें व्याधियाँ तथा मृत्यु की प्राप्ति करता है।। १५१॥ भृत्यकरान् यवनांश्च भरणीस्थः प्रपीडयेत्। किरातान् मद्रदेशानामाभीरान्मर्द-रोहणे॥१५२ ॥ यदि (भरणीस्थः) भरणी नक्षत्र में शुक्र गमन करे तो (भृत्यकरान् यवनांश्च प्रपीडयेत्) नौकरों को व यवनों को पीड़ा देता है, उसी नक्षत्र में यदि (मदरोहणे) मर्दन व रोहण करे तो (किरातान) किरात (मद्रदेशानामाभिरान) और मद्र देश को और आभीर देश को पीड़ा देता है। भावार्थ-यदि भरणी नक्षत्र में शुक्र गमन करे तो नौकरों को और मुसलमानों को पीड़ा देता है, मर्दन भी करे और आरोहण भी उक्त शुक्र करे तो किरातभद्रदेश और आभीर देशवासियों को पीड़ा देता है॥१५२।। प्रदशिणं प्रयातश्च द्रोणं मेघं निवेदयेत्। वामगः सम्प्रयातस्य रुद्रकर्माणि हिंसति॥१५३॥ वही शुक्र उसी नक्षत्रमें (प्रदक्षिणं) दक्षिण का हो तो (प्रयानश्चद्रोण मेघं निवेदयेत्) एक द्रोण प्रमाण वर्षा को कहे (वामगः) वाम भाग का हो तो (सम्प्रयातस्य रुद्रकर्माणि हिंसति) रूप कार्यों का विनाश करता है।। भावार्थ-यदि उपर्युक्त शुक्र दक्षिण का हो तो द्रोण प्रमाण वर्षा कहे और वाम भाग का हो तो रोद्र कर्मों का नाश होगा ऐसा कहे आने वालो को॥१५३ ।। एवमेतत् फलं कुर्यादनुचारं तु भार्गवः। पूर्वतः पृष्ठतश्चापि समाचारो भवेल्लघुः ॥१५४॥ (एवमेतत्) इस प्रकार (भार्गव:) शुक्र (कुर्यादनुचार) संचार कर (फलं) फल --- ... Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ४६४ होता है जिसको (पूर्वत: पृष्ठतश्चापि) पूर्व से पश्चिम तक के (समाचारो भवेल्लघुः) फल को कहा गया है। भावार्थ---इस प्रकार के शुक्र संचार का फल होता है जिसको की पूर्व से पीछे तक के समाचारों को कहा गया है॥१५४!! उदये च प्रवासे च ग्रहाणां कारणं रविः। प्रवासं छादयन्कुर्यात् मुञ्चमानस्तथोदयम् ।। १५५॥ (ग्रहाणां) ग्रहों के (उदये च प्रवासे च) उदय और प्रवास में (कारणं रवि) सूर्य ही कारण है, (प्रवासं छादयन्कुर्यात्) जब सूर्य ग्रहों को आच्छादित करता है, तो उनका अस्त कहा जाता है (मुञ्चमानस्तथोदयम्) जब छोड़ता है तो उदय कहलाता है। भावार्थ-जब ग्रहों के उदय और प्रवास में कारण सूर्य है, जब सूर्य ग्रहों को आच्छादित (ढकता है) करता है तो उसको अस्त कहते हैं और जब ग्रहों को सूर्य छोड़ देता है तो उसको उदय कहते हैं॥१५५ ।। प्रवासाः पञ्च शुक्रस्य पुरस्तात् पञ्चपृष्ठतः। मार्गे तु मार्गसन्ध्याश्च वक्रे वीथीसु निर्दिशेत्॥१५६॥ (शुक्रस्य) शुक्र के (प्रवासाः) सम्मुख और (पृष्ठतः) पीछे से (पञ्च-पञ्च पुरस्तात्) पाँच-पाँच प्रकार से अस्त है (मार्गेतु) मार्गी होने पर (मार्ग सन्ध्याश्च) मार्गसन्ध्या होती है (वक्रे वीथी निर्दिशेत्) तथा वक्री का कथन भी वीथियों में अवगत करे। भावार्थ-आचार्य श्री का कथन है कि शुक्र सामने और पीछे से पाँच-पाँच प्रकार के अस्त है शुक्र के मार्ग होने पर मार्गसन्ध्या होती है ऐसा वक्री का कथन भी वीथियों में जानना चाहिये ।। १५६॥ त्रैमासिक: प्रवास: स्यात् पुरस्तात् दक्षिणे पथि। पञ्च सप्ततिर्मध्ये स्यात् पञ्चाशीति स्तथोत्तरे ॥१५७॥ चतुर्विशत्य हानि स्युः पृष्ठतो दक्षिणे पथि। मध्ये पञ्चदशाहानि षडहान्युत्तरे पथि ।। १५८॥ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६५ पञ्चदशोऽध्यायः (दक्षिणे पथि) दक्षिण मार्ग में शुक्र का (पुरस्तात्) सम्मुख (त्रैमासिक: प्रवास: स्यात्) त्रैमासिक अस्त होता है, (मध्येस्यात्) मध्य में (पञ्चसप्ततिर:) पचहतर दिनों का और (तथोत्तरे) तथा उत्तर में (पञ्चाशीतिः) पिच्यासी दिनों का अस्त होता है, (पृष्ठतो दक्षिणे पथि) पीछे दक्षिण भाग में (चतुर्विशत्पहानिस्युः) चौबीस दिनों का (मध्ये) मध्य में (पञ्चदशाहानि) पन्द्रह दिनों का और (उत्तरेपथि षड्हान्य) उत्तर मार्ग में छह दिनों अस्त होता है। भावार्थ-दक्षिण मार्ग में शुक्र सम्मुख त्रैमासिक अस्त होता है मध्यम में पचहत्तर दिनों का उत्तर में पिच्यासी दिनों का पीछे से दक्षिण मार्ग में चौबीस दिनों का मध्यमें पन्द्रह दिनों का उत्तर मार्ग में छह दिनों का अस्त होता है।। १५७-१५८ ।। ज्येष्ठानुराधयोश्चैव द्रौ मासौ पर्वतो विदः । अपरेणाष्टरानं तु तौ च सन्ध्ये स्मृते बुधैः ।। १५९ ।। (ज्येष्ठानुराधयोश्चैव) ज्येष्ठा और अनुराधा में (पूर्वतो) पूर्व की ओर (द्वौ मासौ) दो महीनों की और (अपरेणाष्ट रात्रं तु) पश्चिममें आठ रात्रि की (सन्ध्ये) सन्ध्या (तौ च स्मृते बुधै विदु:) उसी प्रकार विद्वानों के द्वारा कही गई है। भावार्थ-ज्येष्ठा और अनुराधा में पूर्व की ओर दो महीनों की ओर पश्चिम में आठ रात्रि की सन्ध्या विद्वानों के द्वारा कही गई है ऐसा आप जानो॥१५९।।। मूलादि दक्षिणो मार्गः फाल्गुन्यादिषु मध्यमः। उत्तरश्च भरण्यादिर्जघन्यो मध्यमोऽन्तिमौ ॥१६॥ (मूलादि दक्षिणो मार्ग:) मूलादि नक्षत्र में दक्षिण मार्ग है (फाल्गुन्यादिषु मध्यमः) पूर्वा फाल्गुन आदि नक्षत्र मध्यम मार्गी है (भरण्यादि: उत्तरश्च) भरणी आदि उत्तरमार्गी है (जघन्योमध्यमोऽन्तिमौ) इनमें प्रथम मार्ग जघन्य है और अन्तिम दोनों मध्यम भावार्थ-मूलादि नक्षत्र में दक्षिण मार्ग होता है पूर्वाफाल्गुनी आदि नक्षत्र मध्यम मार्गी हैं भरण्यादिक उत्तरमार्गी है इनमें प्रथम मार्ग जघन्य और अन्य का मार्ग मध्यम और जघन्य दोनों ही है।। १६०॥ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता वामो वदेत् यदा खारीं विशकां त्रिंशकामपि। करोति नागवीथीस्यो भार्गवश्चार मार्गगः ।। १६१॥ (नागवीथीस्थो भार्गव:) नाग वीथि का शुक्र (वामो) वामगत (चार मार्गगः) विचार करने वाला हो तो (विशकां त्रिशकामपि) दस, बीस, तीस (खारी) खारी प्रमाण भाव (करोति) करता है ऐसा (वदेत्) कहे। भावार्थ-.-... लागनीधि में शुक्र वाममार्ग से संचार करे तो समझों दस, बीस, तीस खारी प्रमाण अन्न का भाव होगा ऐसा कहे।। १६१॥ विंशका त्रिंशका खारी चत्वारिंशति काऽपि वा। , वामे शुक्रे तु विज्ञेया गजवीथीमुपागते॥१६२॥ (गजवीथीमुपागते) गजवीथि में विचरण करने वाला (वामे शुक्रे) वाम मार्ग का शुक्र (विज्ञेया) हो जाय (तु) तो (विंशका त्रिंशका खारी चत्वारिंशति काऽपि वा) बीस, तीस और चालीस खारी प्रमाण अन्न का भाव करता है। भावार्थ-वाम मार्ग का शुक्र गजवीथि में विचरण करे तो समझों बीस, तीस, चालीस खारी प्रमाण अन्न का भाव होगा ।। १६२॥ ऐरावणपथे त्रिंशच्चत्वारिंशदथापि वा। पञ्चाशीतिका ज्ञेया खारी तुल्यातु भार्गवः ॥१६२॥ (ऐरावणपथे) ऐरावण पथ में (भार्गव:) शुक्र गमन करे तो (त्रिंशच्चत्वारिंशदधापि वा) तीस, चालीप्स और भी (पञ्चाशीतिका) पचास (खारी) खारी (तुल्या तु ज्ञेया) प्रमाण अन्न का भाव होगा। भावार्थ- यदि ऐरावण पथ में शुक्र गमन करे तो तीस, चालीस, पचास प्रमाण अन्न का भाव होता है,।। १६३॥ विंशका त्रिंशका खारी चत्वारिंशति काऽपि वा। व्योमगो वीथिमागम्य करोत्यर्धेण भार्गवः ।।१६४॥ (न्योमगोवीथिमागम्य) व्योम वीथि में गमन करने वाला (भार्गव:) शुक्र (विशका त्रिंशका) बीस, तीस और (चत्वारिंशतिकाऽपि वा) चालीस (खारी) खारी प्रमाण भाव (करोत्यर्पण) करता है। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६७ । पञ्चदशोऽध्यायः । भावार्थ-व्योम वीथि में गमन करने वाला शुक्र बीस, तीस, चालीस खारी प्रमाण अन्न का भाव होता है।। १६४ ।। चत्वारिंशद् पञ्चाशद् वा षष्टिं वाऽथ समादिशेत्। जरद्गवपथं प्राप्ते भार्गवे खारिसंज्ञया॥१६५।। (जरद्गवपथं प्राप्ते) जरगव वीथि में शुक्र गमन करे तो (चत्वारिंशद् पञ्चाशद् वा) चालीस, पचास व (षष्टिं वाऽथ समादिशेत्) साठ (खारी संज्ञया) प्रमाण अन्न का भाव होगा। भावार्थ-जरद्गव वीथि में शुक्र गमन करे तो चालीस, पचास, साठ खारी प्रमाण अत्र का भाव होता है॥१५॥ सप्ततिं चाथ वाऽशीतिं नवतिं वा तथा दिशेत्। अजवीथीगते शुक्रे . भद्रबाहुवचो यथा॥१६६॥ (अजवीथीगते शुक्रे) अजवीथि में गमन करने वाला शुक्र (सप्तति) सत्तर (चाथ वाऽशीति) व अस्सी (नवतिं वा तथा दिशेत्) और नब्बे खारी प्रमाण अन्न होगा (यथा) ऐसा (भद्रबाहुवचो यथा) भद्रबाहु स्वामी का कथन है। भावार्थ-अज वीथि में गमन करने वाला शुक्र सत्तर, अस्सी, नब्बे खारी प्रमाण अन्न का भाव करता है।। १६६॥ विंशत्यशीतिका खारि शतिकामप्ययथा दिशेत्। मृगवीथीमुपागम्य विवर्णोभार्गवो यदा ।। १६७॥ (यदा) जब (विवर्णो) विवर्ण होकर (भार्गवो) शुक्र (मृगवीथीमुपागम्य) मृगवीथि में गमन करे तो (विंशत्यशीतिकां) बीस, अस्सी (अपि यथा) और भी (शतिकाम् खारी दिशेत्) सौ खारी प्रमाण अन्न का भाव करता है। भावार्थ-जब शुक्र विवर्णी होकर मृग वीथि में गमन करे तो बीस, अस्सी, सौ खारी प्रमाण अन्न का भाव करेगा॥१६७॥ विच्छिन्नविषमृणालं न च पुष्पं फलं यदा। वेश्वानरपथं प्राप्तो यदा वामस्तु भार्गवः ॥१६८॥ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ४६८ (यदा) जब (भार्गव:) शुक्र (वामस्तु) वाममार्गी होकर (वैश्वानरपथं प्राप्तो) वैश्वानर पथ पर गमन करे तो (विषमृणालं न च पुष्पं फलं विच्छिन्न) विष, मृणाल, पुष्प और फल (विच्छिन्न) उत्पन्न नहीं होते। भावार्थ-जब शुक्र वामभागी होकर वैश्वानर पथ में गमन करे तो, विषपत्र, पुष्प, फल आदि उत्पन्न नहीं करने देता है॥१६८।। अनुलोमो विणयं ब्रूते प्रतिलोमः पराजयम्। उदयास्तमने शुक्रो बुधश्च कुरुते तथा ।। १६९॥ (शुक्रो बुधश्च अनुलोमो उदयास्तमने) शुक्र और बुध अनुलोम उदय अस्त को प्राप्त होने पर (विजयं ब्रूते) विजय करता है ऐसा कहे, (प्रतिलोमः पराजयम्) प्रतिलोम हो तो पराजय कराता है। भावार्थ-शुक्र और बुध अनुलोम उदय अस्त को प्राप्त होने पर विजय करता है यदि वही प्रतिलोभी हो तो पराजय कराता है।। १६९ ॥ मार्गमेकं समाश्रित्य सुभिक्ष क्षेमदस्तथा। उशना दिशतितरां सानुलोमो न संशयः॥१७०॥ (उशना दिशातितरां) शुक्र सीधी दिशा में (मार्गमेकां समाश्रित्य) एक ही मार्ग का आश्रय लेकर (सानुलोमो) वह अनुलोम रूप गमन करे तो (सुभिक्ष क्षेमदस्तथा न संशय) समझो सुभिक्ष, क्षेम होता है इसमें कोई सन्देह नहीं है। भावार्थ-यदि शुक्र सीधी दिशा में एक ही मार्ग से अनुलोम रूप गमन करे तो समझो वहाँ पर सुभिक्ष क्षेम होता है इसमें कोई सन्देह नहीं है।। १७० ।। यस्य देशस्य नक्षत्रं शुक्रो हन्यद्विकारगः। तस्मात् भयं परं विन्धाच्चतुर्मासं न चापरम्।।१७१॥ (यस्य) जिस (देशस्य) देशका (नक्षत्रं) नक्षत्रको (शुक्रो) शुक्र (विकारगः) विकार रूप (हन्याद्) घात करे तो (तस्मात्) इस कारण से (चतुर्मासं परं भयं विन्द्यात) समझो चार महीने तक बहुत भय उत्पन्न होता है (न चापरम्) दूसरी कोई बात नहीं है। Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + ४६९ पञ्चदशोऽध्यायः भावार्थ -- जिस देश का शुक्र विकार रूप होकर घात करे तो समझो उस देश में लगातार चार महीने तक भय होता रहता है अन्य कुछ भी नहीं होता ॥ १७१ ॥ ग्रहो याति प्रवासं यदि कथन । सुभिक्षमाचष्टे सर्ववर्ष समस्तदा ॥ १७२ ॥ (यदि ) यदि (शुक्रोदये) शुक्र का उदय होने पर ( ग्रहो याति प्रवास) कोई ग्रह अस्त हो जाय तो ( कथन :) ऐसा कथन है कि (क्षेमं ) क्षेम (सुभिक्षमाचष्टे ) प्रकार से सुभिक्ष होता है (सर्ववर्ष समस्तदा ) सारे वर्ष आनन्द रहता है। 'भावार्थ- -यदि शुक्र के उदय होने पर अगर कोई ग्रह अस्त हो जाय तो समझो ऐसा कथन है कि क्षेम, सुभिक्ष होता है, सर्व प्रकार से आनन्द होता है वर्षा भी उस वर्ष अच्छी होती है ॥ १७२ ॥ शुक्रोदये क्षेमं बलक्षोभो भवेच्छ्रयामे मृत्युः कपिलकृष्णयोः । नीले गवां च मरणं रूक्षे वृष्टिक्षयः क्षुधा ॥ १७३ ॥ ( बलक्षोभो भवेच्छ्रयामे) यदि शुक्र कालावर्ण का दिखे तो वह बलको क्षुब्ध करता है, ( कपिलकृष्णयोः मृत्युः) पिंगल और काला दिखे तो मरण करता है, ( नीले) नीला दिखे तो ( गवां च मरणं) गायों के मरण का कारण होता है (रूक्षे ) रूक्ष हो तो ( वृष्टिक्षयः क्षुधा ) वर्षा का नाश तथा भूख की वेदना होती है। भावार्थ-- यदि शुक्र काला रंग का दिखे तो बल क्षोभ की प्राप्ति होती है पिंगल और काला मिश्र दिखे तो मरण का सूचक है नीला हो तो गायों के मरण का कारण होता है और रूक्ष दिखे तो वर्षा का नाश होता है तथा भूख की व्याधा फैलेगी ॥ १७३ ॥ वाताक्षिरोगो माजिष्ठे पीते शुक्रे ज्वरो कृष्णे विचित्रे वर्णे च क्षयं लोकस्य भवेत् । निर्दिशेत् ॥ १७४ ॥ (शुक्रे) शुक्र (माञ्जिष्ठे) मंजिष्ठवर्ण के हो तो (वाताक्षिरोगो) वात और अक्षिरोग उत्पन्न करता है ( पीले) पीला है तो (ज्वरो भवेत् ) ज्वर करता है (कृष्णे विचित्रे वर्णे च ) और काला या विचित्र वर्ण वाला हो तो (लोकस्यक्षयं निर्दिशेत् ) लोक का क्षय करेगा ऐसा कहना चाहिये । Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ४७० भावार्थ-यदि शुक्र मंजिष्ठ वर्ण का हो तो वायु रोग, अक्षिरोग होता है पीला हो तो ज्वर करता है काला या विचित्र वर्ण का हो तो लोक क्षय करेगा ऐसा कहना चाहिये।। १७४।। नभस्तृतीय भागं च आरुहेत् त्वरितो यदा। नक्षत्राणि च चत्वारि प्रवासमारुहश्चरेत् ॥१७५॥ (यदा) जब (शुक्र त्वारितो) शुक्र शीघ्र ही (नभस्तृतीय भागं च आरुहेत) आकाश के तीसरे भाग को आरोहण करता है तब (चत्वारि) चार (नक्षत्राणि) नक्षत्रों में (प्रवासमारुहश्चरे) प्रवास अत होता है : भावार्थ-जब शुक्र शीघ्र ही आकाश के तीसरे भाग पर आरोहण करता है तब चार नक्षत्रों का प्रवास अस्त होता है।। १७५॥ एकोनविंशक्षाणि मासानष्टौ च भार्गवः। चत्वारि पृष्ठतश्चारं प्रवासं कुरुते ततः॥ १७६ ।। जब (भार्गव:) शुक्र (मासानष्टौ) आठ महीनों में (एकोनविंशक्षाणि) उन्नीस नक्षत्रों का भोग करता है (तत:) उस समय (पृष्ठतश्चारं) पीछे के (चत्वारि) चार नक्षत्रों में (प्रवासं कुरुते) प्रवास करता है। भावार्थ-जब शुक्र आठ महीनों में उन्नीस नक्षत्रों का भोग करता है उस समय पीछे के चार नक्षत्रों में प्रवास करता है॥१७६ ॥ द्वादशैकोनविंशद्वा दशाहं चैव भार्गवः । एकैकस्मिश्च नक्षत्रे चरमाणोऽवतिष्ठति॥१७७॥ (भार्गव:) शुक्र (एकैकस्मिश्च नक्षत्रे) एक नक्षत्र पर (द्वादशैकोनविंशद्वा दशाह) बारह दिन, दस दिन और उन्नीस दिन तक (वरमाणोऽवतिष्ठति) विचरण करता भावार्थ-शुक्र एक नक्षत्र पर बारह दिन, दस दिन और उन्नीस दिन तक विचरण करता है॥१७७॥ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७१ पन्चशोऽध्यायः वक्रं याते द्वादशाहं समक्षेत्रे दशालिकम्। शेषेषु पृष्ठतो विन्द्यात् एकविंशमहोनिशम्॥१७८ ॥ शुक्र को (वर्क) वक्री (याते) होने पर (द्वादशाह) बारह दिन और (समक्षेत्रे दशाह्निकम्) सम क्षेत्र में दस दिन एक नक्षत्र के भोग में लगते है (पृष्ठतो) पीछे की ओर गमन करने पर (शेषेषु) शेष में (एकविंशमहोनिशम् विन्धात) उन्नीस दिन एक नक्षत्र के भोग में लगते हैं। भावार्थ-शुक्र को वक्री होने पर बारह दिन और सम क्षेत्र में दस दिन एक नक्षत्र के भोग में लगते हैं, पीछे की ओर गमन करने पर शेष में उन्नीस दिन एक नक्षत्र के भोग में लगते हैं।॥१७८॥ पूर्वतः समचारेण पञ्च पक्षण भार्गवः। तदा करोति कौशल्यं भद्रबाहुवचो यथा ॥१७९॥ (पूर्वतः) पूर्व से (सम चारेण) गमन करता हुआ (भार्गवः) शुक्र (पञ्च) पाँच (पक्षेण (तदा) (मौशल कति) कौराला करता है ऐसा (भद्रबाहु वचोयथा) भद्रबाहु का वचन है। भावार्थ-पूर्व से गमन करता हुआ शुक्र पाँच पक्ष तक कौशल करता है ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है॥१७९ ॥ ततः पञ्चदशाणि सञ्चरत्युशना पुनः। षड्भिर्मासैस्ततो ज्ञेयः प्रवासं पूर्वत: परम्॥१८॥ (ततः) इसके पश्चात् शुक्र (पञ्चदशाणि) पन्द्रह नक्षत्र (सञ्चरत्युशनापुनः) चलता है, हटता है (पुन:) फिर (षभिमासैस्ततोज्ञेय: प्रवासं पूर्वत: परम्) छह महीनों में प्रवास को प्राप्त हो जाता है। भावार्थ-जब शुक्र पन्द्रह नक्षत्र चलता है, तो समझो उसका चार छह महीनों में जाकर पुनः प्रवास को प्राप्त करता है। १८० ।। द्वाशीति चतुराशीति षडशीतिञ्च भार्गवः । भक्तं समेषु भागेषु प्रवासं कुरुते समम्॥१८१॥ (द्वाशीति) बियासी (चतुराशीति) चौरासी, (षडशीतिञ्च) और छियासी दिनों Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घटना संहिता में (भक्तं समेषु भागेषु) समान भाग देने पर ( भार्गवः) शुक्र का ( प्रवास कुरुते समम् ) समान प्रवास आ जाता है। भावार्थ- बियासी, चौरासी, छियासी दिनों में समान भाग देने पर शुक्र का समान प्रवास आ जाता है ।। १८१ ॥ भार्गवः । पांशु वातं रजो धूमं विद्युदुल्काश्च कुरुते च द्वादशाहं च विशाहं दशपञ्च तिष्ठते त्वेवं समचारेण नक्षत्रे ( द्वादशाहं च विशाह) बारह दिन, बीस दिन ( दशपञ्च) पन्द्रह दिन ( भार्गवः) शुक्र का एक (नक्षत्रे ) नक्षत्र पर (त्वेवं तिष्ठते) वह निवास करता है । भावार्थ — बारह दिन, बीस दिन, पन्द्रह दिन का एक नक्षत्र पर पूर्व दिशा विचरण करने पर वह निवास करता है ॥ १८२ ॥ ४७२ पूर्वतः ॥ १८२ ॥ शीतोष्णं वा प्रवर्षणम् । भार्गवोऽस्तमनोदये ॥ ९८३ ॥ ( भार्गवोऽस्तमनोदये) यदि शुक्र अस्त होता है तो समझो (पांशु वातं रजो धूमं ) मिट्टी, वायु, धूल, धूम (शीतोष्णं वा प्रवर्षणम्) शीत, उष्ण व प्रवर्षण (विद्युदुल्काश्च कुरुते ) विद्युत, उल्का आदि को करता है। भावार्थ-यदि शुक्र अस्त होता है तो समझो वायु चलेगी, धूल वर्षा होगी, रज वर्षा होगी, धूम्र उड़ेगा, शीत बाधा होगी, ठण्डी पड़ेगी व वर्षा होगी, बिजली चमकेगी, उल्कापतन होगा, इतने कार्य शुक्र के अस्त होने पर होते हैं ।। १८३ ॥ सितकुसुमनिभस्तु भार्गवः प्रचलति श्रीथीषु सर्वशो यदा वै । घटगृहजलपोत स्थितोऽभूद् बहुजलकृच्च ततः सुखदश्चारु ॥ १८४ ॥ (सितकुसुमनिभस्तु भार्गवः) सफेद फूलों के वर्ण वातादि शुक्र ( यदा वै सर्वश वीथिषुप्रचलति ) जब सब वीथियों में गमन करता है (ततः) वहाँ पर (घटगृहजलपोत स्थितोऽभूद) घर, घट, जलपोत स्थित होने वाला (बहुजलकृच्च) बहुत जल की वर्षा होती है (सुखदश्चारु) वर्ष सुख देने वाला होता है। भावार्थ — जब सफेद फूल के वर्ण का शुक्र जब सब वीथियों में गमन Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७३ पञ्चदशोऽध्यायः करे तो समझो वहाँ पर से घर, घट, जलपोत आदि भर जाते है इतनी वर्षा होती है आनन्द ही आनन्द हो जाता है ॥ १८४ ॥ अत्त ऊर्ध्वप्रवक्ष्यामि वक्रं भार्गवस्य समासेन तथ्य (अत) अब ( भार्गवस्य वक्रं चारं ) शुक्र के वक्री होने का संचरण (समासेन तथ्यं) अच्छी तरह से (ऊर्ध्वं निबोधत प्रवक्ष्यामि) जो आकाश में कहा गया है उसको कहूँगा (निर्गन्थ भाषिताम् ) जैसाकि निर्ग्रन्थों के द्वारा कहा गया है। भावार्थ — अब मैं शुक्र के वक्री होने का फल जैसा निर्ग्रन्थ गुरु के द्वारा प्रतिपादित किया गया है वैसा कहूँगा ।। १८५ ।। पूर्वेण विंशऋक्षाणि चरेत् प्रकृतिचारेण समं चारं निबोधत । निर्गन्थभाषितम् ॥ १८५ ॥ पश्चिमेकोनविंशतिः । सीमानिरीक्षयोः ।। १८६ ॥ ( सीमानिरीक्षयोः) सीमा निरीक्षण में ( प्रकृति चारेण समं चरेत् ) स्वभाव से ही अपने रूप संचार करता है (पूर्वेण) पूर्व में (विंशऋक्षाणि ) बीस नक्षत्र और ( पश्चिमें) पश्चिम में (कोनविंशतिः) उन्नीस नक्षत्र गमन करता है। भावार्थ-यदि सीमा निरीक्षण में स्वभाव से ही अपनी गति से शुक्र गमन करता है तो पूर्वमें बीस नक्षत्र और पश्चिम में उन्नीस नक्षत्र गमन करता है ॥ ९८६ ॥ विंशतिमं पुनः । विकृतं भवेत् ॥ १८७ ॥ एकविंशं यदा गत्वा याति भार्गवोऽस्तमने काले तद्वक्रं ( भार्गवोऽस्तमने काले ) शुक्र के अस्त काल (एकर्विशं यदा गत्वा) इक्कीसवें नक्षत्र तक जाकर (याति पुनः विंशतिमं ) पुनः बीसवें नक्षत्र में गमन करता है (तद्वक्रं विकृतं भवेत् ) उसको ही शुक्र की वक्र गति कहते हैं। भावार्थ- शुक्र के अस्त काल में इक्कीसवें नक्षत्र तक जाकर शुक्र बीसर्वे नक्षत्र तक वापस लौटता है उसी को शुक्र का वक्री होना कहा गया है ।। १८७ ॥ तदा ग्रामं नगरं धान्यं चैव पल्वलोदकान् । धनधान्यं च विविधं हरन्ति च दहन्ति च ॥ १८८ ॥ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ४७४ (तदा) तब इस प्रकार का वक्री शुक्र (ग्राम) गाँव, (नगरं) नगर (धान्यं) धान्य (च) और (पल्वलोदकान्) छोटे तालाब (धन धान्यं च) धन और धान्यों को (विविधं हरन्ति च दहन्ति च) विविध प्रकार हरण करता है और जलाता है। भावार्थ-वक्री शुक्र गाँव, नगर, धान्य, तालाब, धन-धान्य आदि को विविध प्रकार से जलाता है नष्ट करता है॥१८८।। द्वाविंशति यदा गत्वा पुनरायाति विंशतिम्। भार्गवोऽस्तमने काले तबकं शोभनं भवेत्॥१८९॥ (यदा) जब (भार्गवोऽस्तमने काले) शुक्र के अस्त काल में (द्वाविंशतिं गत्वा) बाईसवें नक्षत्र पर जाकर (पुनरायाति विशांतम्) पुनः बांसवें नक्षत्र तक वापस लोट आवे तो (तद्वक्रं शोभनं भवेत्) इस प्रकार के वक्र शुभ माना है। भावार्थ---जब शुक्र के अस्तकाल में बाईसवें नक्षत्र तक जाकर पुन: बीसवें नक्षत्र तक लौट आवे तो ऐसा वक्री शुक्र शुभ माना है। १८९॥ क्षिप्रमोदं च वस्त्रं च पल्वलां औषधींस्तथा। हृदान् नदीश्च कूपांश भार्गवो पूरयिष्यति॥१९०॥ इस प्रकार के शोभन (भार्गवो) शुक्र (क्षिप्रमोदं च वस्त्रं च) आमोद-प्रमोद वस्त्र प्राप्ति करता है और (पल्वला) तालाबों का जल से पूर्ण होना (तथा औषधी) तथा औषधियों की उपज (हदान् नदीश्च कूपांश्च) ह्रद, नदी और कूए (पूरयिष्यति) पूर्ण हो जाते हैं। भावार्थ-इस प्रकार शुक्र अमोद-प्रमोद और वस्त्र प्राप्ति कराता है तालाबों को जल से पूर्ण भर देता है तथा औषधियों की उपज अच्छी कराता है, सरोवर, नदी, कू, सब भर जाते है॥१९॥ त्रिविंशति यदा गत्वा पुनरायाति विशतिम्। भार्गवोऽस्तमने काले तर्क दीप्तमुच्यते॥१९१।। (यदा) जब (भार्गवोऽस्त मने काले) शुक्र अस्त काल में (त्रिविंशतिगत्वा) तेइसवें नक्षत्र तक जाकर (पुनरायाति विशितिम्) पुन: बीसवें नक्षत्र तक वापस लौट आवे तो (तदनं दीप्तमुच्यते) इस प्रकार का शुक्र दीप्त कहा जाता है। Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T ४७५ पञ्चदशोऽध्यायः भावार्थ---- ---जब शुक्र अस्त काल में नक्षत्र तक लौट आवे तो ऐसे वक्र शुक्र को गृहाँश्च वनखण्डांश्च दिशो वनस्पतींश्चापि तेइसवें नक्षत्र तक जाकर वापिस बीसवें दीप्त कहते हैं ॥ १९६ ।। दहत्यग्निरभीक्ष्णशः । भृगुर्दहति रश्मिभिः ।। १९२ ॥ ( भृगुर्दहति रश्मिभिः) इस प्रकार के दीप्त वक्र में शुक्र अपनी किरणों द्वारा (गृहाँश्च वनखण्डांश्च) गृह, वनखण्ड (दिशो ) दिशा (वनस्पतिंश्चापि ) जंगल की वनस्पतियाँ और भी ( दहत्यग्निरभीक्ष्णशः ) सब अभिक्षण अग्नि के द्वारा जलाता है। भावार्थ- - इस प्रकार की दीप्त वक्र में शुक्र अपनी किरणों द्वारा, घर, वनखण्ड, दिशा, वनस्पतिओं को भीषण अग्नि के द्वारा जलाता है ।। १९२ । एतानि त्रीणि वक्राणि कुर्यात् पूर्वेण इमाश्चपृष्ठतो विन्द्यात् वक्रं शुक्रस्य भार्गवः । संयतः ॥ १९३ ॥ ( एतानि त्रीणि वक्राणि) इन तीनों वक्रों (पूर्वेण भार्गवः कुर्यात् ) को शुक्र पूर्व की ओर से करता है ( इमाञ्चपृष्ठतो विन्द्यात्) पीछे की ओर से निम्न वक्र को करता है (शुक्रस्य वक्रं संयतः ) संयत वक्र शुक्र का होता हैं। भावार्थ — इन तीनों वक्रों को शुक्र पूर्व की ओर से करता है पीछे की ओर का शुक्र निम्न होता हैं और वहीं शुक्र संयत है ॥ १९३ ॥ विंशर्ति आयात्यस्तमनो ( यदा) जब शुक्र (विंशतिंगत्वा ) बीसवें नक्षत्र पर जाकर ( पुनरेकोनविंशतिम् ) पुनः उन्नीसवें नक्षत्र पर लौट आता है (तु) तो ( वायव्यं वक्र मुच्यते) उसे वायव्य वक्र कहते हैं (आयात्यस्तमनो काले ) किन्तु अस्तकाल का शुक्र होना चाहिये । भावार्थ-जब शुक्र अस्तकाल में बीसवें नक्षत्र पर जाकर पुनः उन्नीसवें नक्षत्र पर आ जाता है तो उसको वायव्य वक्र कहते हैं ।। ९९४ ॥ तु यदा गत्वा पुनरेकोनविंशतिम् । काले वायव्यं वक्र मुच्यते ॥ १९४ ॥ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुसंहिता विन्द्यान्महीं वातसमाकुलाम् । वायुवेग समां क्लिष्टामल्पेन जन जनेनान्येन सर्वशः ॥ १९५ ॥ ४७६ इस प्रकार का वक्र शुक्र होने पर ( वायुवेगसमांविन्द्यात्) वायु वेग जोर से चलता है (महींवातसमाकुलाम्) पृथ्वी वायु से भर जाती है (क्लिष्टामल्पेन जलेन) अल्प जल से कष्ट होता है ( जनेनान्येन सर्वशः ) तथा अन्य राजा से लोग आक्रान्त रहते हैं। भावार्थ — इस प्रकार के वायव्य वक्री शुक्र के होने पर वायु जोर से चलती है वायु वेग बढ़ जाता है, अल्प वर्षा होती है अन्य राजा के लोग आक्रान्त हो जाते हैं ॥ १९५ ॥ एकविंशतिं यदा गत्वा पुनरेकोन विंशतिम् । आयात्यस्तमने काले भस्मं तद् वक्रमुच्यते ॥ १९६ ॥ ( यदा) जब शुक्र के ( आयात्यस्तमने काले ) अस्त काल में ( एकविंशतिं गत्वा) इक्कीसवें नक्षत्र तक जाकर (पुनरेकोनविंशतिम् ) पुनः उन्नीसवें नक्षत्र तक लौट आता है तो (तद्) उसे ( भस्मं वक्रमुच्यते) उसे भस्म वक्र कहते हैं। भावार्थ-यदि शुक्र के अस्तकाल में इक्कीसवें नक्षत्र तक जाकर पुनः बीसवें नक्षत्र तक लौट आवे तो उसे भस्म वक्र कहते हैं । १९६ ॥ ग्रामाणां नगराणां च प्रजानां च दिशो दिशम् । नरेन्द्राणां च चत्वारि भस्म भूतानि निर्दिशेत् ॥ १९७ ॥ इस प्रकार के भस्म वक्री होने पर (ग्रामाणां ) ग्राम को (नगराणां ) नगरों को (च) और ( प्रजानां ) प्रजाओं को (नरेन्द्राणां ) राजाओं को ( दिशो दिशम् ) सब ही दिशाओं के ( चत्वारि ) चारों ही प्रकार ( भस्म भूतानि निदिशेत्) भस्मी भूत ही जाते हैं ऐसा निर्देश किया है। भावार्थ - इस प्रकार के भस्म वक्री होने पर राजा, नगर, ग्राम और प्रजा ये चारों ही भस्म हो जाते हैं ऐसा निर्देश किया है ॥ १९७ ॥ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशोऽध्यायः एतानि पञ्च वक्राणि कुरुते यानि भार्गवः । अतिचारी प्रवक्ष्यामि फल यच्चास्थ किञ्चन ।। १९८ ॥ (एतानि) इस प्रकार (भार्गव:) शुक्र के (यानि) यानि (पञ्च वक्राणि) पाँच वक्र (कुरुते) होते है (यच्चास्य किंचन) अब थोड़ा (अतिचार) उसके अतिचार के (फल) फल को (प्रवक्ष्यामि) कहूंगा। भावार्थ-इस प्रकार शुक्र के पाँच-पाँच वक्र कहे गये हैं अब मैं उनके अतिचार के फल को कहूंगा ।। १९८ ।। यदाऽति क्रमते चार मुशना दारुणं फलम्। तदा सृजति लोकस्य दुःखक्लेश भयावहम्॥१९९॥ (यदाऽतिक्रमते चार मुशना) यदि शुक्र अपने पति का अतिक्रम करे तो समझो (दारुणं फलम्) उसका दारुण फल होता है (तदा) तब वह शुक्र (लोकस्य) लोक को (दुःखक्लेश भयावहम्) दुःख, क्लेश, भय आदि (सृजति) सृजन करता है। भावार्थ-यदि शुक्र अपनी गति का अतिक्रमण करता है तो उसका महान् दारुण फल होता है लोक में भय दुःख, क्लेश को उत्पन्न कर देता है॥१९९ ।। तदाऽन्योन्यं तु राजानो ग्रामांश्च नगराणि च। समयुक्तानि बाधन्ते नष्ट धर्म अयार्थिनः॥२०॥ इस प्रकार के शुक्र में (तदाऽन्योन्य राजानो) तब राजा लोग परस्पर (जयार्थिनः) जय के लिये (नष्ट धर्म) धर्म को नष्ट करते हुऐ (ग्रामांश्च नगराणि च) ग्राम और नगरों में (समयुक्तानि बाधन्ते) एक-दूसरे को बाधा पहुंचाते हैं। भावार्थ-इस प्रकार के शुक्र में राजा लोग धर्म को नष्ट करते हुए ग्राम और नगर की ओर जय के लिये दौड़ पड़ते है, लड़ाई करते हैं॥२०॥ धर्मार्थकामा लुप्यन्ते जायते वर्ण संङ्करः । शस्त्रेण संक्षयं विन्यान्महाजनगतं तदा ।। २०१॥ (तदा) तब (धर्मार्थकामा लुप्यन्ते) धर्म, अर्थ, काम का लोपकर (जायते वर्ण संकरः) सभीवर्ण संकरी हो जाते हैं (महाजनगतं) महान पुरुषों का (शस्त्रेण संक्षयं विन्द्यात्) शस्त्रों के द्वारा क्षय होता है। Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ७८ भावार्थ-तब धर्म, अर्थ, काम का लोप कर सभी जन वर्ण संकर हो जाते है और महापुरुषों का शस्त्र से घात होता है।। २०१॥ मित्राणि स्वजनाः पुत्रा गुरुद्वेष्या जनास्तथा। जहति प्राण वर्णाश्च कुरुते ताशेन यत्॥२०२॥ (तादृशेन यत्) शुक्र के अतिचार में (मित्राणि स्वजनाः पुत्रा) मित्र, स्वजन, पुत्र (गुरुद्वेष्या जनास्तथा) तथा गुरु द्वेष जन करने लग जाते हैं (जहतिप्राणवर्णाश्च कुरुते) लोग प्राण छोड़ देते हैं। भावार्थ-शुक्र के अतिचारी होने पर मित्र, पुत्र, स्वजन, गुरु आदि का परस्पर द्वेष करने लगते हैं लोग धर्म, जाति की मर्यादा को छोड़ते हुए प्राण तक का त्याग कर देते हैं।। २०२॥ विलीयन्ते च राष्ट्राणि दुर्भिक्षेण भयेन च। चक्रं प्रवर्तते दुर्ग भार्गवस्याति चारतः ॥ २०३॥ (भार्गवस्याति चारत:) शुक्र के अतिचार में (दुर्भिक्षेण भयेन च) दुर्भिक्ष के भय से राष्ट्र दुःखी होते हैं और (चक्र प्रवर्तते दुर्ग) दुर्गं पर शासन के अधीन हो जाता है। भावार्थ-शुक्र के अतिचार में राष्ट्र भय से विलीन हो जाता है और परचक्र के अधीन दुर्ग हो जाता हैं।। २०३।। ततः श्मशान भूतास्थि कृष्ण भूता महीतदा। वसा रुधिरसंकुला काक गृध्र समाकुला॥२०४॥ उपर्युक्त के अतिचारित होने से (तत:) उस जगह (श्मशान भूतास्थि) श्मशान भूतों से भर जाता है (कृष्ण भूतामही तदा) पृथ्वी काली-काली हो जाती है (वसा रुधिरसङ्कला) चर्बी, रक्त युक्त होने से (काकगृध्र समाकुला) कौआ, गीध आदि उड़ने लगते हैं। भावार्थ-शुक्र के अतिचारित होने से श्मशान भूतों से भर जाता है, पृथ्वी श्मशान की राख से काली-काली हो जाती है, चर्बी, रक्त से युक्त होने से कौवे गीध आदि मासभक्षी पक्षी आकाश में उड़ने लगते हैं।। २०४॥ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७९ पञ्चदशोऽध्यायः वक्राण्युक्तानि सर्वाणि फलं यच्चाति चारकम् । प्रवक्ष्यामि पुनरस्तमनोदयात् ॥ २०५ ॥ चक्रचारं (वक्रयुक्तानि सर्वाणि) जो फल सभी प्रकार वक्रों का कहा गया है ( फलंयच्चातिचारकम् ) वही अति चार में फल घटित होता है ( पुनरस्तमनोदयात्) पुनः अस्तकाल में (वक्रचारं प्रवक्ष्यामि) वक्राचार को कहूँगा । भावार्थ जो फल सभी प्रकार का गया है, वही फल शुक्र के अतिचारित होने पर होता है, अब मैं शुक्र के अस्तकाल में वक्राचार को कहूँगा ।। २०५ ।। प्रविशेत् गत्या दृश्येत वैश्वानरपथं प्राप्त: पूर्वत: षडशीतिं तदाऽहानि यदा । पृष्ठतः ।। २०६ ।। ( यदा) जब शुक्र ( वैश्वानरपथं प्राप्तः, पूर्वतः प्रविशेत्) वैश्वानरपथ में पूर्व की ओर से प्रवेश करता है तो ( षडशीतिं तदाऽहानि) छियासी दिनों के पश्चात् ( गत्वा दृश्येत पृष्ठतः ) पीछे से दिखता है । भावार्थ — जब शुक्र वैश्वानर पथ में पूर्व की ओर से प्रवेश करता है तो वही शुक्र छियासी दिनों के बाद में पीछे से दिखेगा ॥ २०६ ॥ मृगवीथं पुनः प्राप्तः प्रवासं यदि गच्छति । चतुरशीर्ति तदाऽहानि गत्वा दृश्येत पृष्ठतः ॥ २०७ ॥ ( यदि ) यदि (मृगवीथं पुनः प्राप्तः ) मृगवीथि को शुक्र प्राप्त कर पुनः (प्रवासं गच्छति ) दुबारा प्राप्त होकर अस्त हो तो (चतुरशीतिं तदाऽहानि) चौरासी दिनों के पश्चात् (गत्वा दृश्येत पृष्ठतः) पीछे की ओर दिखाई देता है। भावार्थ-यदि शुक्र मृगवीथि को शुक्र प्राप्त कर पुनः दुबारा प्राप्त होकर अस्त होता है, तो चौरासी दिनों के पश्चात् फिर पीछे की और दिखलाई पड़ता है ॥ २०७ ॥ अजवीथिमनुप्राप्तः प्रवासं यदि अशीर्ति षडहानि तु गत्वा दृश्येत गच्छति । पृष्ठतः ।। २०८ ॥ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता । ४८० (अजवीथिमनुप्राप्तः) अजवीथि को शुक्र प्राप्त कर अस्त होता है तो (प्रवासं यदि गच्छति) प्रवास को प्राप्त होता है तो पुन: (अशीतिं षडहानि तु गत्वा) छियासी दिनों के पश्चात् (पृष्ठतः दृश्येत) पीछे से दिखलाई पड़ता है। भावार्थ-यदि शुक्र अजवीथि को प्राप्त कर अस्त होता है, तो वही शुक्र पुन: छियासी दिनों के पश्चात् पीछे की और दिखलाई पड़ेगा॥२०८॥ जरद्गवपथप्राप्तः प्रवासं यदि गच्छति। संप्ततिं पञ्च वाऽहानि गत्वा दृश्येत पृष्ठतः॥२०९॥ उसी प्रकार शुक्र (जरद्गवपथप्राप्त:) जरद्गववीथि में गमनकर (प्रवासं यदि गच्छति) अस्त होता हुआ पुनः दिखता है तो (सप्ततिं पञ्च वाऽहानि) पिचहत्तर दिनों में (गत्वा) जाकर (पृष्ठतः दृश्येत) पीछे की ओर दिखलाई पड़ेगा। भावार्थ-यदि शुक्र जरद्गववीथि में अस्त होकर पुनः दिखे तो पिचहत्तर दिनों में जाकर पीछे की ओर दिखलाई पड़ेगा !! २०१". गोवीथिं समनुप्राप्तः प्रवासं कुरुते यदा। सप्ततिं तु तदाऽहानि गत्वा दृश्येत पृष्ठतः।। २१०॥ (गोवीथि समनुप्राप्तः) शुक्र गोवीथि में जाकर (प्रवासं कुरुते यदा) जब पुनः प्रवास करे तो (सप्ततिं तु तदाऽहानि गत्वा) सत्तर दिनों में जाकर (पृष्ठत: दृश्येत) पीछे की ओर दिखेगा। भावार्थ-शुक्र यदि गोवीथि में जाकर अस्त होता है तो पुन: वह सत्तर दिनों में जाकर पीछे की ओर दिखाई पड़ेगा ।। २१०॥ वृषवीथिमनुप्राप्तः प्रवासं कुरुते यदा। पञ्चषष्टिं तदाऽहानि गत्वा दृश्येत पृष्ठतः॥२११॥ (वृषवीथिमनुप्राप्तः) शुक्र यदि वृषवीथि को प्राप्त कर (प्रवासं कुरुते यदा) पुन: प्रवास करता है तो (पञ्चषष्टिं तदाऽहानि) पैंषठ दिनों में (गत्वा) जाकर (पृष्ठतः दृश्येत) पीछे की ओर दिखलाई पड़ता है। भावार्थ-वृषवीथि में गमन कर अस्त होने वाला शुक्र पुन: दिखे तो पैंषठ दिनों में जाकर पीछे की ओर दिखलाई पड़ता है। २११॥ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८१ पम्बदमोऽध्यायः ऐरावणपथं प्राप्त प्रवासं कुरुते यदा। षष्टिं तु स तदाऽहानि गत्वा श्येत पृष्ठतः ॥२१२॥ (ऐरावणपथं प्राप्त) शुक्र ऐरावणवीथि में अस्त होता है तो (प्रवासं कुरुते यदा) पुनः उसका प्रवास (षष्ठिं तु स तदाऽहानि) साठ दिनों में (गत्वा) जाकर (दृश्येत पृष्ठतः) पीछे से दिखाई पड़ता है। भावार्थयदि शुक्र ऐरावण में अस्त होता है तो पुन: वह साठ दिनों में जाकर पीछे की ओर दिखलाई पड़ता है।। २१२॥ गजवीथिमनुप्राप्तः प्रवासं कुरुते यदा। पञ्चाशीति तदाऽहानि गत्वा श्येत पृष्ठतः।।२१३॥ (गजवीथिमनुप्राप्त:) शुक्र गजवीथि में अस्त होकर (प्रवासं कुरुते यदा) पुनः दिखलाई पड़े तो (पञ्चाशीति तदाऽहानि) पिच्यासी दिनों में (गत्वा) जाकर पुन: (पृष्ठत: दृश्येत) पीछे की ओर दिखाई पड़ता है। भावार्थ-यदि शुक्र गजवीथि में अस्त होकर पुन: दिखे तो समझो वह पिच्यासी दिनों के पश्चात् पीछे की ओर दिखाई पड़ेगा॥२१३ ।। नागवीथिमनुप्राप्त: प्रवासं कुरुते यदा। पञ्चपञ्चाशप्तदाऽहानि गत्वा श्येत पृष्ठतः ।। २१४।। (नागवीथिमनुप्राप्तः) शुक्र नागवीथि को प्राप्त कर अस्त होता है तो (प्रवास कुरुते यदा) पुन: वह शुक्र (पञ्चपञ्चाशत्तदाऽहानि) पचप्पन दिनों में (गत्वा) जाकर (पृष्ठत: दृश्येत) पीछे से दिखेगा। भावार्थ-नागवीथि में अस्त होने वाला शुक्र पुनः दिखे तो पचप्पन दिनों में जाकर पीछे की ओर दिखेगा॥ २१४॥ वैश्वानरपथं प्राप्तः प्रवासं कुरुते यदा। चतुर्विशत्तदाऽहानि गत्वा दृश्येत पूर्वतः ॥ २१५॥ (वैश्वानरपथं प्राप्तः) शुक्र वैश्वानर वीथि में अस्त होकर (प्रवासं कुरुते यदा) Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता पुन: प्रवास करे तो ( चतुर्विंशत्तदाऽहानि ) चौबीस दिनों में (गत्वा) जाकर (पूर्वतः दृश्येत) पूर्व की ओर दिखाई पड़ेगा । भावार्थ-यदि शुक्र वैश्वानर में जाकर अस्त होता है, तो वह पुन: चौबीस दिनों में जाकर पूर्वकी ओर दिखलाई पड़ेगा ॥ २१५ ॥ मृगवीथिमनुप्राप्तः प्रवासं कुरुते द्वाविंशतिं तदाsहानि गत्वा दृश्येत ( मृगवीथमनुप्राप्तः ) शुक्र मृगवीथि में जाकर अस्त होता है तो पुनः वह ( प्रवासं कुरुते ) प्रवास करे तो (द्वाविंशतिं तदाऽहानि) बाईसवें दिन में (गत्वा) जाकर ४८२ प्रवासं ( पूर्वतः दृश्येत) पूर्व में दिखेगा। भावार्थ -- यदि मृगवीधि में शुक्र अस्त हो तो पुनः वह शुक्र बाईसवें दिन में पूर्व में दिखेगा ॥ २१६ ॥ अजवीथिमनुप्राप्तः तदा विंशतिरात्रेण पूर्वतः (अजवीथिमनुप्राप्तः) अजवीथि में शुक्र पुनः प्राप्त कर अस्त हो तो ( प्रवासं कुरुते यदा पुनः उसका प्रवास ( तदाविंशतिरात्रेण ) तब बीस रात्रि तक (पूर्वतः प्रतिदृश्येत) पूर्व में दिखेगा । भावार्थ —— यदि शुक्र अजवीधि में अस्त होकर पुनः उसका उदय हो तो बीस दिन में पूर्व में होगा ॥ २१७ ।। जरद्गवपथं सप्तदशाहानि 4 कुरुते थदा । पूर्वतः ।। २१६ ।। कुरुते दृश्येत यदा । प्रतिद्दश्यते ॥ २९७ ॥ प्राप्तः प्रवास तदा गत्वा शुक्र जब ( जरद्गवपथं प्राप्तः ) जरद्गववीथि को प्राप्त कर अस्त होता है, तो पुनः ( प्रवासं कुरुते यदा) वह प्रवास करेगा ( तदा) तब ( सप्तदशाहानि ) सत्रह दिनों में (गत्वा) जाकर (दृश्येत पूर्वतः ) पूर्व में दिखेगा ! भावार्थ — यदि शुक्र जरद्गववीथि में अस्त होता है तो वह वापस सत्रह दिनों में पूर्व दिशाकी ओर दिखेगा ।। २१८ ॥ यदा । पूर्वतः ॥ २९८ ॥ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८३ गोवीथिं चतुर्दश पञ्चदशोऽध्यायः कुरुते श्येत समनुप्राप्तः प्रवासं दशाहानि गत्वा शुक्र (गोवीथिं समनुप्राप्तः ) गोबीधि को प्राप्त कर अस्त होता है ( प्रवासं कुरुते यदा) पुनः वह उदय हो तो ( चतुर्दशदशाहानि ) चौदह दिनों में (गत्वा) जाकर ( पूर्वतः दृश्येत ) पूर्व में उदय होगा । भावार्थ --- यदि शुक्र गोवीथि में अस्त हो तो वह शुक्र वापस चौदह दिनों में जाकर पूर्व में उदय होगा ॥ २१९ ॥ कुरुते दृश्येत यदा । पूर्वतः ॥ २९९ ॥ वृषविधिमनुप्राप्तः प्रवासं तदा द्वादश रात्रेण गत्वा ( यदा) जल शुक्र (नृपनीशिमनुप्राप्तः ) नृषवीथि को प्राप्त कर अस्त होता है पुनः वह ( प्रवासं कुरुते ) प्रवास करे तो ( तदा) तब ( द्वादशरात्रेण ) बाहर रात्रियों के पश्चात् (गत्वा) जाकर (पूर्वतः दृश्येत) पूर्व में दिखेगा । भावार्थ--जब शुक्र वृषवीथि में अस्त हो तो पुनः वह बारह रात्रियों में जाकर पूर्व में उदय होगा ।। २२० ।। प्राप्त: ऐरावणपथं प्रवासं तदा स दशरात्रेण पूर्वतः ( यदा) जब शुक्र (ऐरावणपथं प्राप्तः ) ऐरावण पथ को प्राप्त कर अस्त होता है तो ( प्रवासं कुरुते ) पुनः वह प्रवास करे तो (तदा) तब ( स ) वह (दशरात्रेण) दसरात्र में जाकर (पूर्वतः ) पूर्व में (प्रतिदृश्यते) प्रवास करेगा। कुरुते यदा । पूर्वतः ॥ २२० ॥ यदा । प्रतिदृश्यते ।। २२१ । भावार्थ — जब शुक्र ऐरावणवीथि को प्राप्त कर अस्त होता है तो फिर वह वापस दस रात्रियों के पश्चात् पूर्व में जाकर उदय होगा ।। २२१ ।। कुरुते गजवीथिमनुप्राप्तः प्रवासं अष्टरात्रं तदागत्या पूर्वतः ( यदा) जब शुक्र ( गजवीथिमनु प्राप्तः ) गजवीथि को प्राप्त कर अस्त होता है तो ( तदा) तब ( अष्टरात्रं) आठ रात्रि में (गत्ना) जाकर पुन: (पूर्वतः ) पूर्व में ( प्रतिदृश्यते ) उदय होगा । यदा । प्रतिदृश्यते ॥ २२२ ॥ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ — जब शुक्र गजवीथि में जाकर अस्त होता है, तो पुनः वह आठ रात्रि में जाकर वापस पूर्व में उदय होगा ।। २२२ ॥ नागवीथिमनुप्राप्तः प्रवासं कुरुते यदा । षडहं तु तदा गत्वा पूर्वतः प्रतिदृश्यते ॥ २२३ ॥ ૪૮૪ ( यदा) जब शुक्र ( नागवीथिमनुप्राप्तः) नागवीथि को प्राप्त कर अस्त होता है तो ( प्रवास कुरुते ) पुन: वह वापस प्रवास करेगा ( षडहं तु तदा गत्वा) तो छह दिनों में जाकर (पूर्वतः प्रतिदृश्यते) पूर्व में उदय होता है। भावार्थ — जब शुक्र नागवीधि में जाकर अस्त होता है, तो वह फिर छह दिनों में जाकर पूर्व में दिखता है ।। २२३ ।। एते प्रवासाः शुक्रस्य पूर्वतः यथा शास्त्रं समुद्दिष्टा वर्ण पाकौ ( एते प्रवासाः शुक्रस्य) जो ये शुक्र के प्रवास ( पूर्वतः पृष्ठतस्तथा) पूर्व और पृष्ठ से ( यथा शास्त्रं समुद्दिष्टा) जैसा शास्त्र में कहा गया है (वर्ण पाकौ निबोधत) इसके वर्ण का फल निम्न प्रकार जानना चाहिये । पृष्ठतस्तथा । निबोधत ॥ २२४ ॥ भावार्थ — जो ये शुक्र के प्रवास पूर्व और पृष्ठ के जैसा शास्त्र में कहा गया है, इसके अनुसार ही वर्ण का फल निम्न प्रकार जानना चाहिये ॥ २२४ ॥ शुक्रो नीलश्च कपिलाश्चाग्निवर्णश्च (शुक्रो ) शुक्र के (नीलश्च कृष्णश्च ) नीले, काले, और ( पीतश्च हरितस्तथा ) पीले तथा हरे और (कपिलश्चाग्नि वर्णश्च) कपिल वर्ण इस प्रकार और भी ( कदाचनस्यात् विज्ञेयः ) कई रंग होते हैं। भावार्थ- शुक्र के काले, पीले, हरे, नीले, कपिल वर्णादिक होते हैं ॥ २२५ ॥ कृष्णश्च पीतश्च हरितस्तथा । विज्ञेयः स्यात् कदाचन ।। २२५ ॥ हेमन्ते शिशिरे रक्त: शुक्रः सूर्यप्रभानुगः । पीतो वसन्त - ग्रीष्मे च शुक्लः स्यान्नित्यसूर्यतः ॥ २२६ ॥ ( हेमन्ते शिशिरे रक्त) हेमन्त ऋतु में और शिशिर ऋतु में (शुक्रः) शुक्र Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८५ पञ्चदशोऽध्यायः का वर्ण (सूर्यप्रभानुगः) सूर्य की प्रभा के समान लाल वर्ण होता है (वसन्त ग्रीष्मे च पीतो) वसन्त व ग्रीष्म ऋतु में पीला वर्ण होता है, और (शुक्लस्यानित्य सूर्यत:) नित्य ही सूर्य की प्रभा के अनुसार शुक्रवणं शुक्र का होता है। भावार्थ-हेमन्त और शिशिर ऋतु में शुक्र का वर्ण उगते हुए सूर्य की प्रभा के समान लाल होता है, वसन्त व ग्रीष्म ऋतु में शुक्र का वर्ण पीला होता है, और अन्य ऋतु में शुक्र का वर्ण सफेद सूर्य के समान होता है। २२६॥ अतोऽस्य येऽन्यथाभावा विपरीता भयावहाः। शुक्रस्यभयदो लोके कृष्णे नक्षत्र मण्डले।। २२७॥ (अतोऽस्य येऽन्यथा भावा) उपर्युक्त प्रतिपादित वर्गों से यदि (शुक्रस्य) शुक्र का (विपरीता) विपरीत वर्ण दिखे तो (भयावहाः) भय का उत्पादक है (लोके) लोक में (कृष्ण नक्षत्र मण्डले भयदो) कृष्ण नक्षत्र मण्डल है, वह भय को उत्पन्न करता है। भावार्थ-उपर्युक्त शुक्र के जो वर्ण कहे गये है, उनसे विपरीत वर्णों का दिखाई देना ही भयावह है, कृष्ण नक्षत्र मण्डल में भी शुक्र भय को उत्पन्न करता है।। २२७॥ पूर्वोदये फलं यत् तु पच्यतेऽपरतस्तु तत्। शुक्रस्या परतोयत्तु पच्यते पूर्वतः फलम्॥२२८॥ (पूर्वोदये फलं यत् तु) जो पूर्वोदय का फल है वहीं फल (पच्यतेऽपरतस्तु तत्) पश्चिमोदय का है और जो (शुक्रस्यापरतोयत्तु) शुक्र का पश्चिम का फल है वही (पच्यते पूर्वतः फलम्) फल पूर्व के शुक्र का है। भावार्थ-शुक्र के पूर्व उदय का जो फल होता है वही फल पश्चिम में उदय का है और जो फल पश्चिमोदय का है, वही फल पूर्वोदय का होता है इसमें किसी प्रकार का कोई अन्तर नहीं होता है॥२२८॥ एवमेवं विजानीयात् फल पाको समाहितः। कालातीतं यदा कुर्यात् तदा घोरें समादिशेत्॥२२९॥ (एवमेवं विजानीयात्) इस प्रकार शुक्र के फल को जानना चाहिये, (फल Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाह संहिता पाको समाहितः) जो पक जाने के बाद फल देता है (कालातीतं यदाकुर्यात) जब शुक्र में कालातीत हो तो (तदा) तब (मोरं समादिशेत्) घोर कष्टदायक होता है। भावार्थ-इस प्रकार शुक्र के फलादेश को जान लेना चाहिये, जो इसके काल का अतिक्रम करता है उसको महान् कष्ट होता है।। २२९ ।। . सवक्राचारं यो वेत्ति शुक्राचारं स बुद्धिमान्। श्रमणः स सुखं याति क्षिप्रं देशमपीडितम्॥२३०॥ (श्रमण:) जो श्रमण (शुक्राचार) शुक्र के चंचरण (वक्राचार) वक्री होने की अदि (वेत्ति) जानता है (स बुद्धिमान्) वही बुद्धिमान है (स) वह (क्षिप्रं देशमपीडितम्) शीघ्र ही अपीडित देश में विहारकर (सुखंयाति) सुख की प्राप्त करता है। भावार्थ-जो श्रमण शुक्र के वक्र, उदय, गमन आदि को अच्छी तरह से जानकर उपद्रव रहित देशों में विहार कर सुख को प्राप्त करता है।। २३०॥ यदाऽग्निवर्णो रविसंस्थितो वा, वैश्वानरं __ मार्गसमाश्रितश्च। तदा भयं शंसति सोऽपि जातं, तज्जातजं साधयितव्यमन्यतः॥२३१॥ (यदाऽग्नि वर्णो रवि संस्थितो वा) जब शुक्र अग्नि वर्ण का हो अथवा सूर्य के अंशकला पर संस्थित हो अथवा (वैश्वानरं मार्गसमाश्रितश्च) वेश्वानर वीथि में स्थित हो (तदा) तब (भय शंसति सोऽपि जातं) अग्नि से उत्पन्न भय हो तो है अथवा (तज्जातजं साधयितव्यमन्यतः) उसी प्रकार के दूसरे भय को लगा लेना चाहिये। भावार्थ-जब शुक्र अग्नि के वर्ण का दिखे और सूर्य की अंश कला स्थित हो अथवा वैश्वानर वीथि में स्थित हो तो समझो, अग्नि भय अथवा उसी प्रकार और भय समझ लेना चाहिये ।। २३१॥ विशेष—इस अध्याय में आचार्य भगवंत शुक्र अस्त, उदय, गुरु अस्त, उदय व अन्य ग्रहाचार का प्रतिपादन करते है। भूत भविष्य फल, वृष्टि, अवृष्टि भय, अग्नि प्रकोप, जय-पराजय रोग, Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्चदशोऽध्यायः धन, सम्पत्ति आदि सभी का फल शुक्र निर्देशन करता है। शुक्र का संचार नक्षत्रों के अनुसार होता है किस नक्षत्र पर शुक्र अस्त होता है यह उदय होता है उसका क्या फल होगा है इन सब बातों का वर्णन इस अध्याय में मिलता है। नक्षत्र सत्ताइस होते हैं, इन नक्षत्रों में शुक्र अस्त हो तो, विशेष फल होता है, उसी का एक उदाहरण देता हूँ। जैसे शुक्र का अश्विनी, मृगशिर, रेवती, हस्त, पुष्य, पुनर्वसु, अनुराधा, श्रवण, स्वाति, नक्षत्रों उदय हो तो सिन्धु, गुर्जर, कर्वट, प्रदेशों में खेती का नाश, महामारी एवं राजनैतिक संघर्ष होता है राजनैतिक लोगों के लिये ठीक नहीं है। इस प्रकार उपर्युक्त नक्षत्रों में चांदे शुक्रास्त होता है, तो इटली, रोम, जापान में भूकम्प का भय, बर्मा, श्याम, चीन, अमेरिका में सुख और शान्ति, रूस व भारत में साधारण शान्ति रहती है। देश के अन्तर्गत कोंकण, लाट और सिन्धु प्रदेश में थोड़ी वर्षा होती है, थोड़ी धान्योत्पत्ति होती है, उत्तरप्रदेश में अत्यन्त वर्षा होती है अकाल, द्रविड प्रदेश में विग्रह गुर्जर प्रदेश में सुभिक्ष, बंगाल में अकाल बिहार और आसाम में साधारण वर्षा मध्यम खेती होती है। शुक्रास्त हो जाता है। घी, तेल, जूट आदि पदार्थ सस्ते होते हैं, प्रजा को सुख की प्राप्ति होती है, सर्व प्रजा शान्ति की सांस लेती है। शुक्र के गमन करने के लिये नौ विथि होती है। नाग, गज, ऐरावण, वृषभ, गो, जरद्रव, मृग, अज और वैश्वानर। प्रत्येक वीथि के तीन नक्षत्र होते हैं, इन वीथीयों के अनुसार ही नक्षत्रों में शुक्र अस्त या उदय होता है और उसी के अनुसार ही शुभाशुभ का फल होता है, निमित्त ज्ञानी को सब प्रकार का ज्ञान रखना चाहिये, शुक्र का अस्त उदय कौन-सी वीथी के कौन-से नक्षत्र पर हुआ और वह क्या फल देगा, यह जानकर ही उसका फल कहे, ग्रहों के संचार का ज्ञान बहुत कार्य करता है। मैं ज्यादा नहीं लिखकर डॉक्टर साहब का अभिप्राय देता हूँ। विवेचन-शुक्रोदय विचार-शुक्र का अश्विनी, मृगशिर, रेवती, हस्त, पुष्य, पुनर्वसु, अनुराधा, श्रवण और स्वाति नक्षत्र में उदय होनेसे सिन्धु, गुर्जर, Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ४८८ कर्वट प्रदेशों में खेतीका नाश, महामारी एवं राजनैतिक संघर्ष होता है। शुक्र का उक्त नक्षत्रों में उदय होना नेताओं; महापुरुषों एवं राजनैतिक व्यक्तियोंके लिए शुभ नहीं है। पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी और भरणी इन नक्षत्रों में शुक्र का उदय होने से, जालन्धर और सौराष्ट्र में दुर्भिक्ष, विग्रह-संघर्ष एवं कंलिङ्ग, स्त्रीराज्य और मरुदेश में मध्यम वर्षा और मध्यम फसल उत्पन्न होती है, घी और धान्यका भाव समस्त देश में कुछ महंगा होता है। कृत्तिका, मघा, आश्लेषा, विशाखा, शतभिषा, चित्रा, ज्येष्ठा, धनिष्ठा और मूल नक्षत्र में शुक्र का उदय हो तो गुर्जर देश में पुद्गलका भय, दुर्भिक्ष और द्रव्यहीनता, सिन्धु देश में उत्पात, मालव में संघर्ष; आसाम, बिहार और बंग प्रदेश में भय, उत्पात, वर्षाभाव एवं महाराष्ट्र, द्रविड देश में सुभिक्ष समय पर वर्षा होती है। शुक्र का उक्त नक्षत्रों में उदय होना अच्छा माना जाता है। समस्त देशके भविष्य की दृष्टि से आश्लेषा, भरणी, विशाखा, पूर्वाभाद्रपद और उत्तराभाद्रपद इन नक्षत्रों का उदय अशुभ, दुर्भिक्ष, हानि एवं अशान्ति करने वाला है। अवशेष सभी नक्षत्रोंका उदय शुभ एवं मंगल देने वाला है। शुक्रास्त विचार-अश्विनी, मृगशिर, हस्त, रेवती, पुष्य, पुनर्वसु, अनुराधा, श्रवण और स्वाति नक्षत्र में शुक्र का अस्त हो तो इटली, रोम, जापान में भूकम्प भय; वर्मा, श्याम, चीन, अमेरिका में सुख-शान्ति; रूस, भारत में साधारण शान्ति रहती है। देशके अन्तर्गत कोंकण, लाट और सिन्धु प्रदेश में अल्प वर्षा, सामान्य धान्यकी उत्पति, उत्तरप्रदेश में अत्यल्प वर्षा, अकाल और द्रविड प्रदेश में विग्रह, गुर्जर देश में सुभिक्ष, बंगाल में अकाल, बिहार और आसाम में साधारण वर्षा, मध्यम खेती उपजती है। शुक्रास्तके उपरान्त एक महीना तक अन्न महँगा बिकता है, पश्चात् कुछ सस्ता हो जाता है। घी, तेल, जूट आदि पदार्थ सस्ते होते हैं। प्रजाको सुखकी प्राप्ति होती है। सभी लोग अमन-चैनके साथ निवास करते हैं। कृत्तिका, मघा, आश्लेषा, विशाखा, शतभिषा, चित्रा, ज्येष्ठा, धनिष्ठा और मूल नक्षत्र में शुक्र अस्त होतो हिन्दुस्तान में विग्रह, मुस्लिम राष्ट्रों में शान्ति एवं उनकी उन्नति, इंग्लैण्ड और अमेरिका में समता, चीन में सुभिक्ष, वर्मा में उत्तम फसल एवं हिन्दुस्तान में; साधारण फसल होती है। मिश्र देश के लिए इस प्रकार का Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८९ पञ्चदशोऽध्यायः शुक्रास्त भयोत्कपादक होता है, अत्रका अभाव होनेसे जनताको अत्यधिक कष्ट होता है। मरुस्थल और सिन्धु देश में सामान्यतया दुर्भिक्ष होता है। मित्रराष्ट्रोंके लिए उक्त प्रकारका शुक्रास्त अनिष्टकर है। भारतके लिए सामन्यतया अच्छा है। वर्षाभाव होनेके कारण देश में आन्तरिक अशान्ति रहती है तथा देश में कल-कारखानों की उन्नति होती है। मघा में शुक्रास्त होकर विशाखा में उदयको प्राप्त करे तो देशके लिए सभी तरह से भयोत्पादक होता है। तीनों पूर्वा—पूर्वाभाद्रपद, पूर्वाफाल्गुनी और पूर्वाषाढ़ा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदोहिणी और भरणी नक्षत्रों में शुक्र का अस्त हो तो पंजाब, दिल्ली, राजस्थान, विन्ध्यप्रदेशके लिए सुभिक्षदायक, किन्तु इन प्रदेशों में राजनैतिक संघर्ष, धान्य भाव सस्ता तथा उक्त प्रदेश में रोग उत्पन्न होते हैं। बंगाल, आसाम और बिहार-उड़ीसाके लिए उक्त प्रकारका शुक्रास्त शुभकारक है। इस प्रदेश में धान्यकी उत्पत्ति अच्छी होती है। धन-धान्यकी शक्तिवृद्धिगत होती है। अन्नका भाव सस्ता होता है। शुक्र का भरणी नक्षत्र पर अस्त होना पशुओंके लिए अशुभकारक है। पशुओं में नाना प्रकारके रोग फैलते हैं तथा धान्य और तृण दोनोंका भाव महँगा होता है। जनताको कष्ट होता है, राजनीति में परिवर्तन होता है। शुक्र का मध्यरात्रि में अस्त होना तथा आश्लेषा विद्ध मघा नक्षत्र में शुक्र का उदय और अस्त दोनों ही अशुभ होते हैं। इस प्रकारकी स्थिति में जनसाधारणको भी कष्ट होता है। शुक्रके गमनकी नौ वीथियाँ हैं नाग, गज, ऐशवत, वृषभ, गो, जरद्व, मृग, अज और दहन-वैश्वानर, ये वीथियाँ अश्विनी आदि तीन-तीन नक्षत्रोंकी मानी जाती हैं। किसी-किसीके मतसे स्वाति, भरणी और कृतिका नक्षत्र में नागवीथि होती है। गज, ऐरावत और वृषभ नामक वीथियों में रोहिणीसे उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र तक तीन-तीन वीथियाँ हुआ करती हैं तथा अश्विनी, रेवती, पूर्वाभाद्रपद और उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में गोवीथि है। श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र में जरद्व वीथि, अनुराधा, ज्येष्ठा और मूलनक्षत्र में मृगवीथि; हस्त, विशाखा और चित्रा नक्षत्र में अजवीथि एवं पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा में दहन. विथि होती है शुक्र का भरणी नक्षत्र से उत्तर मार्ग पूर्वाफाल्गुनी से मध्यम मार्ग और पूर्वाषाढ़ा से दक्षिणमार्ग माना जाता है। जब उत्तरवीथि में शुक्र अस्त या उदयको प्राप्त होता है, तो प्राणियोंके Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महिता | ४९० सुख सम्पत्ति और धन-धान्यकी वृद्धि करता है। मध्यमवीथि में रहनेसे शुक्र मध्यम फल देता है और जघन्य या दक्षिण वीथि में विद्यमान शुक्र कष्टप्रद होता है आर्द्रा नक्षत्र आरम्भ करके मृगशिर तक जो नौ वीथियाँ हैं, उन में शुक्र का उदय या अस्त होनेसे यथाक्रमसे अत्युत्तम, उत्तम, ऊन, सम, मध्यम, न्यून, अधम, कष्ट और कष्टतम फल उत्पन्न होता है। भरणी नक्षत्रसे लेकर चार नक्षत्रों में जो मण्डल-वीथि हो, उसकी प्रथम वीथि में शुक्र का अस्त या उदय होनेसे सुर्भिक्ष होता है, किन्तु अंग, बंग, कलिंग और बाह्रीक देश में भय होता है। आसे लेकर चार नक्षत्रों—आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य और आश्लेषा इन चार नक्षत्रोंके मण्डल में शुक्र का उदय या अस्त हो तो अधिक जलकी वर्षा होती है, धन-धान्य सम्पत्ति वृद्धिगत होती है। प्रत्येक प्रदेश में शान्ति रहती है, जनता में सौहार्द्र और प्रेमका प्रचार होता है। यह द्वितीय मण्डल उत्तम माना गया है। अर्थात् शक्र का भरणीसे मृगशिरा नक्षत्रतक प्रथम मण्डल, आर्द्रा आश्लेषा तक द्वितीय मण्डल और मघा चित्रा नक्षत्र तक तृतीयमण्डल होता है। तृतीय मण्डल में शुक्र का उदय और अस्त हो तो वृक्षोंका विनाश, शबर-शूद्र , पुण्ड्रल, द्रविड, शूद्र, वनवासी, शूलिकका विनाश तथा इनको अपार कष्ट होता है। शुक्र का चौथा मण्डल स्वाति, विशाखा और अनुराधा इन नक्षत्रों में होता है। इस चतुर्थ मण्डल में शुक्रके गमन करनेसे ब्राह्मणादि वर्गोको विपुल धन लाभ, यशलाभ और धन-जनकी प्राप्ति होती है। चौथे मण्डल में शुक्र का अस्त होना या उदय होना सभी प्राणियोंके लिए सुखदायक है। यदि चौथे मण्डल में किसी क्रूर ग्रह द्वारा आक्रान्त हो तो इक्ष्वाकुवंशी, आवन्तिके नागरिक, शूरसेन देशके वासी लोगोंको अपार कष्ट होता है। यदि इस मण्डल में ग्रहोंका युद्ध हो शुक्र क्रूर ग्रहों द्वारा परास्त हो जाय तो विश्व में भय और आतङ्क व्याप्त हो जाता है। अनेक प्रकारकी महामारियाँ जनता में क्षोभ असन्तोष एवं अनेक प्रकारके संघर्ष होते हैं। ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा और श्रावण इन पाँच नक्षत्रका पाँचवाँ मण्डल होता है। इस पंचम मण्डल में शुक्रके गमन करनेसे क्षुधा, चोर, रोग आदिकी बाधाएँ होती हैं। यदि क्रूर ग्रहों द्वारा पंचम मण्डल आक्रान्त हो तो काश्मीर, अश्मक, मत्स्य, चारुदेवी और अवन्तिदेशवाले व्यक्तियोंके साथ आभीर, जाति, द्रविड़, Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | पञ्चदशोऽध्यायः अम्बष्ठ, त्रिगर्त, सौराष्ट्र, सिन्धु और सौवीर देश वासियों का विनाश होता है। क्रूराक्रान्त या क्रूरग्रहाविष्ट शुक्र इस पंचम मण्डल में रहनेसे जनता में असन्तोष, घृणा, मात्सर्य और नाना प्रकारके कष्ट उत्पन्न करता है। धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती और अश्विनी इन छ: नक्षत्रोंका छठवाँ मण्डल है। यदि क्रूर ग्रह इस मण्डल में निवास करता हो और उसके साथ शुक्र भी संगम करे तो प्रजाको आर्थिक कष्ट रहता है। छठवें मण्डल में शुक्र का युद्ध यदि किसी शुभ ग्रहके साथ हो तो धन-धान्यकी समृद्धि क्रूर ग्रहके साथ हो तो धन-धान्यका अभाव तथा एक शुभ ग्रह और एक क्रूर ग्रह हो तो जनता को साधारण तथा सुख प्राप्त होता है। वर्षा समयानुसार होती है, जिससे अच्छी फसल उत्पन्न होती है। शस्त्रघात और चोर घात का कष्ट होता है। छठवें मण्डल में शुक्र शुभ ग्रह का सहयोगी होकर अस्त हो तो प्रजा में शान्ति और सुख का प्रचार होता है। इन छ: मण्डलोंमें शुक्र-गमनका निरूपण किया गया है। स्वाति और ज्येष्ठा नक्षत्रवाले मण्डल पश्चिम दिशामें होने से शुभ फल होता है। मघादि नक्षत्रवाला मण्डल पूर्वदिशामें हो तो अत्यन्त भय होता है। कृत्तिका नक्षत्रको भेद कर शुक्र गमन करे तो नदियोंमें बाढ़ आती है, जिससे नदीतटवासियोंको महान् कष्ट होता है। रोहिणी नक्षत्रका शुक्र भेदन करे तो महामारी पड़ती है। मृगशिरा नक्षत्रका भेदन करे तो जल या धान्यका नाश, आर्द्रा नक्षत्रका भेदन करने से कौशल और कलिंगका विनाश होता है, पर वृष्टि अत्यधिक होती है और फसल भी उत्तम उत्पन्न होती है। पुनर्वसु नक्षत्र का शुक्र भेदन करे तो अश्मक और विदर्भ प्रदेश के रहनेवालोंको अनीतिसे कष्ट होता है, अवशेष प्रदेशोंके निवासियों को कष्ट होता है। पुष्य नक्षत्रका भेदन करनेसे सुभिक्ष और जनतामें सुख-शान्ति रहती है। आश्लेषा नक्षत्रमें शुक्रका गमन हो तो सर्पभय रोगोंकी उत्पत्ति एवं दैन्यभावकी वृद्धि होती है। मघा नक्षत्रका भेदन कर शुक्र गमन करे तो सभी देशोंमें शान्ति और सुभिक्ष होते हैं। पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रका शुक्र भेदन कर आगे गमन करे तो शबर और पुलिन्द जातिके लिए सुखकारक होता है तथा कुरुजांगल देशके निवासियोंके लिए कष्टप्रद होता है। शुक्रका इस लक्षत्रको भेदन करना बंग, आसाम, बिहार, उत्तरप्रदेशके निवासियोंके लिए शुभ है। शुक्रकी उक्त स्थितिमें धन-धान्यकी समृद्धि होती है। यदि हस्त नक्षत्रका शुक्र भेदन करे तो कलाकारों को कष्ट होता है। चित्रा नक्षत्रका भेदन होनेसे जगत्में Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ४१२ शान्ति, आर्थिक विकास एवं पशु-सम्पत्तिकी वृद्धि होती है। इस नक्षत्रका शुक्र सहयोगी ग्रहोंके साथ भेदन करता हुआ आगे गमन करे तो कलिंग, बंग और अंग प्रदेशमें जनताको मधुर वस्तुओंका कष्ट होता है। जिन देशोंमें गन्नाकी खेती अधिक होती है, उन देशोंमें गन्नाकी फसल मारी जाती है। स्वाति नक्षत्रमें शुक्रके आनेसे वर्षा अच्छी होती है। देशकी पर-राष्ट्रनीतिकी दृष्टिसे अच्छा नहीं होता। विदेशोंके साथ संघर्ष करना होता है तथा छोटी-छोटी बातों को लेकर आपसमें मतभेद ही जाता है और सन्धि तथा मित्रताकी बातें पिछड़ जाती हैं व्यापारियोंके लिए भी शुक्रकी उक्त स्थिति अच्छी नहीं मानी जातती है। लोहे, गुड़, अनाज, घी और मसालेके व्यापारियोंको शुक्र की उक्त स्थिति में घाटा उठाना पड़ता है तैल, तिलहन एवं सोना चाँदी के व्यापारियों को अधिक लाभ होता है। विशाखा नक्षत्रका भेदन कर शुक्र आगेकी ओर बढ़े तो सुवृष्टि होती है, पर चोर-डाकुओंका प्रकोप दिनोंदिन बढ़ता जाता है। प्रजामें अशान्ति रहती है। यद्यपि धन-धान्यकी उत्पत्ति अच्छी होती है, फिर भी नागरिकोंकी शान्ति भी होगेकी आंशका बनी रह जाती है। अनुराधा का भेदन कर शुक्र गमन करे तो क्षत्रियोंको कष्ट, व्यापारियोंको लाभ, कृषकोंको साधारण कष्ट एवं कलाकारोंको सम्मानकी प्राप्ति होती है। ज्येष्ठा नक्षत्रका भेदन कर शुक्रके गमन करनेसे सन्ताप, प्रशासकोंमें मतभेद, धन-धान्यकी समृद्धि एवं आर्थिक विकास होता है। मूल नक्षत्रका भेदन कर शुक्रके गमन करने वैद्योंको पीड़ा, डॉक्टरोंको कष्ट एवं वैज्ञानिकोंको अपने प्रयोगोंमें असफलता प्राप्त होती है। पूर्वाषाढ़ाका भेदन कर शुक्रके गमन करनेसे जल-जन्तुओंको कष्ट, नाव और स्टीमरोंके डूबनेका भय, नदियोमें बाढ़ एवं जन-साधारणमें आतंक व्याप्त होता है। उत्तराषाढ़ा नक्षत्रका भेदन करनेसे व्याधि, महामारी, दूषित ज्वरका प्रकोप, हैजा जैसी संक्रामक व्याधियोंका प्रसार, चेचकका प्रकोप एवं अन्य संक्रामक दूषित बीमारियोंका प्रसार होता है। श्रवण नक्षत्रका भेदन कर शुक्र अपने मार्गमें गमन करे तो कर्ण सम्बन्धी रोगों का अधिक प्रसार और धनिष्ठा नक्षत्रका भेदन कर आगे चले तो आँखकी बीमारियाँ अधिक होती हैं। शुक्रकी उक्त प्रकारकी स्थितिमें साधारण जनताको भी कष्ट होता है। व्यापारवर्ग और कृषकवर्गको शान्ति और सन्तोष की प्राप्ति होती है वर्षा समयानुकुल होती जाती है जिससे कृषकवर्ग परम शान्ति मिलती है। राजनैतिक उथल-पुथल होती है, जिसमें साधारण जनतामें भी आतंक व्याप्त रहता है। शतभिषा नक्षत्रका Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९३ पञ्चदशोऽध्यायः भेदन शुरू गमन करे सो कर्म करने वाले व्यक्तियों को कष्ट होता है। इस नक्षत्रका भेदन शुभ ग्रहके साथ होनेसे शुभ फल और क्रूग्रहके साथ होने से अशुभ फल होता है । पूर्वाभाद्रपदका भेदन करनेसे जुआ खेलने वालों को कष्ट, उत्तराभाद्रपदका भेदन करनेसे फल- पुष्पोंकी वृद्धि और रेवतीका भेदन करने सेनाका विनाश होता है। अश्विनी नक्षत्रमें भेदन करने से शुक्र क्रूग्रहके साथ संयोग करे तो जनताको कष्ट और शुभग्रह का संयोग करे तो लाभ, सुभिक्ष और आनन्द की प्राप्ति होती है । भरणी नक्षत्रका भेदन करनेसे जनताको साधारण कष्ट होता है। कृष्णपक्षकी चतुर्दशी अमावस्या, अष्टमी तिथिको शुक्रका उदय या अस्त हो तो पृथ्वीपर अत्यधिक जलकी वर्षा होती है। अनाजकी उत्पत्ति खूब होती है। यदि गुरु और शुक्र पूर्व - पश्चिममें परस्पर सातवीं राशिमें स्थित हों तो रोग और भयसे प्रजा पीड़ित होती है, वृष्टि नहीं होती । गुरु, बुध, मंगल और शनि ये ग्रह यदि शुक्रके आगे के मार्गमें चले तो वायुका प्रकोप, मनुष्योमें संघर्ष, अनीति और दुराचार की प्रवृत्ति, उल्कापात और विद्युत्पात जनता में कष्ट तथा अनेक प्रकार के रोगों की वृद्धि होती है। यदि शनि शुक्रसे आगे गमन करे तो जनताको कष्ट, वर्षाभाव और दुर्भिक्ष होता है। यदि मंगल शुक्रसे आगे गमन करता हो तो भी जनतामें विरोध, विवाद, शस्त्रभय, अग्निभय, चोरभय होनेसे नाना प्रकारके कष्ट सहन करने पड़ते हैं । जनतामें सभी प्रकारकी अशान्ति रहती है । शुक्रके आगे मार्गमें बृहस्पति गमन करता हो तो समस्त मधुर पदार्थ सस्ते होते हैं। शुक्रके उदय या अस्तकालमें शुक्र के आगे जब बुध रहता है तब वर्षा और रोग रहते हैं। पित्तसे उत्पन्न रोग तथा काच- कामलादि रोग उत्पन्न होते हैं। संन्यासी, अग्निहोत्री, वैद्य, नृत्यसे आजीविका करनेवाले, अश्व, गौ, वाहन, पीले वर्णके पदार्थ विनाशको प्राप्त होते हैं। जिस समय अग्निके समान शुक्रका वर्ण हो तब अग्निभय, रक्तवर्ण हो तो शस्त्रकोप, कञ्चनके समान वर्ण हो तो गौरवर्णके व्यक्तियोंको व्याधि उत्पन्न होती है। यदि शुक्र हरित और कपिल वर्ण हो तो दमा और खाँसीका रोग अधिक उत्पन्न होता है । भस्मके समान रूक्ष वर्णका शुक्र देशको सभी प्रकारकी विपत्ति देनेवाला होता है। स्वच्छ, स्निग्ध, मधुर और सुन्दर कान्ति वाला शुक्र सुभिक्ष, शान्ति, निरोगता आदि फलको देनेवाला है । शुक्रका अस्त रविवार को हो तथा उदय शनिवारको हो तो देशमें विनाश, संघर्ष, चेचक का विशेष प्रकोप, महामारी, Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ४१४ धान्यका भाव महंगा, जनतामें क्षोभ, आतंक एवं घृत और गुड़का भाव सस्ता होता है। शुक्रवार को शुक्र अस्त होकर शनिवारको उदय प्राप्त हो तो सुभिक्ष, शान्ति, आर्थिक विकास, पशु सम्पत्तिका विकास, समय पर वर्षा, कला-कौशलकी वृद्धि एवं चैत्रके महीनेमें बीमारी पड़ती है। श्रावणमें मंगलवारको शुक्रास्त हो और इसी महीनेमें शनिवारको उदय हो तो बीमारी पड़ती है। श्रावणमें मंगलवारको शुक्रास्त हो और इसी महीनेमें शनिवारको उदय हो तो जनतामें परस्पर संघर्ष, नेताओंमें मतभेद, फसलकी क्षति, खून-खराबी जहाँ-तहाँ उपद्रव एवं वर्षा भी साधारण होती है। भाद्रपद मासमें गुरुवारको शुक्र अस्त हो और गुरुवारको ही शुक्रका उदय अश्विन मासमें हो तो जनतामें संक्रामक रोग फैलते हैं। अश्विन मासमें शुक्र बुधवारको अस्त होकर सोमवारको उदयको प्राप्त हो तो सुभिक्ष, धन-धान्यकी वृद्धि, जनतामें साहस एवं कल-कारखानोंकी वृद्धि होती है। बिहार, बंगाल, आसाम, उत्कल आदि पूर्वीय प्रदेशों में वर्षा यथेष्ट होती है। दक्षिण भारतमें फसल अच्छी नहीं होती, खेतीमें अनेक प्रकार के रोग लग जाते हैं, जिससे उत्तम फसल नहीं होती। कार्तिक मासमें शुक्रास्त होकर पौषमें उदयको प्राप्त हो तो जनता को साधारण कष्ट में कठोर जाड़ा तथा पाला पड़ने के कारण फसल नष्ट हो जाती है। माघ मार्गशीर्षमें शुक्रका अस्त होना अशुभ सूचक है। पौषमासमें शुक्रास्त होना अच्छा होता है, धन-धान्यकी समृद्धि होती है। माघमासमें शुक्र अस्त होकर फाल्गुन में उदयको प्राप्त हो तो फसल आगामी वर्ष अच्छी नहीं होती। फाल्गुन और चैत्र मासमें शुक्रका अस्त होना मध्यम है। वैशाखमें शुक्रास्त होकर आषाढ़में उदय हो तो दुर्भिक्ष, महामारी एवं उथल-पुथल सारे देशमें रहती है। राजनैतिक उलट-फेर भी होते रहते हैं। ज्येष्ठ और आषाढ़के शुक्रका अस्त होना अनाजकी कमी का सूचक है। इति श्रीपंचम श्रुत केवली दिगम्बराचार्य भद्रबाहु स्वामी विरचित भाद्रबाहु संहिता का ग्रहाचार नामा अध्याय का विशेष वर्णन करने वाला पन्द्रहवाँ अध्याय का हिन्दीभाषानुवाद करने वाली क्षेमोदय टीका समाप्त ।। (इति पञ्चदशोऽध्यायः समाप्तः) Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशोऽध्यायः शनिवार वर्णन अतः परं प्रवक्ष्यामि शुभाशुभ विचेष्टितम्। यच्छ्रुत्वाऽवहितः प्राज्ञो भवेन्नित्यमतन्द्रितः ॥१॥ (अत:) अब मैं शनि की (शुभाशुभविचेष्टितम्) शुभाशुभ चेष्टा को (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा (यच्छ्रुत्वाऽवहितः) जिसको सुनकर (प्राज्ञो भवेन्नित्यमतन्द्रित:) बुद्धिमान सुखी होते हैं। भावार्थ-अब मैं शनि की शुभाशुभ चेष्टा को कहूँगा जिसको की सुनकर बुद्धिमान ज्ञानी सुखी होते है॥१॥ प्रवासमुदयं वनं गतिं वर्ण फलं तथा। शनैश्चरस्य वक्ष्यामि शुभाशुभ विचेष्टितम् ॥२॥ (शनैश्चरस्य) अब मैं शनि के (प्रवास) प्रवास (उदयं) उदय, (वक्रं) वक्र (गति) गति (वर्ण) वर्ण (फलं) उसका फल के (शुभाशुभ विचेष्टितम्) चेष्टाको (वक्ष्यामि) कहूंगा। भावार्थ-अब मैं शनि के प्रवास, उदय, वक्रता, गति, वर्ण, फलादिक के शुभाशुभ की चेष्टा को कहूंगा॥२॥ प्रवासं दक्षिणे मार्गे मासिकं मध्यमे पुनः। दिवसा: पञ्चविंशतिस्त्रयोविंशतिरुत्तरे॥३॥ (प्रवासं दक्षिणेमार्गे) यदि शनि का प्रवास दक्षिणमें (मासिक) एकमहीने का (पुन: मध्यमे पञ्चविंशतिः दिवसाः) पुनः पच्चीसदिन का मध्यम और (रुतरे) उत्तर में (प्रयोविंशति) तेइस दिन का शनि अस्त रहता है। भावार्थ-यदि शनि का प्रवास और अस्त दक्षिण में एक महीने का मध्यम पच्चीस दिनका और उत्तर में तेइस दिन का होता है॥३॥ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता चारंगतश्चयो भूयः सन्तिष्ठते महाग्रहः । एकान्तरेण वक्रेण भौमवत् कुरुते फलम् ॥४॥ जब (महाग्रह:) शनि (चारंगतश्चयो भूय सन्तिष्ठते) गमन करता हुआ स्थिर होता है (एकान्तरेण वक्रेण) और एकान्तर वक्र को प्राप्त करता है तो (भौमवत् कुरुते फलम्) मंगल के समान ही फल देता है। भावार्थ-जब शनि गमन करता हुआ स्थिर होकर एकान्तर वक्र गति को प्राप्त होता है तो वह शनि मंगल के समान ही फल देता है॥४॥ संवत्सरमुपस्थाय नक्षत्रं विप्रमुञ्चति। सूर्यपुत्रस्ततश्चैव धोतमानः शनैश्चरः॥५॥ (शनैश्चर:) शनिश्चर (सूर्यपुत्रस्ततश्चैव द्योतमानः) सूर्य पुत्र के समान उद्योत मान होता हुआ, प्रजा के हित के लिये (संवत्सरमुपस्थाय) संवत्सर की स्थापना करता हुआ (नक्षा चिप्रमुञ्चति) नक्षत्र को छोड़ता है। भावार्थ-शनि सूर्य पुत्र के समान उद्योतमान होता हुआ, प्रजा के हित के लिये संवत्सर की स्थापना करता हुआ नक्षत्र को छोड़ता है।। ५।। द्वे नक्षत्रे यदा सौरिर्वर्षेण चरते यदा। राज्ञामन्योऽन्य भेदश्च शस्त्र कोपञ्च जायते॥६॥ (यदा) जब (सौरिः) शनि (वर्षेण) एक वर्ष में (द्वे नक्षत्रे) दो नक्षत्र प्रमाण (चरते) गमन करता है तो (राज्ञामन्योऽन्य भेदश्च) राजाओं में परस्पर भेद पड़ कर (शस्त्र कोपञ्च जायते) शस्त्र कोप का भय होता है। भावार्थ-जब शनि एक वर्ष में दो नक्षत्रों के ऊपर गमन करता है, तो राजाओं में परस्पर मतभेद पड़ जाता है, और शस्त्र कोप का भय उपस्थित हो जाता है॥६॥ दुर्गे भवति संवासो मर्यादा च विनश्यति। वृष्टिश्च विषमा ज्ञेया व्याधिकोपश्च जायते॥७॥ (दुर्गे भवति संवासो) उपर्युक्त शनि के होने पर दुर्ग में निवास करना पड़ता Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशोऽध्यायः है (मर्यादा च विनश्यति) सन मर्यादा नष्ट हो जाती है (वृष्टिश्च विषमा ज्ञेया) विषम वर्षा होती है (व्याधिकोपश्च जायते) व्याधियों उत्पन्न होती है, कोप उत्पन्न होता है। भावार्थ-उपर्युक्त शनि के होने पर दुर्ग में निवास करना पड़ता है सब मर्यादा नष्ट हो जाती है, विषम वर्षा होती है व्याधियाँ और कोप उत्पन्न होता है॥७॥ यदा तु त्रीणि चत्वारि नक्षत्राणि शनैश्चरः । मन्दवृष्टिं च दुर्भिक्षं शस्त्रं व्याधि च निर्दिशेत्॥८॥ (यदा तु शनैश्चरः) जब शनि एक वर्ष में (त्रीणि चत्वारि नक्षत्राणि) तीन या चार नक्षत्र प्रमाण गमन करता है तो (मन्दवृष्टिं च) वर्षा मन्द होगी, और (दुर्भिक्षं) दुर्भिक्ष होगा, (शस्त्र) शस्त्र भय होगा, (व्याधिं च निर्दिशेत्) और व्याधियों उत्पन्न होगी ऐसा निर्देशन किया है। भावार्थ-जब शनि एक वर्ष में तीन या चार नक्षत्र प्रमाण गमन करता है, तब थोड़ी वर्षा होगी, दुर्भिक्ष होगा, शस्त्र भय होगा, व्याधियाँ उत्पन्न होगी, ऐसा निर्देशन किया गया है।॥८॥ चत्वारि वा यदा गच्छेन्नक्षत्राणि महाधुतिः। तदा युगान्तं जानीयात् यान्ति मृत्युमुखं प्रजाः॥९॥ (महाद्युतिः) यदि शनि (चत्वारि वा यदा गच्छेन्नक्षत्राणि) जब एक वर्ष में चार नक्षत्रों पर गमन करता है तो (तदा) तब (युगान्तं जानीयात्) युगान्त जानना चाहिये। (यान्ति मृत्युमुखं प्रजा) और प्रजा मृत्यु के मुख में जानना चाहिये। भावार्थ-यदि शनि जब एक वर्ष में चार नक्षत्र तक गमन करता है, तो तब समझो इस युग का अन्त आने वाला है और प्रजा मृत्यु के मुखमें जाने वाली है ऐसा समझना चाहिये।।९।। उत्तरे पतितो मार्गे यद्येषो नौलतां सजेत्। स्निग्धं तदा फलं ज्ञेयं नागरं जायते तदा॥१०॥ (उत्तरे पतितो मार्गे) उत्तर मार्ग में गमन करता हुआ शनि (यद्येषो नीलतां Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ४९८ व्रजेत) यदि नील वर्ण का हो (स्निग्धं) स्निग्ध हो तो (तदा) तब उसका (फलं ज्ञेयं) फल अच्छा जानना चाहिये (नागरं जायते तदा) और नगरवासियों के लिये भी अच्छा है। भावार्थ-उत्तर मार्ग में यदि शनि नील वर्ण का होकर गमन करता हो, एवं स्निग्ध हो तो उसका फल नगरवासियों के लिये अच्छा होता है, शुभ रूप होता है॥१०॥ रतिप्रधाना मोदन्ति राजानस्तुष्ट भूमयः। क्षमां मेघवीं विन्द्यात् सर्व बीज प्ररोहिणीम्॥११॥ (रतिप्रधाना मोदन्ति) रति प्रधान व्यक्ति अमोद-प्रमोद करते हैं (राजानस्तुष्ट) राजा सन्तुष्ट होते है (क्षमां मेघवती विन्द्यात्) पृथ्वी मेघों से भर जाती है (भूमय: सर्व बीजप्ररोहिणीम्) भूमि में सब बीजों का वपन करना चाहिये। भावार्थ रति प्रधान व्यक्तियों को आनन्द होता है, राजा सन्तुष्ट होते हैं, पृथ्वी बादलों से भर जाती है, याने वर्षा खूब होती है, इसलिये भूमि में सब प्रकार के बीज बोने चाहिये॥११॥ मध्यमे तु यदा मार्गे कुयादस्तमनोदयौ। मध्यमं वर्षणं सस्यं सुभिक्षं क्षेममेव च ॥१२॥ (यदा) जब शनि (मध्यमे मार्गे) मध्यम मार्ग में (अस्तमनोदयौ कुर्याद) उदय और अस्त हो (तु) तो (मध्यमं वर्षणं सस्य)एवं मध्यम वर्षा हो और मध्यम ही धान्य हो (सुभिक्षं क्षेम मेव च) और सुभिक्ष क्षेम हो। भावार्थ-यदि शनि मध्यम मार्ग में उदय या अस्त हो तो वर्षा और धान्य मध्यम होता है, सुभिक्ष, क्षेम कुशल होता है॥१२॥ दक्षिणे तु यदा मार्गे यदि स नीलतां व्रजेत्। नागरा यायिनञ्चापि पीडयन्ते च भटागणा: ।।१३।। (यदा) जब शनि (दक्षिणे मार्गे) दक्षिण मार्ग में (यदि स नीलतां व्रजेत्) यदि वह नीला होकर गमन करे (तु) तो (नागरा) नगरवासी (यायिनञ्चापि) और Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशोऽध्यायः आने वाले आक्रमणकारी के (भटागणा च पीड्यन्ते) योद्धा पीड़ा को प्राप्त होते हैं। भावार्थ-जब शनि दक्षिण दिशा में नीले वर्ण का होकर दिखे तो समझो नगरस्थ व आने वाले शुत्र के योद्धा दोनों ही पीड़ा को प्राप्त होते हैं।। १३ ॥ गोपालं वर्जयेत् तत्र दुर्गाणि च समाश्रयेत्। कारयेत् सर्वशस्त्राणि बीजानि च न वापयेत्॥१४॥ उक्त प्रकार के शनि में (गोपालं वर्जयेत् तत्र) वहाँ गोपुर नगर को छोड़कर (दुर्गाणि च समाश्रयेत्) दुर्ग का आश्रय लेना चाहिये, (कारयेत् सर्वशस्त्राणि) सर्व शस्त्रों को तैयार करना चाहिये, (बीजानि च न वापयेत्) वहाँ पर बीजों का वपन नहीं करना चाहिये। भावार्थ- उपर्युक्त शनि में गोपुर छोड़कर किसी सुरक्षित दुर्ग का आश्रय लेना चाहिये, अपने-अपने सर्व शस्त्रों की तैयारी करनी चाहिये, क्योंकि वहाँ पर कभी भी युद्ध हो सकता है, और बीजों का वपन नहीं करना चाहिये ।। १४ ।। प्रदक्षिणं तु ऋक्षस्य यस्य याति शनैश्चरः। स च राजा विवर्धेत सुभिक्ष क्षेममेव च ॥१५॥ (शनैश्चर:) शनि (यस्य) जिस (ऋक्षस्य) नक्षत्रकी (प्रदक्षिणं याति) प्रदक्षिणा लगाता है (स च राजाविवर्धेत) वहाँ का राजा वृद्धि को प्राप्त होता है। (सुभिक्षं क्षेममेव च) और वहाँ सुभिक्ष होगा, क्षेम होगा। भावार्थ-शनि जिस नक्षत्र को प्रदक्षिणा लगाता है, उस प्रदेश के राजा की वृद्धि होती है, और वहाँ पर सुभिक्ष होता है, क्षेम कुशल होता है।। १५॥ अपसव्यं नक्षत्रस्य यस्य याति शनैश्चरः। स च राजा विपद्येत दुर्भिक्षं भयमेव च ॥१६॥ (शनैश्चर:) शनि (यस्य) जिस (नक्षत्रस्य) नक्षत्र के (अपसव्यं याति) दाहिनी ओर गमन करता है (स च राजा विपद्येत) वहाँ का राजा विपदामें पड़ता है, (दुर्भिक्षं भयमेव च) वहाँ पर दुर्भिक्ष और भय उत्पन्न होता है। - --- Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ५०० भावार्थ-शनि जिस नक्षत्र के दाहिनी और गमन करता है, तो वहाँ के राजा पर बहुत बड़ी भारी विपदा आती है, वहीं दुर्भिक्ष पड़ता है भय उत्पन्न होता है।।१६॥ चन्द्रः सौरिं यदा प्राप्तः परिवेषेण रुन्द्धति। अवरोधं विजानीयानगरस्य महीपतेः ॥१७॥ (यदा) जब (चन्द्रः सौरि) चन्द्रमा शनि को (प्राप्त:) प्राप्त कर (परिवेषण रूद्धति) परिवेष से रुद्ध हो तो (नगरस्य महीपतेः) नगर के राजा का (अवरोधं विजानीयात्) अवरोध होता है। भावार्थ-जब चन्द्रमा शनि को प्राप्त कर परिवेष से रुद्ध होता है, तो समझो नगर के राजा का अवरोध होगा, ऐसा जानो॥१७॥ चन्द्रः शनैश्चरं प्राप्तो मण्डलं वाऽनुरोहति। यवनां सराष्ट्रां सौवीरां वारुणं भजते दिशम्॥१८॥ (चन्द्रः शनैश्चरं प्राप्तो) जब चन्द्र शनि को प्राप्त कर (मण्डलं वानुरोहति) मण्डल पर आरोहण करे तो (यवनां) यवन लोग, (सराष्ट्रां) सौराष्ट्र (सौवीरां) सौवीर (वारुणं) और उत्तर दिशा को (भजते दिशम्) प्राप्त होते हैं। भावार्थ-जब चन्द्रमा शनि को प्राप्त कर मण्डल से अवरोहण करता है, तो यवन, लोग सौराष्ट्र, सौवीर और उत्तर प्रदेश में फैल जाते हैं।॥ १८॥ आनाः सौरसेनाश्च दशार्णा द्वारिकास्तथा। आवन्त्या अपरान्ताश्च यायिनश्च तदा नृपाः॥१९॥ उपर्युक्त शनि में (आनर्ताः सौरसेनाश्च) आनर्त, सौरसेन, (दशार्णा द्वारिकास्तथा) और दशार्ण तथा द्वारिका (आवन्त्या) आवन्ति (अपरान्ताश्च) और आपरान्तक (तदा) तंब (यायिनश्च नृपाः) आने वाले राजा लोग इन देशों के ऊपर आक्रमण करते हैं। भावार्थ-उपर्युक्त शनि में आनर्त, सौरसेन, दशार्ण, द्वारिका तथा आवन्ति व अन्य देशों के ऊपर आने वाला राजा आक्रमण करता है।।१९॥ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशोऽध्यायः यदा वा युगपद् युक्तः सौरिमध्येन नागरः। तदा भेदं विजानीयानागराणां परस्परम् ॥२०॥ (यदा) जब (वा) वा (सौरिमध्येन) सौरि के मध्यमें (युगपद् युक्तः) चन्द्रमा और शनि दोनों एक साथ हो तो (नागरः) नगर (तदा) तब (नागराणां परस्परम् भेदं) नागरिकों में परस्पर भेद होता है। भावार्थ-जब चन्द्रमा और शनि एक हो तो नागरिकों में परस्पर भेद पड़ता है॥२०॥ महात्मानश्च ये सन्तो महायोगापरिग्रहाः। उपसर्ग च गच्छन्ति धन-धान्यं च वध्यते॥२१॥ (महात्मानश्च ये सन्तो) महात्मा मुनि और साधु (महायोगापरिग्रहाः) महायोग को धारण करने वाले अपरिग्रही होते है, (उपसर्ग च गच्छन्ति) उपसर्ग को प्राप्त होते हैं (धन-धान्यं च वध्यते) धन और धान्यों का घात होता है। भावार्थ-महात्मा, मुनि, महायोग को धारण करने वाले साधु अपरिग्रही होते हैं उपसर्ग को प्राप्त करते हैं धन और धान्य का घात होता है॥२१॥ देशा महान्तो योधाश्च तथा नगरवासिनः। ते सर्वत्रोपतप्यन्ते बेधे सौरस्य तादृशे॥२२॥ (सौरस्य तादृशे बेधे) शनि के उसी प्रकार से बेधित होने पर (देशा) देश (महान्तो योधाश्च) बड़े-बड़े योद्धा (तथा) तथा (नगरवासिनः) नरकवासी (ते सर्व त्रोपतप्यन्ते) वे सब ही सन्तप्त होते हैं। भावार्थ-शनि के उसी प्रकार बोधित होने पर देश और बड़े-बड़े योद्धा तथा नगर निवासी सब ही सन्तप्त होते हैं।। २२॥ ब्राह्मी सौम्या प्रतीची च वायव्या च दिशो यदा। वाहिनी यो जयेत्तासु नृपो दैवहतस्तदा ॥२३॥ (यदा) जब (ब्राही सौम्या प्रतीची च) पूर्व, उत्तर और पश्चिम (वायव्या) वायव्य (दिशो) दिशा की (वाहिनीं) सेना को (यो जयेत्तासु) जो जीतता है (नृपो दैव हतस्तदा) ऐसा राजा भी समझो दैव के द्वारा ठगा गया हैं। Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ- जब पूर्व, उत्तर, पश्चिम और वायव्य दिशा की सेना को राजा ने जीता हो तो समझो, वह देव के द्वारा ठगा गया क्योंकि थोड़े से समय में ही उसके ऊपर आपत्ति आयेगी ।। २३ ॥ कृत्तिकासु च यद्यार्किविंशाखासु समस्तं दारुणं विन्द्यात् मेघश्चात्र वृहस्पतिः । प्रवर्षति ॥ २४ ॥ ५०२ (कृत्तिकासु च यद्यार्कि) कृत्तिका नक्षत्र पर शनि और (विशाखासु वृहस्पतिः ) विशाखा नक्षत्र पर गुरु हो तो (समस्तं दारुणं विन्द्यात्) समस्त गजह दारुण कष्ट होगा (मेघाश्चात्र प्रवर्षति ) वहाँ पर वर्षा बहुत होगी । भावार्थ — यदि कृत्तिका नक्षत्र पर शनि हो और विशाखा नक्षत्र पर गुरु हो तो वहाँ पर महा भय उपस्थित होगा, बहुत वर्षा होगी ॥ २४ ॥ कीटाः पतङ्गाः शलभा वृश्चिका मूषका शुक्राः । अग्निश्चौरा बलीयां सस्तस्मिन् वर्षे न संशय ॥ २५ ॥ इस प्रकार की स्थिति वाले वर्ष में (कीटाः पतत्रा: शलभा) कीट, पतन, शलभ (वृश्चिका मूषका शुक्राः) बिच्छु, चूहा, तोता (अग्निश्चीरा) और अग्नि, चोर आदि ( तस्मिन् वर्षे बलीयांसः) उस वर्ष में बलवान हो जाते है ( न संशय) इसमें कोई सन्देह नहीं है। भावार्थ — उपर्युक्त स्थिति वाले वर्ष में कीड़े, पतत्र, शुलभ, अग्नि, चोर, बिच्छु, चूहा, तोता आदि बलवान हो जाते हैं, अर्थात् इनका उपद्रव बहुत होता है ॥ २५ ॥ श्वेते सुभिक्षं जानीयात् पाण्डु-लोहित के भयम् । पीतो जनयते व्याधिं शस्त्रकोपञ्च दारुणम् ॥ २६ ॥ शनि (श्वेते सुभिक्षं जानीयात्) सफेद रंग का हो तो सुभिक्ष करेगा, (पाण्डु-लोहित केभयम् ) पाण्डु और लोहित रंग का दोनों भय करेगा, ( पीतो जनयते व्याधिं ) पीला हो तो व्याधि उत्पन्न करेगा और ( शस्त्र कोपञ्च दारुणम्) शस्त्र कोप होगा । भावार्थ —जब शनि सफेद हो तो सुभिक्ष होगा, पाण्डु और लाल हो तो भय उत्पन्न होगा, पीला हो तो व्याधियाँ उत्पन्न होगी और महान् शस्त्रपात होगा ॥ २६ ॥ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - षोडशोऽध्यायः - - - कृष्णे शुष्यन्ति सरितो वासवश्च न वर्षति। स्नेहवानत्र गृह्णाति रूक्षः शोषयते प्रजाः ।। २७॥ शनि के (कृष्णे) काले होने पर (सरितो शुष्यन्ति) तालाब सूख जाते हैं, (वासवश्च न वर्षति) वर्षा नहीं होती है और (स्नेहवानत्र गृह्णाति) स्निग्ध हो तो प्रजा में सहयोग (रूक्षः शोषयतेप्रजा:) और रूक्ष हो तो प्रजा में शोषण होता है। भावार्थ-जब शनि काले वर्ण का हो तो सारे तालाब सूख जाते हैं, वर्षा नहीं होती है स्निग्ध हो तो प्रजा में प्रेम बढ़ता है, और रूक्ष हो तो प्रजा का शोषण होता है।। २७॥ सिंहलानां किरातानां मद्राणां मालवैः सह। द्रविडानां च भोजानां कोंकणानां तथैव च ।। २८॥ और भी आगे (सिंहलानां किरातानां) सिंहल, किरात (मद्राणां मालवैःसह) मालव, मद्र (द्रविडानां च भोजानां) द्रविड और भोज (कोंकणानां तथैव च) तथा कोंकण। भावार्थ-सिंहल, किरात, मालव, मद्र, द्रविड़ और भोज, कोंकण तथा और भी॥ २८॥ उत्कलानां, पुलिन्दानां पल्हवानां शकैः सह। यवनानां च पौराणां स्थावराणां तथैव च।।२९।। अङ्गानां च कुरूणां च दश्यानां च शनैश्चरः। एषां विनाश कुरुते यदि युध्येत संयुगे॥३०॥ (उल्कलानां पुलिन्दानां) उल्कल, पुलिन्द (पल्हवानां शकै: सह) पल्हव और शक (यवनानां) यवन (च) और (पौराणां) पौराण, (तथैव च) और उसी प्रकार (अजनां) अंग (च कुरूणां) और कुरू (दश्यानां) दस्यु आदि देशों का (शनैश्चर: संयुगे युध्येत्) यदि शनि युगपत् वाधित होता है तो (एषां विनाशं कुरुते) इन सब देशों का विनाश कर देता है। भावार्थ-यदि शनि बेधित हो रहा हो तो या युद्ध हो रहा हो तो समझो, उल्कल, पुलिन्द, पल्वह, शक, यवन, पौराण, अन, कुरू, दस्यु आदि देशों का विनाश करता है, इतने देशों में अनिष्ट होता है।। २९-३०॥ -- - --- - .. -- Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ५०४ यस्मिन् यस्मिंस्तु नक्षत्रे कुर्यादसस्तमनोदयौ। तस्मिन् देशान्तरं द्रव्यं हन्यात् चाथ विनाशयेत् ॥३१॥ (यस्मिन् यस्मिस्तु नक्षत्रे) जिस-जिस नक्षत्र पर (कुर्यादस्तमनोदयौ) शनि अस्त या उदय हो तो (तस्मिन् देशान्तरं द्रव्यं) उस-उस नक्षत्र वाले द्रव्य देश एवं देशवासियों का (हन्यात् चाथ विनाशयेत्) घात या नाश होता है। भावार्थ-जिस-जिस नक्षत्र पर शनि अस्त हो या उदय हो तो उस-उस नक्षत्र वाले द्रव्य, देश एवं देश वासियों का घात होता है एवं नाश होता है।। ३१ ।। शनैश्चरं चारमिदं च भूयो योवेत्तिविद्वान् निभृतो यथावत् । स पूजनीयो भुविलब्धकीर्त्ति: सदा महात्मेव हि दिव्य चक्षुः ॥३२॥ (यो) जो (विद्वान्) विद्वान् (यथावत्) यथावत् (निभृतो) अच्छी तरह से (शनैश्चरं) शनि के (चारमिदं) संचार को (भूयोवेत्ति) जानता है (स) वही (पूजनीयो) पूज्यनीय है (भूविलब्धकीर्तिः) वही कीर्ति को प्राप्त हुआ (सदामहात्मेवहि दिव्यचक्षुः) वही महात्मा दिव्य चक्षुधारी है। भावार्थ-जो विद्वान् यथावत् अच्छी तरह से शनि के संचार जानता है वही पूज्यनीय है, उसीको कीर्तिकी प्राप्ति हुई है वही दिव्य महात्मा है, संसार में वहीं महात्मा उत्कृष्ट कहलाता है, जिसने महान् दिव्य ज्ञान को धारण किया है।। ३२॥ विशेष वर्णन-अब आचार्य श्री इस अध्याय में ग्रहों का संचार कहते हैं, कौनसी राशि पर कौन से ग्रह का संचार है और उसका क्या फल होता है कौनसे देश पर या राजा पर या व्यक्ति पर क्या असर करेगा, इन सब बातों का इस अध्याय में वर्णन है। जैसे राशियाँ बारह होती है, मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ। ग्रह नौ होते हैं, शनि, रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, राहु, केतु। अगर धनु राशि में शनि का संचार हो तो धन-धान्य की अच्छी उत्पत्ति, समयानुकूल वर्षा प्रजामें शान्ति का अनुभव, धर्म की वृद्धि, विद्या का प्रचार, कलाकारों Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०५ षोडशोऽध्यायः का सम्मान, देश में कला कौशल की उत्पत्ति प्रजा में सुख और शान्ति का अनुभव, प्रसन्नता बढ़ती है। प्रजाको सभी प्रकार के सुख प्राप्त होता है याने सभी तरफ सुख और शान्ति ही बढ़ती है। शनि के मेष राशि पर होने से, धान्य नाश, तैलंग, द्रविड और बंग देश में विग्रह पाताल, नागलोक, दिशा-विदिशा में विद्रोह मनुष्यों में क्लेश, वैर, धनका नाश, अन्न की महंगी, पशुओं का नाश एवं प्रजा में भय और आतंक रहता है। मकर के शनि में सोना-चाँदी, ताँबा, हाथी, घोड़ा, बैल, सूत, कपास आदि पदार्थों का भाव महंगा होता है, क्योंकि ऐसे शनि में वर्षा नहीं होने के कारण धान्योत्पत्ति नहीं होती, रोग के कारण प्रजा का नाश होता है, अग्नि का भय होता है इन सब कारणों से प्रजा में भय और अशान्ति होती है। इस अध्याय में मुख्यतः शनि के संचार का वर्णन और बाकी ग्रहों का वर्णन भी किया है, जैसे शनि के उदय विचार, शनि के अस्त विचार नक्षत्रानुसार शनि फल का वर्णन किया है। जैसे 'नक्षत्रानुसार शनि का एक उदाहरण लिखता हूँ । रोहिण नक्षत्र का शनि उत्तरप्रदेश और पंजाब के व्यक्तियों को कष्ट देता है, पूर्व और दक्षिण के निवासियों को सुख-शान्ति देता है, प्रजा में क्रान्ति लाता है देश में नई-नई मांगे उठती है, शिक्षा व व्यवसाय के क्षेत्र में उन्नति होती है आदि । इसी प्रकार अन्य समझे। आगे इन ग्रहों के संचार विषयक ज्योतिषाचार्य का अभिमत भी दे देता हूँ । विवेचन — शनि के मेषराशि पर होने से धान्यनाश, तैलंग, द्राविड़ और बंग देशमें विग्रह, पाताल, नागलोक, दिशा - विदिशा में विद्रोह, मनुष्यों में क्लेश, वैर, धनका नाश, अन्नकीं महँगी, पशुओं का नाश, जनता में भय एवं आतंक रहता है। मेषराशि का शनि आदि व्यादि उत्पन्न करता है । पूर्वीय प्रदेशों में वर्षा अधिक और पश्चिमके देशों में वर्षा कम होती है। उत्तर दिशा में फसल अच्छी होती है। दक्षिणके प्रदेशों में आपसी विद्रोह होता है । वृष राशिपर शनि के होने से कपास, लोहा, लवण, तिल, गुड़, महँगे होते हैं तथा हाथी, घोड़ा, सोना, चाँदी सस्ते रहते हैं । पृथ्वी मण्डल पर शान्ति का साम्राज्य छाया रहता है। मिथुन राशिके Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ५०६ शनि का फल सभी प्रकारके सुखों की प्राप्ति है। मिथुनके शनि में वर्षा अधिक होती है। कर्कराशिके शान में रोग, तिरस्कार, धन नाश, कार्य में हानि, मनुष्यों में विरोध, प्रशासकों में द्वन्द्व, पशुओं में महामारी एवं देशके पूर्वोत्तर भाग में वर्षाकी भी कमी रहती है। सिंह राशिके शनि में चतुष्पद, हाथी, घोड़े आदिका विनाश, युद्ध, दुर्भिक्ष, रोगों का आतंक, समुद्रके तटवर्ती प्रदेशों में क्लेश, म्लेच्छों में संघर्ष, प्रजाको सन्ताप, धान्यका अभाव एवं नाना प्रकार से जनता को अशान्ति रहती है। कन्याके शनि में काश्मीर देशका नाश, हाथी और घोड़ों में रोग, सोना-चाँदी-रत्नका भाव सस्ता, अन्नकी अच्छी उपज एवं घृतादि पदार्थ भी प्रचुर परिणाम में उत्पन्न होते हैं। तुलाके शनि में धान्यभाव तेज, पृथ्वी में व्याकुलता, पश्चिमीय देशों में क्लेश, मुनियोंको शारीरिक कष्ट, नगर और ग्रामों में रोगोत्पत्ति, वनोंका विनाश, अल्प वर्षा, पवनका प्रकोप, चोर-डाकुओं का अत्यधिक भय एवं धनाभाव होते हैं। तुलाका शनि जनताको कष्ट उत्पन्न करता है, इनमें धान्यकी उत्पत्ति अच्छी नहीं होती। वृश्चिक राशिके शनि में राज कोप, पक्षियों में युद्ध, भूकम्प, मेघों का विनाश, मनुष्यों में कलह, कार्योंका विनाश, शत्रुओंको क्लेश एवं नाना प्रकार की व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। वृश्चिकके शनि में चेचक, हैजा और क्षय रोग का अधिक प्रसार होता है। कास-श्वास की बीमारी भी वृद्धिगत होती है। धनुराशिके शनि में धन-धान्य की अच्छी उत्पत्ति, समयानुकूल वर्षा, प्रजा में शान्ति, धर्मकी वृद्धि, विद्याका प्रचार, कलाकारोंका सम्मान, देशके कला-कौशलकी उन्नति एवं जनता में प्रसन्नताका प्रसार होता है। प्रजाको सभी प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं, जनता में हर्ष और आनन्द की लहर व्याप्त रहती है। मकरके शनि में सोना, चाँदी, ताँबा, हाथी, घोड़ा, बैल, सूत, कपास आदि पदार्थोंका भाव महँगा होता है। खेतीका भी विनाश होता है, जिससे अन्नकी उपज भी अच्छी नहीं होती है। रोगके कारण प्रजाका विनाश होता है तथा जनता में एक प्रकार की अग्नि का भय व्याप्त रहता है, जिससे अशान्ति दिखलाई पड़ती है। कुम्भ राशिके शनि में धन-धान्य की उत्पत्ति खूब होती है। वर्षा प्रचुर परिमाण में और समयानुकूल होती है। विवाहादि उत्तम मांगलिक कार्य पृथ्वीपर होते रहते हैं, जिससे जनता में हर्ष छाया रहता है। धर्मका प्रचार और प्रसार सर्वत्र होता है, सभी लोग सन्तुष्ट और प्रसन्न दिखलाई पड़ते Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०७ षोडशोऽध्यायः हैं। मीनकेशन में वेनीका अभाव, नाना प्रकारके भयानक रोगोंकी उत्पत्ति, वर्षाका अभाव, वृक्षोंका भी अभाव, पवनका प्रचण्ड होना, तूफान और भूकम्पोंका आना, भयंकर महामारियोंका पड़ना, सब प्रकारसे जनता का नाश और आतकित होना एवं धनका नाश होना आदि फल घटित होते हैं। सभी राशियों में तुला और मीनके शनि को अनिष्टकर माना गया है। मीनका शनि धन-जनकी हानि करता है और फसलको चौपट करनेवाला माना जाता है। यदि मीनके शनि के साथ कर्क राशिका मंगल हो तथा इन दोनोंके पीछे सूर्य गमन कर रहा हो तो निश्चय ही भयंकर अकाल पड़ता है । इस अकाल में धन-जनकी हानि होती है, देश में अनेक प्रकारकी व्याधियों उत्पन्न हो जाने से भी जनता को कष्ट होता है। वस्तुएँ भी महँगी होती हैं। व्यापारीवर्गको भी मीनके शनि में लाभ नहीं होता। व्यापारीवर्ग भी अनेक प्रकारके कष्ट उठाता है। अन्नाभावके कारण जनता में त्राहि-त्राहि उत्पन्न हो जाती है। शनि का उदय विचार - मेष में शनि उदय हो तो जलवृष्टि, मनुष्यों में सुख, प्रजा में शान्ति, धार्मिक विचार, समर्थता, उत्तम फसल, खनिजपदार्थों की उत्पत्ति अत्यधिक, सेवाकी भावना, सहयोग और सहकारिता के आधार पर देशका विकास, विरोधियोंका पराजय, एवं सर्वसाधारण में सुख उत्पन्न होता है। वृष राशि में शनि के उदय होने से तृणकाष्ठका अभाव, घोड़ों में रोग, अन्य पशुओं में भी अनेक प्रकारके रोग एवं साधारण वर्षा होती है। मिथुन में उदय होने से प्रचुर परिमाण में वर्षा, उत्तम फसल, धान्य- माल सस्ता एवं प्रजा सुखी होती है। कर्क राशि में शनि के उदय होने से वर्षाका अभाव, रसोंकी उत्पत्ति में कमी, वनोंका अभाव, घी-दूध-चीनीकी उत्पत्ति में कमी, अधर्मका विकास एवं प्रशासकों में पारस्परिक अशान्ति उत्पन्न होती है। कन्या में शनि का उदय हो तो धान्यनाश, अल्पवर्षा, व्यापार में लाभ और उत्तम वर्गीक व्यक्तियोंको अनेक प्रकार का कष्ट होता है । तुला और वृश्चिक राशि में शनि का उदय हो तो महावृष्टि धन का विनाश चोरों का उपद्रव उत्तम खेती नदियों में बाढ़, नदी या समुद्र के तटवर्ती प्रदेशों के निवासियों को कष्ट एवं गेहूँकी फसलका अभाव या कमी रहती हैं। धनुराशि में शनि का उदय हो तो मनुष्यों में अस्वस्थता, रोग, स्त्री और बालकों में नाना प्रकारकी बीमारी, धान्यका नाश और जनसाधारण में अनेक प्रकारके अन्धविश्वासका विकास Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ५०८ होनेसे सभीको कष्ट उठाना पड़ता है। मकर में शनि का उदय हो तो प्रशासकों में संघर्ष, राजनैतिक उलट-फेर, चौपायोंको कष्ट, तृणकी कमी, वर्षा साधारण रूप में होना एवं लोहेका भाव महँगा होता है। कुम्भ राशि में शनि का उदय हो तो अच्छी वर्षा, साधारणतया धान्यकी उत्पत्ति, व्यापार में लाभ, कृषक और व्यापारीवर्ग में सन्तोष रहता है। देशका आर्थिक विकास होता है। नई-नई योजनाएं बनाई जाती हैं और सभी कार्यरूप में परिणत कराई जाती हैं। मीनराशि में शनि का उदय होना अल्प वर्षा कारक, अल्पधान्यकी उत्पत्तिका सूचक एवं चोर, डाकुओंकी वृद्धिकी सूचना देता है। शनि का कर्क-तुला, मकर और मीन राशियों में उदय होना अधिक खराब है। अन्य राशियों में शनि के उदय होने से अन्नकी उत्पत्ति अच्छी होती है। देशका व्यापार विकसित होता है और देशके साधारण कष्टके सिवा विशेष कष्ट नहीं होता है। रोग-महामारीका प्रसार होता है, जिससे सर्व साधारणको कष्ट होता है। शनि अस्त का विचार-मेष में शनि अस्त हो तो धान्य का भाव तेज, वर्षा साधारण, जनता में असन्तोष, परस्पर फूट, मुकदमोंकी वृद्धि और व्यापार में लाभ होता है। वृषराशि में शनि अस्त हो तो पशुओं को कष्ट, देशके पशुधन का विनाश, पशुओं में अनेक प्रकारके रोग, मनुष्यों में संक्रामक रोगोंकी वृद्धि एवं धान्यकी उत्पत्ति साधारण होती है। मिथुनराशि में शनि अस्त हो तो जनता को कष्ट, आपसी विद्वेष, धन-धान्य का विनाश, चैत्रके महीने में महामारी एवं प्रजा में अशान्ति रहती है। कर्कराशि में शनि अस्त हो तो कपास, सूत, गुड़, चाँदी, घी अत्यन्त महँगे, वर्षाकी कमी, देश में अशान्ति, तथा नाना प्रकारके धान्यकी महंगाई और कलिंग, बंग, अंग, विदर्भ, विदेह, कामरूप, आसाम आदि प्रदेशों में वर्षा साधारण होती है। कन्याराशि में शनि के अस्त होने से अच्छी वर्षा, मध्यम फसल, अन्न का भाव महंगा, धातु का भाव भी महंगा और चीनी-गुड़की उत्पत्ति मध्यम होती है। तुलाराशि में शनि का उदय हो तो अच्छी वर्षा, उत्तम फसल, जनता में सन्तोष और सभी प्रदेशोंके व्यक्ति सुखी होते हैं। व्यापकरूपसे वर्षा होती है। वृश्चिकराशि में शनि के अस्त होने से अच्छी वर्षा, फसल में रोग, टिड्डी-शलभादि का विशेष प्रकोप, धनकी वृद्धि, जनता में साधारणतया शान्ति और सुख होता Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०९ षोडशोऽध्यायः है। धनुराशि में शनि के अस्त होने से स्त्री-बच्चों को कष्ट, उत्तम वर्षा, उत्तम फसल, उत्तम व्यापार और जनसाधारण में सब प्रकारसे शान्ति व्याप्त रहती है। मकरराशि में शनि के अस्त होने से सुख, प्रचण्ड पवन, अच्छी वर्षा, अच्छी फसल, व्यापार में कमी, राजनैतिक स्थिति में परिवर्तन एवं पशुधनकी वृद्धि होती है। कुछ राशि में शनि के अस्त होने से शीतप्रकोप, पशुओंकी हानि एवं मध्यम फसल होती है। मीनराशि में शनि के उत्पन्न होने से अधर्म का प्रचार, फसल का अभाव एवं प्रजा को कष्ट होता है। नक्षत्रानुसार शनिफल-श्रवण, स्वाति, हस्त, आर्द्रा, भरणी और पूर्वाफाल्गुनी नगर में शनि शियत हो तो पृथ्वी पर जलकी वर्षा होती है, सुभिक्ष, समर्घता-वस्तुओंके भाव में समता और प्रजा का विकास होता है। उक्त नक्षत्रों का शनि मनोहर वर्ण का होने से अधिक शान्ति देता है तथा पूर्वीय प्रदेशोंके निवासियों को अर्थलाभ होता है। पश्चिम प्रदेशोंके नागरिकोंके लिए उक्त नक्षत्रों का शनि भयावह होता है। चोर, डाकुओं और गुण्डों का उपद्रव बढ़ जाता है। आश्लेषा, शतभिषा और ज्येष्ठा नक्षत्रों में स्थित शनि सुभिक्ष, सुमंगल और समयानुकूल वर्षा करता है। इन नक्षत्रों में शनि के स्थित रहने से वर्षा प्रचुर परिमाण में नहीं होती। समस्त देश में अल्प ही वृष्टि होती है। मूलनक्षत्र में शनि के विचरण करने से क्षुधाभय, शत्रुभय, अनावृष्टि, परस्पर संघर्ष, मतभेद, राजनैतिक उलटफेर, नेताओं में झगड़ा, व्यापारी वर्ग को कष्ट एवं स्त्रियों को व्याधि होती है। अश्विनी नक्षत्र में शनि के विचरण करने से अश्व, अश्वारोही, कवि, वैद्य और मन्त्रियोंको हानि उठानी पड़ती है। उक्त नक्षत्र का शनि बंगाल में सुभिक्ष, शान्ति, धन-धान्य की वृद्धि, जनता में उत्साह, विद्या का प्रचार एवं व्यापारकी उत्पत्ति करनेवाला है। आसाम और बिहारके लिए साधारणतः सुखदायी, अल्प वृष्टि कारक एवं नेताओं में मतभेद उत्पन्न करनेवाला, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और बम्बई राज्यके लिए सुभिक्ष कारक, बाढ़के कारण जनता को साधारण कष्ट, आर्थिक विकास एवं धान्यकी उत्पत्ति का सूचक है। मद्रास, कोचीन, राजस्थान, हिमाचल, दिल्ली, पंजाब और विन्ध्यप्रदेशके लिए साधारण वृष्टि कारक, सुभिक्षोत्पपादक और आर्थिक विकास करनेवाला है। अवशेष प्रदेशके लिए सुखोत्पादक और सुभिक्ष कारक है। अश्विनी Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता नक्षत्रके शनि में इंग्लैण्ड, अमेरिका और रूस में आन्तरिक शान्ति रहती है। जापान में अधिक भूकम्प आते हैं तथा अनाजकी कमी रहती है। खाद्य पदार्थों का अभाव सुदूर पश्चिमके राष्ट्रों में रहता है। भरणी नक्षत्र का शनि विशेष रूपसे जलयात्रा करनेवालों को हानि पहुंचाता है। नर्तक, गाने-बजानेवाले एवं छोटी-छोटी नावों द्वारा आजीविका करनेवालों को कष्ट देता है। कृत्तिका नक्षत्र का शनि अग्निसे आजीविका करनेवाले, क्षत्रिय, सैनिक और प्रशासक वर्गके लिए अनिष्टकर होता है। रोहिणी नक्षत्र में रहनेवाला ने उत्तरप्रदेश और पंजाबके व्यक्तियों को कष्ट देता है। पूर्व और दक्षिण के निवासियोंके लिए सुख-शान्ति देता है। जनता में क्रान्ति उत्पन्न करता है। समस्त देश में नई-नई बातोंकी माँगकी जाती है। शिक्षा और व्यावसायके क्षेत्र में उन्नति होती है। मृगशिर नक्षत्र में शनि के विचरण करने से याजक, यजमान, धर्मात्मा व्यक्ति और शान्तिप्रिय लोगों को कष्ट होता है। इस नक्षत्रपर शनि के रहने से रोगोंकी उत्पत्ति अधिक होती है तथा अग्निभय और शस्त्रभय बराबर बना रहता है। आद्रा नक्षत्र पर शनि के न रहने से तेली, धोबी, रंगरेज और चोरों को अत्यन्त कष्ट होता है, देशके सभी भागों में सुभिक्ष होता है। वर्षा उत्तम होती है, व्यापार भी बढ़ता है, विदेशों में सम्पर्क स्थापित होता है। पुनर्वसु नक्षत्र में शनि के न रहने से पंजाब, सौराष्ट्र, सिन्धु और सौवीर देशों में अत्यन्त पीड़ा होती है। इन प्रदेशों में वर्षा भी अल्प होती है तथा महामारीके कारण जनता को कष्ट होता है। पुष्य नक्षत्र में शनि के रहने से देश में सुकाल, उत्तम वर्षा, आपसी मतभेद, नेताओं में संघर्ष एवं निम्न श्रेणीके व्यक्तियों को कष्ट होता है। पूर्व प्रदेशोंके लिए उक्त नक्षत्र का शनि शान्ति देनेवाला, दक्षिण प्रदेशों में सुभिा करनेवाला, उत्तरके प्रदेशों में धन-धान्यकी वृद्धि करनेवाला, एवं पश्चिम प्रदेशोंके व्यक्तियोंके लिए अशान्तिकारक होता है। उक्त नक्षत्र का शनि सभी मुस्लिम राष्ट्रों में अशान्ति उत्पन्न करता है तथा अमेरिका में आन्तरिक कलह होता है। रूसकी राजनैतिक स्थिति में भी परिवर्तन आता है आश्लेषा नक्षत्र का शनि साँ को कष्ट देता हैं तथा सो द्वारा आजीविका करने वालों को भी कष्ट ही देता है। आश्लेषा नक्षत्र का शनि के रहने से जापान, वर्मा, दक्षिण भारत और युगोस्लोविया में भूकम्प अधिक आते हैं। इन भूकम्पों द्वारा धन-जनकी पर्याप्त हानि होती है। Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > ५११ षोडशोऽध्यायः भारत के लिए उक्त नक्षत्र का शनि उत्तम नहीं है। देश में समयानुकूल वर्षा नहीं होती है, जिससे फसल उत्तम नहीं होती । उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का शनि गुड़, लवण, जल एवं फलोंके लिए हानिकारक होता है। उक्त शनि में महाराष्ट्र, मद्रास, दक्षिणी भारतके प्रदेश और बम्बईराज्यके लिए लाभ होता है। इन राज्यों का आर्थिक विकास होता है, कला-कौशलकी वृद्धि होती है । हस्त नक्षत्र में शनि स्थित हो तो शिल्पियों को कष्ट होता है। कुटीर उद्योगोंके विकास में उक्त नक्षत्रके शानिसे अनेक प्रकारकी बाधाएँ आती हैं। चित्रा नक्षत्र में शनि हो तो स्त्रियों, ललितकलाके कलाकारों एवं अन्य कोमल प्रकृतिवाल को कष्ट होता है। इस नक्षत्र में शनि के रहने से समस्त भारत में वर्षा अच्छी होती है, फसल भी अच्छी उत्पन्न होती है। दक्षिणके प्रदेशों में आपसी मतभेद होने से कुछ अशान्ति होती है। स्वाति नक्षत्र में शनि हो तो, नर्तक, सारथी, ड्राइवर, जहाज संचालक, दूत एवं स्टीमरोंके चालकों को व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। देश में शान्ति और सुभिक्ष उत्पन्न होते हैं। विशाखा नक्षत्र का शनि रंगोंके व्यापारियोंके लिए उत्तम है। लोहा, अभ्रक तथा अन्य प्रकारके खनिज पदार्थों के व्यापारियोंके लिए अच्छा होता है। अनुराधा नक्षत्र का शनि काश्मीरके लिए अरिष्टकारक होता है । भारतके लिए मध्यम है, इस नक्षत्रके शनि में खेती अच्छी होती है वर्षा अच्छी ही होती है। इस नक्षत्रके शनि में बर्तन बनाने का कार्य करनेवाले, कपड़े का कार्य करनेवाले यन्त्रों में विघ्न उत्पन्न होते है। जूट और चीनी के व्यापारियोंके लिए वह बहुत अच्छा होता है। ज्येष्ठा नक्षत्र का शनि श्रेष्ठिवर्ग और पुरोहितवर्गके लिए उत्तम नहीं होता है। अवशेष सभी श्रेणीके व्यक्तियोंके लिए उत्तम होता है। मूल नक्षत्र का शनि काशी, अयोध्या और आगरा में अशान्ति उत्पन्न करता है । यहाँ संघर्ष होते हैं तथा उक्त नगरों में अग्नि का भी भय रहता है। अवशेष सभी प्रदेशोंके लिए उत्तम होता है । पूर्वाषाढ़ा में शनि के रहने से बिहार, बंगाल, उत्तरप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मध्यभारत के लिए भयकारक, अल्प वर्षा सूचक और व्यापार में हानि पहुँचानेवाला होता है। उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में शनि विचरण करता हो तो यवन, शबर, भील आदि पहाड़ी जातियों को हानि करता है। इन जातियों में अनेक प्रकारके रोग फैल जाते हैं तथा आगरा में भी संघर्ष होता है। श्रवण नक्षत्र में विचरण करने Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता । से शनि राज्यपाल, राष्ट्रपति, मुख्यमन्त्री एवं प्रधानमन्त्रीके लिए हानिकारक होता है। देशके अन्य वर्गोंके व्यक्तियोंके लिए कल्याण करनेवाला होता है। धनिष्ठा नक्षत्र में विचरण करनेवाला शनि धनिकों, श्रीमन्तों और ऊंचे दर्जेके व्यापारियोंके लिए हानि पहुंचाता है। इन लोगों को व्यापार में घाटा होता है। शतभिषा और पूर्वाभाद्रपद में शनि के रहने से पुण्यजीवी व्यक्तियों को विघ्न होता है। उक्त नक्षत्रके शन्ति में बड़े-बड़े व्यापारियों को अच्छा लाभ होता है। उत्तराभाद्रापद में शनि के रहने से फसल का नाश, दुर्भिक्ष, जनता को कष्ट, शस्त्रभय, अग्निभय एवं देशके सभी प्रदेशों में अशान्ति होती है। रेवती नक्षत्र में शनि के विचरण करने से फसल का जमाव, अल्गार्वा, रोगों की भरपार जनता में विद्वेष-ईर्ष्या एवं नागरिकों में असहयोगकी भावना उत्पन्न होती है। राजाओं में विरोध उत्पन्न होता है। गुरुके विशाखा नक्षत्र में रहनेपर शनि यदि कृत्तिका नक्षत्र में स्थित हो तो प्रजा को अत्यन्त पीड़ा, दुर्भिक्ष और नागरिकों में अनेक वर्ण का शनि देश को कष्ट देता है, देशके विकास में विघ्न करता है। श्वतेवर्ण का शनि ब्राह्मणों को भय, पीतवर्ण का वैश्यों को, रक्तवर्ण का क्षत्रियों को और कृष्णवर्ण का शनि शूद्रों को भारतके सभी प्रदेशों में शान्ति, धन-धान्यकी वृद्धि एवं देश का सर्वाङ्गीण विकास होता है। इति श्री पंचम श्रुतकेवली दिगम्बराचार्य भद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिता का शनि ग्रह संचारनामा अध्याय का वर्णन करने वाला सोहलवाँ अध्याय का हिन्दी भाषानुवाद करने वाली क्षेमोदय टीका समाप्त। (इति षोडशोऽध्यायः समाप्तः) Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशोऽध्यायः वृहस्पति संचार वर्णन वर्णं गतिं च संस्थानं मार्गमस्तमनोदयौ। वक्रं फलं प्रवक्ष्यामि गौतमस्य निबोधत॥१॥ वृहस्पति के (वणं गतिं च) वर्ण और गति को (संस्थानं मार्गमस्तमनोदयौ) संस्थानको व अस्त और उदय को (वक्र) वक्र को (फलं) उसके फलको (गौतमस्य निबोधत) गौतमस्वामी के द्वारा कहा गया था वैसा ही मैं (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा। भावार्थ-वृहस्पति का रंग, गति संस्थान और अस्त-उदय, वक्रता व उसके फल में जैसा गौतम स्वामी ने कहा था वैसा ही कहूँगा॥१॥ मेचकः कपिलः श्यामः पीतः मण्डल-नीलवान्। रक्तश्च धूम्रवर्णश्च न प्रशस्तोऽङ्गिरास्तदा ॥२॥ (अगिर: बृहस्पतिका (मेनल कपिल: श्यामः) मेचक, कपिल, श्याम (पीत: मण्डल-नीलवान्) पीला और नीला (रक्तश्च) लाल और (धूम्रवर्णश्च) धूम्रवर्ण का होना (न प्रशस्तो) प्रशस्त नहीं है। भावार्थ-गुरु का मेचक, कपिल, पीलामण्डल नीला व लाल धूम्रवर्ण का होना शुभ नहीं है।। २॥ मेचकश्चन्मृतं सर्व वसुपाण्डुर्विनाशयेत्। पीतो व्याधि भयं शिष्टे धूम्राभः सृजते जलम्॥३॥ यदि गुरु (मेचकश्चेन्मृतं सर्व) का मण्डल मेचक वर्ण का हो तो मृत्यु लाता है (वसुपाण्डुर्विनाशयेत्} और सब प्रकार से पाण्डुवर्ण का हो तो विनाश करता है (पीतो व्याधि भयं शिष्टे) पीला हो तो व्याधियाँ उत्पन्न करता है। (धूम्राभ: सृजतेजलम्) धूम्रवर्ण का हो तो जल वर्षा होती है। भावार्थ यदि गुरु का मण्डल मेचक हो तो मृत्यु लाता है, पाण्डुवर्ण का - - - Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता हो तो सबका विनाश करता है। पीला हो तो व्याधियों का भय करता है, और धूम्रवर्ण का हो तो वर्षा लाता है॥३॥ उपसर्पतिमित्रादि पुरतः स्त्री प्रपद्यते। त्रि-चतुर्भिश्च च नक्षत्रैस्त्रिभिरस्तमनं व्रजेत्॥४॥ जब गुरु (त्रि-चतुर्भिश्च च नक्षत्र) तीन या चार नक्षत्रों में व (स्त्रिभिरस्तमनं व्रजेत्) तीन नक्षत्रों में गमन करता है, या अस्त होता है तो (स्त्री मित्रादिपुरतः) स्त्री, मित्र, पुत्रादि की (उपसर्पति प्रपद्यते) प्राप्ति होती है। भावार्थ-यदि गुरु तीन नक्षत्र या चार नक्षत्रों पर व तीन ही नक्षत्रों पर गमन या अस्त होता है, तो समझो स्त्री, पुत्र, मित्रादिक की प्राप्ति होती है।।४॥ कृत्तिकादि भगान्तश्च मार्गः स्यादुत्तरः स्मृतः। अर्यमादिरपाप्यन्तो मध्यमो मार्ग उच्यते ॥५॥ (कृत्तिकादि भगान्तश्च) कृत्तिका नक्षत्रसे लेकर नौ नक्षत्रों तक (मार्ग: स्यादुत्तर: स्मृत:) गुरु का उत्तर मार्ग होता है, (अर्यमादिरपाप्यन्तो) तथा उत्तराफाल्गुनी से नौ नक्षत्रोंका (मध्यमो मार्ग उच्यते) मध्यम मार्ग कहलाता है। भावार्थ-कृत्तिका नक्षत्र लगाकर पूर्वाफाल्गुनी तक नौ नक्षत्रों का गुरु का उत्तरमार्ग है, उसी प्रकार आगे के हस्तादि नौ नक्षत्रों का मार्ग मध्यम है।।५।। विश्वादिसमयान्तश्च दक्षिणो मार्ग उच्यते। एते बृहस्पतेर्मार्गा नव नक्षत्रजास्त्रयः॥६॥ (विश्वादिसमयान्तश्च) उत्तराषाढ़ा से भरणी तक (दक्षिणो मार्ग उच्यते) गुरुका दक्षिण मार्ग होता है (एतेबृहस्पतेर्मार्गा) इतने गुरुके मार्ग (नव नक्षत्रजास्त्रयः) नौ नक्षत्र वाले होते हैं। भावार्थ-उसी प्रकार गुरुका उत्तराषाढ़ा से भरणी तक नौ नक्षत्र दक्षिण मार्ग है, इस प्रकार गुरु के नौ-नौ मार्ग जानना चाहिये॥६॥ मूलमुत्तरतो याति स्वाति दक्षिणतो व्रजेत् । नक्षत्राणि तु शेषाणि समन्ताद्दक्षिणोत्तरे॥७॥ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I ५१५ सप्तदशोऽध्यायः ( उत्तरतो मूलम् याति) उत्तर से मूल को और (दक्षिणतो स्वातिं व्रजेत्) दक्षिण से स्वाति नक्षत्र को प्राप्त करता है, (शेषाणि तु समन्ताद्दक्षिणोत्तरे ) बाकी के दक्षिण और उत्तर (नक्षत्राणि) के नक्षत्र होते हैं। भावार्थ — गुरु उत्तर से मूल और दक्षिण से स्वाति नक्षत्र को प्राप्त करता है, बाकी सब नक्षत्र दक्षिणोत्तर से प्राप्त करते हैं ॥ ७ ॥ मूषके तु यदा ह्रस्वो मूलं दक्षिणतो दक्षिणस्तद विवादनयोर्दक्षिणे व्रजेत् । पथि ॥ ८ ॥ ( यदा) जब ( मूषके तु) केतु (ह्रस्वो ) लघु होकर (मूलं दक्षिणतो व्रजेत् ) दक्षिण से मूल नक्षत्र की ओर जाता है तो ( अनयोर्दक्षिणे पथि) तो गुरु और केतु दोनों ही (दक्षिणतस्तदा विन्द्याद्) दक्षिणमार्गी कहलाते हैं। भावार्थ — जब केतु लघु होकर दक्षिण से मूल नक्षत्र की तरफ जाता है तो गुरु और केतु दोनों ही दक्षिणमार्गी कहे जाते हैं ॥ ८ ॥ अनावृष्टिहता देशा बुभुक्षा ज्वर नाशिता: । चक्रारूढा प्रजास्तत्र बध्यन्ते जाततस्कराः ॥ ९ ॥ इन दोनों के दक्षिण मार्ग में रहने से (अनावृष्टिहता देशा) वर्षा के नहीं होने से देश नष्ट हो जाता है (बुभुक्षा ज्वर नाशिताः) ज्वर के रोग से व्यक्तियों की मृत्यु होती है ( तत्र चक्रारूढा प्रजा: ) वहाँ की प्रजा चक्रारूढ के समान हो जाती है (बध्यन्ते जाततस्करा :) चोरों के द्वारा सब दुःखी होते हैं। भावार्थ — इन दोनों के दक्षिणमार्ग में रहने से वर्षा के नहीं होने पर देश का नाश होता है ज्वर के रोग से सबकी मृत्यु हो जाती है, वहाँ की प्रजा चक्रारूढ के समान घूमती है और चोरों के द्वारा कष्ट प्राती हैं ॥ ९ ॥ यदा चोत्तरतः स्वातिं दीप्तो याति बृहस्पतिः । उत्तरेण तदा विन्द्याद् दारुणं भयमादिशेत् ॥ १० ॥ ( यदा) जब ( चात्तरतः स्वातिं) उत्तर दिशा का स्वाति नक्षत्र पर (बृहस्पति' दीप्तो याति) गुरु दीप्त होता है, तो (तदा) तब ( उत्तरेण ) उत्तर की दिशा में ही (दारुणं भयामादिशेत् विन्द्याद्) दारुण भय होगा ऐसा जानना चाहिये । Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ-जब गुरु प्रकाशमान होकर उत्तर की ओर स्वाति नक्षत्र को प्राप्त करता है तो समझो उत्तर दिशा में ही महान् भय उपस्थित होगा ।। १०॥ लुप्यन्ते च क्रियाः सर्वा नक्षत्रे गुरुपीड़िते। दस्यवः प्रबला ज्ञेया बीजानि न प्ररोहति ॥११॥ (नक्षत्रेगुरुपीडिते) गुरु के द्वारा नक्षत्र के पीडित होने पर (सर्वाक्रिया: च लुप्यन्ते) सभी क्रियाओं का लोप हो जाता है (दस्यवः प्रबलाज्ञेया) चोरों की शक्ति बढ़ती है (बीजानि न प्ररोहति) इसलिये बीजों का वपन नहीं करना चाहिये। भावार्थ-गुरु के द्वारा नक्षत्र के पीडित होने पर सभी क्रियाओं का लोप हो जाता है, चोरों की शक्ति बढ़ जाती है, बीजों का वपन नहीं करना चाहिये।। ११॥ दक्षिणेन तु वक्रेण पञ्चमे पञ्च मुच्यते। उत्तरे पञ्च के पञ्च मार्गे चरति गौतमः ।।१२॥ (गौतम:) गुरु के (दक्षिणेन) दक्षिण के (पञ्चमे पञ्च वक्रेण मुच्यते) पञ्चम मार्गों में पञ्चम मार्ग वक्र गति द्वारा पूर्ण किया जाता है, और (उत्तरे) उत्तर के (पञ्चके पञ्चमार्गे चरति) पाँच मार्गों में पञ्चम मार्ग मार्गी गति द्वारा पूर्ण किया जाता है। भावार्थ-गुरु के दक्षिणी होने पर पञ्चम मार्गों में पञ्चम मार्ग वक्रगति द्वारा पूर्ण किया जाता है और उत्तर के पाँच मार्गों में पञ्चम मार्ग मार्गी गति द्वारा पूर्ण किया जाता है।। १२॥ ह्रस्वे भवति दुर्भिक्षं निष्प्रभे व्याधिजं भयम्। विवर्णे पापसंस्थाने मन्दपुष्प-फलं भवेत्।। १३॥ गुरु के (हस्वे भवति दर्भिक्ष) हस्व होने पर दर्भिक्ष होता है (निष्प्रभे व्याधिजं भयम्) निष्प्रभ होने पर व्याधि का भय होता है (विवर्णे पाप संस्थाने) विवर्ण होने पर व पाप के स्थान पर होने से (मंदपुष्प फलं भवेत्) पुष्प और फल थोड़े होते भावार्थ-गुरु के ह्रस्व होने पर दुर्भिक्ष पड़ता है, निष्प्रभ होने पर व्याधि Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१७ सप्तदशोऽध्यायः उत्पन्न होती है, विवर्ण होने पर व पाप के स्थान पर होने से पुष्प और फल थोड़े ही आते हैं॥१३॥ प्रतिलोमाऽनुलोमो वा पञ्च संवत्सरो यदा। नक्षत्राण्युपसर्पेण तदा सृजति दुस्समाम् ॥१४ ।। (यदा) जब (बृहस्पति) अपने (पञ्चसंवत्सरो) पाँच संवत्सरों में (नक्षत्राण्युप सर्पण) नक्षत्रों का (प्रतिलोमानुऽलोमो वा) प्रतिलोम और अनुलोम रूप गमन करता है (तदा) तब (सृजति दुस्समाम्) दुष्काल की उत्पत्ति होती है प्रजा को कष्ट होता भावार्थ-जब गुरु अपने पाँच संवत्सरों में नक्षत्रों का प्रतिलोम और अनुलोम रूप गमन करता है, तब दुष्काल की उत्पत्ति होती हैं, प्रजा महान् कष्ट में पड़ जाती है॥१४ ।। सस्य नाशो अनावृष्टिर्मृत्युस्तीवाश्च व्याधयः। __ शस्त्र कोपोऽग्निमूर्छा च षड्विधं मूर्छने भयम्॥१५॥ ___ गुरु के उक्त प्रकार होने पर (सस्यनाशो अनावृष्टि) धान्यों का नाश,अनावृष्टि होती है (मृत्युस्तीवाश्च व्याधय:) व्याधि से लोगों की मृत्यु होती है (शस्त्र कोपोऽग्निमूर्छा च) और शस्त्र भय, अग्निभय, मूर्छा का रोग (षड्विधं मूर्छने भयम्) छह प्रकार के मूर्छा रोग होते हैं। भावार्थ-जब गुरु उपर्युक्त स्थिति में आता है तो धान्यों का नाश होगा, वर्षा नहीं होती, नाना प्रकार की व्याधियों से लोगों का मरण होगा, शस्त्रकोप, अग्निकोप और छह प्रकार के मूर्छा रोग उत्पन्न होंगे॥१५ ।। सप्ताधं यदि वाऽष्टार्ध षड) निष्प्रभोदितः। पञ्चाध चाथवाऽधं च यदा संवत्सरं चरेत्॥१६॥ सङ्गामा रौरवास्तत्र निर्जलाश्च बलाहकाः। श्वेतास्थी पृथवी सर्वा भ्रान्त्याक्षुस्नेह वारिभिः ॥१७॥ (यदा संवत्सरं) जब गुरु संवत्सर में (चरेत्) विचरण कर रहा हो (सप्ताध) Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाह संहिता साढ़े तीन नक्षत्र (चाथवाऽष्टाध) अथवा चार नक्षत्र (षडध) तीन नक्षत्र (पञ्चाध) ढाई नक्षत्र (चाथवाऽध) व आधा नक्षत्र पर (निष्प्रभोदितः) निष्प्रभ उदित हो तो (सङ्ग्रामारौरवास्तत्र) वहाँ पर भयंकर युद्ध होता है (निर्जलाश्चबलाहकाः) खाली बादल होते हैं उसमें पानी नहीं होता (देख इन्थी पृषतीसवी सदी मनी स्थियों से भर जाती है (भ्रान्त्याक्षुस्नेह वारिभिः) कुवायु चलती है। भावार्थ-जब गुरु संवत्सर में विचरण कर रहा हो,साढ़े तीन नक्षत्र, चार नक्षत्र, तीन नक्षत्र, ढाई नक्षत्र व आधा नक्षत्र पर अगर प्रभा रहित उदित होता हो तो वहाँ पर भयंकर युद्ध होता है, पानी रहित बादलों का आवागमन रहता है, सारी पृथ्वी अस्थियों (हड्डीयों) से भर जाती है क्षुधारोग होता है, कुवायु चलती है याने भयंकर तूफान चलते रहते हैं।। १६-१७॥ पुष्यो यदि द्विनक्षत्रे सप्रभश्चरते समः। षड् भयानि तदा हत्वा विपरीतं सुखं सृजेत् ।। १८॥ नृपाश्च विषमच्छायाश्चतुर्ष वर्तते हितम्। सुखं प्रजाः प्रमोदन्ते स्वर्गवत् साधु वत्सलाः॥१९॥ (पुष्यो यदि द्विनक्षत्रे) जब वृहस्पति पुष्यादि दो नक्षत्रों में (सप्रभश्चरते सम:) समरूप से गमन करता है तो (तदा) तब (षड् भयानि) छह प्रकार के भयों को (हत्वा) नाशकर (विपरीतं सुखं सृजेत्) विपरीत सुखी सृजना करता है। (नृपाश्चविषमच्छाया:) राजा भी आपसमें प्रेमभाव रखते है (चतुषु वर्तते हितम्) चारों वर्गों को लोग चारों पुरुषार्थों की सिद्धि करते हैं (सुखं प्रजा: प्रमोदन्ते) प्रजा सुखकर आनन्द लेती है (स्वर्गवत्साधु वत्सला:) स्वर्ग के समान लोग साधु वत्सल हो जाते हैं। भावार्थ-जब गुरु पुष्यादि दो नक्षत्रों पर गमन करता है, तो समझो छह प्रकार के भयों का नाश कर लोग सुख का सृजन करते हैं राजा भी आनन्दपूर्वक रहते हैं चारों वर्गों के लोग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों पुरुषार्थों की सिद्धि में लगे रहते हैं, प्रजा सुख से आनन्दित होती है। सभी लोग साधु के प्रेमी हो जाते हैं॥१८-१९॥ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशोऽध्यायः विशाखा कृत्तिका चैव मघा रेवतिरेव च। अश्विनी श्रवणश्चैव तथा भाद्रपदा भवेत्॥२०॥ (विशाखा कृत्तिका चैव) विशाखा, कृत्तिका और (मघारेवातिरेव च) मघा, रेवती और (अश्विनी श्रवणश्चैव) अश्विनी, श्रवण (त्या भाद्रपदा भवत) तथा भाद्रपद गमन करता है तो। भावार्थ-विशाखा, कृत्तिका और मघा, रेवती, अश्विनी, श्रवण उत्तरा, भाद्रपद नक्षत्रोंमें गमन करता है तो, ॥२०॥ बहूदकानि जानीयात् तिष्ययोगसमप्रभे। फल्गुन्येव च चित्रा च वैश्वदेवश्च मध्यमः॥२१॥ समझो (तिष्ययोगसमप्रभे) गुरु, पुष्य योग के समान ही (बहूदका निजानीयात्) बहुत भारी वर्षा होगी ऐसा जानना चाहिये, और (फल्गुन्येव च चित्रा च) पूर्वा फाल्गुनी और चित्रा और (वैश्वदेवश्च मध्यमः) उत्तराषाढ़ा इन नक्षत्रों में गुरु गमन करे तो मध्यम फल होगा, ऐसा जानना चाहिये। भावार्थ-गुरु पुष्य के समान ही बहुत भारी वर्षा करता है, ऐसा जानना • चाहिये और पूर्वाफाल्गुनी चित्रा और उत्तराषाढ़ा इन नक्षत्रोंमें गुरु गमन करे तो मध्यम फल होगा ऐसा जानो।। २१॥ ज्येष्ठा मूलं च सौम्यं च जघन्या सोमसम्पदा। कृत्तिका रोहिणी मूर्तिराश्लेषा हृदयं गुरुः ।। २२॥ आप्यं ब्राह्यं च वैश्वं च नाभिः पुष्य मघा स्मृताः। एतेषु च विरुद्धेषु ध्रुवस्य फलमादिशेत् ।। २३॥ (ज्येष्ठा मूलं च सौम्यं च ज्येष्ठा और मूल और पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में गुरु गमन करे तो (सोम सम्पदा जघन्या) सुख सम्पत्ति जघन्य होती है (कृत्तिका रोहिणी मूर्तिः) कृत्तिका रोहिणी मूर्ति (आश्लेषा हृदयं गुरु:) और आश्लेषा गुरु का हृदय है (आप्यं ब्राह्मं च वैश्व च) पूर्वाषाढ़ा अभिजित उत्तराषाढ़ा और पुष्य मघा) पुष्य, मघा नक्षत्र गुरु की (नाभिः स्मृताः) नाभि है ऐसा जानो, (एतेषु च विरुद्धेषु ध्रुवस्य फलमादिशेत्) इस सबमें विपरीत फल का निरूपण करना चाहिये। Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ५२० भावार्थ-ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा , नक्षत्रोंमें गुरु गमन करे तो सुख सम्पत्ति जघन्य प्राप्त होती है, कृत्तिकारोहिणी मूर्ति और आश्लेषा यह तीनों गुरु का हृदय है पूर्वाषाढ़ा अभिजित उत्तराषाढ़ा पुष्य और मघा गुरु की नाभि है इन नक्षत्रों में इनसे विपरीत फल का निरूपण करे॥२२-२३॥ द्विनक्षत्रस्य चारस्य यत् पूर्व परिकीर्तितम्। एवमेवं तु जानीयात् षड् भयानि समादिशेत्॥२४॥ (यत्) जो (द्विनक्षत्रस्य चारस्य) दो-दो नक्षत्रों का चार (पूर्व परिकीर्तितम्) पूर्व में कहा गया है (एव मेवं तु जानीयाद) उन्हीं के अनुसार इभनि समादिशेत) छह प्रकार के भयों को कहना चाहिये। भावार्थ-जो दो-दो नक्षत्रों का संचार पूर्व में कहा गया है, उन्हीं के अनुसार छह प्रकार के भयों का निरूपण करना चाहिये ।। २४ ।। इमानि यानि बीजानि विशेषेण विचक्षणः। व्याधयो मूर्तिघातेन हृद्रोगो हृदये महत्।। २५॥ (विचक्षणः विशेषेण) बुद्धिमानों को विशेष रीति से (इमानि यानि बीजानि मूर्ति घातेन) गुरु के द्वारा कृत्तिका और रोहिणी का घात हो तो (व्याधयो) व्याधियाँ उत्पन्न होगी ऐसा जानो (हृद्रोगो हृदये महत्) और हृदय नक्षत्र का घात हो तो हृदय रोग होगा ऐसा जानना चाहिये। भावार्थ- यदि गुरु के द्वारा कृत्तिका और रोहिणी नक्षत्र का घात करता है, तो बुद्धिमानो को ऐसा जानना चाहिये कि नाना प्रकार की व्याधियाँ उत्पन्न होगी हृदय नक्षत्र के घात होने पर हृदय रोग उत्पन्न होंगे।। २५॥ पुष्ये हते हतं पुष्पं फलानि कुसुमानि च। आग्नेया मूषकाः सर्पा दाघश्च शलभाः शुकाः॥२६॥ ईतयश्च महाधान्ये जाते च बहुधा स्मृताः। स्वचक्रमीतयश्चैव पर चक्रं निरम्बु च॥२७॥ (पुष्ये हते) पुष्य नक्षत्र का घात होने पर (पुष्पं) पुष्प (फलानि) फल, (कुसुमानि Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ गोऽध्यायः च) कुसुमो का ( हतं) विनाश करता है (आग्नेया) अग्नि ( मूषकाः ) चूहे ( सर्पा ) सर्प (दाघश्च) जलन ( शलभाः) शलभ (शुकाः) शुक का उपद्रव होता है (ईतयश्च ) इति ( महाधान्ये ) धान्यघात ( जाते च बहुधा स्मृता) आदि बहुत प्रकार का उपद्रव उत्पन्न होता है ( स्वचक्र मीतयश्चैव ) स्व चक्र में मित्रता और ( परचक्रं निरम्बु च ) पर शासन में जलाभाव होगा । भावार्थ – पुष्य नक्षत्र का घात होने पर पुष्प, फल, कुसुम आदि का विनाश होता है। अग्नि, चूहे, सर्प, जलन, शलभ, शुक उपद्रव होता है। अर्थात् महामारी, धान्यघात अपने राज्यमें मित्रता होती है, परराज्य में जल का अभाव होता है । २६-२७ ॥ अत्यम्बु च विशाखायां सोमे सम्वत्सरे शेषं संवत्सरे ज्ञेयं शारदं तत्र विदुः । नेतरम् ॥ २८ ॥ अगहया (सोमे) सौम्य नामक (सम्वत्सरे) संवत्सर में जब (विशाखायां ) विशाखा नक्षत्र पर बृहस्पति गमन करता है तो ( अत्यम्बु च ) बहुत जल वृष्टि होती है ( शेषं संवत्सरे ज्ञेयं) शेष संवत्सरों में केवल पौष तक जल वृष्टि होती है ( शेषं संवत्सरे ज्ञेयं) शेष संवत्सरों में केवल पौष ( शारदं तत्र नेतरम् ) संवत्सर में ही अल्प जल की वर्षा समझनी चाहिये । भावार्थ — सौम्य नामक संवत्सर में जब विशाखा नक्षत्र पर गुरु गमन करता है तो बहुत जल की वर्षा होती है, शेष संवत्सरों में केवल पौष संवत्सरमें ही थोड़े जलकी वर्षा होती है ऐसा समझना चाहिये ॥ २८ ॥ माघमल्पोदकं विन्द्यात् फाल्गुने दुर्भगाः स्त्रियः । चैत्रं चित्रं विजानीयात् सस्यं तोयं सरीसृपाः ॥ २९ ॥ ( माघमल्पोदकं विन्द्यात्) माघ नाम के वर्ष में थोड़ी वर्षा होती है (फाल्गुने दुर्भगा: स्त्रियः) फाल्गुन मासमें स्त्रियों के दुर्भाग्य की वृद्धि होती है (चैत्रं चित्रं ) चैत्र नामके वर्ष में ( सस्यं तोयं सरीसृपाः ) धान्य, पानी और सरीसृप की वृद्धि (विजानीयात् ) जानना चाहिये । भावार्थ —–माघ नामक वर्ष में थोड़ी वर्षा होती है, फाल्गुन नामक वर्ष में स्त्रियों के दुर्भाग्य की वृद्धि होती है चैत्र में धान्य, पानी और सरीसृप की वृद्धि होती है ।। २९ ।। Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ५२२ विशाखा नृपभेदश्च पूर्वतोयं विनिर्दिशेत् । ज्येष्ठा मूले जलं पश्चाद् मित्रभेदश्च जायते॥३०॥ (विशाखा नप भेदश्च) वैशाख नामक वर्ष में राजाओं के अन्दर परस्पर मतभेद होता है (पूर्वतोपं विनिर्दिशेत्) जल की वर्षा अच्छी होती है, (ज्येष्ठा मूले जल) ज्येष्ठा नाम वर्ष में जो मूल नक्षत्र के मासिक होने पर आता है, उसमें वर्षा अच्छी होती है (पश्चाद् मित्रभेदश्च जायते) पश्चात् मित्रभेद ही जाता हैं। भावार्थ-विशाखा नक्षत्र में परस्पर राजाओं में मतभेद होता है, थोडी वर्षा होती है,ज्येष्ठा मूल में पानी की वर्षा होती है पीछे से मित्रभेद भी हो जाता है।। ३०॥ आषाढे तोयसंकीर्ण सरीसृप समाकुलम्। श्रावणे दांष्ट्रिणश्चौरा व्यालाश्च प्रबला स्मृताः॥ ३१॥ (आषाढे तोयसंकीर्ण) आषाढ़ नामक वर्ष में जलकी कमी होती है (सरीसृपसमाकुलम्) सरीस्पों की वृद्धि होती है (श्रावणे) श्रावण नामक वर्ष में (दंष्ट्रिणश्चौरा) चोर और दांत वाले जन्तु बहुत होते हैं। भावार्थ-आषाढ़ नामक वर्ष में जलकी कमी होती है, सरीसृपों की वृद्धि होती है चोर ज्यादा होते हैं और दांत वाले पशु-पक्षी बहुत हो जाते हैं।। ३१॥ संवत्सरे भाद्रपदे शस्त्र कोपाऽग्नि मूर्छनम्। सरीसृपाश्चाश्वयुजि बहुधा वा भयं विदुः॥३२॥ (भाद्रपदे संवत्सरे) भाद्रपद नामके संवत्सर में (शस्त्रकोपाग्नि) शस्त्रकोप, अग्नि प्रकोप (सरीसृपाश्चाश्वयुजि) और अश्विनी नामक संवत्सर में सरीसृपों की (बहुधा) बहुत उत्पत्ति होती है (वा भयं विदुः) व भय होता है। भावार्थ-भाद्रपद नाम संवत्सर में शस्त्रकोप अग्नि का प्रकोप होता है, और अश्विनी संवत्सर में बहुत ही सरीसृप उत्पन्न होते हैं, व कोई भय उपस्थित होता है॥३२॥ एते संवत्सराचौक्ताः पुष्यस्य परतोऽपि वा। रोहिण्यामा॑स्तथाश्लेषा हस्त: स्वाति: पुनर्वसुः ॥३३॥ (एते संवत्सराश्चौक्ताः) इतने संवत्सर कहे गये हैं वो (पुष्यस्य परतोऽपि वा) Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशोऽध्यायः + गुरु, पुष्य के कहे गये हैं और भी (रोहिण्यास्तथाश्लेषा) रोहिणी, आर्द्रा, आश्लेषा (हस्त: स्वाति: पुनर्वसु) हस्त, स्वाति, पुनर्वसु में गुरु के रहने पर प्रजा दुःखी होती भावार्थ—इतने संवत्सर जो कहे गये हैं वो गुरु पुष्य के हैं, आगे रोहिणी आर्द्रा, आश्लेषा, हस्त, स्वाति और पुनर्वसु इनमें गुरु के होने पर प्रजा दुःखी होती अभिजिच्चानुराधा च मूलोवासव वारुणाः। रेवती भरणी चैव विज्ञेयानि बृहस्पतेः ।। ३४॥ (अभिजिच्चानुराधा च) अभिजित्, अनुराधा और (मूलो वासव वारुण:) मूल, धनिष्ठा, शतभिषा (रेवती भरणी चैव) रेवती और भरणी ये सब नक्षत्र (बृहस्पते: विज्ञेयानि) गुरु के हैं और शुभ फल देने वाले हैं। भावार्थ-अभिजित, अनुराधा, मूल, धनिष्ठा, शतभिषा, रेवती, भरणी ये सब नक्षत्र गुरु के है और शुभ फल देते हैं।। ३४ ।। कृत्तिकायां गतो नित्यमारोहण प्रमर्दने। रोहिपयास्त्वभिघातेन प्रजाः सर्वाः सुदुःखिताः॥ ३५।। (कृत्तिकायांगतो नित्यं) नित्य कृत्तिका नक्षत्र में जाकर (आरोहण प्रमर्दने) आरोहण करे व मर्दन करें और (रोहिण्यास्त्वभिघातेन) रोहिणी नक्षत्र में घात करे तो (प्रजा: सर्वा: सुदुःखिता) सारी प्रजा अच्छी तरह से दुःखित होती है। भावार्थ-कृत्तिका नक्षत्रमें नित्य ही जाकर आरोहण प्रमर्दन करे व रोहिणी नक्षत्रमें घात करे तो सारी प्रजा दुःखी होती है।। ३५ ।।। शस्त्रघातस्तथाऽऽीयामाश्लेषायां विषाद् भयम्। मन्द हस्त पुनर्वसोस्तोयं चौराश्च दारुणाः॥३६॥ (शस्त्रयातस्तथाऽऽH) आर्द्रा के घातित होने पर शस्त्र घात होगा, (यामाश्लेषायां विषाद्भयम्) आश्लेषामें होने पर विषाद् भय होने पर मन्द (स्तोयं) वर्षा होती है (चौराञ्च दारुणा:) चोर भय बहुत होता है। Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ५२४ भावार्थ-आका गुरु यासित हो तो शस्त्रघात होगा, आश्लेषा का होने पर विषाद भय होगा और हस्त, पुनर्वसु का हो तो थोड़ी वर्षा होती है और बहुत ही चोरों का भय होता है॥३६॥ वायव्ये वायवो दृष्टा रोग्दं वाजिनां भयम्। अनुराधानुधाते च स्त्रीसिद्धिश्च प्रहीयते॥ ३७॥ (वायव्ये वायवो दृष्टा) स्वाति नक्षत्र में स्थित गुरु घातित दिखे तो वायव्य दिशा में (रोगदं वाजिनां भयम्) रोग का भय, घोड़ों का भय होगा, (अनुराधानुघाते च) और उसी प्रकार अनुराधा के घातित होने पर (स्त्रीसिद्धिश्च प्रहीयते) स्त्रीसिद्धि में कमी आती हैं। भावार्थ-स्वाति नक्षत्र में स्थित गुरु के घातित होने पर वायव्य दिशामें घोड़ों को रोग होगा, भय होगा, अनुराधा में होने पर स्त्रीसिद्धि में कमी आयगी ।। ३७।। तथा मूलाभिघातेन दुष्यन्ते मण्डलानि च। वायव्यस्याभिघातेन पीड्यन्ते धनिनो नराः॥ ३८॥ (तथा) उसी प्रकार (मूलाभिघातेन) मूलनक्षत्र के घातित होने पर (मण्डलानि च दुष्यन्ते) प्रदेशों को कष्ट होता है (वायवस्याभिघातेन) विशाखा नक्षत्र में घातित होने पर (धनिनो नरा: पीड्यन्ते) धनिका मनुष्य पीड़ित होते हैं। भावार्थ-उसी प्रकार मूलके घातित होने पर प्रदेशों को कष्ट होता है, और विशाखा के होने पर धनवान लोग पीडित होते हैं।। ३८ ।। वारुणे जलजं तोयं फलं पुष्पं च शुष्यति। अकारान्नाविकांस्तोयं पीड़येद्रेवती हता ।। ३९ ।। (वारुणे जलजं तोयं) शतभिषा के घातित होने पर कमल, जल, (फलं पुष्पं च शुष्यति) फल और पुष्प सूख जाते है (अकारनाविकांस्तोयं) उत्तराभाद्रपद के घातित होनेपर नाविक और जलजन्तुओं का घात होता है व (रेवती पीडये हता) रेवती के घातित होने पर पीडा होती है। भावार्थ- शतभिषा के घातित होने पर कमल, जल, फल, पुष्प, सूख Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.२५ सप्तदशोऽध्यायः जाते हैं उत्तराभाद्रपद को घातित होने पर व रेवती के घातित होने पर नाविक व जल जन्तुओं को पीडा होती है ।। ३९ ।। वामं करोति नक्षत्रं यस्य दीप्तो वृहस्पतिः । लब्ध्वाऽपि सोऽर्थं विपुलं न भुञ्जीत कदाचन ॥ ४० ॥ हिनस्ति बीजं तोयञ्च मृत्युदा भरणी यथा । अपि हस्तगतं द्रव्यं सर्वथैव विनश्यति ।। ४१ ।। ( दीप्तो ) दीप्त (वृहस्पतिः) गुरु (यस्य) जिस पुरुष के ( वामं ) वाम और (नक्षत्र) नक्षत्र को घातित (करोति) करता है (सोविपुलंऽर्थं लब्ध्वाऽपि ) वो बहुत धनको प्राप्त करके भी ( न भुञ्जीत कदाचन् ) उसका उपभोग कभी भी नहीं कर सकता हैं, (यथा) उसी प्रकार ( भरणी) भरणी के घातित होने पर ( हिनस्ति बीजं तोयञ्च ) बीज और पानी का घात करता है ( मृत्युदा ) लोगों को मरण होता है ( सर्वथैवअपि हस्तगतंद्रव्यं) सब प्रकार का धन हाथ में होने पर भी ( विनश्यति) नाश हो जाता है। भावार्थ --- जिस व्यक्ति के दीप्त बृहस्पति वाँई और नक्षत्र को घातित करे तो बहुत धन को प्राप्त करने पर भी उसका उपभोग नहीं कर सकता, उसी प्रकार भरणी का घात करने पर बीज और पानी का घात करता है लोगों का मरण करता है, सब प्रकार का धन हाथ में होने पर भी वह धन नाश हो जाता है ।। ४०-४१ ।। प्रदक्षिणं तु नक्षत्र यस्य कुर्यात् यायिनां विजयं विन्द्यात् नागराणां वृहस्पतिः । पराजयम् ॥ ४२ ॥ (यस्य) जिस व्यक्ति के ( प्रदक्षिणं) प्रदक्षिणा रूप (नक्षत्र) नक्षत्र को घाति । (कुर्यात्) करे (तु) तो (यायिनां विजयं विन्द्यात्) आने वाले की विजय कराता है, और (नागराणां पराजयम्) नगरस्थ की पराजय कराता है। भावार्थ - जिस व्यक्ति के प्रदक्षिणां रूप नक्षत्र को गुरु घाटित करे तो आने वाले की विजय और नगरस्थ की पराजय होती है ॥ ४२ ॥ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ५२६ प्रदक्षिणं तु कुर्वीत सोमं यदि बृहस्पतिः। नागराणां जयं विन्धाद् यानिनां च पराजयम्॥४३॥ यदि (बृहस्पति) गुरु (सोम) चन्द्रमा की (प्रदक्षिणं) प्रदक्षिणा (कुति) करे (तु) तो (नागराणां) नगरस्थ की (जयं) जय (विन्द्याद) जानो (यायिनां च पराजयम्) आने वाले की पराजय समझो। ___ भावार्थ-यदि गरू चन्द्रमा की प्रदक्षिणा करे तो समझो नगरस्थ राजा की जय होगी, और आने वाले राजा की पराजय होगी॥४३॥ उपघातेन चक्रेण मध्यगन्ता वृहस्पतिः। निहन्याद् यदि नक्षत्रंयस्य तस्य पराजयम्॥४४॥ (उपघातेन चक्रेण) उपघात चक्र के (मध्यगन्ता) मध्यमें स्थित होकर (वृहस्पतिः) गुरु (यदि) यदि (नक्षत्रं) नक्षत्रको (निहन्याद्) घात करे तो (यस्य तस्य पराजयम्) उसकी पराजय होगी। भावार्थ—उपघात चक्र के मध्यमें स्थित होकर गुरु यदि जिसके नक्षत्र का घात करे तो उसकी पराजय होगी॥४४॥ बृहस्पतेर्यदा चन्द्रोरूपं सच्छादयेत् भृशम्। स्थावराणां वथं कुर्यात् पुररोथं च दारुणम्॥४५॥ (बृहस्पतेर्यदा रूपं चन्द्रो) जब गुरु को रूपका चन्द्रमा (सञ्छादयेत् भृशम् आच्छादन करे तो (स्थावराणां वधं कुर्यात्) स्थावरों का वध होता है (पुररोधं च दारुणम्) और नगर का भयंकर अवरोध होता हैं। भावार्थ-जब गुरु के रूप का चन्द्रमा अच्छादन करे तो स्थावरों का वध होता है और नगर का भयंकर अवरोध होता है याने परशत्रु नगर को घेर लेता है।। ४५॥ स्निग्धप्रसन्नो विमलोऽभिरूपो, महाप्रमाणो द्युतिमान् सपीतः। गुरुयंदाचोत्तरमार्गचारी तदा प्रशस्त: प्रतिबद्धहन्ता॥४६॥ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.२७ सप्तदशोऽध्यायः ( यदि ) जब ( गुरु : ) गुरु (स्निग्ध) स्निग्ध (प्रसन्नो ) प्रसन्न (विमलो ) विमल (अभिरूपो ) सुन्दर ( महाप्रमाणो ) महाप्रयाण रूप ( द्युतिमान् सपीतः) प्रकाशमान पीला (चोत्तर मार्गचारी ) और उत्तर मार्ग में गमन करने वाला हो तो ( तदा) तब ( प्रशस्ता: ) शुभ है ( प्रतिबद्ध हन्ता ) प्रति पक्षियों का विनाश करता है। भावार्थ - जब गुरु स्निग्ध हो, प्रसन्न हो, विमल हो, सुन्दर हो, महाप्रमाण रूप हो, प्रकाशमान हो, पीला हो, उत्तरमार्ग में गमन करने वाला हो तब शुभ होता है और प्रतिपक्षियों का विनाश करने वाला होता है ॥ ४६ ॥ विशेष- - अब यहाँ पर गुरु के अस्त, उदयका फल वर्णन करते हैं, गुरु भी अपने- अपने किसी नक्षत्र पर ही उदय या अस्त होता है उसका फल भी विभिन्न प्रकार से होता है, इसका उदय अस्त भी देश, नगर, राष्ट्र, प्रजा, वृषा, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, सुख, दुःख, हानि, लाभ आदि कराता है। यह ध्यान रखना परम आवश्यक है कि गुरु का उदय किस नक्षत्र पर हुआ या किस नक्षत्र पर कसा हुआ उसका क्या होगा । गुरु के अस्त या उदय होने के समय में विभिन्न' वर्ण होते हैं जैसे मेचक वर्ण, कपिल वर्ण, श्यामवर्ण, पीतवर्ण, नीलवर्ण, रक्तवर्ण, धूम्रवर्ण आदि होते हैं। गुरु उत्तरमार्ग व मध्यमार्ग के अनुसार संचार करता है, उत्तरमार्ग के नौ नक्षत्र, मध्यममार्ग के नौ नक्षत्र होते हैं। दक्षिणमार्ग के नौ नक्षत्र होते है । इस प्रकार गुरु के नौ नक्षत्रों के तीन मार्ग बतलाये हैं । महीने के अनुसार गुरु परिवर्तन का फल, बारह राशि स्थित गुरु फल गुरु के वक्री होने का विचार गुरु नक्षत्र भोग विचार आदि का वर्णन इस अध्याय में किया गया है। श्रावण महीने में गुरु परिवर्तन होता दिखे तो अच्छी वर्षा होती है, सुभिक्ष होता है, देश का आर्थिक विकास, फल और फलों की वृद्धि, नागरिकों में उत्तेजना, क्षेम और निरोगता होती है। राशि में गुरु के होने से खूब वर्षा होती है, सुभिक्ष होता है, वस्त्र, गुड़, ताँबा, कपास, मूंगा आदि पदार्थ सस्ते होते हैं घोड़ो को पीड़ा, महामारी ब्राह्मणों को कष्ट तीन महीने तक जनता की भी कष्ट होता है । Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ५२८ वृषराशि का गुरु पाँच महीने तक वक्री हो तो, गाय, बैल चौपाए, बर्तन आदि तेज होते हैं, धान्यों का संग्रह करना चाहिये। गुरु तीव्र गति हो और शनि वक्री हो तो विश्वमें हा हाकार मचता है। मेषराशि में गुरु का उदय हो तो दुर्भिण मरणादि होते हैं। इसी राशि में गुरु अस्त हो तो, थोड़ी वर्षा बिहार, बंगाल, आसाम में सुभिक्ष, राजस्थान में पंजाब में दुष्काल होता है। इत्यादि उदय अस्त वक्री का फल समझलेना चाहिये। आगे आरा वाले एडित जी का अभिप्राय भी जानकारी के लिये लिखता हूँ। विवेचन-पास के अनुसार गुरु के राशि परिवर्तन का फल-यदि कार्तिक मासमें गुरु राशि परिवर्तन करे तो गायोंको कष्ट, शस्त्र-अस्त्रोंका अधिक निर्माण, अग्निभय, साधारण वर्षा, समर्पता, मालिकोंको कष्ट, द्रविड़ देशवासियोंको शान्ति, सौराष्ट्र के निवासियोंको साधारण कष्ट, उत्तर प्रदेश वासियोंको सुख एवं धान्य की उत्पत्ति अच्छी होती है। अगहनमें गुरुके राशिपरिवर्तन होनेसे अल्प वर्षा, कृषिकी हानि, परस्परमें युद्ध, आन्तरिक संघर्ष, देशके विकास में अनेक रुकावटें एवं नाना प्रकार के संकट आते हैं। बिहार, बंगाल, आसाम आदि पूर्वीय प्रदेशों में वर्षा अच्छी होती है तथा इन प्रदेशोंमें कृषि भी अच्छी होती है। उत्तरप्रदेश, पंजाब और सिन्ध में वर्षाकी कमी रहती है, फसल भी अच्छी नहीं होती है। इन प्रदेशों में अनके प्रकार के संघर्ष होते है, जनता में अनेक प्रकार की पार्टियाँ होती है। तथा इन प्रदेशों में महामारी भी फैलती है। चेचक का प्रकोप उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, मध्यभारत और राजस्थानमें होता है। पौष मासमें बृहस्पतिके राशि परिवर्तनसे सुभिक्ष, आवश्यकतानुसार अच्छी वर्षा, धर्मकी वृद्धि, क्षेम, आरोग्य और सुखका विकास होता है। भारतवर्षके सभी राज्योंके लिए यह बृहस्पति उत्तम माना जाता है। पहाड़ी प्रदेशोंकी उन्नति और अधिक रूपमें होती है। माघ मासमें गुरुके राशिपरिवर्तनसे सभी प्राणियोंको सुख-शान्ति, सुभिक्ष, आरोग्य और समयानुकूल यथेष्ट वर्षा एवं सभी प्रकारसे कृषिका विकास होता है। ऊसर भूमिमें भी अनाज उत्पन्न होता है। पशुओंका विकास और उन्नति होती है। फाल्गुनमासमें गुरुके राशि-परिवर्तन होनेसे Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशोऽध्यायः स्त्रियोंको भय, विधवाओंकी संख्याकी वृद्धि, वर्षाका अभाव अथवा अल्प वर्षा, ईति-भीति, फसलकी कमी एवं हैजेका प्रकोप व्यापकरूपसे होता है। बंगाल, राजस्थान और गुजरातमें अकालकी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। चैत्रमें गुरुका राशि-परिवर्तन होनेसे नारियोंको सन्तानकी प्राप्ति सुभिक्ष, उत्तम वर्षा, नाना व्याधियों आशंका एवं संसारमें राजनैतिक परिवर्तन होते हैं। जापान, जर्मन, अमेरिका, इंग्लैण्ड, रूस, चीन, श्याम, बर्मा, आस्ट्रेलिया, मलाया आदिमें मनमुटाव होता है, राष्ट्रोंमें भेदनीति कार्य करती है गुटबन्दीका कार्य आरम्भ हो जाने से परिवर्तन के चिह्न स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगते है। वैशाख मास में गुरु का राशि परिवर्तन होने से धर्मकी वृद्धि, सुभिक्ष, अच्छी वर्षा, व्यापारिक उन्नति, देशका आर्थिक विकास, दुष्ट-गुण्डे-चोर आदिका दमन, सज्जनोंको पुरस्कार एवं खाद्यान्नका भाव सस्ता होता है। घी, गुड़, चीनी आदिका भाव भी सस्ता ही रहता है। उक्त प्रकारके गुरुमें फलोंकी फसल में कमी आती है। समयानुकूल यथेष्ट वर्षा होती है। जूट, तम्बाकू और लोहेकी उपज अधिक होती है। विदेशोंसे भारतका मैत्री सम्बन्ध बढ़ता है तथा सभी राष्ट्र मैत्री सम्बन्धमें आगे बढ़ना चाहते हैं। ज्येष्ठमासमें गुरुके राशि-परिवर्तन होनेसे धर्मात्माओंको कष्ट, धर्मस्थानों पर विपत्ति, सत्क्रियाका अभाव, वर्षाकी कमी, धान्यकी उत्पत्तिमें कमी एवं प्रजामें अनेक प्रकार की व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। मध्य भारत, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और पंजाब राज्यमें सूखा पड़ता है, जिससे इन राज्यों की प्रजा को अधिक कष्ट उठाना पड़ता है। उक्त मासमें गुरुका राशि परिवर्तन कलाकारोंके लिए मध्यम और योद्धाओंके लिए श्रेष्ठ होता है। आषाढ़मासमें बृहस्पतिका राशि-परिवर्तन हो तो राज्यवालोंको क्लेश, मुख्य मन्त्रियों को शारीरिक कष्ट, ईति-भीति, वर्षाका अवरोध, फसलकी क्षति, नये प्रकारकी क्रान्ति एंव पूर्वोत्तर प्रदेशोंमें उत्तम वर्षा होती है। दक्षिणके प्रदेशोंमें भी उत्तम वर्षा होती है। मलवारमें फसलमें कुछ कमी रह जाती है। गेहूँ, धान्य, जौ और मक्काकी उत्पत्ति सामान्यतया अच्छी होती है। श्रावणमासमें गुरुका राशि-परिवर्तन होनेसे अच्छी वर्षा, सुभिक्ष, देशका आर्थिक विकास, फल-फूलोंकी वृद्धि, नागरिकोंमें उत्तेजना, क्षेम और आरोग्य फैलता है। भाद्रपद और आश्विनमासमें गुरुके राशि परिवर्तन होने से क्षेम, श्री, आयु, Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता आरोग्य एवं धन-धान्यकी वृद्धि होती है। अच्छी वर्षा समयानुकूल होती है। जनताको आर्थिक लाभ होता है तथा सभी मिलकर देशके विकासमें योगदान देते हैं। द्वादश राशि स्थित गुरुफल-मेष राशिमें बृहस्पति के होनेसे चैत्रसंवत्सर कहलाता है। इसमें खूब वर्षा होती है, सुभिक्ष होता है। वस्त्र, गुड़, ताँबा, कपास, मूंगा आदि पदार्थ सस्ते होते हैं। घोड़ों को पीड़ा, महामारी, ब्राह्मणों को कष्ट, तीन महीनों तक जनसाधारण को भी कष्ट होता हैं। भाद्रपद मासमें गेहूँ, चावल, उड़द, घी सस्ते होते हैं, दक्षिण और उत्तरमें खण्डवृष्टि होती है। दक्षिणोत्तर प्रदेशोंमें दुर्भिक्ष, दो महीनेक पश्चात् वर्षा होती है। कार्तिक और मार्गशीर्ष मासमें कपास, अन्न, गुड़ महँगा होता है, घीका भाव सस्ता होता है, जूट, पाटका भाव महँगा होता है। पौष मासमें रसोंका भाव महंगा, अन्नका भाव सस्ता, गुड़-धीका भाव कुछ महँगा होता है। एक वर्षमें यदि बृहस्पति तीन राशियोंका स्पर्श करे तो अत्यन्त अनिष्ट होता है। वृषराशिमें गुरुके होनेसे वैशाखमें वर्ष माना जाता है। इस वर्ष में वर्षा अच्छी होती है, फसल भी उत्तम होती है। गेहूँ, चावल, मूंग, उड़द, तिल के व्यापारमें अधिक लाभ होता है। श्रावण और ज्येष्ठ इन दो महीनोंमें सभी वस्तुएँ लाभप्रद होती है। इन दोनों महीनों में वस्तुएँ खरीद कर रखनेसे अधिक लाभ होता है। कार्तिक, माघ और वैशाख में घी का भाव तेज होता है। आषाढ़, श्रावण और आश्विन में अच्छी वर्षा होती है, भादों के महीन में वर्षा का अभाव रहता है। रोग उत्पत्ति इस वर्ष में अधिक होती है। पूर्व प्रदेशोंमें मलेरिया, चेचक, निमोनिया, हैजा आदि रोग सामूहिक रूपसे फैलते हैं। पश्चिमके प्रदेशोंमें सूखा होनेसे बुखार का अधिक प्रसार होता है। आषाढ़ मासमें बीजवाले अनाज महगे और अवशेष सभी अनाज सस्ते होते हैं। गुड़का भाव फाल्गुन से महंगा होता है और अगले वर्ष तक चला जाता है। घी का भाव घटता-बढ़ता रहता है। चौपार्यों को कष्ट अधिक होता है। श्रावण और भाद्रपद दोनों महीनो में पशुओं में महामारी पड़ती है, जिसे मवेशियोंका नाश होता है। मिथुनराशि पर बृहस्पतिके आने से ज्येष्ठ नामक संवत्सर होता है। इसमें Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशोऽध्यायः बालकों और घोड़ों को रोग होता है, वायु-वर्षा होती है। पाप, अत्याचार और अनीतिकी वृद्धि होती है। चोरभय, शस्त्रभय एवं आतंक व्याप्त रहता है। सोना, चाँदीका बाजार एक वर्ष तक अस्थिर रहता है, व्यापारियोंको इन दोनोंके व्यापारमें लाभ होता है। अनाजका भाष वर्षके आरम्भने महंगा, पश्चात् सस्ता होता है। जूट, सोंठ, मिर्चा, पीपल, सरसोंका भाव कुछ तेज होता है। कर्क राशि पर गुरुके रहनेसे आषाढ़ासंख्य संवत्सर होता है। इस वर्षमें कार्तिक और फाल्गुनमें सभी प्रकारके अनाज तेज होते हैं, अल्पवर्षा, दुर्भिक्ष, अशान्ति और रोग फैलते हैं। सोना, चाँदी, रेशम, ताँबा, मूंगा, मोती, माणिक्य, अन्न आदिकाभाव कुछ तेज होता है; पर अनाज, बेचनेसे अधिक लाभ होता है। सिंहराशि का बृहस्पति श्रावणासारकवत्सर होता है। इसमें वर्षा अच्छी होती है, फसल भी उत्तम होती है, घी, दूध और रसोंकी उत्पत्ति अत्यधिक होती है। फल-पुष्पोंकी उपज अच्छी होने से विश्वमें शान्ति और सुख दिखलाई पड़ता है। धान्य की उत्पत्ति अच्छी होती है। नये नेताओं की उत्पत्ति होने से देश का नेतृत्व नये व्यक्तियों के हाथ में जाता है। जिससे देश की प्रगति ही होती है। व्यापारियों के लिए यह वर्ष उत्तम होता है। सभी वस्तुओं के व्यापार में लाभ होता है। सिंह के गुरु में चौपायें महँगे होते हैं। सोना, चाँदी, घी, तेल, गेहूँ, चावल भी महँगा ही रहता है, चार्तुपास में वर्षा अच्छी होती है। कार्तिक और पौष में अनाज महँगा हो जाता है। अवशेष महीनों में अनाज का भाव सस्ता रहता है। चौदी, सोना आदि धातुएँ कार्तिक से माघ तक महँगी रहती है। अवशेष महीनों में कुछ भाव नीचे गिर जाते हैं। यों सोनेके व्यापारियों के लिए यह वर्ष बहुत अच्छा होता है। गुड़, चीनीके व्यापारमें घाटा होता है। वैशाख माससे श्रावण मास तक गुड़ का भाव कुछ तेज रहता है, अवशेष महीनोंमें समर्घता रहती है। स्त्रियोंके लिए यह बृहस्पति अच्छा नहीं है, स्त्रीधर्म सम्बन्धी अनेक बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं तथा कन्याओंको चेचक अधिक निकलती हैं। सर्वसाधारणमें आनन्द, उत्साह और हर्षकी लहर दिखलाई पड़ती है। कन्या राशिके गुरुमें भाद्रसंवत्सर होता है। इसमें कार्तिकसे वैशाख तक सुभिक्ष होता है। इस संवत्सरमें संग्रह किया गया अनाज वैशाखमें दूना लाभ देता है। वर्षा Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ भद्रबाहु संहिता । साधारण होती है और फसल भी साधारण ही रहती है। तुला राशिके बृहस्पतिमें आश्विनवर्ष होता है। इसमें घी, तेल सस्ते होते हैं। मार्गशीर्ष और पौषमें धान्यका संग्रह करना उचित है। मार्गशीर्षसे लेकर चैत्र तक पाँचों महीनोंमें लाभ होता है। विग्रह-लड़ाई और संघर्ष देशमें होनेका योग अवगत करना चाहिए। रस संग्रह करनेवालोंको अधिक लाभ होता है। वृश्चिकराशिका बृहस्पति होनेपर कार्तिक संवत्सर होता है। इसमें खण्डवृष्टि, धान्यकी फसल अल्प होती है। घरोंमें परस्पर वैमनस्य आठ महीनों तक होता है। भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक इन महीनोंमें महंगाई जाती है। सोना, चाँदी, काँसा, ताँबा, तिल, घी, श्रीफल, कपास, नमक, श्वेतवस्त्र महो बिकते हैं। देशके विभिन्न प्रदेशोंमें संघर्ष होते हैं, स्त्रियोंको नाना प्रकार के कष्ट होते हैं। धनुराशिके बृहस्पतिमें मार्गशीर्ष संवत्सर होता है। इसमें वर्षा अधिक होती है। सोना, चाँदी, अनाज, कपास, लोहा, काँसा आदि सभी पदार्थ सस्ते होते हैं। मार्गशीर्षसे ज्येष्ठ तक घी कुछ महँगा रहता है। चौपायोंको अधिक लाभ होता है, इनका मूल्य अधिक बढ़ जाता है। मकरके गुरुमें पौषसंवत्सर होता है, इसमें वर्षाभाव और दुर्भिक्ष होता है। उत्तर और पश्चिम में खण्डवृष्टि होती है तथा पूर्व और दक्षिणमें दुर्भिक्ष । धान्यका भाव महँगा रहता है। कुम्भके गुरुमें माघ संवत्सर होता है। इसमें सुभिक्ष, पर्याप्त वर्षा, धार्मिक प्रचार, धातु और अनाज सस्ते होते हैं। माघ-फाल्गुनमें पदार्थ सस्ते रहते हैं। वैशाखमें वस्तुओंके भाव कुछ तेज हो जाते हैं। मीनके गुरुमें फाल्गुनसंवत्सर होता है। इसमें अनेक प्रकारके रोगोंका प्रसार, साधारण वर्षा, सुभिक्ष, गेहूँ, चीनी, तिल, तेल और गुड़का भाव तेज होता है। पौष मासमें कष्ट होता है। फाल्गुन और चैत्रके महीनेमें बीमारियाँ फैलती है। दक्षिणभारत और राजस्थान के लिए यह वर्ष मध्यम है। पूर्वके लिए वर्ष उत्तम है, पश्चिमके प्रदेशोंके लिए वर्ष साधारण है। बृहस्पति के वक्री होने का विचार—मेषराशिका बृहस्पति वक्री होकर मीन राशि का हो जाय तो आषाढ़, श्रावणमें गाय, महिष, गधे और ऊँट तेज हो जाते हैं। चन्दन, सुगन्धित तेल तथा अन्य सुगन्धित वस्तुएँ महँगी होती हैं। वृषराशिका गुरु पाँच महीने वक्री हो जाय तो गाय-बैल आदि चौपाएँ, बर्तन आदि Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३३ सप्तदशोऽध्यायः तेज होते हैं। सभी प्रकारके संग्रह करना उचित है। मेवशीमें अधिक लाभ होता है। मिथुनराशिका गुरु वक्री हो तो आठ महीने तक चौपाएँ तेज रहते हैं। मार्गशीर्ष आदि महीनोंमें सुभिक्ष, सब लोग स्वस्थ एवं उत्तरप्रदेश और पंजाब में दुष्काल की स्थिति आती है। कर्क राशि का गुरु यदि वक्री हो तो घोर दुर्भिक्ष, गृहयुद्ध, जनतामें संघर्ष, राज्योंकी सीमामें परिवतर्न तथा घी, तेल, चीनी, कपासके व्यापारमें लाभ एवं धान्यभाव भी महँगा होता है। सिंहराशिके गुरुके वक्री होने से सुभिक्ष, आरोग्य और ब लोगोंमें प्रसन्न होती है। धान्यके संग्रह में भी लाभ होता है। कन्याराशिके गुरुके वक्री होनेसे अल्पलाभ, सुभिक्ष, अधिक वर्षा और प्रजा आमोद-प्रमोदमें लीन रहती है। तुलाराशिके गुरुके वक्री होनेसे बर्तन, सुगन्धित वस्तुएँ, कपास आदि पदार्थ महँगे होते हैं। वृश्चिकराशिका गुरु वक्री हो तो अन्न और धान्यका संग्रह करना उचित होता है। गेहूँ, चना आदि महँगे होते हैं। धनुराशि का गुरु वक्री हो तो सभी प्रकारके अनाज सस्ते होते हैं। मकर राशिके गुरु के वक्री होनेसे धान्य सस्ता होता है और आरोग्यताकी वृद्धि होती है। यदि कुम्भराशिका गुरु वक्री हो तो सुभिक्ष, कल्याण, उचित वर्षा एवं धान्यभाव सम रहता है। वर्षान्तमें वस्तुओंके भाव कुछ महँगे होते हैं। मीनराशिका गुरु वक्री हो तो धनक्षय, चोरों में भय, प्रशासकोंमें अनबन, धान्य और रस पदार्थ महंगे होते हैं। लवण, कपास, घी और तेलमें चौगुना लाभ होता है। मीनके गुरुका वक्री होना धातुओंके भावोंमें भी तेजी लाता है तथा सुवर्णादि सभी धातुएँ महँगी होती हैं। गुरुका नक्षत्र भोग विचार-जब गुरु कृत्तिका, रोहिणी नक्षत्रमें स्थित हो उस समय मध्यम वृष्टि और मध्यम धान्य उपजता है। मृगशिरा और आर्द्रामें गुरुके रहनेसे यथेष्ट वर्षा, सुभिक्ष और धन-धान्यकी वृद्धि होती है। पुनर्वसु, पुष्य और आश्लेषामें गुरु हो तो अनावृष्टि, घोरभय, दुर्भिक्ष, लूट-पाट, संघर्ष और अनेक प्रकारके रोग होते हैं। मघा और पूर्वाफाल्गुनीमें गुरुके होनेसे सुभिक्ष, क्षेम और आरोग्य होते हैं। उत्तराफाल्गुनी और हस्तमें गुरु स्थित हो तो वर्षा अच्छी, जनताको सुख एवं सर्वत्र क्षेम-आरोग्य व्याप्त रहता है। चित्रा और स्वाति नक्षत्रमें गुरु हो तो धान्य, उत्तम वर्षा तथा जनतामें आमोद-प्रमोद होते हैं। विशाखा और अनुराधामें गुरु होने Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ५३४ से मध्यम वर्षा होती हैं और फसल भी मध्यम हो होती है। ज्येष्ठा और मूलमें गुरु हो तो दो महीने के उपरान्त खण्डवृद्धि होती है। पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ामें गुरु हो तो तीन महीनों तक लगातार अच्छी वर्षा, क्षेम, आरोग्य और पृथ्वी पर सुभिक्ष होता है। श्रवण, धनिष्ठा शतभिषा नक्षत्र में गुरु हो तो सुभिक्षके साथ धान्य महँगा होता है। पूर्वाभाद्रपद और उत्तराभाद्रपदमें गुरुका होना अनावृष्टिका सूचक है। रेवती, भरणी और अश्विनी नक्षत्र में गुरुके होनेसे सुभिक्ष, धान्यकी अधिक उत्पत्ति एवं शान्ति रहती है। मृगशिरा से पाँच नक्षत्रों में गुरु शुभ होता है। गुरु तीव्र गति हो और शनि वक्री हो तो विश्वमें हा हाकार होने लगता है। गुरुके उदयका फलादेश—मेष राशिमें गुरुका उदय हो तो दुर्भिक्ष, मरण, संकट, आकस्मिक दुर्घटनाएं होती हैं। वृषमें उदय होने से सुभिक्षी, मणि-रत्न महँगे होते हैं। मिथुनमें उदय होने से वेश्याओं को कष्ट, कलाकार और व्यापारियोंको भी पीड़ा होती है। कर्कमें उदय होनेसे अल्पवृष्टि, मृत्यु एवं धान्यभाव तेज होता है। सिंहमें उदय होने से समयानुकूल यथेष्ट वर्षा, सुभिक्ष एवं नदियोंकी बाढ़े जन-साधारणमें कष्ट होता है। कन्याराशिमें गुरुके उदय होने से बालकों को कष्ट, साधारण वर्षा और फसल भी अच्छी होती है। तुलाराशिमें गुरुके उदय होने से काश्मीरी चन्दन, फल-पुष्प एवं सुगन्धित पदार्थ महँगे होते हैं। वृश्चिकराशि में गुरुके उदय होने दुर्भिक्ष, धन-विनाश, पीड़ा एवं अल्प वर्षा होती है। धनुराशि और मकरराशिमें गुरुका उदय होनेसे रोग, उत्तम धान्य, अच्छी वर्षा एवं द्विजातियोंको कष्ट होता है।कुम्भराशिमें गुरुका उदय होने से अतिवृष्टि, अनाजकाभाव महँगा एवं द्विजातियोंको कष्ट होता है। कुम्भराशिमें गुरुका उदय होनेसे अतिवृष्टि, अनाज का भाव महँगा एवं मीनराशिमें गुरुके उदय होनेसे युद्ध, संघर्ष और अशान्ति होती है। कार्तिकमासमें गुरुका उदय होनसे निरोगता और धान्यकी प्राप्ति; माघ-फाल्गुनमें उदय होनेसे खण्डवृष्टि, चैत्रमें उदय होनेसे विचित्र स्थिति, वैशाख-ज्येष्ठमें उदय होनेसे वर्षा का निरोध; आषाढ़ में उदय हो तो आपसमें मतभेद, अन्नका भाव तेज; श्रावणमें उदय हो तो आरोग्य, सुख-शान्ति-वर्षा; भाद्रपद मासमें उदय होनेसे धान्य नाश एवं आश्विनमें उदय होनेसे सभी प्रकारसे सुखकी प्राप्ति होती है। Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३५ सप्तदशोऽध्यायः गुरु के अस्त का विचार - मेषमें गुरु अस्त हो तो थोड़ी वर्षा; बिहार, बंगाल, आसाममें सुभिक्ष, राजस्थान, पंजाबमें दुष्काल; वृषमें अस्त हो तो दुर्भिक्ष, दक्षिणभारतमें अच्छी फसल, उत्तर भारतमें खण्ड वृष्टि; मिथुनर्म अस्त हो तो घृत, तेल लवण आदि पदार्थ महँगे, महामारीके कारण सामूहिक मृत्यु, अल्पवृष्टि; कर्क में हो तो सुभिक्ष, कुशल, कल्याण, क्षेम सिंहमें अस्त हो तो युद्ध, संघर्ष, राजनैतिक उलटफेर, धनका नाश; कन्यामें अस्त हो तो क्षेम, सुभिक्ष, आरोग्य, तुलामें पीड़ा द्विजोंको विशेष कष्ट, धान्य महँगा; वृश्चिकमें अस्त हो तो नेत्ररोग, धनहानि, आरोग्य, शस्त्रभय; धनुराशिमें अस्त हो तो भय, आतंक, रोगादि; मकर राशिमें अस्त हो तो उड़द, तिल, मूंग आदि धान्य महँगे; कुम्भमें अस्त हो तो प्रजाको कष्ट, गर्भवती नारियोंको रोग एवं मीन राशिमें अस्त हो तो सुभिक्ष, साधारण वर्षा, धान्य का भाव सस्ता होता है। गुरुका क्रूर ग्रहों के साथ अस्त या उदय होना अशुभ होता है। शुभ ग्रहों के साथ अस्त या उदय होने से गुरु का शुभ फल प्राप्त होता है। गुरु के साथ शनि और मंगलके रहने से प्रायः सभी वस्तुओं की कमी होती है। और भाव भी उनके महँगे होते हैं। जब गुरुके साथ शनि की दृष्टि गुरु पर रहती है, तब वर्षा कम होती है और फसल भी अल्प परिमाण में उपजती है। इति श्रीपंचम श्रुत केवली दिगम्बराचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिता का गुरु संचार नामा अध्याय का वर्णन करने वाला सतरहवाँ अध्याय का हिन्दी भाषानुवाद करने वाली क्षेमोदय टीका समाप्तः । ( इति सप्तदशोऽध्यायः समाप्तः ) Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशोऽध्यायः बुधसंचार का वर्णन गर्ति प्रवासमुदयं वर्ण ग्रह समागमम्। बुधस्य सम्प्रवक्ष्यामि फलानि च निबोधत ॥१॥ (ग्रह) ग्रह और (समागमम्) गमन, (प्रवासं) ठहरना (उदय) उदय (वर्ण) वर्ण (ग्रह) ग्रह और (समागमम्) समागम (सम्प्रवक्ष्यामि) कहूँगा (फलानि च निबोधत) उसके फल को अवगत करो। भावार्थ-बुध को गांत प्रवास, उदय वर्णे ग्रह समागम को अब में कहूँगा उसके फल को आप जानो॥१॥ सौम्या विमिश्राः संक्षिप्तास्तीता घोरास्तथैव च। दुर्गावगतयो ज्ञेया बुधस्य च विचक्षणैः ।। २।। (सौम्या विमिश्राः संक्षिप्ता:) सौम्या, विमिश्रा संक्षिप्ता, (तीव्राघोरास्तथैव च) तीव्रा, घोरा उसी प्रकार (दुर्गा) दुर्गा और (वगतयों) पापा ये सात (बुधस्य च विचक्षणै:) बुध की गतियों बुद्धिमानों ने कही है। भावार्थ-सौम्या, विमिश्रा, संक्षिप्ता, तीव्रा, घोरा और दुर्गा,पापा ये सात बुध की गति बुद्धिमानों ने कही है॥२॥ सौम्यां गतिं समुत्थाय त्रिपक्षाद् दृश्यते बुधः। विमिश्रायां गतौ पक्षे संक्षिप्तायां षडूनके ।। ३॥ तीक्ष्णायां दशरात्रेण घोरायां तु षडाहिके। पापिकायां त्रिरात्रेण . दुर्गायां सम्यगक्षये॥४॥ (सौम्यां गतिं समुत्थाय) सौम्य गति में (बुध: त्रिपक्षाद् दृश्यते) बुध तीन पक्ष में दिखता है (विमिश्रायां गतौ पक्षे) विमिश्रा गति में दो पक्ष, (संक्षिप्तायां षडूनके) संक्षिप्ता गति में चौबीस दिनों में (तीक्ष्णयां दश रात्रेण) तीक्ष्णा गति में Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशोऽध्यायः दस रात्रि (घोरायां तु पडालिके) घोर गति में छह दिन, (पापिकायां त्रिरात्रेण) पापीका गतिमें तीन रात (दुर्गायां सम्यगक्षये) दुर्गा में तो दिन तक रहता है। भावार्थ-सौम्यागति में बुध तीन पक्ष में पैतालीस दिनों में दिखता है, विमिश्रा गति में दो पक्ष दिखता है संक्षिप्त गति में चौबीस दिन, तीक्ष्णामें दस रात, घोरा में छह दिन पापी का में तीन रात दुर्गा में नौ दिन तक दिखता है।। ३-४ ।। सौम्याः विमिश्राः संक्षिप्ता बुधस्य गतयोहिताः। शेषाः पापा: समाख्याता विशेषेणोत्तरोत्तरा।।५॥ (बुधसस्य गतयो) बुध की गति (सौम्या: विमिना संक्षिप्ता) सौम्या विमिश्रा संक्षिप्त गति (हिता) हितकारी हैं (शेषाः पापा: समाख्याना:) शेष सभी गति या पाप गति कहलाती है। (विशेषेणोत्तरोत्तरा:) विशेष रूप से उत्तर की पापगति कहलाती भावार्थ-बुध की सौम्या संक्षिप्त गति हितकारी होती है.बाकी शेष पाप गति होती है, विशेष रूप से उत्तर की गति पाप कहलाती है।। ५॥ नक्षत्रं शकवाहेन जहाति समचारताम्। एषोऽपि नियतश्चारो भयं कुर्यादतोऽन्यथा ॥६॥ बुध यदि (समचारताम्) समानरूप से गमन करता हुआ (शक वाहेन) शकवाहक के द्वारा स्वभाव से ही (नक्षत्र) नक्षत्र को (जहाति) त्याग करे तो (एषोऽपिनियतश्चारो) वह बुध का नियत चार कहलाता है (अन्यथा भयं कुर्यादतो) अन्यथा भय उत्पन्न करता है। भावार्थ-समान रूप से गमन करता हुआ शक वाहन के द्वारा स्वभाव से ही नक्षत्र को छोड़ता है तो वह बुधका नियतचार कहलाता है अन्यथा भय उत्पन्न करता है।।६।। नक्षत्राणि चरेत्पञ्चपुरस्तादुत्थितो बुधः । ततश्चास्तमितः षष्ठे सप्तमे दृश्यते परः॥७॥ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता (बुधः पुरस्तादुत्थितो) सम्मुख उदय होकर बुध (पञ्चनक्षत्राणि) पाँच नक्षत्रों प्रमाण (चरेत् ) आचरण करता है (षष्ठे ) छठे ( ततश्चास्तामित: ) नक्षत्र पर अस्त होता है (सप्तमे दृश्यते परः ) और सातवें पर पुनः दिखता है। भावार्थ — बुध सम्मुख होकर पाँच नक्षत्रों प्रमाण आचरण करता है, छठे पर अस्त होता है, सातवें पर पुनः दिखता है ॥ ७ ॥ उदित: पञ्चमेऽस्तमितः पृष्ठतः ( पृष्ठतः उदितः) पृष्ठतः उदित होकर (सौम्यश्चत्वारि चरति ध्रुवम् ) बुधः चार नक्षत्र प्रमाण गमन करता है ( पञ्चमेऽस्तमितः षष्ठे ) पाँचवें पर अस्त होता है और छठे पर पुनः उदय होता है । भावार्थ-पीछे से उदित होकर बुध चार नक्षत्र प्रमाण गमन करता है, पाँचवें पर अस्त होता है, छठे पर पुनः उदय होता है ॥ ८ ॥ सौम्यश्चत्वारि चरतिध्रुवम् । षष्ठे दृश्यते पूर्वतः पुनः ॥ ८ ॥ चत्वारि षट् तथाष्टौ कुर्यादस्तमनोदयौ । सौम्यायां तु विमिश्रायां संक्षिप्तायां यथाक्रमम् ॥ ९ ॥ च ५३८ (सौम्यायां तु विमिश्रायां संक्षिप्तायां यथा क्रमम्) यथा क्रम से सौम्या, विमिश्रा, संक्षिप्ता गति में ( चत्वारिषट् तथाष्टौ च ) चार तथा आठ नक्षत्रों पर ( अस्तमनोदयौ कुर्याद्) अस्त और उदय को बुध प्राप्त करता है । भावार्थ- सौम्या, विमिश्रा संक्षिप्ता गतिमें क्रमशः चार, छः और आठ नक्षत्रों पर अस्त और उदय को बुध प्राप्त होता है ॥ ९ ॥ नक्षत्रमस्यचिह्नानि पूर्वाभिः पूर्णसस्यानां तदा ( यदा) जब ( नक्षत्रमस्यचिह्नानि ) इस चिह्न वाले नक्षत्र पर (गतिभिस्तिसृभिः) बुध पुनः गमन करता है (पूर्वाभिः पूर्णसस्यानां ) तो पूर्व में सस्यों की उत्पत्ति अच्छी होती है। (तदासम्पत्ति रुत्तमा) तब सम्पत्ति भी उत्तम होती है। गतिभिस्तिसृभिर्यदा । सम्पत्ति रुत्तमा ।। १० । Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशोऽध्यायः भावार्थ-जब तीनों गतियों में बुध नक्षत्रों को पुन: ग्रहण करता है, तो पूर्व रूप में धान्यों की उत्पत्ति अच्छी होती है तब सम्पत्ति भी उत्तम होती है।। १० ॥ बुधो यदोत्तरे मार्गे सुवर्णः पूजितस्तदा। , मध्यमे मध्यमो ज्ञेयो जघन्यो दक्षिणे पथि॥११॥ (यदोत्तरेमार्गे बुधो) पूर्वोत्तर मार्ग में बुध (सुवर्णः पूजितस्तदा) अच्छे वर्ण वालोंसे पूजित होता है (मध्यमे मध्यमो ज्ञेयो) मध्यमें मध्यम और (दक्षिणे जघन्यो) दक्षिणमार्ग में जघन्य जानना चाहिये। ___ भावार्थ-जब उत्तर मार्ग में बुध अच्छे वर्ण वालों द्वारा पूजित होता है, मध्यम में मध्यम और दक्षिण जघन्य जानना चाहिये॥११॥ वसु कुर्यादतिस्थूलो साम्रः शस्त्रप्रकोपनः। अतश्चारुणवर्णश्च बुधः सर्वत्र पूजितः॥१२।। (बुध) बुध (वसु कुर्यादतिस्थूलो) अतिस्थूल हो तो धन की वृद्धि (ताम्रशस्त्रप्रकोपन:) ताम्रवर्ण का हो तो शस्त्रप्रकोप करता है (अतश्चारुणवर्णश्च) और अरुण वर्ण का हो तो (सर्वत्र पूजितः) सर्वत्र पूजित होता है। भावार्थ-बुध अति स्थूल हो तो धन की वृद्धि होती है,ताम्रवर्ण का हो तो शस्त्र कोप होता है,और अरुण वर्ण का हो तो सर्वत्र पूजित होता है॥१२ ।। पृष्ठतः पुरलम्भाय पुरस्तादर्थवृद्धये। स्निग्धो रूक्षो बुधो ज्ञेयः सदा सर्वत्रगो बुधैः॥१३॥ (बुधो) बुध (पृष्ठतः पुरलम्भाय) पीछे हो तो नगर की प्राप्ति (पुरस्तादर्थ वृद्धये) सामने हो तो अर्थ वृद्धि के लिये होना, (स्निग्धो रूक्षो) स्निग्ध और रूक्ष बुध (सदा सर्वत्रगो बुधैः) सदा सर्वत्र गमन करने वाला होता है। भावार्थ---बुध के सामने रहने पर धन का लाभ होता है,पीछे रहने पर नगर की प्राप्ति होती है, और स्निग्ध रूक्ष बुध सदा सर्वत्र गमन करने वाला होता है।।१३॥ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता । ५४० गुरोः शुक्रस्य भौमस्य वीथीं विन्द्याद् यथा बुधः। दीप्तोते रूक्षः सङ्ग्रामं तदा घोरं निवेदयेत्॥१४॥ जब (बुधः) बुध (गुरोः) गुरु (शुक्रस्य) शुक्र (भौमस्य) मंगल की (वीथीं) वीथि को (यथा विन्द्याद्) जैसे जानो (दीप्तोऽति रूक्षः) अत्यन्त रूक्ष दीप्त होता है (तदा) तब (घोरं सङ्ग्राम निवेदयेत) महान संग्राम होता है, ऐसा निवेदन किया भावार्थ-जब बुध गुरु, शुक्र, मंगल की वीथि को जानो, अत्यन्त रूक्ष दीप्त हो तो महान् संग्राम होता है, ऐसा जानना चाहिये॥१४ ।। भार्गवस्योत्तरां वीर्थी चन्द्र शृङ्गं च दक्षिणम्। बुधो यदा निहन्यात्तानु भयोर्दक्षिणापथे॥१५॥ राज्ञां चक्रधराणां च सेनानां शस्त्रजीविनाम्। पौर जनपदानां च क्रिया काचिन्न सिध्यति॥१६॥ (भार्गवस्योत्तरां वीथीं) यदि शुक्र उत्तर पथ में हो (चन्द्र शृगं च दक्षिणम्) और चन्द्र शृंग दक्षिण में हो (यदा) जब (तानुभयोर्दक्षिणपथे) उभय को दक्षिण पथ में (बुधो) बुध (निहन्यात्) घातित करे तो (राज्ञांचक्रधराणां च) राजा और चक्रवर्ति (सेनानां शस्त्र जीविनाम्) सेना और शस्त्र उपजीविका करने वाले (पौर जनपदानां च) नगर के लोगों की (काचिनक्रिया सिध्यति) कोई भी क्रिया सिद्ध नहीं होती है। भावार्थ-यदि शुक्र उत्तरापथ में हो चन्द्र शृंग दक्षिण पक्ष में हो, बुध दोनों ही घात करे तो राजा चक्रवर्ती सेना, शस्त्र से आजीविका करने वाले और नगर के लोगों की कोई भी क्रिया सिद्ध नहीं होती है।। १५-१६॥ शुक्रस्य दक्षिणां वीर्थी चन्द्र श्रृंग मधोत्तरम्। भिन्द्याल्लिखेत् तदा सौम्यस्ततो राज्याग्निजं भयम् ।। १७ ॥ (शुक्रस्य दक्षिणां वीथीं) शुक्र दक्षिण पथ में होने पर (चंद्र शृंग मधोत्तरम्) चन्द्र शृंग नीचे की ओर उत्तर में हो (तदा) तब (भिन्द्याल्लिखेत् सौम्य:) बुध उनका घात करे तो (ततो राज्याग्निजं भयम्) उस राज्य में अग्निभय होगा। Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४९ अष्टादशोऽध्यायः भावार्थ-शुक्र दक्षिण पथ में हो. चन्द्र गौधे की और उत्तरमें हो, बुध उनका घात करे,तो समझो राज्य में अग्नि भय होगा ।। १७॥ यदा बुधोऽरुणाभः स्यादुर्भगो वा निरीक्ष्यते। तदा स स्थावरान् हन्ति प्रह्म-क्षत्रं च पीडयेत्॥१८॥ (यदा) जब (बुधोऽरुणाभः) अरुणआभा वाला होकर (स्यादुर्भगोवा निरीक्ष्यते) वा कुरूप दिखलाई पड़े तो (तदा) तब (स स्थावरान् हन्ति) वह स्थावरों को मारता है (प्रह्म क्षत्रं च पीडयेत्) द्विजों और ब्राह्मणों को पीड़ा पहुँचाता हैं। भावार्थ-जब बुध लाल आभा वाला होकर कुरूप दिखलाई पड़े तो, तब स्थावरों को मारता है, और ब्राह्मण व क्षत्रियों का नाश करता है॥१८॥ चांद्रस्य दक्षिणां वीर्थी भित्वा तिष्ठेद् य ग्रहः । रूक्षः स कालसङ्काशस्तदा चित्रविनाशनम्॥१९॥ (चांद्रस्य दक्षिणां वीथीं) चांद के दक्षिण पथ में होकर (य ग्रहः भित्वा तिष्ठेद) जो ग्रह भेदन करता हुआ ठहरे (रूक्षः स काल सङ्काश;) और वे भी रूक्ष हो तो (चित्रविनाशनम्) चित्र का नाश करता है। भावार्थ-बुध ग्रह चांद वीथि को भेदन कर और रूक्ष हो तो चित्र कलाकार को नाश करता है॥१९ ।। चित्रमूर्तिश्च चित्रांश्च शिल्पिनः कुशलांस्तथा। तेषां च बन्धनं कुर्यात् मरणाय समीहते ।। २०॥ (चित्रमूर्तिश्च) चित्रकला मूर्तिकला (चित्रांश्च) चित्र (शिल्पिन: कुशलांस्तथा) शिल्पिकला में कुशल (तेषां च बन्धनं कुर्यात) ऐसे लोगों का बन्धन करता है, (मरणाय समीहते) मरण कराता है। भावार्थ-चित्रकला, मूर्तिकला, चित्र और शिल्पकला में कुशल ऐसे लोगों का मरण कराता है॥२०॥ भित्वा यदोत्तरां वीथीं दासकांशोऽवलोकयेत्। सोमस्य चोत्तरं शृङ्गं लिखेद् भद्रपदां वधेत् ।। २१॥ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु मंहिता शिल्पिनां दारुजीवीनां तदा पाण्मासिको भयः। अकर्म सिद्धिः कलहो मित्रभेदः पराजयः ॥२२॥ (यदोत्तरां वीथीं भित्वा) जब बुध उत्तर वीथि का भेदन कर (दासकांशोऽवलोकयेट) घास-फूस को देखता है (सोमस्य चोत्तरं शृंग लिखेद) चन्द्रमा उत्तर शृंग का स्पर्श करे (भद्रपदां वधेत्) उत्तराभाद्रपद नक्षत्रका भेद करे तो (शिल्पिनां दारुजीवीनां) शिल्पियो को व लकड़ी का काम करने वालों को (तदा) तब (पाण्मासिको भयः) छह महीने में भय होता है। (अकर्मसिद्धिः कलहो) अकार्य की सिद्धि होती है, कलह होता है (मित्रभेद पराजयः) मित्रभेद और पराजय होती है। भावार्थ-जब बुध उत्तरा पथ का भेदन करता हुआ घास-फूस, लकड़ी आदि को देखता है, चन्द्रमा उत्तर शृंग का स्पर्श करे उत्तराभाद्रपद नक्षत्रका भेद करे तो शिल्पियों को व लकड़ी का काम करने वालों को छठ महीने में भय होता है, अकार्य की सिद्धि होती है,मित्रभेद व पराजय होती हैं।। २१-२२॥ पीतो यदोत्तरां वीथीं शुरू भित्वा प्रलोयते। तदा चतुष्पदो गर्भो कोशधान्यं बुधो वधेत् ।। २३॥ यदि बुध पीला वर्ण का होकर (उत्तरांवीथीं) उत्तर पथ में (गुरु) गुरु को (भित्वा) भेदन कर (प्रलीयते) अस्त हो जाय (तदा) तब (चतुष्पदोगर्भो) चार पाँव वाले पशुओं के गर्भ और (कोश धान्यं बुधो वधेत्) कोश, धान्य का नाश होता है ऐसा बुद्धिमान जानो। भावार्थ-यदि बुध पीला वर्ण का होकर उत्तर वीथीं में गुरु का भेदन कर अस्त हो जाय तब चार पाँव वाले पशु और गर्भ, कोश, धान्य का नाश होता है ऐसा बुद्धिमानो ने कहा है।। २३॥ वैश्यश्चशिल्पिनश्चापि गर्भ मासञ्च सारथिः। सो नयेद्भजते मासं भद्रबाहुवचो यथा ।। २४॥ (वैश्यश्चशिल्पिनश्चापि) उक्त प्रकार का बुध वैश्यों को व शिल्पियों को और भी (गर्भ मासञ्च सारथिः) गर्भो का एक महीने में नाश होता है, सारथियों Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशोऽध्यायः का नाश होता है (सो नयेद्भजते मासं) यह भय एक महीने तक रहता है (भद्रबाहुवचो यथा) ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है। भावार्थ उक्त प्रकार के बुध वैश्यों को व शिल्पियों को और भी गर्भो को एक महीने में कष्ट होता है, सारथियों को भी कष्ट होता हैं, ऐसा भाद्रबाहु स्वामी का वचन है॥ २४॥ विभ्राजमानो रक्तो वा बुधो दृश्येत कश्चन। नगराणां स्थिराणां च दीक्षितानां च तद्भयम् ।। २५॥ (बुधो) जब बुध (विभ्राजमाणो) शोभित होता हुआ (रक्तो वा) लाल वर्ण का (दृश्येत) दिखे (कश्चन) कभी तो (नागराणां स्थिराणां च) नागरिक, स्थिर और (दीक्षितानां च तद्भयम्) दीक्षित याने साधुओं को भय होगा। भावार्थ-जब बुध कभी लाल वर्ण का होकर शोभित हो तो समझां नगरवासी, स्थिर और साधु-मुनियों को भय होगा॥२५॥ कृत्तिकास्वग्निदो रक्तो रोहिण्यां स क्षयङ्करः । सौम्ये रौद्रे तथाऽऽदित्थे पुष्ये सर्पे बुधः स्मृतः ।। २६॥ पितृदैवं तथाऽऽश्लेषां कलुषोयदि दृश्यते। पित॒स्तान् विहङ्गांश्च सस्यं सभजते नयः ॥२७॥ (बुध:) बुध (कृत्तिकास्वाग्निदोरक्तो) कृत्तिका नक्षत्र में लाल वर्ण का हो तो, अग्नि का भय होगा, (रोहिण्यां स क्षयङ्करः) रोहिणी का हो तो क्षय करने वाला है (सौम्ये रौद्रे तथाऽऽदित्ये) मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु (पुष्ये सर्प स्मृतः) पुष्य मघा जानो (तथाऽऽश्लेषां) उसी प्रकार आश्लेषा (कलुषो यदि दृश्यते) इन नक्षत्रों में कलुषित दिखाई पड़े तो (पितृदैवं) पितर देव (पितृस्तान्) पितर स्थानों पर (विहङ्गाश्च) बहुत (सस्यं स भजते नयः) धान्यों की उत्पत्ति होती है। भावार्थ- बुध कृत्तिका नक्षत्र में लाल वर्णका दिखलाई पड़े तो अग्नि भय होगा, उसी प्रकार रोहिणी में दिखे तो क्षय को करने वाला होता है, आगे और भी मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, मघा, आश्लेषा का बुध कलुषित दिखलाई पड़े तो पितृदेव पितृस्थानों पर बहुत ही धान्यों की उत्पत्ति होती है।। २६-२७॥ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ४ बुधोविवर्णो मध्येन विशाखां यदि गच्छति। ब्रह्म क्षत्रविनाशाय तदा ज्ञेयो न संशयः ॥२८॥ (बुधोविवर्णोमध्येन) बुध विवर्ण होकर मध्यसे (विशाखां यदि गच्छति) विशाखा नक्षत्र की ओर जाता है (तदा) तब (ब्रह्म क्षत्र विनाशाय) ब्राह्मण, क्षत्रियों का विनाश करता है (ज्ञेयो) ऐसा जानना चाहिये (न संशयः) इसमें सन्देह नहीं भावार्थ-बुध यदि विवर्ण होकर मध्यसे विशाखा नक्षत्र की ओर गमन करता है तो ब्राह्मण और क्षत्रियों का विनाश होगा इसमें कोई सन्देह नहीं है।। २८॥ मासोदितोऽनुराधायां यदा सौम्यो निषेवते। पशुधनचरान् धान्यं तदा पीडयते भृशम् ।। २९॥ (यदा) जब (मासोदितोऽनुराधाया) भास उदित अनुराधा नक्षत्र में बुध (सौम्यो निषेवते) सौम्य रूप से सेवन करता है तो (तदा) तब (पशुधन चरान् धान्यं) पशुधन और धान्यों को (पीडयते भृशम्) पीड़ा देता है। भावार्थ-जब मास उदित अनुराधा नक्षत्र में बुध सौम्य रूप से सेवन करता है, तो तब पशुधन का व धान्यों का नाश होता है, उनको पीड़ा पहुँचती है।। २९॥ श्रवणे राज्यविभ्रंशो ब्राह्मे ब्राह्मण पीडनम्। धनिष्ठायां च वैवयं धनं हन्ति धनेश्वरम् ।। ३०॥ (श्रवणेराज्यविभ्रंशो) श्रवण नक्षत्र का बुध विक: हो तो राज्य भंग होता है (ब्राह्मे ब्राह्मण पीडनम्) अभिजित विकृत हो तो ब्राह्मणों को पीड़ा होती है (धनिष्ठायां च वैवण्य) धनिष्ठा का बुध विर्वण हो तो (धनं हन्ति धनेश्वरम्) धनवानों के धन को हरता है। भावार्थ-श्रवण नक्षत्र का बुध विकृत दिखलाई पड़े तो राज्य भंग होगा अभिजित में विकृत दिखे तो ब्राह्मणों को पीड़ा होती है, अगर धनिष्ठा में बुध विकृत दिखे तो धनवानों के धन की हानि होती है।। ३०॥ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशोऽध्यायः उत्तराणि च पूर्वाणि याम्यायां दिशि हिंसति। धातुवादविदो हन्यात्तज्ज्ञांश्च परिपीडयेत्॥३१॥ यदि बुध (उत्तराणि च पूर्वाणि) उत्तरा तीनों ओर पूर्वा तीनों (याम्यायां दिशि हिंसति) दक्षिण दिशा में घात करे तो (धातुवाद विदो हन्यात) धातुवाद को जानने वाले मारे जाते हैं (तज्ज्ञांश्च परिपीडयेत्) उसको जानने वालों को पीड़ा होती है। भावार्थ-यदि बुध उत्तरा भाद्रपद, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा उसी प्रकार पूर्वाभाद्रपद पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा को दक्षिणदिशामें घात करे तो धातुवाद को जानने वाले मारे जाते हैं या पीड़ित होते हैं।। ३१ ।। ज्येष्ठायामनु पूर्वेण स्वातौ च यदि तिष्ठति। बुधस्य चरितं घोरं महादुःखदमुच्यते॥३२॥ (ज्येष्ठायांमनुपूर्वेण) ज्येष्ठा या (स्वातौ च यदि तिष्ठति) स्वाति नक्षत्रमें (बुधस्य) बुध की स्थिति हो (चरितं घोरं) और उसका ऐसा घोर चरित हो तो (महादुःखद मुच्यते) महादुःख उत्पन्न करता है। भावार्थ-यदि बुध का चरित्र ज्येष्ठा या स्वाति में हो तो महान् दुःख उत्पन्न होगा ॥३२॥ उत्तरे त्वनयोः सौम्यो यदा दृश्येत पृष्ठतः। पितृ देवमनु प्राप्तस्तदा मासमुपग्रहः ॥३३॥ (यदा) जन (सौम्यो) सोम्य (त्वनयोः) बुध (उत्तरे) उत्तर में (पृष्टत: दृश्येत) पीछे से दिखे तो और (पितृ देवमनुप्राप्त:) वो भी मघा को प्राप्त करे तो (तदा) तब (मासमुपग्रह:) एक महीने में कष्ट होता है। भावार्थ-जब सौम्य बुध उत्तर में मघा को प्राप्त करता हुआ पीछे से दिखाई पड़े तो समझो एक महीने में महा कष्ट होगा ।। ३३॥ पुरस्तात् सह शुक्रेण यदि तिष्ठति सुप्रभः । बुधो मध्यगतो चापि तदा मेघा बहूदकाः ॥ ३४॥ (बुधो) बुध (मध्यगतो चापि) मध्यगत होकर और भी (पुरस्तात् सह शुक्रेण) Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ५४६ सम्मुख शुक्र के साथ (यदि तिष्ठति) यदि ठहरा है (तदा) तब (मेघा बहूदका:) बादल बहुत वर्षा करते हैं। ___ भावार्थ-बुध मध्यगत होकर और भी सम्मुख शुक्र के साथ यदि ठहरता है तो बादल बहुत वर्षा करते हैं॥ ३४ ॥ दक्षिणेन तु पार्वेण यदा गच्छति दुःप्रभः । तदा सृजति लोकस्य महाशोकं महद्भयम्॥ ३५ ।। (यदा) जब बुध (दक्षिणेन) दक्षिण से (पाइँण) पीछे की ओर (दुष्प्रभ:) दुष्कान्ति दिखाता हुआ (गच्छति) जाता है (तु) तो (तदा) तब (लोकस्य) लोक को (महाशोकं महद्भयम्) महाशोक और महान् भय (सजति) सृजन करता है। भावार्थ-जब बुध दक्षिण से पीछे की ओर खराब कान्ति वाला होकर गमन करता है तो लोकमें महाभय और महाशोक उत्पन्न होगा॥३५॥ धनिष्ठायां जलं हन्ति वारुणे जलजे वधेत् । वर्णहीनो यदा याति बुधो दक्षिणतस्तदा ॥ ३६॥ (यदा) जब (बुधो) बुध (दक्षिणतस्तदा वर्णहीनो) दक्षिण में वर्ण हीन होकर (याति) जाता है और (धनिष्ठायां जलं हन्ति) वो भी धनिष्ठा नक्षत्र में हो तो जल का घात करता है (वारुणे जलजं वधेत) पूर्वाषाढ़ामें गमन करे तो जल का वध या कमलों का वध होता है। भावार्थ-जब बुध दक्षिण की ओर वर्ण हीन होकर धनिष्ठा या पूर्वाषाढ़ा नक्षत्रमें गमन करे तो जलका, कमलों का व जल में उत्पन्न होने वालों का घात होता है।। ३६॥ तनुः समार्गो यदि सु प्रभोऽजित; समप्रसन्नो गतिमागतोन्नतिम्। यदा न रूक्षो न च दूरगो बुधस्तदा प्रजानां सुखमूर्जितं सृजेत् ॥ ३७॥ (बुधः) बुध (तनुः) ह्रस्व (समार्गो) समार्गी (यदि) जब (सु प्रभोऽजित:) सुकान्तिवाली, (समप्रसन्नोगतिमागतोन्नतिम्) समाकार प्रसन्नमति को प्राप्त (यदा न रूक्षो न च दूरगो) जब न रूक्ष हो न दूर हो (तदा) तब (प्रजानां सुखमूर्जितं सृजेत्) तो प्रजाओं को सुख का सृजन करेगा। Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशोऽध्याय: ___ भावार्थ-जब बुध हुस्व, समार्गी, सुकान्तिवाला, समाकार प्रसन्नगति वाला, न दूर हो न रूक्ष हो तब प्रजाओं को सुख देगा ।। ३७॥ विशेष-अब इस अठारहवें अध्याय में आचार्य श्री बुध के प्रवास, अस्त, उदय, वर्ण, ग्रहयोग का व उसके फल का वर्णन करते हैं। बुध की गति सौम्या, विमिश्रा, संक्षिप्ता, तीव्रा, घोरा, दुर्गा और पापा ये सात होती है। सौम्या गति में बुध ४५ दिन तक दिखता है, विमिश्रा में दो पक्ष तक संक्षिप्ता में चौबीस दिन, तीक्ष्ण में दस रात, घोरा में छ: दिन, पाप. में तीन रात और दुर्गामें नौ दिन तक दिखता है। बुध की सौम्या विमिश्रा, संक्षिप्ता गतियाँ हितकारी है, शेष सभी गतियाँ पाप रूप है अशुभ फल देती हैं। ____ अगर बुध का उदय हुआसो अन्न का भाव महँगा होगा, अतिवृष्टि, अग्निप्रकोप एवं तूफान आते हैं। हस्त से ज्येष्ठा तक नक्षत्रों में बुध विचरण करे तो, भैंसोंको कष्ट, सुभिक्ष, पूर्ण वर्षा, तेल और तिलहन का भाव महँगा होगा, बंगाल, आसाम, बिहार, बम्बई, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, मध्य भारत में सुभिक्ष होता है। काश्मीर में अन्नकष्ट, राजस्थान में दुष्काल वर्षा का अभाव एवं राजनैतिक उथल-पुथल समस्त देश में होती हैं, जापान में चावल की कमी होती है, रूस और अमेरिका में खाद्यान्न की प्रचुरता रहने पर भी नाना प्रकार के कष्ट होते हैं। __ इस बुध संचार के विषय में जैनेतर आचार्यों ने भी लिखा है जैसे—पराशर ऋषि, देवल आदि। इनके मतानुसार कुछ अन्तर अवश्य पाया जाता है किन्तु विशेष अन्तर नहीं पुष्य, पुनर्वसु, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में संक्षिप्ता गति होती है यह गति २२ दिनों तक रहती है इस का फल मध्यम है विशेषता यह है कि इस गति से घी, तेल, पदार्थों का भाव महँगा होता है, देश के दक्षिण भाग में रहने वालों को थोड़ा कष्ट होता है,दक्षिण भी अन्न ज्यादा होता है, उत्तर में गुड़, Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ५४८ चीनी, मधुर पदार्थ की उत्पत्ति अच्छी होती है, कोयला, लोहा, अभ्रक, ताँबा, शीशा, भूमि से अधिक निकलता है, देश में आर्थिक विकास बढ़ता है गति आरम्भ से लेकर समाप्ति तक सुभिक्ष रहता है, देश में अन्न और वस्त्रों की कमी नहीं रहती है, नदियों के तटवर्ती प्रदेश के लोग शान्ति का अनुभव करते हैं। आगे और भी डॉ. नेमीचन्द जी का भी अभिप्राय देख लेवे। विवेचन-बुध का उदय होने से अन्न का भाव महँगा होता हैं, जब बुध उदित होता हैं उस समय अतिवृष्टि अग्निप्रकोप एवं तूफान आदि आते हैं, श्रवण, धनिष्ठा, रोहिणी, मृगशिरा, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र को मर्दित करके बुध के विचरण करने से रोगभय अनावृष्टि होती हैं, आर्द्रा से लेकर मघा तक जिस किसी नक्षत्र में बुध रहता हैं, उसमें ही शस्त्रपात, भूख, भय, रोग, अनावृष्टि और सन्ताप से जनता को पीड़ित करता हैं, हस्त से लेकर ज्येष्ठा तक छ: नक्षत्रों में बुध विचरण करे तो मवेशी को कष्ट सुभिक्ष पूर्ण वर्षा तेल और तिलहन का भाव महँगा होता हैं, बंगाल, आसाम, बिहार, बम्बई, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, मध्यभारत में सुभिक्ष, काश्मीरमें अन्नकष्ट राजस्थान में दुष्काल वर्षा का अभाव एवं राजनैतिक उथल-पुथल समस्त देश में होती हैं। जापान में चावल की कमी हो जाती हैं रूस और अमेरिका में खाद्यान्न की प्रचुरता रहने पर भी अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं उत्तराफाल्गुनी कृत्तिका उत्तराभाद्रपद और भरणी नक्षत्र में बुध का उदय हो या बुध विचरण कर रहा हो तो प्राणियों को अनेक प्रकार की सुख-सुविधाओं की प्राप्ति के साथ धान्य भाव सस्ता उचित परिमाण में वर्षा सुभिक्ष व्यापारियों को लाभ चोरों का अधिक उपद्रव एवं विदेशों के साथ सहानुभूति-पूर्ण, सम्पर्क स्थापित होता हैं पंजाब, दिल्ली और राजस्थान राज्यों की सरकारों में परिवर्तन भी उक्त बुध की स्थिति में होता हैं घी, गुड़, सुवर्ण, चाँदी तथा अन्य खनिज पदार्थों का मूल्य बढ़ जाता हैं उत्तराभाद्रपद नक्षत्रमें बुध का विचरण करना देश के सभी वर्गों और हिस्सों के लिये सुभिक्ष प्रद होता हैं द्विजों को अनेक प्रकार के लाभ और सम्मान प्राप्त होते हैं निम्न श्रेणी के व्यक्तियों को भी अधिकार मिलते हैं तथा सभी जनता सुख-शान्ति के साथ निवास करती हैं यदि बुध अश्विनी शतभिषा मूल और रेवती नक्षत्र का भेदन करे तो जल-जन्तु जल से आजीविका करने वाले वैद्य-डॉक्टर एवं जल से उत्पन्न पदार्थों Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४९ अष्टादशोऽध्यायः में नाना प्रकार के उपद्रव होते हैं। पूर्वाषाढ़ा और पूर्वाभाद्रपद इन तीनों नक्षत्रों में से किसी एक में शुक्र विचरण करे तो संसार को अन्न की कमी होती हैं रोग तस्कर, शस्त्र, अग्नि आदि का भय और आतंक व्याप्त रहता है विज्ञान नये-नये पदार्थों की शोध और खोज करता हैं। जिससे अनेक प्रकार की नई बातों पर प्रकाश पड़ता हैं। पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में बुध का उदय होने से अनेक राष्ट्रों में संघर्ष होता हैं तथा वैमनस्य उत्पन्न हो जाने से अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति परिवर्तित हो जाती हैं। उक्त नक्षत्र में बुध का उदय और विचरण करना दोनों ही राजस्थान, मध्य भारत और सौराष्ट्र के लिये हानिकारक है इन प्रदेशों में वृष्टि का अवरोध होता हैं भाद्रपद और अश्विन मास में साधारण वर्षा होती हैं, कार्तिक मासके आरम्भ में गुजरात और बम्बई प्रदेश में वर्षा अच्छी होती हैं, राजस्थान के मन्त्रीमण्डल में परिवर्तन भी उक्त गृह स्थिति के कारण होता हैं। पराशर के मतानुसार बुध का फलादेश-पराशर ने बुध की सात प्रकार की गतियाँ बतलाई हैं—प्राकत, विमिश्र, संक्षिप्त, तीक्ष्ण, योगान्त, घोर और पाप। स्वाति, भरणी, रोहिणी और कृत्तिका नक्षत्रमें बुध स्थिति हो तो इस गति को प्राकृत कहते हैं बुध की यह गति ४० दिन तक रहती हैं इसमें आरोग्य वृष्टि धान्य की वृद्धि और मंगल होता है प्राकृत गति भारत के पूर्व प्रदेशों के लिये उत्तम होती हैं इस गति में गमन करने पर बुध बुद्धिजीवियों के लिये उत्तम होता हैं कला कौशल की भी वृद्धि होती हैं, देश में नवीन कल-कारखाने स्थापित किये जाते हैं अनाज अच्छा उत्पन्न होता हैं और वर्षा भी अच्छी होती हैं। कलिंग, उड़ीसा, विदेह-मिथिला, काशी, विदर्भ देश के निवासियों को सभी प्रकारके लाभ होते हैं मरुभूमि राजस्थान में सुभिक्ष रहता हैं वर्षा भी अच्छी रहती हैं, फसल उत्तम होने के साथ मवेशी को कष्ट होता हैं मथुरा और सूरसेन देशवासियों का आर्थिक विकास होताहें व्यापारी वर्ग को साधारण लाभ होता हैं। सोना चाँदी के सट्टे में हानि उठानी पड़ती हैं, . जूट का भाव बहुत ऊँचा चढ़ जाता हैं। जिससे व्यापारियों को हानि होती हैं। मृगशिरा, आर्द्रा, मघा और आश्लेषा नक्षत्र में बुध के विचरण करने को मिश्रा गति कहते हैं यह गति ३० दिनों तक रहती हैं इस गति का फल मध्यम हैं देश के सभी राज्यों और प्रदेशों में सामान्य वर्षा उत्तम फसल रस पदार्थों की Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता कमी धातुओं के मूल्य में वृद्धि एवं उच्च वर्ग के व्यक्तियों को सभी प्रकार से सुख प्राप्त होता है। बुध की लि. गति मध्यप्रदेश और मध्य भारत के निवासियों के लिए अधिक शुभ होती हैं उक्त राज्यों में उत्तम वृष्टि होती हैं और फसल भी अच्छी होती हैं। पुष्य, पुनर्वसु, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में संक्षिप्त गति होती हैं। यह गति २२ दिनों तक रहती हैं इस गति का फल भी मध्यम ही हैं पर विशेषता यह है कि इस गति के होने पर घी, तेल, पदार्थों का भाव महँगा होता हैं देश के दक्षिण भाग के निवासियों को साधारण कष्ट होता हैं। दक्षिण में अन्न की फसल अच्छी होती हैं। उत्तर में गुड़, चीनी और अन्य मधुर पदार्थों की उत्पत्ति अच्छी होती हैं। कोयला, लोहा, अभ्रक, ताँबा, शीशा भूमि से अधिक निकलता हैं। देश का अर्थिक विकास होता हैं। जिस दिन से बुध उक्त गति में आरम्भ करता है उसी दिन से लेकर जिस दिन तक यह गति समाप्त होती हैं। उस दिन तक देश में सुभिक्ष रहता हैं। देश के सभी राज्यों में अन्न और वस्त्र की कमी नहीं होती आसाम में बाढ़ आने से फसल नष्ट होती हैं बिहार के वे प्रदेश भी कष्ट उठाते हैं जो नदियों के तटवर्ती हैं उत्तरप्रदेश में सब तरह से शान्ति व्याप्त रहती हैं पूर्वाभाद्रपद उत्तराभाद्रपद ज्येष्ठा, आश्विनी और रेवती नक्षत्र में बुध की गति तीक्ष्ण कहलाती हैं। यह गति अठारह दिन की होती हैं इस गति के होने से वर्षा का अभाव दुष्काल महामारी अग्निप्रकोप और शस्त्रप्रकोप होता हैं मूल पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा नक्षत्रमें बुध के विचरण करने से बुध की योगान्तिका गति कहलाती हैं। यह गति ९ दिन तक रहती हैं इस गति का फल अत्यन्त अनिष्टकर हैं देश में रोग, शोक, झगड़े आदि के साथ वर्षा का भी अभाव रहता हैं श्रावण और ज्येष्ठ मास में साधारण वर्षा होती हैं, इसके पश्चात् अन्य महीनों में वर्षा नहीं होती है जब तक बुध इस गति में रहता है। तब तक अधिक लोगों की मृत्यु होती हैं आकस्मिक दुर्घटनाएँ अधिक घटित होती हैं। श्रवण, चित्रा, धनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्रमें शुक्र के रहने से उसकी घोर गति कहलाती हैं, यह गति १५ दिन तक रहती हैं। जब बुध इस गति में गमन करता है, उस समय देश में अत्याचार, अनीति, चोरी आदि का व्यापकरूप से प्रचार होता हैं, उत्तरप्रदेश, पंजाब, बंगाल और दिल्ली राज्य के लिये यह गति अत्यधिक अनिष्ट करने वाली हैं। Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५१ अष्टादशोऽध्यायः बुध के इस गति में विचरण करने से आर्थिक क्षति किसी बड़े नेता की मृत्यु देश में अर्थसंकट अन्नाभाव आदि फल घटित होते हैं। हस्त, अनुराधा या ज्येष्ठा नक्षत्र में बुध के विचरण करने से पापागति होती हैं इस गति के दिनों की संख्या ११ है इस गति में बुध के रहनेसेअनेक प्रकार की हानियाँ उठानी पड़ती हैं देश में राजनैतिक उलट-फेर होते हैं बिहार, आसाम और मध्यप्रदेश के मन्त्री मण्डल में परिवर्तन होता हैं। देवल के मत से फलादेश—देवल ने बुध की चार गतियाँ बतलाई हैं ज्वी,वक्रा,अतिवक्रा विकला ये गतियों क्रमश: ३०, २४, १२ और ६ दिन तक रहती हैं। ऋज्वी गति प्रजा के लिये हितकारी वक्रा में शस्त्रभय अतिवक्रा में धनका नाश और विकला में भय तथा रोग होते हैं, पौष, आषाढ़, श्रावण, वैशाख और माघ में बुध दिखलाई दे तो संसार को भय अनेक प्रकार के उत्पात एवं धन-जन की हानि होती है यदि उक्त मासों में बुध अस्त हो तो शुभ, होता है। अश्विन या कार्तिक मासमें बुध दिखलाई दे तो शस्त्र, रोग, अग्नि, जल और क्षुधा का भय होता हैं। पश्चिम दिशा में बुध का उदय अधिक शुभ फल करता हैं। तथा सभी देश को शुभकारक होता हैं स्वर्ग, हरित या सस्यकर्माणि के समान रंग वाला बुध निर्मल और स्वच्छ होकर उदित होता हैं, तो सभी राज्यों और देशों के लिए मंगल करने वाला होता हैं। ___ इति श्रीपंचम श्रुत केवली दिगम्बराचार्य भद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिता का बुध संचार का वर्णन करने वाला अठारहवाँ अध्याय का हिन्दी भाषानुवाद करने वाली क्षेमोदय टीका समाप्त । (इति अष्टादशोऽध्यायः समाप्तः) Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनविंशतितमोऽध्यायः मंगल संचार का वर्णन चारं प्रवास वर्ण च दिप्तिं काष्ठाङ्गतिं फलम्। वक्रानुवक्रनामानि लोहितस्य निबोधत्॥१॥ (लोहितस्य) मंगल का (चार) चार (प्रवास) प्रवास (वर्ण) रंग, (दीप्ति) दीप्ति (काष्ठाति) काष्ठ, गति (फलम्) फल (वक्रानुवक्रनामानि) वक्र, अनुवक्रादि का फल (निबोधत्) अच्छी तरह से कहा जाता है। भावार्थ-अब मंगल का चार, प्रवास, वर्ण, प्रकाश, काष्ठ, गति फल, वक्र अनुवक्रादिक का फल अच्छी तरह से इस अध्याय में कहा जाता है॥१॥ चारेण विंशति मासानष्टौ वक्रेण लोहितः। चतुरस्तु प्रवासेन समाचारेण गच्छति ॥२॥ (लोहितः) मंगल का (चारण) चार (विंशति) बीस (मासान्) महीने (अष्टौ वक्रेण) वक्र आठ महीने और (प्रवासेन चत्वारस्तु) प्रवास चार महीने का (समानोरेण गच्छति) चार रूप होता है। भावार्थ-मंगल का चार, बीस महीने तक वक्र आठ महीने और प्रवास चार महीने तक होता है ऐसा समझो॥२॥ __ अनृजुः परुषः श्यामो ज्वलितो धूमवान् शिखी। विवर्णो वामगो व्यस्त: कुद्धो शेयस्तदाऽशुभः ॥३॥ (शिखी) मंगल (अनृजुः) टेढ़ा हो (परुष:) कठोर हो (श्यामो) काला हो (ज्वलितो धूमवान्) जलता हुआ हो, धुएं से सहित हो (विवर्णो) विवर्ण हो (वामगो व्यस्त:) वाम मार्गी हो (कृद्धो) क्रुध हो तो (तदा) तब (अशुभ:ज्ञेयः) अशुभ जानना चाहिये। भावार्थ-मंगल वक्र हो, कठोर हो, काला हो, जलता हुआ हो, धूऐं वाला हो, विवर्ण हो, वाममार्गी हो, क्रुध हो तो अशुभ होगा, ऐसा जानो।।३।। Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- -- ----- एकोनविंशतितमोऽध्यायः यदाऽष्टौ सप्त मासान् वा दीप्त: पुष्टः प्रजापतिः। तदा सृजति कल्याणं शस्त्र मूच्छौं तु निर्दिशेत् ॥ ४॥ (यदा) जब (प्रजापति) मंगल (अष्ठौ सप्त मासान्) आठ व सात महीने तक (दीप्तः) प्रकाशमान होकर (पुष्ट:) पुष्ट हो तो (तदा) तब (कल्याण) कल्याण का सृजन करता है (शस्त्रमूच्छी तु निर्दिशेत्) तो शस्त्र मूर्छा को उत्पन्न करता है। भावार्थ-जब मंगल आठ व सात महीने तक प्रकाशमान हो, पुष्ट हो तो कल्याण को करता है, और शस्त्र मूर्छा को उत्पन्न करता है ।। ४।।। मन्ददीप्तश्च दृश्येत यदा भौमो चलेत्तदा। तदा नानाविधं दुःखं प्रजानामहितं सृजेत्॥५॥ (यदा) जब (भौमो) मंगल (मन्ददीप्तश्च) मन्दी दीप्तिवाला (चलेत्तदा) गमन करता हुआ दिखाई पड़े तो (तदा) तब (प्रजानाम्) प्रजाओं के लिये (नानाविधं दु:खं) नाना प्रकार के दुःखों का व (अहितं सृजेत्) अहित का सृजन करता है। भावार्थ-जब मंगल मन्द प्रकाशमान चलता हुआ दिखाई पड़े तो प्रजाओं के लिये नाना प्रकार के दुःखों की और अहित की उत्पत्ति करता है।।५।। ताम्रो दक्षिण काष्ठास्थः प्रशस्तो दस्युनाशनः । ताम्रो यदोत्तरे काष्ठे तस्य दस्युतदा हितम्॥६॥ यदि (ताम्रोदक्षिण काष्ठस्थः) मंगल ताम्रवर्ण का दक्षिण में हो तो (प्रशस्तो) प्रशस्त है (दस्युनाशनः) चोरों का नाश करता है। यदि (ताम्रोयदोत्तरे काष्ठे) मंगल ताम्र वर्ण का उत्तर में होतो (तस्य दस्यु तदाहितम्) वह चोरों का हित करने वाला है। भावार्थ-यदि मंगल ताम्रवर्ण का हो तो वह प्रशस्त है, क्योंकि चोरों का नाश करता है, और उसी प्रकार मंगल ताम्रवर्ण का उत्तर में हो तो वह चोरों का हित करने वाला है, याने चोरों का जोर ज्यादा बढ़ जाता है।।६।। रोहिणी स्यात् परिक्रम्य लोहितो दक्षिणं व्रजेत्। सुरासुराणां जानानां सर्वेषामभयं वदेत्॥७॥ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ५५४ यदि (रोहिणी परिक्रम्य) रोहिणी नक्षत्र को परिक्रमा देते हुए (लोहितो) मंगल (दक्षिणं व्रजेत्) दक्षिण में गमन करे तो (सुरा सुराणां जानानां) सुर-असुर और मनुष्यों को (सर्वेषामभयं वदेत) सबको अभय देता है। भावार्थ-यदि रोहिणी नक्षत्र को प्रदक्षिणा देता हुआ मंगल दक्षिण में चला जाय तो सुरासुर और मनुष्य सबको ही अभय देता है।।७।। क्षत्रियाणां विषादश्च दस्यूनां शस्त्रविभ्रमः। गावोगोष्ठ समुद्राश्च विनश्यन्ति विचेतसः॥८॥ उसी प्रकार रोहिणी नक्षत्र पर मंगल कुचेष्टा करता हुआ दिखे तो (क्षत्रियाणां विषादश्च) क्षत्रियों के लिये विषाद का कारण (दस्यूनां शस्त्रविभ्रमः) चोरों के लिये शस्त्र विभ्रम और (गावोगोष्ठ समुद्राश्च) गाँव, गोष्ठ, समुद्र (विनश्यन्ति विचेतसः) सब नाश हो जाते हैं। भावार्थ- यदि रोहिणी नक्षत्र पर मंगल कचेष्टा करता हुआ दिखाई पड़े तो क्षत्रियों के लिये विषाद का कारण चोरों के लिये शस्त्र विभ्रम का कारण, गाँव, गोष्ठ और समुद्र के लिये नाश का कारण होता है।॥ ८॥ स्पृशेल्लिखेत् प्रमद् वा रोहिणीं यदि लोहितः। तिष्ठते दक्षिणो वाऽपि तदा शोक भयङ्करः ॥९॥ (यदि) यदि (लोहितः) मंगल (रोहिणी वा स्पृशेल्लिखेत् प्रमर्देद) रोहिणी नक्षत्र का स्पर्श करे व भेदन करे, प्रमर्दित करे (वाऽपि) और भी (दक्षिणोतिष्ठते) दक्षिण में ठहरे तो (तदा) तब (शोक भयङ्करः) भयंकर शोक होता है। भावार्थयदि मंगल रोहिणी नक्षत्र का स्पर्श करे व भेदन करे प्रमर्दित करे और दक्षिण में ठहरे तो तब भयंकर शोक होता है।॥९॥ सर्व द्वाराणिदृष्ट्वाऽसौ विलम्बं यदि गच्छति। सर्वलोकहितो ज्ञेयो दक्षिणोऽसृग् लोहितः॥१० ।। (लोहितः) मंगल (यदि) यदि (सर्व द्वाराणिदृष्ट्वाऽसौ) सभी द्वारों को देखता हुआ (विलम्ब) विलम्ब से (दक्षिणोऽसृग् गच्छति) दक्षिण जाता है तो (सर्वलोक हितोज्ञेयो) सर्व लोक का हित जानना चाहिये। Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनविंशतितमोऽध्यायः भावार्थ-मंगल यदि सभी द्वारों को देखता हुआ विलम्ब से दक्षिण में जाता है तो सभी लोक का हित करता है॥१०॥ पञ्चवक्राणि भौमस्य तानि भेदेन द्वादश। उणं शोषमुर्ण व्यावं लोहिय लोएमुद्गरम् ।। ११॥ (भौमस्य) मंगल के (पञ्चवक्राणि) पाँच वक्र होते हैं (तानि भेदेन द्वादश) और उसके बारह भेद भी होते हैं (उष्णं) उष्ण (शोषमुखं) शोषमुख (व्यालं) व्याल (लोहित) लोहित (लोहमुद्गरम्) और लोह मुद्गर ये पाँच मुख्य है। भावार्थ-मंगल के पाँच वक्र होते हैं, उनमें बारह भेद भी होते हैं, उष्ण, शोषमुख, व्याल, लोहित और लोह मुद्गर ये पाँच मुख्य हैं॥११॥ उदयात् सप्तमें ऋक्षे नवमे वाऽष्टमेऽपि वा। यदा भौमो निवर्तेत तदुष्णं वक्रमुच्यते ॥१२॥ (यदा भौमो) जब मंगल (उदयात् सप्तमे ऋक्षे) उदय के सात नक्षत्र पर (नवमे वाऽष्टमेऽपि वा) व आठवें या नवमें पर हुआ हो और (यदाभौमोनिवर्तेत) जब वह निवर्तित हो तो (तदुष्णं वक्र मुच्यते) उसको उष्ण चक्र कहते है। भावार्थ-जब मंगल उदय के सातवें या आठवें या नवें नक्षत्र पर वह निवर्तित हो तो उसको ही उष्ण वक्र कहते हैं ।। १२॥ सुवृष्टिः प्रबला ज्ञेया विष क्रीटाग्नि मूछनम्। ज्वरोजन क्षयोवाऽपितज्जातां ना विनाशनम्॥१३॥ __ इस प्रकार के उष्ण वक्र में (सुवृष्टिः प्रबला ज्ञेया) प्रबल सुवृष्टि होगी ऐसा जानो, (विष क्रीटाग्नि मूर्च्छनम्) विष, कीड़े, अग्नि, मूर्छा (ज्वरोजनक्षयो वाऽपि) ज्वर, जनक्षय और भी (तज्जातां ना विनाशनम्) उसी प्रकार के रोगादि और विनाश होता है। भावार्थ-उष्ण वक्र में सुवृष्टि अच्छी होती है विष भय, अग्नि भय, कीड़ों का भय, मूर्छा रोग, ज्वर, जनक्षय आदि उसी प्रकार का जन विनाश होता है॥१३॥ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता एकादशे प भौमो द्वादशे दशमेऽपि वा। तच्छोष मुखमुच्यते ॥ १४ ॥ निवर्तेत तदा वक्रं ( यदा) जब ( भौमो ) मंगल ( एकादशे दशमेऽपि वा द्वादशे ) दसवें, ग्यारहवें व बारहवें नक्षत्र में (निवर्तेत) लौटता है (तदा) तब (वक्रे) उस वक्र को ( तच्छोषमुख मुच्यते) शोष मुख वक्र कहते हैं। भावार्थ — जब मंगल दसवें या ग्यारहवें व बारहवें नक्षत्रमें लौटता है तो उस वक्र को शोष मुख वक्र कहते हैं ।। १४ । अपोऽन्तरिक्षात् पतितं दूषयति तदा रसान् । ते सृजन्ति रसान् दुष्टान् नानाव्यार्थीस्तु भूतजान् ॥ १५ ॥ इस प्रकार के शोष मुख वक्र में ( अपोऽन्तरिक्षात् पतितं) आकाश से पानी की वर्षा होती है, ( दूषयति तदा रसान् ) तब सारे रस दूषित हो जाते हैं (ते सृजति रसान् दुष्टान् ) वो दुष्ट रसों को उत्पन्न करता है ( नानाव्याधींस्तु भूतजानू ) सब जीवों को नाना प्रकार की व्याधियाँ उत्पन्न होती है। भावार्थ - इस प्रकार के शोष मुख वक्र में आकाश से बहुत वर्षा गिरने से सब रस दूषित हो जाते है अनेक दूषित रस उत्पन्न हो जाते हैं सब जीवों को नाना प्रकार की व्याधियाँ प्रकट हो जाती है ॥ १५॥ शुष्यन्ति वै तडागानि सरांसि बीजं न रोहते तत्र जलमध्येऽपि ५५६ सरितस्तथा । वापितम् ॥ १६ ॥ ( तडागानि सरांसि वै ) तालाब, सरोवर (सरितस्तथा) नदियाँ सब (शुष्यन्ति ) सूख जाते हैं ( तत्र ) इसलिये वहाँ पर ( बीजनं रोहते) बीजों का वपन नहीं करना चाहिये क्योंकि ( जलमध्येऽपि वापितम् ) जल में भी वपन करने से पैदा नहीं होते हैं । भावार्थ — और भी तालाब, सरोवर, नदियाँ सब सूख जाती है, इस प्रकार की स्थिति में जलमें भी बीज न डाले क्योंकि यह वक्र बीजों को नहीं होने देता ॥ १६ ॥ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! ↓ ५५७ एकोनविंशतितमोऽध्यायः त्रयोदशेऽपि नक्षत्रे यदि वाऽपि चतुर्दशे । aa मदा श्रीमस्तद् वक्रं व्यालमुच्यते ॥ १७ ॥ पतङ्गाः सविषाः कीटाः सर्पा जायन्ति तामसाः । फलं न वध्यते पुष्पे वीजमुप्तं न रोहति ॥ १८ ॥ (यदि) जब (भौमः ) मंगल (त्रयोदशेऽपि ) तेरहवें व (वाऽपि चतुर्दशे) चौदहवें ( नक्षत्रे ) नक्षत्र में (निवर्तेत ) छूटता है तो (तदा) तब (तद्वक्रं ) उस वक्रको ( व्यालमुच्यते) व्याल कहते हैं। ( पता : सविषाः कीटाः ) व्याल वक्र में पतना, विषैले जन्तु कीड़े ( सर्पा जायन्ति तामसाः) तामस सर्पों की उत्पत्ति होती है ( फलं न बध्यते पुष्पे ) पुष्पों पर फल नहीं लगते (बीजमुप्तं न रोहति) और बीज जमीन में अंकुरित नहीं होते । भावार्थ — जब मंगल तेरहवें व चौदहवें नक्षत्र पर आकर छूट जाता है, तब उस वक्र को व्याल वक्र कहते है। ऐसे वक्र में पतन, विषैले जन्तु कीड़े, तामसी सर्पों की उत्पत्ति होगी, फल, पुष्प पर नहीं लगते और पृथ्वी में बीज बोने पर भी अंकुरित नहीं होते है ॥ १७-१८ ॥ वा यदा पञ्चदशे ऋक्षे षोडशे निवर्तते । लोहितो लोहितं वक्रं कुरुते गुणजं देश स्नेहाम्भसां लोपो राज्यभेदश्च सङ्ग्रामाचात्र वर्तन्ते मांस शोणित ( यदा) जब ( लोहितं) मंगल ( पञ्चदशे ऋक्षे षोडशे वा) पन्द्रहवें या सोलहवें नक्षत्र पर से ( निवर्तते ) निवृत होता है तो ( तदा) तब उस वक्र को ( लोहितो ) लोहित (वक्रं ) वक्र कहते हैं (गुणजंकुरुते ) गुण उत्पन्न करता है। लोहित वक्रं में ( देशस्नेहाम्भसां लोपं ) देश स्नेह, जल का लोप ( राज्यभेदश्च जायते) राज्य भेद और (मांस शोणितकर्दमाः) मांस रक्त का कीचड़ करने वाला (सङ्ग्रामाञ्चात्र वर्तन्ते) वहाँ पर युद्ध होता है। भावार्थ- -जब मंगल पन्द्रहवें या सोलहवें नक्षत्र से छूटता है, तो उसको लोहित वक्र कहते हैं, और ऐसा वक्र देश स्नेह करता है, जल का लोप करता तदा ॥ १९ ॥ जायते । कर्दमाः ॥ २० ॥ Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता है। राज्यभेद हो जाता है। और वहाँ पर मांस रक्त का कीचड़ करने वाला युद्ध होता है॥१९-२०॥ यदा सप्तदशे ऋक्षे पुनरष्टादशेऽपि वा। प्रजापति निवर्तेत तद् वर्क लोहमुद्गरम्॥२१॥ निर्दया निरनुक्रोशा लोहमुद्गर सन्निभाः। प्रणयन्ति नृपा दण्डं क्षीयन्ते येन तत्प्रजाः ॥२२॥ जब (प्रजापति) मंगल (सप्तदशे) सतरहवें (पुनरष्टादशेऽपि वा) या अठारहवें (ऋक्षे) नक्षत्र पर (निवर्तेत) छुटता है तो (तद् वक्र लोहमुद्गरम्) उस वक्र को लोह मुद्गर वक्र कहते हैं। ऐसे (लोहमुद्गर सन्निभा:) लोहमुद्गर वक्र में (निर्दया निरनु क्रोशा) जीवों की प्रवृत्ति निर्दय हो जाती है, जीव क्रोधी बन जाते हैं (नृपा दण्डं प्रणयान्ति) राजा का दण्ड प्रणयन करता है (येन) इस कारण से (तत्प्रजा; क्षीयन्ते) उसकी प्रजा क्षीण होती है। भावार्थ-जब मंगल सतरहवें या अठारहवें नक्षत्र पर छट जाता है, तो उस वक्र को लोहमुद्गर वक्र कहते है, ऐसे वक्र में जीवों की प्रवृत्ति निर्दय हो जाती है जीव क्रोधी बन जाते हैं राजा दण्डों को लागू करता है। इस कारण प्रजा क्षीण हो जाती है।। २१-२२॥ धर्मार्थ कामा हीयन्ते विलीयन्ते च दस्यवः। तोय धान्यानि शुष्यन्ति रोगमारी बलीयसी॥२३॥ उपर्युक्त वक्र में (धर्मार्थकामा हीयन्ते) धर्म, अर्थ, काम क्षीण होते है (विलीयन्ते च दस्यवः) चोरादिक विलीन हो जाते हैं (तोय धान्यानि शुष्यन्ते) पानी धान्य सब सूख जाते हैं (रोग मारी बलीयसी) रोग मारी बलवान हो जाते हैं। भावार्थ-उपर्युक्त वक्र में धर्म, अर्थ, काम नष्ट हो जाता है, चोरादिक विलीन होते हैं पानी और धान्य सब सूख जाते हैं॥२३॥ वक्रं कृत्वा यदा भौमो विलम्बन गति प्रति। वक्रानु वक्रयो र मरणाय समीहते ॥ २४॥ Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनविंशतितमोऽध्यायः (यदा) जब (भौमो) मंगल (वक्रं कृत्वा) टेढ़ा होकर (विलम्बेनगतिप्रति) विलम्ब से करता है तो (वक्रानु वक्रयो) उसको वक्रनु वक्र कहते हैं (ोर मरणाय समीहते) यह वक्र घोर मरण उपस्थित करता है। भावार्थ-जब मंगल टेढ़ा होकर विलम्ब से गमन करता है, वक्र को वक्रानुवक्र कहते हैं। ऐसे वक्र में घोर मरण होता है॥ २४ ॥ कृत्तिकादीनि सप्तेह वक्रेणाङ्गारकश्चरत् । हररः या दक्षिारिन्ठेद सा लक्ष्यामि यत् फलम्॥२५॥ (अङ्गारक) यदि मंगल (कृत्तिकादीनि) कृत्तिका दिन क्षेत्रों पर (वक्रेण) वक्र रूप (चारेत्) गमन करे (हत्वा) घात करे व (वा दक्षिणस्तिष्ठेत्) दक्षिण में ठहरे तो (तत्र) उसके (यत फलम् वक्ष्यामि) यहाँ पर फल को कहता हूँ। भावार्थ-यदि मंगल कृत्तिकादि सात नक्षत्रों पर गमन करे व घात करे व दक्षिण में ठहरे तो उसका फल यहाँ पर कहता हूँ। २५ ।। साल्वांश्च सार दण्डौ श्च विप्रान् क्षत्रांश्च पीडयेत् ।। मेखलाश्चानयो? मरणाय समीहते॥२६॥ उक्त प्रकार का मंगल (साल्वांश्च) साल्वदेश (सारदण्डश्च) सार दण्ड (विप्रान्) विनों को (क्षत्रांश्च) क्षत्रियों को (पीडयेत्) पीड़ा देता है (मेखलाश्चानयो गुँर) और वैश्यों को घोर (मरणाय समीहते) मरण देता है। भावार्थ-उक्त प्रकार का मंगल साल्वदेश, सार देश और ब्राह्मण, क्षत्रियों, वैश्यों को घोर पीड़ा व मरण भय उपस्थित करता है॥२६॥ मघादिनि च सप्तैव यदा वक्रेण लोहितः। चरेद् विवर्णस्तिष्ठेत् वा तदा विन्द्यान्महद्भयम् ॥ २७॥ (यदा लोहितः) जब मंगल (चक्रेण) वक्र होकर (मघादिनि च सप्तैव) मघादि सात नक्षत्रों पर (विवर्णस्तिष्ठेत् वा चरेत्) विवर्ण होकर चले व ठहरे तो (तदा) तब (महद्भयम् विन्द्याद) महान भय उपस्थित होगा। भावार्थ-जब मंगल वक्र होकर मघादि सात नक्षत्रों पर विवर्ण होकर ठहरे और चले तो महा भय उपस्थित होगा।॥२७॥ Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भदाहु संहिता | ५६० सौराष्ट्र सिन्धु सौवीरान् प्रासीलान् द्राविडाङ्गनाम्। पाञ्चालान् सौरसेनान् वा वाहीकान् नकुलान् वधेत्॥२८॥ मेखलान् वाऽप्य वन्त्यांश्च पार्वतांश्च नृपैःसह। जिघां सति तदा भौमो ब्रह्म क्षत्रं विरोधयेत्॥२९॥ उक्त प्रकार (भौमो) मंगल (सौराष्ट्र सिन्धु सौवीरान्) सौराष्ट्र देश, सिन्धु देश, सौवीर देश, (प्रासीलान् द्राविडङ्गनाम्) प्रसिल देश, द्रविड देश (पश्चिालान्) पांचाल देश (सौरसेनान) सौरसेन देश (वा वाहीकान्) वाहीक देश व (नकुलान् वधेत्) नकुलों का वध करता है। (मेखलान्) मेखला प्रदेश (वाऽप्यवन्त्यांश्चपार्वतांश्च नृपैःसह) व अवन्ती देश, पार्वती देश के राजाओं का (जिघां सति) विनाश होता है (तदा) तब (ब्रह्मक्षत्र विरोधयेत) ब्राह्मण, क्षत्रियों में भी विरोध होता है। ___ भावार्थ उक्त प्रकार मंगल सौराष्ट्र देश, सिन्धु, सौवीर, प्रसिल देश द्राविड, अङ्ग पांचाल, सौरसेन, वाह्रींक, नकुल, मेखला, अवन्ति, पार्वतीय स्थान के राजाओं सहित सबका नाश करता है या सबको पीडा देता है।। २८-२९ ।। मैत्रादीनि च सप्तव यदा सेवेत लोहितः। वक्रेण पापगत्या वा महता मनयं वदेत्॥३०॥ (यदा) जब (लोहितः) मंगल (मैत्रादीनि च सप्तैव सेवेत) अनुराधा आदि सात नक्षत्रों की सेवा करता है और (वक्रेण पापगत्वा) वक्र हो पाप रूप गमन हो (व महता मनयं वदेत्) तो बहुत ही अन्याय होता है, ऐसा कहना चाहिये। भावार्थ-जब मंगल अनुराधादि सात नक्षत्रों की वक्र रूप या पाप रूप सेवा करता है, तो महान् अन्याय होता है॥३०॥ राजानश्च विरुध्यन्ते चातुर्दिश्यो विलुप्तये। कुरु पाञ्चालदेशानां मूर्च्छते तद् भयानि च॥३१॥ उक्त प्रकार के वक्र मंगल में (राजानश्च विरुध्यन्ते) राजा का विरोध होता है (चातुर्दिश्योविलुप्तये) चारों वर्गों का लोप होता है (कुरु पाञ्चाल देशानां) कुरु व पांचाल देशों के लोग (मूर्च्छते तद् भयानि च) मूर्छा को प्राप्त होते हैं या वहाँ भय होता है। Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनविंशतितमोऽध्याय: भावार्थ- उक्त प्रकार के मंगल में राजा का विरोध चारों वर्गों का लोप, कुरु व पांचाल देशों के लोगों को मूर्छा होती है व भय उत्पन्न होता है॥३१॥ थनिष्ठादीनि सप्तैव यदा वक्रेण लोहितः। सवंत कुजुगत्या था तदाऽपि स जुगुप्सितः ॥३२।। (यदा लोहितः) जब मंगल (वक्रेण) वक्र गति से (धनिष्ठादीनि सप्तेव) धनिष्ठादि सात नक्षत्रों को (कुजुगत्या सेवेत) ऋजु गति से गमन करे व सेवा करे (तदाऽपि स जुगुप्सितः) तब भी वह जुगुप्सित निन्दित है। भावार्थ-जब मंगल वक्र गति से धनिष्टादि सा नक्षत्रों को ऋजु गति से गमन करे तो तब भी वह निन्दित होता है॥३२॥ धनिनो जल विप्रांश्च तथा चैव हयान् गजान्। उदीच्यान् नाविकांश्चापि पीडयेलोहितस्तदा ।। ३३॥ (धनिनो जल विप्रांश्च) धनिक, जल-जन्तु (तथा चैव हयान् गजान्) और हाथी-घोड़े (उदीच्यान् नाविकांश्चापि) उत्तर के निवासी, नाविकों को (पीडये लोहितस्तदा) पीडा देते है। भावार्थ--धनिक जल-जन्तु हाथी-घोड़े उत्तर के निवासी और नाविक लोग पीड़ा को प्राप्त होते हैं।॥३३॥ भौमो वक्रेण युद्धे वामवीर्थी चरते हितः। तेषां भयं विजानीयात् येषां ते प्रतिपुद्गलाः॥ ३४॥ जब (भौमो) मंगल (वक्रेण) वक्रता से (युद्धेवाम वीथीं चरतेहितः) वामवीथि में युद्ध करे तो (तेषां भयं विजानीयात्) उनको भय उत्पन्न होता है (येषां ते प्रतिपुद्गलाः) जिनके प्रति ऐसे पुद्गल होते हैं। भावार्थ-जब मंगल वक्र होकर वामवीधि में युद्ध करे तो सबको भय होता है जिनके प्रति ऐसे पुदगल होते हैं।। ३४ ॥ क्रूरः क्रुद्धश्च ब्रह्मघ्नो यदि तिष्ठेद् ग्रहैः सह। पर चक्रागमं विन्द्यात् तासु नक्षत्र वीथिषु ॥ ३५॥ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता । ५६२ धान्यं तदा न विक्रेयं संश्रयेच्च बलीयसम्।। चिनुयात्तुषधान्यानि दुर्गाणि च समाश्रयेत्॥३६॥ उपर्युक्त स्थिति में (क्रूरः क्रुद्धश्च ब्रह्मघ्नो) क्रूर, क्रुध, ब्रह्मघाती और (यदि तिष्ठेद् ग्रहे: सह) यदि अन्य ग्रहों के साथ (तासु नक्षत्र वीथीषु) उन नक्षत्रों की वीथियों में हो तो (पर चक्रागमविन्द्यात्) परचक्र का आगमन होगा ऐसा समझो (तदा) तब (धान्यं न विक्रेय) धान्यों को ही बेचना चाहिये, (संश्रयेच्च वलीयसम्) बलवानों का सहारा लेवे (चिनुयात्तुषधान्यानि) धान्य और भूसा का संग्रह करे (दुर्गाणि च समाश्रयेत्) और मजबूत किले का सहारा लेवे।। भावार्थ-उपर्युक्त स्थिति में क्रूर, कृध, ब्रह्मघाती अन्य ग्रहों के साथ उन नक्षत्रों की वीथि में गमन करे तो समझो परचक्र का आगमन होता है, ऐसी स्थिति में धान्यों को नहीं बेचे, बलवानों का सहारा लेवे, धान्यो व भूषों का संग्रह करे और कोई सुरक्षित दुर्ग का सहारा लेवे ॥ ३५-३६ ।। उत्तराफाल्गुनीं भौमो यदा लिखति वामतः। यदि वा दक्षिणं गच्छेत् धान्यस्या? महा भवेत्॥ ३७॥ (यदा) जब (भौमो) मंगल (वामत:) वाम भाग से (उत्तराफाल्गुनीं लिखति) दक्षिण में जावे तो (धान्यस्या? महाभवेत्) धान्य बहुत महँगा होता है। भावार्थ-जब मंगल उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में वाम भाग से स्पर्श करता हुआ गमन करता है, अथवा दक्षिण की ओर गमन करे तो समझो धान्यों का व अनाजों का संग्रह करे ।। ३७॥ यदाऽनुराधां प्रविशेन्मध्ये न च लिखेत्तथा। मध्यमं तं विजानीयात् तदा भौमविपर्यये॥३८॥ (यदाऽनुराधा भौम) जब मंगल अनुराधा नक्षत्रमें (प्रविशेन्मध्येन न च लिखेत्तथा) प्रवेश न करता हुआ मध्य में होते है, (विपर्यये) विपर्यः हो (तं) उसकों (मध्यमं विजानीयात्) मध्यम जानो। भावार्थ-जब मंगल अनुराधा नक्षत्र में प्रवेश न करे मध्य में रहे, प्रवेश करे स्पर्श न करे तो विपरीत फल होता है।। ३८ ।। Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६३ | एकोनविंशतितमोऽध्यायः | स्थूल: सुवर्णों द्युतिमांश्च पीतो रक्तः सुमार्गो रिपुनाशनाय। भौमः प्रसन्नः सुमनः प्रशस्तो भवेत् प्रजानां सुखदस्तदानीम्॥३९॥ (स्थूल:) स्थूल (सुवर्णो) सुवर्ण, (द्युतिमांश्च) कान्तिमान् सुकर (पीतो) पीला (रक्तः) लाल (सुमागों) सुमार्गी गामी (रिपुनाशनाय) शत्रु को नाश करने वाला, (भौम) मंगल (प्रसन्न:) प्रसन्न (सुमनः) सुमन वाला (प्रशस्तो) प्रशस्त (भवेत्) होता है (प्रजानां सुखदस्तदानीम्) प्रजा को सुख देने वाला है। भावार्थ-यदि मंगल स्थूल, सुवर्ण , कान्तिमान, सुकर पीला, लाल सुमार्गी, रिपु का नाशक प्रसन्न सुमन वाला, प्रशस्त होता प्रजा को सुख देता है।। ३९॥ विशेष—अब अध्याय में पहले के समान मंगल ग्रह का संचार व फल का वर्णन करेंगे। यह मंगल बारह राशियों पर विचरण करता है और सभी का फल अलग-अलग होता है। मंगल संचार बीस महीना वक्र आठ महीना और प्रवास चार महिने का होता है। अलग-अलग दिशा में दिखने वाला मंगल ताम्रवर्ण का हो तो उसका फल होता है। दक्षिण दिशा का मंगल ताम्रवर्ण का हो तो शुभ होता है, चोरों का नाश करता है वहीं मंगल उत्तर का हो तो चोरों का हित करने वाला है। मंगल के पाँच वक्र होते है किसी अपेक्षा से बाहर भेद भी होते हैं, उषा, शोषमुख, व्याल, लोहित और लोहमुद्गर ये पाँच प्रधान वक्र हैं। इनमें कुछ शुभ और कुछ अशुभ भी होते हैं। __ लोहित वक्र गुण उत्पन्न करता है, इसका फल राज्य में मतभेद होकर युद्ध होता है और रक्तमांस की कीचड़ हो जाती है। इत्यादि अनेक प्रकार का वर्णन संहिता में मिलता है इसको जानकर इसके फल पर विचार कर अपने को बचाओ और दूसरे की भी रक्षा करो। विवेचन–भौम का द्वादश राशियों में स्थित होने का फल- मेष राशिमें मंगल स्थित हो तो सभी प्रकार के अनाज महगे होते हैं। वर्षा अल्प होती है तथा Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ५६४ धान्यकी उत्पत्ति भी अल्प ही होती है। पूर्वीय प्रदेशोंमें वर्षा साधारणतया अच्छी होती है; उत्तरीय प्रदेशों में खण्ड वृष्टि पश्चिमीय प्रदेशों में वर्षा का अभाव या अत्यल्प तथा दक्षिणीय प्रदेशों में साधारण वृष्टि होती है। मेषराशि का मंगल जनतामें भय और आतंक भी उत्पन्न करता है। वृषराशिमें मंगलके स्थित होने से साधारण वृष्टि देश के सभी भागोंमें होती है। चना, चीनी और गुड़का भाव कुछ महँगा होता है। महामारीके कारण मनुष्योंकी मृत्यु होती है। बझालके लिए मंगलकी उक्त स्थिति अधिक भयावह होती है। मंगलकी उक्त स्थिति बर्मा, श्याम, चीन और जापानके लिए राजनैतिक दृष्टिसे उथल-पुथल करनेवाली होती है। नेताओंमें मतभेद, फूट और कलह रहनेसे जनसाधारणको भी कष्ट होता है। पूर्वी पाकिस्तानके लिए वृषका मंगल अनिष्टप्रद होता है। खाद्यानका अभाव होनेके साथ भयङ्कर बीमारियाँ भी उत्पन्न होती हैं। मिथुनराशिमें मङ्गलके स्थित होने से अच्छी वर्षा होती है। देशके सभी राज्यों और प्रदेशों में सुभिक्ष, शान्ति, धर्माचरण, न्याय, नीति और सच्चाईका प्रसार होता है। अहिंसा और सत्यका व्यवहार बढ़नेसे देशमें शान्ति बढ़ती है। सभी प्रकारके अनाज समर्घ रहते हैं। सोना, चाँदी, लोहा, ताँबा, काँसा, पीतल आदि खनिज धातुओं के व्यापारमें साधारण लाभ होता है। पंजाबमें फसल बहुत अच्छी उपजती है। फल और तरकारियाँ भी अच्छी उपजती हैं। कर्कराशिमें मंगल हो तो भी सुभिक्ष और उत्तम वर्षा होती है उत्तरप्रदेशमें काशी, कन्नौज, मथुरामें उत्तम फसल नहीं होती है, अवशेष स्थानों में उत्तम फसल उपजती है। सिंहराशिमें मंगलके रहनेसे सभी प्रकारके धान्य महगे होते हैं। वर्षाभी अच्छी नहीं होती। राजस्थान, गुजरात, मध्यभारतमें साधारण वर्षा होती है। भाद्रपद मासमें वर्षाका योग अत्यल्प रहता है। आश्विनमास वर्षा और फसलके लिए उत्तम माने जाते हैं। सिंहराशिके मंगलमें क्रूर कार्य अधिक होते हैं, युद्ध और संघर्ष अधिक होते हैं। राजनीतिमें परिवर्तन होता है। साधारण जनताको भी कष्ट होता है। आजीविका साधनोंमें कमी आ जाती है। कन्याराशिके मंगलमें खण्डवृष्टि, धान्य सस्ते, थोड़ी वर्षा, देशमें उपद्रव, क्रूर कार्योंमें प्रवृत्ति, अनीति और अत्याचारका व्यापक रूप से प्रचार होता है। बंगाल और पंजाबमें नाना प्रकारके उपद्रव होते हैं। महामारी का प्रकोप आसाम और बंगाल में होता है। उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के लिए कन्याराशिका मंगल Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६५ एकामावेशतान्याय. अच्छा होता है। तुलाराशिके मंगल में किसी बड़े नेता या व्यक्तिको मृत्यु, अस्त्र-शस्त्रकी वृद्धि, मार्गमें भय, चोरोंका विशेष उपद्रव, अराजकता, धान्यका भाव महँगा, रसोंका भाव सस्ता और सोना-चाँदी का भाव कुछ महँगा होता है। व्यापारियोंको हानि उठानी पड़ती है। वृश्चिक राशिके मंगलमें साधारण वर्षा, मध्यम फसल, देशका आर्थिक विकास, ग्रामोंमें अनेक प्रकारकी बीमारियों का प्रकोप, पहाड़ी प्रदेशोंमें दुष्काल, नदीके तटवर्ती प्रदेशोंमें सुभिक्ष, नेताओंमें संघटनकी भावना, विदेशों से व्यापारिक सम्बन्धका विकास, राजनीतिमें उथल-पुथल एवं पूर्वीय देशोंमें महामारी फलती है। धनुराशिके मंगल में समयानुकूल यथेष्ठ वर्षा, सुभिक्ष, अनाजका भाव सस्ता, दुग्ध-घी आदि पदार्थों की कमी, चीनी-गुड़ आदि मिष्ठ पदार्थों की बहुलता एवं दक्षिणके प्रदेशॆमें उत्पात होता है। मकर राशिके मङ्गलमें धान्य पीड़ा, फसलमें अनेक रोगोंकी उत्पत्ति, मवेशीको कष्ट, चारेका अभाव, व्यापारियोंको अल्प लाभ, पश्चिम के व्यापारियोंको हानि, गेहूँ, गुड़ और मशालेके मूल्यमें दुगुनीवृद्धि एवं उत्तर भारतके निवासियोंको आर्थिक सकंट का सामना करना पड़ता है। कुम्भके मंगलमें खण्डवृष्टि, मध्यम, फसल, खनिज पदार्थों की उत्पत्ति अत्यल्प, देशका आर्थिक विकास, धार्मिक वातावरणकी वृद्धि, जनतामें सन्तोष और शान्ति रहती है। मीनराशिके मंगलमें एक महीने तक समस्त भारतमें सुख-शान्ति रहती है। जापानके लिए मीन राशिका मंगल अनिष्टप्रद है, वहाँ मन्त्रिमण्डलमें परिवर्तन, नागरिकोंमें सन्तोष, खाद्यान्नोंकी कमी एवं अर्थसंकट भी उपस्थित होता है। जर्मनके लिए मीनराशिका माल शुभ होता है। रूस और अमेरिकामें परस्पर महानुभाव इसी मंगलमें होता है। मीन राशि का माल धान्यों की उत्पत्तिके लिए उत्तम होता है। खनिज पदार्थों की कमी इसी मङ्गलमें होती है। कोयला का भाव ऊँचा उठ जाता है। पत्थर, सीमेण्ट, चूना, आदिके मूल्यमें भी वृद्धि होती है। मीनराशिका माल जनताके स्वास्थ्यके लिए उत्तम नहीं होता। नक्षत्रोंके अनुसार मंगलका फल–अश्विनी नक्षत्रमें मंगल हो तो क्षति, पीड़ा, तृण और अनाजका भाव तेज होता है। समस्त भारत में एक महीनेके लिए अशान्ति उत्पन्न हो जाती है। चौपार्योंमें रोग उत्पन्न होता है। देशमें हलचल होती रहती है। सभी लोगोंको किसी-न-किसी प्रकारका कष्ट होता है। भरणी नक्षत्रमें Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ५६६ मंगल हो तो ब्राह्मणोंको पीड़ा, गाँवोंमें अनेक प्रकारके कष्ट, नगरोंमें महामारी का प्रकोप, अन्नका भाव तेज और रस पदार्थोंका भाव सस्ता होता है। मवेशीके मूल्यमें वृद्धि हो जाती है तथा चारेके अभावमें मवेशीको कष्ट भी होता है। कृत्तिका नक्षत्रमें मंगलके होनेसे तपस्वियोंको पीड़ा, देशम उपभव, अराजकता, चोरियोंकी वृद्धि, अनैतिकता एवं भ्रष्टाचार का प्रचार होता है। रोहिणी नक्षत्रमें मंगलके रहनेसे वृक्ष और मवेशीको कष्ट, कपास और सूतके व्यापारमें लाभ, धान्य का भाव सस्ता होता है। मृगशिर नक्षत्रमें मंगल हो तो कपासका नाश, शेष वस्तुओंकी अच्छी उत्पत्ति होती है। इस नक्षत्रपर मंगलके रहनेसे देशका आर्थिक विकास होता है। उन्नतिके लिए किये गये सभी प्रयास सफल होते हैं। तिल, तिलहन की कमी रहती है तथा भैंसोंके लिए यह मंगल विनाशकारक है। आर्द्रा नक्षत्रमें मंगलके रहनेसे जलकी वर्षा, सुभिक्ष और धान्यका भाव सस्ता होता है। पुनर्वसु नक्षत्रमें मंगलका रहना देशके लिए मध्यम फलदायक है। बुद्धिजीवियोंके लिए यह मङ्गल उत्तम होता है। शारीरिक श्रम करनेवालोंको मध्यम रहता है। सेनामें प्रविष्ट हुए व्यक्तियोंके लिए अनिष्टकर होता है। पुष्य नक्षत्रमें स्थित मंगल चोरभय, शस्त्रभय, अग्निभय, राजकी शक्तिका ह्रास, रोगोंका विकास, धान्यका अभाव, मधुर पदार्थों की कमी एवं चोर-गुण्डोंका उत्पात अधिक होने लगता है। आश्लेषा नक्षत्रमें मङ्गलके स्थित रहनेसे शस्त्रधात, धान्यका नाश, वर्षाका अभाव, विषैले जन्तुओंका प्रकोप, नाना प्रकारकी व्याधियोंका विकास एवं हर तरहसे जनताको कष्ट होता है। मधामें मंगल के रहने से तिल, उड़द, मूंगका विनाश, मवेशीको कष्ट, जनतामें असन्तोष, रोगकी वृद्धि, वर्षाकी कमी, मोटे अनाजोंकी अच्छी उत्पत्ति तथा देशके पूर्वीय प्रदेशोंमें असन्तोष रोगकी वृद्धि, वर्षाकी कमी, मोटे अनाजोंकी अच्छी उत्पत्ति तथा देशके पूर्वीय प्रदेशोंमें सुभिक्ष होता है। पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रोंमें मंगलके रहनेसे खण्डवृष्टि, प्रजाको पीड़ा, तेल और घोड़ोंके मूल्यमें वृद्धि, थोड़ा जल एवं मवेशी के लिए कष्ट होता है। हस्त नक्षत्रमें तृणाभाव होने से चारे की कमी बराबर बनी रह जाती है, जिससेमवेशी को कष्ट होता है। चित्रामें मंगल हो तो रोग और पीड़ा, गेहूँका भाव तेज, चना, जौ और ज्वार का भाव कुछ सस्ता होता है। धर्मात्मा व्यक्तियोंको सम्मान और शक्तिकी प्राप्ति होती है। विश्वमें नानाप्रकारके संकट Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६७ एकोनविंशतितमोऽध्यायः बढ़ते हैं। स्वाति नक्षत्रमें मंगलके रहने से अनावृष्टि, विशाखामें कपास और गेहूँकी उत्पत्ति कम तथा इन वस्तुओंका भाव महँगा होता है। अनुराधामें सुभिक्ष और पशुओंको पीड़ा, ज्येष्ठामें मंगल हो तो थोड़ा जल और रोगोंकी वृष्टि; मूल नक्षत्रमें मंगल हो तो ब्राह्मण और क्षत्रियोंको पीड़ा, तृण, और धान्यका भाव तेज; पूर्वाषाढ़ा या उत्तराषाढ़ामें मंगल हो तो अच्छी वर्षा, पृथ्वी धन-धान्य से पूर्ण दूधकी वृद्धि; मधुर पदार्थों की उन्नति; श्रवणमें धान्यकी साधारण उत्पत्ति, जलकी वर्षा, उड़द, मूंग आदि दाल वाले अनाजों की कमी तथा इनके भावमें तेजी; धनिष्ठामं मंगल के होनेसे देशकी खूब समृद्धि, सभी पदार्थोंका भाव सस्ता, देशका आर्थिक विकास, धन-जनकी वृद्धि, पूर्व और पश्चिमके सभी राज्योंमें सुभिक्ष, उत्तरके राज्योंमें एक महीने के लिए अर्थसंकट, दक्षिणमें सुखशान्ति, कला-कौशलका विकास, मवेशियोंकी वृद्धि और सभी प्रकार से जनता को सुख; शतभिषामें मंगलके हानेसे कीट, पतंग, टिड्डी, मूषक आदिका अधिक प्रकोप, धान्यकी अच्छी उत्पत्ति; पूर्वाभाद्रपदमें मंगल के होनेसे तिल, वस्त्र, सुपारी और नारियल के भाव तेज होते हैं, दक्षिणभारतमें अनाजका भाव महँगा होता है; उत्तराभाद्रपदमें मंगल के होने से सुभिक्ष, वर्षाकी कमी और नाना प्रकारके देशवासियोंको कष्ट एवं रेवती नक्षत्रमें मंगल के होनेसे धान्यकी अच्छी उत्पत्ति, सुख, सुभिक्ष, यथेष्ट वर्षा, ऊन और कपासकी अच्छी उपज होती है। रेवती नक्षत्रका मंगल काश्मीर, हिमाचल एवं अन्य पहाड़ी प्रदेशोंके निवासियोंके लिए उत्तम होता है। ___ मंगलका किसी भी राशि पर वक्री होना तथा शनि और मंगलका एक ही राशि पर वक्री होना अत्यन्त अशुभ कारक होता है। जिस राशिपर उक्त ग्रह वक्री होते हैं उस राशिवाले पदार्थों का भाव महंगा होता है तथा उन वस्तुओंकी कमी भी हो जाती है। इति श्रीपंचम श्रुत केवली दिगम्बराचार्य भद्रबाहु. स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिता का मंगल ग्रहका संचार व फल का वर्णन करने वाला उन्नीसवें अध्यायका हिन्दीभाषानुभाव करने वाली क्षेमोदय टीका समाप्त। (इति एकोनविंशतितमोध्यायः समाप्तः) Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंशतितमोऽध्यायः राहु संचार का वर्णन राहुचारं प्रवक्ष्यामि क्षेमाय च सुखाय च। द्वादशाङ्गविद्भिः प्रोक्तं निर्ग्रन्थैस्तत्त्वस्वेदिभिः ॥ १ ॥ (राहुचारं प्रवक्ष्यामि) अब मैं राहुके संचार को कहूँगा (क्षेमाय च सुखाय च) जो क्षेम के लिये और सुख के लिये है ( द्वादशात्र विद्भिः प्रोक्तं ) जिसको द्वादशान के ज्ञाता (निर्ग्रन्थैः तत्त्ववेदिभिः) निर्ग्रन्थ तत्त्व ज्ञान के ज्ञाताओं ने कहा है। भावार्थ -- अब में राहुचार को कहूँगा जो क्षेम और सुख के लिए है, जिसको द्वादशाङ्ग के ज्ञाता निर्ग्रन्थगुरु तत्त्वज्ञानियों ने कहा है ॥ १ ॥ श्वेतो रक्तश्च पीतश्च विवर्ण: कृष्ण एव च । ब्राह्मण क्षत्र वैश्यानां विजाति शूद्रयोर्मतः ॥ २ ॥ वह राहु (श्वेतो) सफेद (रक्तश्च) लाल और ( पीतश्च) पीला (विवर्णः ) विवर्ण (कृष्ण एव च ) और काला वह क्रमश: (ब्राह्मणक्षत्रवैश्यानां) ब्राह्मण, क्षत्रियों, वैश्यों और (विजातिशूद्रयोर्मतः ) विजाति और शूद्रों के लिये शुभाशुभ करता है। भावार्थ- वह राहु सफेद लाल, पीला, विवर्ण और काला है, और क्रमशः ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र विजातियों के लिये शुभाशुभ करता है || २ | षण्मासान् प्रकृति ज्ञेया ग्रहणं वार्षिकं भयम् । त्रयोदशानां मासानां पुररोधं समादिशेत् ॥ ३ ॥ राहु की प्रकृति ( षण्मासान् प्रकृति ज्ञेया) छह महीने के अन्दर जानना चाहिये की (ग्रहणं ) ग्रहण करेगा, (वार्षिकं भयम्) एक वर्ष में भय करेगा, (त्रयोदशानां मासानां) तेरह महीनोंके अन्तर (पुरोधं समादिशेत् ) नगर का रोध होगा । भावार्थ – राहु की प्रकृति छह महीने में ग्रहण और बारह महिने में भय, तेरह महीने में नगर रोध करती है। ॥ ३ ॥ Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ विंशतितमोऽध्यायः चतुर्दशानां मासानां विन्द्याद् वाहनजं भयम्। अथ पञ्चदशे मासे बालानां भयमादिशेत् ॥ ४॥ उसी प्रकार राहु (चतुर्दशानां मासानां) चौदह महीने में (वाहनजंभयम् विन्द्याद्) वाहनों को भय करता है ऐसा जानो (अथपञ्चदशे मासे) और पन्द्रहवें महीने में (बालानां भयमादिशेत्) स्त्रियों को भय उत्पन्न करेगा। भावार्थ-वही राहु चौदह महीने में वाहनों को भय और पन्द्रहवें महीने में स्त्रियों को भय करेगा,ऐसा आप समझो। ४॥ षोडशानां तु मासानां महामन्त्रिभयं वदेत् । अष्टादशानां मासानां विन्धाद् राज्ञस्ततो भयम्॥५॥ (षोडशानां तु मासानां) उसी प्रकार सोलहवें महीने में (महामन्त्रिभयं वदेत) महामन्त्रि को भय होगा, (अष्टादशानां मासानां) अठारहवें महीने में (राज्ञस्ततो भयम् विन्द्याद्) उसी प्रकार राजा को भय होगा। भावार्थ--सोलहवें महीनेमें मन्त्री को भय और अठारहवें महीने में राजाको भय उत्पन्न होगा, ऐसा समझों॥५॥ एकोनविंशकं पर्वविंश कृत्वा नृपं वधेत्। अत:परं च यत् सर्वं विन्द्यात् तत्र कलिं भुवि॥६॥ (एकोनविंशकं पर्व) उन्नीसवें में व (विशं कृत्वा नृपं वधेत्) बीसवें को पार करने में राजा का वध करता है (अत:परं च यत् सर्वं) इससे आगे जो भी समय रहेगा वह (सर्वं तत्र कलिं भुवि विन्द्यात्) सब वहाँ कलियुग की महिमा है ऐसा जानो। भावार्थ--उन्नीसवां और बीसवां महीना राजा का वध करता है, और इसके आगे अगर राहु रहे तो ऐसा समझो यह सब कलियुग की महिमा है॥६॥ पञ्चसंवत्सरं घोरं चन्द्रस्य ग्रहणं परम्। विग्रहं तु परं विन्द्याद् सूर्य द्वादश. वार्षिकम् ।।७।। (परम् चन्द्रस्य ग्रहणं घोरं) परम चन्द्र ग्रहण के (पञ्चसंवत्सरं) घोर संकट Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता पाँच वर्ष तक रहता है । (सूर्यद्वादशवार्षिकम् ) और सूर्यग्रहण के बाद बारह वर्ष तक ( विग्रहं तु परं विन्द्यात्) महान् संकट रहता है। भावार्थ — चन्द्र ग्रहण के बाद पाँच वर्ष संकट रहता है, और सूर्य ग्रहण के बाद बारह वर्ष संकट के रहते हैं ॥ ७॥ यदाप्रतिपदिचंद्रः प्रकृत्या विकृतो भवेत् । अथ भिन्नो विवर्णों वा तदा ज्ञेयो ग्रहागमः ॥ ८ ॥ ५७० ( यदा प्रतिपदिचंद्र : ) जब प्रतिपदा को चन्द्र ( प्रकृत्याविकृतो भवेत् ) प्रकृति से विकृत हो जाता है तो (अथभिन्नो विवर्णो वा) अथवा भिन्न रूप से विवर्ण हो जाय तो समझो ( तदा ग्रहागमः ज्ञेयो ) तब ग्रह का आगमन होने वाला है | भावार्थ — जब पतिपदा को चन्द्र प्रकृति से विकृत होता हुआ दिखे तो अथवा भिन्न वर्ण का होता हुआ दिखे तो समझो अब ग्रह का आगमन होने वाला है ॥ ८ ॥ लिखेद् रश्मिभिर्भूयो वा यदाऽऽच्छाद्येत भास्करः । पूर्वकाले च संध्यायां ज्ञेयो राहोस्तदागमः ॥ ९ ॥ ( यदा) जब ( भास्करः रश्मिभिः) सूर्य की किरणें (लिखेद्) स्पर्श करती (भूयो वा यदाऽऽच्छाद्येत्) पूर्वकाल संध्या में तो (ज्ञेयो) समझो ( तदा राहो: आगम: ) तब राहु का आगमन होने वाला है ! भावार्थ- जब सूर्य की किरणों का पूर्वकाल में स्पर्श हो व आच्छादन हो तो समझो राहु का आगमन होने वाला है ॥ ९ ॥ पिशाचानां सर्वतोऽपरदक्षिणम् । पशु-व्याल तुल्यान्यभ्राणि वातोल्के यदा राहोस्तदाऽऽगमः ॥ १० ॥ (पशु - व्याल पिशाचानां ) पशु, व्याल, पिशाच ( सर्वतोऽपरदक्षिणम्) सब तरफ से दक्षिण में दिखने लगे ( तुल्यान्यभ्राणि वातोल्के) समान वात, मेघ, उल्कापात भी होता है तो समझो ( यदा राहोस्तदाऽऽगमः ) राहु का आगमन होने वाला है। भावार्थ-राहु के आगमन होने पर पशु, व्याल, पिशाचा सब तरफ दक्षिण | Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७१ विंशतितमोऽध्यायः में दिखने लगते है, और समान रूप से आकाश में बादल, वायु और उल्का भी दिखती हैं ॥ १० ॥ सन्ध्यायां तु यदा शीतं अपरे सासनं ततः । सूर्य: पाण्डुश्चला भूमिस्तदा ज्ञेयो ग्रहागमः ।। ११ ॥ ( यदा) जब ( सन्ध्यायां तु शीतं ) सन्ध्याकाल में शीत हो ( अपरे सासनं ततः) व अन्य समय में उष्ण हो (सूर्या: पाण्डुश्चलाभूमि:) सूर्यपाण्डु वर्ण का हो, भूमि चलायमान हो ( तदा ज्ञेयो ग्रहागमः ) तब समझो राहुग्रह का आगमन होने वाला है । भावार्थ-राहु ग्रह के आगमन पर सन्ध्या काल में शीत, अन्य समय में उष्णता, सूर्य पाण्डुवर्ण का, और भूमि चलायमान होती है ॥ ११ ॥ सरांसि सरितो वृक्षा वल्ल्यो गुल्म लतावनम् । सौम्यप्रांश्चवले वृक्षा राहोर्ज्ञेयस्तदाऽऽगमः ॥ १२ ॥ ( सरांसि सरितो वृक्षा) तालाब, नदी, वृक्ष (वल्ल्यो गुल्म लतावनम् ) वल्ली, गुल्म, लता, वन (सौम्यभ्रांश्चवले वृक्षा) सौम्य आकाश के होने पर भी वृक्ष चंचल हो ( तदाऽऽगम: राहोर्ज्ञेयः ) तब राहु का आगमन जानना चाहिये । भावार्थ-सरोवर, नदिया, वृक्ष, वल्ली, गुल्म, लता, वन, शान्त आकाश में भी अगर चंचल दिखे तो समझो राहु ग्रह का आगमन होने वाला है ॥ १२ ॥ सिताम्बरा । ध्रुवम् ॥ १३ ॥ छादयेच्चन्द्र सूर्यौ च यदा मेघा सन्ध्यायां च तदा ज्ञेयं राहोरागमनं ( यदा) जब ( सन्ध्यायां) संध्याकाल में (मेघा ) बादल ( सिताम्बरा ) शीघ्र ही (चन्द्रसूर्यौ च छादयेत्) चन्द्रमा सूर्य को आच्छादित कर दे तो (तदा) तब (ध्रुवम्) निश्चय से ( राहोरागमनं ज्ञेयं) राहु का आगमन समझना चाहिये । भावार्थ — जब सन्ध्याकाल में बादल शीघ्र ही सूर्य या चन्द्र को आच्छादित करे तो समझो निश्चय से राहुग्रह का आगमन होगा ॥ १३ ॥ Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | ५७२ एतान्येव तु लिङ्गानि भयं कुर्युरपर्वणि। वर्षासु वर्षदानिस्युभद्रबाहुवचो यथा॥१४॥ (एतान्येव लिमानि) इतने प्रकार के चिह्नों के (भयं कुर्युरपर्वणि) भिन्न काल में भय करता है (वर्षासु वर्षदानिस्यु) जन्तु में करने वाले होते हैं (भा गावचो यथा) ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है। ___भावार्थ—इतने प्रकार के चिह्न अपर्व पूर्णिमां और अमावस्या से भिन्न काल में भय उत्पन्न करते है ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है।। १४ ।। शुक्लपक्षे द्वितीयायां सोमशृङ्गं तदाप्रभम् । स्फुटिताग्रं द्विधा वाऽपि विद्याद् राहोस्तदाऽऽगमम्॥१५॥ (यदा) जब (शुक्लपक्षेद्वितीयायां) शुक्ल पक्ष की द्वितीया में (सोम शृंग) शुभ हो (वाऽपि) व (स्फुटिताग्रं द्विधा) टूट कर दो टुकड़े हो जाये तो (राहुस्तदाऽऽगमम् विद्याद्) समझो राहु का आगमन होने वाला है। ___ भावार्थ-जब शुक्ल पक्ष की द्वितीया में सोम शृंग शुभ हो व टुकड़े होकर गिरे तो समझो राहु का आगमन होने वाला है।। १५॥ चन्द्रस्य चोत्तरा कोटी वे शृङ्गे दृश्यते यदा। धूम्रो विवर्णो ज्वलितस्तदाराहोर्बुवागमः ॥१६॥ (यदा) जब (चन्द्रस्य चोत्तरो कोटी) चन्द्र की उत्तर कोटी में (द्वे शृंगे दृश्यते) दो शृंग दिखलाई पड़े (धूम्रो विवर्णो ज्वलितस्तदा) धूम्र वर्ण का हो, विवर्ण हो, जलता हुआ दिखे तो (तदा) तब समझो (राहो वागम:) राहु का निश्चय आगमन होगा। भावार्थ-जब चन्द्र की उत्तर कोटी में दो शृंग दिखे और धूम्र वर्ण का हो विवर्ण हो जलता हुआ दिखाई पड़े तो समझो राहुका निश्चयही आगमन होगा ।। १६॥ उद्यास्तमने भूयो यदा यचोदयो रवी। इन्द्रो वा यदि दृश्येत तदा ज्ञेयो ग्रहागमः ॥१७॥ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S ५७३ विंशतितमोऽध्यायः ( यदा) जब ( उदयास्तमने भूयो ) उदय व अस्त काल में (यश्चोदयो रवौ ) उदय या अस्त काल में पुनः पुनः सूर्य या ( इन्द्रो वा यदि दृश्येत ) चन्द्रमा दिखे तो ( तदा ज्ञेयो ग्रहागमः ) तब ग्रहागमन जानना चाहिये । भावार्थ - जब सूर्य या चन्द्रमा के अस्त या उदय काल में दिखे तो तब ग्रहों का आगमन समझो ॥ १७ ॥ कबन्धा उद्गच्छमाने परिघा - मेघा दृश्यन्ते - धूम - रक्तपट सूर्ये ध्वजाः । राहोस्तदाऽऽगमः ॥ १८ ॥ - ( कबन्धा, परिघा मेघा ) जब मेघ कबन्ध, परिघा (धूम रक्त पट ध्वजा ) धूम, रक्तपट, ध्वजा के ( उद्गच्छमाने दृश्यन्ते) आकार जाते हुऐ दिखे तो समझो ( तदा) तब ( सूर्यैराहोस्तदाऽऽगमः ) राहु का आगमन होने वाला है। भावार्थ — जब मेघ कबन्ध, परिघा के आकार के हो तो और सूर्य धूम के आकार, लाल कपड़े के आकार व ध्वजा के आकार जाते हुए दिखाई पड़े तो समझो राहु का आगमन होनेवाला है ॥ १८ ॥ मार्गवान् महिषाकारः शकटस्थो यदा शशी । उद्गच्छन् दृश्यतेऽष्टम्यां तदा ज्ञेयो ग्रहागमः ॥ १९ ॥ ( यदा) जब (शशी) चन्द्रमा ( मार्गवान् महिषाकार :) मार्गस्थ महिषाकार व ( शकटस्थो) घाड़ी के आकार ( उद्गच्छन दृश्यते) जाता हुआ दिखाई पड़े तो और वो भी (अष्टम्यां ) अष्टमी को तो ( तदा) तब ( ग्रहागमः ज्ञेयो ) ग्रह का आगमन होने वाला है ऐसा समझों । भावार्थ — जब चन्द्रमा मार्ग में गमन करता हुआ महिषाकार व घाड़ी के आकार दिखे और वो भी अष्टमी को तो समझो ग्रह का आगमन होने वाला है ॥ १९ ॥ सिंह मेषो ष्ट्र संकाश: परिवेषो यदा शशी । अष्टम्यां शुक्लपक्षस्य तदा ज्ञेयो ग्रहागमः ॥ २० ॥ ( यदा) जब चन्द्रमा पर ( सिंह मेषोष्ट्रसंकाशः ) सिंह के व मेष के, ऊँट के आकार ( परिवेषो) परिवेष ( शुक्लपक्षस्यअष्टम्यां ) शुक्लपक्ष की अष्टमी को हो तो ( तदा) तब ( ग्रहागमः ज्ञेयो ) ग्रहों का आगमन जानना चाहिये । Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता भावार्थ-जब चन्द्रमा पर सिंह के, मेष के व ऊँट के आकार में परिवेष शुक्ल पक्ष की अष्टमी को हो तो समझो ग्रहों का आगमन होने वाला है।। २०॥ श्वेतके सरसङ्काशे रक्त पीतोऽष्टमो यदा। यदा चन्द्रः प्रदृश्येत तदा ब्रूयात् ग्रहागमः ॥२१॥ (यदा) जब (चन्द्र) चन्द के ऊपर (अष्टमों) अष्टमी को (श्वेतकेसरसङ्काशे) श्वेत वर्ण, केशर वर्ण व (रक्त पीतोप्रश्येत) लाल, पीला दिखे तो (तदा) तब (ग्रहागमः ब्रूयात्) ग्र)का आगमन कहना चाहिये। भावार्थ-अब चन्द्र के ऊपर अष्टमी को सफेद वर्ण व केशर वर्ण, लाल वर्ण पीला वर्ण परिवेष दिखे तो कहो की ग्रहों का आगमन होने वाला है॥२१॥ उत्तरतो दिशः श्वेतः पूर्वतो रक्त केसर:: दक्षिणतोऽथ पीतामः प्रतीच्या कृष्ण केसरः॥२२॥ तदागच्छन् गृहीतोऽपि क्षिप्रं चन्द्रः प्रमुच्यते। परिवेषो दिनं चन्द्रे विमर्देत विमुञ्चति ॥२३॥ (उत्तरोदिश: श्वेत:) उत्तर की दिशा सफेद (पूर्वतोरक्तकेसर:) पूर्व की केशर वर्ण की (दक्षिणतोऽथ पीताभ:) अथ दक्षिण की पीली आभा (प्रीताच्यां कृष्णकेशर:) और पश्चिम की आभा काली केशर के समान रंग की हो (तदा) तब राहु के द्वारा (चन्द्रः) चन्द्रमा (गृहीतोऽपि) ग्रहण करने पर भी (क्षिप्रं) शीघ्र ही (प्रमुच्यते) छोड़ दिया जाता है (चन्द्रे) चन्द्रमा में (दिन) दिन का (परिवेषो) परिवेष होने पर (विमर्दैतविमुञ्चति) राहु द्वारा विमर्दित होने पर शीघ्र छोड़ा जाता है। भावार्थ-उत्तर की दिशा सफेद पूर्व की लाल केशर, दक्षिण की पीली, पश्चिम की काली केशर हो और राहु के द्वारा चन्द्रमा का ग्रहण करने पर भी शीघ्र छोड़ दिया जाता है, चन्द्रमा में दिन का परिवेष होने पर विमर्दित होने पर शीघ्र छोड़ा जाता है।। २२-२३॥ द्वितीयायां यदा चन्द्रः श्वेतवर्णः प्रकाशते। उद्गच्छमानः सोमो वा तदा गृह्येत राहुणा ॥२४॥ (यदा) जब (चन्द्रः) चन्द्रमा (द्वितीयायां) द्वितीया में (श्वेतवर्ण:) श्वेत वर्ण Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७५ विंशतितमोऽध्यायः का (प्रकाशते) प्रकाशित होता है (वा) व ( उद्गच्छमान: ) उखड़ता हुआ (सोमो) चन्द्रमा हो ( तदा) तब ( राहुणा गृह्येत्) राहु के द्वारा ग्रहण किया जाता है। भावार्थ — जब चन्द्रमा द्वितीया में श्वेत वर्ण का शोभित होता है व उखड़ता हुआ दिखे तो तब चन्द्रमा को राहु के द्वारा ग्रहण किया जाता है ॥ २४ ॥ यदा सोमोविवर्णो दृश्यतेयदि । तदा राहुः पौर्णमास्यामुपक्रमेत् ॥ २५ ॥ ( यदा) जब (तृतीयायां ) तृतीया में (सोमो) चन्द्र (यदि ) यदि (विवर्णोदृश्यते) विवर्ण दिखाई पड़े तो (पूर्वरात्रे ) पूर्व रात्रिमें (पौर्णमास्यामुपक्रमेत् राहुः ) पूर्णिमा को तब राहु ग्रहण करता है। तृतीयायां पूर्वरात्रे भावार्थ — जब तृतीया में चन्द्र यदि विवर्ण होकर देखा जाता है। पूर्णिमा की पूर्व रात्रि में चन्द्र को राहु ग्रहण करता है ॥ २५ ॥ अष्टम्यां तु यदा पौर्णमास्यां चन्द्रो दृश्यते रुधिरप्रभः । तदाराहुरर्धरात्रमुपक्रमेत् ॥ २६ ॥ ( यदा) जब ( चन्द्रो ) चन्द्रमा (अष्टम्यां ) अष्टमी को ( रुधिरप्रभः दृश्यते ) लाल प्रभावाला दिखाई दे तो (तु) तो (तदा) तब ( पौर्णमास्यां) पूर्णिमा को (राहुरर्धरात्र मुपक्रमेत्) राहु के द्वारा चन्द्रमा ग्रहण किया जाता है। भावार्थ- जब चन्द्रमा अष्टमी को लाल प्रभावाला होता है, तब पूर्णिमा को राहु के द्वारा चन्द्र ग्रहण किया जाता है ॥ २६ ॥ नवम्यां तु यदा चन्द्रः परिवेश्य तु सुप्रभः । अर्धरात्रमुपक्रम्य राहुभुपक्रमेत् ॥ २७ ॥ तदा ( यदा) जब ( चन्द्रः ) चन्द्र (नवम्यां नवमी को ( परिवेश्यत्तु सुप्रभः ) परिवेष सहित जिसकी सुप्रभा हो तो (अर्धरात्रमुपक्रम्य) अर्ध रात्रि में (तदा) तब (राहुमुपक्रमेत्) राहु का उपक्रम समझो । भावार्थ — जब चन्द्रमा नवमी को परिवेष सहित जिसकी सुप्रभा हो तो अर्द्धरात्रि में राहु का उपक्रम समझों ॥ २७ ॥ Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ५७६ कृष्णप्रभो यदा सोमो दशम्यां परिविष्यते। पश्चाद् रात्रं तदा राहुः सोमं गृह्णात्य संशयः॥२८॥ (यदा) जब (सोमो) चन्द्र (कृष्णप्रभो) काली प्रभा से युक्त (दशम्यां परिष्यते) दशमी को दिखे तो (पश्चात् रात्रं) वो भी पिछली रात्रि में दिखे (तदा) तब (राहुः सोमं गृह्णात्यसंशयः) समझो राहु चन्द्रमा को ग्रहण करने वाला है इसमें कोई सन्देह नहीं हैं। भावार्थ-जब काली प्रभा से युक्त चन्द्रमा दशमी के पिछली रात्रि में दिखे तो समझो चन्द्रमा को राहु लगने वाला है ।। २८ ।। अष्टम्यां तु यदा सोमं श्वेता, परिवेषते। तदा परिधवै राहुर्विमुञ्चति न संशयः ॥२९॥ (यदा) जब (अष्टम्यां) अष्टमी को (सोम) चन्द्रमा के ऊपर (श्वेताळं परिवेषते) सफेद आभा से युक्त परिवेष दिखाई पड़े (तु) तो (तदा) तब (परिघं वैराहुर्विमुञ्चति) राहु परिघ को छोड़ता है (न संशय:) इसमें कोई सन्देह नहीं है। भावार्थ-जब अष्टमी के चन्द्रमा के ऊपर सफेद रंग का परिवेष दिखे तो समझो राहु परिघ को छोड़ने वाला है, इसमें कोई सन्देह नहीं है।। २९ ।। कनकाभो यदाऽष्टम्यां परिवेषेण चन्द्रमाः। अर्धरात्रं तदा गत्वा राहुरुद्गिरतेपुनः॥३०॥ (यदाऽष्टम्यां) जब अष्टमी को (कनकाभो) सुवर्ण वर्ण के (परिवेषेण चन्द्रमा:) परिवेष से युक्त चन्द्रमा हो तो (तदा) तब (अर्धरात्रं गत्वा) अर्द्धरात्रि के जाने पर पूर्णिमा को (राहुरुदिगरते पुन:) राहु चन्द्रमा का अर्द्ध ग्रास करके छोड़ देता है। भावार्थ-जब अष्टमी को चन्द्रमा सुवर्ण वर्ण के परिवेष से युक्त हो तो अर्द्ध रात्रि के जाने पर राहु चन्द्रमा को आधा खाकर छोड़ देता है। ३० । परिवेषोदयोऽष्टम्यां चन्द्रमा रुधिरप्रभः। सर्वप्रासं तदा कृत्वा राहुस्तञ्चविमुञ्चति ॥ ३१॥ (अष्टम्यां चन्द्रमा) अष्टमी का चन्द्रमा (रुधिरप्रभ: परिवेषोदयो) लाल प्रभा Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७७ विंशतितमोऽध्यायः का परिवेष धारण कर ले तो ( तदा) तब (राहु) राहु ( सर्वग्रासं कृत्वा) सर्वग्रास करके चन्द्रमा को (तञ्चविमुञ्चति ) छोड़ देता है। भावार्थ — अष्टमी का चन्द्रमा लाल प्रभा का परिवेष धारण करे तो राहु चन्द्रमा को सर्वग्रास करके छोड़ता है ॥ ३१ ॥ कृष्णपीता यदा कोटिर्दक्षिणाः स्याद्ग्रहः सितः । पीतो यदाऽष्टम्यां कोटी तदा श्वेतं ग्रहं वदेत् ॥ ३२ ॥ ( यदाऽष्टम्यां ) जब अष्टमी के चन्द्रमा का श्रृंग (कृष्णपीताकोटि :) काला-पीला हो (दक्षिणा: स्याद्ग्रहः सित) तो दक्षिण में ग्रहण ' भी श्वेत होता है ( पीतो) पीला हो तो ( तदा) तब ( श्वेतं ग्रहं वदेत्) श्वत ग्रहण होगा । भावार्थ — जब अष्टमी का चन्द्रमा के दक्षिण श्रृंग काला पीला हो तो समझों ग्रहण भी श्वेत होगा और पीला हो तो श्वेत होगा ॥ ३२ ॥ दक्षिनामेवामा कपोत मेचकाभा तु यदि चन्द्रमा की ( दक्षिणा मेचकाभा) दक्षिण शिखा मेचक वर्ण की हो (तु) तो ( कपोत ग्रहमादिशेत्) कपोत वर्ण का ग्रह दिखेगा, ( कपोत मेचकाभा कोटी) कपोत मेचक आभा का श्रृंग हो (तु) तो ( ग्रहमुपानयेत् ) ग्रहण का भी वैसा ही रंग होता है। શું कपोत कोटी ग्रहमादिशेत् । ग्रहमुपानयेत् ॥ ३३ ॥ भावार्थ — जब चन्द्रमा की दक्षिण शृंग मेचक आभा वाली हो तो ग्रहण का वर्ण कपोत वर्ण दिखेगा और कपोतमेचक आभा हो तो उसी वर्ण का ग्रह होगा ॥ ३३ ॥ पीतोत्तरा यदा कोटिदक्षिणाः रुधिर प्रभः । कपोतग्रहणं विन्धाद् पूर्व पश्चात् सितप्रभम् ॥ ३४ ॥ जब चन्द्रमा (दक्षिणाकोटि :) दक्षिण श्रृंग ( रुधिरप्रभः) लाल प्रभावाला हो तो ( कपोतग्रहणं ) ग्रहण भी कपोत रंग का होगा, ( पीतोत्तराकोटि) उत्तर की श्रृंग पीली हो तो वैसा रंग होगा, (पूर्व पश्चात् सितप्रभः) पहले और पीछे श्वेत प्रभा होगी । Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ -- जब चन्द्रमा भृंग दक्षिण की लाल प्रभावाली हो तो कपोत वर्ण का ग्रहण होगा और उत्तर शृंग पीला हो तो कपोत रंग का ग्रहण समझना चाहिये और पूर्व और पीछे का सितप्रभ होगा ॥ ३४ ॥ पीतोत्तरा यंदा कोटिर्दक्षिणा कपोतग्रहणं विन्द्याद् ग्रहं पश्चात् रुधिरप्रभः । सितप्रभम् ॥ ३५ ॥ બજ ( यदा) जब ( चन्द्रमा कोटि) श्रृंग ( पीतोत्तरा ) उत्तर का पीला हो तो और (दक्षिणारुधिरप्रभः) दक्षिण रुधिर प्रभावाला हो तो ( कपोत ग्रहणं विन्द्याद्) कपोत रंग का ग्रहण होगा, (ग्रहंपश्चात् सितप्रभम् ) पीछे का श्वेत प्रभा वाला होगा। भावार्थ -- जब चन्द्रमा की श्रृंग उत्तर में पीला और दक्षिण में लाल हो तो कपोत रंग का ग्रहण होगा और अन्त का श्वेत होगा ।। ३५ ॥ p यतोऽभ्रस्तनितं विन्द्यात् मारुतं कर काशनी । रुतं वा श्रूयतेकिञ्चित् तदा विन्द्याद् ग्रहागमम् ॥ ३६ ॥ ( यतोऽभ्रस्तनितंविन्द्यात्) जब आकाश में बादल बिजली से सहित हो ( मारुतं कर काशनी) हवा चलती हो (रुतं वा श्रूयते किञ्चित् ) शब्द होते हो ( तदा) तब ( विन्द्याद्) जानो की ( ग्रहागमम् ) ग्रह का आगमन होने वाला है। भावार्थ--- जब आकाश में बादल हो बिजली चमके हवा चले और शब्द होते हुऐ सुनाई पड़े तब समझो ग्रह का आगमन होने वाला है ॥ ३६ ॥ मन्दक्षीरा यदा वृक्षाः सर्वदिक् कलुषायते । क्रीडते च यदाबालस्ततो विन्धाद् ग्रहागमम् ॥ ३७ ॥ ( यदा) जब (मन्द क्षीरावृक्षाः) वृक्ष थोड़े दूध वाले हो जाय (सर्वदिक कलुषायते) सर्व दिशा कलुषित दिखे तो (क्रीडते च यदाबालः) और बालक खेलते हुऐ दिखलाई पड़े तो ( ततो विन्द्याद् ग्रहागमम् ) उस समय ऐसा समझो की ग्रहों का आगमन होने वाला है। भावार्थ- -जब वृक्ष मन्द क्षीर वाले हो जाय सर्वदिशा कलुषित हो जाय और बालक खेलने लग जाय तो समझो ग्रह का आगमन होने वाला है || ३७ ॥ P Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंशतितमोऽध्यायः ऊवं प्रस्पन्दते चन्द्रश्चित्रः संपरिवेष्यते। कुरुते मण्डलं स्पष्टस्तदा विन्द्याद् ग्रहागमम् ॥ ३८॥ (ऊदचं प्रस्पन्दते चन्द) यदि चन्द्र ऊपर की और स्पदिन्त होता है (चित्र: संपरिवेष्यते) विचित्र प्रकार परिवेष से युक्त (स्पष्ट: कुरुते मण्डलं) स्पष्ट मण्डल से युक्त (तदा) तब (ग्रहागमम् विन्द्याद्) ग्रह का आगमन जानो।। भावार्थ-यदि चन्द्र ऊपर की ओर स्पदित होता हुआ विचित्र प्रकार परिवेष मण्डल से युक्त हो तो ग्रहों का आगमन होने वाला है। ३८।। यतो विषय घातश्च यतश्चपशु-पक्षिणः । तिष्ठन्ति मण्डलायन्ते ततो विन्द्याद् ग्रहागभम् ।। ३९॥ (यतोविषयघातश्च) जब देश के विषय का घात हो (यतश्वपशु पक्षिणः) जहाँ पर पशु और पक्षी (मण्डलयन्तेतिष्ठन्ति) मण्डलाकार ठहरते हैं (ततो ग्रहागमम् विन्द्याद्) वहाँ पर ग्रहों का आगमन समझों। भावार्थ-जब देश के विषय का घात हो जहाँ पर पशु और पक्षी मण्डलाकार ठहरते हो वहाँ पर समझो ग्रहों का आगमन होने वाला हैं ।। ३९॥ पाण्डुर्वा द्वावलीढो वा चन्द्रमा यदि दृश्यते। व्याधितो हीनरश्मिश्च यदा तत्त्वे निवेशनम्।। ४०॥ (यदि) जब (चन्द्रमा) चन्द्रमा (पाण्डुर्वा द्वावलीढो वा) पाण्डुवर्ण का या द्विगुणित चबाया हुआ (दृश्यते) दिखता है तो (व्याधितोहीनरश्मिश्च) व्यथित और हीन रश्मि वाला हो तो (यदा तत्त्वे निवेशनम्) तब समझो अवश्य चन्द्र ग्रहण होने वाला है। भावार्थ-यदि चन्द्रमा पाण्डुवर्ण का हो या द्विगुणित दिखे व्यथित हो हीन किरण वाला हो तब समझो अवश्य राहु ग्रह का आगमन होने वाला है।। ४० ॥ यतः प्रबाध्यते वेषस्ततो विन्धाद् ग्रहागमम्। यतो वा मुच्यते वेषस्ततश्चन्द्रोविमुच्यते॥४१॥ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ( यतः प्रबाध्यते वेषः ) चन्द्रमा परिवेष से युक्त होता है ( ततो ) तब ( ग्रहा गमम् विन्द्याद्) उसी प्रकार समझो ग्रहों का आगमन होने वाला है (यतो वा मुच्यते वेषः ) जब परिवेष छूटता है तो (ततोश्चन्द्रोविमुच्यते ) समझो चन्द्रमा भी छूट जाता है | भावार्थ – अगर चन्द्रमा परिवेष से युक्त हो तो समझो ग्रहों का आगमन होने वाला है और परिवेष छूटता है, तो समझो ग्रह से चन्द्र मुक्त हो रहा है ॥ ४१ ॥ गृहीतो विष्यते चन्द्रो वेष मावेव विष्यते । यदा तदा विजानीयात् षण्मासाद् ग्रहणं पुनः ॥ ४२ ॥ ५८० ( यदा) जब ( चन्द्रो ) चन्द्र (वेष मावेव) परिवेष से युक्त (विष्यते ) होता है ( गृहीतो विष्यते ) ग्रहण करता है ( तदा) तब (पुनः) पुन ( षण्मासाद्गहणं) छह महीने में ग्रहण होता है (विजानीयात्) ऐसा समझना चाहिये । भावार्थ-जब चन्द्र परिवेष से युक्त हो तो ग्रहण होगा पुनः छह महीने में चन्द्र ग्रहण होगा ।। ४२ ।। प्रत्युद्गच्छति आदित्यं यदा गृह्येत भयं तदा विजानीयात् ब्राह्मणानां चन्द्रमाः । विशेषतः ॥ ४३ ॥ ( यदा) जब ( आदित्यं प्रत्यगच्छति ) सूर्य की ओर जाता हुआ (चन्द्रमाः गृह्येत ) चन्द्रमा ग्रहण करता है तो ( तदा) तब ( भयं विजानीयात्) भय को समझना चाहिये (विशेषत: ब्राह्मणानां ) विशेषत: ब्राह्मणों को भय होगा । भावार्थ - जब सूर्य की ओर जाता हुआ चन्द्रमा ग्रहण करे तो समझो भय उत्पन्न होगा और विशेष कर ब्राह्मणों को भय उत्पन्न करेगा, समझो ॥ ४३ ॥ प्रातरा सेविते चन्द्रोदृश्यते कनकप्रभः । मात्यानांविशेषतः ॥ ४४ ॥ भयं तदा विजानीयाद् (प्रातरा. सेवितेचन्द्रो) जब प्रातः काल का चन्द्रमा ( कनक प्रभः दृश्यते) कनक प्रभारूप दिखे तो ( तदा) तब ( भयं विजानीयाद्) भय होगा ऐसा समझो अमात्यानां विशेषतः ) विशेष कर आमात्यों को भय होगा । | Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८१ विंशतितमोऽध्यायः भावार्थ-जब प्रातःकाल का चन्द्रमा सुवर्ण वर्ण का हो तो समझो भय होगा, विशेषत: मन्त्री को भय उत्पन्न होगा ।। ४४॥ मध्याहे तु यदा चन्द्रो गृह्यते कनकप्रभः। क्षत्रियाणां नृपाणां च तदा भयमुपस्थितम्॥४५।। (यदा चन्द्रोमध्याहे) जब चन्द्रमा मध्याह्न में (कनकप्रभः गृह्यते) सुवर्ण वर्ण का दिखे (तु) तो (तदा) तब (क्षत्रियाणां नृपाणां) क्षत्रियों के लिये व राजा के लिये (भयमुपस्थितम्) भय उत्पन्न होगा। भावार्थ-जब चन्द्रमा मध्याह्न में सुवर्ण वर्ण का दिखे तो क्षत्रियों के लिये और राजाओं के लिये भय उपस्थित होगा ।। ४५॥ यदा मध्यनिशायां तु राहुणां गृह्यते शशी। भयं तदा विजानीयात् वैश्यानां समुपस्थितम्॥४६॥ (यदा) जब (मध्यनिशायां) मध्यरात्रि में (राहुणां गृह्यते शशी) राहु के द्वारा चन्द्रमा ग्रहण किया जाता है (तु) तो (तदा) तब (वैश्यानां भयं) वैश्यों के लिये (भयं) भय (समुपस्थितम्) उपस्थित होगा (विजानीयात) ऐसा समझना चाहिए। भावार्थ-जब मध्यरात्रि में राहु चन्द्रमा को ग्रहण करे तो वैश्यों को भय उपस्थित होगा।। ४६।। नीचावलम्बी सोमस्तु यदा गृह्येत राहुणा। सूर्पाकारं तदाऽऽनः मरुकच्छं च पीडयेत् ।। ४७॥ (नीचावलम्बीसोमस्तु यदा) जब नीच राशिस्थ चन्द्रमा (राहुणां गृह्येत) को राहु ग्रहण करे (तदा) तब (सूर्पाकारं) सूर्पाकार (अऽनत) आनत (मरुकच्छं च पीडयेत्) मरुभूमि, कच्छ प्रदेश आदि को पीड़ा देता है। भावार्थ-जब नीचस्थ राहु चन्द्रमा को ग्रहण करता है, तो सूर्पाकार आनर्त मरु, कच्छ आदि प्रदेशों को पीडा देता है। ४७ ।। अल्पचन्द्रं च द्वीपाश्च म्लेच्छा: पूर्वापरा द्विजाः। दीक्षिताः क्षत्रियामात्याः शूद्रा: पीडामवाप्नुयुः॥४८॥ - - - Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता ५८२ (अल्पचन्द्रं च) और यदि अल्प चन्द्र हो तो (द्वीपाश्च) द्वीप और (म्लेच्छाः ) म्लेच्छ (पूर्वापरा) पूर्व पश्चिम् के (द्विजा:) ब्राह्मण (दीक्षिताः) मुनि (क्षत्रियामात्या:) क्षत्रिय, मन्त्री (शूद्रा:) शूद्र (पीडामवाप्नुयुः) आदि पीड़ा को प्राप्त होते हैं। भावार्थ-अगर अल्प राहु चन्द्रमा को ग्रहण करे तो द्वीप, म्लेच्छ पूर्व और पश्चिम के ब्राह्मण, मुनि, क्षत्रिय, शूद्र आदि पीड़ा को प्राप्त होते हैं॥४८॥ यतो राहसेच्चन्द्रं ततो यात्रा निवेशयेत्। वृत्ते निवर्तते यात्रा यतो तस्मान्महद् भयम्॥४९ ।। (यतोराहप्रच्चन्द्र) जैसे राह ने चन्द्रमा ग्रहण किया (ततो यात्रां निवेशयेत) उस समय की यात्रा निष्फल होती है (वृत्तेनिवर्ततेयात्रा) इस लिये यात्रार्थि ऐसे ही वापस लौट आता है (तस्मान्महद्भयम्) इसलिये ऐसी यात्रा में महान भय होगा। भावार्थ-चन्द्र ग्रहण में यात्रा नहीं करना चाहिये, यात्री की यात्रा निष्फल होती है क्योंकि उसमें भय होता है॥४९॥ गृह्णीयादेकमासेन् चन्द्रसूर्यो यदा तदा। रुधिरवर्ण संसक्ता सङ्ग्रामे जायते मही॥५०॥ (गृह्णीयादेक मासेन्) एक ही महीने में (चन्द्रसूर्यो यदा तदा) जब चन्द्र और सूर्य दोनों ही ग्रहण एक साथ हो तो (रुधिरवर्ण संसक्ता) रुधिर वर्ण से संसक्त (सङ्ग्रामे जायते मही) पृथ्वी पर संग्राम होता है। भावार्थ-जब एक महीने में दोनों ही ग्रहण लग जाय चन्द्र और सूर्य तो इस पृथ्वी पर महान् युद्ध होता है जिससे पृथ्वी पर रक्त की नदियाँ बहने लगती हैं।॥५०॥ चौराश्च यायिनो म्लेच्छा प्रन्ति साधून नायकान्। विरुध्यन्ते गणाश्चापि नृपाश्च विषये चराः॥५१॥ उक्त दोनों ग्रहणों के होने पर (चौराश्च) चोर लोग, (यायिनो) यात्रिकों व (म्लेच्छा) म्लेच्छ (साधून) साधुओं को (नायकान्) नायकों को (घ्नन्ति) मारते हैं (गणाश्चापि विरुध्यन्ते) गणों का भी विरोध होता है (नृपाश्चविषयेचराः) और राजाओं को भी राजदूत रोक लेते हैं। Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशतितमोऽध्यायः भावार्थ- उक्त दोनों ग्रहण होने पर चोर लोग व म्लेच्छ लोग यात्री को व साधुओं को व नायकों को मारते हैं गणो का विरोध व राजा को राजदूत रोक लेते हैं॥५१ ।। यतोत्साहं तु हत्वा तु राजानं निष्क्रमते शशी। तदाक्षेमं सुभिक्षञ्च मन्दरोगांश्च निर्दिशेत्॥५२॥ (यतोत्साहं तु हत्वा तु राजानं निष्क्रमते शशी) पहले राहु को परास्तकर चन्द्रमा आगे निकल जावे तो (तदा) तब (क्षेम) क्षेम (सुभिक्षञ्च) सुभिक्ष और (मन्दरोगांश्च) मन्द रोग होंगे ऐसा (निर्दिशेत्) निर्देशन दिया गया है। भावार्थ-जब राहु को हराकर चन्द्रमा आगे निकल जावे तो समझो क्षेम कुशल होगा, सुभिक्ष होगा, मन्द रोग उत्पन्न होंगे।। ५२॥ पूर्व दिशि तु यदा हत्वा राहुः निक्रमते शशी। रूक्षो वा हीनरश्मिर्वापूर्वी राजाविनश्यति॥५३॥ (पूर्वदिशि) पूर्व दिशा में (यदा) जब (राहुः) राहु (शशी) चन्द्रमा का (हत्वा) घातकर (निष्क्रमते) आगे निकले और (रूक्षा वा) रूक्ष हो (हीनरश्मिर्वा) रश्मियाँ मन्द हो (तु) तो (पूर्वोराजाविनश्यति) पूर्व देश के राजा का विनाश होता है। भावार्थ---जब पूर्व दिशा में राहु चन्द्रमा का घातकर आगे निकले और रूक्ष हो किरणे मन्द हो तो पूर्व देश के राजा का विनाश होता है॥५३ ।। दक्षिणाभेदने गर्भ दक्षिणात्यांश्च पीडयेत्। उत्तराभेदने चैव नाविकांश्च जिघांसति॥५४॥ (गर्भ) गर्भ के (दक्षिणा) दक्षिण में (भेदने) भेदन होने से (दक्षिणात्यांश्च पीडयेत्) दक्षिणवासियों को पीड़ा होती है (उत्तराभेदने चैव) और उत्तर में उसका भेदन होने से (नाविकांश्च जिघांसति नाविकों को कष्ट होता है। भावार्थ-दक्षिण दिशा में गर्भो के भेद न होने से दक्षिण निवासियों को पीड़ा होती है और उत्तर में भेद हो तो नाविकों को कष्ट होता है॥५४॥ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ५८४ निश्चल: सुप्रभः कान्तो यदा निर्याति चन्द्रमाः। राज्ञां विजय लाभाय तदा शेयः शिवङ्करः॥५५॥ (यदा) जब (चन्द्रमाः) चन्द्रमा (निश्चलः) निश्चल होकर (सुप्रभःकान्तो) सुप्रभावाला हो कान्तिमान होकर (निर्याति) निकलता है तो (राज्ञां विजय लाभाय तदा) तब राजाओं को विजय लाभ होता है (शिवकर: ज्ञेयः) राष्ट्र में शान्ति होती भावार्थ-जब चन्द्रमा निश्चल होकर सुप्रभावाला कान्तिमान होकर घूमे तो समझो राजाको विजय मिलेगी, और देश में सर्वत्र शान्ति होगी॥५५ ।। एतान्येव तु लिङ्गानि चन्द्रे ज्ञेयानि धीमता। कृष्णपक्षे यदा चन्द्रः शुभो वा यदि वाऽशुभः॥५६॥ (एतान्येव तु लिगानि) उपर्युक्त चिह्नों के (चन्द्रे धीमता ज्ञेयानि) चन्द्र बुद्धिमान चन्द्रमा में ग्रहण करता है (कृष्णपक्षे यदा चन्द्रः) जब कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा को ग्रहण लगता है तो (शुभो वा यदि वाऽशुभः) शुभ व अशुभ होता है। भावार्थ-उपर्युक्त चिह्नों से युक्त चन्द्रमा का ग्रहण होता है, और कृष्णपक्ष में हो तो बुद्धिमान उसी के अनुसार शुभाशुभ को जाने।। ५६ ।। उत्पाताश्चनिमित्तानि शकुना लक्षणानि च। पर्वकाले यदा सन्ति तदा राहोर्बुवागमः ॥५७॥ (यदा) जब (पर्वकाले) पूर्वकाल में (उत्पाताश्च) उत्पात दिखे उस रूप (निमित्तानि) निमित्त हो (शकुनालक्षणानि च) शकुन रूप लक्षण दिखे तो (तदा) तब (राहोर्बुवागम्) समझो राहु का निश्चित ही आगमन होने वाला है। भावार्थ-जब पूर्वकाल में उत्पात दिखे अन्य रूप निमित्त हो शकुन न हो लक्षण हो तब राहु का निश्चय से आगमन होता हैं॥५७॥ रक्तोराहुः शशीसूर्योहन्युः क्षत्रान् सितोद्विजान्। पीतोवैश्यान् कृष्णः शूद्रान् द्विवर्णांस्तु जिघांसति ॥५॥ (रक्तोराहुः शशीसूर्यो) यदि लाल वर्ण का राहु और चन्द्रमा हो तो (क्षत्रान् Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८५ विंशतितमोऽध्यायः हन्युः ) क्षत्रियों का नाश करता है (सितोद्विजान् ) सफेद हो तो ब्राह्मणों का हनन करता है ( पीतोवैश्यान् ) पीला हो तो वैश्यों का हनन् करता है (कृष्णः शूद्रान् ) काला हो तो शूद्रों का हनन करता है। (द्विवर्णास्तु जिघांसति) और द्विवर्णों का भी हनन करता है। भावार्थ — यदि राहु और चन्द्रमा लाल वर्ण का हो तो क्षत्रियों का नाश होता है, सफेद हो तो ब्राह्मणों का हनन करता है, पीला हो तो वैश्यों का नाश करता है काला हो तो शूद्रों का व द्विवर्णों का नाश करता है ॥ ५८ ॥ पीडितो हन्ति नक्षत्रं यस्य यद्यतः । पापनिमित्तश्च ( रूक्षः) रूक्ष (पापनिमित्तश्च) पाप निमित्त (विकृतश्च) विकृत (चन्द्रमाः) चन्द्रमा ( रूक्षः) रूक्ष हो ( पापनिमित्तश्च ) पापनिमित्तों से सहित हो ( विकृतश्च) विकृत होकर ( यस्य नक्षत्रं हन्ति ) जिसके नक्षत्र का घात करे (चन्द्रमा: पीडितो) उस नक्षत्र वाले का अशुभ होता है। भावार्थ- -जब चन्द्रमा रूक्ष, पापरूप, निमित्तों से सहित निकल कर जिसके नक्षत्र का घात करता है तो उसका अशुभ होता है ॥ ५९ ॥ चन्द्रमाः रूक्ष: विकृतश्चविनिर्गतः ॥ ५९ ॥ प्रसन्नः साधुकान्तश्च दृश्यते सुप्रभः शशी । यदा तदा नृपान् हन्ति प्रजां पीतः सुवर्चसा ॥ ६० ॥ (शशी) चन्द्रमा यदि ( प्रसन्नः ) प्रसन्न दिखे ( साधुकान्तश्च ) सुन्दर कान्ति और (सुप्रभः) सुप्रभावाला (दृश्यते) दिखे तो ( यदा तदा नृपान् हन्ति) जभी-तभी राजाओं का हनन करता है (प्रजां पीत् सुवर्चसा ) पीत और तेजस्वी दिखे तो प्रजा का धात करता है । भावार्थ — यदि चन्द्रमा प्रसन्न दिखे, कान्तिवाला हो सुप्रभावाला हो सुन्दर तब राजा को मारता है पीला दिखे तो प्रजा का घात करता है ॥ ६० ॥ राज्ञो राहुः प्रवासे यानि लिङ्गान्यस्य पर्वणि । यदा गच्छेत् प्रशस्तो वा राज राष्ट्रविनाशनः ॥ ६१ ॥ Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ५८६ (पर्वणि) पूर्णिमा को (राहुः) राहु (लिङ्गान्यस्य) के चिह्न में (प्रवासे) गमन करे (यदागच्छे) जब जाता है (प्रशस्तो) प्रशस्त होता है तब (राजराष्ट्र विनाशन:) राजा और राष्ट्र का विनाश होता है। भावार्थ---पूर्णिमा को राहु के चिह्न में जब जाता है तब राजा और राष्ट्र का नाश होगा ॥६१॥ यतो राहप्रमथने ततो यात्रा न सिध्यति। प्रशस्ता: शकुना यत्र सुनिमित्ता सुयोषितः ॥६२॥ (यतो राहुप्रमथने) जब राह प्रमथन करे तो (ततो यात्रा न सिध्यति) उसकी यात्रा सिद्ध नहीं होती है। चाहे (प्रशस्ता:) प्रशस्त हो (शकुना) अच्छे शकुन हो (सुनिमित्ता) सुनिमित्त (सुयोषितः) सुयोषित हो तो भी नहीं होती है। भावार्थ-जब राहु प्रथमन करे तब चाहे वह प्रशस्त अच्छे शकुन वाला, सुनिमित्त रूप हो तो भी उसकी यात्रा सिद्ध नहीं होती है। ६२ ।। राहुश्च चन्द्रश्च तथैव सूर्यो यदा नस्युः सर्वेपरस्परघ्नाः। काले च राहुर्भजते रवीन्दूः तदा सुभिक्षं विजयश्च राज्ञः ।। ६३॥ (राहुश्चचन्द्रश्च तथैव सूर्योयदा) जब राहु चन्द्र और सूर्य (नस्युः सर्वेपरस्परघ्ना:) घात न करे तो (काले च राहुर्भजतेरवीन्दः) तथा समय पर सूर्य और चन्द्रमा का राहु योग करे तो (तदासुभिक्षविजयश्चराज्ञः) तब सुभिक्ष होता है राजा की विजय होगी। भावार्थ-जब राहु सूर्य और चन्द्र परस्पर घात करे तो समय पर सूर्य और चन्द्रमा का राहु योग करे तो राजाओं की विजय और देश में सुभिक्ष होता है। ६३॥ विशेष—इस अध्याय में आचार्य श्री ने राहु चार का विशेष वर्णन किया है। राहु के संचार से भी शुभाशुभ मालूम पड़ता है, कल्याण व सुख का कारण बनता है। राहु सफेद, लाल, पीला, काला वर्ण का होता है क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के लिये शुभाशुभ फल देता है। Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८७ शिसिरमौर राहु आगमन के चिह्न भी बतायें हैं वो इस प्रकार है जब राहु का आगमन होने वाला होता है तब प्रतिपदातिथि को चन्द्रमा प्रकृति से विकृत हो और भिन्न वर्ण का हो तो समझो राहु का आगमन होने वाला है, इसी प्रकार और भी चिह्न दिये हैं ग्रन्थ में देख लेवे। चन्द्र ग्रहण के बाद पाँच वर्ष संकट के और सूर्य ग्रहण के बाद बारह वर्ष संकट के होते हैं। बारह राशियों के भ्रमणानुसार राहुफल देता है, चन्द्रग्रहण का फल नक्षत्रानुसार भी चन्द्रग्रहण फल देता है, और विद्धफल भी होता है। __ चन्द्रमा से राहु विद्ध होने पर जनता को महान् कष्ट होता है। अगर राहु मंगल विद्ध होता हुआ दिखाई दे तो, जन क्रान्ति, राजनीति में उथल-पुथल एवं युद्ध होते हैं। बुध या शुक्र से विद्ध होने पर जनता को सुख शान्ति आनन्द आमोद-प्रमोद अभय और निरोगता लाता है। इस प्रकार अन्य समझें। ___ चन्द्र ग्रहण अगर अश्विनी नक्षत्र में हो तो मूंग, उड़द, चना, अरहर आदि दाल व अनाज महँगे होते हैं अगर भरणी में हो तो सफेद वस्त्रों में तीन महीने अन्दर लाभ होता है, कपास रुई, सूत, जूट, आदि चार महीनों में लाभ होता है। इसी प्रकार प्रत्येक नक्षत्र का शुभाशुभ फल समझ लेना चाहिये। मेषराशि का चन्द्रग्रहण मनुष्यों को पीड़ा देता है पहाड़ी प्रदेश जैसे पंजाब, दिल्ली, दक्षिणभारत, महाराष्ट्र, आन्ध्र, बर्मा प्रदेशों के निवासियों को अनेक प्रकार की बीमारियाँ होती है शूद्र और वर्णसंकरों को महान् कष्ट होता है लालरंग के पदार्थों में लाभ होता है। इत्यादि। वृश्चिक राशि में राहु मंगल के साथ स्थित हो तो जूट, वस्त्र के व्यापार में अधिक लाभ होता है, इत्यादि राशियों के अनुसार भी राहु के संचार का फल समझना चाहिये। अब मैं इस विषय में विशेष जानकारी के लिये डॉक्टर साहब का भी मन्तव्य दे देता हूँ, ताकि ग्रन्थ से अच्छी जानकारी पाठकों को प्राप्त हो। विवेचन-द्वादश राशियों के भ्रमणानुसार राहुफल—जिस वर्ष राहु मीन -- -- Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु महिना ५८८ राशिका रहता है, उस वर्ष बिजली का भय रहता है। सैकड़ों व्यक्तियों की मृत्यु बिजली के गिरने से होती है। अन्न की कमी रहने से प्रजा को कष्ट होता है। अन्नमें दूना-तिगुना लाभ होता है। एवं वर्ष तक दुर्भिक्ष रहता है, तेरहवें महीने में सुभिक्ष होता है। देश में गृहकलह तथा प्रत्येक परिवार में अशान्ति बनी रहती है। यह मीन राशि का राहु बंगाल, उड़ीसा, उत्तरीय बिहार, आसाम को छोड़कर अवशेष सभी प्रदेशों के लिए दुर्भिक्ष कारक होता है। अन्नकी कमी अधिक रहती है, जिससे प्रजा को भूखमरी का कष्ट तो सहन करना ही पड़ता है साथ ही आपस में संघर्ष और लूट-पाट होने के कारण अशान्ति रहती है। मीन राशि के राहु के साथ शनि भी हो तो निश्चयत: भारत को दुर्भिक्ष का सामना करना पड़ता है। दाने-दाने के लिए मुँहताज होना पड़ता है। जो अन्न का संग्रह करके रखते हैं, उन्हें भी कष्ट उठाना पड़ता है। कुम्भ राशि में राहु हो तो सन, सूत, कपास, जूट आदि के संचय में लाभ रहता है। राहु के साथ मंगल हो तो फिर जूट के व्यापार में तिगुना-चौगुना लाभ होता है। व्यापारिक सम्बन्ध भी सभी लोगों के बढ़ते जाते हैं। कपास, रुई, सूत, वस्त्र, जूट सन, पाट तथा पाटादि से बनी वस्तुओं के मूल्य में महँगी आती है। कुम्भराशि में राहु और मंगल के आरम्भ होते ही छ: महीनों तक उक्त वस्तुओं का संग्रह करना चाहिए। सातवें महीने में बेच देने से लाभ रहता है। कुम्भ राशि में राहु में वर्षा साधारण हो है, फसल भी मध्यम होती है तथा धान्य के व्यापार में भी लाभ होता है। खाद्यान्नों की कमी राजस्थान, बम्बई, गुजरात, मध्यप्रदेश एवं उड़ीसा में होती है। बंगाल में भी खाद्यान्नों की कमी आती है, पर दुष्काल की स्थिति नहीं आने पाती। पंजाब, बिहार और मध्य भारत में उत्तम फसल उपजती है। भारत में कुम्भ राशि का राहु खण्डवृष्टि भी करता है। शनि के साथ राहु कुम्भ राशि में स्थित रहे तो प्रजा के लिए अत्यन्त कष्टकारक हो जाता है। दुर्भिक्ष के साथ खून-खराबियाँ भी कराता है। यह संघर्ष और युद्ध का कारण होता है। विदेशोंसे सम्पर्क भी बिगड़ जाता है, सन्धियों का महत्व समाप्त हो जाता है। जापान और बर्मा में खाद्यान्न की कमी नहीं रहती है। चीन के साथ उक्त राहु की स्थिति में भारत का मैत्री सम्बन्ध दृढ़ होता है। मकर राशि में राहु के रहने से सूत, कपास, रुई, वस्त्र, जूट, सन, पाट आदि का संग्रह तीन महीनों तक करना चाहिए। चौथे महीने में उक्त वस्तुएँ बेचने से तिगुना लाभ होता है। ऊनी, रेशमी और सूती Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८५ विंशतितमोऽध्यायः वस्त्रों में पूरा लाभ होता है। मकर का राहु गुड़ में हानि कराता है तथा चीनी और चीनीसे निर्मित वस्तुओं के व्यापार में पर्याप्त हानि होती है। खाद्यान्न की स्थिति कुछ सुधर जाती है, पर कुम्भ और मकर राशिके राहु में खाद्यान्नों की कमी रहती है। मकर राशि के राहुके साथ शनि, मंगल या सूर्य के रहने से वस्त्र, जूट और कपास या सूत में पांच गुना लाभ होता है। वर्षा भी साधारण ही हो पाती है, फसल साधारण रह जाती है, जिससे देश में अन्न का संकट बना रहता है। मध्यभारत और राजस्थान में अन्न की कमी रहती है, जिससे वहाँ के निवासियों के लिए कष्ट होता है। धनु राशि के राहु में मवेशी के व्यापार में अधिक लाभ होता है। घोड़ा, खच्चर, हाथी एवं सवारी के सामान—मोटर, साईकिल, रिक्शा आदि में भी अधिक लाभ होता है। जो व्यक्ति मवेशी का संचय तीन महीनों तक करके चौथे महीने में मवेशी को बेचता है, उसे चौगुना तक लाभ होता है। मशीन के वे पार्टस् जिनसे मशीन का सीधा सम्बन्ध रहता है, जिनके बिना मशीन चलना कठिन ही नहीं, असम्भव है, ऐसे पार्टसों के व्यापार में लाभ होता है। जनसाधारण में ईर्ष्या, द्वेष और वैमनस्य का प्रचार होता है। वृश्चिक राशि में राहु मंगल के साथ स्थित हो तो जूट और वस्त्र के व्यापार में अधिक लाभ होता है। वृश्चिक राशि में राहु के आरम्भ होने के पाँच महीनों तक वस्तुओं का संग्रह करके छठवें महीने में वस्तुओं के बेचने से दुगुना या तिगुना लाभ होता है। खाद्यान्नों की उत्पत्ति अच्छी होती है तथा वर्षा भी उत्तम होती है। आसाम, बंगाल, बिहार, पंजाब, पश्चिमी पाकिस्तान, जापान, अमेरिका, चीन में उत्तम फसल उत्पन्न होती है। अनाजके व्यापार में साधारण लाभ होता है। दक्षिण भारत में फसल उत्तम नहीं होती है। नारियल, सुपाड़ी और आम, इमली आदि फलों की फसल साधारण होती है। वस्त्र-व्यवसाय के लिए उक्त प्रकार का राहु अच्छा होता है। तुलाराशि में राहु स्थित हो तो दुर्भिक्ष पड़ता है, खण्डवृष्टि होती है। अन्न, घी, तेल, गुड़, चीनी आदि समस्त खाद्य पदार्थों की कमी रहती है। मवेशी को भी कष्ट होता है तथा मेवशी का मूल्य घट जाता है। यदि तुला राशि में राहु उसी दिन आवे, जिस दिन तुला की संक्रान्ति हुई हो, तो भयंकर दुष्काल पड़ता है। देश के सभी राज्यों और प्रदेशों में खाद्यान्नों की कमी पड़ जाती है। तुलाराशि के राहु के साथ शनि, मंगल का रहना और अनिष्टकर होता है। पंजाब, Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | बंगाल और आसाम में अन्न की कमी रहती है, दुष्काल के कारण सहस्रों व्यक्ति भूखसे छटपटाकर अपने प्राण छोड़ देते हैं। कन्याराशि का राहु होने से विश्व में शान्ति होती है। अन्न और वस्त्र का अभाव दूर हो जाता है। लौंग, पीपल, इलायची और काली मिर्च के व्यवसाय में मनमाना लाभ होता है। जब कन्या राशि का राहु आरम्भ हो उस समयसे लेकर पाँच महीनों तक उक्त पदार्थों का संग्रह करना चाहिए, पश्चात् छठवें महीने में उन पदार्थों को बेच देने से अधिक लाभ होता है। चीनी, गुड़, घी और नमक के व्यवसाय में भी साधारण लाभ होता है। सोने, चाँदी के व्यापार में कन्या के राहु के छ: महीने के पश्चात् लाभ होता है। जापान, जर्मनी, अमेरिका, इंग्लैण्ड, चीन, रूस, मिस्र, इटली आदि देशों में खाद्यान्नों की साधारण कमी होती है। बर्मा में भी अन्न की कमी हो जाती है। सिंह राशि का राहु होने से सुभिक्ष होता है। सोंठ, धनिया, हल्दी, काली मिर्च, सेंधा नमक, पीपल आदि वस्तुओं के व्यापार में लाभ होता है। अन्न के व्यवसाय में हानि होती है। गुड़, चीनी और घी के व्यवसाय में समर्घता रहती है। तेल का भाव तेज हो जाता है। सिंह का राहु जनशिक स्थिति से जुड़करता है। देश में नये भाव और नये विचारों की प्रगति होती है। कलाकारों को सम्मान प्राप्त होता है तथा कला का सर्वाङ्गीण विकास होता है। साहित्य की उन्नति होती है। सभी देश शिक्षा और संस्कृति में प्रगति करते हैं। कर्क राशि के राहु में सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा, गेहूँ, चना, ज्वार, बाजारा आदि पदार्थ सस्ते होते हैं तथा सुभिक्ष और सुवृष्टि होती है। जनता में सुख-शान्ति रहती है। यदि कर्क राशि के राहु के साथ गुरु हो तो राजनैतिक प्रगति होती है। देश का स्थान अन्य देशों के बीच श्रेष्ठ माना जाता है। पंजाब, बिहार, बंगाल, बम्बई, मध्य भारत, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश के लिए यह राहू बहुत अच्छा है, इन स्थानों में वर्षा और फसल दोनों ही उत्तम होती है। आसाम में बाढ़ आने के कारण अनेक प्रकार की कठिनाइयों उत्पन्न होती हैं। जूट के व्यापार में साधारण लाभ होता है। जापान में फसल बहुत अच्छी होती हैं; किन्तु भूकम्प आने का भय सर्वदा बना रहता है। कर्क राशि का राहु चीन और रूस के लिए उत्तम नहीं है, अवशेष सभी राष्ट्रों के लिए उत्तम है। मिथुन राशि के राहु में भी सभी पदार्थ सस्ते होते हैं। अन्नादि पदार्थों की उत्पत्ति भी अच्छी होती है। तथा सभी देशों में सुकाल रहता है। वृषराशि Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंशतितमोऽध्यायः के राहु में अन्न की कुछ कमी पड़ती है। घी, तेल, तिलहन, चन्दन, केशर, कस्तूरी, गेहूँ, जौ, चना, चावल, ज्वार, बाजारा, मक्का, उड़त, अरहर, मूंग, गुड़, चीनी आदि पदार्थों के संचय में लाभ होता है। मेष राशि के राहु में यदि एक ही मास में सूर्य और चन्द्रग्रहण हो तो निश्चयत: दुर्भिक्ष पड़ता है। बंगाल, बिहार, आसाम और उत्तरप्रदेश में उत्तम वर्षा होती है, दक्षिण भारत में मध्यम वर्षा तथा अवशेष प्रदेशों में वर्षा का अभाव या अल्प वर्षा होती है। यदि राहु के साथ शनि और मंगल को दो वर्षा का अभान बना है। अनाज की उत्पत्ति भी साधारण ही होती है। देश में खाद्यान्न संकट होने से कुछ अशान्ति रहती है। निम्न श्रेणी के व्यक्तियों को अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं। राहु द्वारा होने वाले चन्द्रग्रहण का फल मेष राशि में चन्द्रग्रहण हो तो मनुष्यों को पीड़ा होती है। पहाड़ी प्रदेश, पंजाब, दिल्ली, दक्षिणभारत, महाराष्ट्र, आन्ध्र, बर्मा आदि प्रदेशों के निवासियों को अनेक प्रकार की बीमारियों का सामना करना पड़ता है। मेषराशि के ग्रहण में शूद्र और वर्णसंकरों को अधिक कष्ट होता है। लाल रंगके पदार्थों में लाभ होता है। वृष राशिके ग्रहण में गोप, मवेशी, पथिक, श्रीमन्त, धनिक और श्रेष्ठ व्यक्तियोंको कष्ट होता है। इस ग्रहणसे फसल अच्छी होती है, वर्षा भी मध्यम ही होती है। खनिज पदार्थ और मशालोंकी उत्पत्ति अधिक होती है। गायोंकी संख्या घटती है, जिससे घी, दूधकी कमी होने लगती है। राजनैतिक दृष्टि से उथल-पुथल होते हैं। ग्रहण पड़ने के एक महीने के उपरान्त नेताओ में मनमुटाव आरम्भ होता है तथा सर्व प्रदेशों में मन्त्रिमण्डलों में परिवर्तन होता है। मिथुन राशि पर चन्द्रग्रहणके साथ यदि सूर्यग्रहण भी हो तो कलाकारों, शिल्पियों, वेश्याओं, ज्योतिषियों एवं इसी प्रकार के अन्य व्यवसायियोंको शारीरिक कष्ट होता है। इटली, मिस्र, ईरान आदि देशों में तथा विशेषत: मुस्लिम राष्ट्रों में अनेक प्रकार से अशान्ति रहती है। वहाँ अन्न और वस्त्र की कमी रहती है तथा गृहकलह भी उत्पन्न होते है। उद्योग-धन्धो में रुकावट उत्पन्न होती है। बर्मा, चीन, जापान, जर्मन, 'अमेरिका, इंग्लैण्ड और रूस में शान्ति रहती है। यद्यपि इन देशों में भी अर्थसंकट बढ़ता हुआ दिखलाई पड़ता है, फिर भी शान्ति रहती है। भारतके लिए भी उक्त राशि पर दोनों ग्रहणोंका होना अहितकारक होता है। कर्क राशि पर चन्द्रग्रहण हो तो गर्दभ और अहीरोंको कष्ट होता है। कबाली, नागा तथा अन्य पहाड़ी जाति Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ५१२ के व्यक्तियों के लिए भी पर्याप्त कष्ट होता है। नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं तथा अर्थिक संकट भी उनके सामने प्रस्तुत रहता है। यदि इसी राशि पर सूर्यग्रहण भी हो तो क्षत्रियोंको कष्ट होता है। सैनिक तथा अस्त्रसे व्यवसाय करनेवाले व्यक्तियोंको पीड़ा होती है। चोर और डाकुओं के लिए अत्यन्त भय होता है। सिंहराशि के ग्रहण में वनवासी दुःखी होते हैं, राजा और साहूकारों का धन क्षय होता है। कृषकों को भी मानसिक चिन्ताएं रहती हैं। फसल अच्छी नहीं होती तथा फसल में नाना प्रकार के रोग लग जाते हैं। टिड्डी, मूसोंका भय अधिक रहता है। कठोर कार्यों से आजीविका अर्जन करने वालों को लाभ होता है। व्यवसायियों को हानि उठानी पड़ती है। कन्याराशिके गृहण में शिल्पियों, कवियों, साहित्यकारों, गायकों एवं अन्य ललित कलाकारोंको पर्याप्त कष्ट रहता है। आर्थिक संकट रहने से उक्त प्रकार के व्यवसायियोंको कष्ट होता है। छोटे-छोटे दुकानदारों को भी अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं। बंगाल, आसाम, बिहार, पंजाब, उत्तरप्रदेश, बम्बई, दिल्ली, मद्रास और मध्यप्रदेश में फसल साधारण होती है। आसाम में अन्न की कमी रहती है तथा पंजाब में भी अन्नका भाव महँगा रहता है। यदि कन्या राशि पर चन्द्रग्रहण के साथ सूर्यग्रहण भी हो तो बर्मा, लंका, चीन और जापान में भी अन्न की कमी पड़ जाती है। वस्त्र के व्यापार में अधिक लाभ होता है। जूट, सन, रेशम, कपास, रुई और पाट के भाव ग्रहणों के दो महीने के पश्चात् अधिक बढ़ जाते हैं। मिट्टीका तेल, पेट्रोल, कोयला आदि पदार्थों की कमी पड़ जाती है। यदि कन्याराशि के चन्द्रग्रहण पर मंगल या शनि की दृष्टि हो तो अनाजों की और अधिक कमी पड़ जाती है। तुला राशि पर चन्द्रग्रहण हो तो साधारण जनता में असन्तोष होता है। गेहूँ, गुड़, चीनी, घी और तेलका भाव तेज होता है। व्यापारियोंके लिए यह ग्रहण अच्छा होता है, उन्हें व्यापार में अच्छा लाभ होता है। पंजाब, ट्राबंकोर कोचीन, मलावार को छोड़कर अवशेष भारत में अच्छी वर्षा होती है। इन प्रदेशों में फसल भी अच्छी नहीं होती है। मवेशी को कष्ट होता है तथा बिहार और उत्तर प्रदेश के निवासियोंको अनेक प्रकारकी बीमारियोंका सामना करना पड़ता है। घी, गुड़, चीनी, कालीमिर्च, पीपल, लौंग, धनिया, हल्दी आदि पदार्थोंका भाव भी महंगा होता है। लोहेके व्यवसायियों को दूना लाभ होता है। सोना और चाँदीके व्यापार में साधारण लाभ होता है। ताँबा और पीपलके भाव अधिक तेज होते हैं। अस्त्र-शस्त्र Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंशतितमोऽध्यायः तथा मशीनोंका मूल्य भी बढ़ता है। वृश्चिकराशि पर चन्द्रग्रहण हो तो सभी वर्णके व्यक्तियों को कष्ट होता है। पंजाब निवासियोंको हैजा और चेचक, प्रकोप अधिक होता है। बंगाल, बिहार और आसाम में विषैले ज्वरके कारण सहस्रों व्यक्तियोंकी मृत्यु होती है। सोना, चाँदी मोती, माणिक्य, हीरा, गोमेद, नीलम आदि रत्नोंके सिवा साधारण पाषाण, सीमेण्ट और चूनाके भाव भी तेज होते हैं। घी, गुड़ और चीनीका भाव सस्ता होता है। यदि वृश्चिक राशिपर चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण दोनों हो तो वर्षाकी कमी रहती है। फसल भी सम्यक् रूप से नहीं होती है, जिससे अन्नकी कमी पड़ती है। धनुराशिपर चन्द्रग्रहण हो तो वैद्य, डॉक्टर, व्यापारी, घोड़ो एवं यवनोंको शारीरिक कष्ट होता है। धनुराशिके ग्रहण में देश में अर्थसंकट व्याप्त होता है, फसल उत्तम नहीं होती है। खनिज पदार्थ, वन और अन्न सभीकी कमी रहती है। फल और तरकारियोंकी भी क्षति होती है। यदि इसी राशिपर सूर्यग्रहण हो और शनि से दृष्ट हो तो अटक से २.८८. सक तथा हिमाल से कन्याकुमारी तक के देशों में आर्थिक संकट रहता है। राजनीति में भी उथल-पुथल होते हैं। कई राज्योंके मन्त्रिमण्डलों में परिवर्तन होता है। मकर राशि पर चन्द्रग्रहण हो तो नट, मन्त्रवादी, कवि, लेखक और छोटे-छोटे व्यापारियोंको शारीरिक कष्ट होता है। कुम्भराशिपर ग्रहण होने से अमीरोंको कष्ट तथा पहाड़ी व्यक्तियोंको अनेक प्रकारके कष्ट होते हैं। आसाम में भूकम्प भी होता है। अग्निभय, शस्त्रभय और चोरभय समस्त देशको विपन्न रखता है। मीनराशिपर चन्द्रग्रहण होने से जलन्तु, जलसे आजीविका करने वाले, नाविक एवं अन्य इसी प्रकार के व्यक्तियोंको पीड़ा होती है। नक्षत्रानुसार चन्द्रग्रहण का फल-अश्विनी नक्षत्र में चन्द्रग्रहण हो तो दालवाले अनाज मूंग, उड़द, चना, अरहर आदि महंगे; भरणी में ग्रहण हो तो श्वेत वस्त्रोंके तीन मास में लाभ, कपास, रुई, सूत, जूट, सन, पाट आदि में चार महीनों में लाभ और कृत्तिका में हो तो सुवर्ण, चाँदी प्रवाल, मुक्ता, माणिक्य में लाभ होता है। उक्त दिनोंके नक्षत्रों में ग्रहण होने से वर्षा साधारणत: अच्छी होती है। खण्डवृष्टिके कारण किसी प्रदेश में वर्षा अच्छी और किसी में कम होती है। रोहिणी नक्षत्र में ग्रहण होनेपर कपास, रुई, जूट, और पाटके संग्रह में लाभ; मृगशिर नक्षत्र में ग्रहण हो तो लाख, रंग एवं क्षार पदार्थों में लाभ; आर्द्रा में ग्रहण हो Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता तो घी, गुड़ और चीनी आदि पदार्थ महंगे; पुनर्वसु नक्षत्र में ग्रहण हो तो तैल, तिलहन, मूंगफली, और चना में लाभ; पुष्य नक्षत्र में ग्रहण हो तो गेहूँ, चावल, जौ और ज्वार आदि अनाजों में लाभ; मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी और हस्त, इन चार नक्षत्रों में ग्रहण हो तो चना, गेहूँ, गुड़ और जौ में लाभ; चित्रा में ग्रहण होने से सभी प्रकारके धान्यों में लाभ; चित्रा में ग्रहण होने से सभी प्रकारके धान्यों में लाभ, स्वाति में ग्रहण होने से तीसरे, पाँचवें और नौवें महीने में अन्नके व्यापार में लाभ; विशाखा नक्षत्र में ग्रहण होने से छठवें महीने में कुलथी, कालीमिर्च, चीनी, जीरा, धनिया आदि पदार्थों में लाभ: अनुराधा में नौवें पहीने में बाजरा, कोदो, कंगुनी और सरसों में लाभ, ज्येष्ठा नक्षत्र में ग्रहण होने से पाँचवें महीने में गुड़, चीनी, मिश्री आदि पदार्थों में लाभ; भूल नक्षत्र में ग्रहण होने से चावलों में लाभ; पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में ग्रहण होने से वस्त्र-व्यवसाय में लाभ, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में ग्रहण होने से पाँचवें मास में नारियल, सुपाड़ी, काजू, किसमिश आदि फलों में लाभ; श्रवण नक्षत्र में ग्रहण होने से मवेशियोंके व्यापार में लाभ; धनिष्ठा नक्षत्र में ग्रहण होने से उड़द, मूंग, मोठ आदि पदार्थोक व्यापार में लाभ; शतभिषा नक्षत्र में ग्रहण होने से चना में लाभ, पूर्वाभाद्रपद में ग्रहण होने पीड़ा, उत्तराभाद्रपद में ग्रहण होने से तीन महीनों में नमक, चीनी, गुड़ आदि पदार्थोके व्यापार में विशेष लाभ होता है। विद्ध फल-राहुका शनि से विद्ध होना भय, रोग, मृत्यु, चिन्ता, अन्नाभव एवं अशान्ति सूचक है। मंगल से विद्ध होने पर राहु जनक्रान्ति, राजनीति में उथल-पुथल एवं युद्ध होते हैं। बुध या शुक्र से विद्ध होने पर राहु जनता को सुख, शान्ति, आनन्द, आमोद-प्रमोद, अभय और आरोग्य प्रदान करता है। चन्द्रमासे राहु विद्ध होने पर जनताको महान् कष्ट होता है। प्रत्येक ग्रह का विद्ध रूप सप्तशलाका या पंचशलाकाचक्र से जानना चाहिए। इति श्रीपंचम श्रुत केवली दिगम्बराचार्य भद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिता का राहु संचार नामा बीसवें अध्याय की हिन्दी भाषानुवाद करने वाली क्षेमोदय टीका समाप्त। (इति विंशतितमोऽध्यायः समाप्तः) Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकविंशतितमोऽध्यायः केतु उदयास्त वर्णन कोणजान् पापसम्भूतान् केतून् वक्ष्यामि ज्योतिषा । मृदलो दारुणाश्चैन तेषामासं निबोधत ।। १ ।। (ज्योतिषा) हे ज्योतिषि (पापसम्भूतान् ) पाप का कारण (कोणजान्) कोण में उत्पन्न हुऐ (केतुन ) केतु को ( वक्ष्यामि) कहूँगा ( मृदवो दारुणाश्चैव ) मृदु और दारुण होने के अनुसार ( तेषामासं निबोधत) उनका फल समझना चाहिये । भावार्थ —— हे ज्योतिषि पापके कारण कोण रूप उत्पन्न हुऐ ऐसे केतुओं का वर्णन करूंगा, वो मृदु और दारुण होने से उनका फल भी वैसा ही समझना चाहिए ॥ १ ॥ वर्षेषु च विशेषतः । विषमाः पूर्वपापजाः ॥ २ ॥ एकादिषु केतवः शतान्तेषु सम्भवन्त्येवं ( एकदिषु शातान्तेषु ) एकादि से लेकर ( वर्षेषु च विशेषतः ) वर्षा के अन्दर ( पूर्वपापजा:) पूर्व पापके उदय से (विषमाः) विषम ( केतवः) केतु (सम्भवन्त्येवं) सम्भवित होते हैं। भावार्थ – एकादिसे लेकर सौ वर्षो के अन्दर पूर्ण पापकर्म के उदय यह विषम केतु होते हैं, और उनका फल विषम ही होता है ॥ २ ॥ पूर्व लिङ्गानि केतूनामुत्पाताः सदृशा: ग्रहा अस्तमनाश्चापि दृश्यन्ते चापि लक्षयेत् ॥ ३ ॥ पुनः । (केतूनाम्) केतुओं के (पूर्वलिङ्गानि ) पूर्व चिह्न (उत्पाताः सदृशाः पुनः ) उत्पातके सामन ही है ( ग्रहा अस्तमनाश्चापि ) अतः ग्रहों के अस्त और उदय को देखकर (दृश्यन्ते चापि लक्षयेत् ) उसका भी फल कहना चाहिये । भावार्थ — केतुओं के पूर्वलियों को देखकर उत्पात सदृश उत्पात के समान ही होते है, अतः ज्ञानी ग्रहों का अस्त व उदय देखकर उस का फल कहे ॥ ३ ॥ Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता । शतानि चैव केतूनां प्रवक्ष्यामि पृथक् पृथक् । उत्पाता यादृशा उक्ताग्रहास्तमनान्यपि।। ४॥ (शतानि चैव केतनां) सौ केतुओं का वर्णन (पृथक पृथक् प्रवक्ष्यामि) अलग-अलग कहूँगा (ग्रहास्तमनान्यपि) ग्रहों के अस्तोदय तथा (यादृशा) जिस प्रकार के (उत्पाता) उत्पात (उक्ता) कहे गये हैं (यादृशा) उनका वर्णन भी वैसा ही करेंगे। भावार्थ-सौ केतुओं का वर्णन अलग-अलग कहूँगा, ग्रहोंके अस्तोदय ॥४॥ अन्यस्मिन् केतुभवने यदा केतुश्च दृश्यते। तदाजनपदव्यूहः प्रोक्तान् देशान् स हिंसति॥५॥ (यदा) जब (अन्यस्मिन् केतुभवने) अन्य केतु भवन में (केतुश्च दृश्यते) केतु दिखाई पड़े तो (तदा) तब (जनपद व्यूहः) जनता (प्रोक्तान) कहे गये (देशान् स हिंसति) देशों की हिंसा करती हैं। भावार्थ-जब अन्य केतु भवन में केतु दिखाई पड़े तो जनता कहे गये देशों का नाश करती है।५॥ एवं दक्षिणतो विन्द्यादपरेणोत्तरेण च। कृत्तिकादियमान्तेषु नक्षत्रेषु यथाक्रमम्॥६॥ (एवं) इस प्रकार (कृत्तिकादियमान्तेषु नक्षत्रेषु) कृत्तिकादि नक्षत्रसे भरणी तक (दक्षिणतो अपरेणोत्तरेण च) दक्षिण पश्चिम और उत्तर इन दिशाओं में नक्षत्रों को (यथा) क्रमश: समझ लेना चाहिये। भावार्थ----इस प्रकार कृत्तिकादि नक्षत्रों से भरणी तक दक्षिण पश्चिम और उत्तर इन दिशाओं के नक्षत्रों को क्रमशः समझ लेना चाहिये॥६॥ धूमः क्षुद्रश्च यो ज्ञेयः केतुरङ्गारकोऽग्निपः । प्राण संत्रासयत्राणी स प्राणी संशयी तथा॥७॥ (केतुरङ्गारकोऽग्निपः) केतु अंगारक, और राहु (धूप्रः क्षुद्रश्च यो ज्ञेयः) धूम्रवर्ण और शूद्र दिखलाई पड़े तो (प्राण संत्रासयत्राणी) यात्री के प्राण संकट में पड़ते है (सप्राणी संशयी तथा) और जीव संशय में पड़ जाते हैं। Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९७ एकविंशतितमोऽध्यायः भावार्थ-केतु अंगारक और राहु धूम वर्ण का हो शुद्र हो तो जीवों को संशय होता है यात्रीयों के प्राण संकट में पड़ जाते हैं।॥७॥ त्रिशिरस्के द्विज भयम् अरुणे युद्धमुच्यते। अरश्मिके नृपापायो विरुध्यन्ते परस्परम् ।।८॥ (त्रिशिरस्के द्विज भयम्) तीन सिर वाला केतु दिखे तो ब्राह्मणों को भय उत्पन्न होगा, (अरुणेयुद्धमुच्यते) लाल दिखे तो युद्ध होगा (अरश्मिके) किरणरहित दिखे तो (नृपापायोपरस्परम् विरुध्यन्ते) राजा और प्रजा का परस्पर में विरोध होता भावार्थ-तीन सिर वाला केतु दिखे तो ब्राह्मणोंको भय उत्पन्न होगा, लाल दिखे तो युद्ध होगा, किरण रहित हो तो राजा और प्रजा में परस्पर विरोध होगा ।।८।। विकृते विकृतं सर्व क्षीणे सर्वपराजयः । ने शिवध:पापः कबन्धे जनमृत्युदः॥९॥ रोगं सस्य विनाशञ्च दुस्कालो मृत्युविद्रवः। मांस लोहितकं ज्ञेयं फलमेवं च पञ्चधा॥१०॥ (विकृते विकृतं सर्व) विकृत केतु दिखे तो सब विकृत होता है (क्षीणे सर्वपराजयः) क्षीण दिखे तो सब पराजय होते हैं (शृङ्गे शृषि वध:पाप:) पूंछ वाला होता, पाप बढ़ाने वाला होता है (कबन्धेजनमृत्युदः) अगर धड़ रहित दिखे तो मृत्यु देता है। (दुष्कालो मृत्यु विद्रवः) दुष्काल पड़ेगा, मरण का उपद्रव बढ़ेगा, (मांस लोहितकं ज्ञेयं) मासं और रक्त बहेगा ऐसा जानना चाहिये कि (फलंमेवं चपञ्चधरा) इस तरह पाँच प्रकार के फल मिलेंगे। भावार्थ-यदि केतु विकृत दिखे तो विकृती करने वाला होता है, क्षीण दिखे तो सबको क्षीण करता है। पूंछ वाला दिखे तो पाप बढ़ाने वाला और धड़ रहित दिखे तो मृत्यु लाने वाला होता है। रोग उत्पन्न होगा, धान्यों का नाश होगा, दुष्काल पड़ेगा मरण भय हो जायगा, मांस और रुधिर युद्ध में बहेगे ऐसे पाँच फल उपर्युक्त केतु के होने पर होंगे॥९-१०॥ Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | मानुषः पशु पक्षिणां समयस्ताप संक्षयें। विषाणि इंष्ट्रिघाताय सस्यघाताय शंकरः॥११।। (मानुष: पशुपक्षिणां) मनुष्य, पशु, पक्षीयों के लिये (समयस्ताप संक्षये) समयानुसार सारतांप देता है और क्षय को प्राप्त कराता है (विषाणिदृष्ट्रि घाताय) सिंग वाला हो तो दाँत वाले जीवों का घात करता है और (सस्य घाताय शंकरः) धान्यों के घात के लिये मानो रुद्र है। भावार्थ-उपर्युक्त प्रकार का केतु मनुष्य, पशु, पक्षीयों का घात करता है, ताप देता है, क्षय करता है, दाँत वाले व विष वालों का घात करता है। और धान्यों के घात को तो मानों शंकर ही हैं।॥ ११॥ अङ्गारकोऽग्निसङ्काशो धूमकेतुस्तु धूमवान। नील संस्थान संस्थानोवैडूर्य सदृश प्रभः॥१२॥ (अगरकोऽग्निसङ्काशो) अग्नि के समान केतु अंगारक कहलाता है, (धूमकेतुस्तु धूमवान) धुएँ वाला केतु धूमकेतु कहलाता है, (नीलासंस्थान संस्थानो) नीला धूमकेतु की (वैडर्य सदृश: प्रभः) वैडुर्य मणि की प्रभा वाला। भावार्थ-अग्नि के समान केतु अंगारक कहलाता है, और धूम्रवर्ण का हो तो धूमकेतु कहलाता है। नीले संस्थान से युक्त केतु वैडुर्य मणिकी प्रभा वाला होता है।। १२ ।। कनकाभा शिखायस्य स केतुः कनकः स्मृतः। यस्योर्ध्वगा शिखा शुक्ला स केतु श्वेत उच्यते॥१३॥ (यस्य केतु) जिस केतुकी (शिखा) शिखा (कनकाभा) सुवर्ण की आभा वाली हो (स) उसको (कनकः स्मृत:) कनक केतु कहते हैं (यस्य) जिसकी (शिखा) शिखा (उर्ध्वगा) ऊपर हो (शुक्ला) सफेद हो (स) उसको (श्वेत केतु उच्यते) श्वेत केतु कहते हैं। भावार्थ-जिस केतु की शिखा सुवर्ण वर्ण की हो उसको कनक केतु कहते हैं। और जिसकी शिखा सफेद और ऊर्ध्व में हो तो उसे श्वेत केतु कहते हैं।।१३।। Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकविंशतितमोऽध्यायः त्रिवर्णश्चन्द्रवद् वृत्तः समसर्पवङ्करः। त्रिभिः शिरोभिः शिशिरोगुल्मकेतुः स उच्यते॥१४॥ (त्रिवर्णश्चन्द्रवद् वृत्त:) तीन वर्ण वाला चन्द्रमा के समान गोल केतु (समसर्पवदङ्कुरः) समसर्पवद्कर नाम का होता है (त्रिभिः शिरोभिः शिशिरो) तीन सिर वाला केतु को शिशिर कहलाता है और (गुल्मकेतुः स उच्यते) गुल्म के समान केतु गुल्म केतु कहलाता है। भावार्थ-तीन वर्ण वाले चन्द्रमा के समान वृत (गोल) केतु को समसर्पवद्र कहते हैं। तीन सिर वाले केतु को शिशिरकेतु कहते हैं, और गुल्म के समान केतु को गुल्म कहते हैं।। १४॥ विक्रान्तस्य शिखेदीप्ते ऊर्ध्वगे च प्रकीर्तिते। ऊर्ध्वमुण्डा शिखायस्य स खिली केतुरुच्यते॥१५॥ (यस्य) जिस केतुकी (शिखे) शिखा (ऊर्ध्वगे च) ऊपर की ओर हो , (दीप्ते) दीप्त हो (विक्रान्तस्यप्रकीर्तिते) उसको विक्रान्त संज्ञक कहते हैं, (ऊर्ध्वमुण्डाशिखा) जिसकी शिखा ऊपर की ओर हो उसको ऊर्ध्व मुण्डा कहते है और जिसकी (स खिली केतुरुच्यते) शिखा खुली हुई हो तो समझे उसको केतु संज्ञा कहते हैं। भावार्थ—जिसकी शिखा ऊपर की ओर हो और जो भी दीप्त हो तो उसको विक्रान्त संज्ञा है, जिसकी शिखा मात्र ऊपर की ओर हो तो उसको ऊर्ध्व मुण्डा कहते हैं। जिसकी खुली हुई शिखा हो तो उसको केतु संज्ञा वाला कहते हैं ।। १५ ।। शिखें विषाणषद् यस्य स विषाणी प्रकीर्तितः। व्युच्छिद्यमानो भीतेन रूक्षा च क्षिलिकाशिखा॥१६॥ (यस्य) जिसकी (शिखे) शिखा (विषाणवद्) विषाण के समान हो (स) वह (विषाणि) विषाणी (प्रकीर्तितः) कहा है तथा (भीतेन) भयमे (रूक्षा च) रूक्ष और (व्युच्छिद्यमानो) नष्ट होने वाला है उसको (क्षिलिका शिखा) क्षिलिका शिखा वाला केतु कहते हैं। Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६०० भावार्थ-जिसकी शिखा विषाण के समान हो वह विषाणी केतु होता है, तथा भयसे रूक्ष और नष्ट होता हुआ और उसको क्षिलिका शिखा केतु कहते हैं॥१६ 11 शिखाश्चतम्रो ग्रीबार्थ कबन्धस्य विधीयते। एकरश्मिः प्रदीप्तस्तु स केतुर्दीप्त उच्यते॥१७॥ (ग्रीवाध) जिसकी आधी गर्दन हो (शिखाश्चतस्रो) शिखा चारों तरफ फैली हो (कबन्धस्य विधीयते) वह कबन्ध नामका केतु है (एकरश्मिः प्रदीप्तस्तु) जो एक रश्मि वाला प्रदीप्त केतु है (स केतु र्दीप्त उच्यते) व केतु दीप्त कहलाता भावार्थ-जिसकी आधी गर्दन हो शिखा चारों तरफ हो वह कबन्ध केतु कहलाता है, जो एक रश्मि वाला है प्रदीप्त है उसको दीप्त केतु कहते हैं ।। १७॥ शिखा मण्डलवद् यस्य केतुर्मण्डलीस्मृतः । मयूरपक्षीविज्ञेयो . हसनः प्रभयाऽल्पया॥१८॥ (यस्य) जिस केतु की (शिखामण्डलवद) मण्डल के समान हो (स केतुमण्डलीस्मृतः) उसको मण्डली केतु कहते है, और जो (प्रभयाऽल्पया हसन:) अल्प कान्ति वाला हो (मयूरपक्षीविज्ञेयो) उसको मयूर पक्षी कहा जाता है। भावार्थ-शिखा मण्डल वाला केतु मण्डली केतु कहा जाता है, और जो अल्पकान्ति वाला केतु है उसे मयूर पक्षी केतु कहते हैं॥१८॥ श्वेतः सुभिक्ष दो ज्ञेयः सौम्यः शुक्लः सुभार्थिषु। कृष्णादिषु च वर्णेषु चातुर्वण्य विभावयेत् ॥१९॥ (श्वेत: सुभिक्षदोज्ञेय:) श्वेत वर्ण का केतु सुभिक्ष देने वाला है (सौम्यः शुक्ल: सुभार्थिषु) सुन्दर और शुक्ल वर्ण का केतु शुभ फल देता है (कृष्णादिषु च वर्णेषु) क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि वर्गों में विभाजित करना चाहिये। भावार्थ-श्वेत केतु सुभिक्ष करन वाला है। सौम्य और शुक्ल वर्ण का केतु शुभ फल देने वाला समझना चाहिये, काला, लाल, पीला, सफेद वर्णों का केतु क्रमश: ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्रों का शुभाशुभ करने वाला है।। ११ ।। Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०९ एकविंशतितमोऽध्यायः केतो:समुत्थितः केतुरन्यो यदि च दृश्यते। क्षु च्छस्त्ररोगविघ्नस्था प्रजा गच्छति संक्षयम्॥२०॥ (केतु समुत्थितःकेतु) केतु में से दूसरा केतु (रन्यो यदि च दृश्यते) दिखाई पड़े तो (क्षु च्छसस्त्ररोगविघ्नस्था) क्षुधारोग, शस्त्र प्रकोप ऐसे विघ्न आते हैं (प्रजा गच्छति संक्षयम्) प्रजा क्षय को प्राप्त होती है। भावार्थ-यदि केतु के अन्दर से दूसरा केतु निकलता हुआ दिखाई पड़े तो क्षुधा रोग, शस्त्र प्रकोप आदि विघ्न होते है। और प्रजा क्षय को प्राप्त होती हैं।। २०॥ एते च केतवः सर्वे धूमकेतु समं फलम्। विचार्य वीथिभिश्चापि प्रभाभिश्चविशेषतः ॥२१॥ (एते च केतव: सर्वे) इतने प्रकार के केतु सब (धूमकेतु समं फलम्) धूमकेतु के समान फल देते हैं (विशेषतः) तो भी विशेष कर (वीथिभिश्चापि) वीथि के अनुसार (प्रभाभिश्च) प्रभाके अनुसार (विचार्य) विचार करना चाहिये। भावार्थ-उपर्युक्त सभी केतुओं का फल धूमकेतु के समान होता है। तो भी विथि' और प्रभा के अनुसार निमित्तज्ञानी को शुभाशुभ कहना चाहिये॥२१॥ यां दिशं केतवोऽर्चिभिधूमयान्ति दहन्ति च। तां दिशं पीडयन्त्येते क्षुधायैः पीडनै शम्॥२२ ।। (या दिशं) जिस दिशा को (केतवो) केतु (अचिर्भिधूमयान्ति च दहन्ति) अग्नि के समान जलता है या धुऔं देता है (तां दिशं) उसी दिशा को (पीडयन्त्येते) पीडा देता हैं (क्षुधाद्यैः पीडनै शम्) और सुधारिक से ज्यादा पीड़ा पहुँचती है। भावार्थ-जिस दिशा का केतु अग्निके समान जलता है या धुआँ देता है उसी दिशामें क्षुधादिरोग से पीड़ा पहुँचती है।। २२॥ नक्षत्रं यदि वा केतुर्ग्रहं वाऽप्यथ धूमयेत्। तत: शस्त्रोप जीवीनां स्थावरं हिंसते ग्रहः ॥२३॥ (यदि केतु) यदि केतु किसी (नक्षत्रं वा ग्रह) नक्षन या ग्रह को (वाऽप्यथ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता धूमयेत्) अभिधूमित करे तो (ततः) वहाँ पर ( ग्रहः ) ग्रह ( शस्त्रोप जीवीनां ) शस्त्र की आजीविका करने वालों को (स्थावरं हिंसते) और स्थावरों की हिंसा होती है । भावार्थ-यदि केतु किसी नक्षत्र या ग्रह को धूमित करे तो वहाँ पर शस्त्र से आजीविका करने वालों का घात होता है या स्थावरों की हिंसा होती है ।। २३ ॥ स्थावरे शबरां धूमिते तज्ज्ञा यायिनो यात्रिधूपने । भिल्लजातीनां पारसीकांस्तथैव च ॥ २४ ॥ ६०२ यदि केतु से (स्थावरे धूमितेतज्ज्ञा) स्थावर धूमित होते हैं या (यायिनो यात्रिधूपने ) आने वाला यात्री धूमित होता है, तो (शबरांभिल्लजातीनां शबर, भील जाति (च) और ( पारसीकांस्तथैव ) पारसी आदि पीड़ित होते हैं । भावार्थ - यदि केतु से स्थावर धूमित होते है या आने वाला यात्री धूमित होता है तो भील जाति शबर जाति और पारसी जाति पीड़ित होती है ॥ २४ ॥ रुपागतः । पीडयेत् ॥ २५ ॥ शुक्रं दीप्त्या यदि हन्याद्भूमकेतु तदा सस्यं नृपान् नागान् दैत्यान् शूरांश्च ( यदि ) यदि (धूमकेतु) धूमकेतु अपनी (दीप्त्या) दीप्ती से (शुक्रं ) शुक्र का (रुपागत: हन्याद्) जाकर घात करे तो ( तदा) तब ( सस्य नृपान् ) धान्यों का राजाओं का (नागान्) नागों का ( दैत्यान्) दैत्योंका (शूरांश्च पीडयेत् ) और योद्धाओं का घात होता है उनको पीड़ा होती है । भावार्थ - यदि भूमकेतु अपनी दीप्ती से शुक्र को घाते तो धान्य राजा, नाग, दैत्य और योद्धा इन सबको पीड़ा होती है ॥ २५ ॥ शुकानां शकुनानां च वृक्षाणां चिर शकुनि ग्रहपीडायां फलमेतत् जीविनाम् । समादिशेत् ॥ २६ ॥ (शकुनिग्रहपीडायां ) शकुनि नामक ग्रह को पीडा में (शुकानां) शुक (शकुनानां च) और पक्षी (चिर जीविनाम् वृक्षाणां ) चिर जीवी वृक्षों का पीड़ा कारक (फलमेतत् समादिशेत्) फल कहना चाहिये । Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०३ एकविंशतितमोऽध्यायः भावार्थ-शकुनि नामक ग्रह पीडा में शुक और पक्षी चिरजीवी वृक्षों का पीडाकारक फल कहना चाहिये ॥२६॥ शिंशुमारो यदा केतुरुपागत्य प्रधूमयेत्। तदा जलचरं तोयं वृद्धवक्षांश्च हिंसति॥२७॥ (यदा) जब (शिशुमारो) शिंशुमार नामक जन्तु को (केतु) केतु (रुपागत्यप्रधूमयेत्) धूमित करता है (तदा) तब (जलचर तोयं) जलचर जन्तु जल और (वृद्धवक्षांश्च हिंसति) वृद्ध वृक्षोंका घात होता है। भावार्थ-जब शिशुमार नामक जन्तु को केतु धूमित करता है तब जलचर जन्तु और जल वृद्ध वृक्ष की हिंसा करता है॥ २७॥ सप्तर्षीणामन्यतमं यदा केतुः प्रधूमयेत्। तदा सर्व भयं विन्धात् ब्राह्मणानां न संशयः॥२८॥ (यदा) जब (केतुः) केतु (सप्तर्षीणामन्यतमं) सप्तऋषियों में से किसी एक को (प्रधूमयेत्) प्रधूमित करे तो (तदा) तब (ब्राह्मणानां) ब्राह्मणों को (सर्व भयं विन्द्यात्) सभी प्रकार का भय होता है। ऐसा समझना चाहिये (न संशयः) इसमें कोई सन्देह नहीं है। भावार्थ-जब केतु सप्तऋषियों में से किसी एक को भी प्रधूमित करे तब ब्राह्मणों को सभी प्रकार का भय होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है ऐसा समझना चाहिये ॥ २८॥ वृहस्पति यदा हन्याद् धूमकेतु रथार्चिभिः। वेदविद्याविदो वृद्धान् नृपस्तिज्ज्ञांश्च हिंसति॥२९॥ (यदा) जब (धूमकेतु) धूमकेतु (रथार्चिभिः) अपमी तेज किरणों द्वारा (बृहस्पति हन्याद्) गुरु का हनन करे तब (वेद विद्याविदो वृद्धान्) वेद विद्या के जानकार वृद्ध पुरुषों को व (नृपस्तिज्ज्ञांश्च हिंसति) राजाओं की हिंसा करता है ऐसा समझो। भावार्थ-जब धूमकेतु अपनी किरणों द्वारा गुरु का घात करे तो समझो विद्या के जानकार ऐसे वृद्ध पुरुषों का व राजाओं का घात करता है ।। २९ ।। Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाह संहिता ६०४ एवं शेषान् ग्रहान् केतुर्यदा हन्यात् स्वरश्मिभिः । ग्रहयुद्धे यदा प्रोक्तं फलं तत्तु समादिशेत्॥३०॥ (यदा) जब (केतुः) केतु (स्वरश्मिभिः) अपनी किरणों द्वारा (एवं शेषान् ग्रहान्) इस प्रकार से बचे हुऐ ग्रहों का घात करे तो (ग्रहयुद्धे प्रोक्त) गृहयुद्ध कहना चाहिये (फलं तत्तु समादिशेत्) क्योंकि ऐसा ही कहा गया है। भावार्थ-जब केतु अपनी किरणों से अन्य बचे हुऐ ग्रहोंका घात करे तो समझो गृहयुद्ध होगा क्योंकि अन्यत्र ऐसा ही कहा गया है।। ३०॥ नक्षत्रे पूर्व दिग्भागे शादा डः महामने। तदा देशान् दिशामुग्रां भञ्जन्ते पापदा नृपाः ।। ३१ ।। (यदा केतुः) जब केतु (पूर्वादिग्भागे नक्षत्रे प्रदृश्यते) पूर्व दिशा के नक्षत्रमें दिखलाई पड़े तो (तदा) तब (पापदा नृपाः) पापी राजा (देशान्) देश (दिशामुग्रां) व दिशा इन सबका (भञ्जन्ते) धात होता है। भावार्थ-जब केतु पूर्व दिशा के नक्षत्रों पर दिखे तो पापी राजा का व उसके देश व दिशा का घात होता है।। ३१ ।। बङ्गानङ्गान् कलिङ्गांश्च मगधान् काशनन्दनान्। पट्टचावांश्च कौशाम्बी घेणुसारं सदाहवम् ।।३२।। तोसलिङ्गान् सुलान् नेद्रान् माक्रन्दामलदास्तथा। कुनटान् सिथलान् महिषान् माहेन्द्रं पूर्वदक्षिणः ।। ३३॥ वेणान् विदर्भमालांश्च अश्मकांश्चैव छर्वणान्। द्रविडान् वैदिकान् दाद्रेकलांश्च दक्षिणापथे।॥ ३४॥ कोणान् दण्डकान् भोजान् गोमान् सूर्यारकाञ्चनम्। किष्किन्धान् वनवासांश्च लङ्कां हन्यात् स नैरुतैः ॥ ३५॥ उपर्युक्त केतु के रहन पर (बगानहान) बंगदेश, अंग देश (कलिङ्गांश्च) कलिंग और (मगधान्) मगध (काशनन्दनान्) काश, नन्द (पट्टचावांश्च) पट्ट और (कौशाम्बी) कौशाम्बी, (धेणुसार) घेणुसार आदि और भी (तोसलिङ्गान्) तोस, Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०५ एकविंशतितमोऽध्यायः लिङ्ग (सुलान्) सुल, (नेद्रान्) नेद्र (माक्रन्दा) माक्रन्द (मलदांस्तथा) मलदा तथा 'कुन राना मिथतान मिथल (महिषान्) महिष (महिन्द्र) माहेन्द्र (पूर्वदक्षिणः) पूर्व और दक्षिण वासियों को (वेणान्) वेणु, (विदर्भ) विदर्भ (मालांश्च) माल और (अश्मकांश्चैव) अरमक (छर्वणान्) छवर्ण (द्रविडान्) द्रविड (वैदिकान्) वैदिक (दाद्रेकलांश्च) दाद्रेकाल (दक्षिणा पथे) दक्षिणपथ पर रहने वाले (कोकणान्) कोंकण (दण्डकान्) दण्डकवासी (भोजान्) भोजवासी (गोमान्) गोम (सूर्यारकाञ्चनम्) सूर्परि, कंचन (किष्किन्धान्) किष्किन्ध (वनवासांश्च) वनवासी, (लंका) लंका (सनैरुतैः हन्यात्) इतने देशों का घात होता है। भावार्थ-उपर्युक्त केतु के रहने पर बंग, अंग, कलिंग, मगध, काश, नन्द, पट्ट, कौशाम्बी, धेणुसार, तोस, लिङ्ग, सुल, नेद्र, माक्रन्द, मलदा, कुनटा, सिथल, महिष, माहेन्द्र, पूर्व और दक्षिण भाग में रहने वाले, वेणु, विदर्भ, माल अश्मक छवर्ण, द्रविड, वैदिक, दाद्रेकल दक्षिणपक्ष पर रहने वाले कोंकण, दण्डकवासी, भोज, गोम, सूर्परि, कंचन, किष्किन्ध, वनवासी, और लंका इतने देशों का घात करता है।। ३२-३३-३४-३५॥ अङ्गान् सौराष्ट्रान् समुद्रान् भरुकच्छादसेरकान्। शूवान् हृषिजलरुहान् केतुर्हन्याद्विपथगः॥३६॥ (यदि केतुः) यदि केतु (द्विपथगः) द्विपथगामी हो तो (अजान्) अ (सौराष्टान्) सौराष्ट्र (समुद्रान्) समुद्र वा, (भरुकच्छद) भरुकच्छवासी (सेरकान्) असेरक (शूब्रान्) शूद्र (हषिजलरुहान्) हषिकेश आदि देशों को (हन्याद्) नाश करता हैं। भावार्थ-जब केतु दो पथगामी हो तो अंग, सौराष्ट्र, समुद्रवासी, भरुकच्छवासी, असेरक., शून, हषिकेश आदि का घात करता है।। ३६ ।। काम्बोजान् रामगान्धारान् आभीरान् यवरच्छकान्। चैत्र सोत्रेयकान् सिन्धुमहामन्ययुवायुजः ॥ ३७॥ बाह्रीकान् वीनविषयान् पर्वतांश्चाप्य दुस्वरान्। सौधेरं कुरुवैदेहान् केतुर्हन्याधदुत्तरान् ॥ ३८॥ (केतुःउत्तरान्) यदि उत्तर का केतु हो तो (काम्बोजान्) काम्बोज (रामगान्धारा) Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६०E रामगान्धार (आभिरान्) आभीर (यवरच्छकान्) यवरच्छक (चैत्र सोत्रेयकान्) चैत्र, सोत्रेय, (सिन्ध) सिन्ध (महामन्ययुवायुजः) महामन्य युवायुज (बाहीकान्) बाह्रीक (वीन विषयान्) वीन विषय (पूर्वतांश्चप्यदुश्वरान्) पर्वत वासी, दुश्वर बोलने वाले (सौधेय) सौधेय, (कुरुवै देहान्) कुरु, वेदेह आदि देशों को (हन्यात) नाश करता माई.-जा जतः दिप का हो तो काम्बोज, राम गान्धार, आभीर, यवरच्छ, चैत्रसौत्रेय, सिन्ध, महामन्य, युवा, युज, बालीक, वीन, विषय, पर्वतवासी, सोधेय, कुरु, विदेह आदिकों का घात करता है।३७-३८॥ चर्मा सवर्ण कलिङ्गान किरातान् बर्बरान् द्विजान्। वैदिस्तमिपुलिन्दांश्च हन्ति स्वात्यां समुच्छ् ितः॥३९॥ (स्वात्यां समुच्छित:) स्वाति नक्षत्र में उदित केतु (चर्मा) चमार (सुवर्ण) स्वर्णकार (कलिङ्गान्) कलिग देश (किरातान्) किरात देश (बर्बरान्) बबर देश (द्विजान्) ब्राह्मण (वैदिस्तमि) वैदिक (पुलिन्दांश्च) पुलिन्द (हन्ति) मारता है। भावार्थ-स्वाति नक्षत्र में उदित केतु, चर्मकारों को स्वर्णकारों को, कलिङ्ग देशवासियोंको, भीलोंका, बर्बरोंको, ब्राह्मणों को वैदिकों को पुलिन्दों को मारता है॥३९॥ सहशा: केतवो हन्युस्तासु मध्ये बथं वदेत् । व्याधि शस्त्रं क्षुधां मृत्यु परचक्रं च निर्दिशेत्॥४०॥ (सदृशाः केतवो हन्युः) सदृश केतु घात करता है तथा (स्तासुमध्ये) उनके अन्दर (बधंवदेत्) वध कराता है ऐसा कहे और (व्याधि) रोग, (शस्त्रं) शस्त्र (क्षुधां) भूख (मृत्यु) मरण (परचक्रं) और पर चक्र का भय करता है। भावार्थ-सदृश केतु घात करता है और वध कराता है, रोग भय, शस्त्र भय, क्षुधाभय, मरणभय और परचक्र का भय कराता है।। ४०॥ न काले नियता केतुः न नक्षत्रादिकस्तथा। आकस्मिको भवत्येव कदाचिदुदितो ग्रहः॥४१॥ (न कालेनियता केतुः) केतु के उदय का भी कोई काल नहीं (नक्षत्रादिकस्तथा) Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकविंशतितमोऽध्यायः तथा नक्षत्रादिक भी नहीं है (आकस्मिको भवत्येव) आकस्मिक ही (कदाचिदुदितोग्रह:) यह ग्रह उदित हो जाता है। भावार्थ-केतु के उदय का न कोई काल है न कोई नक्षत्र यह तो जब तभी अकस्मात उदय हो जाता है।। ४१॥ षट् त्रिंशत् तस्य वर्षाणि प्रवासः परमः स्मृतः। मध्यमः सप्तविंशं तु जघन्यस्तु प्रयोदश॥४२॥ (तस्य) उस केतु का (षट्त्रिंशत वर्षाणि) ३६ वर्ष तक उत्कृष्ट (प्रवास:) प्रवास (परमः स्मृतः) परम जानो (मध्यमः सप्तविंशतु) और मध्यम सत्ताइस वर्ष जानो (जघन्यस्तु त्रयोदश) जघन्य तेरह वर्ष जानो। भावार्थ-उस केतु के प्रवास का काल उत्कृष्ट ३६ वर्ष मध्यम सत्ताइस वर्ष, जघन्य तेरह वर्ष का होता है।। ४२॥ एते प्रयाणा दृश्यन्ते येऽन्ये तीव्रभयाहते। प्रवासं शुक्र वच्चास्य विन्धादुत्पातिकं महत्।। ४३॥ (एते प्रयाणा दृश्यन्ते) इतने केतु प्रमाण दिखते है (येऽन्ते तीव्र भयाहते) उनमें तीव्र भय करते हैं (प्रवासं शुक्रवच्चास्य) इसमें शुक्र के समान ही (विन्द्यादुत्पातिकं महत्) महान् उत्पात कारक है। भावार्थ—इतने केतु के प्रमाण है वह भय को करते हैं और शुक्र के समान ही महान् उत्पात करते हैं॥४३॥ धूमध्वजो, धूमशिखो धूमार्चिधूमतारकः । विकेशी विशिखश्चैव मयूरो विद्धमस्तकः॥४४॥ (धूमध्वजो, धूमशिखो) धूम ध्वज, धूम शिखो (धूमार्चि:) धूमार्चि (धूमतारक:) धूमतारक (विकेशी) विकेशी, (विशिखश्चैव) विशिख और (मयूरो) मयूर (विद्धमस्तक:) विद्धमस्तक। भावार्थ-धूमध्वज, धूपशिखो, धूर्माचि, धूमतारक, विकेशी, विशिख, मयूरो, विद्ध मस्तक॥४४॥ Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६०८ महाकेतुश्च ताप तुगान् केतुवानः । उल्काशिखश्च जाज्वल्यः प्रज्वाली चाम्बरीषकः॥४५॥ (महाकेतुश्च) महाकेतु और (श्वेतश्च) श्वेत (केतुमान्) केतुमान (केतुवाहनः) केतु वाहन (उल्काशिखश्च) उल्काशिख, (जाज्वल्य:) जाज्वल्य (प्रज्वाली) प्रज्वाल (चाम्बरीषक:) और अम्बरीषेक। भावार्थ-महाकेतु, श्वेतकेतु, केतुवाहन, उल्काशिख, जाज्वल्य, प्रज्वाली, अम्बरीषेक॥४५॥ हेन्द्रस्वरो हेन्द्रकेतुः शुक्लवासोऽन्यदन्तकः। विधुत्समो विद्युल्लता विद्युद् विद्युत्स्फुलिङ्गकः॥४६॥ (हेन्द्रस्वरो) हेन्द्रसार (हेन्द्रकेतुः) हेन्द्रकेतु (शुक्लवासो) शुक्लवास, (अन्यदन्तकः) अन्य दन्तक (विद्युत्समो) विद्युत्सम (विद्युल्लता) विद्युल्लता, (विद्युद् विद्युत्स्फुलिङ्गक:विद्युद, विद्युत्स्फुलिङ्ग। भावार्थ-हेन्द्रश्वर, हेन्द्रकेतु, शुक्लवास, अन्यदन्तक, विद्युतसम्, विद्यल्लता, विद्युद् विद्युत्स्फुलिङ्ग ।। ४६॥ चिक्षणो झरुणो गुल्म: कबन्धो ज्वलिताङ्करः । तालीशः कनकश्चैव विक्रान्तो मांसरोहितः ।। ४७॥ (चिक्षणो) चिक्षणो (ह्यरुणो) ह्यरुण (गुल्म) गुल्म (कबन्धोज्वलिताङ्कुरः) कबन्ध, ज्वलितां वर (तालिश:) तालिश (कनकश्चैव) कनक और (विक्रान्तो) विक्रान्त (मांसरोहित:) मांसरोहित। भावार्थ-चिक्षण, ह्यरुण, गुल्म कबन्ध, ज्वलितांकुर, तालिश, कनक, विक्रान्त और मांसरोहित ।। ४७ ।। वैवस्वतो धूममाली महार्चिश्च विधूमितः। दारुणाः केतवो झेते भयमिच्छन्ति दारुणम्।। ४८॥ (वैवस्वतो) वैवस्वत (धूममाली) धूममाली (महार्चिश्च) महार्चि (विधूमितः) विधूमित (दारुणा: केतवो ते) ये सब केतु दारुण है (भयमिच्छन्तिदारुणम्) और महान् भय को चाहते हैं। Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकविंशतितमोऽध्यायः भावार्थ-वैवस्वत, धूममाली महर्चि विधूमित ये सब केतु दारुण होते हैं और महान् भय के उत्पादक है॥४८॥ जलदोजल केतुश्च जलरेणु समप्रभः । रूक्षो वा जलवान् शीघ्रं विप्राणां भयमादिशेत् ॥४९॥ (जलदो) जलद (जलकेतुश्च) जलकेतु (जलरेणु) जलरेणु (समप्रभः) समप्रभ (रूक्षो वा जलवान्) रूक्ष व जलवान् केतु (शीघ्र विप्राणां भयमादिशेत्) शीघ्र ब्राह्मणों को भय उत्पन्न करता है। भावार्थ-जलद, जलकेतु, जलरेणु समप्रभ, रूक्ष व जलवान केतु शाघ्र ही ब्राह्मणों को भय उत्पन्न करता है॥४९ ।। शिखी शिखण्डी विमलो विनाशी धूमशासनः। विशिखानः शतार्चिश्च शालकेतुरलक्तकः ।। ५०॥ (शिखी) शिखी (शिखण्डी) शिखण्डी (विमलो) विमल (विनाशी) विनाशी (धूम्रशासनः) धूमायन (विशिखान:) विशिखान् (शतर्चिश्चा) शतार्चि और (शालकेतु) शालकेतु (रलक्तक:) अलक्तकः । भावार्थ-शिखी, शिखण्डी, विमल, विनाशी, धूमशासन:, विशिखान, शतार्चि, शालकेतु अलंकृत ॥५०॥ घृतो घृताचिश्च्य वनाश्चित्रपुष्पविदूषणः । विलम्बी विषमोऽग्निश्च वातकी हसनः शिखी॥५१॥ (घुतो) घृत (घृताचिश्च्य) घृतार्चि (वना:) च्यवन, ( चित्रपुष्प) चित्रपुष्प (विदूषण:) विदूषण (विलम्बो) विलम्ब (विषमो) विषम (अग्निश्च) अग्नि वातकी (हसनः) हसन (शिखी) शिखी। भावार्थ—घृत, घृतार्चि, च्यवन, चित्रपुष्प, विदूषण, विलम्ब विषम, अग्नि, वातकी, हसन, शिखी ।। ५१॥ कुटिलः कइवखिलङ्ग कुचित्रगोऽथ निश्चयी। नामानि लिखितानी च येषां नोक्तं तु लक्षणम्॥५२॥ Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ( कुटिल : ) कुटिल (कड्वखिलङ्ग) कड्वाखिलन (कुचित्रगो) कुचित्रग ( अथनिश्चयी) इत्यादि ( नामानि ) नाम ( लिखितानि) मात्र लिखे हैं (च येषां नोक्तं तु लक्षणम् ) किन्तु उनके लक्षण यहाँ पर नहीं लिखे हैं । भावार्थ — कुटिल कड्वखिल हैं किन्तु उनका लक्षण यहाँ पर नहीं लिखे हैं ।। ५२ ॥ विग इत्यादि यहाँ पर नाम मात्र लिखे गोपुरेऽहालके गृहे । ६१० येन्तरिक्षे जले भूभौ वस्त्राभरण शस्त्रेषु ते उत्पाता न केवलः ॥ ५३ ॥ ( येऽन्तरिक्षे ) जो केतु आकाश में (जले) जल में (भूमौ ) भूमि पर (गोपुरे) गोपुर में (अट्टालिके) अट्टालिकामें (गृहे ) गृह में (वस्त्राभरण शस्त्रेषु) वस्त्राभरण शस्त्रों पर (ते उत्पाता न केवलः) दिखे तो वो उत्पात नहीं करते हैं। भावार्थ — जो केतु आकाशमें जल में भूमि में गोपुर में गृह में अट्टालिकामें व वस्त्राभरणी व शस्त्रों पर दिखे तो उत्पात नहीं करते हैं ॥ ५३ ॥ दीक्षितान् अर्हद्देवांश्च आचार्यांश्च तथा गुरून् । पूजयेच्छान्तिपुष्ट्यर्थं पापकेतु समुत्थिते ॥ ५४ ॥ (पापकेतु समुत्थिते ) जब पाप केतु के उपस्थित होने पर ( दीक्षितान् ) साधुओं की (अर्हदेवांश्च) अर्हत देवों की ( आचायश्चि) आचार्यों की (तथा) तथा ( गुरुन् ) गुरुओं की (पूजयेत् ) पूजा करनी चाहिये ( छांतिपुष्ट्यर्थ ) शान्ति और पुष्टि के लिये । भावार्थ — पापकेतु के उपस्थित होने पर साधुओंको अर्हत प्रभु की आचार्यों की गुरुओं की पूजा करनी चाहिये, शान्ति और पुष्टि के लिये ॥ ५४ ॥ नराः । पौरा जानपदा राजा श्रेणीनां प्रवराः पूजयेत् सर्वदानेन् पापकेतुः समुत्थिते ॥ ५५ ॥ (पापकेतुसमुत्थिते) पापकेतुके उदय होने पर (पौरा) नगरवासियोंको (जानपदा) जनपदों को (राजा) राजा को ( श्रेणीनां ) श्रेणियों को ( प्रवराः) ब्राह्मणोंको ( नरा ) मनुष्योंको (सर्वदानेन पूजयेत् ) दान, पूजा करनी चाहिये । भावार्थ — पापकेतु के उदय होने पर नगर वासियों को जनपदों को राजा + Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६११ एकविंशतितमोऽध्यायः --- को श्रेणी वासियों को ब्राह्मणोंको मनुष्योंको दानपूजा अवश्य करनी चाहिये क्योंकि उससे ही ये पापकेतु के फल शान्त होते है।। ५५ ।। यथा हि बलवान् राजा सामन्तै: सारपूजितः। नात्यर्थ बाध्यते तत्तु तथा केतुः सुपूजितः ॥५६॥ (यथा हि बलवान् राजा) जैसे बलवान राजा की (सामन्तैः) सामन्तो द्वारा (सारपूजितैः) पूजा होती है तो (नात्यर्थबाध्यते) फिर वह राजा उनको कष्ट नहीं देता है (तत्तु) उसी प्रकार (तथाकेतु: सूपूजितः) दुष्टकेतु की। भावार्थ-जिस प्रकार बलवान राजा की सामन्तो द्वारा पूजा होने पर वह शान्त रहता है। उसी प्रकार दुष्ट केतु के द्वारा शान्त रहता है। अशुभ फल नहीं देता है।। ५६ सर्पदष्टो यथा मन्त्रैरंगदैश्च चिकित्स्यते। केतुदष्टस्तथा लोकैर्दानजापश्चिकित्स्यते॥५७॥ (यथा) जैसे (सर्पदष्टो) सांप के काटने पर (मन्त्रैरगदैश्च) मन्त्रों के द्वारा (चिकित्स्यते) चिकित्सा की जाती है (तथा:) उसी प्रकार (लोकैः) लोगों के द्वारा (केतुदष्ट:) केतु के उदय में (दानजापैश्चि कित्स्यते) दान, जाप आदि से चिकित्सा करनी चाहिये। भावार्थ-जैसे सांप के काटने पर मन्त्रों के द्वारा दवाई की जाती है। उसी प्रकार दुष्ट केतु के उदय में दान, जाप आदि से दवाई करनी चाहिये क्योंकि उसका उपाय ही मात्र यही है।। ५७।। । यः केतु चारमाखिलं यथावत् पठन्तियुक्तं श्रमणः समेत्य । स केतु दग्धांस्त्यजते हि देशान् प्राप्नोति पूजां च नरेन्द्रमूलात्।। ५८॥ (य:) जो (श्रमणः) मुनि (केतुचारमाखिलं) केतु के संचार को सब तरह से (यथावत् पठन्ति) यथावत् अध्ययन करता है (समेत्य) समस्त रीति से (स) वह (केतुदग्धास्त्यजते हि देशान्) दग्धकेतु के फल को जानकर उस देश का त्याग करता है वह (नरेन्द्रमूलात् पूजां प्राप्नोति) राजा के द्वारा पूजा प्राप्त कर सुखी होता - -- - - - - - - --+- - --- - Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भद्रबाहु संहिता भावार्थ-जो मुनि राजकेतु के संचार को अच्छी तरह से जानता है उसका अध्ययन अच्छी तरह से जिसने किया है। वही बुद्धिमान है दुष्ट केत के फल को जानकर उस देश का त्याग कर देता है। वो ही राजा के द्वारा पूजित होकर सुख से विहार करते हैं।। ५८॥ विशेष-अब आचार्य इस इक्कीसवें अध्याय में केतु के भेद व स्वरूप का वर्णन करते हैं साथ में फल का भी वर्णन करते हैं। केतु के तीन भेद आचार्यश्री ने किये है, दिव्य, अन्तरिक्ष और भौमिक नक्षत्रों में जो केतु दिखें उसे दिव्य कहते हैं। ध्वज, शस्त्र, गृह, वृक्ष, अश्व, हाथी में केतु के दर्शन हो तो उसे अन्तरिक्ष केतु कहते हैं। इन दोनों से जो अलग दिखाई दे तो वह रूक्ष केतु भौमिक है। यहाँ पर आचार्य ने केतुओं की संख्या एकहजार एक सौ है। इनके फल को जानने के लिये, उदय अस्त अवस्थान, स्पर्श, धूम्रता का ज्ञान परम आवश्यक है। जिस दिन केतु दिखलाई पड़े उससे अस्त होने तक उतने महीने तक उसका फल दिखता है। जो केतु निर्मल चिकना, सरल, रुचिर और शुक्ल वर्ण का होकर उदय हो तो वह सुभिक्ष और सुखदायक होता है। इससे विपरीत रूप वाले केतु शुभदायक नहीं होते तो भी इनका नाम धूमकेतु है। केतु अनेक शिखा वाले और कोई भी दिशा में उदय होते हैं अनेक वर्ण वाले और अनेक आकृति के होते हैं। उसी का फल शुभाशुभ समय आने पर होता है। किसी-किसी ऐसे नक्षत्रों में जब केतु उदय हो जाता है तो वह दुष्ट केतु कहलाता है, जब दुष्ट केतु का उदय हो गया तो समझों संसार में युद्ध, रक्तपात, आक्रमण, रोग, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, आपत्ति, दुर्भिक्ष आदि होता है। जो शुभ केतु होता है, वह फल भी शुभ देता है, जैसे निरोगता, लाभ, सुख, सुभिक्षता, शान्ति, अच्छी वर्षा, देश और राज्य में महान् शान्ति उत्पन्न करता है। मैंने यहाँ पर थोड़ा-सा लिखा है। विशेष जानकारी के लिये इस अध्याय का Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१३ एकविंशतितमोऽध्यायः Amr.urv-.4ran अच्छी तरह से अध्ययन करे और समस्त केतु के संचार का उदय अस्त का ज्ञान करे, फलादेश को जाने दुष्टकेतु के उदय पर शान्ति कर्म अवश्य करें, देवपूजा, मन्त्रोच्चारण जाप हवन आदि धार्मिक क्रियाओं से दुष्ट केतु के फल में उपसमता आती है। आगे और भी कहते हैं। विवेचन-केतुओं के भेद और स्वरूप-केतु मूलत: तीन प्रकार के हैं-दिव्य, अन्तरिक्ष और भौम। ध्वज, शस्त्र, गृह, वृक्ष, अश्व और हस्ती आदि में केतुरूप दर्शन होता है, वह अन्तरिक्ष केतु; नक्षत्रों में जो दिखलायी देता है, उसे दिव्यकेतु कहते हैं। और इन दोनों के अतिरिक्त अन्य रूक्ष भौमकेतु हैं। केतुओंकी कुल संख्या एक हजार या एक सौ एक है। केतु का फलादेश, उसके उदय, अस्त, अवस्थान, स्पर्श और धूम्रता आदि के द्वारा अवगत किया जाता है। केतु जितने दिन तक दिखलायी देता है, उतने मास तक उसके फल का परिपाक होता है। जो केतु निर्मल, चिकना, सरल, रुचिर और शुक्लवर्ण होकर उदित होता है, वह सुभिक्ष और सुखदायक होता है। इसके विपरीत रूप वाले केतु शुभदायक नहीं होते, परन्तु उनका नाम धूमकेतु होता है। विशेषतः इन्द्रधनुषके समान अनेक रंग वाले अथवा दो या तीन चोटी वाले केतु अत्यन्त अशुभकारक होते हैं। हार, मणि या सुवर्ण के समान रूप धारण करने वाले और चोटीदार केतु यदि पूर्व या पश्चिम में दिखलायी दें तो सूर्य से उत्पन्न कहलाते हैं। और इनकी संख्या पच्चीस है। तोता, अग्नि, दुपहारियाका फूल, लाख या रस के के समान जो केतु अग्निकोण में दिखालायी दें, तो वे अग्नि से उत्पन्न हुए माने जाते हैं और इनकी संख्या पच्चीस है। पच्चीस केतु टेढ़ी चोटी वाले, रूखे और कृष्णवर्ण होकर दक्षिण में दिखलाई पड़ते हैं, ये यम से उत्पन्न हुए माने गये हैं। इनके उदय होने से मारी पड़ती है। दर्पण के समान गोल आकार वाले, शिखारहित, किरण युक्त और सजल तेल के समान कान्ति वाले, जो बाईस केतु ईशान दिशा में दिखलाई पड़ते हैं, वे पृथ्वी से उत्पन्न हुए हैं, इनके उदय से दुर्भिक्ष और भय होता है। चन्द्रकिरण, चाँदी, हिम, कुमुद या कुन्दपुष्प के समान जो तीन केतु हैं, ये चन्द्रमा के पुत्र हैं और उत्तर दिशा में दिखलाई देते हैं। इनके उदय होने से सुभिक्ष होता है। ब्रह्मदण्ड नाम युगान्तकारी ब्रह्मा से उत्पन्न हुआ एक केतु है, यह तीन चोटी वाला और Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता तीन रंग का है, इसके उदय होने से दिशा का कोई नियम नहीं है। इस प्रकार कुल एक सौ एक केतु का वर्णन किया गया है। अवशेष ८९९ केतुओं का वर्णन निम्न प्रकार हैं शुक्रतन्य नामक जो चौरासी केतु हैं, वे उत्तर और ईशान दिशा में दिखलाई पड़ते हैं, ये बृहत् शुक्लवर्ण, तारकाकार, चिकने और तीव्र फल युक्त होते हैं। शनि के पुत्र साठ केतु हैं, ये कान्तिमान, दो शिखा वाले और कनक संज्ञक हैं, इनके उदय होने से अतिकष्ट होता है। चोटीहीन, चिकने, शुक्लवर्ण, एक तारे के समान, दक्षिण दिशा के आश्रित पैंसठ विकच नामक केतु, बृहस्पति के पुत्र हैं। इनका उदय होने से पृथ्वी में लोग पापी हो जाते हैं। जो केतु साफ दिखलाई नहीं देते, सूक्ष्म, दीर्थ, शुक्ला , आनश्चित दिशा वाले तस्कर संज्ञक हैं। ये बुध के पुत्र कहलाते हैं। इनकी संख्या ५१ हैं और ये पाप फल वाले हैं। रक्त या अग्नि के समान जिनका रंग है, जिनकी तीन शिखाएँ हैं, तारे के समान हैं, इनकी गिनती साठ है। ये उत्तर दिशा में स्थित हैं तथा कौंकुम नामक मंगल के पुत्र हैं, ये सभी पापफल देने वाले हैं। तामसधीस नामक पैंतीस केतु, जो राहु के पुत्र हैं तथा चन्द्रसूर्य गत होकर दिखलाई देते हैं। इनका फल अत्यन्त शुभ होता है। जिनका शरीर ज्वाला की माला से युक्त हो रहा है, ऐसे एक सौ बीस केतु अग्निविश्वरूप होते हैं। इनका फल बनते हुए कार्यों को बिगाड़ना, कष्ट पहुँचाना आदि हैं। श्यामवर्ण, चमर के समान व्याप्त चिराग वाले और पवन से उत्पन्न केतुओं की संख्या सतत्तर है। इनके उदय होने से भय, आतंक और सप का प्रसार होता है। तारापुंज के समान आकार वाले प्रजापति युक्त आठ केतु हैं, इनका नाम गयक है। इनके उदय होने से क्रान्ति का प्रसार होता है। विश्व में एक नया परिवर्तन दिखलाई पड़ता है। चौकोर आकार वाले ब्रह्मसन्तान नामक जो केतु हैं, उनकी संख्या दो सौ चार है। इन केतुओं का फल वर्षाभाव और अन्नाभाव उत्पन्न करता है। लताके गुच्छे के समान जिनका आकार है, ऐसे बत्तीस केक नामक जो केतु हैं वे वरुण के पुत्र हैं। इनके उदय होने से जलाभाव, जलजन्तुओं को कष्ट एवं जल से आजीविका करने वाले कष्ट प्राप्त करते हैं। कबन्ध के समान आकार वाले छियानबे कबन्ध नामक केतु हैं, ये कालयुक्त कहे गये हैं। ये अत्यन्त भयङ्कर, दुःखदायी और कुरूप Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकविंशतितमोऽध्यायः हैं। बड़े-बड़े एक तारेदार नौ केतु हैं, ये विदिश समुत्पन्न हैं। इनका उदय भी कष्टकर होता है। मथुरा, सूरोन और विदर्भ नगरीके लिए उक्त केतु अशुभकारक होता केतुओं की संख्या का योग निम्न प्रकार है। (२५ + २५ + २५ + २२ + ३ = १०१, ८४ + ६० + ६५ + ५१ + ६० +३३ + १२० + ७७ x ८ + २०४ + ३२ + ९६ + ९ = ८९९; ८९९ + १०१ = १८८०) जो केतु पश्चिम दिशा में उदय होते हैं, उत्तरदिशा में फैलते हैं, बड़े-बड़े स्निग्धमूर्ति हैं, उनको वसाकेतु कहते हैं, इनके उदय होने से मारी पड़ती है और उत्तम सुभिक्ष होता है। सूक्ष्म, या चिकने वर्ण के केतु उत्तर दिशा से आरम्भ होकर पश्चिम तक फैलते हैं, उनके उदय से क्षुधाभय, उलट-पुलट और मारी फैलती है। अमावस्या के दिन आकाश के पूर्वार्द्ध में सहस्र रश्मिकेतु दिखायी देता है, उसका नाम कपाल केतु है। इसके उदय होने से क्षुधा, मारी, अनावृष्टि और रोगभय होता है। आकाश के पूर्व दक्षिणभाग में शूल के अग्रभाग के समान कपिश, रूक्ष, ताम्रवर्ण की किरणों से क्षुबन्ध जो केतु आकाश के तीन भाग तक गमन करता है, उसको रौद्रकेतु कहते हैं, उसका फल कपालकेतु के समान है। जो धूम्रकेतु पश्चिम दिशा में उदय होता है, दक्षिण की ओर एक अंगुल ऊँची शिखा करके युक्त होता है और उत्तर दिशा की तरफ क्रमानुसार बढ़ता है, उसको चलकेतु कहते हैं। यह चलकेतु क्रमश: दीर्घ होकर यदि उत्तर ध्रुव, सप्तर्षि मण्डल या अभिजित् नक्षत्र को स्पर्श करता हुआ आकाश के एक भाग में जाकर दक्षिण दिशा में अस्त हो जाय, तो प्रयाग से लेकर अवन्ति तकके प्रदेश में दुर्भिक्ष, रोग एवं नाना प्रकार के उपद्रव होते हैं। मध्यरात्रि में आकाश के पूर्वभाग में दक्षिण के आगे जो केतु दिखलाई दे, उसको धूमकेतु कहते हैं। जिस केतु का आकार गाड़ी के जुए के समान है, वह युगपरिवर्तन के समय सात दिन तक दिखलाई पड़ता है। धूमकेतु यदि अधिक दिनों तक दिखलाई दे तो इस वर्ष तक शस्त्रप्रकोप लगातार बना रहता है और नाना प्रकार के सन्ताप प्रजा को देता रहता है। श्वेत नामक केतु यदि जटा के समान आकार वाला, रूखा, कपिशवर्ण और आकाश के तीन भाग Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ६१६ तक जाकर लौट आवे तो प्रजा का नाश होता है। जो केतु धूम्रवर्ण की चोटी से युक्त होकर कृत्तिका नक्षत्र को स्पर्श करे, उसको रश्मिकेतु कहते है, इसका फल श्वेत नामक केतु के समान है। ध्रुव नामक एक प्रकार का केतु है, इसका आकार, वर्ण, प्रमाण स्थिर नहीं हैं, यह दिव्य, अन्तरिक्ष और भौम तीन प्रकार का होता है। यह स्निग्ध और अनियत फल देता है। जिस केतु की कान्ति कुमुद के समान हो, चोटी पूर्व की ओर फैल रही हो, उसको कुमुदकेतु कहते हैं। यह बराबर दस वर्ष तक सुभिक्ष देने वाला है। जो केतु सूक्ष्म तारे के समान आकार वाला हो और पश्चिम दिशा में तीन घण्टों तक लगातार दिखलाई दे तो उसका नामक मणि केतु है। स्तन के ऊपर दबाव देने से जिस प्रकार दूध की धारा निकलती है, उसी प्रकार जिनकी किरणें छिटकती हैं, यह केतु उसी प्रकार की किरणों से युक्त है। इसके उदय से साढ़े चार मास तक सुभिक्ष होता है तथा छोटे-बड़े सभी प्राणियों को कष्ट होता है। जिस केतु की अन्य दिशाओं में ऊँची शिखाओं तथा पिछले भाग में चिकना हो वह जन केतु कहलाता है। इसके उदय होने से नौ महीने तक शान्ति और सुभिक्ष मिलती है। सिंह की पूँछ के समान दक्षिणावर्त शिखा वाला, स्निग्ध, सूक्ष्मतारायुक्त पूर्व दिशा में रात में दिखलाई देने वाला भवकेतु है। यह भवकेतु जितने मुहूर्त तक दिखलाई देता है, उतने मास तक सुभिक्ष होता है। यदि रूक्ष होता है, तब मरणान्त कराने वाला माना जाता है। फुव्वारे के समान किरण वाला, मृडाल के समान गौर वर्ण केतु पश्चिम दिशा में रातभर दिखलाई दे तो सात वर्ष तक हर्ष सहित सुभिक्ष होता है। जो केतु आधीरात्रि के समय तक शिखासव्य, अरुणकी-सी कान्ति वाला, चिकना दिखलाई देता है, उसे आवर्त कहते हैं, यह केतु जितने क्षण तक दिखलाई देता है, उतने मास तक सुभिक्ष रहता है। जो धूम्र या ताम्रवर्ण की शिखा वाला भयंकर है और आकाश के तीन भाग 'तक को आक्रमण करता हुआ शूल के अग्रभाग के समान आकार वाला होकर सन्ध्याकाल में पश्चिम की ओर दिखलाई दे तो उसको संवर्तकेतु कहते हैं। यह केतु जितने मुहूर्त तक दिखलाई देता है, उतने वर्षतक शस्त्राघात से जनताको कष्ट होता है। इस केतुके उदयकाल में जिसका जन्मनक्षत्र आक्रान्त रहता है, उसे भी कष्ट होता है। जिस-जिस नक्षत्रको केतु आधूमित करे या स्पर्श करे, उस-उस Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१७ एकविंशतितमोऽध्यायः नक्षत्र वाले देश और व्यक्तियों को पीड़ा होती है। यदि केतु की शिखा उल्का से भेदित हो तो शुभफल, सर्वप्रकार की वृष्टि एवं सुभिक्ष होता है। केतुओं का विशेष फल-जलकेतु-पश्चिमी भाग शिखा वाला होता है। स्निग्ध केतु के अस्त होने में जब नौ महीने समय शेष रह जाता है, तब यह पश्चिम में उदय होता है। यह नौ महीने तक सुभिक्ष, क्षेम और आरोग्य करता है तथा अन्य ग्रहोंके सब दोषों को नष्ट करता है। ऊर्मिशीतकेतु-जलकेतु के कर्मान्त गति में आगे १८ वर्ष और १४ वर्ष के अन्तर पर ये केतु उदय होते हैं। ऊर्मि, शंख, हिम, रक्त, कुक्षि, काम, विसर्पण और शीत ये आठ अमृत से पैदा हुए सहजकेतु हैं। इनके उदय होने से सुभिक्ष और क्षेम होता है। भटकेतु और भवकेतु-ऊर्मि आदि शीत पर्यन्त के आठ केतुओं के चार के समाप्त हो जाने पर तारा के रूप एक रात में भटकेतु दिखायी देता है। यह भटकेतु पूर्व दिशा में दाहिनी ओर धूमी हुई बन्दर की पूंछ की तरह शिखा वाला, स्निग्ध और कृत्तिका के गुच्छे की तरह मुख्य तारा के प्रमाण का होता है। यह जितने मुहूर्त तक स्निग्ध दिखता रहता है उतने महीनों तक सुभिक्ष करता है। रूक्ष होगा तो प्राणों का अन्त करने वाला और रोग पैदा करने वाला होगा। औद्दालक केतु-श्वेतकेतु, ककेतु-औद्दालक और श्वेतकेतु इन दोनोंका अग्रभाग दक्षिण की ओर होता है और अर्द्धरात्रि में इनका उदय होता है। ककेतु प्राची-प्रतीची दिशा में एक साथ युगाकार से उदय होता है। औद्दालक और श्वेतकेतु सात रात तक स्निग्ध दिखायी देते हैं। ककेतु कभी अधिक भी दिखता रहता है। वे दोनों स्निग्ध होने पर १० वर्ष तक शुभ फल देते हैं और रूक्ष होने पर शस्त्र आदि से दुःख देते हैं। औद्दालक केतु एक सौ दस वर्ष तक प्रवास में रहकर भटकेतु की गति के अन्त में पूर्व दिशा में दिखायी देता है। पद्यकेतु-श्वेत केतु के फल के अन्त में श्वेत पद्यकेतु का उदय होता है, पश्चिम में एक रात दिखायी देने पर यह सात वर्ष तक आनन्द देता रहता Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६१८ ___काश्यप श्वेतकेतु-काश्यप श्वेतकेतु तो रूक्षा, श्याम वर्ण और जटाकी-सी आकृति का होता है। यह आकाश के तीन भाग को आक्रमण करके बाँयी ओर लौट जाता है। यह इन्द्रांश शिखी ११५ वर्ष तक प्रवासित रहकर सहज पद्मकेतु की गति के अन्त में दिखाई देता है। यह जितने महीने विडमी ने उतने ही वर्ष सुभिक्ष रहता है। किन्तु मध्य देश के आर्यों का और औदीच्यों का नाश करता आवर्तकेतु-श्वेतकेतु के समाप्त होने पर पश्चिम में अद्धरात्रि के समय शंख की आभा वाला आवर्तकेतु उदय होता है। यह केतु तिने मुहूर्त तक दिखायी दे, उतने ही महीनों तक सुभिक्ष करता है। यह सदा संसार में यज्ञोत्सव करता रश्मि केतु-काश्यप श्वेतकेतु के समान यह रश्मिकेतु फल देता है। यह कुछ धूम्रवर्ण की शिखा के साथ कृत्तिका के पीछे दिखाई देता है। विभावसु से पैदा हुआ रश्मिकेतु १०० वर्ष प्रोषित रहकर आवर्त केतु की गति के अन्त में कृत्तिका नक्षत्रके समीप दिखायी देता है। वसाकेतु, अस्थिकेतु, शस्त्रकेतु-वसाकेतु अत्यन्त स्निग्ध, सुभिक्ष और महामारीप्रद होता है। यह १३० वर्ष प्रवासित रहकर उत्तरकी ओर लम्बा होता हुआ उदय होता है। वसाकेतु के समान अस्थिकेतु रूक्ष हो तो क्षुद् भयावह होती (भूखमरी पड़ती है)। पश्चिम में बसाकेतु की समानता का दिखता हुआ शस्त्रकेतु महामारी करता है। कुमुदकेतु-कुमुद की आभा वाला, पूर्व की तरफ शिखा वाला, स्निग्ध और दुग्ध की तरह स्वच्छ कुमुदकेतु पश्चिम में वसा केतु की गति के अन्त में दिखाई देता है। एक ही रात में दिखाई दिया हुआ यह सुभिक्ष और दस वर्ष तक सुहृद्भाव पैदा करता है, किन्तु पाश्चात्य देशों में कुछ रोग उत्पन्न करता है। कपाल किरण-कपाल केतु प्राची दिशा में अमावस्या के दिन उदय हुआ आकाश के मध्य में धूम्र किरणों की शिखा वाला होकर रोग, वृष्टि, भूख और मृत्यु को देता है। यह १२५ वर्ष प्रवास में रहकर अमृतोत्पन्न कुमुद केतु के अन्त Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकविंशतितमोऽध्यायः में तीन पक्ष से अधिक उदय रहता है। जितने दिन तक यह दिखता रहता है। उतने ही महिनों तक इसका फल मिलता है। जितने मास और वर्ष तक दिखता है, उससे तीन पक्ष अधिक फल रहता है। मणिकेतु यह मणिकेतु दूध की धाराके समान स्निग्ध शिखा वाला श्वेत रंग का होता है। यह रात्रिभर एक प्रहर तक सूक्ष्म तारा के रूप में दिखाई देता है। कपाल केतु की गति के अन्त में यह मणिकेतु पश्चिम दिशा में उदय होता है और उस दिन से साढ़े चार महीने तक सुभिक्ष करता है। कलिकिरण रौद्रकेतु-(किरण) कलिकिरण रौद्रकेतु वैश्वानर वीथि के पूर्व की ओर उदय होकर ३० अंश ऊपर चढ़कर फिर अस्त हो जाता है। यह ३०० वर्ष ९ महीने तक प्रवास में रहकर अमृतोत्पन्न मणिकेतु की गति के अन्त में उदय होता है। इसकी शिक्षा तीक्ष्ण, रुखी, धुमिल, ताँबे की तरह लाल, शूल की आकृति वाली और दक्षिण की ओर झुकी हुई होती है। जिसका फल तेरहवें महीने होता है। जितने महीने यह दिखाई देता है उतने ही वर्ष तक इसका भय समझना चाहिए। उतने वर्षों तक भूख, अनावृष्टि, महामारी आदि रोगों से प्रजा को दुःख होता है। संवर्तकेतु-वह संवर्तकेतु १००८ वर्ष तक प्रवास में रहकर पश्चिम में सायंकाल के समय आकाश के तीन अंशों की आक्रमण करके दिखायी देता है। धूम्र ताम्रवर्ण के शूलकी-सी कान्ति बाला, रूखी शिखा वाला यह भी रात्रि में जितने मुहूर्त तक दिखाई दे उतने ही वर्ष तक अनिष्ट करता है। इसके उदय होने से अवृष्टि, दुर्भिक्ष, रोग, शस्त्रोंका कोप होता है। और राजा लोग स्वचक्र और परचक्र से दुःखी होते हैं। यह संवर्त केतु जिस नक्षत्र में उदय होता है। और जिस नक्षत्र में अस्त होता है तथा जिसको छोड़ता है वा जिस नक्षत्रको स्पर्श करता है उनके आश्रित देशोंका नाश हो जाता है। ध्रुवकेतु यह ध्रुवकेतु अनियत गति और वर्णका होता है। सभी दिशाओं में जहाँ-तहाँ नाना आकृति का दिखाई पड़ता है। धु, अन्तरिक्ष का भूमि पर स्निग्ध दिखायी दे तो शुभ और गृहस्थियोंके गृहांगण में तथा राजाओंके सेनाके किसी भाग में दिखायी देने से विनाशकारी होता है। Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६२० मूल अमृतकेतु-जल, भट, पद्य, आवर्त्त, कुमुद, मणि और संवर्त ये सात केतु प्रकृति से ही अगतोलन मागे जाते हैं। दुष्ट केतु फल-जो दुष्ट केतु हैं वे क्रम से अश्विनी आदि २९ नक्षत्रों में गये हुए निम्नलिखित देशोंके नरेशोंका नाश करते हैं। २९ नक्षत्रों के अनुसार दुष्ट केतुओंका घातक फल नक्षत्र | देश | नक्षत्र । देश अश्विनी | अश्मक देश घातकस्वाति । कम्बोज (कश्मीर) का घातक भरणी किरात-भीलोंका घातक | विशाखा अवधका घातक कृत्तिका | | उड़ीसा प्रदेशका घातक अनुराधा पुण्ड्र (मिथिलाके समीपका प्रान्त) रोहिणी शूरसेनका घातक ज्येष्ठा कान्यकुब्ज (कन्नौज) का घातक मृगशिर उशीनर (गान्धार) मद्रक तथा आन्ध्र आर्द्रा जलजा जीव (तिरहुत प्रान्त) | पूर्वाषाढ़ा काशीका घातक पुनर्वसु अश्मकका घातक उत्तराषाढ़ा अर्जुनायक, यौधेय, शिविएवं चेदि मग्ध का घातक श्रवण कैकेय (सतलजके पीछे) और आश्लेषा असिक का घातक व्यासके आगेका का प्रान्त मघा अंग (वैद्यनाथसे भुवनेश्वरतक)| धनिष्ठा पंचनद (पंजाब) का घातक शतभिषा सिंहल (सीलोन) पूर्वाफाल्गुनी| पाण्ड्य (देहली प्रान्त) का पूर्वा भा० | बंग (बंगाल प्रान्त) घातक उत्तरा फा० अवन्ति (उज्जैन प्रान्त) का उत्तरा भा० | नैमिष घातक दण्डक (नासिका पंचवटी) का रेवती | किरात (भूटान और आसाम के । घातक चित्रा कुरुक्षेत्र प्रदेशका घातक पूर्व के प्रान्त) पुण्य हस्त Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२१ एकविंशतितमोऽध्यायः जितने दिनों तक ये दिखते हैं, उतने ही महीनों तक और जितने महीनों तक दिखें उतने ही वर्षों तक इनका फल मिलता है। जब वे दिखें तो उनके तीन पक्ष आगे फल देते हैं। जिन केतुओंकी शिखा उल्का से ताड़ित हो रही हो वे केतु हूण, अफगान, चीन और चोल से अन्यत्र देशों में श्रेयस्कर होते हैं। जो केतु शुक्ल, स्निग्धतनु, हस्व, प्रसन्न, थोड़े समय ही दिखने वाला सीधा हो और जिसके उदय होने से वृष्टि हुई हो वह शुभ फलदायी होता है। चार प्रकारके भूकम्प ऐन्द्र, वारुण, वायव्य और आग्नेय होते हैं, इनका कारण भी राहु और केतुका विशेष योग ही है। जब राहु से सातवें मंगल, मंगल से पाँचवें बुध और बुध से चौथे चन्द्रमा होता है, उस समय भूकम्प होता है। स्वाति, चित्रा, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, मृगशिरा, अश्विनी, पुनर्वसु इन नक्षत्रों में अग्नि केतु या संवर्त केतु दिखलाई पड़े तो भूकम्प होता है। पुष्य, कृत्तिका, विशाखा, पूर्वाभाद्रपद, भरणी, पूर्वाफाल्गुनी और मघा इन नक्षत्रोंका आग्नेय मण्डल कहलाता है। जब कीलक या आग्नेय केतु इस मण्डल में दिखलाई देते हैं तो भूकम्प होनेका योग आता है। चल, जल, उर्भि, औद्दालक, पद्म और रविरश्मिकेतु जब प्रकाशमान होकर किसी भी मध्यरात्रि में उदित होते हैं, तो उसके तीन सप्ताह में भयकर भूकम्प पूर्वके देशों में तथा हल्का भूकम्प पश्चिमके देशों में आता है। वसाकेतु और कपालकेतु यदि प्रतिपदा तिथिको रात्रिके प्रथम प्रहर में दिखलाई पड़े तो भी भूकम्प आता है। भूकम्पोंके प्रधान निमित्त केतुओंका उदय है। यों तो ग्रहयोग से गणित द्वारा भूकम्पका समय निकाला जाता है, किन्तु सर्वसाधारण केतुओंके उदयके निरीक्षण मात्र से आकाशदर्शन से ही भूकम्प का परिज्ञान कर सकता है। इति श्रीपंचम श्रुत केवली दिगम्बराचार्य भद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिता का केतु उदय-अस्त अध्याय का वर्णन करने वाला इक्कीसवें अध्याय का हिन्दी भाषानुवाद करने वाली क्षेमोदय टीका समाप्त। (इति एकविंशतितमोऽध्यायः समाप्तः) Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाविंशतितमोऽध्यायः सूर्य का संचार वर्णन सर्वग्रहेश्वरः सूर्यः प्रवासमुदयं प्रति। तस्य चारं प्रवक्ष्यामि तान्नेबोधत तत्त्वतः॥१॥ (सर्वग्रहेश्वर: सूर्य:) सभी ग्रहों का स्वामी सूर्य है (तस्य प्रवासमुदयंप्रति) उसके प्रवास उदय (चार) चार को (प्रवक्ष्यामि) कहता हूँ (तन्निबोधत तत्त्वत:) उसको आप अच्छी तरह से जानो। भावार्थ-अब मैं सभी ग्रहों के स्वामी सूर्य है उसके संचार उदय आदि का वर्णन करता हूँ आप इस तत्त्व को भी जानो।। १॥ सुरश्मी रजतप्रख्यः स्फटिकाभो महाद्युतिः। उदये दृश्यते सूर्य: सुभिक्षं नृपतेर्हितम्॥२॥ यदि (सूर्यः) सूर्य (उदये) उदय होने पर (सुरश्मी) अच्छी किरणों वाला हो (रजत प्रख्य:) चाँदी के वर्ण का हो (स्फटिका भो महाद्युतिः) जिसकी आभा स्फटिक के समान होकर (दृश्यते) दिखे तो (सुभिक्ष) सुभिक्ष होगा और (नृपतेर्हितम्) राजा का हित करने वाला होता है। भावार्थ-यदि सूर्य उदय होते समय चाँदी के वर्ण का हो तो अच्छी किरणों वाला हो, स्फटिक के समान आभा हो, जिसकी महाद्युति हो तो सुभिक्ष होगा। और राजा का हित होगा।॥ २॥ रक्तः शस्त्रप्रकोपाय भयाय च महार्घदः। नृपाणामहितश्चापि स्थावराणां च कीर्तितः॥३॥ सूर्य उदय का (रक्तः) लाल वर्ण का हो तो (शस्त्र प्रकोपाय) शस्त्र प्रकोप (भयाय च महार्घदः) भय उत्पन्न करता है, और वस्तुओंका भाव तेज करता है। Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२३ द्वाविंशतितमोऽध्यायः (नृपाणां महितश्चापि ) राजाओं का अहित करेगा और भी (स्थावराणां च कीर्त्तितः ) स्थावरों का अहित करता है। भावार्थ — सूर्य उदय होते समय यदि लाल वर्ण का हो, तो शस्त्र प्रकोप होगा, भय उत्पन्न होगा। वस्तुओं के भाव महँगे होंगे, स्थावर देशवासी राजाओं का अहित होगा ॥ ३ ॥ पीतो लोहित रश्मिश्च व्याधि मृत्युकरो रविः । विरश्मिर्धूमकृष्णाभः क्षुधार्त्तसृष्टिरोगदः ॥ ४ ॥ (रवि) सूर्य (रश्मिश्च) की किरणें (पीतो लोहित) लाल, पीली हो तो ( व्याधि मृत्युकरो ) रोग उत्पन्न करेगी व मरण लाएगी (विरश्मेिर्धूमकृष्णाभः ) अगर सूर्योदय की किरणें धूमवर्ण की हो व काली हो तो ( क्षुधार्त्त सृष्टि रोगदः) क्षुधा को बढ़ाएगी, और पृथ्वी रोग से सहित हो जायगी । भावार्थ — यदि सूर्योदय समय उसकी किरणें लाल, पीली हो तो व्याधि उत्पन्न करेगी, मरण करेगी और धूमवर्ण या काली हो तो भुखमरी फैलेगी, वा सृष्टि में रोग फैल जायगा ॥ ४ ॥ नोट —यहाँ जो भी कहा गया है। वह सूर्योदय के समय वाली किरणों को ही लेना है, उसी का शुभाशुभ होता है। कबन्धेनाऽऽवृतः सूर्यो यदि दृश्येत प्राग् दिशि । बङ्गानङ्गान् कलिङ्गांश्च काशी कर्णाट मेखलान् ॥ ५ ॥ मागधान् कटकालांश्च काल वक्रोष्ट्रकर्णिकान् । माहेन्द्रसंवृतोवान्द्रास्तदा हन्याच्च भास्करः ॥ ६॥ यदि (सूर्यो) सूर्य (प्राग् दिशि ) पूर्वदिशा में ( कबन्धेनाssवृतः ) धड़ से ढका हुआ दिखे तो (बाङ्गान् कलित्राश्च) अंग देश, बंग देश, कलिंग देश और (काशी कर्णाट मेखलान्) काशी देश, कर्नाटक देश, मेखला देश (मागधान् ) मगध देश . (कटकालांश्च) कटक ( काल वक्रोष्ट) काल व क्रोष्ट्र देश (कर्णिकान् ) कर्णिका देश (माहेन्द्र संवृतो वान्द्राः ) माहेन्द्र और उड़ देशों का ( तदा) तब वह ( भास्करः ) सूर्य (हन्याच्च) घात करता है। Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ-यदि सूर्योदय में पूर्व दिशा में धड़ से ढका हुआ दिखलाई पड़े, तो वह सूर्य अंग, बंग, कलिंग, काशी, कर्नाटक, मेखाला, मगध, कटक, कालावक्रोष्ट्र कर्णिका, माहेन्द्र संवृत आदि देशोंका घात करता है।।५-६।। कबन्धो वामपीतो वा दक्षिणेन् यदा रविः। चर्विलान् मलयानुड्रांन् स्त्रीराज्यं वनवासिकान् ।।७॥ किलिन कुना टांश्च ताम्रकांस्तथैव च। स वक्र चक्र क्रूरांश्च कुणपांश्च स हिंसति ॥८॥ (यदा रवि:) जब सूर्य (दक्षिणेन्) दक्षिण में (कबन्धो वामपीतो वा) धड़ से सहित वाम भाग में पीला दिखे तो (चर्विलान्) चर्विल (मलायानुड्रांन्) मलयदेश, उड्रदेश, (स्त्रीराज्यं वनवासिकान्) स्त्री राज्य और वनवासी तथा (किष्किन्धाश्च) किष्किन्धा (कुनाटांश्च) कुनाट (ताम्रकर्णास्तथैव च) ताम्र वर्ण तथा और भी (स) वह (वक्र चक्र क्रूरांश्च) वक्र चक्र क्रूर (कुणपांश्च स हिंसति) कुणपादियों की हिंसा करता है। भावार्थ-जब सूर्य दक्षिण के वाम भाग में धड़ (कबन्ध) रहित पीला दिखे, तो चर्विल, मलय, उड्रान, स्त्रीराज्य, वनवासी, किष्किन्धा, कुनाट, ताम्रवर्ण और उसी प्रकार वक्र, चक्र, क्रूर कुणपादियों की हिंसा करता है॥७-८॥ अपरेण च कबन्धस्तु दृश्यते द्युतितो यदा। युगन्धरावणं मरुत्, सौराष्ट्रान् कच्छगैरिजान् ॥९॥ कोकणानपरान्तांश्च भोजांश्च कालजीविनः। अपरांस्तांश्च सर्वान् वै निहल्यात् तादृशो रविः॥१०॥ (यदा) जब (रवि:) सूर्य (तादृशो) उसी प्रकार (अपरेण च कबन्धस्तु) पश्चिम दिशा में कबन्ध रूप (द्युतितो दृश्यते) प्रकाशमान दिखलाई पड़े तो (युगन्धरावणं मरुत) युगन्धरायण, मरुत, (सौराष्ट्रान्) सौराष्ट्र (कच्छ गैरिजान्) कच्छ, गैरिज, (कोकणान्) कोंकण (परान्ताश्च) अपर (भोजांश्च) भोज और (कालजीविनः) काल जीवि, (अपरांस्तांश्चसर्वान्) और अपरदेशवासी सभी को (वैनियन्यात) मारता है। भावार्थ-जब सूर्य पश्चिम दिशा में कबन्ध रूप प्रकाशमान दिखलाई पड़े Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२५ द्वाविंशतितमोऽध्यायः -- . . . -- तो, युगन्धरायण, मरुत, सौराष्ट्र, कच्छ, गैरिज, कोंकण, अपर भोज, काल जीवि और अपर देशवासियों का घात करता है॥९-१० ।। उत्तरे उदयोऽर्कस्य कबन्धसशस्तदा। क्षुद्रकामाल वाह्नीक: सिन्धु सौवीरदर्दुरः ।।११॥ काश्मीरान् दरदांश्चैव पालवां मागधांस्तथा। साकेतान् कोशलान् काञ्चीमहिच्छवं च हिंसति॥१२॥ (उत्तरे उदयोऽर्कस्य) सूर्य के उदय होने पर उत्तर दिशा में (कबन्ध सदृशः) कबन्ध सदृश दिखे तो (क्षुद्रकामालवाहीक:) शुद्रक, माल, वाहीक, (सिन्धु) सिन्धु (सौवीर) सौवीर (द१र:) दर्दुर (काश्मीरान्) काश्मीर (दरदांश्चैव) दरद और भी (पालवां) पल्लव (मागधांस्तथा) मागध तथा (साकेतान्) साकेत (कौशलान्) कौशल (काञ्ची) काञ्ची (महिच्छवं च हिंसति) और महिच्छव की हिंसा करता है। भावार्थ- यदि सूर्योदय समय उत्तर दिशा में कबन्ध समान दिखे, तो शूद्रक, माल, माझील, शिशु, सहावीत, दर्दुरा, काश्मीर, दरद, पल्लव, मगध तथा साकेत कौशल, कांची, महिच्छव आदि का घात होता है॥११-१२॥ कबन्धमुदये भानोर्यदा मध्ये प्रदृश्यते। मध्यमा मध्यसाराच पीडयन्ते मध्यदेशजाः॥१३॥ (यदाभानोः) जब सूर्य (उदये) उदय होते समय (मध्ये) मध्य में (कबन्धं प्रदृश्यते) कबन्ध दिखे तो (मध्यमा मध्यसाराश्च) मध्य में भी मध्य (मध्यदेशजा: पीडयन्ते) देश के राजा को पीड़ा देता है। भावार्थ-जब सूर्योदय समय में सूर्य के मध्य में कबन्ध दिखलाई पड़े, तो मध्य के अन्दर और भी मध्य देश के राजाकी मृत्यु होती है ॥१३ ।। नक्षत्रमादित्यवर्णो यस्य दृश्येत भास्करः। तस्य पीडा भवेत् पुंसः प्रयत्नेन शिवः स्मृतः॥१४॥ (यस्य) जिस व्यक्ति के (नक्षत्रं) नक्षत्र पर (आदित्य वर्णो भास्कर: दृश्येत) लाल वर्ण का सूर्य दिखलाई पड़े तो (तस्य) उस (पुंस:) पुरुष को (पीड़ा भवेत्) पीड़ा होती है (प्रयत्नेन शिवः स्मृतः) बहुत प्रयत्न करने पर पीड़ा दूर होती है। Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६२६ भावार्थ-जिस व्यक्ति के नक्षत्र पर लाल वर्ण का सूर्य दिखाई पड़े तो उस पुरुष को महान् पीड़ा होती है। बहुत प्रयत्न करने पर पीडा शान्त होती है, कल्याण होता है ।। १४॥ स्थालीपिठरसंस्थाने सुभिक्षं वित्तदं नृणाम्। वित्तलाभस्तु राज्यस्य मृत्युः पिठरसंस्थिते॥१५॥ (स्थालीपिठरसंस्थाने) यदि सूर्योदय समय में सूर्य गोल थाली के समान संस्थान वाला दिखे तो (सुभिक्षं) सुभिक्ष करता है (वित्तदं नृणाम्) मनुष्यों को धन बढ़ाता है (राज्यस्य वित्तलाभस्य) राजा को धन की प्राप्ति होती है। (मृत्युः पिठर संस्थिते) पीठा के समान सूर्य दिखे तो मृत्यु होती है। भावार्थ-यदि सूर्योदय समय में सूर्य थाली के आकार दिखे तो सुभिक्ष करता है मनुष्यों को धन बढ़ाता है, राजा के धन की वृद्धि होती है। और वही सूर्य पीढ़ा के समान दिखे तो मृत्यु करता है।। १५॥ । सुवर्णवर्णों वर्ष वा मासं वा रजतप्रभे। शस्त्रं शोणित्तवत् सूर्योदाघो वैश्वानर प्रभे॥१६॥ (सुवर्ण वर्णों वर्षं वा) यदि सूर्योदय समय में सूर्य सुवर्ण वर्ण का दिखाई पड़े, व (मांस वा रजतप्रभे) चाँदी के समान दिखायी पड़े, तो वर्ष या मास सुखपूर्वक व्यतीत होता है (शोणितवत् सूर्यो शस्त्र) लाल रंग का सूर्य दिखे तो शस्त्र पीड़ा होती है। (दाघो वैश्वानर प्रभे) और अग्नि के समान दिखाई पड़े तो दग्ध करता भावार्थ-जब सूर्य उदय काल में सुवर्ण वर्ण का दिखे तो एक वर्ष तक सुखमय समय व्यतीत होता है। और चाँदी के समान दिखे तो एक महीने तक समय सुख से जाता है। लाल दिखे तो शस्त्रपीड़ा और अग्नि के समान दिखे तो जलता है।। १६॥ शृङ्गी राज्ञां विजयदः कोश वाहनवृद्धये। चित्र: सस्यविनाशाय भयाय च रविः स्मृतः॥१७॥ (शृङ्गी राज्ञां विजयदः) शृंगी वर्ण का सूर्य राजा को विजय देने वाला और Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२७ द्वाविंशतितमोऽध्यायः (कोशवाहन वृद्धये) कोश वाहन की वृद्धि करता है (चित्र: सस्य विनाशाय) चित्रवर्ण का सूर्य धान्यों का विनाश करता है (च) और वह (रविः) सूर्य (भयाय स्मृतः) भय उत्पन्न करता है। भावार्थ-शृङ्गी वर्ण का सूर्य राजा को विजय देने वाला और कोशवाहन वृद्धि करता है। चित्र-विचित्र वर्णका सूर्य धान्यों का नाश करता है। और भय उत्पन्न करता है।। १७॥ अस्ताते यदा सूर्ये चिरं रक्ता वसुन्धरा। सर्वलोक भयं विन्द्यात् तदा वृद्धानुशासने॥१८॥ (यदा) जब (सूर्ये) सूर्य (अस्ताते) अस्त होने के समय (वसुन्धरा चिरं रक्ता) यह पृथ्वी चिरकाल तक रक्त वर्ण की दिखे तो (तदा) तब (वृद्धानुशासने) महापुरुर्षों के कहे अनुसार (सर्वलोकभयं) सर्व लोक में भय उपस्थित होगा (बिन्धात्) ऐसा जानो। भावार्थ-जब सूर्यास्त के समय बहुत काल तक पृथ्वी रक्त वर्ण की रहे, तो निमित्तज्ञों के कहे अनुसार सब लोक में भय उत्पन्न होगा ।। १८॥ उदयास्तमने ध्वस्ते यदा वै कुरुते रविः। महाभयं तदानीके सुभिक्षं क्षेममेव च।१९।। (यदा) जब (रविः) सूर्य (उदयास्तमने) उदय हो तो समय या अस्त होते समय (ध्वस्ते) ध्वस्त करे तो (तदा) तब (नीके) सेना में (महाभयं) महाभय होता है। (सुभिक्ष क्षेम मेव च) और निश्चित ही क्षेम कुशल होता है। भावार्थ-जब सूर्य उदय या अस्त होने के समय ध्वस्त करे तो राजा की सेना में महाभय होगा, और सुभिक्ष और क्षेम कुशल होगा ।। १९ ।। एतान्येव तु लिङ्गानि पर्वण्यां चन्द्र सूर्ययोः। तदा राहुरिति शेयो विकारच न विद्यते।। २०॥ (पर्वण्यां) अमावस्या या पूर्णिमा को (चन्द्र सूर्ययोः) चन्द्र या सूर्य पर (एतान्येव तु लिबानि) उपर्युक्त चिह्न दिखाई पड़े तो (तदा) तब (ज्ञेयो) समझो की (राहुरिति) राहु का आगमन है (विकारश्च न विद्यते) इसमें विकार नहीं होता है। Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता । ર૮ भावार्थ-पूर्णिमा या अमावस्या को सूर्य या चन्द्र में इस प्रकार के चिह्न दिखलाई पड़े तो समझो की राहुका आगमन होने वाला है। ऐसी स्थिति में कोई विकार नहीं होगा॥२०॥ शेषमौत्पादिकं प्रोक्तं विधान भास्करं प्रति। ग्रहयुद्धे प्रवक्ष्यामि सर्वगत्या च साधयेत्॥२१॥ (शेषमौत्पादिकं प्रोक्तं) शेष उत्पादिक कहा (भास्करं प्रति विधानं) सूर्य का विधान अब मैं (ग्रहयुद्धे प्रवक्ष्यामि) गृह युद्ध का स्वरूप वर्णन करता हूँ। (सर्वगत्या च साधयेत्) उसकी सिद्धि गति आदि से कर लेनी चाहिये। भावार्थ-शेष लक्षण उत्पादिक है अब मैं ग्रह युद्ध का वर्णन करता हूँ उस की सिद्धि माति आदि से कर जो याहि ॥२६॥ विशेष वर्णन—इस अध्याय में आचार्य सभी ग्रहों का स्वामी सूर्य के उदय अस्त व संचार का वर्णन करते हैं। ___ यह सूर्य अनेक वर्ण वाला होकर उदय अस्त होता है। और उसी के अनुसार शुभाशुभ फल देता है। यह पूरा ध्यान रखना चाहिये कि सूर्य उदय के समय में उसका कौनसा वर्ण है और अस्त होने के समय में उसका कैसा वर्ण है। ज्योतिषी को इसका ज्ञान रखना चाहिये। नक्षत्रोंके अनुसार भी सूर्य के संचारानुसार फलादेश होते हैं। सूर्य की संक्रान्तियों के अनुसार फलादेश भी कहा है। चन्द्रनक्षत्र और सूर्य नक्षत्र के चौदह नक्षत्र है, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद, रेवती, अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा और मघा में १४ नक्षत्र चन्द्र नक्षत्र है। पूर्वाभाद्रपद, शतभिखा, मृगशिरा, रोहिणी, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा और मूल में १३ नक्षत्र सूर्य नक्षत्र कहलाते __ आचार्य श्री कहते हैं कि सूर्य नक्षत्रों में यदि चन्द्रमा और चन्द्र नक्षत्रों में सूर्य हो तो वर्षा आती है। Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२९ द्वाविंशतितमोऽध्यायः उसी प्रकार चन्द्र नक्षत्रों में सूर्य और चन्द्रमा दोनों हो तो अल्पवृष्टि होती है। किन्तु सूर्य नक्षत्र पर सूर्य चन्द्रमा दोनों हो तो वर्षा नहीं होती है। मेष की संक्रान्ति के दिन तुलाराशि का चन्द्रमा हो तो छ: महीने में धान्य की अधिकता करा है। कन्या की संक्रान्ति होने पर मीन के चन्द्रमा से छत्र भंग होता है उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार, दिल्ली राज्य में अनेक प्रकार के उपद्रव होते हैं, बम्बई और मद्रास में अनेक प्रकार की कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। इत्यादि सब प्रकार से समझ लेना चाहिये। इसी प्रकार डॉ. नेमीचन्द जी का अभिप्राय भी समझ लेना चाहिये। विवेचनपूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद, रेवती, अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा और मघा में १४ नक्षत्र 'चन्द्रनक्षत्र' एवं पूर्वाभाद्रपद, शतभिषा, मृगशिरा, रोहिणी, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा और मूल में १३ नक्षत्र 'सूर्यनक्षत्र' कहलाते हैं। यदि सूर्यनक्षत्रों में चन्द्रमा और चन्द्र नक्षत्रों में सूर्य हो तो वर्षा होती है। चन्द्र नक्षत्रों में यदि सूर्य और चन्द्रमा दोनों हों तो अल्पवृष्टि होती है, किन्तु यदि सूर्य नक्षत्र पर सूर्य-चन्दमा दोनों हों तो वृष्टि नहीं होती। सूर्य नक्षत्र पर सूर्यके आने से वायु चलती है, जिससे वायु-दोषके कारण वर्षा नहीं होती। चन्द्रमा चन्द्र नक्षत्रों पर रहे तो केवल बादल आच्छादित रहते हैं, वर्षा नहीं होती। कर्क संक्रान्ति के दिन रविवार होने से १० विश्वा, सोमवार होने से २० विश्वा, मंगलवार होने से ८ विश्वा, बुधवार होने से १२ विश्वा, गुरुवार होने से १८ विश्वा, शुक्रवार होने से भी १८ विश्वा और शनिवार होने से ५ विश्वा वर्षा होती है। कर्क संक्रान्ति के दिन शनि, रवि, बुध और मंगलवार होने से अधिक वृष्टि नहीं होती, शेष वारों में सुवृष्टि होती है। चन्द्रमाके जलराशि पर स्थिति होने पर सूर्य कर्क राशि में आवे तो अच्छी वर्षा होती है। मेष, वृष, मिथुन और मीन राशि पर चन्द्रमाके रहते हुए यदि सूर्य कर्क राशि में प्रविष्ट हो तो १०० आढ़क वर्षा होती है। कर्क संक्रान्ति के समय धनुष और सिंह राशि पर चन्द्रमा के होने से ५० आढ़क वर्षा होती है। मकर और कन्या राशि पर चन्द्रमाके रहने से २५ आढ़क वर्षा एवं तुला, Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता । ६३० वृश्चिक, कुम्भ और कर्क राशि पर चन्द्रमा के रहने से १२॥ आदक प्रमाण वर्षा होती है। कर्क राशि में प्रविष्ट होते हुए सूर्य को यदि बृहस्पति पूर्ण दृष्टिसे देखे अथवा तीन चरण दृष्टिसे देखे तो अच्छी वर्षा होती है। श्रावणके महीने में यदि कर्क संक्रान्ति के समय मेध खूब छाये हों तो सात महीने तक सुभिक्ष होता है। और अच्छी वर्षा होती है। मंगल के दिन सूर्यकी कर्क संक्रान्ति और शनिवार को मकर संक्रान्ति का होना शुभ नहीं है। स्वाति, ज्येष्ठा, भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा इन नक्षत्रों के पन्द्रहवें मुहूर्त में मकर राशि या सूर्यके प्रविष्ट होने से अशुभ फल होता है। पुनर्वसु, विशाखा, रोहिणी और तीनों उत्तरा नक्षत्रोंके चौथे या पांचवें मुहर्त में सूर्य प्रवेश करे तो शुभ फल होता है। सूर्यकी संक्रान्ति के दिन से ग्यारहवें, पच्चीसवें, चौथे या अठारहवें दिन मास्या का होना सुरिक्षा सूचक गादि पहली संक्रान्ति का नक्षत्र दूसरी संक्रान्ति में आवे तो शुभ फल होता है, किन्तु उस नक्षत्रसे दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवे नक्षत्र शुभ नहीं होते। सूर्य संक्रान्तियों के अनुसार फलादेश--मेषकी संक्रान्ति के दिन तुलाराशि का चन्द्रमा हो तो छ: महीने में धान्य की अधिकता करता है। सभी प्रदेशों में सुभिक्ष होती है। बंगाल और पंजाब में चावल, गेहूँकी उपज अधिक होती है। देश के अन्य सभी भागों में भी मोटे धान्योंकी उत्पत्ति अधिक होती है। मेष संक्रान्ति प्रात:काल होनेपर शुभ, मध्याह्न में होने से निकृष्ट और सन्ध्याकाल में होने से अतिनिष्कृट फल होता है। मेष संक्रान्ति रात्रि में प्रविष्ट हो तो साधारणत: अशुभ फल होते है। यदि संक्रान्ति काल में अश्विनी नक्षत्र क्रूर ग्रहों द्वारा विद्ध हो तो अशुभ फल होता है। राष्ट्र में अनेक प्रकार के उपद्रव होते हैं। वर्षा की भी कमी रहती है। मेष संक्रान्ति, कर्क संक्रान्ति और मकर संक्रान्ति का फल एक वर्ष तक रहता है। यदि ये तीनों संक्रान्तियाँ अशुभ वार, अशुभ घटियों में आती हैं, तो देश में नाना प्रकार के उपद्रव होते हैं। शनिवार को मेष संक्रान्ति पड़ने से जगत् में अशान्ति रहती है। चीन और रूस में अन्नादि पदार्थोंकी बहुलता होती है, पर आन्तरिक अशान्ति इन राष्ट्रों में भी बनी रहती है। वृष की संक्रान्ति में वृश्चिक राशि चन्द्रमाके रहने से चार महीने तक अन्न लाल होता है। सुभिक्ष और शान्ति रहती है। खाद्यान्नोंकी बहुलता सभी देशों और Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३१ द्वाविंशतितमोऽध्यायः - • - ..-- - राष्ट्रों में रहती है। काशी, कन्नौज और विदर्भ में राजनैतिक संघर्ष होता है। वृषकी संक्रान्ति बुधवार को होने से घी के व्यापार में लाभ होता है। शुक्रवार को वृषकी संक्रान्ति हो तो रस पदार्थों की महंगी होती है। शनिवार को इस संक्रन्ति के होने से अन्न का भाव तेज होता है। मिथुनको संक्रान्ति को धनुका चन्द्रमा हो तो तिल, तैल, अन्नसंग्रह करने से चौथे महीने में लाभ होता है। यदि चन्द्रमा क्रूर ग्रह सहित हो तो लाभ के स्थान में हानि होती है। कर्ककी संक्रान्ति में मकर का चन्द्रमा हो तो दुर्भिक्ष होता है। इस योगके चार महीनेके उपरान्त धनिक भी निर्धन हो जाता है। सभीकी आर्थिक स्थिति बिगड़ती जाती है। देश के कोने-कोने में अन्न की आवश्यकता प्रतीत होती है। जिन राज्यों, प्रदेशों और देशों में अच्छा अनाज उपजता है, उनमें भी अन्न की कमी हो जाने से अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं। कन्याकी संक्रान्ति होने पर मीनके चन्द्रमा में छत्रभंग होता है। उत्तरप्रदेश, बंगाल, बिहार और दिल्ली राज्य में अनेक प्रकार के उपद्रव होते हैं। बम्बई और मद्रास में अनेक प्रकार की कठिनाइयोंका सामना करना पड़ता है। तुलाकी संक्रान्ति में मेषका चन्द्रमा हो तो पांच महीने में व्यापार में लाभ होता है। अन्न की उपज साधारण होती है। जूट, सूत, कपास और सनकी फसल साधारण होती है। अत: इन वस्तुओंके व्यापार में अधिक लाभ होता है। वृश्चिक संक्रान्ति में वृषराशि का चन्द्रमा हो तो तिल, तेल तथा अन्न का संग्रह करना उचित है। इन वस्तुओंके व्यापार में अधिक लाभ होता है। धनुकी संक्रान्ति में कर्क का चन्द्रमा हो तो कुलटाओंका विनाश होता है। कपास, घी, सूत में पाँचवें मास में भी लाभ होता है। कुम्भकी संक्रान्ति में सिंहका चन्द्रमा हो तो चौथे महीने में अन्न लाभ होता है। मीनकी संक्रान्ति में कन्याका चन्द्रमा होने पर प्रत्येक प्रकार के अनाज में लाभ होता है। अनाजकी कमी भी साधारणतः दिखलाई पड़ती है, किन्तु उस कमी को किसी प्रकार पूरा किया जा सकता है। जिस वार की यदि संक्रान्ति हो, यदि उसी वार में अमावस्या भी पड़ती हो तो यह खपर योग कहलाता है। यह योग सभी प्रकार के धान्योंको नष्ट करनेवाला है। यदि प्रथम संक्रान्ति को शनिवार हो, दूसरीको रविवार, तीसरीको सोमवार, चौथीको मंगलवार, पाँचवींको बुधवार, छठवींको गुरुवार, सातवींको शुक्रवार, आठवींको शनिवार, नवमीको रविवार, दसवींको सोमवार, Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६३२ ग्यारहवींको मंगलवार और बारहवीं संक्रान्ति को बुधवार होता खर्पर योग हो तो है। इस योगके होने से भी धन-धान्य और जीव-जन्तुओंका विनाश होता है। यदि कार्त्तिक में वृश्चिककी संक्रान्ति रविवारी हो तो श्वेत रंगके पदार्थ महँगे, म्लेच्छों में रोग - विपत्ति एवं व्यापारी वर्गके व्यक्तियोंको भी कष्ट होता है। चैत्र मास में मेषकी संक्रान्ति मंगल या शनिवार की हो तो अन्न का भाव तेज, गेहूँ, चने जौ आदि समस्त धान्यका भाव तेज होता है। सूर्यका क्रूर ग्रहोंके साथ रहना, या क्रूर ग्रहोंसे विद्ध रहना अथवा क्रूर ग्रहोंके साथ सूर्यका वेध होना, वर्षा, फसल, धान्योत्पत्ति आदिके लिए अशुभ है। सूर्य यदि मृदु संज्ञक नक्षत्रोंको भोग कर रहा हो, उस समय किसी शुभ ग्रहकी दृष्टि सूर्यपर हो तो, इस प्रकार की संक्रान्ति जगत् में उथल-पुथल करती है। सुभिक्ष और वर्षाके लिए यह योग उत्तम है। यद्यपि संक्रान्ति मात्रके विचार उत्तम फल नहीं घटता है, अतः ग्रहोंका सभी दृष्टिंसे विचार करना आवश्यक है। इति श्रीपंचम श्रुत केवली दिगम्बराचार्य भद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिता का सूर्य संचार व फलादेश का वर्णन करने वाला बाईसवें अध्याय का हिन्दी भाषानुवाद की क्षेमोदय टीका समाप्त । (इति द्वाविंशतितमोऽध्यायः समाप्तः ) Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोविंशतितमोऽध्यायः चन्द्रमा का संचार वर्णन मासे मासे समुत्थानं चन्द्रं यो पश्येत् बुद्धिमान् । वर्ण संस्थानरात्री तु ततो ब्रूयात् शुभा शुभम् ॥१॥ (ये) जो (बुद्धिमान) बुद्धिमान (मासे मासेसमुत्थानं चन्द्रं पश्येत) प्रत्येक मास में उठकर चन्द्र को देखता हूँ, और (वर्ण संस्थान रात्रौतु) रात्रि में वर्ण संस्थान है। (ततो) उसका (शुभा शुभम् ब्रूयात्) शुभाशुभ को कहूँगा। भावार्थ-जो बुद्धिमान प्रत्येक महीने उठकर चन्द्र को देखता है। और वर्ण संस्थान देखता है, उसके शुभाशुभ को कहूंगा॥१॥ स्निग्धः श्वेतो विशालश्च पवित्रश्चन्द्रः शस्यते। किञ्चिदुत्तरशृङ्गश्च दस्यून हन्यात् प्रदक्षिणम् ।।२।। (चन्द्रः) चन्द्र (स्निग्धः) स्निग्ध हो (श्वेतो) श्वेत हो (विशालश्च) विशाल हो और (पवित्र) पवित्र हो तो (शस्यते) प्रशस्त माना है। किन्तु उसका (किञ्चिदुत्तर शृंगश्च) किनारा थोड़ा उत्तर की ओर उठा हुआ हो तो (प्रदक्षिणम् दस्यून हन्यात्) प्रदक्षिण में डाकूओं का घात करता है। भावार्थ-जब चन्द्रमा स्निग्ध हो श्वेत हो विशाल हो पवित्र हो तो प्रशस्त माना है। किन्तु उसका शृंग उत्तर की ओर थोड़ा उठा हुआ हो तो डाकूओं का घात करता है॥२॥ अश्मकान् भरतानुड़ान् काशि कलिङ्ग मालवान्। दक्षिणद्वीप वासांश्च हन्यादुत्तर शृंगवान् ॥३॥ यदि चन्द्रमा की (उत्तर शृंगवान्) शिखा उत्तर की तरफ हो तो (अश्मकान्) अस्मक (भरतानुड्रान्) भरत उडू (काशि) काशी (कलिगमालवान) कलिंग मालव (दक्षिणदीपवासांश्च) और दक्षिण द्वीप के वासियों को (हन्याद्) मारता हैं। Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता । भावार्थ-यदि चन्द्रमा की शिखा उत्तर की ओर हो तो अस्मक, भरत, उत्तरकाशी, कलिङ्ग, मालव और दक्षिण द्वीप के वासियों को मारता है॥३॥ क्षत्रियान् यवनान् बाह्नीन् हिमवच्छृङ्गमास्थितान् । युगन्धर कुरून् हन्याद् ब्राह्मणान् दक्षिणोन्नतः॥४॥ यदि उसी चन्द्रमा का शृंग (दक्षिणोन्नतः) दक्षिण में उन्नत हो तो (क्षत्रियान्) क्षत्रियों को (यवज्ञान पवनों का बासीन्) वालाको (हिमवच्छ्रामास्थितान्) हिमवत पर्वत के ऊपर रहने वालों को (युगन्धर) युगन्धर और (कुरून) करु व (ब्राह्मणान्) ब्राह्मणों को (हन्याद) मारता है। भावार्थ-जब चन्द्रमा की शिखा दक्षिण में उठी हुई हो तो क्षत्रिया, यवन, वाह्रीक हिमाचल पर रहने वाले, युगन्धर और कुरु और ब्राह्मणों का नाश करता है।।४।। भस्माभो निः प्रभोरुक्षः श्वेत भंगोऽतिसंस्थितः। चन्द्रमा न प्रशस्येत् सर्ववर्ण भयङ्करः ॥५॥ (भस्माभो) भस्म के समान आभा वाला, (नि:प्रभो) प्रभा रहित (रूक्षः) रूक्ष (श्वेत) सफेद (भृगोऽतिसंस्थितः) अति उन्नत शिखा वाला (चन्द्रमा न प्रशस्येत्) चन्द्रमा प्रशस्त नहीं है वह (सर्ववर्ण भयङ्करः) सभी वर्गों के लिये भयंकर है! भावार्थ-यदि भस्मके समान आभावाला चन्द्रमा हो प्रभारहित हो रूक्ष हो सफेद हो, और अति उन्नत शिखावाला हो, तो वह चन्द्रमा प्रशस्त नहीं है। सभी वर्गों के लिये भयंकर है॥५॥ शबरान् दण्डकानुड्रान् मद्रांश्च द्रविडांस्तथा। शूद्रान् महासनान् वृत्यान् समस्तान् सिन्धुसागरान्॥६॥ अनर्त्तान्मलकीरांश्च कोकणान् प्रलयम्बिन्ः। रोमवृत्तान् पुलिन्द्रांश्च मारुश्वभ्रं च कच्छजान्॥७॥ प्रायेण हिंसते देशानेतान् स्थूलस्तु चन्द्रमाः।। समे शृङ्गे च विद्वेष्टी तथा यात्रां न योजयेत्॥८॥ (स्थूलस्तु चन्द्रमा:) स्थूल चन्द्रमा (शबरान) शबर, (दण्डकानुड्रान्) दण्डक, Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + T त्रयोविंशतितमोऽध्यायः उडू, (मद्रांश्च) मद्र और (दविडांस्तथा ) द्रविड देश तथा (शूद्रान्) शूद्रों को (महासनान्) महासन को (वृत्यान्) वृत्यो को (समस्तान् ) समस्नान (सिन्धुसागरान् ) समुद्र, सागर ( आनर्त्तान्मलकीरांश्च) आनर्त, मल, किरात, ( कोणान् ) कोंकण (प्रलम्बिनः) प्रलयम्बिन (रोमवृत्तान्) रोमवृत (पुलिन्द्राश्च ) पुलिन्द्र ( मारुश्वभ्रं च कच्छजानू ) मरूभूमि, कच्छवासी ( एतान् देशान् प्रायेण हिंसत् ) इतने देश वासियों का प्रायेण हिंसा करता है (समेने च विद्वेष्टी ) अगर सम श्रृंग हो तो (तथा यात्रां न योजयेत् ) यात्रा नहीं करनी चाहिये। ६३५ भावार्थ—दपि वही बद्रमा स्थूल रूप हो तो, शबर, दण्डक, उडू, मद्र, द्रविड, शूद्र, महासन्, नृत्य, समस्त समुद्र, सागर, आनर्त, मल, किरात, कोंकण, रोम, पुलिन्द्र, मरु, कच्छ इतने देशवासियों की प्रायः हिंसा होती है। अगर सम भृंग हो तो यात्रा नहीं करनी चाहिये, ऐसी स्थिति में यात्रा का निषेध किया है ॥ ६-७-८ ॥ चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी विवर्णो विकृतः शशी । यदा मध्येन वा याति पार्थिवं हन्ति मालवम् ॥ ९ ॥ ( यदा) जब ( चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी) चतुर्थी, पञ्चमी और षष्ठी तिथि को (शशी) चन्द्रमा ( विवर्णो विकृतः ) विवर्ण और विकृत दिखे (वा) वा ( मध्येन् याति) मध्य से गमन करे तो ( पार्थिवं मालवम् हन्ति ) मालवा नरेश का नाश करता है। 'भावार्थ — जब चतुर्थी, पंचमी और षष्ठी का चन्द्रमा विवर्ण और विकृत दिखे मध्य से गमन करे तब मालव नरेश को मारता है । याने चन्द्रमा ऐसा सूचित कर रहा है कि मालव नरेश का मरण होगा ॥ ९ ॥ काञ्च किरातान् द्रमिलान् शाक्यान् लुब्धांस्तु सप्तमी । कुमारं युवराजनञ्च चन्द्रो हन्यात् तथाऽष्टमी ॥ १० ॥ ( तथाऽष्टमी सप्तमी चन्द्रो) जब अष्टमी व सप्तमी का चन्द्रमा उसी प्रकार हो तो ( काञ्ची) कांची, (किरातान् ) किरात् (द्रमिलान् ) द्रविड ( शाक्यान्) शाक्य (लुब्धांस्तु) लुब्धक और (कुमारं युवराजानञ्च हन्यात्) राजकुमार को मारता है। भावार्थ- जब अष्टमी या सप्तमी का चन्द्रमा उसी प्रकार हो, तो किरात द्रमिल, शाक्य, लुब्धक और राजकुमार को मारता है ।। १० ।। Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ६३६ नवमी मन्त्रिपरनारमा लगान् हनिभान्। दशमी स्थविरान् हन्यात् तथा वै पार्थिवान् प्रियान् ॥११॥ (नवमी मन्त्रिणश्चौरान्) नवमी का विकृत चन्द्रमा मन्त्री और चोरों का व (ऊर्ध्वगान् वर सन्निभान्) पथि अन्य श्रेष्ठ लोगों का घातक है (दशमी स्थविरान् दशमी विकृत चन्द्रमा स्थाविर (तथा वै पार्थिवान् प्रियान् हन्यात्) राजा व उनके प्रियों का नाश करता है। भावार्थ-नवमी का विकृत चन्द्रमा मन्त्री, चोर, राजा व उनके प्रियजनों का नाश करेगा, दशमी का विकृत चन्द्रमा स्थाविर राजा व उनके प्रियों का नाश करता है।। ११॥ एकादशीभयं कुर्यात् ग्रामीणांश्च तथा गवाम्। द्वादशी राजपुरुषांश्च वस्त्रं सस्यं च पीड़येत्॥१२॥ (एकादशी भयं कुर्यात्) एकादशी का विकृत चन्द्रमा भय करता है (ग्रामीणांश्च तथा गवाम्) ग्रामवासी और गार्यों को भय करता है, (द्वादशी राजपुरुषांश्च वस्त्रं सस्यं च पीडयेत) द्वादशी का चन्द्रमा राजपुरुषों का वस्त्र और धान्यों को पीड़ा करता है। भावार्थ-एकादशी का विकृत चन्द्रमा ग्रामीणों को व गायों को भय करता है। द्वादशी का विकृत चन्द्रमा राजपुरुष व वस्त्र और धान्यों का नाश करता है॥१२॥ त्रयोदशी चतुर्दश्योर्भयं शस्त्रं च मूर्च्छति। संग्रामः संभ्रमश्चैव जायते वर्णसङ्करः ।। १३॥ (त्रयोदशी चतुर्दश्योर्भयं) त्रयोदशी और चतुर्दशी दोनों तिथि का विकृत चन्द्रमा (शस्त्रं च मूर्च्छति) शस्त्र भय और मूर्छा करता है (संग्रामः संभ्रमश्चैव संग्राम होता है, लोग भ्रम में पड़ते है (वर्ण सङ्कर: जायते) वर्ण संकर बढ़ जाते है। भावार्थ-त्रयोदशी व चतुर्दशी का चन्द्रमा अगर विकृत हो तो शस्त्र भय मूर्छा संग्राम भ्रम और वर्णसङ्करता बढ़ती है॥१३ ।।। नृपा भृत्वैर्विरुध्यन्ते राष्ट्र चौरेविलुण्ठ्यते। पूर्णिमायां हते चन्द्रे ऋक्षे वा विकृतप्रभे॥१४॥ Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३७ ज्योविंशतितमोऽध्यायः (पूर्णिमायां हते चन्द्रे) पूर्णिमा का चन्द्रमा (ऋक्षे वा विकृतप्रभे) विकृत प्रभा वाला होकर नक्षत्र का घात करता है तो (नृपा भृत्यैविरुध्यन्ते) राजा, नौकर में विरोध पड़ता है (राष्ट्रं चौरेविलुण्ठ्य ते) और देश में चोरों का जोर बढ़ता है। भावार्थ- यदि पूर्णिमा का चन्द्रमा प्रभा रहित होकर नक्षत्र का घात करता है। तो राजा और नौकरों में विरोध पड़ेगा, चौरों का जोर बढ़ जाता है॥१४॥ ह्रस्वो रूक्षश्च चन्द्रश्च श्यामश्चापि भयावहः। स्निग्धः शुक्लो महान् श्रीमांश्चन्द्रो नक्षत्रवृद्धये ॥ १५॥ (ह्रस्वो रूक्षश्च) ह्रस्व, रूक्ष और (श्यामश्चापि) काला भी (चन्द्रश्च) चन्द्रमा (भयावहः) भय उत्पन्न करता है (स्निग्ध: शुक्लो महान् श्रीमांश्चन्द्रो) स्निग्ध और शुक्ल चन्द्रमा महान होता है (नक्षत्रवृद्धये) नक्षत्रों की व धन ऐश्वर्य सुख सम्पदा की वृद्धि करता है। भावार्थ-हस्व रूक्ष और काला चन्द्रमा भय उत्पन्न करता है। स्निग्ध शुक्ल चन्द्रमा महान होता है। जो धन सुख आदि की वृद्धि करता है।।१५।। श्वेत:पीतश्च रक्तश्च कृष्णश्चापि यथाक्रमम्। सुवर्ण सुखदश्चन्द्रो विपरीतो भयावहः ॥१६॥ (श्वेत: पीतश्च रक्तश्च) सफेद, पीला, लाल और (कृष्णश्चापि यथाक्रमम्) यथा क्रम से काला ये चारों वर्गों के लिये सुखद है (सुवर्ण सुखदश्चन्द्रो) सुवर्ण का चन्द्रमा सुख उत्पन्न करता है (विपरीतो भयावह:) उससे विपरीत चन्द्रमा भयावह भावार्थ-सफेद, पीला, लाल और काला चन्द्रमा चारों वर्गों के लिये क्रमशः सुख उत्पन्न करता है। सुवर्ण वर्ण का चन्द्रमा सुख उत्पन्न करता है, उससे विपरीत चन्द्रमा भयावह है।॥ १६ ॥ चन्द्रे प्रतिपदि योऽन्यो ग्रहः प्रविशतेऽशुभः। संग्रामो जायते तत्र सप्तराष्ट्र विनाशनः ॥१७॥ यदि (प्रतिपदि) प्रतिपदाको (चन्द्रे) चन्द्रमा में (योऽन्यो) अन्य (अशुभ) Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६३८ अशुभ ( ग्रहः ) ग्रह ( प्रविशते ) प्रवेश करता है तब (तत्र) वहाँ पर (सप्तराष्ट्र विनाशनः) सात राष्ट्र को बिनाश रूप (संग्रामो जायते) संग्राम होता है। भावार्थ — यदि प्रतिपदा का चन्द्रमा अन्य अशुभ ग्रहों में प्रवेश करे तो वहाँ पर सात देशें का संग्राम में नाश होता है ॥ १७॥ तृतीयायां गर्भनाशाय कल्पते । द्वितीयायां चतुर्थ्यां च सुघाती च मन्दवृष्टि ञ्च निर्दिशेत् ॥ १८ ॥ (द्वितीयां तृतीयायां द्वितीया का तृतीया का चन्द्रमा (गर्भ नाशाय कल्पते) गर्भ नाश के लिये कारण बनता है (चतुर्थ्यां च सुषाती च) चतुर्थी तिथि में प्रवेश कर घात करे तो समझो (मन्द वृष्टि ञ्च निर्दिशेत् ) थोड़ी वर्षा होगी। भावार्थ– द्वितीया तृतीया का चन्द्रमा को अन्य नक्षत्र घात करे, तो समझो गर्भनाश होगा, चतुर्थी का चन्द्रमा उसी प्रकार हो तो थोड़ी वर्षा होती है ॥ १८ ॥ पञ्चम्यां ब्राह्मणान् सिद्धान् दीक्षितांश्चापि पीडयेत् । यवनाय धर्मभ्रष्टाय षष्ठ्यां पीडां व्रजन्त्यतः ॥ १९ ॥ (पञ्चम्यां ब्राह्मणान् सिद्धान् ) पंचमी का घातक चन्द्रमा ब्राह्मणों का व सिद्ध पुरुषों का ( दीक्षितांश्चापिपीडयेत् ) व साधुओं को पीडा करता है (षष्ठ्यां) षष्ठी का चन्द्रमा भी उपर्युक्त स्थिति में हो तो ( यवनाय धर्मभ्रष्टाय ) यवनों को व धर्मभ्रष्टों को ( पीड़ां ब्रजन्त्यतः ) पीड़ा होती है । भावार्थ — पंचमी का चन्द्रमा ऊपर कहे अनुसार हो तो ब्राह्मणों का घात व सिद्धों का घात व साधुओं का घात करता है । षष्ठी का चन्द्रमा भी वैसा हा हो तो यवनों व धर्म भ्रष्टों को पीड़ा पहुँचाता है ॥ १९ ॥ महाजनाश्च पीडयन्ते क्षिप्रमैक्षुरकास्तथा । तयश्चापि जायन्ते सप्तम्यां सोमपीडने ॥ २० ॥ यदि (सप्तमां) सप्तमी को (सोमपीडने ) चन्द्रमा के घाती होने पर (महाजनाश्चपीड्यन्ते) महाधनिक पीडा को प्राप्त होते हैं, (क्षिप्रमैक्षुरकास्तथा) नाई, धोबी, कृषकों को पीड़ा होती है (ईतयश्चापि ) बहुत रोग फैलता है। Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयोर्विशतितमोऽध्यायः भावार्थ-अगर सप्तमी का चन्द्रमा घातित होता है। तो धनिक लोग नाई, धोबी आदि को पीड़ा होती है, और आगेत रोग उत्पन्न होते है | विवर्णपुरुषश्चन्दः स्त्रीणां राजा निषेवते। कपिलोऽपि दक्षिणे मार्गे विन्द्यादग्नि भयं तथा॥२१ ।। (विवर्णश्चन्द्रः) यदि चन्द्रमा विवर्ण हो तो (पुरुष:) पुरुष (स्त्रीणां) स्त्री को (राजानिषवते) राजा सेवन करता है (कपिलोऽपि दक्षिणे मार्गे) अगर कपिल वर्ण का चन्द्रमा दक्षिणमार्ग में हो तो (तथा) तथा (अग्नि भयं विन्द्याद्) अग्नि भय होगा। भावार्थ-यदि चन्द्रमा विवर्ण दिखे तो राजा, पुरुष और स्त्रियों का सेवन करता है। वही चन्द्रमा कपिल वर्ण का दिखे और दक्षिण मार्ग का हो, तो अग्नि भय होगा ॥२१॥ सन्ध्यायां कृत्तिका ज्येष्ठां रोहिणी पितृदेवताम्। चित्रां विशाखां मैत्रं च चरेद् दक्षिणत: शशी॥२२॥ (सन्ध्यायां) सन्ध्याकाल में (कृत्तिकां) कृत्तिका नक्षत्र (ज्येष्ठां) ज्येष्ठ नक्षत्र (रोहिणी) रोहिणी (पितृदेवताम्) मघा (चित्रां) चित्रा (विशाखां) विशाखा (मैत्रं च) और अनुराधा का (शशी) चन्द्रमा (दक्षिणत: चरेद) दक्षिण में विचरण करता है। भावार्थ-सन्ध्याकाल में कृत्तिका, ज्येष्ठा, रोहिणी, मघा, चित्रा, विशाखा और अनुराधा का चन्द्रमा दक्षिण में विचरण करता है ॥२२॥ सर्वभूतभयं विन्धात् तथा घोरं तु मासिकम्। सस्यं वर्ष च वर्धयते चन्द्रस्तद् वद् विपर्ययात्॥२३।। (चन्द्रस्तद् वद् विपर्ययात्) उसी के समान चन्द्रमा के विपरीत होने पर (सर्वभूत भयं विन्द्यात्) सब जीवों को भय होता है (तथा घोर तु मासिकम्) तथा एक महीने में घोर भय होता है (सस्यं वर्ष च वर्धयते) धान्यों की वृद्धि होती है, अच्छी वर्षा होती है। Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ चन्द्रमा के विपरीत होने पर सब जीवों को एक महीने में ही भय उत्पन्न होता है, धान्यों की वृद्धि होती है, अच्छी वर्षा होती है॥ २३ ॥ पुष्ययोः सोमः श्रीमानुत्तरगो महावर्षाणि कल्पन्ते सदा कृतयुगे रेवती यदा । यथा ।। २४ । ( यदा सोमः ) जब चन्द्रमा (रेवती पुष्ययोः) रेवती पुष्यमें (श्रीमानुत्तरगो) उत्तर दिशा में गमन करे तो ( तदा) तब ( यथा ) यथा जैसे ( कृतयुगं ) कृत युग के समान ( महावर्षाणि कल्पन्ते) महान् वर्षा होती है। वैश्वानरपथं भावार्थ — जब चन्द्रमा रेवती पुष्य नक्षत्र में उत्तर दिशा में गमन करे तो कृतयुग के समान महान वर्षा होती है ॥ २४ ॥ वा गोवीथीमजवीथीं विवर्ण: सेवतेचन्द्रस्तदाऽल्पमुदकं (गरीबीमजी वा) यो अवधि ( वैश्वानरपथं तथा ) वैश्वानरपद पथ में यदि (चन्द्र) चन्द्र (विवर्ण: सेवते ) विवर्ण दिखे (तदा) तब (अल्पमुदकं भवेत् ) थोड़े पानी की वर्षा होती है। भावार्थ — गोवीथि या अजवीथि व वैश्वानर में यदि चन्द्रमा विवर्ण दिखे तो थोड़े पानी की वर्षा होती है ।। २५ ।। ६४० तथा । भवत् ॥ २५ ॥ गजवीथ्यां नागवीथ्यां च। सुभिक्षं क्षेममेव सुप्रभे प्रकृतिस्थे च महावर्ष च निर्दिशेत् ॥ २६ ॥ वैश्वानरपथं प्राप्ते चतुरङ्गस्तु सोमो विनाशकृल्लोके तदा वाऽग्नि जब (सुप्रभे) सुप्रभ ( प्रकृतिस्थे ) प्रकृतिस्थ चन्द्रमा (गजवीध्यां नागवीथ्यां गज वीथि अथवा नागवीथि में हो तो (सुभिक्षं क्षेम मेव च ) सुभिक्ष और क्षेम होगा ( महावर्षं च निर्दिशेत्) महावर्षा का निर्देशन करना चाहिये । भावार्थ-जब सुप्रभ प्रकृति स्थित चन्द्रमा गज वीथि व नागवीथि में हो तो सुभिक्ष और क्षेम होगा वर्षा भी महावर्षा में परिणत होगी ॥ २६ ॥ दृश्यते । भयङ्करः ॥ २७ ॥ Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४१ त्रयोविंशतितमोऽध्यायः जब (चतुरजास्तु) चतुरंग (सोमो) चन्द्रमा (वैश्वानरपंथ प्राप्ते) वैश्वानर वीथि में गमन करता हुआ (दृश्यते) दिखे तो (कृल्लोके विनाश) तब लोक में विनाश होता है (वाऽग्नि भयङ्करः) व भयंकर अग्नि काण्ड होता है। भावार्थ-जब चतुरंग चन्द्रमा वैश्वानर पथ में गमन करता हुआ दिखाई पड़े तब लोक में महाविनाश होता है, और भयंकर अग्नि काण्ड होता है।। २७॥ अजवीथीमागते चन्द्रे क्षुतृषाग्नि भयं नृणाम्। विवर्णो हीनरश्मिा भद्रबाहुवचो यथा ॥२८॥ (विवर्णो हीनरश्मि वा) विवर्ण या हीन रश्मि वाला (चन्द्रे) चन्द्रमा (अजवीथिमागते) अजवीथि में आता हुआ दिखे तो (नृणाम्) मनुष्यों को (क्षुतृषाग्नि भयं) क्षुधा का भय और अग्नि भय होता ऐसा (भद्रबाहुवचो यथा) भद्रबाहु स्वामी का वचन है। भावार्थ-जब चन्द्रमा विवर्ण या हीन रश्मि वाला दिखता हुआ अजवीथि में गमन करे, तो क्षुधा का भय और अग्नि भय होता है। ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है॥२८॥ गोवीथ्यां नागवीथ्यां च चतुर्थ्यां दृश्यते शशी। रोगशस्त्राणि वैराणि वर्षस्य च विवर्धयेत्॥२९ ।। जब (शशी) चन्द्रमा (चतुर्थ्यां) चतुर्थी को (गोवीथ्यां च नागवीथ्यां) गोवीथि में और नागवीथि में (दृश्यते) दिखाई पड़े तो (वर्षस्य) वर्ष में (रोग शस्त्राणि वैराणि) रोग, शस्त्र और वैर की (विवर्धयेत्) वृद्धि होती है। भावार्थ-जब चन्द्रमा चतुर्थी को गोवीथि और नागवीथि में दिखाई पड़े तो वर्ष में रोग शस्त्र और वैर की वृद्धि होती है॥२९॥ एरावणे चतुर्थस्थो महाधर्षः स उच्यते। चन्द्रः प्रकृति सम्पन्नः सुरश्मिः श्रीरिवोज्ज्वलः ॥३०॥ यदि (चन्द्रः) चन्द्रमा (प्रकृतिसम्पन:) प्रकृति सम्पन्न होकर (सुरश्मिः श्रीरिवोज्ज्वल:) सुरश्मिवाला हो सुन्दर श्री के समान जिसकी कान्ति हो और (चतुर्थस्थो) Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता । ६४२ चतुर्थी को (ऐरावणे) ऐरावण वीथि में दिखे तो (महावर्ष स उच्यते) वह वर्ष महावर्ष होता है। भावार्थ-जब चन्द्रमा प्रकृतिस्थ होकर उज्ज्वल कान्तिवाला अच्छी रश्मि वाला सुन्दर श्री के समान होकर चतुर्थी को ऐरावणपथ में दिखे तो समझो वर्ष बहुत ही उत्तम होगा, महावर्ष कहा जायगा ।। ३० 11 श्यामश्छिद्रश्च पक्षादौ यदा दृश्यते यः सितः। चन्द्रमा गैरलं घोरं नृपाणां कुरुते तदा ॥३१॥ (यदा) जब (सितः) चन्द्रमा (श्यामश्छिद्रश्चपक्षादौ) काला और छिद्र युक्त कृष्ण पक्ष में दिखे तो (चन्द्रमां) ऐसा चन्द्रमा (तदा) तब (रौरवं घोरं नृपाणां) राजाओं में घोर रौरव (कुरुते) करता है। भावार्थ-जब चन्द्रमा काला छिद्र से युक्त कृष्ण पक्ष में दिखे तो समझो राजाओं में घोर युद्ध होगा ।। ३१ ।। धनुषा यदि तुल्य: स्यात् पक्षादौ दृश्यते शशी। ब्रूयात् पराजयं पृष्ठे युद्धं चैव विनिर्दिशेत्॥३२।। यदि (पक्षादौ) प्रथम पक्ष में (शशी) चन्द्रमा (धनुषा) धनुष (तुल्यः) समान (दृश्यते) दिखाई पड़े तो (पराजयं) पराजय होती है (चैव) और (पृष्टे युद्धं ब्रूयात्) पीछे से युद्ध होता है ऐसा कहे (विनिर्दिशेत्) ऐसा निर्देशन किया गया है। भावार्थ-यदि पक्ष आदि में चन्द्रमा धनुषाकार दिखे तो अवश्य पराजय होती है। और पीछे से युद्ध होता है ऐसा कहना चाहिये॥३२॥ वैश्वानरपथेष्टम्यां तिर्यस्थो वा भयं वदेत् । परस्परं विरुध्यन्ते नृपाः प्रायः सुर्वचसः ॥३३॥ (वैश्वानरपथेष्टम्यांतिर्यस्थो) यदि अष्टमी का चन्द्रमा तिर्यक् होकर वैश्वानर वीथि में दिखे तो (भयं वदेत्) भय होगा और (नृपाः) राजा लोग (प्रायः) प्राय (सुर्वचसः) अभिमानवस (परस्परं विरुध्यन्ते) परस्पर विरोध करते हैं। भावार्थ-यदि अष्टमी का चन्द्रमा तिर्यक् होकर वैश्वानरपथमें दिखे तो भय होगा राजा लोग प्राय: परस्पर लड़ते रहेंगे। ३३ ।। Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोर्विशतितमोऽध्यायः दक्षिणं मार्गमाश्रित्य वध्यन्ते प्रवरा नराः। चन्द्रस्तूत्तरमार्गस्थः क्षेम सौभिक्षकारकः ॥ ३४॥ (चन्द्र) यदि चन्द्रमा (दक्षिणं मार्गमाश्रित्य) दक्षिण मार्ग का आश्रय लेकर रहे तो (प्रवरा नरा: वध्यन्ते) बड़े-बड़े पुरुषों का वध होता है। और यदि वही चन्द्रमा (स्तूत्तरमार्गस्थः) उत्तर मार्ग का आश्रय ले तो (क्षेम सौभिक्षकारक:) क्षेम कुशल और सुभिक्ष कारक होता है। भावार्थ-चन्द्रमा दक्षिण मार्ग का आश्रय लेकर रहे तो बड़े पुरुषों का वध होता है, वही चन्द्रमा उत्तर का हो तो क्षेम कुशल और सुभिक्ष कारक होता है।। ३४ ।। चन्द्रसूर्यो विशृङ्गौ तु मध्यच्छिद्रौ हतप्रभो। युगान्तमिव कुर्वन्तौ तदा यात्रा न सिद्ध्यति॥३५॥ यदि (चन्द्रसूर्यो) चन्द्रमा और सूर्य (विशृङ्ग तुमध्यच्छिद्रौहतप्रभौ) विशृंग और मध्य में छिद्र से युक्त हत प्रभ दिखे तो (युगान्तमिव कुर्वन्तो) युगान्त के समान प्रलय कारक होता है (तदा) तब (यात्रा न सिद्धयति) यात्रा की सिद्धि नहीं होती "वार्थ-यदि चन्द्रमा और सूर्य विशृंग हो मध्याच्छिद्रवाला हो हत प्रभ हो तो युग का अन्त आ गया हो, उसके समान प्रलय कारक होता है। ऐसे में यात्रा नहीं करनी चाहिये,नहीं तो सिद्धि नहीं होती है।। ३५॥ यदैकनक्षत्र गतौ कर्यात् तद्वर्ण सङ्करम्। विनाशं तत्र जानीयाद् विपरीते जयं वदेत् ॥ ३६॥ (यदेक नक्षत्रगतौ) यदि एक नक्षत्र पर जाकर सूर्य और चन्द्रमा (तद्वर्ण सङ्करम् कुर्यात्) वर्ण संकर करे तो (तत्र) वहाँ पर (विनाशं जानीयाद्) विनाश होगा ऐसा जाने (विपरीते जयं वदेत्) विपरीत दिखे तो जय समझें। भावार्थ-यदि एक नक्षत्र पर सूर्य और चन्द्रमा वर्ण संकर होता हुआ दिखे तो वहाँ पर विनाश होगा उससे विपरीत दिखे तो जय होगी ऐसा कहे॥३६॥ Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | बहुवोदयको वाऽथ ततो भयप्रदो भवेत्। मन्दधाते फलं मन्दं मध्यमं मध्यमेन तु ।। ३७॥ (बहुवोदयकोवाऽथ) बहुत उदय वाला चन्द्रमा (ततो भय प्रदो भवेत्) वहाँ पर भय उत्पन्न करता है (मन्दघाते फलं मन्द) मन्द घात हो तो फल भी मन्द होता है (मध्यमं मध्यमेन तु) मध्यम हो तो फल भी मध्यम होता है। भावार्थ-घ्रि उदय वाला पाना अय को उत्पन्न करता है। मन्द उदय होता हुआ दिखे तो फल भी मन्द होता है। और मध्यम उदय होता हुआ दिखे तो फल भी मध्यम होता है।। ३७।। चन्द्रमाः सर्वयातेन राष्ट्रराज्य भयङ्करः। तथापि नागरान् हन्यात् या ग्रह समागमे॥३८॥ (चन्द्रमा:सर्व घातेन) जब चन्द्रमा सर्व घात करता है (राष्ट्रराज्ये भयङ्करः) राष्ट्र और राज्य के लिये भयंकर होता है (या ग्रह समागमे) या ग्रहों का समागम हुआ है तो (तथापि) तो भी (नागरान् हन्यात) नगरवासियों की हत्या करता है। भावार्थ-जब चन्द्रमा सर्वघात करता है तो समझो राजा और राष्ट्र का घात करेगा, और अगर वही चन्द्रमा अन्य ग्रहों का समागम करता है। तो नगरवासियों को मारता है॥ ३८॥ नागराणां तदा भेदो विज्ञेयस्तु पराजयः । यायिनामपि विज्ञेयं यदा युद्धं परस्परम्॥ ३९॥ चन्द्रमा का अन्य ग्रह के साथ (युद्धं परस्परम्) जब परस्पर युद्ध होता है तो (नागराणां तथा भेदो विज्ञेयस्तु) नगरवासियों में भेद पड़ता है, ऐसा जानना चाहिये (यायिनामपि पराजयः विज्ञेयं) आने वाले आक्रमणकारी की भी पराजय होगी ऐसा जानना चाहिये। भावार्थ-चन्द्रमा का अन्य ग्रह के साथ जब परस्पर युद्ध होता है। तो नगरवासियों में भेद पड़ता है, ऐसा जानना चाहिये आने वाले आक्रमणकारी की भी पराजय होगी ऐसाजानना चाहिए। ३९ ॥ Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४५ नयोविंशतितमोऽध्यायः भार्गव: गुरवः प्राप्तो पुष्यभिश्चित्रया सह। शकस्य चापरूपं च ब्रह्माणसदृशं फलम्॥४०॥ (शकस्य) यदि इन्द्र (चापरूप) धनुष के समान सुन्दर चन्द्रमा (पुष्यभिश्चित्रयासह) पुष्य और चित्रा के साथ (भार्गव: गुरुवः प्राप्तो) शुक्र और गुरु के साथ प्राप्त होता है, तो (ब्राह्माण सदृशं फलम्) ब्राह्मणों के समान फल होता है। भावार्थ-यदि इन्द्र धनु के समान सुन्दर चन्द्रमा पुष्य और चित्रा के साथ गुरु शुक्र को प्राप्त होता है, तो समझो ब्राह्मणों के समान फल होता है।। ४० ।। क्षत्रियाश्च भुविख्याता: कौशाम्बी दैवतान्य पि। पीड्यन्ते तद् भक्ताश्च सङ्ग्रामाश्च गुरोर्वधः ॥४१॥ उपर्युक्त प्रकार के चन्द्र में (क्षत्रियाश्च भू विख्याता:) भूमि के प्रसिद्ध क्षत्रिय (कौशाम्बी दैवतान्यपि) कौशाम्बी देश के देवता (तद् भक्ताश्च) और उनके भक्तों (संग्रामाश्च गुरोर्वधः) को पीड़ा होती है और गुरुओं का वध होता है। भावार्थ- उपर्युक्त चन्द्रमा की चाल होने पर भूमि के प्रसिद्ध क्षत्रिय कौशाम्बी के देवता व उनके भक्तों को पीड़ा होती है, युद्ध होता है, गुरुओं की भी हिंसा होती है॥४१॥ पशवः पक्षिणो वैधा महिषाः शबराः शकाः । सिंहला द्रामिला: काचा बन्धुकाः पहवा नृपाः॥४२॥ पुलिन्द्राः कोंकणा भोजाः कुरु वो दस्यवः क्षमाः। शनैश्चरस्य घातेन पीड्यन्ते यवनैः सह ।। ४३॥ चन्द्रमा के द्वारा (शनैश्चरस्य घातेन) शनि का घात होने पर (यवैन: सह) यवनों के साथ (पशव: पक्षिणो) पशु, पक्षी, (वैद्या) वैद्य, (महिषा:) भैंसे (शबरा) शबर (शका:) शक (सिंहला) सिंहल (द्रामिला:) द्रमिल (काचा) काचा (बन्धुका:) बन्धुक (पहवा) पल्लव देश (नृपाः) के राजा (पुलिन्द्रा) पुलिन्द्र (कोंकणा:) कोंकण (भोजाः) भोज (कुरुवो) कुरु (दस्यवः क्षमा:) चोर क्षमा (पीड्यन्ते) पीड़ित होते Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | ६४६ भावार्थ-चन्द्रमा के द्वारा शनि का घात होने पर यवनों के साथ-साथ पशु, पक्षी, वैद्य, भैंस, शबर, शक, सिंहल, द्रमिल, काच, बन्धुक, पल्लव के राजा, पुलिन्द्र, कोंकण, भोज, कुरु, दस्यु और क्षमा पीड़ित होते है॥४२-४३ ।। यस्य यस्य य नक्षत्र मेकशो द्वन्द्वशोऽपि वा। ग्रहा वामं प्रकुर्वन्ति तं हिंसन्ति सर्वशः॥४४॥ (यस्य यस्य य नक्षत्र) जिस-जिस नक्षत्र को (मेकशो) अकेला (ग्रहा) ग्रह या (द्वन्द्वशोऽपि वा) दो-दो ग्रह (वामं प्रकुर्वन्ति) वाम भाग को करते हैं (तं तं) उस-उस और (हिंसन्ति सर्वशः) सब तरह हिंसा करता है। भावार्थ-जिस-जिस नक्षत्र को अकेला ग्रह दो-दो ग्रहों को वाम भाग में करता है, तो उस उस ओर सब तरफ हिंसा होती है।। ४४॥ जन्मनक्षत्र घातेऽथ राज्ञो यात्रा न सिद्धयति। नागरेण हतश्चाल्प: स्वपक्षाय न यो भवेत् ॥४५॥ जिस (राज्ञो) राजा का (जन्म नक्षत्रघातेऽथ) जन्म नक्षत्र घातित होता है उसकी (यात्रा) यात्रा (न सिद्ध्यति) सिद्ध नहीं होती है (हतचाल्पः) थोड़ा घात भी होता है (नागरेण) नगर निवासी भी (स्वपक्षायन यो भवेत्) उसके पक्ष में नहीं होते हैं। भावार्थ-जिस राजा का जन्म नक्षत्र धातित होने पर उसकी यात्रा सफल नहीं होती है, थोड़ा घात भी होता है नगर निवासी भी राजा के पक्ष में नहीं होते हैं।। ४५॥ राजा चावनिजा गर्भा नागरा दारुजीविनः। गोपा गोजीविनश्चापि धनुस्सङ्ग्राम जीविनः॥४६।। तिलाः कुलस्था माषाश्च माषा मुद्गाश्चतुष्पदाः। पीडयन्ते बुधधातेन स्थावरं यच्च किञ्चन ॥४७॥ चन्द्रमा के द्वारा (बुधघातेन) बुध का घात होने पर (राजा) राजा (चावनिजा गर्भा) खान में कार्य करने वाला, (नागरा) नागरिक (दारुजीविनः) लकड़ी का काम Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋयोविंशतितमोऽध्यायः करने वाले, (गोपा) ग्वाले, (गोजीविनश्चापि) गायों की आजीविका करने वाले और भी (धनुस्सङ्ग्राम जीविन:) धनुष से संग्राम करने की जीविका बाले (तिल:) तिल, (कुलस्था) कुलथी, (माषाश्च) उड़द, (माषा) चौला, (मुदगाश्च) मुंग (तुष्पदाः) चौपये, उसी प्रकार (स्थावर यकिञ्चन्) स्थावर व जो कुछ भी (पीड्यन्ते) पीड़ा को प्राप्त होते हैं। भावार्थ-चन्द्रमा के द्वारा बुध का घात होने पर राजा, खनिज लोग नागरिक सुथार, ग्वाले, गायों पर जीविका करने वाले धनुषाकार, तिल, कुलथी, चौला, उड़द, मूंग, चौपाये उसी प्रकार स्थावर जो कुछ भी है, वे सब पीड़ा को प्राप्त होते है।। ४६-४७॥ कनकं मणयो रत्नं शकाश्च यवनास्तथा। गुर्जरा पड़वा मुख्या: क्षत्रिया मन्त्रिणो बलम्॥४८॥ स्थावरस्य वनीकाकुनये सिंहला नृपाः । वणिजां वनशख्यं च पीड्यन्ते सूर्ययातेन ॥४९॥ चन्द्रमा के द्वारा (सूर्य पातेन) सूर्य का घात हो तो (कनकं मणयो रत्न) सोना, मणि, रत्न (शकाश्च) शक और (यवनास्तथा) यवन तथा (गुर्जरा) गुहार (पहृवा) पल्लव (मुख्याः क्षत्रिया) मुख्य क्षत्रिय (मन्त्रिणो बलम्) बलवान मन्त्री, (स्थावरस्य) स्थावर के समीपवर्ती (सिंहला नृपा) सिंहल (वणिजां) वणिक (कुनये) कुनय (वनशख्यं च) और वन में रहने वाले पीड़ा को प्राप्त होते हैं। भावार्थ-चन्द्रमा के द्वारा सूर्य का घात होने पर सोना, मणि, रत्न, शक, यवन तथा गुहरा, पल्लव, क्षत्रियों में मुख्य, बलवान् मन्त्री, सिंहल के राजा स्थावर वन के नजदीक रहने वाले और बनिये, वनवासी पीड़ा को प्राप्त होते हैं॥४८-४९॥ पौरेयाः शूर सेनाश्च शका वाहीक देशजाः। मत्स्या: कच्छाश्च वस्याश्च सौवीरा गन्धिजास्तथा॥५०॥ पीड्यन्ते केतुघातेन ये च सत्त्वास्तथाश्रयाः। निर्घाता पाप वर्ष वा विज्ञेयं बहुशस्तथा ।। ५१॥ चन्द्रमा के द्वारा (केतुघातेन) केतु का घात हो तो (पौरेयाः) पुरवासी, Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६४८ (शूरसेनाश्च) सौरसेन (शका) शक (वाहीक) वाहीक (देशजाः) देश में उत्पन्न होने वाले, (मत्स्या) मत्स्स (कच्छाश्च) कच्छवासी, (वस्याश्च) वस्य वासी और (सौवीराः) सौवीर (गन्धिजास्तथा) गन्धिल वा (ये) जो (सत्त्वास्तथाश्रया) उनके आश्रित लोग है (पीड्यन्ते) वह पीड़ा को प्राप्त होते हैं (निर्घाता) घात होता है (बहुशस्तथा) बहुशवह (पापवर्ष विज्ञेयं) वर्ष पाप वर्ष जानना चाहिये। भावार्थ-चन्द्रमा के द्वारा केतुका घात होने पर पुरवासी, सौरसेन, शक, वाहीक, मत्स्य, कच्छीवस्य, सौवीर, गन्धिलवासी और उनके निकटतम पीड़ित होते हैं, मारे जाते हैं वह वर्ष पाप वर्ष कहलाता है।। ५०-५१॥ पाण्ड्याः केरलाश्चोला: सिंहलाः साविकास्तथा। कुनपास्ते सयार्थाश्च मूलका वनवासकाः॥५२॥ किष्किन्धाश्च कुनाटाश्च प्रत्यनाश्च वनेचराः। रक्तपुष्पफलांश्चैव रोहिण्यां सूर्य चन्द्रयोः॥५३॥ (रोहिण्यांसूर्यचन्दयो:) रोहिणी को सूर्य और चन्द्र के घातित होने पर (पाण्ड्याः ) पाण्डय (केरलाश्चोला) केरल, चोल (सिंहल) सिंहल, (साविकास्तथा) साविक (कुनपास्ते) कुनप (तयार्थाश्चमूलका) विदर्भ (वनवासकाः) वनवासी (किष्किन्धाश्च) किष्किन्धवासी (कुनाटाश्च) कुनाट वासी (प्रत्यग्राश्च बनेचराः) वनचर (रक्तपुष्पफलांश्चैव) लाल पुष्प फलादिक पीड़ित होते हैं। भावार्थ-रोहिणी को सूर्य चन्द्रघातित होने पर पाण्ड्य केरल, चौल, सिंहल, साविक, कुनप, विदर्भ, वनवासी, किष्किन्ध, कुनाट, वनचर लाल पुष्प फलादिक पीड़ित होते हैं।। ५२-५३॥ एवं च जायते सर्व करोति विकृति यदा। तदा प्रजा विनश्यन्ति दुर्भिक्षेण भयेन च॥५४॥ (यदा) जब (एवं च जायते) इस प्रकार चन्द्रमा के (विकृति) विकृत होने पर (सर्वं करोति) सब. (तदा) तब (प्रजा विनश्यन्ति) सारी प्रजा नाश को प्राप्त हो जाती है (दुर्भिक्षेण भयेन च) दुर्भिय और भय से। ___ भावार्थ-जब इस प्रकार का चन्द्रमाविकृत रूप धारण करता है, तब सारी प्रजा दुर्भिक्ष और भय से नाश हो जाती है।॥५४॥ Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४९ अयोविंशतितमोऽध्यायः अर्धमासं यदा चंद्र ग्रहा यान्ति विदक्षिणम्।। तदा चन्द्रो जयं कुर्यान्नागरस्य महीपतेः ॥५५॥ (यदा चन्द्रे) जब चन्द्रमा (अर्घमासं) आधे महीने में हो (ग्रहायान्ति विदक्षिणा) और अन्य ग्रह दक्षिण की ओर गमन करे तो (तदा) तब (चन्द्रो) चन्द्रमा (नगरस्य महीपतेः जयं कुर्यात) नगर के राजा की जय कराता है। भावार्थ-जब चन्द्रमा आधे संसार में हो और अ कि इनमें गमन करे तो वह चन्द्रमा नगर के राजा की जय कराता है॥ ५५ ॥ हीयमानं यदा चन्द्र ग्रहाः कुर्वन्ति वामतः। तदा विजयमाख्यान्ति नागरस्यमहीपतेः॥५६॥ (यदा चन्द्र) जब चन्द्रमा (हीयमानं) हीयमान हो रहा हो (ग्रहाः वामतः कुर्वन्ति) और अन्य ग्रह वाम भाग से गमन करे तो (तदा) तब (नागरस्य) नगर के (महीपतेः) राजा की (विजयमाख्यान्ति) विजय कराता है ऐसा कहे। भावार्थ-जब चन्द्रमा हीयमान हो रहा हो तब अन्य ग्रह वाम भाग में गमन करे तो समझो नगर के राजा की विजय कराता है।। ५६॥ गतिमार्गा कति वर्ण मण्डलान्यपि वीथयः। चारं नक्षत्रचारांश्च ग्रहाणां शुक्रवद् विदुः॥५७॥ (ग्रहाणां) ग्रहों की (गति) गति, (मार्गा) मार्ग, (कृति) कृति (वर्ण) वर्ण (मण्डलान्यपि वीथयः) मण्डल, वीथि और भी (चार) संचार (नक्षत्रचारांश्च) नक्षत्रों का संचार (शुक्रवद् विदुः) शुक्र के समान ही जानना चाहिये। भावार्थ-ग्रहों की गति, मार्ग, कृति, वर्ण, मण्ड, वीथि, संचार नक्षत्र संचार सभी शुक्र के समान ही समझना चाहिये॥५७॥ चन्द्रस्य चारं चरतोऽन्तरिक्षे सुचारदुश्चारसमं प्रचारम्। चर्यायुतः खेचरसुप्रणीतं यो वेद भिक्षुः स चरेनृपाणाम् ।।५८॥ (चन्द्रस्य) चन्द्र के (चारंचरतोऽन्तरिक्षे) आकाश में विचरण करने पर Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६५० (सुचारदुश्चार संमप्रचारम्) सुचार और दुश्वार दोनों होते हैं (चर्यायुत: खेचर सुप्रणीते) जो साधु इस प्रकार चन्द्रमा की चर्या को जानता है (यो वेदभिक्षुः सचरेन्नृपाणाम्) वो निमित्तज्ञ व शास्त्रों का जानकार साधु राजाओं के बीच अच्छी तरह से विहार करता है। भावार्थ-चन्द्रमा के आकाश में विचरण करने पर सुचार और दुधार दोनों ही होते हैं, जो साधु चन्द्रमा के संचार को अच्छी तरह जाता है। वह राजाओं के बीच में अच्छा विहार कर सकता है, वही साधु वेदज्ञ है।।५८॥ विशेष वर्णन-रात्रि में चन्द्रमा का उदय होता है, प्रत्येक महीने में चन्द्रमा के वर्ण, संस्थान, प्रमाण आदि को देखता है, वो भी शुभाशुभ को जान सकता यदि चन्द्रमा स्निग्ध, सफेद वर्ण का विशालाकार और पवित्र है, तो उसको शुभ माना है। चन्द्रमा का लक्षण शुभाशुभ दोनों प्रकार होता है, चन्द्रमा का श्रृंग दिशाओं के अनुसार व वर्णों के अनुसार फल देखा जाता है। अगर चन्द्रमा का श्रृंग उत्तर दिशा की ओर उठा हुआ तो अश्मक, भरत, उडू, काशी, कलिंग, मालव व दक्षिण वासियों का घात करता हैं। ___उसी प्रकार दक्षिण की ओर उठा हुआ चन्द्रमा का शृंग क्षत्रिय, यवन, वाह्रीक हिमाचल निवासी, युगन्धर और कुरु निवासियों तथा ब्राह्मणों का घात करता है। तिथियों के अनुसार चन्द्रमा की कला घटती बढ़ती है, कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा की कला घटती है और शुक्ल में बढ़ती है। यदि चन्द्रमा विकृत दिखता है तो दुर्भिक्ष और भय को प्रजा को कष्ट होता यहाँ कुछ नक्षत्रों के अनुसार भी चन्द्रमा का फल बताते हैं। जैसे-ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में दाहिने भाग में यदि चन्द्रमा हो तो बीज, जल और वन की हानि होती है। विशाखा और अनुराधा के दायें भागे में चन्द्रमा हो तो वह पाप चन्द्रमा है पाप चन्द्रमा जगत् में भय उत्पन्न करता है। इसी प्रकार अन्य से भी जानो। Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५१ प्रयोविंशतितमोऽध्यायः बारह राशियों के अनुसार भी चन्द्रमा का फल होता हैं मेष राशि में चन्द्रमा के होने पर धान्य महँगा होता है। ___ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष को प्रतिपदा को सूर्यास्त समय में ही चन्द्रमा दिखे तो पूरे वर्ष में सुभिक्ष होता है। चन्द्रमा भृग उत्तरा की ओर हो तो सुभिक्ष दक्षिण की तरफ हो तो दुर्भिक्ष होता है मध्य में हो तो मध्यम फल होता है। ये सब चन्द्रमा के शुभाशुभ फल है, इसका जब संचार होगा तब उसका फल भी होता है। चन्द्रमा के संचारानु शुभाशुभ को जान लेना चाहिये। इसी तरह चन्द्रमा के संचार को कहा। इस विषय में डॉक्टर साहब का भी मन्तव्य जान लेना चाहिये। विवेचन ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा और उत्तरषाढ़ा नक्षत्र के दाहिने भाग में जमा हो तो नील, जा और रन की हानि होती है। अग्निभय विशेष उत्पन्न होता है। जब विशाखा और अनुराधा नक्षत्र के दायें भाग में चन्द्रमा रहता है तब पाप चन्द्रमा कहलाता है। पाप चन्द्रमा जगत् में भय उत्पन्न करता है, परन्तु विशाखा, अनुराधा और मघा नक्षत्र के मध्य भाग में चन्द्रमा के रहने से शुभ फल होता है। रेवती से लेकर मृगशिरा तक छ: नक्षत्र अनागत होकर मिलते हैं, आर्द्रा लेकर अनुराधा तक बारह नक्षत्र मध्य भाग में चन्द्रमा के साथ मिलते हैं, तथा ज्येष्ठा से लेकर उत्तरा भाद्रपद तक नौ नक्षत्र अतिक्रान्त होकर चन्द्रमा के साथ मिलते हैं। यदि चन्द्रमा का शृङ्ग कुछ ऊँचा होकर नावके समान विशालता को प्राप्त करे तो नाविकों को कष्ट होता है। आधे उठे हुए चन्द्रमा शृङ्ग को लांगल कहते हैं, उससे हलजीवी मनुष्यों को पीड़ा होती है। प्रबन्धकों, शासकों और नेताओं में परस्पर मैत्री सम्बन्ध बढ़ता है तथा देश में सुभिक्ष होता है। चन्द्रमा का दक्षिण शृङ्ग आधा उठा हुआ हो तो उसे दुष्ट लांगल शृंङ्ग कहते हैं, इसका फल पाण्ड्य, चेर, चोल, आदि राज्यों में पारस्परिक अनैक्य होता है। इस प्रकार के शृंग के दर्शन से वर्षाऋतु में जलाभाव होता है तथा ग्रीष्म ऋतु में सन्ताप होता है। यदि समान भाव से चन्द्रमा का उदय हो तो पहले दिन की तरह सर्वत्र सुभिक्ष, आनन्द, आमोद-प्रमोद, वर्षा, हर्ष आदि होती हैं। दण्ड के समान चन्द्रमा के उदय होनेपर गाय, बैलों को पीड़ा होती है और राजा लोग उग्र दण्डधारी होते हैं। यदि धनुष के आकार का चन्द्रमा उदय हो तो युद्ध होता है, परन्तु जिस ओर उस धनुष की मौर्वी रहती Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६५२ है, उस देश की जय होती है। यदि पदशृङ्ग दक्षिण और उत्तर में फैला हुआ हो तो भूकम्प, महामारी आदि फल उत्पन्न होते हैं। कृषि के लिए उक्त प्रकार का चन्द्रमा अच्छा नहीं माना गया है। जिस चन्द्रमा का शृङ्ग नीचे को मुख किये हुए हो उसे आवर्तित शृङ्ग कहते हैं, इससे मवेशी को कष्ट होता है। घास की उत्पत्ति कम होती है तथा हरे चारे का भी अभाव रहता है। यदि चन्द्रमण्डल के चारों ओर अखण्डित गोलाकार रेखा दिखलाई दे तो 'कुण्ड' नामक शृङ्ग होता है। इस प्रकारके शृङ्ग से देश में अशान्ति फैलती है तथा नाना प्रकार के उपद्रव होते हैं। यदि चन्द्रमा का शृङ्ग उत्तर दिशा की ओर कुछ ऊँचा हो तो धान्य की वृद्धि होती है, वर्षा भी उत्तम होती है। दक्षिण की ओर शृङ्ग के कुछ ऊंचे रहने से वर्षा का अभाव, धान्य की कमी एवं नाना तरह की बीमारियाँ फैलती है। एक शृङ्गवाला, नीचे को मुखवाला, भृत्रहीन अथवा सम्पूर्ण नये प्रकार का चन्द्रमा देखने से देखने वालों में से किसी की मृत्यु होता है। वैयक्तिक दृष्टि से भी उक्त प्रकार के चक्रशृङ्गों का देखना अनिष्टकर माना जाता है। यदि आकार से छोटा चन्द्रमा दिखलाई पड़े तो दुर्भिक्ष, मृत्यु, रोग आदि अनिष्ट फल घटते हैं तथा बड़ा चन्द्रमा दिखलाई पड़े तो सुभिक्ष होता है। मध्यम आकार के चन्द्रमा के उदय होने से प्राणियों को क्षुधा की वेदना सहन करनी पड़ती है। राजाओं, प्रशासकों एवं अन्य अधिकारियों में अनेक प्रकार के उपद्रव होने से संघर्ष होता रहता है। देश में अशान्ति होती है तथा नये-नये प्रकार के झगड़े उत्पन्न होते हैं। चन्द्रमा की आकृति विशाल हो तो धनिकों के यहाँ लक्ष्मी की वृद्धि, स्थूल हो तो सुभिक्ष, रमणीय हो तो उत्तम धान्य उपजते हैं। यदि चन्द्रमा के शृङ्ग को मंगल ग्रह ताडित करता हो तो कुत्सित राजनीतिज्ञों का विनाश, यथेष्ट वर्षा, पर फसल की उत्पत्ति का अभाव और शनिग्रह के द्वारा चन्द्रशृङ्ग आहत हो तो शस्त्रभय और क्षुधा का भय होता है। बुध द्वारा चन्द्रमा के शृङ्ग को आहत होनेपर अनावृष्टि, दुर्भिक्ष एवं अनेक प्रकार के संकट आते हैं। शुक्र द्वारा चन्द्रशृङ्ग का भेदन होने से छोटे दर्जे के शासन अधिकारियों में वैमनस्य, भ्रष्टाचार और अनीति का सामना करना पड़ता है। जब गुरु द्वारा चन्द्रशृङ्ग छिन्न होता है, तब किसी महान् नेता की मृत्यु या विश्व के किसी बड़े राजनीतिज्ञ की मृत्यु होती है। कृष्ण पक्ष में चन्द्रशृङ्ग का ग्रहों द्वारा पीड़न हो तो मगध, यवन, पुलिन्द, Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५३ योविंशतितमोऽध्यायः नेपाल, मरु, कच्छ, सूरत, मद्रास, पंजाब, कश्मीर, कुलूत, पुरुषान्द और उशीनर प्रदेश में सात महीनों तक रोग व्याप्त रहता है। शुक्लपक्ष में ग्रहों द्वारा चन्द्रशृज के छिन्न होना अधिक अशुभ नहीं होता है। यदि बुध द्वारा चन्द्रमा का भेदन होता हो तो मगध, मथुरा और वेणा नदी के किनारे बसे हुए देशों को पीड़ा होती है। केतु द्वारा चन्द्रमा पीड़ित होता हो तो अमंगल, व्याधि, दुर्भिक्ष और शस्त्र से आजीविका करनेवालों का विनाश होता है। चोरों को अनेक प्रकार के कष्ट सहन करने पड़ते हैं। राहु या केतु से ग्रस्त चन्द्रमाके ऊपर उल्का गिरे तो अशान्ति रहती है। यदि भस्मयुक्त रूखा, अरुणवर्ण, किरणहीन, श्यामवर्ण, कम्पायमान चन्द्रमा दिखलाई दे तो क्षुधा, संग्राम, रोगोत्पत्ति, चोरभय और शस्त्रभय आदि होते हैं। कुमुद्, मृणाल और हार के समान शुभ्रवर्ण होकर चन्द्रमा नियमानुसार प्रतिदिन घटता-बढ़ता है तो सुभिक्ष, शान्ति और सुवृष्टि होती है। प्रजा आनन्द के साथ रहती है तथा सन्तापों का विनाश होकर पूर्णतया शान्ति छा जाती है। द्वादश राशियों के अनुसार चन्द्रफल मेष राशि में चन्द्रमा के रहने से सभी धान्य महँगे; वृष में चन्द्रमा के होने से चने तेज, मनुष्यों की मृत्यु और चोरभय; मिथुन में चन्द्रमा के रहने से बीज बोने में सफलता, उत्तम धान्य की उत्पत्ति कर्क में चन्द्रमा के रहने से वर्षा; सिंह में रहने से धान्य का भाव महंगा; कन्या में रहने से खण्डवृष्टि, सभी धान्य सस्ते, तुला में चन्द्रमा के रहने से थोड़ी वर्षा, देशभंग और मार्गभय, वृश्चिक में चन्द्रमा के रहने से मध्यम वर्षा, ग्राम नाश, उपद्रव, उत्तम धान्य की उत्पत्ति; धनुराशि में चन्द्रमा के रहने से उत्तम वर्षा, सुभिक्ष और शान्ति; मकर राशि में चन्द्रमा के रहने,धान्यनाश, फसल में नाना प्रकार के रोग, मूसों-टिड्डी आदि का भय, कुम्भराशि में चन्द्रमा के रहन से अल्प वर्षा, घान्य का भाव तेज, प्रजा में भय एवं मीन राशि में चन्द्रमा के रहने से सुख-सम्पत्ति और सभी प्रकार के अनाज सस्ते होते हैं। वैशाख या ज्येष्ठ में चन्द्रमा का उदय उत्तर की ओर हो तो सभी प्रकार के धान्य सस्ते होते हैं। मेघ का उदय एवं वर्षण उत्तम होता ज्येष्ठ मास की शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को सूर्यास्त के समय ही चन्द्रमा दिखलाई पड़े तो वर्ष पर्यन्त सुभिक्ष रहता है। यदि चन्द्रमा का शृङ्ग उत्तर की ओर Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६५४ हो तो सुभिक्ष और दक्षिण की ओर होने से दुर्भिक्ष तथा मध्य का रहने से मध्यम फल होता है। कृत्तिका, अनुराधा, ज्येष्ठा, चित्रा, रोहिणी, मघा, मृगशिर, मूल, पूर्वाषाढ़ा, विशाखा ये नक्षत्र चन्द्रमा के उत्तरमार्गवाले कहलाते हैं। जब चन्द्रमा अपने उत्तरमार्ग में गमन करता है तो सुभिक्ष, सुवर्षा, शान्ति, प्रेम और सौन्दर्य का प्रसार होता है। जनता में धर्माचरण का भी प्रसार होता है। दक्षिण मार्ग में चन्द्रमा का विचरण करना अशुभ माना जाता है। शुक्ल पक्ष की द्वितीया के दिन मेषराशि में चन्द्रमा का उदय हो तो ग्रीष्म में धान्य भाव तेज होता है। वृष में उदय होने से उड़द, तिल, मूंग, अगुरु आदि का भाव तेज होता है। मिथुन में कपास, सूत, जूट आदिका भाव महँगा होता है । कर्कराशि के होने से अनावृष्टि तथा कहीं-कहीं खण्डवृष्टि; सिंह राशि में चन्द्रमा के उदय होने से धान्य भाव तेज होता है। सोना चाँदी आदि का भाव भी महँगा होता है। कन्या में चन्द्रमा का उदय होने से पशुओं का विनाश, राजनैतिक पार्टियों में मतभेद, संघर्ष होता है । तुलाराशि में चन्द्रमा में उदय होने से व्याधि, व्यापारियों में विरोध, वृश्चिक राशि के चन्द्रमा में धान्य की उत्पत्ति, धनु और मकर में चन्द्रमा का उदय होने से दाल वाले अनाज का भाव महँगा, कुम्भराशि में चन्द्रमा का उदय होने से तिल, तेल, तिलहन, उड़द, मूंग, मटर आदि पदार्थों का भाव तेज और मीनराशि में चन्द्रमा के उदय होने से सुभिक्ष, आरोग्य, क्षेम और वृद्धि होती है। उदय काल में प्रकाशमान, उज्ज्वल, चन्द्रमा दर्शक और राष्ट्रकी शक्ति का विकास करता है। यदि उदयकाल में चन्द्रमा रक्तवर्ण का मन्द प्रकाश युक्त मालूम पड़े तो धन-धान्य का अभाव होता है। इति श्रीपंचम श्रुत केवली दिगम्बराचार्य भद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिता का चन्द्रमा संचार नामा तेइसवाँ अध्याय का विशेष वर्ण करने वाले टीका हिन्दी भाषानुवाद करने वाली क्षेमोदय टीका समाप्त | (इति त्रयोविंशतितमोऽध्यायः समाप्तः ) Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतितमोऽध्यायः अथात: संप्रवक्ष्यामि ग्रहयुद्धं यथा तथा। जन्तूनां जायते येन तूर्ण जय पराजयौ॥१॥ (अभातः संप्रतक्ष्यामि) अब मैं कहता हूँ (ग्रह युद्धं यथा) ग्रहों के युद्ध को (तथा) उसके कारण (जन्तुनां) जीवों की (तूर्णं) शीघ्र (जायते जयपराजयौयेन) जय पराजय होती है। भावार्थ-अब मैं ग्रहों के युद्ध को जैसे का तैसा कहता हूँ, इन ग्रहों के युद्ध से प्राणियों की शीघ्र जय पराजय होती है।।१॥ गुरुः सौरश्च नक्षत्रं बुधार्कश्चैव नागराः। ___ केतुरङ्गारकः सोमो राहुः शुक्रश्च यायिनः ॥२॥ (गुरुः सौरश्च नक्षत्र) गुरु, शनि, नक्षत्र (बुधार्कश्चैवनागरा:) बुध और सूर्यकी (नागरा:) नागर संज्ञा है एवं (केतुरङ्गारकः सोमो) केतु, अंगारक चन्द्र (राहुः शुक्रश्च) राहु, शुक्र की (यायिनः) यायि संज्ञा है। भावार्थ-गुरु, शनि, नक्षत्र, बुध और सूर्य की नागर संज्ञा है, एवं केतु, अंगारक, चन्द्र, राहु, शुक्र की यायि संज्ञा है।॥२॥ श्वेतः पाण्डुश्चपीतश्च, कपिलः पद्मलोहितः। वर्णास्तु नागरा ज्ञेया ग्रहयुद्धे विपश्चितैः॥३॥ (ग्रहयुद्धेविपश्चितैः) ग्रहयुद्ध में महापुरुषों ने (श्वेतः पाण्डश्च) सफेद, पाण्डु (पीतश्च) पीला, (कपिलः) कपिल: (पालोहितः) लाल पद्म (वर्णास्तु नागरा ज्ञेया) का वर्ण नागर संज्ञा जानना चाहिये। भावार्थ-ग्रह युद्ध में मनीषियों ने सफेद, पाण्डु, पीला, कपिल, लालपद्य, का वर्ण नागर संज्ञा वाला है।।३।। Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६५६ कृष्णो नीलश्च श्यामश्च कपोतो भस्म सनिमः। वर्णास्तु यायिनो ज्ञेया ग्रहयुद्धे विपश्चितैः॥४॥ (कृष्णोनीलश्च श्यामश्च) काला, नीला, श्याम, (कपोतो भस्मसन्निभः) कपोत भस्म (वर्णास्तु) वर्ण के समान (ग्रहयुद्धेविपश्चितैः) ग्रह युद्ध में विद्वानों ने (यायिनोज्ञेया) यायिसंज्ञा कहा। भावार्थ-ग्रहयुद्ध में विद्वानों ने काला, नीला, श्याम, कपोत, भस्म, वर्णके समान यायि संज्ञा कहा है।॥४॥ उल्का ताराऽशनिश्चैव विद्युतोऽभ्राणि मारुतः। विमिश्रको गणो ज्ञेयो वधायैव शुभाशुभे॥५॥ (उल्का ताराऽशनिश्चैव) उल्का, तारा, अशनि और (विद्युतोऽभ्राणि) विद्युत, बादल, हवा (विमिश्रको गणो ज्ञेयो) मिश्रकोणक जानना चाहिये (वधायैव शुभाशुभे) युद्ध के लिये शुभाशुभ फलमें ये वधकारक होते हैं। भावार्थ-ग्रहयुद्ध के लिये शुभाशुभ फल में वध कारक, उल्का, तारा, अशनि, धिण्य, विद्युत अभ्र और मारुत को मिश्रकोण का जानना चाहिये। इसकी संज्ञा विमिश्र है॥५॥ नागरस्यापि यः शीघ्रः स यायीत्यभिधीयते। मन्दगो यायिनोऽधस्तानागरः संयुगे भवेत्॥६॥ (नागरस्यापि यः शीघ्रः) नगर में जो शीघ्र गामी होता है (स) उसे (यायीत्यभिधीयते) यायि कहते हैं इस प्रकार (यायितो) यायि की अपेक्षा (अधस्तानागरः) अधस्त: नागर (संयुगे) नीच कोटी का (मन्द्रगो) मन्द (भवेत्) होता है। भावार्थ-नगर में जो शीघ्र गामी है, उसे यायि कहते हैं और यायी की अपेक्षा नीच नागर मन्द होता है।।६।। नागरे तु हते विन्द्यान्नागराणां महद्भयम्। एवं यायि वधे ज्ञेयं यायिनां तन्महद्भयम्॥७॥ (नागरे तु हते विन्द्याद्) नगर संज्ञकों के युद्ध होने पर जानना चाहिये कि Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५७ चतुर्विंशतितमोऽध्यायः नागरिकों को महान भय होगा, (एवं यायि वधे ज्ञेयं) इसी प्रकार यायि के घातित होने पर जानो (यायिनां तन्महद्भयम्) आक्रमकों को महान् भय होगा। भावार्थ-नागर संज्ञा वाले ग्रहों का घात हो तो नागरिकों को महान् भय होगा, और यायि संज्ञकों का घात हो तो यायि (आक्रमणकारी) को महान् भय होगा॥७॥ हस्वो विवों रूक्षश्चश्यामः कान्तोऽपसव्यगः । विरश्मिश्चाप्य रश्मिश्च हतो ज्ञेयो ग्रहो युधि॥८॥ यदि (ग्रहो युधि) ग्रहों के युद्ध मे समय (हस्वो) ह्रस्व (विवर्णो) विवर्ण (रूक्षश्च) रूक्ष और (श्यामः) काला (कान्तोऽपसव्यगः) कान्त, अपसव्य दिशा में रहने वाला (विरश्मिश्चाप्य रश्मिश्च) रश्मि या अल्परश्मि वाला (हतो) पातित हो तो पराजय और हानि कारक है। भावार्थ-ग्रह युद्ध के समय हस्व, विवर्ण, रूक्ष, काला, कान्त विरश्मि या अल्प रश्मि वाला अपसव्य दिशा में रहने पर घातित हो तो जय पराजय का कारण है॥८॥ स्थूलः स्निग्धः सुवर्णश्च सुरश्मिश्च प्रदक्षिणः ।। उपरिष्टात् प्रकृतिमान् ग्रहो जयति तादृशः॥९॥ (स्थूल: स्निग्धः सुवर्णश्च) स्थूल स्निग्ध और सुवर्ण (सुरश्मि प्रदक्षिण:) सुरश्मि वाला प्रदक्षिणा करता हुआ (उपरिष्टात् प्रकृतिमानग्रहो) ऊपरको उठता हुआ ग्रह (ताहश: जयति) उसी प्रकार की जय कराता है। भावार्थ स्थूल, स्निग्ध, सुवर्ण, सुरश्मि वाला प्रदक्षिणा करता हुआ ऊपर उठता हुआ ग्रह हो तो समझो उसी प्रकार जय कराता है।। ९॥ उल्कादयो हतान् हन्यु गरान् संयुगे ग्रहान् । नागराणां तदा विद्याद्भयं घोरमुपस्थितम्॥१०॥ जब युद्ध में (नागरान् ग्रहान्) नगर ग्रहों का (उल्कादयो) उल्कादि के (संयुगे हन्युरहतान्) द्वारा दोनों के घातित होने पर (तदा) तब (नागराणां) नगर निवासीयों को (घोरं भयं उपस्थितम् विद्याद) घोर भय उपस्थित होगा ऐसा जानो। Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६५८ भावार्थ--जब युद्ध में नागर ग्रहों के परस्पर घातित होने पर नगरनिवासियों को घोर भय उपस्थित होगा॥१०।। यायिनो वामतो हन्युग्रहयुद्धे विमिश्रकाः । पीडयन्ते भौमपीडायां भयं सर्वत्र संयुगे॥११॥ (युद्धे) युद्ध में यदि (विमिश्रका:) विमिश्रिक उल्का तारा. अशनि आदि (गारिनो दाममो हन्छः) पापि संक ग्रह बाल ओर से (पीड्यन्ते) पीड़ित किये जाये तो (भौमपीडायां भया सर्वत्र संयुगे) सर्वत्र भौमपीडा से पीड़ित होंगे। भावार्थ-युद्ध में यदि विमिश्रिक उल्का यायि संज्ञक ग्रह वाम ओर से पीड़ित किये जाय तो सब जगह भौम पीड़ा से पीड़ित होंगे॥११॥ सौम्यजातं तथा विप्राः सोम नक्षत्र राशयः। उदीच्याः पर्वतीयाश्च पाञ्चालाद्यास्तथैव च ॥ १२॥ पीड्यन्ते सोमघातेन् नभो धूमाकुलं भवेत्। तन्नामधेयास्तद्भक्ताः सर्वे पीडयन्ते तान्समान्॥१३॥ (सौम्यजातं) सौम्य जात (तथा विप्राः) तथा विप्र (सोम नक्षत्र राशयः) सोम नक्षत्र और राशि वाले, (उदीच्याः पार्वतीयाश्च) उदीच्य , पर्वत वासी (पाञ्चालाद्याघास्तथैवच) और उसी प्रकार पांचालादि निवासी, (सोमघातेन पीड्यन्ते) सोम के धूलित होने पर पीड़ा को प्राप्त होते हैं (नभो धूमाकुलां भवेत्) यदि आकाश धूमाकुल हो तो (तन्नामधेया स्तक्ता) उस नाम धारी व उसके भक्त (सर्वेपीड्यन्ते तान्समान्) सभी उसी के समान पीड़ा को प्राप्त होते हैं। भावार्थ-यदि चन्द्रमा के द्वारा ग्रह पीड़ित हो आकाश धूम से व्याप्त हो तो सौम्य जाति वाले विप्र सोम्य राशि वाले तथा उदीच्य, पर्वत वा, पांचालवासी उसी प्रकार नाम वाले व उनके भक्त उसी प्रकार की पीड़ा को प्राप्त होते हैं।। १२-१३॥ बर्बराश्च, किराताश्च, पुलिन्दा द्रविडास्तथा। मालवा मलया वङ्गाः कलिङ्गाः पार्वतास्तथा ॥१४॥ Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५९ | चतुर्विशतितमोऽध्याय: सूर्यकाश्च सुराः क्षुद्राः पिशाचा वनवासिनः। तन्नामधेयास्तद्भक्ताः पीड्यन्ते राहुधातने॥१५॥ (राहुधातने) राहु के घातित होने पर (बर्बराश्च) बर्बर (किराताश्च) किरात (पुलिन्दा) पुलिन्द (द्रविडास्तथा) द्रविड तथा (मालवा) मालवा (मलपावङ्गा) मलय, बा (कलिकाः) कलिज (पार्वतास्तथा) पर्वतवासी तथा (सूर्यकाश्च) सूर्य का और (सूराः) सूर, (शूद्राः) शूद्रः (पिशाचा) पिशाच (वनवासिनः) वनवासी, (तन्नमधेयास्तद्भक्ता:) और उस नाम के धारी व उनके भक्त (पीड्यन्ते) पीड़ित होते हैं। भावार्थ-राह के पातित होने पर बर्बर, किरात, पुलिन्द, द्रविड तथा मालव, मलय, बा, कलिङ्ग, पर्वतवासी, सूर्यक, सूर, क्षुद्र, पिशाच, वनवासी और उस नामधारी या उनके भक्त पीडित होते हैं॥१४-१५॥ यायिनः ख्यातयाः सस्यः सोरठा द्रविडास्तथा। अङ्गा बङ्गा कलिङ्गाश्च सौरसेनाश्च क्षत्रियाः॥१६॥ वीराश्चोग्राश्च भोजाश्च यज्ञे चन्द्रश्च साधवः। पीड्यन्ते शुक्र घातेन सङ्ग्रामश्चाकुलो भवेत्॥१७॥ (शुक्रधातेन्) शुक्र के घातित होने पर (यायिनः) युद्ध से आने वाले (ख्यातयाः) ख्याति प्राप्त (सस्य:) धान्य, (सोरठा) सोरठ (द्रविडस्तथा) तथा द्रविड, (अङ्गा बना) अंग, बंग (कलिजाश्च) कलिंग (सौरसेनाश्च) और सौरसेन (क्षत्रिया:) क्षत्रिय (वीराश्चोग्राश्च) वीर, उग्र और (भोजाश्च) भोज (यज्ञे चन्द्रश्चसाधवः) यज्ञ में काम करने वाले साधु, चन्द्रवंशी सभी (पीड्यन्ते) पीड़ित होते हैं और (सङ्ग्रामश्चाकुलो भवेत्) संग्राम में आकुलित होते हैं। भावार्थ-शुक्र ग्रह के धातित होने पर युद्ध आने वाले, ख्याति प्राप्त धान्य, सोरठ, द्रविड, अंग, बंग, कलिंग, सौरसेन, क्षत्रिय, वीर, उग्र, भोज, साधु, चन्द्रवंशी ये सभी पीडित होते हैं, और युद्ध से आकुलित होते हैं॥१६-१७।। श्वेत: श्वेतं ग्रहं यत्र हन्यात् सुवर्चसा यदा। नागराणां मिथो भेदो विप्राणां तु भयं भवेत्॥१८॥ - - - ---- Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६६० (श्वेतः श्वेतं ग्रहं यत्र हन्यात् यदा सवर्चसा) जब श्वेत ग्रह श्वेत ग्रह का परस्पर घात करे अच्छे वर्ण वाला होकर (तु) तो (नागराणां मिथो भेदो) नागरिकों में परस्पर भेद (विप्राणां भयं भवेत्) ब्राह्मणों को भय होता है। भावार्थ-जब श्वेत ग्रह पर श्वेत ग्रह का घात करे और अच्छा वर्ण हो तो नगरनिवासियों में परस्पर भेद पड़ता है, ब्राह्मणों को भय उत्पन्न होता है ऐसा समझो।। १८॥ लोहितो लोहितं हन्यात् यदा ग्रह समागमे। नागराणां मिथो भेदःक्षत्रियाणां भयं भवेत् ॥१९॥ (यदा) जब (लोहितो लोहित) लोहित को लोहित (ग्रह) ग्रह (समागमे) समागम के समय में (हन्यात्) घात करे तो (नागराणां मिथो भेदः) नगरनिवासियों में परस्पर भेद पड़ता है (क्षत्रियाणां भयं भवेत्) क्षत्रियों में भय उत्पन्न होता है। भावार्थ-जब लोहित ग्रह लोहित ग्रह के समागम के समय में घातित करे तो नगरनिवासियों में भेद पड़ता है, और क्षत्रियों में भय उत्पन्न होता है।। १९॥ पीत: पीतं यदा हन्याद ग्रहं ग्रहसमागमे। वैश्यानां नागराणां च मिथो भेदं तदाऽऽदिशेत् ॥२०॥ (यदा) जब (पीत: ग्रह) पीत ग्रह (पीतं) पीले ग्रह को ग्रह (समागमे) ग्रह के समागम समय में (हन्याद्) घात करे तो (तदा) तब (वैश्यानां नागराणां च) वैश्यों में और नगरनिवासियों में (मिथो भेदं) परस्पर भेद (आऽदिशेत्) पड़ता है ऐसा दिखता है। भावार्थ-जब पीले ग्रह को पीला ग्रह समागम के समय में घातित करे तो वैश्य और नगरनिवासियों में परस्पर भेद पड़ता है ऐसा जानो॥२०॥ कृष्ण: कृष्णं यदा हन्यातु, ग्रहं ग्रहसमागमे। शूद्राणां नागराणाश्च मिथो भेदं तदादिशेत् ।। २१॥ (यदा) जब (ग्रह समागमे) ग्रहों के समागम के समय में (कृष्णः ग्रहं कृष्णं हन्यात) कृष्ण ग्रह कृष्ण ग्रह का घात करे तो (शूद्राणां नागराणाश्च) शूद्रों का और Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतितमोऽध्यायः नगरनिवासियों का (मिथोभेदं तदादिशेत्) तब दोनों का परस्पर भेद होता है ऐसा निर्देश किया गया है। भावार्थ---जब कृष्ण ग्रहों का कृष्ण ग्रह के साथ सामगम हो तब ग्रह का घात हो तो समझो शूद्रों का और नगरनिवासियों का परस्पर भेद पड़ता है ॥ २१॥ श्वेतो नीलश्च पीतश्च कपिलः पद्यलोहितः। विपद्यते यदा वर्णो नागराणां तदा भयम्॥२२॥ (यदा) जब (श्वेतो नीलाश्च पीतश्च) श्वेत, नीला, पीला (कपिलः पद्मलोहितः) कपिल, पद्य, लोहित (वर्णो) वर्ण के ग्रह (विपद्यते) परस्पर घात करे तो (तदा) तब (नागराणां भयम्) नगर निवासियों को भय उत्पन्न होता है। भावार्थ-जब सफेद, नीला, पीला, कपिल, लोहित वर्ण के ग्रह परस्पर घात करे तो समझो नागरिकों को भय उत्पन्न होता है।। २२॥ श्वेतो वाऽत्र यदा पाण्डग्रह संपद्यते स्वयम्। यायिनां विजयं ब्रूयात् भद्रबाहुवचो यथा॥२३॥ (यदा) जब (श्वेतो वाऽत्र पाण्डुग्रह) श्वेत या पाण्डु वर्ण के ग्रह (सपंद्यते स्वयम्) परस्पर घात करे तो (यायिनां विजयं ब्रूयात्) आने वाले आक्रमणकारी की विजय होगी ऐसा कहे (भद्रबाहुवचो यथा) क्योंकि स्वामी भद्रबाहु का ऐसा ही वचन है। भावार्थ-जब श्वेत या पाण्डु वर्ण के ग्रह का समागम करे तो आक्रमणकारी की विजय होती है ऐसा कहें,भद्रबाहु स्वामी का ऐसा ही वचन है॥२३ ।। कृष्णो नीलस्तथा श्यामः कपोतो भस्मसन्निभः। विपद्यते यदा वर्णो न तदा यायिनां भयम्॥२४॥ (यदा) जब (कृष्णो नीलस्तथा श्यामः) काला, नीला तथा श्याम (कपोतो भस्मसन्निभः) कपोत और भस्म के (वर्णो) वर्णो का ग्रह (विपद्यते) परस्पर युद्ध करे तो (यायिनां भयम् न) यायि को भय नहीं होता है। भावार्थ-जब काला, नीला, श्याम, कपोत, भस्म के वर्ण का गह परस्पर युद्ध करे तो आने वाले आक्रमणकारी को कोई भय नहीं होता है॥२४॥ Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता वर्णेषु नागरेषु यायिनामपि एवं शिष्टेषु उत्तरं उत्तरा वर्णा नीलाद्यास्तु नागराणां ( एवं शिष्टेषु वर्णेषु) इस प्रकार के शिष्ट वर्ण के ग्रहों में (नागरेषु विचारतः ) नागरों का विचार करे ( उत्तरंतरावर्णा) उत्तर वर्ण के ग्रहों का उत्तर ग्रहों में विचार करे (यायिनामपित्)ि एवं साथियों की उत्ता विजय करे। भावार्थ — इस प्रकार शिष्ट वर्णों के ग्रहों को नागर ग्रहों का विचार करे उत्तर के उत्तर के साथ विचार कहे और यायिकी उत्तर विजय प्रकट करे ॥ २५ ॥ रक्तो वा यदि वा नीलो ग्रहः संपद्यते स्वयम् । नागराणां तदा विन्धात् जयं वर्णमुपस्थितम् ॥ २६ ॥ विचारतः । निर्दिशेत् ॥ २५ ॥ ( यदि ) यदि (रक्तो वा ) लाल वा (वा नीलो ग्रहः ) नीला ग्रह ( संपद्यते स्वयम् ) स्वयं युद्ध करे तो ( तदा) तब ( नागराणां जयं विन्द्यात्) नागरिकों की जय होती है ऐसा आप जानो (वर्णमुपस्थितम्) वर्णों की उपस्थिति होती है। भावार्थ-लाल व नील ग्रह परस्पर युद्ध करे तो नागरिकों की परस्पर वर्णानुसार जय होती है | २६ ॥ यदा विजानीयात् वर्णा उत्तरांयुन्तरं निर्ग्रन्थे ६६२ पुनः । ग्रहसंयुगे ॥ २७ ॥ ( यदा) जब ( नीलाद्यास्तु) नीले (वर्णान्) वर्ण के ग्रह (उत्तरांयुत्तरं पुनः ) उत्तर दिशा में युद्ध करे तो (नागराणां विजानीयात्) नगरनिवासियों की विजय जानो (निर्ग्रन्थे ग्रहसंयुगे) ऐसा निर्ग्रन्थों ने कहा है । भावार्थ — जब नीले वर्णों का ग्रह उत्तर दिशा में युद्ध करे तो नगरनिवासियों की विजय होती है ऐसा निग्रन्थ साधुओं ने कहा है || २७ || ग्रहो ग्रहं यदा हन्यात् प्रविशेद् वा भयं तदा । दक्षिण: सर्वभूतानामुत्तरोऽण्डज पक्षिणाम् ॥ २८ ॥ ( यदा) जब ( ग्रहो ग्रहं हन्यात् ) ग्रहों का ग्रहों के साथ युद्ध हो वा (प्रविशेद्) प्रवेश करे ( दक्षिणसर्वभूतानां ) वो भी दक्षिण से तो सभी प्राणियों को (मुत्तरोऽण्डजपक्षिणाम् ) और उत्तर के अण्डज पक्षियों का घात करता है। Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतितमोऽध्यायः भावार्थ-जब ग्रहों के साथ युद्ध हो व परस्पर प्रवेश करे तो दक्षिण के सभी प्राणियों को व उत्तर के अण्डजपक्षियों का घात होता है॥२८॥ ग्रही गुरु बुधौ विन्द्यादुत्तरद्वारमाश्रितौ। शुक्र सूर्यों तथा पूर्वा राहु भौमौ च दक्षिणाम्॥२९॥ अपरां चन्द्रसूयौं तु मध्ये केतुमसंशयम्। क्षेमङ्करो ध्रुवाणां च यायिनां च भयङ्करः॥३०॥ (उत्तरद्वारमाश्रितौ) उत्तर द्वार का आश्रय लेकर (गुरु बुधौग्रहो) गुरु और बुध ग्रह युद्ध करे वा (शुक्र सूर्यो तथा पूर्वा) पूर्व में शुक्र और सूर्य का युद्ध हो (राहुभौमों च दक्षिणम्) वा राहु और मंगल का दक्षिण में युद्ध हो (अपरांचन्द्रसूर्योतु) पश्चिम में सूर्य और चन्द्र का युद्ध हो (मध्य केतुमसंशयम) मध्यम केतु का युद्ध हो तो (ध्रुवाणं च क्षेमकरो) स्थायियों को क्षेम और (यायिनां च भयङ्करः) आने वाले के लिये भयंकर होता है। __ भावार्थ-उत्तर में यदि ग्रह गुरु और बुध युद्ध करे, पूर्व में शुक्र और सूर्य युद्ध करे,दक्षिण में राहु और मंगल युद्ध करे ,पश्चिम में चन्द्र और सूर्य युद्ध करे मध्यम में केतु युद्ध करे तो नगरनिवासियों को क्षेम होता है, और आक्रमणकारी आने वाले को भयंकर होता है।। २९-३० ।। अहश्च पूर्वसन्ध्या च स्थावर प्रति पुद्गलाः। रात्रिश्चापरसन्ध्या च यायिनां प्रति पुद्गलाः॥३१॥ (अहश्च पूर्व सन्ध्या च) दिन और रात्रि की सन्ध्या (स्थावर प्रति पुदगला:) स्थायी निवासियों के लिये प्रति पुद्गल है और (रात्रिश्चापरसन्ध्या च) रात्रि और अपर सन्ध्या (यायिनां प्रति पुद्गलाः) आने वाले के लिये प्रति पुद्गल है। भावार्थ—दिन और रात्रि की सन्ध्या स्थायीयों के लिये प्रतिपुद्गल तो रात्रि और अपर सन्ध्या आने वाले के लिये प्रतिपुद्गल है॥३१॥ रोहिणी च ग्रहो हन्यात् द्वौ वाऽथ बहवोऽपि वा। अपग्रहं तदा विन्द्याद भयं वाऽपि न संशयः॥३२॥ (रोहिणी च ग्रहो हन्यात) रोहिणी नक्षत्र को ग्रह घात करे (द्वौ वाऽथ बहवोऽपि Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६६४ वा) दो या बहुत ग्रह घात करे तो (तदा) तब (अपग्रहं विन्द्याद्) अपग्रह जानो, (भयं वाऽपि न संशयः) वहाँ भय होगा इसमें सन्देह नहीं है। भावार्थ-रोहिणी नक्षत्र का एक ग्रह या दो या बहुत घात करे तो अपग्रह जानो वहाँ पर भय होगा इसमें सन्देह नहीं हैं। ३२ ।। शक्रः शानिकाशः स्यादीषत्पीतो वृहस्पतिः। प्रवाल सहशो भौमो बुधस्त्वरुणसन्निभः॥३३॥ शनैश्चरश्च नीलाभः सोमः पाण्डुर उच्यते। बहुवर्णो रविः केतू राहुनक्षत्र एव च ॥३४॥ (शुक्र शंख निकाशः) शुक्र शंख का वर्ण (स्यादीषत्पीतो वृहस्पतिः) गुरु पीले वर्ण का (शनौश्चरश्च नीलाभ:) शनि नीली आभा वाला (सोमपाण्डुर उच्यते) सोम पाण्डु वर्ण वाला कहा गया है। बहुवर्णो गति केत) पति और केतु बहु वर्ण वाला हो तो (राहु नक्षत्र एव च) उसी प्रकार राहु नक्षत्र होता है। भावार्थ-शुक्र का रंग शंख वर्ण का गुरु का पीला, मंगल का प्रवाल के समान, बुध का वरुण रंग का शनि नीला, सोम पाण्डु बहु वर्गों का रवि और केतु है उसी प्रकार और नक्षत्र होते है। ३३-२४॥ उदकस्य प्रभुः शुक्रः सस्यस्य च बृहस्पतिः। लोहितः सुख दुःखस्य केतु पुष्प फलस्य च ॥३५॥ बुधस्तु बल वित्तानां सर्वस्य च रविः स्मृतः। उदकानां च वल्लीनां शशाङ्कः प्रभुरुच्यते॥३६॥ (उदकस्य प्रभुः शुक्रः) जल का स्वामी शुक्र है (सस्यस्य च वृहस्पति:) धान्य का स्वामी गुरु है (बुधस्तु बलवित्तानां) बल, धन का स्वामी बुध है (लोहितः सुख दुःखस्य) मंगल सुख और दुःख का स्वामी है (केतुः पुष्प फलस्य च) केतु पुष्प और फलों का स्वामी है (सर्वस्य च रवि स्मृतः) सभी वस्तुओं का स्वामी सूर्य है (उदकानां च वल्लीनां) पानी और लताओं का स्वामी (शशाचः प्रभुरुच्यते) चन्द्रमा है वह उसका प्रभू है। भावार्थ-जल का स्वामी शुक्र है धान्यों का स्वामी गुरु है बल धन का Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६५ चतुर्विंशतितमोऽध्यायः स्वामी बुध है सुख-दुःख का स्वामी मंगल है पुष्प और फलों का स्वामी केतु है वस्तुओं का स्वामी सूर्य है जल लताओं का स्वामी चन्द्रमा है।। ३५-३६ ।। धान्यस्यार्थ तु नक्षत्रं तथाऽऽरः शनिः सर्वशः। प्रभुर्वा सुख दुःखस्य सर्वे होते त्रिदण्डवत्॥ ३७॥ (धान्य स्यार्थं तु नक्षत्रं) धान्य के लिये जो नक्षत्र है (तथाऽऽर: शनि सर्वश:) तथा स्वामी राहु है, और सबके (प्रभुर्वा सुख दुःखस्य) सुख और दुःख का स्वामी शनि है, (सर्वे होते त्रिदण्डवत्) सभी यहाँ पर त्रिदण्ड के समान है। भावार्थ-धान्य का स्वामी राहु और सुख-दुःख का स्वामी शनि है, सबको यहाँ पर त्रिदण्ड के समान माना है॥३७॥ वर्णानां शङ्करो विन्द्याद् द्विजातीनां भयङ्करम्। स्वपक्षे परपक्षे च चातुर्वण्य विभावयेत्॥३८॥ जब ग्रहों का युद्ध होता है तब यांनी शf बिन्धाद्) वर्गों में शंकर होता है (द्विजातीनां भयङ्करः) दो जातियों में भयंकर होता है, (स्वपक्षे परपक्षे च) स्व पक्ष में और पर पक्ष में (चातुर्वर्ण्य विभावयेत्) चारों वर्ण दिखाई पड़ते हैं। भावार्थ-जब ग्रहों का युद्ध होता है तब वर्गों में शंकर हो जाता है दो जातियों में भयंकर होता है स्व पक्ष और पर पक्ष में चार वर्ण दिखाई पड़ते हैं।। ३८॥ वातः श्लेष्मा गुरुर्जेयश्चन्द्रः शुक्रस्तथैव च। वातिको केतु सौरों तु पैत्तिको भौमउच्यते ।। ३९॥ (वात: श्लेष्मागुरुज्ञेयश्चन्द्रः) वात और कफ प्रकृति वाले गुरु और चन्द्र है (शुक्रस्तथैव च) और शुक्र भी उसी प्रकार है (वातिकौ केतु सौरौ तु) केतु और शनि वात प्रकृति वाला है (पैतिको भोम उच्यते) मंगल पीत प्रकृति वाला है। भावार्थ-गुरु चन्द्र और शुक्र वात और कफ प्रवृति वाले है, उसी प्रकार केतु वात प्रकृति वाला है. शनि भी बात वाला है मंगल पीत प्रकृति वाला है॥३९॥ पित्तश्लेष्मान्तिकः सूर्यो नक्षत्रं देवता भवेत्। राहुस्तु भौमो विज्ञेयौ प्रकृतौ च शुभाशुभौ ॥४०॥ Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६EE (सूर्यो) सूर्य (पितश्लेष्मान्तिक:) फ्ति और कफ प्रकृति वाला (नक्षत्रं देवता भेवत्) नक्षत्रों का देवता है (राहुस्तु भौमोविज्ञेयो) राहु और मंगलकी जानना चाहिये कि (प्रकृतौ च शुभाशुभौ) प्रकृति शुभाशुभ है। भावार्थ—सूर्य पित्त और कफ प्रकृति वाला है, नक्षत्रों का देवता है राहु और मंगल भी प्रकृति का शुभाशुभ रूप है, ऐसा आप जानो॥४०॥ आर्यस्तमादितं पुष्यो धनिष्ठा पौष्णवी च भृत्। केतुसूर्यों तु वैशाखौ राहुवरुणसम्भवः ॥४१॥ (आर्यस्तमादितं पुष्यो) उत्तरा फाल्गुनी पुनर्वसु (पुष्यो) पुष्य (धनिष्ठा) धनिष्ठा (पौष्णवी च भूत) हस्तये चन्द्रादि ग्रहों के नक्षत्र हैं (केतुसूर्यौ तु वैशाखौ) केतु और सूर्य के विशाखा नक्षत्र है (राहूर्वरुणसम्भव:) और राहु का शतभिषा नक्षत्र भावार्थ- उत्तरा फाल्गुनी, पुनर्वसु, पुष्प, धनिष्ठा और हस्त ये चन्द्रादि ग्रहों के नक्षत्र है, केतु और सूर्य के विशाखा नक्षत्र है, राहु का शतभिषा नक्षत्र जानो।।४१॥ शुक्र: सोमश्च स्त्रीसंज्ञः शेषास्तु पुरुषा ग्रहाः। नक्षत्राणि विजानीयानामभिर्दैवतैस्तथा॥४२॥ (शुक्रः सोमश्चस्त्री संज्ञ:) शुक्र और सोम स्त्री संज्ञक है (शेषास्तु पुरुषा ग्रहा:) शेष पुरुष संज्ञक है (नक्षत्राणि) नक्षत्रों के लिंग (नामभिदेवतैस्तथा) उनके नामके अनुसार (विजानीयात्) जानना चाहिये। ___ भावार्थ-शुक्र और सोम स्त्री संज्ञक है बाकी ग्रह पुरुष संज्ञक है, नक्षत्रों का लिंग उनके नामानुसार जानना चाहिये॥४२॥ ग्रहयुद्धमिदं सर्व यः सम्यगवधारयेत्। स विजानाति निर्ग्रन्थो लोकस्य तु शुभाशुभम्॥४३॥ Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६७ चतुर्विशतितमोऽध्यायः (स जो) वह जो (निर्ग्रन्थो) निर्ग्रन्थ है वो (ग्रह युद्ध मिदं सर्व) ग्रहों के सभी युद्धों को जानता है (यः सम्यगवधारयेत्) वो भी अच्छी तरह से अवधारणा करता है (सविजानाति लोकस्य) वह लोकालोक के (शुभाशुभम) शुभाशुभ को जानता है। भावार्थ-जो निर्ग्रन्थ ग्रहों के युद्ध को जानता है, वह लोका-लोक के शुभाशुभ को भी अच्छी तरह से अवधारण करता है। ४३ ।।। विशेष वर्णन--इस अध्याय में ग्रह युद्ध का वर्णन किया है, इसके द्वारा जीवों का जय पराजय का ज्ञान होता है। गुरु, शनि, बुध और सूर्य नागर संज्ञक है केतु, अंगारक, चन्द्र, राहु, और शुक्र कीयायी संज्ञा है। यहाँ पर वर्णों के अनुसार ग्रहों संज्ञा भी कही है, जैसे सफेद पाण्डु, पीला, कपिल, लोहित वर्ण ये नागरिक संज्ञा वाले है। काला, नीला, श्याम, कपोत और भस्म के समान हो तो उसको यायि संज्ञा वाले ग्रह कहे हैं। आचार्यों ने ग्रह युद्ध के चार भेद कहे हैं भेद, उल्लेख, अंशुमर्दन, अपसव्य। इनके अनुसार, जय, पराजय, हानि, लाभ, सुख दुःख प्राप्त होता है। आचार्यों ने ग्रह युद्ध के चार भेद कहे हैं भेद, उल्लेख अंशुमर्दन अपसव्य। इन के अनुसार जय, पराजय, हानि, लाभ, सुख-दुःख प्राप्त होता है। जो ग्रह दक्षिण दिशामें रूखा, कम्पायमान, टेढ़ा, क्षुद्र और किसी ग्रह से ढका हुआ विकरालप्रभा हीन और विवर्ण दिखलाई पड़ता है, वह ग्रह पराजित कहलाता है। इससे विपरीत लक्षण वाला ग्रह जयी कहलाता है। शनि और मंगल का एक राशि पर होना महावृष्टि का कारण होता है, ऐसे योग में वर्षा अच्छी होती हैं। दो महीने तक वर्षा होती है बाद में रुक जाती बुध, गुरु, शुक्र, सूर्य और चन्द्रमा इन ग्रहों के स्थान पर होने से ने ऋत्य दिशा में प्रजा का नाश होता है, दुर्भिक्ष, अन्न और भैंसों का अभाव होता है उक्त ग्रहस्थिति, वर्मा, लंका, दक्षिण भारत मद्रास, महाराष्ट्र इन प्रदेशों के लिये महाकष्ट Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६६८ कारक होता है, इन प्रदेशों में अन्न का अभाव बहुत रहता है। पूर्वीय प्रदेश याने बिहार, बंगाल, आसाम, पूर्वीय पाकिस्तान में वर्षा की कमी तो नहीं रहती किन्तु फसल अच्छी नहीं होती है। उक्त प्रदेश में राजनैतिक उलट फेर होता रहता है। हैजादिक बीमारियां फैलती है देश के प्रत्येक भाग में घरेलू युद्ध होते रहते हैं, पंजाब की स्थिति बिगड़ जाती है वहाँ शान्ति स्थापन होने में कठिनाई पड़ती है। इत्यादि ग्रह युद्धों का वर्णन संक्षेप में किया, आगे जो भी विषय है उसे अध्याय में देखकर जानना चाहिये। विवेचन-ग्रहयुद्धके चार भेद हैं-भेद, उल्लेख, अंशुमर्दन और अपसव्य। भेदयुद्धमें वर्षाका नाश, सुहृद् और कुलीनोंमें भेद होता है। उल्लेख युद्धमें शस्त्रभय, मन्त्रिविरोध और दुर्भिक्ष होता है। अंशुमर्दन युद्ध में राजाओंमें युद्ध, शस्त्र, रोग, भूख से पीड़ा और अबमर्दन होता है तथा अपसव्य युद्धमें राजागण युद्ध करते हैं। सूर्य दोपहरमें आक्रन्द होता है, पूर्वाह्नमें पौरग्रह तथा अपराह्न तथा अपराह्नमें यायिग्रह आक्रन्द संज्ञक होते हैं, बुद्ध, गुरु और शनि ये सदा पौर है। चन्द्रमा नित्य आक्रन्द है। केतु मंगल राहु और शुक्र यायि है। इन ग्रहों के हत होने से आक्रन्द यायि और पौर क्रमानुसार नाश को प्राप्त होते हैं। जयी होनेपर स्व वर्ग को जय प्राप्त होता है। पौरग्रहसे पौरग्रह के टकरानेपर पुरवासीगण और पौर राजाओंका नाश होता है। इस प्रकार यायि और आक्रान्दग्रह या पौर और यायिग्रह परस्पर हत होने पर अपने-अपने अधिकारियोंको कष्ट करते हैं। जो ग्रह दक्षिण दिशामें रूखा, कम्पायमान, टेढ़ा, क्षुद्र और किसी ग्रहसे ढंका हुआ, विकराल, प्रभाहीन और विवर्ण दिखलाई पड़ता है, वह पराजित कहलाता है। इससे विपरीत लक्षणवाला ग्रह जयी कहलाता है। वर्षाकालमें सूर्यसे आगे मंगलके रहनेसे अनावृष्टि, शुक्रके आगे रहने से वर्षा, गुरुके आगे रहने से गर्मी और बुधके आगे रहनेसे वायु चलती है। सूर्य-मंगल, शनि-मंगल और गुरु-मंगलके संयोगसे अवर्षा होती है। बुध-शुक्र और गुरु-बुधका योग अवश्य वर्षा करता है। क्रूर ग्रहोंसे अदृष्ट और अयुत बुध और शुक्र एक राशिमें स्थित हों और यदि उन्हें बृहस्पति भी देखता हो तो वे अधिक महावृष्टिके देनेवाला होते हैं। क्रूर ग्रहोंसे अदृष्ट और अयुत (भिन्न) बुध और बृहस्पति एक Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६९ | चतुर्विंशतितमोऽध्यायः राशि में स्थित हों और यदि शुक्र उन्हें देखता हो तो वे अधिक अच्छी वर्षा करते हैं। क्रूर ग्रहोंसे अदृष्ट और अयुत (भिन्न) गुरु और शुक्र एकत्र स्थित हों और यदि शुक्र उन्हें देखता हो तो वे उत्तम वर्षा करते हैं। शुक्र और चन्द्रमा या मंगल और चन्द्रमा आदि एक राशिपर स्थित हो तो सर्वत्र वर्षा होती है, और फसल भी उत्तम होती है। सूर्यके सहित बृहस्पति यदि एक राशिपर स्थित हो तो जब तक वह अस्त न हो जाय, तब तक वर्षाका श्रीग समझना चाहिए। शनि और मंगलका एक राशिपर होना महावृष्टिका कारण होता है। इस योगके होनेसे दो महीने तक वर्षा होती है, पश्चात् वर्षामें रुकावट उत्पन्न होती है। सौम्य ग्रहोंसे अदृष्ट और अयुत शनि और मंगल यदि एक स्थानपर स्थित हों तो वायुका प्रकोप और अग्निका भय होता है। एक राशि या एक ही नक्षत्रपर राह और मंगल आजायें तो दोनों वर्षाका नाश करते हैं। गुरु और शुक्र यदि एकत्र स्थित हो तो असमयमें वर्षा होती है। सूर्य से आगे शुक्र या बुध जायें तो वर्षाकालमें निरन्तर वर्षा होती रहती है। मंगल के आगे सूर्यकी गति हो तो वह वर्षाको नहीं रोकता है। किन्तु सूर्यके आगे मंगल हो तो वर्षाको तत्काल रोक देता है। बृहस्पतिके आगे शुक्र हो तो अवश्य वृष्टि करता है; किन्तु शुक्रके आगे बृहस्पति हो तो वर्षाका अवरोध होता है। बुधके आगे शुक्रके होने से महावृष्टि और शुक्रके आगे बुधके होने पर अल्पवृष्टि होती है। यदि दोनोंके मध्यमें सूर्य या अन्य ग्रह आजायें तो वर्षा नहीं होती। अनिश्चित मार्गसे गमन करता हुआ बुध यदि शुक्रको छोड़ दे तो सात दिन या पाँच दिन तक लगातार वर्षा होती है। उदय या अस्त होता हुआ बुध यदि शुक्रसे आगे रहे तो शीघ्र ही वर्षा पैदा करता है। जल नाड़ियोंमें आने पर यह अधिक फल देता है। बुध, बृहस्पति और शुक्र वे तीनों ग्रह एक ही राशिपर स्थित हों और क्रूर ग्रहोंसे अEष्ट और अयुत हों तो इन्हें महावृष्टि करनेवाले समझने चाहिए। शनि, मंगल और शुक्र तीनों एक राशिपर स्थित हों और गुरु इन्हें देखता हो तो निसन्देह वर्षा होती है। सूर्य, शुक्र और बुध इनके एक राशिपर होनेसे अल्पवृष्टि होती है। सूर्य, शुक्र और बृहस्पतिके एक राशिपर रहनेसे अतिवृष्टि होती है। शनि, शुक्र और मंगलके एकत्र होते हुए गुरुसे देखे जानेपर साधारण वर्षा होती है। शनि, राहु और मंगल ये तीनों एक राशिपर स्थित हों तो ओलेके साथ वर्षा होती है। Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता EL शुक्र, मंगल, शनि और बृहस्पति ये ग्रह एक स्थान पर स्थित हों, तो वर्षाको रोकते हैं। उक्त ग्रह स्थितिमें देशमें अन्नका भी अभाव हो जाता है। धान्य भाव महंगा बिकता है। रूई, कपास, जूट, सन आदि का भाव भी तेज होता है। बिहारमें भूकम्प होने की स्थिति आती है। जापान और बर्मामें भी भूकम्प होते हैं। मंगल, बुध, गुरु और शुक्रके एक स्थान पर स्थित होनेसे रजोवृष्टि होती है। दुर्भिक्ष, अन्न, घी, गुड़, चीनी, सोना, चाँदी, माणिक्य, मूंगा आदि पदार्थों का भाव भी तेज ही होता है। नगर और गाँवों में अशान्ति दिखलाई पड़ती है। बिहार, आसाम, उड़ीसा, पूर्व पाकिस्तान, बंगाल आदि पूर्वीय प्रदेशों में साधारण वर्षा और साधारण ही फसल होती है। पंजाब, दिल्ली, अजमेर, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश की सरकारोंके मन्त्रिमण्डलमें परिवर्तन होता है। इटली, ईरान, अरब, मिस्र इत्यादि मुस्लिम राष्ट्रों में भी खाद्यान्नकी कमी होती है। उक्त राष्ट्रोंकी राजनैतिक और आर्थिक स्थिति बिगड़ती जाती है। मंगल, शुक्र, शनि और राहु यदि ये ग्रह एक राशिफर आ जावें तो मेघ कभी वर्षा नहीं करते; दुर्भिक्ष होता है, धान्य और सस्य दोनों ही प्रकारके अनाजोंकी कमी होती है तथा इनके संग्रहसे अनेक प्रकारका लाभ होता है। मंगल, बृहस्पति, शुक्र और शनि ये ग्रह एक साथ बैठे हों तो वर्षाका अभाव होता है। इन ग्रहोंके युद्ध में व्यापारियोंको भी कष्ट होता है। कागज, कपड़ा, रेशम, चीनीके व्यापारमें घाटा होता है। मोटे अनाजोंके भाव बहुत ऊँचे बढ़ते हैं, जिससे खरीदनेवालोंकी संख्या घट जाती है; फिर भी देशमें शान्ति रहती है। सूर्य, गुरु, शनि, शुक्र और राहु इन ग्रहोंके एक साथ रहनेसे मेघ वर्षा नहीं करते हैं और सब धान्यों का भाव महँगा रहता है। चार या पाँच ग्रहोंके एक साथ रहने से अधिक जलकी वर्षा या मही रुधिर प्लावित हो जाती है। बुध, गुरु, शुक्र, सूर्य और चन्द्रमा इन ग्रहोंके स्थानपर होनसे नैर्ऋत्य दिशामें जनताका विनाश होता है। दुर्भिक्ष, अन्न और मवेशी का अभाव होता है। उक्त ग्रहस्थिति वर्मा, लंका, दक्षिण भारत, मद्रास, महाराष्ट्र इन प्रदेशोंके लिए अत्यन्त अशुभ कारक है। उक्त प्रदेशोंमें अन्नका अभाव बड़े उग्र और व्यापक रूप में होती है। पूर्वीय प्रदेश–बिहार, बंगाल, आसाम, पूर्वीय पाकिस्तान में वर्षाकी कमी तो नहीं रहती किन्तु फसल अच्छी नहीं होती है। उक्त प्रदेशोंमें राजनैतिक उलट-फेर भी होते हैं। हैजा, प्लेग जैसी संक्रामक बीमारियाँ Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७१ | चतुर्विंशतितमोऽध्यायः फैलती हैं। घरेलू युद्ध देशके प्रत्येक भागमें आरम्भ हो जाते हैं। पंजाबकी स्थिति बिगड़ जाती है, जिससे वहाँ शान्ति स्थापित होनेमें कठिनाई रहती है। विदेशोंके साथ भारतका सम्पर्क बढ़ता है। नये-नये व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित होते हैं। देश के व्यापारियों की स्थिति अच्छी नहीं रहती है। छोटे-छोटे दुकानदारों को लाभ होता है। बड़े-बड़े व्यापारियों की स्थिति बहुत खराब हो जाती है। खनिज पदार्थोंकी उत्पत्ति बढ़ती है। कला-कौशलका विकास होता है। देश के कलाकारोंको सम्मान प्राप्त होता है। साहित्यकी उन्नति भले प्रकारसे होती है। नवीन साहित्यके नजनके लिए यह एक उत्तम अवसर है। यदि परम्परानुसार ग्रहाक आगे सौभ्य ग्रह स्थित हों तो वर्षा अच्छी होती है, साथ ही देशका आर्थिक विकास होता है और देशको नये मन्त्रिमण्डल का निर्वाचन भी होता है। धारा सभाओं और विधान सभाके सदस्योंमें मतभेद होता है। विश्वमें नवीन वस्तुओंका अन्वेषण होता है, जिससे देशकी सांस्कृतिक परम्पराका पूरा विकास होता है। नृत्य, गान और इसी प्रकारके अन्य कलाकारोंको साधारण सम्मान प्राप्त होता है। यदि शुक्र, शनि, मंगल और बुध ये ग्रह बृहस्पतिसे युत या दृष्ट हों तो सुभिक्ष होता है, वर्षा साधारणत: अच्छी होती है। दक्षिण भारतमें फसल उत्तम उपजती है। सुपाड़ी, नारियल, चावल एवं गुड़ का भाव तेज होता है। जब क्रूर ग्रह आपसमें युद्ध करते हैं तो जन-साधारणमें भय, आतंक और हिंसाका प्रभाव अंकित हो जाता है। शुभ ग्रहों का युद्ध शुभ फल करता है। इति श्रीपंचम श्रुत दिगम्बराचार्य केवली भद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिता का ग्रह युद्ध नामक चौबीसवाँ अध्याय हिन्दी भाषानुवाद करने वाली क्षेमोदय टीका समाप्त। (इति चतुर्विशतितमोऽध्यायः समाप्तः) Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चविंशतितमोऽध्यायः वस्तु तेजी मन्दी का वर्णन नक्षत्रं ग्रहसंपत्त्या कृत्स्नस्या) शुभाशुभम्। तस्मात् कुर्यात् सदोत्थाय नक्षत्रग्रहदर्शनम्॥१॥ (नक्षत्रं ग्रह संपत्त्या कृत्स्नस्याध) समस्त तेजी मन्दी नक्षत्र और ग्रहों के (शुभाशुभम्) शुभाशुभ पर निर्भर है (तस्मात्) इस कारण से (सदोत्थाय) नित्यप्रातः उठकर (नक्षत्रग्रह दर्शनम् कुर्यात्) ग्रह और नक्षत्रों के दर्शन करना चाहिये। भावार्थ-वस्तुओं की तेजी मन्दी नक्षत्र और ग्रहों के शुभाशुभ पर निर्भर रहती है। इस कारण से नित्य ही प्रातः उठकर ग्रहों और नक्षत्रों का अवलोकन करना चाहिये, अर्थात् देखना चाहिये॥१॥ सर्वे यदुत्तरे काष्ठे ग्रहाः स्युः स्निग्धवर्चसः। तदा वस्त्रं च न ग्राह्यं सुसमासाम्यमर्घताम्॥२॥ (स्निग्ध वर्चस: ग्रहा: स्युः) यदि स्निग्ध और तेजस्वी ग्रह (सर्वे यदुत्तरे काष्ठे) सभी उत्तर में दिखे (तदा वस्त्रं च न ग्राह्य) तो वस्त्रों को ग्रहण नहीं करना चाहिये (सुसमासाम्यमर्घताम्) क्योंकि वस्त्रों के भावों में समानता रहती है, भाव नहीं बढ़ते भावार्थ- यदि स्निग्ध और तेजस्वी ग्रह उत्तर दिशा में हो तो वस्त्रों को नहीं खरीदे, क्योंकि वस्त्रों के भावों में समानता रहती है, भाव तेज नहीं होते है॥२॥ क्षीरं क्षौद्रं यवा: कङ्गदारा: सस्यमेव च। दौर्भाग्यं चाधिगच्छन्ति नैवानिचया यबुधः॥३॥ (क्षीरां क्षौद्रं यवा: कड) दूध, मधु, जौ और कांगनी (रुदारा: सस्यमेव च) धान्यादि पदार्थ (यद् बुधः) जो बुध की स्थिति में है (दौ भाग्यं चाधिगच्छन्ति) उसी के अनुसार तेज और मन्द होते है (नैवानिचया) उसका कोई निश्चय नहीं Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७३ पञ्चविंशतितमोऽध्यायः | भावार्थ-दुग्ध, मधु, जौ, कांगनी धान्यादि की तेजी मन्दी बुध के अनुसार होती है उसका निश्चय बुध के देखने पर करना चाहिए ॥ ३॥ षष्टिकानां विरागाणां द्रव्याणां पाण्डुरस्य च। सन क्रोद्रव कनां नीलाभानां शनैश्चरः ।। ४॥ (षष्टिकानां विरागाणां) साठिका चावल (द्रव्याणां पाण्डरस्य च) और अन्य सफेद पदार्थ (सन क्रोद्रव कडूनां) सन, कोद्रव, कांगून (नीलाभानां शनैश्चर:) और नीले पदार्थ शनि के अधीन होते है। भावार्थ-साठिका चावल और अन्य सफेद पदार्थ, सन, कोद्रव, कांगून, नीली आभावाली वस्तुएँ सभी शनि पर आधारित होती है इन वस्तुओं का स्वामी शनि है उसी के अनुसार तेजी या मन्दी होती है॥४॥ यव गोधूम वीहीणां शुक्लधान्य भसूरयोः । शूलीनां चैव द्रव्याणां शुक्रस्य प्रतिपुद्गलाः॥५॥ (यव गोधूम व्रीहीणां) जौ, गेहूँ, धान्य (शुक्ल धान्य मसूरयोः) सफेद धान्य और मसूर (शूलीनां चैव द्रव्याणां) गूलर आदि द्रव्य (शुक्रस्य प्रतिपुद्गला:) शुक्र के प्रति पुद्गल है। भावार्थ-जौ, गेहूँ, धान्य, सफेदधान्य, मसूर, गूलर आदि द्रव्य शुक्र के प्रति पुद्गल हैं। इन पदार्थों की तेजी मन्दी शुक्र के अधीन हैं॥५॥ मधु सर्पिः तिलानाञ्च क्षीराणां च तथैव च। कुसुम्भस्यातसीनां च गर्भाणां च बुधः स्मृतः॥६॥ (मधु सर्पिः तिलानाञ्च) मधु, घी, नील (क्षीराणां च तथैव च) और दूध तथा (कुसुम्भस्यातसीनां च) पुष्प, केशर, तीसी और (गर्भाणां) गर्भ (बुधः स्मृतः) ये सब बुध के प्रतिपुद्गल है। भावार्थ-बुध के प्रतिपुद्गल, मधु, घी, तिल, द्ध और पुष्प, केशर, तीसी और गर्भ हैं इन चीजों की तेजी मन्दी बुध के ऊपर आधारित है॥६॥ Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६७४ कोशधान्यं सर्षपाश्च पीतं रक्तं तथाग्निजम्। अङ्गारकं विजानीयात् सर्वेषां प्रतिपुद्गलम्॥७॥ (कोशधान्यं सर्षपाश्च) कोश, धान्य, सरसों और (पीतं रक्तं तथाग्निजम्) पीला और लाल धान्य ये (सपा) सब (अरक) अंधारक के (प्रतिपुद्गलम्) प्रतिपुद्गल (विजानीयात्) जानना चाहिये। भावार्थ-अंगारक के प्रतिपुद्गल कोश, धान्य, सरसों पीले और लाल पदार्थ और अग्नि पर उत्पन्न होने वाले पदार्थ है, ऐसा जानना चाहिये॥७॥ महाधान्यस्य महतामिक्षणां शर वंशयोः । गुरूणां मन्द पीतानामथो ज्ञेयो वृहस्पतिः॥८॥ (महाधान्यस्य) महाधान्य (महतामिक्षणां) मोटे धान्य (शर वंशयोः) इक्षु वंश (गुरूणां मन्द पीतानाम) गुरु, मन्द, पीला आदि (अथो वृहस्पति: ज्ञेयो) इन सब के स्वामी गुरु जानो। भावार्थ-महाधान्य, मोटे धान्य, इक्षु वंश, मन्द पीले पदार्थों के स्वामी गुरु है॥८॥ मुक्ता मणि जलेशानां सूर सौवीर सोमिनाम्। शृङ्गिणामुदकानां च सौम्यस्य प्रतिपुद्गलाः॥९॥ (मुक्ता मणि जलेशानां) मुक्ता मणि, जलसे उत्पन्न पदार्थ, (सूर सौवीर सोमिनाम्) सोमलता, बेर या अन्य खट्टे पदार्थ, कांजी, (शृत्रिणामुदकानां) शृङ्गी (च) और समस्त जलसे उत्पन्न पदार्थ, (सोमस्य प्रतिपुद्गला:) ये सब चन्द्रमा के प्रतिपुद्गल है। भावार्थ-मोती, जलमें उत्पन्न होने वाली वस्तुएँ सोमलता, बेर व खट्टे पदार्थ कांजी, शृंशी और जल से उत्पन्न पदार्थ ये सब चन्द्रमा के प्रतिपुद्गल है॥९॥ उद्भिजानां च जन्तूना कन्द मूल फलस्य च। उष्णवीर्य विपाकस्य रवेस्तु प्रतिपुद्गलाः ।।१०॥ (उद्भिजानां च जन्तूनां) उद्भिज और जन्तु (कन्द मूल फलस्य च) कन्द Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७५ पञ्चविंशतितमोऽध्यायः मूल और फल (उष्ण वीर्य विपाकस्य) जिसका विपाक उष्ण वीर्य है (रवेस्तु प्रतिपुद्गलाः) ये सब सूर्य के प्रतिपुद्गल है। भावार्थ-उद्भिज, जन्तु, कन्द, मूल, फल और जिनके गुण उष्ण वीर्य है, ऐसे पदार्थ ये सब रवि के प्रति पुद्गल है॥१०॥ नक्षत्रे भार्गवः सोमः शोभते सर्वशी यथा। यथा द्वार तथा विन्द्यात् सर्ववस्तु यथाविधिः॥११॥ (नक्षत्रे) नक्षत्रों में (भार्गव: सोमः) शुक्र और चन्द्रमा (यथा सर्वशो शोभेते) जैसे तब तरफ से शोभित होते हैं (यदा द्वारं यथा) उस नक्षत्र के द्वारा (सर्ववस्तु यथाविधि: विन्द्यात्) सभी वस्तुएँ यथाविधि जानो। भावार्थ नक्षत्रों शुक्र और चन्द्रमा सब जगह शोभा पाते हैं उस नक्षत्र के द्वारा सभी वस्तुएँ यथा विधि महँगी और मन्दी होती रहती है॥११॥ विवर्णा यदि सेवन्ते ग्रहा वै राहुणां समम्। दक्षिणां दक्षिणे मार्गे वैश्वानरपथं . प्रति ।। १२॥ (यदि) यदि (विवर्णा ग्रहा सेवन्ते) ग्रह विवर्ण होकर (वै राहुणा समम्) राहु की सेवा करें (दक्षिणां दक्षिणे मार्गे) और दक्षिण मार्ग में (वैश्वानरपथं प्रति) वैश्वानर पथ के प्रति गमन करे तो।। भावार्थ-यदि ग्रह विवर्ण होकर राहु की सेवा करे और दक्षिण ग्रह दक्षिण मार्ग में वैश्वानर पथ पर गमन करे तो॥१२॥ गिरिनिम्ने च निम्नेषु नदी पल्लववारिषु। ऐतषु वापयेद् बीजं स्थलवज यथा भवेत्॥१३॥ (गिरिनिम्ने च निम्नेषु) पर्वत की नीची भूमि में (नदी पल्लववारिषु) नदियों की ऊंची-नीची भूमि में पोखरों में (वाययेद् बीजं) बीज बोना चाहिये (स्थलवन्ज यथा भवेत्) मात्र स्थल को छोड़ देवे। भावार्थ-चौरस भूमि को छोड़कर पर्वत की निचली भूमि में और नदी की तर पोखरों में बीज बोना चाहिए।।१३।। Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | पवनपुतहरा ! $ मल्लजा मालवे देशे सौराष्ट्रे सिन्धुसागरे। एतेष्वपि तदा मन्दं प्रियमन्यत् प्रसूयते॥१४॥ (मल्लजा मालवे देशे) काली मिर्च मालवदेश में (सौराष्ट्रे सिन्धुसागरे) सौराष्ट्र समुद्र के तटवर्ती (एतेष्वपि तदा मन्द) इन प्रदेशों में मन्दी होती है (प्रियमन्यत् प्रसूयते) अन्य वस्तुएँ महँगी होती है। भावार्थ- काली मिर्च, मालवदेश, सौराष्ट्र, सागर और तटवर्ती प्रदेशों में, मन्दी होती है, अन्य वस्तुएँ महंगी होती है।। १४॥ कृत्तिका रोहिणीयुक्ता बुध चन्द्र शनैश्चराः। यदा सेवन्ते सहितास्तदा विन्द्यादिदं फलम्॥१५॥ (बुध चन्द्र शनैश्चराः) बुध, चन्द्र, शनि (कृत्तिका रोहिणी युक्ता) ये तीनों कृत्तिका युक्त रोहिणी का (यदा सेवन्ते) जब सेवन करे तो (सहितास्तदा विन्द्यादिदं फलम्) समझो, अधिक फल होगा। ___ भावार्थ-बुध, चन्द्र, शनि कृत्तिका युक्त रोहिणी का सेवन करे तो समझो, अधिक फल होगा॥१५॥ आज्यविकं गुडं तैलं कार्षासो मधुसर्पिषी। सुवर्ण रजते मुद्गा: शालयस्तिलमेव च॥१६॥ (आज्यविकं गुडं तैलं) घी, गुड़, तेल (कार्षासो) कपास (मधुसर्पिषी) मधु सर्पि (सुवर्ण रजते मुद्गा:) सुवर्ण, चाँदी, मूंग (शालयस्तिलमेव च) धान्य, तिल और वस्तुएं। भावार्थ-घी, गुड़, तेल, कपास, मधु, सर्पि, सुवर्ण, चाँदी, मूंग, धान्य, तिल आदि पदार्थ महँगे होंगे॥१६॥ स्निग्धे याम्योत्तरे मार्गे पञ्चद्रोणेन् शालयः। दशाढकं पश्चिमे स्यात् दक्षिणेतु षडाढकम्॥१७॥ यदि उक्त ग्रह (स्निग्धे) स्निग्ध हो (याम्योत्तरे मार्गे) दक्षिणोत्तर मार्ग में गमन करे तो (पञ्चद्रोणेन् शालयः) पाँच द्रोण प्रमाण धान्य महँगा होता है (दशाढकं Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७७ पञ्चविंशतितमोऽध्यायः पश्चिमे स्यात्) पश्चिम में हो तो दस आढ़क प्रमाण महंगा और (दक्षिणेतु षडाढकम्) दक्षिण में हो तो छह आढ़क प्रमाण महँगा होता है। भावार्थ-यदि उक्त ग्रह स्निग्ध हो दक्षिण और उत्तर होकर गमन करे तो धान्य पाँच द्रोण महँगा होता है। वही ग्रह पश्चिम में हो तो दश आढ़क प्रमाण महंगा होता है, और दक्षिण में हो तो छह आढ़क प्रमाण महँगा रहता है।। १७॥ उत्तरेण तु रोहिण्यां चतुष्कं कुम्भ मुच्यते। दशकं प्रसङ्गतो विन्द्यात् दक्षिणेन चतुर्दशम्॥१८॥ (उत्तरेण तु रोहिण्या) उत्तर में रोहिणी हो तो (चतुष्कं कुम्भ मुच्यते) चतुष्क कुम्भ कहा जाता है (दशकं प्रसङ्गतो विन्द्यात्) इससे दस आढ़क प्रमाण धान्य महंगा होता है। भावार्थ-उत्तर में रोहिणी हो तो चतुष्कुम्भ कहा जाता है, इससे दस आढ़क प्रमाण धान्य महंगा और वहीं दक्षिण में हो तो चौदह आढ़क प्रमाण धान्य महंगा होता है॥१८॥ नक्षत्रस्य यदा गच्छेद् दक्षिणं शुक्र चन्द्रमा:। सुवर्ण रजतं रत्नं कल्याणं प्रियतां मिथः ।। १९॥ (यदा) जब (शुक्र चन्द्रमाः) शुक्र और चन्द्रमा (दक्षिणं) दक्षिण से होकर (नक्षत्रस्य गच्छेद्) कृत्तिका विध रोहिणी की ओर जावे तो (सुवर्ण रजतं रत्न) सुवर्ण, चाँदी, रत्न (कल्याणं प्रियतां मिथ:) और धान्य महँगे होंगे।। भावार्थ-जब शुक्र और चन्द्रमा दक्षिण में होकर कृत्तिका बिध रोहिणी की ओर गमन करे तो सुवर्ण, चाँदी, रत्न और धान्य महंगे होंगे॥१९॥ धान्यं यत्र प्रियं विन्द्याद् गावो नात्यर्थ दोहिनः । उत्तरेण यदा यान्ति नैतानि चिनुयात् तदा॥२०॥ (यदा) जब उक्त ग्रह (उत्तरेण यान्ति) उत्तर में गमन करे (तदा) तो (नैतानि चिनुयात्) इतने प्रकार से (धान्यं यत्र प्रियं विन्द्याद्) वहाँ धान्य प्रिय होता है, ऐसा जानो (गावो नात्यर्थदोहिन:) और गायें दोहने के लिये प्राप्त नहीं होती है। Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६७८ भावार्थ-जब उक्त ग्रह उत्तर में गमन करे तो तब वहाँ पर धान्य और गायें महँगी हो जाती है॥ २०॥ उत्तरेण तु पुष्यस्य यदा पुष्यति चन्द्रमाः। भौमस्य दक्षिणे पार्वे मघासु यदि तिष्ठति॥२१॥ मालदा मालं वैदेहा यौधेयाः संज्ञनायकाः। सुवर्ण रजतं वस्त्रं मणिर्मुक्ता तथा प्रियम्॥२२॥ (यदा) जब (चन्द्रमां) चन्द्रमा (उत्तरेण) उत्तर से (पुष्यस्य) पुष्य का (पुष्यति) भोग करता है (मघाम) मघामें (यदि तिष्ठति) यदि ठहरता है (भौमस्य दक्षिणे पार्वे) मंगल के दक्षिण पार्श्व में रहता है (मालदा मालं) तब काली मिर्च, नमक (वैदेहा यौधेया: संज्ञनायकाः) वैदेह, योधेय, संज्ञनायक (सुवर्ण रजतं वस्त्र) सुवर्ण, चाँदी, वस्त्र (मणिर्मुक्ता तथा प्रियम्) मणि, मुक्ता, तथा खाने के मसाले महंगे होंगे। भावार्थ-चन्द्रमा जब उत्तर से पुष्य नक्षत्र का भोग करता हुआ मध्य नक्षत्र में रहकर मंगल का दक्षिण में भोग करे तो काली मिर्च, नमक, सोना, चाँदी, मणि, रत्न, मुक्ता और खाने के मसाले आदि महंगे होंगे।। २१-२२।। चन्द्रः शुक्रो गुरु मो मघानां यदि दक्षिणे। वस्त्रं च द्रोणमेषं च निर्दिशेन्नात्र संशयः॥२३॥ (चन्द्रः शुक्रो गुरु भीमो) चन्द्र, शुक्र, गुरु, मंगल (यदि) यदि (मघानां दक्षिणे) मघा के दक्षिण में गमन करे तो (वस्त्रं च द्रोणमेधं च) वस्त्र महंगे होते हैं तथा मेघ द्रोण प्रमाण वर्षा करते हैं (निर्दिशेन्नात्रसंशयः) ऐसा निर्देश किया गया है इसमें कोई सन्देह नहीं हैं। भावार्थ-जब चन्द्र, शुक्र, गुरु और मंगल यदि मघा के दक्षिण से गमन करे तो वस्त्र महँगे होते है और एक द्रोण प्रमाण वर्षा होती है इसमें सन्देह नहीं हैं।। २३॥ Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७९ पञ्चविंशतितमोऽध्यायः आरुहेद् वालिखेद्वापि चन्द्रश्चैव यथोत्तरं। ग्रहैर्युक्तस्तु तदा कुम्भं तु पञ्चकम्॥२४॥ यदि (ग्रहैयुक्तस्तु) ग्रह से युक्त (चन्द्रः) चन्द्रमा (यथोत्तरः) उत्तर दिशा में (आरुहेद्) आरोहण करे और (वालिखेद्वापि चैव) स्पर्श करे तो (तदा) तब (कुम्भं तु पञ्चकम्) पाँच कुम्भ प्रमाण वर्षा होती है। भावार्थ यादे ग्रह से युक्त चन्द्रमा उत्तर दिशा में आरोहण और स्पर्श करे तो पाँच कुम्भ प्रमाण वर्षा होती है।। २४॥ राहुः केतुः शशी शुक्रो भौमश्चोत्तरतो यदा। सेवन्ते चोत्तरं द्वारं यात्यस्तं वा कदाचन ॥२५॥ निवृत्तिं चापि कुर्वन्ति भयं देशेषु सर्वशः। बहुतोयान् समान् विन्धान महाशालींश्च वापयेत् ।। २६॥ (यदा) जब (राहुः केतुः शशी शुक्रो) राहु, केतु, चन्द्र, शुक्र (भौमश्चोत्तरतो) मंगल उत्तरदिशा से (सेवन्ते चोत्तरं द्वार) उत्तर दिशा का सेवन करे और (यात्यस्तवं वा कदाचन्) अस्त हो या वक्री हो (निवृत्तिं चापि कुर्वन्ति) अथवा निवृत्ति को प्राप्त हो तो (भयं देशेषु सर्वश:) सारे देश में भय होता है, (बहुतोयान् समाविन्द्याद) बहुत वर्षा होती है और (महाशालीश्च वापयेत्) बहुत ही धान्य उत्पन्न होता है। भावार्थ-जब राहु, केतु, चन्द्र, शुक्र, मंगल उत्तर दिशा में उत्तर द्वार का सेवन करे या अस्त अथवा वक्री हो, निवृत्ति को प्राप्त हो तो सारे देश में भय उत्पन्न होता है वर्षा बहुत होती है और बहुत ही धान्य उत्पत्ति होती है और भी ऐसा जानो की।। २५-२६॥ कार्पासास्तिल माषाश्च सर्पिश्चात्र प्रियं तथा। आशु भान्यानि वर्धन्ते योगक्षेमं च हीयते ।। २७॥ (कार्पासास्तिल माषाश्च) कपास, तिल, उड़द, (सर्पिश्चात्र प्रियं तथा) घी, और भी यहाँ पर खाने के मसाले। (आशु धान्यनि वर्धन्ते) और धान्य महंगे होते हैं और (योग क्षेमं च हीयते) योगक्षेम की हानि होती है। 3 - -- - - Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | भावार्थ-कपास, तिल, उड़द, घी, खाने के मसाले और धान्य महंगे होते है, और योग क्षेम की हानि होती है॥२७॥ चन्द्रस्य दक्षिणे पार्वे भार्गवो वा विशेषतः। उत्तरांस्तारकान् प्राप्य तदा विधादिदं फलम्।॥२८॥ हामन्यानि पुष्कधि द्वीकाते चामरस्तथा। कार्पास तिल माषाश्च सर्पिश्चैवार्घते तदा॥२९॥ यदि (भार्गवो) शुक्र (चन्द्रस्य) चन्द्र के (दक्षिणे पार्वे) दक्षिण भाग में (वा विशेषतः) और विशेषकर (उत्तरांस्तारकान् प्राप्य) उत्तर से उत्तर द्वार का सेवन करे (तदा) तब (इदं फलम् विन्द्याद्) इस प्रकार का फल जानो। (महाधान्यानि पुष्पाणि) महाधान्य और पुष्य (हीयन्ते चामरस्तथा) केशर आदि पदार्थों की हानि होती है अर्थात् महंगे होते (कर्पास तिल माषाश्च) कपास, तेल, उड़द और (सार्पिश्चैवार्घते तदा) घी आदि की वृद्धि होती है, अत: ये पदार्थ सस्ते होते हैं। भावार्थ-यदि शुक्र चन्द्रके दक्षिण भागमें और विशेषकर उत्तरसे उत्तरद्वार का सेवन करे तब इस प्रकार का फल होता, महाधान्य पुष्प, केशरआदि और घी, आदि की वृद्धि होती है। अत: ये पदार्थ सस्ते होते हैं॥२८-२९॥ चित्राया दक्षिणेपाि शिखरीनाम तारका। तयेन्दुर्यदि दृश्येत तदा बीजं न वापयेत् ॥ ३० ॥ (चित्राया दक्षिणे पर्श्वि) चित्रा नक्षत्र के दक्षिण भाग में (शिखरीनाम तारका) शिखरी नामका तारा है (तयेन्दुर्यदि दृश्येत) उसमें यदि चन्द्रमा दिखलाई पड़े (तदा) तो (बीजं न वापयेद्) बीजों का वपन नहीं करना चाहिये। भावार्थ-चित्रा नक्षत्र के दक्षिण भाग में शिखरी नामक तारिका है उस शिखरी तारिका में चन्द्रमा दिखे तो बीजों का वपन नहीं करना चाहिये ।। ३०॥ गवास्त्रेण हिरण्येन सुवर्ण माणि मोक्तिकैः। महष्यिजादिभिर्वस्त्रैर्धान्यं क्रीत्वा निवापयेत् ॥ ३१॥ उक्त प्रकार की स्थिति में (गवास्त्रेण हिरण्येन) गाय, अस्त्र, चाँदी Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 | ६८१ पञ्चविंशतितमोऽध्यायः (सुवर्णमणिमोक्तिकै) सोना, मणि, मुक्ता, (महिष्यजादिभिर्वस्त्रः ) महीष बकरी वस्त्र आदि से (धान्यं) और धान्य (क्रित्वा) खरीदकर (निवापयेत् ) नहीं खोने चाहिये । भावार्थ — उपर्युक्त प्रकार की स्थिति में गाय, अस्त्र, चाँदी, सुर्वण, मणी, मुक्ता, महीष, बकरी, वस्त्र आदि से धान्य खरीदे किन्तु जमीन में नहीं बोवे, नहीं तो कुछ उपलब्धि नहीं होगी ॥ ३१ ॥ चित्रायां तु यदा शुक्रश्चन्द्रो भवति दक्षिण: । षड्गुणं जायते धान्यं योगक्षेमं च जायते ॥ ३२ ॥ ( यदा) जब (चित्रायां तु) चित्रा नक्षत्र में (दक्षिण) दक्षिण की ओर (शुक्रश्चन्द्रो भवति) शुक्र और चन्द्रमा होता है तो (षड्गुणं जायतेधान्यं) धान्य छह गुणा होता है ( योगक्षेम च जायते) और योग क्षेम होता है। भावार्थ- जब चित्रा नक्षत्र में दक्षिण की ओर शुक्र चन्द्रमा हो तो धान्य छह गुणा होता है और योग क्षेम होता है ।। ३२ ।। इन्द्राग्नि देव संयुक्ता यदि सर्वे ग्रहाः कृशाः । अभ्यन्तरेण मार्गस्थास्तारका यास्तु ( यदि सर्वे ग्रहाः कृशाः ) यदि सभी ग्रह कृश होकर ( इन्द्राग्नि देव संयुक्ता ) विशाखा नक्षत्र में युक्त होकर (अभ्यन्तरेण मार्गस्था) अभ्यन्तर मार्गस्थ हो (स्तारकाः यास्तु बाद्यतः) और तारका की तरफ गमन करता हुआ बादलों में जावे । भावार्थ -- यदि सभी ग्रह क्षीण होकर विशाखा नक्षत्र में युक्त होकर अभ्यन्तर मार्ग में तारा की ओर गमन करते हुए बादलों की तरफ जावे ।। ३३ ।। न बाद्यतः ॥ ३३ ॥ कङ्गुदार तिला मुद्गाश्चणकाः षष्टिकाः चित्रायोगं सर्पेत चन्द्रमा शुकाः । उत्तरो भवेत् ॥ ३४ ॥ ( चन्द्रमा उत्तरो भवेत् ) चन्द्रमा की ओर (चित्रायोगं न सर्पेत) चित्रा नक्षत्र में जावे तो (कुमुदार तिलामुद्गाः) कांगनी, दार, तिल, उड़द (चणकाः षष्टिकाः शुकाः) चना, साठी के चावल आदि । Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ चन्द्रमा उत्तर का होकर चित्रा नक्षत्र के प्रति जावे तो कांगनी, दार, तिल, उड़द, चना, साठी के चावल आदि ॥ ३४ ॥ संग्राह्यं च तदा धान्यं योगक्षेमं न अल्पसारा भवन्त्येते चित्रा वर्षा न जायते । संशयः ॥ ३५ ॥ ६८२ (संग्राह्यं च तदा धान्यं) तब धान्यों का संग्रह करे (योगक्षेमं न जायते) क्योंकि योगक्षेम नहीं होता है (अल्पसारा भवन्त्येते) अल्पसार रहता है (चित्रावर्षा न संशय:) चित्रा की वर्षा नहीं होती है। भावार्थ तब धान्यों का संग्रह करे वहाँ पर योगक्षेम नहीं होता है अल्पसार के कारण वर्षा नहीं होती है ॥ ३५ ॥ विशाखामध्यगः शुक्रस्तोयदो समर्थ यदि विज्ञेयं दशद्रोण (विशाखामध्यगः शुक्रः ) विशाखा नक्षत्र के मध्य यदि शुक्र हो तो (तो यदो धान्य वर्धनः ) वर्षा धान्य की वृद्धि में कारण होता है (समर्यं यदि विज्ञेयं) अनाज का भाव सम होता है (दश द्रोण क्रयं वदेत्) दस द्रोण प्रमाण खरीदा जाता है। भावार्थ - विशाखा नक्षत्र के मध्य यदि शुक्र हो तो वर्षा धान्य की वृद्धि में कारण होती है अनाज का भाव सम होता, दस द्रोण प्रमाण धान्य खरीदा जाता है ॥ ३६ ॥ धान्यवर्धनः । क्रयं वदेत् ॥ ३६ ॥ यायिनी चन्द्र शुक्रौ तु दक्षिणामुत्तरो तदा । विशाखायोर्धातास्तदाऽर्घन्ति तारा चतुष्पदाः ॥ ३७ ॥ (यायिनौ चन्द्र शुक्रौ तु ) जब यायी चन्द्र और शुक्र (दक्षिणामुत्तरो तदा ) दक्षिण उत्तर में हो ( तारा विशाखशयोर्घाताः ) और ताराविशाखा नक्षत्र का घात करे ( तदाऽर्घन्ति चतुष्पदाः ) तब चौपायों की वृद्धि होती है। भावार्थ - यदि यायी चन्द्र और शुक्र दक्षिण और उत्तर में हो तो तारा विशाखा नक्षत्र का घात हुआ हों तब चौपायों की वृद्धि होती है ॥ ३७ ॥ Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ! ६८३ पञ्चविंशतितमोऽध्यायः यदा वस्त्रं दक्षिणेनानुराधायां अप्रभश्च प्रहीण द्रोणाय ( यदा) जब ( दक्षिणेनानुराधायां) दक्षिण में अनुराधा नक्षत्र के प्रति (अप्रभश्च प्रहीणश्च ) प्रभारहित (शशी व्रजते ) होकर चन्द्रमा गमन करे तो (वस्त्रं द्रोणाय कल्पयेत् ) वस्त्र द्रोण प्रमाण महँगे होते है। भावार्थ - यदि जब चन्द्रमा निष्प्रभ होकर दक्षिण की तरफ अनुराधा में गमन करे तो समझो वस्त्र महँगे होंगे || ३८ ॥ च व्रजते शशी । कल्पयेत् ॥ ३८ ॥ ज्येष्ठा मूलौ यदा चन्द्रो दक्षिणे तदा सस्यं च वस्त्रे च शरीरी वार्थं प्रजानामनयो घोरस्तदा जायन्ति प्रस्तक्रयस्य वस्त्रस्य तेन श्रीयन्ति तां व्रजतेऽप्रभः । विनश्यति ॥ ३९ ॥ तामसः । प्रजाम् ॥ ४० ॥ ( यदा) जब (अप्रभः) प्रभारहित (चन्द्रो ) चन्द्रमा (ज्येष्ठामूलौ) ज्येष्ठा मूल नक्षत्र ( दक्षिणेव्रजते) दक्षिण में गमन करे (तदा) तो ( सस्यं च वस्त्रं च ) धान्य और वस्त्र (शरीरी वार्थं विनश्यति) तथा धनादिकका नाश होता है, (प्रजानामनयोघोरः ) प्रजा में घोर ( जायन्ति तामस :) अन्धकार छा जाता है ( प्रस्तक्रयस्य वस्त्रस्य ) अन्न व वस्त्र के लिये हा हाकार मचता है ( तेनक्षीयन्ति तां प्रजाम् ) इस कारण से प्रजा नाश को प्राप्त होती है । भावार्थ —– जब प्रभा रहित होकर चन्द्रमा ज्येष्ठा और मूल नक्षत्र दक्षिण में गमन करे तो धान्य और वस्त्र महँगे होते है। धनादिकका नाश होता है, अन्न और वस्त्र के लिये प्रजा में हा हाकार होता है, उससे प्रजा क्षीणता को प्राप्त होती है ।। ३९-४० ॥ मूलं मन्देव सेवन्ते यदा दक्षिणतः प्रजाति सर्वधान्यानां आढका नु तदा शशी । भवेत् ॥ ४१ ॥ ' (यदा) जब (शशी) चन्द्रमा (दक्षिणतः ) दक्षिण में (मूलमन्देव सेवन्ते) मन्द होता हुआ मूल नक्षत्र का सेवन करे (तदा) तो ( प्रजातिसर्वधान्यानांआढकानु) प्रजामें उस वर्ष धान्य बहुत होता है और आढ़क प्रमाण वर्षा भी ( भवेत् ) होती है। Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ६८४ भावार्थ- जब चन्द्रमा दक्षिण में मन्द होता हुआ मूल नक्षत्र का सेवन करे तो धान्योत्पत्ति बहुत होती है। और आढ़क प्रमाण वर्षा होती है।। ४१॥ कृत्तिका रोहिणी चित्रां पुष्याश्लेषा पुनर्वसून् । ब्रजति दक्षिणश्चन्द्रो दशप्रस्थं तदा भवेत्॥४२॥ (दक्षिणश्चन्द्रो) जब दक्षिणका चन्द्रमा (कृत्तिका रोहिणी चित्रां) कृत्तिका, रोहिणी, चित्रा (पुष्याश्लेषा पुनर्वसुन्) पुष्य, आश्लेषा, पुनर्वसु में (व्रजति) गमन करे (तदा) तो (दशप्रस्थं भवेत्) दस प्रस्थ प्रमाण धान्य होता है। भावार्थ-जब चन्द्रमा कृत्तिका, रोहिणी, चित्रा, पुष्य, आश्लेषा, पुनर्वसु नक्षत्र की तरफ गमन करे तो समझो दस प्रस्थ प्रमाण धान्योत्पत्ति होती है, उतने ही प्रमाण धान्य बिकता है।। ४२ ।। मघां विशाखां च ज्येष्ठाऽनुराधे मूलमेव च। दक्षिणे व्रजतेशुक्रश्चन्द्रे तदाऽऽढकमेव च॥४३॥ (शुक्रश्चन्द्रे) शुक्र और चन्द्रमा के (दक्षिणे) दक्षिण में (मघां विशाखां च ज्येष्ठा) मघा, विशाखा, ज्येष्ठा (अनुराधेमूलमेव च) और अनुराधा, मूल नक्षत्र की ओर (व्रजेत्) गमन करे (तदा) तो (आढकमेव च) एक आदक प्रमाण धान्य की बिक्री होती है। भावार्थ-शुक्र और चन्द्रमा के दक्षिणमें मघा विशाखा ज्येष्ठा, अनुराधा, मूल नक्षत्रकी ओर गमन करे तो समझो एक आढ़क प्रमाण धान्य बिकता है॥४३ ।। कृत्तिकां रोहिणी चित्रां विशाखां च मघां यदा। दक्षिणेन् ग्रहायान्ति चन्द्रस्त्वादकविक्रयः॥४४॥ (यदा) जब (दक्षिणेन् ग्रहायान्ति) ग्रह दक्षिण से (कृत्तिका रोहिणी चित्रां) कृत्तिका, रोहिणी, चित्रा (विशाखां च मघां) विशाखा और मघा नक्षत्र की ओर गमन करे तब (आढका विक्रयः) आढ़क प्रमाण धान्य की बिक्री होती है। भावार्थ-जब दक्षिण से चन्द्र ग्रह कृत्तिका, रोहिणी, चित्रा, विशाखा और मघा की तरफ जाता है तो एक आदक प्रमाण धान्य की बिक्री होती है।। ४४ 11 Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चविंशक्तियोऽध्यायः गुरुः शुक्रश्च भौमश्च दक्षिणाः सहिता यदा। प्रस्थत्रयं तदा वस्त्रैर्यान्ति मृत्युमा प्रजाः॥४५॥ (यदा) जब (गुरुः शुक्रश्च भौमश्च) गुरु, शुक्र, मंगल (दक्षिणाः सहिता) दक्षिण से सहित होते हैं (तदा) तो (प्रस्थत्रयं) तीन प्रस्थ (वस्त्रैर्यान्ति) वस्त्र हो जाते हैं (मृत्युमुखं प्रजाः) प्रजा मरण के सन्मुख हो जाती है। ___ भावार्थ-जब दक्षिण से गुरु, शुक्र, मंगल सहित होते हैं, तब तीन प्रस्त्र तो वस्त्र बिकते हैं और प्रजा मरणोन्मुख हो जाती है॥४५ ।। उत्तरं भजते मार्ग शुक्रपृष्ठं तु चन्द्रमाः। महाधान्यानि वर्धन्ते कृष्णधान्यानि दक्षिणे॥४६॥ जब (शुक्र) शुक्र (उत्तरं भजते मार्ग) उत्तर मार्ग से आगे हो (चन्द्रमा तु पृष्ठं) और चन्द्रमा पीछे हो तब (महाधान्यानि वर्धन्ते) महाधान्योंकी वृद्धि होती है (दक्षिणे) यही स्थिति दक्षिण में हो तो (कृष्ण धान्यानि) काले धान्यों की वृद्धि होती है। भावार्थ-जब शुक्र उत्तर से गमन कर रहा हो और चन्द्रमा के पीछे हो तो महाधान्यों की वृद्धि होती है, अगर यह स्थिति दक्षिण की ओर हो तो काले धान्यों की वृद्धि होती है॥४६॥ दक्षिणं चन्द्रशृङ्गं च यदा वृद्धतरं भवेत्। महाधान्यं तदा वृद्धं कृष्णधान्यमथोत्तरम् ।। ४७॥ (यदा) जब (चन्द्रशृंग) चन्द्रमा का शृंग (दक्षिण) दक्षिण में (वृद्धतरं भवेत्) वृद्धि को हो तो (महाधान्यं तदा) महाधान्य की वृद्धि होती है (कृष्णधान्यंमथोत्तरम्) इसी प्रकार उत्तर दिशाका चन्द्र भंग हो तो काले धान्य के भी भाव बढ़ते हैं। भावार्थ-जब चन्द्रमा का दक्षिण भंग वृद्धि की ओर दिखे तो महाधान्य की वृद्धि होती है और उत्तर को दिखे तो काले धान्य की वृद्धि समझो ॥४७॥ कृत्तिकानां मघानां च रोहिणीनां विशाखयोः । उत्तरेण महाधान्यं कृष्ण धान्यञ्च दक्षिणे॥४८॥ Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता (कृत्तिकानां मघानां च) कृतिका, मघा और (रोहिणानां विशाखयोः) रोहिणी, विशाखा (उत्तरेण) उत्तर के हो तो (महाधान्यं दक्षिणे) महाधान्य की वृद्धि और दक्षिण के हो तो (कृष्णधान्यञ्च) काले धान्य की वृद्धि होती है। भावार्थ-कृत्तिका, मघा, रोहिणी, विशाखा उत्तर के हो तो महाधान्य की वृद्धि और दक्षिण में हो तो काले धान्य की वृद्धि होती है।॥४८॥ यस्य देशस्य नक्षत्रं न पीड्यन्ते यदा यदा। तं देशं भिक्षवः स्फीताः संश्रयेयुस्तदा तदा॥४९॥ (यस्य देशस्य नक्षत्र) जिस देश के नक्षत्र (यदा यदा न पीडयन्ते) जिस-जिस देश को पीड़ा नहीं देते है (तं देशं भिक्षव: स्फीताः) उस देश के साधु लोग (संश्रयेयुस्तदा तदा) तब-तब आश्रय ले लेवे। भावार्थ-जिस भी देश का ग्रह पीड़ित नहीं करता हो उसी देश का साधुजन आश्रय ले लेवे॥४९॥ धान्यं वस्त्रमिति ज्ञेयं तस्यार्थं च शुभाशुभम्। ग्रह नक्षत्र संप्रत्य कथितं भद्रबाहुना ।। ५०॥ (ग्रह नक्षत्र संप्रत्य) ग्रह नक्षत्रों के (शुभाशुभम्) शुभाशुभ योग से (धान्यं वस्त्रमिति) धान्य वस्त्रादिक के भाव (ज्ञेयं) जानना चाहिये (कथितं भद्रबाहुना) भद्रबाहु स्वामी ने ऐसा कहा है। ___ भावार्थ-ग्रह नक्षत्र के शुभाशुभ को जानकर भद्रबाहु स्वामी ने धान्य और वस्त्रों की तेजी मन्दी कही है उसी प्रकार जानना चाहिये॥५०॥ विशेष—अब इस अध्याय में वस्तुओं के तेजी मन्दी का वर्णन आचार्य करते है, समस्त तेजी मन्दी नक्षत्र और ग्रहोंके शुभाशुभ पर निर्भर है प्रात: उठते ही ग्रह और नक्षत्रों को देखे। ग्रह और नक्षत्र को देखनेपर ज्योतिषी को गेहूँ, चना, उडद, मूंग आदि धान्य, सोना, चाँदी आदि धातुएँ, वस्त्रादिक और चावल, दूध, मधु, कंगुनी आदि घी, तेलादि, पुष्पादिक के भाव तेजी मन्दी मालूम पड़ते है। Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चविंशतितमोऽध्यायः आचार्य श्री तेजी मन्दी जानने के अनेक उपाय बताये हैं, ग्रहों की स्थिति उनका मार्ग होना या वक्री होना तथा उनको ध्रुव पर से तेजी मन्दी का ज्ञान करना आदि प्रक्रियाएँ प्रचलित हैं। बारह महीनों की तिथि, वार, नक्षत्र के सम्बन्ध में भी तेजी, मन्दी का विचार वर्ष प्रबोध नामक ग्रन्थ में विस्तार से किया गया है। तेजी मन्दी को जानने के लिये बारहपूर्णमाप्सियों पर विचार करे। भौम ग्रह की स्थिति के अनुसार विचार करे इसी तरह गुरु आदि ग्रहों के अनुसार अवश्य विचार करे। पंचवारों के अनुसार भी तेजी मन्दी ज्ञात होती है। संक्रान्ति के अनुसार भी जानकर तेजी मन्दी को कहे। उदाहरण-संक्रान्ति का जिस दिन प्रवेश हो उस दिन जो नक्षत्र हो उसकी संख्या में तिथि और वार की संख्या जो उस दिन की हो उसे मिला देना चाहिये। इसमें जिस अनाज की तेजी मन्दी जाननी हो उसके नाम के अक्षर की संख्या मिला दे जो योग फल हो उसमें तीन का भाग देने से एक शेष बचे तो वह अनाज उस संक्रान्ति के मासमें मन्दा बिकेगा। दो शेष बचे तो समान भाव रहेगा, शून्य बचे तो अनाज महँगा होगा। आगे डॉ. नेमीचन्द जी आरा वालों ने बहुत परिश्रम करके इस विषय पर विशेष प्रभाव डाला है तेजी मन्दी जानने वाले यह विवेचन अवश्य देखे इसको देखने पर भद्रबाहु स्वामी का विचार पूर्ण रूप से समझ में आ जायगा, वैसे मैंने बहुत कुछ खुलासा किया है। तेजी मन्दी को जानने के लिये व्यवसायी लोग तेजी-मन्दी निकालने की जो रीति, नीति, क्रम, गुणित आदि बताया है उस के अनुसार उस कम को जानकर तेजी-मन्दी निकाले, अवश्य लाभ होगा। लेकिन पूरा इस विषय का विशेषज्ञ होना चाहिये, जानकारी के बिना चक्कर में पड़ गया तो हानि उठानी पड़ती है। इत्यादि। विवेचन तेजी-मन्दी जाननेके अनेक नियम हैं। ग्रहोंकी स्थिति, उनका मार्गी होना या वक्री होना तथा उनकी ध्रुवओं परसे तेजी-मन्दका ज्ञान करना, आदि प्रक्रियाएँ प्रचलित हैं। इस संहिता ग्रन्थमें ग्रहोंकी स्थिति परसे वस्तुओं की तेजी-मन्दीका साधारण विचार किया गया है। बारह महीनों की तिथि, वार, नक्षत्रके सम्बन्धमें Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | ६८८ भी तेजी-मन्दीका विचार वर्ष प्रबोध' नामक ग्रन्थमें विस्तारसे किया गया है। यहाँ संक्षेप में कुछ प्रमुख योर्गोका निरूपण किया जायगा। द्वादश पूर्णमासियों का विचार-चैत्रकी पूर्णमासीको निर्मल आकाश हो तो किसी भी वस्तुसे लाभकी सम्भावना नहीं रहती है। यदि इस दिन ग्रहण, भूकम्प, विद्युत्पात, उल्कापात केतूदय और वृष्टि हो तो धान्यका संग्रह करना चाहिए। गेहूँ, जौ, चना, उड़द, मूंग, सोना, चाँदी आदि पदार्थोंक इस पूर्णिमाके सातवें महीनेके उपरान्त लाभ होता है। वैशाखी पूर्णिमाको आकाशके स्वच्छ रहने पर सभी वस्तुएँ तीन महीनों तक सस्ती होती हैं। गेहूँ, चना, वस्त्र, सोना आदिका भाव प्रायः सम रहता है। बाजारमें अधिक घटा-बढ़ी नहीं होती। यदि इस पूर्णिमाको चन्द्रपरिवेष, उल्कापात, विद्युत्पात, भूकम्प, वृष्टि, केतूदय या अन्य किसी भी प्रकारका उत्पात दिखलाई पड़े तो धान्यके साथ कपास, वस्त्र, रूई आदि पदार्थ तेज होते हैं। जूटका भाव भी ऊँचा उठता है। गेहूँ, मूंग, उड़द, चनाका संग्रह भाद्रपद मासमें ही लाभ देता है। सभी प्रकारके अन्नोंका संग्रह लाभ देता है। चावल, जौ, अरहर, कांगुनी, कोंदो, मक्का आदि अनाजोंमें दुगुना लाभ होता है। सोना, चाँदी, माणिक्य, मोती इन पदार्थों का मूल्य कुछ नीचे गिर जाता है। वैशाखी पूर्णिमाकी मध्यरात्रिमें जोरसे बिजली चमके और थोड़ी-सी वर्षा होकर बन्द हो जाय तो आगामी माघ मासमें गुड़के व्यापारमें अच्छा लाभ होता है। अनाजके संग्रहमें भी लाभ होता है। इस पूर्णिमाके प्रात:काल सूर्योदय के समय बादल दिखलाई पड़ें तथा आकाशमें अन्धकार दिखलाई पड़े तो अगहन महीनेमें घी और अनाजमें अच्छा लाभ होता है। यों तो सभी महीनोंमें उक्त पदार्थों में लाभ होता है, किन्तु घी, अनाज और गुड़-चीनीमें अच्छा लाभ होता है। वैशाखी पूर्णिमाको स्वाति नक्षत्रका चतुर्थ चरण हो तथा शनिवार या रविवार हो तो उस वर्षमें व्यापारियोंको लाभ के साथ हानि भी होती है। बाजारमें अनेक प्रकारकी घटा-बढ़ी चलती है। ज्येष्ठ पूर्णिमाको आकाश स्वच्छ हो, बादलोंका अभाव रहे, निर्मल चाँदनी वर्तमान में रहे तो सुभिक्ष होता है, साथ ही अनाजमें साधारण लाभ होता है। बाजार सन्तुलित रहता है, न अधिक ऊँचा ही जाता है और न नीचा ही। जो व्यक्ति ज्येष्ठ पूर्णिमाकी उक्त स्थितिमें धान्य, गुड़का संग्रह करता है, वह भाद्रपद और आश्विनीमें लाभ उठाता है। गेहूँ, चना, Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चविंशतितमोऽध्यायः | जौ, तिलहन्में पौषके महीनेमें अधिक लाभ होता है। यदि इस पूर्णिमाको दिनमें मेघ, वर्षा हो और रातमें आकाश स्वच्छ रहे तो व्यापारियोंको साधारण लाभ होता है तथा मार्गशीर्ष, मघा और फाल्गुनमें वस्तुओंमें हानि होनेकी सम्भावना होती है। रातमें इस तिथिको बिजली गिरे, उल्कापात हो, भूकम्प हो, चन्द्रका परिवेष दिखलाई पड़े, इन्द्र धनुष लाल या काले रंगका दिखलाई पड़े तो अनाजका संग्रह अवश्य करना चाहिए। इस प्रकारकी स्थितिमें अनाजमें कई गुना लाभ होता है। सोना, चाँदीके मूल्यमें साधारण तेजी आती है। ज्येष्ठी पूर्णिमाको मध्यरात्रिमें चन्द्रपरिवेष उदास-सा दिखलाई पड़े और शृगाल रह-रहकर बोलें तो अनसंग्रह की सूचना समझना चाहिए। चारेका भाव भी तेज हो जाता है और प्रत्येक वस्तुमें लाभ होता है। घी का भाव कुछ सस्ता होता है तथा तेलकी कीमत भी सस्ती होती है। अगहन और पौष मासमें सभी पदार्थों में लाभ होता है। फाल्गुनका महीना भी लाभके लिए उत्तम है। यदि ज्येष्ठी पूर्णिमाको चन्द्रोदय या चन्द्रास्त के साथ उल्कापात हो और आकाशमें अनेक रंग-बिरंगी ताराएँ चमकती हुई भूमि पर गिरें तो सभी प्रकारके अनाजोंमें तीन महीनेके उपरान्त लाभ होता है। तौबा, पीतल, कौंसा आदि धातुओं और मशालेमें कुछ घाटा भी होता है। आषाढ़ी पूर्णिमाको आकाश निर्मल और उज्ज्वल चाँदनी दिखलाई पड़े तो सभी प्रकारके अनाज पाँच महीनेके भीतर तेज होते हैं। कार्तिक महीनेसे ही अनाजमें लाभ होना प्रारम्भ हो जाता है। सोनेका भाव माघके महीनसे महंगा होताहै। सट्टेके व्यापारियोंको साधारण लाभ होता है। सूत, कपड़ा और जूटके व्यापारमें लाभ होता है; किन्तु इन वस्तुओंका व्यापार अस्थिर रहता है, जिससे हानि होनेकी भी सम्भावना रहती है। यदि आषाढ़ी पूर्णिमाको मध्य रात्रिके पश्चात् आकाश लगातार निर्मल रहे तथा मध्य रात्रिके पहले आकाश मेघाच्छन्न रहे तो चैती फसलके अनाजमें लाभ होता है। अगहनी और भदई फसलके अनाजमें लाभ नहीं होता । साधारणतया वस्तुओंके भाव ऊँचे होते हैं। घी, गुड़, तेल, चाँदी, बारदाना, गुवार, मटर आदि वस्तुओंका रूख भी तेजीकी ओर रहता है। शेयरके बाजारमें भी हीनादिक-घटा-बढ़ी होती है। लोहा, रबर एवं इन पदार्थोंसे बनी वस्तुओंके व्यापारमें लाभ होनेकी सम्भावना अधिक रहती है। यदि आषाढ़ी पूर्णिमाको दिन भर वर्षा हो और रातमें चाँदनी Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावाहु सहिता न निकले, बूंदा-बूंदी होती हो तो अनाजमें लाभ होनेकी सम्भावना नहीं होती है। केवल सोना, चाँदी और गुड़के व्यापारमें अच्छा लाभ होता है। गुड़, चीनीमें कई गुना लाभ होता है। यदि इसी पूर्णिमाको बुध वक्री हुआ हो तो छ: महीने तक सभी पदार्थोंमें तेजी रहती है। जो पदार्थ विदेशोंसे आते हैं, उनका भाव अधिक तेज होता है। स्थानीय उत्पन्न पदार्थोंका भाव अधिक तेज होता है। श्रावणी पूर्णिमाको आकाश निर्मल हो तो सभी वस्तुओंमें अच्छा लाभ होता है। यदि इस दिन स्वच्छ चाँदनी आकाशमें व्याप्त दिखलाई पड़ें तो नाना प्रकारके रोग फैलते हैं, तथा लाल रंगकी सभी वस्तुओंमें तेजी आती है। गेहूँ और चावलकी कमी रहती है। जिस स्थान पर श्रावणके दिन चन्द्रमा स्वच्छ तथा काले छेदवाला दिखलाई पड़े, उस स्थानमें दुर्भिक्षके साथ खाद्यान्नकी बड़ी भारी कमी हो जाती है, जिससे सभी व्यक्तियोंको कष्ट होता है। लोहा, चाँदी, नीलम आदि बहुमूल्य पदार्थोंका भाव भी तेज होता है। भाद्रपद मासकी पूर्णिमा निर्मल होने पर धान्यका संग्रह नहीं करना चाहिए। यदि यह पूर्णिमा चन्द्रोदयसे लेकर चन्द्रास्त तक निर्मल रहे तो धान्यमें लाभ नहीं होता है तथा खाद्यान्नोंकी कमी भी नहीं रहती है। सोना, चाँदी, शेयर, चीनी, गुड़, घी, किराना, वस्त्र, जूट, कपास आदि पदार्थ समर्घ रहते हैं। इन पदार्थों के भावोंमें अधिक ऊँच-नीच नहीं होती है। घटा-बढ़ीका कारण शनि, शुक्र और मंगल हैं, यदि इस पूर्णिमाके नक्षत्रको इन तीनों ग्रहों द्वारा बेधा जाता हो, या दो ग्रहों द्वारा बेधा जाता हो तो सभी पदार्थ महँगे होते हैं। अधिक क्या मिट्टीका भाव भी महँगा होता है। जिन पदार्थों की उत्पत्ति मशीनोंके द्वारा होती है, उन पदार्थोंमें कार्तिक मास से महँगाई होना आरम्भ होता है। आश्विन पूर्णिमाके दिन आकाश स्वच्छ, निर्मल हो तो धान्यका संग्रह करना अनुचित है; क्योंकि वस्तुओंमें लाभ होनेकी सम्भावना ही नहीं होती है। आकाशमें मेघ आच्छादित हों तो अवश्य संग्रह करना चाहिए; क्योंकि इस खरीदमें चैत्रके महीने में लाभ होता है। कार्तिक पूर्णिमाको मेघाच्छन्न होने पर अनाजमें लाभ होता है। चीनी, गुड़ और घी में हानि होती है। यदि यह पूर्णिमा निर्मल हो तो सामान्य तथा सभी वस्तुओं का भाव स्थिर रहता है। व्यापारियोंको न अधिक लाभ ही होता है और न अधिक घाटा ही। मार्गशीर्ष और पौषकी पूर्णिमाका फलादेश भी उपर्युक्त कार्तिका पूर्णिमाके तुल्य है। माघ पूर्णिमाको बादल हों तो Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ¦ 1 ६९१ पञ्चविंशतितमोऽध्यायः धान्य खरीदने से सातवें महीनेमें लाभ होता है और फाल्गुनी पूर्णिमाको बादल हों, वर्षा हो, उल्कापात या विद्युत्पात हो तो धान्य में सातवें महीनमें अच्छा लाभ होता है। घी, चीनी, गुड़, कपास, रूई, जूट, सन और पाटके व्यापारमें लाभ होता है। माम और फाल्गुनी इन दोनों पूर्णिमाओंके स्वच्छ होने पर सोनेके व्यापारमें लाभ होता है। भौम ग्रह की स्थिति के अनुसार तेजी-मन्दी का विचार — जब मंगल मार्गी होता है, तब रूई मन्दी होती है। मेष राशिका मंगल मार्गी हो तो मवेशी सस्ते होते हैं। वृषका मंगल मार्गी हो तो रूई तेज होकर मन्दी होती है। तथा चाँदीमें घटा-बढ़ी होती है। मिथुन और कर्क राशिके मार्ग मंगलका फल तेज-मन्दीके लिए नहीं है। सिंहका मंगल मार्गी होने पर एक मास तक अलसी और गेहूँमें तेजी रहती है। कन्याका मंगल मार्गी हो तो रूई, अलसी, गेहूँ, तेल, तिलहन आदि पदार्थ तेज होकर मन्दे होते हैं। तुलाका मंगल मार्गी होनेपर गुजरात और कच्छ में धान्य भावको महँगा करता है; वृश्चिक का मंगल मार्गी होनेपर चौपायोंमें लाभ करता है । धनुका मंगल मार्गी होनेपर धान्य सस्ता करता है। मकरका मंगल मार्गी हो तो पंजाब तथा बंगालमें धान्यका भाव तेज होता है। कुम्भका मगंल मार्गी होनेपर सभी प्रकारके धान्य सस्ते होते हैं और मीनके मंगलमें भी धान्यका भाव सस्ता ही रहता है। मेष और वृश्चिकके बीच राशियोंमें मंगलके रहने पर दो मास तक धान्य भाव तेज रहता है। जिस महीनमें सभी ग्रह वक्री हो जावें, उस मासमें अति महँगी होती है। मीनमें मंगलके वक्री होने पर धान्य और घी तेज; कुम्भमें वक्री होने पर धान्य सस्ते और घी, तेल आदि तेज; मकरमें मंगलके वक्री होनेसे लोहा, मशीनरी, विद्युतयन्त्र, गेहूँ, अलसी आदि पदार्थ तेज होते हैं। कर्क राशिमें मंगलके वक्री होनेसे गेहूँ और अलसीमें घटा-बढ़ी होती रहती है। जिस राशिमें मंगल वक्री होता है, उस राशिके धान्यादि अवश्य तेज होते हैं। माघ अथवा फाल्गुन कृष्णपक्षकी १, २, ३ तिथिको मंगलके वक्री होने पर अन्नका संग्रह करना चाहिए । इस संग्रहमें १५ दिनोंके बाद ही चौगुना लाभ होता है। जिस मासमें पूर्णिमाके दिन वर्षा होती है, उस मासमें गेहूँ, घी और धान्य तेज होते हैं। बुध ग्रह की स्थिति से तेजी-मन्दी विचार — मेष राशिमें बुधके रहने से Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता सोना महँगा होता है। १७ दिनमें गाय, बैल आदि पशुओंकी हानि होती है। मोती, जवाहरात भी तेज होते हैं। वृष राशिके बुध सभी वस्तुओंमें साधारण घटा-बढ़ी, मिथुन राशिके बुध सभी प्रकारके अनाज सस्ते; कर्कके बुधमें अफीम का भाव तेज होता है। सिंह राशिके बुधमें धान्यका भाव सम रहता है, खट्टे पदार्थ, देवदारु तेज होते हैं और १८ दिनमें सूत, वस्त्र, रेल्वेके स्लीपपाट, साधारण लकड़ीका भाव तेज रहता है। कन्याराशिमें बुधके रहनेसे छ: महीने तक सोना, चीनी तेज होते हैं, पश्चात् खन्टे हो नते हैं। दुलाराशिके बुधमें धान्य महंगे, वृश्चिकराशिके बुधमें चौपाए और अफीम महँगी, धनुके बुधमें अफीम महँगी, मकरके बुधमें समभाव, कुम्भके बुधमें धान्य में घटा-बढ़ी और मीनके बुधमें रूई, अलसी, मैथी, लौंग भी तेज होती है। फाल्गुन और आषाढ़ इन महीनोंमें बुधका उदय होनेसे धान्य, घी और लाल पदार्थ महंगे होते हैं। पूर्वमें बुद्धोदय होने पर २५ दिनके बाद रूईमें १०/- रुपयेकी तेजी आती है और पश्चिममें बुधोदय होने पर रूई, कपास, सूत आदिमें सस्ती आती है। मार्गशीर्षमें बुधोदय हो तो रूई तेज होती हैं। पूर्व दिशामें बुधका अस्त होनेसे ३३ दिनोंमें धान्य, घृतादि मन्दे होते हैं किन्तु रूईमें १५ रुपये की तेजी आती है। पश्चिममें बुधके अस्त होनेसे १५ दिनमें रूई १०/- रुपये तक सस्ती होती है। मेष राशिसे लेकर सिंह राशि तक बुधके मार्गी होनेसे कपड़ा, चावल, हाथी, घोड़ा आदि पदार्थ सस्ते होते हैं। कन्या और तुला में बुद्ध के मार्गी होने से चन्दन, सूत, घृत, चीनी, अलसी आदि पदार्थ महंगे होते हैं। वृश्चिकमें बुधके मार्गी होनेसे एरण्ड, बिनौला और मूंगफली तेज हो जायगी। कुम्भ और मीनमें बुधके मार्गी होनेसे सोना, सुपारी, सरसों, सौंठ, लाख, कपड़ा, गुड़, खाण्ड, तेल और मूंगफली आदि पदार्थ तेज होते हैं। गुरु की स्थिति का फलादेश-वृषराशिमें गुरुके रहनेसे घी और धान्यका भाव अत्यन्त तेज होता है। मिथुनराशिमें गुरुके रहनेसे रूई, तांबा, चाँदी, नारियल, तेल, घृत, अफीम पदार्थ पहले तेज, पश्चात् मन्दे होते हैं। कर्कराशिमें गुरुके रहनेसे सभी पदार्थ महंगे होते हैं। सिंहमें बृहस्पतिके रहनेसे गेहूँ, घी तेज और कन्यामें रहनेसे ज्वार, मूंग, मोठ, चावल, घृत, तेल, सिंघाड़ा छ: महीनेके बाद तेज, रूई तीन-चार महीनोंमें तेज या चाँदी मन्द होती है। वृश्चिक राशिके गुरुमें सभी वस्तुएँ Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चविंशतितमोऽध्यायः तेज होती हैं। धनुराशि के गुरु में गेहूँ, चावल, जौ आदि अन्न महंगे; तेल, गुड़, मद्य सस्ते होते हैं। मकर राशिमें गुरुके रहनेसे तीन महीने महँगी पश्चात् मन्दी आती है। मीन राशिके गुरुमें सभी वस्तुएँ तेज होती हैं। गुरुके अस्त होनेके ३१ दिन बाद रूईमें १०-२० रुपयेकी मन्दी आती है। फाल्गुन मासमें गुरु अस्त हो तो धान्य तेज और रूईमें १०-२० रुपयेकी मन्दी आती है। गुरुके वक्री होनेपर सुभिक्ष, धान्य भाव सस्ता, धातु, रूई, केशर, कपूर आदि पदार्थ सस्ते होते हैं। गुरुके मार्गी होनेसे ढाँदी, सरसों, गाई, साज ही में नितर घटा-बढ़ी होती रहती है। शुक्र की स्थिति का फलादेश-मेषके शुक्रमें सभी धान्य महँगे, वृषके शुक्रमें अनाज महंगा, रूई मन्दी और अफीम तेज, मिथुनके शुक्रमें रूई मन्दी, अफीम तेज, कर्कके शुक्रमें सभी वस्तुएँ महँगी, रूईका भाव विशेष तेज, सिंहके शुक्रमें लाल रंगके पदार्थ महँगे, कन्याके शुक्रमें सभी धान्य महँगे, तुलाके शुक्रमें अफीम तेज, वृश्चिकके शुक्रमें अनाज सस्ता, धनुके शुक्रमें धान्य महंगे, मकरके शुक्रमें २० दिनमें सभी अन्न महँगे, कुम्भ एवं मीनके शुक्रमें सभी अनाज सस्ते होते हैं। सिंहका शुक्र, तुलाका मंगल, कर्कका गुरु जब आता है, तब अन्न महँगा होता है। शुक्र उदय दिन नक्षत्रानुसार फल-अश्विनी में जौ, तिल, उड़द का भाव तेज हो। भरणी में शुक्र का उदय होने से तृण, धान्य, तिल, उड़द, चावल, गेहूँ का भाव तेज होता है। कृत्तिका में शुक्र उदय होने से सभी प्रकार के अन सस्ते होते हैं। रोहिणी में समर्घता, मृगशिरा में धान्य महंगे, आर्द्रा में अल्पवृष्टि होने से महँगाई, पुनर्वसु में अन्न का भाव महँगा, पुष्य में धान्यभाव अत्यन्त महँगा तथा आश्लेषा से अनुराधा नक्षत्र तक शुक्र के उदय होने से तृण, अन्न, काष्ठ, चतुष्पद आदि सभी पदार्थ महंगे होते हैं। शुक्र और शनि जब दोनों एक राशि पर अस्त हों तो सब अनाज तेज होते हैं। शुक्र वक्री हों तो सभी अनाज मन्दा, घृत, तेल तेज होते हैं। शुक्र के मार्गी होने पर ५ दिनों के उपरान्त सोना, चाँदी, मोती, जवाहरात आदि महँगे होते शनि का फलादेश-शनिके उदयके तीन दिन बाद रूई तेज होती है। मूंग, मशाले, चावल, गेहूँके भावोंमें घटा-बढ़ी होती रहती है। अश्विनी और भरणी Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | नक्षत्रमें शनि वक्री हो तो एक वर्ष तक पीड़ा; धान्य और चौपायोंका मूल्य बढ़ जाता है। मघा पर वक्री होकर आश्लेषा पर जब गुरु आता है तो गेहूँ, घृत, शाल, प्रबाल तेज होते हैं। ज्येष्ठा पर वक्री होकर अनुराधा पर शनि आता है तो सब वस्तुएं तेज होती हैं। उत्तराषाढ़ा पर वक्री होकर पूर्वाषाढ़ा पर आता है तो सभी वस्तुओंमें अत्यधिक घटा-बढ़ी होती है। गुरु और शनि दोनों एक साथ वक्री हों तो और शनि १०।११ राशि का हो तो गेहूँ, तिल, तेल आदि पदार्थ ९ महीने तक तेज होते हैं। शनिके वक्री होनेके तीन महीने उपरान्त गेहूँ, चावल, मूंग, ज्वार, धान्य, खजूर, जायफल, घी, हल्दी, नील, धनियाँ, जीरा, मेंथी, अफीम, घोड़ा आदि पदार्थ तेज और सोना, चाँदी, मणि, माणिक्य आदि पदार्थ मन्दे एवं नारियल, सुपाड़ी, लवंग, तिल, तेल आदि पदाम घटा-बढ़ी होती रहती है। शनि मार्गी हो तो दो मासमें तेल, हींग, मिर्च, मशाले तेज और अफीम, रूई, सूत, वस्त्र आदि पदार्थों को मन्द करता है। शनि कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य और आश्लेषा नक्षत्र में वक्री हो तो सभी वस्तुएं महंगी होती है। • तेजी-मन्दीके लिए उपयोगी पंचवारका फल-जिस महीनेमें पाँच रविवार हों उस महीनेमें राज्यभय, महामारी, अलसी-सोना आदि पदार्थ तेज होते हैं। किसी भी महीने में पाँच सोमवार होनेसे सम्पूर्ण पदार्थ मन्दे, घृत-तेल-धान्य के भाव मन्दे रहते हैं। पाँच मंगलवार होनेसे अग्नि-भय, वर्षाका निरोध, अफीम मन्दा तथा धान्यभाव घटता-बढ़ता रहता है। पाँच बुधवार होनेसे घी, गुड़, खाण्ड आदि रस तेज होते हैं; रूई चाँदी घट-बढ़कर अन्तमें तेज होती है। पाँच गुरुवार होनेसे सोना, पीतल, सूत, कपड़ा, चावल, चीनी आदि पदार्थ मन्द होते हैं। पाँच शुक्रवार होनेसे प्रजाकी वृद्धि, धान्य मन्दा, लोग सुखी तथा अन्य भोग्य पदार्थ सस्ते होते हैं। पाँच शनिवार होने से उपद्रव, अग्निभय, अफीम की मन्दी, धान्यभाव अस्थिर और तेल महँगा होता है। लोहे का भाव पाँच शनिवार होने से महँगा तथा अस्त्र-शस्त्र, मशीन के कल-पुर्जी का भाव पाँच मंगल और पाँच गुरु होने से महँगा होता है। संक्रान्ति के वारो का फल-विवारको संक्रान्तिका प्रवेश हो तो राजविग्रह, अनाज महंगा, तेल, घी आदि पदार्थों का संग्रह करनेसे लाभ होता है। सोमवारको संक्रान्ति प्रवेश हो तो अनाज महँगा, प्रजाको सुख; घृत, तेल, गुड़, चीनी आदि Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्मदितितो पदार्थों के संग्रहमें तीसरे महीने लाभ होता है। मंगलवारको संक्रान्ति प्रवेश करे तो घी, तेल, धान्य आदि पदार्थ तेज होते हैं। लाल वस्तुओंमें अधिक तेजी आदि आती है तथा सभी वस्तुओंके संग्रहमें दूसरे महीनेमें लाभ होता है। बुधवारको संक्रान्तिका प्रवेश होनेपर श्वेत वस्त्र, श्वेत रंगके अन्य पदार्थ महंगे तथा नील, लाल और श्याम रंगके पदार्थ दूसरे महीनेमें लाभप्रद होते हैं। गुरुवारको संक्रान्तिका प्रवेश हो तो प्रजा सुखी, धान्य सस्ते; गुड़, खाण्ड आदि मधुर पदार्थोंमें दो महीने के उपरान्त लाभ होता है। शुक्रवारको संक्रान्ति प्रविष्ट हो तो सभी वस्तुएँ सस्ती, लोग सुखी-सम्पन्न, अन्नकी अत्यधिक गति, पीली वस्तुएँ, श्वेत वस्त्र तेज होते हैं और तेल, गुड़के संग्रहमें चौथे मासमें लाभ होता है। शनिवारको संक्रान्तिके प्रविष्ट होनेसे धान्य तेज, प्रजा दुःखी, राजविरोध, पशुओंको पीड़ा, अन्न नाश तथा अत्रका भाव भी तेज होता है। जिस वार के दिन संक्रान्ति का प्रवेश हो, उसी वार को उस मास में अमावस्या हो, तो खर्पर योग होता है। यह जीवों का और धान्य का नाश करने वाला होता है। इस योग में अनाज में घटा-बढ़ी चलती है, जिससे व्यापारियों को भी लाभ नहीं हो पाता। पहले संक्रान्ति शनिवारको प्रविष्ट हुई हो, इससे आगेवाली दुसरी संक्रान्ति रविवारको प्रविष्ट हुई हो और तीसरी आगेवाली मंगलवारको प्रविष्ट हो तो खर्पर योग होता है। यह योग अत्यन्त कष्ट देनेवाला है। ___ मकर संक्रान्तिका फल-पौष महीनेमें मकर संक्रान्ति रविवारको प्रविष्ट हो तो धान्यका मूल्य गुना होता है। शनिवारको हो तो तिगुना, मंगलके दिन प्रविष्ट हो तो चौगुना धान्यका मूल्य होता है। बुध और शुक्रवारको प्रविष्ट होने से समान भाव' और गुरु तथा सोमवारको हो तो आधा भाव होता है। शनि, रवि और मंगलके दिन मकर संक्रान्तिका प्रवेश हो तो अनाजका भाव तेज होता है। यदि मेष और कर्क संक्रान्तिका रवि, मंगल और शनिवारको प्रवेश हो तो अनाज महँगा, ईति-भीति आदिका आतंक रहता है। कार्तिक तथा मार्गशीर्षकी संक्रान्तिके दिन जलवृष्टि हो तो पौषमें अनाज सस्ता होता है तथा फसल मध्यम होती है। कर्क अथवा मकर संक्रान्ति शनि, रवि और मंगलवारकी हो तो भूकम्पका Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ६९६ योग होता है। प्रथम संक्रान्ति प्रवेशके नक्षत्रमें दूसरी संक्रान्ति प्रवेशका नक्षत्र दूसरा या तीसरा हो तो अनाज सस्ता होता है। चौथे या पाँचवें पर प्रवेश हो तो धान्य तेज एवं छठवें नक्षत्रमें प्रवेश हो तो दुष्काल होता है। संक्रान्ति से गणित द्वारा तेजी-मन्दीका परिज्ञान--संक्रान्ति जिस दिन प्रवेश हो उस दिन जो नक्षत्र हो उसकी संख्या तिथि और वारकी संख्या जो उस दिनकी हो, उसे मिला देना चाहिए। इसमें जिस अनाजकी तेजी-मन्दी जाननी हो उसके नामके अक्षरकी संख्या मिला देना। जो योगफल हो उसमें तीनका भाग देनेसे एक शेष बचे तो वह अनाज उस संकान्तिके मासमें मन्दा बिकेगा, दो शेष बचे तो समान भाव रहेगा और शून्य शेष बचे तो वह अनाज महंगा होगा। संक्रान्ति जिस प्रहरमें जैसी हो, उसके अनुसार सुख-दुःख, लाभालाभ आदिकी जानकारी निम्न चक्र द्वारा करनी चाहिए। वारानुसार संक्रान्ति फलाववोधक चक्र | वार | नक्षत्र | नाम फल | काल । फल | दिशा । रवि उग्र धोरा शोको सुख विोंको सुख पूर्व सोम | क्षिप्र | ध्वांक्षी वैश्योंको सुख वैश्योंको सुख दक्षिण कोण भंगल महोदरी चोरोंको सुख अपराक शूद्रोंको मुख पश्चिम कोण बुध । मैत्र मंदाकिनी राजाओंको सुख प्रदोष पिशाचोंको सुख दक्षिण ध्रुव | नन्दा | हिजगणोंको सुख अर्द्धरात्रि राक्षसोंको सुख | उत्तर कोण मिश्र | पशुओंको सुख अपररात्रि | नटादिको सुख | पूर्व कोण दारुण राक्षसी | चाण्डालोंको सुख । प्रत्युषकाल पशुपालकों को | उत्तर सुख वार पूर्वाह्न मध्याह मिश्रा ध्रुव-चर-उन-मिश्र-लघु-मृदु-तीक्ष्ण संज्ञक नक्षत्र-उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद और रोहिणी ध्रुव संज्ञक, वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा चर या चल संज्ञक, विशाखा और कृत्तिका मिश्र संज्ञक, हस्त, अश्विनी, पुष्य और अभिजित् क्षिप्र या लघु संज्ञक, मृगशिर, रेवती, चित्रा और अनुराधा Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चविंशतितमोऽध्यायः | मृदु या मैत्र संज्ञक एवं मूल, ज्येष्ठा, आर्द्रा और आश्लेषा तीक्ष्ण या दारुण संज्ञक . अधोमुख संज्ञक-मूल, आश्लेषा, विशाखा, कृत्तिका, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, भरणी और मघा अधोमुख संज्ञक हैं। ऊर्ध्वमुख संज्ञक—आर्द्रा, पुष्य, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा ऊर्ध्वमुख संज्ञक हैं। तिर्यङ् मुख संज्ञक अनुराधा, हस्त, स्वाति, पुनर्वसु, ज्येष्ठा और अश्विनी तिर्यङ्मुख संज्ञक है। दग्ध संज्ञक नक्षत्र-रविवारको भरणी, सोमवारको चित्रा, मंगलवारको उत्तराषाढ़ा, बुधवारको धनिष्ठा, बृहस्पतिको उत्तराफाल्गुनी, शुक्रवारको ज्येष्ठा और शनिवारको रेवती दग्ध संज्ञक है। मास शून्य नक्षत्र–चैत्रमें रोहिणी और अश्विनी, वैशाखमें चित्रा और स्वाति, ज्येष्ठमें उत्तराषाढ़ा और पुष्य, आषाढ़में पूर्वाफाल्गुनी और धनिष्ठा, श्रावणमें उत्तराषाढ़ा और श्रवण, भाद्रपदमें शतभिषा और रेवती, आश्विनमें पूर्वाभाद्रपद, कात्तिकमें कृत्तिका और मघा, मार्गशीर्ष में चित्रा और विशाखा, पौषमें आर्द्रा, अश्विनी और हस्त, माघमें श्रवण और मूल एवं फाल्गुनमें भरणी और ज्येष्ठा शून्य नक्षत्र हैं। ___ संक्रान्ति प्रवेशके दिन नक्षत्रका स्वभाव और संज्ञा अवगत करके वस्तुकी तेज-मन्दी जाननी चाहिए। यदि संक्रान्तिका प्रवेश तीक्ष्ण, दग्ध या उग्र संज्ञक नक्षत्रमें होता है, तो सभी वस्तुओंकी तेजी समझनी चाहिए। मृदु और ध्रुव संज्ञक नक्षत्रों में संक्रान्तिका प्रवेश होनेसे समानभाव रहता है। दारुण संज्ञक नक्षत्रमें संक्रान्तिका प्रवेश होनेसे खाद्यानोंका अभाव रहता है, सभी अन्य उपभोगकी वस्तुएँ भी उपलब्ध नहीं हो पाती। Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता || ६१८ संक्रान्तिवाहनफलबोधक चक्र करण बब बालब कौलब तैतलि गर वणिज विष्टि शकुनि चतुष्पद नाग किंस्तुघ्न स्थिति बैठी बैठी खड़ी सोती बैठी खड़ी बैठी सोती खड़ी सोती खड़ी फल मध्यम मध्यम मर्घ समर्घ मध्यम समर्घ महर्घ महर्घ समर्घ समर्घ महर्ष वाहन सिंह व्याघ्र वराह गर्दभ हस्ती महिषर्षी घोड़ा कुत्ता मेंढा बैल कुक्कुट उप गज अश्व बैल मेंढा गर्दभ ऊंट सिंह शार्दूल महिष व्याघ्र वानर वाहन फल भय भय पीडा सुभिक्ष लक्ष्मी क्लेश स्थैर्य सुभिक्ष क्लेश स्थैर्य मृत्यु वस्त्र श्वेत पीत हरित पाण्डु रक्त श्याम काला चित्र कम्बल नग्न घनवर्ण आयुध भुशुंडी गदा खत दण्ड धनुष तोमर कुन्त पाश अंकुश तलवार बाण पात्र सुवर्ण रूपा ताम्र कांस्य लोह तीकर पत्र वस्त्र कर भूमि काष्ठ । भक्षय अन्न पायस भक्ष्य पक्वान्न पय दधि चिन्नान्न गुड़ मधुर घृत शर्करा लेपन कस्तूरी कुकुक चन्दन माटी गोरोचन आंवला हल्दी सूरमा सिन्दूर अगर कपूर वर्ण देव भूत सर्प पशु मृग विप्र क्षत्री वैश्य शूद्र मिश्र अंत्यज पुष्प पुनाग जातो बकुल केतकी बेल अर्क कमल दुर्वा मल्लिका पाटल जपा भूषण नुपुर कंकण मोती मुंगा मुकुट मणि गुंजा कौड़ी कीलक पुनाग सुवर्ण कंचुकी विचित्र पर्ण हरित भूर्जपत्र पीत शां. श्वेत नील कृष्ण अञ्जन वल्कल पाण्डुर वय बाला कुमारी गतालका युवा प्रौढ़ा प्रगल्भा वृद्धा बन्ध्या अति पुत्रवती सेन्या संक्रान्ति जिस वाहन पर रहती है, जो वस्तु धारण करती है, जिस वस्तुका भक्षण करती है, उस वस्तुकी कमी होती है तथा वह वस्तु महँगी भी होती है। अत: संक्रान्ति के वाहनचक्रसे भी वस्तुओंकी तेजी-मन्दी जानी जा सकेगी। रवि नक्षत्र फल-अश्विनीमें सूर्यके रहनेसे सभी अनाज, सभी रस, वस्त्र, अलसी, एरंड, तिल, मैंथी, लालचन्दन, इलायची, लौंग, सुपारी, नारियल, कूपर, हींग, हिंगलु आदि तेज होते हैं। भरणीमें सूर्यके रहने से चावल, जौ, चना, मोठ, अरहर, अलसी, गुड़, घी, अफीम, मूंगा आदि पदार्थ तेज होते हैं। कृत्तिकामें श्वेतपुष्प, जौ, चावल, गेहूँ, मोठ, राई और सरसों तेज होती है। रोहिणीमें चावल आदि सभी धान्य अलसी, सरसों, राई, तैल, दाख, गुड़, खाण्ड, सुपारी, रूई, सूत, जूट, आदि पदार्थ तेज होते हैं। मृगशिरामें सूर्यके रहनेसे जलोत्पन्न पदार्थ, नारियल, Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९९ पञ्चविंशतितमोऽध्यायः सर्वफल, रूई, सूत, रेशम, वस्त्र, कपूर, चन्दन, चना आदि पदार्थ तेज होते है। आर्द्रा में रवि के रहने से मैथी, गुड़, चीनी, चावल, चन्दन, लाल नमक, कपास, रूई, हल्दी, सोंठ, लोहा, चाँदी आदि पदार्थ तेज होते हैं। पुनर्वसु नक्षत्रमें रहनेसे उड़द, मूंग, मोठ, चावल, मसूर, नमक, सज्जी, लाख, नील, सिल, एरंड, मांजुफल, केशर, कपूर, देवदारु, लौंग, नारियल, श्वेत वस्तु आदि पदार्थ महंगे होते हैं। पुष्य नक्षत्रमें रवि रहनेसे तिल, तेल, मद्य, गुण, ज्वार, गुग्गुल, सुपाड़ी, सोंठ, मोम, हींग, हल्दी, जूट, ऊनीवस्त्र, शीशा, चाँदी आदि वस्तुएँ तेज होती हैं। आश्लेषामें रहनेसे अलसी, तिल, तैल, गुड़, शेमर, नील और अफीम महँगे होते हैं। आश्लेषामें रविके रहने से ज्वार, पंकनीज, दास्त. मिरन, जैल और अफीम महंगे होते हैं। पूर्वाफाल्गुनीमें रहनेसे सोना, चाँदी, लोहा, घृत, तैल, सरसों, एरंड, सुपाड़ी, नील, बांस, अफीम, जूट, आदि तेज होते हैं। उत्तराफाल्गुनीमें रविके रहने से, ज्वार, जौ, गुड़, चीनी, जूट, कपास, हल्दी, हरड़, हींग, क्षार और कत्था आदि तेज होते हैं। हस्तमें रविके रहने से कपड़ा, गेहूँ, सरसों आदि तेज होते हैं। चित्रामें रहनेसे गेहूँ, चना, कपास, अरहर, सूत, केशर, लाख, चपड़ा आदि तेज होता है। स्वाति में रहने से, धातु, गुड़, खाण्ड, तेल, हिंगुर, कपूर, लाख, हल्दी, रूई, जूट, आदि तेज होते हैं। अनुराधा और विशाखामें रहने से चाँदी, चावल, सूत, अफीम आदि महँगे होते हैं। ज्येष्ठा और मूलमें रहने से चावल, सरसों, वस्त्र, अफीम आदि पदार्थ तेज होते हैं। पूर्वाषाढ़ामें रहनेसे तिल, तैल, गुड़, गुग्गुल, हल्दी, कपूर, ऊनी वस्त्र, जूट, चाँदी आदि पदार्थ तेज होते हैं। उत्तराषाढ़ा और श्रवणमें रविके होनेसे उड़द, मूंग, जूट, सूत, गुड़, कपास, चावल, चाँदी, बाँस, सरसों आदि पदार्थ तेज होते हैं। धनिष्ठामें रहनेसे मूंग, मसूर और नील तेज होते हैं। शतभिषामें रविके रहनेसे सरसों, चना, जूट, कपड़ा, तेल, नील, हींग, जायफल, दाख, छुहारा, सोंठ आदि तेज होते हैं। पूर्वाभाद्रपदमें सूर्य के रहनेसे सोना, चाँदी, गेहूँ, चना, उड़द, घी, रूई, रेशम, गुणुल, पीपरामूल आदि पदार्थ तेज होते हैं। उत्तराभाद्रपदमें रविके होनेसे सभी रस, धान्य और तेल एवं रेवतीमें रहनेसे मोती, रत्न, फल-फूल, नमक, सुगन्धित पदार्थ, अरहर, मूंग, उड़द, चावल, लहसुन, लाख, रूई और सब्जी आदि पदार्थ तेज होते हैं। Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ७०० शकाब्द पर से चैत्रादि मासों में समस्त वस्तुओं की तेजी-मन्दी अलात करने के लिए शुनाश मास १२ चैत्र | वैशाख ज्येष्ठ आषाढ़ श्रावण | भा.प. आश्वि. कात्तिक मा.शी. पाष | माघ | फाल्गु. यन-जॉ. चना गेहूँ . चावल . तिल 'MMMMMM. . चीनी नमक १ . अरहर मूंग . २ सूत २ . ..rr . Mr. M वस्त्र २ कम्बल . पाट . सुपारी १ तीसी . तेल २ फिटकरी हींग २ हल्दी २ लौंग . जीरा २ अबवाइन २ कर्पूर २ ककुनी . धनिया १ rror_rm . Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०१ पञ्चविंशतितमोऽध्यायः उक्त चक्र द्वारा तेजी-मन्दी निकालने की विधि शाकः खगाब्धिभूपोनः १६४९ शालिवाहनभूपतेः। अनेन युक्तो द्रव्याश्चैत्रादिप्रतिमासके॥ रूद्रनेत्रैः हते शेषे फलं चन्द्रेण मध्यमम्। नेत्रेण रसहानिश्च शून्येनार्धे स्मृतं बुधैः॥ अर्थात् शक वर्षकी संख्या १६४९ घटाकर, मासमें जिस पदार्थ का भाव जानना हो उसके ध्रुवाङ्क जोड़कर योगफलमें ३ का भाग देनेसे एक शेष समता, दो शेष मन्दा और शून्य शेषमें तेजी कहना चाहिए। विक्रम संवत्में से १३५ घटाने पर शक संवत् हो जाता है। उदाहरण--विक्रम संवत् २०१३ के ज्येष्ठमासमें चावलकी तेजी-मन्दी जाननी है। अत: सर्वप्रथम विक्रम संवत् का शक संवत् बनाया-२०१३-१३५ = १८७८ शकसंवत्।सूत्र-नियमके अनुससार १८७८-१६४९ = २२९ और ज्येष्ठमाप्त में चावलका ध्रुवांङ्क १ है, इसे जोड़ा तो २२९ + १ = २३०; इसमें ३ से भाग दिया = २३० भाग ३ = ७६; शेष २ रहा अत: चावल का भाव मन्दा आया। इसी प्रकार समझ लेना चाहिए। दैनिक तेजी-मन्दी जाननेका नियम—जिस देशमें, जिस वस्तुकी, जिस दिन तेजी-मन्दी जाननी हो उस देश, वस्तु, वार, नक्षत्र, मास, राशि, इन सबके ध्रुआवोंको जोड़कर ९ का भाग देनेसे शेषके अनुसार तेजी-मन्दी का ज्ञान "तेजी-मन्दी देखनेके चक्र" के अनुसार करना चाहिए। देश तथा नगरों की ध्रुवा—बिहार १६६, बंगाल २४७, आसम ७९१, मध्यप्रदेश १०८, उत्तरप्रदेश ८९०, बम्बई १९८, पंजाब ४१९, रंगून १६७, नेपाल १५४, चीन ६४२, अजमेर-१६७, हरिद्वार २७२, बीकानेर २१३, सूरत १२८, अमेरिका ३२२, यूरोप ९७६। मास ध्रुधा-चैत्र ६१, वैशाख ६३, ज्येष्ठ ६५, आषाढ़ ६७, श्रावण ६९, भाद्रपद ७१, आश्विन ७३, कात्तिक ५१, मार्गशीर्ष ५३, पौष ५५, माघ ५७, फाल्गुन ६५ सूर्यराशि ध्रुवा—मेष ५२०, वृष ७६२, मिथुन ५१०, कर्क २१८, सिंह ८३०, कन्या २६०, तुला ५०३, वृश्चिक ७११, धनु ५२४, मकर ५५४, कुम्भ २७०, मीन ५८६। Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भदसार संहिता ! ७०२ तिथि ध्रुवा–प्रतिपदा ६१०, द्वितीया ७१०, तृतीया ४८१, चतुर्थी ३५७, पंचमी ६३४, षष्ठी ३०४, सप्तमी ८१२, अष्टमी १११, नवमी ५६५, दशमी ३०५, एकादशी २३३, द्वादशी २६१, त्रयोदशी ५२४, चतुर्दशी ५५२, पूर्णिमा ६३०, अमावास्या १६६। वार ध्रुवा--विवार १३७, सोमवार ९४, मंगल ८०९, बुध ७०२, गुरु ७१३, शुक्र ८०८, शनि ८५ संसार का कुल ध्रुवा-२०८५। नक्षत्र ध्रुवा-अश्विनी १७६, भरणी ६८३, कृत्तिका ३७०, रोहिणी ७७५, मृगशिरा ६८२, आर्द्रा १४६, पुनर्वसु ५४०, पुष्य ६३४, आश्लेषा १७०, मघा ७३, पूर्वाफाल्गुनी ८५, उत्तरा फाल्गुनी १४८, हस्त ८१०, चित्रा ३०५, स्वाति ८६१, विशाखा ७३४, अनुराधा ७१२, ज्येष्ठा ७१६, मूल ७४३, पूर्वाषाढ़ा ६१४, उत्तराषाढ़ ६२३, अभिजित् ६८३, श्रवण ६५७, धनिष्ठा ५००, शतभिषा ५६४, पूर्वाभाद्रपद ३३६, उत्तराभाद्रपद १८३, रेवती ७२० । पदार्थों के ध्रुव-सोना २५३, चाँदी ७६०, ताँबा ५६३, पीतल २५८, लोहा ९१५, काँसा २४९, पत्थर १६३, मोती १४२, रूई ७१७, कपड़ा १२७, पाट ४७६, हैसिअत ७३८, सुर्ती १०३, तम्बाकू २४०, सुपाड़ी २५२, लाह ८८, मिर्च २६८, घी ४६४, इत्र ७५, गुड़ २५६, चीनी ३२८, ऊन ११२, शाल ८११, धान ७१२, गेहूँ २३२, तेल ८०१, चावल ७७४, मूंग ८०१, तीसी ३८६, सरसों ८५८, अरहर ३३३, नमक ३१७, जीरा १५६, अफीम २६३, सोडा १५६, गाय १३२, बैल १६२, भैंस ६१२, भेड़ ६१८, हाथी ८३०, घोड़ा ८३५ । तेजी-मन्दी जानने का चक्र--सूर्य १ तेज, चन्द्र २ अतिमन्द, भौम ३ तेज, राहु ४ अतितेज, बृहस्पति ५ मन्द, शनि ६ तेज, राहु ७ सम, केतु ८ तेज, शुक्र ९ तेज। __उदाहरण—बम्बईमें चैत्र सुदि सप्तमी रविवारको गेहूँ का भाव जानना है। अतः सभी ध्रुवाओंका जोड़ किया। बम्बईकी ध्रुवा १९८, सूर्य मेषराशिका होनेसे ५८६, मासधुवा ६१, वार ध्रुवा १३७, तिथि ध्रुवा ८१२, इन दिन कृत्तिका नक्षत्र ध्रुवा ३७०, गेहूँ ध्रुवा २३२ इन सबका योग किया। १९८ + ५८६ + १३७ + Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशतिसार ८१२ + ३७० + २३२ + ६१ = २०१६। इसमें १ का भाग दिया = २०१६ में भाग ९ का = २३२ लब्धि, ८ शेष। तेजी-मन्दी जाननेके चक्रमें देखनेसे ८ शेषमें केतु तेज करनेवाला हुआ अर्थात् तेजी होगी। दैनिक तेजी-मन्दी निकालनेकी अन्य रीति वस्तु विंशोपक धातु-सोना ९६, चाँदी ७१, पीतल ५९, मूंगा ५१, लोहा ५४, सीसा ९०, काँसा १२७, मोती ९५, राँगा ६७, ताँबा १०, कुंकुम २५। अनाज और किराना-कपूर १०२, हरॆ ७३, जीरा ७०, चीनी १०२, मिश्री १०३, ज्वार १००, घी ५०, तेल १०, नमक ५९, हींग ६२, सुपाड़ी २०४, अरहर ७२, मिर्च ८३, सूत ९४, सरसों ८०८, कपड़ा १००, चपड़ा ८७, मूंग १५, सोंठ १००, गुड़ ४०, बिनोला ८८, मंजीठ १४४, नारियल ७८, छुहारा १४४, चावल १७, जौ ५७, साठी १६५, गेहूँ १४, उड़द ८०, तिल ५३, चना ५६, कपास १२७, अफीम १९२, रूई ७७। पशु-घोड़ा ७७०, हाथी ६४, भैंस ९२, गाय ७७, बैल ८७, बकरी ६०, साँड़ ९४, भेड़ ८५। नक्षत्रविंशोपक-अश्विनी १०, भरणी १०, कृत्तिका ९६, रोहिणी २०, मृगशिरा ५६, आर्द्रा ८६, पुनर्वसु २१, पुष्य ९४, आश्लेषा १३५, मघा १५०, पूर्वाफाल्गुनी २२०, उत्तराफाल्गुनी ७२, हस्त ३३४, चित्रा २१, स्वाति २१०, विशाखा ३२०, अनुराधा ४९३, ज्येष्ठा ५५९, मूल ५५२, पूर्वाफाल्गुनी १४२, उत्तराफाल्गुनी ४२०, श्रवण ४५०, धनिष्ठा ७३६, शतभिषा ५७६, पूर्वाभाद्रपद ७७५, उत्तराभाद्रपद १२६, रेवती २५६। संक्रान्तिराशि विंशोपक-मेष ३७, वृष ८६, मिथुन ८४, कर्क १०९, सिंह १२५, कन्या १०२, तुला १०४, वृश्चिक १४४, धनु १४४, मकर १९८, कुम्भ १९०, मीन १८०। तिथि विंशोपक---प्रतिपदा १८, द्वितीया २०, तृतीया २२, चतुर्थी २४, पंचमी २६, षष्ठी २४, सप्तमी २३, अष्टमी २१, नवमी १९, दशमी १७, एकादशी १५, द्वादशी ११, त्रयोदशी १३, चतुर्दशी ९, अमावस्या ९, पूर्णिमा १६ । Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ७०४ वार-रविवार ४०, सोम ५०, मंगल ५०, बुध ६२, गुरु ६५, शुक्र २८, शनि १४। तेजी-मन्दी निकालने की विधि-जिस मासकीया जिस दिनकी तेजी-मन्दी निकालनी हो, उस महीनेकी संक्रान्ति विंशोपक ध्रुवा, तिथि, वार और नक्षत्रके विंशोपक ध्रुवाओंको जोड़कर ३ का भाग देनेसे एक शेष रहनेसे मन्दी, दो शेषमें समान और शून्य शेषमें तेजी होती है। रोजी-मन्दी निकासका अन्य नियम-गेहूँ की अधिकारिणी राशि कुम्भ, सोना की मेष, मोती की मीन, चीनी की कुम्भ, चावल की मेष, ज्वार की वृश्चिक, रूई की मिथुन और चांदी की कर्क है। जिस वस्तु की अधिकारिणी राशि से चन्द्रमा चौथा, आठवौं तथा बारहवाँ हो तो वह वस्तु तेज होती है, अन्य राशि पड़ने से सस्ती होती है। सूर्य, मंगल, शनि, राहु, केतु, ये क्रूर ग्रह हैं, ये क्रूर ग्रह जिस वस्तुकी अधिकारिणी राशिसे पहले, दूसरे, चौथे, पाँचवें, सातवें, आठवें, नौवें और बारहवें जा रहे हों, वह वस्तु तेज होती है। जितने क्रूर ग्रह उपर्युक्त स्थानोंमें जाते हैं, उतनी ही वस्तु अधिक तेज होती है। इति श्रीपंचम श्रुत केवली दिगम्बराचार्य भद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिता का वस्तु तेजी मन्दी निकालने रूप पच्चीसवौं अध्याय का हिन्दी भाषानुवाद करने वाली क्षेमोदय टीका समाप्त। (इति पञ्चविंशतितमोऽध्यायः समाप्त:) . Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विंशतितमोऽध्यायः स्वप्न लक्षण व फल नमस्कृत्य महावीरं सुरासुरजनैतम्। स्वप्नाध्यायं प्रवक्ष्यामि शुभाशुभसमीरितम्॥१।। (सुरासुरजनैर्नतम्) सुर और असुरों के द्वारा (नमस्कृत्य) जिनको नमस्कार किया गया है उन (महावीरं) स्वामी को मस्तकुंजकाहकर (स्वप्नाध्यायं) स्वप्न के अध्याय को कहूंगा जो (शुभाशुभसमीरितम्) शुभाशुभ से युक्त है। भावार्थ-जो सुर और असुरों के द्वारा नमस्कृत्य है, ऐसे महावीर स्वामी को नमस्कार करके शुभाशुभ से युक्त स्वप्नाध्याय को कहूंगा ॥१॥ यानमारमा विद्या स्वप्नोऽनष्टचिन्तामयः फलाः। प्रकृता कृतस्वप्नैश्च नैते ग्राह्या निमित्ततः ॥२॥ (स्वप्नमाला) स्वप्नमाला, (दिवास्वप्नों) दिवास्वप्न (अनष्टचिन्तामय:फला:) चिन्ताओं से उत्पन्न, रोग से उत्पन्न (प्रकृता कृतस्वप्नैश्च) प्रकृति के विकार से उत्पन्न (नतेग्राह्यानिमित्ततः) इतने स्वप्न ग्रहण नहीं करना चाहिये। भावार्थ-स्वप्नमाला, दिन में आनेवाला स्वप्न, चिन्ताओं से सहित स्वप्न, और आकृतिक स्वप्न इतने स्वप्नों का फल नहीं होता है इन स्वप्नों के ऊपर विचार नहीं करना चाहिये ॥२॥ कर्मजा द्विविधा यत्र शुभाश्चात्राशुभास्तथा। त्रिविधा: संग्रहाः स्वप्ना: कर्मजा: पूर्वसञ्चिताः॥३॥ (कर्मजा द्विविधा) कर्म के उदय से आने वाले दो प्रकार के स्वप्न है (यत्रशुभा श्चात्राशुभास्तथा) जहां पर शुभ और अशुभ (कर्मजा: पूर्वसञ्चिताः) कर्म से उत्पन्न, पूर्व कर्म के उदय से उत्पन्न, (स्वप्ना:त्रिविधा: संग्रहाः) स्वप्न तीन प्रकार के संग्रह Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ७०६ भावार्थ-कर्म के उदय से आने वाले दो प्रकार के स्वप्न है एक शुभ दूसरा अशुभ, पूर्वसंचित कर्म के उदय से आने वाले स्वप्न तीन प्रकार के ग्रहण करना चाहिये।३।। भवान्तरेषु चाभ्यस्ता भावाः सफल निष्फलाः। तान् प्रवक्ष्यामि तत्त्वेन शुभाशुभफलानिमान्॥४॥ जो (सफलनिष्फल:) इस फल व निष्फल (भावाः) भाव (भवान्तरेषु वाभ्यस्ता) भवान्तरों में अभ्यस्त है (तान्) उनके (शुभाशुभफलानिमान्) शुभा शुभ फलों को (तत्त्वेन) यथार्थ रूप से(प्रवक्ष्यामि) कहूंगा। भावार्थ जो सफल और निष्फल भाव भवान्तरों में अभ्यस्त है उसके शुभाशुभ को जैसा का तैसा में भद्रबाहु स्वामी कहूंगा ॥४॥ जलं जलरुहं थान्यं सदलाम्भोज भाजनम्। मणिमुक्ता प्रवालांश्च स्वप्ने पश्यन्ति श्लेष्मिकाः॥५॥ (श्लेष्मिका:) कप प्रकृति वाला मनुष्य (स्वप्ने) स्वप्न में (जलं) जल को (जलरुह) जल में उत्पन्न होने वाले पदार्थो को (धान्यं) धान्यों को (सदलाम्भोज) व पत्रसहित कमलों को, (भाजनम्) बर्तनों को (मणिं) मणि, (मुक्ता) मुक्ता, (प्रवालांश्च) प्रवाल (पश्यन्ति) देखता है। ___ भावार्थ-जो कफ प्रकृतिवाला मनुष्य है वो स्वप्न में जल को पानी में उत्पन्न होने वाली वस्तुओं को धान्यों को पत्रसहित कमलों को बर्तनों को मणि मुक्ता, प्रवालादि देखता है।। ५॥ रक्त पीतानि द्रव्याणि यानि पुष्टान्यग्निसम्भवान्। तस्योपकरणं विन्द्यात् स्वप्नेपश्यन्ति पैत्तिकाः॥६॥ (रक्त पीतानि द्रव्याणि) लाल पीले पदार्थ (यानिपु ष्टान्यग्निसम्भवान्) जो अग्नि से पुष्ट पदार्थ हैं (तस्योपकरणं) व उनके उपकरण है (पैत्तिका पश्यन्तिस्वप्ने) उन सबको पित्त प्रकृति वाला देखता है (विन्द्यात्) ऐसा ज़ानो। भावार्थ-जो पित्त प्रकृति वाला है वह स्वप्न में लाल पीले पदार्थ अग्नि से पुष्ट पदार्थ व उनके उपकरण देखता है।६।। Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०७ पविंशतितमोऽध्यायः च्यवनं प्लवनं यानं पर्वताग्रं दुभं गृहम्। आरोहन्ति नराः स्वप्ने वातिका: पक्षगामिनः॥७॥ (च्यवन) गिरना (प्लवनं) तैरना, दौड़ना (यानं) सवारी करना (पर्वताग्रं द्रुमं गृहम्) पर्वत के ऊपर चढ़ना प्रासाद के ऊपर, (आरोहन्ति) चढ़ना आदि (वातिका:) वात पित्ता वाला (नरा:) मनुष्य (स्वप्ने) स्वप्न में (पक्षगामिनः) देखता है। भावार्थ-वात पित्त वाला मनुष्य स्वप्न में गिरना तैरना, दौड़ना, सवारी करना पर्वत पर चढ़ना, प्रासादयस्पदना देखता है॥७॥ सिंह व्याघ्रगजैर्युक्तो गो वृषाश्चैनरैर्युतः। रथमारुह्य यो याति पृथिव्यां स नृपो भवेत्॥८॥ (यो) जो (सिंह माया गर्जर्युक्तो) सिंह, बाला, हामी हो, संयुक्त होकर (गो) गाय (वृषाश्चै नरैर्युतः) बैल, घोड़ा, मनुष्य से युक्त (स्थमारुह्य) रथ पर आरोहण करता हुआ स्वप्न में देखता है तो (स) वह मनुष्य (पृथिव्यांन नृपो भवेत्) पृथ्वी पर राजा होता है। भावार्थ-जो मनुष्य सिंह व्याघ्र, हाथी, गाय, बैल और घोड़ा से युक्त होकर रथ पर चढ़कर गमन करता हुआ यदि स्वप्न में देखे तो वह अवश्य राजा होता है॥८॥ प्रसादं कुञ्जरवरानारुह्य सागरं विशेत् । तथैव च विकथ्येत् तस्य नीचो नृपो भवेत् ।। ९ ।। (विशेत) विशेष रीती से जो मनुष्य स्वप्न में (कुञ्जरवरानारुह्य) हाथी पर चढ़कर (प्रासादं सागर) प्रासाद या समुद्र में प्रवेश करे तो (तथैव च) उसी प्रकार (विकथ्ये) कहा गया है कि (तस्य नीचो पो भवेत्) उस देश का नीच राजा होता भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में स्वयं को हाथी पर बैठे हुए समुद्र में या महल में प्रवेश करता हुआ देखे तो समझो उस देश का राजा नीच होता है॥९॥ पुष्करिण्यां तु यस्तीरे भुञ्जीत शालि भोजनम्। श्वेतं गजं समारूढः स राजा अचिराद् भवेत् ॥१०॥ Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवमा संहिता ७०८ जो मनुष्य स्वप्न में (श्वेतं गजं समारूढः) श्वेत हाथी पर चढ़कर (पुष्करिण्यांतुयस्तीरे) नदी के किनारे पर स्वयं (शालि भोजनम् भुञ्जीत) शाली भोजन को खाता हुआ देखे तो (स) वह (अचिराद्) शीघ्र ही {राजा भवेत्) राजा होता भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में स्वयं सफेद हाथी पर चढ़कर नदी के किनारे पर शाली धान्य का भोजन करता हुआ देखे तो वह शीघ्र ही राजा होता है॥१०॥ सुवर्ण रूप्य भाण्डे वा य: पूर्वनवरा स्नुयात्। प्रसादे वाऽथ भूमौ वा याने वा राज्यमाप्नुयात्॥११॥ (य:) जो व्यक्ति स्वप्न में (प्रसादे वाऽथ भूमौवा याने वा) प्रासाद भूमि या सवारी पर आरूढ हो (सुवर्ण रूप्य भाण्डे वा) सोने चांदी के बर्तन में (पूर्वनवरास्नुयात्) स्मान, भोजन पानी आदि करता हुआ स्वयं को देखे तो वह (राज्य माप्नुयात्) राज्य की प्राप्ति करता है। __भावार्थ-जो व्यक्ति स्वप्न में स्वयं को प्रासाद भूमि या सवारी पर आरोहण करता हुआ देखे अथवा सुवर्ण या चांदी के बर्तनों में भोजन पान या स्नान करता हुआ देखे तो समझो वह राजा होगा ।।११।। श्लेष्म मूत्रपुरीषाणि यः स्वप्ने च विकृष्यति। राज्यं राज्यपलं वाऽपि सोऽचिरात् प्राप्नुयान्नरः॥१२॥ (य: नर:) जो मनुष्य (स्वप्ने) स्वप्न में (श्लेष्म मूत्रपुरीषाणि च विकृष्यति) कफ, मूत्र, मल आदि को इधर-उधर खींचता हुआ दिखाई पड़े तो (सो) वह (राज्य राज्यफलंवाऽपि) राजा के राज्यफल को (अचिरात् प्राप्नुयात्) शीघ्र प्राप्त करता है। भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में अपने को कफ मूत्र, या मल को इधर-उधर खींचता हुआ देखे तो वह राजा के राज्यफल को शीघ्र प्राप्त करता है॥१२॥ यत्र वा तत्र वा स्थित्वाजिह्वायां लिखते नखः। दीर्घया रक्तया स्थित्वा स नीचोऽपि नृपो भवेत्॥१३॥ जो व्यक्ति स्वप्न में (यत्र वा तत्र वा स्थित्वा) जहाँ तहाँ खड़ा होकर (जिह्वायां Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | कविंशतितमोऽध्यायः लिखते नख:) नख से जिह्वा को खुरच ने लगे और (दीर्घ या रक्तयास्थित्वा) लाल वर्ण की झील में खड़ा होते हुए दिखे तो (स) वह (नीचोऽपि) नीच होने पर भी (नृपो भवेत्) राजा होता है। भावार्थ- जो मनुष्य स्वप्न में जहां तहां खड़ा होकर नख से जिह्वा को खुरचने लगे और लाल वर्ण की झील में खड़ा दिखे तो वह नीच होने पर भी राजा होता है।। १३॥ भूमि सासरजलां सरील कर काममा बाहुभ्यामुद्धरेद्यस्तु सराज्यं प्राप्नुयान्नरः॥१४॥ जो मनुष्य स्वप्न में (भूमि) पृथ्वी पर वा (ससागरजलां) समुद्र के जल में (सशैल वन काननाम्) पर्वत पर या वन में या जंगल में खड़ा दिखे या (बाहुभ्यामुद्धरेद्यस्तु) भुजाओं से इन सबको तैरता हुआ दिखे (सराज्यप्राप्नुयान्नर:) वह मनुष्य राज्य को प्राप्त करता है। भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में पृथ्वी पर, समुद्र के जल में, पर्वत पर, वन में, जंगल में खड़ा दिखे, तैरता हुआ दिखे तो वह राज्य की प्राप्ति करता है।। १४ ॥ आदित्यंवाऽथ चन्द्रं वा यः स्वप्ने स्पृशते नरः। श्मशानमध्ये निर्भीकः परं हत्वा चमूपतिम्॥१५॥ सौभाग्यमर्थ लभते लिङ्गच्छेदात्स्त्रियं नरः। भगच्छेदे तथा नारी पुरुष प्राप्नुयात् फलम् ।। १६॥ (य:) जो (नर:) मनुष्य (स्वप्ने) स्वप्न में (आदित्यवाऽथ चन्द्र) सोमयाचन्द्र को (स्पृशते) स्पृश करता हुआ देखता है अथवा (चमूपतिम् हत्वा) सेनापति को मारकर (निर्भीक:) निर्भीक भयरहित होता हुआ (श्मशानमध्ये) श्मशान के अन्दर घूमता है वह (सौभाग्यमर्थलभते) सौभाग्य और अर्थ की प्राप्ति करता है (लिङ्गच्छेदात् स्त्रियं नर:) मनुष्य अगर लिङ्गच्छेद अपना देखे तो स्त्री की प्राप्ति होती है तथा (भगच्छेदेनारी) योनी का छेद होता हुआ देखे तो स्त्री को (पुरुषं प्राप्नुयात् फलम्) पुरुष की प्राप्ति का फल मिलता है। भावार्थ—जो मनुष्य स्वप्न में सोम या चन्द्र को स्पृश करता हुआ देखे Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ७१० अथवा सेनापति को मारकर श्मशान में अकेला घूमता हुआ देखे तो समझो सौभाग्य की प्राप्ति होती है और धन की प्राप्ति होती है। अगर मनुष्य अपना लिङ्ग मग्न होते हुए देखे तो उसे स्त्री को प्राप्ति होती है और स्त्री अगर अपनी योनी मग्न होती हुई देखे तो उसे पुरुष की प्राप्ति होती है।। १५-१६।। । शिरो वा छिद्यते यस्तु सोऽसिना छिद्यतेऽपि वा। सहस्त्रलाभं जानीयाद् भोगांश्च विपुलान् नृपः॥१७॥ जो (नृपः) राजा स्वप्न में (शिरो वा छिद्यते) अपने सिर का छेदन होता हुआ देखे (यस्तु सोऽसिना छिद्यतेऽपि वा) अथवा तलवार के द्वारा छेदित होता हुआ देखे तो (सहस्रलाभं जानीयात्) उसको हजारों लाभ मिलते है ऐसा जानना चाहिये और (भोगांश्चविपुलान्) विपुल मोम को प्राय करता। __ भावार्थ-जो राजा स्वप्न में अपने सिर का छेद होता हुआ देखे अथवा तलवार से अपने को छेदित होता हुआ देखे तो वह सहस्रों लाभ प्राप्त करता है और विपुल भोगो को प्राप्त करता है।। १७॥ धनुरारोहतेयस्तुविस्फारण समार्जने। अर्थलाभं विजानीयात् जयं युधि रिपोर्वधम् ।। १८॥ जो मनुष्य स्वप्न में (धनुरारोहतेयस्तु) धनुष का आरोहण करता है (विस्फारण समाजने) विस्फारण करता है प्रत्यंचा को समेटना आदि कार्य करता है उसको (अर्थलाभं विजानीयात) अर्थलाभ होता है तो ऐसा जानना चाहिये (जयं युधि रिपोर्वधम्) कि युद्ध में जय, और शत्रु का वध होता है। - भावार्थ-जो मुनष्य स्वप्न में धुनषारोहण करता है विस्फारण करता है समेटता है उसको धन का लाभ होता है और ऐसा जानना चाहिये कि युद्ध में जय, और शत्रु का वध होता है॥ १८॥ द्विगाढ़ हस्तिनारूढः शुक्लो वाससलङ्कृतः । य: स्वप्ने जायते भीतः समृद्धिं लभते सतीम्॥१९॥ जो स्वप्न में (शुक्लोवाससलङ्कृत:} शुक्लावस्त्र पहनकर अलंकारो से सुसज्जित Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५१ पइविंशतितमोऽध्यायः होकर (द्विगाद हस्तिनारूढः) द्विगाढरूप हाथी के ऊपर आरोहण करे (स्वप्ने जायते भीतः) स्वप्न में भयभीत हो तो (सद्धिं लभते सतीम्) निश्चय से समृद्धि को प्राप्त करता है। भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में शुक्ल वस्त्र पहन कर आभुषणों से अंलकृत होता हुआ हाथी के ऊपर सवारी करके डरता है, उसको अवश्य ही समृद्धि प्राप्त होती है।।१९॥ देवान् साधु द्विजान् प्रेतान् स्वप्ने पश्यन्ति तुष्टिभिः। सर्वे ते सुखमिच्छन्ति विपरीते विपर्ययः॥२०॥ जो (स्वप्ने) स्वप्न में (तुष्टिभिः) संतुष्ट होकर (देवान् साधु द्विजान् प्रेतान्) देवों को, साधुओं को या ब्राह्मणों को देखता है (सर्वे ते सुख मिच्छन्ति) उसको सब प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं (विपरीते विपर्ययः) और उपर्युक्त से विपरीत देखे तो उल्टा फल होता है। भावार्थ—जो स्वप्न में संतुष्ट होकर देव साधु ब्राह्मण को देखता है उसको सभी प्रकार के सुख मिलते हैं विपरीत देखने पर विपरीत फल होता है॥२० ।। गृहद्वारविवर्णमभिज्ञाद्वा यो गृहं नरः । व्यसनान्मुच्यते शीघ्रं स्वप्नं दृष्ट्वा हि तादृशम्॥२१॥ (यो) जो मनुष्य स्वप्न में (गृहद्वारं) घर द्वार को (विवर्णमभिज्ञाद्वा) विवर्ण रूप देखता है (गृहनर:) उस घर का स्वामी (शीघ्रं व्यसनान्मुच्यते) शीघ्र ही विपत्ति से छूट जाता है (स्वप्नं दृष्ट्वा हि तादृशम्) क्योंकि उसने वैसा ही स्वप्न देखा भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में घर द्वार को विवर्ण रूप देखता है उस घर का स्वामी शीघ्र व्यसन से मुक्त हो जाता है कष्टों से छूट जाता है क्योंकि वह वैसा ही स्वप्न देखता है ।। २१॥ प्रपानं य: पिबेत् पानं बद्धो वा योऽभिमुच्यते। विप्रस्य सोमपानाय शिष्याणामर्थवृद्धये ॥२२॥ (य:) जो मनुष्य (प्रपानंपिबेत् पानं) स्वप्न में शर्बतादि पीता हुआ देखे (वा: Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | बद्धो योऽभिमुच्यते) वा बंधन में पड़ा हुआ छूटा हुआ देखे तो (विप्रस्यप्तोमयानाय) ब्राह्मण के लिये सोमपान और (शिष्याणामर्थवृद्धये) शिष्य के लिये अर्थ को वृद्धि होती है। भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में अपने को शर्बत पीता हुआ देखे या किसी को बंधन मुक्त देखे तो ब्राह्मणों के लिये सोमपान मिलता है और शिष्यों के लिये धन प्राप्ति होती है।। २२॥ निम्नं कूपजलं छिद्रान् यो भीत: स्थलमारुहेत्। स्वप्ने स वर्धते सस्य धन थान्येन मेधसा॥२३॥ (यो) जो मनुष्य स्वप्न में (निम्नं कूप जलं छिद्रान्) नीचे के कुए के जल को छिद्रों को (भीत: स्थलमारुहेत्) डरता हुआ स्थल पर आरोहण करता है (स) उसको (सस्य धन धान्येन मेधसा वर्धते) धन-संपत्ति और बुद्धि की वृद्धि होती भावार्थ-जो व्यक्ति स्वप्न में कुएँ के जल को और छिद्रों को डरता हुआ भूमि पर देखता है, उसके धन धान्य और बुद्धि की वृद्धि होती है।। २३ ।। श्मशाने शुष्कदारुं वा बलिं शुष्कद्रुमं तथा। यूपं मारुहेश्वऽस्तु स्वप्ने व्यसनमाप्नुयात् ॥२४॥ जो व्यक्ति (स्वप्ने) स्वप्न में (श्मशानेशुष्कदार) श्मशान व सूखी हुई लकड़ी या (बल्लिंशुष्क द्रुमं तथा) लता और सूखा हुआ पेड़ तथा (यूपंमारुहेश्वस्तु) यज्ञ के खूटे पर जो चढ़ता हुआ देखता वह (व्यसनमाप्नुयात्) विपत्ति को प्राप्त होता भावार्थ-जो स्वप्न में श्मशान या सुखी लकड़ी या लता और सूखा हुआ पेड़ और यज्ञ के खूटे पर चढ़ता हुआ देखता है वह विपत्ति को प्राप्त करता है ।। २४ ॥ त्रपु सीसायसं रज्जु नाणकं मक्षिका मधु। यस्मिन् स्वप्ने प्रयच्छन्ति मरणं तस्य ध्रवं भवेत्॥२५॥ जो मनुष्य (स्वप्ने) स्वप्न में (त्रपु सीसायसं रज्जु) शीषा रांगा, जस्ता (नाणकं Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५३ पर्विशतितमोऽध्यायः मक्षिका मधु) पीतल रज्जु (मधु) मधु (यस्मिन् प्रयच्छन्ति) आदि का दान जिसको करता है (तस्य) उसका (ध्रुवं) निश्चय से (मरणं भवेत्) मरण होता है। भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में शीशा, रांगा, जस्ता, पीतल, रस्सी, मक्खी, मधु आदि का जिसको दान करता है उसका निश्चय से मरण होता है इसमें कोई संदेह नहीं है।। २५॥ अकालजं फलं पुष्पं काले वा यच्चगर्मितम्। यस्मै स्वप्ने प्रदीयेते तादृशयासलक्षणम्॥२६॥ (यस्मै स्वप्ने) जिसके स्वप्न में (अकालज) अकाल में उत्पन्न होने वाले (फलं पुष्पं) फल और पुष्पदिखे वा (काले यच्चगर्भितम्) काल में उत्पन्न होने वाले निंदित फल पुष्पों को (प्रदीयेते) देते हुए देखे तो (तादृशयासलक्षणम्) उसी लक्षण वाला फल होता है। आयास लक्षण वाला फल होता है। भावार्थ-जिस मनुष्य के स्वप्न में अकाल में उत्पन्न होने वाला फल और पुष्प जिसको देते हुए देखे जाय वह स्वप्न का फल आयास लक्षणवाला होता है।॥ २६॥ अलक्तकं वाऽथ रोगो वा निवातं यस्य वेश्मनि । गृहदाघमवाप्नोति चौरैर्वा शस्त्रघातनम्॥२७॥ जो व्यक्ति स्वप्न में (यस्य वेश्मनि) जिस के घर में (अलक्तकं वाऽथ रोगो वा निवातं) लाक्षारस या रोग अथवा वायु का अभाव देखता है तो उसके घर में (गृहदाघमवाप्नोति) आग लगती है (वा) वा (चौरे शस्त्र घातनम्) चोरों के द्वारा शस्त्र से घात होता है। भावार्थ-जो व्यक्ति स्वप्न में जिसके घर में लाक्षारस वा रोग वा वायु का अभाव देखता है उसके घर में आग लगती है वा चोरों के द्वारा शस्त्रघात होता है॥ २७॥ अगम्यागमनं चैव सौभाग्यास्याभिवृद्धये। अलंकृत्वा रसं पीत्वा यस्य वस्त्रयाश्चयद्भवेत् ।। २८॥ Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता जो स्वप्न में (अलंकृत्वारसंपीत्वा) अपने को वस्त्राभरणों से अलंकृत देखता है रस पीता हुआ देखे (यस्य वस्त्रयाश्चयद् भवेत्) जिस के वस्त्र सुन्दर से और (अगभ्यागमनं चैव) जो स्त्री पूज्य है उसके साथ रमण करता देखे तो (सौभाग्यस्याभिवृद्धये) सौभाग्य की वृद्धि होती है ऐसा समझो। भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में अपने को वस्त्राभरणों से अलंकृत देखे, रस पीता हुआ देखे और अगम्य स्त्री के साथ रमण करता हुआ देखे तो सौभाग्य की। वृद्धि होती है।। २८॥ शून्यं चतुष्पथं स्वप्ने यो भयं विश्य बुध्यते। पुत्रं न लभते भार्या सुरूपं सुपरिच्छदम् ।। २९॥ (यो स्वप्ने) जो स्वप्न में (शून्यं चतुष्पथं) शून्यनिर्जन स्थान चौराहे पर (भयं विश्य बुध्यते) भय से अपने को देखता है और फिर नींद से जाग्रत हो जाय तो (सुरूपं) सुन्दर (सुपरिच्छदम्) और गुणों से युक्त (पुत्रं न लभते) पुत्र प्राप्त नहीं करती (भार्या) उसकी स्त्री। भावार्थ-जो स्वप्न में शून्य चौराहे पर भय से प्रविष्ट होता हुआ अपने आपको देखे और उसकी नींद खुल जावे तो उसकी स्त्री सुन्दर और गुणों से युक्त पुत्र की प्राप्ति नहीं करती है अर्थात् उसके सुन्दर पुत्र पैदा नही होता है॥२९॥ वीणां विषं च वल्लकी स्वप्ने गृह्य विबुध्यते। कन्यां तु लभते भार्या कुलरूपविभूषिताम् ।।३०॥ (स्वप्ने) स्वप्न में जो व्यक्ति (वीणां विषंच बल्लकी) वीणा, विष और वल्ली को (गृह्य) ग्रहण कर (विबुध्यते) जाग्रत हो जाता है उसकी (भार्या) स्त्री (कुलरूपविभूषिताम्) कुल रूप यौवन से विभूषित (कन्यां तु लभते) कन्या होती है। भावार्थ-जो व्यक्ति स्वप्न में वीणा, विष और लता को ग्रहण कर जाग्रत हो जाता है उसकी स्त्री रूप से व कुल से विभूषित कन्या की प्राप्ति करती है। अर्थात उसके लड़की होती है॥३०॥ Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | कविंशतितमोऽध्यायः विषेण नियते यस्तु विषं वाऽपि पिबेन्नरः। सयुक्तो धनधान्येन वध्यते न चिराद्धि सः॥३१॥ जो मनुष्य स्वप्न में (विषं पिबेन्नरः) विषको पीता हुआ देखे (वाऽपि) और भी (विषेणम्रियतेयस्तु) विष से मरता हुआ तो (सयुक्तो धनधान्येन) वह धन धान्य से युक्त होता है (स:) वह (चिराद्धि न वध्यते) चिरकाल तक बंधन में नहीं पड़ता भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में विषको पीता हुआ देखे वा उससे मरता हुआ देखे तो वह शीघ्र ही धन धान्य से पूर्ण होता है और चिरकाल तक धन में नहीं पड़ता है।। ३१॥ उपाचरन्नासवाज्ये मृति गत्वाप्यकिञ्चनः। बूयाद् वै सद्वचः किञ्चिन्नासत्यं वृद्धये हितम् ।। ३२॥ यदि स्वप्न में (उपाचरन्नासवाज्ये) व्यक्ति आसव या घृत को पीते हुए दिखे (मृति गत्वाप्यकिञ्चनः) अथवा निसहाय होकर अपने को मरता हुआ देखे तो (बूयाद् वैसद्वचः) निमित्त ज्ञानी को सत्य वचन बोलना चाहिये (किञ्चिन्नासत्यंवृद्धयेहितम्) कुछ भी असत्य वचन नहीं बोलना चाहिये क्योंकि वृद्ध पुरुषों के लिये हितकारी नहीं है। भावार्थ-जब स्वप्न में व्यक्ति अपने आपको आसव पीता हुआ देखे अथवा घृत पीता हुआ देखे तो निमित्त ज्ञानी को वहां पर सत्य वचन बोलना चाहिये कुछ भी असत्य न कहे क्योंकि वृद्ध पुरुषों के लिये हितकारी नहीं है, ऐसे स्वप्न आने पर शांति --" अवश्य करे॥३२॥ प्रतयुक्तं समारूढो दंष्टियुक्तं च यो रथम्। दक्षिणाभिमुखो याति म्रियते सोऽचिरान्नरः॥३३॥ जो स्वप्न में (प्रेतयुक्तं) मरणकाल स्वप्न प्रेतयुद्ध (दंष्ट्रियुक्तं) अथवा गो से युक्त (च यो रथम् समारूढों) रथ पर आरूढ (दक्षिणाभिमुखोयाति) होकर दक्षिण दिशा में अपने को : ता हुआ देखे तो (सो नर:) वह मनुष्य (अचिराभ्रियते) शीघ्र मर जाता है। Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | __ भावार्थ-जो स्वप्न में प्रेनयुद्ध अथवा गों मे जुते हुए रथ पर आरूढ होकर दक्षिण दिशा अपने को जाता हुआ देखे तो उसका शीघ्र मरण हो जाता है॥३३॥ बराहयुक्ता या नारी ग्रीवाबद्धं प्रकर्षति । सा तस्या:पश्चिमा रात्री मृत्युः भवतिपर्वते॥ ३४।। (पश्चिमारात्री) यदि स्वप्न में पश्चिम रात्री को (बराहयुक्ता) शूकर युक्त (नारी) नारी (ग्रीवाबद्धप्रकर्षति) गर्दन को बांध कर खींचे तो (तस्याः) उसकी (मृत्यु: भवतिपर्वते) पर्वत पर मृत्यु होती है। भावार्थ-यदि स्वप्न में पश्चिमी रात्री को शूकर युक्त स्त्री दष्टा की गर्दन पकड़ कर खींचे तो उस व्यक्ति की मृत्यु पर्वत पर होती है।। ३४ ॥ खर-शूकरयुक्तेन खरोष्ट्रेण वृकेण वा। रथेन दक्षिणांयाति दिशं स म्रियते नरः॥३५॥ स्वप्न में यदि मनुष्य (खर शूकर युक्तेन) गधे व शूकर से युक्त अथवा (खरोष्ट्रेण वृकेण वा) गधा या ऊंट भेडिया से सहित (रथेन) रथ को (दक्षिणां याति) दक्षिण में जाता हुआ देखे तो वह मनुष्य अवश्य ही मरण को प्राप्त करता है। भावार्थ-यदि स्वप्न में गधे, शूकर, भेडिया, ऊँट से सहित रथ को खींचता हुआ दक्षिण दिशा में जावे तो उस मनुष्य का मरण होता है।। ३५॥ कृष्णवासायदाभूत्वा प्रवासं नावगच्छति। मार्गे सभयमाप्नोति याति दक्षिणगो वधम् ।। ३६ ॥ (कृष्णवासायदा भूत्वा) स्वप्न में यदि कृष्णवास होकर (प्रवासं नावगच्छति) प्रवास को प्राप्त नहीं होता है (मार्गेसभयमाप्नोति) और मार्ग में भय उत्पन्न हो एवं (दक्षिणगोयाति) दक्षिण की और जाता हुआ दिखे तो (वधम्) समझो मरण होगा। __ भावार्थ-यदि स्वप्न में कृष्णवास होकर प्रवास न करे मार्ग में भय हो और दक्षिण की ओर जाता हुआ दिखे तो समझो मरण होगा ॥३६ ।। Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडर्विशतितमोऽध्यायः यूपमेकखरं शूलं यः स्वप्नेष्वभिरोहति। सा तस्य पश्चिमा रात्री यदि साधु न पश्यति ॥ ३७॥ (य:) जो व्यक्ति (स्वप्ने) स्वप्न में (यूपमेकखरं शूलं अभिरोहति) यज्ञस्तम्भ, गर्दभ, शूल पर आरोहण (सा) वह भी (पश्चिमा रात्री) पश्चिम रात्रि में देखता है तो (तस्य) उसका (यदि साधु न पश्यति) कल्याण नहीं होता है। भावार्थ--जो व्यक्ति स्वप्न में यज्ञस्तम्भ पर व गधे पर अथवा शूल पर आरोहण करता हुआ पिछली रात्री में अपने को देखता है उसका कल्याण नहीं होता है।। ३७॥ दुर्वासः कृष्णभस्मश्च वामतैलविपक्षितम्। सा तस्य पश्चिमा रात्री यदि साधु न पश्यति ॥ ३८॥ (यदि) यदि (पश्चिमारात्री) पश्चिम रात्री में (दुर्वासः कृष्णभस्मञ्च) दुर्वासा काली भस्म और (वामतैलविपक्षितम्) तैल का पान करता हुआ देखे तो (सा) उस मनुष्य का (साधु न पश्यति) कल्याण नहीं देखा गया है। भावार्थ-यदि पश्चिमरात्री में दुर्वासा, कालीभस्म, तैलपान करता हुआ अपने आपको स्वप्न में देखे तो समझो उसका मरण अवश्य होगा ।। ३८॥ ‘धनप्राप्तिस्वप्न' अभक्ष्यभक्षणं चैव पूजितानां च दर्शनम्। कालपुष्पफलं चैव लभ्यतेऽर्थस्य सिद्धये॥३९॥ (अभक्ष्यभक्षणंचैव) अभक्ष्य का भक्षण और (पूजितानां च दर्शनम्) पूज्य मनुष्यों का दर्शन (कालपुष्प फलं चैव) सामायिक पुष्प, फल, का दर्शन स्वप्न में हो तो (लभ्यतेऽर्थस्यसिद्वये) अर्थसिद्धिप्राप्त होती है। भावार्थ-यदि स्वप्न में व्यक्ति अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण करे एवं अपने पूज्य पुरुषों का दर्शन करे अथवा सामायिक, पुष्प, फलों का दर्शन करे तो उस मनुष्य को अवश्य ही धन की प्राप्ति होती है।। ३९ ।। . Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता नागाग्रे वेश्मनः सालो यः स्वप्ने चरते नरः । सोऽचिराद् वमते लक्ष्मी क्लेशं चाप्नोति दारुणम् ॥ ४० ॥ ७१८ (यः) जो ( नरः) मनुष्य (स्वप्ने) स्वप्न में (नागाग्रेवेश्मनः सालो चरते ) महल, कोट, परकोटा पर चढ़ता हुआ देखे तो (सोऽचिराद् वमते लक्ष्मी ) वह चिरकाल की प्राप्त की हुई लक्ष्मी का त्याग करता है (दारुणम् क्लेशं चाप्नोति ) और भयंकर दुःख उठाता है। भावार्थ -- जो मनुष्य स्वप्न में अपने को परकोटे अथवा महल पर चढ़ता हुआ दिखे तो चिरकाल तक प्राप्त की हुई उसकी लक्ष्मी नष्ट हो जाती है और उसको भयंकर कष्ट उठाना पडता है ॥ ४० ॥ च । दर्शनं ग्रहणं भनं शयनासन मेव प्रशस्तमाम मांसं च स्वप्ने वृद्धिकरं हितम् ॥ ४१ ॥ ( स्वप्ने) स्वप्न में (मांस) मांस का ( दर्शनंग्रहणं भनं ) दर्शन, ग्रहण, भन ( शयनासनमेवच ) और शयन, आसन करना ( प्रशस्तमाम वृद्धिकरं हितम् ) प्रशस्त और वृद्धि कारक व हितकर होता है। भावार्थ - यदि स्वप्न में मनुष्य मांस का दर्शन करता है अथवा ग्रहण करता है, भग्न होता है अथवा शयन आसन करना प्रशस्त माना गया है वृद्धि कारक माना गया है और हित कर माना गया है ॥ ४१ ॥ पक्कमांसस्य घासाय भक्षणं ग्रहणं तथा । स्वप्ने व्याधि भयं विन्द्याद् भद्रबाहुवचो यथा ॥ ४२ ॥ (स्वप्ने) स्वप्न में (पक्कमांसस्य) पका हुआ मांस का ( घासाय भक्षणं ग्रहण तथा ) घास तथा खाना व ग्रहण करना देखे तो ( व्याधि भयं विन्द्याद्) व्याधिभय होता है ऐसा जानना चाहिये (भद्रवाहुवचोयथा ) ऐसा भद्रबाहु स्वामी का बचन है। भावार्थ — यदि स्वप्न में मनुष्य पका मांस का भक्षण करे ग्रहण करे तो उसे रोग भय होगा ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है ॥ ४२ ॥ ! Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदिशतितमोऽध्यायः छर्दने मरणं विन्धादर्थनाशो विरेचने। छत्रो यानाद्य धान्यानां ग्रहण मार्गमादिशेत् ॥४३॥ __ यदि स्वप्न में व्यक्ति (छर्दन) वमन करना देखे तो (मरणं) मरण होता है (अर्थनाशो विरेचनेविन्द्या) विरेचन देखने से धन का नाश जानना चाहिये (यानाद्य छत्रो मार्गग्रहण) वाहनादि के छत्र के मार्ग में ग्रहण करना (धान्यानामादिशेत्) धान्यों का अभाव होम, ऐसा समझो: भावार्थ-यदि स्वप्न में व्यक्ति वमन करता हुआ देखे तो मरण होगा, अथवा मल करता हुआ देखे तो धन का नाश होता है, और मार्ग में वाहनादिक का छत्र ग्रहण करना धान्यो का अभाव कहा गया है॥४३।। मधुरे निवेश स्वप्ने दिवा च यस्य वेश्मनि। तस्यार्थं नाशं नियतं मूर्ति वाऽप्यभिनिर्दिशेत्॥४४॥ (स्वप्ने) स्वप्न में (दिवा) दिन में (यस्यवेश्मनि) जिसके घर में (मधुरेनिवेश) प्रवेश करता हुआ देखे तो (तस्यार्थनाशं) उसके धन का नाश होता है (वाऽप्य) और (नियतपूर्ती अभिनिर्दिशेत्) नियम से भरण भी होता है ऐसा निर्देश किया गया भावार्थ स्वप्न में जो व्यक्ति दिन में जिसके घर में प्रवेश करता हुआ देखे तो उसके धन का नाश अवश्य होता है वा उसका मरण होता है ऐसा निर्देशन किया गया है।। ४४॥ यःस्वप्ने गायते हसतेनृत्यते पठते नरः। गायने रोदनं विन्धात् नर्तने वध बन्धनम्॥४५॥ (यः) जो (नरः) मनुष्य (स्वप्ने) स्वप्न में (गायते हसते नृत्ये ते पठते) गाता है, हसंता है नाचता है पढ़ता है (गायनेदोदनं नर्तने) गाता है रोता है नृत्य करता है (वधबन्धनम् विन्द्यात्) तो उसका वध, बंधन होता ऐसा जानो। भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में गाता है, हसता है, नाचता है, पढ़ता है। गाने से रोना पड़ता है और नाचना देखने से वध बंधन होता है।। ४५॥ Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ७२० हसने शोचनं ब्रूयात् कलहं पठने तथा। बन्धने स्थानमेवस्यात् मुक्तो देशान्तरं ब्रजेत् ।। ४६॥ यदि स्वप्न में (हसने) हँसना देखने से शोक तथा (पठने कलह) तथा पढना देखने से कलह होगा (बन्धने स्थानमेवम्गात) बन्धन देखने मे स्थान की प्राप्ति होगी (मुक्तोदेशान्तरं व्रजेत्) बन्ध से मुक्त देखने से देशान्तर गमन होता है। ___ भावार्थ-स्वप्न में हंसना देखने से शोक बढेगा, पढ़ना देखने से कलह बढेगा बन्धन से युक्त देखने से स्थान प्राप्ति होगी और बन्धन मुक्त देखने से देशान्तर गमन होता है।। ४६।। सरांसि सरितो वृद्धान् पर्वतान् कलशान् गृहम्। शोकातः पश्यति स्वप्ने तस्य शोकोऽभिवर्धते॥४७॥ जो मनुष्य (स्वप्ने) स्वप में (सरांसि सरितो वृद्धान्) तालाब, नदी वृद्ध (पर्वतान् कलशान् गृहम्) पर्वत, कलश, गृहों, (शोकार्त्तः पश्यति) को शोकार्त देखता है (तस्य शोकोऽभिवर्धते) उसका शोक बढ़ जाता है। भावार्थ जो मनुष्य स्वप्न में तालाब, नदी वृद्ध पर्वत, कलश गृह को शोक करते हुऐ देखे तो उसका शोक बढ़ जाता है अर्थात् वह शोकाकुलित होता है॥४७॥ मरुस्थली तथा भ्रष्ट कान्तारं वृक्षवर्जितम्। सरितो नीर हीनाश्च शोकार्तस्य शुभावहाः॥४८॥ (शोकार्तस्य) यदि स्वप्न में अपने को शोकाकुलित होता हुआ (मरुस्थली) मरु भूमि को (तथा) तथा (वृक्षवर्जितम् कान्तारं) वृक्ष से रहित वन (सरितो नीर हीनाश्च) नदी के पानी से रहित देखे तो (शुभावहा:) वह उसके लिये शुभप्रद है। भावार्थयदि स्वप्न में अपने को शोकाकुलित होता हुआ मरुभूमि को तथा वृक्ष से रहित वन नदी को पानी से रहित देखे तो उसके लिये शुभप्रद है॥४८॥ आसनं शयनं यानं गृहं वस्त्रं च भूषणम् । स्वप्ने कस्मै प्रदीयन्ते सुखिनः श्रियमाप्नुयात्॥४९॥ Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२१ षड्विंशतितमोऽध्यायः ( स्वप्ने) स्वप्न में कोई (आसनं शयनयानं) आसन, शयन, गृह (वस्त्रंच) और वस्त्र को (भूषणम्) भूषणों को (कस्मै प्रदीयन्ते) किसी को देवे तो (सुखिन: श्रियमाप्नुयात) सुखी होगा लक्ष्मी की प्राप्ति होगी । भावार्थ-स्वप्न में कोई आसन शयन घर वस्त्र, भूषण को किसी को देवे तो समझो वह सुखी होगा लक्ष्मी की प्राप्ति होगी ॥ ४९ ॥ अलङ्कृतानां द्रव्याणां वाजि वारणयोस्तथा । वृषभस्य च शुक्लस्य दर्शने प्राप्नुयाद् यशः ॥ ५० ॥ ( अलंकृतानां द्रव्याणां ) अलंकृत पदार्थ (वाजि वारणयोस्तथा) घोड़ा हाथी तथा (वृषभस्य च शुक्लस्य) सफेद बैल (दर्शन) देखे तो ( यशः प्राप्नुयाद्) यश: की प्राप्ति होती है। भावार्थ - यदि स्वप्न में अलंकृत पदार्थ हाथी, घोडे, सफेद बैल आदि का देखना समझो यशः की प्राप्ति होती है ॥ ५० ॥ पताकामसिया वा शुक्ति मुक्तान् सकाञ्चनान् । दीपिकां लभते स्वप्ने थोऽपि ते लभते धनम् ॥ ५१ ॥ ( स्वप्ने) स्वप्न में (योsपि ) जो भी ( पताकामसियष्टिं च) पताका तलवार, लकड़ी ( शुक्ति मुक्तान् सकाञ्चनान् ) शुक्ती, मुक्ता सोना (दीपिकांलभते ) दीपक आदि को प्राप्त करता है तो (ते) वे (धनम् लभते ) धन को प्राप्त करता है। भावार्थ-स्वप्न में जो भी पताका तलवार लकड़ी, शुक्ती, मोती सोना दीपक आदि को प्राप्त करता हुआ देखे तो वो धन को प्राप्त करता है ।। ५१ । मूत्रं वा कुरुते स्वप्ने पुरीषं वा सलोहितम् । प्रतिबुध्येत्तथा यस्व लभते सोऽर्थनाशनम् ।। ५२ ।। • (स्वप्ने) स्वप्न में (मूत्रं वा कुरुते पुरीषं वासलोहितम् ) जो कोई मल-मूत्र देखता हुआ ( प्रतिबध्ये तथायच्च) जाग्रत हो जाता हैं ( सोऽर्थलभतेनाशनम्) तो प्राप्त किया हुआ धन भी नाश हो जाता है। ' भावार्थ- स्वप्न में जो कोई मल-मूत्र देखता हुआ जाग्रत हो जाता है उसका धन नाश हो जायगा ॥ ५२ ॥ Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ७२२ अहिर्वा वृश्चिक: कीटो यं स्वप्ने दशते नरम्। प्राप्नुयात् सोऽर्थवान् य: स यदि भीतो न शोचति ॥५३॥ (स्वप्ने) स्वप्न में (यं) जिस (नरम्) मनुष्य को (अहिर्वा वृश्चिक: कीटो) सांप बिच्छू या कीड़ा (दशते) काटता है और (स:) वह (यदि भीतो न शोचति) यदि डरता नहीं है और जाग्रत हो जाता है तो (सो) वो (ऽर्थवान् प्राप्नुयात्) अर्थ को प्राप्त करता है। ___ भावार्थ-स्वप्न में जिस मनुष्य को सांप या बिच्छू कीड़ा काटता है और वह डरता नहीं है जाग्रत हो जाता है तो उसको बहुत धन की प्राप्ति होती है।। ५३॥ पुरीषं छर्दनं यस्तु भक्षयेन्न च शंकयेत्। मूत्रं रेत्तश्च रक्तं च स शोकात् परिमुच्यते॥५४॥ जो मनुष्य स्वप्न में (पुरीष) टट्टी (छर्दन) वमन् (मूत्र) मूत्र (रतच्च) वीर्य और (रक्तं) रक्त (यस्तुभक्षयेन च शंकयेत्) आदि इन पदार्थों का भक्षण करता है (सशोकात् परिमुच्यते) वह शोक से शीघ्र छूट जाता है। भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में मल, वमन, मूत्र, वीर्य, रक्त आदि का भक्षण करता हुआ देखता है, वह शोक से शीघ्र छूट जाता है॥५४॥ कालेयं चन्दनं रो धं घर्षणे च प्रशस्यते। अत्र लेपानि पिष्टानि तान्येव धनवृद्धये॥५५॥ जो मनुष्य में स्वप्न में (कालेयं चन्दनं रोधं) कालागुरु चन्दन, रोन (धर्षणे च प्रशस्यते) को घिसता हुआ प्रशंसा करता है (अत्रलेपानियिष्टानि) उनका लेप करता हुआ व घिसता हुआ देखे तो (तान्येव धनवृद्धये) उसको धन की वृद्धि होती है। भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में कालागुरु चन्दन, रोध्र को घिसता हुआ प्रंशसा करे अथवा उसका अपने पर लेप करे एवं इन पदार्थों को घिसता हुआ देखे तो समझो उसको धन की वृद्धि होती है || ५५ ।। Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पविशतितमोऽध्यायः रक्तानां करवीराणामुत्पलानामुपानयेत्। लम्भो वा दर्शने स्वप्ने प्रयाणा वा विधीयते ॥५६॥ (स्वप्ने) स्वप्न में (रक्तानां करवीराणाम) लाल कनेर के फुलों को (उत्पलानामुपानयेत्) अथवा नील बालों का (पानि लामो यान प्रा. काना देखने से (प्रयाणावाविधीयते) उसका प्रयाण होगा। भावार्थ-जो स्वप्न में लाल कनेर के फूलों को व नील कमलों को तोड़ना देखे अथवा ऐसे ही देखे तो उसका प्रयाण होने वाला है ऐसा समझो ।। ५६ ॥ कृष्णं वासो हयं कृष्णं योऽभिरूढः प्रयाति च। दक्षिणां दिशमुद्विग्नः सोऽभिप्रेतोयतस्तत: ।। ५७॥ (यो) जो मनुष्य अपने को (कृष्णवासो) काले कपडे पहन कर (हयंकृष्णं) काले घोड़े पर (अभिरूढः) सवारी कर (दक्षिणां दिश मुद्धिग्न प्रयाति च) उद्विग्न होता हुआ दक्षिण दिशा में जावे तो (सोऽभिप्रेतो यतस्तत:) उसकी मृत्यु अवश्य होती है। भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में अपने को काले कपड़े पहने हुए काले घोड़े पर सवारी कर उद्विग्न मन होता हुआ दक्षिण दिशा में जावे तो उसकी मृत्यु अवश्य होती है॥५७॥ आसनं शाल्मलीं वापि कदली पालिभद्रिकाम्। पुष्पितां यः समारूढः सवितमधि रोहति ।।५८॥ (य:) जो मनुष्य स्वप्न में (पुष्पितं) फूलों में सहित (शाल्मलींवापिदली) शाल्मली, केला (पालिभद्रिकाम्) देवदारु व नीम के पेड़ पर (आसन) बैठना (समारूढ:) या चढ़ना देखने से (सवित मधिरोहति) उसे संपत्ति प्राप्त होती है। भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में फूल से सहित शाल्मली, केला वा नीम या देवदारु के पेड़ पर चढ़कर बैठना देखने से उसे संपत्ति प्राप्त होती है।। ५८॥ रुद्राक्षी विकृता काली नारी स्वप्ने च कर्षति । उत्तरं दक्षिणां दिशं मृत्युः शीघ्रं समीहते॥५९।। Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु मंहिता ७२४ (स्वप्ने) स्वप्ने में (रुद्राक्षी) रोद्ररूप धारण कर (विकृता) विकृत रूप धारण कर (नारी) स्त्री यदि (उत्तरंदक्षिणांदिशं च कर्षति) उत्तर या दक्षिण में खींचकर ले जावे तो (शीघ्रं मृत्यु:समीहते) शीघ्र ही मृत्यु प्राप्त करता है। भावार्थ-स्वप्न में यदि मनुष्य रौद्र रूप और विकृत रूप धारण कर कोई स्त्री उत्तर या दक्षिण दिशा में स्वयं को खींचकर ले जावे तो उसकी शीघ्र ही मृत्यु हो जाती है। ॥ ५९|| जटी मुण्डी विरूपाक्षां मलिनां मलिन वाससम्। स्वप्ने यः पश्यति ग्लानिं समूहे भयमादिशेत्॥६०॥ (स्वप्ने) स्वप्न में (य:) जो मनुष्य (जरी) जटाधारी (मुण्डी) मुण्डी, (विरूपाक्षां) विरूप कार्य वाले, (मलिनांमलिनवाससाम) मलिन व मलिन कपड़े वाली स्त्री (पश्यति) दिखाई देवे (ग्लानि) और ग्लानि हो जावे तो (समूहेभय मादिशेत्) समूह से भय उपस्थित हो ऐसा जानो । भावार्थ-जटाधारी, सिरमुण्डित, विरूपाकृति वाली, काली स्त्री यदि स्वप में ग्लानिपूर्वक देखना सामूहिक भय का सूचक है।। ६०॥ तापर्स पुण्डरीकं वा भिक्षु विकलमेव च। दृष्ट्वास्वप्ने विबुध्येत ग्लानिं तस्य समादिशेत्॥११॥ (स्वप्ने) स्वप्पे में जो मनुष्य (तापसं) तापस (पुण्डरीकं) पुण्डरीक (वा) वा (भिडं विकल मेव च) विकल भिक्षु को (दृष्ट्वा) देखकर (विबुध्येत्) विबुधित हो जाता है तो (तस्य) उसको (ग्लानि समादिशेत्) ग्लानि होती है। भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में तापस, पुण्डरीक, विकल भिक्षु को देखकर जाग्रत हो जाता है उसे ग्लानि होती है॥६१॥ स्थले वाऽपि विकीर्येत जले वा नाश माप्नुयात् । यस्य स्वप्ने नरस्यास्य तस्य विन्द्यान्महद् भयम् ॥६२॥ . (यस्य) जिस (नरस्य) मनुष्य के (स्वप्ने) स्वप्न में अपने आपको (स्थले वाऽपि) भूमि पर और भी (विकीर्येत) फेल जाना देखे अथवा (जलेवा नाशमाप्नुयात्) जले में नाश देखे तो (तस्यमहद् भयम् विन्द्याद) उसको महानभय होगा ऐसा जानो। Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२५ | पविशतितमोऽध्याय: भावार्थ-जिस मनुष्य को स्वप्न में अपने आप को भूमि पर या जल में फैलता हुआ देखे तो समझो उसे महान् भय होने वाला है।। ६२॥ वल्लीगल्मसमोवक्षो वल्मीकोयस्य जायते। शरीरे तस्य विज्ञेयं तदंगस्य विनाशनम्॥१३॥ (यस्य) जिस मनुष्य के (शरीरे) शरीर में (वल्लीगुल्मसमोवृक्ष) बल्ली गुल्म वृक्ष (जायते) होते हुए दिखे और (वल्मीको) वामी हो जाती है तो (विज्ञेयं) जानना चाहिये कि (तस्य) उसका (तदंगस्य विनाशनम्) विनाश अवश्य होगा। भावार्थ:-जिस मनुष्य के शरीर में स्वप्न में लता, गुल्म, वृक्ष और वामी होती हुई दिखे तो जानना चाहिये कि उसका नाश अवश्य होगा॥६३ ।। मलो वा वेणु गुल्मी वा खघुरो हरितो द्रुमः। मस्तके जायते स्वप्ने सस्य साप्ताहितः स्मतः ॥ ६४॥ (स्वप्ने) स्वप्न में जिस मनुष्य के (मस्तके) मस्तक पर (मलो वा वेणु गुल्मो वा) मल, बांस, गुल्म एवं (खजूरोहरितोद्गुमः) खजूर और हरे वृक्षों को (जायते) होता हुआ देखे तो (तस्य) उसकी (साप्ताहिकः स्मृतः) एक सप्ताह में मृत्यु हो जाती है। भावार्थ-स्वप्न में जिस मनुष्य के मस्तक पर, मल बांस, गुल्म, खजुर और हरे वृक्षों का होता हुआ दिखे तो उसकी एक सप्ताह में मृत्यु होती है।। ६४ ॥ ___ हृदये यस्य जायन्ते तद्रोगेण विनश्यति। . अनङ्ग जायमानेषु तदङ्गस्य विनिर्दिशेत् ॥६५॥ (यस्य) जिसको (हृदये) हृदय में उपर्युक्त वृक्षादिक (जायन्ते) उत्पन्न होते हैं (तद्रोगेण विनश्यति) तो व्यक्ति का हृदयरोग से नाश होता है (अनम जायमानेषु) जिस अंग में ये वृक्षादिक दिखे तो (तदनस्य विनिर्दिशेत्) उसी अंग के रोग से उसकी मृत्यु होगी। भावार्थ-यदि हृदय में उक्त वृक्षादिको का उत्पन्न होना स्वप्न में देखें तो हृदय रोग से उसका विनाश होता है। जिस अंग में उक्त वृक्षादिकों का उत्पन्न होना स्वप्न में दिखलाई पड़ता है। उसी अंग की बीमारी उसके द्वारा होती है ।। ६५॥ Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता रक्तमारला तथा माला रक्तं वा सूत्र मेव च। यास्मिन्नेवाव वध्येत् तदनेन विक्लिश्यति॥६६॥ स्वप्न में जिस अंग को (रक्तमाला तथा माला रक्तवासूत्रमेव च) लाल माला, मात्र माला अथवा लाल डोरे से (यास्मिन्नेवाववध्येत) बांधा हुआ दिखे या बांधे तो (तदनेनविक्तिश्यति) उसी अंग से नाश को प्राप्त होगा। भावार्थ-स्वप्न में जो मनुष्य अपने अंगों को लाल माला तथा मात्र माला या लाल डोरे से बांधे तो उस अंग में कोई रोग उत्पन्न होगा और उस मनुष्य का अवश्य मरण होगा 11 ६६॥ ग्राहो नरो नगं कशित् यदा स्वप्ने च कर्षति। बद्धस्य मोक्षमाचष्टे मुक्तिं बद्धस्य निर्दिशेत् ॥६॥ (यदा स्वप्ने) जब स्वप्न में (नरो) मनुष्य को (ग्राहो नगं कञ्चित्) मकर या घड़ियाल (कर्षति) खींचता हुआ दिखे तो (बद्धस्य मोक्षमाचष्टे) बंधन पड़ा हुआ व्यक्ति छुट जाता है (बध्दस्य मुक्ति निर्दिशेत्) अथवा मुकदमें में बंधे हुए व्यक्ति की जीत होती है। भावार्थ-जब स्वप्न में मनुष्य को मकर या घड़ियाल पकड़ कर खींचे तो समझो उसकी कारागार से छुट्टी हो जाती है और मुकदमें में भी जीत होती है॥६७|| पीतं पुष्पं फलं यस्मै रक्तं वा संप्रदीयते। कृता कृतं सुवर्णं वा तस्य लाभो न संशयः॥६८॥ स्वप्न में यदि (यस्मै) जिसको भी (पीतं पुष्पं फलं रक्त वा संप्रदीयते) पीले या लाल फल पुष्प देते हुए दिखाई पड़े तो (कृता कृतं सुवर्णं वा) सोना, चांदी का (तस्य) उसको (लाभो न संशयः) लाभ होता है इसमें संदेह नहीं है। भावार्थ स्वप्न में यदि जिसको भी पीला पुष्प फल या लाल फल पुष्प देते हुए देखे उसको सोना चांदी का लाभ होगा इस संदेह नहीं है॥६८॥ - - Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i ७१७ षड्वंशतितमोऽध्यायः यानं सितमाल्यस्य श्वेतमांसासनं श्वेतानां वाऽपि द्रव्याणां स्वप्ने धारणम् । दर्शनमुत्तमम् ॥ ६९ ॥ ( श्वेतमांसासन) श्वेतमांस श्वेत आसन, (यानं सितमाल्यस्य धारणम्) श्वेत सवारी, श्वेत माला का धारण करना दिखे अथवा (श्वेतानां वाऽपि द्रव्याणां ) श्वेत द्रव्यों का देखना (स्वप्ने दर्शनमुत्तमम् ) स्वप्न उत्तम होता है इनका दर्शन अच्छा फल देता है। भावार्थ-यदि स्वप्न में सफेद मांस, सफेद सवारी, सफेद आसन व सफेद माला का धारण करना दिखे तो वा अन्य कोई सफेद द्रव्य दिखे तो समझो इसका फल दृष्टा को अच्छा होगा यह स्वप्न उसके लिये उत्तम है । ६९ ॥ योऽभिरूढः बलीवर्दयुतं यानं प्रधावति । प्राची दिशमुदीचीं वा सोऽर्थलाभमवाप्नुयात् ॥ ७० ॥ जो व्यक्ति स्वप्न में (प्राचीं दिशमुदीचीं वा ) पूर्व या उत्तर दिशा की और ( बलीवर्दयुतं यानं) बल से युक्त सवारी पर ( योऽभिरूढ: प्रधावित) आरोहण कर दौड़ता है (सो) वह (अर्थलाभमवाप्नुयात्) अर्थ लाभ को प्राप्त करता है। भावार्थ — जो व्यक्ति स्वप्नमें पूर्व या उत्तर दिशा की और बैल से युक्त सवारी पर आरोहण कर दौड़ता है तो उसे बहुत धन की प्राप्ति होती है ॥ ७० ॥ नगवेश्म पुराणं तु दीप्तानां तु शिरस्थितः । यः स्वप्ने मानवः सोऽपि महीं भोक्तुं निरामयः ॥ ७१ ॥ ( यः स्वप्ने ) जो स्वप्न में (मानव:) मनुष्य ( नग वेश्मपुराणं तु) पर्वत या घर पुराणा ( दीप्तानां ) खंडहर को ( शिरस्थितः ) शिर पर स्थित देखता है (सोऽपि मंहीं भोक्तुं निरामयः) वह भी इस पृथ्वी को निरामय होकर भोगता है। भावार्थ- जो मनुष्य स्वप्न में पर्वत, महल या पुराना खंडहर को अपने सिर पर स्थित देखता है वह पृथ्वी का निरामय होकर पालन करता है ॥ ७१ ॥ मृण्मयं नागमारूढः सागरे प्लवतेहितः । तथैव च विबुध्येत सोऽचिराद् वसुधाधिपः ॥ ७२ ॥ Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता जो स्वप्न में (मृण्मयं नागमारूढः) मिट्टी के हाथी पर चढ़ कर (सागरेप्लवतेहित: ) समुद्र को पार करता हुआ देखे (तथैव ) और उसी प्रकार ( विबुध्येत ) जाग्रत होता है (सोऽचिराद्वसुधाधिपः ) वह चिरकाल तक पृथ्वी का राज्य भोगता है। भावार्थ जो स्वप्न में मिट्टी के हाथी पर चढ़ कर समुद्र में प्रवेश करे और उसी स्थिति में जाग्रत हो जाय तो समझो उसको पृथ्वी का चिरकाल तक राज्य मिलने वाला है ॥ ७२ ॥ पाण्डुराणि च वेश्मानि पुष्प शाखा फलान्वितान् । यो वृक्ष सफा चेष्टते तदा ॥ ७३ ॥ ( यो स्वप्ने ) जो मनुष्य स्वप्न में (पाण्डुराणि च वेश्मानि ) सफेद घर में (पुष्प शाखा फलान्वितान् ) स्थित पुष्प फल शाखाओं से युक्त (वृक्षान) वृक्षो के ( पश्यति) स्वप्न में देखता है ( तदा) तब ( सफलं चेष्टते) उसकी सफल चेष्टा समझो । भावार्थ — जो मनुष्य स्वप्न में सफेद घर में पुष्प शाखा फल से युक्त वृक्ष को देखता है। तब उसकी चेष्टा सफल है अर्थात् उसको कोई अच्छा फल मिलने वाला है ॥ ७३ ॥ वासोभिर्हरितैः : शुक्लैर्वेष्टित: प्रतिबुध्यते । दह्यते योsमिनावाऽपि बध्यमानो विमुच्यते ॥ ७४ ॥ 2 ७२८ जो मनुष्य स्वप्न में (चासोभिर्हरितैः शुक्लैर्वेष्टितः ) सफेद और हरे वृक्षों से ष्ट करता हुआ (प्रतिबुध्यते) जाग्रत हो जाता है ( वाऽपि ) और भी (दह्यतेयोऽग्निना) अग्नि में जलता हुआ देखे तो (बध्यमानो विमुच्यते) बेड़ियों से जकड़ा हुआ व्यक्ति भी छूट जाता है। भावार्थ — जो मनुष्य स्वप्न में सफेद और हरे वृक्षों से बेष्टित करता हुआ अपने को देखे तो और अग्नि में जलता हुआ देखे तो बेड़ियों से बंधा मनुष्य भी छूट जाता है ।। ७४ ॥ दुग्ध तैल घृतानां वा प्रशस्तं दर्शनं स्वप्ने 1 क्षीरस्य च विशेषतः । भोजनं न प्रशस्यते ।। ७५ ।। (स्वप्ने) स्वप्न में (दुग्ध तैल घृतानां) दुध तैल, घी, ( वा क्षीरस्य विशेषतः ) I · Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२९ पइविंशतितमोऽध्यायः एवं विशेष रूप से दुध को (दर्शन) दर्शन (प्रशस्तं) प्रशस्त माना गया है किन्तु (गोजनं नप्रशस्यते) भोजन को प्रशस्त नहीं माना है। भावार्थ-यदि स्वप्न में व्यक्ति दुध, घी, तैल और विशेष रूप से दुध को देखता है तो उसे प्रशस्त माना गया है किन्तु भोजन को देखना प्रशस्त नहीं माना गया है।। ७५|| अङ्ग प्रत्यङ्गन्युक्तस्य शरीरस्य विवर्धनम्। प्रशस्तं दर्शनं स्वप्ने नख रोम विवर्धनम्॥६॥ (स्वप्ने) स्वप्न में (अजप्रत्यङ्ग युक्तस्य) अङ्ग प्रत्यङ्ग युक्त (शरीरस्यविवर्धनम्) शरीर की वृद्धि होते हुए (दर्शन) देखना और (नख, रोम, विवर्धनम्) नख, केश व रोमों की वृद्धि होते हुए देखना ये सब (प्रशस्तं) प्रशस्त स्वप्न है। भावार्थ-जो स्वप्न में अपने शरीर के अङ्ग प्रत्यङ्ग को वृद्धि होते हुए देखे वा नख केश रोमादिक की वृद्धि होते हुए देखे तो समझो यह स्वप्न शुभ है प्रशस्त है अच्छा फल देने वाला है॥७६ ।। उत्सङ्ग पूर्यते स्वप्ने यस्य थान्यैरनिन्दितः। ___ फल पुष्पैश्च संप्राप्त: प्राप्नोति महतीं श्रियम्॥७७॥ (स्वप्ने) स्वप्ने में (यस्य) जिसकी भी (उत्सङ्ग) गोद (अनिन्दितैः) सुन्दर (धान्यैः) धान्यों के द्वारा वा (फल पुष्पैश्चसं प्राप्त: पूर्यते) फल पुष्प से भर दी जावे तो (महतींश्रियम् प्राप्नोति) उसको महान लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। भावार्थ-स्वप्न में जिस मनुष्य की गोद धान्यों सेवा फल पुष्पों से भरी जावे तो वह महान लक्ष्मी प्राप्त करता है।। ७७॥ कन्या वाऽऽर्यापि वा कन्या रूपमेव विभूषिता। प्रकृष्टा दृश्यते स्वप्ने लभते योषितः श्रियम्॥७८॥ (स्वप्नो) स्वप्नमें यदि (कन्यावाऽऽपि वा) कन्या दिखे एवं आर्यिका दिखे (वा कन्यारूपमेव विभूषिता) अथवा रूप सौन्दर्य से विभूषित कन्या दिखे (प्रकृष्टा दृश्यतें) और प्रकृशष्ट रूप से दिखे (योषित: श्रियम् लभते) तो स्त्री रूपी सुन्दर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | ७३० भावार्थ-स्वप्नमें यदि कन्या दिखे या आर्यिका दिखे अथवा रूप सौन्दर्य से सहित कन्या दिखे तो वह व्यक्ति सुन्दर स्त्री की प्राप्ति करता है॥७८॥ प्रक्षिप्यति यः शस्त्रैः पृथिवीं पर्वतान् प्रति। शुमारोहते यस्य सोऽभिषेकमवाप्नुयात् ॥७९॥ जो (स्वप्ने) स्वप्न में (प्रक्षिप्यति शस्त्रैः) शस्त्रोंको फेंकता है (पृथिवीं पर्वतान् प्रति) पृथ्वि और पर्वतों के प्रति (यण शुभमारोहते) जो आरोहण करता है (मोऽभिषेक मवाप्नुयात्) वह अभिषेक को प्राप्त करता है। भावार्थ-जो स्वप्नमें शस्त्रों को पृथ्वि और पर्वतों के प्रति क्षेपन करता है और पर्वत पर चढ़ता है उस व्यक्ति का राज्याभिषेक होता है॥७९॥ नारी पुस्त्वं नरः स्त्रीत्वं लभते स्वप्न दर्शने। बध्येते तावुभौ शीघ्रं कुटुम्बपरिवृद्धये।। ८०॥ यदि स्वप्न में (नारीपुंस्त्वं) नारी पुरुषपने और (नर: स्त्रीत्वं) पुरुष स्त्रीपने को (लभते दर्शने) प्राप्त होते हुए दिखाई दे (तावुभौ शीघ्रं कुटुम्ब परिवृद्धये बध्यते) वह व्यक्ति शीघ्र ही कुटुम्ब के बन्धन में बाँधा जाता है। भावार्थ-यदि स्वप्न में स्त्री पुरुष का रूप, और पुरुष स्त्री रूप का देखे तो वह कुटुम्ब के बन्धन में बाँधा जाता है।। ८० ।। राजा राजसुतश्चौरो नो सह्याधन धान्यतः। स्वप्ने संजायते कश्चित् स राज्ञामभिवृद्धये॥८१॥ (स्वप्ने) स्वप्न में यदि कोई (राजा) राजा (राजसुतश्चौरो) राजपुत्र या चोर होता हुआ देखे और (सह्याधन धान्यत:) अपने को धन-धान्य से पूर्ण देखे तो (कश्चित सराजामभिवृद्धये) उस राजा की अभिवृद्धि होती है। भावार्थ-यदि स्वप्न में कोई राजा धन-धान्य से पूर्ण राजपुत्र या चोर होता हुआ देखे तो उस राजा की अभिवृद्धि होती है।। ८१॥ Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३९ षडविंशतितमोऽध्यायः | रुधिराभिषिक्तां कृत्वा यः स्वप्ने परिणीयते। धन धान्य श्रिया युक्तो न चिरात् जायते नरः॥ ८२॥ (यः स्वप्ने) जो स्वप्न में (रुधिराभिषिक्तां कत्वा) रक्त से अभिषिक्त करके (परिणीयते) विवाह करता है वह (नरः) मनुष्य (धनधान्यश्रिया युक्तो) धन धान्य से युक्त (न चिरात् जायते) चिरकाल तक नहीं रहता है। भावार्थ-जो स्वप्न में रक्त से अभिषिक्त होता हुआ विवाह करता है उस मनुष्य की सम्पत्ति चिरकाल तक नहीं रहती है।। ८२॥ शस्त्रेण छिद्यते जिह्वा स्वप्नेयस्य कथञ्चन। क्षत्रियो राज्यमाप्नोति शेषा वृद्धिमवाप्नुयुः॥८३॥ (यस्य) जिसके (स्वप्ने) स्वप्न में (कथञ्चन) कदाचित् (शस्त्रेणछिद्यते जिह्वा) शस्त्र से जिह्वा छिदती हुई दिखे और अगर (क्षत्रियो राज्यमाप्नोति) वह क्षत्रिय हो तो राज्य प्राप्त करता है (शेषावृद्धिमवाप्नुयुः) शेष जन वृद्धि को प्राप्त करते भावार्थ-जिस मनुष्य की जिह्वा स्वप्न में कदाचित् शस्त्र से कटती हुई दिखे तो क्षत्रिय राजा होता है शेष जन वृद्धि को प्राप्त करते है।। ८३ 11 देव साधु द्विजातीनां पूजनं शान्तये हितम्। पापस्वप्नेषु कार्यस्य शोधनं चोपवासनम्॥८४।। (पापस्वप्नेषु) पाप रूप स्वप्न आने पर (देवसाधुद्विजातीनां) देव, गुरु, ब्राह्मणों के (हितम्) हित के लिये और (शान्तये) शान्ति के लिये (पूजन) पूजन (कार्यस्य) करना चाहिये (शोधनं चोपवासनम्) और उपवास से उसका शोधन करना चाहिये। भावार्थ-अशुभ स्वप्नों के आने पर देव, साधु, ब्राह्मणों की पूजा करे व उपवास करे उससे अशुभ स्वप्न शान्त हो जाते हैं ।। ८४ ।। एते स्वप्ना यथोद्दिष्टाः प्रायशः फलदा नृणाम्। प्रकृत्या कृपया चैव शेषाः साध्या निमित्ततः ।। ८५॥ Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता (एतेस्वप्ना) इतने प्रकार के स्वप्न (यथोद्दिष्टाः) जो कहे गये हैं (प्रायश: फलदानृणाम्) वह प्राय: मनुष्यों को फल देने वाले हैं (प्रकृत्या कृपया चैव) उनमें कुछ स्वभावत: है (शेष: साध्यानिमित्ततः) शेष निमित्त पाकर फलते है। भावार्थ—इतने प्रकार के स्वप्न जो कहे गये है प्राय: के मनुष्यों को फल देने वाले है उनमें कुछ स्वभावत और कुछ निमित्त पाकर फल देते है।। ८५॥ स्वप्नाध्यायममुं मुख्यं योऽधीयेत शुचिः स्वयम् । स पूज्योलभते राज्ञो नाना पुण्यश्च साधवः ।। ८६॥ (यो) जो ज्ञानी (अधीयेतशुचि स्वयम्) स्वयम् शुद्ध होकर अध्ययन करता है (मुख्यं ममुंस्वप्नाध्याय) मुख्य रूप से इस स्वप्नाध्याय का तो (स पूज्यो राज्ञो लभते) वह राजा के द्वारा पूजा को प्राप्त करता है (नाना पुण्यश्च साधवः) और नाना प्रकार के पुण्य प्राप्त करता है। भावार्थ-जो साधु ज्ञानी पुरुष स्वयं शुद्ध होकर इस स्वप्नाध्याय का अध्ययन करता है वह पुण्य संचित करता हुआ राजा के द्वारा पूजा को प्राप्त करता है।। ८६॥ विशेष-अब आचार्य इस छब्बीसवें अध्याय में स्वप्नोंका वर्णन कर रहे स्वप्नों का फल शुभाशुभरूप में होता है यह कर्मोदय से आता है। स्वप्न तीन कारणों से आता है बातज, पीतज, कफज, ये रोगजनित स्वप्न है, रोगजनित स्वप्नों का फल मिथ्या होता है, उसका कोई फल नहीं होता। आचार्य श्री ने रात्रि के चारों प्रहरों के अनुसार चार विभागों में बाँट दिया है। प्रथम प्रहर का स्वप्न अति दूर जाकर फल देता है। दूसरे प्रहर का स्वप्न उससे थोड़ा जल्दी फल देता है तीसरे प्रहर का स्वप्न और जल्दी फल देता है किन्तु अन्तिम प्रहा का स्वप्न शीघ्राति शीघ्र फल देता है। स्वप्नों के फल कृष्णपक्ष और शुक्ल की तिथियों के अनुसार होते हैं कृष्णपक्ष की कुछ तिथियों में आने वाले स्वप्न मिथ्या होते हैं या उल्टा फल होता है। शुक्ल पक्ष तिथियोंमें आने वाले स्वप्नोंका फल अवश्य होता है। मांगलिक द्रव्य, पंचपरमेष्ठि आदि स्वप्न में देखने पर उसका फल शुभ होता है, अमांगलिक वस्तुओं के देखने पर शुभफल भी और अशुभफल भी होता है। Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३३ षड़विंशतितमोऽध्यायः बहुत-से मरण सूचक स्वप्न भी होते हैं, रोगोत्पादक स्वप्न भी होते हैं इष्टनिष्ट रूप फल देने वाले भी स्वप होते है। ज्ञानी को सबका अध्ययन कर ही स्वप्नोंका फल कहना चाहिये। जैसे स्वप्नमें रक्त उल्टी यह सिद्ध करती है, कि स्वप्न दृष्ट्राकी शीघ्र ही मृत्यु होने वाली है। स्वप्न में भोजन किया जा रहा है ऐसा दिखे तो रोग उत्पन्न होगा ऐसा समझो यदि स्वप्न में काले विषधर (सप) के द्वारा अपने काटता हुआ देखे तो राज्य प्राप्ति होती है। इसी प्रकार इस अध्याय में पूर्णत: स्वप्नों का फलों का ही वर्णन किया है, दिन में तन्द्रारूप में यदि किसी को स्वप्न दिखे तो उसका कोई फल नहीं होता हैं। पर्वतारोहण करते दिखने पर समझो उनको राज्य की प्राप्ति होती है। किसी पर्वत से या ऊपर से नीचे गिरता हुआ दिखे तो समझो उसका पतन होने वाला __ अशुभ स्वप्नों के आने पर तुरन्त वापस सो जावे और प्रात: उठकर शान्ति कर्म अवश्य करे। शुभ स्वप्नों के आने पर फिर सोने नहीं। अशुभ स्वप्न दिखने पर सोना परम आवश्यक है सो जाने पर उस स्वप्न का फल नष्ट हो जाता है। आगे डॉक्टर साहब का मन्तव्य अवश्य देखे। विवेचन–स्वप्न शास्त्रमें प्रधानतया निम्न सात प्रकारके स्वप्न बताये गये हष्ट-जो कुछ जागृत अवस्थामें देखा हो उसीको स्वप्नावस्थामें देखा जाय। श्रुतसोनेके पहले कभी किसीसे सुना हो उसीको स्वप्नावस्था देखे। अनुभूत—जो जागृत अवस्थामें किसी भाँति अनुभव किया हो, उसीको स्वप्न देखना अनुभूत है। प्रार्थित—जिसकी जागृतावस्थामें प्रार्थना-इच्छाकी हो उसीको स्वप्न में देखे। कल्पित--जिसकी जागृतावस्थामें कल्पनाकी गई हो उसीको स्वप्नमें देखे। भाविक जो कभी न तो देखा गया हो और न सुना हो, पर जो भविष्यमें होनेवाला हो उसे स्वप्नमें देखा जाय । दोषज वात, पित्त और कफ इनके विकृत हो जाने से देखा जाय। इन Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ भद्रबाहु संहिता सात प्रकार स्वप्नोंमें पहलेके पाँच प्रकारके स्वप्न प्रायः निष्फल होते हैं, वस्तुतः भाविक स्वप्न का फल ही सत्य होता है। रात्रिके प्रहरके अनुसार स्वप्न का फल – रात्रिके पहले प्रहरमें देखे गये स्वप्न एक वर्षमें, दूसरे प्रहरमें देखे गये स्वप्न आठ महीनेमें [ चन्द्रसेन मुनिके मत से ७ महीने में], तीसरे प्रहरमें देखे गये स्वप्न तीन महीने में, चौथे प्रहरमें देखे गये स्वप्न एक महीनेमें, [ वराहमिहिर के मत से १६ दिन] ब्रह्म मुहूर्त्त [उषाकाल] में देखे गये स्वप्न दस दिनमें और प्रातः काल सूर्योदयसे कुछ पूर्व देखे गये स्वप्न अतिशीघ्र शुभाशुभ फल देते हैं। अब जैनाजैन ज्योतिषिशास्त्रके आधार पर कुछ स्वप्नोंका फल उद्धृत किया जाता है अगुरु — जैनाचार्य भद्रबाहुके मत से — काले रंगका अगुरु देखने से निःसन्देह अर्थलाभ होता है। जैनाचार्य सेन मुनिके मत से सुख मिलता है । वराहमिहिरके मत से धन लाभ के साथ स्त्री लाभ भी होता है। बृहस्पतिके मत से - - इष्ट मित्रोंके दर्शन और आचार्य मयूख एवं दैवज्ञवर्य गणपतिके मत से अर्थ लाभके लिए विदेश गमन होता है। अग्नि - जैनाचार्य चन्द्रसेन मुनिके मत से धूम युक्त अग्नि देखने से उत्तम कान्ति वराह मिहिर और मार्कण्डेय के मत से प्रज्वलित अग्नि देखने से कार्यसिद्धि, दैवज्ञगणपतिके मत से अग्नि भक्षण करना देखने से भूमि लाभके साथ स्त्रीरत्नकी प्राप्ति और बृहस्पतिके मत से जाज्वल्यमान अग्नि देखने से कल्याण होता है। अग्नि दग्ध - जो मनुष्य आसन, शय्या, पान और वाहन पर स्वयं स्थित होकर अपने शरीरको अग्नि दग्ध होते हुए देखे तथा मतान्तरसे अन्य को जलता हुआ देखे और तत्क्षण जाग उठे, तो उसे धन-धान्य की प्राप्ति होती है। अग्नि में जलकर मृत्यु देखने से रोगी पुरुष की मृत्यु और स्वस्थ पुरुष बीमार पड़ता है। गृह अथवा दूसरी वस्तु की जलते हुए देखना शुभ है। अनि लाभ भी शुभ है । वराह-1 ह - मिहिर के मत से अन्न अन्न देखने से अर्थ लाभ और सन्तानकी प्राप्ति होती है। आचार्य चन्द्रसेनके मत से श्वेत अन्न देखने से इष्ट मित्रोंकी प्राप्ति, लाल अन्न देखने से रोग, पीला अनाज देखने से हर्ष और कृष्ण अन्न देखने से मृत्यु होती है । अलंकार - अलंकार देखना शुभ है, परन्तु पहनना कष्टप्रद होता है । Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३५ पाइविंशतितमोऽध्यायः M अस्त्र-अस्त्र देखना शुभफलप्रद, अस्त्र द्वारा शरीरमें साधारण चोट लगना तथा अस्त्र लेकर दूसरेका सामना करना विजयप्रद होता है। अनुलेपन-श्वेत रंगकी वस्तुओंका अनुलेपन शुभ फल देनेवाला होता है। वराह मिहिरके मत से लाल रंगके गन्ध, चन्दन और पुष्पमाला आदिके द्वारा अपनेको शोभायमान देखे तो शीघ्र मृत्यु होती है। अन्धकार-अन्धकारमय स्थानोंमें वन, भूमि, गुफा और सुरंग आदि स्थानोंमें प्रवेश होते हुए देखना रोग सूचक है। आकाश-भद्रबाहुके मत से निर्मल आकाश देखना शुभफलप्रद, लाल वर्णकी आभा वाला आकाश देखना कष्टप्रद और नीलवर्णका आकाश देखना मनोरथ सिद्ध करने वाला होता है। आरोहण-वृष, गाय, हाथी, मन्दिर, वृक्ष, प्रसाद और पर्वतके ऊपर स्वयं आरोहण करते हुए देखना व दूसरेको आरोहित देखना अर्थ लाभ सूचक है। कपास-कपास देखने स्वस्थ व्यक्ति रूग्ण होता है और रोगीकी मृत्यु होती है। दूसरे को देते हुए कपास देखना शुभ-प्रद है। कबन्धनाचते हुए छीन कबन्ध देखने से आधि, व्याधि और धनका नाश होता है। वराहमिहिरके मत से मृत्यु होती है। कलश-कलश देखने से धन, आरोग्य और पुत्र की प्राप्ति होती है। कलशी देखने से गृहमें कन्या उत्पन्न होती है। कलह-कलह एवं लड़ाई-झगड़े देखने स्वस्थ व्यक्ति रूग्ण होता है और रोगीकी मृत्यु होती है। काकस्वप्नमें काक, गिद्ध, उल्लू, कुकुर जिसे चारों ओरसे घेरकर त्रास उत्पन्न करें तो मृत्यु और अन्यका त्रास उत्पन्न करते हुए देखे तो अन्यकी मृत्यु होती है। कुमारी—कुमारी कन्याको देखने से अर्थ लाभ एवं सन्तानकी प्राप्ति होती है। वराह-मिहिरके मत से कुमारी कन्याके साथ आलिंगन करना देखने से कष्ट एवं धनक्षय होता है। कूप-गन्दे जल या पंक वाले कूपके अन्दर गिरना या डूबना देखने से Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ७३६ स्वस्थ व्यक्ति रोगी और रोगी व्यक्ति की मृत्यु होती है। तालाब या नदीमें प्रवेश करना देखने से रोगीको मरण तुल्य कष्ट होता है। क्षौर - नाईके द्वारा स्वयं अपना या दूसरेका हजामत करना देखने से कष्टके गणपति दैवज्ञके मत से माता- पिताकी माता - पिताकी मृत्यु और बृहस्पतिके साथ-साथ धन और पुत्रका नाश होता है। मृत्यु मार्कण्डेयके मत से भार्यामरणके साथ मत से पुत्र मरण होता है । खेल- अत्यन्त आनन्द के साथ खेल खेलते हुए देखना दुःस्वप्न है । इसका फल बृहस्पति के मत से रोना, शोक करना एवं पश्चात्ताप करना ब्रह्मवैर्वत पुराण के मत से धन नाश, ज्येष्ठ पुत्र या कन्याका मरण और भार्या को कष्ट होता है। नारद के मत से सन्तान नाश और पाराशर के मत से—धन क्षय के साथ अपकीर्ति होती है। गमन— दक्षिण दिशाकी ओर गमन करना देखने से धन नाशके साथ कष्ट, पश्चिम दिशाकी ओर गमन करना देखने से अपमान, उत्तर दिशाकी ओर गमन करना देखने से स्वास्थ्य लाभ और पूर्व दिशाकी ओर गमन करना देखने से धन प्राप्ति होती है। गर्ल- उच्च स्थाने अन्धकारमय गर्तमें गिर जाना देखने से रोगीकी मृत्यु और स्वस्थ पुरुष रुग्ण होता है। यदि स्वप्नमें गर्त्तमें गिर जाय और उठने का प्रयत्न करनेपर भी बाहर न आ सके तो उसकी दस दिनके भीतर मृत्यु होती है। गाड़ी - गाय या बैलोंके द्वारा खींचे जाने वाली गाड़ी पर बैठे हुए देखने से पृथ्वीके नीचे चिर संचित धनकी प्राप्ति होती है । वराहमिहिरके मत से पीताम्बर धारण किये स्त्रीको एक ही स्थानपर कई दिनों तक देखने से उस स्थान पर धन मिलता है। बृहस्पतिके मत से स्वप्न में दाहिने हाथमें साँपको काटता हुआ देखने से १,००,००० /- रुपयेकी प्राप्ति अति शीघ्र होती है। गाना - स्वयंको गाना गाता हुआ देखने से कष्ट होता है भद्रबाहु स्वामीके मत से स्वयं या दूसरेको मधुर गाना गाते हुए देखने से मुकदमें विजय, व्यापार में लाभ और यश प्राप्ति, बृहस्पतिके मत से अर्थ लाभके साथ भयानक रोगोंका शिकार Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I ! * ! षडविंशतितमोऽध्यायः और नारदके मत से सन्तान कष्ट और अर्थ लाभ एवं मार्कण्डेयके मत से अपार कष्ट होता है। ७३७ गाय- - दुहनेवालेके साथ गायको देखने से कीर्ति और पुण्य लाभ होता है। गणपति दैवज्ञके मत से जल पीती गाय देखने से लक्ष्मीके तुल्य गुणवाली कन्याका जन्म और वराहमिहिरके मत से स्वप्न में गायका दर्शन मात्र ही सन्तानोत्पपादक है। गिरना – स्वप्न में लड़खड़ाते हुए गिरना देखने से दुःख, चिन्ता एवं मृत्यु होती है। गृह — गृहमें प्रवेश करना, ऊपर चढ़ना एवं किसीसे प्राप्त करना देखने से भूमि लाभ और धन-धान्यकी प्राप्ति एवं गृहका गिरना देखने से मृत्यु होती है। घास — कच्चा घास, शस्य [ धान], कच्चे गेहूँ एवं चनेके पौधे देखने से भार्याको गर्भ रहता है । परन्तु इनके कटने या खाने से गर्भपात होता है। घृत — घृत देखने से मन्दाग्नि, अन्यसे लेना देखने से यश प्राप्ति घृत पान करना देखने से प्रमेह और शरीरमें लगाना देखने से मानसिक चिन्ताओं के साथ शारीरिक कष्ट होता है। घोटक —— घोड़ा देखने से अर्थ लाभ, घोड़ापर चढ़ना देखने से कुटुम्ब वृद्धि और घोड़ीका प्रसव करना देखने से सन्तान लाभ होता है । चक्षु —– स्वप्नमें अकस्मात् चक्षुद्वयका नष्ट होना देखने से मृत्यु और आँखका फूट जाना देखने से कुटुम्बमें किसी की मृत्यु होती है। चादर - स्वप्न में शरीरकी चादर, चोंगा या कमीज आदिको श्वेत और लाल रंगकी देखने से सन्तान हानि होती है। चिता -- अपने को चितापर आरूढ़ देखने से बीमारीकी मृत्यु और स्वस्थ व्यक्ति बीमार होता है। जल - स्वप्नमें निर्मल जल देखने से कल्याण, जल द्वारा अभिषेक देखने से भूमिकी प्राप्ति, जलमें डूबकर अलग होना देखने से मृत्यु, जलको तैरकर पार करना देखने से सुख और जल पीना देखने से कष्ट होता है। जूता - स्वप्नमें जूता देखने से विदेश यात्रा, जूता प्राप्त कर उपभोग करना देखने से ज्वर, एवं जूतासे मार-पीट करना देखने से छः महीनेमें मृत्यु होती है। Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ૭૨૮ तिल-तैल-तिल तैल और खलीकी प्राप्ति होना देखने से कष्ट, पीना और भक्षण करना देखने से मृत्यु, मालिश करना देखने से मृत्यु तुल्य कष्ट होता -... दधि-स्वप्नमें दधि देखने से प्रीति; भक्षण करना देखने से यशप्राप्ति, भातके साथ भक्षण करना देखने से सन्तान लाभ और दूसरोंको देना-लेना देखने से अर्थ लाभ होता है। दाँत–दाँत कमजोर हो गये हैं, और गिरनेके लिए तैयार हैं, या गिर रहे हैं ऐसा देखने से धनका नाश और शारीरिक कष्ट होता है। वराहमिहिरके मत से स्वप्नमें नख, दाँत और केशोंका गिरना देखने से मृत्युसूचक है। दीपक स्वप्नमें दीपक जला हुआ देखने से अर्थलाभ, अकस्मात् निर्वाण प्राप्त हुआ देखने से मृत्यु और ऊर्ध्व खो देखो से प्रातिशी है। देव-प्रतिमा-स्वप्नमें इष्ट देवका दर्शन पूजन, और आह्वान करना देखने से विपुल धनकी प्राप्तिके साथ परम्परासे मोक्ष मिलती है। स्वप्नमें प्रतिमाका कम्पित होना, गिरना, हिलना, चलना, नाचना और गाते हुए देखने से आधि-व्याधि और मृत्यु होती है। नग्न स्वप्नमें नग्न होकर मस्तकके ऊपर लाल रंगकी पुष्पमाला धारण करना देखने से मृत्यु होती है। नृत्य-स्वप्नमें स्वयंका नृत्य करना देखने से रोग और दूसरोंको नृत्य करता हुआ देखने से अपमान होता है। वराहमिहिरके मत से नृत्यका किसी भी रूपमें देखना अशुभ सूचक है। पक्कवान--स्वप्नमें पक्कवान कहींसे प्राप्तकर भक्षण करता हुआ देखे तो रोगीकी मृत्यु हो और स्वस्थ व्यक्ति बीमार हो। स्वप्नमें पूरी, कचौरी, मालपुआ और मिष्ठान खाना देखने से शीघ्र मृत्यु होती है। फल-स्वप्नमें फल देखने से धनकी प्राप्ति, फल खाना देखने से रोग एवं सन्तान नाश, और फलका अपहरण करना देखने से चोरी एवं मृत्यु आदि अनिष्ट फलोंकी प्राप्ति होती है। फूल–स्वप्नमें श्वेत पुष्पोंका प्राप्त होना देखने से धन लाभ रक्तवर्णके Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I 1 षड्वंशतितमोऽध्यायः पुष्पोंका प्राप्त होना देखने से रोग, पीतवर्णके पुष्पोंका प्राप्त होना देखने से यश एवं धन लाभ, हरितवर्णके पुष्पोंका प्राप्त होना देखने से इष्ट मित्रोंका मिलना और कृष्ण वर्णके पुष्प देखने से मृत्यु होती है। ७३९ भूकम्प — भूकम्प होना देखने से रोगीकी मृत्यु और स्वस्थ व्यक्ति रूग्ण होता है । चन्द्रसेन मुनिके मत से स्वप्नमें भूकम्प देखने से राजाका मरण होता है। भद्रबाहुस्वामीके मत से स्वप्नमें भूकम्प होना देखने से राज्य विनाशके साथ-साथ देशमें बड़ा भारी उपद्रव होता है। मल-मूत्र – स्वप्न में मल-मूत्र का शरीर लग जाना देखने से धन प्राप्ति; भक्षण करना देखने से सुख और स्पर्श करना देखने से सम्मान मिलता है। मृत्यु स्वप्न में किसीकी मृत्य देखने शुभ होता है और जिसकी मृत्यु देखते हैं वह दीर्घजीवी होता है । परन्तु अन्य दुःख घटनाएँ सुननेको मिलती हैं। यव – स्वप्न में जो देखने से घरमें पूजा, होम और अन्य मांगलिक कार्य होते हैं। युद्ध— स्वप्न में युद्ध विजय देखने से शुभ, पराजय देखने से अशुभ और युद्ध सम्बन्धी वस्तुओंको देखने से चिन्ता होती है। रुधिर — स्वप्न में शरीरमें से रुधिर निकलना देखने से धन-धान्यकी प्राप्ति; रुधिरसे अभिषेक करता हुआ देखने से सुख; स्नान देखने से अर्थ लाभ, और रुधिरपान करना देखने से विद्यालाभ एवं अर्थलाभ होता है। लता --- स्वप्न में कण्टकवाली लता देखने से गुल्म रोग; साधारण फल-फूल सहित लता देखने से नृप दर्शन और लताके क्रीड़ा करने मे रोग होता है। लोहा — स्वप्नमें लोहा देखने से अनिष्ट और लोहा या लोहे से निर्मित वस्तुओंके प्राप्त करने से आधि-व्याधि और मृत्यु होती है। वमन – स्वप्न में वमन और दस्त होना देखने से रोगीकी मृत्यु; मल-मूत्र और सोना चाँदी का वमन करना देखने से निकट मृत्यु; रुधिर वमन करना देखने से छः मास आयु शेष और दूध वमन करना देखने से पुत्र प्राप्ति होती है । विवाह — स्वप्न में अन्यके विवाह या विवाहोत्सवमें योग देना देखने से पीड़ा, दुःख या किसी आत्मीय जनकी मृत्यु और अपना विवाह देखने से मृत्यु तुल्य पीड़ा होती है। Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४० भद्रबाहु संहिता वीणा — स्वप्न में अपने द्वारा वीणा बजाना देखने से पुत्र प्राप्ति; दूसरों के द्वारा वीणा बजाना देखने मृत्यु या मृत्यु तुल्य पीड़ा होती है। श्रृंग - स्वप्न में भृंग और नखवाले पशुओंको मारने के लिए दौड़ना देखने से राज्य भय और मारते हुए देखने से रोग होता है। स्त्री — स्वप्नमें श्वेतवस्त्र परिहिता; हाथोंमें श्वेत पुष्प या माला धारण करनेवाली एवं सुन्दर आभूषणोंसे सुशोभित स्त्रीके देखने तथा आलिंगन करने से धनप्राप्ति; रोग मुक्ति होती है। पर स्त्रियोंका लाभ होना अथवा आलिंगन करना देखने से शुभ फल होता है । पीतवस्त्र परिहिता; पीत पुष्प या पीत माला धारण करनेवाली स्त्रीको स्वप्न में देखने से कल्याणः समवस्त्र परिहिता मुक्तकेशी और कृष्ण वर्णके दाँतवाली स्त्रीका दर्शन या आलिंगन करना देखने से छः मासके भीतर मृत्यु और कृष्ण वर्णवाली पापिनी आचारविहीना लम्बकेशी लम्बे स्तनवाली और मैले वस्त्र परिहिता स्त्रीका दर्शन और आलिंगन करना देखने से शीघ्र मृत्यु होती है । तिथियों के अनुसार स्वप्न का फल शुक्लपक्ष की प्रतिपदा — इस तिथि में स्वप्न देखने पर विलम्ब से फल मिलता है। शुक्लपक्ष की द्वितीया - इस तिथि को स्वप्न देखने पर विपरीत फल होता है। अपने लिए देखने से दूसरों को और दूसरों के लिए देखने से अपने को फल मिलता है। शुक्लपक्ष की तृतीया — इस तिथि में भी स्वप्न देखने से विपरीत फल मिलता है। पर फलकी प्राप्ति विलम्बसे होती है। शुक्लपक्ष की चतुर्थी और पंचमी-इन तिथियों में स्वप्न देखने पर दो महीने से लेकर दो वर्ष तक के भीतर फल मिलता है। शुक्लपक्ष की षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी और दशमी - इन तिथियों में स्वप्न देखने से शीघ्र फल की प्राप्ति होती है तथा स्वप्न सत्य निकलता है। शुक्लपक्ष की एकादशी और द्वादशी — इन तिथियों में स्वप्न देखने से विलम्ब से फल होता है। ' Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडविंशतितमोऽध्यायः शुक्लपक्ष की त्रयोदशी और चतुर्दशी-इन तिथियों में स्वप्न देखने से स्वप्न का फल नहीं मिलता है तथा स्वप्न मिथ्या होते हैं। पूर्णिमा-इस तिथिके स्वप्नका फल अवश्य मिलता है। कृष्णपक्ष की प्रतिपदा-इन तिथियों को स्वप्न का फल नहीं होता है। कृष्णपक्ष की द्वितीया-इस तिथि का स्वप्न फल विलम्ब से मिलता है। मतान्तर से इसका स्वप्न सार्थक होता है। कृष्णपक्ष की तृतीया और चतुर्थी-इन तिथियों के स्वप्न मिथ्या होते हैं। कृष्णपक्ष की पंचमी और षष्ठी-इन तिथियों के स्वप्न दो महीने बाद और तीन वर्ष के भीतर फल देने वाले होते हैं। _कृष्णपक्ष की सप्तमी—इस तिथिका स्वप्न अवश्य शीघ्र ही फलदेता है। कृष्णपक्ष की अष्टमी और नवमी-इन तिथियों के स्वप्न विपरीत फल देने वाले होते हैं। ___कृष्णपक्ष की दशमी, एकादशी, द्वादशी और त्रयोदशी-इन तिथियों के स्वप्न मिथ्या होते हैं। कृष्णपक्ष की चतुर्दशी-इस तिथि का स्वप्न सत्य होता है। तथा शीघ्र ही फल देता है। अमावस्या-इस तिथि का स्वप्न मिथ्या होता है। धन प्राप्ति सूचक स्वप्न-स्वप्नमें हाथी, घोड़ा, बैल, सिंहके ऊपर बैठकर गमन करता हुआ देखे तो शीघ्र धन मिलता है। पहाड़, नगर, ग्राम, नदी और समुद्र इनके देखने से भी अतुल लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है। तलवार, धनुष और बन्दक आदिसे शत्रुओंको ध्वंस करता हुआ देखने से अपार धन मिलता है। स्वप्नमें हाथी, घोड़ा, बैल, पहाड़, वृक्ष और गृह इन पर आरोहण करता हुआ देखने से भूमि के नीचे से धन मिलता है। स्वप्नमें नख और रोमसे रहित शरीरके देखने से लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है। स्वप्नमें दही, छत्र, फूल, चमर, अन्न, वस्त्र, दीपक, ताम्बूल, सूर्य, चन्द्रमा, पुष्प, कमल, चन्दन, देव-पूजा, वीणा और अस्न देखने से शीघ्र ही अर्थलाभ होता है। यदि स्वप्नमें चिड़ियोंके पर पकड़कर उड़ता हुआ Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ७४२ देखे तथा आकाश मार्गमें देवताओंकी दुन्दुभिकी आवाज सुने तो पृथ्वीके नीचेसे शीघ्र धन मिलता है। सन्तानोत्पादक स्वप्न स्वप्नमें वृषभ, कलश, माला, गन्ध, चन्दन, श्वेत पुष्प, आम, अमरूद, केला, सन्तरा, नीबू और नारियल इनकी प्राप्ति होने से तथा देव मूर्ति, हाथी, सत्पुरुष, सिद्ध, गन्धर्व, गुरु, सुवर्ण, रत्न, जौ, गेहूँ, सरसों, कन्या, रक्तपान करना, अपनी मृत्यु देखना, केला, कल्प वृक्ष, तीर्थ, तोरण, भूषण, राज्यमार्ग और मट्ठा देखने से शीघ्र ही सन्तानकी प्राप्ति होती है। किन्तु फल और पुष्पोंका भक्षण करना देखने से सन्तान मरण तथा गर्भपात होता है। __ मरण सूचक स्वप्न स्वप्नमें तैल मले हुए, नग्न होकर भैंस, गधे, ऊंट, कृष्ण बैल और काले घोड़े पर चढ़कर दक्षिण दिशाकी ओर गमन करना देखने से; रसोई गृहमें लालपुष्पों से परिपूर्ण वनमें सूतिका गृहमें अंग-भंग पुरुषका प्रवेश करना देखने से; झूलना, गाना, खेलना, फोड़ना, हैंसना, नदीके जलमें नीचे चले जाना तथा सूर्य, चन्द्रमा, ध्वजा और ताराओंका गिरना देखने से भस्म, घी, लोह, लाख, गीदड़, मुर्गा, विलाव, गोह, नेवला, बिच्छू, मक्खी, सर्प और विवाह आदि उत्सव देखने से एवं स्वप्नमें दाढ़ी, मूंछ और सिरके बाल मुंडवाना देखने से मृत्यु होती है। पाश्चात्य विद्वनों के मतानुसार स्वप्नों के फल-यों तो पाश्चात्य विद्वानोंने अधिकांश रूपसे स्वप्नोंको निस्सार बताया है, पर कुछ ऐसे भी दार्शनिक हैं जो स्वप्नोंको सार्थक बतलाते हैं। उनका मत है कि स्वप्न में हमारी कई अतृप्त इच्छाएँ भी चरितार्थ होती हैं। जैसे हमारे मनमें कहीं भ्रमण करनेकी इच्छा होने पर स्वप्नमें यह देखना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है कि हम कहीं भ्रमण कर रहे हैं। सम्भव है कि जिस इच्छाने हमें भ्रमणका स्वप्न दिखाया है वही कालान्तरमें हमें भ्रमण करावे। इसलिए स्वप्नमें भावी घटनाओंका आभास मिलना साधारण बात है। कुछ विद्वानोंने इस थ्योरीका नाम सम्भाव्य गणित रखा है। इस सिद्धान्तके अनुसार कुछ स्वप्नमें देखी गई अतृप्त इच्छाएँ सत्यरूपमें चरितार्थ होती हैं, क्योंकि बहुत समय कई इच्छाएँ अज्ञात होनेके कारण स्वप्नमें प्रकाशित रहती हैं और ये Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | षड्विंशतितमोऽध्यायः ही इच्छाएँ किसी कारण से मन में उदित होकर हमारे तद्नुरूप कार्य करा सकती हैं। मानव अपनी इच्छाओंके बलसे ही सांसारिक क्षेत्रमें उन्नति या अवनति करता है, उसके जीवनमें उत्पन्न होने वाली अनन्त इच्छाओं में कुछ इच्छाएं अप्रस्फुटित अवस्थामें ही विलीन हो जाती हैं, लेकिन कुछ इच्छाएँ परिपक्वावस्था तक चलती रहती है। इन इच्छाओंमें इतनी विशेषता होती है कि ये बिना तृप्त हुए लुप्त नहीं हो सकती । सम्भाव्य गणितके सिद्धान्तानुसार जब स्वप्नमें परिपकावस्था वाली अतृप्त इच्छाएं प्रतीकाधारको लिये हुए देखी जाती है, उस समय स्वप्नका भावी फल सत्य निकलता है। अबाधभावानुसंगसे हमारे मनके अनेक गुप्त भाव प्रतीकोंसे ही प्रकट हो जाते है, मनकी स्वाभाविक धारा स्वप्नमें प्रवाहित होती है, जिससे स्वप्नमें मनकी अनेक चिन्ताएँ गुथी हुई प्रतीत होती हैं। स्वप्नके साथ संश्लिष्ट मनकी जिन चिन्ताओं और गुप्त भावोंका प्रतीकोंसे आभास मिलता है, वही स्वप्नका अव्यक्त अंश भावी फलके रूपमें प्रकट होता है। अस्तु उपलब्ध सामग्री के आधार पर कुछ स्वप्नोंके फल नीचे दिये जाते हैं। अस्वस्थ-अपने सिवाय अन्य किसीको अस्वस्थ देखने से कष्ट होता है और स्वयं अपनेको अस्वस्थ देखनसे प्रसन्नता होती है। जी.एस. मिलर के मत से स्वप्नमें स्वयं अपनेको अस्वस्थ देखने से कुटुम्बियोंके साथ मेल-मिलाप बढ़ता है एवं एक मासके बाद स्वप्नद्रष्टाको कुछ शारीरिक कष्ट भी होता है तथा अन्यको अस्वस्थ देखने से द्रष्टा शीघ्र ही रोगी होता है। डॉक्टर सी. जे. विटवे के मतानुसार अपनेको अस्वस्थ देखने से सुख-शान्ति और दूसरेको अस्वस्थ देखने से विपत्ति होती है। सुकरात के सिद्धान्तानुसार अपने और दूसरे को अस्वस्थ देखना रोग सूचक हैं। विवलोनियन और पृथगबोरियन के सिद्धान्तानुसार अपनेको अस्वस्थ देखना निरोग सूचक और दूसरको अस्वस्थ देखना पुत्र-मित्रादिके रोगको प्रकट करनेवाला होता है। आवाज-स्वप्नमें किसी विचित्र आवाजको स्वयं सुनने से अशुभ सन्देश सुननेको मिलता है। यदि स्वप्नकी आवाज सुनकर निद्राभंग हो जाती है तो सारे कार्यों में परिवर्तन होनेकी सम्भावना होती है। अन्य किसीकी आवाज सुनते हुए Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ७४४ देखने से पुत्र और स्त्रीको कष्ट होता है तथा अपने अति निकट कुटुम्बियोंकी आवाज सुनते हुए देखने किसी आत्मीयकी मृत्यु प्रकट होती है। डॉ. जी. एच. मिलर के मत से आवाज सुनना भ्रमका द्योतक है। ऊपर-न्यदि स्वप्नमें कोई चीज अपने ऊपर लटकती हुई दिखायी पड़े और उसके गिरने का सन्देह हो तो शत्रुओंके द्वारा धोखा होता है। ऊपर गिर जाने से धन नाश होता है, यदि ऊपर न गिरकर पासमें गिरती है तो धन-हानि के साथ स्त्री-पुत्र एवं अन्य कुटुम्बिोको कष्ट होता है। डॉ. जी. एच. मिलर के मत से किसी भी वस्तुका ऊपर गिरना धननाशकारक है। डॉ. सी. जे बिटवे के मत से किसी वस्तुके ऊपर गिरने से तथा गिरकर चोट लगने से मृत्यु तुल्य कष्ट होता कटार--स्वप्नमें कटारके देखने से कष्ट और कटार चलाते हुए देखने से धन हानि तथा निकट कुटुम्बीके दर्शन; मांस भोजन एवं पत्नीसे प्रेम होता है। किसी-किसीके मत से अपनेमें स्वयं कटार भोंकते हुए देखने से किसीके रोगी होनेके समाचार सुनाई पड़ते हैं। कनेर-स्वप्न में कनेर के फूल वृक्षका दर्शन करने से मान-प्रतिष्ठा मिलती है। कनेर के वृक्ष से फूल और पत्तों को गिरना देखने से किसी निकट आत्मीय की मृत्यु होती है। कनेर का फल भक्षण करना रोग सूचक है, तथा एक सप्ताह के भीतर अत्यन्त अशान्ति देखने वाला होता है कनेर के वृक्ष के नीचे बैठकर पुस्तक पढ़ता हुआ अपने को देखने से दो वर्ष के बाद साहित्यिक क्षेत्र में यश की प्राप्ति होती है, एवं नये-नये प्रयोग का आविष्कर्ता होता है। किला-किलेकी रक्षाके लिए लड़ाई करते हुए देखने से मानहानि एवं चिन्ताएँ; किले भ्रमण करने से शारीरिक कष्ट; किलेके दरवाजे पर पहरा लगाने से प्रेमिकासे मिलन एवं मित्रोंकी प्राप्ति और किलेके देखने मात्रसे परदेशी बन्धुसे मिलन होता है तथा सुन्दर स्वादिष्ट मांसभक्षण को मिलता है। केला-स्वप्नमें केलाका दर्शन शुभफलदायक होता है और केलेका भक्षण अनिष्टका फल देने वाला होता है। किसीके हाथमें जबरदस्ती केला लेकर खाने Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४५ पड़ावेशतितमोऽध्यायः से मृत्यु और केलेके पत्तों पर रखकर भोजन करने से कष्ट एवं केलेके थम्भे लगाने से घर में मांगलिक कार्य होते हैं। __केश-किसी सुन्दरीके केशपाशका स्वप्नमें चुम्बन करने से प्रेमिका-मिलन और केश दर्शनसे मुकदमेमें पराजय एवं दैनिक कार्यों में असफलता मिलती है। खल-स्वप्नमें किसी दुष्टके दर्शन करने से मित्रों अनबन और लड़ाई करने से मित्रों से प्रेम होता है। खलके साथ मित्रता करने नाना भय और चिन्ताएँ उत्पन्न होती हैं। खल के साथ भोजन-पान करने शारीरिक कष्ट, बातचीत करने से रोग और उसके हाथसे दूध लेने से सैकड़ों रुपयोंकी प्राप्ति होती है। किसी-किसी के मत से खलका दर्शन शुभ माना गया है। खेल-स्वप्नमें खेल खेलते हुए देखनसे स्वास्थ्य वृद्धि और दूसरोंको खेलते हुए देखने से ख्याति लाभ होता है। खेलमें अपनेको पराजित देखने से कार्य साफल्य और जय देखने से कार्य हानि होती है। खेलका मैदान देखने से युद्धमें भाग लेनेका संकेत होता है। खिलाड़ियों को आपस में मल्लयुद्ध करते हुए देखना बड़े भारी रोग का सूचक है। गाय-यदि स्वप्नमें कोई गाय दूध दुहनेकी इन्तजारीमें बैठी हुई दिखाई पड़े तो समझो इच्छाओंकी पूर्ति होती है। गायका दर्शन जी. एच. मिलर के मत से प्रेमिका-मिलन सूचक बताया गया है। चारा खाते हुए गायको देखने से अन्न प्राप्ति; बछड़े को दूध पिलाते हुऐ देखने से पुत्र प्राप्ति, गोबर करते हुए गाय को देखने से धन प्राप्ति और पागुर करते हुए देखने से कार्यमें सफलता मिलती है। घड़ी-स्वप्नमें घड़ी देखने से शुभभय होता है। घड़ीके घण्टोंकी आवाज सुनने से दुःखद संवाद सुनते हैं, या किसी मित्रकी मृत्युका समाचार सुनाई पड़ता है। किसीके हाथसे घड़ी गिरते हुए देखने से मृत्यु तुल्य कष्ट होता है। अपने हाथकी घड़ीका गिरना देखने से छ: महीने के भीतर मृत्यु होती है। चाय-स्वप्नमें चायका पीना देखने से शारीरिक कष्ट; प्रेमिका वियोग एवं व्यापारमें हानि होती है। मतान्तरसे चाय पीना शुभाकारक भी है। जन्म-यदि स्वप्नमें कोई स्त्री बच्चेका जन्म देखे तो उसकी किसी सखी, Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ७४६ सहेलीको पुत्र प्राप्ति होती है। तथा उसे उपहार मिलते हैं। यदि पुरुष यही स्वप्न देखे तो यश प्राप्ति होती है। झाडू यदि स्वप्नमें नया झाडू दिखाई पड़े तो शीघ्र ही भाग्योदय होता है। पुराने झाडूका दर्शन करने से सट्टेमें धन हानि होती है। यदि स्त्री इसी स्वप्नको देखे तो उसे भविष्य में नाना कष्टींका सामना करना पड़ता है। मृत्यु-स्वप्न में मृत्यु देखने से किसी आत्मीयकी मृत्यु होती है; किन्तु जिस व्यक्तिको मृत्यु देखी जाती गयी है, उसका कल्याण होता है। मृत्युका दृश्य देखना, भरते हुए व्यक्तिकी छटपटाहट देखना अशुभ सूचक है। किसी सवारीसे नीचे उतरते ही मृत्यु देखना राजनीतिमें पराजयका सूचक है। सवारीके ऊपर चढ़कर ऊँचा उठना तथा किसी पहाड़पर ऊंचा चढ़ना भी शुभफल सूचक होता है। युद्ध-स्वप्नमें युद्धका दृश्य देखना, युद्धसे भयभीत होना, मारकाटमें भाग लेना तथा अपनेको युद्ध में मृत देखना जीवनमें पराजयका सूचक है, उस प्रकारका स्वप्न देखने से सभी क्षेत्रोंमें असफलता मिलती है। जो व्यक्ति युद्धमें अपनी मृत्यु देखता है, उसे कष्ट सहन करने पड़ते हैं तथा वह प्रेममें असफल होता है। जिससे वह प्रेम करता है, उसकी ओरसे ठुकराया जाता है। युद्धमें विजय देखना सफल प्रेमका सूचक है। जिस प्रेमिका या प्रेमीको व्यक्ति चाहता है वह सरलतापूर्वक प्राप्त हो जाता है। नग्न होकर युद्ध करते हुए देखने से मृत्युमें सफलता मिलती है। तथा अनेक स्थानोंपर भोजन करनेका निमन्त्रण मिलता है। यदि कोई व्यक्ति किसी सवारी पर आरूढ़ होकर रणभूमिमें जाता हुआ दृष्टिगोचर हो तो इस प्रकारके स्वप्नके देखने से जीवनमें अनेक सफलता मिलती है। इति श्रीपंचम श्रुत केवली दिगम्बराचार्य भद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिता का स्वप्न व उनके लक्षणोंका वर्णन करने वाला छब्बीसवाँ अध्यायका हिन्दीभाषानुवाद करने वाली क्षेमोदय टीका समाप्त। (इति षड्विंशतितमोऽध्यायः समाप्त:) Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतितमोऽध्यायः नवीन वस्त्र धारण यदा स्थितौ जीवबुधौ ससूर्या राशिस्थितानाञ्च तथानुवर्तिनौ । नृनागबद्धावरसङ्गरस्तदा भवन्ति, वाता; समुपस्थितान्ताः॥१॥ (यदा) जब (जीव बुधौ ससूर्यो) गुरु और बुध सूर्य के साथ (स्थितौ) स्थित होकर (राशिस्थितानाञ्च तथानुवर्तिनौ) स्व राशियों में स्थित ग्रहोंके साथ हो तो समय में (नृनाग बद्धावरसगरस्तदा) मनुष्य, नाग तथा अन्य छोटे जीव युद्ध करते दिखलाई पड़े (तदा) तो (वाता: समुपस्थितान्ता: भवन्ति) भयंकर वायुका तूफान चलता है। भावार्थ-जब गुरु और बुध सूर्य के साथ स्थित होकर स्व राशियोंमें स्थित ग्रहों के गाथ हो उसी समय पशष्य. नाग व अन्य छोटे जीव यदि युद्ध करने लगे तो समझो भयंकर वायु चलेगी, और तूफान चलेगा ||१॥ न मित्रभावे सुहृदो समेता न चाल्पतयमम्बु ददाति वासवः । भिनत्ति वज्रेण तदा शिरांसि महीभृतां चाप्यपवर्षणं च ।। २ ।। (न मित्रभावे सुहृदो समेता) यदि शुभ ग्रह भित्र भाव में स्थित नहीं हो तो (न चाल्पतयमम्बु ददाति वासवः) समझो वर्षा का अभाव रहेगा, (भिनत्ति वज्रेण तदा शिरांसि) और इन्द्र वज्र से पर्वतों का शिर चूर-चूर करेगा, (महीभृतां चाप्यपवर्षणं च) पर्वतों पर विद्युत्पात होता रहेगा, वर्षा का पूर्ण अभाव रहेगा। भावार्थ---जब शुभ भाव से ग्रह स्थित नहीं होते तब वर्षा का पूर्ण अभाव रहेगा पर्वतों का मस्तक वज्र से इन्द्र चूर-चूर करेगा, और वर्षा थोड़ी भी नहीं होगी ।। २ ।। सोमनहे निवृत्तेषु पक्षान्ते चेद् भवेद्ग्रहः । तत्रानयः प्रजानां च दम्पत्योर्वैरमादिशेत् ।।३।। (सोमग्रहे निवृत्तेषु) चन्द्रमा की निवृत्ति होने पर (पक्षान्ते चेद् भवेत्ग्रहः) पक्ष Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता के अन्त में यदि कोई अशुभ ग्रह हो तो (तत्रानयः प्रजानां च दम्पत्योः) वहाँ पर प्रजा में अन्याय और स्त्री पुरुषों में (वैरमादिशेत् ) वैर उत्पन्न होता है । भावार्थ — चन्द्रमा की निवृत्ति होने पर पक्ष के अन्त में यदि कोई अशुभ ग्रह हो तो वहाँ पर अनीति अन्याय होता है और स्त्री पुरुषों में वैर भाव जाग्रत होता है || ३ || नये वस्त्र धारण करने का फल सम्पदः । कृत्तिकायां दहत्यग्नी रोहिण्यामर्थ दशन्ति मूषिका: सौम्ये चार्द्रायां प्राणसंशयः ॥ ४ ॥ (कृत्तिकायांदहत्यग्नी) कृत्तिका नक्षत्रमें नवीन वस्त्र धारण करने से वह वस्त्र अग्नि से जल जाता है । (रोहिण्यामर्थ सम्पदः) रोहिणी नक्षत्र में वस्त्र धारण करने से धन सम्पत्ति की प्राप्ति होती है (सौम्ये मूषिका : दशन्ति ) मृगशिरा नक्षत्रमें चूहे काट जाते हैं (चार्द्रायां प्राण संशयः) और आर्द्रा नक्षत्र में नये कपड़े पहनने से प्राण संकट में पड़ जाते है। भावार्थ — कृत्तिका नक्षत्र में नये वस्त्र धारण करने पर अग्नि में जल जाता है रोहिणी में धारण करने से धन सम्पत्ति प्राप्त होती है मृगशिरा में धारण करने से चूहे काट जाते हैं आर्द्रा में धारण करने से प्राण संकट में पड़ जाते हैं ॥ ४ ॥ धान्यं पुनर्वसी वस्त्रं पुष्यः आश्लेषासु भवेद्रोगः श्मशानं पूर्वाफाल्गुनी शुभदा वस्त्रदा संस्मृता लोके ७४८ सर्वार्थसाधकः । स्यान्मघासु च ॥५॥ राज्यदोत्तरफाल्गुनी । तूत्तरभाद्रपदा शुभा ॥ ६ ॥ (वस्त्र) नवीन वस्त्र को ( षुनर्वसौ) पुनर्वसु में धारण किया जाय तो ( धान्यं) धान्य की प्राप्ति होती है ( पुष्यः सर्वार्थ साधकः ) पुष्य में धारण करे तो सर्वकार्य सिद्ध होते हैं, (आश्लेषासु भवेद्रोगः श्मशानं ) आश्लेषा में धारण करने से रोग होता है मघा में वस्त्र धारण करने से मरण होता है। (पूर्वाफाल्गुनी शुभदा) पूर्वाफाल्गुनी में वस्त्र धारण करना शुभ है ( राज्यदोत्तरफाल्गुनी) उत्तराफाल्गुनी में राज्य प्राप्त : । Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ → ७४९ सप्तविंशतितमोऽध्यायः होता है (लोकेतू) लोक में (तरभाद्रपदाशुभा ) उत्तराभाद्रपद जाय तो शुभ (वस्त्रदासंस्मृता) सरों को प्रदान लाने वाला है। भावार्थ — पूर्वाफाल्गुनीमें नवीन वस्त्र धारण करनेसे शुभ है उत्तरा फाल्गुनी में वस्त्र धारण करने से राज्य की प्राप्ति होती है लोकमें उत्तराभाद्रपद में नवीन वस्त्र धारण करने से शुभ है और वस्त्र प्राप्त कराने वाला है ।। ५-६ ॥ हस्ते च ध्रुवकर्माणि चित्रास्वाभरणं शुभम् । मिष्ठान्नं लभ्यते स्वातौ विशाखा प्रियदर्शिका ॥ ७ ॥ वस्त्र धारण किया (हस्ते च ध्रुव कर्माणि) हस्त नक्षत्र में नवीन वस्त्र धारण करने से कोई स्थिर कार्य होता है ( चित्रास्वाभरणं शुभम् ) चित्रा नक्षत्र में वस्त्राभरण को धारण करने से शुभ होता है (स्वातौ मिष्ठान्नं लभ्यते ) स्वाति नक्षत्र में मिष्ठान्न की प्राप्ति होती है। (विशाखा प्रियदर्शिका ) विशाखा नक्षत्रमें नये वस्त्र धारण करने से प्रिय का समागम होता है । भावार्थ — नवीन वस्त्र यदि हस्त नक्षत्र में धारण किया जाय तो शुभ है कोई स्थिर कार्य करना चाहिये। चित्रा नक्षत्र में नवीन वस्त्र धारण करने से शुभ है स्वाति में वस्त्रधारण करने से मिष्ठान्न की प्राप्ति होती है विशाखा में धारण करने से प्रिय का दर्शन होता है । ॥ ७ ॥ अनुराधावस्त्रदात्री मरणाय ज्येष्ठा हानि वस्त्रविनाशिनी । कारणलक्षणा ॥ ८ ॥ तथैवोक्ता (अनुराधा वस्त्रदात्री) अनुराधा में वस्त्र धारण करने से वस्त्र मिलते हैं (ज्येष्ठा वस्त्रविनाशिनी ) ज्येष्ठा में वस्त्र धारण करने से वस्त्रों का नाश होता है ( मरणाय तथैवोक्ता ) मरण को करने वाला कहा गया है ( हानिकारण लक्षणा ) और हानि कारक है। भावार्थ – अनुराधा में वस्त्र धारण करने से वस्त्र मिलते है ज्येष्ठा में धारण करे तो वस्त्रों का विनाश होगा, मरण होगा, हानिकारक होगा ॥ ८ ॥ Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ७५० उत्तरा मूलेन क्लिश्यते वस्त्रं पूषायां रोगसम्भवः । वस्त्रदाख्याता श्रवणो नेत्ररोगदः ।।९।। (मूलेनक्लिश्यते वस्त्रं) मूल नक्षत्र में वस्त्र धारण करने से क्लेश होता है (पूषाया रोगसम्भव:) पूर्वाषाढ़ा में रोग, उत्तराभाद्रपद में धारण करने से बहुत वस्त्र प्राप्त होते है (श्रवणो नेत्र रोगद:) श्रवण नक्षत्र में वस्त्र धारण करने से नेत्र रोग होता है। भावार्थ-मूल नक्षत्र में वस्त्र धारण करने से क्लेशका कारण होता है पूर्वाषाढ़ा में रोग उत्तराभाद्रपद में बहुत वस्त्रों की प्राप्ति और श्रवण में धारण करने से नेत्र रोग होता है।। ९॥ घनिष्टा अमलाभाच शतषिया विषाद्भयम्। पूर्व भाद्रपदात्तोय मुत्तरा बहुवस्त्रदा॥१०॥ (धनिष्ठा धनलाभाय) धनिष्ठा में वस्त्र धारण करने से धन की प्राप्ति होती है (शतभिषाविषाद् भयम्) शतभिषा में विषाद् और भय होता है (पूर्वभाद्रपदात्तोय मुत्तरा) पूर्वाभाद्रपद में और उत्तराभाद्रपद में वस्त्र धारण करने से (बहुवस्त्रदा) बहुत वस्त्रों की प्राप्ति होती है। भावार्थ—धनिष्ठा में वस्त्र धारण करने से धन की प्राप्ति होती है शतभिषा में विषाद् और भय होता है पूर्वाभाद्रपद में और उत्तराभाद्रपद में वस्त्र धारण करना बहुत वस्त्रों को प्राप्त कराने वाला है।। १० ।। रेवती लोहिताय स्याद् बहुवस्त्रा तथाश्विनी। भरणीयमलोकार्थ मेवमेव तु कष्टदा ।। ११ ।। (रेवती लोहितायस्याद्) रेवती नक्षत्र में नवीन वस्त्र धारण करने से लोह का जंग लगता है (बहुवस्त्रा तथाश्विनी) अश्विनी में धारण करने से बहुत वस्त्रों की प्राप्ति होती है (भरणी यमलोकार्थ) भरणी में अगर वस्त्र धारण करे तो मरणतुल्य लोक में (मेवमेव तु कष्टदा) बार-बार कष्ट होता है। - - Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतितमोऽध्यायः भावार्थ रेवती नक्षत्र में नये वस्त्र धारण करे तो लोह का जंग लगता है, अश्विनीमें धारण करने से बहुत वस्त्रों की प्राप्ति होती है, भरणी में धारण करने से लोक में मरणतुल्य बार-बार कष्ट होता है।। ११ ॥ शुभग्रहाः फलं दधुः पञ्चाशदिवसेषु तु। षष्ठ्यहः स्वथवा सर्वे पापा नव दिनान्तरम् ।। १२ ।। (शुभग्रहा: पञ्चादिवसेषु) शुभग्रह पच्चास दिनों में अथवा (षष्ठयह:) साठ दिनों में (स्वथवा सर्वेपापा नव दिनान्तरम्) अथवा नौ दिनों में अशुभ ग्रह (फलं दद्यु:) फल देते हैं। भावार्थ-शुभ ग्रह पच्चास दिनों में या साठ दिनों में फल देते हैं एवं पाप ग्रह नौ दिनों में फल देते है।। १२ ।। शुभाशुभे वीक्ष्यतु यो ग्रहाणां गृही सुवस्त्र व्यवहारकारी। समोदयेऽवाप्य समस्तभोगं निरस्तरोगो व्यसनै विमुक्त: ।। १३ ।। (यो) जो (शुभाशुभे वीक्ष्यतु ग्रहाणां) शुभाशुभ ग्रहों को देखकर (गृही सुवस्त्र व्यवहारकारी) गृहस्थ सुवस्त्रों का व्यवहार करता हैं (समोदयेऽवाप्य समस्तभोगं) और समस्त भोगों को प्राप्त कर आनन्दित होता है (निरस्त्र रोगो व्यसनैर्विमुक्त:) तथा समस्त रोग और व्यसन से मुक्त होता है। भावार्थ-जो गृहस्थ ग्रहों के शुभाशुभ को जानकर वस्त्रों में व्यवहार करता है और समस्त भोगों को भोगता हुआ आनन्दित होता है और समस्त रोगों एवं व्यसनों से मुक्त होता है।। १३ ।। विशेष वर्णन--इस छोटे से अध्याय में आचार्य श्री ने नवीन वस्त्र धारण करने का नक्षत्रएवं वार और उसका फल निर्देश किया है। कौन से नक्षत्र में नया वस्त्र धारण करने पर क्या फल होता है शुभाशुभ का विचार करना चाहिये नक्षत्र २७ होते हैं उसी प्रकार नक्षत्रानुसार फल होता है बहुत-से नक्षत्रोंमें नवीन वस्त्र धारण करने पर अनिष्ट की सूचना मिलती है और --- - - Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ भद्रबाहु संहिता कुछ ऐसे नक्षत्रों में वस्त्र धारण करने पर शुभ की प्राप्ति, धन लाभ, शान्ति होना, पुत्र लाभ आदि मिलते हैं अशुभ सूचना मिलते ही शान्ति कर्म करे । नवीन वस्त्र धारण करते ही, फट जाय, जल जाय, गोबरादिक लग जाय तो उसका भी इष्टानिष्ट फल होता है । वस्त्र उत्तरीय वस्त्र पर अथवा शिर के साफा- - पगड़ी पर विशेष विचार करे वस्त्र के तीन भाग करे, देव, राक्षस और मनुष्य । नये वस्त्र के नौ भाग करे, वस्त्र के कोण के चार भाग पर देवता, प्रासान्त को दो भागों पर मनुष्य और मध्यके तीन भागों पर राक्षस निवास करते है । इसी प्रकार शय्या आसन खड़ाऊँ के ऊपर भी विचार करे । राक्षस भाग में जल जाय व फट जाय गोबरादिक लग जाय तो वस्त्र के स्वामी को रोग या मृत्यु होगी । मनुष्य भागों में वस्त्र के छेदादिक हो जाय तो पुत्र जन्मादिक लाभ प्राप्त होते हैं। देवता के भागों में गोबरादिक व जल, फट जाय तो भागों की वृद्धि समस्त वस्त्र के भाग में छेद होना अनिष्ट सूचक है। वस्त्र के जल जाने पर अथवा फट जाने पर उसकी कुछ आकृति पड़ जाती है, आकृतिके अनुसार भी फलादेश होता है। मांसभक्षी पशु या पक्षियों के आकार का छेद हो तो वस्त्र के स्वामी का अनिष्ट होता है, छत्रादिक के आकार का छेद हो तो शुभफल देता है। मांगलिक कार्यों में नये वस्त्र धारण करने पर नक्षत्रादिक देखने की कोई आवश्यकता नहीं है। नवीन वस्त्र धारण करने रूप इस अध्याय में आचार्य ने वर्णन किया है किन्तु विस्तार रूप से परिशिष्टोध्यायमें वर्णन मिलता है। वहाँ पर अवश्य देखें, अलग से इस सत्तावीसवें अध्याय में नये वस्त्र धारण नक्षत्रानुसार करने पर क्या फल होता है इसका वर्णन किया है। विवेचन – ग्रह और नक्षत्र शुभाशुभ, क्रूर - सौम्य आदि अनेक प्रकार के होते हैं। शुभग्रह और शुभ नक्षत्रोंका फल शुभ और अशुभ ग्रह और अशुभ नक्षत्रोंका फल अशुभ मिलता है। इस अध्यायमें साधारणतया नवीन वस्त्राभरणादि धारण 1 1 I Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५३ सप्तविंशतितमोऽध्यायः करने के लिए कौन-कौन नक्षत्र शुभ हैं और कौन-कौन अशुभ हैं, इसका निरूपण किया गया है। नक्षत्रोंमें विधेय कार्योक साथ उनकी संज्ञाओंका निरूपण किया जायगा। शान्ति, गृह, बाटिका विधायक नक्षत्र उत्तरात्रयरोहिण्यो भास्करश्च ध्रुवं स्थिरम् । तन स्थिरं बीजगेहशान्त्यारामादिसिद्धये। उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद और रोहिणी ये चार नक्षत्र और रविवार, इनकी ध्रुव और स्थिर संज्ञा है। इनमें स्थिर कार्य करना, बीज बोना, घर बनवाना, शान्ति कार्य करना, गाँवके समीप बगीचा लगाना आदि कार्योंके साथ मृदु कार्य करना भी शुभ होता है। हाथी-घोडेकी सवारी विधायक नक्षत्र स्वात्यादित्ये श्रुतेस्त्रीणि चन्द्रश्चापि चरै घलम्। तस्मिन् गणादिमारोहो वाटिकागमनादिकम् ।। स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा ये पाँच नक्षत्र और सोमवार इनकी चर और चल संज्ञा है। इनमें हाथी-घोड़े आदि पर चढ़ना, बगीचे आदिमें जाना, यात्रा करना आदि शुभ होता है। विषशास्त्रदि विधायक नक्षत्र पूर्वप्रयं याम्यमधे उग्रं क्रूरं कुजस्तथा। तस्मिन् घाताग्निशाठ्यानि विषशस्त्रादि सिद्धयति।। विशाखाग्नेयभे सौम्यो मिश्रं साधारणं स्मृतम् । तत्राग्निकार्य मिश्रं च वृषोत्सर्गादि सिद्धयति॥ पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, भरणी, मघा ये पाँच नक्षत्र और मंगल दिन की क्रूर और उग्र संज्ञा है। इनमें मारण, अग्नि-कार्य, धूर्तता पूर्ण कार्य, विषकार्य, अस्त्र-शस्त्र निर्माण एवं उनके व्यवहार करनेका कार्य सिद्ध होता है। विशाखा, कृत्तिका ये दो नक्षत्र और बुध दिन इनकी मिश्र और साधारण संज्ञा है। इनमें अग्निहोत्र, साधारण कार्य, वृषोत्सर्ग आदि कार्य सिद्ध होता हैं। Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ७५४ _ हमहु संहिता आभूषणादि विधायक नक्षत्र हस्ताश्विपुष्याभिजितः क्षिप्रं लघुगुरुस्तथा। तस्मिनन्पण्य - रतिज्ञानभूषा - शिल्पकलादिकम्॥ हस्त, अश्विनी, पुष्य, अभिजित् ये चार नक्षत्र और बृहस्पति दिन, इनकी क्षिप्र और लघु संज्ञा है। इनमें बाजारका कार्य, स्त्री-सम्भोग, शास्त्रादिका ज्ञान, आभूषणोंका बनवाना और पहिनना, चित्रकारी, गाना-बजाना आदि कार्य सफल होते हैं। मित्रकार्यादि विधायक नक्षत्र मृगान्यचित्रामित्रर्भ मृदुमैत्रं भृगुस्तथा। तत्र गीताम्बरक्रीडामित्रकार्य विभूषणम् ।। ___ मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा ये चार नक्षत्र और शुक्रवार इनकी मृदु और मैत्र संज्ञा है। इनमें गाना, वस्त्र पहनाना, स्त्री के साथ रति करना, मित्रका कार्य और आभूषण पहनना शुभ होता है। पशुओं को शिक्षित करना तथा दारू-तीक्ष्ण विधायक नक्षत्र मूलेन्द्राहिभं सौरिस्तीक्ष्ण दारुणसंज्ञकम् । तत्राभिचारयातोग्रभेदा: पशुदमादिकम्॥ मूल, ज्येष्ठा, आर्द्रा, आश्लेषा ये चार नक्षत्र और शनि तीक्ष्णं और दारुसंज्ञक हैं। इनमें भयानक कार्य करना, मारना, पीटना, हाथी-घोड़े आदिको सिखलाना ये कार्य सिद्ध होते हैं। ग्रहोंका स्वरूप जान लेना भी आवश्यक हैं। सूर्य—यह पूर्व दिशाका स्वामी, पुरुष ग्रह, सम वर्ण, पित्त प्रकृति और पाप ग्रह है। यह सिंह राशिका स्वामी है। सूर्य आत्मा, स्वभाव, आरोग्यता, राज्य और देवालयका सूचक है। पिताके सम्बन्धमें सूर्यसे विचार किया जाता है। नेत्र, कलेजा, मेरुदण्ड और स्नायु आदि अवयवोंपर इसका विशेष प्रभाव पड़ता है। यह लग्नसे सप्तम स्थानमें बली माना गया है। मकरसे छ: राशि पर्यन्त चेष्टावली है। इससे शारीरिक रोग, सिरदर्द, अपच, क्षय, महाज्वर, अतिसार, मन्दाग्नि, नेत्रविकार, Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७५५ सप्तविंशतितमोऽध्यायः मानसिक रोग, उदासीनता खेद, अपमान एवं कलह आदिका विचार किया जाता है। चन्द्रमा—पश्चिमोत्तर दिशाका स्वामी, स्त्री, श्वेतवर्ण और गलग्रह है। यह कर्कराशि का स्वामी है। वातश्लेष्मा इसकी धातु है। माता-पिता, चित्तवृत्ति, शारीरिक पुष्टि, राजानुग्रह, सम्पत्ति और चतुर्थ स्थानका कारक है। चतुर्थ स्थानमें चन्द्रमा बली और मकरसे राशियोंमें इसका चेष्टाबल है। कृष्ण पक्षकी ६ से शुक्ला पक्षकी १० तक क्षीण चन्द्रमा रहनेके कारण पापग्रह और शुक्ल पक्षकी १० से कृष्णपक्ष की ५ तक पूर्ण ज्योति रहनेसे शुभग्रह और बली माना गया है। इससे पाण्डुरोग, जलज तथा कफज रोग. मुत्रकृच्छ, स्त्रीजन्य रोग, मानसिक रोग, उदर और मस्तिष्क सम्बन्धी रोगोंका विचार किया जाता है। मङ्गल-दक्षिण दिशाका स्वामी, पुरुष जाति, पित्तप्रकृति, रक्तवर्ण और अग्नि तत्त्व है। यह स्वभावतः पाप ग्रह है, धैर्य तथा पराक्रम का स्वामी है। यह मेष और वृश्चिक राशियोंका स्वामी है। तीसरे और छठवें स्थानमें बली और द्वितीय स्थानमें निष्फल होता है। बुध---उत्तर दिशाका स्वामी, नपुंसक, त्रिदोष प्रकृति, श्यामवर्ण और पृथ्वी तत्त्व है। यह पापग्रह सू०, मं०, रा०, के०, श० के साथ रहनेसे अशुभ और शुभ ग्रह-चन्द्रमा, गुरु और शुक्रके साथ रहनेसे शुभ फलदायक होता है। इससे वाणीका विचार किया जाता है। मिथुन और कन्या राशिका स्वामी है। गुरु-पूर्वोत्तर दिशाका स्वामी, पुरुष जाति, पीतवर्ण और आकाश तत्त्व है। यह चर्बी और कफकी वृष्टि करनेवाला है। यह धनु और मीनका स्वामी है। शुक्र—दक्षिण-पूर्वका स्वामी, स्त्री, श्याम-गौर वर्ण एवं कार्य कुशल है। छठवें स्थानमें यह निष्फल और सातवेंमें अनिष्टकर होता है। यह जलग्रह है, इसलिए कफ, वीर्य आदि धातुओंका कारक माना गया है। वृष और तुला राशि का स्वामी शनि-पश्चिम दिशाका स्वामी, नपुंसक, वातश्लेष्मिक, कृष्णवर्ण और वायुतत्त्व है। यह सप्तम स्थानमें बली, क्क्री या चन्द्रमाके साथ रहने चष्टाबली होता है। मकर और कुम्भ राशियोंका अधिपति है। Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता । ७५६ राहु-दक्षिण दिशाका स्वामी, कृष्णवर्ण और क्रूर ग्रह है। जिस स्थानपर राहु रहता है, उस स्थानकी उन्नतिको रोकता है। केतु-कृष्ण वर्ण और क्रूर ग्रह है। जिस देश या राज्यमें क्रूर-ग्रहोंका प्रभाव रहता है या क्रूर ग्रह वक्री, मार्गी होते हैं, उस देश या राज्यमें दुष्काल, अवर्षा, नाना प्रकारके अन्य उपद्रव होते हैं। शुभग्रहोंके उदय और प्रभाव से राज्य या देशमें शान्ति रहती है। नवीन वस्त्रोंका बुध, गुरु और शुक्रको, द्वितीया, पञ्चमी, सप्तमी, एकादशी, त्रयोदशी और पूर्णिमा तिथिको तथा अश्विनी, रोहिणी, मृगशिर, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, उत्तरा तीनों, स्वाति, अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा और रेवती नक्षत्रमें व्यवहार करना चाहिए। नवीन वस्त्र सर्वदा पूर्वाह्नमें धारण करना चाहिए। इति श्रीपंचम श्रुत केवली दिगम्बराचार्य भद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिताका नवीन वस्त्र धारणोध्यायका विशेष वर्णन करने वाला सत्तावीसवाँ अध्याय की हिन्दीभाषानुवाद करने वाली क्षेमोदय टीका समाप्त। (इति सप्तविंशतितमोऽध्यायः समाप्तः) Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टाध्यायः अरिष्टों का वर्णन यह अध्याय कालज्ञान जानकर समाधिमरण करने के लिए है। अथ वक्ष्यामि केषाञ्चित्रिमित्तानां प्ररूपणम्। कालज्ञानादि भेदेन यदुक्तं पूर्व सूरिभिः ।।१॥ (अथवक्ष्यामिकषाञ्चिन्) अब मैं कुछ (निमित्तानां प्ररुपणम्) निमित्तों का प्ररूपण कहूंगा जी (कालज्ञानादिभदेन) काल ज्ञानादिक प्ररुपण किया गया है (यदुक्तंपूर्वसूरिभिः) एवं जैसा पूर्वाचार्यों ने कहा है। भावार्थ-अब में कुछ निमित्तों को कहूँगा जो काल ज्ञानादिक के भेद से पूर्वाचार्यों ने कहा है॥१॥ श्रीमद्वीरजिनं नत्वा भारतीच पुलिन्दिनीम्। स्मृत्वा निमित्तानी वक्ष्ये स्वात्मनः कार्यसिद्धये॥२॥ (श्रीमद्वीरजिनंनत्वा) श्री मद्वीर जिनेन्द्र को नमस्कार करके (भारतीञ्च पुलिन्दिनीम्) सरस्वती का स्मरणक निमित्तों की अधिष्ठाता पलिन्दिनीदेविका (स्मृत्वा) स्मरण करके (स्वात्मन: कार्यद्धिये) आत्मा के कार्य की सिद्धि के लिये (निमित्तानीवक्ष्ये) निमित्तों को कहूँगा। भावार्थ-जिनेन्द्र श्री वीर भगवान एवं सरस्वती देवी को नमस्कार कर तथा निमित्तों की अधिष्ठातापुलिन्दिनी देवि का स्मरण कर आत्मसिद्धि के लिये निमित्तों को कहूंगा ॥२॥ भीमान्तरिक्षादि भेदा अष्टौ तस्य बुधैर्मताः । ते सर्वेऽप्यत्र विज्ञेयाः प्रज्ञावद्भिर्विशेषतः॥३॥ Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाह संहिता ७५८ (तस्य) उन निमित्तों के (भौमान्तरिक्षादि अष्टौभेदा) भौम अंतरिक्षादिक के भेद से आठ भेद (बुधैर्मता) ज्ञानीयों को जानना चाहिये (ते सर्वेऽप्यत्रविज्ञेया:) उन सब को यहां जानना चाहिये (प्रज्ञावद्भिर्विशेषत:) और विशेष कर बुद्धिमानों को। भावार्थ-उन निमित्तों के भौम अन्तरिक्ष आदि के भेद से आठ भेद होते हैं। उन आठ प्रकार के निमित्तों का उपयोग आयु ज्ञान के लिए वर्णन विशेषकर विद्वानों को यहाँ जानना चाहिये ॥३॥ व्याधेः कोटय:पञ्च भवन्त्यष्टाधिकषष्टिलक्षाणि। नवनवति सहस्राणि पत्रशती चतरशीत्यधिकाः॥४॥ मनुष्य के शरीर में (पञ्च कोटयः) पाँच करोड़ (भवन्त्याष्टधिकषष्टिलक्षाणि) अड़सठ लाख (नवनवति सहस्राणि) निन्यानवे हजार (पञ्चशतीचतुरशीत्यधिकाः व्याधे:) पांच सौ चौरासी रोग होते है। भावार्थ-मनुष्य के इस शरीर में पांच करोड़ अड़सठ लाख निन्यानवे हजार पांच सौ चौरासी रोगों की संख्या बताई गई है।। ४ ।। एतत्संख्यान् महारोगान् पश्यन्नपि न पश्यति। इन्द्रियैर्मोहितो मूढः परलोकपराङ्मुखः ॥५॥ (एतत्संख्यान् महारोगान्) इतनी संख्या से युक्त यह मनुष्य शरीर महारोगों से भरा हुआ है (पश्यन्नपि न पश्यति) जो देखता हुआ भी नहीं देखता है (इन्द्रियैर्मोहितो मूढः) इन्द्रियों के विषय में मूढ होता हुआ (परलोकपराङ्मुख:) परलोक से पराङ् मुख हो रहा है भावार्थ-यह मनुष्य शरीर इतने प्रकार के महारोग से ग्रसित है फिर भी मनुष्य इसको देखता हुआ भी नहीं देख रहा है और परलोक से पराङ्मुख होता हुआ इन्द्रिय के विषय में मूढ़ हो रहा है।॥५॥ नरत्वे दुर्लभेप्राप्ते जिनधर्मे महोन्नते। द्विधासल्लेखनां कर्तुं कोऽपि भव्यः प्रवर्तते॥६॥ (दुर्लभे नरत्वे प्राप्ते) दुर्लभ मनुष्य पर्याय प्राप्त कर (जिन धर्मेमहोन्नते) जिसने - - Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५९ परिशिष्टाध्यायः महानजिन धर्म प्राप्त किया है ऐसा (कोऽपि भव्यः) कोई एकाध भव्य (प्रवर्तते) प्रवृति करके (द्विधासल्लेखनां कर्तु) दोनों प्रकार की सल्लेखना को धारण करता है। भावार्थ- दुर्लभ मनग्य पर्याय को प्राप्त कर महान जिन धर्म को जिसने प्राप्त किया है ऐसा कोई एकाध भव्य जीव दोनों प्रकार की सल्लेखना धारण करता है।। ६॥ कृशत्वं नीयते कायः कषायोऽप्यति सूक्ष्मताम्। उपवासादिभिः पूर्वो ज्ञानध्यानादिभिः परः।।७।। (उपवासदिभि: कायः कृशत्वं) उपवासादि के द्वारा शरीर को कृशता की ओर (नीयते) ले जाता है (कषायोऽप्यतिसूक्ष्मताम्) और साथ में कषायों को भी सूक्ष्म करता है (पूर्वोज्ञानध्यानदिभिपर:) वही ज्ञान ध्यान और तप लीन होते हैं। भावार्थ-कोई भव्य जीव ज्ञान ध्यान में लीन रहने वाला आत्म कल्याण के लिये उपवासादिक करके अपने शरीर को और कषाय को कृश करता है॥७॥ शास्त्राभ्यासं सदा कृत्वा संग्रामें यस्तुमुह्यति। द्विपोस्तस्य कृतस्नानो मुनेव्यर्थ तथा व्रतम्॥८॥ (सदाशास्त्राभ्यासं कृत्वा) जो नित्य शास्त्राभ्यास करता हुआ (संग्रामेयस्तु मुह्यति) भी इन्द्रियविषयों में आसक्त है (तस्य) उसका (द्विपो:कृतस्स्नानो) हाथी स्नान के समान (तथा) उस (मुनेर्व्यर्थंव्रतम्) मुनिका व्रत धारण करना व्यर्थ है। भावार्थ----जो मुनि व्रत धारण कर शास्त्राभ्यास नित्य करता है तो भी अगर इन्द्रियविषय में आसक्त है फिर उस मुनि का व्रत धारण करना हस्तिस्नान के समान व्यर्थ है।। ८॥ विरतः कोऽपि संसारी संसार भयभीरुकः । विन्द्यादिमान्यरिष्टानि भाव्य भावान्यनुक्रमात् ।।९॥ जो (कोऽपि) कोई (संसारीविरतः) संसार विरक्त होकर (संसार भय भीरुक:) संसार के दु:खों से भयभीत हुआ ऐसा मुमुक्षु के लिये (विन्द्यादि) तुम जानो (मान्यरिष्टानि) मान्यरिष्टों को जो (भाव्य नावान्यनुक्रमात्) भाव्य के भावानुसार क्रम से होते हैं उसको कहूँगा। Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ७६० भावार्थ जो कोई संसारी जीव संसार के दुःखों से भयभीत होता हुआ विरत हुआ है ऐसे मुमुक्षु के लिये मैं कुछ अरिष्टों को कहूंगा जो भाव्य के भावानुसार क्रम से होते हैं। ये अरिष्ट शरीर में होते है उनके अनुसार आयु ज्ञान किया जाता है।॥ ९॥ पूर्वाचार्यैस्तथा प्रोक्तं दुर्गायैलादिभिः यथा । गृहीत्वा तदभिप्रायं तथारिष्टं वदाम्यहम् ॥१०॥ (पूर्वाचार्यैस्तथा प्रोक्तं) पूर्वाचार्यों के द्वारा कहा गया तथा (दूर्गायैलादिभिः यथा) दुर्गाचार्य व ऐलाचार्य के द्वारा कहे गये अरिष्टों के अनुसार (तदभिप्रायंगृहीत्वा) उनके अभिप्राय को ग्रहण करके तथारिष्टं वदाम्यहम) उन अरिष्टों को कहूंगा। भावार्थ—पूर्वाचार्य के द्वारा कहे गये व दुर्गाचार्य व ऐलाचार्य के द्वारा कहे गये अरिष्टों को मैं उन्हीं के अभिप्रायानुसार कहूंगा ।।१०।। पिण्डस्थञ्च पदस्थञ्च रूपस्थञ्च त्रिभेदतः। आसन्नमरणे प्राप्ते जायतेऽरिष्ट सन्ततिः ।। ११ ।। (पिण्डस्थञ्च) पिण्डस्थ (पदस्थञ्च) पदस्थ (रूपस्थञ्च) रूपस्थ (त्रिभेदतः) तीन भेद रूप ध्यान (आसन्नमरणे प्रासे) जिसका निकट मरण आया है ऐसे धर्मात्मा को हो तो और उसी के (अरिष्ट सन्तति:) शरीर में अरिष्ट होते हैं। भावार्थ-पिण्डस्थध्यान पदस्थध्यान रूपस्थध्यान तीन भेद वाला है। और वह आसन्न मरण अर्थात् जिसका मरण निकट आ गया है ऐसे भव्य जीव को होते हैं उसी के शरीर में ये अरिष्ट उत्पन्न होते हैं।।११।। विकृतिईश्यते कायेऽरिष्टं पिण्डस्थ मुच्यते। अनेकधा तत्पिण्डस्थं ज्ञातव्यं शास्त्रवेदिभिः ।। १२॥ (विकृतिईश्यतेकाये) शरीर में विकृतीदिखाई पड़े तो उसे (पिण्डस्थऽरिष्टं मुच्यते) पिण्डस्थ अरिष्ट कहते हैं (तत्) उस(पिण्डस्थ) पिण्डस्थ अरिष्ट को (शास्त्र वेदिभिः) शास्त्र के जानकार (अनेकधा ज्ञातव्यं) अनेक प्रकार का कहते हैं ऐसा जानना चाहिये। भावार्थ- शरीर में विकृति आ जाती है उसे पिण्डस्थ अरिष्ट कहते हैं उस पिण्डस्थ अरिष्ट के शास्त्रकारों ने अनेक भेद कहे है॥ १२॥ Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टाऽध्यायः सुकुमारं कर युगलं कृष्णं कठिनमवेद्यदायस्य। न स्फुटन्ति बागुलयस्तस्यारिष्टं विजानीहि ॥१३॥ यदि किसी के (सुकुमारं कर युगलं) सुकुमार के दोनों हाथ (कृष्णं कठिनमवेद्यदायस्य) कठोर और काले हो जाय (नस्फुटन्ति वाालय:) और अंगुलियां टेडी हो जाय तो (तस्यरिष्टं विजानीहि) उसका मरण सात दिन में हो जाता है। भावार्थ-यदि किसी के सुकुमार हाथ कठोर और काले पड़ जाय और दोनो हाथों की अंगुलियां टेड़ी हो जाय सिद्धि न होवे तो उसका मरण सात दिनों में हो जायगा ॥१३॥ स्तब्धं लोचनयोर्यग्मं विवर्णा काष्ठवत्तनुः । प्रस्वेदो यस्य भालस्थः विकृतं वदनं तथा ।। १४ ॥ (स्तब्धं लोचनयोर्युग्मं) जिस की दोनों आंखे स्तब्ध हो जाय (विवर्णाकाष्ठवत्तनुः) विवर्ण हो जाय काष्ट के समान शरीर अकड़ जाय (प्रस्वेदो यस्य भालस्थः) और जिसके भाल में पसीना आने लगे (विकृतं वदनं तथा) तथा शरीर विकृत हो जाय तो उसका मरण सात दिन में हो जायगा। भावार्थ-जिसकी दोनों आंखों की पुतलियां रुक जाय एवं जिसका शरीर विवर्ण और काष्ठ के समान स्थिर हो जाय और जिसके भाल में पसीना आने लगे तथा जिसका शरीर विकृत हो जाय तो समझो उसका मरण सात दिन में हो जाता है।। १४ ।। निर्निमित्तो मुखे हासस्चक्षुभ्ा जलविन्दवः। अहोरात्रं सवन्त्येव नखरोमाणियान्ति च ।। १५॥ (निर्निमित्तोमुखे हास:) कोई निमित्त न होने पर भी मुंह से हंसी आने लगे (चक्षुभ्या॑जलविन्दवः) आंखों से निरंतर आंसु (अहोरात्रं सवन्त्येव) रात दिन बहने लगे ( नखरोमाणि यान्ति च) नख और रोमों से पसीना बहे तो समझो उसका मरण सात दिन में हो जायगा। भावार्थ-कोई कारण न होने पर भी हँसी आने लगे, आंखों से निरंतर Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता रात दिन पानी बहे, और नख रोमों से पसीना बहे तो समझो उसका मरण सात दिनों में हो जाता है ॥ १५ ॥ सुकृष्णा दशना यस्य न घोषा कर्णनं पुनः । एतैश्चिह्नस्तु प्रत्येकं तस्यायुर्दिनसप्तकम् ॥ १६ ॥ ७६२ (यस्य) जिसके (सुकृष्णा दशना) दांत काले पड़ जाय (न घोषा कर्णनं पुनः ) पुनः कर्णघोष न सुनाई पड़े ( एतैश्चिस्तु प्रत्येकं ) इतने चिह्न शरीर में दिखाई पड़े तो समझो (तस्यायुर्दिनसप्तकम्) उसकी आयु सात दिन की रह गई है । भावार्थ — जिसके दांत काले पड़ जाय और जिसको कर्ण घोष न सुनाई पड़े, इतने चिह्न हो तो समझो उसकी आयु सात दिन की रह गई है, वह सात दिन में मरने वाला है ॥ १६ ॥ निर्गच्छंस्तुदयते नेत्रयोर्मीलनाज्जोतिरद्दष्टं (निर्गच्छंस्तुटते वायुः) जिसके शरीर में से वायु निकले और वह बीच में टूट जाय (तस्यपक्षैक जीवनम् ) तो वह पन्द्रह दिन में मर जायगा (नेत्रयोर्मीलनाज्जोतिरदृष्टं ) एवं नैत्र की ज्योति न दिखे तो ( दिनसप्तकम) सात दिन में वह मर जायगा | भावार्थ - जिसके शरीर में से वायु निकले और वह बीच में ही टूटती जाय तो उसकी आयु पन्द्रह दिन की है एवं उसकी नैत्र की ज्योति नहीं दिखे तो वह सात दिन में मर जायगा ।। १७ ।। वायुस्तस्य पक्षैकजीवनम् । दिनसप्तकम् ।। १७ । क्रमम् । धूर्मध्ये नासिका जिह्वादर्शने च यथा नवत्र्येकदिनान्येव सरोगी जीवति ध्रुवम् ॥ १८ ॥ (भूर्मध्येनासिका जिह्वा) भौंह के मध्य में, नासिका, जिह्वा (दर्शनेचयथा क्रमम् ) काय तथा क्रम से दर्शन हो तो इस प्रकार ( नवत्र्येक दिनान्येव ) वह तीन दिन या एक दिन ( जीवतिप्रवम् ) निश्चय से जीवेगा । भावार्थ -यथा क्रम से भौहों का मध्य नहीं दिखे तो नौ दिन जीवेगा, Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टाऽध्यायः मासिका नहीं दिखे तो तीन दिन की आयु समझो और जिह्वा न दिखे तो एक दिनकी आयु समझो अर्थात रोगी का इसी क्रम से मरण होगा ।। १८॥ पाणिपादोपरि क्षिप्तं तोयं शीघ्रं विशुष्यति । दिनत्रयं च तस्यायुः कथितं पूर्वसूरिभिः ॥१९ ।। (पाणिपादोपरि तोयंक्षिप्तं) जिसके हाथ और पावों के ऊपर डाला गया पानी (शीघ्रंविशुष्यति) शीघ्र ही सुख जाता हो (तस्यायुः दिनत्रयं च) उसकी आयु तीन दिन की है ऐसा (पूर्वसूरिभिःकथितं) पूर्वाचार्यों के द्वारा कहा गया है। भावार्थ—जिसके हाथों और दोनों पांवो पर पानी डालने पर शीघ्र सुख जाय तो उसकी आयु तीन दिन की रह जाती है ऐसा पूर्वाचार्यों ने कहा है॥ १९॥ निर्विश्रामो मुखात्स्वासो मुखाद्रक्तं पतेद्यदा। यद्दष्टिः स्तब्धः निष्पन्दा वर्णचैतन्यहीनता॥ २० ।। (निर्विश्रामोमुखात्स्वासो) जिसके मुख से सतत स्वास चलती हो (मुखाद्रक्तं पतेद्यदा) मुख से रक्त पड़ता हो (यदृष्टिः स्तब्धः) जिसकी दृष्टि स्तब्ध हो जाय (निष्पन्दा वर्ण चैतन्यहीनता) वर्णनिषांद हो जाय, और चैतन्य हीन हो जाय, तो समझो शीघ्र मरण होने वाला है। भावार्थ-जिसके मुख से सतत स्वांस चले अर्थात् उर्ध्व स्वांस चले मुख से रक्त पड़े तथा दृष्टि रुक जाय वर्ण और चैतन्य निष्पंद हो जाय तो समझो उसका शीघ्र मरण होने वाला है ।। २० ।। स्थिरा ग्रीवा न यस्यास्ति सोत्स्वासो हृदि रुध्यते। नासावदन गुह्येभ्यः शीतलः पवनो वहेत् ॥ २१॥ (स्थिराग्रीवा न यस्यास्ति) जिसकी गर्दन टेड़ी हो जाय (सोत्स्वासो हृदि रुध्यते) और जिसकी हृदय गति रुक जाती है (नासावदनगुह्येभ्य:) नाक, शरीर और गुह्यस्थान से (शीतल: पवनोवहेत्) ठंडी वायु चलने लगे तो शीघ्र मरण हो जायगा। भावार्थ--जिसकी गर्दन टेड़ी हो जाय स्वास की गति रुक जाय नाक, शरीर व गुह्य स्थानों से ठंडी हवा चलने लगे तो तो व्यक्ति शीघ्र मरण कर जायगा ॥२१॥ Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ भद्रबाहु संहिता | ७६४ . . .. - - न जानाति निजं कार्य पाणिपादौ च पीड़ितौ। प्रत्येकमेभिस्त्वरिष्टैस्तस्य मृत्यु वेल्लघुः ।। २२॥ (पाणिपादौ च पीडितौ) हाथ पैर के पीडित करने पर भी (न जानातिनिज कार्यं) अपने कार्य को नहीं जानता है। (प्रत्येकमेभिस्त्वरिष्टैः) यह प्रत्येक अरिष्ट है इस अरिष्ट से (तस्य मृत्युभवेल्लघु:) उसकी मृत्यु अवश्य होती है। भावार्थ--हाथ पांव या अन्य अंगों को पीडित करने पर भी जो अंगों-पांग अपने कार्य से विचलित हो गये हो तथा जो निचेष्ट हो गया है उस की मृत्यु अवश्य होती है।॥२२॥ स्थूलो याति कृशत्वं कृशोऽप्य कस्माच्च जायते स्थूलः। स्थगस्थगति यस्म काय: कृतशीर्षहस्तो निरन्तरं शेते ।। २३॥ (स्थुलोयातिकृशत्वं) स्थूल व्यक्ति अकस्मात् पतला हो जाय (कृशोऽप्यकस्माच्चजायतेस्थूल:) और पतला मनुष्य अकस्मात् मोटा हो जाय और (स्थगस्थगतियस्यकाय:) जिसका शरीर कांपने लगे (कृतशीर्षहस्तोनिरन्तरंशेते) जो अपने सिर पर हाथ रख कर निरंतर सोता रहे तो समझो उसकी आयु एक महीने की बाकी है। भावार्थ--मोटा मनुष्य अकस्मात पतला और पतला अकस्मात मोटा हो जाय और निरंतर अपने सिर पर हाथ रख कर सोवे तो उसकी आयु एक महीने की समझो अर्थात् वह एक महीने में मरण को प्राप्त हो जायगा ।। २३॥ ग्रीवोपरि करबन्धी गच्छत्यालीभिईढ़बन्धं च। क्रमणोद्यमहीनस्तस्यायुर्मास पर्यन्तम् ।। २४ ।। ग्रीवोपरिकरबन्धो) गर्दन के ऊपर हाथ से बंधन डाले (गच्छत्यङ्गुलीभिKढबन्ध्यंच) अंगुली से दृढ बंधन डालने पर भी गर्दन बंधे नहीं तो (क्रमणोद्यमहीन:) क्रमश: उद्यम महीन हो जाय (तस्यायुर्मासपर्यन्तम्) तो उसकी आयु एक महीने रह गई है। भावार्थ-गर्दन को अपने हाथ को अंगुलीयों से दृढ बंधन डालने पर भी बांधने में नहीं आवे तो उसकी आयु एक महीने की समझो।॥ २४ ॥ Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६५ परिशिष्टाऽध्यायः युग्मं अथर नख दशन रसनाः कृष्णा भवन्ति विना निमित्तेन । षड्रसभेदमवेता: तस्यायुर्मासपरिमाणम् ।। २५॥ (युग्मंअधर) दोनों होठ (नख दशन रसनाः) नख, दांत जीभ (कृष्णा भवन्तिविनानिमित्तेन) बिना निमित्त के काले हो जाय तो (तस्यायुर्मासपरिमाणम्) उसकी आयु एक महीने की समझो और (षड्रसभेदमवेता:) जिसको छःह रसों के स्वाद का ज्ञान नहीं हो तो भी एक महीने की आयु समझो। __भावार्थ-दोनों होंठ, नख, दांत, जीभ अपने आप ही काले हो जाय और जिसको छह रसों का स्वाद मालूम नई पड़े तो समझो उसकी आयु एक महीने की समझो ।। २५ ।। ललाटे तिलकं यस्यविद्यमानं न श्यते। जिह्वा यस्याति कृष्णत्वं मासमेकं स जीवति ॥२६॥ (यस्य) जिसके (ललाटे तिलकं) ललाट का तिलक (विद्यमानं न दृश्यते) विद्यमान न रहने पर भी नहीं दिखता है (जिह्वायस्यातिकुष्णत्वं) एवं जिसकी जीभ काली पड़ जाय तो (मासमेकं स जीवति) उसकी आयु एक महीने की समझो वह एक महीने में मर जायगा। भावार्थ-जिसके ललाट पर का तिलक होने पर भी न दिखता हो और जिसकी जीभ काली पड़ जाय तो वह एक महीने में मर जायगा अर्थात् उसकी आयु एक महीने की है॥ २६ ।। धृतिमदनविनाशो निद्रानाशोऽपि यस्य जायते। भवति निरन्तरं निद्रा मासचतुष्कन्तु तस्यायुः ।। २७ ।। (यस्य) जिसके (धृतिमदन विनाशो) धैर्य का नाश, काम शक्ति का नाश (निद्रानाशोऽपि) और भी निद्रा का नाश (जायते) हो जावे (निरन्तर निद्रा भवति) तथा निरंतर सोता रहे तो (तस्यायु: मासचतुष्कन्तु) जिसकी आयु चार महीने की समझो। भावार्थ—जिसके धैर्य का नाश हो जाय, काम शक्ति का नाश हो जाय Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ७६६ और निद्रा का नाश हो जाय तथा निरंतर सोता रहे तो उसकी आयु चार महीने की है।। २७॥ इत्यवोचमरिष्टानि पिण्डस्थानि समासतः । इतः परं प्रवक्ष्यामि पदार्थस्थान्यनुक्रमात् ॥२८॥ (इत्यवोचमरिष्टानि) इस प्रकार के अरिष्टों को (पिण्डस्थानि समासतः) पिण्डस्थ अरिष्ठ कहते हैं (इतः परंप्रवक्ष्यामि) अब मैं पदस्थ अरिष्टों को क्रमश: कहता हूँ, (पदार्थ स्थान्यनुक्रमात्) पदस्थ अरिष्टों को पिण्डस्थ अरिष्ट कहते हैं। भावार्थ-इस प्रकार के अरिष्टों को पिण्डस्थ अरिष्ट कहते हैं अब मैं पदस्थ अरिष्टों को क्रमश: कहता हूँ॥२८॥ चन्द्रसूर्यप्रदीपादीन् वैपरीत्येन पश्यति। पदार्थस्थमरिष्टं तत्कथयन्ति मनीषिणः ॥२९॥ (चन्द्रसूर्यप्रदीपादीन्) चन्द्र सूर्य दीपक आदि (वैपरीत्येन पश्यति) विपरीत रुप से दिखे तो (पदर्थस्थमरिष्टं) उस पदार्थ को अरिष्ट (मनीषिण: तत्कथयन्ति) बुद्धिमान लोग कहते हैं। भावार्थ-चन्द्र, सूर्य दीपक आदि विपरीत रुप से दिखे तो बुद्धिमान पुरुष उस पदार्थ को अरिष्ट कहते हैं।। २९ ।। स्नात्वा देहमलंकृत्य गन्थमाल्यादिभूषणैः । शूभ्रस्ततो जिनं पूज्य चेदं मन्त्रं पठेत् सुधीः ॥ ३०॥ (स्नात्वा) स्नान कर (देहमलंकृत्य) देह के मल को दूर करे, फिर (गंधमाल्यादि भूषणैः) गंध मालादिक भूषण पहने (शूभैः) सफेद वस्त्र पहने (ततोजिनंपूज्य) उसके बाद जिनेन्द्र पूजा करके (चेदं मन्त्रं पठेत् सुधी:) फिर बुद्धिमान मंत्र को पढे। भावार्थ-स्नान कर अपने को सफेद वस्त्र व गंध माल्यादि भूषणों से सजावे फिर जिनेन्द्र भगवान की पूजा करे, और मंत्र का जाप प्रारभं करे ।। ३० ॥ एक विंशति वेलाभि:पठित्वा मन्त्रमुत्तमम्। गुरूपदेशमाश्रित्य ततोऽरिष्टं निरीक्षयेत्॥३१॥ Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६७ परिशिष्टाऽध्यायः (उत्तमम्) उत्तम (मन्त्र) मन्त्र को (एकविंशतिवेलाभिः) इक्कीस बार (पठित्वा) पढ़कर (गुरुपदेशमाश्रित्य) गुरुपदेश का आश्रय लेकर (ततोऽरिष्टंनिरीक्षयेत्) उस अरिष्ट का निरीक्षण करे। __ भावार्थ-उत्तम मंत्र को इक्कीस बार पढकर गुरुपदेश का आश्रय लेकर उन अरिष्टों का निरीक्षण करे ।। ३१॥ चन्द्रभास्करयोर्बिम्ब नानारूपेण पश्यति। सच्छिद्रं यदि वा खण्डं तस्यायुर्वर्षमात्रतः ॥ ३२॥ (चन्द्रभास्करयोर्बिम्बं) चन्द और सूर्य बिंब है (नानारूपेणपश्यति) वह नाना रुप में दिखे तथा (सच्छिद्र यदि बा खण्ड) छिद्र सहित वह खड खंड रुप दिखे तो (तस्यायुर्वर्षमात्रत:) उसकी आयु एक वर्ष मात्र रह जाती है। भावार्थ-चन्द्र और सूर्य का बिंब नाना रुप में दिखे तथा छिद्र सहित एवं खंड-खंड रुप दिखे तो उसकी आयु एक वर्ष मात्र रह जाती है। ३२ ।। दीपशिखां बहुरूपां हिमदव दग्धां यथादिशां सर्वाम् । यः पश्यति रोगस्थो लघुमरणं तस्य निर्दिष्टम् ।। ३३॥ (दीपशिखां बहुरूपां) दीप की शिखा बहुरुप वाली दिखे तथा (यथादिशा सर्वाङ्गम्) सब दिशों की सब तरफ से (हिमदवदग्धां) हिम के समान जलती हुई (य:) जो (रोगस्थो) रोगी (पश्यति) देखता है (तस्यलघुमरणंनिर्दिष्टम्) उस रोगी का शीघ्र ही मरण कहा गया है। भावार्थ-जो रोगी दीप शिखा को बहुत रुप में देखता है और सब दिशा हिम के समान जलती हुई दिखे तो उस रोगी का शीघ्र मरण हो जायगा ऐसा कहा गया है॥३३॥ बहुच्छिद्रान्वितं बिम्बं सूर्य चन्द्रमसोर्भुवि । पतन्निरीक्ष्यते यस्तु तस्यायुर्दशवासरम् ॥ ३४ ॥ (यस्तु) जो (बहुच्छिद्रान्वितं) बहुताच्छिद्रों से युक्त (सूर्य चन्द्रमसो(विबिम्ब) सूर्य और चन्द्रमा के बिम्ब को जमीन पर (पतानिरीक्षतो) गिरता हुआ देखता है (तस्यायुर्दशवासरम्) उसकी आयु दश दिन की है। Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ — जो चन्द्र और सूर्य को बहुतच्छेद वाला एवं जमीन पर गिरता हुआ देखता है तो उसकी आयु दस दिन की है ऐसा समझो ॥ ३४ ॥ चतुर्दिक्षु रवीन्दूनां पश्येद् बिम्ब छिद्रं वा तद्दिनान्येव चतुष्टयम् । मुहूर्त्तका: ।। ३५ ।। चत्वारश्च ( रवीन्दूनां ) जो चन्द्र और सूर्य के ( बिम्बं ) बिम्ब को (चतुर्दिक्षु चतुष्टयम् पश्येद्) चारो दिशाओं में चार मुंह वाला दिखे और (छिद्रं वा तद्दिनान्येव ) छिद्र सहित दिखे तो ( चत्वारश्च मुहूर्तकाः) चार मूहुर्त की उसकी आयु समझनी चाहिये । भावार्थ —चन्द्र और सूर्य के बिम्ब को चारों दिशाओं में चार मुंह वाला दिखे तथा छिद्र सहित देखे तो उसकी आयु चार घटिका अर्थात् एक घण्टा छत्तीस मिनट की समझनी चाहिये || ३५ ॥ यदा पश्येदायुश्चतुर्दिनम् । ७६८ तयोर्विम्बं तयोश्छिद्रेविशन्तं नीलं भ्रमरोच्चयं ( यदा) जब रोगी ( तयोर्विम्बं ) उन चन्द्रया सूर्य के बिम्ब को (नीलंपश्येद्) नीले रंग का देखे तो (आयुश्चतुर्दिनम् ) उसकी आयु चार दिन की समझो (तयोश्छिद्रेविशन्तं ) उन्हीं चन्द्र और सूर्य के बिम्ब में अगर छिद्र दिखे और (भ्रमरोच्चयं ) भ्रमर समूह को प्रवेश करता हुआ देखे तो उसकी आयु चार दिन की है। ***** ॥ ३६ ॥ भावार्थ- - जब रोगी चन्द्र और सूर्य के बिम्ब में नीला रंग देखे तो अर्थात् नीले रंग का दिखे और भ्रमर समूह को प्रवेश करता हुआ देखे तो उसकी, आयु चार दिन की है ॥ ३६ ॥ प्रज्वलद्वासधूमं वा मुञ्चद्वा रुधिरं जालम् । य: पश्येत् बिम्बमाकाशे तस्यायुः स्याद्दिनानि षट् ॥ ३७ ॥ जो कोई रोगी चन्द्र बिम्ब को अथवा सूर्य बिम्ब को ( प्रज्वलद्वासधूमंवा ) जलता हुआ देखे एवं धूम सहित देखे तथा ( मुञ्चद्वारुधिरं जालम् ) रुधिर निकलता हुआ (आकाशेपश्येत् ) आकाश में देखे तो समझो ( तस्यायुः स्याद्दिननिषट्) उसकी आयु छह दिन की है। I i Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६९ परिशिष्टाऽध्यायः भावार्थ-जो कोई रोगी चन्द्र एवं सूर्य बिम्ब को प्रज्वलित देखे और धूम सहित देखे वा रुधिर सहित आकाश में देख तो उसकी आयु छह दिन की है॥ ३७ ।। वाणैर्भिन्नमिवालीढं बिम्बं कालरेखया। यो वा पश्यति खण्डानि षण्मासं तस्य जीवितम्।। ३८॥ जो कोई सूर्य एवं चन्द्र (बिम्बं) बिम्ब को (वाणौर्भिन्नमिवालीढं) बाणों से एवं छिन्नभिन्न देखे एवं (कञ्चलरेखया) काजल की रेखा देखे और (वा यो खण्डानिपश्यति) उसके टुकडे-टकडे दिखे तो (तस्यषण्मासं जीवितम्) उसकी आयु छह महीने की समझो। भावार्थ-जो रोगी चन्द्र या सूर्य बिम्ब को वाणों से छिदा हुआ देखे और काली रेखा दिखे तथा उसके टुकड़े-टुकड़े दिखे तो समझो उसकी आयु छह महीने की समझो॥ ३८॥ रात्रौ दिनं दिने रात्रिं यः पश्येदातुरस्तथा। शीतला वा शिखां दीपे शीघ्रं मृत्युं समादिशेत् ।। ३९ ।। (य:) जो रोगी, (रात्रीदिनंदिनरात्रि) रात में दिन को .वं दिन में रात्रि को (पश्यदातुरस्तथा) आतुर होकर देखे तथा (शीतलावाशिखांदीपे) दीप शिखा को शीतल अनुभव करता है तो (शीघ्रंमृत्युसमादिशेत) उसकी शीघ्र मृत्यु हो जाती भावार्थ-जो रोगी रात में दिन का एवं दिन में रात्रि का अतुर होकर अनुभव करे तथा दीप शिखा को शीतल अनुभव करे तो उसकी मृत्यु शीघ्र हो जाती है।। ३९॥ तन्दुलैर्मियते यस्याञ्चलिस्तेषां भक्तं ज पच्यते। जहीत्यधिकं तदा चूर्ण भक्तं स्याल्लधुमृत्युदयम्।। ४० ।। (यस्याञ्जलितन्दुलै) रोगी अञ्जुलीभर कर चांवल को (स्तेषां भक्तं चपश्यते) पकावे उस भात को (जहीत्यधिकं) फिर उसकी अंगुली में भरे तब अगर कम या ज्यादा हो तो वह (म्रियते) शीघ्र मरेगा और उसी प्रकार (चणं भक्तंस्याल) किसी का चूर्ण को रोगी के अंजुली प्रमाण पकावे और वह ज्यादा कम हो जावे तो समझो (लघुमृत्युदयम्) उसकी मृत्यु शीघ्र होगी। Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ७30 भावार्थ- रोगी के अंजुली प्रमाण चांवल और कोई चूर्ण को लेकर पकावे फिर उससे रोगी की अंजुली भरे और उसकी अंजुली से ज्यादा कम हो जाय तो समझो उसकी शीघ्र मृत्यु हो जायगी॥ ४०॥ अभिमन्त्र्यस्तत्र तनुः तच्चरणैर्मापयेच्च सन्ध्यायाम् । __अपि ते पुनः प्रभाते सूत्रे न्यूने हि मासमायुष्कम् ।। ४१॥ (अभिमन्त्र्यस्तत्र) सूत्र को २१ या १०८ बार मंत्रित कर (सन्ध्यायाम्) सायंकाल में (तनुः) शरीर के प्रमाण (तच्चरणैर्भापयेच्च) उस सूत्र को नाप कर रखे (अपि ते पुन: प्रभाते सूत्रे न्यूने हि) फिर प्रात:काल उस सूत्र से रोगी को नापे और वह सूत्र अगर शरीर से कम हो जाय तो (मासमायुष्कम्) एक महीने की आयु समझो। भावार्थ---सायंकाल में रोगी के शरीर प्रमाण सूत्र को मंत्रित कर रखें फिर प्रात:काल उस सूत्र से पुनः रोगी को नापे अगर कम हो जाये तो समझो रोगी की आयु एक महीने की है अर्थात् रोगी एक महीने में मर जायगा ।। ४१॥ मंत्र:-ॐ ह्रींणमों अरिहंताणं कमले कमले विमले विमले उदरदेवि इटिमिटिपुलिन्दिनी स्वाहा। इस मंत्र से सूत्र को १०८ बार मंत्रित करे। श्वेताः कृष्णा: पीताः रक्ताश्च येन दृश्यन्ते दन्ताः । स्वस्य परस्य च मुकुरे लघुमृत्युस्तस्य निर्दिष्टः ॥४२॥ (येन) जो रोगी (मुकुरे) दर्पण में (स्वस्य परस्य च) स्वयं के अथवा पर के (दन्ताः) दांत (श्वेता: कृष्णाः पीताः रक्ताश्चदृश्यन्ते) सफेद या काले, तथा पीले तथा लाल देखते तो (तस्य लघु मृत्यु: निर्दिष्टः) उसकी शीघ्र मृत्यु होगी, ऐसा निर्देश कहा गया है। भावार्थ-जो रोगी स्वयं के या पर के दांत दर्पण में काले, सफेद, पीले या लाल देखे तो उसकी शीघ्र मृत्यु हो जाती है।। ४२।। द्वितीयायाः शशिबिम्बं पश्येत् त्रिशृङ्गपरिहीनम्। उपरि सधूमच्छायं खण्डं वा तस्य गतमायुः॥४३ ।। (द्वितीयाया: शशिबिम्ब) द्वितीया का चन्द्रमा (त्रिशङ्ग परिहीनम्) तीन कोण Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टाऽध्यायः वाला या कोण से रहित (उपरि सधूमच्छायं खण्डं वा) वा धूम से सहित वा खण्ड रूप दिखे तो (तस्यगतमायुः) उसकी आयु समाप्त हो गई समझो। भावार्थ-जो कोई द्वितीया का चन्द्रमा तीन कोर वाला या कोण रहित या धूम से सहित खंड-खंड रूप में देखे तो उसका शीघ्र मरण होने वाला है।। ४३॥ अथवा माहीनं पलिनं चन्द्रपुरुषसाइण्यम्। प्राणी पश्यति नूनं मासादूवं भवान्तरं याति ।। ४४॥ (अथवा) अथवा जो (चन्द्रश्च) चन्द्रमां (मृगाङ्गहीनं) मृगचिन्ह से रहित दिखे एवं (मलिनं) मलिन दिखे (पुरुष सादृश्यम्) एवं उस के अन्दर पुरुषाकृति (प्राणीपश्यतिनून) अगर रोगी देखे तो निश्चित समझो (मासादूर्ध्वं भवान्तरं याति) एक महीने में वह उर्ध्व गति को प्राप्त कर जायगा। भावार्थ-अथवा जो कोई रोगी चन्द्रमा को मृगाचिन्ह से रहित देखे और चन्द्रमा को मलिन देखे अथवा उसमें पुरुषाकृति दिखे तो समझो वह एक महीने में मर जायगा ॥४४॥ इति प्रोक्तंपदार्थस्थमरिष्टं शास्त्रदृष्टितः। इतः परं प्रवक्ष्यामि रूपस्थञ्च यथागमम् ॥४५॥ (इति) इसी प्रकार (शास्त्रदृष्टितः) आगम के अनुसार (पदार्थस्थमरिष्टं प्रोक्तं) पदस्थ अरिष्ट को मैंने कहा (इत:) अब मैं (यथागमम्) जैसा आगम में कहा है उसी प्रकार (परं रूपस्थञ्च प्रवक्ष्यामि) पर रूपस्थ अरिष्ट को कहूँगा। भावार्थ-इसी प्रकार जैसा पूर्वागम में कहा था वैसा ही मैने यहां पर पदस्थ अरिष्टों को कहा, अब मैं रूपस्थ अरिष्टों को आगमानुसार कहूंगा || ४५ ॥ स्वरूपं दृश्यते यत्र रूपस्थं तनिरूप्यते । बहुभेदं भवेत्तत्र क्रमेणैव निगद्यते॥ ४६॥ (स्वरूपं दृश्यतेयत्र) जहां पर रूप दिखता हो (तन्निरूप्यते रूपस्थं) उसको रूपस्थ अरिष्ट कहा गया है (बहुभेदंभवेतत्र) वह अरिष्ट बहुत भेद वाला कहा गया है (क्रमेणैव निगद्यते) उसको क्रम से कहूंगा। Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ७७२ भावार्थ-जहां पर रूप दिखता हो उसको रूपस्थ अरिष्ट कहा और वह बहुत भेद वाला है उसको आगे क्रम से कहूंगा॥४६॥ छायापुरुषं स्वप्नं प्रत्यक्षतया च लिङ्गनिर्दिष्टम् । प्रश्नगतं प्रभणन्ति तद्रूपस्थं निमित्तज्ञाः ॥४७॥ (निमित्तज्ञा:) निमित्त ज्ञानीयों ने (छायापुरुषं स्वप्नं) छाया पुरुष स्वप्न, (प्रत्यक्षतया च लिङ्गनिर्दिष्टम् ) एवं प्रत्यक्ष चिन्ह को देख कर (प्रश्नगतं प्रभणान्ति) तथा प्रश्नगत कहने पर (तद्रूपस्थं) उसको रूपस्थ कहा गया है। भावार्थ-निमित्त ज्ञानीयों ने छायापुरुष स्वप्न, अथवा प्रत्यक्षचिन्ह को देख कर तथा प्रश्न के उत्तर को रूपस्थ अरिष्ट कहा है।। ४७॥ प्रक्षालितनिजदेहः सितवस्त्राविभूषितः। सम्यक् स्वछायामेकान्ते पश्यतु मन्त्रेण मन्त्रित्वा ।। ४८ ।। (प्रक्षालितनिजदेहः) अपने शरीर को स्नान कराकर (सितवस्त्राद्यैविभूषितः) सफेद वस्त्रों से विभूषित करे, फिर (मन्त्रेणमन्त्रित्वा) मंत्रो से मन्त्रित करके (सम्यक् स्वछायामेकान्तेपश्यतु) सम्यक् प्रकार से स्वयं की छाया को देखे। भावार्थ-अपने शरीर को स्नान कराकर सफेद वस्त्रों से विभूषित करे फिर अपने शरीर को मंत्रों से मन्त्रित करके स्वयं की छाया को देखे।।४८।।। इतिमन्त्रित सर्वाङ्गो मन्त्री पश्येन्नरस्य वरछायाम्। शुभदिवसे परिहीने जलधरपवनेन परिहीने ।। ४९॥ समशुभतलेवरेऽस्मिन् तोय तुषाङ्गार चर्मपरिहीने। इतरच्छायारिहते त्रिकरणशुद्धयाप्रपश्यन्तु ॥५०॥ (इतिमन्त्रित सर्वाङ्गो) इस प्रकार अपने सर्वाङ्ग को मन्त्रित करके मंत्रवादी (नरस्य वरछायाम् पश्येन्) मनुष्य की श्रेष्ठ छाया को देखे (शुभदिवसे) शुभदीन में अशुभ से परिहीन (जलधर पवनेन परिहीने) बादलों से रहित पवन से रहित (समशुभतलेबरेऽस्मिन्) सम और शुभ वारों से सहित (तोयतुषागार चर्म परिहीने) जल, तुष, अंगारे, चमड़ा से रहित (इतरच्छायारहिते) और दूसरी छाया से भी रहित हो (त्रिकरण शुद्धया प्रपश्यन्तु) मन, वचन, कार्य की शुद्धि पूर्वक देखे। Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७३ परिशिष्टाध्याय: भावार्थ-इस प्रकार अपने सर्वाङ्ग को मन्त्रित करके मंत्रवादी अपनी श्रेष्ठ छाया को देखे, शुभदिन शुभवार में बादलों से रहित पवन से रहित और पानी, तुष अंगार, चर्म से रहित और इतर छाया से रहित तीन शुद्धि पूर्वक देखे भूमि पर यह छाया अपनी स्वयं की स्वयं देखे, यह छायांपुरुष अवलोकन कार्य है।। ४९-५०॥ न पश्यति आतुरच्छायां मिजाध संस्थितः। दशदिनान्तरं याति धर्मराजस्य मन्दिरम्॥५१॥ जो रोगी (निजां) अपनी (आतुरच्छायां तत्रैव संस्थित: न पश्यति) आतुर छायां को स्थित होकर नहीं देखता है वह (दशदिनान्तरं) दस दिन के बाद (धर्मराजस्य मन्दिरम् याति) धर्मराज के मंदिर को जाता है। भावार्थ-जो रोगी अपनी छाया को स्थित होकर नहीं देखता है वो दस दिनों में यम मन्दिर को पहुंच जाता है॥५१॥ । अधोमुखीं निजच्छायां छायायुग्मञ्च पश्यति । दिनद्वञ्च तस्यायुर्भाषितं मुनिपुङ्गवैः ॥५२ ।। (निजच्छायां अधोमुखीं) अपनी छाया को अधोमुखी देखे और (युग्मञ्चछायायश्यति) दो हिस्सों में बढ़ी हुई देखे तो (तस्यायुदिनद्वयञ्च) उसकी आयु दो दिन (मुनिपुङ्ग वैर्भाषितं) मुनियों एवं श्रेष्ठ पुरुषों ने कहा है। भावार्थ-अपनी छाया को अधोमुखी देखे तथा दो हिस्सों में देखे तो उसकी आयु दो दिन की मुनि श्रेष्ठों ने कही है ।। ५२ ।। मन्त्री न पश्यति छाया मातुरस्यनिमित्तिजाम्। सम्यक् निरीक्ष्यमाणोऽपि दिनमेकं स जीवाते।। ५३।। (सम्यक् निरीक्ष्यमाणोऽपि) सम्यक्प निरीक्षण करने पर भी (मन्त्री नपश्यति छाया) मन्त्री अपनी छाया को नहीं देखता है (मातुरस्यनिमित्तिजाम) तो वह (दिनमेकं सजीवति) एक दिन जिन्दा रहता है। भावार्थ-जो सम्यक् रूप से निरीक्षण करने पर भी अपनी छाया को मंत्री नहीं देखता है तो वह एक दिन में ही मर जाता है अर्थात् उसका जीवन एक दिन का समझना चाहिए ।। ५३॥ Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता । वृषभ करि महिषासभ महिषादिकविविध रूपाकारैः । पश्येन् स्वछायां लघुमरणं तस्य सम्भवति ॥५४॥ यदि कोई व्यक्ति (स्वछायां) अपनी छाया को (वृषभ, करि, महषिरासभ) बैल, हाथी, भैंस, गधा, (महिषादिक विविधुरूपाकारैः) महिषादि नाना प्रकार के विविध रूपों में देखे तो (तस्य लघुमरणं सम्भवति) उसका शीघ्रमरण हो जाता भावार्थ-यदि कोई रोगी अपनी छाया को बैल, हाथी, घोड़ा, महिष, बकरा, कौआदि नाना रूपों में देखता है तो उसका शीघ्र मरण होगा, ऐसा जानो ॥५४॥ छायाबिम्बं ज्वलत्प्रान्तं सधूमं वीक्ष्यते निजम्। नीयमानं नरैः कृष्णैस्तस्य मृत्युर्लधुर्मत:॥५५॥ जो कोई रोगी (निजम्) अपनी (छायाबिम्बं) छाया बिम्ब को (ज्वलनान्तं) जलता हुआ देखे (सधूमंवीक्ष्यते) और वह धूम सहित देखे एवं (कृष्णै: नरै नीयमान) काले मनुष्य के द्वारा ले जाया जा रहा हो (तस्य मृत्युर्लधुर्मतः) तो उसकी मृत्यु शीघ्र हो जाती है। ___ भावार्थ-जो कोई रोगी अपनी छाया को जलती हुई देखे एवं धूम सहित देखे और काले मनुष्य के द्वारा स्वयं को ले जाते हुऐ देखे तो उसकी मृत्यु शीघ्र होगी।॥ ५५॥ नीलां पीतां तथा कृष्णां छायां रक्तां पश्यति । त्रिचतुः पञ्चषडानं क्रमेणैव स जीवति ।। ५६॥ (नीलां पीतां तथा कृष्णां) नीली, पीली तथा काली, (छायां रक्तां पश्यति) अपनी छाया को लाल देखता है तो (क्रमेणैव) क्रमसे (त्रिचतु: पञ्चषात्रं) तीन, चार, पाँच और छह रात्रि तक (स जीवति) वह जीता है उससे अधिक नहीं। भावार्थ-जो रोगी क्रमश: अपनी छाया को नीली देखे तो तीन दिन की आयु है पीली देखे तो चार दिन जीवत रहेगा, काली देखे तो पाँच दिन की आयु लाल छाया दिखे तो छह दिन की आयु रह जाती है।। ५६॥ Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७५ परिशिष्टाऽध्यायः मुद्गरबलच्छुरिका नाराचखड्गादि शस्त्रघातेन। चूणीकृतानेजबिम्बं पश्यति दिनसप्तकं चायुः॥५७॥ जो कोई रोगी (निजबिम्ब) अपनी छाया को (मुद्र सबलच्छुरिका, नाराच) मुद्र, छुरी, बी, भाला (खड्गादि शस्त्रघातेन) तलवार आदि शस्त्र के घात से (चूर्णी कृत पश्यति) चूर्ण करता हुआ देखे तो (दिनसप्तकं चायु:) सात दिन की आयु समझो। भावार्थ-जो कोई रोगी अपनी छाया को मुद्गर, सबल, छुरी, बी, भाला, बाण आदि से चूर्ण किया गया देखे तो उसकी आयु सात दिन की मात्र रह गई है॥५७।। निजच्छाया तथा प्रोक्तापरच्छायापि तादृशी। विशेषोऽप्युच्यते कश्चिद्यो दृष्टः शास्त्रवेदिभिः ।। ५८॥ इस प्रकार (निजच्छाया) अपनी छाया का (तथा) तथा (परच्छायापि तादृशी प्रोक्ता) परच्छाया का फल कहा उसका भी फल वैसा ही है (विशेषोऽप्युच्यते) विशेष यहाँ पर (कश्चिद्यो दृष्ट: शास्त्र वेदिभिः) किसी शास्त्र के जानकारों ने विशेष वर्णन यहाँ किया है उसको कहूँगा। भावार्थ--इस प्रकार अपनी छाया को व पर की छाया को व उसको फलादेश को मैने कहा अब मैं उसकी विशेषताएँ कहूँगा ।। ५८।।। रूपी तरुणः पुरुषो न्यूनाधिकमानवर्जितो नूनम् । प्रक्षालित सर्वाङ्गो विलिप्यते स्वेन गन्धेन ॥ ५९॥ (रूपी तरूण: पुरुषो) रूपवान युवक पुरुष (न्यूनाधिकमान वर्जितो नूनम्) जो की न ज्यादा लम्बा हो न ज्यादा नाटा हो उसको (प्रक्षालित सर्वाङ्गो) स्नान कराकर (स्वेन गन्धेन विलिप्यते) स्वयं को सुगन्धित गन्ध से विलिप्त करे। भावार्थ-रूपवान युवक को स्नान कराकर स्वयं को सुगन्धित गन्ध से लेपित करे ।। ५९॥ Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भद्रबाहु संहिता । ७७६ अभिमन्त्र्य तस्य कायं पश्चादुक्ते महीतले विमले। छायां पश्यतु स नरो धृत्वा तं रोगिणं हृदये।।६०॥ (तस्यकायं अभिमन्त्र्य) उस रोगी के शरीर को मन्त्रित करके (पश्चादुक्ते महीतलेविमले) फिर भूमि को पवित्र करके (तं) उस (रोगिणं हृदये धृत्वा) रोगी के हृदय को धारण कर (स नरो छायां पश्यतु) वह मन्त्री छाया को देखे। भावार्थ-रोगी के शरीर को मन्त्रित कर भूमि को निर्मल बनावे उस स्थित होकर मन्त्रवादि छाया पुरुष को देखे ॥६॥ ___ मन्त्र-ॐ ह्रीं रक्तरक्ते रक्तप्रिये सिंहमस्तक समारूढे कुशमाण्डिनी देवि अस्य शरीरे अवतर अवतर छायासत्यां कुरू कुरू ह्रीं स्वाहा। इस मन्त्र को १०८ बार जप को या वक्रा प्राङ्मुखीच्छायाऽर्धा वाधोमुख वर्तिनी। दृश्यते रोगिणो यस्य स जीवति दिनद्वयम् ।। ६१ ।। (या वक्रा प्राङ्मुखीच्छाया) जो छाया वक्र दिखे, प्राङ्मुखी दिखे (अर्द्धावाधोमुख वर्तिनी) अधोमुखी (यस्यरोगिणो दृश्यते) जिस रोगी को दिखाई पड़े तो (स जीवति दिनद्वयम्) वह दो दिन तक जीता है। भावार्थ--जिस रोगी को छाया दिखाई जाय और उसकी वह छाया टेढ़ी, नीचे की ओर मुँह किये हुऐ, एवं प्राङ्मुख दिखाई पड़े तो समझो वह रोगी दो दिन जीवेगा ज्यादा नहीं क्योंकि उसकी आयु मात्र दो दिन की ही रह गई है।। ६१॥ हसन्ति कथयेन्मासं रुदन्ति च दिनद्वयम्। धावन्ती त्रिदिनं छाया पादैका च चतुर्दिनम्॥६२॥ (हसन्तीकथयेन्मासं) अगर छाया हँसती हुई दिखाई पड़े तो एक महीने की आयु कहनी चाहिये, (रुदन्ति च दिनद्वयम्) रोती हुई दिखाई पड़े तो दो दिन की आयु कहे (धावन्ति त्रिदिनं छाया) दौड़ती हुई छाया को देखे तो तीन दिन की आयु कहे, (पादैका च चतुर्दिनम्) एक पाद भर छाया दिखे तो चार दिन की आयु कहे। Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टाऽध्यायः भावार्थ--अगर छाया हँसती हुई दिखाई पड़े तो एक महीने की आयु समझो, रोती हुई दिखे तो दो दिन की आयु समझो, दौड़ती हुई छाया दिखे तो तीन दिन की आयु समझो, एक पाद छाया दिखे तो चार दिन की आयु समझो। ६२॥ वर्षद्वयं तु हस्तैका कर्णहीनैकवत्सरम्। केशहीनैकषण्मासं जानुहीना दिनैकयम् ।। ६३॥ यदि रोगी को अपनी छाया (हस्तैकातुवर्षद्वयं) एक हाथ प्रमाण दिखाई दे तो दो वर्ष जीवेगा, (कर्णहीनैकषण्मासं) कान रहित छाया दिखे तो एक वर्ष जीवेगा, (केश हीनकषण्मासं) केश हीन दिखे तो छह महीने की आयु समझो (जानु हीना दिनैकयम्) जानुरहित दिखे तो एक दिन की आयु समझो।। भावार्थ-यदि रोगी को अपनी छाया एक हाथ की दिखे तो दो वर्ष की आयु है उससे ज्यादा नहीं जीवेगा, कान से रहित छाया दिखे तो एक वर्ष जीवेगा, केश हीन दिखे तो छह महीने की आयु समझो (जानु) घुटने रहित छाया दिखे तो एक दिन की आयु समझो उससे ज्यादा नहीं जीवेगा ।। ६३ ॥ बाहुसिता समायुक्तं कटिहीना दिनद्वयम्। दिनाघु शिरसा हीना सा षण्मासमनासिका॥६४॥ (बाहसिता समायुक्तं) सफेद बाह यदि छाया की दिखे और (कटिहीना) कटि हीन दिखे तो (दिन द्वयम्) दो दिन जीवेगा। (शिरसाहीनादिनाध) सिर से हीन छाया दिखे तो आधा दिन जीवेगा, (सा षण्मासनासिका) एवं नासिका हीन दिखे तो छह महीने की आयु समझो।। भावार्थ- यदि रोगी को सफेद बाहु और कटि हीन छाया दिखे तो दो दिन की आयु समझो सिर से हीन छाया दिखे तो आधा दिन जीवेगा और नासिका नहीं दिखे तो छह महीने जीवेगा, उससे ज्यादा आयु नहीं रहती है।। ६४ ।। हस्तपादाग्रहीना वा त्रिपक्षं सार्द्धमासकम्। अग्नि स्फुलिङ्गान् मुचन्ति लघुमृत्युं समादिशेत् ।। ६५ ।। Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ७७८ यदि रोगी को अपनी छाया का (हस्तपादाग्रहीना वा) हाथ, पाँवों के अग्र ही न दिखे तो (त्रिपक्षं साद्धमासकम्) तीन पक्ष की आयु समझनी चाहिये (अग्निस्फुलिङ्गान् मुचन्ति) और अग्नि स्फुलिंगों को उगलती हुई दिखलाई पड़े तो (लघु मृत्युं समादिशेत्) शीघ्र ही मरण होने वाला है ऐसा कहे। भावार्थ-यदि रोगी को अपनी छाया का हाथ पाँव का अग्र भागहीन देखे तो तीन पक्ष की आयु समझनी चाहिये, अर्थात् डेढ़ महीने की आयु समझो यदि वही छाया अग्नि स्फुलिंगों को छोड़ती हुई दिखाई पड़े तो समझ लो उसका शीघ्रमरण हो जाने वाला है।। ६५ ।। रक्तमज्जाञ्च मुञ्चन्ती पूतितैलं तथा जलम्। एकद्वित्रिदिनान्येव दिनार्द्ध दिनपञ्चकम्॥६६॥ (रक्तमज्जाञ्च) रक्त, मज्जा (पत्तितैलं तथा जलम्) चर्बी, तेल, जल आदि (मुञ्चन्ती) छोड़ती हुई छाया दिखे तो (एकद्वित्रिदिनान्येव) एक, दो, तीन, व (दिनाई दिनपञ्चकम्) आधा दिन तथा पाँच दिन की आयु समझो। भावार्थ-रक्त, मज्जा, चर्बी, तैल, जलादि छोड़ती हुई रोगी की छाया दिखे तो क्रमश: एक दिन, दो दिन, तीन दिन तथा आधा दिन या पाँच दिन की आयु समझो इससे ज्यादा नहीं जीवेगा ।। ६६ ।। परछायाविशेषोऽयं निर्दिष्टः पूर्वसूरिभिः। निजच्छायाफलं चोक्तं सर्वं बोद्धव्यमत्र च॥६७॥ (पूर्वसूरिभिः) पूर्वाचार्यो ने (पर छायाविशेषोऽयं निर्दिष्ट:) पर छाया का विशेष वर्णन किया (सर्वं बोद्धव्यमन्न च) अब यहाँ पर जानना चाहिये कि मैं (निजच्छायाफलं चोकर) निज की छाया का फल कहता हूँ। भावार्थ-यहाँ पर पूर्वाचार्यनुसार पर की छाया का फल मैंने कहा अब विशेष रीति से मैं स्वयं की छाया का फल कहूँगा ।। ६७ ।। उक्ता निजपरच्छाया शास्त्रदृष्ट्या समासतः । इतः परं ब्रूवे छायापुरुष लोकसम्मतम् ।। ६८॥ Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७९ परिशिष्टाऽध्याय: (शास्त्र दृष्ट्या समासतः) शास्त्र की दृष्टि (निजपरच्छाया उक्ता) निज और परकी छाया का वर्णन किया अब मैं (लोकसम्मतम्) लोक सम्मत (छायापुरुषं परं ब्रूवे) छाया पुरुष का वर्णन करता हूँ। भावार्थशास्त्र की ष्टि से अपनी और घर की छाया का मैंने वर्णन किया अब मैं लोक सम्मत छाया पुरुष का वर्णन करता हूँ।।। ६८॥ मदमदनविकृतिहीनः पूर्वविधानेन वीक्ष्यते। सम्यक् मन्त्रीस्वपरच्छायां छायापुरुष: कथ्यते सद्भिः ।। ६९॥ जो मंत्री (पूर्वविधानेन) पूर्व विधान से (मद) अहंकार (मदनविकृति हीन:) विषय वासना व क्रोधमान माया लोभादिक से रहित है (सम्यक् मंत्री) वह सम्यक मंत्री है और वह ही (स्वपरच्छायां) स्व की छाया और पर की छाया को (छायापुरुषः कथ्यते सद्भिः) अच्छे जानकार ज्ञानी छाया पुरुष कहते हैं। भावार्थ-जो मंत्रवादि पूर्व विधान के द्वारा अहंकार व विषय वासनाओं से रहित कषायादिक से रहित होकर स्व और पर की छाया को देखता है वही छाया पुरुष है। इस छाया पुरुष का अब लोकन करने के लिये मंत्रवादि को पूर्वोक्त कुष्मांदिनी देवी के मंत्र की आराधना करके फिर स्वयं की व पर की छाया को देखे इससे उसकी आयु का ज्ञान हो जायगा ।। ६९ ।। सम भूमि तले स्थित्वा समचरणयुगप्राप्ब भुजयुगल:। बाधारहिते धर्मे विवर्जिते क्षुद्रजन्तुगणैः॥७० ।। (सम भूमितले स्थित्वा) समान भूमि पर स्थित होकर (सम चरणयुगप्रलम्बभुज युगल:) समान चरण युगल करके दोनों हाथों को लटका कर (बाधा रहिते धर्मे) सूर्य की किरणों में (क्षुद्र जन्तु गुणै विवर्जिते) जीव जन्तुओं से रहित समय में मन्त्री छाया पुरुष का अवलोकन करे।। भावार्थ-सम भूमि पर खड़ा होकर दोनों चरण युगल में चार अंगुल का फासला रखे दोनों हाथों को नीचे लटका देवे बाधा रहित सूर्य की किरणों से सहित होकर छाया पुरुष का अवलोकन मंत्री करे ।। ७० ।। Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ___७८० नासाग्रेस्तनमध्ये गुह्ये चरणान्तदेशे। गगन तलेऽपिच्छायापुरुषो दृश्यते निमित्तज्ञैः॥७१॥ (निमित्तज्ञैः) निमित्तज्ञानीयों ने (नासाग्रे) नाक के अग्र भाग में (स्तनमध्ये) स्तन के मध्य में (गुह्ये) गुह्य स्थान में (चरणान्तदेशे) दोनों चरणों के बीच में (गगनतलेऽपि) आकाश के नीचे (छायापुरुषों दृश्यते) छाया पुरुष को देखा है। भावार्थ-निमित्त ज्ञानीयों ने छाया पुरुष को नाक के अग्र भाग पर स्तनों के बीच में, गुह्य स्थान के दोनों पावों के बीच में निर्मल आकाश के नीचे देखा और उनको छाया पुरुष दिखलाई भी दिया हैं।। ७१॥ छायाविम्बं स्फुटं पश्येद्यावत्तावत् स जीवति। व्याधिविघ्नादिभिस्त्यक्त: सर्वसौख्याद्यधिष्ठितः॥७२ ।। (छायाविम्ब स्फुटं पश्येद्या) छाया पुरुष को स्पष्ट रूप से देखने पर (वत्तावत स जीवति) दीर्घ काल तक जीता है, (व्याधिविघ्नादिभिस्त्यक्त:) सर्व व्याधि से व विघ्नादि से दूर होकर (सर्व सौख्याधिष्ठितः) सर्व सुख को भोगता है। __ भावार्थ-जो व्यक्ति छायापुरुष को स्पष्ट रूप से देखता है वह दीर्घकाल तक जीता है और सर्व आधि व्याधि से दूर होकर सम्पूर्ण प्रकार का सुख भोगता है।। ७२ ।। आकाशे विमले छायापुरुषं हीनमस्तकम्। यस्यार्थं वीक्ष्यते मन्त्री षण्मासं सोऽपि जीवति ॥७३।। (यस्यार्थं वीक्ष्यते मन्त्री) जिसके लिये भी मन्त्री (आकाशे विमले) निर्मल आकाश में (छाया पुरुष) छाया पुरुष का (हीनमस्तकम्) मस्तक हीन दिखे तो (षण्मासं सोऽपि जीवति) वह भी छह महीने तक ही जीता है। भावार्थ-जिसके लिये भी मन्त्री निर्मल आकाश में छाया पुरुष का मस्तक नहीं देखता है वह छह महीने तक जीता है अर्थात् मस्तक रहित छाया पुरुष छह महीने की आयु सूचित करता है।। ७३ ॥ Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टाऽध्यायः पादहीने नरे दृष्टे जीवितं वत्सरत्रयम्। जवाहीने समायुक्तं जानुहीने च वत्सरम्॥७४।। मंत्रवादि जिस भी रोगी को छाया पुरुष का (पादहीने नरे दृष्टे) पाँव हीन दिखे तो वह (वत्सरत्रयम् जीवितं) तीन वर्ष का जीवेगा और (जङ्गाहीने समायुक्तं) जंघा से हीन दिखे (जानुहीने च वत्सरम्) और जानु से हीन दिखे तो एक वर्ष जीता है। भावार्थ-मंत्रवादि जिस भी व्यक्ति की छाया अवलोकन करे और वो छाया पुरुष का पाँव नहीं दिखे तो समझो तीन वर्ष तक जीवेगा, जंघा रहित व घुटने से रहित छाया पुरुष दिखे तो एक वर्ष जीवेगा, उसकी अब ज्यादा आयु नहीं है।। ७४॥ उरोहीने तथाष्टादशमासा नापि जीवति। पञ्चदश कटिहीनेऽष्टी मासान् हृदयं बिना ॥७५ ।। उसी प्रकार छाया पुरुष का (उरोहीने) उर रहित हो तो (तथाष्टादश मासा नापि जीवति) अठारह महीने जीवेगा, (कटि हीने) कमर नहीं दिखे तो (पञ्चदश) पन्द्रह महीने तक जीवेगा, (हृदयं बिनाऽष्टौमासान्) हृदय नहीं दिखे तो आठ महीने तक जीवेगा। भावार्थ-यदि छाया पुरुष का उर नहीं दिखे तो अठारह महीने तक ही जीवेगा, कटि नहीं दिखे तो पन्द्रह महीने तक जीवेगा, हृदय नहीं दिखे तो आठ महीने तक ही जीवेगा ।। ७५ ॥ षड्दिनं गुह्महीनेऽपि कर हीने चतुर्दिनम्। बाहु हीने त्वहर्युग्मां स्कन्ध होने दिनैककम् ।। ७६।। यदि छाया पुरुष का (गुह्यहीनेऽपि षड्दिन) गुह्यहीने दिखे तो छह दिन की आयु समझो (करहीने चतुर्दिनम्) हाथ नहीं दिखे तो चार दिन की आयु समझो, (बाहुहीनेत्वहर्युग्मा) बाहु से रहित दिखे तो दो दिन की आयु रहती है (स्कन्ध हीने दिनैककम्) अगर स्कन्ध हीन दिखे तो एक दिन की आयु समझो। 4 Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ७८२ भावार्थ-छाया पुरुष का यदि गुह्य नहीं दिखे तो छह दिन की आयु समझनी चाहिये, हाथ नहीं दिखे तो चार दिन की आयु समझो, बाहु नहीं दिखे तो दो दिन की आयु समझो स्कन्ध हीन दिखे तो एक दिन की आयु है अब वह ज्यादा नहीं जीवेगा ।। ७६॥ यो नरोऽत्रैव सम्पूर्णः साङ्गोपाङ्ग विलोकते। स जीवति चिरं कालं न कर्तव्योऽत्र संशयः॥७७॥ (यो नरोऽत्रैव सम्पूर्णैः) जो मनुष्य यहाँ पर सम्पूर्ण (साङ्गोपाङ्गै बिलोकते) साङ्गोपाङ्ग छाया पुरुष को देखता है (स जीवति चिरं कालं) वह चिरकाल तक जीता है (न कर्तव्योऽत्र संशयः) उसमें कोई सन्देह नहीं करना चाहिये। भावार्थ..... मनुष्य कहाँ पर पूर्ण शाडोया लाया पुरुष को देखता है वह चिरकाल तक जीता है उसमें कोई सन्देह नहीं करना चाहिये। ७७।। आस्तां तु जीवितं मरणं लाभालाभं शुभाशुभम् । यच्चिन्तित मनेकार्थं छायामात्रेण वीक्ष्यते॥७८॥ (आस्तां तु जीवितं मरणं) यहाँ पर छाया पुरुष को देखने पर जीवन, मरण, (लाभालाभंशुभाशुभम्) लाभ अलाभ शुभ और अशुभ (यच्चिन्तितमनेकार्थ) जो भी कुछ चिन्तित अर्थ है वह सब प्राप्त होता है (छायामात्रेण वीक्ष्यते) मात्र छाया पुरुष को देखने से। भावार्थ यहाँ पर छाया पुरुष को देखने पर जीवन, मरण, लाभ, अलाभ, शुभ और अशुभ जो भी चिन्तित कार्य है वह सब छायापुरुष के अवलोकन मात्र से प्राप्त होता है ।। ७८॥ स्वप्नफलं पूर्वगतं त्वध्याये चाधुना परः। निमित्तं शेषमापि तत्र किञ्चित् प्रकथ्यते सूत्रत: क्रमशः ।। ७९॥ (स्वप्नफलं पूर्वगतं) स्वप्नों के फल को पहले (त्वध्याये चाधुना पर:) अध्याय में वर्णन कर चुके है (निमित्तंशेषमपि तत्र किञ्चित्) शेष जो निमित्त पाकर कुछ भी होता है (क्रमश: सूत्रत: प्रकथ्यते) उसको क्रमश: यहाँ पर कहता हूँ। Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८३ परिशिष्टाऽध्यायः भावार्थ—स्वप्नों का फल पहले अध्यायों में मैंने किया है अब निमित्त पाकर जो कुछ भी बचा है उसको यहाँ पर कहूँगा॥७९ ।। दशपञ्च वर्षस्तथा पञ्चदशदिनैः क्रमतः । रजनीनां प्रतियामं स्वप्नः फलत्ये वायुष: प्रश्ने ।। ८०॥ (रजनीनांप्रतियामं स्वप्नः) रात्रि के प्रत्येक प्रहर में देखे गये स्वप्न (क्रमतः) क्रमश: (दशपञ्च वस्तथा पञ्चदशदिने) दस, पाँच-पाँच दिन तथा दस दिन में (फलत्येवायुषःप्रश्ने) प्रश्नों का फल फलित होता है। भावार्थ-रात्रि के प्रत्येक प्रहर में देखे गये स्वप्न क्रमश: दस वर्ष पाँच वर्ष पाँच दिन दस दिन में फल देते हैं।। ८०॥ शेष प्रश्नविशेषे द्वादशषत्र्येकमासकैरेव। स्वप्नः क्रमेण फलति प्रतियामं शर्वरी दृष्टः ।। ८१॥ मात्र आयु को छोड़कर (शेष) बाकी (प्रश्नविशेषे) स्वप्न प्रश्न के विशेष में (द्वादश षट्व्येक मासकैरेव) बारह, छह, तीन, एक महीने में (स्वप्न:) स्वप्न (क्रमेण) क्रमश: (फलति) फल देता है (प्रतियामं शर्वरी दृष्ट:) प्रत्येक प्रहर के अनुसार। भावार्थ-आयु को छोड़कर शेष प्रश्न स्वप्न को विशेष विषय में बारह, छह, तीन और एक महीने में प्रत्येक प्रहर में क्रमश: फल देता है प्रथम प्रहर का स्वप्न बारह महीने में द्वितीय प्रहर का स्वप्न छह महीने में तृतीय प्रहर का तीन और अन्तिम प्रहर का स्वप्न एक महीने में वा शीघ्र फल देता है।। ८१॥ (जिनबिम्ब के दर्शन का फल) कर चरण जानुमस्तकजङ्घासोदरविभङ्गिते दृष्टे। जिनविम्बस्य च स्वप्ने तस्यफलं कथ्यते क्रमशः ।। ८२।। अब (क्रमश:) क्रम से (कर, चरण, जानु, मस्तक) हाथ, पाँव, घुटने मस्तक (जला सोदर विभङ्गिते दृष्टे) जांघ, पेट के भंगित होने पर वा (जिनविम्बस्य) जिनविम्ब के (स्वप्ने) स्वप्न में दिखाई देने पर (तस्यफलं कथ्यते) उसके फल को कहता हूँ। Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ- अब मैं क्रमशः हाथ, पाँव, घुटने, मस्तक, जंघा, उदर के नष्ट दिखने पर तथा जिनबिम्ब के दर्शन स्वप्न में होने पर उसका क्या फल होता है उसको कहता हूँ ।। ८२॥ कर भंगे चतुर्मासैः जानुभगे तु वर्षेण त्रिमासैः पद मस्तके दिन भङ्गतः । पञ्चभिः ॥ ८३ ॥ यदि स्वप्न में स्वयं के (कर भगे) हाथ भंग दिखे तो (चातुर्मासै;) चार महीने में (पद भङ्गता: त्रिमासैः ) पाँव भंग दिखे तो तीन महीने में (जानुभङ्गे तु वर्षेण ) घुटने भंग दिखे तो एक वर्ष में और ( मस्तकेदिन पञ्चभिः) मस्तक के भंग दिखने पर पाँच दिन में मरण होता है । वर्षयुग्मेन जङ्गायामं ब्रूयात् प्रात: फलं मंत्री भावार्थ-स्वप्न में अपने या दूसरे के हाथ भंग दिखे तो चार महीने में पाँव भंग दिखे तो तीन महीने, घुटने भंग दिखे तो एक वर्ष में, और मस्तक भंग दिखे तो पाँच दिन में मरण हो जाता है ।। ८३ ॥ lp¢¥ सहीने द्विपक्षत: । पक्षेणोदर भङ्गतः ॥ ८४ ॥ भने हटे परिवारस्य परिवारस्य ध्रुवं मृत्युं ( जङ्घायामं वर्षयुग्मेन) स्वप्न में व्यक्ति अपनी जमा नहीं देखे तो दो वर्ष में मरण हो जायगा, (यामंसहीनेद्विपक्षतः) कंधा भंग दिखे तो दो पक्ष में मरण हो जायगा, (पक्षेणोदरभक्तः) पेट के नहीं दिखने पर एक पक्ष में मरेगा ऐसा (मन्त्री) मंत्री (प्रातः) प्रातः काल में (फलं ब्रूयात्) फल को कहते है । भावार्थ- स्वप्न में यदि अपनी जंघा नहीं दिखे तो दो वर्ष में मरण होगा, कंधा हीन दिखे तो दो पक्ष में मरण होगा, पेट के नहीं देखने पर एक पक्ष में मरण होगा, ऐसा मंत्री उठकर प्रातः फल को कहे ॥ ८४ ॥ निमित्तवित् । समादिशेत् ॥ ८५ ॥ छत्रस्य नृपस्य स्वप्न में (छत्रस्य परिवारस्य) परिवार को छत्र ( भने) भंग (निमित्तवित् दृष्टे ) भंग निमित्त ज्ञानी देखे तो (नृपस्य परिवारस्य) राजा के परिवार की (ध्रुवमृत्युं समादिशेत्) निश्चित मृत्यु कही गई है। i Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८५ परिशिष्टाऽध्यायः भावार्थ- स्वप्न में परिवार का छत्र भंग निमित्त ज्ञानी देखे तो राजा वे परिवार की निश्चित ही मृत्यु होती है ॥ ८५ ॥ विलयं याति य: स्वप्ने भक्ष्यते ग्रह अथ करोति यश्छर्दि मासयुग्मं स (स्वप्ने) जो स्वप्न में (विलयं याति ) विलीन होता हुआ देखे वा ( ग्रह वायसैः भक्ष्यते) कौआ गृध से अपना मांस भक्षण करता हुआ देखे एवं (अथयश्छर्दिं करोति) शर्बी आदि का वमन देखे तो (मासयुग्मं स जीवति) उसकी आयु दो महीने की समझो वायसैः । जीवति ॥ ८६ ॥ भावार्थ जो स्वप्न में स्वयं को विलीन होता हुआ देखे वा स्वयं का मांस गृद्ध पक्षी एवं कौवे खाते हुए देखे अथवा शर्बी का मन देखे तो दो महीने की आयु समझो || ८६ ॥ महिषोष्ट्र खरारूढो नीयते दक्षिणां तैलादिभिर्लिप्तो मासमेकं स दिशम् । जीवति ।। ८७ ।। घृत यदि स्वप्न में (महिषोष्टखरारुढो) भैंस, ऊँट, गधा की सवारी करके (दक्षिणां दिशम् नीयते) दक्षिण दिशा की और ले जाया जाय वा (घृत तैलादिभिर्लिप्तो) घी, तेल आदि से लिप्त देखे तो (मासमेकं स जीवति ) एक महीने में मरण हो जाता है। भावार्थ-यदि स्वप्न में महिष ऊंट, गधा की सवारी कर अगर दक्षिण दिशा की और ले जाय या घी, तेल आदि से अपने को लिप्त देखे तो एक महीने की आयु शेष रह गई है ऐसा समझो || ८७ ॥ ग्रहाणं रवि चन्द्राणां नाश वा पतनं भुवि । रात्रौपश्यति यः स्वप्ने त्रिपक्षं तस्य जीवनम् ॥ ८८ ॥ (यः) जो ( रात्रीस्वप्नेपश्यति) रात्रि में स्वप्न में ( रविचन्द्राणां ग्रहाणं ) सूर्य वा चन्द्रमा का ग्रहण देखे वा ( ( नाशं वा पतनं भुवि ) नाश देखे भूमि पर या गिरता हुए देखे तो (तस्य त्रिपक्षं जीवनम् ) तीन पक्ष का उसका जीवन समझो । Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता har- n .-..-rar - भावार्थ-जो रात्रि में स्वप्न में सूर्य व चन्द्र ग्रहण होता हुआ देखे एवं चन्द्र और सूर्य का नाश देखे तथा भूमि पर गिरता हुआ देखे तो उसकी आयु डेढ़ महीने की समझो वह इस अवधि से ज्यादा नहीं जीवेगा ।। ८८।। गृहादाकृष्य नीयेत कृष्णैर्मत्यैर्भयप्रदैः। काष्ठायां यमराजस्य शीघ्रं तस्य भवान्तरम्॥८९॥ (गृहादाकृष्य) घर में आकर (कृपौर्मत्यैर्भयप्रदै: नीयेत्) काले मनुष्य भय को उत्पन्न करने वाले ऐसे (काष्ठायां यमराजस्य) व्यक्ति स्वप्न में आकर यदि दक्षिण दिशा की और खींचकर ले जावे तो (तस्य) उसको (शीघ्र) शीघ्र ही (भवान्तरम्) भवान्तर में जाना है ऐसा समझो। भावार्थ-यदि स्वप्न में व्यक्ति को घर में आकर काले मनुष्य दक्षिण में खींचकर ले जावे तो उसकी आयु शीघ्र समाप्त हो जायगी ऐसा समझो।। ८९॥ भिद्यते यस्तु शस्त्रेण स्वयं बुद्धचति कोपतः । अथवा हन्ति तान् स्वप्ने तस्यायुर्दिनविंशतिः।। ९०॥ (स्वप्ने) स्वप्न में (यस्तु) जो (स्वयं) स्वयं (शस्त्रेणभिद्यते) शस्त्र के द्वारा भेदन होता हुआ देखे (कोपतः बुद्धयति) वा कोप से जाग्रत होता हुआ देखे, (अथवा तानहन्ति) अथवा उसको मारता है (तस्यायुर्दिनविंशतिः) उसकी आयु बीस दिन की समझो। भावार्थ-स्वप्न में जो स्वयं शस्त्र के द्वारा भेदन होता हुआ देखे और क्रोधित होता हुआ जाग जाय अथवा स्वयं को मारता हुआ देखे तो उसकी आयु बीस दिन की है।। ९० ।। यो नृत्यन् नीयते बद्ध्वा रक्त पुष्पैरलङ् कृतः । सन्निवेशं कृतान्तस्य सामादूर्ध्वं स नश्यति ।। ९१ ।। (यो) जो स्वप्न में (रक्तपुपैरलङ्कृत:) लाल पुष्पों से अलंकृत करके (नृत्यन्) नृत्य करते हुए (सन्निवेशं कृतान्तस्य) दक्षिण दिशा की और (बद्ध्वा) बांधकर (नीयते) ले जाया जाय (मासादूर्ध्वं स नश्यति) तो एक महीने में वह ऊपर को चला जायगा। - Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टाऽध्यायः भावार्थ-जो स्वप्न में लाल पुष्पों से अलंकृत करके नृत्य करते हुए बांधकर अगर दक्षिण दिशा की ओर ले जाया जाय तो एक महीने की आयु समझो।। ९१ ।। तैलपूरितगर्तेयो रक्त कीकसपूरिभिः । स्वं मग्नं वीक्षते स्वप्ने मासार्द्ध म्रियते स वै॥ ९२ ।। (स्वप्ने) स्वप्न में (स्वं) स्वयं को (लैतपूरितगर्तेयो) तैल से भरे हुए गड्ढ़े में और (रक्त कीकसपूरिभिः) रक्त मांस चर्बी से पूरित गड्ढ़े में (वीक्षते) देखे तो (मत्सार्द्धभ्रियतेस वै) वह आधे महीने में ही मर जायगा। भावार्थ-जो स्वप्न में स्वयं को तैल से भरे हुए गड्ढे में वा खून, मांस और सर्बि आदि के गड्ढ़े में देखे तो उसकी मृत्यु पंद्रह दिन में हो जाती है।। ९२॥ बन्धनेऽथ वरस्थाने मोक्षे प्रयाण के ध्रुवम्। सौर भेये सितेदृष्टे यशो लाभो निरन्तरम् ।। ९३ । ।। स्वप्न में (सौर भेयेसिते दृष्टे) सफेद गाय देखी जावे जो (बन्धनेऽथ वरस्थाने) बंधी हुइ हो श्रेष्ठ स्थान पर हो (मोक्षे) खुली हुई हो (प्रयाण के धूवम्) प्रयाण करती हुई हो तो निश्चय से (यशोलाभं निरन्तरम्) उसको यश का लाभ होता भावार्थ-जो स्वप्न में सफेद गाय को बंधी हुई देखे श्रेष्ठ स्थान पर देखे, खुली हुई देखे गमन करती हुई देखे, तो निश्चय से यश की प्राप्ति होती है।। ९३ ॥ नदीवृक्ष सरोभूभृत् गृह कुम्भान् मनोहरान् । स्वप्ने पश्यति शोकार्त: सोऽपि शोकेन् मुच्यते ।। ९४॥ (शोकात:) शोक से पीड़ित (स्वप्ने) स्वप्न में (नदी, वृक्ष, सरोभूभृत:) नदी, वृक्ष सरोवर पर्वत (गृहकुम्भान मनोहरान्) गृह मनोहर कुम्भ (पश्यति) देखता है तो (सोऽपि शोकेनमुच्यते) वह भी शोक से छूट जाता है। भावार्थ-शोक से पीड़ित व्यक्ति यदि स्वप्न में नदी, वृक्ष, सरोवर पर्वत घर मनोहर कलश देखता है तो वह भी शोक से छूट जाता है।। ९३॥ Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रमा संहिता ७८८ शयनाशनर्ज पानं गृहं वस्त्रं स भूषणम्। सालङ्कारं द्विपं वाहं पश्यन् शर्मकदम्बभाक् ।। १५ ।। जो स्वप्न में (शयनाशन जंपानं) शयन, आसन्, पान, (गृहंवस्त्रसभूषणम्) गृह वस्त्र और भूषण (सालङ्कारं द्विपं वाहं पश्यन्) अलंकार, हाथी, वाहन (पश्यन्) देखता है। (शर्मकदम्बभाक्) तो उसे सुख मिलता है। भावार्थ—जो स्वप्न में शयन, आसन, पान गृह वस्त्र आभूषण अलंकार हाथी वाहन देखता है उसे सभी प्रकार सुख मिलता है ।। ९५ ॥ पताकामसियष्टिं च पुष्प माला सशक्तिकाम्। काञ्चनं दीप संयुक्तं लात्वा बुद्धो धनं भजेत् ।। ९६॥ यदि स्वप्न में (पताका मसियष्टिं च) ध्वजा, तलवार, लकड़ी और (पुष्प मालां) पुष्प माला (सशक्तीकाम्) शक्ति देखे वा (काञ्चनंदीप संयुक्त) सोने के दीप में (लात्वा) लाकर देखे तो (बुद्धो धनं भजेत्) बुद्धिमान धन को प्राप्त करता है। भावार्थ-यदि स्वप्न में ध्वजा तलवार लकड़ी और पुष्पमाला को देखे एवं सोने के दीप से देखे तो धन की प्राप्ति होती है।। ९६ ।। वृश्चिकंदन्दशूकं वा कीटकं वा भयप्रदम्। निर्भयं लभते यस्तु धन लाभो भविष्यति ॥९७।। जो स्वप्न में (वृश्चिकं दन्द सूकंवा) बिच्छ सांप वा (कीटकं वा भय प्रदम्) अन्य भयप्रद कीडों को (यस्तु) जो (निर्भय) निर्भय होकर (लभते) प्राप्त करे उसे (धनलाभो भविष्यति) धन का लाभ प्राप्त होता है। भावार्थ-जो स्वप्न में बिच्छु सांप वा अन्य भय उत्पन्न करने वाले कीड़ों को निर्भय होकर प्राप्त करे उसे धन का लाभ मिलता है।। ९७।। पुरीषं छर्दितं मूत्रं रक्तं रेतो वसान्वितम्। भक्षयेत् घृणया हीनस्तस्य शोक विमोचनम् ।। ९८ ।। जो स्वप्न में (पुरीषंछर्दितं मूत्रं) मल, उल्टी, मूत्र (रक्तं रेतों वसान्वितम्) रक्त चर्बी, वसा को (धृणया हीनः भक्षयेत्) घृणा से रहित होकर खाता हुआ देखें (तस्य) उसका (शोक विमोचनम्) शोक नष्ट हो जायगा। Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८९ परिशिष्टाऽध्यायः भावार्थ- जो कोई स्वप्न में मल, मूत्र, रक्त, वीर्य और चर्वी को घृणा __ से रहित होकर खावे तो उसका शोक छूट जाता है॥९८ ।। वृषकुञ्चर प्रासाद क्षीर वृक्षशिलोच्चये। ___ श्वारोहणं शुभस्थाने दृष्टमुन्नति कारणम्॥९९॥ जो व्यक्ति स्वप्न में (वृष कुञ्जर प्रासाद) बैल, हाथी, महल, (क्षीर वृक्षशिलोच्चये) पीपल, बड़, पर्यत एवं (श्वारोह शुभ स्थाने) थोड़े की सवारी, शुभस्थान में (दृष्टं) देखे तो (उन्नतिकारणम्) उन्नति का कारण होगा ऐसा समझो। भावार्थ-जो व्यक्ति स्वप्न में बैल, हाथी, महल, पीपल बड़ पर्वत एवं घोड़े की सवारी देखे तो उन्नति का कारण होगा ऐसा समझो।। ९९ ।। भूपकुञ्जरगोवाह धन लक्ष्मी मनोभुवाः । भूषितानामलङ्करै दर्शनं विधिकारणम् ॥१०० ।। जो स्वप्न में (भूपकुञ्जरगोवाह) राजा, हाथी, गाय, सवारी, (धनलक्ष्मी मनोभुवी:) धन लक्ष्मी, कामदेव, (भूमितानामलङ्करै) अलंकार आभूषण का (दर्शन) दर्शन करे (विधिकारणम्) तो उसके भाग्य की वृद्धि होती है। भावार्थ-जो स्वप्न में राजा, हाथी, गाय, सवारी, धन, लक्ष्मी कामदेव अलंकार आभूषण का दर्शन करे तो उसके भाग्य की वृद्धि होती है।। १०० ।। पयोधि तरति स्वप्ने भुङक्तेप्रासाद मस्तके। देवतो लभते मन्त्रं तस्य वैश्चर्यमद्भुतम् ॥१०१॥ (स्वप्ने) स्वप्न में जो व्यक्ति (पयोधिरतति) समुद्र को पार करता हुआ देखे (भुङक्ते प्रासाद मस्तके) महल के ऊपर खाता हुआ देखे (दैवत: लभते मन्त्रं) वा किसी देवता के द्वारा मंत्र पार करता हुआ देखे (तस्य वैश्वर्यमद्भुतम्) तो उसको अद्भूत ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है भावार्थ-जो स्वप्न में समुद्र को पार करता हुआ देखे, महल के ऊपर खाता हुआ देखे वा किसी भी देवता के द्वारा मंत्र प्राप्त करता हुआ देखे तो उसको महान ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।। १०१॥ Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | १० शुभ्रालङ्कार वस्त्राच्या प्रमदा प्रियदर्शना। श्लिष्यति यं नरं स्वप्ने तस्य सम्पत्समागमः ।। १०२।। (यं नरंस्वप्ने) जिस मनुष्य को स्वप्न में (शुभ्रालङ्कार वस्त्राढ्या) शुभ अलंकार वस्त्रों सहित (प्रमदाप्रिय दर्शना) स्त्रीप्रिय दर्शना होकर (श्लिष्यति) अलिंगन करती हुई दिखे तो (तस्य सम्प्रत्समागमः) उसके महान सम्पत्ति का समागम होता है। भावार्थ-जिस मनुष्य को स्वप्न में शुभ अलंकार वस्त्रों से सहित स्त्रीयाँ प्रेम से आलिंगन करती हुई दिखे तो उसको महान सम्पत्ति समागम होता है।। १०२।। सूर्याचन्द्रमसौ पश्येदुदयाचल मस्तके। सलात्यभ्युदयं मयों दुःखं तस्य च नश्यति ।। १०३॥ जो स्वप्न में (सूर्या चन्द्रमसी) सूर्य और चन्द्रको (उदयाचलमस्तके) उदयाचल के मस्तक परे (पश्येद) देखे (मलात्यभ्युदयं मो) वह अभ्युदय की प्राप्ति करता है (तस्य दुःख च नश्यति) उसके दुःखों का पाश होता है : भावार्थ-जो स्वप्न में सूर्य चंद्र को उदयाचल के मस्तक पर देखता है उसको अभ्युदय की प्राप्ति होती है और उसके समस्त दुःख नाश हो जाते है।। १०३॥ बन्धनं बाहुपाशेन् निगडैः पादबन्धनम्। स्वस्यपश्यति यः स्वप्ने लाति मान्यं सुपुत्रकम्।। १०४॥ (य: स्वप्ने) जो स्वप्न में (स्वस्य) अपने (बाहुपाशेन बन्धन) बाहुपास बंधे हुए देख्ने (पादनिगडै:बन्धनम्) और पांव बेड़ीयों के द्वारा बधे हुए देखे तो वह (मान्यंसुपुत्रकम् लाति) मान्य सुपुत्र को प्राप्त करता है। भावार्थ-जो स्वप्न में अपने हाथ बंधे हुए देखे एवं पांव बेडियों के द्वारा बंधे हुए देखे तो उसको मान्य सुपुत्र की प्राप्ति होती है॥१०४ ।। दृश्यते श्वेत सर्पण दक्षिणाङ्गं पुमान् भुवि। महानलाभो भवेत्तस्य बुध्यते यदि शीघ्रतः॥१०५॥ जो (पुमान्) मनुष्य अपने (दक्षिणाझं) दक्षिण हाथ की तरफ (भुवि) भूमि Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टाऽध्यायः पर (श्वेत सर्पणदृश्यते) सफेद सांप को देख कर (यदि शीघ्रतः बुध्यते) शीघ्र जाग्रत हो जाता है (तस्य) उसको (महानलाभो भवेत्) महान लाभ होता है। भावार्थ-जिस मनुष्य को स्वप्न में अपने दाहिनी और सफेद रंग का सांप दिखे और वह तुरन्त ही जाग जाय तो उसको महान लाभ होता है।। १०५ ।। अगम्यागमनं पश्येदपेयं पानकं नरः । विद्यार्थकाम लाभस्तु जायते तस्य निश्चितम्।। १०६॥ जो (नरः) मनुष्य (अगम्यां गमनं) अगम्य स्त्री के साथ गमन करता है (पेयं पानकं पश्येद्) पीने योग्य ही होने पर उसको पीता है। (तस्य) उसको (विद्यार्थी काम लाभस्तु निश्चितम् जायते) विद्या, अर्थ, काम का लाभ निश्चित रूप से होता है। भावार्थ-जो मनुष्य अगम्य स्त्री के साथ गमन करे पीने योग्य पदार्थ नहीं होने पर भी उसको पीवे ऐसा स्वप्न में देखे तो उसको महान विद्या, अर्थ, काम, लाभ निश्चित रूप से होता है॥१०६।।। सफेनं पिबति क्षीरं रौप्य भाजन संस्थितम्। धन धान्यादि सम्पत्तिर्विद्यालाभस्तु तस्य वै।। १०७ ॥ जो व्यक्ति स्वप्न में (रोप्य भाजन संस्थितम्) चांदी के बर्तन में स्थित होकर (क्षीरं सफेनं पिबति) दूध को फेन सहित पीता है (तस्य वै) उसको (धनधान्यादि सम्पत्तिः) धन धान्य सम्पत्ति (विद्यालाभस्तु) और विद्या का लाभ होता है। भावार्थ-जो व्यक्ति स्वप्न में चांदी के बर्तन में स्थित होकर फेन सहित दूध को पीता है उसको धन धान्य सम्पत्ति का व विद्या का लाभ होता है॥१०७॥ घटिताघटितं हेम पीतं पुष्पं फलं तथा। तस्मै दत्ते जनः कोऽपि लाभस्तस्य सुवर्णजः ।। १०८॥ जो व्यक्ति स्वप्न में (घटिताघटितं हेम) स्वर्ण के आभूषणों को (तथा) तथा (पीतं पुष्पं फलं) पीले पुष्प फल को (तस्मैदत्ते जनः कोऽपि) कोई भी पुरुष उसे देवे तो (लाभस्तस्य सुवर्णजः) उसको स्वर्ण का लाभ होता है। Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ — जो व्यक्ति स्वप्न में स्वर्ण के आभूषणों को तथा पीले पुष्प को कोई भी पुरुष देता है उसको स्वर्ण का लाभ होता है ॥ १०८ ॥ शुभं वृषेभ वाहानां कृष्णानामपि दर्शनम् । शेषाणां कृष्णद्रव्याणामालोको निन्दितो बुधैः ॥ १०९ ॥ ७१२ स्वप्न में यदि (कृष्णानामपि ) काले रंग के होने पर भी (वृषेभ वाहानां दर्शनम् शुभं ) बैल हाथी आदि दिखना शुभ है ( शेषाणां कृष्णदव्याणां ) शेष सभी काले द्रव्यों को (मालोको निन्दितो बुधैः) देखना ज्ञानीयों में निन्दित माना है। भावार्थ — जो स्वप्न में यदि काले रंग के बैल हाथी वाहन आदि देखता है तो उसके लिये शुभ है शेष सभी काले द्रव्यों को देखना बुद्धिमानों ने निन्दित माना है ।। १०९ ॥ सज्जन प्रेम गोधूमैः दध्नेष्ट जिन पूजा यवैर्दृष्टः सिद्धार्थे र्लभते सौख्यसङ्गमः । शुभम् ॥ ११० ॥ ( दध्नेष्ट सज्जनप्रेम) स्वप्न में दही के दर्शन होने पर सज्जन प्रेम की प्राप्ति होती है (गोधूमैः सौख्यसङ्गमः) गेहूँ के देखने पर सुख की प्राप्ति होती है (यवैर्दृष्टः जिनपूजा) जौ, देखने पर जिन पूजा की प्राप्ति होती है । (सिद्धार्थैलर्भतेशुभम् ) सरसों के देखने पर शुभ की प्राप्ति है । भावार्थ — यदि स्वप्न में मनुष्य दही को देखे तो सज्जन प्रेम की प्राप्ति होती है गेहूँ देखने पर सुख की प्राप्ति होती है, जो देखने पर जिन पूजा और सरसों के देखने पर शुभ की प्राप्ति होती है ॥ ११० ॥ शयनासनयानानांस्वाङ्ग वाहन वेश्मनाम् । दाहं दृष्टवा ततो बुद्धो लभते कामितां श्रियम् ॥ १११ ॥ ( शयनाशनयानानां ) शयन आसन सवारी ( स्वाङ्ग वाहन वेश्मनाम) स्वाङ्ग, वाहन, महल को ( दाहंदृष्ट्वा ) जलता हुआ देखकर ( ततो बुद्धो ) वह जाग जाय तो ( कामितांश्रियम् लभते ) अभिष्टवस्तुओं की प्राप्ति होती है भावार्थ स्वप्न में यदि शयन आसन सवारी वाहन महलादि को जलते हुए देख कर वह जाग जाय तो अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति होती है ॥ १११ ॥ Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टाऽध्यायः निजान्नैवेष्टयेद् ग्रामं स भवेन् मण्डलाधिपः । नगरं वेष्टयेद्यस्तु स पुनः पृथिवीपतिः ।। ११२॥ जो स्वप्न में (निजान्नै र्वेष्टयेद् ग्रामं) शरीर की नशों से ग्राम को वेष्टित करता हुआ देखे तो समझो (स) वह (मण्डलाधिप: भवेन्) मण्डलेश्वर होता है (नगरं वेष्ययेद्यस्तु) अगर नगर को वेष्टित करता हुआ देखे तो (स) वह (पुनः) द्वारा (पृथिवीपतिः) पृथ्वीपति हो जाता है। भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में अपने शरीर की नशों से ग्राम को वेष्टित करता हुआ देखे तो वह मंडलाधिप बनता है और नगर को वेष्टित करता हुआ दिखे तो वह पृथ्वीपति होता है॥११३ ।। सरोमध्ये स्थित: पात्रे पायसं यो हि भक्षते। आसनस्थस्तुनिश्चिन्त: स महाभूमियो भवेत्॥११३॥ (यो हि) जो व्यक्ति स्वप्न में (सरोमध्येस्थित: पात्रे) सरोवर के मध्य में खड़ा होकर पात्र में (पायसं भक्ष्यति) क्षीर को खाता हुआ देखे और वह भी (आसनस्थ स्तुनिश्चिन्त:) निश्चित आसन से तो (समहाभूमिपोभवे) वह महा भूमिपति होता भावार्थ-जो व्यक्ति स्वप्न में सरोवर के अन्दर पात्र में खीर खाता हुआ देखे और वह भी एक आसन से तो वह मनुष्य भूमिपति होता है ।। ११३॥ देवेष्टा पितरो गात्रो लिङ्गिनो मुखस्थस्त्रियः। वरं ददति यं स्वप्ने सस्तथैव भविष्यति ॥११४॥ जो (स्वप्ने) स्वप्न में (देवेष्टापतिरो) देव पितर (लिङ्गिनोगात्रो) लिङ्धारी (मुखस्थस्त्रियः) एवं साधु भक्त स्त्री पूजा करने वाली (वरंददाति) अगर वर को देती है तो (सस्तथैवभविस्यति) उसको वैसा ही फल होता है। __ भावार्थ-जो स्वप्न में देव पितर एवं साधु भक्त स्त्री अगर वरदान देती हुई दिखे तो उसको वैसा ही फल प्राप्त होता है।। ११४ ।। Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ७१४ सितं छत्रं सितं वस्त्रं सितं कर्पूरचन्दनम्। लभते पश्यति स्वप्ने तस्य श्री: सर्वतो मुखी ।। ११५॥ जो (स्वप्ने) में (सितंछत्रं सितंवस्त्रं) सफेद छेत्र सफेद वस्त्र (सिंतकर्पूर चन्दनम्) सफेद चन्दन व कपूर (लभते) प्राप्त करता हुआ (पश्यति) देखता है तो (तस्य) उसके (श्री लक्ष्मी (पार्वतोमुखी) का तरफ से उसके पास आती है। भावार्थ-यदि स्वप्न में सफेद छत्र सफेद वस्त्र सफेद चन्दन व कपूर प्राप्त करता है तो उसको लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।। ११५।। पतन्ति दशनायस्य निज केशाश्व मस्तकात्। स्वधन मित्रयो शो बाधा भवति शरीरके । ११६ ।। (यस्य) जिसको स्वप्न में (पतन्ति दशना) दांत गिरते हुए दिखे और (निज केशाश्व मस्तकात्) अपने सिर के केश झड़ते हुए दिखे तो (स्वधन मित्रयो शों) स्वधन और मित्र का नाश होता है (बाधाभवति शरीर के) और शरीर को बाधा पहुंचती है। भावार्थ-जो स्वप्न में अपने दांत गिरता हुआ देखे और अपने सिर के केश झड़ते हुए देखे तो स्वधन और मित्र का नाश होता है और शरीर को बाधा पहुंचती है।। ११६।। दंष्ट्री श्रङ्गीवराहो वा वानरो मृगनायकः। अभिद्रवन्ति यं स्वप्ने भवे त्तस्य महद्भयम् ।। ११७।। (यं) जिसके (स्वप्ने) स्वप्न में (दंष्ट्रीशृङ्गीवराहो वा) दांत वाले एवं सींग वाले सुकर वा (वानरोमृग नायकः) बंदर तथा सिंहादि (अभिद्रवन्ति) दौड़ते हुए देखता है (तस्यमहद्भयम् भवेत्) उसको महान भय उत्पन्न होता है। भावार्थ-—जिसके स्वप्न में दांत वाले सींग वाले सूकर बंदर सिंह आदि दौड़ते हुए दिखाई दे तो उसको महान भय उत्पन्न होता है।। ११७ ।। घृततैलादिभिः स्वाङ्गे वाभ्यङ्गं निशि पश्यति। यस्ततो बुद्धचते स्वप्ने व्याधिस्तस्य प्रजायते ।। ११८।। Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९५ परिशिष्ाऽध्यायः (स्वप्ने) स्वप्न में जिसके (स्वाङ्गे) शरीर में (घृत तैलादिभिः) घी, तैलादि का (वाभ्य) मालिश करते हुए (निशिपश्यति) रात्री में देखता है (यस्ततो बुद्धचते) और वह जाग जाता है तो (तस्य व्याधिः प्रजायते) उसको व्याधि उत्पन्न होती भावार्थ-जो स्वप्न में अपने शरीर को घी तैलादि की मालिश करता हुआ रात्री में देखे और जाग जाय तो उसको व्याधि उत्पन्न होती है॥११८।। रक्त वस्त्राद्यलङ्कारैर्भूषिता प्रमदानिशि। यमालिङ्गतिसस्नेहा विपत्तस्य महत्यपि।।११९॥ जिसे स्वप्न में (निशि) रात्री के समय (रक्तवस्त्राद्यलगारै) लालवस्त्रादि अलंकारो से (र्भषिता) भूषित (प्रमदा) नारी का (यमालिङ्गति) जो आलिङ्गन करता है स्नेह तो (विपत्तस्यमहत्यपि) उसको महान विपत्ती आती है। भावार्थ-जिसे स्वप्न में रात्रि के समय लाल वस्त्रादि अलंकारों से सहित होकर कोई स्त्री आलिङ्गन करती हुई दिखे तो समझो उसके ऊपर महान विपती आएगी ।। ११९ ।। पीतवर्णप्रसूनैर्वालङ्कृता पीत वाससा। स्वप्ने गृहति यं नारी रोगस्तस्य भविष्यति॥१२० ।। (यं) जो (स्वप्ने) स्वप्न में (पीतवर्णसूनैर्वालङ्कृता) पीले वर्ण के फूलों से सुसज्जित होकर (पीतवाससा) पीले वस्त्र पहनकर (नारीगृहति) स्त्री जिस व्यक्ति को छिपा लेती है (तस्यरोग भविष्यति) उसको रोग हो जाता है भावार्थ-जो स्वप्न में पीले वस्त्र पहनकर पीले पुष्पों से अलंकृत होकर स्त्री अगर जिस व्यक्ति को छिपा लेती है उसको रोग उत्पन्न होता है।। १२० ।। पुरीषं लोहितं स्वप्ने मूत्रं वा कुरुते तथा। तदा जागर्ति यो मर्यो द्रव्यं तस्य विनश्यति ।। १२१ ॥ जो (स्वप्ने) स्वप्न में (लोहितं पुरीषं) लाल मल (वा मूत्रं कुरुते) वा लाल ही मूत्र करता है (तथा) और (मयों जाग्रर्ति) उसी क्षण जाग जाता है (तदा) तो (द्रव्यं तस्य विनश्यति) उसका धन नाश हो जाता है। Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ७९६ भावार्थ-जो स्वप्न में लाल मल और लाल मूत्र करता हुआ देखे एवं फिर जाग जाय तो उसका धन नाश हो जाता है।। १२१ ।। विष्टां लोमानि रौद्रं वा कुङ्कुम् रक्त चन्दनम् । दृष्ट्वा यो बुध्यते सुप्तो यस्तस्याथों विलीयते ।। १२२ ।। (यो) जो (सुप्तो) सोता हुआ स्वप्न में (विष्टां लोमानि रौद्रं वा) विष्टा रोम अग्नि वा (कुङ्कुमं रक्त चन्दनम्) कुंकुम, लाल चन्दन को (दृष्ट्वा ) देखकर (बुध्यते) जाग जाय तो (यस्तस्यार्थो विलीयते) उसका धन नाश हो जाता है। भावार्थ-जो स्वप्न में विष्टा, रोम, अग्नि वा कुंकुम, लाल चन्दन को देखकर जाग जाता है उसका धन नाश हो जाता है।। १२२ ।। रक्तानां करवीराणामुत्पन्नानामुपानहम्। लाभो वा दर्शनं स्वप्ने प्रायातस्य विनिर्दिशेत् ॥ १२३ ।। (स्वप्ने) स्वप्न में जिस व्यक्ति को (रक्तानां करवीराणां) लाल रंग के कपड़े पहने हुऐ, हाथ में तलवार लिये (उत्पन्नानामुपानहम्) वीर पुरुष के जूते का (दर्शन) दर्शन हो तो (प्रयातस्यलाभे विनिर्दिशेत्) प्रयाण करने वाले को लाभ होता है। भावार्थ स्वप्न में हाथ में तलवार धारण किये हुये लाल कपड़े पहने हुऐ किसी वीर पुरुष के जूते का दर्शन हो तो उसकी यात्रा सफल होती है।। १२३॥ कृष्णवाहाधिरूढो यः कृष्णवासो विभूषितः। उद्विग्नश्च दिशं याति दक्षिणां गत एव सः ।। १२४ ।। (य:) जो स्वप्न में स्वयं को या और किसी को (कृष्णावाहाधिरूढो) काले वाहनों पर चढ़कर (कृष्णवासोविभूषितः) काले कपड़े पहन कर (उद्विग्नश्च) उद्विग्नमन होकर (दक्षिणां दिशोयाति) दक्षिण दिशा में गमन करना हुआ देखे तो (गत एव स:) वह शीघ्र मरण को प्राप्त हो जाता है। भावार्थ-जो स्वप्न में काले वाहनों पर चढ़कर काले कपड़े पहन कर उद्विग्न होकर दक्षिण दिशा में जाते हुऐ देखे तो उसका मरण शीघ्र हो जाता है ।। १२४॥ Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९७ परिशिष्टाऽध्यायः कृष्णा च विकृता नारी रौद्राक्षी च भयप्रदा। कर्षति दक्षिणाशायां यं ज्ञेयोमृत एव सः॥१२५॥ (य) जिसको स्वप्न में (कृष्णा च विकृता नारी) काली और विकृत स्त्री (रौद्राक्षी च भयप्रद) रौद्र रूप भय उत्पन्न करने वाली (दक्षिणाशायां कषांते) दक्षिण दिशा की ओर खींच कर ले जावे तो (स:) वह (मृत एव ज्ञेयो) मृत के समान समझो वह शीघ्र मर जायगा। भावार्थ-जिसको स्वप्न में काली और काले कपड़े पहने हुए रौद्र रूप भय उत्पन्न करने वाली स्त्री अगर दक्षिण दिशा की ओर खींच कर ले जावे तो उसका मरण शीघ्र होगा॥१२५ ।। मुण्डितं जटिलं रूक्षं मलिनं नीलवाससम् । रुष्टं पश्यति यः स्वप्ने भयं तस्य प्रजायते।। १२६ ॥ (य: स्वप्ने) जो स्वप्न में (मुण्डितं जटिलं रूक्षं) मुण्डित, जटिल, रूक्ष (मलिनं) मलिन (नीलवाससम्) नीले कपड़े पहने हुऐ (रुष्टं पश्यति) रुष्ट दिखाई देने वाली स्त्री को देखे तो (तस्य) उसको (भयं पूजायते) भय उत्पन्न होगा। ___भावार्थ—जो स्वप्न में मुण्डित, जटिल, रूक्ष, मलिन, नीले कपड़े पहने हुऐ रूक्ष दिखाई देने वाली स्त्री दिखे तो उसको भय उत्पन्न होता है।। १२६॥ दुर्गन्धं पाण्डुरं भीमं तापसं व्याधिविकृतिम् । पश्यति स्वप्ने ग्लानिं तस्य निरूपयेत् ।। १२७ ।। (स्वप्ने) स्वप्न में (दुर्गन्धंपाण्डुरं भीम) दुर्गन्ध से युक्त पाण्डुरंग वाला भयंकर (वाधिविकृतिम्) व्याधि से सहित विकृत (तापसं) तापसी को देखने पर (तस्य) उसको (ग्लानि) ग्लानि होती है (निरूपयेत्) ऐसा निरूपण करे। भावार्थ-जो स्वप्न में दुर्गन्ध युक्त पाण्डुवर्ण वाला भयंकर व्याधि और विकृतियों से सहित तापस देखे तो उसको ग्लानि होगी ऐसा निरूपण करे ॥१२७॥ Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ७९८ वृक्षं वल्लींच्छुपगुल्मं वाल्मीकी निजाङगाम्। दृष्ट्वा जागर्ति य: स्वप्ने ज्ञेयस्तस्यधनक्षयः॥१२८ ।। (या स्वप्ने) जो स्वप्न में (वृक्ष वल्लींच्छुपगुल्म) वृक्ष, लता, छोटे पेड़, गुल्म, (वाल्मीकिं निजङ्कगाम्) बामी को अपनी गोद में (दृष्ट्वा जागर्ति) देखकर जाग जाता है (तस्य धन क्षयः ज्ञेय:) उसका धन क्षय हो जाता है। भावार्थ-जो स्वप्न में वृक्ष लता, गुल्म, छोटे-पेड़, बामी को अपनी गोद में देखता है उसका धन क्षय होता है॥ १२८ ।। खजूरोऽप्यनलो वेणु गुल्मो वाप्पहितो द्रुमः। मस्तके तस्य जायेत गत एव स निश्चितम्।। १२९॥ जो स्वप्न में अपने (मस्तके) मस्तक पर (खजूरोऽप्यनलो वेणु) खजूर, अग्नि से संयुक्त बांस, (गुल्मो) लता, (वाप्यहितोद्रुमः) और भी वृक्षः (जायते) होते हुए देखे तो (गत एव स निश्चितम्) समझो वो शीघ्र मर जायगा। भावार्थ-जो स्वप्न में अपने मस्तकपर खजूर, अग्निबांस, लता, वृक्षादि होते हुऐ दिखे तो समझो शीघ्र मर जायगा ।। १२९॥ हृदये वा समुत्पन्नात् हृद्रोगेण स नश्यति। शेषाङ्गेषु प्ररूदास्ते तत्तदङ्ग विनाशकाः ।। १३०।। अगर स्वप्न में (हृदये वा समुत्पन्नात्) उपर्युक्त वृक्षादि हृदय पर उत्पन्न हो तो (हृद्रोगेण स नश्यति) हृदय रोग से मरता है और, (शेषाङ्गेषुप्ररूढास्ते) अगर शेष अङ्गोंपर वृक्षादि दिखे तो (तत्तदङ्गविनाशकाः) उसी अंग में रोग होकर उसका विनाश होगा। भावार्थ-अगर स्वप्न में उपर्युक्त वृक्षादि हृदय पर उत्पन्न हो तो वह हृदय रोग से मरता है शेष अंगों पर वृक्षादि दिखे तो उसी अंग से रोग होकर वह मरता है।। १३० ।। रक्तसूवरसूत्रैर्वा रक्तपुष्पैर्विशेषतः। यदङ्गं वेष्टयते स्वप्ने तदेवाझं विनश्यति ।। १३१ ।। Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९१ परिशिष्टाऽध्यायः ( रक्त स्वरसूत्रैर्वा ) जो स्वप्न में अपने जिस अंग को लाल सूत्र एवं ( रक्तपुष्पैर्विशेषतः ) लाल पुष्प से विशेष कर ( यदङ्गं वेष्टयते) जिस अंग को (स्वप्ने) स्वप्न में वेष्टित करता है ( तदेवानं विनश्यति) तो उसी अंग में रोग होकर नाश हो जाता है। भावार्थ - जो कोई स्वप्न में अपने अंग लाल सूत्र से एवं लाल पुष्पों से वेष्टित देखे तो समझो उसको उसी अंग में रोग होकर वह अंग नाश हो जाता है ।। १३१ ॥ द्विपो ग्रहो मनुष्यो वा स्वप्ने कर्षति यं नरम् । मोक्षं बद्धस्य बन्धे वा मुक्तिं च समादिशेत् ॥ १३२ ॥ ( य नरम् ) जिस मनुष्य को (स्वप्ने) स्वप्न में (द्वीपो ग्रहों मनुष्योवा कर्षति ) हाथी, ग्रह, वा मनुष्य खींचता हुआ दिखाई देवे तो कारागार (मोक्षं बद्धस्य बन्धेवा ) में पड़े हुए व्यक्ति को मुक्ति मिल जाती है ( मुक्ति च समादिशेत् ) उसकी मुक्ति कही गई है। भावार्थ - जिस मनुष्य को स्वप्न में हाथी, ग्रह व मनुष्य खींचे तो बन्धन में पड़े हुए व्यक्ति की मुक्ति हो जाती है ।। १३२ ॥ मधु छत्रं विशेत् स्वप्ने दिवा वा यस्य वेश्मनि । अर्थ नाशो भवेत्तस्य मरणं वा विनिर्दिशेत् ॥ १३३ ॥ (स्वप्ने) यदि स्वप्न में (मधु छत्रंविशेत्) मधुमक्खी का छाता (दिवावायस्य बेश्मनि ) दिन या रात्रि में जिसके घर में प्रवेश होता हुआ दिखे तो (तस्य ) उसका ( अर्थनाशो भवेत् ) धन नाश होगा (वा) और ( मरणं विनिर्दिशेत् ) मरण प्राप्त होता है । भावार्थ-यदि स्वप्न में मधुमक्खी का छाता दिन व रात्रि में जिसके भी घर में प्रवेश करता हुआ दिखे तो उसका धन नाश वा मरण अवश्य होता है ।। १३३ ॥ विरेचनेऽर्थनाशः स्यात् छर्दने मरणं ध्रुवम् । पादपछत्राणां गृहाणां ध्वंसमादिशेत ।। ९३४ ॥ वाहे जो स्वप्न में (विरेचनेऽर्थ नाशः स्यात्) मल जाता हुआ देखे उसके धन Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता का नाश होता है (छर्दनेमरणं ध्रुवम्) उल्टी होती हुई देखे तो निश्चित मरण होता है। (वाहेपादपछत्राणां) वृक्ष पर चढ़ता हुआ देखे तो (गृहाणांध्वंसमादिशेत्) घर का नाश होता है। भावार्थ-जो स्वप्न में मल जाता हुआ देखे तो धन का नाश, उल्टी करता हुआ देखे डो मरण होता है इन पर बदला हुआ देखे तो घर का नाश होता है।। १३४ ॥ स्वगाने रोदनं विद्यात् नर्तने बधबन्धनम्। हसने शोक सन्तापं गमने कलहं तथा॥ १३५ ।। (स्वगाने रोदनं विद्यात्) जो स्वप्न में अपने को गाना गाता हुआ देखे तो रोना होता है (नर्तने बधबन्धनम्) नाचना देखने से बन्धन में पड़ता है (हसने शोक सन्तापं) हँसना देखने से शोक और सन्ताप होता है (तथा गमने कलहं) तथा चलना देखने से कलह होता है। __ भावार्थ-यदि स्वप्न में गाना गाता हुआ देखे तो उसको रोना पड़ता है, नाचना देखने से बन्धन में पड़ता है, हँसना देखने से शोक और सन्ताप होता है, चलना देखने से कलह होता है ।। १३५ ।। सर्वेषां शुभ्रवस्त्राणां स्वप्नेदर्शन मुत्तमम्। भस्मास्थितक्रकार्पास दर्शनं न शुभप्रदम् ॥ १३६ ।। (स्वप्ने) स्वप्न में (सर्वेषांशुभ्रवस्त्राणां) सभी के सफेद वस्त्रों को (दर्शनेमुत्तमम्) देखना उत्तम माना है (भस्मास्थि तक्र कार्पास) किन्तु भस्म, हड्डी, छाछ और कपास (दर्शनं न शुभप्रदम्) का दर्शन शुभप्रद नहीं है। भावार्थ-स्वप्न में यदि सफेद वस्त्र देखे तो दृष्ट्रा को शुभ है और भस्म हड्डी, छाछ, कपास का देखना अशुभ है ।1 १३६ ॥ शुक्लमाल्यां शुक्लालङ्कारादीनां धारणं शुभम्। रक्त पीतादि वस्त्राणां थारणं न शुभं मतम् ।। १३७ ।। स्वप्न में (शुक्लमाल्यां शुक्लालङ्कारादीनां) सफेद माला अलंकार (धारणं शुभम्) धारण करना शुभ है, और (रक्तपीतादि वस्त्राणां) लाल, पीले वस्त्रों को (धारणं न शुभमतम्) धारण करना शुभ नहीं है। Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०५ परिशिष्टाऽध्याय: ___ भावार्थ स्वप्न में सफेद माला अलंकार धारण करना शुभ है, और लाल, पीला, नीला वस्त्र धारण करना शुभ नहीं है अशुभ है॥१३७।। मन्त्रज्ञः पाप दूरस्थो, वातादिदोषजस्तथा। दृष्टः श्रुतोऽनुभूतश्च चिन्तोत्पन्नः स्वभावजः।।१३८ ।। पुण्यं पापं भवेद्दवं मन्त्रज्ञो वरदो मतः।। तस्मात्तौ सत्यभूतौ च शेषा: षनिष्फला: स्मृताः॥१३९।। (मन्त्रज्ञः पाप दूरस्थो) पापसे दूर, मन्त्र स्वप्न है (वातादि दोषजस्तथा) वातादिक के कूपित होने पर जो स्वप्न है वह वातज है (दृष्टः श्रुतोऽनुभूतश्च) दृष्ट, अनुभूत और (चिन्तोत्पन्न: स्वभावजः) चिन्तोत्पन्न स्वभाव से आने वाला स्वप्न (पुण्यं पापं भवेदैवं) पुण्य पाप के ज्ञापक देव, (मन्त्रज्ञो वरदो मत: तस्मातौ) उसमें मन्त्रज्ञ और देव स्वप्न (सत्यभूतौ च) सत्य होता है और (शेषाः षट्निष्फला: स्मृता:) शेष छह प्रकार का स्वप्न निष्फल होता है। भावार्थ-पाप भावना से दूर रहकर मन्त्र साधना पूर्वक जो स्वप्न है वह स्वप्न मन्त्रज है, वातादिक के कुपित होने पर जो स्वप्न है उसको वातज स्वप्न कहते है, दृष्ट, अनुभूत और चिन्ता से उत्पन्न और स्वभावज: स्वप्न, पुण्य, पाप के ज्ञापक दैव, उसमें मन्त्रज्ञ और दैवीक स्वप्न सत्य होता है, शेष छह प्रकार का स्वप्न निष्फल होता है। यहाँ पर छह प्रकार का स्वप्न निष्फल बताया, मात्र दो प्रकार के स्वप्न ही फलदायक बताये, स्वप्न आठ प्रकार के होते हैं वातज, मान्त्रिक, दृष्टज, श्रुतज, अनुभूत, चिन्तित और स्वभावज, दैविक ।। १३८-१३९।। मलमूत्रादि बाधोत्थ आधि व्याधि समुद्भवः । मालास्वभावदिवास्वप्नः पूर्वदृष्टश्च निष्फलः॥१४०।। (मलमूत्रादि बाधोत्थः) मल जनित, मूत्र जनित वा अन्य मलादि से जनित स्वप्न (आधि व्याधि समुद्भवः) आधि व्याधि से जनित स्वप्न (माला स्वभाव दिवा स्वप्नः) माला जनित, स्वभाव से आने वाला स्वप्न दिन में आने वाला स्वप्न (पूर्वदृष्टश्च) जाग्रत अवस्था का स्वप्न सब (निष्फल:) निष्फल होते हैं। Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ८२ भावार्थ- मल मूत्रादि से उत्पन्न स्वप्न आधि-व्याधि से उत्पन्न स्वप्न का फल निष्फल होता है।। १४० ।। शुभः प्रागशुभ: पश्चादशुभः प्राक् शुभस्ततः । पाश्चात्यः फलदः स्वप्न: पूर्वदृष्टश्च निष्फलः ॥१४१ ।। उक्त स्वप्न (शुभ:) शुभ (प्रागशुभ:) पूर्व में शुभ (पश्चादशुभ:) पश्चात् अशुभ (ततः प्राक् शुभः) उसके बाद पूर्व में शुभ (पश्चात्यः फलदः स्वप्न:) पश्चात् का स्वप्न फलदायी होता है (पूर्व दृष्टश्चनिष्फल:) पूर्व का देखा हुआ स्वप्न निष्फल होता है। भावार्थ- उपर्युक्त शुभ, पूर्व में शुभ, बाद का अशुभ उस के बाद का शुभ, पीछे का फलदायी और पहले का स्वप्न निष्फल होता है।। १४१ ।। प्रस्वपेदशुभे स्वप्ने पूर्वदृष्टश्च निष्फलः । शुभे जाते पुन: स्वप्ने सफल: स तु तुष्टिकृत् ।।१४२ ॥ (प्रस्वषेद शुभेस्वप्ने) अशुभ स्वप्न के आने पर पुनः सो जाय तो (पूर्वदृष्टश्चनिष्फल:) पहले देखा हुआ स्वप्न का फल निष्फल हो जाता है। (शुभेजाते पुन: स्वप्ने) शुभ स्वप्न देखने पर जाग्रत रहे तो (सफल: स तु तुष्टिकृत) वह फल तुष्टि को करने वाला होता है। भावार्थ-अशुभ स्वप्न के आने पर जाग्रत रहकर पुन: सो जाय तो उसका फल नष्ट हो जाता है अशुभ स्वप्न देखने पर जाग्रत रहे तो उसका फल तुष्टिकारक होता है।। १४२।। प्रस्ववेद शुभे स्वप्ने जप्त्वा पञ्चनमस्क्रियाम्। दृष्टे स्वप्ने शुभे नैव दुःस्वप्ने शांतिमाचरेत् ।।१४३॥ (प्रस्वपेदशुभे स्वप्ने) अशुभ स्वप्न दिखाई देने पर (पञ्चनमस्क्रियाम् जप्त्वा) पंच नमस्कार मन्त्र का जाप करे (दृष्टे स्वप्ने शुभै) शुभ स्वप्न दिखाई देने पर (दुःस्वप्ने शांति नैवमाचरेत्) खोटे स्वप्न की शान्ति करने की कोई आवश्यकता नहीं। Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.३ परिशिष्टाऽध्यायः भावार्थ-अशुभ स्वप्न आने पर पंच नमस्कार मन्त्र का जाप करना चाहिये, अशुभ स्वप्न के बाद अगर शुभ स्वप्न आ जावे तो फिर शान्ति करने की कोई आवश्यकता नहीं है। १४३ ।। स्वं प्रकाश्य गुरोरग्रे सुधीः स्वप्नं शुभाशुभम् । परेषामशुभं स्वप्नं पुरो नैव प्रकाशयेत् ।। १४४ ।। (सुधी:) बुद्धिमान व्यक्ति को (गुरोरगे स्व) गुरु के आगे स्वयं (शुभाशुभम् स्वप्न) शुभाशुभ स्वप्न को (प्रकाश्य) प्रकाशित करे (अशुभं स्वप्नं परेषाम्) अशुभ स्वप्न को दूसरे के आगे (पुरो नैव प्रकाशयेत्) पहले कभी नहीं प्रकाशित करे। ____ भावार्थ-बुद्धिमान व्यक्ति को पहले गुरु के आगे शुभाशुभ स्वप्न को कहना चाहिये, किन्तु अशुभ स्वप्न को दूसरे के आगे कभी नहीं कहे अर्थात् गुरु को छोड़कर स्वप्न की बात किसी दूसरे से नहीं कहे ।। १४४ ।। निमित्तं स्वप्नजं चोक्त्वा पूर्वशास्त्रानुसारतः । लिङ्गेन ते ब्रुवे इष्टं निर्दिष्टे च यथा गमम्॥१४५ ।। (पूर्वशास्त्रानुसारतः) पहले कहे हुए शास्त्रानुसार (स्वप्नजं निमित्तं चोक्त्वा) स्वप्न निमित्त को कह कर (तं) अब मैं (लिङ्गेन) लिङ्ग निमित्त को (इष्टं ब्रुवे) कहना चाहता हूँ (निर्दिष्टं च यथा गमम्) और जैसा आगम में कहा गया है। भावार्थ-पहले कहे हुऐ आगमानुसार स्वप्न निमित्त को कहकर अब मैं लिङ्ग निमित्त को कहूँगा जैसा पूर्वशास्त्र में कहा गया है।।१४५॥ शरीरं प्रथमं लिङ्गं द्वितीयं जलमध्यगम्। यथोक्तं गौतमे नैव तथैव प्रोच्यते मया ।।१४६ ॥ (शरीरंप्रथमंलिङ्ग) शरीर प्रथम लिङ्ग है (द्वितीयं जल मध्यगम्) जल के मध्य का द्वितीय लिंग है (यथोक्तं गौतमे नैव) जैसा गौतम स्वामी ने कहा है (तथैव प्रोच्यते मया) वैसा ही मैं कहूँगा। भावार्थ-शरीर प्रथम लिङ्ग है, जल के मध्यका द्वितीय लिंग है, जैसा गौतम स्वामी ने कहा वैसा ही मैं यहाँ पर कहता हूँ। १४६ ।। Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ८०४ स्नातं लिप्तं सुगन्धेन घर मन्त्रेण मन्त्रितम्। अष्टोत्तर शतेनापि मन्त्री पश्येत्तदङ्गकम् ।। १४७ ।। (स्नातंलिप्तंसुगन्धेन) स्नान कर सुगन्धित पदार्थों को अपने शरीर पर लेप करे (वरमन्त्रणमन्त्रितम्) श्रेष्ठ मन्त्रों से मंत्रित करे, (अष्टोत्तर शते नापि) एक सौ आठ बार मन्त्र पढ़े (मन्त्रीत्तदङ्गकम्) मन्त्रवादी फिर उस अङ्ग को (पश्येत्) देखें। भावार्थ-~मन्त्रवादि प्रथम स्नान कर सुगन्धित पदार्थों का अपने शरीर पर लेप करे श्रेष्ठ मन्त्रों को एक सौ आठ बार पढ़कर अङ्गो का निरीक्षण करे।। १४७॥ मन्त्र-ॐ ह्रीं ला: ह्वः प: लक्ष्मी इवीं कुरू कुरू स्वाहा। इस मन्त्र को १०८ बार पढ़े। सर्वाङ्गेषु यदा तस्य लीयते मक्षिकागण:। षण्मासं जीवितं तस्य कथितं ज्ञान दृष्टिभिः ।। १४८ ।। (यदा) जब (सर्वाङ्गेषु मक्षिकागण: तस्य लीयते) सम्पूर्ण अङ्ग में उसके मक्खियाँ कारण न होने पर भी लगती हुई दिखे तो (तस्य जीवितं षण्मासं) उसकी आयु मात्र छह महीने की शेष है (ज्ञानदृष्टिभिः कथितं) ज्ञान दृष्टि वालों ने कहा है। भावार्थ-जब सम्पूर्ण शरीर में अकारण ही मक्खियाँ लगती हुई दिखे तो उसकी आयु छह महीने की समझो।।१४८॥ दिग्भागं हरितं पश्येत् पीत रूपेण शुभ्रकम् । गन्धं किञ्चिन्न यो वेत्ति मृत्युस्तस्य विनिश्चितः ।। १४९ ।। (दिग्भागं हरितं पश्येत्) अगर रोगी दिशा भाग को हरी देखे वा (पीतरूपेण शुभ्रकम्) पीला देखे या सफेद देखे (गन्धंकिञ्चिन्नये वेत्ति) एवं गन्ध बिल्कुल भी अनुभव नहीं करे तो (तस्य मृत्यु विनिश्चितम्) उसकी मृत्यु निश्चित ही होती है। भावार्थ- अगर रोगी दिशा भाग को हरी, पीली वा सफेद देखे एवं गन्ध सुगन्ध का थोड़ा बहुत भी अनुभव नहीं करे तो उसकी आयु थोड़ी है ऐसा समझो॥१४९।। - -- Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०५ परिशिष्टाऽध्यायः शशिसूर्यो गतौ यस्य सुखस्वात्योपशीतलौ। मरणं तस्य निर्दिष्टं शीघ्रतोऽरिष्ट वेदिभिः ॥ १५०॥ (यस्य) जिसको (शशि सूर्योगतो) चन्द्र सूर्य न दिखे (सखस्वात्यो पशीतलौ) सुख से श्वांस न आता हो, रुक-रुक कर आता हो तो (अरिष्टवेदिभिः) अरिष्टो के जानकारों ने (तस्य शीघ्रतो मरणंनिर्दिष्ट) उसका शीघ्र मरण होगा ऐसा कहा भावार्थ-जिसको चन्द्र सूर्य न दिखे, सुख से श्वास नहीं आता हो, श्वांस गति एकदम धीमी हो जाय तो मरण ज्ञान के ज्ञाताओं ने उसका मरण निश्चित होगा ऐसा कहा है।। १५० ॥ जिह्वामलं न मुञ्चति न वेत्ति रसना रसम्। निरीक्षते न रूपञ्च सप्तदिनं स जीवति ।। १५१ ।। जो रोगी (जिह्वामलं न मुञ्चति) जिह्वा के ऊपर का मल नहीं छोड़ता हो (न वेत्ति रसना रसम्) जीभ का स्वाद लेना छूट जाय और (निरीक्षते न रूपञ्च) अपना रूप भी न देखे तो (स) उसका (सप्तदिनं जीवति) सात दिन का मात्र जीवन शेष रहा ऐसा समझो। भावार्थ--जिस रोगी के जीभ का मैल कभी नष्ट नहीं होता है और जीभ ने अपना स्वाद लेना छोड़ दिया, न किसी का रूप देख पाती हों अर्थात् समस्त इन्द्रियाँ अपना काम करना छोड़ दे तो उसकी आयु सात दिन की है।। १५१॥ वह्नि चन्द्रौ न पश्येच्च शुभ्रं वदति कृष्णकम् । तुङ्गच्छायां न जानाति मृत्युस्तस्य समागतः ।। १५२।। (बहिचन्द्रौ न पश्येत्) जिसको अग्नि और चन्द्रमा न दिखे (शुभ्रं वदति कृष्णकम्) सफेद पदार्थ काले दिखे (तुङ्गच्छायां न जानाति) जिसको विशाल छाया नहीं दिखे (तस्ममृत्युः समागत:) तो उसकी आयु खतम होने वाली है।। भावार्थ-जो रोगी अग्नि और चन्द्रमा को न देखे, सफेद पदार्थो को काले देखे, विशाल छाया भी न देखे तो वह शीघ्र ही मरने वाला है, ऐसा समझो॥१५२।। Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ८०६ । मन्त्रित्वा स्व मुखं रोगी जानुदघ्ने जलेस्थितः । न पश्येत् स्वभुखायां मासं तस्य जीवितम्॥१५३।। (स्व मुखं मन्त्रित्वा रोगी) जो रोगी अपने मुख को मन्त्रित करके (जानु दघ्ने जले स्थितः) जंघा पर्यन्त पानी में खड़ा रहकर (स्वमुखच्छायां न पश्येत्) अपना मुंख और छाया न देखे तो (तस्य जीवितम् षण्मासं) उसकी आयु छह महीने की समझो। भावार्थ-रोगी का मुख मन्त्रित करके घुटने पर्यंत जल में उसे खड़ा करे अगर उसको अपना मुँह और छाया न दिखे तो उसका मरण छह महीने में होने वाला है॥१५३॥ तैल दर्शन काल ज्ञान मन्त्र-ॐ हीं लाः हः प: लक्ष्मी इवीं कुरू कुरू स्वाहा। १०८ बार मन्त्र पढ़े। भृतं मन्त्रिततैलेन मार्जितं तानभाजनम्। पिहितं शुक्लवस्त्रेण सन्ध्यायां स्थापयेत् सुधी।। १५४॥ (मार्जितंताम्रभाजनम्) ताँबे के बर्तन को साफ कर मांजकर (मन्त्रित तैल नभृत) तेल को मन्त्रित करके उस बर्तन को तेल से भरे (पिहितं शुक्ल वस्त्रेण) फिर सफेद वस्त्र से उसको ढ़ककर (सुधी) बुद्धिमान (सन्ध्यायां स्थापयेत्) सायंकाल में स्थापन करे। भावार्थ ताँबे के बर्तन को मांजकर तेल को मंत्रित करके उस बर्तन को भर देवे फिर सफेद वस्त्र से उसको ढ़ककर सायं काल में स्थापन करे ।। १५४ ।। तस्योपरि पुनर्दत्वा नूतनां कुण्डिकां ततः । जातिपुष्पैर्जपेदेवं स्वष्टाधिकशतं ततः।। १५५॥ (तस्योपरिपुन:) उसके ऊपर पुन: (नूतनां कुण्डिकांदत्वा) नवीन मिट्टी की कुण्डिका ढककर (ततः) उसके ऊपर (जातिपुष्पै) जूही के फूलों से (स्वष्टाधिक शतं जयेदेवं) एक सौ आठ बार जाप करे। (तत:) उसके बाद। Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०७ परिशिष्टाऽध्यायः भावार्थ—फिर उसके ऊपर एक नये कुण्ड को ढक देवे जूही के फूलों से १०८ बार मन्त्र का जाप करे॥१५५॥ क्षीरान्न भोजनं कृत्वा भूमौ सुप्येत मन्त्रिणा। प्रात: पश्येत्स तत्रैव तैलमध्ये निजं मुखम् ॥ १५६॥ उसके बाद (क्षीरान्न भोजनंकृत्वा) खीर का भोजन करके ((मन्त्रिणा भूमौ सुप्येत्) मंत्री भूमि पर सोवे (प्रातः) प्रात:काल में (तत्रैव) वहाँ पर (तैलमध्ये निजमुखम् पश्येत्) तेल के अन्दर अपने मुँह को देखे। भावार्थ-उसके बाद खीर का मंत्री भोजन कर भूमि पर सोवे प्रात:काल में उस तेल के अन्दर अपने मुँह को देखे ॥१५६॥ निजास्यं चेन पश्येच्च षण्मासं स जीवति। इत्येवं च समासन द्विधा लिने प्रभाषितम् ॥१५७।। (निजास्यनेन्न पश्येच्) अगर उस तेल में अपना मुँह नहीं दिखाई देवे तो (षण्मासं स जीवति) उसकी आयु छह महीने की बाकी हैं (इत्येवं च समायेन) इस प्रकार अच्छी तरह से (लिङ्गद्विधाप्रभाषितम्) लिङ्ग के दो भेद कहे है। भावार्थ-अगर उस तेल में अपना मुँह नहीं दिखलाई पड़े तो उसकी आयु छह महीने की समझो इस तरह दो प्रकार के लिङ्ग का मैंने अच्छी प्रकार से वर्णन किया है।। १५७।। मन्त्र-ॐ ह्रीं ला: हः प: लक्ष्मी इवीं कुरू कुरू स्वाहा। इस मन्त्र को १०८ बार जाइ के फूलों से तेल को मन्त्री करे। ___ शब्द निमित्त का वर्णन शब्दनिमित्तं पूर्वं स्नात्वा निमित्ततः शुचिवासा विशुद्धधीः। अम्बिकाप्रतिमां शुद्धां स्नापयित्वा रसादिकैः ।। १५८ ।। (शब्दनिमित्तं पूर्व) शब्द निमित्त देखने से पूर्व (निमित्ततः) निमित्त ज्ञानी (स्नात्वा) स्नान करके (विशुद्ध घी:) जिसकी बुद्धि विशुद्ध हो गई है ऐ..[ मन्त्री (शुचिवासविशुद्धधी:) शुद्ध वस्त्र धारण करके (अम्बिकाप्रतिमां) अम्बिका देवी की प्रतिमा को (शुद्धां) शुद्ध (रसादिकै) रसादिकसे (स्नापयित्वा) स्नान कराये। Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ अब शब्द निमित्त जानने के लिये मन्त्र वादी स्नान करके सफेद शुद्ध कपड़ा पहने फिर अम्बिका देवी की मूर्ति का दूध, घी, शक्कर आदि रसादिक से अभिषेक करावे ॥ १५८ ॥ ८०८ अर्चित्वा चन्दनैः पुष्पैः श्वेत वस्त्र सुवेष्टिताम् । प्रक्षिप्य वामकक्षायां गृहीत्वापुरुस्ततः ।। १५९ ।। फिर उस अम्बिका देवी की मूर्ति को (अर्चित्वा चन्दनैः पुष्पैः ) चन्दन पुष्प से पूजा कर (श्वेतवस्त्र सुवेष्टिताम् ) सफेद वस्त्राभूषणों से श्रृंगारित करके (प्रक्षिप्यवामकक्षायां) अनन्तर बाँये हाथ के नीचे रखकर ( पुरुषस्ततः गृहीत्वा ) पुरुष उसको ग्रहण करे । भावार्थ — उस अम्बिका देवी की मूर्ति का चन्दन पुष्प नैवेद्यादिक से पूजा करके सफेद वस्त्र पहनावे आभूषण से श्रृंगारित करे फिर वाम हाथ को नीचे रखकर आगे की विधि करे ।। १५९ ॥ निशाया: प्रथमे यामे प्रभाते यदि वा व्रजेत् । इमं मन्त्रं पठन् व्यक्तं श्रोतुं शब्दं शुभाशुभम् ॥ १६० ॥ ( निशाया: प्रथमेयामे) रात्रि के प्रथम प्रहर में (प्रभाते यदि वा व्रजेत् ) प्रभात में जावें (इममन्त्रंपठन व्यक्तं ) इस प्रकार व्यक्त रूप से मन्त्र को पढ़े, (श्रोतुं शब्द शुभाशुभम् ) फिर शुभाशुभ शब्द को सुने । भावार्थ रात्रि के प्रथम प्रहर में एवं प्रातः काल में जावे और व्यक्त रूप से मन्त्र को पढ़कर शुभाशुभ शब्द को सुनने के लिये जावे ।। १६० ।। मन्त्र ॐ ह्रीं अम्बे कूष्माण्डिनि बाह्मणि वदवद्वागीश्वरि स्वाहा । इस मन्त्र का साढ़े बारह हजार जाप करे उसके बाद उपर्युक्त विधि करे ॥ १६० ॥ पुरवीथ्यां व्रजन् शब्दमाद्यं श्रुत्वा स्मरन् व्यावर्तते तस्माद्रागत्य शुभाशुभम् । प्रविचारयेत् ॥ १६१ ॥ ( पुरवीभ्यां व्रजन) नगर की गलीयों में घूमे (माद्यशुभाशुभम् शब्द श्रुत्वा ) और जो भी शुभाशुभ शब्द पहले ने ( स्मरन् व्यावर्तते) और उसका स्मरण करता हुआ ( तस्मादागत्य प्रविचारयेत् ) आकर उसके ऊपर विचार करे । i Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ऽध्यायः भावार्थ---उसके बाद नगर की गलियों में गुम हुआ जो पहले शब्द सुनाई पड़े वह चाहे शुभ शब्द हो या अशुभ शब्द हो उसका स्मरण कर फिर उसके ऊपर विचार करे। अगर अशुभ शब्द हो तो मृत्यु, वेदना, पीड़ा आदि होती है। शुभ शब्द सुनाई पड़े तो निरोगता अर्थ सिद्धि आदि प्राप्त होती है॥१६१।। अहंदादिस्तयो राजा सिद्धिर्बुद्धिस्तु मङ्गलम् । वृद्धि श्री जय ऋद्धिश्च धनधान्यादि सम्पदः ॥ १६२॥ नगर में घूमते समय यदि (अर्हदादिस्तवो) अर्हत भगवान की पूजा, स्तवन, स्तुति आदि सुनाई पड़े एवं (राजा सिद्धिर्बुद्धिस्तु मङ्गलम्) राजा, सिद्धि, बुद्धि, मंगल (वृद्धिश्री) वृद्धि हो (जय) जय हो (ऋद्धिश्च) श्रृद्धि हो और (धनधान्यादि सम्पदः) धन, धन्यादि सम्पदा भावार्थ-नगर में शब्द निमित्त के लिये भ्रमण करते समय अर्हन्त भगवान की स्तुति पूजा, स्तवादि के शब्द सुनाई पड़े एवं राजा सिद्धि, बुद्धि, माल, वृद्धिश्री, जय, रिद्धि, धन, धन्यादि, सम्पदा, सुनाई पड़े।। १६२ ।। जन्मोत्सवप्रतिष्ठाद्याः देवेष्ट्यादिशुभक्रियाः। द्रव्यादि नाम श्रवणा: शुभा: शब्दाः प्रकीर्तिताः ।।१६३ ।। (जन्मोत्सव प्रतिष्ठाद्याः) जन्मोत्सव, प्रतिष्ठादि (देवेष्ट्यादि शुभक्रिया:) देव की पूजा के अष्ट द्रव्यों का नाम, शुभ क्रिया (द्रव्यादिनाम श्रवणा:) द्रव्यादि का नाम श्रवण आदि (शुभाःशब्दा: प्रकीर्तिता:) शुभ शब्द सुनाई पड़े तो शुभ है। भावार्थ-जन्मोत्सव, प्रतिष्ठादि, देव की पूजा के अष्ट द्रव्यों का नाम, शुभ क्रिया, द्रव्यादि का नाम श्रवण करने को मिले तो ये शब्द शुभ है, धन, धान्यादिक की प्राप्ति कराने वाले है आरोग्य लाभ कराने वाले हैं॥१६३ ।। अम्बिकाशब्दनिमित्तं छत्रमालाध्वजागन्धपूर्ण कुम्भादि संयुतः। वृषाश्च गृहिणः पुंस: सपुत्रा भूषितास्त्रियः॥ १६४।। (अम्बिकाशब्दनिमित्तं) अम्बिका शब्द निमित्त शब्द (छत्रक्ष, माला, ध्वजा, गन्ध) छत्र, माला, ध्वजा, गन्ध (पूर्णकुम्भादि संयुत:) पूर्ण कुम्भ (वृषाश्च) बैल Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ८१० (गृहिण:) गृहस्थ (पुंसः) पुरुष (सपुत्रा भूषितास्त्रियः) गोद में पुत्र लिये शृंगारित स्त्री। भावार्थ-अम्बिका, छत्र, माला, ध्वजा, गन्ध, पूर्णकुम्भ, बैल, गृहस्थ पुरुष, गोद में पुत्र लिये शृंगारित स्त्री देखने पर इनका शब्द सुनने पर शुभ होता है॥१६३।। इत्यादिदर्शनं श्रेष्ठं सर्वकार्येषु सिद्धिदम् । छत्रादिपात भङ्गादि दर्शनं शोभनं न हि॥१६५।। (इत्यादि दर्शनं श्रेष्ठं) इत्यादि पदार्थों के देखने पर शुभ होता है श्रेष्ठ, एवं (सर्व कार्येषुसिद्धिदम्) सम्पूर्ण कार्यों की सिद्धि देने वाला है (छत्रादिपात भङ्गादि) छत्र का गिरना, छत्र भंगादि (दर्शन) का दर्शन (शोभनं न हि) शुभ नहीं है। भावार्थ—इत्यादि सारी शुभ वस्तुएँ देखने पर शुभ होता है सर्वकार्यों की सिद्धि करने वाला है किन्तु कार्य के प्रारम्भ में छत्र भंग छत्रपात आदि दिखने पर अशुभ होता है।। १६५॥ नष्टो भग्नश्च शोकस्थ: पतितो लुञ्चितो गतः। शान्तित: पातितो बद्धो भीतो दृष्टश्च चूर्णितः ।। १६६ ।। चौरो बद्धो हत: काल: प्रदग्धः खण्डितो मृतः। उद्वासित: पुनर्गम इत्याद्या दुःखदा:स्मृताः॥१६७ ।। (नष्टो भग्नश्च शोकस्थः) नष्ट, भग्न, शोकस्थ (पतितो) पतित (लुञ्चितोगत:) लुञ्चित जिसकी (शान्तित:) शान्ति भंग हो गई है (पातितो) गिराया गया हो (बद्धो) बन्धन में पड़ा हो (भीतोद्दष्टश्च चूर्णित:) भय से डरा हो, काटा गया हो चूर्णित किया गया हो (चौरो) चोर हो (बद्धो) बाँधा हुआ हो (हतः) मारा गया हो (काल:) मुर्दा हो (प्रदग्धः) जला हुआ हो (खण्डितो मृत:) खण्डित हो मरा हुआ हो (उद्धासित: पुनाम) नगर से निकल कर पुन: नगर में बसने आया हो (इत्याद्या दुःखदा:स्मृताः) इत्यादि के देखने पर दुःखकारक होता है। भावार्थ----नष्ट, भग्न, शोकस्थ, पतित, मुण्डित, अशान्त, गिराया गया, Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८११ परिशिष्टाऽध्यायः मरा हुआ, जला हुआ, खण्डित, मरा हुआ, नगर से निकल कर पुन: नगर में बसता हुआ इत्यादि को देखे तो अशुभ है अर्थात् दुःख उत्पन्न करने वाला है॥१६६-१६७॥ इत्येवं निमित्तकं सर्वं कार्य निवेदनम्। मन्त्रोऽयं जयितः सिद्धथेद्वारस्य प्रतिमाग्रतः ॥ १६८॥ (इत्येवंनिमित्तकं) इस प्रकार निमित्तों का (सर्वं कार्यं निवेदनम्) सर्व कार्यों के लिये निवेदन किया, (द्वीरस्य प्रतिमाग्रत:) वीर भगवान की प्रतिमा के आगे (मन्त्रोऽयं जपितः सिद्धये) इस मन्त्र का जाप करने से सिद्ध हो जाता है। भावार्थ-इस प्रकार के निमित्तों का मैंने सर्व कार्य के लिये निवेदन किया। इस मन्त्र को महावीर भगवान के सामने जाप करने से सिद्ध हो जाता है। १६८।। मन्त्र-ॐ ह्रीं णमो अरिहंतागं ह्रीं अवतर-अवतर स्वाहा। अष्टोत्तर शतपुष्पैः मालतीनां मनोहरैः। मालती पुष्पों १०८ से जाप करे। मन्त्रेणानेन हस्तस्य दक्षिणस्य च तर्जनी। अष्टाधिकशतं पारमभिमन्त्र्य मषीकृताम्॥१६९॥ (मन्त्रेणानेन) इस मन्त्र से (दक्षिणस्य च हस्तस्य तर्जनी) दक्षिण हानि की तर्जनी को (अष्टाधिक शतं वार) एक सौ आठ बार (मभिमन्त्र्य) मन्त्रित करके (मषीकृताम्) रोगी की आँखों पर रखे। भावार्थ-इस मन्त्र से दक्षिण हाथ की तर्जनी को १०८ बार मन्त्रित करके रोगी की आँखों पर रखे॥१६९ ।। तर्जन्या स्थापयेभूमौ रविबिम्बं सुवर्तुलम्। रोगी पश्यति चेद्विम्बमायुः षण्मास मध्यगम्।। १७० ।। (तर्जन्यास्थापयेद) तर्जनी को स्थापन करने के बाद (भूमौ रवि बिम्बं सुवर्तुलम्) भूमि पर रोगी को देखने को कहे अगर (रोगी) रोगी सूर्य बिम्ब को वर्तुलाकार (चेद्विम्ब पश्यति) बिम्ब को देखता है तो उसकी (आयु:षष्मासमध्याम्) छह महीने की समझो। Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ८१२ भावार्थ-तर्जनी के स्थापना के बाद रोगी को भूमि पर देखने को कहे अगर रोगी को सूर्य बिम्ब सरीखा वर्तुलाकार दिखाई पड़े तो उसकी छह महीने की आयु समझो। १७० ॥ इत्यङ्गुलिप्रश्ननिमित्तं शतवारं सुधीमन्त्र्यपावनम् । कांस्यभाजने तेन प्रक्षाल्य हस्तयुगलं रोगिण: पुनः ।। १७१॥ (इत्यङ्गुलिप्रश्ननिमित्तं) यहाँ तक अंगुलि प्रश्न निमित्त का वर्णन किया। (सुधी) बुद्धिमान (पावनम् शतवारमन्त्र्य) पावन मन्त्रका १०८ बार जाप करे (कांस्य भाजने) काँसे के बर्तन में (तेन) उस (रोगिणः) रोगी के (हस्तयुगलं) दोनों हाथों को (प्रक्षाल्य) धुलवा करके (पुन:) फिर। भावार्थ-यहाँ तक अंगुलि निमित्त का वर्णन किया। अब बुद्धिमान पावन मन्त्र का १०८ बार जप कर काँसे के बर्तन में रोगी के दोनों हाथों को लाख से धुलवा कर पुनः ।। १७१ ।। एक वर्णाजहि क्षीराष्टाधिकैः शतविन्दुभिः। प्रक्षाल्य दीयते लेपो गोमूत्रक्षीरयोः क्रमात् ।। १७२ ॥ मन्त्रित करता हुआ (एकवर्णाज्ज हि क्षीराष्टाधिकैः) एक वर्ण की गाय का दूध १०८ बार मन्त्रित कर (शतविन्दुभिः) सौ बिन्दुओं को व (गोमूत्र क्षीरयोः) गाय का मूत्र दूध (क्रमात्) क्रम से दोनों हाथों को (प्रक्षाल्य) प्रक्षालित करके (लेपो दीयते) लेप करे। भावार्थ--पुन: रोगी के दोनों हाथों को गाय के मूत्र और दूध से धुलवाकर मन्त्र से १०८ बार मन्त्रित करके क्रमश: लेप करे यहाँ पर शत बिन्दु शब्द आया है, उसका अर्थ समझ में नहीं आया किन्तु मेरे अभिप्राय से १०८ बार हाथ धुलवाये ऐसा होगा ।। १७२ ।। प्रक्षालितकरयुगलश्चिन्तय दिनमासक्रमशः। पञ्चदशवामहस्ते पञ्चदशतिथिश्च दक्षिणे पाणौ।। १७३ ।। Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + ८१३ परिशिष्टाऽध्यायः (प्रक्षलितकरयुगलः ) दोनों हाथों को प्रक्षालित कर ( क्रमशः) क्रमशे ( दिनमासश्चिन्तय) दिन महिनों का चिन्तवन करे, ( वामहस्तेपञ्चदश) वाम हाथों मैं पन्द्रह और (पञ्चदशतिथिश्च ) पन्द्रह तिथियों को (दक्षिणे पाणौ ) दक्षिण अंगुलियों पर स्थापना करे । भावार्थ- दोनों हाथों को प्रक्षालित कर क्रमश: पन्द्रह तिथियों की बाम हाथ के अंगुलियों पर और पन्द्रह तिथियों को दक्षिण हाथ की अंगुलियों पर स्थापना करे ॥ १७३ ॥ शुक्लंपक्षं वामे दक्षिण हस्ते च चिन्तयेत् कृष्णम् । प्रतिपत्प्रमुखास्तिथय उभयो: करयोः पर्वरेखासु ।। १७४ ॥ ( शुक्लपक्षवामे) वाम हाथ में शुक्ल पक्ष की ओर (दक्षिण हस्ते च ) दक्षिण हाथ में (कृष्णम्) कृष्णपक्ष का ( चिन्तयेत् ) चिन्तवन करे (उभयोः करयोः पूर्वरखासु ) दोनों हाथों की पर्वरेखाओं में (प्रतिपत्यमुखातिशय) प्रमुख तिथियों की स्थापना करे । भावार्थ -- वाम हाथ में शुक्ल पक्ष और दक्षिण हाथ में कृष्ण पक्ष की स्थापना करे, दोनों हाथों की पूर्व रेखा पर तिथियों की स्थापना करे || १७४ ३१ एकद्विि हस्तयुगलं चतुः संख्यमरिष्टं तत्र तथोद्वर्त्यप्रातः चिन्तयेत् । गोरोचनरैस: ।। १७५ ।। ( एकद्वित्रिचतुः संख्य ) एक, दो, तीन, चार की संख्या पर काले दाग दिखे तो (तत्रमरिष्टंचिन्तयेत् ) वहाँ पर अरिष्ट होगा ऐसा चिन्तवन करे। (प्रात: गोरोचनरैस: ) प्रातः काल में स्नान कर शुद्ध वस्त्र पहनकर उपर्युक्त मन्त्र से गोरोचन को मन्त्रितकर रोगी के ( तथोद्वर्त्यहस्तयुगलं ) दोनों हाथों को गोरोचन से धुलवावे । भावार्थ — उपर्युक्त विधि के अनुसार दोनों हाथों पर स्थापना आदि करके फिर देखे अगर एक, दो, तीन, चार पर्वों पर रोगी को काले बिन्दु दिखे तो वहाँ पर अरिष्ट समझो अर्थात् रोगी मर जायगा । इसी प्रकार अब गोरोचन कहते । पूर्वोक्त रीति से लाक्षारस के समान ही गोरोचन को मंत्रित कर रोगी के दोनों हाथ गोरोचन से धुलवावे ॥ १७५ ॥ Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता अभिमन्त्रित शतवार पश्येच्च करयुगलम्। करे करपर्वणि यावन्मात्राश्च विन्दवः कृष्णाः ।। १७६ ।। (अभिमन्त्रित शतवारं) फिर सौ बार मंत्रित करके (कर युगलम्पश्येच्च) दोनों हाथ देखे (करेकरपर्वणि) हाथ के पर्यों पर (यावन्मात्राश्चविन्दव: कृष्णाः) जितने भी काले बिन्दु दिखे। भावार्थ-फिर सौ बार मंत्रित करके दोनों हाथों को देखे, हाथों के पर्वो पर जितने भी बिन्दु दिखे।। १७६ ।। दिनानि तावन्मात्राणि मासान् वा वत्सराणि वा। स्वस्थितो जीवतिप्राणी वीक्षितं ज्ञान दृष्टिभिः॥ १७७।। (तावन् मात्राणि दिनानि) उतने ही दिन मात्र (वत्सराणिवामासान्) वसं वत्सर महीने मात्र (स्वस्थितोजीवतिप्राणी) वह प्राणी जीता है ऐसा (ज्ञान दृष्टिभिः वीक्षितं) ज्ञान दृष्टि के द्वारा कहा गया है। भावार्थ-उतने दिन संवत्सर, महीनेमात्र वह रोगी जीयेगा ऐसा ज्ञान दृष्टिधारियों ने कहा है।। १७७॥ रोचनाकुङ्कुमैलाक्षा नामिकारक्तसंयुता। षोड़शाक्षरंलिखेत्पद्यं तद्वाहिश्चैव तत्समम्॥ १७८॥ (रोजनाकुङ्कुमेलाक्षा) गोरोचन, कुंकुंम, लाक्षा (नामिकारक्तसंयुता) अनामिका आदि से संयुक्त विधि को कहा (षोडशाक्षरंलिखेत्पा) अब सोलह अक्षर को पद्म पर स्थापना कर (तद्वहिश्चैवतत्समम्) उसीके समान उसके बाहर | भावार्थ-गोरोचन कुंकुम, लाक्षा आदि से युक्त विधि को कही। अब सोलह अक्षरों से संयुक्त कमल बनाकर सोलह अक्षर लिखे, उसके बाहर ।। १७८ ॥ षोडशाक्षरतो बाह्ये मूलबीजं दले दले। प्रथमे च दले वर्षान्मासांश्चैव बहिर्दले॥१७९ ।। (बाह्ये) बाहर (षोडशाक्षरतो) सोलह अक्षरों से (मूलबीजंदले दले) मूल Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१५ परिशिष्यऽध्यायः बीज को दल दल पर लिखे। फिर (प्रथमे च दले वर्षान्मासां) पहले दल पर वर्ष महीने की (श्चैव बहिर्दले) कल्पना करे। भावार्थ-बाहर सोलह दलों पर मूलबीज के अक्षर लिखे, उसके बाद प्रथम दल पर वर्ष महीनों की कल्पना करें। १७९ ।।। दिवसान् षोडशीरेष साध्यनाम सुकर्णिके। सप्ताहं पूजयेच्चक्रं तदा तं च निरीक्षयेत् ।। १८० ।। (षोडशीरेव दिवसान्) सोलह दिनों के (साध्यनाम सुकर्णिके) साध्यनाम की कर्णिका में (सप्ताहपूजयेच्चक्र) एक सप्ताह तक उस चक्र की पूजा करे, (तदा तं च निरीक्षयेत् तब उसका फिर निरीक्षण करे। भावार्थ-----सोलह दिनों को साध्यनामकी कर्णिका में एक सप्ताह तक उस चक्र की पूजा करे तब उसका फिर निरीक्षण करे।। १८०॥ यद्दले चाक्षरं लालं तहिने त्रियो शुत्रम्: वर्ष मासं दिनं पश्येत् स्वस्य नाम परस्य वा।। १८१॥ (यछलेचाक्षरं लुप्त) जिस दल का अक्षर लुप्त हो जाय (तद्दिनेम्रियतेध्रुवम्) उसी दिन निश्चय से मरण होता है। (स्वस्य नाम परस्य वा) स्व नाम को देखे वा रोगी के नाम को देखे (वर्षं मासं दिनं पश्येत्) वर्ष महीना वा दिन को देखे। भावार्थ-जिस दल का अक्षर लुप्त हो जाये उसी दिन उसका निश्चय से मरण हो जायगा, स्वनाम का अथवा पद नाम का वर्ष, महीना, दिन को देखे।। १८१॥ यदा वर्णं न लुप्तं स्यात्तदा मृत्युन विद्यते। वर्षद्वादश पर्यन्तं कालज्ञानं विनोदितम् ॥ १८२॥ (यदावर्णं न लुप्तस्या) जिस वर्ण का लोप न हो (तदामृत्युनविद्यते) उसकी मृत्यु नहीं होती है (वर्षं द्वादशपर्यन्तं) बारह वर्ष पर्यन्त (कालज्ञानं विनोदितम्) काल ज्ञान को देखना चाहिये। भावार्थ-जिस वर्ण का लोप नहीं हो उसकी मृत्यु नहीं होती है बारह वर्ष पर्यंत इस काल ज्ञान को देखना चाहिये।। १८२।। Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | नये वस्त्र बदलने व फटने का फल प्रभूत वस्त्रदाश्विनी भरण्यापहारिणी। प्रदह्याग्निदैवते प्रजेश्वरेऽर्थ सिद्धये ।। १८३॥ (अश्विनीप्रभूत वस्त्रद्) अश्विनी नक्षत्र में नये वस्त्र धारण करने पर बहुत वस्त्र मिलते है (भरण्यार्थापहारिणी) भरणी नक्षत्र में बदलने से धन का नाश होता है (दैवतेप्रदह्याग्नि) कृत्तिका नक्षत्रमें वस्त्र धारण करने से वस्त्र जल जाता है (प्रजेश्वरेऽर्थसिद्धये) रोहिणी में वस्त्र धारण करने से धन लाभ होता है। भावार्थ-अश्विनी में नवीन वस्त्र धारण करने से बहुत वस्त्र लाभ होता है भरणी में वस्त्र धारण करने से अर्थ की हानि होती है कृत्तिका में वस्त्र धारण करने से वस्त्र जल जाता है रोहिणी में धारण करने से धन की प्राप्ति होती है।। १८३ ।। मृगे तु मूषकाद्भयं व्यसुत्व मेव शाङ्करे। पुनर्वसौ शुभागमस्तदनभे धनैर्युतिः ॥ १८४॥ (मृगे तु मूषकाद्भयं) मृगशिरा नक्षत्र में चूहे काटने का भय होता है (व्यसुत्वमेव शाङ्करे) आर्द्रा में वस्त्र धारण करने से मरण होता है (पुनर्वसौ शुभागमस्त) पुनर्वसु नक्षत्र में वस्त्र धारण करने से शुभागमन होता है (दग्रभे धनैर्युतिः) पुष्य में वस्त्र धारण करने से धनलाभ होता है। भावार्थ---मृगशिरा में वस्त्र धारण करना चूहे काटने का भय, आर्द्रा में मरण और पुनर्वसु में वस्त्र धारण करने से किसी शुभागमन की प्राप्ति होती है, और पुष्पनक्षत्र में नवीन वस्त्र धारण करने से धन का लाभ होता है ।। १८४ ।। भुजङ्गमे विलुप्यते मघासु मृत्युमादिशेत् । भगाह्वये नृपाद्भयं धनागमाय चोत्तरा ।। १८५॥ (भुजङ्गमेविलुप्यते) आश्लेषा में पहनने से वस्त्र नष्ट हो जाता है (मघासुमृत्युमादिशेत्) मघा नक्षत्र में वस्त्र धारण करने से मृत्यु होती है (भगाह्वये नृपाद्भयं) पूर्वाफाल्गुनी में वस्त्र धारण करने से राजा का भय होता है (चोत्तराधनागमाय) उत्तराफाल्गुनी में नवीन वस्त्र धारण करने से धन की प्राप्ति का कारण है। Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१७ परिशिष्टाऽध्यायः भावार्थ आश्लेषामें वस्त्र धारण करने से वस्त्र नष्ट हो जाता है मघा नक्षत्र में मृत्यु होती है पूर्वाफाल्गुनी में वस्त्र धारण करने से राजा का भय होता है, उत्तराफाल्गुनी में वस्त्र धारण करने से धन की प्राप्ति होती है ।। १८५ ।। शुभागमस्तु करेण धर्मसिद्धयः शुभं च भोज्यमानिले द्विदैवते (करेण धर्मसिद्धयः ) हस्त में वस्त्र धारण करने से धर्म की सिद्धि होती है (शुभागमस्तु चित्रया) चित्रा नक्षत्र में क्षुभ आगमन होता है । ( भोज्य मानिले शुभं च) स्वाति नक्षत्र में भोजन की प्राप्ति होती है (द्वि दैवते जनप्रियः) विशाखा में नवीन वस्त्र धारण करने से जनप्रिय हो जाता है। चित्रया | जनप्रियः ।। १८६ ॥ भावार्थ- - हस्त नक्षत्र में नवीन वस्त्र धारण करने से कार्य सिद्धि होती है, चित्रा में वस्त्र धारण करने से उत्तम भोजन की प्राप्ति और विशाखा में नवीन वस्त्र धारण करने से जनप्रिय होता है ।। १८६ ॥ मित्रभे सुहृद्युतिच जलाप्लुतिश्च नैऋते पुरन्दरेऽम्बर रुजो क्षयः । जलाधिदैवते ।। १८७ ॥ (सुहृद्यातिश्चमित्रभे) अनुराधा में वस्त्र धारण करने से मित्रलाभ होता है ( पुरन्दरेऽम्बरक्षयः) ज्येष्ठामें नवीन वस्त्र धारण करने से व्यक्ति जल में डूबता है ( रुजो जलाधिदैवते) पूर्वाषाढ़ा में वस्त्र धारण करने से रोग उत्पन्न होता है । भावार्थ - अनुराधा में वस्त्र धारण करना मित्र लाभ कराता है ज्येष्ठा में नवीन वस्त्र धारण करना वस्त्र क्षय कराता है मूल में धारण करने से व्यक्ति जल में डूबता है पूर्वाषाढ़ा में रोग उत्पन्न कराता है ॥ १८७ ॥ मिष्ठमन्नमथविश्वदैवते वैष्णवे भवति नेत्ररोगता । धान्यलब्धिमपि वासवे विदुर्वारुणेविषकृतं महद्भयम् ।। १८८ ।। ( विश्वदैवते मिष्टमन्नमथ) उत्तराषाढ़ा में मिष्ठान्न की प्राप्ति (वैष्णवे नेत्र रोगता भवति) श्रवण में वस्त्र धारण करने से नेत्र रोग उत्पन्न होता है। (वासवे मपि धान्यलब्धि) Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ८१८ धनिष्ठा में वस्त्र धारण करने से अन्न लाभ होता है। (विदुर्वारुणेविषकृतमहद्रयम्) शतभिखा में वस्त्र धारण करने से विष का महान भय होता है। __ भावार्थ-उत्तराषाढ़ा में मिष्ठान्न की प्राप्ति, श्रवण में नेत्र रोग, धनिष्ठा में अन्न लाभ होता है और शतभिखा में नवीन वस्त्र धारण करने से विष का महान भय होता है।। १८८॥ भद्रपदासु भयं सलिलोत्धं तत्परतश्च भवेत्सुतलब्धिः । रत्नयुर्ति कथयन्ति च पौरणे योऽभि नवाम्बरमिच्छति भोक्तुम्॥१८९।। (भद्रपदासु भयं) पूर्वाभाद्रपदा में वस्त्र धारण करने से भय होता है। (सलिलोत्थं तत्परतश्च भवेत्सुत लब्धिः ) उत्तराभाद्रपद में पुत्र लाभ होता है (पौष्णे रत्नयुतिं कथयन्ति च) और रेवती नक्षत्र में वस्त्र धारण करना रत्न प्राप्त कराता है (योऽभि नवाम्बरमिच्छति भोक्तुम्) ये सब नये वस्त्र धारण करने का फल है। भावार्थ—पूर्वाभाद्रपदा में जल भय उत्तराभाद्रपद में पुत्र लाभ होता है रेवती नक्षत्रमें रत्नप्राप्ति होती है इस प्रकार नये वस्त्र धारण करने का फल है पुराने वस्त्र धारण करने का फल नहीं है।। १८९॥ वस्त्रस्य कोणेनिवन्ति देवा नराश्चपाशान्त शान्तमध्ये। शेषास्त्रयश्चात्रनिशाचरांशास्तथैव शयनासनपादुकासु ॥१९० ।। (वस्त्रकोणे देवनिवसन्ति) वस्त्र कोणे पर देव निवास करते है (पाशान्तशान्तमध्ये नराश्च) पाशान्त के दो भागों में मनुष्य (शेषास्त्रयश्चात्र निशाचरांशास्तथैव) शेष तीन भागोंमें निशाचर बसते है उसी प्रकार (शयनासनपादुकासु) शय्या, आसन, खडाऊँ के तो भाग करके फल का विचार करे। भावार्थ... वस्त्र के नौ भाग करे उसमें वस्त्र के चारो कोणों में देवता पाशान्त के दो भागों में मनुष्य, शेष तीन स्थानों पर राक्षस बसते है उसी प्रकार शय्या, आसन, खडाऊँ के भी नौ भाग करके फल का विचार करें।। १९० ।। लिप्ते मषी कर्दमगोमयाद्यैश्छिन्ने प्रदग्धे स्फुटिते च विन्द्यात् । पुष्टे नवेऽल्याल्पतरं च भुङ्क्ते पापे शुभं बाधिक मुत्तरीये ।। १९१॥ Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१९ परिशिष्टाऽध्यायः नवीन वस्त्र धारण करने पर यदि (लिप्ते मषी कर्दम गोमयाश्वै) स्याही से वा कीचड़ से अथवा गोबर से लिप्त हो जाने पर वा (श्छिन्नेप्रदग्धेस्फुटिते च विन्द्यात्) छिन्न हो जाने पर जल जाने पर फट जाने पर (पुष्टे नवेऽल्याल्पतरं च भुङ्क्तेपायेशुभं) अशुभ फल होता है (वाधिकमुत्तरीथे) यह फल उत्तरीय वस्त्रमें अधिक होता है। भावार्थ-यदि नये वस्त्र धारण करने पर स्याही में या कीचड़ में अथवा गोबर में लिप्त हो जाय अथवा क्षीण हो जाय, जल जाय वा फट जाय तो अशुभ फल होता है, यह सब फल अधिकता से उत्तरीय वस्त्रों में होता है अन्य में नहीं ॥ १९१॥ रूग्राक्षसां शेष्वधयापि मृत्युः पुंज-मताच भमुध्य भाये। भागेऽमरणामथभोगवृद्धिः प्रान्तेषुर्वत्र वदन्त्यनिष्टम्॥१९२॥ (रूग्राक्षसांशेष्व वापिमृत्युः) राक्षस भाग में यदि वस्त्र के अन्दर गोबर, कीचड़ व स्याही लग जाय या फट जाय जल जाय तो वस्त्र के मालिक को रोग या मृत्यु होती है, (मनुष्यभागे पुंजन्म तेजश्च) मनुष्य भाग में यदि गोबरादि लग जाय तो तेजवान पुत्र की प्राप्ति होती है (भागेऽमराणामथभोगवृद्धिः) देव के स्थान पर कीचड़ादि लग जाय तो भोगों की वृद्धि होती है। (प्रान्तेषु सर्वत्र वदन्त्यनिष्टम्) सभी स्थानों पर यदि वस्त्र में छेद हो जाय तो अनिष्ट फल होता है। भावार्थ-राक्षस स्थान पर वस्त्र फट जाय या गोबरादिक लग जाय तो वस्त्रके मालिक को रोग या मरण हो और मनुष्य भाग में हो तो पुत्र जन्म होता है देवता भाग में छेदादिक हो तो भोंगो की प्राप्ति होती है, पूरे वस्त्र में छेद हो जाय तो अनिष्ट फल होता है समस्त नवीन वस्त्र छेद वाला हो जाय तो अशुभ फल होता है। १९२॥ कङ्कल्लवोलूककपोतकाक क्रव्याद गोमायु खरोष्ट्र सर्पाः । छेदाकृतिर्दैवत भाग गापि पुंसां भयंमृत्युसमं करोति ।। १९३ ।। यदि (र्दैवत भागगापि) नवीन वस्त्र के देवता भाग में (कङ्कल्लवोलूक कपोत) कंक, पक्षी, मेढक, कबूतर (काक क्रव्याद गोमायु खरोष्ट्र सर्पाः) कौआ, मांसभक्षी, गिद्ध, गधा, ऊँट, सर्प के आकारके (छेदाकृति) छेद हो जाय तो (पुंसां) पुरुष को (भयं मृत्युसमं करोति) मरण के समान भय उपस्थित करता है। Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२० भद्रबाहु संहिता भावार्थ- नवीन वस्त्र के देवता भाग में यदि कंक, पक्षी, मेढ़क, कबूतर, कौआ, मांसभक्षी, गिद्ध, गधा, ऊँट, सर्प के आकार के छेद पड़े तो वस्त्र के मालिक को मरण के समान भय उत्पन्न होता है ॥ १९३ ।। छत्रध्वजस्वस्तिक वर्द्धमान श्रीवृक्षकुम्भाम्बुज तोरणाद्याः । छेदाकृति नैऋतभागगापि पुसां विधत्ते न चिरेण लक्ष्मीम् ।। १९४ ।। यदि नवीन वस्त्र के (ऋतु भागगापि) नैर्ऋत्य भाग में (छत्रध्वजस्वास्तिक वर्द्धमान) छत्राकार, ध्वजाकार, साथी या वर्द्धमान (श्रीवृक्षकुम्भाम्बुज तोरणाद्याः ) श्रीवृक्ष, कुम्भ, कमल, तोरणादि के ( छेदाकृति ) आकार का छेद पड़े तो ( पुसां) पुरुष को (विधतेन चिरेण लक्ष्मीम् ) स्थिर लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती है। भावार्थ -- यदि नवीन वस्त्र के नैर्ऋत्य कोण में छत्र, ध्वज, साथी या वर्द्धमान, श्रीवृक्ष, कुम्भ, कमल, तोरणादिक के आकारका छेद पड़ जाय तो उस पुरुषको स्थिर लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती है ।। १९४ ॥ भोक्तुं नवाम्बरं शस्त मृक्षेऽपि गुण विवाहे राजसन्माने प्रतिष्ठा मुनि वर्जिते । दर्शने ।। ९९५ ।। ( विवाहे राजसन्माने ) विवाह में राजा सन्मान के समय में ( प्रतिष्ठा मुनि दर्शने) प्रतिष्ठादि क्रियाओं में मुनि दर्शन के समय में (मृक्षेऽपिगुण वर्जिते ) गुण वर्जित नक्षत्र होने पर भी ( नवाम्बरंशस्त भोक्तुं ) नये वस्त्रोंको धारण कर लेना चाहिये । भावार्थ -- विवाह के समय में राज्य सम्मान के समय में, पंचकल्याणक महोत्सवों में व मुनियोंके दर्शन के समय में नक्षत्र खराब होने पर भी नये वस्त्रों का उपयोग कर लेना चाहिये, इसमें कोई दोष नहीं है ।। १९५ ॥ विशेष—इस परिशिष्टाध्याय में धर्मात्मा के समाधिमरणोत्व के लिये शरीर के अरिष्टों का वर्णन किया है। निमित्तों के कारण भूत आचार्य श्री ने पुलिन्दिनी देवी का स्मरण किया है और समस्त अष्टांग निमित्तो का वर्णन व उपयोग आयुर्ज्ञान के लिये है ऐसा कहा है। पहले शरीर के अन्दर कितने रोग होते हैं सो आचार्य श्री ने बताया कि Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२१ परिशिष्टाऽध्यायः मानव शरीर में पाँच करोड़ अड़सठ लाख निन्यानवें हजार पाँच सौ चौरासी रोग हैं विषयाशक्त इन रोगों को नहीं देखता है। और इन्द्रिय विषयों में आसक्त होकर भोगों में पड़ा रहता है, किन्तु धर्मात्मा व्यक्ति रोगों को समझकर अपने परिणाम समाधिमरण की और लगाता है। कषायको कृश करता हुआ शरीर कृषकर धर्मभावनापूर्वक शरीर का त्याग करना सल्लेखना है। अरिष्टों के पिण्डस्य, पदस्थ और रूपस्थ ये तीन भेद कहे हैं। ___ इनको देखने पर रोगी का मरण कब और कितने दिनों में होगा इसका पूर्ण ज्ञान होता है सो इसको जानकर भव्य और धर्मात्माओं को सावधान रखें। जब वात, पित्त, कफ, कुपित हो जाय अथवा इन तीनों में से एक भी तीव्रता को धारण कर लेने पर शरीर में अरिष्ट प्रकट होते हैं, जब शरीर में अरिष्ट प्रकट हो गया तो समझो उसका मरण होने वाला है। शरीर में अप्राकृतिक रूप से अनेक प्रकार की विकृति दिखने पर पिण्डस्थ अरिष्ट कहा है। चन्द्रमा, सूर्य, दीपक व अन्य दूसरी वस्तुओं के विपरीत दिखने पर पदस्थ अरिष्ट कहा है। छाया पुरुष, स्वप्न दर्शन, प्रत्यक्ष अनुमान जन्य प्रश्न द्वारा वर्णन को रूपस्थ अरिष्ट कहा है। इस अध्याय में छाया पुरुष को देखने की रीति व उसका फल वर्णन किया है, छाया पुरुष अत्यन्त शुभ्र व निर्मल दिखे तो, सुख शान्ति समृद्धि निरोगता बढ़ती छाया पुरुष में विकार दिखे तो अनिष्ट कारक होता है इत्यादि ज्योतिष अष्टाँग निमित्त ज्ञान के वेता को प्रत्येक निमित्तों की जानकारी रखनी चाहिए, सावधानी पूर्वक ही फलादेश कहें, निमित्त ज्ञानी संयमी होना चाहिये। तीक्ष्ण बुद्धिवाला होना चाहिये, फलाफल का विचार करने वाला होना चाहिए। स्वप्न आठ प्रकार के होते है। पाप रहित, मन्त्र साधना द्वारा सम्पन्न मंत्रज्ञ Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२२ भद्रबाहु संहिता है वातादिदोषसे उत्पन्न स्वप्न दोषज, दृष्ट, श्रुत, अनुभूत चिन्तोत्पन्न स्वभावजः पुण्यपाप के ज्ञापक दैव, इन आठ प्रकार के स्वप्नों में मन्त्रज्ञ और दैविक स्वप्न ही सत्य होते हैं शेष छः प्रकार के स्वप्न निष्फल होते हैं। मल-मूत्रादिक की बाधा से उत्पन्न स्वप्न, रोग से उत्पन्न हुए स्वप्न, आलस्यादिक से उत्पन्न स्वप्न, दिन स्वप्न एवं जाग्रत अवस्था का स्वप्न, देखे गये पदार्थों को पुनः स्वप्न में देखना, प्रायः इनका फल निष्फल होता है। बुद्धिमान पुरुष को अपने गुरु से शुभाशुभ स्वप्नों को कहे और अशुभ स्वप्नों को मात्र गुरु को छोड़कर और किसी से भी न कहे। इस प्रकार इस परिशिष्ट अध्याय में स्वप्नारिष्ट, लिंगारिष्ट, शब्दारिष्ट, पदार्थारिष्ट आदि का मैंने वर्णन किया है भव्य जीव इसको पढ़कर लाभान्वित हो । विस्तार से वर्णन इस अध्याथ में ही मिलेगा । इति श्रीपंचम श्रुत केवली दिगम्बराचार्य भद्रबाहु स्वामी विरचित भद्रबाहु संहिताका परिशिष्टाध्याय अरिष्टों का वर्णन करने वाला हिन्दी भाषानुवाद की क्षेमोदेय टीका समाप्त | सम्वत् २०४९ ज्येष्ठ शुक्ला ५ शुक्र वासरे पुष्य नक्षत्र सिंह लग्न में मूलसंघे सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे कुन्दकुन्दाचार्य परंपरायां श्री सूरिश्वर आदिसागर अकंलीकरतत्शिष्य महान योगी सम्राट घोर तपस्वी अठारह भाषाविज्ञ मन्त्रान्त्रयंत्रज्ञान सम्राट् निमित्तज्ञान शिरोमणि, कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य महावीरकीर्ति तत्शिष्यं, मन्त्रतन्त्रा पंचविज्ञ, श्रमण रत्न, वात्सल्य रत्नाकर, वादिभकेशरी, सिद्धान्तमहोदधि गणधारार्थ कुन्थुसागरेण इदं अंतिमश्रुत केवली रचित अष्ठांगनिमित्त शास्त्र भद्रबाहु संहिताय हिन्दीभाषानुवाद क्षेमोदय टीका कृतवान् शुभं भूयात । (इति परिशिष्टाऽध्यायः समाप्तः ) | I 1! Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ऋषिपुत्राचार्यप्रणीत ( निमित्त शास्त्रम् ) मङ्गलाचरणम् सो जा जबड उसाहो अगर संसार सायशिरणो। झाणेणलेणजेयण लीला इडिज्जि जिययमणो॥१॥ (झाणेणलेणजेयण लीला) जिन्होंने ज्ञान ध्यान में लीन होकर (इट्ठिन्जि जिययणो) इन्द्रियों के विषयों को जीत लिया है (अणंतसंप्सारसायणुत्तिण्णो) और अनन्त संसार सागर से पार हो चुके है (सो) इसलिए (उसहो) उन, अर्थात् ऋषभदेव स्वामी की (जयड जयउ) जय हो, जय हो। भावार्थ-जो ज्ञान ध्यान में लीन होकर इन्द्रियों के विषयों के ऊपर विजय प्राप्त कर ली है। और अनन्त संसार सागर से पार हो चुके हैं, ऐसे ऋषभदेव स्वामी की जय हो, जय हो॥१॥ णमिऊण वइडमार्ण णव केवललद्धि मंडियं विमलं। वोच्छं दव्वणिमितंरिसि पुत्तयणामदो तत्त्व॥२॥ (णवकवेलद्धिमंडियंविमलं) केवल नौ लब्धियों से मण्डित होकर विमल हो गये है, ऐसे (बड्ढमाणं णमिऊण) वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार करके (दव्वणिमितं वोच्छं) निमित्त शास्त्र को (रिसिपुत्तयणा मदोतत्त्थ) मैं ऋषिपुत्र नाम का मुनि कहूँगा। भावार्थ-जो केवल नौ लब्धियों से सहित है, ऐसे वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार करके मैं ऋषि पुत्र नाम का आचार्य निमित्त शास्त्र को कहूँगा ।। २ ।। अहखलुमारिसि पुत्तिय णामणिमितुप्पाय मस्सवणं, पक्खइस्सामि वग्गमुणिसिद्धकम्म। Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ८२४ जोइसणाणो विहपणविऊण व्याव्य सव्वाणि, तुप्पायं तं खलुतिवि देण बोच्छामि॥३॥ (अहखलुमारिसिपुत्तिय) अब मैं ऋषि पुत्र निश्चय से (णामणिमि तुप्पायमस्सयणपक्खइस्मामि) निमित्तों के उपाय को (वग्गमुणि सिद्धकम्म) सर्व कार्य की सिद्धि के लिये (जो इसणाणोविहपण विऊण) सर्वश्रेष्ठ ज्योतिष ज्ञान को (व्वाव्वसव्वाणि तुप्पायं) सब प्रकार से उसके उपाय को (तं खलुतिविदेणवोच्छामि) त्रिशुद्धि पूर्वक कहूँगा। भावार्थ- अब मैं ऋषि पुत्र निश्चय से निमित्त ज्ञान तीन प्रकार का है, उसके लक्षण व फल को सब प्रकार से कहूँगा, सो तुम जानो।।३॥ निमित्तों के भेद जेदिट्ट भुविरसपण जेदिट्ठा कुहमेण कत्ताणं। सदसंकुलेन दिवा वउसट्ठिय एणणाणधिया।॥४॥ (जेदिक भुविरसण्ण) जो भूमि पर दिखाई दे रहा है (जेदिवा कुहमेण कत्ताणं) और जो आकाश में दिखाई देता है (सदसंकुलेन दिवा) तथा जिसका शब्द ही सुनाई दे रहा है (वउसट्ठिय एणणाणधिया) ऐसे निमित्त ज्ञान के विद्वानों ने तीन भेद कहे है। भावार्थ-जो भूमि पर दिखाई दे आकाश में दिखाई देता है तथा मात्र शब्द सुनाई पड़े, ऐसे निमित्त ज्ञान के विद्वानों ने तीन भेद कहे हैं॥४॥ जेचारणेणदिवा अणं दो सायसहम्मणाणेण। जोपाहुणेण भणियां ते खलुतिविहेण वोच्छामि॥५॥ (जेचारणेणदिवा) जो चारण मुनियों के द्वारा देखा गया है (दो सायसहम्मणाणेण) वैसा ही विद्वानों ने वर्णन किया है (जोपाहुणेण भणियां) उसी निमित्त ज्ञान को (तं खलुतिविहेण वोच्छामि) त्रियोग की शुद्धि पूर्वक कहूँगा। भावार्थ-जो चारण मुनियों ने कहा है, एवं उसी प्रकार अन्य विद्वानों ने वर्णन किया, उसी निमित्तज्ञान को तीन योग की शुद्धि पूर्वक मैं कहूँगा ।।५।। Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२५ निमित्त शास्त्रम् निमिस के साधन सूरोदय अच्छमणे चंदमसरिक्खमग्गह चरियं। तं पिच्छियं णिमित्तं सव्वं आएसिंह कुणहं ॥६॥ (सूरोदय अच्छमणे) सूर्य के अस्त होने पर (चंदमसरिक्खमग्गह चरियं) चन्द्रमा के उदय में तारा नक्षत्र ग्रह के संचार को देखकर (तं पिच्छियं णिमित्तं सव्वं) निमित्त ज्ञानी को सब जान लेना चाहिये। भावार्थ—सूर्य के अस्त होने पर चन्द्रमा के उदय में ग्रह नक्षत्र तारा आदि को देखकर निमित्त ज्ञानियों को सब जानना चाहिये।। ६ ।। आकाश प्रकरण सूरोय उयव्वमणो रत्तुप्पलवण होव्व दीसिज्ज। सो कुणइ रायमरणं मंत्तीपुत्रं विणासेई॥७॥ (सूरोय उयव्वमणो) सूर्योदय के समय (रत्तुप्पलवण होच्चदीसिज्ज) सब दिशाएँ लाल रंग की दिखे तो (सो कुणइरायमरण) वह राजा का मरण करती है (मंत्तीपुत्तविणासेई) और मन्त्री पुत्र का भी मरण करती है। भावार्थ—सूर्योदय के समय में यदि दिशा-विदिशा सब लाल वर्ण की दिखे तो समझो राजा और मन्त्री पुत्र दोनों का ही मरण होगा॥७॥ स सलोहि वण्णहोवरि संकुणइत्ति होइणायव्वो। संगामपुण योरं खगं सूरोणिवेदेई ।। ८॥ (ससलोहि वण्णहो) सूर्योदय के समय में यदि दिशाएँ माणक के समान लाल वर्ण की हो जाय तो (संकुण इत्ति होइणायव्वो) ऐसा जानना चाहिये कि (संगामपुण पोरं) वहाँ पर घोर संग्राम होगा, (खग्गंसूरोणिवेदेई) तलवारें चलेगी ऐसा निवेदन किया है। भावार्थ-सूर्योदय के समय में यदि दिशाएँ माणक के समान लाल वर्ण की हो जाय तो ऐसा जानो, कि वहाँ पर तलवारों से भयंकर युद्ध होगा ऐसा निवेदन किया है।। ८॥ Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ८२६ हेमंतम्मिय उण्णं गिम्हे सीयंपुमच्चए सूरो । लोसस्स वाहि मरणं काले कालेणसंदेहो ॥ ९ ॥ (हेमंतम्मिय उण्णं) यदि सूर्य हेमन्त ऋतु में गर्मी छोड़े (गिम्हे सीयंपमुच्चएसूरो) और ग्रीष्म ऋतु में ठण्डी छोड़े तो (कालेकाले ) समय-समय में (लोयस्स वाहिमरणं) लोगों का बीमारी से मरण होगा (णसंदेहो ) इसमें कोई सन्देह नहीं हैं। भावार्थ — यदि सूर्य हेमन्त ऋतु में अत्यन्त गर्मी छोड़े, और ग्रीष्म ऋतु में ठण्डी छोड़े तो समझो वहाँ पर समय-समय पर बीमारी से लोगों का मरण होगा ॥ ९ ॥ उदयच्छमणो सूरो अग्निफुलिंगेवणाय मुच्चंतो । दीसिज्ज जम्हिदेसे तम्हि विणासो णिवेदेदि ॥ १० ॥ ( उदयच्छमणोसूरो) यदि उगता हुआ सूर्य (अग्निपुलिंगवणायमुच्चंती) अग्नि की स्फुलिंगे छोड़ता हुआ (दीसिज्ज ) दिखे तो ( जम्हिदेसे तम्हिविणासो णिवेदेदि ) उसी देश में विनाश होता है ऐसा निवेदन किया है। भावार्थ----यदि उगता हुआ सूर्य अग्नि की स्फुलिगें छोड़े, ऐसा दिखे तो समझो उसी देश में विनाश होता है, ऐसा निवेदन किया है ।। १०॥ अहणिप्पहोवा दीसइ उच्छंतो धुलि धूसरो छायो । सो कुणइ राइमरणं वरिसदिणन्तरे सूरो ॥ ११ ॥ (सूरो) यदि सूर्य की ( छायो ) छाया ( अहणिष्पहोव दीसइ) धूम सहित दिखे ( उच्छंतो धूलि धूसरी) और धूल से धूसरित दिखे तो (सो) वह ( वारिसदिणब्धंतरे ) एक वर्ष के अन्दर (राइमरणं कुणइ ) राजा का मरण सूचित करती है। भावार्थ-यदि सूर्य उदय के समय घूँए से सहित वा धूल से धूसरित सूर्य दिखे तो एक वर्ष के अन्दर राजा का मरण होगा ऐसा सूचित किया है ॥ ११ ॥ उदयच्छमणे सूरो बक्को इव दीसइएणहयलम्मि | सो अइरेणयसाहदि मंतिवहरायमरणं च ॥ १२ ॥ (सूरो) यदि सूर्य ( उदयच्छमणे ) उदय अस्त के समय ( वक्को इव दीसइ) टेड़ा हो रहा है, ऐसा दिखे (एणहयलम्मि) वा वक्र दिखे तो (सो) वह (अइरेणयसाहदि ) शीघ्र ही ( मांति वहरायमरणं च ) राजा व मन्त्री के मरण को सूचित करता है। Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२७ निमित्त शास्त्रम् भावार्थ-यदि सूर्य उदय के समय में अथवा अस्त होने के समय में वक्र होता हुआ दिखे तो शीघ्र ही राजा का मरण करता है॥ १२॥ जइ मच्छासरिमेणं मझेणय मयरणुबिअब्भेण। ठायज्जड़ उठें तो लोयस्स भयणिवेएई ।।१३॥ (जइ) यदि सूर्यास्त के समय में (मयरणुबिअब्भेण) ज्वाज्वल्यमान (मच्छसरि मेणं मज्झेणय) मछली के आकार का सूर्य के अन्दर से (णायज्जइ उलुतो) चिह्न प्रकट होता हुआ दिखे तो (लोयस्सभयणिवेएई) लोगों के भय का कारण होता भावार्थयदि सूर्याअस्त के समय सूर्य के अन्दर से ज्वाज्वल्यमान मछली के आकार का चिह्न उठता हुआ दिखे तो लोगों में भय होगा ऐसा समझो।। १३॥ णरणू वेण भेणं गीढो जड़ दीसइ समुटुंतो। जं देसम्मि ज दीसइ छम्मासविणासएणं च॥१४॥ (णरणू वेण भेणं गीढोजइ) यदि सूर्य से लम्बी ज्वाला उठती हुई (दीसइ समुहतो) दिखे (जं देसम्मि जइ दीसइ) और जिस दिशा में दिखे तो उसी दिशा में (छम्मासविणासएणं च) छह महीने के अन्दर विनाश होता है। भावार्थ-यदि सूर्य से लम्बी ज्वाला जिस दिशा में उठती हुई दिखे तो उसी दिशा में छह महीने के अन्दर विनाश होता है।। १४॥ अहसूरपास उइयो दीसइ पाडिसूरउज्जया विदिऊ। मासे कुणइ पीडा रायाणं वाहिलोयं च ॥१५॥ (अहसूरपासउइयोदीसइ) यदि सूर्योदय के समय में (पाडिसूरउज्जयाविदिऊ) सूर्य के पास ही अगर दूसरा सूर्य दिखे तो (मासे) एक महीने में (रायाणं पीडाकुणइ) राजा को पीड़ा होगी (च) और (वाहिलोयं) प्रजा के लोगों को भी पीड़ा होगी। ___भावार्थ—यदि सूर्योदय के समय में सूर्य से दूसरा सूर्य उदय होता हुआ दिखे तो एक महीने में राजा व प्रजा को पीड़ा होगी ऐसा समझो ।। १५ ।। Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता उदधूलोधूलिधूसरो सूरो । वाहिमरणं देशविणासं चदुभिक्खं ॥ १६ ॥ अहदीसड़ सो कुणइ (सूरो) यदि सूर्य के ( अहदीसइजइखंडो) टुकड़े-टुकड़े दिखे (उद्धूलोधूलि - धूसरो) एवं धूल, धूम आदि उठता हुए दिखे तो (सो) वह ( वाहिमरणं कुणइ ) व्याधि मरण उत्पन्न करेगा, (देशविणासं च ) देश का विनाश करेगा और (दुब्भिक्खं) दुर्भिक्ष करेगा । जड़खंडो जड़खंडो ८२८ भावार्थ-यदि सूर्य के खण्ड-खण्ड दिखें और उसके अन्दर से धूल एवं धूम उठता हुआ दिखे तो व्याधि मरण उत्त्पन्न करेगा, देश का विनाश करेगा और दुर्भिक्ष करेगा ॥ १६ ॥ अह मंडलेणणुद्धं पीपथ मंजिठ्ठ सरिसकिण्हेण । सो कुणइ णवरसभया पंचमदिवसे संदेहो ॥ १७ ॥ ( अहमंडलेणणुद्धं ) यदि सूर्यास्त के समय मण्डल रूद्ध हो और वह भी (पीपथमंजिठ्ठसरिसकिण्हेण ) पीला या मंजिल या काला रंग का हो तो ( पंचमदिवसे ) पाँच दिनों में ( सो कुणइणवरसभया) या नौ रसों में भय उत्पन्न करता है। (णसंदेहो ) इसमें सन्देह नहीं हैं। भावार्थ-यदि सूर्यास्त के समय मण्डल रूद्ध हो और पीला या मंजिठ्ठ या काला रंग का हो तो समझो पाँच दिनों में नौ रसों को भय उत्पन्न होगा अर्थात् नौ रसों में विकार उत्पन्न हो जायगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ १७ ॥ अह हत्थिसरिसमेहो सूरं पाएणयिन्तु मक्कमई । सो कुणइ राइ मरणं छडे दिवहेणसंदेहो ॥ १८ ॥ (सूरं ) सूर्य के आस-पास ( अह हत्थिसरिसमेहो) हाथी के आकार वाले मेघ (पारणयिन्तु मक्कमई) चारों तरफ दिखलाई पड़े तो (सो) वह (कुणइराइमरणं छडे दिव) छट्टे दिन राजा का मरण करता है ( णसंदेहो ) इसमें कोई सन्देह नहीं हैं। भावार्थ-यदि सूर्य के आस-पास हाथी के समान मेघ दिखे तो समझों छठे दिन राजा का मरण होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ १८ ॥ Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त शास्त्रम् अहणच्चंता दीसइ पुरूसेहि बहुविदेहि भूवेहि। सो पंचमम्मि मासरोबरण्णेणिवेदेहि॥१९॥ (अहणच्चंता दीसइ) यदि सूर्य अस्त के समय में ऐसा दिखे कि (पुरूसेहि बहु विदेहि भूवेहि) सूर्य के अन्दर से पुरुषाकार चमकता हुआ कुछ निकल रहा है तो (सो पंचमम्मेिणसे) वह पांच महीने के भीता (रोयंरण्णेणिवेदेहि) लोगों को युद्ध में रुलायगा। भावार्थ-यदि सूर्यास्त के समय पुरुषाकार चमकता हुआ एवं सूर्य के भीतर से निकलता हुआ दिखे तो समझो पाँच महीने के अन्दर वह लोगों को युद्ध में रुलायगा ।। १९॥ उदयच्छमणो सूरो सूरेहि बहुएहि दीसइविद्धो। मासेविदिए जुद्धं तद्देसो होईणायव्वं ॥२०॥ (उदयच्छमणोसूरो) उदय और अस्त के समय में सूर्य के अन्दर (सूरेहि बहुएहि दीसइविद्धो) बहुत से छिद्र दिखे तो (विदिए मासे जुद्धं) दो महीने के अन्दर युद्ध होगा (तद्देसो होईणायव्वं) ऐसा आप जानो क्योंकि ऐसा ही है। भावार्थ-यदि सूर्य उदय और अस्त के समय में सूर्य के अन्दर अनेक छिद्र दिखे तो समझो दो महीने के अन्दर युद्ध होगा ऐसा विद्वानों ने कहा है॥२०॥ अह धूमोअच्छयणेगिम्हम्हिय दीसइ जय सूरो। देसम्मि इंद घोरं तेर दियहम्म जुझं च ॥२१॥ (अह सूरो) यदि सूर्य (धूमोअच्छयणेगिम्हम्हिय) अस्त होते समय अपने अन्दर से धुएं का गोला छोड़ता हुआ (दीसइजय) दिखे तो (इंददेसम्मि) ऐसा कहा गया है कि (तेरसदियहम्म जुझं च धोरं) तेरह दिनों में घोर युद्ध होगा। भावार्थ-~यदि सूर्यास्त के समय सूर्य के अन्दर से धुएं के गोले निकलते दिखे तो समझो वहाँ पर तेरह दिनों में घोर युद्ध होगा॥२१ ।। Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता मेघ के चिह्नों का फल अहमेहोणहयलये पउमिणि सुरिसुघ दीसइ जच्छं। सो पंचम्मियदिवहे वायं वरिसं च को वेई॥२२॥ (अह) सूर्य के (मेहोणहयलये) आगे मेघालय में (पउमिणिसूरिसुघ दीसइ जच्छं) पद्म के आकार दृश्य दिखे तो (सो पंचम्मिय दिवहे) वहाँ पर पाँच दिनों में (वायं वा रिसं च को वेई) वायु के साथ वर्षा होगी। भावार्थ-यदि सूर्यास्त के समय में मेघों के आकार कमल के समान हो तो वहाँ पर पांच दिनों में वायु के साथ वर्षा होगी॥२२ ।।। मुसलसरिच्छो मेहोदीसड़ व जातपब्वया भोया। सो सत्तमम्हिदिवहे वायं वरिसं च को वेई॥२३॥ यदि सूर्य के आगे (मुसलसरिच्छोमेहोदीसइ) मूसल के समान मेघ दिखे (व तपव्वयाभोया) और वैसा परिवेष हो तो (सोसत्तमम्हिदिवहे) सात दिनों में (वायंवरिसं न. वेई) वायु के साथ वर्षा होगी। भावार्थ-यदि सूर्य के आगे मूसलाकार मेघ हो तो सात दिनों में वायु के साथ वर्षा होगी ।। २३॥ अह दीसइ परधीओ उद्यच्छवणम्हि उहितोपोरो। तो तियरापुणिदिवहे वायं वारिसंच कोवेई ।। २४॥ (अह) अथ (उदयच्छवणम्हि परधीओउद्वितोपोरो) सूर्योदय व अस्त के समय में घोर परिधि उठती हुई (दीसइ) दिखाई दे तो (तो तियरापुणिदिवहे) तीसरे दिन (वायंवरिसंच को वेई) वायु के साथ वर्षा होगा। भावार्थ—सूर्यास्त व उदय के समय मेघ की घोर परिधि उठती हुई दिखाई पड़े तो समझो वहाँ पर तीसरे तीन वायु के साथ वर्षा होगी ।। २४ ॥ हेमंतकतुणकगिण्हे सुखदक्खिणोय जयवाऊ। अण्णुण्णदिसावायई वरिसा मुतच्छणायब्वो॥२५॥ - - Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३१ निमित शास्त्रम् (हेमंतकतुणकगिण्हे) यदि हेमन्त ऋतु में (सुखदक्खिणोयजयवाऊ) सूखपूर्वक दक्षिण दिशा में वायु चले (अण्णुण्णदिसा वायइ) और ठण्ड से मिश्रित हो तो (वारिसामुतच्छणायव्बो) शीघ्र ही वर्षा होगी। भावार्थ-यदि हेमन्त ऋतु अर्थात् (माघ फाल्गुन में) शीतोष्ण वायु चले तो समझो शीघ्र वर्षा होने वाली है।॥ २५॥ ववरूव सूरस्सुदयच्छमणे पडंति जलविंद ऊणहयलाऊ। तइहेदिवहे वरसइ सहेसे णस्थिसंदेहो॥२६ ।। (सूरस्सुदयच्छमणे) सूर्य के उदय या अस्त होने के समय में (ववरूव जलविंद) सतत जल की बून्दे (ऊणहयलाऊ) गरम-गरम (पडंति) पड़े तो (तईहेदिवहे) तीसरे दिन (तसे) उस देश में (वरसइ णात्थिसंदेहो) वर्षा होगी इसमें कोई सन्देह नहीं है। भावार्थ—सूर्य के उदय और अस्त काल में सतत ओस रूप जल की बूंदे पड़े तो तीसरे दिन अवश्य वर्षा होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं हैं।॥ २६॥ जदिचंडवायुवायदि अहपुणमदछमिवायथेवाऊ। तहिं होही जलवरसे पंचमदिवहे णसंदेहो ॥२७॥ (जतिचंडवायुवायदि) यदि प्रचण्ड वायु चले (अहपुणमछमिवायथेवाऊ) और मध्य में धीरे-धीरे वायु चले तो (तहिं होही जलवरसे पंचमदिवहे) पाँचवे दिन जल वर्षा होगी (णसंदेहो) इसमें कोई सन्देह नहीं है। भावार्थयदि प्रचण्ड वायु चले और बीच-बीच में धीमी-धीमी वायु चले तो समझो पाँचवें दिन वर्षा होगी इसमें कोई सन्देह नहीं है।। २७॥ छित्तेण कोईपुच्छइ धराम्हिछायंतहद्द वसणो वा। उदकुंभाम्मियहच्छो वरसइ अज्जंतणायव्वो॥२८॥ (छित्तेण कोईपुच्छइ) अचानक कोई आकर पूछे कि (घरम्हिछायंत हद्द वसणो वा) क्या घर को छा लिया (उदकुंभाम्मियहच्छो) और वस्त्रसहित होने पर भी ठण्डी लगने लगे घड़ों का पानी गर्म मालूम पड़े तो समझो (वरसइ अज्जतणायचो) आजकल में ही पानी की वर्षा होगी। Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ૮ર भावार्थ-यदि अचनाक कोई आकर पूछे कि घर छा लिया क्या और कपड़े पहने पर भी ठण्डी मालूम पड़े, पड़ों का पानी गरम लगने लगे तो समझो आजकल में ही वर्षा होगी ।। २८॥ सूहापीययवण्णा मंजिठाराय सरिस वण्णा। चारत्ता नीलयवण्णा वार्य वरिसं णिवेदेहि॥२९॥ (सूहापीययवण्णा) सूर्यास्त के समय वा सूर्योदय के समय यदि आकाश पीले वर्ण का हो या (मंजिठारायरिसवण्णा) मंजिठ्ठ वर्ण का हो (चारत्ता नीलयवण्णा) अथवा नील वर्ण का हो तो (वायं वरिसंणिवेदेहि) वायु चलकर वर्षा होगी, ऐसा समझो। भावार्थ-यदि सूर्यास्त वा सूर्योदय के समय में आकाश पीले वर्ण का हो जाय मंजिठ्ठ वर्ण का अथवा जाय तो नील वर्ण का हो जाय तो समझो वायु चलकर वर्षा होगी।। २९॥ णुप्पयवण्णसरिच्छाद्विकत्तिज्जसण्णिवेदेति णियह धूसर वण्णा पाही मरणं णिवेदेहि॥३०॥ (णुप्पयवण्णसरिच्छा) यदि तम्बाकू के रंग का आकाश हो जाय या (द्विकत्तिज्जसण्णिवेदेति) दो या तीन वर्ण का हो (णियहधूसरवण्णा) या धूसर वर्ण का हो तो (पाही मरणं णिवेदेहि) मरण से बचाओ ऐसे शब्द सुनाई पड़ेगे। भावार्थ- यदि आकाश का वर्ण तम्बाकू वर्ण का या दो तीन वर्ण का हो जाय अथवा धूसर वर्ण का हो जाय तो मरण से बचाओ ऐसे शब्द सुनाई पड़ेंगे, क्योंकि वर्षा नहीं होगी।। ३०॥ अहखंडभिण्णभिण्णा गोमुत्तसरिच्छ कपडवण्णाभा। स कुणइ राइमरणं मंदं वरिसंणिवेदेहि॥३१॥ (अहखंडभिण्णभिण्णा) यदि बादल खण्ड-खण्ड दिखे (गोमुत्तसरिच्छ कपडवण्णाभा) और गोमूत्र की आभा वाले दिखे तो (स कुणइराइ मरणं) वह राजा का मरण करता है (मंदं वरिसंणिवेदेहि) और थोड़ी-थोड़ी वर्षा करता है। Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३३ | निमित्त शास्त्रम् भावार्थ-यदि बादल टुकड़े के रूप में दिखे गोमूत्र के समान उनका रंग हो तो वह राजा का मरण करता है और धीमी-धीमी वर्षा होती है॥३१॥ का इच्छंती दीसइ अभेहि बहुविहेहिरूवेहि। अक्खइ बालविणासं हेमंतरणिगायासस्सा ॥३२॥ (का इच्छंती अभेहि) जो बादल (बहुविदेहिरूवेहि) बहुत रूप वाले बहुत रंग वाले होकर दिखे तो (अक्खइ बालविणासं) समझो बालकों का विनाश होगा (हेमंतरणिगायासस्सा) और वर्षा नहीं की सूचना देता है। भावार्थ-जो बादल बहुत रूपवाले, रंग वाले हो तो वह बालकों के विनाश और दुर्भिक्ष की सूचना देता है । ३२ !। चन्द्रप्रकरण चंदोसरूपसरिसो ये यारिसणू विऊण हयलम्मि। जइदीसइ तस्सफलं भण्णाम्मि इत्तोणिसामेहा ।। ३३॥ (चंदोसरूपसरिसो) चन्द्रमा के समान (ये यारिसणू विऊण हयलम्मि) उसका रूप देखकर उसके फल को (जइदीसइ तस्सफलं) जैसा देखा वैसे ही फल को (भण्णाम्मि इतोणिसामेहा) मैं कहता हूँ सो तुम जानो।। भावार्थ-अब मैं चन्द्रमा के फल को देखकर शुभाशुभ फल कहता हूँ क्योंकि यह इन ग्रहों का स्वामी है।। ३३ ।। णावालं गलसरिसो दक्खिनउत्तर समं णऊ चंदो। जुगदंड धनुसरिसा समसरित मंडलो नोदू ।। ३४॥ (चंदो) चन्द्रमा (णावालंगलसरितो) प्रतिपदा या द्वितीया का (दक्खिनउत्तर समंणऊ) दक्षिण उत्तर में समान या शृंग वाला हो (जुगदंड धनुसरिसा) जुगदंड या धनुष के (समसरितमंडलो नोदू) समान हो तो सुभिक्ष करता है। भावार्थ-यदि प्रतिपदा का चन्द्रमा या द्वितीया का चन्द्रमा दक्षिण उत्तर में समान शृंग वाला हो या धनुषाकार हो तो सुभिक्ष करता है ।। ३४ ।। Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु सहिता ८३४ कर ( अबलं वियसीधरो रूवे यसछलक्खणो चंदो। णावाइ कुणइ वरिसं सुभिक्खदेइ हलसरिसो॥ ३५॥ लंवियसीसधरोरूवे) अच्छा स्वच्छ, रूपवान् (यसछल क्खणो चंदो) चन्द्रमा (णावाइ कुणइ वरिसं) वर्षा करता है (हलसरिसो सुभिक्खदेइ) मान सुभिक्ष करता है। ---शुभ और स्वच्छ चन्द्रमा अच्छी वर्षा करता है, और हल के ने तो सुभिक्ष करता है।। ३५।। होगं दक्खिन वो जुगसंपत्ति जुगस्सयाणो य। म्म दंडसरिसोधणु सरिसो ससहरोजुस्स ।। ३६ ॥ भरोग) यदि दक्षिण भंग की तरफ चन्द्रमा ऊँचा हो तो आरोग्य (जुगसंपत्ति जुगस्सयाणो य) समान किनारी वाला चन्द्रमा सम्पत्ति रिसो ससहरोजुस्स) धनुष के आकार का चन्द्रमा सम होता चरणोगिन समझो उस यदि विदीसइणच्च भावार्थ समझो, नगर कार दे चन्द्रमा शृंग दक्षिण की तरफ ऊंचा हो तो निरोगता बढ़ाता वैभव बढ़ाता है, डण्डे के आकार हो तो दण्ड दिलाता है, -तो सम होता है।। ३६॥ गो समवण्णं भयं च पीई तहाणिवेदेहि। मायासो कुणइ भयं सव्वदेसेसु॥३७॥ गं) समान चन्द्रमा समवर्ण का हो तो (भयं च पीड़ डा करता है (लक्खारसपायासो) और लाक्षा रस के समान इ) सर्व देशों में भय उत्पन्न करता है। ग वाला चन्द्रमा हो तो भय और पीड़ा करता है और पूर्ण देशों में भय उत्पन्न करता है।। ३७॥ भयं वाहिरण्णो तहाणिवेदेई। धूसरवण्णोय वयसानं ॥ ३८॥ तो । (णाणाम (जइपडेदि भूमीए)। में मारी रोग और भयो भावार्थमा गाँव में मारी रोग उत्पन्न णयरस्सरच होईणयर (णयरस्सरच्छमन्यौ कुत्ते ऊंचे मुंह करके से (परचक्काऊणसंदेहो। Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त शास्त्रम् (हिरण्णी) लाल रंग का चन्द्रमा ( विप्पाणं देइ भयं) विप्रों को भय क ( पीलोखतियणासं ) पीला चन्द्रमा क्षत्रियों को और ( धूसरवण्णोय वयसानं ) रंग का चन्द्रमा वैश्यों को पीड़ा देता है (तदाणिवेदेई) ऐसा कहा है। ६ भावार्थ---लाल रंग का चन्द्रमा ब्राह्मणों को, पीला क्षत्रियों को, और धूसरव का वैश्यों को पीड़ा देता है ॥ ३८ ॥ किण्णो सुद्दविणासोचित लवण्णोय हrs पयइऊ । दहि खीर संखवण्णो सव्वान्हिय पाहिदोचंदो ॥ ३९ ॥ यदि चन्द्रमा ( किण्णो) काला हो तो (सुद्दविणासो) शूद्रों का नाश करती है । (सोचित लवण्णोयहणइपयइऊ) रंग-बिरंगा पाँच रंग वाला हो (दहि, खीर, संखवण्णो) दही, दूध और शंख के वर्ण का हो तो (सव्वम्य पाहिदो चंदो) दूध देने वाले गाय, भैंस आदि का नाश करता है। भावार्थ ---- यदि चन्द्रमा काला हो तो शूद्रों को पीड़ा देता है, पाँच रंग वाला हो या दही, दूध, शंख के रंग का हो तो गाय भैंस आदि दूध देने वाले पशुओं का नाश करता है ॥ ३९ ॥ सो रिक्खमिपास छहरो रोहिणिमज्जे पयदये चंदो । कुपाड़ (रिक्खमिपासवछहरो ) यदि चन्द्रमा पयविणासं (रोहिणीमज्जेपयदयेचंदो) रोहिणी के पास हो और खण्डित हो तो (पंचमासे) पाँचवें पंचममाणसंदेहो ॥ ४० ॥ महीने में ( सो कुणइ पर्याविणासं) वह अवश्य दूध का नाश करता है (नसंदेहो ) नक्षत्रों के नजदीक हो इसमें कोई सन्देह नहीं है। भावार्थ----यदि चन्द्रमा नक्षत्रों में रोहिणी के पास खण्डित रूप में तो वह अवश्य ही पाँच महीने में दूध का नाश कर देता है इसमें कोई सन्दे है ॥ ४० ॥ जे मंडलाय पछिया सूरो ससिणोय तित्ति वर सुप्याइणिमित्त ते सव्वेर्हति देखे रह नहीं ना था। णारधव्वा ।। ४१ ॥ Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ८३६ (जे मंडलायपछिया) जो पहले मंडल (सूरो ससिणोयतित्तियचिवा) सूर्य और चन्द्रमा के ग्रह कह आये हैं (वरसुप्पाइणिमितं) वह सब श्रेष्ठ निमित्त (ते सव्वेहुंतिणायव्वा) कहे गये हैं। भावार्थ-जो सूर्य और चन्द्रमा के मण्डल आचार्य ने कहे हैं वह सब निमित्त है, ऐसा जानना चाहिये।। ४१ ।। पव्वणिरहिओ चंदोराहूणय गाढिनूपयासिज्जू। सोकुणइ देशपीई भयं च रणाणिवेदेहि॥४२॥ (पव्वणिरहिओ चंदो) पर्व से सहित चन्द्रमा में (राहूणयगाढि नूपयासिज्जू) राहु के ग्रहण लगे हुऐ के समान दिखे तो (सो कुणइ देश पीडं भयं च) वह देश को पीड़ा और भय उत्पन्न करता है (रणाणिवेदेहि) ऐसा निवेदन किया है। भावार्थयदि चन्द्रमा पर्व रहित राहु से ग्रसित के समान दिखे तो देश को भय और पीड़ा होगी ऐसा समझो॥४२॥ मेहाणय जेणूवाजे भणिया पढमसूरजोयस्स। तेविय ससिणोसव्वेणायव्वावण्ण तूवेण ।। ४३ ।। (मेहाणयजेणूवाजे भणिया पढमसूरजोयस्स) जो मेघालय पहले सूर्य के कह आये हैं (तेवियससिणोसव्वेणायब्वा) वह ही चन्द्रमा के जानने चाहिये (वण्ण तूवेण) ऐसा कहा है। भावार्थ-जो मेघालय सूर्य के पहले कहे थे, वह ही चन्द्रमा के जान लेना चाहिये॥४३॥ उत्पातयोगप्रकरण अहअंतरिक्ख सद्दो सुव्वड़ बहुयाण वेवपुरिसाणं। पंचममासे मारी होई देसेणसंदेहो॥४४॥ (अहअंतरिक्खसद्दो) जब आकाश में शब्द (सुब्बइ बहुयाण वेवपुरिसाणं) बहुत पुरुषों का सुनाई पड़े और मनुष्य कोई नहीं दिखे तो उस (देसे) देश में (पंचममा से मारी होई) पाँचवें महीने में मारी रोग उत्पन्न होगा (णसंदेहो) इसमें कोई सन्देह नहीं है। Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३७ निमित्त शास्त्रम् . भावार्थ- यदि आकाश में बहुत मनुष्यों का शब्द तो सुनाई पड़े किन्तु मनुष्य दिखे नहीं कोई तो पाँचवें महीने में मारी रोग उत्पन्न होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है। ४४॥ अहबहुसतिधावंति सवदो जुज्जनुपवदंति। रोवा राव कुणंता भूया लोहस्सणासाय॥४५॥ (अहबहुसतिधावंति) जहाँ पर बहुत लोग दौड़ते हो अथवा (सवदोजुज्जनुपवदंति) सभी परस्पर में लड़ते हुए या (रोब राव कुणंता) रोते हुए सुनाई पड़े तो (भूया लोयस्सणासाय) वहाँ पर अवश्य ही नाश होगा। भावार्थ-जहां पर मनुष्यों का अभाव होने पर भी लड़ने के शब्द सुनाई पड़े तो समझो वहाँ अवश्य ही नाश होगा॥४५॥ संझावेलासमये रवयं सिवा चउदशगामपासेसु। कइदिग्गामुपाद रस्थिविणासं संदेहो॥४६॥ (संझावेलासमये स्वयं सिवा) सायंकाल में शुगाल के रोने के शब्द (चउदशगामपासेसु) गाँव के चारों तरफ सुनाई पड़े (कइदिग्गामुपाद) और रात्रि में यह सुनाई पड़े तो (रस्थिविणासंणसंदेहो) राजा का मरण अवश्य होगा। भावार्थ-यदि सांयकाल में शृगाल गाँव के चारों तरफ रोवे तो समझो उस नगर के राजा का मरण होने वाला है।। ४६॥ मज्झण्णेपरचकं संझाए कुणइ रोगवाहि भयं। ससेसुसिवाकाले रोवंति सोहना रत्ती॥४७॥ (मभज्झण्णेपरचक्रं) मध्य रात्रि में शृगाल रोवे तो समझो परचक्र का भय अवश्य होगा, (संझाए कुणइ रोग वाहि भयं) सायंकाल रोवे तो रोग, भय उत्पन्न होगा (सेसेसु सिवाकाले) बाकी समय में भृगाल (रोवंति) रोता है तो (सोहनारत्ती) कुछ नहीं होता है। ___भावार्थ-यदि शृगाल मध्य रात्रि में रोवे तो परचक्र का भय होगा, सांयकाल में रोवे तो भय उत्पन्न होगा, बाकी बचे समय में रोवे तो उसका कुछ भी फल नहीं होता है॥४७॥ -.. .. -..- - - - HIL Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार संदेहो॥४८॥ ५ अनाहवो) दुःख भरे शब्द (जम्मिकम्मि देसम्मि) कि H! देश में सुनाई पड़े तो (तसेजुद्ध भयं होइ घोरें) उस देश में घोर युद्ध होने (णसंदेहो) उसमें कोई सन्देह नहीं हैं। भावार्थ----जिस किसी देश में दुःख से भरे शब्द अचानक होने लगे तो समझो वहाँ पर घोर युद्ध होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है।। ४८॥ अह जत्थ धुवो चलदी चालितो वि णिच्चलो होई। होहइ तस्सविणासो गाम्मस्सय तीहिमासेहि॥४९॥ (अह जत्थधुवो चलदी) जहाँ पर धुन पदार्थ चलने लगे और (चालिज्जतो वि णिच्चलो होई) चलित पदार्थ स्थित हो जाय तो (तस्स) वहाँ पर (तीहिमासेहि) तीन महीने में (गाम्मस्सय होहइ विणासो) गाँवों का विनाश हो जायगा। भावार्थ-जहाँ पर ध्रुव पदार्थ चलने लगे और चलित पदार्थ ध्रुव हो जाय तो समझो वहाँ पर तीन महीने में गाँवों का विनाश हो जायगा। ४९॥ णाणाबइत्तमणा वज्जति ताडिया चउदी। णासं तद्देसगमो वरपुरिसं गाणसंदेहो।।५०॥ (णाणावइत्तमणा वजंति) जहाँ पर बहुत से बाजों के बजने का शब्द सुनाई पड़े (अताडिया चउदी) और चारों तरफ कोई दिखे नहीं तो समझो (णासं तद्देसगमो वरपुरिसंणा) उस देश या उस गाँव का शीघ्र नाश होने वाला (णसंदेहो) इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये। भावार्थ-जहाँ पर बाजे नहीं बजाने पर भी बहुत से बाजों के बजने का शब्द सुनाई पड़े तो उस देश या ग्राम का शीघ्र नाश होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं करना चाहिये।।५०॥ अहिजुत्ताविय सपडा वच्चंति णमुट्ठियाचिवच्छति। वित्तंतिगामधादे भयं च रणो णिवेदेहि॥५१॥ Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ belio lite निमित्त शास्त्रम्: जुत्ताविय सपडा) यदि सर्प गाड़ी को (वच्वंतिणमुट्ठियाचिवच्चंति) खींच गमघादे) लाते दिख रहे हो तो समझो उस ग्राम का घात होगा (भयं ) या युद्ध का भय होगा ऐसा निवदेन किया है। यदि गाड़ी को सर्प खींचकर गाँव की ओर लाते हुए दिखे तो में युद्ध का भय उपस्थित होगा।। ५१॥ है हलोविदीसइणच्चंतो खितमन्झयारम्मि। पर विणासोपरकाऊ संदेहो॥५२॥ मात् (हलो) हल (खितमज्झयाम्मि) खेत के मध्य में (जूवो वता हुआ दिखे तो (होइईणयरविणासो) नगर का नाश होगा और परचक्र का भय होगा। इसमें कोई सन्देह नहीं है। दि अकस्मात् हल खेत के अन्दर खड़ा होकर नाचने लगे तो परचक्र के द्वारा होगा।। ५२॥ उयणीयदि णीयंतो जइपडेदि भूमीए। खइ मारिभयं तग्गामेणथि संदेहो॥५३॥ दिणीयंतो) नाना प्रकार के वृक्ष अगर उखड़ कर अकस्मात् पर गिर पड़े तो (तो अक्खइमारि भयंतागामे) उस ग्राम (णत्थिसंदेहो) उसमें कोई सन्देह नहीं है। कार के वृक्ष यदि अकस्मात् भूमि पर गिर पड़े तो उस , इसमें कोई सन्देह नहीं है ।। ५३ ॥ झे साणारोवंतिणुद्ध तुंडाणं। विणासो परचक्काऊ संदेहो॥ ५४॥ दि शहर के ठीक मध्यमें (HI) . . से होती Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णम्मियदितं राइविणासो भद्रबाहु संहिता विदीसएजत्थ | कंकालज्झइ होहीपर चक्काऊ (णम्मियदितं कंकालज्झइ ) जिस शहर में यदि कंकाल (विदीसएजत्थ) दिशाओं में दिखाई दे तो (राइविणासोहोही परचक्काऊ ) परचक्र के द्वारा राजा का विनाश होगा (णसंदेहो ) इसमें सन्देह नहीं है। भावार्थ जिस शहर में दिशा-विदिशा में कंकाल दिखे तो वहाँ पर परचक्र के द्वारा राजा का विनाश होगा ।। ५५ ।। जत्थ संदेहो ॥ ५५ ॥ ૪ दीसंति । णसंदेहो ।। ५६ ।। अमिगपक्खीगामेणयरेय होईणयरविणासो परचक्काऊ (अमिगपक्खीगामेणयरेय) मांस भक्षी पक्षी जिस ग्राम या नगर के ऊपर ( जत्थ दीसंति) दिखते हैं तो ( परचक्काऊ ) परचक्र के द्वारा (णयरविणासो होई) नगर का विनाश होगा (णसंदेहो ) इसमें सन्देह नहीं हैं। भावार्थ — मांस भक्षी पक्षी के जत्थे के जत्थे जिस ग्राम या नगर के ऊपर उड़ते हुए दिखे तो नगर का विनाश परचक्र के द्वारा अवश्य होगा, ऐसा समझो ॥ ५६ ॥ अहबालाकीलंता मिलियां जइसव्वदेसिघावंति । जुज्झांति पुणोसव्वे तयहवि जुज्झंति णायव्वो ॥ ५७ ॥ (अहबालाकीलंतामिलियां) जहाँ पर बालक खेलते हुए ( जइसव्वदेसिधावंति ) दौड़ते-दौड़ते (जज्झंतिपुणोसव्वे) आपस में लड़ने लगे तो (तय हविजुज्झंतिणायचो) वहाँ अवश्य युद्ध होगा । भावार्थ — जहाँ पर बालक खेलते खेलते आपस में दौड़कर लड़ने लगे तो उस नगर में अवश्य ही युद्ध होगा, ऐसा जानना चाहिये ॥ ५७ ॥ गेहोणि ते कुणतं अग्गी लायंति बहुरमंति । तम्मियगामे अग्गी पंचमदिव (गेहोणि कुणतं अग्गी) यदि बालक गृह से अग्नि ला- लाकर (लायंतिबहुरमंति) संदेहो ॥ ५८ ॥ Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४१ निमित्त शास्त्रम्: बहुत खेलते हो तो (तम्मियगामेअग्गी) उस ग्राम में अग्नि (पंचमदिवहे) पाँचवें दिन लग जाती है। (णसंदेहो ) इसमें सन्देह नहीं हैं। भावार्थ- यदि बालक घर में से अग्नि ला- लाकर खेलते हो तो समझो उस नगर में पाँचवे दिन अग्नि लग जायेगी, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५८ ॥ अहकीलमाणचोरं तवालया सव्वदोय धावंति । तइयम्मि तच्च दिवहे चोरस्स भयं मुणेयव्वं ॥ ५९ ॥ (अहकीलमाणचोरतवालया) यदि बालक खेलते खेलते चोर आया चोर आया ( सव्वदीय धावंति ) ऐसा शब्द करते हुए दौड़ते हों तो (तइयम्मितच्चदिव हे ) तीसरे दिन उस ग्राम में (चोरस्स भयं मुणेयब्वं ) चोर का भय जानना चाहिये । भावार्थ-यदि बालक चोर आया चोर आया ऐसा शब्द करते-करते दौड़ते हों तो समझो, उस गाँव में तीसरे दिन चोर का भय उपस्थित होगा ।। ५९ ।। अहमाणुसीयगाएय हत्थिणी घोडियाय सुणहीणा । पसवंति अब्भदाई देसविणासं णिवेदेति ॥ ६० ॥ ( अहमाणुसीयगाएय) जहाँ पर मनुष्य गाना गावे (हत्थिणी घोडियाय सुणहीणा ) और वहाँ हथिनी या घोड़ी आकर गाना सुनने लगे ( पसवंति अब्भदाई) तथा प्रसव करे तो उस (देसविणासंणिवेदंति) देश का विनाश होगा ऐसा निवेदन करते हैं। भावार्थ- मनुष्यों के गाना गाने पर हथनी या घोड़ी आदि उस गाने को सुने तो समझो उस देश का नाश अवश्य होगा ॥ ६० ॥ अहमाणसीए मालगावी एहायपक्ख एक्केण । छम्मासेणय घोडी वरिसेण य हत्थिर्णी कुणई ॥ ६१ ॥ ( अहमाणसीए) मनुष्य के गाने पर जहाँ (मासगावीएहाय पक्ख एक्केण ) हथनी एक महीने तक गाने सुने, घोड़ी पन्द्रह दिन तक सुने तो ( छम्मासेणयघोडी) छह महीने में घोड़ी (वरिसेणय हत्थिनी कुणई) और एक वर्ष में हथनी देश का नाश करेगी । Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ- - जहाँ मनुष्य गाना गावे वहाँ आकर हथनी या घोड़ी एक महीने या पन्द्रह दिन तक गाना सुने तो उस देश का, हथनी या घोड़ी छह महीने में या एक वर्ष में नाश करेगी ॥ ६१ ॥ सुणहीपणमासेहि जड़पसवइतोवियाणउप्पादं । गामविणासं ए ए छडे मासेयकुर्व्वति ॥ ६२॥ (जइपसवइतोवियाणउप्पाद) यदि प्रसव में वियाण का उत्पादन हो (सुणहीपणमासेहि) और पाँच महीने तक गाना सुने तो (छडेमासे गामविणासं) छह महीने में ही ग्राम का विनाश ( कुव्वंति ) होगा । भावार्थ- यदि दोनों पशु च महीने तक गाना सुनते रहे तो समझो उस देश का छह महीने में नाश हो जायगा || ६२ ॥ जहछेलएहि गीढो मज्जारो । पिक्खिय एयणिमित्तं गावविणासं णिणायव्व ॥ ६३ ॥ कुक्कूरोमूसहि ८४२ ( जहछेलएहि गीढो कुक्कूरो) जहाँ गीदड़, कुर्ते और (मूसएहिमज्जारो ) चूहे, बिल्ली को (पिक्खियएयणिमितं) देखते ही भगा देवे तो उस (गावविणासं णिणायचो) गाँव का विनाश होगा ऐसा समझना चाहिये । भावार्थ -- जहाँ गीदड़, कुत्तें और चूहे बिल्ली को देखते ही भगा देवे तो समझो उस गाँव का विनाश होगा, ऐसा समझना चाहिये ॥ ६३ ॥ जइसुक्खोवियरूक्खो उल्लहमाणोयदीसई गामेवाणयरेवा तत्थ विणासं जत्थ । तिणायव्व ॥ ६४ ॥ ( जइसुक्खोवियरूक्खो ) यदि सूखा वृक्ष होने पर वह ( उल्लहमाणोयदीसई जत्थ) अकस्मात् गिरता हुआ दिखे तो (गामेवाणयरेवात्तत्थ ) ग्राम या नगर का (विणासंतिणायव्वो) विनाश होगा ऐसा जानना चाहिये । भावार्थ — जिस गाँव में सूखा वृक्ष अकस्मात् गिर पड़े तो उस ग्राम या नगर का अवश्य नाश हो जाता है ।। ६४ ॥ 1 } Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त शास्त्रमः गामे वाणयरे वाजरिसइ बहुविहाय वरिसाइ। वसमंसपूय वरिसं तिल्लं सप्पे चणुहिरं बा॥६५॥ (गामे वाणयरे वाजइ) जिस प्रकार ग्राम या नगर में (दिसइ बहुबिहाय वरिसाइ) बहुत प्रकार से जल वर्षा होती है उसी प्रकार (वसमंसपूय बरिसं) चर्बी, मांस, पीप आदि व (तिल्लं सप्पे चणुहिरं वा) तिल्ल, घी आदि की वर्षा होती है। भावार्थ-जैसे उत्पात कारक गाँव या नगर में जल वर्षा होती है, उसी प्रकार मांस, चर्बी, पीप, तेल, घी आदि की वर्षा होती है॥६५॥ मारी हाट्ठीघोरा जत्थेहे एहाति वरिसउप्पाया। तद्देससे वज्जि जहाकालपमाणं वियाणित्ता॥६६॥ (जत्थे हे एहाति वरिस उप्पाया) जिस देश में उपर्युक्त उत्पात कारक वर्षा हो तो वहाँ पर (मार हाही घोरा) मारी रोगादि भयंकर रूप धारण कर होते हैं इसलिये (तद्देसे वज्जिजहा) उस देश को त्याग कर देवे वह भी (कालपमाणवियाणित्ता) कुछ काल प्रमाण छोड़े। भावार्थ-जिस देश में उपर्युक्त उत्पात कारक मांसादिक की वर्षा हो तो उस देश का कुछ काल प्रमाण त्याग कर देवे, नहीं तो मारी रोगादिसे मारा जायगा॥६६॥ मासेऊ मासेणं दो मासे सोणियस्स णायव्वो। विट्ठाए छम्सां विय तिल्लेसत्तरत्तेण॥६७॥ (मासेऊमासेणं) मांस की वषा हो तो एक महीने में (सोणियस्स दो मासेऊणायव्वो) और रक्त की वर्षा हो तो छह महीने में (विय तिल्लेसत्तरत्तेण) घी, तेलादिक की वर्षा हो तो सात दिन में वह फल देगी। भावार्थ-मांस की वर्षा हो तो एक महीने में, रक्त की वर्षा हो तो दो महीने में, विष्टा की वर्षा हो तो छह महीने में, और घी, तेल की वर्षा हो तो सात दिन में फल देगी।।६७॥ परचक्का भवो घोरो मारी वा तत्थ होइ देसम्मि। णयरस्सविणासो वा देशविणासो यणियमेण॥६८॥ Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ८४ (तत्थहोइदेसम्मि) जिस देश में (परचक्क भवो घोरो मारी वा) उपर्युक्त वर्षा हो तो परमात्र का भय, गोर मनी रोग, राजिगासो वा) नगर का नाश वा (देशविणासोयणियमेण) देश का नाश नियम से होगा। भावार्थ-जिस नगर में उपर्युक्त वर्षा होती है, तो वहाँ पर भयंकर मारी रोग होता है, या परचक्र के आक्रमण से नगर या देश का विनाश होगा॥६८।। अण्णह कालेवल्लीफुल्लंती महणुव्व सुरोयाणं। सेठव्वा असदीसइ देशविणासो णसंदेहो।।६९॥ (अण्णहकाले) अकाल में यदि (वल्लीफुल्लंती) लतादि फलती फूलती दिखे (महणुब्ब सुरोयाणं) वा वृक्षों से खून की धारा बहती हुई दिखे (सेठव्वा असदीसइ) तो समझना चाहिये की कुछ ही काल में (देशविणासो णसंदेहो) विश्व का विनाश होगा इसमें कोई सन्देह नहीं है। भावार्थ-अकाल में यदि लतादि फलती-फूलती हुई दिखाई तो समझना चाहिये। कि थोड़े ही दिनों में देश का विनाश होगा, इसमें सन्देह नहीं है।। ६९॥ देवउत्पातयोग तित्थयरछत भंगे रथभंगे पायहत्थसिर भंगे। भामंडलस्स भंगे शरीर भंगे तहच्चेव॥७०।। (तित्थयरछत भंगे) तीर्थंकर का छत्र भंग होने पर (रथभंगे पायहत्थसिर भंगे) रथ का भंग, पाँव-हाथ, सिर भंग, (भामंडलस्स भंगे) आभा मण्डल का भंग (शरीर भंगे) शरीर का भंग होने पर (तहच्चेव) क्या फल होता है उसको कहते हैं। भावार्थ-तीर्थंकर का छत्र भंग, रथ भंग, पाँव-हाथ भंग, आभा मण्डल भंग, शरीर के भंग होने पर क्या फल होता है उसको कहते हैं।७०॥ ए एदेसस्सपुणो चलणेतहणच्चणेय णिग्गमणे। जे हुत्तिय तद्दोसा ते सव्वे कत्तइस्सामि॥७१॥ (ए एदेसस्सपुणो) जिस-जिस देश में पुनः (चलणेतहणच्चणे यणिग्गमणे) प्रतिमा के चलने वा स्थिर प्रतिमा के भंग रूप (जे हुत्तिय तद्दोसा) जो दोष होता है (ते सब्वे कत्तइस्लामि) उन सबको मैं कहने की इच्छा करता हूँ। Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त शास्त्रम्: छत्तस्सपुण्णो होणरवारण भावार्थ - जिस देश में प्रतिमा चलने या स्थिर प्रतिमा भंग हो जाय, तो उसके फल को अब मैं कहता हूँ ॥ ७१ ॥ मंगेण । भंगोणरवड़ भंगोरहस्स छडेमासे पुरविणासो ॥ ७२ ॥ (छत्तस्सपुण्णो भंगो णरवइ भंगो) छत्र भंग होने पर, राजा भंग हो जाता है एवं (रहस्स भंगेण रथ के भंग होने पर (होहइणरवइमरण) राजा का मरण होता है । (छडेमासेपुरविणासो) और छह महीने में नगर का नाश होता है। भावार्थ छत्र के भंग होने पर राजा भंग होता है, रथ के भंग होने पर राजा का मरण होता है, और छह महीने में उस नगर का विनाश होता है ॥ ७२ ॥ मरणांता । मासे ॥ ७३ ॥ भामंडलस्सभंगे णरवरपीडाय होहइ तइए मासे अहवापुण पंचमे (भामंडलस्सभंगे) आभा मण्डल के भंग होने पर ( णरवरपीडाय मरणांत ) राजा को मरण के समान पीड़ा होगी। एवं ( होहइ तइए मासे) तीसरे मास में ( अहवापुणपंचमें मासे) अथवा पाँचवें महीने में उपर्युक्त फल होगा। भावार्थ- - आभा मण्डल के भंग होने पर तीसरे महीने में या पाँचवें महीने में राजा को मरण के समान पीड़ा होगी । ७३ ॥ हत्थत्रपुणो भंगे कुमार मरणं च तइए पायस्पुणो भंगे जनपीडासत्तमे मासेण । मासे ॥ ७४ ॥ ( पुणो हत्यत्तभंगे ) पुनः अगर प्रतिमा का हाथ भंग हो जाय तो ( तइएमासेण कुमार मरणं च ) तीसरे महीने में कुमार का मरण अवश्य होगा और (पायस्सपुणो भंगे) पाँव के भंग होने पर (सत्तमे मासे जनपीडा ) सातवें महीने में प्रजा के लोगों को पीड़ा होगी। भावार्थ — अगर प्रतिमा का हाथ भंग हो जाय तो तीसरे महीने में का मरण होगा, और पाँव के भंग होने पर लोगों को पीड़ा होगी ॥ ७४ ॥ राजकुमार Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ८४६ एकद्देसे चलिए यव्वपयाणे वीयाण पीढ़े। णयरस्स हवइ पीडा णच्चंतो सइयमासेण॥७५॥ (एकद्देसे चलिए रवपया), शदि प्रतिगामी अपने स्थान से चलायमान (वीयाणपीठेइ) हो तो (णयरस्स हवइ पीडा) नगर को पीड़ा (णच्चंतो तइयमासेण) तीन महीने में होगी। भावार्थ-अगर प्रतिमा स्व स्थान से अपने आप चलने लगे तो समझो तीसरे महीने में प्रजा के लोगों को पीड़ा होगी।७५।। गरवइपहाण मरणं सत्तममासेण हवइ सिर भंगे। चउवण्णस्सपुणो जणवइपीडा हवइ घोरा॥७६ ।। (सिर भंगे) यदि प्रतिमाजी का सिर भंग हो जाय तो समझो (सत्तममासेण) सातवें महीने में (णरवइपहाणमरणं हवइ) राजा के प्रधानमन्त्री की मृत्यु होगी भुजा के टूटने से (चउवण्णस्सपुणो जणवइ) चारों वर्गों के लोगों को (घोराहवइपीडा) भयंकर पीड़ा होगी। भावार्थ-यदि प्रतिमा जी का सिर भंग हो जाय तो सातवें महीने में राजा के प्रधानमन्त्री का मरण होगा, भुजा के टूटने पर चारों वर्गों के लोगों को पीड़ा होगी॥७६॥ पडिमा विणिगामेण य रायामरणं च चोरअग्नि भयं । जायद तइएमासे पडिए पुणलक्खइपडणं॥७७॥ (पडिमा विणिगामेणयपडिए) यदि प्रतिमा जी सिंहासन से अपने आप गिर पड़े तो (तइएमासे) तीसरे महीने में (रायामरणं च चोरअग्नि भयं जायइ) राजा का मरण होगा चोर व अग्नि का भय उत्पन्न होगा। भावार्थ-यदि प्रतिमा सिंहासन से स्वतः ही गिर पड़े तो समझो तीसरे महीने में राजा का मरण होगा, और चोर अग्नि का भय उत्पन्न होगा ।। ७७॥ जइपुण ए एसव्वे पक्खभसरेण उप्पाया। जायंति तया खिप्पं दुब्भिक्ख मयं णिवेदंति॥७८।। Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त शास्त्रम्: (जइ) यदि (पुण) पुनः (ए ए सब्वे) ये सब (उप्पाया) उत्पात (पक्खन्भसरेण) पक्ष भर चलते रहे (तया तो (खिप्पंदभिक्ख भयं जायंति) दुर्भिक्ष का भय उत्पन्न होगा (णिवेदंति) ऐसा निवेदन करना चाहिये। भावार्थ-यदि पुन: ये सब उत्पात पन्द्रह दिन तक लगातार चलते रहे तो दुर्भिक्ष नियम से होगा ऐसा निवेदन करे॥७८॥ देवाणच्चंतिजिहंपस्सिजतीय तहय रोवंति। जयधूमंति चलतिय हसति वा विविह रूवेहि।। ७९॥ (देवाणंच्चंति) देव प्रतिमा यदि नाचने लगे (जिहंपस्सिन्जंतीय) जिह्वा निकाले, पसीना छोड़े (तहय रोवंति) और उसी प्रकार रोने लगे (जय घूमंति चलंतिय) प्रतिमा घूमने लगे चलने लगे (वा विविहरूवेहि हंसति) या हैंसती हो अथवा विविध रूप धारण करती हो तो। भावार्थ-यदि प्रतिमा नाचती है, जिह्वा निकालती है, पसीना छोड़ती है एवं उसी प्रकार रोती है, घूमती, है, चलती है, हँसती है, अथवा विविध रूप धारण करती हो तो।। ७९॥ लोयस्सदिति मारी दुभिक्खं तहयराय पीडं च। चित्तं तीहा पावं पुरस्स तहणयररायस्स॥८॥ (लोहस्सदिति) उपर्युक्त निमित्त उत्पात हो तो (मारी दुभिक्खंत हय) मारी रोग, दुर्भिक्ष उसी प्रकार (रायपीडं च) राजा को पीड़ा आदि होती है, (चित्तं तीहापावं पुरस्स) और तीन महीने के अन्दर दुष्काल नगर (तहणयररायस्स) के राजा को कष्ट होगा। भावार्थ-उपर्युक्त निमित्त रूप उत्पात हो तो मारी, दुर्भिक्ष उसी प्रकार राजा को पीड़ा और तीन महीने में दुष्काल पड़ जाता है।। ८० ।। रूइयेण राइमरणं हसियेन पदेसविभमोहोई। चलियेण कंपिएणय संगामो तत्थणायव्यो।। ८१॥ (यदि रूइयेण) प्रतिमा के रोने पर राजा का मरण होगा (हसियेनपदेस विभमोहोई) ---- - - Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ८४८ हैंसने पर विभ्रम होगा सारे प्रदेश में, (चलियेणकपिएणय) चलती हुई देखे वा कपायमान दिखे तो (तत्थ) वहाँ पर (संगामोणायव्यो) संग्राम होगा। भावार्थ-यदि प्रतिमा रोते हुऐ दिखे तो राजा का मरण होगा, हंसने पर सारे प्रदेश में विभ्रम होगा, चलती हुई प्रतिमा दिखे वा कंपायमान दिखे तो वहाँ पर संग्राम होगा ऐसा जानना चाहिये।। ८१॥ पस्सिणे तह वाहीधूमेण य बहुविहाणि एयाणि। बंभाण वियाणासं रूई मुपणासणं कुणइ॥८२।। (तह पस्सिणे) उसी प्रकार प्रतिमा से पसीना (वाही धूमेणय) धूम सहित निकले वा (बहुविहणि ए याणि) इस प्रकार बहुत उत्पात हो तो फल भी बहुत प्रकार के होते है (रूद्दे) और रुद्र की प्रतिमा से ऐसा हो तो (बंभाणवियाणास) ब्राह्मणों का विनाश होगा (मुपणासणं कुणइ) इसी प्रकार के फल को कहते है। भावार्थ-उसी प्रकार प्रतिमा से पसीना, धूमसहित निकले तो वा ऐसे उत्पात और भी प्रकार के निकले तो फल भी बहुत प्रकार के होते हैं, यदि शिव की प्रतिमा से ऐसा होतो समझो शीघ्र ही ब्राह्मणों का विनाश होगा।। ८२।। वणियाणच्च कुबेर खंदोपण भोइये विणासेई। कायच्छाणं विसहो इंदो राइविणासेई ।। ८३॥ (कुबेर वणियाणच्च) कुबेर की प्रतिमा से धूम सहित पसीना निकले तो वैश्यों का नाश (खंदोपुण भोइयेविणासेई) खंदे से पसीना निकले तो भोइयों का नाश, (कायच्छाणविसहो) हाथों से पसीना निकले तो कायस्थों का नाश होगा (इंदोराइं विणासेई) यदि इन्द्र की प्रतिमा से ऐसा हो तो राजा का विनाश होगा। भावार्थ-कुबेर की प्रतिमा से धूम सहित पसीना निकले तो वेश्यों का नाश होता है, खंदे से ऐसा हो तो भोइयों का नाश हाथों से ऐसा हो तो कायस्थों का नाश इन्द्र की प्रतिमा से ऐसा हो तो राजा का नाश होता है॥८३॥ भोगवइण कामोकिण्णोपुणसठ्ठलोपणाणयरे। अरहंत सिद्ध बुद्धा जईणणासंपकुव्वंति॥८४॥ Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त शास्त्रम् (कामो) कामदेव की प्रतिमा में उपर्युक्त चिह्न हो तो (भोगवइण) आगम की बातों की हानि होती है (किण्होपुणसठ्ठलोपणाणयरे) कृष्ण की मूर्ति के अन्दर उपर्युक्त चिह्न हो तो समस्त जाति के मनुष्यों की हानि होती है (अरहंत सिद्ध बुद्धा) और अरहंत, सिद्ध, बुद्ध की प्रतिमा के अन्दर यदि ऐसा हो तो (जईणणासंपकुवंति) यात्रियों एवं मनुष्यों का नाश होगा। भावार्थ-यदि कामदेव की प्रतिमा से धूम सहित पसीना निकाले तो आगम की बातों की हानि होती है, कृष्ण की मूर्ति में से ऐसा होता हुआ दिखाई दे तो समझो सब जाति के मनुष्यों की हानि होती हैं और अरिहंत, सिद्ध, बुद्ध, की प्रतिमा से ऐसा दिखाई देवे तो यात्रियों एवं मनुष्यों का नाश होता है।। ८४ ।। कच्छाइ नझेसियचडियाय पहणंतिसव्वमहिलाणं। उपमालियाय पहणइ बाराही हणइ हत्थीणं ।। ८५॥ (नझेसिय चडियाय कच्छाई) यदि चण्डिका देवी के बालों से ऐसा होता हुआ दिखे तो (सव्वमहिलाणं पहणंति) सब महिलाओं का नाश होता है (बाराहीउपमालियायपहणइ) वाराही देवी की प्रतिमा के बालों से यदि ऐसा दिखाई दे तो (हत्थीणंहणइ) हाथीयों का नाश करती हैं। भावार्थ- यदि चण्डिका देवी के बालों से धुआं निकलते हुऐ दिखे तो समझो स्त्रीयों का नाश होगा, वाराही देवी की प्रतिमा के सिर से ऐसा दिखे तो हाथीयों का नाश होगा ।। ८५॥ णाइणि गभविणासं करेइपठ्ठणाण णासयरो। एदेजेसिय बुत्ताअसुदं कुब्वंति तेसुसया ।। ८६ ॥ (णाइणिगब्भविणासं) यदि नागिन की प्रतिमा से ऐसा होता हआ दिखे तो स्त्रियों के गर्भ का विनाश (करेइपठ्ठणाणणासयरो) और विशेषरीति से ज्ञान का नाश होता है (एदेजेसियबुत्ता) इस प्रकार जो कुछ भी कहा है (तेसुसया असुदं कुवंति) उन सबका फल अशुभ होता है। भावार्थ-यदि नागिन के शरीर से ऐसा चिह्न दिखे तो स्त्रियों के गर्भ का Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता नाश होता है इस प्रकार जो कुछ भी कहा है उन सबका फल अशुभ ही होता है ॥ ८६ ॥ जड़ सिवलिंगं फुट्ठइ अग्गी जालवमुङफुलिंगं । वसतिल्लरूहिरव्या होहइ जो जाण उप्पायं ॥ ८७ ॥ ८५० ( जइसिवलिंगंफुट्ट ) यदि शिवलिंग की प्रतिभा फूटे और ( अग्गीजालवमुफुलिंग) उसमें से अग्नि की ज्वाला उठती हुई दिखे ( वसतिल्लरूहिरव्वाहोहइ ) वा रुधिर की धारा निकलते हुए दिखे तो ( जो जाण उप्पायं ) उसके उपाय को मैं कहता हूँ । भावार्थ — यदि शिवलिंग फूट जाय और उसमें से अग्नि की ज्वाला वा रक्त की धारा निकलते हुऐ दिखे तो उसके फल को मैं कहूँगा ॥ ८७ ॥ फुडिएणयंति भेऊ अग्गी जालेण देशणासोय | वसतिल्ल रूहिर धारा कुणति सेयं ण खदस्स ॥ ८८ ॥ (फुडिएणयंति भेऊ ) अगर शिवलिंग के फूटने से (अग्णी) अग्नि ( जालेणदेशणासोय) की ज्वाला दिखे तो देश का नाश होगा ( वसतिल्लरूहिर धारा ) रुधिर की धारा निकले तो (कुणंतिसेयं णखंदस्स) घर-घर में रोना पड़ेगा । भावार्थ — यदि शिवलिंग के फूटने पर अग्नि की ज्वाला निकलती हुई दिखाई दे तो देश का नाश होगा, और खून की धारा निकलती हुई दिखे तो घर-घर में रोना पड़ेगा ॥ ८८ ॥ मासेति तीइयेहि रूवं दंसंति अपण्णासवे । जइण विकीरह पूया देवाणं भक्ती ए एणं ॥ ८९ ॥ (रूवं दंसंति अप्पणासवे ) इस प्रकार के सब उत्पात दिखने पर (मासेहितीइयेहि ) तीन महीने के अन्दर ( जइणविकीरहपूया) पूजा करनी चाहिये एवं (देवाणभक्ति ए ए) देवों की भक्ति करनी चाहिए। भावार्थ — इस प्रकार के सब उत्पात दिखने पर आचार्य कहते हैं कि तीन महीने में उसकी शान्ति के लिये जिनेन्द्र की पूजा करे ॥ ८९ ॥ 1 ! | Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i i ८५१ भल्लेहिगंध निमित्त शास्त्रम्: धूवेहि पुज्जावलि बहुवियार देवेहि । संति तव्वदेवा सति तत्थंणिवेदेति ॥ ९० ॥ तू ( भल्लेहिगंध धूवेहि ) जलगंध आदि द्रव्यों से (पूज्जावलिबहुवियारं देवेहि) बहुत प्रकार की पूजा करनी चाहिये (तू संति तव्वदेवा सति तत्थ) उससे वे देव तुष्ट होते हैं ऐसा ( णिवेदंति ) निवेदन किया है। भावार्थ — देवों को सन्तुष्ट करने से सारे उत्पात की शान्ति हो जाती है, जल गन्ध अक्षतादि से पूजा करनी चाहिये, उससे देव उपद्रव को शान्त कर देते हैं ॥ ९० ॥ करंति अवमनियाविणासं देवणिच्चंपूया तम्हापुण ( अवमानिया विणासं करंति) देवों का अपमान करने से विनाश होता है ( पूइया अपूएहिं ) अतः उन्हें अपूज्य कभी नहीं रखना चाहिये ( तम्हा) इसलिये ( देवणिच्वंपूया) देव पूजानित्य करना चाहिये (पुणसोहणा भणिया ) इसीमें भलाई पूड़या सोहणा अपूएहिं । भणिया ।। ९१ ॥ भावार्थ — देवों को अपूज्य नहीं रखकर प्रतिदिन उनकी पूजा करनी चाहिये नहीं तो विनाश करते हैं, इसलिये उनकी पूजा प्रतिदिन करे, इसीमें भलाई है ॥ ९१ ॥ णयकुव्वंति विणासं पाय रोये येण दुक्खसंतावं । देवाविआइ विरूधा हवंतिपुर्ण पूइया संत ॥ ९९ ॥ (णयकुब्वंति विणासं) वे देव पूजा करने से विनाश नहीं करते हैं (णय रोये येण दुक्खसंतावं) और दुःख शोक सन्ताप भी नहीं देते है (देवाविआइ विरूधाहवंति ) और विरुद्ध भी नहीं होते हैं (पुणपूइयासंत) इसलिये उनकी पूजा करते रहना चाहिये । भावार्थ- वह देव पूजा करते रहने से सन्तुष्ट रहते है, फिर वह दु:ख, सन्ताप, शोकादिक नहीं देते हैं, विरुद्ध भी नहीं होते हैं। इसलिये उनकी पूजा करते रहना चाहिये ॥ ९२ ॥ Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता - - राजात्पातयोग छत्तोनुज्जलदंतो जड़ पडइ गर वइस्स पासम्मि। अहपंचमम्मि दिवसे पर वड़ णासुत्तिणायव्वो॥९३॥ (छत्तोनुज्जलदंतोजइ) छत्र, चमर, टूट कर यदि (णरवइस्सपासम्मि) राजा के पास (पडई) पड़े तो (अहपंचमम्मिदिवसे) समझो पाँचवें दिन (णरवइणासुत्तिणायव्वो) उस राजा का मरण हो जायगा। भावार्थ यदि छत्र चमर टूटकर राजा के आगे गिरे तो समझो पाँचवें दिन राजा का मरण अवश्य होगा ||९३ ।। अहठणदितूरसक्खा वज्जति अनाहया विकुंदति। अहपंचमम्मि मासेणरवड़ मरणं च णायव्वा ॥१४॥ (अहणंदि तूर सक्खा वजंति) जहाँ पर ढोलक, तूरइ, शंख बजने का (अनाहया विकुंदति) शब्द सुनाई देवे तो (अहपंचसम्मि) समझो पाँचवें (मासे) महीने में (णरवहमरणं च णायव्वा) राजा का मरण होगा। भावार्थ-यदि ढोलक, तुरइ, शंखादिक के शब्द कान में सुनाई पड़े तो समझो पाँचवें महीने में ही राजा का मरण होगा।९४ ॥ चावंमुसली सत्ती स तोणचंताणवर जच्छदीसंति। अहपंचमम्मि मासेणर वहणासुत्तिणायव्वो॥९५॥ (चावंमुसलीसत्ती स तोणच्चंताणवर) यदि भूसे से यक्ष लड़ते हुये दिखाई (जच्छदीसंति) पड़े तो (अहपंचमम्मेि मासे) पाँचवें महीने में (णरवइणात्तिणायब्बो) राजा का मरण होगा ऐसा जानना चाहिये। भावार्थ-यदि भूसे से यक्ष लड़ते हुए दिखे तो समझो, वहाँ के राजा का पाँचवें महीने में अवश्य मरण हो जायगा॥१५॥ कोटणयरस्सदोरदेवल चउप्पहेय रायगिहे। अहत्तो रणेय इंदो णिद्धसणसोहणं णीऊ॥ ९६ ।। Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t ८५३ निमित्त शास्त्रम्: (कोटणयरस्सदोरदेवल) नगर के कोट वा दरवाजे पर या मन्दिर पर (चउप्पहेय रायगिहे ) चौराहे पर राजमहल पर ( अहत्तोरणेयइंदो) यक्ष लड़ते हुए दिखाई पड़े तो ( णिद्धसणसोहणं णीऊ ) उसका फल आगे कहेंगे । भावार्थ -- यदि नगर के कोट, दरवाजे, राजमहल, देव मन्दिर आदि पर यक्ष लड़ते हुए दिखाई पड़े तो समझो नीचे लिखा फल होगा ॥ ९६ ॥ प्रायार बालव हो तोरणमज्झेयगब्भयाऊय । गयसाल अस्स साले कुणड़ वह साहणस्ससया ॥ ९७ ॥ ( पायार बाल वहो ) कोट पर नाचते दिखने पर बाल बच्चों की हानि (तोरणमज्झेयगब्भयाऊय) तोरण के ऊपर नाचते दिखे तो गर्भवती स्त्रियों को हानि होगी, (गयसालअस्ससाले) गऊशाला या अश्वशाला पर नाचते दिखे तो (कुणइवहं साहणस्ससया) समझो साहूकारों को हानि होगी । भावार्थ- -कोट पर नाचते दिखने पर बच्चों की हानि, तोरण पर दिखे तो गर्भवती स्त्रियों को हानि, गोशाला या अश्वशाला पर यदि ऐसा दिखे तो वैश्यों का नाश अवश्य होगा ।। ९७ ।। कुणई । णासंणिवेदेई ॥ ९८ ॥ देवकुलेविप्प भओरायगिहे रायणासणं शक्कथये सुयपडिवो पुरस्स (देवकुलेविप्प भओ) देवमन्दिर पर यक्ष नाचते दिखे तो ब्राह्मणों का नाश होगा (राय रायणासणं कुणई) राजग्रह पर नाचने पर राजा का नाश होगा, (शक्कध्ये सुयपडिवो ) चौराहे पर नाचे तो (पुरस्सणासंणिवेदेई ) नगर का नाश होगा। भावार्थ — देव मन्दिर पर यक्ष नाचते दिखे तो ब्राह्मणों का नाश राजा के महल पर नाचे तो राजा का नाश होगा, चौराहे पर नाचते दिखे तो नगर का नाश होगा ॥ ९८ ॥ आइव्वो जइछिद्दो अह अकवीसेय दीस जो जाणरायमरणं संगामो होई मज्झे । वरिसेण ॥ ९९ ॥ Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता (जइ आइव्वोछिद्दो) यदि सूर्य में छेद दिखे तो (अह अकवीसेय दीसइ मझे) बीसवें दिन के अन्दर (तो जाणरायमरणं) राजा का मरण होगा ऐसा जानो (संगामो होई वरिसेण) और एक वर्ष में युद्ध होगा। भावार्थ-यदि सूर्य में छेद दिखे तो, बीसवें दिन राजा का मरण होगा और एक वर्ष में युद्ध होगा ऐसा जानो।। ९९।।। दिवसे उलूयहिंडति सब्वन वायसउ रयणीसु। अरवंति पपुरविणासं भयं च रणं णिवेदेहि॥१०॥ (दिवसे उलूयहिंडति) यदि दिन में उल्लू घूमते दिखे (सव्वनवायसउ रयणोसु) पाधि में कुने पो हो नि पुरविणा समझो नगर का नाश होगा, (रणं च भयंणिवेदेहि) और युद्ध का भय होगा। भावार्थ-यदि दिन में उल्लू घूमते दिखे वा रात्रि में कुत्तों के रोने का शब्द सुनाई पड़े तो राजा के नगर का नाश होगा और युद्ध का भय होगा॥१००।। इन्द्र धनुष से शुभाशुभ रत्तिम्भिय इंद धणु अइदीसे एसोय सुक्किलभे। सो कुणइ रत्थ भंगे रणस्स वीरोय पीडं च॥१०१॥ (रत्तिम्मियइंदधणु जइदीसे) यदि रात्रि में इन्द्र धनुष दिखे (एसोयसुक्किलभे) वह भी सफेद दिखे तो (रणस्सवीरोयपीडं च) युद्ध में वीर मरेंगे और (रत्थभंगे सो कुणइ) रथ भंग होंगे। भावार्थ-यदि रात्रि में सफेद धनुष दिखे तो समझो युद्ध में रथों का नाश होकर वीर योद्धा जमीन पर लेट जायेंगे॥१०१॥ द्विवहे दीसइ धणुओ पुवेणयदक्खिणेण वामेण। सो कुणइ णीरणासे वायंच व मुंचय बहुयं ॥१०॥ (दिवहे धणुओ) यदि दिन में इन्द्र धनुष (पुल्वेण यदक्खिणेण वामेण) पूर्व में या दक्षिण में या वाम भाग में दिखे तो (सो) वह (णीरणासे कुणइ) पानी का नाश करेगा, (वापंच व मुंचय बहुयं) और जोर से हवा चलायगा। Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त शास्त्रम्: भावार्थ-यदि दिन में इन्द्र धनुष पूर्व या दक्षिण अथवा वाम भाग में दिखे तो पानी का नाश करेगा और बहुत वायु चलेगी ऐसा समझो।। १०२।। पच्छिम भाये पुणओ वरिसं च विमुंचए अइबहूर्य। उत्तर उइवो अहवादीसंतिण सोहणा धण्णू॥१०३॥ यदि इन्द्र धनुष (पच्छिम भायेपुणओ वरिसं) पश्चिम भाग में दिखे तो (च विमुंचए अइबहूय) पानी अच्छा बरसेगा, (उत्तरउइवो अहवादीसंतिण) और उत्तर में दिखे तो (सोहणा धण्णू) शुभ नहीं है। भावार्थ-यदि इन्द्र धनुष पश्चिम भाग में थोड़ा दिखे तो समझो वर्षा अच्छी होगी, और उत्तर की ओर थोड़ा झुका रहे तो शुभ नहीं है अशुभ करेगा॥ १०३ ॥ धणियंणइएवित्ता कन्या कुव्वंति मंडलं णिउ। साहति अग्निदाहं चोर भयं च णिवेदत्ति॥१०४॥ (धणियंणइएवित्ता कन्या) यदि इन्द्र धनुष (मंडल कुव्वंति) मंडलाकार दिखे तो (णिउ) जानो कि (साहंति अग्निदाह) वहाँ पर अग्नि दाह होगा, (चोर भयं च णिवेदत्ति) और चोर भय भी होगा ऐसा निवेदन करे। भावार्थ यदि इन्द्र धनुष मण्डलाकार दिखे तो अग्निदाह, और चोर भय होगा ऐसा जानो।। १०४॥ इंद१ वणेय पुणोजे दोसा हंति णयरमज्जम्मि। ते हुंति परिदस्स दुवारिसदिणमंतरेणियदं॥१०५॥ (इंदुट्टवणेयपुणोजे दोसाहुति) जो इन्द्र धनुष के दोष होते हैं (णयरमज्जम्मिहुंति) जिस नगर में उसी नगर में उसका फल होता है (ते हुंतिणरिदस्सदु) उसी राज्य में दो (वारिदिणभंतरेणियद) वर्ष में उसका फल होगा। भावार्थ-जो इन्द्र धनुष का दोष जिस नगर में वा जिस राज्य में दिखे तो समझो उसका फल उसी देश वा राज्य में होगा ॥ १०५।। उटुंतो जइकंपड़ परिधो लभऊ बलययाण मई। ते जाणई बलसोहं रजब्म संचरणस्सं ॥१६॥ (उर्छतो जइकंपइ परिधो) यदि इन्द्र धनुष उठता हुआ कांपे वा लम्बा होता Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ८५६ हुआ (लभऊ बलययाणमई) चौड़ा होता हुआ दिखे (तो) तो (जाणई) जानो कि (बलसोहं रजन्भसंचरणस्स) वहाँ पर राज्य भय अवश्य होगा। भावार्थ-यदि इन्द्र धनुष लम्बा, चौड़ा होता हुआ आकाश में उठते समय दिखाई पड़े तो, समझो वहाँ पर राज्य भय अवश्य होगा ।। १०६।। इंदोकिलविणासं मंत्तिविरूद्धो दुपरियणे होई। उठ्ते पुणपडइयणर वइपडणं णिवेदेई॥१०७॥ (इंदोविलाविणासंघव मामिला होनाशिक गड़े तो (मंत्तिविरूद्धोदुपरियणे होई) मन्त्री और राजा में विरोध हो जाता है (उठ्तेपुणपडइ) उठकर पुन: गिर पड़े (णरवइपडणं णिवेदेई) तो राजा का राज्य भंग होगा। भावार्थ-यदि इन्द्र धनुष खड़ा होकर गिर पड़े तो मन्त्री और राजा में वैमनस्य होता है। इन्द्र धनुष उठता हुआ गिर पड़े तो समझो राजा का राज्य भंग होगा॥१०७॥ भंगेणरवइ भंग फुणियेण रोयपाडिऊं होई। पावग्गहस्स नुगहिए उठ्तो कुणइ संगामं॥१०८॥ यदि इन्द्र धनुष (भंगेणरवइ भंग) भंग होता हुआ दिखे तो राजा की मृत्यु होगी, (फुणियेणरोयपाडिऊ होइ) बिखरता दिखे तो रोग फैलेगा, (पावणहस्सनुगहिएउठ्तो) उठती हुई में अग्नि निकलती दिखे तो (संगामं कुणइ) युद्ध करावेगा। भावार्थ-इन्द्र धनुष यदि टूटता हुआ दिखे तो राजा की मृत्यु होगी, बिखरता हुआ दिखे तो रोग फैलेगा, अग्नि निकलती हुई दिखे तो युद्ध करायेगा ।। १०८।। जइमुचइ धूमं वा अग्निजालं चणुष्ट्रिओ संतो।। तो कुणइ राइमरणं देशविणासंपुणोपच्छा ॥१०९॥ यदि इन्द्र धनुष (जइमुंचइ धूमं वा अग्निजालं) धूम वा अग्नि जाल निकाले एवं (चणुठ्ठिओ संतो) उठता हुआ दिखे तो (तो कुणइ राइमरणं) राजा का मरण करता है (देशविणासंपुणोपच्छा) और देश का विनाश करता है। Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५७ निमित्त शास्त्रम्ः | भावार्थ-यदि इन्द्र धनुष अग्नि की ज्वाला सहित धूम छोड़े तो राजा का मरण करेगा और देश का विनाश कराता है।। १०९॥ वेटिज्जइ एहिज्जइ महुजालेहिं किडएहिं वा। तो जाणमारि घोरा जणसरोगं च दुःभिक्खं ॥११०॥ (वेठिज्ज एहिज्जमहुजालेहिं) यदि इन्द्र धनुष मधुमक्खी के छत्ते के समान नगर में वेष्टित कर देवे (किडएहिं वा) एवं क्रीड़ा करता हुआ दिखे तो (तो जाणमारि घोरा) भयंकर मारी रोग होगा, (जणसरोगं च दुःभिक्खं) वा दुर्भिक्ष होगा। भावार्थ-यदि इन्द्र धनुष मधुमक्खी के छत्ते के समान नगर को वेष्टित करे तो भयंकर मारी रोग होता है वा दुर्भिक्ष होगा ।। ११०॥ इंद द्वयमारूढो रिठोज्जइ कुणइबहुविहारावं। अक्खइ सो पुरभंगं च णोय मेणा...... ॥१११ ॥ (इंदद्वयमारूढो रिठोज्जइ) यदि इन्द्र धनुष एक के ऊपर एक दिखे और (कुणइ बहुविहारावं) बहुत रूप वाला दिखे तो (अक्खइसोपुरभंग) नगर का नाश एवं (च णो य मेणा.....) मनुष्यों का नाश होगा। भावार्थ-यदि इन्द्र धनुष एक के ऊपर एक दिखे एवं बहुत रूप वाला दिखे तो नगर व मनुष्यों का नाश करेगा ॥१११।। एदेपुण उप्पादासव्वे णासंतिवरिसदे संति। पंचदिणभंतरदो अहवा पुण सत्तरत्तेण ॥११२॥ (एदेपुण उप्पादा सब्वेणासंति) इस प्रकार इन्द्र धनुष के उत्पात सबका नाश करते हैं (वरिसदेसंति) एक वर्ष में या (पंचदिणभंतरदो) पाँच दिन के बाद (अहवापुणसत्तरत्तेण) अथवा सात रात्रि में इसका फल हो जाता है। भावार्थ- इस प्रकार इन्द्र धनुष के उत्पात सबका नाश करते है, और वह एक वर्ष या पाँच दिन या सात रात्रि में फल देते हैं॥११२॥ Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ८५८ यदि सोमोणि सुदो उठुदिणुप्पादवज्जिदो संतो। रपणेपुरा सहोहदि खेमशीवं तम्मिदेसम्मि॥११३॥ यदि (सोमोणिसुदोउदि) ये उठने वाले (णुप्पादवज्जिदोसंतो) इन्द्र धनुष के उत्पात साथ दिखे तो (तम्भिदेसम्मि) उस देश एवं (रण्णेपुरासहोहदि खेमशीव) नगर में क्षेम कुशल होता है। ___भावार्थ-यदि इन्द्र धनुष शान्त दिखे तो समझो उस देश में या नगर में क्षेमकुशल होता है।। ११३।। अहउत्तमेहिणीया वमाणिया सोहणंति णायव्वं । अहमेल्लि नुत्तमापुण देसविणासं परिकर्हति ॥११४॥ (अहउत्तमेहिणीया व माणिया) इस प्रकार उत्तम पुरुष निमित्तों को (सोहणंतिणायव्वं) जानकर शोभा पाते हैं (अहमेल्लिनुत्तमापुण) और उन निमित्तों के फल को (देशविणासं परिकहंति) देश विनाश रूप कहते हैं। भावार्थ-जो उत्तम पुरुष होते हैं वह निमित्तों को जानकर उसके फल को देश-विनाश रूप कहते हैं॥११४ ।। जइबाला हिडता भिक्खं देहिंतिमुकुरावित्ता। दुभिक्ख भयं होहइ तद्देसे पत्थि संदेहो।। ११५॥ (जइबालाहिडंताब्भिक्खं) जहाँ पर बालक चलते हुए भिक्षाको (देहिंति मुकुरावित्ता) दे ऐसा मुँह से उच्चारण करे तो (दुभिक्खभय होइइ) दुर्भिक्ष का भय होगा (तद्देसे) उस देश में, (पत्थिसंदेहो) इसमें कोई सन्देह नहीं है। भावार्थ-जहाँ पर बालक चलते-चलते भिक्षा दो ऐसा कहे तो उस देश में निश्चित दुर्भिक्ष पड़ेगा ।। ११५॥ उल्का वर्णन पुव्वेउत्तरमुण्णानुक्का याजत्थ दीसइथपड़ा। तत्थविणासो होहड़ गामे णयरे णसंदेहो ॥११६ ।। - - Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५९ निमित्त शास्त्रम्: (या जत्थदीसइथपड़ा पुग्वे उत्तरमुण्णानुक्का) यदि पूर्व या उत्तर दिशा में उल्का दिखे तो (तत्थविणासोहोहइ गामे) उस गाँव में विनाश होगा (णयरे) नगर में नाश होगा (णसंदेहो) इसमें कोई सन्देह नहीं हैं। भावार्थ यदि पूर्व या उत्तर दिशा की ओर उल्कापात दिखाई पड़े तो समझो उस नगर का या देश का नाश होगा॥११६॥ उक्कायस्थ जलंती मासे मासे सुसव्व कालेसु। छम्मासं पडमाणं तत्थोपाणिवेदेई ॥११७॥ (यत्थउच्छाजलंती) यदि जलती हुई उल्का (मासे मासे सुसव्वकालेसु) महीने-महीने के सर्वकाल में (छम्मासं पडमाणं) छह महीने या प्रथम मास में दिखे तो (तत्थोपाणंणिवेदेई) उस उत्पात का फल देश के मनुष्यों का मरण होगा। भावार्थ- यदि जलती हुई उल्का छह महीने तक वा महीने के प्रति मास में दिखे तो उसका फल मनुष्यों का मरण होगा ऐसा निवेदन करे ॥ ११७॥ सुक्किदवाधूमाभा जइ वाणिच्चाइ धूसराउक्का। पडमागो दिसिज्झाणं हम्भित्तं जाण उप्पादं॥११८॥ (जइ) यदि (सुक्किदवाधूमाभा) सफेद रंग की धूमवर्ण से (धूसराउक्कावाणिच्चाइ) धूसरित उल्का दिखाई पड़ें तो समझों (षडमाणेदिसिज्झाणं) वह बड़ी भारी उल्का (हम्मित्तं जाण उप्पाद) है और फल भी उसका भारी ही होगा। भावार्थ-यदि सफेद उल्का धूएँ से धूसरित दिखाई पड़े तो समझो वह उल्का बड़ी भारी है और जैसा है वैसा ही फल देगी ।। ११८॥ सुक्का हणेइविप्पारत्तापुण खत्तईविणासेई। पीया हणेइ वइसेकिण्हापुण सुद्दणासयरी॥११९ ॥ (सुक्का हणेइविप्पा) सफेद उल्का ब्राह्मणों का नाश करती है (रत्तापुणखत्तइंविणासेई) लाल उल्का क्षत्रियों का नाश करती है (पीया हणेइ वइसे) पीली उल्का वैश्यों का नाश करती है (किण्हापुणसुद्दणासयरी) काली उल्का शूद्रों का नाश करती है। Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ८६० भावार्थ-सफेद उल्का ब्राह्मणों का नाश करती है, लाल उल्का क्षत्रियों का नाश करती है, पीली उल्का वैश्यों का नाश करती है, काली उल्का शूद्रों का नाश करती है।।११९।। चित्तलपंतिल्लाणं वाहिं मारि च ताण कोवेइ। सामासम्मिपडंति सोहण उक्वाणवेराई॥१२०॥ (चित्तलयंतिल्लाणं) यदि चितकबरी उल्का दिखे तो (वाहिंमारिं च ताणकोवेइ) मारी रोग करती है (सामासम्मेिपडंतिसोहण) इधर-उधर से टकराती हुई उल्का (उक्काणवेराई) प्राण नाश करती है। ___ भावार्थ-यदि चितकबरी उल्का दिखे तो मारी रोग वा टकराती हुई उल्का प्राण नाश करती है।। ११ मज्झाणिएसंज्झाए वायग्गिभयं णिवेइपड़ती। अह अण्णवेलदिट्ठा उक्का रणस्सणासयरा ॥१२१ ।। (मझणिएसंज्झाए) यदि उल्का मध्य रात्रि वा सन्ध्या समय में (वायग्गिभयंणिवेई पड़ती) दिखे तो अग्नि का भय निवेदन करना चाहिये (अहअण्णवेलदिवाउक्का) सूर्योदय की पहली उल्का (रणसस्सणासयरा) राजा का युद्ध में मरण करती है। भावार्थ-मध्यरात्रि वा सन्ध्या समय में दिखने वाली उल्का अग्नि भय करती है, सूर्योदय की पहली उल्का राजा का युद्ध में मरण करती है।। १२१ ।। पडमाणीणिद्दिट्ठा धुव सुवण्णस्स णासिणी उका। अंगायेण जुत्ता अग्गीदाई णिवेदेई॥१२२॥ (पडमाणीणिद्दिट्ठा) यदि पड़ती हुई उल्का दिखाई पड़े तो (घुव सुवण्णस्सणासिणी उका) निश्चय से सुवर्ण का नाश करती है (अंगारायणजुत्ता) अंगारे के समान यदि उल्का गिरती हुई दिखे तो (अग्गीदाइंणिवेदेई) अग्नि दाह होगा, ऐसा निवेदन करना चाहिये। Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त शास्त्रम्: भावार्थ-जो उल्का आकाश में पड़ती हुई दिखे तो सुवर्ण का नाश करती है, और अंगारे के समान गिरती हुई दिखे तो अग्नि दाह करती है॥१२२॥ आहसुक्केणयजुत्ता जम्हाजइपडइ कहव पलजंती। तोरणमंडविणासं कच्छुकण्डुच्च साणिवेएई ।। १२३ ।। (अहसुक्केणयजुत्ता जुम्हाजइ) यदि शुक्रोदय में उल्का (पडइ कहव पलजंती) पड़ती हुई दिखाई दे तो (तोरणमंडविणासं) तोरण, मण्डप आदि का विनाश होगा, (कच्छु कण्डुच्चसाणिवेएई) और खुजली आदि का रोग उत्पन्न होगा। भावार्थ-यदि शुक्रोदय में उल्का पड़ती हुई दिखाई दे तो तोरण मण्डप आदि का विनाश होगा, खुजली आदि का रोग होगा ।। १२३ ॥ .............। राहूण विसय धादं जलणासयरहिवे उक्का॥१२४॥ (राहूणविय धादं) राहू के उदय में यदि उल्का दिखे तो (जलणासयराहिवे उच्चा) वह उल्का जल का नाश करेगी। भावार्थ-यदि राहू के उदय में उल्का दिखे तो वह उल्का जल का नाश करती है।।१२४॥ परकम्मि जस्सपडिया तस्सघोरा हवेइ पुण्णाणी। इदंदिसए सुपडिया खेम सुभिक्खंणिवेदेहि ।।१२५॥ (परकम्मि जस्सपडिया) पश्चिम दिशा की उल्का (तस्स घोरा हवेइ पुण्णाणी) उस दिशा में घोर पीड़ा करती है (इदंदिसए सुपडिया) और उत्तर दिशा की उल्का (खेमुभिक्खंणिवेदेहि) क्षेमकुशल और सुभिक्ष करती है, ऐसा निवेदन करना चाहिये। भावार्थ-पश्चिम दिशा की उल्का घोर पीड़ा उत्पन्न करती है, उत्तर दिशा में यदि उल्का दिखाई पड़े तो क्षेम, कुशल, सुभिक्ष का कारण होती है॥ १२५॥ अग्गेई अग्निभयं जम्माए एण सोसयं जणणी। अहणरइये पड़िया दव्वविणासं णिवेदेहि ।।१२६॥ Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता (अग्गेई अग्गिभयं) अग्नि कोण में उल्का गिरे तो अग्नि भय उत्पन्न करती है ( जम्माएणसोसयं जणणी) दक्षिण में उल्का पड़ती हुई दिखे तो सन्ताप उत्पन्न करती है (अहणरइये पडिया) नैर्ऋत्य कोण में दिखे तो ( दव्वविणासंणिवेदेहि) द्रव्य का नाश करती है। भावार्थ यदि अग्नि कोण में उल्का गिरे तो अग्नि भय उत्पन्न करती है, दक्षिण में गिरे तो सन्ताप उत्पन्न करती है, नैर्ऋत्य कोण में दिखे तो द्रव्य का नाश करती है ॥ १२६ ॥ अहवारूणीय पडिया वरिसं वायं च बहूणिवेएई । वायव्वे शेयभयं सोभापुसो तयाहोई ।। १२७ ॥ ८६२ ( अहवारूणीयपडिया) यदि वरुण दिशा की उल्का दिखे तो ( वरिसं वायं च बहूणिवेएई) वायु के साथ बहुत वर्षा होती है ( वायव्वेरोय भयं ) वायव्वदिशा की उल्का रोग भय करती है (सोभापुणसो तयाहोई) किन्तु इस दिशा की उल्का शुभ भी होती है। भावार्थ — यदि वरुण दिशा की उल्का दिखे तो वायु के साथ बहुत वर्षा होती है। वायव्यदिशा की उल्का रोग भय उत्पन्न करती है, किन्तु शुभ भी होती है ॥ १२७ ॥ ईसाणाए पडिया घादंगब्भस्स कुणइ महिलाणं । दित्तदिसासुयपडिया भय जणणी दारूणीउक्का ॥ १२८ ॥ (ईसाणाए पडिया) ईशान कोण में दिखने वाली उल्का (महिलाणं गब्भस्सघादं कुणइ ) महिलाओं के गर्भ का नाश करती है ( दित्तदिसासुयपडिया) पूर्व में दिखे तो ( उक्का) उल्का ( भयजणणी दारूणी) भय को उत्पन्न करती है। भावार्थ — ईशान कोण में दिखने वाली उल्का महिलाओं के गर्भ का नाश करती है, पूर्व में दिखे तो उल्का भयंकर भय को उत्पन्न करती है ॥ १२८ ॥ सूरम्मि तावयंती पुहवी तावेइणिवणियाणुक्का । सोमेपुण सोममुह खेमसुभिक्खकरीउक्का ॥ १२९ ॥ ( सूरम्मि तावयंतीपुहवी ) रविवार को दिखने वाली (तावेइणिवणियाणुक्का) Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त शास्त्रमः उल्का गर्भ सम्बन्धी रोग करती है। (सोमेपुणसोममुह) सोमवार को दिखने वाली उल्का (खेमसुभिक्षक्खंकरी उक्का) क्षेम सुभिक्ष करने वाली होती है। भावार्थ-रविवार को दिखने वाली उल्का गर्मी से पीड़ा उत्पन्न करती है, सोमवार को पड़ने वाली उल्का क्षेम सुभिक्ष करती है।। १२९ ॥ जस्सयरिक्खे पडिया तस्सेवय सोहणं बहू कुणई। अण्णसवि कुणई भयं थोवं थोवं णसंदेहो॥१३०॥ (जस्सयरिक्खेपडिया) जहाँ से उल्का उठी हो (तस्सेवयसोहणं बहू कुणई) अगर वहाँ ही वापस चली जावे तो अच्छा (अण्णसवि) है अन्यथा (थोवं थोवं भयं कुणई) थोड़ा-थोड़ा भय अवश्य करेगा {णसंदेहो) इसमें कोई सन्देह नहीं है। भावार्थ-जहाँ से उल्का उठी हो अगर वह वहाँ पर ही वापस लौट कर चली जावे तो अच्छा है अन्यथा थोड़ा-थोड़ा भय अवश्य करेगी॥ १३०॥ कित्तिय रोहिणि मज्झेपडमाणी कुणइ पुहइ संतावं । डहइय पुरगामाई रायगिहणत्थि संदेहो।।१३१।। (कित्तिय रोहिणिमझे) यदि कृत्तिका और रोहिणी नक्षत्र के अन्दर (पडमाणी कुणइ पुहइ संताचं) यदि उल्का गिरे तो (पुरगामाईरायगिह डहइय) पुर, नगर, ग्राम और राजमहल गिर पड़ेगा (णत्थिसंदेहो) इसमें कोई सन्देह नहीं है। भावार्थ-यदि कृत्तिका और रोहिणी नक्षत्र में यदि उल्का पड़े तो समझो राजा का ग्रह, ग्राम, नगर आदि सब नष्ट हो जायगा॥१३१ ।। चोरालुपंति महीराय कुलापयाचि लुप्पया होति। विलयंतिपुत्तदारा पाप विणस्सते तथसव्वं ॥१३२॥ यदि उपर्युक्त नक्षत्रों में उल्का गिरे तो (चोरा लुपंति मही) चोरों से पृथ्वी भर जायगी, (रायकुलापयाचि लुप्पया होति) राजकुलों का भी लोप हो जायेगा, (विलयंतिपुत्तदारा) पुत्र, स्त्री का भी लोप हो जायेगा, (पापविणस्सते तथा सव) तथा सब जगह पाप ही पाप छा जायेगा। भावार्थ-यदि उपर्युक्त नक्षत्रों में उल्का गिरे तो समझो चोर का भय हो Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ८६४ जायेगा, राजकुलों का भी लोप होगा, पुत्र, स्त्री का भी लोप हो जायेगा और भूमि पर पाप ही पाप बढ़ जायेगा॥३२॥ इंदो वरसइमंदं सस्साणविणासणो हवड़ लोए। इयंप्पापणिमित्तं जाणेयत्वं च पयत्तेण ॥१३३॥ (इंदो वरसइ मंद) वर्षा बहुत थोड़ी होगी (लोए) लोक में (सस्साणविणासणोहवइ) धान्यों का नाश होगा (इयनुप्पाप णिमित्तं) इस प्रकार की उल्का से (जाणेयध्वं च पयत्तेण) सब नाश ही नाश जानना चाहिये। भावार्थ-वर्षा बहुत थोड़ी होगी, लोक में सब प्रकार के धान्यों का नाश हो जायेगा, चारों तरफ से जन-धन की हानि होगी॥१३३ ॥ गन्धर्वनगर का फल पुवदिस्सम्मिय भाए दीसदि गंधव्व सण्णिहोणयरो। पश्चिम देश विणासो होहइ तत्थेव णायन्वो॥१३४॥ (पुवदिस्सम्मिय भाए) यदि पूर्व दिशा में (दीसदिगंधव्व सण्णिहोणयरो) गन्धर्व नगर दिखाई दे तो (पश्चिमदेश विणासो होहइ) समझो पश्चिमी देशों का नाश हो जायेगा, (तत्थेवणायव्वो) ऐसा जानना चाहिये। भावार्थ यदि पूर्व दिशा में गन्धर्व नगर दिखे तो पश्चिमी देश का नाश होगा ऐसा जानना चाहिये॥१३४ ।। दक्खिणदिसम्मेिदिट्ठो रायाण विणासणो हवेणियो। अहपश्चिमेण दीसद हणइपुण पुव्वदेसोई॥१३५॥ (दक्खिणदिसम्मिदिहो) यदि गन्र्धव नगर दक्षिण दिशा में दिखे तो (रायाणविणासणी हवेणियरे) निकट में ही राजा का नाश होगा। (अहपश्चिमेणदीसइ) यदि पश्चिम दिशा में दिखे तो (हणपुण पुब्बदेसोई) पूर्व देश का नाश होता है। ___ भावार्थ-यदि गन्र्धव नगर दक्षिण दिशा में दिखे तो शीघ्र ही राजा का नाश होता है पश्चिम में दिखे तो पूर्व देश का नाश होगा॥१३५ ।। Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + 1 1 ८६५ निमित्त शास्त्रम्: शुत्तरणुत्तरियाणं णयराण विणासणो हेमंते रोय भयं वसंत मासे ( णुत्तरणुत्तरियाणं णयराण) उत्तर दिशा की ओर उठा हुआ गन्र्धव नगर उत्तर दिशा के नगरों का (विणासणी हवइदिट्ठो) विनाश करेगा ऐसा समझो (हेमंतेरोय भयं ) हेमन्त ऋतु में गन्र्धव नगर दिखे तो रोग भय उत्पन्न होगा, और (वसंतमासे सुभिक्खयरे) वसंत ऋतु का गन्र्धव नगर सुभिक्ष करता है। भावार्थ-उत्तर दिशा में यदि गन्र्धव नगर दिखे तो उसी दिशा के नगरों का नाश होगा, हेमन्त ऋतु में गन्र्धव नगर दिखे तो रोग भय उत्पन्न होगा, वसन्त ऋतु में दिखे तो सुभिक्ष होगा, ऐसा कहते हैं ॥ १३६ ॥ गीम्बेण णयरघादी पाउसकाले वरिसामय दुब्भिक्खं सरपुणवहि हवइदिट्ठो । सुभिक्खयरे ।। १३६ ।। रिजकालमऊ मज्झरायाणं असोइणोदिट्टो । पीडयरो ॥ १३७ ॥ ( गीम्बेण णयर घादी ) ग्रीष्म काल में हो तो नगर का नाश होगा ( पाउसकाले असोइणोदिडो) यदि वर्षा के समय ऐसा दिखे तो ( वरिसामय दुब्भिक्खं) वर्षा का नाश होगा, दुर्भिक्ष होगा ( सरएपुणवहिपीडयरो) शरद ऋतु में गन्र्धव नगर दिखे तो मनुष्यों का नाश होगा | वर्षा भावार्थ- ग्रीष्मकाल में गन्र्धव नगर दिखे तो नगर का नाश होगा, में ऐसा दिखे तो वर्षा का नाश होगा, दुर्भिक्ष होगा, शरद ऋतु में दिखे तो मनुष्यों का नाश होगा ॥ १३७ ॥ ऐसो रयक्खयहिंडमाणणूवस्स । छम्मासै सो विणासेई ॥ १३८ ॥ (रिउकाल मऊ एसो रक्खयहिंडमाणणूवस्स) अन्य ऋतुओं में गन्र्धव नगर यदि दिखलाई पड़े तो ( छम्मासै मज्झणेरायाणं ) छह महीने के अन्दर राजा का (सोविणासेई) वह नाश करता है। भावार्थ — यदि अन्य ऋतुओं में गन्र्धव नगर दिखाई पड़े तो समझो, छह महीने में राजा का विनाश होगा ॥ १३८ ॥ Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | ८६६ तद्देसेसोणासदि जत्थपहिडंति दीसए राई। पच्चूसे चोर भयं णरवड़णासं च पुण एहं ॥१३९॥ (जत्थ) जिस (तसे) देश में (राई) रात्रि के अन्दर (पहिडंतिदीसए) गन्धर्व नगर दिखे तो समझो उस देश का (सोणासदि) वह नाश करेगा (पञ्चूसे चोर भयं) कुछ रात्रि बचने पर गन्र्धव नगर दिखाई पड़े तो चोर भय होगा व (णरवइणासं च पुण एह) राजा का नाश होगा। भावार्थ-जिस देश में रात्रि के अन्दर गन्र्धव नगर दिखाई पड़े तो उस देश का नाश होगा, रात्रि के पिछले प्रहर में दिखलाई पड़े तो चोर भय और राजा का नाश होता है।। १३९ ॥ अणकालम्मिदिढे सुभिक्खय रोग उहदेसयरो। जइमं वण्णइ दीसए हणऊ अणेयायविसयाइ॥१४०॥ (अणकालम्मिदिहे) यदि अन्य काल में गर्धव नगर दिखे तो (सुभिक्खय रोग उहदेसयरो) सुभिक्ष होगा, और रोग का नाश होगा (जइमंवण्णइदीसए) जो ऊपर बतला कर आये उस काल को छोड़कर दिखे तो (हणऊ अणेयाय विसयाइ) ऐसा फल होता है, सो जानो। भावार्थ-ऊपर बतलाकर आये काल को छोड़ कर अन्य काल में गन्र्धव नगर दिखे तो सुभिक्ष होगा, एवं रोग का नाश करेगा॥१४० ।। नाना वर्ण गन्र्धव नगर का फल चितलवो भय जणणो सामारोयस्स संभवा होई। घियतिल्ल खीर घादी सुक्किल ऊहोयलोयस्स ॥१४१ ।। (चितलवो भय जणणो) पंचरंगा गन्र्धव नगर दिखे तो भय को उत्पन्न करेगा, (सामारोयस्सस संभवा होई) नगर भय वा रोग भय होगा, (घियतिल्लखीर घादी) घी या तेल व दूध का नाश (सुक्किल ऊहोयलोयस्स) सफेद गन्र्धव नगर के दिखाई पड़ने पर होता है। भावार्थ—यदि पचरंगा गन्र्धव नगर दिखाई पड़े तो नगर को रोग भय होगा Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६७ निमित्त शास्त्रम्: और अगर सफेद रंग का गन्र्धव नगर दिखे तो समझो घी, तेल, दूध का नाश करता है।। १४१॥ किण्हो वच्छविणासो रत्तोपुण उदयणासणो भणिओ। अइकालरत्तवण्णो दीसंत असोहणो णयरो।। १४२ ॥ (किण्हो वच्छविणासो) काले रंग का गन्र्धव नगर वस्त्र का नाश करता है (रत्तोपुण उदयणासणो भणिओ) लालरंग का गन्र्धव नगर उदय का नाश करता है (अइकाल रत्तवण्णो दीसंत) एवं लाल वर्ण का गर्भात नागर, देर तक दिखाई दे तो (असोहणोणयरो) अशोभनीय हैं। भावार्थ-यदि काले रंग का गधव नगर दिखे तो समझो वस्त्र का नाश करेगा, लाल रंग का गन्र्धव नगर उदय का नाश करता है, एवं लाल रंग का गन्र्धव नगर देर तक दिखाई पड़े तो अशोभनीय है। १४२॥ ए ए दरसण णूवा णयरी असुहावहां मुणेयब्वा। जम्भिदिसेदीसिज्जा तम्मेिदि तत्तु णायव्वा ॥१४३॥ (ए ए दरसण णूवा णयरी) जहाँ-जहाँ यह गन्र्धव नगर दिखे (असुहावहां मुणेयव्वा) वहाँ अशुभ होता है ऐसा जानना चाहिये। (जम्मिदिसेदीसिज्जा) जिस दिशा में दिखे (तम्मिदिसे तत्तु णायव्वा) उसी दिशा में उसका फल होगा। भावार्थ-जहाँ-जहाँ और जिस-जिस दिशा में या नगर में ये गन्र्धव नगर दिखते हैं उसी-उसी दिशा में या नगर में उसका अशुभ फल होता है।। १४३ ।। अहरिक्खमज्झ वच्चहछायंतो तारयाणिबहयाणि। सो मादेशणासं कुणइ पुणोणत्थिसंदेहो॥१४४॥ (अहरिक्खमज्झवच्च) वह गर्धव नगर तारों के मध्य (छायंतो तारयाणि बहूयाणि) छाया हुआ दिखाई पड़े तो (सोपुणोमज्झदेशणासं कुणइ) समझो मध्य देश का नाश करेगा, (णत्थिसंदेहो) इसमें कोई सन्देह नहीं हैं। भावार्थ-यदि वह गन्र्धव नगर तारा के बीच में छाया हुआ दिखाई पड़े तो समझो मध्य देश का नाश करेगा इसमें कोई सन्देह नहीं हैं॥१४४ ॥ Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता एयंतेणउवच्चड़ एयंत विणाउ हवड़ दिह्रो। यच्चतद्देसणासं वाही मरणं च दुभिक्खं ॥१४५॥ (एयंतेण उवच्चइ एयंत विणाउहवइ दिठो) गन्र्धव नगर जितनी दूर तक फैला हुआ दिखाई दे (यच्चत इसणासं) तो वह उतने देश का नाश करता है (वाही मरणं च दुभिक्ख) तथा रोग और मरण करता है। भावार्थ-गन्र्धव नगर जितनी दूर तक दिखाई दे तो वहाँ उतने प्रदेश का नाश होता है तथा रोग या लोगों का मरण होता है।। १४५॥ इंदपुरणपर सहिऊ दीसइ जड़ पुक्खरोयहिडतो। चिंतेइ देशनासं वाही मरणं च दुब्भिक्खं ॥१४६ ॥ (इंदपुरणयरसहिऊ दीसइ) यदि गन्र्धव नगर, नगर के समान दिखाई पड़े (जइपपुक्खरोयहिडंतो) एवं सर्प की बामी के समान दिखे तो (चिंतेइ देश नासं वाही मरणं च) देश का नाश तथा मरण करेगा और (दुभिक्खें) दुर्भिक्ष होगा। भावार्थ-यदि गन्र्धव नगर, नगर के समान या सांप की बामी की तरह दिखाई दे तो समझो, देश का नाश वा लोगों का मरण होगा, दुर्भिक्ष होगा ।। १४६ ।। छाइज्जइ महेणं पव्वई मित्तेण बहुपयारेण। छिज्जत जच्छ दीसइ रायविणोहवेणियमा॥१४७ ।। (छाइज्जंत महेणंपव्वइमित्तेण) यदि गन्र्धव नगर के ऊपर छाया रहे और (बहुपयारेण) बहुत प्रकार रहें (छिज्जंतजच्छ दीसइ) एवं कोटे से घिरा हुआ दिखे तो (रायविणासोहवेणियमा) राजा का नियम से नाश होगा। भावार्थ-यदि गन्र्धव नगर के ऊपर कोट अर्थात् सारे पर छाया रहे तो राजा का नाश अवश्य होगा || १४७॥ पत्थर की वर्षा का फल उप्पलयाणयपडणं उप्पायणिमित्त कारणं छाणं। जइ उपलयापड़ता बहुविह स्वेहि सव्वत्थ ॥१४८ ।। Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६९ निमित्त शास्त्रम्: (उप्पलयाणपडणं) पत्थरों का पड़ना (उप्पायणिमित्त कारणं छाणं) आदि के निमित्त और उपाय (जइ उपलयापडंता) कितने ही प्रकार के होते हैं (बहुविहरूवेहिसव्वत्थ) और कितने ही प्रकार का फल होता है। भावार्थ-आचार्य कहते है पत्थरों का पड़ना भी कई प्रकार का होता है और पत्थर भी कई तरह के होते हैं, इसलिये उन निमित्तों को भी अलग-अलग कहा है।। १४८॥ मालासरच्छ सरिसलालूरी फल समाण रूवाव। जय णिवदंतिय करया तत्थ सुभिक्खंतिणायव्वं ॥१४९ ॥ (मालासरिच्छ सरिसं) माला के दाने के समान वा (खजूरीफल समाण रूवाव) खजूर के बराबर (जयणिवडंतिय करया) यदि पत्थर पड़ते हैं, तो (तत्थसुभिक्खंतिणायव्व) वहाँ पर सुभिक्ष होगा, ऐसा जानना चाहिये। ___भावार्थ-यदि पत्थर माला के दाने बराबर या खजूर के बराबर पड़े तो समझो सुभिक्ष होगा। १४९ ॥ वाधिफल सरिसा वा मंजूसावार सरिसरूवाव। जयणिवडंतिय कर या तत्थसुभिक्खंति णायव्वं ॥१५०॥ (वाधिफलसरिसा वा) बेर के फल के समान वा (मंजूसावारसरिस रूवाव) मूंग या तुवर के दाने के समान (जयणिवडंतिय कर या) जहाँ पत्थर गिरते हैं (तत्थ सुभिक्खंतिणायव्वं) तो वहाँ पर सुभिक्ष अवश्य होगा। भावार्थ-यदि बेर के फल के समान व मूंग के समान या तुवर के समान पत्थर गिरें तो समझो सुभिक्ष होगा ।। १५०॥ संवुक्कसुत्तिसरिसा घोरं वारिसंकरंणिवेइत्ति। जइणिवडंति रसानां वभूद वरिसागमा भणिया॥१५१॥ (संवुक्कसुत्तिसरिसा) शंख और शुक्ती के समान (घोरं वरिसका णिवेइत्ति) Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ८७° पत्थर गिरे तो घोर वर्षा होगी ऐसा कहना चाहिये, (जइ णिवडंति रसानां) यदि रसों की वर्षा (वभूद वरिसागमा भणिया) हो तो वर्षा आगमन होगा। भावार्थ-शंख और सुक्ती के समान यदि पत्थर गिरे तो घोर वर्षा कहना चाहिये, रसों की वर्षा हो तो समझो वर्षा का शीघ्र आगमन होगा ।। १५१।। मंडुक कुम्भसरिसा गजदंत समान रूवसे कासा। जड़ दीसंतपडता देसविणासं तु णायव्वं ॥१५२ ।। (मंडुक्क कुम्भसरिसा) मेढ़क, कुम्भ, (गतदंतसमान रूवे कासा) हाथी दांत के समान (जइदीसंपडता) यदि पत्थर गिरे तो (देसविणासं तुणायव्वं) समझो देश का विनाश होगा। भावार्थ-मेढ़क, कुम्भ, हाथी दांत के समान पत्थर गिरे तो समझो देश का नाश अवश्य होगा। १५२ ।। करिकुंभछत्तसरिसा थाली वज्जोयमा जड़पडंति। कुव्वंति देसणासं रायाणं सव्वाविणासंति॥१५३॥ (करिकुंभछत्तसरिसा) हाथी के गंडस्थल, छत्र के समान (थाली वज्जोयमाजइ पडंति) थाली व वज्र के समान यदि पत्थर गिरे तो (देसणासंकुवंति) देश का विनाश कहते हैं (रायाणं सव्वाविणासंति) और सब प्रकार से राजा का भी नाश होगा। भावार्थ—यदि हाथी के गंडस्थल के बराबर या छत्र के समान, थाली व वज्र के समान पत्थर गिरे तो देश का नाश अवश्य होगा व राजा की मृत्यु होगी।। १५३ ।। बिजली का लक्षण इंदम्मिदिसाभाए जइविज्जू संपया सए जत्थ। वाउम्मसिय वरिसं तत्थयहोहिंतणायव्वं ॥१५४॥ (इंदम्मिदिशा भाए जइ) यदि उत्तर दिशा की ओर (विज्जूसंपया सए जत्थ) बिजली चमके तो (वाउम्मासिय वरिसं) वायु चलकर वर्षा (तत्थयहोहिंतणायव्व) अवश्य होगी ऐसा जानना चाहिये। Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७१ निमित्त शास्त्रम् भावार्थ-यदि उत्तर दिशा की ओर बिजली चमके तो समझो वायु चलकर वर्षा अवश्य होगी।। १५४ ।। अग्गीये जड़ दीसह वाही मरणं च तत्थ को वेदि। तयमासियं च वरिसं मासंतुणवरसए देवो।।१५५॥ (अग्गीये जइ दीसइ वाही) अग्नि कोण में यदि बिजली चमकती दिखे तो व्याधि (मरणं च तत्थ कोवेदि) मरण की सूचना मिलती है (तयमासियं च वरिस) और तीन महीने के बाद वर्षा होगी (मासंतुण वरसएदेवो) उससे पहले वर्षा नहीं होगी। भावार्थ-यदि अग्नि कोण में बिजली चमके तो व्याधि से मरण होगा और तीन महीने में वर्षा होगी ऐसी सूचना देती है। १५५॥ विसए गामे जयरे तस्सविणासो हवइणिविठो। अहि देससभय मूसथ उपसि जिस्थिः संदेहो॥१५६॥ यदि उपर्युक्त बिजली चमकती दिखे तो (विसएगामे णयरे) गाँव नगर का (तस्सविणसो हवइणिद्दिठो) विनाश अवश्य होगा ऐसा निर्दिष्ट किया गया है (अहिदंस मसय मूसयउप्पत्ति) और सर्प, बिच्छू, मच्छर, चूहे की बहुत उत्पत्ति होती है (णत्थिसंदेहो) इसमें सन्देह नहीं हैं। भावार्थ-यदि उपर्युक्त बिजली चमकती दिखे तो गाँव नगर का नाश अवश्य होगा और सर्प, बिच्छू, मच्छर, चूहे आदि की उत्पत्ति ज्यादा होती है॥ १५६॥ जम्मादुपुणोदिडो सुभिक्खआरोगिया हवइविज्जू। सा कुणइगब्मणासं बालविणासं चणियमेण ॥१५७॥ (जम्मादुपुणोदिट्ठो) यदि दक्षिण दिशा (विज्जूहवई) की बिजली चमके तो (सुभिक्खअरोगिया) सुभिक्ष होगा, और निरोगता बढ़ाएगा (सा कुणइगम्भणासं) और वह स्त्रियों के गर्भ नाश करेगा (बाल विणासं चणियमेण) और बच्चों का भी नाश करेगा ऐसा नियम है। भावार्थ-यदि दक्षिण दिशा में बिजली चमकती हुई दिखाई तो सुभिक्ष - - Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ८७२ और निरोगता बढ़ती है, जिन्दु सियों के गर्ग नाश और जजों का नाश अवश्य कराती है।। १५७॥ वाउम्मासिय वरिसं कालेकालेय परिसये देवो। जइणेरड़इदिसाये विज्जल वंतीय दीसिज्ज ॥१५८॥ (जइणेरइइदिसायेविज्जल) यदि नैर्ऋत्य दिशा में बिजली (वंतीयदीसिज्ज) चमके तो (वाउम्मासिय वरिसं) हवा बहुत चलती है (कालेकालेय वरिसयेदेवो) और समय-समय में पानी की भी वर्षा होती है। भावार्थ- यदि नैर्ऋत्य दिशा में बिजली चमके तो हवा बहुत चलती है और समय-समय पर पानी की भी वर्षा होती है।। १५८ ।। अह वायव्वदिसाए वायदिवादं विणासए वरिसं। चोरा हुँतिय बहुया देशविणासं कुणइ राया॥१५९॥ (अहवायचदिसाए वायदिवादं) यदि वायच कोण से बिजली चमके एवं (वरिसंविणासए) हवा अधिक चले और वर्षा कम हो तो (चोराहुतिय बहुया) चोर बहुत होते हैं (देशविणासं कुणइराया) राजा और देश का भी नाश होता है। भावार्थ-यदि वायव्य कोण में बिजली चमके एवं हवा अधिक चले और वर्षा कम हो तो बहुत चोरों की उत्पत्ति होती है, राजा और देश का विनाश होता है।।१५९॥ अहवारूणीय दिवाबहुबरिसइ कुणइ खेमसुभिक्खं। वायव्वेरोय भयं विप्पाणं भयं करो बिज्जू॥१६०॥ (अह वारूणीयदिठ्ठा) यदि वरुण दिशा में बिजली चमकती हुई दिखे तो (बहु बरिसइ खेमसुभिक्खं कुणइ) बहुत वर्षा होगी व क्षेम और सुभिक्ष करेगा, (वायव्वेरोय भयं बिज्जू) वायव्य दिशा में बिजली चमके तो समझो रोग का भय होगा, (विप्पाणं भयं करो) और ब्राह्मणों को भय होगा। भावार्थ-यदि वरुण दिशा में बिजली चमके तो बहुत वर्षा होती है, और क्षेम सुभिक्ष कारक होता है, एवं वायव्य दिशा में चमके तो ब्राह्मणों को भय करती है॥१६०॥ Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त शास्त्रम् बहुबरिसड़ जड़ इंदो सस्साणय तस्स होइणिप्पती। सोमाए जइ दीसइ सीयल वायुव्व बिज्जू व॥१६१ ।। (सोमाए जइदीसइ) यदि पश्चिम दिशा में चमकती हुई (विज्जूब) बिजली दिखे एवं (सीयल वायुब्ब) ठण्डी हवा चले और (बहू बरिसइ जइ इंदो) बहुत वर्षा हो (सस्साणय तस्स होइणिप्पत्री) तो धान्यों की उत्पत्ति अच्छी होती है। भावार्थ-यदि पश्चिम दिशा में बिजली चमके एवं ठण्डी हवा चले, वर्षा अच्छी हो, तो धान्यों की उत्पत्ति अच्छी होती है॥१६१॥ अशाशनाक्षिणासं चौराण भयं अहणिवेदेइ। ईसाणीणु सुभिक्खं रोगो हाणीय वाहिणासयरी॥१२॥ (ईसाणीसु) ईशान कोण में बिजली (सभिक्षक्खं रोगो हाणीय) सुभिक्ष वा रोग से हानि (अहवारायविणासं) अथवा राजा का विनाश होगा, (चौराण भयं) चोरों का भय होगा, (वाहिणा सयरी) वा नाश करने वाली होती है (अहणिवेदेइ) ऐसा निवेदन करते है। भावार्थ-ईशान कोण की बिजली सुभिक्ष कारक होती है, किन्तु चोरों का भय एवं राजा का नाश व रोग कारक होता है।। १६२॥ मेघयोग अह मग्गासिर देवे वरसइ जत्थेय देसणयरम्मि। सो मुयइ जिट्ठमासे सलिलंणियमेण तत्थेव ॥१६३॥ (जत्थेयदेसणयरम्भि) जिस देश या नगरी में (अह मग्गासिरदेवे) मगशिर महीने के अन्दर (वरसइ) वर्षा हो तो (तत्थेवणियमेव) वहाँ पर नियम से (सोमुयइजिट्टमासे सलिलं) ज्येष्ठ मास की वर्षा का नाश होता है। भावार्थ-जिस देश में या नगरी में मृगशिर महीने में वर्षा हो तो वहाँ पर नियम से ज्येष्ठ मास की वर्षा का नाश होता है।॥१३॥ अहपौषमास वरिसइ विज्जलउण हयलम्मि जइदेवो। छट्टे मासे वरिसइ बहुयंचव पुच्चए तत्थ ।। १६४॥ (अहपौष मास वरिसइ विज्जलउण) यदि पौषमास में बिजली चमक कर Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता (हयलम्मिजइदेवो) वर्षा हो तो (छठे मासे वरिसइ बहुयं चव) छठे महीने में वर्षा बहुत (पुच्चए तत्थ) होती है ऐसा कहा है। भावार्थ-यदि पौष मास में बिजली चमक कर वर्षा बरसे तो समझो आषाढ़ मास में बहुत अच्छी वर्षा होती है।। १६४॥ अहमासेफग्गुणेसुय दीतीणब्भियाउ अब्भाउ। छठेउणवउमासे वरिसइ देमुत्तिणायव्वो॥१६५।। (अहमासेफग्गुणेसुय) माघ और फाल्गुन महीने के (दीतीणब्भियाउ अब्भाउ) शुक्ल पक्ष में यदि तीन दिन लगातार पानी बरसे तो समझो (छडेउणवउमासे) छठे महीने में व नौवे महीने में (वरिसइदेमुत्तिणायव्वो) अवश्य वर्षा होगी। भावार्थ-यदि माघ या फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में लगातार तीन दिन पानी बरसे तो समझो छढे महीने में या नौवे महीने में वर्षा अवश्य होगी ।। १६५।। अब्भाणेमेहपत्ती कालेकाले जहापयासिज्ज। तोहोहदि वाहिभयं वासर रत्तेणसंदेहो॥१६६॥ (अब्भाणेमेहपत्ती कालेकाले) यदि प्रतिक्षण आकाश से मेघ (जहापयासिज्ज) बरसते रहे तो समझो (तोहोहदि वाहि भयं) वहाँ पर भारी भय (वासररक्तेणसंदेहो) रात-दिन होता है। भावार्थ-यदि प्रतिक्षण आकाश से मेघ बरसते रहे तो समझो वहाँ रोग, भय रात-दिन लोगों को सतावेगा ।। १६६॥ अहकित्तियाहि वरसइ सस्साण विणासणोहवइ देवो। रोहिणिसुसुप्पत्ती देसस्सवी णात्थिसंदेहो। १६७॥ (अहकित्तियाहि वरसइ) यदि कृत्तिका नक्षत्र में पानी बरसे तो (सस्साणविणासणोहवइदेवो) धान्यों का नाश होगा ऐसा समझो (रोहिणिसुसुप्पत्ती देवसस्सवीं) रोहिणी नक्षत्र में बरसे तो देश की हानि होती है (णत्थिसंदेहो) इसमें कोई सन्देह नहीं है। भावार्थ-यदि कृत्तिका नक्षत्र में वर्षा हो तो धान्यों का नाश और रोहिणी नक्षत्र में बरसे तो देश का नाश होता है ।। १६७॥ Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | T ८७५ निमित्त शास्त्रम् जड़मयसिरम्मि वरसइ तत्थसुभिक्खंति होइणायस्वो । अदाएचितलवो पुणव्वसे मास वरिसंत्ति ।। १६८ । (जइमयसरम्मिवरसइ) यदि मेघ मृगशिर में बरसे तो (तत्थ) वहाँ पर (सुभिक्खति वहाँ पर सुभिक्ष होगा (णायव्वो) ऐसा जानना चाहिये। (अद्दाएचितलव्वोपुणव्वसे) आर्द्रा में बरसे तो खण्डवृष्टि होगी, पुनर्वसु में बरसे तो (मासवरिसंति) एक महीने तक वर्षा होती है। भावार्थ — यदि मृगशिर नक्षत्र में पानी बरसे तो सुभिक्ष होगा ऐसा जानो, आर्द्रा में बरसे तो खण्ड वृष्टि और पुनर्वसु में बरसे तो एक महीने तक लगातार पानी बरसता है ॥ १६८ ॥ सस्साणयउच्छहोइसंपत्ति । विणासणं होई ॥ १६९ ॥ पुस्सेवाउम्मासं असलेसे बहुउदयं सस्साण ( पुस्सेवाम्मासं) यदि पुष्य को बरसे तो ( सस्साणय उच्छहोइ संपत्ति) धान्यों की बहुत उत्पत्ति होती है ( असलेषे वहुउदयं ) आश्लेषा में वर्षा हो तो ( सस्साणविणासणं होई) धान्यों का विनाश होगा । भावार्थ — यदि पुष्य नक्षत्र में बरसे तो धान्यों की उत्पत्ति अच्छी होगी, आश्लेषा में बरसे तो धान्य का नाश होगा ॥ १६९ ॥ मह फग्गुणीहि वरसइखेम सुभिक्खं होईणायव्वो । उत्तर फग्गुणि हत्थेखेम सुभिक्खं वियाणाहि ।। १७० ॥ ( मह फग्गुणीहिवरसइ) यदि मेघ, मघा या पूर्वाफाल्गुनी में बरसे तो समझो (खेमसुभिक्खं होईणायव्वो) क्षेम कुशल और सुभिक्ष करता है ऐसा जानो, उत्तरफाल्गुनी या हस्त में बरसे तो, (सुभिक्खंवियाणाहि ) सुभिक्ष होगा ऐसा जानना चाहिये । भावार्थ — यदि मेघ मघा या पूर्वाफाल्गुनी में बरसे तो समझो क्षेम कुशल व सुभिक्ष होगा, ऐसा समझो और यदि उत्तराफागुनी और हस्त में मेघ बरसे तो समझो सुभिक्ष होगा, ऐसा जानना चाहिये ।। १७० ।। Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ८७६ चित्ताहिमंदवरिसं साइहिमिह वइवादि परिखेऊ। बहुवरिसं च विसाहा अणुहाहेणाविबहुवरिसं॥१७१॥ (चिताहिमंदवरिसं) चित्रा में बरसे तो मन्द वृष्टि होती है (साइहिमिहवइवादिपरिखेऊ) स्वाति में बरसे तो थोड़ा पानी बरसता है (विसाहा) विशाखा में बरसे तो (बहुवरिसं) बहुत वर्षा होगी (च) और (अणुहाहेणावि बहुवरिसं) अनुराधा में बरसे तो बहुत वर्षा होगी। भावार्थ-चित्रा नक्षत्र में पानी बरसे तो मन्द वृष्टि होगी, स्वाति नक्षत्र में बरसे तो बहुत पानी बरसेगा, विशाखा में हो तो वह भी वर्षा बहुत होती है।। १७१॥ जिट्ठिससु अण्णाद्दिट्टी मूलेणुदयंणिरंतरंदेइ। तइहोइ वाइवरिसं उत्तरपुव्वे णसंदेहो॥१७२॥ (जिट्टिसु अण्णादिट्टी) ज्येष्ठा नक्षत्र में थोड़ी वर्षा होती है (मूलेणुदयंणिरंतर देइ) मूल नक्षत्र में अच्छी वर्षा होती है। (उत्तमुकेरिस एवं पूर्व और उतराषाढ़ा - में (तई होइवाइ णसंदेहो) हवा चलकर वर्षा होती है। इसमें कोई सन्देह नहीं है। भावार्थ- यदि ज्येष्ठा नक्षत्र में पानी बरसे तो वर्षा थोड़ी होगी, मूल में बरसे तो अच्छी वर्षा होगी, एवं पूर्वाषाढ़ा या उत्तराषाढ़ा में हवा चलकर वर्षा होती है॥ १७२।। सवणे कातियमासे वरिसं णासेड़ णत्थिसंदेहो। उदये हवइथणाए वरिसइ देऊणसंदेहो ॥१७३ ॥ (सवणे वरिसं) श्रवण नक्षत्र में बरसे तो (कातियमासेणासेइ) कार्तिक महीने में वर्षा का नाश होगा (णात्थिसंदेहो) इसमें सन्देह नहीं हैं (उदये हवइइ धणाएवरिसइ) धनिष्ठा नक्षत्र में बरसे तो (देऊणसंदेहो) बहुत वर्षा होगी, इसमें सन्देह नहीं है। भावार्थ-श्रवण नक्षत्र में पानी बरसे तो कार्तिक में वर्षा का नाश होगा, यदि धनिष्ठा में बरसे तो बहुत वर्षा होगी, इसमें सन्देह नहीं है॥१७३ ॥ सयभिसु भद्दवआऊ पुवुत्तरयाविं बहुजलद्दीति। रेवई अस्सिणी भरणी वसारत्ते सुहिं दित्ति ।। १७४॥ Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ८७७ निमित्त शास्त्रम् (सयभिसु भद्दवआऊ ) शतभिषा पूर्वाभाद्रपद (पुव्वुत्तरयाविं बहुजलद्दीति ) उत्तराभाद्रपद में पानी बरसे तो बहुत जल की वृष्टि होगी, (रेवई अस्सिणां भरणी) रेवती अश्विनी भरणी ( वसारते सुहिंदित्ति ) में बरसे तो वस्तुओं का भाव श्रेष्ठ होगा । भावार्थ — शतभिषा पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद में पानी बरसे तो बहुत जल की वर्षा होती है, रेवती अश्विनी भरणी में वर्षा होने से वस्तुओं का भाव श्रेष्ठ होता है ॥ ९७४ ॥ है। ए ए रिक्ख व योगा वासास्त्रस्स गब्भकालम्मि | णिच्चं वचिंतयंतोणाणविदगसो हणो होदी ।। १७५ ॥ ( ए ए रिक्ख व योगा वासास्त्रस्स) जो नक्षत्रों का योग बताता है (वासास्त्रस्सगब्भकालम्मि) उसी को गर्भ काल माना है ( णिच्चं व चिंतयं तोणाणविदगसोहणी होदी ) ऐसा ज्ञानियों ने कहा है, वैसा ही उसका फल होता भावार्थ - जो नक्षत्रों का योग बताया है, उसको ही गर्भ काल कहा है, ऐसा ज्ञानियों ने कहा है उसका फल वैसा ही होता है ।। १७५ ।। केतु योग अह कालपुत्त चरियं केतुस्स हाणिदु.. I .दि चत्तारिणियमेण ॥ ९७६ ॥ ( अहकालपुत्त चरियं) अब काल पुत्र का (केतुस्सहाणिदु) केतु के हानि लाभ का चरित्र कहते है (दि चत्तारिणिपमेण) जो कि चार प्रकार का होता है । भावार्थ- अब काल पुत्र केतु का वर्णन आचार्य करते हैं, उसका चरित्र चार प्रकार का है ॥ १७६ ॥ केउस्स सुहानिपुणो सयमिक्कं होड़ असुहरूवेण । जत्थेण जत्थ केऊ तं दिसणि सासया होई ॥। १७७ ॥ Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता , ८४ (जत्थेणजत्थकेऊ) जिस दिशा में केतु दिखे (तंदिसणिसासयाहोई) उसी दिशा का नाश करता है (केउस्स सुहानिपुणों) यह धूमकेतु अशुभ फल ही देता है (सयमिकं होइअसुहरूवेण) और नाश कर देता है। भावार्थ-लिस दिशा का धूमकेतु हो उसी दिशा में यह अशुभ फल देता है, नाश का कारण होता है॥१७७।। अहपश्चिमेण भागेणउदिह्रो पुख्वदो विणासेई। पुज्वेणपच्छिमेणय इणुविचरीय चारेणं॥१७८ ।। (अहपश्चिमेणभागे) यदि पश्चिम भाग में (णउदिछोपुव्वदोविणासेई) केतु का उदय होतोपूर्व में नाश करता है (पुव्वेणपच्छिमेणय) पूर्व में दिखे तो (इणुविचरीयचारेणं) पश्चिम दिशा का नाश करता है। भावार्थ-यदि पश्चिम दिशा में धूमकेतु का उदय हो तो पूर्व भाग का नाश करता है, और पूर्व भाग में इसका उदय हो तो पश्चिम भाग का नाश करता है।। १७८॥ जइपुच्छं तत्थभयं जत्थसिरो तत्थणिब्भऊ होई। सिरपुच्छमज्झएसेपमुदीदोणस्थि संदेहो।। १७९॥ (जइपुच्छं तत्थभयं) इसकी जहाँ पूँछ हो वहाँ भय होता है (जत्थसिरोतत्थणिब्भऊ होई) जहाँ सिर होता है, वहाँ पर संग्राम करता है, (सिरपुच्छ- मज्झएसे) जहाँ इसका मध्य भाग हो (पमुदीदोणतित्थसंदेहो) वहाँ आनन्द कारक होता है। भावार्थ-जहाँ धूमकेतु की पूँछ हो वहाँ भय, जहाँ सिर हो वहाँ संग्राम, जहाँ मध्य हो वहाँ आनन्द होता है।। १७९ ।। जइसुरगुरूणा सहिओ दीसइ केऊण हम्मिउग्गामिदौ । अक्खड़ विप्पविणासदि मास चउत्थेणसंदेहो॥१८०॥ (जइ सुरगुरूणा सहिओ) यदि गुरू के साथ (केऊण हम्मिउग्गमिदौदीसइ) केतु का उदय दिखे तो (अक्खइविप्पविणासदि) विप्रों का नाश (मासचउत्थेणसंदेहो) चार महीने में हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं है। Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ? -2 + निमित्त शास्त्रम् भावार्थ-यदि गुरु के साथ केतु का उदय दिखे तो ब्राह्मर्णो का नाश चार महीने में अवश्य हो जायगा ॥ २८० ॥ ८७९ भुविलोए देसरिसं सस्साण विणासणो हवइकेऊ । सुक्केणखतिणासं सोमेणय ( केऊ भुविलोएदेसरिसं ) यदि केतु ऐसे लोक में दिखे तो (सस्साणविणासणो ) धान्यों के नाश का कारण ( हवइ ) होता है। (सुक्केण खतिणासं) शुक्र के साथ दिखे तो क्षत्रियों का नाश करता है। (सोमेणयबालधादोय) चन्द्रमा के साथ उदय हो तो बाल बच्चों का घात करता है। भावार्थ — उपर्युक्त केतु धान्यों का नाश करता है, यदि शुक्र के साथ उदय हो तो क्षत्रियों का नाश करता है, चन्द्रमा के साथ उदय दिखे तो बाल-बच्चों का घात होता है ॥ १८१ ॥ ससिणा रायविणासंराऊ मज्झमि सव्वलोयस्स । बुहसहिओसुहकरणो देशविणासो यसूरेण ।। १८२ ।। (ससिणारायविणाराऊ ) चन्द्रमा के साथ केतु उदय राजा का विनाश करता है (मज्झमिसव्वलोपस्स) मध्य में हो तो सब लोगों का नाश करता है ( बुहसहिओ सुहकरणो ) बुध के साथ हो तो अच्छा है ( देशविणासोयसूरेण ) सूर्य के साथ हो तो देश का नाश करता है। बालघादोय ।। १८१ ॥ भावार्थ -- चन्द्रमा के साथ केतु का उदय दिखे तो राजा का नाश करता है, बुध के साथ दिखे तो अच्छा है, सूर्य के साथ इसका उदय दिखे तो देश का नाश करता है ॥ १८२ ॥ आइव्वापूण दीसइणवि किंविदि तत्थ काहदे केऊ । अहरिक्खमग्ग दीसड़ तस्सविणासंत्ति पुच्छ्रेण ॥ १८३ ॥ ( अहव्वापुण दीसइणवि किंविदि तत्थ काहदेऊ ) यदि केतु सांय काल में दिखाई पड़े अथवा ( अहरिक्खमग्गदीसइ) नक्षत्र चक्र के मध्य दिखाई पड़े तो (तस्सविणासंत्ति पुच्छेण) वह पीछे के क्षेत्रों का विनाश करता है। Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ८८० भावार्थ-यदि केतु सांयकाल में नक्षत्र चक्र में दिखाई पड़े तो समझो, महाअशुभ है। पीछे के क्षेत्रों का विनाश करता है॥१८३॥ जड़ ध्रुवमज्ने दीसइ केऊ सयलं विणासएपहवी। सवणगणाणं अचलं चलणं च करेदि सत्ताणं॥१८४॥ (जइ ध्रुवमझे दीसइ केऊ) यदि केतु ध्रुव के अन्दर दिखाई दे तो (सयलं विणासए पुहवी) सम्पूर्ण पृथ्वी का नाश करता है। (सवण गणाणं अचलं) और अचल पदार्थों को (चलणं च करेदि सत्ताणं) चलायमान कर देता है। भावार्थ—यदि केतु ध्रुव के अन्दर दिखाई पड़े तो सम्पूर्ण पृथ्वी का नाश करता है, और अचल पदार्थों को चलायमान कर देता है।। १८४ ॥ पुढवी सम्वविणासोणायब्वो जत्थदीसए के। तम्हा तं पुण देसे परिहरियव्वं पयत्तेण ॥१८५॥ (जत्थदीसए केऊ) जहाँ पर केतु दिखाई देता है। वह (पुढवां सत्व विणासोणायव्वो) सारी पृथ्वी का नाश कर देता है (तम्हातंपुण देसे) इसलिये उस देश को (पयत्तेण) प्रयल से (परिहरियव्वां) छोड़ देना चाहिये। भावार्थ-जहाँ पर केतु दिखाई पड़े तो उस देश का नाश हो जाता है। इसलिये उस जगह को शीघ्र प्रयत्न से छोड़ देना चाहिये। १८५॥ संवेण विकहियं तणुप्पायाणं तु लक्खणं थोवं। इत्तोजआहिरितं तं पुण अण्णंतु जाणिज्जा॥१८६ ।। (संखेवेण विकाहियं तणुप्पायाणं तु) इस प्रकार संक्षेप से इसको मैंने कहा (थोवलक्खण) जिसको ज्यादा जानना है (इत्तो जंआहिरित्तं तं पुण) उसको पुन: दूसरी जगह से (अण्णंतु जाणिज्जा) जानना चाहिये। भावार्थ-इस प्रकार के लक्षण मैंने संक्षेप में यहाँ पर कहे हैं, जिसको ज्यादा जानने कि इच्छा हो वह अन्य ग्रन्थों से जाने।। १८६॥ Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त शास्त्रम् एवंबहुप्पयारं णुप्पायपरंपराय णाऊणं। रिसिपुत्तेण मुणिणा सव्वप्पियं अप्पगंथेण ॥१८७ ।। (एवं बहुप्पयारं) इस तरह से बहुत प्रकार के (पुप्पाय परंपपराय णाऊणं) उत्पातों को जानकर वह भी परम्परा से आगत को जानकर (रिसिपुत्रेण मुणिणा) मैंने ऋषि पुत्र मुनि ने (सव्वप्पियंअप्पगंथेण) सब प्रकार से इस छोटे से ग्रन्थ में वर्णन किया है। भावार्थ-इस प्रकार परम्परा से आगत उत्पातों को जानकर मैंने अर्थात् ऋषि पुत्र नामक मुनि ने इस छोटे से ग्रन्थ में वर्णन किया है ।। १८७॥ (इति निमित्त शास्त्रं समाप्तः) मशवाय आतावाधसम्मTAR MNN Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामुद्रिक शास्त्र करलखन | हस्त-रेखाओं का संक्षिप्त ज्ञान हस्त रेखा विज्ञान अत्यधिक पुरानी विद्या हैं। जिसका उद्भव भारतवर्ष में हुआ था। बाद में इसका विकास चीन, मिश्र आदि देशों में हुआ। व्यास, पराशर (Chaglaya) गौतम, भृगु, भारद्वाज, कश्यप, अत्रि, इत्यादि महान् ऋषियों ने इस विषय का प्रचार किया ग्रीस में राजा सीजर महाराज अगस्त्य और मैगनिटस में हस्त रेखा विज्ञान का बड़े ही उत्साह से स्वागत किया आधुनिक हस्तरेखा विज्ञान हिन्दू सामुद्रिक-शास्त्र पर आधारित हैं (Cherio) (Count Louis Hoamon) ने इस विद्या का उद्भव-स्थान भारत को माना हैं, और उसने भारतवर्ष के विद्वानों से इसका ज्ञान प्राप्त किया था, पाश्चात्य विद्वानों ने इस दिशा में अनुन्धान कार्य करके इसे अत्यधिक वैज्ञानिक रूप प्रदान किया पाश्चात्य विद्वानों में उल्लेखनीय नाम इत्यादि हैं। जिस प्रकार से एक मानव की आकृति दूसरे मानव से भिन्न है उसी प्रकार से उसकी हाथ की रेखायें भी एक-दूसरे से भिन्न होती हैं, सौ करोड़ हाथों में अंगूठो के निशान एक-दूसरे से नहीं मिलते क्या यह प्रकृति का चमत्कार नहीं हैं ? डॉ. एनीवीसेण्ट ने एक जगह लिखा है। कि विविधता उस विराट की ही अभिव्यक्ति हैं मनुष्य न केवल व्यवहार में बल्कि शरीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक विकास सभी में एक-दूसरे से भिन्न हैं, इसी प्रकार हाथों की बनावट और रेखायें भी भिन्न होती हैं। यह रेखायें हाथों के मुड़ने से नहीं बनती बल्कि रक्तनाड़ियों और स्नायु के माध्यम से मस्तिष्क कोशिकाओं द्वारा निर्मित होती हैं, सम्भव है कि यह अवचेतन मन जो ज्ञान का अथाह समुद्र है, उसके प्राकृतिक चिह्न हों जिस प्रकार चिकित्सक एक हड्डी एक दाँत एक बाल मात्र से किसी भी व्यक्ति की आयु बता सकता हैं, जीव विज्ञान का ज्ञाता मृत पशु का पूरा आकार निर्मित कर सकता है। वनस्पति Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ l 1 ļ I | ८८३ हस्त रेखा ज्ञान विज्ञान का ज्ञात टहनी पत्ती आदि से पूरा पौधा उत्पन्न कर सकता हैं जब उसका बीज अप्राप्य हो उसी प्रकार व्यक्ति को उसके हाथ की रेखाओं से जाना जा सकता हैं, हाथ मानव शरीर का महत्त्वपूर्ण अंग हैं। इसे हम जीवन दर्पण या मानचित्र कह सकते हैं। (1) जीवन रेखा - अगर रेखा मोटी जंजीर की तरह हो तो अस्वस्थता को बताती हैं रेखा साफ होनी चाहिए कटी, चौड़ी तथा पीले रंग की नहीं होनी चाहिए | यह रेखा बृहस्पति के उभार से आरम्भ होकर हाथ की कलाई की तरफ आती हैं। और शुक्र के उभार को घेर लेती है, किसी व्यक्ति की आयु मालूम करने के लिये इस रेखा के अतिरिक्त और भी कई बातों का ध्यान रखना होता हैं। यह रेखा व्यक्ति की शारीरिक बनावट उसकी ओजस्विता एवं स्वस्थ शक्ति का प्रतीक हैं। (जो रेखा हाथ में शुक्र के उभार तक जाती हैं एवं वह जीवन रेखा में मिल जाए और दोनों रेखायें बराबर हों तो मृत्यु की प्रतीक हैं, शनि के उभार से निकलती हुई गहरी होती रेखाएँ जो जीवन रेखा को छूती हैं वह अस्वस्था प्रकट करती हैं, यदि रेखा छोटे-छोटे टुकड़ों में बनी हो या चैन की तरह हो तो भी अस्वस्थता की ओर संकेत करती हैं। यदि इसके साथ एक क्रास भी हो तो ऑपरेशन होता हैं। यदि दोनों हाथों में जीवन रेखा बिल्कुल टूटी हुई हों तो उस आयु में मृत्यु की सम्भावना होती हैं यदि एक हाथ में टूटी हुई हो तो खतरा हो सकता हैं। यदि वृहस्पति के पर्वत से शुरू हो तो बचपन से महत्त्वाकांक्षी होने की प्रतीक हैं, यह मस्तिष्क रेखा से जुड़ी हो तो वह व्यक्ति के साहसी और आत्मविश्वासी होने का प्रतीक हैं। छोटी-छोटी बारीक रेखायें जो जीवन रेखा के नीचे की ओर आयें तो शक्ति की कमी प्रकट करती हैं यदि द्वीप हो तो अस्वस्थता की प्रतीक हैं। (2) मस्तिष्क रेखा - यह रेखा व्यक्ति के बौद्धिक विकास व मस्तिष्क की बीमारियों से सम्बन्धित होती हैं। यदि यह रेखा बृहस्पति के पर्वत से निकलती हुई जीवन रेखा को छुए तो मानसिक शक्ति महत्त्वाकांक्षा और नेतृत्व के गुणों को दर्शाती हैं। अगर यह रेखा जीवन रेखा से अलग हो तो व्यक्ति के उद्देश्य की कमी हो जाती हैं। यदि दोनों के बीच में जगह अधिक हो तो व्यक्ति की Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ८८४ अविवेकता व मन्द-बुद्धि की प्रतीक हैं। यदि मस्तिष्क-रेखा जीवन रेखा के मध्य से मंगल पर्वत पर निकलती हो तो वह व्यक्ति चिन्तातुर रहता है। यदि यह रेखा सीधी व स्पष्ट हो तो व्यक्ति के सामान्य ज्ञान व व्यवहारिकता की ओर संकेत करती हैं। जब यह रेखा आखिर में से थोड़ी-सी झुकी हुई सी हो तो व्यक्ति में व्यवहारिकता और कल्पना शक्ति दोनों होती हैं। यदि यह चन्द्रमा के पर्वत की तरफ जाती हई हो तो व्यक्ति केवल भावक व कल्पनाशील होता है। यदि मस्तिष्क रेखा अन्त में बुध पर्वत की ओर आये तो व्यक्ति कंजूस प्रवृत्ति का और धन के लिए गलत तरीकों का प्रयोग भी कर सकता हैं। यदि मस्तिष्क व हृदय रेखा जुड़ी हुई (दोनों एक ही रेखा के रूप में) हथेली पर हों तो उस व्यक्ति को गहन अनुभूति शील व उद्देश्य पूर्ण होने की ओर संकेत करती हैं। किन्तु ऐसे व्यक्ति की भाग्य रेखा यदि न हुई तो वह जीवन में नितान्त अमफल होगा दो मस्तिष्क रेखायें महान् मस्तिष्क शक्ति की परिचायक है, और दुर्लभ हैं। (3) हृदय रेखा–यदि यह रेखा शुक्र पर्वत के मध्य से निकलती हो तो आदर्श व सच्चे प्रेम तथा दिमागी काम प्रवृत्तियों की सूचक हैं। अगर यह रेखा गुरु अंगुली के तले से निकलती हो तो व्यक्ति अपने प्रेमी या प्रेमिका पर शासन करने का प्रयल करेगा। यदि रेखा पहली और दूसरी अंगुली के मध्य से निकले तो व्यक्ति शान्त प्रवृत्ति का होता हैं। ऐसे व्यक्ति काम के समय काम, प्रेम के समय प्रेम करते हैं। और उनको अपने जीवन में बहुत ही संघर्ष करना पड़ता हैं। यदि यह रेखा पहली दूसरी अंगुली के मध्य से निकलती हुई बीच में से मुड़कर नीचे की ओर जाये तो व्यक्ति के ठोस शारीरिक काम प्रवृत्ति की ओर संकेत करती हैं यह रेखा शनि के उभार के पास से शुरू होती हो तो वह मनुष्य प्रेमी स्वार्थी और काम प्रधान होता हैं। (4) भाग्य रेखा- यह रेखा विभिन्न स्थानों से निकलती हुई निश्चय रूप से शनि के पर्वत की ओर जाती हैं। यदि यह रेखा जीवन-रेखा के पीछे से शुरू हो तो भौतिक सफलता की सूचक होती हैं। जो सफलता किसी सम्बन्धी के कारण सम्भव हैं, चन्द्रमा के पर्वत से शुरू हो तो आजीविका में किसी महिला की सहायता मिलती हैं। अथवा दूसरों को प्रसन्न करके अपना व्यवसाय करता हैं। यदि वह Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ८८५ हस्तरेखा ज्ञान रेखा हथेली के मध्य भाग से अथवा जीवन से शुरू हो तो वह व्यक्ति स्वयं अपना भाग्य निर्माता होता हैं यह रेखा चौरस व शंकु (Spatulate) की सी आकृति वाले हाथ में अधिक अच्छे परिणाम दिखाती हैं। जिससे इसका महत्त्व और अधिक बढ़ जाता हैं। जब सूर्य भी साथ में हो यदि यह रेखा मस्तिष्क रेखा के पास समाप्त हो तो प्यार के कारण आजीविका नष्ट भी हो सकती हैं। यदि यह रेखा बीच में टूटी हुई हो तो आजीविका अनिश्चित होती हैं । दोहरी रेखा शुभ चिह्न है जो व्यक्ति के स्थान को सुदृढ़ बनाती हैं। अथवा आय के दो साधन भी हो सकते हैं ? (5) आयु रेखा - कनिष्ठिका अंगुली से निकल कर हथेली से होती हुई तर्जनी अंगुली की जड़ तक जावे और वह खण्डित न होवे, टूटी-फूटी न हो लम्बी हो तो लम्बी उमर का है। जो पूरी तर्जनी तक चली गई हो तो 100 वर्ष की आयु मध्यमा अंगुली की जड़ तक हो तो 75 साल की आयु अनामिका अंगुली तक गई हो तो 50 साल की आयु होती हैं। इससे जितना कम हो उतनी ही आयु कम होती हैं। (6) सम्पत्ति रेखा — आयु रेखा का वैभव रेखा के बीच में चौकड़ीदार आकार हो तो जितनी चौकड़ी हो, वे वह उतना ही धनी होता हैं। एक चौकड़ी वाला साधारण धनी होता हैं । अर्ध्व रेखा से दौलत का होना देखा जाता हैं आयु रेखा व कनिष्ठिका अंगुली के बीच में जितनी आड़ी रेखा पड़ी हों उसको श्री रेखा कहते हैं। ( 7 ) सन्तति रेखा ( सन्तान ) – मणिबन्ध से आयुष्य रेखा तक हथेली के बाजू में जितनी आड़ी रेखा पड़ी हों उतने पुत्र-पुत्री होते हैं। जितनी रेखा अखण्ड होंवे निश्चय ही उतने ही पुत्र-पुत्री जीवित रहते हैं । हमारे अनुभव से पूर्ण रेखा जितनी हो उतनी ही सन्तान जीवित रहती हैं। ( 8 ) भाई बहिन रेखा — मणिबन्ध से मूल व पिता की रेखा अंगूठे के बीच के भाग में जितनी आड़ी रेखा होंवे उतने ही बहिन भाई जानो, जितनी पूरी रेखा हों उतने ही बहिन-भाई जानो, जितनी पूरी रेखा हों उतने ही जीवित रहते हैं, जो बीच में टूट गई वह नहीं रहते । Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | ८८६ (9) सूर्य रेखा–मणिबन्ध, चन्द्रक्षेत्र, राहु के क्षेत्र मस्तक रेखा, हृदय रेखा से आरम्भ होकर सूर्य के क्षेत्र अनामिका अंगुली के नीचे पहुँचती हैं। ऐसी रेखा वाले जातक, भाग्यशाली, यशवान, धनवान होते हैं। जीवन रेखा प्रारम्भ होने से जातक यन्त्र-मन्त्र का जानकर कलाकर होता हैं। मंगले के क्षेत्र से यह रेखा प्रारम्भ हो तो जातक, बहादुर, आत्मविश्वास तथा प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त कर लेता हैं। (10) स्वास्थ्य रेखा-हथेली के मध्य, जीवन, रेखा, चन्द्रक्षेत्र से निकल कोई रेखा बुध के क्षेत्र कनिष्ठा अंगुली के क्षेत्र पर पहुँचने वाली रेखा को स्वस्थ रेखा कहते हैं। यह रेखा स्वास्थ्य पर शुभ-अशुभ प्रभाव डालती हैं। यह रेखा भस्तक रेखा, हृदय रेखा को काटे तो जातक के मस्तिष्क, हृदय दोनों ही कमजोर होते हैं। स्वास्थ्य रेखा जितनी उतम होगी, स्वास्थ्य उतना ही उत्तम होगा, विशेष जानकारी के लिए "स्वास्थ्य रेखा" देखे। (11) विवाह रेखा-कनिष्ठा अंगुली के नीचे हाथ में बाहर की ओर . रेखा को विवाह रेखा कहते हैं। यह रेखा जितनी होती हैं। जातक उतनी स्त्रियों का संसर्ग सुख भोगता हैं यह रेखा शुद्ध और एक हो तो जातक एक पत्नी वाला होता हैं। हस्त रेखा और आजीविका मंगल का पर्वत पृष्ट हो, हाथ की अंगुलियाँ छोटी हो तो जातक सैनिक होता है, मंगल, शनि का पर्वत श्रेष्ठ हो तो सेनानायक होता है। शुक्र का पर्वत ऊँचा उठा हो, अगुष्ठ का अग्रभाग मोटा हो, अंगुलियाँ कोमल हों तो जातक फिल्म ऐक्टर होता है। बुध पर्वत उठा हो, सूर्य रेखा प्रबल हो, अगुंलियाँ लम्बी हो तो जातक चिकित्सक होता है। चन्द्र का क्षेत्र उठा हो, मस्तिष्क रेखा लम्बी, सूर्य की अंगुली पुष्ट हो मणिबन्ध रेखा को दबाने वाला हो तो जातक फोटोग्राफर, चित्रकार होता है। गुरु का पर्वत ऊँचा हो, मस्तक रेखा लम्बी हो, बुध अंगुली नुकीली हो तो जातक विदेश में राजदूत अथवा हाई कमिश्नर होता है। Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८७ हस्त-रेखा ज्ञान गुरु का पर्वत अधिक उठा हो, अंगुष्ठ छोटा हो, बुध का पर्वत चपटा हो, अंगुलियों की नोक मोटी हो तो जातक इन्जीनियर तथा यन्त्रज्ञ होता हैं। गुरु का पर्वत ऊँचा हो, गुरु की अगूली चन्द्रमण्डल कम पुष्ट हो और नाखून छोटे हो तो जातक सम्पादक, साहित्यज्ञ, विद्वान होता हैं। मस्तिष्क रेखा सीधी हो, अंगुलियों लम्बी हो और पास-पास हों अंगुष्ठ सीधा और लम्बा हो तो वकील कानून का ज्ञाता होता है। सूर्य का पर्वत उच्च हो, बुध की अंगुली का प्रथम पर्व लम्बा हो, हाथ की अंगुलियाँ कोणदार लम्बी हो, हृदय, मस्तिष्क रेखा मध्य में चौड़ी हो तो जातक न्यायाधीश, जज होता हैं। गुरु, शनि, सूर्य, बुध का पर्वत उठा हो तो शिक्षक होता हैं। अंगुलियाँ लम्बी हों, उनके अग्र भाग मोटे हों, मध्यमा का दूसरा पर्व लम्बा हो तो जातक शिक्षक, शिक्षा क्षेत्र में प्रमुख व्यक्ति होता है। सूर्य की अंगुली उत्तम हो, प्रथम पर्वत बड़ा हो गुरु का पर्वत उच्च हो, मंगल रेखा पर गुणक का चिह्न हो तो स्त्री पतिव्रता होती हैं। (12) राज्याधीश लक्षण—जिसके नाक, कान, दाँत, होंठ, हाथ, पैर, आँख ये सात अवयव सीधे हो वह मनुष्य स्वभाव से सीधा समझदार होता हैं यदि बाँके हो तो झूठे स्वभाव वाला ही जानता है। जिनके आँख, जीभ, तलवा, नाक, होंठ, हाथ व पैर का तलवा ये लाल रंग के होवे, वह यश, आराम भोगने वाला, कार्य सिद्ध करने वाला होता हैं। . जिनके छाती, मुख, कपाल, चौड़ें हो उसे सुख चैन मिलता हैं तथा नर्म स्वभाव वाला गम्भीर होता है। जिनके पीठ, लिंग, फड़ व दोनों जांघ ये पाँच भाग झुके हुए हो तो वह सदैव सद्गुणी पूजा योग्य उत्तम पुरुष होता हैं। जिसके अंगुली के पीखा, केश, नाखून, दाँत व चमड़ी ये पाँच सूक्ष्म पतली होगी, वह मनुष्य सुखी होगा। जिसके दोनों कान, दोनों नेत्रों के बीच का भाग, नासिका व दोनों हाथों के अवयव लम्बे हों तो वह मनुष्य उत्तम स्वभाव वाला होता है। जिसकी नासिका, ग्रीवा, नख, कान, छाती, मुख ये छ: अवयव ऊँचे हो तो वह सदैव उन्नति करता है। जिस मनुष्य के हाथ की अंगुली के नाप से 108 Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ८८८ अंगुल ऊंचा हो वह उत्तम तेजस्वी होता है। एवं जो 95 अंगुल हो वह मध्यम होता है। जो 85 अंगुल हो वह सामान्य होता हैं। और जिसकी ऊंचाई कम हो तो वह मनुष्य कष्ट पूर्वक जीवन व्यतीत करे, तथा दुःखी रहे। अब आगे मानव शरीर के आंगोपांग व हस्तरेखा सामुद्रिक शास्त्र का पं. बागभट्ट जी विस्तार से वर्णन करते हैं। जिसमें जैनाचार्यों के द्वारा लिखा कर लखन नामकग्रन्थ का आधार लेकर और भी अन्य लेखकों के ग्रन्थों का सहारा लेकर इस ग्रन्थ का विस्तार से वर्णन करता हूँ। हाथ व उसकी प्रमुख रेखाएँ MORA acts म 17. MAR प्रीय Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८९ हस्त-रेखा ज्ञान करलखन सामूद्रिक शास्त्रम् मङ्गलाचरण पणमिय जिणममि अगुणं गयराय सिरोमणिं महावीरं। वुच्छंपुरि सत्थीणं करलक्खणमिह समासेणं॥1॥ (अमिअगुणं) अमित गुण के धारक (गयराय सिरोमणि) जो रोग रहित होकर सबके शिरोमणि हो गये है ऐसे (महावीरंजिणंपणमिय) महावीर जिनेन्द्र को नमस्कार करके (समात्सेणं) अच्छी तरह से (मिह) इस (पुरिसत्थीणं करलक्खणम्) पुरुष व स्त्रीयों के हाथों के त अंगों के लक्षण का वर्णन करने वाला करलखन नामक ग्रन्थ को (कुच्छ) कहूँगा। भावार्थ-जो अनन्त गुणों के धारक हैं जिनका राग, द्वेष नष्ट हो गया है ऐसे महावीर जिनेन्द्र को नमस्कार करके में स्त्री और पुरुषों के हाथों व अंगों के लक्षण का वर्णन करने वाला करलखन नामक ग्रन्थ को कहूँगा ।। 1 ।। पावइ लाहा लाहं सुदृदुक्खं जीविअं च मरणं च। रेहाहिं जीवलोए पुरिसो विजयं जयं चतहा।।2।। (जीवलोएपुरिसो) इस मनुष्य लोक में मनुष्य (रहाहि) रेखा से (जीविअंचमरणं च) जीवन अथवा मरण (तदा) तथा (जयं च विजयं) जय और विजय (पावइ) को प्राप्त करता है। भावार्थ-इस मनुष्य लोक में मनुष्य हस्तरेखा से व शरीर के सुन्दर लक्षणों से सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-विजय, जीवन-मरण आदि प्राप्त करता है उत्तम महापुरुषों के शरीर में एक हजार आठ शुभ लक्षण होते हैं, उनसे नित्य सुख ही सुख भोगते है, और जो पापोदय से सहित मनुष्य होते हैं, उनके शरीर में अनेक अशुभ लक्षण होते है, उनका फल जीवन में मात्र कष्ट ही कष्ट पाना होता है॥2॥ दाहिणहत्थेपरिसाण लक्खवणं वामयम्मि महिलाणं। रेहाहिं सुद्धणिज्झाइ ऊण तो लक्खणं सुणहं॥3॥ Page #1070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१० भद्रबाहु संहिता (दाहिणहत्थेपुरिसाण ) दाहिना हाथ पुरुषों का व (वामयम्मि महिलाणं) वाम हाथ महिला (स्त्रियों) का देखकर उसके (लक्खणं) लक्षण को (रेहाहिंसुद्धणिज्झाइऊण ) रेखा को अच्छी तरह से देखकर वर्णन किया है ( तो लक्खणं सुबह ) । भावार्थ — दाहिने हाथों के लक्षण पुरुषों के व वाम हाथों के लक्षण महिलाओं के देखकर रेखाओं का वर्णन किया है। उनके लक्षण को सुनो मैं उसका अच्छी तरह से अन्य ग्रन्थों का भी आधार लेकर वर्णन करूँगा । वराहमिहिर की भुंगुसंहिता में ऋषी ने ऐसा कहा है कि अगर जिसके हाथ बन्दर सरीखे हो वह बहुत धनवान होता हैं और सिंह के समान हाथों वाला पापी होता है। इन हाथों के लक्षण मैं और भी आगे कहता हूँ ॥ 3 ॥ पूर्वमाय: परीक्षेत पश्चाल्लक्षणमादिशेत् । आयुहननराणां तु लक्षणैः किं प्रयोजनम् ॥ 4 ॥ भावार्थ — सामुद्रिक शास्त्र के द्वारा शुभाशुभ फलों के विवेचन करने वाले पुरुष को पहले प्रश्नकर्ता की आयु की परीक्षा कर अन्य लक्षणों का आदेश करना चाहिये। क्योंकि जिसकी आयु ही नहीं है वह अन्य लक्षण जानकर क्या करेगा ? || 4 || वामभागे तु नारीणां दक्षिणे पुरुषस्य च। निर्दिष्टं लक्षणं चैव सामुद्र-वचनं यथा ॥15 ॥ भावार्थ — इस शास्त्र के वचन के अनुसार, पुरुष के दाहिने और स्त्री के बांये अंग के लक्षण का निर्देश करना चाहिये ॥ 5 ॥ हाथ की बनावट के बारे में पं. बालभट्ट जी गाल्विय का ऐसा अभिप्राय हैं । कि हस्त रेखा तथा हाथ की बनावट के पढ़ने से विद्यार्थी को चरित्र तथा भाग्य के जानने में बहुत मदद मिलती है। हाथ की शक्ल बहुत धन तथा उसके कुल के विषय में बतलाती हैं । चरित्र का कारण बताने वाला चिह्न जैसे कि हाथ की बनावट से ज्ञात होता है, इस विद्या का मूल बतलाता है। कि यह अपने में भी बहुत गहरी तथा अच्छी बातें, जबकि जातियों में कर्क, उनका दूसरों के साथ मिलना, जो कि आजकल पृथ्वी पर बहुत फँस गया है, बतलाती है। उदाहरणार्थ - एक फ्राँस तथा इंग्लैण्ड देश के मनुष्य के हाथ के फर्क से उसके स्वभाव तथा चरित्र के विषय में ज्ञान प्राप्त हो जाता है। Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९१ हस्त रेखा ज्ञान यद्यपि काम और व्यायाम हाथ को बड़ा तथा चौड़ा बना देते है । तथापि उसकी किस्म कभी भी नहीं बदलती, लेकिन जिसने इस विद्या को पढ़ा है, वह शीघ्र ही उसको पहचान लेता है। Fie 1 FIG 2 ऐसा हाथ वास्तव में कर्मकार दिखाई पड़ता है। यह लगभग सीधा ही होता है अथवा कलाई उंगलियों की जड़ों और बराबर (Sido) में एकसा होता है। अंगुलियाँ भी देखने में 'वर्गाकार छाँट' रखती है। अंगूठा सदा लगभग लम्बा, अच्छी शक्ल का और हथेली में ऊँचे को होता है। चौकोर हाथ अभ्यासी या कार्यशील हाथ भी कहलाता है। ऐसे मनुष्य विशेषकर अभ्यासी, तर्क पटु और पार्थिव होते हैं। वे पृथ्वी तथा पृथ्वी की वस्तुओं में रहते हैं। वे बहुत कम आदर्श तथा विचार रखते हैं, वे ठोस गम्भीर कार्य करने वाले तथा जो कुछ भी वे करते हैं उसे विधिपूर्वक, तथा परिश्रम करते हैं, बेसबूत अपना अपने कारणों से विश्वास करते हैं। वे और किसी वस्तु की अपेक्षा अपनी आदतों से अक्सर धार्मिक और अन्धविश्वासी होते है । हाथों की निम्नलिखित किस्में होती हैं--- 1. साधारण या निम्न श्रेणी का ( Clementry) 2. कार्यशील या चौकोर ((Ise bulor squarl) Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता 3. लंपनी की शक्ल का (Nervous active type) 4. दार्शनिक या जोड़ों का (Jointed or Poilosoploy ) 5. मोकीला या कलात्मक (Artistic ) 6. आदर्शात्मक (Peystic of India listic ) 7. मिश्रित हाथ (Mixed) कलाओं के प्रति भावुक होता है। यह बहुत कुछ मस्तक रेखा तथा उससे प्रदर्शित इच्छा शक्ति पर निर्भर है कि वह मनुष्य स्वाभाविक ही कलात्मक स्वभाव की उन्नति करेगा या नहीं। यदि हाथ भरा हुआ, गुदगुदा सा मुलायम है तो वह निश्चित रूप से प्रकृति में आलस्य बतलाता है। वह आलस्य यदि अब तक बाहर नहीं आया तो वह कोई असली नतीजे पर पहुँचने के लिए सख्त काम से झगड़ता है। सभी तरंगित मनुष्य इस श्रेणी की विशेषताएँ रखते हैं लेकिन अधिकता अपना समय केवल कला की बढ़ाई करने में ही व्यतीत करते हैं, और अपने आप उसको बनाने का कोई उद्योग नहीं करते । हाथ जितना भी दृढ़ तथा कड़ा होगा मनुष्य वास्तव में उतना ही अधिक, अपने कलात्मक स्वभाव से बनायेगा | कुछ COMIC OF ARTISTIC HELD F ८९२ THE MIRED HAND MAND ਪਰਸਨ ਦੀਪ निश्चित हाथ चित्र संख्या - भागर THE REALISTIC t I Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९३ हस्त-रेखा जान आदर्शात्मक (Idealistic) हाथ __ ऐसा हाथ अनेक दशाओं में केवल मानसिकता में सबसे उन्नत होता है किन्तु सांसारिक दृष्टि से सबसे कम कामयाब होता है। ऐसे कलात्मक (Artistic) या नुकीला हाथ कलात्मक हाथ पतली और नुकीली अंगुलियों से बहुत ही सुन्दर लगता है (चित्र 1 भाग 2) यह न केवल हाथ की बनावट के ही कारण वरन् अपनी विशेषताओं के कारण भी कलात्मक हाथ कहलाता है। यह नहीं कि ऐसा मनुष्य सदा तस्वीरे रखे या सुन्दर चीजें ही बनाये किन्तु, तरंगित तथा कलात्मक स्वभाव रखता है जबकि अपने सुन्दर वातावरण को पसन्द करता है। और वह रंग गायन तथा सुन्दर कलाओं के प्रति भावुक होता है। यह बहुत कुछ मस्तक रेखा तथा उससे प्रदर्शित इच्छा शक्ति पर निर्भर है। कि वह मनुष्य स्वाभाविक ही कलात्मक स्वभाव की उन्नति करेगा या नहीं। यदि हाथ भरा हुआ, गुदगुदा सा मुलयाम है, तो वह निश्चित रूप से प्रकृति में आलस्य बतलाता है। वह आलस्य यदि अब तक बाहर नहीं आया तो वह कोई असली नतीजे पर पहुँचने के लिए सख्त काम से झगड़ता है। सभी तरगित मनुष्य इस श्रेणी की विशेषताएँ रखते हैं, लेकिन अधिकतर अपना समय केवल कला की बढ़ाई करने में ही व्यतीत करते है। और अपने आप उसको बनाने का कोई उद्योग नहीं करते। हाथ जितना दृढ़ तथा कड़ा होगा मनुष्य वास्तव में उतना ही अधिक अपने कलात्मक स्वभाव से कुछ बनायेगा। मिश्रित (Mixed) हाथ मिश्रित हाथ या तो सभी प्रकार के या कुछ प्रकार के हाथों का मिश्रण होता है। इनकी अक्सर हर एक अंगुली अलग प्रकार की होती है। या कभी-कभी हथेली एक प्रकार की और अंगुलियों से मिश्रित होती है। ऐसे मनुष्य सदा अस्थिर तथा चपल होते है लेकिन इतने परिवर्तनशील होते हैं। कि वे अपने बौद्धिक कार्यों में बहुत कम सफल होते हैं। वे अक्सर हर कार्य को कुछ न कुछ कर सकते Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ८९४ है । किन्तु अच्छा कुछ भी नहीं कर सकते। वे किसी के बीच में बोल सकते है । किन्तु सुनने वालों के विषय की गहराई से भी प्रभावित नहीं कर सकते हैं। जब मनुष्य की मस्तिष्क रेखा स्पष्ट तथा सीधी हो तो उसकी स्वाभाविक चपलता से ज्ञात होता है कि वह उन्नति करता है। साधारण हाथ (The Elementy ) जैसा कि नाम से प्रतीत होता है, साधारण हाथ निम्न श्रेणी का हाथ है। यह जानवरों की जाति से कुछ ही ऊँचा है। इसकी शक्ल बहुत छोटी होती है, मोटी तथा कठोर भी होती है (चित्र 1 भाग 2 ) | साथ ही में यह बतला देना चाहता हूँ। कि हाथ जितना भी छोटा और मोटा होगा वह मनुष्य उतना ही कठोर, निर्दयी, असभ्य तथा पशुत्व के नजदीक होगा । इस श्रेणी को देखने पर विद्यार्थी केवल जो कुछ भी कठोरता निर्दयता और पशुत्व है, वह उसी की आशा कर सकता है। ऐसे मनुष्य मानसिक विकास तथा योग्यता बहुत ही कम रखते है। वे अधिकतर ऐसे ही कार्य करते है। जिनमें कि दिमाग की बहुत कम आवश्यकता होती है। वे स्वभाव में बहुत तेज होते हैं और वे अपनी इच्छाओं तथा क्रोध पर बहुत कम या बिल्कुल भी काबू नहीं रखते। वे अपने विचारों में बहुत ही रूखे, बहुत कम हृदयस्पर्शी ( Santiment) भावनायें, कोई विचार या भाव नहीं रखतें, और यह भी पाया जाता है कि ऐसे मनुष्यों का दिमाग बिल्कुल ही अवनति की दशा में पाया जाता है। जैसा कि मनुष्य की उच्च जातियाँ महसूस करती है, वैसा दुःख ये महसूस करते और खाने पीने, सोने के अतिरिक्त बहुत कम इच्छायें रखते हैं। नोट- साधारण हाथों में अंगूठा बहुत ही छोटा और नीचा होता है। आदर्शात्मक (Ideolistic) हाथ ऐसा हाथ अनेक दशाओं में केवल मानसिकता में सबसे उन्नत होता है। किन्तु सांसारिक दृष्टि से सब से कम कामयाब होता है। ऐसे मनुष्य स्वप्न लोक तथा आदर्श लोक में ही घूमा करते है। अपने जीवन की अभ्याशिक या पार्थिक स्थिति को बहुत कम और जब अपनी आजीविका कमाने निकलते है, तो वे इतना कम पाते हैं कि अक्सर भूखा रहना पड़ता है। Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i ८९५ हस्तरेखा ज्ञान ये सुन्दर हाथ किसी भी दशा में काम करने के लिए नहीं दिखाई पड़ते । वे बहुत ही आत्मिक होते है। और जीवन संग्राम के धक्के सहने में बहुत ही कमजोर होते हैं, यदि वे दूसरों से मदद पावें या अपना ही धन रखने के लिए रखते है । तब तो ठीक है किन्तु वे बहुत ही उच्च आदर्शों तथा आत्मिक दृश्यों की झलक देखते है जबकि न किसी ने सुने न समझे है । लेकिन यदि ऐसा नहीं है तो उनका भाग्य दुखान्त है। और वे आसानी से ही मानवता की जरूरतों से धक्का खाकर एक ओर हट जाते है। या बहुत ही असहाय अवस्था में अपना जीवन खो देते हैं और ऐसे बेमेल लड़ाई समाप्त करते है। वे शारीरिक बनावट में भी कमजोर होते है। और इस प्रकार वे जीवन की जंग के लिए अयोग्य होते हैं। मंगल का पटका, शनि की चक्र अंगूठी तथा मणिबन्धन ये निशान हाथ की निम्न रेखाओं में आते हैं। लेकिन कभी-कभी सबसे बड़ी रेखाओं के समान महत्त्व रखते हैं। मंगल का पटका वह टूटा हुआ या न टूटा हुआ अर्द्ध-वृत्त है। जो पहली अंगुली के नीचे से आरम्भ होता है। और चौथी अंगुली तक जाता है। (1-1 चित्र 20 ) | मैंने अपने अनुभव में इस रेखा का, जैसा कि दूसरे लेखकों ने लिखा है, भारी इन्द्रिय सेवी को दिखाते नहीं देखा । यह याद रखना चाहिए कि मस्तक- रेखा से हाथ दो हिस्से ऊपर का तथा नीचे का बट जाता है। नीचे का हिस्सा शारीरिक या अधिक पशुता की प्रकृति तथा ऊपर का हिस्सा मानसिक या दिमाग होगा। इस सिलसिले को देखते हुए यह मंगल का पटका मंगल की प्रकृति या मानसिक दशा को प्रकट करता है। मैंने देखा है, कि मनुष्य इस निशान को रखते हैं। वे शारीरिक इन्द्रिय सेवी की अपेक्षा मानसिक अधिक होते हैं। वे ( Sex Problemn) जाति की समस्या पर पुस्तक पढ़ना या लिखना पसन्द करते हैं। लेकिन वे अपने विचारों तथा भूमिकाओं को अभ्यास में नहीं लाते, कम से कम अपने जीवन में तो लाते ही नहीं । जब यह मंगल का पटका शनि के उभार से शुरू होकर बुध के उभार तक Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता जाता है। तो इसकी विशेषताएँ अधिक क्रियाशील तथा खतरनाक होती है। ऐसे मनुष्यों के विचार अस्वस्थ्य होते है। जबकि यह मंगल का पटका टूटा हो या छोटे-छोटे टुकड़ों से बना हो तो हिस्टरिक प्रकृति के अतिरिक्त कम अर्थ रखती है। तथा जो स्वभाव मैंने ऊपर लिखे है। उनकी ओर झुकी रहती है, जब यह मंगल का पटका शादी की रेखा से गुजरता है तो उसके लिए शादी का बहुत बुरा अनुभव होगा । दार्शनिक हाथ (Philosophic) दार्शनिक नाम ग्रीस के, प्रेम तथा चतुरता से पड़ा है। यूनानियों ने देखा कि जो मनुष्य ऐसा हाथ रखते हैं वे दर्शन शास्त्र की ओर झुके होते हैं। और कोई भी चीज उन्हें नहीं रोक सकती । दार्शनिक हाथ लम्बा, हड्डीदार और गाठंदार जोड़ों से कोणदार और प्रायः पतला होता है। ऐसे मनुष्य बहुत पढ़ने (Stodious) वाले होते हैं। वे विद्वान और साहित्य की ओर रूचि रखते है। वे अकेले कार्य करना पसन्द करते है। और कुछ एकान्त तथा अकेली प्रकृति के होते हैं। इस विशेषता के कारण प्रायः मनुष्य धार्मिक उत्सवों में भाग लेते है। और मन्दिरों में जीवन व्यतीत करते हैं। बूढ़े, संन्यासी मेरा मतलब उनसे है जिन्होंने धर्म, विज्ञान, कला तथा गूढ़ रहस्यों पर आश्चर्यजनक लेख लिखे हैं, सभी इसी प्रकार का हाथ रखते है । हमारे वर्तमान काल में यह श्रेणी आसानी से पहचानी जा सकती है। और विशेषताएँ जबकि यह बतलाती है कि कलयुग तथा धनयुग में भी वही रहता है। Fia 3 THE SPATULATE NAND लेपनी के समान हाथ दार्शनिक ८९६ THE 14.SOPHIC MAR हाथ ! Page #1077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९७ हस्त-रेखा ज्ञान लेपनी के समान हाथ दार्शनिक हाथ । आजकल दार्शनिक हाथ बहुत कम पाया जाता है। आजकल हथेली चौकोर तथा केवल अगुलियों ही दार्शनिक होती है। ऐसी दशा में अभ्यास ही नींव होती है जिस पर कि विद्याभासी दिमाग अपनी कल्पना, अपना धर्म, साहित्य के कार्य या विज्ञान की खोज करता है। ऐसे हाथों में मस्तक-रेखा कुछ झुकी हुई होती है। लेकिन वह सीधी भी पाई जाती है। और जब वह चपटे दिमाग का हो तो स्वभाव विद्याभासी प्रकृति हो अभ्यासी कार्यों के काम में लाता है। लेकिन साधारण तौर पर ऐसे मनुष्य चौकोर हाथ वाले मनुष्यों से कम धर्म रखते है। गांठदार या जोड़दार अंगुलियां लाभ और पढ़ाई में विस्तार तथा हिफाजत बतलाती है। वे दिमाग से कार्य को पकड़ लेते है। और फिर सोचने के लिए समय लेते है। दार्शनिक हाथ मानव जाति की मानसिक दशा की बहुत उत्तम दशा का द्योतक है। शनि की अंगूठी (Ring of Stern) शनि की अंगूठी बहुत कम पाई जाती है (2 चित्र 20) और यह बहुत ही अच्छा निशाना नहीं है। यह भी अर्द्धवृत्ताकार रेखा है, लेकिन शनि के उभार के चारों ओर होती है। ___मैंने अपने अनुभव में कभी भी किसी मनुष्य को जो यह अंगूठी रखता है। किसी भी कार्य में सफल होते नहीं देखा। ऐसे मनुष्य किसी विशेष या अजीब रास्ते में अपने साथियों से अलग हो जाते है। वे अकेल होते है और वे अपनी अकेली स्थिति को गौर से पहचानते है। वे अन्धकारपूर्ण, चिन्ताशील तथा शनि की प्रकृति के होते है। वे बहुत कम शादी करते है, और जब वे करते है, तो बुरी प्रकार से असफल होते है। वे अपने कार्यों में बहुत दृढ़ होते है। अपने कार्यों में तनिक सी किसी की भी राय या दखल को नहीं मानते। उनका जीवन दुःखी दरिद्र या किसी प्रकार का पापपूर्ण दुःखान्त या घातक होता है। यह निशान रखना बहुत ही अभाग्यशाली Page #1078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ८९८ मणिबन्धन मणिबन्धन स्वास्थ्य पर कुछ प्रभाव रखने के अतिरिक्त और बहुत कम महत्त्वपूर्ण है। (3-3 चित्र 20) ये तीन होते हैं जबकि यूनानियों के मतानुसार स्वास्थ्य, धन तथा खुशी के कहे जाते हैं। यह बहुत कम होता कि ये तीनों ही पाये जायें। यूनान के प्राचीन ग्रन्थों का अवलोकन करने से ज्ञात होता है। कि प्रथम मणिबन्धन के विषय में एक महत्त्वपूर्ण बात यह है। कि कलाई के पास वाला ही प्रथम मणिबन्धन है जबकि स्वथ्य बतलाया है। एक समय में ग्रीस में स्त्रियाँ पादरियों के पास शादी कराने से प्रथम अपने हाथों की परीक्षा के लिये आती थी। यदि पादरी प्रथम मणिबन्धन को उसके स्थान से हाथ में धनुषाकार होते (4 चित्र 20) देखता है तो उसे किसी भी दशा में शादी करने के लिए नहीं कहता | इसके सम्बन्ध में यह विचार है कि वहाँ पर कुछ आन्तरिक गड़बड़ होती है। जबकि बच्चों के लिये रुकावट सिद्ध होती है। ऐसी दशा में ये स्त्रियाँ मन्दिरों में पवित्र कुमारियाँ बना ली जाती है। प्राचीन यूनानी पादरी इस विचार में सत्य होते थे क्योंकि यह मणिबन्धन अन्दर को धनुषाकार होने से दोनों स्त्री तथा पुरुष आन्तरिक दुर्बल होते है | और विशेषकर जाति सम्बन्ध में अधिक कमजोर होते हैं। अनुभव रेखा (VIa Jucivr) __ अनुभव रेखा (5 चित्र 20) दार्शनिक, नुकीली तथा (Psychic) आत्मिक हाथों के अतिरिक्त कम पाई जाती है (Spatulete) हाथ में भी अक्सर पाई जाती यह बहुत कुछ अर्द्धवृत्ताकार होता है। जो बुध के उभार से चन्द्रमा के उभार तक जाती है, या अकेले चन्द्र के उभार पर भी पाई जाती है। यह स्वथ्य रेखा के साथ नहीं मिला देनी चाहिये। लेकिन अपने आप में साफ निशान होता हैं। यह बहुत ऊँची भावुक प्रकृति, पूर्व चिन्ता, उत्साह, उच्च दर्जे की वह शक्ति जो कि उन चीजों को देखे, जो कि ज्ञान से परे हैं (clairuoyance} Page #1079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९९ हस्त-रेखा ज्ञान स्वप्न, किस प्रकार से चीजें करनी चाहिये इसका अनुभव और अक्सर शानदार व्याख्यान देना या जोशदार लेख लिखने की शक्ति बतलाती है। यह मनुष्यों की अपेक्षा स्त्रियों के हाथ पर अधिक पाई जाती है। किन्तु अक्सर पुरुषों के हाथों पर भी स्पष्ट देखी जा सकती है। हर दशा में ही इसको रखने वाला मनुष्य बहुत ही अजीब शक्तियाँ तथा खासियतें तथा साथ ही सांसारिक वस्तुओं का लाभ जिनके विषय में वे साधारण अवस्था में कुछ भी नहीं जानते, रखते है। ऐसे बहुत से मनुष्य बिल्कुल अशिक्षित होते है। लेकिन जोश के अवसर पर वे जटिल समस्याओं को बिल्कुल ठीक-ठीक बतलाते है। यदि उनसे पूछा जाय कि यह उन्होंने कैसे बतलाया तो वे यही उत्तर देते है। कि किसी आवेश में यह उनकों आ गया था। (It come them) मैंने ऐसे मनुष्यों जो कि इस प्रकार की शक्ति रखते है, देखे है कि जब वे किसी प्रकार की नशीली चीजों में लिप्त होते है। तो अपनी अद्भुत शक्तियाँ बिल्कुल भूल जाते हैं। निर्धन रेखा (The Viadusciva) यह भी एक अजीब निशानी अर्द्धवृत्त के समान है (६ चित्र २०) लेकिन इस दशा में यह चन्द्र के उभार को मंगल के उभार से मिलाता है। या यह हाथ के हिस्से (Luna) के उभार से कलाई की ओर निकल जाता है। पहले प्रकार की शक्ल 'बिना लगाम' की इच्छाएँ तथा भावनाएँ बतलाती है। किन्तु जहाँ यह जीवन-रेखा से कट जाती है तब मृत्यु हो जाती है लेकिन वह मृत्यु जबकि इसकी लापरवाही से होती है। दूसरे प्रकार की शक्ल अर्थात् चन्द्र के उभार से कलाई की ओर को जाती हो तो वह बहुत भावुक स्वप्न, इच्छाएँ, कल्पनाएँ बतलाती हैं। किन्तु यह अक्सर उस मनुष्य के लिए खतरनाक होती है। दोनों ही दशाओं में यदि मनुष्य का हाथ गुदगुदा तथा मुलायम हो तो मनुष्य मादक द्रव्य सेवन करता है। लेकिन यदि हथेली कड़ी हो तो मनुष्य को बहुत ज्यादा नशा करने के दौर आते है। तथा वह नशे में अपने ऊपर किसी प्रकार Page #1080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता का भी काबू नहीं रख सकता। यदि मस्तक रेखा कमजोर हो द्वीपों से भारी तथा चन्द्रमा की उभार की ओर झुकी हो तो पागलपन या बुरे प्रकार की रद्दोबदल उसके सारे चरित्र तथा जीवन को नष्ट कर देते है। चित्र सैरट २० गर जी गर जी Dua goisc mystique the Ring of Solomon. गुप्त रेखा (Dagolx Mystique) यह (Dagoix Mystique) मस्तक तथा हृदय-रेखा के बीच की चार रेखाओं के त्रिभुज में पाया जाती है (७ चित्र २०) यह अधिकतर हाथ के बीच ही में पायी जाती है। किन्तु यह चतुष्कोण की ओर भी पायी जाती है। यह निशान सब प्रकार की योग विद्या तथा अदृश्य विद्या को बतलाया है। जब यह वृहस्पति के अधिक नजदीक हो तो वह मनुष्य इन विद्याओं की सन्तुष्टि के लिए अधिक प्रयोग में लाता है। जब यह चतुष्कोण के बीचों बीच भाग्य-रेखा के परे या बिल्कुल शनि के उभार के नीचे हो तो ये विद्यायें धार्मिक अधिक हो जाती है। या अपनी कीमत के लिए पढ़ी जाती है। तथा अदृश्य विद्या का प्रभाव तथा सत्य सारे जीवन पथ पर पड़ता है। यह सम्भव हो सकता है, कि इस चिह्न को रखने वाला मनुष्य उसे पेशे के समान करे या अपनी खोज जो एक पुस्तक के रूप में बाँध ले। Page #1081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०१ हस्त रेखा ज्ञान जब यह चिह्न चतुष्कोण में अधिक नीचे को चन्द्र के उभार की ओर होता है, तो वह मनुष्य अदृश्य विद्या को अन्धविश्वास के कारण अधिक मानता है (follow) और वह ऐसा करने में सफल भी हो जाता है। तथा दूसरे मनुष्यों को अपनी विद्या से प्रभावित करता है। और इस बाद की अक्ल को रखने वाला मनुष्य सुन्दर, धार्मिक गुप्त कवितायें तथा सारे में हढ़ भावी वक्ता की टिप्पणी रखता है। वृहस्पति की मुद्रिका या गण्ण रेखा (The Ring of Solomon ) यह ( Ring of Solomon ) भी अदृश्य विद्या तथा योग विद्या की विशेषताएँ ही बतलाता है। लेकिन इसके बाद के स्थान में ये विद्यायें वृहस्पति की विशेषताओं से सम्बन्धित रहती हैं। इसको रखने वाला मनुष्य ऐसे विषयों में गुरु तथा प्रवीण मनुष्य की शक्ति रखता है ( ८ चित्र २० ) चौकोर (The Squrare type) यह चौकोर नाम हथेली के चौकोर होने के कारण पड़ता है। ऐसा हाथ वास्तव में कर्मकार दिखाई पड़ा है। यह लगभग सीधा ही होता है । अथवा कलाई उंगुलियों की जड़ों में बराबर (Side) में एकसा होता है। अंगुलियाँ भी देखने में " वर्गाकार छाँट " रखती है। अंगूठा सदा लगभग लम्बा, अच्छी शक्ल का और हथेली में ऊँचे को होता है। चौकोर हाथ अभ्यासी या कार्यशील हाथ भी कहलाता है। ऐसे मनुष्य विशेषकर अभ्यासी, तर्क पटु और पार्थिव होते है। वे पृथ्वी तथा पृथ्वी की वस्तुओं में रहते हैं । वे बहुत कम आदर्श तथा विचार रखते हैं, वे ठोस गम्भीर कार्य करने वाले तथा जो कुछ भी वे करते है। उसे विधि पूर्वक तथा परिश्रम से करते है, बेसबूत अपना अपने कारणों से विश्वास करते है । वे किसी वस्तु की अपेक्षा अपनी आदतों से अक्सर धार्मिक और अन्धविश्वासी होते है । वे अपने इरादे के पक्के और दृढ़ होते हैं विशेषकर जबकि उनका अंगूठा लम्बा और उसका जोड़ कड़ा हो। उन्हें जिस क्षेत्र में कल्पना व कार्य विचारने की शक्ति की आवश्यकता नहीं होती, उसमें सफल हो जाते है। वे व्यापार, डॉक्टरी, वकालत, विज्ञान आदि क्षेत्रों में अधिक अच्छा कार्य करते है, और प्रायः ऐसे ही क्षेत्रों में पाये जाते है। Page #1082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता चित्र - २१ भ्रमण, समुद्री यात्रा तथा आकस्मिक घटनाएँ भ्रमण तथा समुद्री यात्राएँ हाथ पर जीवन-रेखा से निकलने वाली तथा चन्द्रमा के उभार की ओर जाने वाली रेखाओं तथा स्वयं चन्द्र के उभार की रेखाओं से Page #1083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त-रेखा ज्ञान जानी जाती है (२ चित्र २१) जबकि ये सुन्दर रेखाएँ जीवन-रेखा से निकलती है तो (चित्र २६) के देखने से भ्रमण तथा यात्रा की तिथि जानी जा सकती है। ___ जब यह जीवन-रेखा बढ़ जाती है तथा उसकी एक शाखा चन्द्र के उभार की ओर जाती हो (१ चित्र २१) तो जीवन परिवर्तन तथा भ्रमणों से भरा होता है। ऐसी दशा में यह सम्भव नहीं हो सकता कि यात्रा के पहले ही उसकी ठीक तारीख बताई जा सके। यदि जीवन-रेखा अपने साधारण पथ को छोड़ दे और चन्द्रमा के उभार की ओर चली जाय तो जीवन भ्रमणकारी होता है। वह मनुष्य कहीं नहीं ठहरता और ऐसी दशा में मृत्यु जन्मस्थान से दूर के स्थान पर ही होती __ यदि जीवन-रेखा से कोई शाखा किसी दूसरी दशा में नहीं जाती लेकिन वह अर्द्धवृत्ताकार होकर मंगल के उभार के चोरों ओर जाती है, तो मेरे जीवन में कोई परिवर्तन या यात्रा नहीं होती और मनुष्य सदा अपने जन्म स्थान में ही होता रहा है (३-३ चित्र २१) यदि भ्रमण-रेखा जीवन-रेखा से निकलती हो और एक छोटे गुणा के चिह्न (Cross) में समाप्त होती है तो यात्रा निराशा समाप्त होती है (४ चित्र २१)। जब रेखा चतुष्कोण में समाप्त होती है तो मनुष्य को यात्रा में खतरा रहता है किन्तु चतुर्भुज रक्षा का चिह्न होने के कारण वह बच जाता है। जब रेखा द्वीप में समाप्त हो तो यात्रा हानि में समाप्त होती है (५ चित्र २१) जब भ्रमण-रेखा चन्द्रमा के उभार के पाप या उससे होकर जाती है और जिह्वाकार अथवा वृत्ताकार हो तो ऐसी यात्रा करने से जीवन का खतरा होता है। यदि मनुष्य निम्निलिखित तारीखों में उत्पन्न हो तो उसे समुद्री यात्रा सदा खतरनाक वालत्तणम्भि सुलह पएसिणी मज्झमंतरयणम्मि। मज्झिमअणाभियाणत्तरम्मि तरुणत्तणे सुक्खं ॥४॥ (पएसिणीमज्झमंतरघणम्मि) यदि प्रदेशिनी और मध्य की अंगुलियों में घर हो एवं (बालत्तणम्भि) यदि प्रदेशिनी और मध्य की अंगुलियों घनी हो तो (बालत्तणम्भि) बालपने में (सुलह) सुख मिलता है (मज्झिमअणामियाणंत्तरम्मि) और मध्यमा और Page #1084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिना | अनामिका के विच कोई अंतरन हो तो (तरुणतणे सुक्ख) युवा अवस्था में सुख की प्राप्ति होती है। भावार्थ-प्रदेशिनी और मध्यमा अंगुली के बीच कोई अन्तर न हो तो समझो वह व्यक्ति बालकपने में सुख की प्राप्त करता है। इस के बारे में वराहमिहर ने ऐसा कहा है कि यदि हाथ की अंगुलियां लम्बी हो तो मनुष्यदीर्घ जीवी होता है। सीधी अंगुलिया वाला मनुष्य सुभगों की प्राप्ति करता है सुक्ष्म और पतली अंगुलियों वाला मनुष्य बुद्धिमान होता है। चपटी अंगुलियां वाला दूसरों की सेवा करता है, मोटी अंगुलियों वाला मनुष्य दरिद्र ही होता है, बाहर की और अंगुलियाँ अगर झुकी हुई हो तो उनका मरण शस्त्र से होता है। विरली अंगुलियाँ जिसकी हो वह भी निर्धन होता है। सघन अंगुलियाँ वाला मनुष्य धन संचय करने वाला होता है। ।। ४॥ पावइ पच्छा सुक्खं कणिट्ठि आणमि अंतर घणम्मि। सव्वंगुलीधणम्मि अ होइ सुहीधणसमिद्धो अ॥५॥ (कणिष्टिआणम्मेि अंतर घणम्मि) यदि कनिष्ठ का अंगुलियों व अनामिका के बीच सघन अंतर हो तो समझो (पच्छापाव सुक्खं) पीछे की उमर में वह मनुष्य सुख पाता है। और (सव्वगुलीघणम्मि) यदि सब अंगुलियों के बीच छिद्र न हो तो अर्थात् सघन हो तो (अहोइसुहीघणसमिद्धोअ) वह सुखी होता है और धनादिक से समृद्धि शाली होता है। भावार्थ- यदि इसी प्रकार कनिष्ठा अंगुली के व अनामिका अगुली के बीच कोई अंतर न हो व सधन अर्थात् छिद्र रहित हो तो वह मनुष्य बुढापे में सुख पाता है उसी प्रकार सभी अंगुली या सघन हो छिद्र रहित हो तो समझो वह सुखी और धन से समृद्धिशाली होता है। यहाँ पर सघन अंगुलियों का अर्थ अंगुलियों के बीच में कोई अंतर नहीं हो अर्थात् छिद्र न हो।५।।। अब अंगुलियों के पर्वो का फल व अंगुलियों का फल कहते हैं। सम्मसंगुलिपव्वो पुरिसो थणवं सुही सया हाइ। जइ सो अमंसपब्वो ता तस्स सिरी ण संभवड़॥६॥ - - - Arr.. Page #1085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०५ हस्त-रेखा ज्ञान (सम्मंसगलिपव्वो) यदि अंगुलियों के पर्व भरे हुए हो अर्थात् मांसल हो तो (पुरिसो धणवं सुही सया होइ) वह मनुष्य धनवान व सदा सुखी होता है (जइसो अमसपब्वो) यदि उसकी अंगुलियों के पर्व मांसल न हो तो (ता तस्स सिरीणसंभवइ) तब उसके धन संभव नहीं होता है। भावार्थ-यदि मनुष्य की अंगुलियों के पर्व मांसल हो भरे हुए हो तो वह व्यक्ति धनवान होता है और सदा सुखी रहता है, और उस के अंगुलियों के पर्व भरे हुए न हो तो अर्थात् मांसल न हो तो वह दरिद्र होता है उसको धन नहीं होता है। समिहिः कहते हैं कि जिसकी अंगुलियों के पोरवे लम्बे हो तो वह सौभाग्यवान व दीर्घायु होता है। और भी अंगुलियां व अंगुठे के बारे में अन्य लेखकों का अभिमत। राजेश दीक्षिन कर ऐसा कहना है॥६॥ विभिन्न प्रकार के अंगूठे चित्र 15 अँगूठे के सम्बन्ध में प्राच्य तथा पाश्चात्य मतों का विश्लेषण ऊपर प्रस्तुत किया गया है। हमारे स्वानुभव के आधार पर विभिन्न प्रकार के अंगूठों का प्रभाव निम्नानुसार होता है 1-लम्बे, सुडौल एवं समान आकृति के अंगूठे वाला जातक चतुर, कार्य-कुशल, बुद्धिमान तथा शांति-प्रिय होता है। 2-छोटे, मोटे अथवा करूप आकृति के अंगूठे वाला जातक दुष्ट, क्रोधी उग्रस्वाभावी तथा मूर्ख होता है। Page #1086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता । 3-वर्गाकार आकृति अथवा सिरे पर मोटाई के लिये अंगूठे वाला जातक हठी, स्वेच्छाचारी, परन्तु परिश्रमी होता है। 4—नोंकदार आकृति के अंगूठे वाला जातक अनुशासनहीन, चंचल प्रवृत्ति तथा अस्थिर स्वभाव का होता है। 5-ऊपर से अधिक मोटे अंगूठे वाला जातक नीच, निर्दयी, हठी, उग्र स्वभावी तथा झगड़ालू प्रवृत्ति का होता है। 6-ऊपर से अधिक पतले अंगूठे वाला जातक अस्थिर-विचार तथा दुर्बल इच्छा-शक्ति वाला होता है। 7-ऊपर से बहुत चपटे अंगूठे वाला जातक पराश्रित अथवा हत्यारा होता 8—ऊपर से गोल चोड़े तथा बहुत मोटे अंगूठे वाला जातक असभ्य, क्रोधी, मूर्खः विचारहीन तथा नीच-प्रवृत्ति का होता है। 9-बीच में मोटे अंगूठे वाला जातक अविवेकी ज्ञानी, हठी तथा मूर्ख होता 10-बीच में पतला तथा दोनों सिरों पर मोटी आकृति के अंगूठे वाला जातक वाद-विवाद एवं विचार-शक्ति में क्षीण परन्तु कूटनीतिज्ञ, दूरदर्शी, जल्दबाज तथा चतुर होता है। 11-अत्यधिक लंबे अंगूठे वाला जातक अपनी ही बुद्धि के अनुशासन में रहने वाला तथा कभी-कभी बहुत जिद्दी बन जाने वाला होता है। • 12—सामान्य लम्बा अंगूठा हो तो जातक सोच-समझकर काम करने वाला होता है। ऐसे अंगूठे के साथ चमसाकार अंगुलियाँ हैं। तो जातक किसी भी काम को तुरन्त आरम्भ कर देता है। तथा उसके परिणाम एवं समाप्ति की चिन्ता नहीं करता। गांठदार अंगुलियाँ हो और उनके छोर वर्गाकार अथवा चमसाकार हो तो जातक की तर्क शक्ति उत्तम नहीं होती। ____13—सामान्य से कुछ ही अधिक लम्बे अंगूठे वाला जातक आत्म नियन्त्रक तथा सद्गुणी होता है। 14-छोटे अंगूठे वाला जातक दुर्बल-हृदय वाला तथा अनिश्चयी होता Page #1087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ९०७ हस्त रेखा ज्ञान है । बहुत छोटे अंगूठे वाला परिवर्तशील विचारों का होता है। सामान्य छोटे अंगूठे के साथ चिकनी अंगुलियाँ हो तो जातक कला-प्रेमी होता है; नुकीली अंगुलियाँ हो तो कला के पीछे दीवाना बना रहता है। वर्गाकार अथवा चमसाकार अंगुलियाँ हो तो कला का आलोचक होता है; गाँउदार तथा नुकीले छोर वाली अँगुलियाँ हो तो तर्क शक्ति नियन्त्रित होती है। तथा कला प्रेमी होने के स्थान पर जातक व्यवसायी अथवा विज्ञान में रुचि रखने वाला होता है। 15---मोटा तथा रुखा अंगूठा हो तो जातक रुखे स्वभाव का परन्तु ईमानदार होता है। 16 – चपटा अंगूठा हो तो जातक हर समय कुछ-न-कुछ बकता रहता है। 17-चौड़ा अंगूठा हो तो जातक क्रोधी तथा उग्र स्वभाव का होता है। 18- -चौड़ा तथा छोटा अंगूठा हो तो जातक जिद्दी होता है। 19- पतला अँगूठा हो तो जातक सुसंस्कृत रुचि का होता है। यदि पतला होने के साथ अधिक नाजुक भी हो तो कला-प्रेमी होता है। 20—–ढ़ तथा बड़े अंगूठे वाला जातक व्यवहार कुशल तथा कर्त्तव्य परायण होता है। 21- -छोटा तथा कमजोर अंगूठा हो तो जातक में साहस एवं इच्छा शक्ति का अभाव होता है। 22 – अंगूठे का सिरा हथेली के पीछे (बाहर) की ओर मुड़ा हुआ हो तो जातक बिना विचारे अधिक खर्च करने वाला, सुखी जीवन बिताने वाला, उदार दानी तथा ललित कलाओं का प्रेमी अथवा ज्ञाता होता है। 23 – अंगूठे का सिरा हथेली के भीतर की ओर मुड़ा हो तो जातक अस्थिर बुद्धि वाला होता है। 24 – लचीले अंगूठे वाला व्यक्ति अच्छा गायक होता है। 25- नुकीले अंगूठे वाला जातक चापलूसी पसन्द होता है। 26 – यदि अच्छी बनावट वाला अंगूठा तर्जनी से एकदम सटा हुआ हो तो जातक परावलम्बी होता है। Page #1088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | 27—यदि बड़े अंगूठे के साथ अंगुलियाँ एक-दूसरी से अलग-अलग हो तो जातक स्वावलम्बी, स्वतन्त्र विचार का निस्प्रह परन्तु अत्याचारी होता है। 28-छोटे तथा चौड़े अंगूठे वाला जातक जिद्दि होता है, परन्तु समझा दिए जाने पर जिद छोड़ भी देता है। 29—अंगूठा बड़ा हो तथा हथेली मुलायम हो तो जातक अपने किसी मित्र के विश्वास पर आश्रित रहता है। ___30-अंगूठे का पहला पर्व पुष्ट, मजबूत, मोटा तथा उठावदार हो तथा दूसरा पर्व निर्बल एवं छोटा हो तो जातक आत्मनिग्रंही एवं मनोनुकूल आचरण करने वाला होता है। 31-अंगूठे का पहला पर्व अधिक लम्बा न होकर अधिक मोटा हो तो जातक दृढ़ निश्चयी होता है। ____32_अंगूठे का पहला पर्व अधिक चौड़ा, फैलावदार तथा भारी हो तो जातक क्रोधी, हठी, विश्वासघाती, निर्दिया, हिंसक प्रकृति का होता है, परन्तु यदि हृदय रेखा एवं मस्तक रेखा की स्थिति अच्छी हो तो यह दोष नहीं होते। विभिन्न प्रकार के अंगूठे चित्र 16 33—यदि तर्जनी और अंगूठे के बीच का स्थान अधिक हो तो जातक उदार-प्रकृति का होता है। 34—यदि अंगूठा लचकदार तथा पीछे की ओर अत्यधिक मुड़ जाने वाला Page #1089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त-रेखा मान हो तो जातक फिजूल खर्च, अत्यधिक उदार तथा भावुक होता है एवं प्रत्येक स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति के अनुकूल बन जाता है। 35–यदि अंगूठा दोनों स्थानों पर ढीला-ढाला तथा झुका हुआ हो तो जातक अस्थिर-चित्त तथा दूसरों के प्रभाव में आ जाने वाला होता है। 36- यदि अंगूठे का ऊर्ध्व भाग मोटा, पतला एव सर्पाकार हो तो जातक विश्वासघाती तथा स्वयं भी धोखा खाने वाला होता है। ___37–यदि अंगूठा कोमल तथा झुका हुआ हो, चन्द्र क्षेत्र उन्नत हो तथा वहां से एक रेखा निकलकर शुक्र क्षेत्र पर पार हो तो जातक दानी, परोपकारी, धर्मात्मा तथा स्वयं हानि सहकर भी दूसरों की सहायता करने वाला होता है। ऐसा व्यक्ति विदेश यात्रा द्वारा पर्याप्त धनोपार्जन करता है, परन्तु स्वाभाव से कुछ कठोर तथा चिड़चिड़ा होता है। 38-यदि अंगूठा सीधा तथा सुदृढ़ हो, बुध क्षेत्र उन्नत हो तथा हृदय रेखा गुरु क्षेत्र पर पहुंच रही हो तो जातक कुशल व्यवसायी होता है। तथा स्वबुद्धि से पर्याप्त धनोपार्जन करता है। _____ 39-—बाँयें हाथ के अंगूठे के मध्य भाग में यह-चिन्ह होने पर जातक का जन्म शुक्ल पक्ष में हुआ है यह समझना चाहिए। बाँयें अंगूठे में यह-चिन्ह हो तो कृष्ण पक्ष की रात्री का तथा दोनों अंगूठों में यह चिन्ह हो तो कृष्ण पक्ष में दिन का जन्म समझना चाहिए। ___40--दौंयें हाथ के अंगुष्ठ-मूल में जितने यह-चिन्ह हों, उतनी ही पुत्रियां होती है—यह भी एक मत है। 43-अंगूठे में यह-चिन्ह होने पर जातक धनी होता है। अँगुलियाँ प्रत्येक हाथ में अंगुलियों की संख्या 4 होती है, जिन्हें क्रमश: (1) तर्जनी, (2) मध्यमा, (3) अनामिका तथा (4) कनिष्ठिका कहा जाता है। अंगुलियों की संख्या न्यूनाधिक हो तो उनका प्रभाव अशुभ माना गया है। प्राच्यमत से अंगुलियों की विभिन्न स्थितियों का प्रभाव अग्रानुसार होता Page #1090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता तीर्थ-स्थल--प्रत्येक अंगुली में एक-एक तीर्थ का निवास निम्नानुसार होता 1-अंगूठा तथा कनिष्ठा अंगुली के तल में ब्रह्म तीर्थ। 2-अंगूठा एवं तर्जनी के मध्य भाग में—पितृ तीर्थ। 3-सभी अंगुलियों के मूल (निम्न) भाग में—देव तीर्थ । 4-तर्जनी के मूल तथा अग्रभाग में शत्रुञ्जय तीर्थ। 5-अनामिका के मूल तथा अग्रभाग में—अर्बुद तीर्थ। 6–कनिष्ठा के मूल के मणिबंध तक के बहिर्भाग में-ऋषि तीर्थ। 7-अंगूठे के ऊपरी भाग में अष्टापद पर्वत। राशियाँ-अंगुलियों के विभिन्न पर्यों में द्वादश राशियों का निवास निम्नानुसार माना गया है (1) कनिष्ठा—प्रथम पर्व में मेष, द्वितीय में वृष, तृतीय में मिथुन । (2) अनामिका प्रथम पर्व में कर्क, द्वितीय में सिंह, तृतीय में कन्या। (3) मध्यमा--प्रथम पर्व में तुला, द्वितीय में वृश्चिक, तृतीय में धनु। (4) तर्जनी-प्रथम पर्व में मकर, द्वितीय में कुम्भ, तृतीय में मीन। भेद-भारतीय आचार्या ने अंगुलियों के 16 भेद माने हैं, उनके नाम तथा प्रभाव को निम्नानुसार समझना चाहिए (1) अवसित—ऐसी अंगुलियां सुस्पष्ट होती हैं। ये सौभाग्यसूचक हैं। (2) सूक्ष्म-ऐसी अंगुलियां छोटी होती हैं। ये मेधावी होने की सूचक (3) सरल तथा दीर्घ-ये दीर्घायु की सूचक हैं। (4) स्थूल-ये निर्धनता की सूचक है। (5) बहिर्नता—बाहर की ओर झुकी अंगुलियां शस्त्रधारी योद्धा होने की सूचक हैं। (6) हस्व-चिप्रिटा-छोटी तथा चिपटी अंगुलियां क्षमता की सूचक हैं। (7) चिपिटा-चिपटी अंगुलियां अशुभ सुचक होती हैं। (8) स्फुटा—फटी हुई सी अंगुलियां अशुभ सूचक हैं। Page #1091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९११ हस्त-रेखा ज्ञान (9) रूक्षा-रूखी-सी अंगुलियां अशुभ सूचक हैं। (10) पृष्ठारोमान्विता—पृष्ठ भाग पर केशों वाली अंगुलियां दारिद्रय एवं अशुभ सूचक हैं। (11) खरा-ऊँची-नीची अंगुलियां दारिद्रय एवं अशुभ सूचक होती हैं। (12) वक्रा–टेढ़ी-मेढ़ी अंगुलियां अशुभ सूचक हैं। पुग्यता ' t म.16 दे -- विभिन्न प्रकार की अंगलियों में तीर्थ, राशि एवं ऋतुओं की स्थिति चित्र 17 (13) अति हस्वा-बहुत छोटी अंगुलियां रोग तथा दुःख सूचक होती (14) कृशा-बहुत पतली अंगुलियां रोग तथा दुःख सूचक होती है। (15) विरला एक दूसरी से दूर-दूर रहने वाली अंगुलियां दारिद्रय सूचक Page #1092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ९१२ (16) धनांगुलि—एक दूसरी से सटी हुई अंगुलियां धन-संचय की सूचक प्रभाव-भारतीय विद्वानों के मतानुसार पुरुष जातक के हाथ की अंगुलियों की विभिन्न बनावटों का प्रभाव निम्नानुसार होता है-- 1. विरल अंगुलियां-दारिद्रय। 2. सघन अंगुलियां-धनागम। 3. बिरल तथा रुखी अंगुलिया--दुःख एवं दरिद्र। 4. सीधी अंगुलियां-आयु वृद्धि, शुभ। 5. पतली अंगुलिया स्मरण शक्ति की तीव्रता । 6. चपटी अंगुलियां दास वृत्ति। 7. बहुत मोटी अंगुलियां---निर्धनता। 8. कर पृष्ठ की ओर झुकी अंगुलियां-शस्त्राघात से मृत्यु। 9. विरल पतली, स्थूल अथवा टेढ़ी अंगुलियां—दारिद्र। 10. लम्बी अंगुलियां-अनेक स्त्रियों से समागम। 11. लम्बे पर्व वाली अंगुलियां--धनागम एवं दीर्घायु। 12. लम्बे पर्व वाली अंगुलियां-सौभाग्य। 13. कनिष्ठा का नख अनामिका के दूसरे पर्व से आगे बढ़कर तृतीय पर्व तक पहुंचे अत्याधिक धन । 14. कनिष्ठा और अनामिका के मध्य छिद्र रहे-वृद्धावस्था में निर्धनता का कारण दु:ख। 15. मध्यमा तथा अनामिका के मध्य छिद्र रहे युवावस्था में दुःख। 16. मध्यमा तथा तर्जनी के मध्य छिद्र रहे—बाल्यावस्था में दुःख। 17. जिन दो अंगुलियों के मध्य छिद्र न हो--जीवन के उस भाग में सुख। 18. जिन दो अंगुलियों के मध्य छिद्र हो--जीवन के उस भाग में दुःख। 19. सभी अंगुलियों के मध्य छिद्र हो-जीवन भर धनाभाव । 20. किसी भी अंगुली में छिद्र न हो—जीवन भर धन सम्पन्नता। 21. तर्जनी तथा मध्यमा परस्पर मिली हो—बाल्यावस्था में धन-सुख। Page #1093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१३ हस्त रेखा ज्ञान 22. मध्यमा तथा अनामिका परस्पर मिली हों— युवावस्था में धनसुख । 23. अनामिका तथा कनिष्ठा परस्पर मिली हों—–वृद्धावस्था में धन सुख । 24. सभी अंगुलियां परस्पर मिली हों— जीवन भर धन-सुख । 25. कनिष्ठा अनामिका के तीसरे पर्व का स्पर्श करती हो सब भाइयों में अग्रणी तथा स्वपराक्रम से धनी । 26. सब अंगुलियों को आपस में मिलाने पर बीच में अनेक छिद्र दिखाई दें --- दरिद्रता । 27. सब अंगुलियों को आपस में मिलाने पर कनिष्ठा तथा अनामिका के बीच छिद्र रहे –वृद्धावस्था में सुख । 28. सब अंगुलियों को आपस में मिलान पर अनामिका तथा मध्यमा के बीच छिद्र रहे— युवावस्था में सुख । 29. सब अंगुलियों को आपस में मिलाने पर मध्यमा तथा तर्जनी के बीच छिद्र रहें- - बाल्यावस्था में सुख । 30. कनिष्ठा अनामिका के तीसरे पर्व तक पहुंचे मातृ पक्ष की सफलता तथा धन वृद्धि । 31. कनिष्ठा अनामिका के द्वितीय पर्व से आगे बढ़े - 100 वर्ष की आयु । 32. कनिष्ठा अनामिका के द्वितीय पर्व तक पहुंचे 80 वर्ष की आयु । 33. कनिष्ठा अनामिका के द्वितीय पर्व के मध्य भाग तक पहुंचे – 70 वर्ष की आयु ! 34. कनिष्ठा अनामिका के द्वितीय पर्व के मध्य भाग तक पहुंचे – 60 वर्ष की आयु । 35. कनिष्ठा अनामिका के अन्तिम पर्व तक पहुंचे तथा कनिष्ठा के पर्व लम्बे तथा शुद्ध हों - चिरंजीवी (दीर्घायु) । विशेष—कनिष्ठा अंगुली के आधार पर आयु का विचार करते समय उसके पर्वों की शुद्धता पर ध्यान देना आवश्यक है। भारतीय विद्वानों के मतानुसार स्त्री जातक के हाथों की अंगुलियों की विभिन्न बनावटों का प्रभाव अग्रानुसार होता है Page #1094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | ___ 1. अंगुलियों के अग्रभाग (नखवाले पर्व) जितने पतले हों-उतने ही अधिक शुभत्व। 2. गाँठ-रहित ऐसी अंगुलियां जो टेढ़ी-मेढ़ी न हों- शुभ। 3. कोमल-त्वचा युक्त एवं पृष्ठ भाग पर रोम एवं खुरदरेपन से रहित-शुभ 4. गोलाकार अंगुलियां, जिनमें अंगूठी, छल्ला आदि पहनने पर छिद्र दिखाई न दे-शुभ। 5. समान लम्बाई के पर्यों वाली अंगुलियां---शुभ। ____6. चपटी, बहुत मोटी, सूखी तथा पृष्ठ भाग पर रोम युक्त–अशुभ। 7. बहुत छोटी, पतली, अधिक लाल रंग वाली एवं विरल अंगुलियां-रोगदात्री। ___8. छोटी तथा विरल अंगुलियां--पति के संचित धन का नाश। पाश्चात्य विद्वानों ने (1) उद्गम स्थान (2) बनावट, (3) लम्बाई, (4) पों की लम्बाई, (5) अग्रभाग, (6) लचीलापन, (7) गाँठ, (8) फैलाव तथा झुकाव, (9) पारस्परिक अंतर तथा (10) अन्य स्थितियों को आधार मानकर अंगुलियों का निम्नानुसार विश्लेषण किया है ___ 1. उद्गम स्थान—(1) यदि कोई अंगुली अपने उचित उद्गम स्थान की अपेक्षा अधिक नीचे आरंभ हुई हो तो उसकी शक्ति न्यून समझनी चाहिए, (2) यदि कुछ अधिक ऊँचाई से आरंभ हुई हो तो उसकी शक्ति अधिक समझनी चाहिए, (3) यदि सभी अंगुलियां उचित स्थान से आरंभ हुई हों तो उन्हें शुभ समझना चाहिए। 2. बनावट-(1) यदि सभी अंगुलियां सीधी, पुष्ट तथा औसत लम्बाई की हों तो शुभ होती है, (2) लम्बी अंगुलियों वाले जातक सुस्त, मतलबी, शक्की-मिजाज तुनुक-मिजाज, मायावी, धूर्त, विश्वासघाती, अविश्वासी, कायर, वस्त्राभूषण तथा चाल-ढाल के बारे में अधिक सतर्क रहने वाले, दिखावटी, शांतिप्रिय, किसी भी विषय पर शीघ्र निर्णय न ले सकने वाले, प्रत्येक विषय के विस्तार में जाने वाले तथा मन-ही-मन बेचैन रहने वाले, होते हैं। यदि मंगल क्षेत्र उन्नत तथा मस्तक-रेखा बलवान हो तो इन दुर्गणों में कुछ कमी आ जाती है। (3) अधिक Page #1095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१५ हस्त रेखा ज्ञान लम्बी अंगुलियों वाले जातक पर निन्दक, पर- छिद्रान्वेषी तथा पराय कामों में रोड़ा अटकाने वाले होते हैं। (Ny: Yumm mamam ANM (4) सामान्य लंबी तथा पुष्ट अंगुलियों वाले जातक विश्लेषणात्मक प्रकृति के, अत्यधिक कार्य - कुशल, नियमानुसार कार्य करने वाले तथा छोटी-छोटी बात पर भी ध्यान देने वाले होते हैं। (5) पतली तथा लंबी अंगुलियों वाले जातक चतुर, चालाक तथा कुटनीतिक होते हैं। यदि अन्य लक्षण शुभ न हो तो ऐसी अंगुलियों वाला मनुष्य बेईमान, धूर्त, ठग तथा जेबकट भी हो सकता है। (6) यदि अंगुलियों की लंबाई हथेली की लंबाई के अनुपात से अधिक हो तो ऐसा जातक आस्तिक, धार्मिक, दीर्घसूत्री, आलसी, शंकालु स्वभाव का तथा स्वयं में खोया रहने वाला होता है, ( 7 ) यदि अंगुलियों की लंबाई हथेली की लंबाई के बराबर हो तो जातक भले-बुरे का ज्ञान रखने वाला, सोच-विचार कर काम करने वाला तथा संतुलित - आचरण वाला होता है । ( 8 ) मोटी तथा प्रशस्त अंगुलियों वाला जातक Page #1096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ९१६ सुखी, शान्त, साहसी, परिश्रमी, निर्भय तथा प्रत्येक क्षेत्र में सफलता पाने वाला होता है। (9) नुकीली तथा गठीली अंगुलियों वाला जातक अधिक उत्साही, व्यवहार-कुशल, कभी धोखा न खाने वाला तथा अद्भुत कार्यों को करने वाला होता है। (10) समकोण तथा गठीली अंगुलियों वाला जातक गणितज्ञ, विज्ञान एवं अनुसंधान विषयक कार्यों में रुचि तथा ज्ञान रखने वाला होता है, (11) केवल गठीली अंगुलियों वाला जातक चित्रकार, वाद्य यन्त्र-वादक, गायक अथवा इतिहास, जीवनी आदि के लेखन में कुशल होता है, (10), चाची, पतली तथा गठीली अंगुलियों वाला जातक यान्त्रिक अथवा दिमागी-परिश्रम करने वाला होता है, (13) छोटी अंगुलियों वाला जातक बुद्धिमान, दूरदर्शी, चालाक तथा शीघ्र उत्तेजित हो जाने वाला होता है, (14) गांठ-रहित छोटी अंगुलियों वाला जातक दूसरे के मनोभावों को शीघ्र समझ लेता है। (15) बड़ी हथेली तथा छोटी अंगुलियों वाला जातक प्राय: नास्तिक होता है, (16) चोटी, पुष्ट तथा मोटी अगुंलियों वाला जातक निर्भय स्वभाव का होता है। यदि मस्तक रेखा दुर्बल हो तो वह खूखार एवं हिंसक होता है। यदि मस्तक रेखा लंबी तथा नाखून छोटे हों तो विलक्षण ग्रहण-शक्ति वाला एवं कुशल-प्रशासक होता है, (17) बहुत छोटी अंगुलियों वाला जातक स्वार्थी, आलसी तथा अमोद-प्रमोद में समय का अपव्यय करने वाला होता है, ऐसे लोग क्रूर-प्रकृति के भी हो सकते हैं (18) सीधी तथा पुष्ट अंगुलियों वाले जातक दृढ़-चरित्र तथा परिपक्व मस्तिष्क वाले होते है, (19) टेढ़ी तथा बांकी अंगुलियों वाले व्यक्ति कठोर स्वाभाव के, धन-जन-सुख हीर्ने तथा दुर्बल चरित्र एवं मस्तिष्क वाले होते हैं, (2) प्रकाश में पारदर्शी-सी प्रतीत होने वाली अंगुलियों वाला जातक अविवेकी तथा वाचाल होता है, (21) विरल अंगुलियों वाला जातक स्वेच्छाकारी तथा किसी भी नियन्त्रण को न मानने वाला होता है, (22) ऊंचे उठे तथा फूले हुए से अग्रभागों वाली अंगुलियां जातक के व्यवहार-कुशल, प्रत्येक विषय के जानकार तथा प्रत्येक कार्य को मन लगाकर करने की सूचक होती है, (23) यदि सभी अंगुलियो को आपस में मिलाने पर उनके बीच में छिद्र अथवा प्रकाश दिखाई दे तो जातक किसी का नियंत्रण स्वीकार न करने वाला, बड़ा बुद्धिमान तथा होशियार होता है, परन्तु वह धनी तथा सुखी नहीं रह पाता। यह फल दोनों हाथों में एक सी Page #1097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१७ हस्त रेखा ज्ञान स्थिति होने पर ही मिलता है, ( 24 ) यदि अंगुलियां टेढ़ी हो, नख छोटे हों तथा जीवन मस्तिष्क एवं हृदय रेखा — तीनों शुभ स्थिति में न हों तो जातक हिंसक प्रकृति का निर्दय, अत्याचारी एवं दूसरों को कष्ट पहुंचाने में सुख का अनुभव करने वाला होता है। गर चित्र संख्या - 12 आवश्यक - यदि अंगुलियों के उक्त अन्तर केवल दाँयें हाथ में हो, बाँये हाथ में न हों तो जातक स्वतन्त्र - विचारों वाला एव सत्यनिष्ठ होता है । और यदि दांये हाथ में न होकर केवल बांये हाथ में हों तो स्वयं पर ही भरोसा करने वाला होता है। यदि दोनों हाथों में एक सी स्थिति हो तो पूर्वोक्त पूर्ण प्रभाव होता है। लम्बाई -- चारों अंगुलियों में मध्यमा अंगुली सबसे लम्बी, तर्जनी तथा अनामिका मध्यमा से कम परन्तु परस्पर समान लंबाई की एवं कनिष्ठा सबसे छोटी होती है। कनिष्ठा अंगुली का अग्रभाग अनामिका के पहले (ऊपरी ) पर्व तक पहुंचना Page #1098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ९१८ आवश्यक है। यदि कोई अंगुली इस परिणाम से कम अथवा अधिक लम्बी हो तो उसे उचित परिमाण से कम या अधिक लम्बी समझना चाहिए। किसी अंगुली की न्यूनाधिक लम्बाई के बारे में विचार करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है । कि उसके अतिरिक्त अन्य सभी अंगुलियां अपने उचित परिमाण में हों। यदि अन्य अंगुलियां भी उचित परिमाण से कम या अधिक लंबी हो तो उनका सम्मिलित फलादेश ही प्रभावकारी होता है। अंगुलियों की लंबाई के साथ ही उनकी पुष्टता तथा ग्रह क्षेत्रों (जिनका वर्णन आगे किया गया है) की स्थिति पर भी विचार करना आवश्यक होता है। क्योंकि यदि अंगुली अधिक लंबी और पुष्ट हो, परन्तु उसका ग्रहक्षेत्र निम्न हो तो शुभ फल में कमी आ जाती है, इसके विपरीत यदि गुरु क्षेत्र उन्नत हो तो शुभ फल की वृद्धि होती है। यदि एक की स्थिति शुभ तथा दूसरे की अशुभ हो तो सामान्य फल होता है । अंगुलियों की लंबाई तथा ग्रह क्षेत्र की स्थिति के विषय में अधिक जानकारी निम्नानुसार प्राप्त कर लें (1) यदि अंगुली अपनी सामान्य लंबाई की हो तथा उसका ग्रहक्षेत्र उन्नत हो तो शुभ फल में वृद्धि होती है। (2) यदि अंगुली सामान्य लंबाई में हो तथा ग्रह क्षेत्र भी सामान्य हो तो शुभफल होता है। (3) यदि अंगुली सामान्य लंबाई में हो तो तथा ग्रह क्षेत्र निम्न हो तो अशुभ फल होता है (4) यदि अंगुली छोटी हो तथा ग्रह क्षेत्र उन्नत न हो तो सामान्य फल होता तथा ग्रह क्षेत्र निम्न हो तो अशुभफल होता है, ( 5 ) यदि अंगुली छोटी तथा पतली हो तथा उसका गृह क्षेत्र निम्न हो तो अशुभ फल में वृद्धि होती है। परन्तु ग्रहक्षेत्र उन्नत हो तो अशुभ फल में कमी आती है। विभिन्न अंगुलियों की न्यूनाधिक लंबाई का अलग-अलग प्रभाव निम्नानुसार होता है— तर्जनी — (1) यदि तर्जनी मध्यमा के बराबर लम्बी हो तो जातक हुकूमत करने का प्रबल आकांक्षी होता है। (2) तर्जनी मध्यमा से भी सामान्य अधिक लंबी हो तो जातक उग्र स्वभाव का तानाशाह होता है। ( 3 ) तर्जनी मध्यमा के अत्यधिक लंबी हो तो जातक अत्यधिक महत्वाकांक्षी होता है । ( 4 ) तर्जनी अनामिका के बराबर हो तो जातक में यश तथा धन की लिप्सा अधिक होती है। (5) तर्जनी अनामिका Page #1099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त-रेखा शान से कुछ कम लम्बी हो तो जातक महत्त्वाकांक्षा से रहित तथा अपनी स्थिति से असन्तुष्ट रहने वाला होता है। (6) तर्जनी अनामिका से बहुत छोटी हो तो जातक किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ते समय डरता तथा था चिन्तित होता है। चन्द्रमा के उभार से आरम्भ पं बालभट्ट जी का आशय चन्द्रमा के उभार से आरम्भ होने पर भाग्य अधिक घटनापूर्ण परिवर्तनशील तथा दूसरों की कल्पना और मनोविकार पर अधिकतर निर्भर होता है। यदि ऐसी रेखा हृदय रेखा को जोड़ती हो (1-1 चित्र 12) तो वह एक खुशी तथा सम्पन्न शादी बतलाती है लेकिन उसमें आदर्शवादिता नवीनता तथा कुछ अच्छी स्थितियाँ अपना कार्य खेलती है। और वह जिसका कि अन्त दूसरी जाति के (पुरुष के सम्बन्ध में स्त्री और स्त्री के सम्बन्ध में पुरुष) की कल्पना तथा मनोविकारों से होता है। यदि भाग्य-रेखा स्वयं तो सीधी हो किन्तु उसमें चन्द्रमा के उभार से कोई दूसरी रेखा आकर मिले (5-5 चित्र 11) तो किसी बाहरी मनुष्य का प्रभाव उस मनुष्य के भाग्य से सहायता करता है और अधिकतर यह पति-पत्नी के एक दूसरे के ऊपर प्रभाव को बतलाता है। यदि यह चन्द्रमा के उभार से प्रभाव की रेखा किसी भाग्य रेखा से नहीं मिलती (2-2 चित्र 12) तो उस मनुष्य की जिन्दगी सदा स्पष्ट होगी और उसका प्रभाव केवल उतने ही काल के लिए होगा जब तक कि वह मनुष्य के भाग्य के साथ जाती है। जब यह प्रभाव की रेखा भाग्य रेखा को काट जाती है (3-3 चित्र 12) और कुछ दूर बृहस्पति के उभार की ओर को जाती हैं। तो वह मनुष्य जिसका कि प्रभाव वह बतलाती हैं अपनी मानवीय इच्छाओं से उसकी ओर आर्कषित होती हैं और वह मनुष्य उसको अपने लक्ष्य तथा इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए काम में लाता हैं और जब वह किसी कार्य की नहीं करती है। तो उसे नष्ट तथा बर्बाद कर देती है यह प्रायः पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों के हाथों पर अधिक पाई जाती हैं। Page #1100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता यदि भाग्य की रेखा से कोई भी शाखा किसी भी उभार की ओर जाती हो तो भाग्य अधिकतर उस उभार की विशेषताओं से सम्बन्धित होता है। उदाहरणार्थ यदि ऐसी रेखा बृहस्पति की ओर को जाती हो (6-6 चित्र 11) तो मनुष्य उत्तरदायित्व दूसरों के ऊपर शासन करने की शक्ति और कोई उच्च स्थान जो कि उस वर्ष मिलेगा जिस वर्ष यह शाखा फूटती है पाता है यदि ऐसी रेखा अपना रास्ता चलती रहती है तथा बृहस्पति के उभार तक पहुँच जाती है तो यह किसी विशेष लक्ष्य या मतलब के लिए सफलता का बहुत ही चमत्कारपूर्ण चिन्ह यदि यह शाखा सूर्य के उभार की ओर को जाती है (6-6 चित्र 11) तो सफलता धन तथा जनता जिन्दगी ( की और को होती हैं जो कि उसे नाम तथा यश देती हैं तथा यह सफलता की बहुत ही महत्वपूर्ण निशानी हैं। यदि शाखा बुध को उभार की ओर को जाती हैं (8-8 चित्र ) तो सफलता किसी विशेष कार्य, जो या तो विज्ञान या व्यापारिक क्षेत्र में हो, उसकी ओर होती यदि भाग्य की रेखा स्वयं अपने रास्ते अर्थात् शनि के उभार की ओर न जाकर किसी ओर उभार की ओर हो जाती है तो उसकी सारी जिन्दगी के कार्य उस विशेष उभार की विशेषताओं से जुड़े होंगें किसी दशा में ऐसे निशानों को ठीक तथा निश्चित चिन्ह सफलता के न मान लेने चाहिये जबकि भाग्य रेखा अपना रास्ता रखते हुए भी किसी विशेष उभार की ओर को शाखायें भेजे। जबकि भाग्य रेखा अकेली बिना किसी शाखाओं के जाती हो तो वह मनुष्य भाग्य का खिलौना होगा तथा वातावरण के लोहपाश से बंधा होगा उसके लिए भाग्य के खेलों को बदलना या उन्हें उनके रास्ते से हटाना असम्भव है। उसे दूसरों से कोई मदद नहीं मिलेगी, यदि थोड़ी बहुत होगी भी तो वह मुश्किल दुःख तथा सन्ताप लाने के अतिरिक्त और कुछ न होगी ऐसी रेखा कभी भी एक अच्छी भाग्य की रेखा नहीं सोची जा सकती भाग्य रेखा के अच्छे होने के लिए उसे गहरी तथा मोटी नहीं होना चाहिए बल्कि साफ तथा स्पष्ट और सबसे अधिक सूर्य की रेखा चाहे वह किसी भी दशा में हो, होनी आवश्यक है। Page #1101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२१ हस्त-रेखा ज्ञान यदि भाग्य रेखा शनि के उभार को पार करती हुई अंगुली की जड़ में पहुंच जाय तो वह अभागा चिन्ह होगा वह मनुष्य जो भी कार्य आरम्भ करेगा उसके कब्जे से बाहर हो जावेगा। और वह प्रत्यक्षतया नहीं जान सकेगा। कैसे और कब, जो कुछ काम वह लेता हैं। रोकना चाहिए। जबकि भाग्य-रेखा हृदय रेखा से रुक जावे तो प्रेम तथा मोह बुरी तरह से होने के कारण जीवन-पथ हमेशा बर्बाद हो जावेगा। जब किसी प्रकार भाग्य-रेखा हृदय रेखा से मिल कर शनि के उभार की ओर जाती है। (दोनों भी मिल कर) (1-1 चित्र 12) तो यह मनुष्य अपने प्रेम में खुशी प्राप्त करेगा और वह प्रेम और मोह से अपनी उच्चाकांक्षाओं को पाने में मदद पायेगा। वह दूसरों के साथ मिलने तथा प्रेम करने में बहुत भाग्यशाली होगा और दूसरों से मदद तथा लाभ होगा। जबकि भाग्य रेखा मस्तक रेखा से रुक जावे (4-4 चित्र 12) तो उस मनुष्य का जीवन उसकी मानसिक मूर्खता तथा उसकी अपनी बेवकूफी से खराब हो जावेगा। चित्र सरस्था-13 Page #1102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता । हथेली के बीच में से शुरु जबकि भाग्य रेखा हथेली के बीच से आरम्भ हो जो कि शुक्र का मैदान कहलाता है, तो वह मुश्किल का आरम्भिक जीवन हैं और उस मनुष्य को अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सदा झगड़ना पड़ेगा, लेकिन यदि रेखा साफ तथा मजबूत हो और एक शाखा सूर्य के उभार की ओर को हो तो मानव अपने भाग्य का रथ ही निर्माता होगा तथा बिना किसी की सहायता और केवल अपने गुणों तथा मानवीय कार्यों से सफलता प्राप्त करेगा। जबकि भाग्य रेखा मस्तक रेखा से आरम्भ हो और जब वह अच्छी प्रकार से बनी हो तो हर एक वस्तु उस मनुष्य के जीवन में बाद में आवेगी वह भी केवल उसी के दिमाग से। जबकि भाग्य रेखा में एक शाखा मंगल के उभार की ओर को और दूसरी चन्द्रमा के उभार की और {1-1 चित्र ) हो तो उस मनुष्य का जीवन एक नवीनता तथा जोश को लिए होगा जिससे कि सारा भाग्य हिल उठेगा। यदि भाग्य रेखा स्वयं ही जीवन रेखा के अन्दर से मंगल के उभार पर निकल आये (2-2 चित्र 13) तो अधिक प्रेम जीवन पथ पर प्रभाव डालेगा और ऐसा देखा गया है कि ऐसे मनुष्य अक्सर ऐसे मनुष्यों से प्रेम करने लगते हैं जो कि असम्भव से हैं या ऐसों से जबकि शादी शुदा हैं या ऐसे जबकि उस प्रेम को न दे सकें जबकि उसे दूसरा चाहता हैं स्त्रियों के हाथ में यह प्रेमचिन्ह बुरा हैं। ___ जबकि भाग्य रेखा टूटी हुई हो तो जीवन मुसीबतों दुःखों तथा कुछ नहीं से भरपूर होता है जिनको कि वह मनुष्य भाता है और कोई भी जब तक कि वे अपनी सफलता को पायें नहीं रुकेगा। __ भाग्य रेखा का टूटना सदा ही बुरा चिन्ह नहीं है जब तक कि एक शिखा दूसरी के सामने शुरु होती है ऐसी दशा में वह स्थिति तथा वातावरण में पूर्ण परिवर्तन बतलाती है और यदि नई रेखा (टूटने के) (पश्चात्) अच्छी तथा सीधी दिखाई दे तो वह परिवर्तन उस तिथि को जबकि दूसरा भाग शुरु होता है। स्थिति की उन्नति के बारे में होगा। DI Page #1103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त-रेखा ज्ञान प्रभाव डाले वाली रेखा जब कोई छोटी रेखा भाग्य रेखा से मिलती है या उसके साथ सहगामिनी होकर चलती है तो वह शादी बतलाती है उस वर्ष जब कि वे दोनों मिलती है (3-3 चित्र 13) यदि इसके विपरीत में रेखायें मिलती नहीं तो उस मनुष्य की शादी कभी नहीं होगी यद्यपि उसमें प्रेम तथा प्रभाव विद्यमान है। जब इन प्रभावशालिनी रेखाओं में से कोई एक रेखा भाग्य-रेखा के पास को दिखाई दे और उसको काटती हुई शुक्र के उभार की और को जावे तो वह प्रभाव घृणा में बदल जाता है और उस मनुष्य के जीवन पथ को हानि पहुंचाता वनसरी-15 सूर्य की रेखा सूर्य रेखा जो कि सफलता की रेखा भी पुकारी जाती हैं, हाथ पर एक अधिक विशेष रेखा सोचने के लिए। (1-1 चित्र 15) यह जीवन के लिए वही महत्त्व रखती हैं जैसा कि सूर्य पृथ्वी के लिए रखता हैं इस रेखा के बिना जीवन में कोई खुशी कोई चमत्कार नहीं होता और बड़ी-बड़ी शक्तियाँ तथा गुण छिपे पड़े रहते हैं और अपना कोई फल नहीं दिखाते। Page #1104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता । १२४ नौसिखिये एक अच्छी भाग्य-रेखा के रखने में गलती करते हैं। और फलस्वरूप वे बड़ी उन्नति तथा सफलता की आशा करते हैं। किन्तु जैसा कि पहले अध्याय में बताया गया हैं बिना सूर्य-रेखा के जीवन अन्धकार पूर्ण तथा चिन्तायुक्त होता सूर्य रेखा के गुण 'किस्मत' के नाम से प्रसिद्ध हैं एक खराब मस्तक रेखा सूर्य-रेखा के साथ में होने से अधिक सफलता की आशा रखती हैं तथा ऐसा ही भाग्य-रेखा के साथ में हैं सूर्य रेखा को रखने वाले मनुष्य दूसरों को आकर्षित करने का गुण तथा दूसरों पर प्रभाव अधिक रखते हैं, वे बहुत आसानी से धन, नाम, जान-पहचान तथा पुरस्कार पा जाते हैं वे एक अधिक प्रसन्न तथा अच्छी स्थिति रखते हैं। और यह स्वाभाविक रूप से ही सफलता में अधिक मदद करती हैं। जिस तिथि से भी सूर्य-रेखा हाथ पर दिखाई पड़ती हैं उसी दिन से चीजों में अधिक विशेषता सम्पन्नता तथा चमत्कृतता आने लगती हैं सूर्य-रेखा निम्नलिखित स्थानों से आरम्भ हो सकती हैं। जीवन-रेखा से भाग्य-रेखा से शुक्र के मैदान से चन्द्रमा के उभार से मस्तक-रेखा से और हृदय-रेखा से या यह अपने ही उभार पर एक छोटी सी रेखा हो सकती जीवन रेखा से आरम्भ होने से वह उस सफलता को बतलाता हैं। जैसा कि जीवन व्यतीत किया जाता हैं, उससे सफलता मिले न कि भाग्य से (2-2 चित्र 15) भाग्य रेखा से आरम्भ होने पर यह जीवन की जान-पहचान का निश्चित चिह्न हैं लेकिन वो ( ) जैसा कि उस मनुष्य के प्रयत्न से प्राप्त हुई हैं। (3-3 चित्र 15) शुक्र के मैदान से शुरू होने वाली रेखा और वह किसी भी अन्य रेखा से न जुड़ी हो तो मुश्किलों के पश्चात् सफलता बतलाती हैं चन्द्रमा के उभार से शुरू होने वाली रेखा (चित्र 4-4 15) सफलता दूसरों के मनोविकारों का अधिक विषय हो यह अधिक परिवर्तन शील तथा अनिश्चित हैं और किसी भी तरीके Page #1105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२५ हस्त रेखा ज्ञान से धन तथा दृढ़ ( ) स्थिति की पक्की निशानी नहीं हैं और यह प्रायः ऐसे मनुष्यों के हाथों पर पाई जाती है जब कि वे अपनी जीविका के लिए जनता पर आश्रित हैं जैसे- नाटक खेलने वाले, गवैये, कलाकार, वक्ता, मन्दिर के पुजारी आदि ऐसे कार्य करने वालों के लिए यह बहुत ही भाग्यशाली चिह्न हैं। मस्तक रेखा से शुरू होने पर सूर्य रेखा मानसिक कार्यों में सफलता बतलाती हैं। लेकिन आधे जीवन के व्यतीत करने के बाद में नहीं ? यह किसी विशेष शिक्षा का अध्ययन करने वाले विद्यार्थी, लेखक, वैज्ञानिक तथा मस्तक से कार्य वालों के हाथों में पाई जाती है। हृदय रेखा से शुरू होने से सफलता जीवन में बहुत बाद में मिलती है ऐसी दशा में यह अक्सर जीवन में किन्तु देर से खुशी की शादी बतलाती है लेकिन यह सदा घर घटनाओं की आसानी, खुशी तथा सांसारिक सुखों को बतलाती हैं । महाराज 11 AL-KE! Page #1106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहु संहिता | १२६ केवल अपने ही उभार पर यह सफलता तथा खुशी बतलाती है किन्तु जीवन में इसके बाद उसका मूल्य बहुत कम रह जाता हैं। जबकि तीसरी अंगुली एक अच्छी सूर्य-रेखा के साथ में, पहली अंगुली से लम्बी हो तो जुए का शौक अधिक परिमाण में होगा लगभग सभी सफल जुआरी ये दो निशान रखते हैं। ___ जबकि तीसरी अंगुली बहुत लम्बी हो तथा मुड़ी हुई या टेड़ी हो तो वह मनुष्य धन को हर कीमत पर लेने के लिए तैयार होगा यह बुरा चिह्न अधिकतर चोरों तथा पापी मनुष्यों के हाथ पर होती हैं जबकि वे धन के लिए कैसा भी पाप तथा अपराध करने के लिए तैयार रहते हैं। नोट-यदि मस्तक रेखा हाथ में बहुत ऊँची उठ गई हो और विशेष कर यदि वह अन्त में ऊंची उठ गई हो (3-3 चित्र 3) तो यह बुरी प्रकृतियाँ और भी दृढ़ होती हैं। यदि यह रेखा कलात्मक शक्ल के हाथ की नुकीली तथा लम्बी अंगुलियों में हो तो और क्षेत्र की अपेक्षा कला मंच तथा जनता में गाने के क्षेत्र में अधिक सफलता देती हैं। भाग्य की दोहरी रेखा जबकि भाग्य रेखा स्वयं दोहरी (2-2 चित्र 14) हो तो यह दोहरी जिन्दगी का निशान हैं। लेकिन यदि कुछ दूर चलने पर आपस में मिल जाती या एक हो जाती हैं तो यह बतलाती है कि यह किसी गहरे प्रेम के कारण उत्पन्न हुई है और परिस्थितियाँ एकता को रोकती हैं लेकिन ये रुकावटें जबकि वे दोनों मिल जाती है तो दूर हो जाती हैं। जबकि भाग्य की दोहरी रेखा साफतौर से बनी हो विशेषकर दोनों फर्क दो उभारों की ओर झुका हो एवं जीवन-पथ साथ-साथ चल रहे हो तो मुख्य पथ है और दूसरा दिल पसन्द हैं। __ यदि भाग्य रेखा बहुत ही धीमी हो तो वह भाग्य तथा तकदीर में अविश्वास बतलाती हैं। यह प्राय: आत्मवादी मनुष्य केवल अपनी मानसिकता से ही सफलता प्राप्त करते है लेकिन उनका भाग्य विस्तार पूर्वक नहीं बताया जाता और ऐसे मनुष्यों Page #1107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ हस्त-रेखा ज्ञान को कुछ उनके विषय में विशेष प्रकृतियाँ आदि बतला दी जाती है उसी से सन्तोष कर लेना चाहिये। जबकि कोई भी भाग्य रेखा किसी प्रकार की दृष्टिगत नहीं हो और मस्तक रेखा भी साधारण हो तो भाग्य के विषय में कुछ विशेष बताने के लिए नहीं होता। ऐसे मनुष्य बहुत ही निराशापूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं उन्हें किसी भी रास्ते में कोई चीज प्रभावित करने वाली नहीं होती और अपने पतुरिया (Pturya) अस्तित्व को ठीक करने के लिए कुछ भी नहीं रखते। एक द्वीप (3 चित्र !4) भाग्य-रेखा पर बहुत ही बुरा चिह्न है। जबकि रेखा के आरम्भ में ही पाया जाय (4 चित्र 15) तो मनुष्यों को पैदायश के सम्बन्ध में गुप्त बात रहती है जैसे न्याय विरुद्ध पैदायश यदि कोई द्वीप स्त्री के हाथ पर भाग्य-रेखा को मंगल के उभार से मिलाता हुआ पाया जाय तो वह उसके फरेब का चिह्न हैं (5 चित्र 14) एक द्वीप शुक्र के मैदान पर कहीं भी हो तो वह मुसीबत का समय बताता है उसके जीवन में नुकसान और धन की हानि होगी (3 चित्र 14) एक द्वीप भाग्य और मस्तक रेखा दोनों पर एक साथ ही हो वह नुकसान ही बतलाता हैं किन्तु वह जबकि उसकी अपनी बेवकूफी से होता हैं (6 चित्र 14) एक द्वीप भाग्य और हृदय-रेखा के अन्त पर हो तो जीवन निराशा और गरीबी में खत्म होगा (5 चित्र 14) यदि भाग्य रेखा अचानक एक के साथ समाप्त हो जावें तो एक बड़े नाश की आशा की जाती है लेकिन जब भाग्य रेखा पर मिले और शनि के उभार पर भी हो तो ऐसे भाग्य का अन्त बहुत दुःखान्त होगा और विशेषकर सार्वजनिक जनता भी घृणा पूर्ण होगी। असली गवैये के हाथ पतली शक्ल के तथा लम्बे होते हैं क्योंकि ऐसे मनुष्य अधिक वैज्ञानिक शक्ति रखते हैं। यह गुण उन लोगों में नहीं पाया जाता जो अपनी निज की वैज्ञानिक शिक्षा की अपेक्षा अपने प्रभावशाली स्वभाव पर अधिक निर्भर रहते हैं। ___ बहुत लम्बे हाथों पर जो कि ( ) की श्रेणी में आते हैं यह सूर्य-रेखा बहुत कम अर्थ रखती हैं केवल स्वभाव में ही कुछ रखती हैं ऐसे मनुष्य धन, Page #1108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १२८ सांसारिक सफलता या स्थान के लिए अधिक आदर्शात्मक होते हैं यदि यह रेखा उन मनुष्यों के हाथ पर हो तो उसका खुश तथा अच्छा स्वभाव होता हैं और उनके स्वप्न ही उनके लिए वस्तु होती हैं जिन मनुष्यों के हाथ पर यह सूर्य-रेखा नहीं होती उनकी अपेक्षा वे मनुष्य जिनके हाथों पर यह रेखा होती हैं अधिक भावुक होते हैं। इसलिए यह रेखा कलात्मक प्रकृति की झोतक है! लेकिन वह वस्तु जो कि 'कलात्मक प्रकृति' से ज्ञात होती हैं अच्छी वस्तुओं से प्यार, वातावरण से सहानुभूति और ऐसी ही बातों में होती हैं। जहाँ कि वह मनुष्य जो कि यह रेखा नहीं रखते बहुत कम अपने वातावरण को देखते हैं और बहुत गन्दे घर में भी उसी खुशी से रहते हैं। उनको काले-पीले हो या इन तीनों का कोई भी डरावना मेल हो, तकलीफ नहीं दे सकता। जब सूर्य के उभार पर बहुत सी रेखायें हों तो वे भी कलात्मक कृति ही बनाती हैं लेकिन यदि विचारों, लक्ष्यों की बहुलता हो तो असली सफलता रुक जाती है। दो या तीन सूर्य रेखाएँ जबकि समानान्तर हों तो अच्छी होती हैं और दो या तीन फर्क क्षेत्रों में सफलता बतलाती हैं लेकिन एक साफ, सीधी तथा स्पष्ट रेखा सब से अच्छी है। ___ सूर्य-रेखा पर कहीं भी कोई द्वीप सफलता में बाधक हैं किन्तु उस ही अवधि के लिए जहाँ कि यह होता हैं (5 चित्र 15) हर दशा में यह सार्वजनिक बदनामी ही दिखाता हैं सारी विपरीत रेखायें जैसे जबकि वह अंगूठे की ओर से आकर काटती हैं और विशेषकर वे जो शुक्र के उभार से या उसकी ओर से आती हैं, बुरी हैं (6-6 चित्र 15) यदि वे विपरीत रेखायें किसी भी दशा में सूर्य-रेखा के बीच से या उनको रोकती या काटती हैं तो वे उस मनुष्य की उसके खिलाफ मनुष्यों के प्रति घृणा बतलाती हैं। शुक्र के उभार से आने वाली ये विपरीत रेखायें उस मनुष्य की जाति के ही मनुष्यों के प्रति दखल डालती हैं। यदि वे मंगल के उभार से आवे तो वे उस मनुष्य की विपरीत जाति के प्रति बतलाती (6-6 चित्र 15) एक सितारा ( ) सूर्य-रेखा पर सबसे अधिक भाग्यशाली निशान हैं। एक चतुर्भुज ( ) शत्रुओं के आक्रमण या उसकी स्थिति को गिराने के कार्यों के प्रति रक्षा का चिह्न हैं। Page #1109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२९ हस्त-रेखा ज्ञान एक गुणा ( ) का चिह्न सूर्य-रेखा पर एक भाग्यहीन निशान है उस मनुष्य की स्थिति तथा नाम के सम्बन्ध में मुसीबतों की निशानी हैं। एक खाली हाथ ( ) पर सूर्य-रेखा सम्पूर्ण शक्ति खो बैठती हैं और उसकी अच्छी आशायें कभी भी पूर्ण नहीं होती है। सूर्य-रेखा का बिल्कुल हीन होना, चाहे और सम्पूर्ण रेखायें भली प्रकार अच्छी हों जनता की जान-पहचान उसके लिए मुश्किल ही नहीं वरन् असम्भव भी होगी चाहे वे कितनी ही चतुर क्यों न हो दूसरे शब्दों में उनका जीवन सदा अन्धकार में ही रहेगा मनुष्य उनके कार्यों को नहीं देखेंगे और सफलता का सूर्य उनके कार्य-पथ पर कभी भी उदय न होगा। हृदय-रेखा वह रेखा हैं जो अंगुलियों के नीचे और अक्सर प्रथम अंगुली की जड़ में से आरम्भ होती हुई चौथी अंगुली पर जाकर समाप्त होती हैं (1-1 चित्र 16) हृदय-रेखा साफतौर से प्रेम से सम्बन्ध रखती हैं और विशेष कर मनुष्य की प्रेम की मानसिक स्थिति से ( ) यह याद रखना चाहिए कि यह रेखा हाथों के मानसिक भाग्य पर होती हैं। हृदय-रेखा गहरी, साफ और अच्छे रंग की होनी चाहिए यह बृहस्पति के उभार से आखरी सिरे से भी आरम्भ होती हैं (2 चित्र 16) इस उभार के मध्य में से पहली तथा दूसरी अंगुली के बीच के स्थान (३ चित्र 16) शनि के उभार से (4 चित्र 16) और बिल्कुल शनि के उभार के नीचे से (5 चित्र 16) बृहस्पति के उभार के बाहर से आरम्भ होने से यह प्रेम में 'अन्ध-उत्साह बतलाती हैं एक स्त्री या पुरुष जो अपने प्रेम का आदर्श इतना ऊँचा बनाता हैं कि उसे न तो असफलता से पापी ही वहाँ तक पहुँचते हुए देखे जाते हैं उन मनुष्यों को अपने प्रेम में गर्व सारी बहसों से परे हैं और ऐसी हद तक पहुँचने वाले मनुष्य अपने प्रेम में बुरी तरह कष्ट उठाते हैं। बृहस्पति के उभार के बीच से शुरू होने से हृदय-रेखा अधिक समय तक आदर्श होती हैं और सारी किस्मों में से ये सबसे अच्छी किस्म हैं। ऐसी रेखा रखने वाले मनुष्य अपने प्रेम में अधिक दृढ़ होते हैं और वे आदर्श Page #1110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता तथा मर्यादा का अस्वाभाविक ऊंचा स्थान रखते हैं वे यह इच्छा रखते हैं कि उनके साथ रहने वाले मनुष्य, सफल, उदार तथा बड़े हों वे बहुत कम अपने जीवन के ( ) प्लेटफार्म के नीचे शादी करते हैं और सब श्रेणी के मनुष्यों की अपेक्षा कम प्रेम सम्बन्ध ( ) रखते हैं। यदि वे एक बार असल में प्रेम करते हैं तो सदा के लिए करते हैं वे दूसरी शादी में विश्वास नहीं रखते और वे बहुत कम तलाक देते हैं। प्रथम तथा दूसरी अंगुली के बीच की जगह से शुरू होने वाली रेखा स्नेह सम्बन्धी कार्यों में एक अधिक शान्त किन्तु गम्भीर प्रकृति बतलाती हैं (3 चित्र 16) ऐसे मनुष्य वृहस्पति की दी हुई घमण्ड तथा आदर्श के बीच ही मध्यस्थता के विपरीत (Strike) ठप्पा लगा देते हैं और जब रेखा शनि से आरम्भ होती हैं तो अधिक स्वार्थी प्रेम प्रकृति बतलाती हैं वे प्रेम में अधिक प्रामाणिक नहीं होते लेकिन जिनको वे चाहते हैं उनके लिए बड़े से बड़ा बलिदान करने को तैयार रहते हैं। वे जिस मनुष्य को प्यार करते हैं, यह नहीं चाहते कि वह देवी अथवा देवता ही हो। जब हृदय-रेखा शनि के उभार से आरम्भ होती हैं तो वह मनुष्य प्रेम के मामलों में अधिक स्वार्थी होता हैं (4 चित्र 16) पहले मनुष्यों की तरह ये लोग अपने को बलिदान नहीं कर सकते वे अपने ही में रहने वाले अप्रमाणिक तथा कुटिल होते हैं लेकिन जिसको वे चाहते हैं उसे लेने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं वे अपने रास्ते में किसी को खड़ा नहीं होने देते लेकिन एक बार अपने लक्ष्य को पाने पर बहुत कम नाजुकता दयालुता या त्याग दिखाते हैं यदि वह अपने साथी के विषय में कोई त्रुटि देखते हैं तो वह बहुत कठोर होते हैं लेकिन जैसा कि वे अपने तक होते हैं अपने अवगुणों की ओर से आँख बन्द रखते हैं? शनि के उभार के नीचे से आरम्भ जीवन-रेखा (5 चित्र 16) सब छोड़ने की प्रकृतियाँ दिखाती हैं लेकिन बहुत ही प्रचण्ड रुप में वे अपने ही लिए जीवित रहते हैं तथा उनके चारों और के मनुष्य खुश हैं या नहीं, यह नहीं सोचते? हृदय रेखा जितनी भी होती है उतने ही कम प्रेम के उच्च भाव होते हैं? जबकि हृदय-रेखा बहुत लम्बी हो तो वह दाह तथा जलन के प्रति बहुत Page #1111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | 1 T ९३१ हस्त रेखा ज्ञान इच्छा दिखाती हैं ( 2 चित्र 16 ) यह प्रवृत्ति तब और भी बढ़ जाती हैं जबकि मस्तक रेखा चन्द्रमा के उभार की ओर अधिक झुकी हुई हो ( 6 चित्र 16 ) ऐसे स्थान पर जहाँ कि दाह होता है, उसके विचार अपने आप ही भाग जाते हैं ? जब हृदय रेखा बृहस्पति के उभार की ओर को टेढ़ी हो ( 7 चित्र 16 ) तो उस मनुष्य में अजीब (Fatality) भाग्यवशता प्रेम में निराशा मिलती है तथा जिनकी मित्रता में उसे विश्वास होता है उनसे भी निराशा मिलती हैं वे निर्वाचन शक्ति में कमजोर होते हैं तथा यह निश्चित नहीं कर सकते कि किसको प्यार करें उनका प्रेम प्रायः गलत स्थान पर रखा जाता है या कभी वापिस नहीं मिलता ऐसे मनुष्य बहुत ही स्नेही तथा दयालु प्रकृति के होते हैं जिनको दे प्यार करते हैं उसके विषय में बहुत कम गर्व रखते हैं और वे प्रायः जीवन के लक्ष्य ( Station of Life) से नीचे ही शादी करते हैं हृदय रेखा जंजीरदार या छोटी-छोटी रेखाओं से जुड़ी हो तो प्रेम प्रकृति में लगातार जुड़ी हुई नहीं होती और बहुत कम ही लम्बा (Lasting) प्यार (Elirtation ) बतलाती हैं ? यह हृदय रेखा शनि से जंजीर के समान हो और विशेषकर जब वह चौड़ी भी हो तो वह मनुष्य अपने विपरीत की जाति के प्रति घृणा करता है यह मानसिकता का फिर से बनना जहाँ तक कि प्रेम से सम्बन्ध हैं, बतलाती हैं ? जब यह रेखा चौड़ी तथा पीली हो बिना किसी गहराई के हो तब प्रेम की बिना गहराई के तथा सुखों से सताई हुई प्रकृति बतलाती हैं जब हाथ में बहुत नीचे हो लगभग मस्तक को छूती हो तो दिल सदा मस्तक सम्बन्धी बातों में दखल देता हैं। जब यह हाथ में बहुत ऊँची हो और जगह केवल मस्तक रेखा से छोटी बनती हो अपने स्थान से बाहर हो तो ऊपर लिखित का उल्टा होता है और दिल सम्बन्धी कार्य मस्तक से शासित होते हैं। ऐसे मनुष्य प्रेम सम्बन्धी कार्यों में बहुत हिसाब लगाने वाले होते हैं जब एक ही सीधी तथा गहरी रेखा हाथ इधर उधर तक जाती हो और हृदय तथा मस्तक दोनों रेखायें आपस में मिलती हो तो यह बहुत ही अपने में एकाग्र चित्त प्रकृति बताती है। यदि वे प्यार करते हैं। तो अपने दिमाग की पूर्ण शक्ति लगा देते हैं। और यदि वे अपना ध्यान किसी चीज पर लगाते हैं तो पूरे दिल से उसे पूरा करने के लिये जुट जाते हैं (6 चित्र 16 ) । ऐसे मनुष्य दिमाग के मजबूत तथा स्वेच्छा रखने वाले होते है, वे डर नाम Page #1112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ९३२ की वस्तु नहीं जानते वे दुःखों को प्यार करने वाले होते हैं तथा झगड़े के स्वामी क्योंकि यदि एक बार उनके खून में जोश आ जाय तो फिर ठण्डा नहीं हो सकता जे अपने लिा भी ख्रनाक होते हैं। वे अन्धों के समान खतरों में घुस जाते हैं और वे प्राय: बहुत ही बड़े दुःखों तथा घटनाओं से जा मिलते हैं और कभी-कभी भयानक मौत से भेंट करते हैं। - 01 2.AV 1-9 चित्रसरण्या -19 वि संरण्या-17' चित्र संस-17 यह हृदय-रेखा जिह्वाकार हो, एक शाखा वृहस्पति की और तथा दूसरी अंगुलियों के बीच में हो तो यह बहुत ही खुश भली प्रकार से तुली हुई, प्रेमी प्रकृति का निशान है और प्रेम सम्बन्धी सब कार्यों में खुशी का चिह्न है। Page #1113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३३ हस्त-रेखा ज्ञान जब हृदय रेखा बहुत पतली और कोई शाखा न रखती हो तो दिल की इच्छा (Want of Heart) तथा उदासीनता बतलाती है। जब दिल की कोई भी रेखा न हो तो मनुष्य बहुत ही ठण्डे खून तथा उदासीन प्रकृति का होता है। ऐसा मनुष्य बुरी तरह से इन्द्रिय प्रिय हो सकता है और विशेषकर तब जबकि मंगल का उभार ऊँचा हो। टूटी हुई हृदय-रेखा कभी किसी समय भी प्रेम में कोई दुःखान्त घटना का होना अवश्यम्भावी बतलाती है। यह आजकल नहीं पाई जाती लेकिन ऐसे मनुष्य अपने प्रिय का नुकसान कभी पूरा नहीं कर सकते तथा फिर कभी जीवन में प्यार भी नहीं कर पाते। शादी सम्बन्धी चिह्न शादी की रेखायें चौथी अंगुली के नीचे उभार पर होती है (1 चित्र 17) मैं पहले इन रेखाओं के विषय में विस्तार से बताऊँगा और तब बाद में और निशान जो कि शादी की रेखाओं को प्रभावित करते है और तब उसके बाद सूचनाओं का खजाना जो उनसे सम्बन्धित हैं, बताऊँगा। ये शादी की रेखायें या रेखा बहुत छोटी या (कुछ लम्बी भी जो कि बुद्ध के उभार की ओर जाती है या इससे भी लम्बी हाथ के अन्दर जाती है। केवल स्पष्ट रेखायें ही शादी से सम्बन्ध रखती है छोटी वाली गहरे प्रेम से या शादी के लिए इच्छा बतलाती है किन्तु कभी होती नहीं (2 चित्र 17)। जबकि रेखा गहरी हो और दिल की रेखा के पास हो तो शादी अल्पावस्था में हो जाती हैं लेकिन दूसरे निशान जो बाद में बताऊँगा शादी की निश्चित तारीख भी बता देगें। एक खुशी की शादी के लिए बुद्ध उभार की रेखायें सीधी तथा साफ होनी चाहिये, बिना किसी गड़बड़ी तथा टूटने के (1 चित्र 171 जब शादी की रेखा नीचे की ओर को झुकी हो (3 चित्र 17) तो जिसके हाथ में यह रेखा होती है वह अपने जीवन-साथी के बाद तक जीवित रहती हैं। जब रेखा उल्टी दशा में झुकी हो तो वह मनुष्य कभी शादी नहीं करता। (4 चित्र 17) Page #1114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | ९३४ जब रेखा साफ तथा स्पष्ट हो लेकिन बहुत-सी छोटी-छोटी रेखायें उनमें से निकलती हो तो शादी के लिए इच्छा तक मुसीबतें, जो कि दूसरे साथी की नाजुकता तथा बुरे स्वास्थ्य के कारण होती है (5 चित्र 17)1 जब रेखा अन्त में टेढ़ापन लिए हो और इस टेढ़ेपन में कोई गुण का चिह्न या रेखा (2 चित्र 18) काटती हो तो उसके साथी की किसी घटना से या किसी प्रकार की आकस्मिक बीमारी से मृत्यु हो जाती है लेकिन जब शादी की रेखा एक घुमाव के साथ हृदय रेखा में समाप्त होती हैं। तो साथी की मृत्यु लगातार कई दिनों की बीमारी से होती है। जब रेखा के आरम्भ में एक द्वीप हो तो शादी बहुत दिनों के लिए रुक जाती हैं। और दोनों आदमी शादी के पश्चात् पृथक् हो जाते हैं। जबकि द्वीप रेखा के अन्त में हो तो गृहस्थ जीवन के मध्य में कोई बड़ी मुसीबत या वियोग हो जाता हैं। (3 चित्र 18) जबकि द्वीप रेखा के अन्त में पाया जाए है तो शादी मुसीबत और एक-दूसरे के वियोग में समाप्त होगी। जब शादी की रेखा जिह्वाकार (4 चित्र 18) हो तो दोनों मनुष्य एक-दूसरे से अलग रहते हैं। लेकिन जब जिह्वा नीचे हृदय रेखा की ओर मुड़ती है तो कानून न वियोग होगा। (5 चित्र 18) जब जिला बहुत दबी हुई हो और नीचे हाथ की ओर अधिक झुकती हैं तो तलाक की आशा की जा सकती है और विशेष कर जबकि जिह्वा का एक सिरा शुक्र के मैदान की ओर फैला हो या शुक्र के उभार की ओर हो (5 चित्र 18) बहुत दिशाओं में एक सुन्दर रेखा बीच हथेली को काटती हुई शादी रेखा को जाती हुई पाई जाती है। ऐसी दशा में तलाक तथा स्वतन्त्रता के लिए गहन लड़ाई हो जाती है। ऐसी दशा में पश्चाताप को स्थान नहीं होता। जबकि शादी रेखा द्वीपों से भारी हो या जंजीरदार हो तो ऐसे मनुष्य को सूचना दी जाती है कि वह किसी भी समय शादी न करें क्योंकि ऐसी शादी सदा दुःखपूर्ण तथा वियोग पूर्ण होगी। Page #1115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३५ हस्त रेखा ज्ञान जब रेखा बीच में टूटी हो तो खुशी पूर्ण गृहस्थ में हानि पहुँचाती है। (Break Cup) | जब स्वयं शादी की रेखा या उसकी कोई शाखा हाथ में सूर्य रेखा की ओर जाती हों या उससे मिल जाती हों तो उस रेखा को रखने वाला एक धनी तथा उच्च जाति में शादी करता है (6 चित्र 18 ) | जबकि ऊपर लिखित रेखा नीचे की ओर झुकी हो और सूर्य की रेखा को काटती हो तो वह मनुष्य शादी करने से अपनी इज्जत (Position) घटाता है। जब बुद्ध के उभार से कोई रेखा शादी की रेखा में आकर मिले तो उस मनुष्य को शादी करने में बहुत रुकावटें होगी किन्तु यदि शादी की रेखा अच्छी हो तो वे मुसीबत तथा रुकावटें दूर हो जावेगी। जब कि शादी की रेखा से ऊपर कोई और हल्की सी रेखा हो तो वह उस मनुष्य के जीवन में शादी के पश्चात् कुछ प्रभाव बतलाती है। शुक्र के उभार से गुजरने वाली सभी रेखायें (6 चित्र 17 ) जो शादी की रेखा की ओर जाती है वे शादी में दखल देने वाली होती है। ये रेखायें यदि भाग्य रेखा को पार कर जाती है। तो उन रुकावटों की तिथि बदलती है जब ये शुक्र से आती है तो झगड़ा उत्पन्न करती है मंगल से आने वाली चिड़चिड़ापन लेकिन बहुत गम्भीर तथा गहन स्वभाव का नहीं ( 7 चित्र 17 ) । मंगल के उभार पर भाग्य रेखा पर प्रभाव डालने वाली रेखायें और दूसरे चिह्न जो शादी के सम्बन्ध में कुछ अर्थ रखते है। विद्यार्थीयों को उन मनुष्यों की शादी, जिनका हाथ उसने निम्नलिखित बातों से देखा हैं, के बारे में बतलाने में अधिक मदद देगी। अच्छी सुन्दर रेखायें भाग्य रेखा को छूती हो तो वह मनुष्य भाग्य के प्रभाव में आ जाता हैं ( 7 चित्र 18 ) | यह प्रभावशाली रेखा जहाँ पर वह भाग्य रेखा से मिलती हैं बहुत मजबूती हो और यदि बुद्ध के उभार पर शादी की रेखा भी स्पष्ट हो तो शादी की तारीख बिल्कुल ठीक-ठीक बताई जा सकती है और वह वर्ष उस स्थान का होगा जहाँ पर ये रेखा भाग्य रेखा मिलती है। इन प्रभावशाली रेखाओं को भाग्य के सम्बन्ध में पढ़ने से एक बहुत बड़ा खजाना विस्तारपूर्वक हो जायेगा । Page #1116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता चन्द्रमा के उभार से आने वाली रेखा बतलाती है कि उसकी एकता में कुछ नवीनता होगी। वह मनुष्य जिसके हाथ पर यह रेखा होगी। अपनी (Afivitiy)..... जगह से जब वह घर से दूर हो या यात्रा करता हो, मिलता है। यदि प्रभावशाली रेखा एक द्वीप रखती है तो प्रभाव बुरा होगा और मनुष्य (स्त्री या पुरुष) अपने व्यतीत जीवन के लिए घृणा (Scandd) रखते होंगे (8 चित्र 18) यदि इस सन्धि के पश्चात् भाग्य रेखा कमजोर या बहुत अनिश्चित हो तो ऐसी शादी उस मनुष्य के लिए अच्छाई व खुशी या सफलता नहीं लाती यदि इसके विपरीत, प्रभावशाली, रेखा के मिलने के पश्चात् भाग्य-रेखा अधिक मजबूत तथा अच्छी दिखाई दे तो वह शादी फायदेमन्द होगी यदि सूर्य-रेखा साथ में विद्यमान है तो यह शक्ति में अधिक गहरी तथा निमित्त होती हैं। यही प्रभावशाली रेखा भाग्य-रेखा को काटती हुई अंगूठे की ओर निकल जाय तो प्रेम अचानक बहुत लम्बा हो जाता हैं (7 चित्र 18) यदि अभी तक भी एक अधिक चौड़ा वियोग प्रभावशाली तथा भाग्य रेखा जैसे दोनों साथ-साथ हो तो वो मानवों की इच्छाओं तथा भाग्यों का वियोग जैसे कि वर्ष बढ़ते जाते हैं अधिक स्पष्ट होगा यदि कोई प्रभावशाली रेखा भाग्य-रेखा के पास पहुँचती हैं। और कुछ काल के समानान्तर चलती हैं लेकिन उसे मिलती नहीं तो कोई बड़ी रुकावट हैं जो शादी को कभी भी होने से रोकेगी यदि कोई प्रभावशाली रेखा द्वीप पर आकर समाप्त हो जाती है तो प्रभाव स्वयं ही मुश्किल में पड़ जाता है विशेष कर किसी प्रकृति की {disgraee) बेईज्जती (10 चित्र 18)। मंगल के उभार पर प्रभावशाली रेखायें । ये प्रभावशाली रेखायें जीवन-रेखा के समानान्तर चलती हैं (1-11 चित्र 18) लेकिन वे शुक्र-रेखा या जीवन की मम्नी रेखाओं में जो कि कुछ ऊपर को शुक्र के उभार पर शुरू होती हैं, नहीं मिलनी चाहिए ये मंगल की प्रभावशाली रेखायें उन्हीं मनुष्यों के हाथों में पाई जाती हैं जिनका स्वभाव मंगल के समान हो या जो बहुत अधिक तरंगित तथा जोशीले हो। जब ऐसी बहुत-सी रेखायें हों तो वह मनुष्य बिना प्रेम के रह नहीं सकता और एक समय पर बहुत से प्रेम सम्बन्ध रखता हैं यदि ऐसी प्रभावशाली रेखा-जीवन रेखा के समानान्तर या उस से कुछ दूर हट गई हो तो यह देखा जा सकता है Page #1117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त रेखा ज्ञान कि प्रभाव कितने दिनों तक रहेगा तथा ठीक वर्ष तिथियों के परिच्छेद से मिलेगा यह प्रभावशाली रेखायें प्रथम वाली रेखाओं भाग्य-रेखा से मिलने वाली के समान प्रभाव नहीं रखती। ___ बच्चों को बताने वाली रेखायें उसी जाति (स्त्रीलिंग) की होगी या पुलिंग तथा उनसे सम्बन्धित दूसरी बातें ये रेखायें ठीक शादी की रेखा के ऊपर खड़ी होती हैं (12 चित्र 18) इन रेखाओं को देखने का सही तरीका यह है कि दो अंगुलियों से इस स्थान को थोड़ा खींचा जाय और तब देखा जाय इनमें से कौनसी अधिक स्पष्ट हैं। यह कभी-कभी बुरी प्रकार से बनी होती हैं और अधिकतर एक स्त्री के हाथ ए बनिस्बत पुरुष के अधिक गहरी होती हैं, कुछ स्थानों पर ये रेखायें दूरबीन लगाकर भी देखी जाती हैं। चौड़ी और गहरीरेखायें लड़के बतलाती हैं पतली तथा सुन्दर रेखायें लड़कियौं । जब वे सीधी रेखा सी दिखाई पड़े तो बच्चे मजबूत तथा तन्दुरुस्त होगे जब वे टेढ़ी-मेढ़ी या हल्की हों तो बच्चे सदा नाजुक होंगे जबकि इस छोटी रेखा के प्रथम भाग पर (शादी की रेखा से ऊपर को लेते हुए) एक छोटा द्वीप बना हो तो वह बच्चा अपने बाल्यकाल में अधिक कमजोर तथा नाजुक होगा लेकिन यदि द्वीप के पश्चात् रेखा अच्छी तथा मजबूत है तो वह बच्चा तन्दुरुस्त तथा मजबूत हो सकता हैं। यदि द्वीप पर टूट या खत्म हो जाता है तो वह बच्चा कभी पनपेगा नहीं। जब एक रेखा औरों से अधिक स्पष्ट तथा साफ हो तो वह बच्चा अपने पिता पर अधिक होगा तथा दूसरे बच्चों से अधिक सफल होगा। बच्चों की ओर को गिनना चाहिए। यदि मनुष्य के हाथ में मंगल के उभार बहुत चपटा हो या बुरी (Poorly) प्रकार से उभार हो तो उसके कोई सन्तान नहीं होती और यदि प्रथम मणिबन्ध (Bracelet) धनुष के समान हथेली की ओर को उभार हो तो वह अधिक निश्चित हो जाता है कि वह मनुष्य निःसन्तान हैं। [इति प्रथमोऽध्यायः समाप्तः] Page #1118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भारतीय संस्कृति के अनुसार आयु रेखादिका हाथ कलाई से आरम्भ जब कि भाग्य रेखा कलाई से शुरू हो (1-1 चित्र 19) और सीधी हथेली को पार करती हुई शनि के उभार तक जाती हैं और साथ ही साथ सूर्य रेखा (4-4 चित्र 19) अच्छी प्रकार स्पष्ट रूप से हो तो किस्मत सफल तथा यश भाग्य में हो और एक अच्छा भाग्य सोचा जा सकता हैं। इन अंगुठादिक के लिये पं. बालभट्ट जी का ऐसा कहना है-- अंगूठा (The Thumb) हाथ की बनावट से चरित्र जानने में अंगूठा वहीं स्थान रखता हैं जो कि नाक का चेहरे पर हैं। यह स्वाभाविक इच्छाशक्ति को बतलाता हैं। जबकि मस्तक-रेखा मानसिक इच्छा बतलाती हैं। अंगूठा विचारों की तीन बड़ी दुनियाँ बतलाता हैं। प्रेम, तर्क तथा इच्छा (चित्र 3 भाग 2) Page #1119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ हस्त रेखा ज्ञान प्रेम अंगूठे की जड़ से जो कि हाथ मंगल के उभार से ढका होता हैं, प्रदर्शित हैं। तर्क बीच के हिस्से तथा इच्छा सिरे या नाखून के हिस्से से प्रदर्शित हैं जबकि ये हिस्से लम्बे पाये जाते हैं, तो स्वभाव में बढ़े हुए होते है। जब छोटे होते हैं, तो जीवन में बहुत कम विशेषता रखते हैं। अंगूठे की दो साफ श्रेणियाँ हैं झुके हुए जोड़ का ( ) तथा सीधे दृढ़ जोड़ का (Fig 2 चित्र 3) विस्तृत दिमाग बहुत कुछ चपल जीवन के लक्ष्य में अदृढ़ तथा कोमल और दूसरों के उपयोगी स्वभाव बतलाता हैं। यदि मस्तक-रेखा नीचे की ओर झुकी हुई हो तो ये प्रवृत्तियों बढ़ जाती हैं। यदि मस्तक रेखा सीधी हो तो ये प्रवृत्तियाँ अधिक स्थिर होती हैं। (Supque Jointed) अगूंठा दिमाग की दयालु दोनों धन और विचार के प्रति प्रदर्शित करता है। सभी दशाओं में ऐसे में ऐसे मनुष्य सीधे दृढ़ जोड़ के अंगूठे वालों से अधिक व्ययी होते है। दूसरे शब्दों में वे जो कुछ करते या सोचते हैं उसमें अधिक देते है। अंगूठा हाथ की तरह हो या अधिक हथेली की ओर नीचे का बँधा हो तो वह मनुष्य पकड़ने (Grasp) की ओर अधिक झुका होता है। सच्चा कंजूस सदा अंगूठा हाथ की ओर झुका हुआ रखता है। और नाखून का हिस्सा अन्दर की ओर को कुछ झुका हो तो मानो दिमाग पकड़ना या रखना चाहता है। दृढ़ जोड़ की अपेक्षा लचीले जोड़ के अंगूठे वाले आदमी अपनी इच्छाओं को देने में अधिक प्रभावित होते हैं। जबकि दूसरी प्रकार के ( ) अंगूठे वाले अपनी राय देने में प्रथम विचारते हैं। यदि कोई मनुष्य लचीले अंगूठे वाले को अपने पक्ष में चाहता हैं तो उसे ध्यान रखना चाहिए कि वह समझ के भावुक क्षण में अधिक होता हैं। और यदि कोई अपना लक्ष्य एकदम नहीं बतलाता तो वह मनुष्य प्रथम तो वायदा कर लेता हैं और बाद में विचारने के पश्चात् अपना दिमाग पलट लेता हैं दृढ़ जोड़ वाला अंगूठा (Fig 3 चित्र 3) इसके विपरीत प्रथम तो मनाकर देता हैं। परन्तु बाद में फिर उससे सहमत हो जाता हैं लेकिन यदि वह अपना इरादा बना लेता हैं। तो फिर उसी पर हद हो जाता हैं, और जितना भी उसके खिलाफ कहा जाता हैं, वह अपने विचारों में और भी हद हो जाता Page #1120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता हैं। दृढ़ जोड़ वाला अंगूठा दृढ़ स्वभाव का बाहरी चिह्न हैं और नाखून का भाग जितना भी लम्बा होता हैं इच्छा शक्ति उतनी ही दृढ़ होती हैं ऐसे मनुष्य बहुत कम ही मित्र जल्दी से बना पाते हैं। और रेल यात्रा में बहुत कम कोई बात शुरू करते हैं उनको करनी ही पड़ती हैं, तो वह एक बहस के रूप में होती हैं। जैसे खिड़की खुली रहनी चाहिए अथवा बन्द यदि कहीं दूसरा यात्री भी दृढ़ जोड़ के अंगूठे वाला हुआ और उसके विचारों के विपरीत रखे तो बस ईश्वर मालिक हैं। चित्र संख्या - 19 Page #1121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४१ हस्त रेखा ज्ञान लचीले अंगूठे वाला मनुष्य इसके विपरीत बहुत शीघ्र बातचीत में घूमता है और अक्सर यात्रा करते समय गहरे दोस्त बना लेता हैं। हँसमुख, मधुर भाषा तथा दूसरों की इच्छाओं को शीघ्र अपनाता हैं। वास्तव में यह स्वभाव एक कमजोरी को बचाता है सारे स्त्री, पुरुष जो कि आसान रास्ता अपनाते हैं लचीला अगूंठा रखते हैं। यह मस्तक रेखा से अधिक प्रभावित होते हैं। __ लचीला जोड़ रखने से नीचे या बीच का जोड़ इच्छा को सम्बन्धित नहीं रखता लेकिन तर्क के हिस्से को बतलाता है। जब यह दूसरा जोड़ लचीला होता है तो मनुष्य आदमियों की उपेक्षा वातावरण को अधिक धारण करता है। वह सोच निकालता है कि उसे जीवन के वातावरण को जिसमें कि वह रहता हैं धारण करना चाहिए या झकना चाहिए। गदाकार अगूंठा (Fig.1 चित्र 3) गदा के समान मोटा होने के कारण कहलाता है। ऐसे मनुष्य जहां तक कि इच्छाओं का सम्बन्ध है। साधारण श्रेणी के ही होते हैं। वे निर्दयी होते हैं और विवेचना शक्ति में पशुओं के समान दृढ़ होते हैं। जबकि उनकी मुखालफत की जाती है। तो वे काबू में न होने वाले गुस्से तथा क्रोध से भर जाते हैं। वे अपने ऊपर कोई अधिकार नहीं रखते और वे अपने गुस्से में किसी भी अपराध तथा क्रोध में किसी भी हद तक पहुँच जाते हैं। वास्तव में गदाकार अंगुठा एक 'खूनी-अंगुठा' होता है। और ऐसा अगुंठा रखने वाले अक्सर खूनी ही पाये जाते हैं। गदाकार अगुंठा रखने वाला अपराध या पाप को प्रथम से नहीं सोच रखता क्योंकि उसमें दृढ़ इच्छाओं तथा विवेचना शक्ति की कमी होती है। अगुंठा जितना भी छोटा होता है मनुष्य पशुत्व के उतने ही समीप तथा आत्म-संचालन की कमी रखता है। (Waist Like) कनर के समान {Fig Four चित्र three) और (Straight) सीधा अगुंठा (Fig Five) एक दूसरे के विपरित प्रवृत्तियाँ रखता हैं लेकिन अन्तर तर्क तथा विवेचना की किस्म में है। पहले प्रकार का मनुष्य ऐसी बातों पर अधिक निर्भर नहीं रहता किन्तु इसके विपरीत अपने लक्ष्य को यह मुक्ति तथा कुटिल नीति से अपनायेगा। दूसरे प्रकार के मनुष्य कोई युक्ति नहीं रखते लेकिन सभी बातों में बहस तथा विवेचना पर निर्भर रखते हैं। Page #1122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता अंगूठा का तीसरा हिस्सा जो कि प्रेम के लिए (चित्र चार भाग दो) जब लम्बा पाया जाता हैं तो यह प्रेम की प्रवृत्ति पर अधिकार प्रदशित करता हैं जबकि छोटा और मोटा होता हैं। तो इच्छाएँ अधिक कठोर तथा पशुता के लिए होती obara Tawa गदादार प्रण Pin.! Tlur SUPPLY TED संजनी ने बाध चित्र सरका-भाग THE LIAM GOINTI हद वाला द. 14-4 THE WAISTLIKE THE STRAIGHT T भनर के समान की 461 ENENTAR साधाररम उँगलियाँ-एक-दूसरे से लम्बाई एकसी तथा गांठदार (Smoot and knotty) पहली उंगली वृहस्पति की उंगली कहलाती हैं। दूसरी उंगली शनि की उंगली कहलाती हैं। तीसरी उंगली सूर्य की उंगली कहलाती हैं। चौथी उंगली बुध की उंगली कहलाती हैं। जब वृहस्पति की उंगली लम्बी होती हैं तो वह प्रेम तथा दूसरों पर अधिकार करने की शक्ति बतलाती हैं। जब छोटी होती हैं तो उत्तरदायित्व अनिच्छा तथा इच्छाओं की कमी बतलाती हैं। MEMADETamronee Marera Anita साखर और मोजिती गट दाए 'जोहनी Page #1123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त रेखा ज्ञान __ शनि की उंगली लम्बी होती है तो एकान्त प्रियता विद्याभ्यासी स्वभाव, अपने में ही रहने की इच्छा तथा बुद्धिमत्ता बतलाती हैं। जब छोटी होती है, तो सभी चीजों से गम्भीरता की कमी तथा जल्दबाजी बतलाती हैं। सूर्या—सूर्या की उंगली जब लम्बी हो तो शीघ्रता व यश की इच्छा या सुन्दर वस्तुओं से प्रेम, लेकिन जब बहुत ही लम्बी लम्बी हो तो इच्छा बदनामी में यश पाने की ओर, धन तथा जुएँ से प्रेम की ओर झुक जाती हैं। जब छोटी होती है तो ऐसी वस्तुओं के प्रति अनिच्छा प्रकट करती हैं। चौथी-बुध की उंगली जब लम्बी होती हैं तो मानसिक शक्ति, भाषाओं का ज्ञान, विचारों को प्रकट करने की शक्ति और विशेषकर बोलने की शक्ति बतलाती हैं। जब छोटी होती है तो बोलने में मुश्किल तथा विचारों को प्रगट करने की कठिनता बतलाती है। जबकि टेडी और असंगत मस्टक रेखा के साथ हो तो मानसिकता के लिए बुरा चिह्न हैं। उंगलियाँ हथेली के अनुपात में लम्बी होनी चाहिएँ। तब वे अधिक मानसिक शक्ति तथा ज्ञान बतलाती है। जब छोटी या ढंढ़कदार हों तो वह मनुष्य पशुत्व तथा सांसारिकता की ओर अधिक झुका रहता उंगलियाँ जब एक-दूसरे की ओर झुकी हों तो वे जिस उंगलियों की ओर झुकी होती है उसकी विशेषताएँ भी लेती है। अंगूठा और पहली उंगली को बीच की चौड़ी जगह इच्छाओं की स्वतन्त्रता तथा निडरता प्रदर्शित करती हैं। जब पहली और दूसरी उंगली के बीच की जगह चौड़ी हो तो विचारों की स्वतन्त्रता, तीसरी और चौथी उंगली के बीच कार्य को स्वतन्त्रता बतलाती हैं। जबकि उंगली ढीली तथा पीछे की ओर को झुकी हो तो वह मनुष्य खुले विचारों (Open Minnded) का तथा विचारों व रायों को शीघ्र पकड़ने वाला होता हैं। वे एक ही वस्तु पर चिपके रहने की प्रवृत्ति जैसे कि.दृढ़ और कड़ी उंगली रखने वाले की होती है नहीं रखतें। __ जबकि उंगलियाँ अन्दर की ओर झुकी हों तो वह मनुष्य नये विचारों को पकड़ने में सुस्त, बहुत, चिन्ताशील तथा जो कुछ वह रखता है या जानता हैं उसी पर खड़े होने की ओर झुका होता हैं। Page #1124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ४ एक सी उँगलियाँ Smoth गाँठदार उगंलियाँ में अधिक प्रभाविक करने वाली होती हैं। गांठदार उगलियाँ मामा माइतः को रोकती हैं। तथा विचार और हर एक काम में विस्तार की ओर प्रेम बढ़ाती हैं और ये अधिकतर उन मनुष्य में पाई जाती हैं क्योंकि कार्य का निर्माण करने वाले होते हैं। तथा जो अपने कार्यों को चलाने के लिए विचारों को चाहते हैं। PAPAR DELEGACY CAST DELICATE SUNG OF THROAT AND E RONCHIAL DEL. SCATE SPINAL WEAKNESS चित्र 5 भाग 2 हाथ के नाखून हाथ के नाखूनों का बढ़ना भी बहुत-सी बीमारियों के लिए आश्चर्यजनक रक्षक हैं। हस्त रेखा का यह भाग डॉक्टर के पास किया हुआ हैं। जो कि शायद ही कभी मरीज के नाखून शान्ति से देखने में फैले हुए हों। ये अधिकतर फेफड़ों, दिल, दिमाग तथा रीढ़ की हड्डियों से चलने वाली बीमारी के द्योतक हैं। ये चार भागों में विभाजित है। लम्बे, छोटे, चौड़े तथा संकरे। (1) लम्बे नाखून-जब कि नाखून बहुत लम्बे होते हैं। तो उनकी शरीर की गठन कभी इतनी दृढ़ नहीं होती हैं। जैसी की यह मध्यम श्रेणी के नाखून Page #1125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४५ हस्त रेखा ज्ञान वालों की होती हैं। लम्बे नाखून वाले फेफड़े तथा छाती की सभी प्रकार की बीमारियाँ हो सकती है । (चित्र 5 भाग 2 ) और ऐसा अधिक तब होता हैं। जब कि नाखून नसदार हों और नसें जड़ से किनारे की ओर चलती हो। उसी किस्म के नाखून लेकिन देखने में छोटे हो तो गले की बीमारियाँ बतलाते हैं। जब कि बहुत लम्बे नाखून और नीले रंग के हो तो वह और भी अधिक बुरे शरीर का गठन तथा बुरे नाखून के दौराना के साथ बतलाते हैं। ( 2 ) छोटे नाखून ( Short Nails)—छोटे नाखून दिल के नाखून बतलाते हैं। और विशेषकर जब कि नाखूनों के चन्द्रमा बहुत छोटे अथवा मुश्किल से दिखाई दे तब नाखून बहुत चपटे और जड़ के पास में गठे दिखाई दे तो दिमाग की बीमारी बतलाते हैं। जबकि उन पर नसें एक ओर से दूसरी दिमाग की बीमारी का बहुत खतरा हैं। जब की गहरी लाइन नाखून के आरपार दिखाई दे तो वह हर एक हाथ में बीमारी से दिमाग के ऊपर को साधारण बुखार आने वाले बतलाती है। यदि निम्नलिखित तरीका माना गया तो बीमारी की तारीख ज्ञात हो सकती हैं। जैसा कि एक नाखून पूरा उगने के लिए नौ महीने लेता है तो नाखून आसानी से भागों में विभाजित किया जाता हैं। जब कि रेखा अथवा गहरी नस किनारे के पास में पाई जावे तो बीमारी नौ मास पहले आई थी। जब बीच में हो तो पाँच माह के बीच और जब बिल्कुल जड़ में हो तो एक महीने पहले हुई थी । नाखूनों पर सफेद निशान साधारण नाजुकता के चिह्न है। जबकि नाखून छोटी सफेद चिपियों से भरा हो तो दिमाग का कार्य बुरी हालत में होगा । (3) लम्बे सफेद नाखून (Long narrcow nails) - बहुत संकरे नाखून ( चित्र 5 भाग 2 ) रीढ़ की कमजोरी बतलाते हैं। जब बहुत टेढ़े और बहुत पतले हों तो रीढ़ का झुकाव तथा शरीर की बहुत नाजुकता बतलाते हैं। ( 4 ) चपटे नाखून (Flat Nails) – जब नाखून बहुत चपटे तथा बाहर के सिरे की ओर मांस में से उभरे हुए प्रतीत हों तो यह फालिज की ओर खतरा बतलाते हैं तथा यह और भी अधिक तब हो जाता हैं जबकि नाखून छिलके की शक्ल तथा जड़ की ओर को नुकीला हो ( चित्र 5 भाग 2 ) जबकि इन नाखूनों पर कोई चन्द्रमा, सफेद चिन्ह और नीले रंग के न हो तो बीमारी बहुत ही बढ़ी हुई दशा में होती है ? Page #1126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता (5) नाखूनों पर चन्द्रमा—बड़े चन्द्रमा सदा दिल की मजबूत हरकत तथा खून का तेज दौरा बतलाते हैं जबकि बहुत बड़े हों तो दिल पर बहुत दबाव ( ) उसकी धड़कन में शीघ्रता और दिल की धड़कन बहुत दबी हुई ( ) तथा दिमाग या दिल में खून की कोई नस फटने का खतरा बतलाते हैं। छोटे चन्द्रमा इसके विपरीत बतलाते हैं वे सदा दिल दिमाग का कमजोर काम, खराब खून का दौरान बतलाते हैं। मृत्यु के नजदीक चन्द्रमा ही सबसे पहले नीला रंग लाता हैं और उसके पश्चात् सारा नाखून नीले या काले रंग का होता है? "हाथ के उभार और उनके अर्थ" हाथ के उभार (चित्र 6 भाग 2) जातियों के स्वभाव तथा चरित्रों के अन्तर के साथ बदलते है। लगभग दक्षिण की सभी जातियों, तरंगित जातियों में ये उभार अधिक होते हैं वनिस्पत उतरी जातियों के जिन आदमियों के उभार चपटे होते हैं। उनकी अपेक्षा जिनके उभार अधिक ऊंचे होते हैं। वे अपनी इच्छाओं में अधिक बह जाते हैं? हाथ के उभारों के नाम उन्हीं नक्षत्रों पर हैं। जो कि पृथ्वी के भाग्य को संचालित करते हैं। यूनानियों के द्वारा उभारों के ये नाम दिये गये हैं और नक्षत्रों की विशेषताओं से सम्बन्धित हैं जैसे कि मंगल—प्रेम, इन्द्रिय सेवा और लालसा शुक्र—साहस, चैतन्यता, लड़ाई-झगड़ा आदि बुद्ध-मानसिकता, व्यापार, विज्ञान चन्द्र-विचार, नवीनता, परिवर्तन शीलता सूर्य-चमत्कृतता, सफलता, फल वृहस्पति—इच्छा शक्ती, राज्य शनि-रुखापन, चिन्ता, गम्भीरता मणिबंधविषयकफल धणकणगरयणजुत्तो मणिबंधे जस्स तिण्णि रेहाओ। आहरणविविहभागी पच्छा भदं च सो लहइ॥8॥ (जस्समणिबंधे तिण्णि रेहाओ) जिस मनुष्य के हाथ के मणिबंध पर तीन Page #1127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त रेखा ज्ञान रेखा हो तो (धणकणगरयणजुत्तो) उसको धन, सोने और रत्नों की प्राप्ति होती है (आहरणविविहभागी) आभरण भी उसको नाना प्रकार के प्राप्त होते है (पच्छा भदं च सो लहइ) पश्चात् वह आत्म कल्याण के मार्ग पर भी लग जाता है। भावार्थ—मनुष्य के हाथों का जो मणिबंध है उसके ऊपर तीन रेखा हो तो ऐसे मनुष्य को धन, सोना व रली का अच्छा लाभ होता है, नाना प्रकार के आभरण भी प्राप्त करता है, फिर वह अपने आत्म कल्याण के मार्ग पर भी लग जाता है। अर्थात वह संसार के सुख को अच्छी तरह से भोगकर फिर वृद्धावस्था में अपना कल्याण करता है॥8॥ महुपिंगलहिं सुहिआ असिणधया हवंति स्ताहि। सुहमाहिं मेहावी सुभगा य समत्त मूलाहिं॥9॥ (महपिंगलहि सुहिआ) यदि मणि बंध की रेखा मधु के समान पीली हो वा कत्थे के रंग के समान वर्ण हो तो वह व्यक्ति सुखी होता है (अविणहवयास्ताहिं हवंति) और अगर वही रेखा लाल वर्ण की हो तो अखंड व्रत को पालन करने वाला होता है (सुहमाहिं मेहावी) यदि यह रेखा सूक्ष्म हो तो मेधावी अर्थात् बुद्धिमान होता है (समत्तमूलार्हि सुभगा य) इन रेखाओं का मूल सम हो तो सुभग अर्थात् सौभाग्यशाली रूपवान व भाग्यवान होता है। भावार्थ-यदि मणिबंध की रेखा मधु के समान पीली हो या कत्थे के रंग की हो तो वह मनुष्य सुखी होता है, और वह रेखा लाल वर्ण की हो तो उसका धारण किया हुआ व्रत कभी भंग नहीं होता है, अर्थात् व्रत भंगी नहीं होता है और यदि यह रेखा सम हो तो वह मनुष्य भाग्यवान, रूपवान और सौभाग्यशाली होता है। इन रेखाओं के बारे में वराहमिहिर का ऐसा कहना है कि जिनका मणिबंध (कलाई) दृढ़ हो गठीला हो तो वह राजा होता है यदि मणिबंध की कलाई ढीली हो उस मनुष्य का हाथ कट जाता है, और वही अगर शब्द करने वाला मणि बंध हो तो वह व्यक्ति दरिद्री ही रहेगा। ऐसे पुरुष कभी भी धनवान नहीं बन सकते हैं।।9॥ Page #1128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भदबाहु संहिता ९४८ । तिप्परिरिक्ता पयडा जवमाला होइ जस्स मणिबंधे। सो होइ घणाइपणो खत्तिय पुण पत्थिवो होइ॥ 10 11 (जस्स मणिबंधे) जिसके मणिबंध में (जवमाला) जवमाला (तिप्परिरिक्ता पयडा होइ) की तीन धाराएँ हो तो (सो होइ घणाइण्णो) वह मनुष्य धनवान होता है (पुणखत्तिय पत्थिको होइ) अगर वह क्षत्रिय हो तो राजा होता है। भावार्थ-यदि मणिबंध की देखा वनमाला के तीन धाराओं वाली हो तो वह मनुष्य अवश्य धनवान होता है। और अगर वह मनुष्य क्षत्रिय कुलोत्पन्न हो तो वह राजा बन जायगा ।। 10 ।। दुप्परिरिक्ता रम्मा जवमाला होइ जस्स मणिबंधे। सो हवइ रायमंती विउलमई ईसरो होइ ।। 11 ।। (जस्स मणिबंधे) जिस के मणिबंध में (दुप्परिरिक्ता रम्मा जवमाला होइ) दो जयमाला की धाराएँ हो तो ऐसा व्यक्ति (सो हवइ रायमंती) राजा का मंत्री होता है (विउलमई ईसरो होइ) और अगर वह विमल बुद्धिवाला हो तो राजा भी बन जाता है। भावार्थ—जिसके मणिबंध में दो जवमाला की धाराएँ हो तो ऐसा मनुष्य राजा का मंत्री बनता है। और अगर वह विशेष बुद्धिवाला हो तो राजा भी बन जाता है॥11॥ इकक्परिक्खत्ता पुण जवमाला दीसए सुमणि बंधे। सिट्ठी घणेसरो होइ तह य जणपुन्जियो पुरिसो॥12॥ (पुण सुमणिबंधे) पुन: जिसके मणिबंध में (इक्कपरिक्ता जवमाला दीसए) एक जवमाला की धारा हो तो (सिठ्ठीधणेसरो होइ) वह धनेश्वर सेठ होता है (तहय जणपुञ्जियोपुरिसो) और वह लोगों के द्वारा पूजा जाता है। - - भावार्थ-आचार्य कहते हैं कि जिस मनुष्य के मणिबंध में एक ही जवमाला की धारा दिखे तो वह मनुष्य धनेश्वर सेठ बनता है और लोगों के द्वारा पूजा जाता है॥12॥ Page #1129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त रेखा ज्ञान विज्जाकुलधणार रेहविगं ॐ ठरेहाये। पंच वि रेहाओ करे जणस्स पयडंति पुवकमं॥13॥ (करे) हाथों की (पंच वि रेहाओ) पांच रेखाएँ (पुत्वकमं जणस्स पयडंति) उसके पूर्व जन्म को सूचित करती है (रहतिअं) उसमें तीन रेखा (विज्जाकुलधण रूव) विद्या कुल और धन की प्राप्ति के लिये हैं, और (आउ उरेहाओ) एक आयु रेखा और एक अर्द्ध रेखा है। भावार्थ-हाथों की पांच रेखाऐं उसके पूर्व जन्म को सूचित करने वाली होती है। उसमें तीन रेखा तो विद्या कुल, धन की प्राप्ति कराती है। और एक आयु रेखा एक अर्द्ध रेखा है।। 13 ।। विद्या रेखा फल मणिबंधाओ रेहा अंगुट्ठ पएसिणीण मज्झगया। सा कुणइ सत्थजुत्तं विण्णाणविअक्खणं पुरिसं ।। 14॥ (रेहा) रेखा अगर (मणिबंधाओ) मणिबंध से निकल कर (अंगुल पएसिणीणमज्झगया) अंगुष्ट और प्रदेशिनी के मध्य जाती है तो समझो (सा) वह (पुरिसं) पुरुष को (सत्थजुत्तं) शास्त्र ज्ञान व (विण्णाणविअक्खणं कुणइ) विज्ञान से युक्त करती है। भावार्थ-रेखा अगर मणिबंध से निकल कर अंगुष्ट और प्रदेशिनी के मध्य तक जाती है। तो समझो वह मनुष्य रेखा शास्त्र ज्ञान व विज्ञान से युक्त बना देगी ।। 14॥ कुल रेखा विषयक फलम् मणिबंधाओ पयडा पएसिणी जाव जाइ जस रहा। बहुबंधुसमाइण्णं कुलवंसं णिद्दिसे तस्स ॥ 15।। (जस रेहा) जिस मनुष्य के हाथ की रेखा (मणिबंधाओ पयडापएसिणी जाव जाइ) मणिबंध से प्रकट होकर प्रदेशिनी तक जावे तो (तस्य) उस मनुष्य को (बहुबंधुसमाइण्णं कुलवंसंणिद्दिसे) बहुत बंधु से युक्त कराती है। और कुलवंश वृद्धि की द्योतक है, ऐसा निवेदन करे। .. - Page #1130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता भावार्थ यदि मनुष्य के हाथ की रेखा मणिबंध से प्रारंभ होकर प्रदेशिनी तक जावे तो समझो वह मनुष्य बहुत से भाई बंधुओं सहित होता है, और कुलवंश वृद्धिगत होता है।। 15॥ धन प्राप्ति रेखा व भाग्य रेखा मणिबंधाओ पयडा संपत्ता मल्झिमंगुलिं रेहा! सा गुणइ धणसमिद्धं देसक्खायं तमायरिमं॥17॥ (रहा) रेखा (मणिबंधाओ पयडा) मणिबन्ध से प्रकट होकर (मज्झिमंगुलिं संयत्ता) मध्यमा अंगुलि तक जाती है तो (सा) वह गुण (गुणइ घणसमिद्ध) वह रेखा मनुष्य को धनवान बना देती है (देयक्खायं तमायरिम) तथा विश्व विख्यात आचार्य बन देती है। भावार्थ-यदि मणिबन्ध से रेखा प्रकट होकर मध्यमांगलि तक जाती है, तो समझो वह पुरुष बहुत धन प्राप्त करता है, और वह ख्याति प्राप्त आचार्य बनता है॥1711 अक्खंडा अप्फुडिया अल्लवा आयया अछिण्णा य। झक्का वि उड्ढरेहा सहस्सजणपोसिणी भणिया॥18॥ (इकावि उड्ढरेहा) अगर मनुष्य के हाथ में एक भी अर्द्ध रेखा (अक्खंडा अप्फुडिया) अखण्ड हो अर्थात् टूटी हुई न हो (अपल्लवा) एवं उसमें शाखाएं निकली हुई हो, (आयया अछिण्णाय) चौड़ी और छिन्न-भिन्न न हो तो (सहस्सजणपोसिणी भणिया) वह व्यक्ति हजार मनुष्यों का भरणपोषण करने वाला होता है। भावार्थ-अगर मनुष्य के हाथ में एक भी अर्द्ध रेखा अखण्ड व टूटी हुई न हो शाखाओं से रहित हो, चौड़ी और छिन्न-भिन्न न हो तो वह मनुष्य हजार मनुष्यों का भरण पोषण करने वाला होता है। 18 ।। विप्पाणं वेदकरी रज्जकरी खत्तिआण सा भणिया। वेसाणं अत्थकरी सुक्खकरी सुद्दलोआणं॥19॥ (विप्पाणंवेदकरी) यही रेखा ब्राह्मणों को वेद का ज्ञान कराने वाली होती Page #1131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ हस्त रेखा ज्ञान हैं (ससा खतिआण खज्जकरी भणिया) क्षत्रियों को राज्य दिलाने वाली होती है। (वेसाणंअत्थकरी) श्यों को धन प्राप्त करता है (सुखलोआणं सुक्खकरी) और शूद्रों को सुख प्राप्त कराती है। भावार्थ--यही रेखा ब्राह्मणों के हाथ में हो तो वेद का ज्ञान कराती है। क्षत्रियों के हाथों में हो तो राज्य दिलवाती है, वैश्यों के हार्थों में हो तो धन प्राप्त कराती है। शूद्रों के हाथों में हो तो सुख प्राप्त कराती है।। 19॥ मणिबंधाओ पयडा संपत्तमणामि अंगुलिं रेहा। सा कुणइ सस्थवाहं नखसयपुज्जियं पुरिसं। 20 ॥ (रहा) यदि रेखा (मणिबंधाओपयडा) मणिबन्ध से प्रकट होकर (संपत्तमणामिअंगुलिं) अनामिका अंगुलि तक जाती हो तो (सोसत्यवाहं कुणइ) मनुष्य को सार्थवाहक बना देती है (नर वइसयपुज्जियपुरिसं) और हजारों राजा उसकी पूजा करते है। भावार्थ-यदि मणिबन्ध से यह रेखा प्रकट होकर अनामिका अंगुलि तक जाती है, तो मनुष्य को किसी भी दल का नायक बनाती है, और सैकड़ों राजा उसकी पूजा करते हैं। 20॥ उर्द्ध रेखा का ज्ञान व फल व भाग्य रेखा मणिबंधाओ पयडा पत्ता चरिमंगुलिं तु जा रहा। सा कुणइ जससमिद्धिं सिटि वा विभव संजुत्तं ॥21॥ (जा रेहा) जो रेखा (मणिबंधाओंपयडा) मणिबन्ध से प्रकट होकर (चरिमंगुलिंतुपत्ता) छोटी अंगुलि तक जाती है (सा) तो वह उस मनुष्य को (जससमिद्धिं) यश समृद्धि (सिढ़िवाविभवसंजुत्तं कुणइ) प्राप्त कराती है या सेठ हो तो उसका खूब वैभव बढ़ता है। भावार्थ-जो रेखा मणिबन्ध से प्रकट होकर छोटी अंगुलि तक जाती है तो वह मनुष्य को खूब समृद्धि प्राप्त कराती है, अगर वह सेठ हो तो उसका बहुत वैभव बढ़ाती है।। 21॥ यहाँ आगे भाग्य रेखा के बारे में अन्य सामुद्रिक लेखकों का भी विस्तृत वर्णन देता हूँ। Page #1132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १५२ आयु रेखा मातमा सीप रेगा बीसं तीसं चत्ता पण्णासं सट्टि सत्तार असि। उयं कटियाऊ पएसिणं जाव जाणिज्जा ॥२२॥ (पएसिणं जावकणडियाऊ) कनिष्ठिका से जो रेखा आरम्भ होकर प्रदेशिनी तक जावे उसे आयु रेखा कहते हैं। उसी के अनुसार (बीसं) बीस (तीसं) तीस (चत्ता) चालीस (पण्णासं) पचास (सट्टि) साठ (सत्तर्रि) सत्तर (असि) अस्सी (णउयं) नब्बे की आयु (जाणिज्जा) जानो। भावार्थ-यदि आयु रेखा कनिष्ठिका से प्रारम्भ होकर प्रदेशिनी तक जाचे तो उसी के अनुसार क्रमश: आयु का ज्ञान कर लेना चाहिये। प्रथम कनिष्ठिका से लेकर इसके अन्त तक जाने वाली रेखा से बीस वर्ष की आयु समझो अनामिक से प्रारम्भ होकर इसके अन्त तक जाने वाली रेखा से चालीस वर्ष की आयु समझो। वहाँ से प्रारम्भ होकर इस अंगुलि के अन्त तक जाने वाल रेखा पचास वर्ष की आयु बताती है। मध्यमा के प्रारम्भ तक जाने वाली रेखा से साठ वर्ष की आयु और अन्त तक जाने वाली रेखा सत्तर वर्ष की आयु होती है। और प्रदेशनी के प्रारम्भ में अस्सी वर्ष की आयु अन्त तक जावे तो नब्बे वर्ष की आयु समझो।। २२॥ भारतीय परम्परा के अनुसार इसी रेखा को आयु रेखा माना है। जो कनिष्ठा के नीचे से प्रारम्भ होकर प्रदेशनी तक जावे। और इसी आयु रेखा के अनुसार आयु का ज्ञान किया जाता है। एक परम्परा में एकैक अंगुलि के नीचे के भाग को पच्चीस वर्ष की आयु माना अथवा एक परम्परा के अनुसार बीस-बीस वर्ष की आयु मानी है। आगे और भी अन्य आचार्यों का इन रेखाओं के बारे में ऐसा अभिमत है। जो प्रथम बालभट्टजी का अभिमत कहते हैं। ललाटे यस्य दृश्यन्ते पंच रेखा अनुत्तराः। शतवर्षाणि निर्दिष्टं नारदस्य वचो यथा ।। २३॥ भावार्थ-जिस पुरुष के ललाट पर पाँच रेखा एक-दूसरे के बाद, दिखाई दें, उसको आयु, नारदमुनि के कथानुसार सौ वर्ष होनी चाहिये ॥ २३ ॥ Page #1133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५३ हस्त रेखावान ललाटे यस्य दृश्यन्ते चतूरेखाः सुवर्णितम्। निर्दिष्टाशीतिवर्षाणि सामुद्रवचनं यथा॥२४॥ भावार्थ-जिस पुरुष के ललाट पर चार रखायें, खूब अच्छी तरह से दिखाई पड़े, इस शास्त्र के अनुसार उसकी आयु अस्सी वर्ष की होगी। २४ ।। जीवन रेखा तथा उसके परिवर्तन जीवन रेखा अंगूठे के नीचे की ओर होकर जाती है और बिल्कुल, "खून के बर्तन' (Blood Vessel) जो कि हथेली पर बड़ा वृत्त (The great palrner arch) कहलाता हैं, के ऊपर पड़ी है। (१-१ चित्र ८) यह खूब का बर्तन अधिकतर दिल से सम्बन्ध रखता हैं तथा दिल और जीवित अंगों से सम्बन्ध भी रखता हैं। यह पूर्ण रूप से ठीक हो सकता है, कि विद्यार्थी प्राकृतिक कष्ट मनुष्य की जीवन की अवधि बता सकता है क्योंकि यह जीवित अंगों के साथ का सम्बन्ध ही है जो उसे यह बताने में मदद करता हैं विद्यार्थी को यह याद रखना चाहिए। क्योंकि यह बीमारी तथा स्वास्थ्य के सम्बन्ध में बहुत-सी मुश्किलों को स्पष्ट तथा सरल कर देता हैं। और वह आसानी से ही निम्नलिखित PouTE Phot Moot VUS चित्र संख्या -- Page #1134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | प्रथम नियम याद करने के लिये--जीवन रेखा लम्बी स्पष्ट तथा और किसी प्रकार की टूट-फूट या निशान आदि कुछ भी नहीं होने चाहिए। ऐसी रेखा लम्बा जीवन, चैतन्यता बीमारी से छुटकारा तथा ढांचे की दृढ़ता की द्योतक हैं। प्रथम बात को ध्यान में रखते हुए कि यह पेट तथा चेतन अंगों से सम्बन्ध रखती हैं। यह पूर्ण निश्चित है कि यदि जीवन रेखा भली प्रकार से है तो पाचन-यन्त्र तथा पेट अच्छी स्वस्थ दशा में हैं। यदि वह छोटे-छोटे टुकड़े या जंजीर के समान हो तो मनुष्य निश्चय ही खराब स्वास्थ्य, कमजोर पेट तथा चैतन्यता की कमी रखता है। इस स्थान पर निम्नलिखित नियमों पर अधिक ध्यान देना चाहिये---वे नियम जो और कोई अन्य इस विषय की पुस्तक में नहीं होते और जो मैंने अपनी और किसी अन्य कृति से नहीं लिखे हैं जैसे—यह जीवन रेखा हर दशा में हाथ पर शरीर या मनुष्य के तने को दिखाता हैं इसलिये टुकड़े, निशान, जंजीर या द्वीप शरीर के बहुत प्रभावित भाग को दर्शाती हैं। आगे जाने से पहले यह बता देना आवश्यक है, कि हर एक रेखा दोहरा कार्य करती हैं। प्रथम कार्य तो मनुष्य की बीमारी को बतलाती हैं, तथा दूसरे कार्य में कब बीमारी बहुत तेज होगी यह बतलाती हैं। प्रकृति की आश्चर्यजनक कार्य को समझने के लिये मैंने इस रेखा को हिस्सों में बांट दिया (देखो चित्र ८) चित्र आठ में रेखा के हिस्से दिखाये गये हैं तथा उनकी प्रवृत्तियों अंगुलियों के नीचे के उभारों से बाँटी गई हैं यह विद्यार्थी को अनेक अर्थ तथा साथ में जन्म मास का प्रभाव जैसा कि “हाथ के उभार" के विषय में परिच्छेद में है, तथा उसको स्वास्थ्य बीमारी तथा जीवन के खतरे को जो कि अब तक नहीं पाये गये हैं, के सम्बन्ध में ठीक पूर्ण ज्ञान प्राप्त कराती हैं। जीवन रेखा सबसे पहले इसकी किस्म देखनी चाहिए कुछ हाथों में यह चौड़ी तथा छिछली हैं, दूसरों में गहरी और सुन्दर इस रेखा की बनावट धोखे में डालने वाली है, यदि विद्यार्थी अपना ध्यान उसकी बनावट की ओर नहीं देता तो यह गलत रास्ते पर जा सकता है, चौड़ी या छिछली रेखा अक्सर मनुष्यों को गलत रास्ते पर सोचने Page #1135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५५ हस्त रेखा ज्ञान के लिए छोड़ देती हैं, कि यह स्वास्थ्य तथा अच्छी बनावट बतलाती हैं, लेकिन यह इसके विपरीत, साफ पतली तथा स्पष्ट रेखा के समान अच्छी नहीं होती। चौड़ी जीवन रेखा बतलाती हैं कि वह मनुष्य दृढ़ पाशविक ताकत का हैं जबकि पतली रेखा वाला मनुष्य अधिक चेतन तथा इच्छाशक्ति वाला होता हैं किसी भी बुरी तन्दुरुस्ती के प्रभाव से यह पतली ही रेखा है जो बेदाग निकल जाती है जबकि मोटी रेखा वह रोकने की शक्ति नहीं रखती। कि:- .-सुविधि ागर जी | चित्र संख्या - ९ बहुत चौड़ी रेखाएँ इच्छा शक्ति की अपेक्षा पुट्ठों की ताकत अधिक रखती हैं। यदि रेखा जंजीर की तरह हैं (१-१ चित्र ९) तो यह निश्चय ही खराब स्वास्थ्य विशेष पर जब कि हाथ मुलायम भी हो वे ही निशान एक सख्त तथा कड़े हाथ पर उतनी नाजुकता नहीं दिखाते क्योंकि सख्त तथा कड़े हाथ स्वयं ही दृढ़ प्रकृति गठन बतलाते हैं। Page #1136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १५६ __दूसरे विशेष निशान की जीवन रेखा सीधी मंगल के उभार की ओर उसे घेरती हुई जाती हैं (२-२ चित्र ९) या वह एक अच्छा सा अर्द्धवृत्त या गोले का टुकड़ा (३-३ चित्र ९) बनाती हैं पहली दशा में वह स्वाभाविक ही नाजुक गठन तथा पशुत्व आर्कषण का कम प्रभाव प्रकट करती हैं। यह देखा जाता है कि वह मनुष्य जो कमजोर होते हैं, उनकी अपेक्षा जो कि दृढ़ गठन तथा अच्छा खून के दौरान रखते हैं यह बड़ा हथेली का वृत्त (The great palmer arch) अधिक संकीर्ण होता हैं, इसीलिए यह मंगल का उभार जबकि वह बड़ा और चौड़ा होता हैं, तो वह पतले तथा छोटे उभार की अपेक्षा अधिक पशुत्व स्वभाव बतलाता हैं। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर - चित्र संख्या - १० इस विशेष चिह्न पर बोलते हुए यह भी बता देना आवश्यक है। कि जब मस्तक रेखा सीधी जाने के स्थान पर नीचे की ओर को झुकी हुई हो तो यह । Page #1137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५७ हस्त रेखा ज्ञान मंगल के उभार की प्रवृत्तियों से अधिक आकर्षित होती हैं। तथा यह प्रेम की और अधिक प्रवृत्ति दिखाते हुए नई विचारात्मक सूक्ष्मता को स्थान देता हैं वनिस्पत उनके जो कि मस्तक रेखा सीधी हथेली के बीच से जाती हुई रखते हैं, इसलिए यह देखा जाता है हर एक चिह्न इस विद्या का स्वभाव पर प्रभाव एक तार्किक दृष्टि से भी स्पष्ट किया जा सकता हैं यह इस विद्या को एक उच्च स्थान पर ला रखती हैं। वनिस्वत उसके जबकि वह अन्धविश्वास पर निर्मित होता हैं। यदि यह जीवन रेखा वृहस्पति के उभार की ओर ऊंची उठी हुई हो (४-४ चित्र ९) तो मनुष्य अपने ऊपर अधिक अधिकार रखता है और उसका जीवन उसकी इच्छा प्रकृति से अधिक प्रभावित हैं। जबकि यह जीवन रेखा हथेली में अधिक नीचे को शुरू होती हैं। (५-५ चित्र ९) विशेष कर शुक्र के उभार से, तो यह स्वभाव के ऊपर काबू रखता हैं। जबकि यह चिह्न, नौजवान मानों के हाथों पर मिले तो वे अधिक झगड़ालू अधिक अज्ञानकारी तथा अपनी पढ़ाई के विषय में कम इच्छायें रखता हैं। जबकि जीवन रेखा पर बहुत सी ऊपर को उठी हुई रेखायें हैं यद्यपि वे बहुत ही छोटी हैं, तो वह जीवन अधिक शक्तिपूर्ण होता हैं। जिस उम्र में यह रेखायें जीवन रेखा से निकलती हैं। उस उम्र में वह मनुष्य कोई विशेष कार्य जिधर को उसके भाग्य का विशेष कार्य उस समय पर होता हैं। जबकि ये रेखायें वृहस्पति के उभार पर या उसकी ओर को जाती दिखाई दें (१-१ चित्र १०) तो ये जीवन में उन्नति की इच्छा प्रकट करती हैं। विशेष कर कुछ स्थान पर दूसरों पर अधिकार तथा हुक्म करने की शक्ति भी देती हैं। यदि उनमें से कोई एक रेखा मस्तक रेखा से बन्दी या रोकी हुई हो (२-२ चित्र १०) तो वह मनुष्य कुछ अपनी बेवकूफी या मानसिक गलती से उस कार्य को जो कि शुरू हुआ हो, सफल होने से रोकती हैं तो मनुष्य का प्रेम उसके विशेष कार्य में बाधा पहुंचाता हैं या पहुंचावेगा चाहे रेखा किसी भी दशा में हो यदि इनमें कोई रेखा भाग्य रेखा को काटती हुई मिलती हैं (३-३ चित्र १०) तो वह स्पष्ट दो तिथियाँ जो कि गम्भीर अर्थ रखती हैं, बतलाती हैं प्रथम तिथि जो कि वह बतलाती है। जब कि यह रेखा जीवन रेखा को छोड़ती है। यह भाग्य रेखा की ओर शुरू होने की तिथि स्वयं भाग्य रेखा पर बिल्कुल Page #1138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५८ भद्रबाहु संहिता होती हैं। जहाँ से वह जीवन रेखा शुरू होती हैं उसके उल्टे सामने यह निशान यह बतलाता हैं कि उस मनुष्य ने उस समय अपने जीवन में अपना भाग्य बनाने के लिए दृढ़ निश्चय कर लिया हैं, और अपने को वातावरण से स्वतन्त्र तथा उन मनुष्यों से जो कि उसे घेरे हुए हैं बनाने के लिये हैं यह सदैव एक सफलता का चिह्न है जबकि यह रेखा भाग्य रेखा को मिलाती हैं विशेष कर जब कि उस मिलने के स्थान पर भाग्य रेखा अधिक मजबूत हो। दूसरी तिथि उस समय जबकि जीवन रेखा को नीचे की ओर को पढ़ते हो जीवन रेखा पर ही होती हैं, इस निशान से भाग्य में वातावरण का बार-बार आना पाया जाता हैं मान लो किसी ने यह रेखा अपने २६ वें वर्ष में भाग्य रेखा की ओर जाती हुई देखी है तो वह वातावरण या घटन फिर करीब दुगुनी उम्र में यानी ५२ वें वर्ष में जो कि इस घटना की ठीक तिथि जबकि जीवन रेखा को पढ़ते हों तो होती हैं। पहले स्थान पर प्रायः यह पाया जाता हैं। कि उस मनुष्य ने अपने आरम्भिक काल में कोई बन्धन तोड़ा हो और फिर वैसी ही घटना उसकी बाद की जिन्दगी में फिर से वह मनुष्य किसी बन्धन से छुटकारा पाता हो और फिर वह अपने लिए सांसारिक जीवन में घुसता हैं। वह विशेष चिह्न प्रायः शादी सम्बन्धी बातों को निश्चित करने में मदद करता है । वह मनुष्य या स्त्री स्पष्टतया अपनी स्वतन्त्रता अधिक चाहता है। और गृहस्थ को छेड़ता है और फिर से दुनिया से बाहर जाता है। तथा अपना जीवन संग्राम स्वयं तय करता है। जैसे कि उसने अपने बाल्यकाल में अपना अस्तित्व रखने के लिये किया था। जबकि शायद उसने अपने पिता के अधिकार को छोड़ दिया और स्वयं आगे बढ़ा था । जबकि ये रेखायें शनि के उभार की ओर को काटती हुई दिखाई दें और एक स्वतन्त्र रेखा के सामने भाग्य रेखा को न मिलाती हुई जाती हो तो वह मनुष्य दूसरा भाग्य रखता है जबकि यह रेखा जीवन रेखा को छेड़ती है । तो उसके शुरू होने की प्रथम तिथि बताती है यदि एक रेखा अच्छी वाली है तो वह अपनी तिथि जबकि जीवन रेखा नीचे को बढ़ जाने देती है जहाँ कि यदि रेखा अच्छी हो तो वह एक-दूसरे भाग्य का सफल अग्रभाग दिखाती है। जो कि अपनी दुर्बलता Page #1139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त रेखा शान तथा भावुकता को छिपाने एवं हर एक वस्तु को उस कार्य की अग्नि में झोंकने की जिसको कि पूरा करना है। शुक्र रेखा या अन्दर की जीवन रेखा शुक्र रेखा के अन्दर की ओर मंगल के ओर उभार को घेरती हुई जाती हैं तथा बहुत कम हाथों में पाई जाती है। वह रेखा जो शुक्र के उभार से आरम्भ होती है। तथा जिस पर उसका नाम पड़ा है। यदि साफ तथा मजबूत है। तो यह जीवन रेखा का समर्थन तथा उसको भी सहारा देती है (४-४ चित्र १०) यह बहुत अधिक चैतन्यता तथा बहुत .. कम हार्थों पर पाई जाती है। . . . चित्र सरन्यायह सैनिक के हाथ पर बहुत ही अच्छा चिह्न हैं। या उन मानवों के हाथों पर जो कि खतरे का काम करते हैं। जीवन रेखा पर टुकड़े तथा बुरे निशानों का प्रभाव इस शुक्र रेखा से कम हो जाता है। Page #1140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता । जैसा कि इसके नाम से प्रकट होता है कि यह रेखा दृढ़ तथा झगड़ालू प्रकृति को बताती हैं तथा वह मनुष्य स्वाभाविक ही खतरों व झगड़ों में घुसता है। यदि वह गहरी तथा लाल रंग की हो तो वह सब खतरों आकस्मिक चोटों जो कि दूसरे हिस्सों में प्रकट होती हैं, को बढ़ा देती है। यदि इसमें से कोई शाखा निकलती हो और वह (Line) के उभार तक जाता है (५-५ चित्र १०) तो वह मनुष्य गुस्से तथा बेचैनी की ओर झुका होता है। मानसिकता की कमजोर रेखा के साथ वह मनुष्य शराबी तथा और बुरे स्वभावों का होता है और उस स्थान पर जहाँ कि यह जीवन रेखा से पार होती हैं। तो उस उम्र में उस मनुष्य की बुरे स्वभाव से बुलाई जाने वाली मृत्यु होती है। यह अक्सर छोटे-मोटे या गुदगुदे चौकोर हाथों पर या छोटे हाथों पर होती है। लेकिन जब पतले लम्बे तथा मोटी हथेली पर हो तो वह अत्यधिक चैतन्यता बीमारी को रोकने की शक्ति दुर्बलता बहुत ही तेज लगभग चिड़चिड़े स्वभाव को बतलाती है। कोई टूटी हुई जीवन की रेखा अपने पीछे शुक्र रेखा को लिए हुए मृत्यु का अधिक खतरा उस उम्र पर जहाँ कि वह रेखा टूटी हुई है दिखाती है। लेकिन वह खतरा उस चैतन्यता से , जो कि शुक्र रेखा से प्रदर्शित होती है विजय किया जाता है। भाग्य रेखा स्वाभाविक ही हाथ की मुख्य रेखाओं में से हैं (१-१ चित्र ११) एक मनुष्य कभी भी यह नहीं बता सकता कि क्यों यह रेखा बिना किसी शक के कम से कम मनुष्य जीवन की विशेष घटनाओं को बतलाती हैं। __ यह देखा जाता हैं कि पैदायश के वक्त भी यह रेखा स्पष्ट तथा उस बच्चे के भाग्य को, जो कि अभी तक भविष्य के ही गर्त में छिपा हैं बतला देती हैं। कुछ स्थानों पर यह छायादार या कमजोर होती है मानो अभी तक भाग्य का पथ पूर्ण रूप से बना नहीं हैं जबकि कुछ स्थानों पर यह भाग्य के हर एक कदम असफलता या सफलता, खुशी या दुःख आदि को मील के पत्थर ( ) के समान बतलाती चलती हैं। सभी विद्वानों का कथन है कि कुछ मनुष्य दूसरों की अपेक्षा अधिक भाग्य के खिलौने होते हैं, किन्तु वे ऐसे क्यों होते हैं। अब तक भी विद्यार्थी को चकित कर देते हैं। Page #1141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त रेखा ज्ञान कुछ मनुष्य कोई भाग्य रखते दिखाई नहीं देते। जबकि कुछ मनुष्य आये दिन अपने भाग्य को पत्थर पर लिखते हैं, मैंने सैकड़ों स्थानों पर देखा हैं, कि जीवन-पथ बाल्यावस्था से मृत्यु तक का एक-एक कदम स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। जबकि और स्थानों पर जहाँ कि केवल कुछ विशेष परिवर्तन ही जीवन में दिखाई पड़ते हैं, फिर भी कुछ ऐसे है जिनके विषय में कुछ भी निश्चित नहीं होता तथा कुछ ऐसे हैं जिनकी भाग्य रेखा हर नये वर्ष के परिवर्तन को प्रकट करती ___ जीवन में इतनी अधिक गुप्त बातें होती हैं कि एक का कम होना या अधिक होना कुछ विशेष महत्त्व नहीं रखता कुछ विद्वान् तथा दार्शनिक लोगों का कथन हैं कि भाप सम्बका है। कुछ धार्मिक ग्रन्थों में लिखा है, मनुष्य के भाग्य को पहले से ही बना देना ईश्वर की आन्तरिक इच्छा हैं। दिमाग की गुप्त बातों की कोई हद भी नहीं है शरीर विज्ञान इन बाद के वर्षों में इतना गम्भीर हो गया है कि वह बता सकता हैं कि कार्य के या परिवर्तन कुछ वर्ष पहले दिमाग के खजाने में कुछ बढ़ती हुई तरक्की होनी चाहिये हम सभी जानते हैं कि हमारे जीवन में हर एक कार्य कुछ मानसिक परिवर्तन का नतीजा हैं और जैसा कि हमारे दिमाग की सबसे अधिक भावुक धमनियाँ हाथ में जुड़ी हुई हैं। वे हमारे जीवन के कार्य या परिवर्तन बहुत वर्ष पहले ही हमारे हाथों पर लिख जाती हैं। यह निश्चय है कि हर एक चेतन प्राणी के लिए एक भाग्य हैं। जो उसकी इच्छा के अनुसार उससे बुरा या अच्छा देता हैं। भाग्य रेखा निम्नलिखित स्थानों से आरम्भ होती हैं जीवन रेखा से या उसके बाहर से आरम्भ हो (२-२ चित्र ११) सीधे कलाई से आरम्भ हो (३-३ चित्र ११) या हथेली के बीच से आरम्भ हो। जीवन रेखा से शुरू यदि भाग्य रेखा जीवन रेखा से (२-२ चित्र ११) शुरू होती हैं तो उस मनुष्य की सफलता उसके अपने परिश्रम तथा गुणों पर निर्भर हैं। ऐसे मनुष्य के प्रारम्भिक वर्ष मुश्किलों तथा कुचले हुए होते हैं, स्थितियाँ तथा वातावरण अनुकूल Page #1142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता नहीं होंगे। और ऐसे मनुष्य अपने सम्बन्धियों तथा माता-पिता की इच्छाओं के लिए अपनी इच्छाओं को बुरी प्रकार से कुचल या बलिदान कर डालते हैं। यदि भाग्य रेखा जीवन रेखा को छोड़ने के पश्चात् साफ स्पष्ट तथा मजबूत हो तो वह मनुष्य अपनी सारी मुश्किलों को अपने परिश्रम तथा गुणों से विजय करता हैं तथा भाग्य जैसी कोई वस्तु पर अपने जीवन में निर्भर नहीं करता । दूसरी विशेष बात जो कि इस रेखा में महत्त्व रखती हैं वह तारीख या वर्ष हैं, जो भाग्य रेखा पर लिखे होते हैं, वे ही वर्ष होते हैं जिनमें कि वह मनुष्य अपनी स्वतन्त्रता या जिस वस्तु को वह अधिक चाहता हैं, प्रवेश करता हैं हर दशा में यह तिथि मनुष्य के जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण होती हैं। आगे राजेश दीक्षित का अभिमत हथेली के ऊपर ग्रहों का लक्षण व फल बताते हैं । 9 ९६२ ग्रह क्षेत्र पर्वत हथेली पर विभिन्न स्थानों के उभारों को विभिन्न ग्रह क्षेत्र अथवा पर्वत के नाम से पुकारा जाता है। भारतीय सामुद्रिक शास्त्र में ग्रह - क्षेत्रों का कोई उल्लेख नहीं मिलता, परन्तु पाश्चात्य हस्त रेखाविदों ने सम्पूर्ण हथेली को १० भागों में बाँट कर, प्रत्येक विभाग को एक-एक ग्रह- क्षेत्र का नाम दिया है। अंग्रेजी में ग्रह क्षेत्रों को 'पर्वत' (Mounts) के नाम से पुकारा जाता है। हिन्दी में इन्हें गिरि अथवा मण्डल के नाम से भी अभिहित किया गया है। का ग्रह - क्षेत्रों निम्नानुसार किया गया है— विभाजन Page #1143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६३ हस्त रेखा ज्ञान १. अंगूठे के नीचे, जीवन-रेखा से घिरा हुआ सम्पूर्ण भाग-शुक्र क्षेत्र । २. तर्जनी अंगुली के नीचे वाला भाग-गुरु (वृहस्पति) क्षेत्र। ३. मध्यमा अंगुली के नीचे वाला भाग-शनि क्षेत्र । ४. अनामिका अंगुली के नीचे वाला भाग-सूर्य क्षेत्र । ५. कनिष्ठिका अंगुली के नीचे वाला भाग-बुध क्षेत्र। ६. हृदय-रेखा तथा मस्तक-रेखा के ऊपर, हथेली के बांये किनारे का ऊँचा उठा हुआ भाग-प्रथम मंगल क्षेत्र। चित्र संख्या - ३३ ७. गुरु क्षेत्र के नीचे तथा शुक्र क्षेत्र के ऊपर, जीवन-रेखा के उद्गम स्थल पर, हथेली के दांये किनारे का भाग-द्वितीय मंगल क्षेत्र। ८. प्रथम मंगल क्षेत्र के ऊपर, हथेली के बांये किनारे का वह उन्नत भाग जो मणिबन्ध के समीप तक जाता है-चन्द्र क्षेत्र । घबराने वाले, आत्मप्रशंसक, रहस्यमय Page #1144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | तथा पराये दुःख में सहानुभूति तक प्रदर्शित न करने वाले होते हैं। इस श्रेणी के कुछ लोग कवि तथा लेखक भी होते हैं। (२) लाल रंग--क्षण में प्रसन्न और काम में स्ट, जम में वृणा तथा प्रेम, आशावादी, तुनुक मिजाजी एवं शरीर में रक्ताधिकता। (३) पीला रंग-उदर-विकार, मानसिक-क्लेश परन्तु ऊपरी प्रसन्नता, अस्थिर एवं रूखा स्वभाव, आलस्य, संतप्तता एवं उदासी। (४) काला रंग-कफ प्रकृति, अत्यन्त कोमलता, निस्तेजिता, अस्वास्थ्य एवं शरीर में अशुद्ध-रक्त का प्रवाह है। (५) भूरा रंग-अस्वस्थ्य, निस्तेजिता, पुरुषत्व शक्ति की कमी तथा अल्पायु। (६) गुलाबी रंग-उत्साह, प्रसन्नता, स्नेहशीलता, उदारता, दयालुता, न्यायप्रियता, बुद्धिमत्ता, तेजस्विता एवं आशावादिता। ऐसे जातक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करते तथा अपनी ही तरह अन्य लोगों का भी ध्यान रखते ९. मस्तक रेखा से ऊपर हथेली का पहला मध्यभाग-राहु क्षेत्र। १० मस्तक रेखा के नीचे राहु क्षेत्र के ऊपर से मणिबन्ध तक हथेली का दूसरा मध्य भाग-केतु क्षेत्र। नवीनतम खोजों के आधार पर अब सौर-मण्डल में ७ के स्थान पर १० ग्रहों की उपस्थिति मानी जाती है। प्राचीन ग्रहों की संख्या ७ थी, उनके नाम इस प्रकार हैं--(१) सूर्य, (२) चन्द्र, (३) मंगल, (४) बुध, (५) गुरु अर्थात बृहस्पति, (६) शुक्र और (७) शनि। 'राहु' तथा 'केतु ये दोनों छाया ग्रह हैं। सौर-मण्डल में इन ग्रहों के ज्योतिष्पिण्ड नहीं है। इन्हें पृथ्वी के दोनों छोरों की 'छाया' कहा व माना गया है, परन्तु जातक के जीवन पर इन का प्रभाव भी आकाशीय-ग्रहों जैसा ही पड़ता है, अत: बाद में इन्हें भी ग्रहों को श्रेणी में सम्मिलित करके ग्रहों की कुल संख्या ९ कर दी गई। विगत दो शताब्दियों के सौरमण्डलीय अनुसंधाों के फलस्वरूप आकाश में (१) हर्षल, (२) प्लूटो तथा (३) नेपच्यून नामक तीन ग्रन्य ग्रहों की अवस्थिति और ज्ञात हुई है। इस प्रकार अब ग्रहों की कुल संख्या १२ मानी जाने लगी है। भारतीय ज्योतिषियों ने नवीन अनुसंधान किये गए ग्रहों Page #1145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ¡ r ९६५ के नाम क्रमश: (१) प्रजापति (२) वरुण और (३) यम अथवा इन्द्र रखे हैं। इस प्रकार ७ पुराने सौरमण्डलीय ग्रह २ छायाग्रह तथा ३ नवीन आविष्कृत ग्रह- इस प्रकार कुल ४२ ग्रहों के हिन्दी-अंग्रेजी नाम क्रमश: इस प्रकार है १. सूर्य (1) २. चन्द्र ( मून) ३. मंगल (मार्स) ४. बुध (मर्करी) ५. गुरु (जुपिटर) ६. शुक्र (वीनस) ७. शनि (सैटर्न) हस्त रेखा ज्ञान ८. राहु ( ड्रैगन्स हैंड) ९. केतु ( ड्रैगन्स टेल) १०. प्रजापति (हर्षल ) ११. वरुण ( नेपच्यून ) १२ यम अथवा इन्द्र ( प्लूटो ) पहले चन्द्र क्षेत्र को सबसे बड़ा माना जाता था। अब सुविधा के लिए चन्द्र क्षेत्र को (१) उच्च (२) मध्य तथा (३) निम्न इन तीन समभागों में विभाजित कर दिया गया है। नेपच्युन (वरुण) का स्वभाव चन्द्र से, हर्षल ( प्रजापति) का स्वभाव मंगल से तथा प्लूटो (यम अथवा इन्द्र) का स्वभाव राहु से मिलता जुलता माना गया है, अतः वर्तमान समय में ग्रह क्षेत्रों का नवीन निर्धारण निम्नानुसार किया गया (क) शुक्र, गुरु, शनि, सूर्य तथा बुध क्षेत्र पूर्ववत । (ख) नेपच्यून क्षेत्र — उच्च चन्द्र क्षेत्र का भाग । (ग) हर्षल क्षेत्र - प्रथम मंगल क्षेत्र का भाग । (घ) प्लूटो क्षेत्र – राहु क्षेत्र का १ / २ निम्न भाग । नवीन निर्धारित ग्रह क्षेत्रों को इस पृष्ठ पर दिये गये चित्र में प्रदर्शित किया गया है। इसके माध्यम से पाठकों को ग्रह क्षेत्र समझने में सुविधा होगी। Page #1146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १६६ हथेली पर १२ ग्रहों के क्षेत्रचित्र ३४ उक्त नवीन क्षेत्र निर्धारण में मंगल के प्रथम क्षेत्र को हर्षल का सूर्य तथा शनि क्षेत्र के नीचे राहु क्षेत्र के निम्न आधे भाग को प्लूटो का तथा उच्च चन्द्र क्षेत्र को नेपच्यून क्षेत्र मान लिया गया है। परन्तु इन नवीन ग्रहों के फलाफल तथा जातक के जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव के सम्बन्ध में अभी तक कोई विशेष एवं निश्चित खोच नहीं हो पाई है, अतः हस्त-परीक्षा करते समय केवल प्राचीन ग्रह क्षेत्रों के आधार पर ही विचार किया जाता है। वैसे भी, इन नवीन ग्रहों के लिए जो क्षेत्र निश्चित किये गये हैं, वे प्राचीन ग्रह क्षेत्रों से मिलते-जुलते प्रभाव वाले ही होते हैं। प्राचीन ग्रह-क्षेत्रों की हथेली पर अवस्थिति को इस पृष्ठ पर दिये गये चित्र में प्रदर्शित किया गया है। Page #1147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६७ शुभ हस्त रेखा ज्ञान शु मजद मानि उ सूर्प : मंगान उच्चप अध्ययन भिन्न मन्त्र ७ हथेली पर ग्रह क्षेत्र- प्राचीन विधि चित्र ३५ (१) तर्जनी अंगुली के नीचे गुरु क्षेत्र ! (२) मध्यमा अंगुली के नीचे - शनि - क्षेत्र । (३) अनामिका अंगुली के नीचे सूर्य-क्षेत्र । (४) कनिष्ठिका अंगुली के नीचे - बुध क्षेत्र । - ग्रह क्षेत्रों का निरीक्षण — — सम्पूर्ण हथेली की त्वचा पर जो अत्यन्त महीन धारियां सी फैली हुई हैं, वे ही ग्रह क्षेत्रों की विभाजक रेखा का कार्य करती है। तर्जनी, मध्यमा, अनामिका तथा कनिष्ठिका - इन चारों अंगुलियों के नीचे चार स्थान ऐसे अवश्य होते हैं जहां पर ये सूक्ष्म धारियाँ परस्पर विपरीत दिशाओं से अलग-अलग आकर मिलती तथा इस प्रकार चारों ग्रह क्षेत्रों को एक दूसरे से पृथक करती हैं। इन धारियों की यथार्थ स्थिति को आतशी शीशे (Magnifying Glass) से देखकर भलीभाँति जाना जा सकता है। इन सूक्ष्म धारियों के फलस्वरुप निम्नलिखित केवल ४ ग्रह क्षेत्रों का स्पष्ट विभाजन होता है Page #1148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता AAAA ९६८ ग्रह क्षेत्रों का निर्धारण चित्र ३६ सूक्ष्म धारियों के पारस्परिक मिलने के फलस्वरुप उक्त चारों ग्रह क्षेत्रों का विभाजन सम्बन्धित अंगुली के ठीक नीचे वाले स्थान पर ही होता हो, यह आवश्यक नहीं है। ये धारियाँ कुछ इधर-उधर हटकर भी होती हैं अतः ग्रह क्षेत्र अपनी अंगुलियों के ठीक निम्न भाग से कुछ हटे हुए होते हैं। उन्हें अपने स्थान से हटा हुआ माना जाता है तथा इस स्थानान्तरण के फलस्वरुप उनके प्रभाव में भी अन्तर आ जाता है । सूक्ष्म धारियों द्वारा उक्त चारों ग्रह क्षेत्रों के विभाजन को ऊपर चित्र (संख्या ३६) में प्रदर्शित किया गया है। यदि सामान्य दृष्टि अथवा आतशी शीशे द्वारा देखने पर भी ग्रह क्षेत्रों की स्थिति का ठीक-ठीक ज्ञान न हो तो प्रेस की स्याही से कागज के ऊपर हाथ की छाप लेकर ( छाप लेने की विधि का वर्णन पहले किया जा चुका है ) ग्रह Page #1149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त रेखा ज्ञान क्षेत्रों की स्थिति का समुचित ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, परन्तु स्याही लग जाने पर छाप स्पष्ट नहीं आती तथा काले धब्बे से पड़ जाते हैं, जिसके कारण ग्रह क्षेत्रों की यथार्थ-स्थिति का ज्ञान नहीं हो पाता। APUR चित्र संख्या ३७ शुक्र क्षेत्र का निर्धारण जीवन रेखा द्वारा किया जाता है। (रेखाओं का वर्णन आगे किया जायेगा) जीवन रेखा तथा अंगूठे के बीच का भाग कितना भी कम अथवा अधिक हो, शुक्र क्षेत्र (चित्र ३७) उतना ही बड़ा होता है। जिस प्रकार अंगुलियों के नीचे ग्रह क्षेत्र उभरे हुए अथवा चपटे होते हैं, उसी प्रकार शुक्र क्षेत्र भी उन्नत अथवा निम्न हो सकता है। चन्द्र क्षेत्र पर भी त्वचा की महीन धारियों तो होती हैं, परन्तु वे इस क्षेत्र के विभाजन का कार्य नहीं करतीं, अत: चन्द्र क्षेत्र, राहु+केतु क्षेत्र एवं मंगल क्षेत्रों का निर्धारण अनुमान तथा उनके उभार के आधार पर ही किया जाता है। Page #1150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १७० L चित्र संख्या ३८ टिप्पणी-कुछ विद्वान हथेली पर हर्षल नेपच्यून तथा प्लूटो की तो बात ही अलग है, राहु तथा केतु क्षेत्र की विद्यमानता भी नहीं मानते। वे द्वितीय मंगल क्षेत्र से प्रथम मंगल तक के सम्पूर्ण क्षेत्र को मंगल का मैदान अथवा मात्र मंगल क्षेत्र के नाम से ही अभिहित करते है। इस प्रकार उनकी सम्मति में ग्रह क्षेत्रों की कुल संख्या ७ ही है। इस मान्यता से भी फलादेश में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता। ग्रह क्षेत्र विचार–सामान्यत: ग्रह क्षेत्र ५ प्रकार के होते हैं१. सामान्य उन्नत। २. अत्यधिक उन्नत। ३. समतल। ४. निम्न। Page #1151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ हस्त रेखा ज्ञान ५. अपने उचित स्थान से इधर-उधर हटे हुए। उक्त प्रचार के ग्रह क्षेत्रों का सामान्य प्रभाव निम्नानुसार होता है— १. सामान्य उन्नत-बुद्धिमता तथा सौभाग्य-सूचक। २. अत्यधिक उन्नत-अशुभ, सामान्य उन्नत से विपरीत फलदायक। ३. समतल सामान्य स्थिति के द्योतक। ४. निम्न-अशुभ प्रभावी, विषयासक्ति से द्योतक । ५. स्थान भ्रष्ट-जिस दूसरे पर्वत की ओर झुकाव हो उसके प्रभाव को कम कर देने वाला तथा अपने ही प्रभाव में क्षीण। विशेष-अपने उचित स्थान पर स्थित पर्वत पूर्ण फलदायक होते हैं। जो पर्वत किसी अन्य पर्वत के झुकाव के कारण दब गया हो अथवा जिस पर्वत का अभाव ही हो उसका फल नष्ट हो जाता है। स्थान भ्रष्ट पर्वतों में केवल गुरु, शनि, सूर्य, बुध, तथा मंगल पर्वत ही हो सकते हैं। गुरु का पर्वत शनि राहु अथवा मंगल (द्वितीय) के पर्वत की ओर; शनि का पर्वत गुरु, सूर्य अथवा राहु (प्लूटो) के पर्वत की ओर सूर्य का पर्वत शनि, बुध अथवा राहू (प्लूटो) के पर्वत की ओर तथा बुध का पर्वत सूर्य अथवा चन्द्र (हर्षल) के पर्वत की ओर झुका हुआ हो सकता है। कुछ विद्वान चन्द्र क्षेत्र का केतु क्षेत्र की ओर तथा केतु क्षेत्र का चन्द्र पर्वत की ओर झुकाव होना भी संभव मानते हैं। ग्रह क्षेत्रों पर विचार करते समय उनकी पुष्टता, सौंदर्य एवं विस्तार पर भी ध्यान देना चाहिए। पुष्ट ग्रह-क्षेत्र शुभ फलदायक तथा अपुष्ट, विवर्ण एवं ढीले मांस वाला ग्रह क्षेत्र अशुभ फल देने वाला होता है। उन्नत पर्वत जातक की आध्यात्मिक, मानसिक तथा बौद्धिक सुरुचि एवं उन्नति को प्रकट करते है तथा दबे हुए पर्वत मनोविकार, पाशविक वृत्ति एवं विषय-वासना की ओर रुचि को प्रदर्शित करते यदि हाथ की सभी अंगुलियां सीधी, पुष्ट तथा अच्छी स्थिति में हों, सभी रेखायें स्पष्ट, सुन्दर तथा शुभ प्रभावशाली हों, सभी ग्रह क्षेत्र उन्नत तथा शुभ हों तो ऐसा जातक यशस्वी, धनी, धर्मात्मा, गुणी, विद्वान, सदाचारी तथा दीर्घायु होता Page #1152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता है। इससे विपरीत-स्थिति में विपरीत-फल होता है। यदि अन्य पर्वतों की अपेक्षा केवल सूर्य शनि तथा मंगल के पर्वत ही उन्नत हों तथा अंगुलियों एवं रेखाओं की स्थिति भी अच्छी न हो तो जातक कठोर-हृदय, क्रूर, क्रोधी, कपटी, अपयशी, पापी तथा झगड़ालू होता है। विभिन्न ग्रह क्षेत्रों के प्रभाव के विषय में अलग-अलग विवरण निम्नानुसार समझना चाहिए गुरु-क्षेत्र-~यदि गुरु का पर्वत सामान्य उन्नत तथा अधिक फैला हुआ न हो तो जातक सदगुणी, धनी, यशस्वी, सुखी, तपस्वी, स्नेही, स्पष्ट वाकी, साहसी तथा शत्रु विजयी होता है। (चित्र ३८)। गुरु का पर्वत अत्यधिक उन्नत हो तो जातक मन्द बुद्धि दुर्गुणी, क्रोधी, धूर्त, ईष्यालु तथा कठोर स्वभाव का होता है। परन्तु उसकी स्त्री गुणवती और रूपवती होती है। वह पुत्र-प्राप्ति की कामना से पर-पुरुष गमन भी कर सकती है। गुरु पर्वत बहुत चिपटा हो तो जातक को धर्म तथा गुरुजनों में श्रद्धा नहीं होती। यदि गुरु पर्वत निम्न (दबा हुआ) हो तो जातक दुराचारी, स्वार्थी, शंकालु तथा चिड़चिड़े स्वभाव का होता है और उसकी सुन्दर पत्नी प्राय: पर पुरुष में अनुरक्त रहती है। यदि गुरु के पर्वत का अभाव हो तथा शनि का पर्वत अधिक उन्नत हो तो जातक अपने कुटुम्ब तथा समाज से घृणा करता है। यदि गुरु पर्वत अत्यधिक उन्नत हो तथा अंगुलियों के अग्रभाग नुकीले हों तो जातक अन्ध विश्वासी होता है। यदि अत्यधिक उन्नत गुरु क्षेत्र के साथ अंगुलियां चौकोर हो तो अत्यन्त क्रूर होता है। गुरु पर्वत शनि क्षेत्र की ओर झुका हो और उसे दबाये हो तो जातक सद्गुणी, महापुरुष होता है। केवल शनि क्षेत्र की ओर झुका हुआ ही हो तो विद्वान, सुखी, शान्त, शत्रुजयी तथा परोपकारी होता है। ऐसे पर्वत वाली स्त्रियाँ सुशील, सद्गुणी, परन्तु कृपण एवं रुग्ण होती हैं। Page #1153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७३ हस्त रेखा ज्ञान गुरु के उन्नत पर्वत का झुकाव द्वितीय मंगल क्षेत्र की ओर हो तो पुरुष जातक त्वचा-रोगी, अविवेकी, पाखंडी निरुत्साही तथा अविश्वसनीय होता है। यदि किसी स्त्री के हाथ में ऐसा हो तो वह साध्वी, गंभीर, सच्चरित्रा परन्तु अहंकारिणी होती है। गुरु के उन्नत पर्वत का झुकाव राहु-क्षेत्र की ओर हो तो जातक धनी, यशस्वी, पराक्रमी, धर्मात्मा एवं सौभाग्यशाली होता है ऐसे पुरुष की पत्नी सच्चरित्रा, सद्गुण सम्पन्न, परन्तु अपव्ययी होती है। __ यदि गुरु तथा मंगल दोनों पर्वत अन्य ग्रह क्षेत्रों से अधिक उन्नत हों तो जातक धूर्त, विश्वासघाती ऊपर से प्रसन्न तथा एकान्त में उदासीन रहने वाला होता है। ऐसे व्यक्ति मेघावी स्वस्थ तथा उच्चपदाधिकारी भी पाये जाते हैं। __गुरु तथा शुक्र दोनों पर्वत अन्य ग्रह क्षेत्रों से अधिक उन्नत हों तो जातक बलवान्, कुतर्को, असत्यवादी, दुराचारी, शत्रुयुक्त तथा स्त्रियों के साथ रहते हुए भी उनसे अन्यत्र प्रेम रखने वाला होता है। यदि गुरु तथा चन्द्र दोनों पर्वत अन्य ग्रह क्षेत्रों से अधिक उन्नत हों तो जातक धनी, गृणी, यशस्वी तथा नीतिज्ञ होता है। ऐसी स्थिति में यदि बुध का पर्वत दबा हुआ हो तो जातक बड़ी-बड़ी योजनाएं तो बनाता है। परन्तु वे असफल रहती है। ___ यदि गुरु क्षेत्र उच्च तथा राहु क्षेत्र निम्न हो तो जातक अनेक दुर्गणों से युक्त होता है। शनि क्षेत्र-शनि क्षेत्र सामान्य उन्नत तथा शुभ स्थिति में हो तो जातक गुप्त विद्याओं का ज्ञाता, एकान्तप्रिय, दानी, सदाचारी, परोपकारी तथा बाग बगीचे का शौकीन होता है। वह अपनी पत्नी से दुःखी रहता है तथा अन्य स्त्रियों से भी विशेष प्रेम नहीं करता। परन्तु यदि इसके साथ ही शुक्र क्षेत्र पर क्रास अथवा जोल चिन्ह हो (चिन्हों के विषय में आगे लिखा जायगा) तो जातक कृपण तथा स्त्रियों में विशेष प्रेम करने वाला होता है, लेकिन वह अपने जीवन में उन्नति नहीं कर पाता। Page #1154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | ९७४ शनि पर्वत अत्याधक उन्नत हो तो जातक कृपण, निरुत्साही, शंकालु तथा एकान्त सेवी होता है। यदि अन्य लक्षण भी अशुभ हो तो अपराधी वृत्ति का तथा पापी होता है। शनि पर्वत उचित परिमाण मे हो तथा अंगुलियों के प्रथम पर्व लम्बे हों तो जातक शास्त्रों का गंभीर अध्येता होता है; द्वितीय पर्व अधिक लम्बे हो तो नीच प्रकृति का तथा चालाक होता है। शनि पर्वत निम्न (नीचा) हो तो जातक दुःखी, दुर्गुणी, मिथ्यावादी, व्यसनी, दुराचारी, जुआरी, विश्वासघाती, लोभी तथा कायर होता है। अत्यधिक नीचा तथा चपटा हो तो दाँत एवं कान की बीमारी एवं दीर्घ कालीन रोगों से पीड़ित रहता शनि तथा सूर्य दोनों पर्वत निम्न हो तो जातक कुटिल, नीच, रोगी तथा निर्धन होता है और पर्वतों की अपेक्षा केवल शनि का पर्वत ही अधिक उन्नत हो तो जातक उदर एवं दन्त रोगी होता है। शनि क्षेत्र सूर्य क्षेत्र की ओर झुका हो तो जातक परिश्रमी होते हुए भी चिन्तातुर तथा उदासीन रहता है। गुरुक्षेत्र की ओर झुका हो तो बन्धु-बांधवों तथा राज्य भय से पीड़ित, चिन्तातुर एवं उदासीन रहता है तथा अपनी मध्यमआयु के बाद पुत्रादि के द्वारा सुख-सन्तोष पाता है। शनि तथा सूर्य दोनों क्षेत्र उन्नत हों तो जातक को बन्धु नाश एवं स्त्री वियोग जन्य दुःख मिलता है। बाद में वह अपने एक मात्र प्रतापीपुत्र के कारण ही सुख सन्तोष पाता है। यदि दोनों पर्वत निम्न हों तो रोगी, निर्धन तथा कुटिल होता है। शनि तथा चन्द्र दोनों क्षेत्र उन्नत हों तो जातक सुखी, धनी, स्वाभिमानी, विचारशील तथा काल्पनिक होता है। यदि दोनों क्षेत्र अत्यधिक उन्नत अथवा निम्न हों तो विपरीत फल मिलता है। शनि तथा शुक्र-दोनों क्षेत्र उन्नत हों तो जातक गुप्त विद्याओं का जानकार, शास्त्रज्ञ, वेदान्ती, ज्ञानी तथा धर्मनिष्ठ होता है। शनि तथा बुध दोनों पर्वत उन्नत हों तो जातक धूर्त, लुच्चा तथा पापी होता है। यदि अन्य लक्षण शुभ हों तो विद्वान एवं कुशल-व्यवसायी भी हो सकता है। Page #1155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७५ हस्त रेखा ज्ञान शनि तथा मंगल दोनों के ही पर्वत अन्यों की अपेक्षा उन्नत हों तो जातक अहंकारी, दूसरों पर हुकूमत करने वाला, क्रोधी, चालाक हिंसक तथा व्याभिचारी होता है। शनि तथा राहु-दोनों के क्षेत्र उन्नत हों तो जातक धनी, विद्वान, पराक्रमी, बलिष्ठ, ज्ञानी एवं श्रेष्ठ कलाकार होता है। शनि तथा गुरु दोनों क्षेत्र उन्नत हों तो जातक शान्ति-प्रिय, विचारवान्, यशस्वी तथा सज्जन होता है। सूर्य-क्षेत्र—सूर्य का पर्वत सामान्य उन्नत हों तो जातक यशस्वी, स्पष्टवादी, शत्रुजयी, उदार, श्रेष्ठ मित्रों वाला, परिश्रमी, ऐश्वर्यशाली तथा सभी सद्गुणों से युक्त होता है, परन्तु ऐसा व्यक्ति उच्च आदर्शों का अनुयायी होने के कारण, विवाह हो जाने पर भी वैवाहिक-सुख पाप नहीं कर पाता। यदि किसी स्त्री के हाथ में सूर्य क्षेत्र उन्नत हों तो वह सद्गुणी, उदार, मानिनी, परन्तु रुग्णा एवं चिड़चिड़े स्वभाववाली होती है। यदि सूर्य क्षेत्र अत्यधिक उन्नत हो तो जातक बड़ा आडम्बरी, धूर्त, पापी, दुराचारी, आलसी, अहंकारी, दरिद्र तथा वाचाल होता है। यदि अंगूठे का पहला पर्व लम्बा तथा दूसरा पर्व छोटा भी हो अथवा अंगुलियाँ टेढ़ी हों तो अत्युच्च सूर्य क्षेत्र वाला जातक अत्यधिक दुर्गुणी होता है। यदि केवल सूर्य क्षेत्र ही उन्नत हो तथा अन्य सभी ग्रह क्षेत्र दबे हुए हों, तो जातक अपयशी, आडम्बरी, लोभी, चित्रकार, काल्पनिक तथा सुखी जीवन बिताने वाला होता है। __यदि सूर्य क्षेत्र निम्न हो तो जातक अल्प सन्ततिवान्, अल्प धनी, कपटी, घमण्डी तथा चिन्ताशील होता है। यदि सूर्य रेखा अच्छी स्थिति में हो तो इन दुर्गुणों में कुछ कमी आ जाती है। Page #1156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ९७६ यदि उच्च सूर्य क्षेत्र का झुकाव निम्न शनि क्षेत्र की ओर हो तो जातक उदग, धर्मात्मा, हाम, सुदगुणी, साहसी, सुन्दर, यशस्वी तथा निर्भय होने के कारण ही क्रोधी, कामी, चपल, अहंकारी तथा परस्त्रीगामी भी होता है। यदि उच्च सूर्य क्षेत्र का झुकाव बुध क्षेत्र की ओर हो तो जातक स्थिर-विचारों वाला, कुशल-व्यवसायी, ईमानदार, स्वस्थ, विनम्र तथा दयालु स्वभाव का होता है, परन्तु व्यवहार में खरा नहीं होता। ऐसी स्त्री रूपवती, गुणवती तथा सुखी-जीवन बिताने वाली होती है। यदि सूर्य तथा शनि दोनों क्षेत्र उन्नत हों तो जातक स्वेच्छाचारी होता है। तथा हत्या, डकैती जैसे जघन्य अपराध करके भी उसके परिणामों से साफ बच जाता है। ऐसी स्त्रियाँ व्यभिचारिणी होती हैं। यदि सूर्य तथा गुरु दोनों क्षेत्र उन्नत हों तो जातक कर्तव्य परायण, धनी, सुखी, परोपकारी, सत्यवक्ता एवं सद्गुणी होता है। ऐसी स्त्री ४० वर्ष की आयु के बाद धार्मिक-अनुष्ठानों में काल-यापन करती हैं। यदि सूर्य तथा शुक्र-दोनों क्षेत्र उन्नत हों तो जातक शान्तिप्रिय, सद्गुणी, धनी, सुखी, तेजस्वी तथा ललित-कलाओं का प्रेमी होता है। यदि सूर्य तथा मंगल-दोनों क्षेत्र उन्नत हों तो जातक शिल्पी, विद्वान, साहित्यकार धनी, यशस्वी, सुन्दर, शान्त स्वभाव एवं लोकप्रिय होने के साथ ही कुछ अहंकारी तथा धूर्त भी होता है। उसकी अपनी पत्नी से अनबन बनी रहती है। यदि सूर्य तथा बुध-दोनों क्षेत्र उन्नत हों तो जातक सुन्दर, चतुर, सुवक्ता, सुलेखक, व्यवसाय-कुशल, धनी, मित्रवान् तथा यशस्वी होने के साथ ही कुछ क्रोधी, कृपण तथा शत्रु-बाधायुक्त भी होता है। यदि सूर्य, मंगल तथा शनि-तीनों क्षेत्र उन्नत हों तो जातक उग्रकर्मा, महायोद्धा तथा साहसी होता है। वह वीर सैनिक अथवा युद्ध-क्षेत्र में चित्र (फोटो) खींचने (बनाने) में कुशल होता है। बुध क्षेत्र यदि बुध क्षेत्र सामान्य उन्नत हों तो जातक तीक्ष्ण बुद्धि, काल्पनिक, शास्त्रज्ञ, चतुर, आविष्कारक, कुशल व्यवसायी, श्रेष्ठ साहित्यकार, चिकित्सक, यात्रा-प्रेमी तथा चतुर होता है। यदि ऐसी स्थिति में अंगुलियाँ चौकोर हों तो तर्क-शक्ति Page #1157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ جانا؟ हस्त रेखा ज्ञान प्रबल होती है। अंगुलियों के अग्रभाग नुकीले हों तो श्रेष्ठ वक्ता होता है। एवं अंगुलियाँ आगे की ओर फैली हुई हों तो अच्छी जिरह करने वाला (वकील) या प्राध्यापक आदि होता है। यदि बुध क्षेत्र अत्यधिक उन्नत हों तो जातक वाचल, मिथ्यावादी, छली, प्रपंची, विश्वासघाती, बेईमान तथा जुआरी होता है। यदि साथ ही कनिष्ठा अंगुली टेढी भी हो तो उन दुर्गुणों में विशेष वृद्धि हो जाती है। यदि बुध क्षेत्र निम्न हो तो जातक उदार, अशान्त, असन्तुष्ट, चिन्ताशील तथा विज्ञान एवं गणित सम्बन्धी कार्यों से घबराने वाला होता है । यदि बुध क्षेत्र उन्नत हो तथा कनिष्ठिका अंगुली का प्रथम पर्व लम्बा हो और नाखून छोटे हों तो जातक अच्छा वकील होता है। अँगुली नुकीली हो तो सुवक्ता होता है। कनिष्ठा का दूसरा पर्व लम्बा हो तो वैज्ञानिक अथवा चिकित्सक होता है। तीसरा पर्व लम्बा हो तो व्यवसाय द्वारा पर्याप्त धनोपार्जन करता है। यदि बुध क्षेत्र निम्न हो तथा हथेली की बनावट भी अच्छी न हो तो घातक, धोखेबाज, मूर्ख, अविवेकी, दुर्बल, चोर तथा प्रपंची होता है। यदि हथेली पर अन्य रेखाएँ शुभ हों तो इन दुर्गुणों में कुछ कमी आ जाती है। यदि बुध का पर्वत सूर्य क्षेत्र की ओर झुका हुआ हो तो जातक कुशल चिकित्सक व्यवसायी अथवा चित्रकार, दूरदर्शी, प्रतापी, बुद्धिमान एवं सुखी जीवन बिताने वाला होता है। उसकी पत्नी सुन्दरी तथा गृहकार्य कुशल होती है और वह अपने पति के जीवन काल में ही मर जाती है। जिस स्त्री के हाथ में ऐसा पर्वत हो, उसका पति दुराचारी एवं व्यसनी होता है। तथा वह वैधव्य का दुःख भी भोगती है। यदि बुध क्षेत्र प्रथम मंगल क्षेत्र की ओर झुका हुआ हो तो जातक आमोद-प्रमोदप्रिय तथा दूसरों की चिन्ता न करने वाला होता है। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु पर कोई दुःखी नहीं होता । Page #1158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता यदि बुध पर्वत प्रथम मंगल क्षेत्र के ऊपर जाता (पहुँचा ) हुआ प्रतीत हो तो जातक विपत्ति के समय भी अपने धैर्य तथा साहस को नहीं छोड़ता । ९७८ यदि बुध तथा द्वितीय मंगल दोनों ही क्षेत्र उन्नत हों तो जातक गुणी, बुद्धिमान, धनी, यशस्वी, सुखी तथा जलीय पदार्थों के व्यवसाय द्वारा आजीविकोपार्जन करने वाला होता है। यदि बुध तथा सूर्य दोनों ही क्षेत्र उन्नत हो तो जातक धनी, सुखी, व्यवसाय - कुशल, सुवक्ता, सुलेखक तथा यशस्वी होने के साथ ही कुछ कृपण, क्रोधी तथा शत्रु बाधायुक्त होता है। यदि बुध तथा शुक्र- दोनों ही क्षेत्र उन्नत हों तो जातक स्वस्थ, आनन्दी, आध्यात्मिक एवं मानसिक चिकित्सा का प्रेमी तथा अल्प शत्रुओं वाला होता है। यदि बुध तथा गुरु- दोनों ही क्षेत्र उन्नत हों तो जातक सुकवि, सफल साहित्यकार, यशस्वी तथा मनोरंजन - प्रिय होता है। ऐसे व्यक्ति प्रायः ४५ वर्ष की आयु में वैराग्य ले लेते हैं अथवा सांसारिकता से अपने विशेष सम्बन्ध तोड़ लेते हैं । मंगल - क्षेत्र - यदि प्रथम मंगल क्षेत्र सामान्य उन्नत हो तो जातक साहसी, उद्योगी, हठी, परन्तु व्यवहार कुशल होता है। यदि द्वितीय मंगल क्षेत्र उन्नत हो तो साहसी, सावधान, धैर्यवान, शक्तिशाली तथा क्षमाशील होता है। यदि दोनों ही मंगल क्षेत्र सामान्य उन्नत हो तो जातक कठोर हृदय, साहसी, क्रोधी, दुर्व्यसनी तथा विषयानुरागी होता है। मंगल के क्षेत्र - यदि प्रथम मंगल क्षेत्र अत्यधिक उन्नत हो तो जातक साहसी, बलवान, चंचल तथा अन्यायी होता है। यदि द्वितीय मंगल क्षेत्र ऐसा हो तो जातक संकोची स्वभाव का, परन्तु अत्यन्त हठी होता है। यदि दोनों ही मंगल क्षेत्र ऐसे हों तो जातक अधर्मी, दुष्ट हिंसक, अन्यायी, निर्दय, व्यभिचारी, युद्धजयी तथा एक से अधिक विवाह करने वाला होता है। Page #1159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! | ९७९ हस्त रेखा ज्ञान यदि प्रथम मंगल- क्षेत्र निम्न हो तो जातक अधार्मिक, कलह-प्रिय, अत्याचारी तथा पैतृक सम्पत्ति को नष्ट करने वाला होता है। द्वितीय मंगल क्षेत्र निम्न हो तो जातक साहसहीन होता है। यदि दोनों ही मंगल क्षेत्र निम्न हो तो भीरु स्वभाव, निरुपद्रवी, निराभिमानी, अविचारी, अधार्मिक, पैतृक सम्पत्ति-विहीन तथा फेफड़ों का रोगी होता है। यदि दोनों मंगल क्षेत्र उन्नत हों तथा अन्य सभी ग्रह क्षेत्र दबे हुए हों तो जातक स्थावर - सम्पत्ति एवं भू-स्वामी होता है। यदि प्रथम मंगल क्षेत्र बुध पर्वत की ओर झुका हुआ हो तो जातक साहसी तथा दूसरों को नेक सलाह देने वाला होता है। यदि द्वितीय मंगल क्षेत्र गुरु क्षेत्र की ओर झुका हुआ हो तो जातक धैर्यवान, आत्मसंयमी तथा आत्मरक्षा के गुणों से युक्त होता है। यदि दोनों मंगल क्षेत्र क्रमशः बुध तथा गुरु क्षेत्र की ओर झुके हुए हों तो जातक धीर, साहसी, आत्म-नियन्त्रक तथा विचारवान् होता है। यदि प्रथम मंगल क्षेत्र निम्न हो तथा बुद्ध एवं चन्द्र के क्षेत्र उन्नत हों तो जातक को अमि, शस्त्र, त्वचा रोग एवं भूत-प्रेतादि की पीड़ा होती है। यदि प्रथम मंगल तथा बुद्ध क्षेत्र का निम्न भाग अधिक उन्नत हो और वहीं पर एक त्रिभुज चिह्न भी हो ( चिह्नों के विषय में आगे लिखा जाएगा) तो जातक उच्चकोटि का वीर तथा सेनानायक होता है। यदि प्रथम मंगल, बुद्ध तथा चन्द्र क्षेत्र का मध्यभाग उन्नत हो तो जातक साहसी एवं आत्मानुशासनी होता है। यदि केवल प्रथम मंगल तथा चन्द्र क्षेत्र ही उन्नत हों तो जातक काल्पनिक, कवि, एकान्तप्रिय एवं उदासीन प्रकृति का होता है। यदि केवल द्वितीय मंगल तथा गुरु क्षेत्र ही उन्नत हों तो जातक साहसी एवं झगड़ालू प्रकृति का होता है। यदि केवल मंगल एवं शनि ही उन्नत हों तो जातक द्वेषी स्वभाव का होता है। यदि अन्य पर्वतों की अपेक्षा केवल मंगल तथा सूर्य क्षेत्र ही उन्नत हों तो जातक सत्यवादी, सदाचारी, ज्ञानी तथा शीलवान होता है। Page #1160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता । चन्द्र-क्षेत्र-यदि चन्द्र क्षेत्र सामान्य उन्नत हों तो जातक काल्पनिक कवि, साहित्य, संगीत आदि ललितकलाओं का प्रेमी, सद्गुणी, स्नेही, बुद्धिमान, सदाचारी तथा परोपकारी होता है। यदि उन्नत चन्द्र क्षेत्र के मध्य का तृतीयांश अधिक उन्नत हो तो जातक आँत एवं पेट सम्बन्धी विकारों से पीड़ित होता है। यदि ऊपरी भाग अधिक उन्नत हो तो पित्त, कफ एवं गठिया आदि का रोगी होता है। __ यदि सम्पूर्ण चन्द्र क्षेत्र अत्यधिक उन्नत हो तो जातक उदार-हृदय, विलक्षण-स्वभाव, व्यसनी, मर्ख तथा रहस्यमय प्रेमी होता है। ऐसा व्यक्ति दुःखी मनोवृत्ति तथा चिड़चिड़े स्वभाव का एवं शिरोरोग से पीड़ित भी रहता यदि चन्द्र क्षेत्र निम्न हो तो जातक क्षणिक-बुद्धि, असन्तोषी, अविचारी, सहानुभूति-शून्य एवं कल्पनाशक्ति से रहित होता है। यदि चन्द्र क्षेत्र अधिक उन्नत न होकर लम्बा तथा सकरा हो तो जातक शान्तिप्रिय, एकान्तवासी, निरुत्साही तथा आलसी होता है। यदि चन्द्र क्षेत्र मणिबन्ध की प्रथम रेखा की ओर बढ़ा हुआ है तो जातक हवाई किले बनाने वाले तथा शेखचिल्लियों जैसे दिवा-स्वप्न देखने वाला होता है। यदि अन्य ग्रह क्षेत्रों की अपेक्षा केवल चन्द्र क्षेत्र ही उन्नत हो तो जातक तर्क-प्रिय तथा सविचारी होता है। यदि ऐसे क्षेत्र पर एक अद्धरेखा भी विद्यमान हो तो जातक को भविष्य-सूचक-स्वप्न आया करते हैं, फलत: बह आसन्न संकटों के प्रति सावधान बना रहता है। यदि चन्द्र तथा बुद्ध-दोनों ही क्षेत्र उन्नत क्षेत्र हो तथा अन्य ग्रह दबे हुए हों तो जातक बुद्धिमान, भाग्यशाली, अभिनयकुशल तथा कार्टून आदि व्यंग्य-चित्रों का निर्माता होता है। यदि केवल चन्द्र तथा शुक्र दोनों ही क्षेत्र उन्नत हों तो जातक काल्पनिक एवं समस्त सुखों का उपभोग करने वाला होता है। Page #1161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ हस्त रेखा ज्ञान यदि केवल चन्द्र तथा शनि दोनों ही क्षेत्र उन्नत हों तो जातक भीरु-स्वभाव का होता है और उसमें कल्पना-शक्ति की कमी पायी जाती है। शुक्र क्षेत्र—यदि शुक्र-क्षेत्र सामान्य रूप से उन्नत हो तो पुरुष-जातक सुन्दर, स्वस्थ, यशस्वी, उदार, सदाचारी, विलासी, परोपकारी, निर्व्यसन, सहानुभूति पूर्ण, वस्त्राभूषण एवं खान-पान का शौकीन, संगीतप्रिय, समदर्शी, विचार का शुद्ध हृदय तथा सन्तानोत्पादन की क्षमता से परिपूर्ण होता है। उसकी हस्त-लिपि (लिखावट) भी सुन्दर तथा स्पष्ट होती है। यदि किसी स्त्री के हाथ में ऐसा शुक्र क्षेत्र हो तो वह सुन्दरी, स्वस्थ, सुखी प्रसन्न, परिश्रमी, सहानुभूतिपूर्ण या सर्वप्रिय होती है। यदि शुक्र क्षेत्र अत्यधिक उन्नत हो तो जातक धनी, गुणी, विद्वान नीतिज्ञ तथा परोपकारी होने के साथ ही अहंकारी, निर्लज्ज, काम-कला कुशल, व्यभिचारी, नित नवीन स्त्रियों के साथ रमण करने वाला तथा गुप्त रोंगों का शिकार होता है। यदि किसी स्त्री के हाथ में ऐसा शुक्र क्षेत्र हो, गुरु तथा सूर्य के क्षेत्र दबे हुए से हों, हृदयरेखा पर अनेक द्वीप-चिन्ह हों, मस्तक-रेखा निर्बल हो तथा अंगूठे का प्रथमपर्व छोटा हो तो वह दुराचारिणी होती है। यदि शुक्र क्षेत्र निम्न (दबा हुआ) हो तो पुरुष-जातक कठोर स्वभाव वाला, आलसी, स्वार्थी तथा वीर्य सम्बन्धी रोगों का शिकार होता है। यदि किसी स्त्री के हाथ में ऐसा शुक्र क्षेत्र हो तो वह जरायु सम्बन्धी रोगों से ग्रस्त बनी रहती यदि शुक्र पर्वत द्वितीय मंगल क्षेत्र की ओर झुका हुआ हो तो जातक के जीवन में शुक्रीय-गुणों के अतिरिक्त मंगलीय-गुणों का भी समावेश होता है। द्वितीय मंगल क्षेत्र के उन्नत होने पर ही शुक्र क्षेत्र उसकी ओर झुका प्रतीत होता है, अन्यथा शुक्र क्षेत्र मणिबन्ध के अतिरिक्त अन्य किसी ओर को झुका हुआ दिखाई नहीं देता है। Page #1162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८२ भद्रबाहु संहिता यदि शुक्र क्षेत्र मणिबंध (केतु क्षेत्र) की ओर झुका हुआ हो तो जातक नृत्यकला में कुशल होता है। और उसी के माध्यम से धनोपार्जन कर सुखोपभोग करता है। राहु-क्षेत्र - यदि राहु क्षेत्र उन्नत हो तो जातक चतुर, संकल्प, स्वार्थ साधक, अवसरवादी, धन-संचयी, गुप्त रहस्यों को छिपाने वाला, तार्किक, प्रपंची, स्वतन्त्र चेता, भौतिक शक्ति, सम्पन्न तथा नीच कर्मों से धन कमाने वाला होता है। यदि राहु क्षेत्र निम्न हो तो जातक क्रोधी, कलही विवादी, निस्तेज, चिन्तातुर, निर्धन, अपव्ययी, ऋणी तथा आयहीन होता है। यह पैतृक सम्पत्ति को नष्ट करने वाला तथा मस्तिष्क एवं जनेन्द्रिय सम्बन्धी रोगों से पीड़ित रहने वाला होता है। टिप्पणी-राहु क्षेत्र चूंकि अन्य ग्रह क्षेत्रों से घिरा होता है, अतः अन्य ग्रह क्षेत्रों के उन्नत होने के कारण यदि राहु क्षेत्र निम्न ( धंसा हुआ ) प्रतीत हो तो उसे यथार्थ में ही निम्न नहीं समझ लेना चाहिए। अन्य ग्रह क्षेत्रों की स्थिति को देखकर ही राहु क्षेत्र की उच्चता अथवा निम्नता के विषय में निर्णय करना चाहिए। केतु, हर्षल, नेपच्यून तथा प्लूटो के क्षेत्र —— इन ग्रह क्षेत्रों के प्रभाव के विषय में अभी विस्तुत अनुसन्धान नहीं हो पाया है। संक्षेप में, इन ग्रह क्षेत्रों का प्रभाव निम्नानुसार समझना चाहिए— (1) केतु क्षेत्र का प्रभाव राहु की भाँति । ( 2 ) हर्षल क्षेत्र का प्रभाव मंगल क्षेत्र की भाँति । ( 3 ) नेपच्यून क्षेत्र का प्रभाव चन्द्र क्षेत्र के भाँति । (4) प्लूटो क्षेत्र का प्रभाव राहु क्षेत्र की भाँति । टिप्पणी- किसी एक ही ग्रह क्षेत्र की स्थिति को देखकर यथार्थ निष्कर्ष Page #1163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८३ नहीं निकाला जा सकता । अतः सभी ग्रह क्षेत्रों की स्थिति को ध्यान में रखकर ही निष्कर्ष के रूप में जो प्रभाव उचित प्रतीत हो, उसी को ठीक समझना चाहिए। विचार प्रक्रिया — विभिन्न ग्रह क्षेत्रों से निम्नलिखित बातों का विशेष रूप से विचार करना चाहिए— (1) गुरु - क्षेत्र - धर्म, यश, सम्मान, ज्ञान, नेतृत्व और महत्त्वाकांक्षा । (2) शनि - क्षेत्र - अध्ययन, चिन्तन, गम्भीरता, अन्ध-विश्वास, निराशा, घृणा और घुटन । (3) सूर्य-क्षेत्र - यश, प्रतिभा, कला, तेज, सम्मान, ज्ञान, नेतृत्व, महत्वाकांक्षा, पद सफलता, पराक्रम और महानता । सुविधिसागर जी महाराज MER CURY कर हस्त रेखा ज्ञान MARS MEGETHE THE MOON H 2 JUNT ER THE SUN SATU RN MARS POSITIVE VENUS Love Wilh (LOAK चित्र - 6 भाग 2 ( 4 ) बुध - क्षेत्र - व्यवसाय, विज्ञान, चिकित्सा, तर्क, बुद्धि, विद्या, चतुराई, आविष्कार । Page #1164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता (5) शुक्र-क्षेत्र-प्रणय, वासना, कला और सहानुभूति। (6) चन्द्र-क्षेत्र—(क) उर्ध्व चन्द्र क्षेत्र से कल्पना और रहस्य, (ख) मध्य चन्द्र क्षेत्र से स्वार्थ और वासना तथा (ग) निम्न चन्द्र क्षेत्र से-कलात्मक प्रवृत्ति। (7) मंगल-क्षेत्र (क) प्रथम अथवा ऊर्ध्व मंगल क्षेत्र से—साहस, सन्तुलन, नियन्त्रण और शक्ति तथा (ख) द्वितीय अथवा निम्न मंगल क्षेत्र से--हिंसा और क्रोध। (8) राहु-क्षेत्र अथवा मंगल का मैदान-अस्थिरता। सूर्य के उभार और उसके गुण सूर्य का उभार तीसरी अगुली के नीचे हैं। जब बड़ा तथा अच्छा उभार हुआ होता हैं तो यश, नाम, दूसरों के बीच में चमकने की इच्छा बतलाता हैं। इसका बड़ा होना सदैव अच्छा समझा जाता हैं। यह सब वस्तुओं में सुन्दरता की इच्छा को प्रकट करता हैं। चाहे वह मनुष्य कलात्मक हो अथवा न हो। यह उभार बड़ा रखने वाले मनुष्य यद्यपि जीवन में सफलता पाते है, तथापि खर्चीले स्वभाव के होते है अपनी इच्छाओं में दयालु तथा रसिक होते है। वे स्वाभाविक ही यशस्वी तथा चमकदार होते हैं, एवं भाग्यशाली, खुश तथा प्रभाव पूर्ण गठन रखते हैं। जब मनुष्य 21 जुलाई तथा 20 से 28 अगस्त तक के बीच की तारीख में उत्पन्न होता है, तो यह उभार Positive समझा जाता हैं, ऐसे मनुष्य जाति के दिल के समान होते है, और दयालु तथा सहानुभूति दर्शित करने वाले होते हैं। ये मनुष्यत्व तथा चरित्र का बहुत प्रभाव रखते है। और जब वातावरण से प्रभावित होगें, तब साधारण जीवन व्यतीत करने को बाध्य होते हैं। तो सबसे निराला जीवन व्यतीत करते हैं। और उनका साफ रास्ता तथा अच्छा (Personality) मनुष्यत्व निश्चय रूप से चमकता है। ___ यद्यपि वे दूसरों को अच्छे कामों की ओर प्रोत्साहित करने के लिए कुछ रूखे प्रतीत होते हैं। किन्तु वास्तव में वे बहुत ही दयालु तथा सहानुभूति रखने वाले होते हैं। वे सत्य को कुचलने वालों तक को छोड़ देते है, यदि वे उन्हें बुरे Page #1165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८५ कर हस्त रेखा ज्ञान रास्ते पर जाते हुए पायें। यदि उनके किसी भी मित्र पर कोई गुप्त रूप से आक्रमण किया जाता हैं तो वे बहुत ही सहानुभूति रखते हैं। वे बहुत प्रेम तो करते हैं, मगर बुरी प्रकार से घृणा भी करते हैं। वे बीच के रास्ते पर नहीं रहते हैं, या तो इस ओर या उस ओर रहते हैं। हालांकि वे स्वाभाविक ही सच्चे तथा ईमानदार होते हैं तो भी कभी-कभी बुरा धोखा खाते हैं। और खतरा यह होता हैं। कि अपनी वृद्धावस्था में उनका यश जो कि सूर्य की भांति चमका था दूसरों के धोखे तथा असत्यता से उनके द्वारा धीमा पड़ जाता हैं और बादलों में छिप जाता हैं, या जीवन के पथ के अन्त होने के प्रथम में ही छिप जाता है। बहुत-से मनुष्य जो दूसरों को प्रसन्न रखते हैं, और दूसरों के दिलों में अपनी अच्छाई की रोशनी फैला देते है स्वयं खुश नहीं होते और जब सन्ध्या काल आता है, तो वे निराश तथा चिन्ता के शिकार बन जाते हैं। और बहुत-से तो आत्म-हत्या भी कर लेते है। दूसरी अन्य विशेषताओं में ये मनुष्य घमण्डी होते हैं। तथा दूसरों की मदद मिलने से प्रथम ही मर जाते हैं। वे अपने गर्व में बहुत शीघ्र ही घायल हो जाते हैं तथा हृदय से ज्यादा भावुक होते हैं। वे क्रोधी तथा गर्म स्वभाव के होते हैं और जब सार्वजनिक कार्यों को करते हैं तो अपने पर बहुत बुरे प्रकार से आक्रमण हुआ पाते हैं। स्वास्थ्य-ऐसे मनुष्य, दर्द, दिल की धड़कन तथा बीमारी, सिर और कानों की बीमारी, आँखों तथा गुदों की सूजन हो जाना पैर की बीमारी तथा सूजन से ग्रसित रहते हैं। सूर्य का Nagative उभार जब कि मनुष्य इक्कीस जनवरी से अठारह या पच्चीस फरवरी तक की तारीखों में उत्पन्न होता तो यह उभार (Nagative) होता है। जब मनुष्य दूसरों के लिए कार्य करते हैं तो अपने की अपेक्षा अधिक सफल होते हैं ये प्राय: जनता की भलाई तथा उनके दुःख दूर करने के प्रति अधिक कार्यशील होते हैं। Page #1166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १८६ वे प्राय: किसी सभा के नेता जनता की राय के नेता तथा सरकारी कामों में भी जाते है। वे प्रायः (Under day का सा देते हैं। नामा पनी एवं शक्तिशाली मनुष्यों की घृणा तथा गालियाँ मोल ले लेते हैं। ये (Pasitive) उभारों वालों के सदृश्य बहुत धनी नहीं होते हैं, और जब वह गरीब मनुष्यों या अपने चारों ओर रहने वालों को मदद देने झुकते हैं तो अपने आपको शक्तिवान बना देता है। इसके प्रत्यक्ष विपरीत ऐसे मनुष्य व्यापार तथा धन सम्बन्धी विचारों में बहुत अच्छे होते है। उनमें से बहुत-से तो दूसरों के लिए खूब धन कमा देते हैं और अपने सिर एक कौड़ी भी उसमें से नहीं रखते है। विधि अनुसार वे जनता की सभाओं तथा उत्सवों में अधिक प्रसन्नता पाते हैं। वे थियेटर तथा जहाँ भी अधिक संख्या इकट्ठी हो ऐसे स्थानों को बहुत प्रसन्द करते हैं। और जब अवसर पाते हैं, अपनी बहस करने तथा व्याख्यान देने की शक्ति को प्रदर्शित करते हैं। वे बहुत कम अपने जीवन पथ को पूरा करने के लिए (Position) स्थिति रखते है किन्तु हाँ वे क्षणों के साथ खेलते हैं, और जब वह बीत जाता है तो बहुत ही शीघ्रता से अपने जीवन में वापिस आ जाते हैं। और प्राय: उनके दिन अनजान (The Secsetplace) जगहों में व्यतीत करते है। (Positive) प्रकार के बिल्कुल विपरीत ये मनुष्य आत्मघात करते हैं, और किसी भी प्रकार का दुःख सहन कर लेते हैं। वे अपने आश्रित जनों के प्रति अपना कर्तव्य करके बहुत प्रसन्न होते हैं और यही प्रसन्नता का भाव उन्हीं सारी निराशाओं अपशय तथा हानियों से भी जीवित रखता हैं। स्वास्थ्य-ऐसे मनुष्य अधिकतर आन्तरिक आँते तथा पेट के मरीज होते हैं, तथा खून का दौर भी ठीक नहीं होता है स्वाभाविक गर्मी की कमी गुर्दो तथा जिगर की शिकायत रखते हैं प्राय: घुटनों तथा अंगों की हड्डियों में आकस्मिक चोट आ सकती हैं। सब बीमारियों के लिए सूखी जलवायु तथा तेज सूर्य की रोशनी ही अच्छा इलाज हैं। चन्द्र का उभार और उसके अर्थ चन्द्र (Lunar) का उभार हथेली के अन्त में मस्तक रेखा के नीचे पाया Page #1167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर हस्त रेखा ज्ञान जाता है (चित्र 6 भाग 2) तो यह उभार विचार शक्तियों से तरंगित कलात्मक, स्वभाव, नवीन, आदर्श व कविता दृश्यों का परिवर्तन, भ्रमण तथा और ऐसी ही बातों से सम्बन्ध रखता हैं। जबकि मनुष्य 21 जून से 20 जुलाई तक उत्पन्न होता हैं, या यह उभार खूब उभरा हुआ हो तो (Positive) माना जाता है। जो मनुष्य (Positive) श्रेणी में आते हैं, वे उच्च विचारों से जो कि उनके (Positive) कहने तथा करने में रंग देते हैं भरे होते हैं, वे नवीनता के प्रेमी होते हैं लेकिन अपने विचारों में आदर्शवादी भी होते हैं और वे उमंगित इच्छायें नहीं रखते हैं। जो मंगल के उभार से ज्ञात होती हैं। रीति के अनुसार वे अन्वेषण शक्ति रखते हैं। और जिस भी जीवन-पथ को वे स्वीकार करते हैं, अपने अन्वेषण तथा नवीन विचारों में सफल होते हैं। व्यापारिक मनुष्य भी उस समय में पैदा होने वाला अपने विचारों की नवीनता में आश्चर्यजनक होता हैं। और वह कार्य करने का रास्ता जिसमें कि वह सबसे कठिन कार्य भी कर लेते हैं, वे अपने अवसर के साथ भी जुआ खेलते हैं। चाहे वह व्यापार या किसी चीज में जिसे कि वह करते हैं, क्यों न हो यद्यपि उनके विचार विस्तृत होते हैं, वे अक्सर व्यापार में सफलता प्राप्त करके खूब धन कमा लेते हैं। यह कहा जाता है, कि मनुष्य जो कुछ स्वप्न में देखता है, उसे अवश्य पाता है। लेकिन यह देखा गया है। कि अधिक विचार वाले ही सफलता प्राप्त करने वालों में होते हैं उत्साह के लिए विचार या कल्पना ही दूसरा नाम हैं इस समय में पैदा होने वाले बहुत कम रूढ़ियों से बंधते हैं वे हर वस्तु में नयापन चाहते हैं। और शायद इसीलिये वे परिवर्तन तथा भ्रमण पसन्द करते हैं। अधिकतर वे सबसे अन्त की नदी पर यात्रा करते समय इसी नक्षत्र का अधिक हिस्सा देखते हैं। __ हर कार्य में परिवर्तन उनके जीवन को भी बदल देता हैं। यहाँ तक कि सफल आदमी भी बहुत-सी सफलता तथा असफलता देखते हैं। वे बहुत कम भाग्य के लपेटे में आते हैं, और सम्भव है कि उनकी कल्पना उन्हें मदद दे देती है। और वे कभी भी बहुत-दिनों के लिए निराश हृदय नहीं होते है आविष्कारक, कलाकारों का बड़ा समूह गायक तथा बजाने वाले इस श्रेणी के मनुष्यों में पाये जाते हैं, लेकिन लगभग वे लोग जादू तथा अदृश्य विद्या से Page #1168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु मंहिता १८८ प्रेम करते हैं और उनके स्वप्न तथा कल्पनायें स्पष्ट तथा रंगे हुए होते है। ऐसे मनुष्य अपने नक्षत्र के प्रति अधिक आकर्षित होते है और जबकि चन्द्र नक्षत्र आकाश में चमकता है तो अधिक सफल होते है। उनका स्वास्थ्य भी इस काल में सुधर जाता हैं। इसलिये उससे कहा जाता हैं कि जब उनका चन्द्र नक्षत्र आकाश को आलोकित करता हो तो उन्हें अपना कार्य तथा इरादे आरम्भ करना चाहिये। इसमें थोड़ी भी शक नहीं कि चन्द्र का पृथ्वी के कार्यों पर प्रभाव डालता हैं, और दिन-प्रतिदिन की खोज से ज्ञात हो रहा है। कि अपनी चुम्बक के समान आकर्षण शक्ति से जड़ वस्तुओं तक को आकर्षित करता है। यदि चन्द्रमा, शाक, भाजी, अण्डे तथा मुर्गियों के विकास में प्रभाव डालता है तो कह नहीं सकते कि वह जितनी आसानी से मनुष्य दिमाग की मज्जा, जो कि बहुत ही गुप्त तथा सूक्ष्म है, पर प्रभाव डालता हैं। इस काल में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को दूसरों के प्रति सतर्क रहना चाहिये क्योंकि वे दूसरों की आकर्षण शक्ति के प्रति अत्यधिक भावुक होते हैं। यदि सम्भव हो सके तो उन्हें शीघ्र अल्पायु में शादी नहीं करनी चाहिये। जब तक कि वे अपने दाम्पत्य सम्बन्ध पर पूर्ण यकीन न कर लें। उन्नति तथा परिवर्तन बहुत शीघ्रता से बढ़ते है। जिनसे वे आरम्भिक जीवन में सम्बन्ध रखते है, तथा बाद में, उससे कतरा जाना चाहते हैं। यही साँझे के व्यापार में भी होता है, जहाँ तक सम्भव हो उन्हें अकेले ही व्यापार करना चाहिए। और यदि सांझा हो भी तो बहुत बन्धन का न हो और जब साँझा दुःखदायी हो जाये तो उसे तोड़ डालना चाहिए। स्वास्थ्य-ऐसे मनुष्य पानी तथा सूरज की बीमारियाँ रखते हैं। आरम्भिक काल में दिमाग में पानी का आना पेचिश के आक्रमण तथा बाद के जीवन में फेफड़ों, छाती की सूजन तथा जलन्धर आदि रोग हो जाते हैं। चन्द्र का (Nagative) उभार जबकि मनुष्य 21 जनवरी तथा 20 से 27 फरवरी तक की तारीखों में उत्पन्न होता हैं या हथेली पर बहुत ही चहटा हो तो (Nagative) होता हैं। इन तारीखों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य अच्छी मानसिक शक्तियों रखते हैं लेकिन उनकी विचार Page #1169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ कर हस्त रेखा जान शक्तियाँ उतनी तेज शायद ही कभी होती हों जितनी कि (Positive) उभार में होती हैं। - इनके विपरीत ये मनुष्य व्यापार के शुरू करने के सम्बन्ध में शान्त तथा अच्छे सोचने वाले होते हैं। और सरकारी कार्यों में दक्ष होते हैं। वे कहकमों के सरदार बन जाते हैं और आसानी से किसी भी उत्तरदायित्व को ले लेते हैं। वे उच्च विचार रखते हैं तथा सामाजिक जीवन कर्त्तव्य तथा प्रेम के सम्बन्ध में निश्चित विचार रखते हैं। दूसरों के लिए भलाई करने के लिये ये कार्य करते हैं। लेकिन उनका सबसे अच्छा कार्य व्यक्तिगत सहायता देना है। वे बहुत ही दयालु होते हैं। तथा सदा दूसरों की मदद करना चाहते हैं, लेकिन साथ ही साथ अभाग्यवश बहुत से कट्टर दुश्मन भी बना लेते है। और जब वे सरकारी पद पाते हैं तो विरोधियों से सताये जाते हैं। बहुत कम उनके कार्य पूरा यश तथा पुरस्कार नहीं पाते हैं। जब तक कि वे या तो प्रभावी पद से हट नहीं जाते या इस कृतघ्नी तथा अविश्वासी दुनिया को ही छोड़ देते है। अधिकतर ये अपने किसी भी विशेष विषय में भाषण देने वाले होते हैं। किन्तु होते स्पष्ट वादी हैं। विधि अनुसार ये लड़ाई में बदनाम के कारण को छोड़ कर (Under dog) मशहूर की ओर से हिस्सा लेते हैं। जब उनकी मित्रता उमड़ती हैं, तो वे सच्चे तथा वफादार मित्र बनाते है, लेकिन साथ ही साथ जिनकी वे परवाह करते हैं। उनसे आसानी से ही भावों में घायल हो जाते हैं क्योंकि वे भावुक होते हैं वे बहुत ही धार्मिक होते है और अपने सारे कार्यों में धर्म को लाना चाहते हैं वे बहुत ही भाग्य को मानने वाले हो जाने के खतरे में है और जब विरोध किया जाता है तो कट्टर, जिद्दी तथा काबू के बाहर हो जाते है। उनको भारी उत्तरदायित्व यदि सरकारी काम तथा किसी प्रबन्ध के रूप में आ जावे तो ठीक है। स्वास्थ्य-अधिकतर ऐसे मनुष्य अपने को बुरी तन्दुरुस्ती में तंग कर डालते हैं वे हद से ज्यादा काम करते हैं और दिमाग पागल हो जाता हैं दिल की धड़कन तथा कमजोरी बढ़ जाती हैं और अक्सर फालिज पड़ जाता हैं, वे पेट की बीमारी खून की खराबी, वायुरोग, जिगर तथा गठिया के शिकायती बने रहते हैं वे अधिकतर Page #1170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता ९१० उन्हें पैर व अंगों की आकस्मिक चोटें लगती रहती हैं। जब जल यात्रा करते हो तो अधिक सावधान रहना चाहिए। वे डूबने का अनुभव न रखने के कारण बहुत कम जीवन में पार उतरते हैं। मंगल का उभार और उसके अर्थ अंगूठे के नीचे की जगह तथा रेखा के अन्दर इसका स्थान हैं जब यह बहुत अच्छी प्रकार से हो और अधिक बड़ा न हो तो प्रेम हाजिता की इच्छा हर एक नशा से सौन्दर्य की पूजा, दूसरों को प्रसन्न रखने की इच्छा, कलापूर्ण तथा तरंगित स्वभाव प्रदर्शित करता हैं, और यह प्राय: कलाकारों तथा गवैया के हार्थों में पाया जाता हैं। जीवतत्त्व विज्ञान बतलाता हैं कि यह उभार हथेली में खून का बड़ा बर्तन ढ़कता हैं। (Great Palmer Arch) यदि यह वृत्त का टुकड़ा बड़ा होता हैं तो पर्याप्त खून का होना प्रकट करता हैं। फलस्वरूप स्वास्थ्य अच्छा रहता हैं इसलिए यह पाया जाता हैं, कि इस उभार को अधिक उभरा हुआ तथा बड़ा रखने वाले मनुष्य तन्दुरूस्ती में अच्छे होते हैं तथा कम खून वालों की अपेक्षा इच्छायें अधिक रखते हैं। इस वास्ते जब यह बड़ा हो तो बड़ी उमंगे तथा इच्छायें प्रकट करने वाला समझा जाता हैं। वनिस्पत एक चपटे या अवनत उभार के इसलिए जब यह उभार ऊँचा तथा बड़ा होता हैं तो (Positive) तथा चपटा और छोटा होता है तो (Negative) कहलाता हैं। यदि यह उभार अच्छा हैं और बाकी हाथ साधारण है, तो जैसा कि यह एक जाति (Sex) का दूसरे (Sex) की ओर आकर्षित होना बतलाता हैं। इसका होना एक बहुत ही अच्छा चिह्न हैं, किन्तु यदि यह हाथ में और बुरे चिह्नों के साथ में पाया जाता हैं तो वे बुरी प्रवृत्तियाँ बढ़ जाती हैं। जबकि जन्म तिथि के साथ में विचारा जाये तो यह और स्वभावों पर, जो कि वैसे ही चले जाते हैं सन्तोषजनक प्रभाव डालता हैं। विद्यार्थी इसको 20 अप्रेल से 20 मई तक तथा 26 मई तक (Positive) सोच सकता हैं और मनुष्यों में निम्नलिखित स्वभाव पाये जाते हैं। दूसरों पर अधिकार तथा हुक्म करने की बहुत इच्छा अपने विचारों में कट्टर Page #1171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 수 i ९९१ कर हस्त रेखा ज्ञान तथा रूढ़िवादी और अक्सर अत्याचारी भी होते हैं वे हठी तथा दृढ़ होते हैं। लेकिन विचित्र बात हैं, कि वे जब प्यार करते हैं तो अपने प्रेमी के गुलाम बने जाते हैं। और उसके लिये कोई भी बलिदान असाध्य नहीं समझते। वे उदार तथा दयालु होते हैं और विशेषकर चित्रों के मनोरंजन को पसन्द करते हैं वे बहुत अच्छे मेजवान (Host) होते हैं तथा बहुत अच्छे खानों तथा दावत की रूचि रखते हैं वे पोशाकों के प्रेमी होते हैं और छोटी-सी चीज के लिए अच्छा दिखावा कर सकते हैं वे अपनी इच्छाओं तथा अनिच्छाओं में बहुत ही भावुक होते हैं बहुत ही स्पष्टवादी तथा साफ होते हैं, तेज स्वभाव के और जब जोश में आ जाते हैं तो अपनी जीभ को लगाम नहीं दे सकते उनका गुस्सा व जोश बहुत शीघ्र ही ठण्डा हो जाता हैं और बाद में वे फिर अपने गुस्से से पैदा किये गये घावों के लिये पश्चाताप करते हैं। ऐसे मनुष्य बहुत ही अपने वातावरण से प्रभावित हो जाते हैं और जब उनको किसी गन्दी अथवा अन्धेरी जगह में जबरदस्ती रखा जाता है, तो वे बहुत ही उदास तथा निराश हो जाते हैं। इस काल पोने वाली स्त्री अथवा पुरुष को शीघ्र शादी नहीं करनी चाहिये। क्योंकि उनका पहला कदम गलत होता हैं, वे स्वभाव में इतने स्वतन्त्र होते हैं, विशेषकर वे शीघ्र शादी कर लें और फिर अपनी गलती मालूम करें, तो वे विरह-पूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं और फलस्वरूप कटु आलोचना पाते हैं वे बहुत ही ईर्ष्यालु हो जाते हैं यदि उनके घर शक्ति किसी प्रकार नष्ट हो जाती हैं। स्वास्थ्य- - इस काल में उत्पन्न होने वाले प्राय: छोटे तथा गोल शक्ल के नाखून रखते है जो कि गले तथा नाक की कमजोरी बतलाते हैं। ये सिर तथा कान के दर्द गर्दन की सूजन फोड़ों की ओर प्रवृत्ति तथा (Oppendicitis) तथा आन्तरिक दुःख और विशेषकर आंतों की बीमारियों की शिकायत रखते हैं। मंगल का (Negative) उभार जबकि मनुष्य 21 सितम्बर से 20 तथा 26 अक्टूबर के बीच में पैदा होता हैं तो यह उभार (Negative) होता हैं वास्तव में इस समय में इन मनुष्यों का प्रेम अधिक होता हैं। लेकिन वह शारीरिक की अपेक्षा मानसिक अधिक होता Page #1172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १९२ हैं उनका प्रेम आत्मिक प्रेम होता हैं और वे शरीर के सम्बन्ध की अपेक्षा आत्मा का प्रेम अधिक पसन्द करते हैं लेकिन यदि मनुष्य इस काल में उत्पन्न हुआ हो और उभार बड़ा हो तो अपवाद (Exception) निश्चित है। सारी मानसिक विशेषताएं दृढ़ता से अधिकार रखती है। जो मनुष्य बाद के समय में उत्पन्न होते है वे सूक्ष्म अनुभव तथा चीजों की मानसिक तराजू रखते है। वे पूर्व चिन्ता, भौतिक अनुभव, स्वप्न तथा और ऐसी दो चीजें जो कि अक्सर अपनी विवेचना शक्ति से बिगाड़ देते है तथा सारी पहेलियों का उत्तर अपने दिमाग तथा मानसिक शक्तियों से ही देना चाहते है। प्रेम में वे सदा असफल ही होते हैं। वे अपने को केवल चले ही नहीं जाने देते (Let themselves go) जबकि वे सोचते तथा विचारते हैं। तो अपने अवसर को हिचक के कारण खो देते हैं और ऐसे प्रेम खो जाता हैं। और उन्हें पश्चात्ताप की अग्नि में झोंका जाता हैं। उन्हें अपने सबसे पहले अनुभव तथा विचार पर ही कार्य करना चाहिए तथा भाग्य जो अवसर देता हैं उसे स्वीकार करना चाहिए। वे अपने कृपा-पात्रों के विषय में प्रश्नों से ही अपने आप मानसिक चिन्तन इकट्ठा कर लेते हैं। वे प्राय: कानून का अध्ययन करते हैं लेकिन अपने व्यक्तिगत लाभ की अपेक्षा दूसरों के लाभ के लिए अधिक बढ़ते हैं। वे विद्या की इच्छा रखते हैं और अक्सर जीवन विचित्र विषयों के अध्ययन में व्यतीत कर देते हैं, लेकिन सदा हर एक (Point) बिन्दु को बहुत ही सतर्कता से तौलते तथा जाँचते रहते है। ये सदा डॉक्टर, जज, वकील होते हैं लेकिन सांसारिक लाभ की अपेक्षा किसी विशेष शाखा के मास्टर हो जाते हैं। स्वास्थ्य-ऐसे मनुष्य शारीरिक शक्ति की कमी से दुःख पाते है, वे दिमाग को शक्ति का ह्रांस होना, आत्मा का गिरना, निराशा, बहुत एकान्ता महसूस करना और ऐसी ही अन्य चीजों को दुःख पाते हैं। तथा सख्त सिर दर्द, कमर, गुर्दे का दर्द होता हैं और जैसा कि मंगल के और चिह्नों में और विशेषकर स्त्री के सम्बन्ध में है, वह आन्तरिक दुःख से ग्रसित रहता है और प्राय: गहरे आपरेशन करवाने पड़ते हैं। Page #1173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ कर हस्त रेखा ज्ञान विधिस ent S हाथ के 32 चिह्न व उनका फल रेखाओं के अतिरिक्त दूर वीक्षण यन्त्र द्वारा देखने पर हमें उसमें 32 चिह्न और दिखलाई पड़ते हैं साथ ही कुछ छोटी रेखायें भी स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं, अब नीचे 32 चिह्नों के नाम व उनके लक्षण बतलाये हैं। चिह्न का नाम लक्षण (1) चूल्हा-चोर विश्वास रहित । (2) धनुष-पराक्रमी एवं वीर। (3) फूल–बिना मेहनत किये धन प्राप्त होने पर निश्चिन्त रहे। (4) ध्वजा-धार्मिक आचार्य। (5) गाय-पशुओं का पालन करने वाला जमींदार। (6) छत्र–धनिक यदि यह चिह्न अंगूठे के समीप हो तो धनिक होने के साथ-साथ विद्वान् भी होता है। Page #1174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | १९४ (7) पर्वत या मनुष्य के सिर का चिह्न लेखक विद्वान् गम्भीर धनी व सलाह देने वाला। (8) ग्राम-जागीरदार नगर बसाये। (9) ढाल-साहस रहित भीरू डरपोक कायर । (10) तलवार या बी–सेनापति, वीर सेनानि, शत्रु पर विजय प्राप्त करने वाला। (11) गदा-वीर दल का अधिपति। (12) मसल-लोभी, ईा. करने वाला लालची। (13) ओखली–दरिद्री होकर भूखा मरे। (14) चमची—यह चिह्न भी दरिद्री का है, परन्तु कुरूप होना भी प्रदर्शित करता हैं। (15) घोड़ा-वैभव से पूर्ण श्रेष्ठ घुड़सवार । (16) सिंह-निर्दयी वृत्ति वाला परन्तु वीर। (17) सर्प-वैभव से सम्पन्न धनी। (18) हाथी--प्रजा में पूज्यनीय अमीर। (19) मन्दिर-मस्जिद पुजारी, आस्तिक वृत्ति वाला ज्ञानवान परन्तु सांसारिक सुखों से रहित। (20) चौपड़-शतरंज आदि विभिन्न खेलों का पक्का खिलाड़ी। धनवान। (21) कौआ-विश्वासघाती दूसरे के धन का हरण करने वाला। (22) घट-मित्र विशेष पदाधिकारी नृपति। (23) अंकुश व कुण्डल–यदि आपस में मिले हो तो परोपकारी साथ ही अत्यधिक धनी। (24) सूर्य चन्द्र-वार एक छत्र नृपति परन्तु असामायिक मृत्यु। (25) पेड़-प्रसन्न मुखमण्डल वाला, वीर व गाँव का मुखिया आदि। (26) चौकी–श्रेष्ठ जमींदार व प्रतिष्ठित शासक । (27) रथ-उपर्युक्त सवारी वाला अमीर । (28) तला--तराजू व्यापारिक कार्य करने वाला। Page #1175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९५ कर हस्त रेखा ज्ञान (29) पालकीनृपति तुल्य वाहन वाला। (30) आँख–दाहिने हाथ में धनाढय (बाँये हाथ में) झूठ बोलने वाला। (31) आक—अल्प व्यवसायी। (32) मछली-भाग्यशाली। बुध का उभार तथा उसके अर्थ बुध का उभार नौंडी अगुली के बीचे हैं। अच्छे काम पर यह अच्छा चिह्न हैं। बुरी प्रवृत्तियाँ और विशेषकर मानसिक बुरी प्रवृत्तियाँ रखने वाले के लिये बुरी चीजों को द्योतक हैं यह और चीजों की अपेक्षा दिमाग से अधिक सम्बन्ध रखता हैं। यह दिमाग की फुर्ती विचार तथा व्याख्यान देने की शक्ति बतलाता हैं किन्तु बुरे हार्थों के लिए यह मानसिक उद्विग्नता दिमाग की कमजोरी, एकाग्रता की कमी व्यापार में चालाकी तथा हर वस्तु जो कि स्वभाव में छा सकती हैं। यह उभार सदा मस्तक-रेखा के साथ में विचारना चाहिए। लम्बी तथा अच्छी मस्तक रेखा के साथ में यह मानसिक प्रवृत्तियाँ तथा सफलता बतलाता हैं। किन्तु बुरी कमजोर तथा कटी-फटी मस्तक रेखा के साथ में उसकी सारी कमजोरियाँ तथा बुरी प्रवृत्तियाँ बतलाता हैं। बुध का (Positive) उभार यह उभार (Positive) उन मनुष्यों के लिए हैं जो कि 21 मार्च तथा 20 से 26 जून तक की तारीखों में उत्पन्न होते हैं ऐसे मनुष्य दोहरे चरित्र तथा स्वभाव रखते हैं। वास्तव में उनकी एक प्रवृत्ति दूसरी को खीचती है। यद्यपि वे बहुत ही विद्वान् होते हैं तथापि अक्सर शृंखलाबद्ध विचार तथा लक्ष्य न होने के कारण अपना जीवन बिगाड़ देते हैं। वे निश्चिय रूप से स्वयं नहीं जान पाते कि क्या चाहते हैं। वे अपने विचार तथा पेशे क्षण-क्षण में बदलते हैं। और जब तक कि वे खुशी की शादी नहीं कर लेते वे शादी में अनिश्चित ही रहते है। उनका समझाना बहुत ही मुश्किल है। वे स्वभाव में गर्म तथा ठण्डे दोनों हैं। अपने स्वभाव के एक पक्ष से वे बहुत प्रेम भी कर सकते हैं तथा दूसरे पक्ष में घृणा भी करते हैं। वे बहुत ही आलोचना Page #1176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता पूर्ण होते हैं तथा दूसरों के छोटे-छोटे दोष भी देखा करते हैं तथा वे अपने विचारों को अन्योकित पूर्वक कहते हैं। जो कि जितने ही अच्छे उतने ही तीक्ष्ण भी। सारे व्यापारिक कामों में जहाँ कि सूक्ष्म मानसिकता लाभकारी होती हैं। के सारे विरोधों को दूर रख देते है। यदि वे उस बहस में दिलचस्पी लेते हो तो वे बातचीत करने में बहुत ही पटु होते हैं लेकिन सुनने वालों को जैसे कि वे आरम्भ में थे, वैसे ही अन्त में भी छोड़ देते हैं। यदि उनको उन्हीं के स्वभाव में लिया तो बहुत ही खुश मनुष्य होते हैं लेकिन जो वे कल थे। वैसे ही आज उन्हें सोचना भूल है। वे सोचते हैं कि वे संसार में सबसे अधिक विश्वासी तथा सच्चे मनुष्य हैं और कहानी सुनाते समय भी सच्चे ही हैं लेकिन उनके लिए समय ही जीवन हैं। और एक दिन या एक सप्ताह में वह कहानी दूसरा ही रंग धारण कर लेती है। ऐसे मनुष्यों में कोई भी अपने चरित्र को ऐसा नहीं मानता किन्तु उनके चरित्र का तनिक सा अध्ययन ही मनुष्य को यह बतला देता हैं कि यह उनके चरित्र की सच्ची बात है लेकिन वह मानसिक कार्य जिसमें परिवर्तन तथा बुद्धि की आवश्यकता हो तो उनको बहुत पसन्द आती है। वे अधिकतर कुशल नट, वकील, जनता में व्याख्यान देने वाले, कम्पनियों को तरक्की देने वाले या व्यापार में नये कायदों को निकालने वाले होते हैं। सारे जीवन में जो कि दिमाग की सूक्ष्मता का काम हैं, इसमें सफलता प्राप्त करते है। यदि वे अपने में इच्छाशक्ति तथा लक्ष्य की एकता को बढ़ा देते स्वास्थ्य-जो कुछ बीमारी दिमाग को नुकसान पहुँचा सकती हैं दिमाग की कमजोरी तथा चिन्ता से आमाश्य की बीमारी, फालिज, जीभ की विपदा, सिर में दर्द, स्वप्न आदि बामारियाँ हो जाती है। इन्हें गले की कमजोरी और विशेषकर आँखों तथा नाक की तकलीफ हो जाती है। बुध का (Negative) उभार जब मनुष्य 21 अगस्त तथा 27 सितम्बर से 3 अक्टूबर तक की तारीखों Page #1177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९७ | कर हस्त रेखा ज्ञान uttar में उत्पन्न होता है तो यह उभार (Negative) होता है। इसमें आने वाले मनुष्य {Positive) के बुध के उभार की सारी अच्छी विशेषताएँ रखते हैं। उदारणार्थ-वे जो भी अध्ययन या जीवन पथ चुनते हैं उस पर बहुत दिनों तक चलते हैं। ये मुश्किल से ही प्रथम प्रकार के मनुष्यों के समान फुर्ती तथा चमत्कार रखते हैं किन्तु वे ठोस तथा स्वच्छ कार्य-पथ रखते है और कायदे के अनुसार अपने जीवन में बहुत कुछ कर सकते है। वे अपने जीवन के विचारों में अधिक अभ्यासी तथा पार्थिव होते हैं लेकिन वे सदा हर एक वस्तु को अपने विचारों से ही व्याख्या करते हैं जो कुछ उनके विचार से ठीक हैं वही उनके लिए सत्य हैं और फलस्वरूप वे कभी-कभी दूसरों की आशा के विपरीत कार्य करते हैं। इस काल में उन्नत होने वाली स्त्रियाँ अनोखी पहेली होती हैं। या तो वे बहुत गुणवाली तथा सच्ची होती है या इसके बिल्कुल विपरीत होती हैं। लेकिन चाहे वे अच्छी हों या बुरी वे अपने लिए स्वयं कानून होती हैं। और सब चीजों से पहले अपना सोचती हैं। इस समय में पैदा होने वाले मनुष्य अपनी पत्नियों या बच्चों को छोड़ देते हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि उन्हें ऐसा करना चाहिए और जीवन के मध्य-पथ पर वे धार्मिक विचार बदल देते हैं या बहुत ही रूढ़िवादी से एक दम उल्टा हो जाता हैं। इसी प्रकार स्त्रियाँ जो कि सामाजिक जीवन व्यतीत करती हैं, एकदम से अचानक ही धार्मिक हो जाती हैं तथा किसी दृढ़ धर्म या जाति में घुस जाती हैं फिर जैसे कि (Positive) उभार में हैं इसका पूर्व निश्चिय अन्त जानने के लिए मस्तक रेखा पर भी साथ में विचार करना चाहिए। यदि यह सीधी तथा स्पष्ट हैं तो अच्छी प्रवृत्तियाँ प्रकाश में आ जाती हैं। यदि रेखा नुरी तथा कमजोर है तो अन्त में बुरी प्रवृत्तियाँ अपना अधिकार जमा लेती हैं। स्वभाव-ये मनुष्य किसी अन्य श्रेणी की अपेक्षा जहाँ कि स्वास्थ्य का सम्बन्ध है। मानसिक रायों को अधिक मानते हैं। यदि वे सोचते हैं कि वे बीमार हैं तो यही बहुत हैं। यदि वे सोचते हैं कि वे बिल्कुल अच्छी तरह हैं तो आरोग्य भी हो जाते हैं। वास्तव में वे विशेष स्वास्थ्य के होते हैं। यदि नशों व दवाइयों से खराब नहीं किया जाता तो जैसा कि वे हर समय सोचते हैं कि उन में कुछ बीमारी Page #1178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता । १९८ अवश्य हैं तो नये विज्ञापनों तथा छोटे डॉक्टरों के शिकार रहते हैं। वे मुश्किल से ही किसी अत्तार की दुकान में बिना कुछ लिये चलते हैं और यदि वे किसी डॉक्टर के पास बैठ गये तो निश्चित रूप से एक नुस्के के साथ लौटेंगे। इनका सबसे बड़ा अवगुण यही हैं कि हर किसी से अपना दुःख कह देते हैं और किसी भी किस्म के तनिक से दुःख दर्द को बहुत बढ़ा कर सोचते हैं। इसके विपरीत प्रकृति और किसी की अपेक्षा इनके लिए अधिक लाभकारी हैं। दिमाग की शक्ति, ग्राम्य जीवन तथा खुली हवा इनके सारे दुःख दर्दो को भविष्य के अन्धकार में ही रोक सकती है। किन्तु यदि बुरे तथा गन्दे वातावरण में रहते हैं तो उनका स्वास्थ्य शीघ्रता से गिर जाता है। और यदि वे किसी खुले स्थान में नहीं बदलते तो दुनियाँ में कोई भी दवाई उन्हें आगम नहीं दे सकती। वृहस्पति का उभार और उसके अर्थ वृहस्पति का उभार पहली अंगुली के बीचे होता हैं (चित्र 6 भाग 2) जबकि यह बड़ा होता हैं। तो राज्य करने की इच्छा बतलाता हैं दूसरों पर हुक्म करने तथा किसी संगठन को शुरू करने किसी नये कार्य को करने की इच्छा बतलाता है। लेकिन ये अच्छी हो, स्पष्ट तथा लम्बी हो। लेकिन हो। लेकिन जब रेखा बुरी होती हैं तो बड़ा उभार घमण्ड तथा हद दर्जे का अहंकार, अपने में विश्वासी तथा स्वेच्छचारी मनुष्य बतलाता हैं लेकिन एक अच्छे हाथ पर कोई भी उभार बहुत अच्छा नहीं होता और, सफलता का कोई निश्चित चिह्न केवल लक्ष्य तथा स्वाभाव की दृढ़ता से नहीं होता। यह उभार Posivite उस समय माना जाता हैं जबकि मनुष्य इक्कीस नवम्बर से बीस दिसम्बर या अट्ठाईस दिसम्बर तक पैदा होता हैं। ऐसे मनुष्य स्वाभाविक ही इच्छुक, निडर तथा जो भी वे शुरू करते है। उसे सोच कर शुरू करते हैं। लेकिन अपने विचारों पर चलते हैं तो वे प्राय: कन्धे से सीधा वार करते हैं। या अपनी इच्छा स्पष्टतया प्रकट करते हैं और कट्टर शत्रु होते हैं। जो कुछ भी वे करते हैं उसे एकाग्रचित होकर करते हैं और यदि वे अपनी Page #1179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर हस्त रेखा जान माँगों में तनिक-सा भी विरोध देखते हैं, तो केवल अपने ही रास्ते को देखते हैं। वे मर्यादा वाले तथा उच्च विचारों के होते हैं। और वे अपने में विश्वास का उत्तर देते हैं। वे प्राय: बहुत ही सच्चे होते हैं किन्तु किसी भी धोखे पर बुरी प्रकार से मनाकर देते हैं और दूसरों को धोखा देने के लिए कोई भी कार्य करने में नहीं हिचकते, चाहे उनके स्वयं के कार्य ऐसा करने में क्यों बिगड़ जाये। वे व्यापार में बहुत उद्यमी एवं साहसी होते हैं तथा उन कार्मों में जिनमें कि संगठन की आवश्यकता होती है और आसानी से ही व्यापार के सिर बन जाते हैं तथा सरकार के या सरकार के अधीन दफ्तरों में उत्तरदायी जगह पाते हैं। ये विशेषतः राजनीतिक कार्यकर्ता बनते है कारण यह है कि ये किसी भी सभा की बातों को आसानी से नहीं मानते। ये अपने जीवन पथ चुनने में सबसे स्वतन्त्र है इसी कारण बाल्यावस्था में ऐसे मनुष्य अपने माता-पिता के लिए चिन्ता का कारण होते है अत: उन्हें अपना जीवन पथ स्वयं चुनने देना चाहिए चाहे वे उसे दर्जनों बार क्यों न बदलें। जबकि वे अपना सच्चा पेशा न पा जाय। इसका सबसे बड़ा अवगुण यह है कि वे हर एक चीज की हद तक पहुंच जाते हैं। ऐसा करने में अपना परिश्रम व्यर्थ नष्ट करते हैं। लेकिन यदि मस्तक रेखा सीधी हथेली के आर-पार हो तो स्थिति तथा उत्तरदायित्व की ऐसी कोई ऊँचाई नहीं कि जहाँ कि वे न पहुँच सकें। स्वास्थ्य--ऐसे मनुष्य अधिकांशत: गठिया या वायु रोग से अधिक ग्रसित रहते हैं। तथा जीभ गले की जलन और खाल की बीमारियों भी उन्हें हो जाती वृहस्पति का Negative उभार यह वृहस्पति का उभार यदि मनुष्य ग्यारह फरवरी और बीस मार्च या 29 मार्च का उत्पत्र होता है तो Negative माना जाता है। तब इच्छायें सांसारिकता की अपेक्षा मानसिक रूप धारण कर लेती हैं। उनको दिमाग की उन्नति तथा दिमाग का कार्य ही विशेष होता हैं वे चीजों की एक वास्तविक समझ रखते हैं तथा हर वस्तु के विषय में शीघ्र ही ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और विशेषकर ऐतिहासिक-जातियाँ, Page #1180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता मनुष्य, भूशास्त्र सम्बन्धी तथा भूगर्भ सम्बन्धी वस्तुओं की खोज में बहुत-ज्ञान प्राप्त करते हैं। इस मानसिक शक्ति के अलावा ये मनुष्य इतने भावुक तथा अपने ऊपर इतना कम अधिकार रखते हैं। कि मनुष्य को अपने कार्यों का विश्वास दिलाने में बहुत मुश्किल पाते हैं इस कारण वे जनता के सम्मुख आने से हिचकते है, और एक ओर खड़े होकर दूसरों को अपने ही विचारों से यश पाते देखते हैं। बहुत से विद्वान्, कलाकार, संकलन करने वाले इसी समय में उत्पन्न होते हैं तथा इसकी सभी विशेषताएँ वे प्रदर्शित करते हैं। फिर भी मस्तक-रेखा ही यदि साफ हो तो निर्णय यह कहता हैं कि इच्छा शक्ति ऐसे मनुष्यों की स्वाभाविक भावुकता जीतने के लिए तथा उनकी अपनी इच्छाओं को काम में लाने के लिए काफी नहीं हैं। स्वास्थ्य-ऐसे मनुष्य अक्सर निराशा तथा स्वधर्म पर प्राण त्याग करने की इच्छा रखते हैं तथा खून की खराबी और गठिया रोग से ग्रसित हो जाते हैं। वे आन्तरिक धक्के जिगर तथा पाण्डु रोग से ग्रसित हो जाते है। जलवायु उनके स्वास्थ्य पर बहुत असर रखती है इसलिए उनको सूखे वातावरण, साफ हवा तथा व्यायाम खूब करना चाहिए साथ ही भ्रमण भी बहुत करना चाहिए। शुक्र का उभार यह उभार हाथ पर दो स्थान रखता हैं (चित्र 6 भाग 2) पहला स्थान जीवन-रेखा के ऊपरी हिस्से के नीचे तथा दूसरा स्थान मस्तक तथा हृदय-रेखा के बीच में उत्पन्न होता है पहला स्थान शारीरिक और दूसरा मानसिक स्वभाव का द्योतक हैं। पहला स्थान बड़ा हैं और (Positive) हैं तथा यदि यह मनुष्य 21 मार्च से 21 अप्रैल के बीच में उत्पन्न होता है तो अधिक विशेषता रखता हैं क्योंकि (Zodiac) में वर्ष का यह समय शुक्र (Positive) का घर कहा गया हैं। दूसरा स्थान शुक्र (Negative) का होता हैं और यदि मनुष्य 21 अक्टूबर से 21 नवम्बर तक पैदा होता हैं तो अधिक विशेषता रखता हैं क्योंकि (Zodiac) के वर्ष के ये दिन शुक्र (Negative) का स्थान हैं। Page #1181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००१ कर हस्त रेखा ज्ञान अब हम इन दोनों स्थितियों का प्रभाव देखेंगे जो कुछ ये मनुष्य के स्वभाव पर रखते हैं। शुक्र का प्रथम उभार शुक्र का प्रथम उभार जीवन-रेखा के विकास के स्थान पर हैं और विशेषकर जब मनुष्य के घर में (मार्च 21 से अप्रैल 21) और सीधेतौर पर 28 अप्रैल तक पैदा होता हैं तो वह मनुष्य फौजी ताकत रखता हैं जोकि जीवन के हर काम में उसकी प्रवृत्ति पैदा करती हैं या तो मनुष्य हर तरह से लड़ाकू होते हैं वे अपने कामों में थोड़ा बहुत बिल्कुल भी काबू नहीं रखते, वे हर एक क्षेत्र में नेता ही होना चाहते हैं और प्राय: देखा जाता है कि वे व्यापार में नेता तथा और कार्यों में बड़े उत्तरदायित्व भी लेते है वे विचारों तथा लक्ष्य की दृढ़ता रखते हैं वे सारी आलोचना की परवाह नहीं करते हैं वे अपने विचारों में कट्टर व रूढ़िवादी होते हैं और बहुत कम दूसरों की राय पूछते हैं अपने कार्यों को अपनी राय से करते है और जैसा कि वे सोचते केवल उनका ही रास्ता सच्चा है और दूसरों के तनिक दे दखल को भी बदाश्त नहीं कर सकते और अपने दोस्तों को जो कि उन्हें विचारों से बदलना चाहते है, से लड़ पड़ते है केवल दया, धैर्य, युक्ति व प्रेम से ही वश में आते हैं और उनके साथ तनिक सा झगड़ा भी उन्हें लड़ाई के लिये तैयार कर लेता है उनका स्वभाव बहुत ही तेज होता है साथ ही साथ जल्दी ही दूर हो जाता है और क्रोध की आँधी दूर हो जाने पर बुरे शब्दों के कहने आदि के लिये पश्चात्ताप करते है। ये मनुष्य प्राय: अच्छे स्वभाव के तथा दयालु होते है। लेकिन अपने हर एक कार्य में प्रभावाली रहते हैं उनका सबसे बड़ा अवगुण तथा आत्म काबू की कमी है जब तक कि मस्तक रेखा लम्बी व अच्छी नहीं होती है वे इस प्रकार की मुश्किलों व खतरों में घुस जाते हैं और अक्सर अवसर को खो देते है वे नेतृत्व की शक्तियों को खराब कर डालते वे मनुष्य प्राय: अपने ग्रहस्थ जीवन तथा प्रेम में सफल नहीं होते वे मुश्किल से ही ऐसी स्त्री से मिलते हैं जो उनको समझ सके। और भाग्यवश यदि वे अपनी स्त्री का सामना करने से बच जाते है तो बच्चों का सामना करना पड़ता है। स्वास्थ्य में वे बुखार तथा खून 1 -1 . .- . =- - Page #1182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १००२ की बीमारियाँ रखते हैं विशेषकर अपने बाल्यजीवन में युवावस्था में भी दौरे सख्त सिरदर्द अक्सर दिमाग पर पानी और दाँतों की बीमारियाँ हो सकती है। वृद्धावस्था में उनको सिरदर्द दिमाग की कमजोरी मृगी रोग तथा घुमेरी आदि बीमारियाँ हो जाती है और विशेषकर तब जब कि मस्तक रेखा जंजीर के समान टुकड़ों की बनी हो ऐसे मनुष्यों को राय दी जाती कि उन्हें अपने ऊपर काबू तथा आराम करना चाहिये। और सबसे अधिक शराब तथा नशीली चीजों से बचना चाहिये उन्हें और सब मनुष्यों से अधिक सोना तथा खुली हवा में व्यायाम करना चाहिये और सबसे अधिक अपने गुस्से तथा घमण्ड को वश में करना चाहिये। ऐसे मनुष्यों में जो अपने ऊपर अधिकार कर लेते, जीवन में बड़े काम तथा अपने पीछे आने वालों के लिये बहुत से फायदे के काम कर देते हैं। शुक्र का दूसरा उभार दूसरा उभार हृदय तथा मस्तक रेखा के बीच में होता है। और जो मनुष्य 21 अक्टूबर से 21 नवम्बर तक पैदा होते है, उनके लिये अधिक विशेष है। स्वभाव में वे प्रथम वाले के बिल्कुल उल्टे होते है। शुक्र की सारी विशेषता होने के कारण मानसिक झुकाव मनुष्य तथा वस्तुओं की ओर होता है। ऐसे मनुष्य शारीरिक से मानसिक शक्ति अधिक रखते है दृश्यों से घृणा करते है या शारीरिक लड़ाई तथा खून खराबी में मिलना पसन्द नहीं करते है। मानसिक लड़ाई पसन्द करते है और बहस में भी अन्त तक लड़ते है ये प्रथम वाले शुक्र के मनुष्यों से अधिक शान्त इरादे के होते है। वे अपने विचारों में अधिक दृढ़ होते है। लेकिन अपनी शयों को छुपाते है और वे प्रायः प्रतिज्ञा वाली पार्टी की ओर चलते है किन्तु वास्तव में ठीक अवसर के लिये राह देखते है जबकि वे अपने विपक्षी को "मानसिक घेराव" देकर डगमगा देना चाहते है ऐसे मनुष्य नेताओं की अपेक्षा संगठन करने वाले अधिक होते है। और उनकी मानसिक लड़ाई की शाक्ति पा लेती है जबकि मनुष्य सुशिक्षित तथा उन्नत नहीं होता है। तो अपने विचारों को पूरा करने के लिये चालाकी और हरेक प्रकार का कार्य करने को तैयार रहते है वे अपना इरादा पूरा करने में किसी भी चीज से Page #1183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००३ कर हस्त रेखा ज्ञान नहीं रुकते है । वे सब कट्टर शत्रु तथा कृतघ्न हो सकते है तलवार के उत्तर में जहर उनका विशेष हथियार है। सारे (Negative) शुक्र वाले मनुष्य एक गुप्त आकर्षण शक्ति रखते है जो दूसरों के साथ में वे न जानते हुये व्यवहार में लाते है स्वभाविक कृत्रिम निन्दा (Hypnotism) के बुलाने वाले तथा विचारों को पढ़ने वाले होते है और गुप्त सभाओं तथा जादू की ओर झुके रहते हैं। जब बहुत ही उन्नत सतह पर होते है तो वे आश्चर्यजनक शक्तियाँ दूसरों की भलाई के लिये काम में लाते हैं और विशेषकर जब वे दवाईयाँ विज्ञान का कार्य करती है । प्राय: (Negative) शुक्र के मनुष्य बहुत धाराओं वाले (Many sided) होते है और किसी विशेष जीवनधारा में रखना बहुत ही मुश्किल हो जाता है यदि मस्तक रेखा अच्छी है तो मानसिक दुविधा में कोई ऐसी चीज नहीं जिसमें की वे सफल ना हो सके यह देखा गया है कि ऐसे मनुष्य बहुत कम इन बातों को चलाते है जिनको की इन्होंने प्रथम स्वीकार किया था और अपने जीवन में ये अपनी धारा को बहुत ही बार बदलते है। इसका सबसे बुरा अवगुण यहीं है कि ये जिस मनुष्य तथा वातावरण के संसर्ग में आते है उसे शीघ्रता से अपना लेते है। यदि वे बुरे मनुष्य के साथ पड़ जाते हैं तो वे अपने को अपने साथियों जैसा ही बना लेते हैं और यदि अच्छे मनुष्यों के संसर्ग में आ जाते हैं तो कुछ उनमें अच्छाइयाँ होती है। उनकी उन्नति कर लेते है । ऐसे मनुष्य की दो प्रकृतियाँ होती है नीच प्रकृति में कोई भी जाति इनसे अधिक घातक दुष्ट नहीं होती है अपना सर्वनाश तथा अपने को घायल कर डालते है और उच्च प्रकृति के समय शायद ही कोई ऐसी जाति होगी जो बाज के समान उच्च प्रकृति की होगी या सांसारिक बंधनों से मुक्त होगी । Negative शुक्र वाले मनुष्य विशेषकर जब युवा होते हैं तो ध्यानपूर्वक अच्छी संगति बनानी चाहिये और उन्हें विशेषकर सूचना दी जाती है कि उन्हें अपनी जाति (Sex) को काबू में रखना चाहिये तथा बुरी पुस्तकों और बुरे मनुष्यों से बचना चाहिये । Page #1184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भदबाइ महिना | जहाँ तक स्वास्थ्य का सम्बन्ध है—ऐसे मनुष्य बाल्यावस्था में हल्के तथा नाजुक होते है लेकिन प्राय: बीच का जीवन बीत जाने पर मोटे हो जाते है दोनों स्त्री तथा पुरुष को विशेषकर युवावस्था में अपनी जाति (Sex) की बीमारियाँ तथा कमजोरियौं हो सकती है और आगामी उम्र में गुर्दे तथा मूत्राशय की बीमारी तथा पेट आमाशय का खराब होना हो सकता है। अपने सारे जीवन ऐसे मनुष्यों को अपने भोजन के सम्बन्ध में ठीक तथा हिफाजती होना चाहिए। शनि का उभार और उसके अर्थ शनि का उभार दूसरी अंगुली के नीचे हैं। इसकी विशेषताएं एकान्त प्रियता, बुद्धिमत्ता, शान्त इरादा गम्भीर वस्तुओं का अध्ययन, भाग्य पर भरोसा तथा ईश्वरीय सत्ता में विश्वास है। इस उभार का बिल्कुल न होना जीवन को ओच्छी, हल्की दृष्टि से देखना हैं जबकि इसका बहुत होना अपनी विशेषताओं को बहुत बढ़ा देता है। शनि का उभार (Positive) तब समझा जाता हैं जबकि मनुष्य इक्कीस दिसम्बर तथा बीस जनवरी के बीच में पैदा होता है। इन दिनों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य दृढ़ मानसिक इच्छा शक्ति रखते हैं लेकिन वे प्राय: अपने जीवन को बहुत एकान्त महसूस करते हैं वे वातावरण तथा भाग्य के हाथों का खिलौना होते हैं जिनके ऊपर वे कोई अधिकार नहीं रखते और वे अपने जीवन-पथ को दृढ़ इच्छाओं से स्वतन्त्रता पूर्वक बनाते हैं। स्वभाव में वे अपने कार्य तथा विचारों की स्वतन्त्रता में आश्चर्यजनक होते हैं वे दूसरों के प्रभाव में आना भी पसन्द नहीं करते वे दया व सहानुभूति के लिए सब कुछ करते हैं। लेकिन वे कभी-कभी इतना अकेलापन महसूस करते हैं कि जो स्नेह तथा प्रेम उन्हें दिया जाता है उसमें कठिनता से विश्वास करते है। वे कर्त्तव्य तथा प्रेम के अनोखे विचार रखते है और इसी कारण जो मनुष्य उनके एकान्त जीवन में घुसना चाहते हैं वे उनके अजीब कहे जाते हैं। वे गहरे त्याग की प्रकृति रखते हैं हालांकि वे धार्मिक नहीं होते। वे अच्छे कामों के लिए सब कुछ करते हैं हालांकि उनके कार्य के लिए कोई पुरस्कार अथवा यश उन्हें प्राप्त नहीं होता। Page #1185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर हस्त रेखा ज्ञान ऐसे मनुष्य जीवन का उत्तरदायित्व बहुत ही महसूस करते है और फलस्वरूप उनका जीवन अक्सर अन्धकारपूर्ण तथा नीरसतापूर्ण हो जाता हैं और वे अपने घर में ही मजबूर हो जाते है। यदि वह बहुत धार्मिक बनता है तो विशेष कर हद तक पहुँच जाता हैं और किसी भी धर्म में दृढ़ी हो जाता है। जादू और अदृश्य विद्या उनकी आन्तरिक प्रकृति के अनुकूल होती है। लेकिन वहाँ भी ये हद तक पहुँच जाते हैं। वे लगभग होशियार तथा विद्वान् मनुष्यों की पूजा करते तथा गम्भीर विचार वाले होते है, लेकिन अपने विचारों में दूसरे मनुष्यां का दखल सहन नहीं कर सकते है ये प्रात: बहुत उत्तरदायित्व की जगह ले लेते हैं लेकिन हर कार्य में भाग्य अपना काम करता है ये भाग्य के औजार होते हैं। अक्सर जिसमें वे अपना कर्तव्य सोचते हैं उसके लिए हजारों को नाश के घाट उतार देते हैं। यदि उनसे अपने प्रिय का बलिदान करने के लिए कहा जाता है तो वे अपने अंतरंग प्रिय के हृदय में भी चाकू भोंक देते है। इस समय में पैदा होने वाले सभी मनुष्य अजीब तथा दृढ़ स्वभाव, बराबर की घृणा, प्यार और डर रखते हैं। __ स्वास्थ्य-ऐसे मनुष्य गठिय, वायु रोग, पैर में दर्द व सूचन, घुटनों तथा पैर में आकस्मिक चोट, जिगर तथा गुर्दो की बीमारी, कान तथा दाँतों की बीमारी रखते हैं। शनि का (Negative) उभार __ शनि का उभार (Negative) या मानसिक जबकि मनुष्य 21 जनवरी 16 फरवरी तक पैदा होते हैं। ये मनुष्य सभी चीजों में प्रथम प्रकार के मनुष्यों जैसे होते है। अन्तर केवल इतना हैं कि ये चीजे उन पर शारीरिक की अपेक्षा मानसिक प्रभाव अधिक रखती है। वे जीवन में अकेलापन महसूस करते है। वे अपने जीवन में विचारों तथा सोचने में कम भिन्नता पाते है। जबकि पहले वाले मनुष्य अपने जीवन में अधिक महसूस करते हैं। ये मनुष्य अधिक भावुक होते हैं और बहुत जल्दी ही अपने भावों में घायल Page #1186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००६ भद्रबाहु संहिता हो जाते है। मनुष्य के स्वभाव को स्पष्टतया पढ़ लेते है । वे धोखा देने तथा क्रोध में आने से बहुत कृपा करते हैं। और जब वे सोचते ही तो मनुष्य को अपनी नाराजगी की दृढ़ता से चकित कर देते है । यदि उनके भाव एक बार उभर जाते हैं तो वे सच्चे दोस्त बना लेते है और अपने मित्र के लिए हर एक बलिदान करने को तैयार रहते है। लेकिन यदि वे जान लें कि उनको धोखा दिया गया है तो नुकसान पहुँचाने जैसी किसी भी बात से नहीं रुक सकते है । वे जनता की भलाई के लिए बहुत कार्यशील होते हैं वे अपना बहुत - सा समय तथा धन अच्छे कामों के लिए दे देते हैं। किन्तु देते अपनी इच्छा से ही है शनि की Positive उभार वाले मनुष्य की तरह से भी दृढ़ विचार धर्म के सम्बन्ध में रखते है और विशेषकर धार्मिक जीवन में लगातार उत्सवों तथा निरीक्षणों के विषय में रुचि रखते है । वे प्रथम प्रकार के मनुष्यों से इन विषयों में पृथक् होते हैं, कि वे दिन-प्रतिदिन जनता की सभाओं में दिलचस्पी लेते जाते हैं। वह सिनेमा थियेटर तथा आमोद-प्रमोद की वस्तुओं को चाहते है किन्तु एक भी सत्य रूप से जीवन में अकेलापन महसूस करते है। वे अपनी आँखों में बहुत ही अधिकार करने की शक्ति रखते है । यद्यपि वे स्वयं कमजोर होते है। तो भी जोशीले तथा दुर्बल रोगी पर बहुत प्रभाव रखते हैं। और पागल के ऊपर भी अपने जीवन में ऐसे वाकयातो से वे भाग्य द्वारा ही मिलाये जाते है । स्वास्थ्य — ऐसे मनुष्य पेट की दुर्बलता तथा आमाशय की बीमारियों से ग्रसित रहते है और साधारण चिकित्सा उनका दुःख दूर करने में असफल रहती है। वे बुरे खून का दौरा, हाथ पैर ठण्डे बहुत ही कमजोर दाँत तथा घुटने, पैर और अंगों की आकस्मिक चोटों से ग्रसित रहते हैं। वे बहुत कम स्वास्थ्य को मजबूत समझते ही तो भी वे रोकने की बहुत बड़ी शक्ति रखते है। और जब उनकी शक्ति पर पुकार आती है तो वे अपनी शक्ति से दूसरों को चकित कर देते है। विशेषकर यदि वे किसी प्रकार भी यह जान पाये कि उनका कर्त्तव्य या ध्येय उलझन में है। Page #1187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 對 | I I १००७ कर हस्त रेखा ज्ञान काणं गुलीड़ रेहा पएसिणं लंघिऊण जस्स गया। अखंडिआ अप्फुडिया वरिसाण सयं च सो जियइ ॥ 22 ॥ (काणं गुलीइ रेहा ) कनिष्ठिका अंगुली से प्रारम्भ होकर (पएसिणं लंधिऊण जस्स गया) जो रेखा प्रदेशिनी को पार करती है वह (अखंडिआ अप्फुडिया ) अगर अखण्डित हो, टूटी-फूटी हो तो (सो) वह उसको (सयं च सो जियइ) सौ वर्ष तक जिन्दा रखती है। भावार्थ----यदि आयु रेखा कनिष्ठिका से प्रारम्भ होकर प्रदेशिनी का भी उल्लंघन करे। और वह रेखा अगर खण्डित न हो और टूटी-फूटी न हो तो वह मनुष्य सौ वर्ष तक जीता है। अर्थात् उसकी आयु सौ वर्ष की होती है ॥ 22 ॥ अन्य आचार्यों का अभिमत गच्छति कनिष्ठिका प्रदेशाद्या रेखा तर्जनीम् । अविच्छिन्नानि वर्षाणि तस्य चायुर्विनिर्दिशेत् ॥ 23 ॥ भावार्थ — कनिष्ठा अंगुली के नीचे जो रेखा जाती है, यदि वह तर्जनी तक चली गई हो तो समझना चाहिये। कि इसकी आयु पूर्णायु अर्थात् 120 वर्ष की है। कनिष्ठिका प्रदेशाद्या रेखा गच्छति मध्यमाम् । अविच्छिन्नानि वर्षाणि अशीत्यायुर्विनिर्दिशेत् ॥ भावार्थ — वही रेखा यदि मध्यमा अंगुली तक गई हो तो उसकी आयु बिना बाधा के अस्सी वर्ष जाननी चाहिए । कनिष्ठिकांगुलेर्देशाद्रेखा अविच्छिन्नानि वर्षाणि भावार्थ - वही (कनिष्ठा के अधः प्रदेश से जाने वाली) रेखा यदि अनामिका तक गई हो तो पुरुष की आयु, वे खटके 60 वर्ष की होती है। गच्छत्यनामिकाम् । षष्ठिरायुर्विनिर्दिशेत् ॥ Page #1188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १००८ कनिष्ठिकांगुलदंशात् रेखा तय गच्छति। अविच्छिन्नानि वर्षाणि विंशत्यायुर्विनिर्दिशेत् । भावार्थ-वही (कनिष्ठि के अध: प्रदेश वाली) रेखा यदि कनिष्ठा से मूल तक जाकर ही रह जाय तो आयु के बीस वर्ष होंगे। रेखा स्वरूप द्वारा गाथा पल्लविआ विच्छिण्णा विरला विसमा य णिद्धिसे। आ फुडिअ विवपणा नीला रूक्खा तहा चैव ॥23॥ (रहा) आचार्यों ने रेखा के इस प्रकार भेद कहे है (पल्लविआ) पल्लवित (आफुडिअ) अस्पष्ट (विवण्णा) विवर्ण (नीला) नील वर्ण को (रूक्खा) रूक्ष (तदा चैव) इसी प्रकार (णिद्धिसे) कहा गया है। भावार्थ—यहाँ रेखाओं के भेद इस प्रकार कहे गये हैं। पल्लवित, विच्छिन्न, विरल, विसम, अस्पष्ट, विवर्ण, नील, रूक्ष आदि।। 23 ।। आयु रेखा और धन रेखा पल्लविया सकिलेसा विछिण्णासु पावए महादुक्खें। विरला धणव्वयकरी णीइ धणं णत्थि विसमासु ।। 24॥ (पल्लविया सकिलेसा) पल्लवित रेखा क्लेश देने वाली होती है (विछिण्णासु पावए महादुक्खं) विच्छिन्न रेखा महादुःख पहुँचाती है (विरला धणव्वयकरी) विरल रेखा धन खर्च कराती है (णीइ धणं णत्थि विसमासु) विषम रेखा अनीति का धन अर्जन कराती है। भावार्थ-पल्लवित रेखा क्लेश दायिनी होती है, विच्छिन्न रेखा महादुःख देती है विरल रेखा धन खर्च कराती है, विषम रेखा अनीति का धन प्राप्त कराती है।। 24 ।। हरियासु चोरिय धणं फुड़ि अविवण्णासु बंधण मुवेइ। णीलासुणिव्वुइण्णो रूखासु मिअभोग भागीअ॥25॥ (हरियासु चोरिय धणं) हरित रेखा से चोरी का धन आता है (फुडि आविवण्णासु Page #1189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००१ कर हस्त रेखा ज्ञान बंधण मुवेइ) स्फुटित और विवर्ण रेखा से बन्धन में पड़ता है (णीलासुणिब्बुइण्णो) नील रेखा से उदासीनता आती है (रूक्खासु मिअभोग भागीअ) रूक्ष रेखा से परिमित भोग मिलते हैं। भावार्थ-हरित रेखा से चोरी का धन प्राप्त होता है। विवर्ण और स्फुटित रेखा से व्यक्ति बन्धन में पड़ता है। नील रेखा से उदासीनता आती है। और रूक्ष रेखा से सीमा में भोग पदार्थ मिलते हैं।। 25 ।। वराहमिहिर रेखा के बारे में ऐसा कहते है। कि चौकनी और गहरी रेखाएँ धनवान की होती है इससे विपरीत रेखा दरिद्रियों को होती है। आगे अन्य लेखकों के मत से संक्षिप्त मस्तिक रेखादि का वर्णन करते हुए प्रथम बाणभट्ट का अभिमत कहते हैं। | प्रथमोऽध्यायः मस्तिष्क रेखा और उसके परिवर्तन मस्तिष्क रेखा अथवा मनुष्य को मानसिकता का चित्रण सब दशाओं में सबसे मुख्य रेखा समझनी चाहिए। __ सबसे अधिक ध्यान इसी पर देना चाहिए जिससे कि मानसिकता का ठीक ज्ञान प्राप्त हो सके। दोनों हाथ ध्यान पूर्वक मिलाने चाहिये-बायाँ हाथ ईश्वर प्रदत्त शक्तियों का द्योतक हैं तथा दाहिना हाथ स्वयं अपने परिश्रम से प्राप्त की हुई शक्तियों का । बायें हाथ की रेखा का तनिक-सा भी फर्क दाहिने हाथ की रेखाओं को ध्यानपूर्वक देखना चाहिए। तथा याद रखना चाहिये। कि रेखा का रूख, झुकाव तथा अन्तध्यान से देखना चाहिए क्योंकि सभी दशाओं में यह मानसिक झुकाव दिखाती हैं। उदाहरणार्थ-यदि बांये हाथ में रेखा अन्त में नीचे की ओर को झकी हो और दायें हाथ में सीधी अथवा हथेली के बीच में होकर जाती हो तो देखने वाला यह कह सकता हैं। कि वह मनुष्य अपना स्वाभाविक मार्ग ग्रहण नहीं कर सकेगा अथवा उसे वातावरण से प्रभावित होकर अपने को अधिक कार्यशील, व्यापारिक रास्ते तथा वातावरण के उपर्युक्त बनने के लिए एक शिक्षा अभ्यास की ओर लेनी पड़ेगी। Page #1190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु मंहिता :- और जि इस तरह से विद्यार्थी उस मनुष्य की प्रारम्भिक दशाओं का ज्ञान प्राप्त कर लेता हैं जो कि अमूल्य हैं—विशेष कर उस समय जबकि उस मानव के हाथ में कोई भाग्य रेखा उसकी बाल्यावस्था के विषय में न बतावे। इसके प्रतिकूल यदि मस्तिष्क रेखा दायें हाथ में बिल्कुल उसी दशा में पाई जावे जैसी कि बायें हाथ में है अथवा कुछ मिलती हुई सी हो तो विद्यार्थी यह बता सकता हैं। कि उसके बाल्य-जीवन में कोई विशेष घटना नहीं हुई बल्कि उस मनुष्य का वातावरण उसी के अनुकूल था जिसमें वह अपनी प्राकृतिक इच्छाओं को पूर्ण कर सकता था। यदि बायें हाथ में मस्तिष्क रेखा का अन्त शाखाओं में हो और दायें हाथ में सीधी हो तो उस मनुष्य का अपने पिता से स्वभाव मिलें हैं एक तो विचार, Page #1191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 I १०११ कर हस्त रेखा ज्ञान दूसरा अभ्यास और वह दूसरी अर्थात् अभ्यास की उन्नति या तो व्यापारिक क्षेत्र अथवा विज्ञान क्षेत्र में करेगा । ऐसे समय में विद्यार्थी पूर्ण के साथ यह कह सकता हैं। कि उस मनुष्य के माता-पिता अपने स्वभाव में उसके विपरीत थे । यदि रेखा दाहिने हाथ में सीधी हो जाती हैं तो मनुष्य अभ्यास की ओर अधिक कार्य करती हैं। लड़कों तथा पुरुषों के बारे में यह कि वे अपनी माता के मानसिक गुण को ग्रहण करते हैं जब कि लड़की अथवा स्त्री अपने पिता के मानसिक गुणों को यदि पुरुष के बाँयें हाथ में इस रेखा की ऊपर वाली जिल्ह्वा सीधी हो या सीधी-सी हो तो उसकी माता, पिता से अधिक अभ्यास करने वाली थी । यदि सीधे हाथ पर वही रेखा उसी रूप में मिले तो वह मनुष्य अपने पिता की अपेक्षा माता के गुणों का अनुकरण करता हैं किन्तु स्त्रियों के हाथ में इसका उल्टा होता हैं। यदि इसके विपरीत नीचे वाला सिरा अधिक स्पष्ट हो दायें हाथ में हो तो वह मनुष्य यदि पुरुष हैं तो अपनी माता की काल्पनिक शक्ति और कला सम्बन्धी प्रवृत्ति पाई हैं। लेकिन लड़की अथवा स्त्री के विषय में इसका उल्टा हैं जब यह मस्तिष्क रेखा बाँयें हाथ पर धीमी तथा दाँयें हाथ पर स्पष्ट और तेज दिखाई पड़े तो उस मनुष्य ने अपने माता-पिता का स्वभाव नहीं ग्रहण किया वरन् खुद का पाया हैं। ऐसे विषय में वह मनुष्य इष्ट मानसिक शक्ति रखता हैं अपने माता- -पिता से मानसिक विकास में उच्च निकलता हैं यह रेखा अक्सर उन मनुष्यों के हाथ में पाई जाती हैं जो (Selfmade) अपना बनाया या अपनी चेष्टा से बना धनी हैं। तथा उन्हें आरम्भ में कोई विशेष शिक्षा नहीं प्राप्त होती है। लेकिन जो स्वाभाविक प्रवृत्ति होने के कारण उसमें उन्नति कर जाते हैं ऐसे निशान उस मनुष्य की इच्छा शक्तियों को प्रकट करते हैं यदि मस्तिष्क रेखा बायें हाथ से दायें हाथ पर धीमी और खराब हैं। तो वह मनुष्य कभी भी अपने माता-पिता के समान नहीं हो सकता और वह अपनी मानसिक शक्तियों को प्रयोग में नहीं ला सकता। ऐसी दशा में हर एक मनुष्य को विश्वास होना चाहिये कि वह मनुष्य अपनी मजबूत इच्छाएँ विशेषकर मानसिक— नहीं रखता यद्यपि वह प्रकृति से मजबूत हैं, जो कि अंगूठे Page #1192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता की बनावट से प्रकट होती हैं एक बुरी तथा अस्पष्ट मस्तिष्क रेखा, दाँयें हाथ में इच्छाओं तथा लक्ष्य की कमी द्योतक है। एक साफ स्पष्ट गहरी रेखा मानसिक शक्ति को अधिक दृढ़ता से प्रकाशित करती हैं वनस्पित एक चौड़ी या वैसी ही हथेली पर पड़ी रेखा के एक चौड़ी मोटी रेखा परिवर्तनशील प्रकृति तथा कम एकाग्रता बताती हैं। यह रास्ता यानि यह बात सब रेखाओं के विषय में सत्य हैं। ___चौड़ी बुरी लगने वाली रेखाएँ मानसिक की अपेक्षा शारीरिक दशाओं की द्योतक हैं यह उस दशा में पाई जाती हैं जबकि मनुष्य बाहर घूमता हैं अथवा उन मनुष्यों में जो कि मानसिक की अपेक्षा शारीरिक विकास करते हैं। अच्छे दिमाग वाले अधिकतर पतली सुन्दर, स्पष्ट रेखायें रखते हैं और विशेष करके दिमाग की रेखा ऐसी ही होती हैं। विद्यार्थी इस प्रकार देखने से यह मालूम कर सकता है। कि वह मनुष्ष कैसा जीवन व्यतीत करता हैं चाहे मनुष्य कितना भी दिमागी क्यों न हो किन्तु हाथ की रेखाएँ यह बता देती है कि मनुष्य ने दिमाग की कितनी उन्नति की हैं इस प्रकार यह देखा गया है कि ललाट की रेखाओं की अपेक्षा हाथ की रेखायें अधिक ठीक है बहुत-से मनुष्य तथा स्त्रियाँ जो कि सुन्दर बुद्धिमान चेहरे रखते हुए भी घर से बाहर एक घूमने वाले का जीवन तथा खेल को पसन्द करते हैं। तब इसके अन्तिम भाग की बनावट को छोड़कर विद्यार्थी को इस रेखा के आरम्भ की ओर ध्यान देना चाहिये। उदाहरणार्थ-मस्तिष्क रेखा तीन पृथक्-पृथक् स्थानों से शुरू होती हैंजीवन रेखा के अन्दर की ओर से (चित्र 1. 1-1) जीवन रेखा से मिली हुई (चित्र 1. 2-2) जीवन रेखा के बाहर की ओर से (चित्र 1. 3-3) मस्तिष्क रेखा जीवन रेखा के अन्दर से यह अधिक निश्चित हैं यह बतलाती हैं कि मनुष्य अत्यधिक भावुक अत्यधिक चैतन्य तथा कायर होता हैं यह भी बतलाती हैं कि वह मानव बहुत शीघ्र ही तेज Page #1193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१३ कर हस्त रेखा ज्ञान तथा बहुत ही घबरा जाने वाला हैं जो कि अपने ऊपर या स्वभाव पर तनिक भी शासन नहीं रखता हैं जो जल्दी ही गुस्से में आ जाता हैं तथा बहुत ही डांवाडोल स्थिति की वस्तुयें कर सकते हैं, या जब वह चिड़चिड़ा हो जाता है तो स्थिति बचाकर निकल जाता हैं। ऐसे मनुष्य सदा इस मुसीबत में रहते हैं कि विशेष करके झगड़ने में उन वस्तुओं पर जो कि कम अर्थ रखती वे अपनी इच्छाओं में भी इतने शीघ्र ही जख्मी हो जाते हैं कि एक ही दृष्टि उनको आपे से बाहर कर देती हैं और उनका स्वभाव कुछ दिनों के लिये बिगड़ जाता हैं। यह लाइन आगे जाकर हथेली में सीधी हो जाती है तो वह मानव बाद में अपनी दिमागी उन्नति करके अत्यधिक भावुकता के ऊपर विजय पा लेता हैं यदि यह रेखा कलाई की ओर झुक जाती हैं तब मनुष्य अपने आगामी सालों में और भी खराब हो जायेगा यदि मस्तिष्क रेखा भी बुरी प्रकार से बनी हैं या बाल रेखाओं के समान हैं तो वह मानव एक प्रकार का पागलपन जो कि मानव को उसके आगामी जीवन में खुश्किल से रेखा दिखे या देखी जायगी। यदि ऊपर लिखित चिह्न के साथ व्यक्ति की और भी रेखायें जैसे कि भाग्य की रेखा आदि बीच हथेली के बाद धीमी पड़ जाती हैं तो पागलपन तथा मुसीबतों का आना निश्चित हैं। इस प्रकार की रेखा अधिकतर उन मनुष्यों के हाथ में पाई जाती है जो कि स्वाभाविक ही शराब और हर एक के बुरे स्वभाव की और झुक जाती हैं। ___ कहीं-कहीं जबकि अच्छी रेखायें हाथ में होती हैं यह पाया जाता है कि वह मनुष्य यदा-कदा बुरे स्वभावों या बुरी इच्छाओं को रास्ता देता हैं शुक्र के उभार की विशेषतायें जहाँ से कि यह मस्तिष्क रास्ता देता है। शुक्र के उभार की विशेषताएं जहाँ से कि यह मस्तिष्क रेखा जीवन रेखा के अन्दर से आरम्भ होती हैं, ऊपर लिखित हैं शुक का दूसरा सामने वाला उभार, प्रथम वाले के विपरीत मानसिक काबू बतलाता हैं यहाँ तक कि जबकि मस्तिष्क रेखा हथेली के बीच से गुजरती हैं वह इस मानसिक शुक्र में हिस्सा बटा लेती हैं और इससे ज्ञात होता है कि वह मनुष्य अपने पापी जीवन में ऐसी मस्तिष्क रेखा के रखते हुए भी मानसिक काबू की उन्नति करेगा झुकी हुई मस्तिष्क रेखा से मनुष्य मानसिक काबू करने में असफल रहता हैं और उसकी प्रारम्भिक प्रवृत्तियाँ ही उसकी गुरु बन जाती हैं। - - - 12 - . - - Page #1194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १०१४ ___ यह अकेला चिह्न ही माता-पिता के विचारने योग्य हैं और वे लोग इसे देख सके तो बच्चों के मानसिक विकास में सहायता कर सकते हैं। मस्तिष्क रेखा जीवन से मिली हुई। ___ यह रेखा हर दशा में अत्यधिक भावुकता बतलाती हैं जो कि चिन्ता की ओर झुकाव तथा आत्म-विश्वास की (Caution) कमी बतलाती हैं। (1-2-1) सबसे बुद्धिमान मनुष्य तक भी इस चिह्न को रखने से अपने ऊपर सख्ती से काबू रखते है और सदा अपनी योग्यताओं तथा बुद्धि का मूल कम आंकते हैं। जब उसी दशा में रेखा कुछ नीचे की ओर झुकी होती हैं तो भावुकता और भी बढ़ जाती हैं ऐसी रेखा अधिकतर कलाकारों, चित्रकारों तथा और भी जीवन के अन्य क्षेत्रों में भावुकता तथा कला की इच्छा रखते हैं यहाँ तक कि वह बहुत दिनों तक भी उन्नति नहीं करते यदि इसके विपरीत मस्तिष्क रेखा जीवन को मिलाती हुई हथेली में सीधे शुक्र के मानसिक उभार की ओर चली जाती हैं तो वह मनुष्य यद्यपि अधिक भावुक हैं तथापि अपनी इच्छाओं को अधिक शक्ति रखता हैं। ऐसे मनुष्यों को अधिक भावुक होने के कारण इतना काम नहीं मिलता जितना की उन मनुष्यों को जिनकी रेखा नीचे की तथा विचारात्मक उभार Mount of Imagination की ओर झुकी हुई होती है। जितनी भी मस्तिष्क रेखा सीधी होगी उतना ही मनुष्य अपनी रायों को पूरा करने की ओर झुका होगा अक्सर यह भावुक तथा दुर्बल मनुष्य किसी लक्ष्य या उद्देश्य से सम्बन्धित लड़ाई तथा जिस रास्ते को इनका मन स्वीकार करता हैं तथा ठीक बतलाता है। उस विचार को पूरा करते हैं यदि ऐसे मस्तिष्क रेखा हाथ में दूर तक चली गई हैं और सीधी मानसिक शुक्र के उभार को छूती हैं तो वह मनुष्य अत्यधिक दृढ़ इच्छाओं तथा विचारों के अपना कर्त्तव्य समझता हैं और शक्ति रखता हैं। इन दो किस्म के हाथों में एक तो जिसकी मस्तिष्क रेखा झुकी हुई तथा दूसरे जिसकी मस्तिष्क रेखा सीधी हाथ के पार चली गई हो, देखने के फर्क ने कितने ही इस विद्या के पढ़ने वालों को उनके उत्तर में गलती रक्खा हैं कई स्थानों पर जबकि मस्तिष्क रेखा चिह्नाकार (3-3 चित्र 2) तथा जुड़ी हुई हो और जबकि Page #1195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१५ कर हस्त रेखा ज्ञान ये जिह्न बराबर हो और विशेषकर उन स्थानों पर जबकि मस्तिष्क रेखा जीवन रेखा से जुड़ी हुई हो तो भावुक प्रवृत्ति दिखाती हैं यह जिह्वाकार चिह्न अक्सर किसी राय की कमी (Cortain want of decision) बतलाता हैं वह मनुष्य दिमाग की आभ्यासिक तथा काल्पनिक प्रवृत्तियों को तोलने की ओर झुकता हैं ऐसी दशा में मनुष्य को अपने प्रथम प्रभाव के अनुसार कार्य करना चाहिये चाहे वह अभ्यास या कल्पना के क्षेत्र में किसी के भी हो ऐसा करने से वे दिमाग के (intuition) सहज ज्ञान को कार्य में लाते हैं और उसे प्रयोग में लाने से किसी भी प्रश्न को एक ही दफा में दोनों ओर से देखने या उसके विषय में अधिक सोचने में उसमें वह (Waver) झिझक नहीं पायेंगे। जबकि मस्तिष्क रेखा कुछ नीचे की ओर चन्द्रमा के उभार की ओर झुकी हुई हो (चित्र 1-1-2) तो विचारों के ऊपर पूर्ण अधिकार होता हैं तब विद्यार्थी को यह मालूम हो जायेगा कि वह मानव सदा अपनी विचार-शक्ति को ही काम में लाता हैं जबकि वह उनसे संचालन होने की जगह उनसे कार्य लेना चाहता हैं लेकिन जबकि यह रेखा उभार की ओर अधिक दूर तक झुक जाती हैं (4-4 चित्र 2) तो इसका उल्टा हो जाता हैं ऐसी दशा में मनुष्य अपने विचारों का गुलाम होता हैं और प्राय: अद्भूत कार्य करता हैं या क्षणिक आवेश में कार्य कर सकता हैं इस दूसरी श्रेणी के मनुष्य कला तथा विचारों के क्षेत्र में कम कार्य दुनिया में करते हैं वनिस्वत उनके जिनके हाथ में यह रेखा सीधी तरह से इस उभार में झुकी तथा चली गई हो। __ जबकि यह मस्तिष्क रेखा पूरी तरह से झुकी हुई तथा एवं झुकाव के साथ मुड़ी हुई (Luna) उभार के नीचे हो तो वह मनुष्य अत्यन्त {Mortied) अस्वस्थ विचार तथा इतनी अधिक भावुकता में अक्सर वह अपने को अपने साथ रहने वालों से अलग हो जाता है वैराग्य ले लेता हैं और एकान्त जीवन व्यतीत करता हैं या कभी-कभी अपनी आत्म-हत्या भी कर लेता हैं अधिकतर आत्मघात ही ऐसे जीवन का अन्त होता हैं उनकी अत्यधिक भावुकता उनकी जीवन-यात्रा को दुःख पूर्ण बना देती हैं यह विचार केवल मस्तक रेखा के नीचे की ओर से झुकाव जो कि उभार के ऊपरी हिस्से में का ही हैं दृढ़ न कर लेना चाहिए (4-4 चित्र Page #1196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १०१६ 2) इसके बाद वाली दशा में यह इतनी नीचे भी जा सकती हैं जितनी कि कलाई और जब तक उसके अन्त में कोई द्वीप या (Cross) गुणा का चिह्न न हो आत्मघात करने का कोई खतरा नहीं है ऐसी दशाओं में अत्यधिक विचारात्मक भावुकता तथा (Melanchol and Mordidness) उदासीनता और अस्वस्थता की प्रवृत्ति पाई जाती है लेकिन साथ ही किसी बोझ के पड़ने से दिमाग की कमजोरी नहीं होती जैसा कि दूसरी हालत में जो कि अपने खून करने की प्रवृत्ति में पाई जाती मस्तिष्क रेखा जीवन रेखा से अलग मस्तिष्क रेखा जीवन रेखा से अलग होने की अपेक्षा जुड़ी हुई अधिक पाई जाती हैं जबकि जगह ज्यादा चौड़ी नहीं होती (3-3 चित्र 1 ) तो यह विचार स्वतन्त्र ( शीघ्र निर्णय करने तथा एक प्रकार की मानसिक शक्ति जो कि जीवन संग्राम में बहुत ही अमूल्य है) की द्योतक है लेकिन जब तक मस्तक रेखा साथ ही साथ स्पष्ट तथा हथेली के आर-पार होकर जाती हैं तो वह मनुष्य दूसरों के ऊपर अधिक प्रभाव रखता है लेकिन उनकी योग्यतायें अधिक उज्ज्वल रूप से प्रकाशित हो यदि वे सार्वजनिक कार्यों में भाग लें ऐसा चिह्न रखने वाले उनकी अपेक्षा जिनकी कि जीवन-रेखा तथा मस्तिष्क रेखा एक साथ जुड़ी हों कम (Hard students) मेहनत करने वाले विद्यार्थी होते हैं लेकिन उनके अन्दर विचार शक्ति इतनी तीक्ष्ण होती हैं कि वे एक ही दृष्टि में उस बात को समझ लेते हैं जिसको कि दूसरे बहुत परिश्रम से समझ पाते हैं लेकिन इस खुली मस्तिष्क रेखा (Open line of Head) के रखने वाला जीवन में कोई लक्ष्य उद्देश्य रखता हैं। बिना किसी लक्ष्य के वे शान्त समुद्र पर चलने वाली नौका के समान हैं। वे अपना जीवन निरुद्देश्य ही व्यतीत कर सकते हैं। जबकि कोई उसके लिये पुकार न आवे या इच्छाओं का ज्वार भाटा उनके रास्ते को न बदल दे और उनको आगे ले जावे उसी प्रकार की रेखा लेकिन झुकी हुई इन दोनों प्रकार की रेखाओं से अधिक अनिश्चित हैं क्योंकि वह मनुष्य अब तक आवेश या इच्छा नहीं आती तो वह मनुष्य यद्यपि, कुशाग्र बुद्धि का तथा होशियार है पर अपना जीवन यों ही नष्ट, कुछ न करते Page #1197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१७ कर हस्त रेखा ज्ञान हुए व्यतीत कर देता हैं। यह मनुष्य जिनकी मस्तिष्क रेखा खुली हुई तथा कुछ ऊपर को बढ़ी हुई या मानशिक शुक्र के उभार की ओर या उसकी तरफ हो तो स्वयं निर्वाचित नेता सार्वजनिक जनता में गड़बड़ी फैलाने वाला (Organiser of the Public Movement) होगा (3-3 चित्र) उन्होंने जिस कार्य को आरम्भ किया हैं और उसके सम्बन्ध (Duty) को पूरा करने में हर वस्तु-घर के प्यार तथा सारे बन्धनों का बलिदान कर देंगे। चित्र सरल बहुत खुली हुई मस्तिष्क रेखा तथा जीवन रेखा से अलग बहुत कम भावुकता को प्रदर्शित करती हैं (4-4 चित्र 3) वह मनुष्य इसकी उल्टी हद पर पहुँच जायेगा यदि उसकी मस्तिष्क व जीवन रेखा जुड़ी हुई हैं जबकि जगह अधिक चौड़ी होगी तो वह मानव अपने में बहुत क्रोध तथा शृंखलाबद्ध अभिप्रायों की कमी पावेगा Page #1198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | १०१८ अपने आपको हर एक कार्य में आगे रखने की कोशिश करेगा बदनामी से यश पाने के लिये बहुत इच्छा होगी तथा लगातार अपने विचार तथा उपायों को बदलने वाला होगा जहाँ तक कि दुनिया का सम्बन्ध हैं जबकि यह रेखा बहुत ही अधिक जीवन रेखा से दूर हो तब दिमाग बहुत जल्दी गर्म होने वाला होता हैं वह मनुष्य दिमाग में अधिक खून के होने से दिल का दौर, नींद का न आना तथा और सब चीजें जिनसे दिमाग पर असर पड़ता हैं तकलीफ उठाता है यदि मस्तिष्क रेखा द्वीपों से बुरी आच्छादित हैं या टूटी हुई नौर जंजीरवाः बौड़ी रेल हो (1-1 चिन 4) तो यह एक-दूसरे प्रकार के पागलपन की निशानी है जैसे कि मस्तिष्क रेखा द्वीपों से आच्छादित रखने वाला मानव गुस्से वाला गुस्से में वह जाने वाला तथा दूसरे को जान से मार बैठने वाला मानव होगा एक मस्तिष्क रेखा बहुत अधिक दूर पर नहीं तथा उसका एक सिरा (Jupiter) वृहस्पति के उभार से शुरू होने या उसकी असली शाखा वृहस्पति के उभार से निकले (4-4 चित्र 3) तो सबसे वित्र सरम्या-3 Page #1199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर हस्त रेखा ज्ञान अधिक तेजस्वी निशान है विद्यार्थी को मस्तिष्क रेखा का यह फर्क अपने दिमाग में सोच लेना चाहिये साथ ही साथ उसका रास्ता तथा अन्त भी यदि उनसे इन दो बिन्दुओं को भली प्रकार से समझ लिया जाय तो इस विषय की कुन्जी ही उसके पास हो जायेगी यदि उसने इस भाग का अध्ययन पूर्णरूप से कर लिया तो उसकी नींव पक्की होगी। मस्तिष्क रेखा तथा उसके और साथ के निशान मस्तिष्क रेखा पर दीप बहुत ही महत्त्वपूर्ण होते हैं जबकि यदि इनका जन्मकाल का सम्बन्ध जीवन तथा मानसिकता के साथ विचारा जाय। सबसे प्रथम विद्यार्थी को यह याद रख लेना चाहिये कि एक द्वीप किसी भी रेखा पर कमजोरी तथा भाग्यहीनता का द्योतक हैं जबकि यह सारी मस्तिष्क रेखा पर एक जंजीर में एक साथ पायें जायें (1-1 चित्र 4) तो वे मानसिक कमजोरी जो कि दुर्बल स्वास्थ्य से बनती हैं, बतलाता हैं। ऐसी मानसिक दुर्बलता या दिमाग की बीमारी यदि नाखून के छोटे चन्द्रमा से भी पाई जाये तो वह खून कमी (Anomic Condition) जो कि दिमाग पर असर करती हैं, खून का बुरा दौरा जो कि दिमाग को खून-खून की कमी से बढ़ने या इच्छा शक्ति के प्रयत्न करने से रोकती हैं और उसको अस्थिर दशा में कार्य करना पड़ता हैं। यदि उसी के साथ-साथ मस्तिष्क रेखा हाथ में बहुत ऊँचे की होकर जावे तो यह दशा और भी बुरी हैं और वह मनुष्य किसी समय में “आधा पागल" (Half mad) हो जाता हैं। जबकि मस्तिष्क रेखा जीवन रेखा से बहुत दूर हो तो इस जंजीरदार रेखा का इलाज बहुत कठिन हो जाता हैं व उसका प्रभाव बहुत ही दृढ़ होता हैं वह मनुष्य मानसिक उद्विग्नता से कुछ काम रखता हैं जो कि उसके काबू से बाहर हो जाते हैं और ऐसे समय में वह बचकर निकल जाते तथा पागलपन के और बुरे-बुरे कार्य करते हैं जो कि प्राय: दूसरों को नुकसान पहुंचाने वाले होते हैं। जब मस्तिष्क रेखा बहुत झुकी हुई हो (2-2 चित्र 4) तथा उस पर द्वीप हो तो उस मनुष्य को उदासीन तथा दबाव के दौरे आते हैं जिनमें कि वह दूसरे Page #1200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १०२० मनुष्यों से भागना या स्वयं अपने जीवन पर अधीनता करना चाहता है। विद्वान मनुष्य उसको "थोड़े समय के पागलपन में बह गया" कहते हैं। दूसरी वस्तु द्वीप वाली मस्तिष्क रेखा के विषय में देखने योग्य उनका स्थान हैं या किस अंगुली के नीचे वे दिखाई देते हैं जब यह द्वीप मनुष्य को बाल्यकाल में मानसिक नाजुकता होती हैं उसमें कोई इच्छा शक्ति पढ़ने की इच्छा नहीं होती। दूसरी अंगुली या शनि के उभार के नीचे (4 चित्र 4) तो वह मानव इसके विपरीत सिर दर्द, उदासीनता, अस्वस्थता दिमाग के नीचे के भाग में जलन अथवा सूजन से ग्रसित रहता हैं यदि रेखा दुर्बल तथा इसके पश्चात् शाखाओं में विभाजित होती हुई दिखाई दे तो वह मानव कभी भी पूर्ण रूप से इस बीमारी से ठीक नहीं हो सकता। यदि यह द्वीप तीसरी अंगुली के नीचे अर्थात् सूर्य के उभार नीचे हो तो (5 चित्र 4) मनुष्य छोटी दृष्टि (Short sight) तथा तेज रोशनी की कमी से ग्रसित होता हैं। यदि ऐसे ही बहुत द्वीप हो तो वह प्राय: अन्धा या नेत्रों से दुर्बल होता हैं। . -4 चिनव्या Page #1201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२१ कर हस्त रेखा ज्ञान यदि द्वीप चौथी अंगुली या बुध के उभार के नीचे हो तो मनुष्य वृद्धावस्था में दिमागी कमजोरी तथा बहुत ही दुर्बल स्वभाव का तथा चिन्ताग्रस्त होता हैं। यदि बहुत से द्वीप हो तो वह मनुष्य उस पागलपन में जो कि चिन्ताशील स्वभाव या मानसिक शक्तियों पर बहुत अधिक दबाव होने से जकड़ जाते हैं। इस प्रकार यह देखा जाता है कि इस रेखा को उसके विषय में पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए भविष्य के लिए भविष्यवाणी करने के लिए उसे हिस्सों में विभाजित करना उचित हैं। आगे यह रेखा और भी बाँटी जा सकती हैं यह देखने के लिये कि किस उम्र में मानसिक स्वभाव बदलेगा या बदलने की आशा की जा सकती है। प्रथम अंगुली के नीचे 21 वर्ष तक का समय आता हैं दूसरी भाग अर्थात् दूसरी अंगुली के नीचे 42 वर्ष तथा तीसरी अंगुली के नीचे 49 से 63 साल तक और चौथी अंगुली के नीचे 69 से ऊपर तक की आयु का समय होता हैं। मस्तिष्क की रेख में परिवर्तन इस रेखा के अध्ययन में दूसरा दिलचस्प चिह्न उसके स्थान का परिवर्तन है या उसमें से निकलने वाली या उसमें मिलने वाली रेखायें जो कि एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन कर देती हैं। उदाहरणार्थ यदि मस्तिष्क रेखा अपने पथ में कुछ मुड़ी हुई या झुकी हुई हो तो ( 11 चित्र 5 ) उस मनुष्य के जीवन में उसी अवस्था में कुछ बाहरी आकस्मिक प्रभाव पड़ेगा यदि यह टेढ़ापन साफतौर से दृष्टिगत हो तथा उस पर दौरे के समान निशान दिखाई न दें तो वह मनुष्य यद्यपि बिल्कुल ही उल्टे अभ्यास की ओर हो स्थिति से ऊँचा उठ जाता हैं। और कुछ समय के लिए अभ्यास या व्यापारिक दृष्टिकोण जो कि उसकी प्रकृति के विपरीत हैं। उसमें उन्नति करता हैं। यदि टेढ़ेपन के स्थान पर कोई स्पष्ट रेखा मस्तिष्क रेखा से ऊपर की ओर जाती हुई दिखाई दे (2-2 चित्र 5) तो उस समय का मनुष्य की भावी जिन्दगी पर प्रभाव पड़ जाता हैं कुछ स्थानों पर ये सुन्दर रेखायें कुछ वर्ष पश्चात् अधिक स्पष्ट दिखाई देती हैं और कभी-कभी मस्तिष्क रेखा बन जाती हैं इससे मालूम होता है कि वह मनुष्य अपनी प्रकृति का आभ्यासिक क्षेत्र जो कि उस काल में उत्पन्न होता हैं, में उन्नति करता रहता हैं। यदि विद्यार्थी इस मस्तिष्क रेखा को Page #1202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२२ भद्रबाहु संहिता कुछ झुकी हुई या कोई सुन्दर लाइन उसमें से नीचे की ओर निकलती देखे (3-3 चित्र 5 ) तो उसका प्राकृतिक अर्थ यह है कि वह मनुष्य अपने जीवन की दौड़ में कम अभ्यासी हो जाता हैं था कुछ काल के लिए अधिक विचारात्मक प्रवृत्तियाँ उत्पन्न करता हैं, इस बाद की हालत में अक्सर यह देखा जाता हैं कि मनुष्य अपनी उस उम्र पर अधिक धनवान तथा सम्पन्न देखा जाता हैं और इससे वह अपनी प्रकृति की ( कला - क्षेत्र की ) उन्नति कर सकता हैं जबकि उसका आभ्यासिक संग्राम उस समय तक कुछ कम हो जाता हैं, लेकिन यह तब ही कहा जा सकता हैं, जबकि सूर्य रेखा (चित्र 15 ) स्पष्ट दिखाई पड़े या उस समय तक अचानक ही हाथ पर दिखाई पड़ जावे, तब विद्यार्थी यह विश्वास से कह सकता हैं कि उस यस मनुष्य के जीवन में अधिक पुरत तथा शान्ति होगी । तथा तब वह अपने जीवन में विचारात्मक क्षेत्र की ओर मुड़ेगा यदि मस्तिष्क रेखा स्वयं ही ऊपर की ओर, विशेष करके चौथी अंगुली या बुद्धि (Mercury) के उभार की ओर को झुके तो वह लगभग बिना किसी संशय के बतलाती हैं कि मनुष्य जितने भी दिन अधिक जीवित रहता हैं, उतनी ही उसकी इच्छा धन प्राप्त करने की या उसके विषय में सोचने की बढ़ जाती हैं, तथा वह एक आने वाले वर्ष में दृढ़ होती जाती हैं। यह मस्तिष्क रेखा अपनी स्वाभाविक जगह को जो कि बायाँ हाथ देखने पर ज्ञात होती हैं। छोड़ दे तथा ऐसा प्रतीत हो कि वह हृदय रेखा से निकलती हुई हैं तो वह प्रकट रूप से तथा स्वेच्छा से या अपनी इच्छा शक्ति से अपने स्वभाव के स्नेह क्षेत्र पर काबू करता हैं, और अपनी इच्छाओं के प्रकटीकरण के लिये झगड़ता रहता हैं यदि यह चिह्न चौकोर मोटे हाथ पर दिखाई पड़े तो यह पूर्ण निश्चय है कि उस मनुष्य ने अपने विचार को किसी पार्थिव वस्तु पर लगा लिया हैं जैसे कि धन और अपने लक्ष्य को पूरा करने में पाप करने से भी न हिचकेगा यदि यह चिह्न किसी लम्बे हाथ पर दिखाई देता है तो मानव की इच्छा दिमागी शक्ति से मनुष्यों के साथ सम्बन्ध रखती हैं। तथा अपने जीवन-पथ के लक्ष्य को पूरा करने का इरादा रखती हैं। यह चित्र केवल एक रेखा हाथ के इधर से उधर तक जाने पर ही निश्चित न होना चाहिए ( चित्र 6 ) क्योंकि इस दशा में मस्तिष्क रेखा अपने स्थान के बाहर नहीं जाती है बल्कि स्वभाव में बहुत ही तेजी बुरे या अच्छे Page #1203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२३ कर हस्त रेखा ज्ञान के लिये प्रदर्शित करती हैं ऐसा मनुष्य बहुत एकाग्रचित्त होता हैं। यदि वह अपनी मानसिक शक्ति किसी लक्ष्य की ओर लगा देता हैं, तो साथ ही साथ अपना दिल और इच्छा भी लगा देता हैं। यदि वह किसी मनुष्य से प्रेम करने लगता हैं तो वह उसके साथ अपनी मानसिक शक्ति को पूर्णरूप से लगा देता है ऐसी दशा में यह मालूम पड़ता है। कि मानो मानसिकता की यह दोनों दशाएं (मानसिक तथा रसिक) आपस में एक-दूसरे के साथ मिली हुई हैं लेकिन मैंने इसे कभी भी भाग्यशाली चिह्न नहीं पाया हैं। श्री चिन रम्य प्रथम स्थान पर तो ऐसे मानव होते ही बहुत कम हैं तथा अपने जीवन में कोई शान नहीं रखते तथा जिसके फलस्वरूप वे अपने को अकेला तथा दूसरों से भिन्न प्रतीत करते हैं प्राय: उनकी इच्छाओं पर शीघ्र ही आघात पहुँच जाता Page #1204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२४ भद्रबाहु संहिता हैं और वे अत्यधिक भावुक होते हैं मैंने ऐसे मनुष्यों को कभी सफल होते नहीं देखा तक कि वे अकेले कार्य न करें। लेकिन वे यदि कभी व्यापार में साँझे आदि में मिलकर कार्य करे तो वे अपनी शान की कुचली हुई समझते है तथा वायदे के अनुसार साझा कभी-कभी सफल होता हैं इसके चिन्तन में विद्यार्थी को ध्यानपूर्वक यह देखना चाहिए। कि क्या सिर्फ अकेली एक ही रेखा हाथ के आर-पार चली गई हैं जहाँ पर कि मस्तिष्क रेखा स्वाभाविकता से होनी चाहिए या वह अंगुलियों की तरफ को कुछ ऊँची उठी हुई हैं जहाँ कि प्रायः हृदय रेखा पाई जाती है पहली दशा में वह दिल की अपेक्षा दिमाग तथा मानसिकता से अधिक सम्बन्ध रखती है लेकिन दूसरे स्थान पर वह मानसिकता की अपेक्षा प्रेम-उमंग व इच्छाओं की घनिष्ठता से सम्बन्ध रखती हैं। मस्तिष्क रेखा से सम्बन्ध रखने वाले गुणों के चिह्न (Cross) छोटे तथा स्पष्ट दिखाई देने वाले (Crosses ) चाहे वे रेखा को छूते हों या बिल्कुल उनके ऊपर को तो दिमाग की चोट के द्योतक हैं। वृहस्पति के नीचे (Cross) (1 चित्र 7 ) उन चोटों का द्योतक हैं। जो कि उस मनुष्य को दूसरों पर शासन करने की इच्छा बहुत अधिक कट्टर तथा रूढ़िवादी होने से लगती हैं। शनि के नीचे (2 चित्र 5 ) वाले (Cross) उन नुकसानों तथा चोटों को बतलाते हैं जो जानवरों के आक्रमण करने से दुष्टता के प्रहारों नीच प्रवृत्तियों आदि से लगती हैं। और विशेष कर दुष्ट प्रवृत्ति की चोटों के द्योतक हैं। सूर्य के उभार के नीचे ( 3 चित्र 7 ) (Cross) उन चोटों के द्योतक होते हैं जो कि अचानक गिर जाने से जैसे कि मनुष्य ऊपर से गिरने में उसका सिर टकरा जायें तथा दिमाग के (Concussion) सदमे से लगती हैं। बुध के उभार के नीचे (4 चित्र 7 ) (Crosses ) उन चोटों को दर्शाते है जो कुछ विज्ञान सम्बन्धी तजुबों या कुछ साहस या जोखिम का काम करते हुए सिर में लग जाती हैं। छोटे सुन्दर चतुर्भज रेखा को छूते हुऐ हों तो वे सब दशाओं में (Preservation) रक्षा के चिह्न और वे हर एक उभार की अपनी विशेषताओं से सम्बन्ध रखते हैं (उभार के परिच्छेद को देखें) । Page #1205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२५ कर हस्त रेखा झान दिमाग या मस्तिष्क की दोहरी रेखा मस्तिष्क की दोहरी रेखा (6-6 चित्र 7) उतनी ही कमी से पाई जाती हैं जितनी की एक रेखा सीधी हथेली के इस पार से उस पार को पाई जाती हैं। मक:- श्री सागर महाराज चित्र संख्या 7 सब दशाओं में जब कि मस्तिष्क रेखा साफ तथा स्पष्ट रूप से दोहरी खींची हो तो मनुष्य दो मानसिक प्रवृत्तियाँ रखता है। वह मानसिक शक्ति के बहुत बड़े कार्य कर सकता हैं तथा उस श्रेणी का मनुष्य होता हैं जो की सरलता के साथ दो मानसिक प्रवृत्तियों को काम में ला सकते है। इसकी अक्सर एक रेखा जीवन रेखा से मिली होती है, तथा दूसरी वृहस्पति के उभार से आरम्भ होती है यदि Page #1206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२६ भद्रबाहु संहिता ऐसी दशा है तो स्वभाव की एक दशा आदि भावुक तथा चिन्तनशील होती हैं जबकि दूसरी दशा में अपने मानसिक विचारों की सारी दुनियाँ के ऊपर प्रभाव डालने या शासन करने की इच्छा का अपने में पूर्ण विश्वास रखती हैं। यद्यपि यह दोहरी मस्तिष्क रेखा एक हद दर्जे की मानसिक शक्ति प्रदान करती है। वह भी मैंने इस रेखा को दोहरी रेखा की अपेक्षा एक अकेली सीधी रेखा में अधिक पाया है। दोहरी मस्तिष्क रेखा की दूसरी दशा में वह (Main line) विशेष रेखा बीच हथेली से अलग होती प्रतीत होती है। और जब कि एक शाखा सीधी हाथ के बीच में चली जावे तथा दूसरी शाखा नीचे चन्द्रमा के उभार की ओर को झुक जावे तो इस दशा में दोहरी मानसिक प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं। लेकिन एक मनुष्य की इच्छा अंकुश में अधिक रहती है। जबकि दो साफ बिल्कुल पृथक्-पृथक् रेखायें दो मानसिक प्रवृत्तियाँ रखती हैं। और दो ही एक-दूसरे से अनाश्रित चलती हैं। प्राचीन काल में भी यह सोचा गया है कि दोहरी, बिल्कुल साफ दो रेखाओं में मस्तिष्क रेखा बहुत बड़े धन तथा शक्ति के रखने का ( Inlieutance) चिह्न है । जहाँ तक मैने ढूंढा यही अर्थ पाया कि यद्यपि उस मनुष्य के जीवन का आर्थिक फल या तो बहुत धन या शक्ति हो तो भी वह उसे अपने मानसिक अधिकार को पाता है न कि जन्म अधिकार से | मस्तिष्क रेखा सात प्रकार के हाथों पर सात प्रकार के हाथों में हर एक सातों प्रकार की जातियों में से किसी न किसी से अपने ही ढंग से मिलते हैं। सात प्रकार के हाथ 1. निम्न श्रेणी का, सीधा-सीधा (Elementry ) 2. चौकोर, लाभदायक या अभ्यासी । 3. कार्यशील या मल्हम लगाने के औजार के समान । 4. दार्शनिक । 5. नुकीला या कलात्मक । Page #1207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! i 1 १०२७ कर हस्त रेखा ज्ञान 6. आदर्शात्मक या भला चंगा । 7. मिला हुआ सब प्रकार का । प्रायः मस्तिष्क रेखा के गुण हाथ की बनावट पर निर्भर हैं जैसे-यदि यह चौकोर या अभ्यास हाथ पर सीधी पड़ी हो या झुकी हुई हो तो वह दार्शनिक, नुकीला या आदर्शात्मक हाथ पर अधिक विचारात्मक प्रकृति प्रकट करती हैं। साथ ही यदि वह अपनी किस्म से विपरीत हाथ पर पाई जावे तो वह कोई गूढ़ अर्थ रखती है । उदाहरणार्थ – यदि मानसिकता की झुकी हुई रेखा चौकोर अथवा अभ्यासी हाथ पर दिखाई पड़े तो यद्यपि उस मनुष्य के विचार तथा कार्यों की नींव अभ्यास पर होगी तथापि वे अधिक विचारात्मक होंगे वनस्थित किसी वैसे ही देखने वालो के बताने से । दूसरी ओर यदि रेखा दार्शनिक, नुकीले आदर्शात्मक या कार्यशील हाथ पर सीधी पड़ी हो तो वह मनुष्य बहुत अभ्यासी प्रकृति का होता है यहाँ तक कि वह अपने दार्शनिक तथा आदर्श के बाहरी विचारों में भी अभ्यास का प्रयोग करता हैं। सीधे सादे हाथ पर यह रेखा बहुत छोटी सीधी तथा भद्दी हो तो वह मनुष्य अक्सर छोटी गहरी (Furrow) हल्की प्रकृति का पाया जाता है। यदि यह लम्बी और स्पष्ट है तो कुछ रूखे जंगलीपन के स्वभाव में कुछ मानसिक उन्नति करता है। यदि चौकोर हाथ पर यह रेखा सीधी या लम्बी के स्थान पर झुकी हुई हो तो वह कलात्मक तथा विचारात्मक प्रकृति की नवीन उन्नति की द्योतक है लेकिन सदा उसके लिए अभ्यास तथा तर्क की प्रकृति उसको सहारा देने के लिये होती है। Page #1208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १०२८ मल्हम लगाने का औजार (Spatulate) हाथ पर यदि साथ झुकी हुई तथा लम्बी के स्थान पर सीधी हो तो उसका दिमाग कार्यशील शक्ति को लेने के लिये आभ्यासिक उन्नति करता है। तमा और वास्तविकता झाथ की बनावट के विषयों के गुणों से प्रकट हैं। दार्शनिक हाथ पर यदि लम्बी तथा झुकी के स्थान पर सीधी हो तो वह तर्क तथा आभ्यासिक प्रवृत्तियों में मानसिक उन्नति करता है जिसकी कि ऐसे हाथों में आशा की जाती है। ___ यही कायदा नुकीले तथा (Psychic) भले चंगे हाथों के विषय में ठीक है किन्तु मिले हुए हाथ में सब से अच्छी रेखा लम्बी सीधी सतह पर की होती है क्योंकि वह श्रेणी हर प्रकार का मिश्रण होने के कारण, अभ्यासी या उभरी हुई मानसिकता अपनी प्रवृत्ति को अन्य प्रवृत्तियाँ, जो कि इस प्रकार के हाथ से प्रकट हैं निकालने के लिए चाहती है। स्वास्थ्य रेखा यह स्वास्थ्य-रेखा कहाँ पर होनी चाहिए इस विषय में बहुत मतभेद हैं (1 चित्र 19) मेरे अनुभव से तो यह रेखा बुध के उभार के नीचे या उसमें से निकलती हैं और वह सीधी हथेली को पार करके जीवन-रेखा से मिलती हैं तो वह बीमारी बतलाती हैं किन्तु उस वर्ष जबकि यह स्वास्थ्य-रेखा जीवन-रेखा से मिलती है तो बीमारी हद दर्जे तक पहुँच जायेगी। यह याद रखना चाहिए कि जीवन रेखा जिस प्रकार का जीवन वह मनुष्य व्यतीत करता हैं, बतलाती हैं जहाँ कि ये दोनों रेखायें पास मिल जाती हैं और यदि वह मनुष्य दूसरी के ही बराबर शक्ति रखती है तो वह स्थान मृत्यु का वर्ष बतावेगी यद्यपि जीवन-रेखा इस स्थान से गुजरती हुई आगे निकल जाती हैं (2 चित्र 19) बुध की रेखा या स्वास्थ्य रेखा दिमाग से सम्बन्ध रखती हैं इसलिए यह बतलाती है कि यद्यपि बाल्यावस्था में ही सब कुछ जानता हुआ भी आया चैतन्य दिमाग भी (Nervous system......) में रोकने की शक्ति से अनभिज्ञ रहता है वह जनता है कि कितनी देर तक यह शक्ति Page #1209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२९ कर हस्त रेखा ज्ञान रहेगी कब वह समाप्त होगी और फलस्वरूप बहुत वर्ष पहले ही हाथ पर निशान आ जाते हैं स्वास्थ्य रेखा सबसे अधिक परिवर्तनशील हैं यह जीवन के उतार-चढ़ाव का मापक यन्त्र हैं मैंने यह विचित्र रेखा जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में गहरी तथा मजबूत देखी है किन्तु जैसे-जैसे स्वास्थ्य अच्छा होता जाता हैं कि यह रेखा जैसे-जैसे स्वास्थ्य सुधरता रहता है या जब वह मनुष्य अपनी मानसिक शक्तियों से बहुत अधिक कार्य करता हैं तो गहरी तथा स्पष्ट हो जाती हैं इस लाइन का कम होना ही अच्छा हैं इसका न होना मजबूत गठन शरीर संचालन की अच्छी दशा (Good Nervous System) बतलाती हैं यदि यह हृदय रेखा से एक शाखा के समान निकले दिर्शक आचार्य श्री सुविधिसा ज W चित्र संख्या - 19 भागा चित्र संख्या- 19 भाग 2 Page #1210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रगहु संहिता तो और विशेषकर यदि ये दोनों रेखायें चौड़ी हों और स्वास्थ्य-रेखा हथेली के नीचे जीवन-रेखा से मिली हो तो यह दिल की बीमारी अथवा दुर्बलता का निश्चयात्मक चिह्न हैं विद्यार्थी को सदा नाखूनों को ध्यान पूर्वक देखना चाहिए। जबकि वह स्वास्थ्य-रेखा से बताई जाने वाली बीमारियों पर ध्यान देवे। हाथ में स्वास्थ्य-रेखा से बताई जाने वाली बीमारियों पर ध्यान देवे। हाथ में स्वास्थ्य-रेखा का सबसे अच्छा स्थान हथेली के नीचे है और जीवन-रेखा न हो तो छूनी चाहिए न उस तक पहुँचे ही (3-3 चित्र 19) जब स्वास्थ्य रेखा हाथ के आर-पार जाती हो और जीवन-रेखा को छूती हो या उस पर शाखाएँ जाती हों तो जो काम स्वास्थ्य को खराब करता हैं उससे कुछ बीमारी होगी जबकि अंगुलियों के नाखून छोटे तथा चन्द्रा के बिना हों और गोल हों तथा स्वास्थ्य-रेखा गहरी पड़ी हो तो उस मनुष्य के दिल की दुर्बलता अवश्य डर जायेगी। जब नाखून लम्बे तथा बादाम की शक्ल के हों तो वहाँ पर फेफड़ों की कमजोरी का डर है उसी शक्ल के नाखूनों के साथ यदि स्वास्थ्य-रेखा के व ऊपरी भाग पर द्वीप हों (4 चित्र 19) तो तपेदिक अवश्य होगी जब नाखून चपटें हों और विशेषकर गोले की शक्ल के हों और स्वास्थ्य-रेखा बहुत गहरी बनी हो तो फालिज तथा बहुत बुरी (Heroe) दिल की बीमारियाँ हो जाती हैं। जब रेखा कहीं-कहीं बहुत लाल हो और विशेष कर जब कि यह रेखा दबी हो तो भय का बुखार रहता हैं। जब मुड़ी हुई एक-सी न हो और पीले रंग की हो तो उस मनुष्य को जिगर की शिकायत रहती हैं। जब यह दिल तथा मस्तिष्क रेखा की छूती हो और बहुत ही गहरी हो तो यह दिमाग का बुखार बताते हैं विशेषकर तब जब मस्तिष्क रेखा पर कोई द्वीप भी हो। स्वास्थ्य रेखा को देखते समय विद्यार्थी को और बाकी रेखाओं को भी देखना चाहिए और विशेषकर जीवन तथा मस्तिष्क रेखा को अवश्य देखना चाहिए। उदाहरणार्थ यदि जीवन रेखा कमजोर तथा जंजीरदार हैं तो स्वास्थ्य-रेखा का होना दुर्बल स्वास्थ्य का होना और भी बढ़ा देगी और जब यह मस्तिष्क रेखा के साथ हो और मस्तिष्क रेखा जंजीरदार तथा द्वीपों से भरी हो तो वह मनुष्य दिमाग की बीमारी तथा सिरदर्द का रोगी Page #1211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३१ कर हस्त रेखा ज्ञान होता हैं। इस रेखा के अध्ययन से बुरे स्वास्थ्य के आने की बहुमूल्य सूचना मिलती हैं यह एक प्रश्न है कि वह मनुष्य गत सूचनाओं को मानेगे तो और जो कुछ होने को होगा, अवश्य ही होगा। भाग्य हमारे रास्ते में बहुत सी सूचनायें देता हैं किन्तु मनुष्य या तो इतने अन्धे होते हैं या इतने अपने ही में सीमित होते हैं कि जब तक बहुत देर न हो वे देखते ही नहीं। अंगुठा व मणिबन्ध का फल अंगुट्ठयस्स मूले या तिपरिखिता समे जवे जस्स। सो होइ धणाइण्णो खत्तियपुण पत्थिओ होइ ।। 26 ॥ (जस्स) जिस मनुष्य के (अंगुठ्ठयस्स मूले या तिपरिखित्ता समे जवे) अंगूठे के मूल में तीन यवमाला हो तो (सो होइ धणाइण्णो) वह मनुष्य धनवान होता है (खत्तियपुणपत्थिओहोइ) और अगर वह क्षत्रिय हो तो राजा बनता है। भावार्थ-जिस मनुष्य के अंगूठे के मूल में यवमाला हो और वह भी तीन हों तो ऐसा मनुष्य धनवान होता है। और अगर क्षत्रिय हो तो राजा होता है।। 26 ।। दुप्परिक्खिताइपुणोणर वइ समयुज्जि ओणरो होइ। एगपरिक्खिताए जवमालाए धणेसरो होइ।।27।। (दुप्परिक्खित्ताइपुणो) पुन: दो यवमाला की रेखा हो तो ऐसा मनुष्य (णरवइसमयुज्जि ओणरो होइ) सैंकड़ो राजाओं से पूज्य होता है (एगपरिक्खिताए) यदि एक (जवमालाए) यवमाला की धारा हो तो (धणेसरो होइ) वह मनुष्य धनेश्वर होता है। भावार्थ-अंगूठे के नीचे यदि दो यवमाला की धारा हो तो वह सैंकड़ों राजाओं से पूज्य होता है। और अगर एक ही यवमाला हो तो वह धनेश्वर बनता है।। 27॥ Page #1212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता अंगुट्टयस्स मूले जत्ति अमिताऊ थूलरेहाओ। ते हुंति भाविआकिर तणुआहिँ होति बहिणीओ ॥28॥ (अंगुठ्ठयस्समूले) अंगूठे के मूल में (जत्ति अमिताऊ घूलरेहाओ) जिसरी स्थूल रेखा हो (ते हुंति भाविआकिर) उतने ही उस मनुष्य के भाई होते हैं (तणुअहिं होतिबहिणीओ) और जितनी सूक्ष्म रेखा हो उतनी ही उसकी बहिनें होती है। भावार्थ-अंगूठे के मूल में जितनी स्थूल रेखा होती है। उतने ही उस मनुष्य के भाई होते हैं। और जितनी सूक्ष्म रेखा हो तो उसकी उतनी ही बहनें होती है।। 28 ॥ पुत्र पुत्रियों की रेखा अंगुट्टयस्स हिढे रेहाओ जस्स जत्तिआ हंति। तत्ति अमित्ता पुत्ता तणु आहिं दारिया हुंति ।। 29॥ (अंगुद्वयस्स हिढे) अंगूठे के नीचे (जस्स जत्तिआ हुंति) जिस के जितनी रेखा मोटी हो (तत्ति अमित्तापुत्रा) उतने ही उसके पुत्र होते हैं (तणु आहिं दारिया हुंति) अगर वही रेखा सूक्ष्म हो तो उतनी ही उसकी पुत्रियों होती है। भावार्थ-अंगूठे के नीचे जिसके जितनी मोटी रेखा हो उतने ही उसके पुत्र होते हैं। और जितनी छोटी रेखा हो उतनी ही उसकी पुत्रियाँ होती है।। 29 ॥ जत्तियभित्ता छिण्णाभिण्णा ते दारिआ मुआ जाण। अच्छिण्णा अन्भिण्णा जीवंति अतत्तिआतणुआ। 30 ।। (जत्तियमित्ताछिण्णाभिण्णा) जितनी रेखा छिन्न-भिन्न हो (ते दारिआ मुआजाण) उतनी ही उसकी सन्तान मरी हुई जानो, (अच्छिण्णा अन्भिण्णा) और जितनी अखण्ड हो (जीवंति अतत्ति आतणुआ) उतनी ही जीवित जानो। भावार्थ-जितनी रेखा उसमें छिन्न-भिन्न हो उतनी ही सन्तान मरी हुई जानो। और जितनी अखण्ड हो उतनी ही जीवित जानो।। 30 ।। Page #1213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १०३३ अंगुइयस्स हिडे दरस व खाणं कर हस्त रेखा ज्ञान अखंडे समफले जवे जस्स । मल्लं सव्वत्थ संपयडड़ || 31 | (जस्स) जिसके (अंगुष्ठयस्स हिडे) अंगूठे के नीचे (अखंडे) खण्ड (समफले जवे) सम फलयव वाला हो तो ( तस्सम) उसके ( खाणंपाणं मल्लं) खान-पान और माला (सव्वत्थ संपयडइ) आदि से सम्मान प्राप्त होता है । भावार्थ — जिसके अंगूठे के नीचे अखण्ड सम फल वाला यव हो तो समझो ऐसे मनुष्य को सर्वत्र खान, पान, माला आदि से सम्मान प्राप्त होता है ।। 31 ।। अंगुट्टयस्स मज्झे केदारं जवहवियज्ज पुरिसस्स । सो होइ सुक्खभागी पावड़ पुणखत्तिओ रज्जं ॥ 32 ॥ (अंगुट्ठयस्स मज्झे) अंगूठे के मध्य यदि (केदारं जइ हविज्ज पुरिसस्स) केदार पुरुष हो तो ( सो होइ सुक्ख भागी) वह सुख का भागी होता है (खत्तिओ पुण पावइ रज्ज) अगर वह क्षत्रिय हो तो राज्य को पाता है। भावार्थ- अंगूठे के मध्य यदि केदार हो तो उस पुरुष को सुख की प्राप्ति होती है, और अगर वह क्षत्रिय हो तो राज्य को प्राप्त करता है । 32 ॥ केआर मइगयाओ रेहाओ जत्ति आउ दीसंति । तित्ताइ बंधणाई पावइ अत्थक्यंपुरिस || 33 1 (केआर मइगयाओ रेहाओ ) यदि केदार को रेखा (जत्ति आउ दीसंति) जितनी काटे (तित्ताइ बंधणाई पावर) उतनी ही बार वह व्यक्ति जेल के बन्धन में पड़ता है (अत्थक्खयंपुरिसो) और उतने ही बार धन क्षय को प्राप्त होता है। भावार्थ - यदि केदार को जितनी रेखा काटती है। उतने ही बार वह पुरुष जेल में जाता है। और उतने ही बार वह धन क्षय को प्राप्त होता है | 3311 अंगुझ्यस्स मूले कागपयं होइ जस्सपुरिसस्स । सो पच्छिमम्मि काले सूलेणविवज्जए पुरिसो ॥ 34 ॥ (जस्सपुरिसस्स) जिस पुरुष के हाथ में (अंगुहयस्स मूले कागपर्य होइ) अंगूठे Page #1214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | - के नीचे काग पद होता है तो (सो) वह (पुरिसो) पुरुष (पच्छिमम्मि काले) बुढ़ापे में (सूलेणविवज्जए) शूली दण्ड पाकर मरता है। भावार्थ-जिस मनुष्य के अंगूठे के नीचे यदि काग पद हो तो वह पश्चिम काल में अर्थात् बुढ़ापा आने पर शूलारोहण (शूली दण्ड) के द्वारा मारा जाता है॥34॥ दाहिणहत्थंगुट्ठयमझेअ जवेण जाणदिण जायं। वार्मगुट्ठ जवेणं णूणं जाणिज्जणिसि जायं ।। 35 ।। (दाहिणहत्थंगुट्ठयमझेअ) यदि दाहिने हाथ के अंगूठे में (जवेण) यव हो तो (जाणदिण जाय) ऐसा समझो कि उस व्यक्ति का जन्म दिन हुआ है (वामंगुट्ठ जवेणं णूण) अगर वही यव वाम अंगूठे में हो तो (णिसि जायं जाणिज्ज) रात्रि में उसका जन्म हुआ समझो। भावार्थ----जिस मनुष्य के हाथ के दाहिने अंगूठे में यव हो तो उसका जन्म दिन में हुआ है, ऐसा समझो। और वाम अंगूठे में यव हो तो उसका जन्म रात्रि में हुआ है। 35 ।। कनिष्ठि का अंगुली के नीचे की रेखा फल काणंगुलीइ हिढे रेहाओ जस्स जत्तिआ हुति। तत्तियमितामहिलामहिलाण वि तत्तिआ पुरिसा ॥ 36॥ (जस्स) जिसके (काणंगुलीइ हिडे) कनिष्ठिका अंगुली के नीचे (जत्तिआ रेहाओ हुंति) जितनी रेखा हो (तत्तिय मितामहिला) तो उसके उतनी ही स्त्रियाँ होती (महिलाणवि तत्तिआ पुरिसो) तथा स्त्रियों के अगर ऐसा हो तो उसके भी उतने ही पति होते हैं। भावार्थ-जिस मनुष्य की कनिष्ठिका अंगुली के नीचे जितनी रेखा हो तो उसके उतनी ही स्त्रियाँ होती है, और यदि महिला के ऐसा हो तो उसके भी उतने ही पति होते हैं।। 36 ।। Page #1215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३५ कर इस्त रेखा ज्ञान दीहाहि कोमारीधरिया फलिआहि तो विआणिज्जा। सुण्णाहि असोहगं पुडिआहिं विइ हवे जाण ॥ 37॥ (दीहाहि कोमारीधरिया) यदि ये रेखा दीर्घ हो तो कुमारी पाणिग्रहण होता है (फलिआहि तो विआणिज्जा) ऐसा फलित होता है, आप जानो (सुण्णाहिअसोहागं) यदि शून्य हो तो असौभाग्य जानो, (फुडिआहिं विइ हवे जाण) ये रेखा फूटी हुई हो तो वह व्रती बन जाता है। भावार्थयदि ये रेखा दीर्घ हो तो उसकी कुमार अवस्था में ही शादी होती है। शून्य हो तो सौभाग्यहीन, फुटी हुई हो तो समझो वह स्त्रीव्रती बन जायगी अर्थात् उसका विवाह नहीं होगा। 37 ।। काणंगुलिमूलोवारि रेहाओ 'जस्स तिण्णि चत्तारि। सो होड़ पुण्णभागी रायाईणं पिणमणिज्जो॥38॥ (जस्स) जिसके (काणंगुलिमूलोवारि) कनिष्ठा अंगुली के मूल में (तिणि चत्तारि रेहाओ) तीन या चार रेखा हो तो (सो होइ पुण्णभागी) वह बड़ा ही पुण्यवान होता है (गयाईणं पिणमणिज्जो) और ऐसा मनुष्य राजा के द्वारा पूज्य होता है। भावार्थ-जिस मनुष्य की कनिष्ठा अंगुली के नीचे तीन या चार रेखाएं हो तो वह मनुष्य बड़ा ही पुण्यवान होता है। और वह राजा के द्वारा पूजा जाता है।। 38 || जई ताउ दाहिणकरे आमूलाओ वि होई जणपुज्जो। अह वामे तो पच्छा सव्वेसि सेवणिज्जइयो । 39॥ (जइ ताउ दाहिणकरे) यदि यह रेखाएँ दाहिने हाथ में हो तो (आमूलाओ विहोइ जणपूज्जो) प्रारम्भ से ही उस मनुष्य की पूजा होती है (अहवामे तो पच्छा) यदि ये रेखा वाम हाथ में हो तो बुढ़ापे में (सव्वेसि सेवणिज्जइयो) सबके द्वारा पूजा जाता है। भावार्थ-यदि यह रेखा जिसके भी दाहिने हाथ की कनिष्ठा के मूल में Page #1216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १०३६ हो तो उसकी प्रारम्भ से ही सब लोग पूजा करते हैं। अगर वाम हाथ में हो तो बुढ़ापे में सब उसकी पूजा करते हैं। 39॥ सत रेखा का फल जिट्ठा अणामिआर्ण मज्झओ णिग्गयाउ वयरेहा। तम्मूले जाओ पुण ताओ इह धम्मरेहाओ॥ 40॥ (जिट्ठा अणामिआणंमज्झओ) ज्येष्ठा और अनामिका के मध्य से (णिग्गयाउ वयरेहा) निकलने वाली व्रत रेखा होती है। (तम्मूले जाओ पुण) उसके मूल से जो प्रकट होती है (ताओ इह धम्मरेहाओ) उसे धर्म रेखा कहते हैं। भावार्थ-मध्यमा और अनामिका के मध्य से निकलने वाली रेखा को बुध रेखा कहते हैं। और उसके नीचे से निकलने वाली रेखा को धर्म रेखा कहते हैं। 40 ।। खोज करने वाली रेखा तासुवरि तिरित्था जा सा पुण मग्गत्तणे भवे रेहा। अप्फुडिआपल्लवदीहराहिं सो चैव तत्थ घिरो॥4॥ (तासुवरि तिरित्था) उसके ऊपर की रेखा यदि तिरछी हो तो (जा सा पुण मग्यत्तणे भवे रेहा) वह रेखा विशेष पदार्थों की खोज करने वाली रेखा होती है (अप्फुडिआपल्लवदीहराहिं) अगर वह रेखा अस्फुटित हो, अपल्लवित हो और दीर्घ हो तो (सो चैव तत्थ घिरो) उसको अपने कार्य में स्थिर जानो।। भावार्थ-धर्म रेखा से निकलने वाली रेखा यदि तिरछी हो तो उसकी वह रेखा (मार्गण) विशेष खोज पूर्ण दृष्टि वाली रेखा होती है और वह मार्गण रेखा, फूटी हुई न हो, अपल्लवित हो और दीर्घ हो तो ऐसा मनुष्य खोजपूर्ण कार्य में स्थिर रहने वाला होता है ।। 411। कुलरेहाए उरि मूलम्भि पएसिणीइ जा रहा। गुरुदेव समरणं तस्स सा वि णिद्देसइ पुरिसस्स ।। 42॥ Page #1217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३७ कर हस्त रेखा झार (कुलरेहाए उवार मूलम्मि) यदि कुल रेखा के ऊपर (पएसिणीइ जा रेहा) प्रदेशिनी के मूल में रेखा हो तो (गुरु देव समरणं) गुरु देव का स्मरण (तस्स सा वि णिद्देसइपुरिसस्स) और देवता का स्मरण होता रहेगा, ऐसा निर्देश किया गया भावार्थ- यदि कुल रेखा के ऊपर प्रदेशिनी के मूल में रेखा हो तो वह रेखा गुरु व देव का स्मरण कराती रहती है। अर्थात् वह देव गुरु का परम भक्त होता है।। 4211 अंगुली अंगूठे के ऊपर भौरी का फल अंगुलिअंगुठुरि हवंति भमराउ दाहिणावत्ता। धणभागी जगपुज्जो धम्ममई बुद्धिमतो अ॥ 43॥ (अंगुलिअंगुट्टवरि) अंगुली और अंगूठे के ऊपर (दाहिणावत्ता भमराउ हवंति) दाहिनी की भौरी घुमती हुई हो तो (धण भागी जगपुज्जो) वह पुरुष धन का भोग करने वाला, जगत्पूज्य (धम्ममई बुद्धिमंतोअ) धर्म में बुद्धि रखने वाला होता है। भावार्थ-अंगूली और अंगूठे के ऊपर यदि दाहिनी ओर घुमाव लेकर भौरी होती है। तो वह पुरुष धन का भोग करने वाला जगत्पूज्य व धर्म में बुद्धि रखने वाला होता है। अर्थात् धर्मात्मा होता है। 43 ।। पावड़ पच्छा सुक्खं पच्छिममुहसंठिए सुणह संख्ने । अब्भंराणणे पुण होहीसि णिरंतरं सोक्खं॥4॥ (पच्छिममुहसंठिए सुणह संखे) यदि अंगुलियों के ऊपर पच्छिमाभिमुख किये हुए शंख हो तो (पावइ पच्छा सुक्खं) ऐसा व्यक्ति बुढ़ापे में सुख पाता है (अब्भंतराणणे पुण) अगर वहीं शंख अभ्यंन्तर मुख को लिये हुए हो तो (णिरंतरं सोखं होहीसि) ऐसा पुरुष निरन्तर सुख को पाता है। भावार्थ-यदि अंगुलियों के ऊपर पश्चिमाभिमुख शंख हो तो ऐसा मनुष्य बुढ़ापे में सुख को पाता है। यदि वहीं शंख अभ्यन्तर की ओर मुख किये हुए हो तो वह मनुष्य निरन्तर सुख को पाता है। 44 || Page #1218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता नखों के फल मज्झुण्णया य सोणा अप्फुडिया जस्स हुँति करणहरा। सो राया धणवंतो विजाहिवई पसिद्धो अ॥45॥ (जस्स) जिसके (करणहरा) हाथ के नाखून (मज्झुण्णया य सोणा अप्फुडिया) मध्यमें उठे हुए हो और लाल हो टूटे-फूटे न हो तो (सो) वह मनुष्य (राया धणवंतो) राजा व धनवान होता है (विज्जाहिवई पसिद्धो अ) विद्यावान प्रसिद्ध होता है। भावार्थ-जिसके हाथ की अंगुलियों के नाखून बीच में उठे हुऐ हों । लाल हो टूटे-फूटे न हो तो ऐसा मनुष्य राजा व धनवान होता है। विद्यावान प्रसिद्ध होता है। 45। तराह मिहिर का मत ऐसा कहता है! कि यदि नाखून तुष के समान रेखा युक्त हो और रूखे हो तो वह व्यक्ति नपुंसक होता है। और चपटे और फटे हुऐ नाखून धनहीन व्यक्ति के होते हैं। बुरे व वर्ण रहित नाखून परामुखापेक्षी होता है। जिनके ताम्रवर्ण के रंग वाले नाखून हो तो समझो वह सेनापति होता है। मत्स्यादि का फल बाहिरमुहसंठाणे मच्छपये मीन से फलं होइ। अभंतराणणे पुण होहत्ति णिरंतरं सुक्खं ॥ 46।। (बाहिर मुहसंठाणे मच्छपये) यदि बाहर मुख किये हुऐ हाथ में मच्छ हो तो (मीन से फलं होइ) बुढ़ापे में उसका फल होता है (अभंतराणणे पुण) यदि अभ्यंतर की ओर मुख किए हुए मच्छ हो समझो (णिरत्तरं सुक्ख होहत्ति) वह उसको निरन्तर सुखी रहता है। भावार्थ-यदि बाहर मुख किये हुए हाथ में मच्छ हो तो समझो बुढ़ापे में सुख प्रदान करता है। और अन्दर की ओर मुख किये हुए मच्छ हो तो समझो उसको निरंतर सुख प्राप्त कराता है।। 46॥ Page #1219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३९ कर हस्त रेखा ज्ञान वर पउम संखसत्तिय भद्दा सणकुंकुसहिथ भय कुंभं। वसह गय छत्त चामर दीसहइ वज्जं च मगरं॥47॥ (वर) श्रेष्ठ (पउमसंख सन्तिय) पद्य, शंख, स्वस्तिक (भद्दासण कुंकुमत्थि भय कुंभ) भद्रासन, कुंकुं जलकाकुंभ (वसह गय छत्त चामर) बैल, हाथी, छत्र, चामर (वज्ज च मगरं च) वज्र, मगर, जिसके हाथों से (दीसहइ) दिखे और ! भावार्थ-जिसके भी हाथों में कमल, शंख स्वस्तिक भद्रासन, कुंकुं जल का कुंम्भ बैल हाथी, छत्र चामर, वज्र, मगर दिखे और47॥ * * Hickr THE STAR THE ISLAND BE TRIANGLE kxxx op THE CROSS THE SPOT THE GRILE THE SQUARE THE CIRCLE तोरण - विमाण केऊ जस्सेए होंति करयले पयडा। तस्स पुण रज्जलाहो होही अचिरेण कालेण ॥ 48॥ (तोरण विमाण केऊ) तोरण, विमान, केतु (जस्सेए होति करयले पयडा) जिसके भी हाथ में प्रकट दिखे तो (तस्सपुण रज्जलाहो) उसकोपुनः राज्य का लाभ होता है (अचिरेण कालेण होही) वह भी शीघ्र ही । Page #1220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता , १०४० भावार्थ-तोरण, विमाग, केतु ये सब जिसके भी हाथों में दिखे तो समझो ऐसे मनुष्य को शीघ्र ही राज्यलाभ होने वाला है। ४८॥ मच्छेण अण्णपाणं कुंते सोभग्गभोयलाहं च। दामेण जुअवलई सिंह सेणाधई हो ॥ ४ ॥ (मच्छेण अण्णपाणं) अगर में मच्छ हो तो अन्न पान बहुत मिलता है (कुंते सोभाग्ग भोयलाहं च) भाला हो तो सौभाग्य और भोग लाभ होता है (दामेण जुअलई) माला हो तो बहुत बल प्राप्त होता है (सिंहे सेणावई होइ) सिंह हो तो सेनापति पद प्राप्त होता है। भावार्थ-अगर मनुष्य के हाथों में मच्छ हो तो अन्न पान का बहुत लाभ होता है। भाला हो तो सौभाग्य व भोग पदार्थ मिलते हैं । माला हो तो बहुत शक्तिशाली होता हैं, सिंह हो तो सेनापति पद मिलता है॥४९॥ होइ धणं धाणं व अआणं वसहे विसत्थए सुक्खं। चक्केण होइ वरसर सरवत्थे इच्छिया भोया॥५०॥ (वसहे) बैल के होने पर (धणं धाणं व अआणं होइ) धन-धान्य की प्राप्ति व आज्ञा देने का काम मिलता है (विसत्थए सुक्खं) स्वस्तिक के होने पर सुख की प्राप्ति होती है, (चक्केण होइ वरसर) चक्र हाथ में होने पर उत्तम लक्ष्मी की प्राप्ति होती है (सरवत्थे इच्छिया भोया) श्रीवत्स के होने पर इच्छित भोग की प्राप्ति होती है। भावार्थ-मनुष्य के हाथों में बैल हो तो धन-धान्य की प्राप्ति होती है, आज्ञा ऐश्वर्य का सुख मिलता है स्वस्तिक के होने पर सुख की प्राप्ति होती है। चक्र के होने पर उत्तम लक्ष्मी मिलती है, श्री वत्स के होने पर इच्छित भोग प्राप्त होते हैं। इन चिह्नों के बारे में वाराहमिहिर ऐसा कहते हैं। कि वज्राकार रेखा हो तो मनुष्य को धनी बनाती है, मीन पूंछ से विद्यावान, शंख, छत्र, पालकी, हाथी, Page #1221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४१ कर हस्त रेखा शान अश्व, कमल आदि से राणा बनता है। जलपा, पणाट, पत्ताका अंकुश हो तो ऐश्वर्यवान होता है। चक्र, तलवार, परशु, तोमर, शक्ति, धनुष, भाला हो तो सेनापति होता है। ऊखला हो तो हवन करने वाला होत्रा होता है। मकर, ध्वजा, कोष्ठागार हो तो महाधनवान् होता है। वेदी हो तो अग्निहोत्रा होता है। वापी, देवकुलादि त्रिकोण हो तो धर्मवान होता है। .. रज्जाभिसे अपर्ट पावइ भद्दासणं भवेजस्स। पावइ अणंत सोक्खं गयचामर वज्जछत्तेहिं ॥५१॥ (जस्स) जिसके भी हाथों में (भद्दासणं भवे) भद्रासन हो तो (रज्जाभिसे अपट्टे पावइ) राज्याभिषेक पद को पाता है (गयचामर वज्जछत्तेहिं) हाथी चामर, वज्र, छत्र अगर हो तो (अणंत सोक्खं पावइ) अनन्त सुख को पाता है। भावार्थ-जिसके भी हार्थों में भद्रासन हो तो राज्याभिषेक पद को पाता है। हाथी, चामर, वज्र, छत्र हो तो अनन्त सुख को पाता है। मयरेण सहस्स धणं पउमें पुण लक्ख धणवई होई। संखेण दह कोडिवई चक्केणणिहीसरो होइ॥५२॥ (मयरेण सहस्स धणं) अगर मनुष्य के हाथों में मगर हो तो सहस्र धन की प्राप्ति होती है, (पउमें पुण लक्ख धणवई होइ) कमल हो तो लक्षावधि सम्पत्ति मिलती है (संखेण दह कोडिवई) शंख हो तो दस करोड़ का स्वामी बनता हैं (चक्केणणिहीसरो होइ) चक्र हो तो निधियों का स्वामी बन जाता है। भावार्थ-मनुष्य के हाथ में मगर हो तो सहस्र धनी, कमल हो तो लक्षधनी, शंख हो तो दस करोड़ धनी, चक्र हो तो निधिश्वर बन जाता है। कागपयं च सुलिहि करस्स मज्झम्मि दीसए जस्स । खिप्पं सो धणमज्जइ पुणो विणासइ खणे दव्वं ॥५३॥ (जस्स) जिसके (करस्स) हाथ के (मज्झम्मि) मध्य में (कागपयं सुलिहिअं Page #1222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २०४२ दीसए) काग पद स्पष्ट लिखा हुआ नजर आता है (खिप्पं सो धण मज्झइ) वह धन भी शीघ्र कमाता है (पुणो विणासइ खणे दवं) और शीघ्र गमाता भी है। भावार्थ-जिसके हाथ में कागपद स्पष्ट लिखा हुआ दिखे तो ऐसा पुरुष धन शीघ्र कमाता भी है, और गमाता भी है। हुँति धणविहुअधणा बहुरेहा देहि एहिं हत्थेहि। आलिअकरमणुस्ता पीडपरायणा हुंति ॥५४॥ (बहुरेहा देहि एहिं हत्थेहिं) जिसके हाथों में बहुत रेखाएं हो (हुतिधणाविहुअधणा) तो वह धनवान होते हुए भी निर्धन बन जाता है, (आलिअकरामणुस्सा) जिसका हाथ खाली हो, रेखा रहित हो, वह मनुष्य (परपीडपरायणाहुति) पर पीड़ा परायण होता है। भावार्थ-जिसके हाथ में बहुत रेखाएं हो वह व्यक्ति धनवान भी हो तो हुए निर्धन बन जाता है और जिसका हाथ रेखा से रहित हो तो, वह मनुष्य परपीड़ा में परायण होता है। फुडिआपगूढगुप्पा विरलंगुलि विसम पत्वसंपण्णा। णिम्मंसा कठिण तला ए ए परकम्म कराहोंति ॥५५॥ (ए ए) जिसके हाथ (फुडिआपगूढगुप्पा) फैले हुऐ हो फटे हुऐ हो जिनके गुल्म गठे हुऐ हो (विरलंगुलि विसम पत्वसंपण्णा) अंगुलियाँ विरली, और विषम पर्ववाली हो (णिम्मंसा कठिण तला) मांस रहित हो कठोर हाथ हो तो (परकम्म कराहोंति) वह मनुष्य दूसरे की नौकरी करने वाला होता है। भावार्थ-जिसके हाथ फैले हुए हो, फटे हुए हो, गुल्म गठे हुऐ हो, अंगुलियाँ विरल हो विषम पर्व हो मांस रहित हो कठोर हथेली हो तो ऐसा मनुष्य दूसरे की नौकरी करने वाला होता है। Page #1223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४३ कर हस्त रेखा ज्ञान धनादि रेखा का फल सूई अग्गिसिहा वा सत्ति वा सिरी भज्जए जस्स । धणवंस आउरेहं तारिसयं जिद्दिसे तस्स ॥ ५६ ॥ यस्य धर्मवान् (जस्स) जिसके हाथ में ( सूई अग्मिसिहा ) सुई, अग्नि, शिखा ( वा सत्ति वा सिरी भज्जए) या शक्ति अथवा श्री हो तो (तस्य ) उसके ( धणवंस आउरेहं ) धन, वंश, आयु रेखा (तारिसयं णिद्दिसे) उसी के अनुसार फल बताती है। भावार्थ — यदि जिसके हाथ में सुई, अग्नि शिखा या शक्ति अथवा श्री हो तो उसके धन, वंश, आयु रेखा उसके अनुसार ही फल बताती हैं। करसंतले । दृश्यते मीनसमा रेखा भोगवाचैव जायते ॥ बहुपुत्रश्च जिसके हाथ में मछली की रेखा हो वह धर्मनिष्ठ, भोगवान् और अनेक पुत्रों वाला होता है। तुला यस्य तु दीर्घा च करमध्ये च दृश्यते । वाणिज्यं सिध्यते तस्य पुरुषस्य न संशयः ॥ जिसके हाथ में लम्बी तराजू के आकार की रेखा हो वह पुरुष निश्चय ही उत्तम व्यापारी होता है। अंकुशो वाऽथ चक्रं वा पवज्री तथैव च । तिष्ठन्ति हि करे यस्य स नरः पृथिवी - पतिः ॥ जिसके हाथ में अंकुश, चक्र, कमल अथवा वज्र का चिह्न हो वह मनुष्य पृथ्वी का मालिक (राजा) होता है। शक्तितोमर बाणञ्च विज्ञेयो विग्रहे शूरः यस्य करतले शस्त्रविधैव भवेत् । भिद्यते ॥ Page #1224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १०४ शक्ति, तोमर, बाण के चिह्नों से अंकित हाथ वाला पुरुष युद्ध में शूर होता है, वह शख्स विद्या को भेदने वाला होता है। रथो वा यदि वा छत्रं करमध्ये तु दृश्यते। राज्यं च जायते तस्य बलवान् विजयी भवेत् ॥ । जिसके हाथ में रथ, छत्र का चिह्न हो तो वह बलवान् और राज्य का जीतने वाला होता है। वृक्षो वा यदि वा शक्ति: करमध्ये तु दृश्यते। अमात्यः स तु विज्ञेयो राजश्रेष्ठी च जायते॥ जिसके हाथ में वृक्ष या शक्ति का चिह्न हो तो वह मन्त्री और राजा का सेठ होता है। ध्वजं वा ह्यथवा शंखं यस्य हस्ते प्रजायते। तस्य लक्ष्मीः समायाति सामुद्रस्य वचो यथा॥ जिसके हाथ में ध्वज या शंख का चिह्न हो। उसके पास सामुद्रशास्त्र के कथनानुसार लक्ष्मी आती है। धन विषय रेखा फल जिअरेहाउ कुलरेहमागया जस्स होइ अखंडा। रेहा अप्फुडिया से धणवुढी होई परिसस्स ॥५७॥ (जस्स) जिस मनुष्य की (जिअरेहाउ कुलेरहमागया) जीवन रेखा, कुल रेखा से आकर मिल गई हो (अखंडा होइ) और यह रेखा अखण्ड हो (अप्फुडियासेरेहा) फूटी हुई न हो तो (पुरिसस्स) उस पुरुष के (धणबुढी होइ) धन वृद्धि होती है। भावार्थ-जिस मनुष्य की जीवन रेखा कुल रेखा में आकर मिल गई हो, और वह रेखा अखण्ड हो फूटी हुई न हो तो उस मनुष्य को बहुत धन वृद्धि होती Page #1225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४५ कर हस्त रेखा ज्ञान वरपउमपत्तसरिसा अच्छिण्णा मंसला य संपुण्णा। ससणिद्धरत्तरेहा धण कणगपडिच्छिआ हत्था॥५८॥ (य) जिसके हाथ (वरपउमपत्तसरिसा) श्रेष्ठ कमल पत्र के समान कोमल हो, (अच्छिण्णा) छिन न हो (मंसला संपुण्णा) मांसल हो पूर्ण हो (ससणिद्धरत्तरेहा) चिकने व लाल रेखा वाले हो तो (धण कणगपडिच्छिआ हत्था) ऐसे हाथ धन और सोने को ग्रहण करने वाले होते हैं। भावार्थ-जिसके हाथ श्रेष्ठ कमल पत्र के समान कोमल हो छिन्न न हो, मांसल हो पूर्ण हो चिकने हो व लाल रेखा से युक्त हो तो ऐसे हाथ धन और सोने को ग्रहण करने वाले होते हैं। इन चिह्नों के बारे में अन्य जैनाचार्य ऐसा कहते हैं। कोष्ठाकारस्तथा राशिस्तोरणं यस्य दृश्यते। कृषिभोगी भवेत् सोऽयं पुरुषो नात्र संशयः॥ जिसके हाथ में कोले का आकार, राशि, किंवा तोरण (वन्दनवार) का चिह्न हो वह पुरुष निःसन्देह, कृषिजीवी होता हैं। अकुशं कुंडलं चक्रं यस्य पाणितले भवेत्। विरलं मधुरं स्निग्धं तस्य राज्यं विनिर्दिशेत् ॥ जिसकी हथेली में अंकुश, कुण्डल या चक्र हों उसको निराले और उत्तम राज्य का पाने वाला बताना चाहिये। (इति पुरुषलक्षणां नाम द्वितीयं पर्व॥२॥) पूअंतिपाणिरेहा णिद्धा जा होति पउम संकासा। अक्खंडांजलिणिद्धा अच्छिण्णा कोमला जस्स ॥५९।। (पाणिरेहा जा गिद्धा) जिसके हाथ की रेखा (पउम संकासा होति) पद्म के समान होती है (अक्खंडा जलिणिद्धा) अखण्ड होती है, स्निग्ध होती है (अच्छिण्णा Page #1226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता | १०४६ कोमला जस्स) अच्छिन्न होती है कोमल होती है (पूअंति) तो उसके हाथ पूजे जाते हैं। भावार्थ—जिसके हाथ की रेखा कमल के समान कोमल हो, अखण्ड हो, चिकनी हो, स्निग्ध हो, अम्किन और कोपल हो तो ऐसी स्थिति वाला हाथ पूजा जाता है। धर्माचार्य की सूचक रेखा सोहवड़ वायणारी कणिट्टियाहिट्ठि मागया जवा जस्स। उज्झाऊ अणमिआए जिट्टाहिट्ठाय तो सूरी॥६०॥ (जस्स) जिसके (कणिठियाहिहि मागया जवा) कनिष्ठिका अंगुली के नीचे यव निकले हों (सो हवइ वायवारी) वह मनुष्य वाचनाचार्य होता है (अणमिआए उज्झाउ) यदि अनामिका में यव हो तो उपाध्याय बनता है (जिट्टाहिट्ठाय तो सूरी) और ज्येष्ठा में ऐसा यव हो तो वह आचार्य बनता है। भावार्थ---जिस मनुष्य के हाथ में कनिष्ठिका में यव हो तो वह वाचनाचार्य बनता है, अनाभिक में यव हो तो उपाध्याय और ज्येष्ठा में हो तो आचार्य बनता इयकरलक्खणमेयं समासओ दंसिअं जइजणस्स। पुवायरिएहिं णरं परिक्खिऊणं वयं दिज्जा। (इय करलक्खणमेयं) इस प्रकार का करलक्खण (समासओ दंसिअंजइजणस्स) अच्छी तरह से मैंने व्यक्तियों के लिये कहा है (पुव्वापरिएहि) वह भी पूर्वाचार्यों ने जैसा कहा है वैसा ही (णरं परिक्खिऊणं वयं दिज्जा) मनुष्य की परीक्षा करके व्रत देना चाहिये। भावार्थ-इस प्रकार का करलक्खण मैंने पूर्वाचार्यों के अनुसार कहा है सो मुनियों को मनुष्य की परीक्षा करके ब्रत देना चाहिये। Page #1227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४७ | कर हस्त रेखा शाम अब आगे अन्य आचार्य मनुष्य व स्त्रियों के आंगो-पांग का लक्षण व फल कहते हैं। पंचदीर्घ चतुर्हस्वं पंचसूक्ष्म पडुनतम्। सप्तरक्तं त्रिगम्भीरं त्रिविस्तीर्णमुदाहृतम्।। जैसा कि आगे बताया हैं, मनुष्य के पाँच अंगों में दीर्घता (बड़ा होना) चार अंगों में हस्वता (छोटाई) पाँच में सूक्ष्मता (बारीकी) छ: अंर्गों में ऊँचाई, सात में लम्बाई, तीन में गम्भीरता (गहराई) और तीन में विस्तीर्णता (चौड़ाई) प्रशस्त कही गई है। बाहुनेत्रनखाश्चैव कर्णनासास्तथैव च। स्तनयोरुन्नतिश्चैव पंचदीर्घ प्रशस्यते॥ भुजाओं में, नेत्रों में, नखों में कानों में और नाक में दीर्घता होनी चाहिये। स्तनों में दीर्घता के साथ ही साथ कुछ ऊँचाई होनी चाहिये। इन्हीं पाँच अंगों की दीर्घता प्रशस्त बताई गई है। ग्रीवा प्रजननं पृष्ठं ह्रस्वजंघे प्रपूरिते। ह्रस्वानि यस्य चत्वारि पूज्यमाप्नोति नित्यशः ।। गर्दन, प्रजनन पीठ और भरी हुई जंघा ये चार अंग जिसके ह्रस्व (छोटे) होते हैं वह सदा पूजा पाता है। सूक्ष्मान्यंगुलिपर्वाणि दन्तकेशनखत्त्वचः। पञ्च सूक्ष्माणि येषां स्थुस्तेनरा दीर्घजीविनः ।। अंगुलियों के पोर, दाँत, केश, नख और त्वचा (चमड़ा) ये पाँचों जिन पुरुषों के सूक्ष्म (बारीक) होते हैं, वे दीर्घ जीवी होते हैं। Page #1228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता । १०४८ कक्षः कुक्षिश्च वक्षश्च घ्राणस्कन्धौ ललाटकम्। सर्वभूतेषु निर्दिष्टं पडुन्नतशुभं विदुः ।। कक्ष (काख), कुशि, (स) लाती, नाक, मागो और ललाट, इन छ: अंगों का ऊँचा होना किसी भी जीव के लिये शुभ हैं। पाणिपादतले रक्ते नेत्रान्तानि नखानि च। तालु जिलाधरोष्ठौ च सदा रक्तं प्रशस्यते॥ हथेली, चरणों के नीचे का भाग, नेत्रों के कोने, नख, तालु, जीभ और निचले होंठ इन सात अंगों का सदा लाल रहना उत्तम है। नाभिस्वरं सत्वमिति प्रशस्तं गम्भीरमन्ते त्रितयं नराणाम्। उरो ललाटो वदनं च पुंसांविस्तीर्णमेतत् त्रितयं प्रशस्तम् ।। नाभि, स्वर और सत्त्व ये तीन यदि पुरुषों के गम्भीर हों तो प्रशस्त कहे जाते हैं। इसी प्रकार छाती, ललाट और मुख का चौड़ा होना शुभ होता है। वर्णात् परतरं स्नेहं स्नेहात्पतरं स्वरम् । स्वरात् परतरं सत्त्वं सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम् ॥ मनुष्य की देह में, रंग से उत्तम स्निग्धता (चिकनाई, आब) है, स्निग्धता से भी उत्तम स्वर है और स्वर (आवाज़) से भी उत्तम सत्त्व हैं। (सत्त्व वह वस्तु है जिसके कारण मनुष्य की सत्ता है, जिसके न रहने से मनुष्यत्व ही नहीं रहता) इसीलिये सत्त्व ही सबका प्रतिष्ठा-स्थान हैं। नेत्रतेजोऽतिरक्तं च नातिपिच्छलपिंगलम्। दीर्घबाहुनिभैश्वयं विस्तीर्ण सुन्दरं मुखम्॥ आँखों में तेज और गाढ़ी लालिमा का होना तथा बहुत चिकनाई और पिंगल वर्ण (माँजर-पन) का न होना, भुजाओं का दीर्घ होना, और मुंह का विशाल और सुन्दर होना, ऐश्वर्य को प्राप्त करते हैं। Page #1229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४९ कर हस्त रेखा ज्ञान उरोविशालो धनधान्यभोगी शिरोविशालो नूपपुंगवः स्यात् । कटेर्विशालो बहुपुत्रयुक्तो विशालपादो धनधान्ययुक्तः ।। जिसकी छाती चौड़ी हो वह धन धान्य का भोक्ता, जिसका ललाट चौड़ा हो वह राजा, जिसकी कमर विशाल हो वह बहुत पुत्रों वाला तथा जिसके चरण विशाल हों वह धनधान्य से युक्त होता है। वक्षस्नेहेन सौभाग्यं दन्तस्नेहेन भोजनम्। त्वचःस्नेहेन शय्या च पादस्नेहेन वाहनम्॥ वक्षःस्थल (छाती) की चिकनाई से सौभाग्य, दाँत की चिकनाई से भोजन, चमड़े की चिकनाई से शय्या और चरणों की चिकनाई से सवारी मिलती है। अकर्मकठिनौ हस्तौ पादौ चाध्वानकोमलौ। तस्य राज्यं विनिर्दिष्टं सामुद्रवचनं यथा॥ बिना काम काज किये भी जिसका हाथ कठिन (कड़ा) हो, और मार्ग चलने पर जिसके पैर कोमल रहते हों, उस मनुष्य को इस शास्त्र के कथन के अनुसार, राज्य मिलना चाहिये। दीर्घलिंगेन दारिद्र्यम् स्थूललिंगेन निर्धनम्। कृशलिंगेन सौभाग्यं हस्वलिंगेन भूपतिः॥ जिस पुरुष का लिंग (जननेन्द्रिय) लम्बा हो वह दरिद्र, मोटा हो निर्धन, पतला हो वह सौभाग्यशील एवं छोटा हो वह राजा होता है। ललाटे दृश्यते यस्य रेखात्रयमनुत्तरम् । षष्ठिवर्षाणि निर्दिष्टं नारदस्य वचो यथा॥ ललाटे श्यते यस्य रेखाद्धयमनुत्तरम्। वर्षविंशतिनिर्दिष्टं सामुद्रवचनं यथा॥ Page #1230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता जिसके ललाट में तीन रेखायें हो उसकी साठ तथा जिसके ललाट में दो रेखायें हों उसकी बीस वर्ष की आयु समझनी चाहिये—ऐसा नारद का वाक्य है। कुचैलिनं दन्तमलप्रपूरितम् बह्नाशिनं निष्ठुरवाक्यभाषिणम् । सूर्योदये चास्तमये च शायिनं विमुञ्चति श्रीरपि चक्र5- पाणिनम् ॥ मैले वस्त्र को धारण करने वाले, दाँत के मल को साफ न करने वाले, बहुत खाने वाले, कटु वाक्य बोलने वाले, सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सोने वाले पुरुष को वे चाहे विष्णु ही क्यों न हों लक्ष्मी छोड़ देती हैं । यवो यस्य अंगुष्ठोदरमध्यस्थो उत्तमो भक्ष्यभोजी च नरस्स जिसके अंगूठे के उदर (बीच) में जौ का चिह्न हो उत्तम भोग को प्राप्त करता हुआ सुख की वृद्धि पाता है। अतिमेधातिकीर्तिश्च अस्निग्धचैलि विराजते । सुखमेधते ॥ १०५० तथा । अतिक्रान्तसुखी निर्दिष्टमल्पमायुर्विनिर्दिशेत् ॥ जो मनुष्य अत्यधिक बुद्धिमान्, अतिशय कीर्तिमान् और अत्यन्त सुखी तथा मलिन वस्त्रधारी रहता है-वह अल्पायु होता है ऐसा जानना चाहिये । रेखाभिर्बहुभिः क्लेशी रेखाल्प- धनहीनता । रक्ताभिः सुखमाप्रोति कृष्णाभिश्च वने वसेत् ॥ हथेली में बहुत रेखायें हों तो मनुष्य दुःखी एवं कम हों तो निर्धन होता है । रेखायें यदि लाल हों तो सुख और काला हों तो वनवास होता है । श्रीमान्नृपश्च रक्ताक्षो निरर्थः कोऽपि सुदीर्घं बहुधैश्वर्य्यं निर्मांसं न च वै पिङ्गलः । सुखम् ॥ आँखें लाल हों तो धनवान और राजा, पिङ्गलवर्ण की हों तो निर्धन, बड़ी-बड़ी हों तो ऐश्वर्य्यवान और मांस हीन हों (धँसी हुई हों) तो दुःखी जानना चाहिये । C I Page #1231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५१ कर हस्त रेखा ज्ञान पंचरेखा युगत्रीणि द्विरेखा च समास्थितं । नवत्यशीतिः षष्ठिश्च चत्वारिंशच्च विंशतिः ।। जिसके क्रमश: पाँच, चार, तीन और दो रेखायें हों क्रमश: ९०, ८०, ६०, ४० और २० वर्ष जीता है। दीर्घबाहुनरो योग्यः स सर्वगुणसंयुतः। अल्पबाहुर्भवेद्योऽसौ परप्रेषणकारकः॥ जिस पुरुष की बाँहे लम्बी हो तो वह योग्य त्या रुगसम्पन होता हैं। इसी प्रकार छोटी बाँहों वाला दूसरे का नौकर होता है। वामावर्ती भुजो यस्य दीर्घायुष्यो भवेन्नरः । सम्पूर्णबाहवश्चैव स नरो धनवान् भवेत् ॥ जिसके भुजायें बाईं ओर घुमी हों वह पुरुष दीर्घ आयु वाला तथा धनी होता हैं। ग्रीवा तु वर्तुला यस्य कुंभाकारा सुशोभना। पार्थिव: स्यात् स विज्ञेयः पृथ्वीशो कान्तिसंयुतः ।। जिसकी गर्दन घड़े की भाँति गोल और सुन्दर हो वह सुन्दर स्वरूप वाला राजा होगा, ऐसा जानना चाहिये। शशग्रीवा नरा ये ते भवेयुर्भाग्यवर्जिताः। कम्बुग्रावा नरा ये च ते नराः सुखजीविनः ।। जिसकी गर्दन खरगोश की-सी होवे वह अभागे होते हैं। और जिसकी गर्दन शंख जैसी हो वे मनुष्य सुखी होते हैं। कदलीस्तंभसशं गजस्कंधसुबन्धुरम् । राजानं तं विजानीयात् सामुद्रवचनं यथा॥ जिसका कन्धा केले के खम्भे की तरह अथवा हाथी के कन्धे की तरह भरा पूरा स्थूल हो वह राजा होगा ऐसा इस शास्त्र का वचन है। Page #1232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | बबाहु संहिता | १०५२ चन्द्रबिम्बसमं वक्त्रं धर्मशीलं विनिर्दिशेत् । अश्ववक्त्रो नरो यस्तु दुःखदारिद्रयभाजनम्॥ - यदि मुंह नन्द्रा के जिम्ब जैमा हो, तो धर्मशील, बोड़े के मुख जैसा हो, तो दुःखी और दरिद्र होता हैं। अथ तत् सम्प्रवक्ष्यामि देहावयवलक्षणम् । उत्तमं मध्यमं हीनं समासेन हि कथ्यते॥ अब मैं संक्षेप में शरीर के उन लक्षणों को कहता हूँ जिनसे उत्तम, मध्यम और अधम का ज्ञान होता है। पादौ समांसलौ स्निग्धौ रक्तावर्तिमशोभनौ। उन्नतौ स्वेदरहितौ शिराहिनौ प्रजापतिः ।। जिस पुरुष के पैर मांसयुक्त, चिकने, रक्तिमा लिये हुये, सुन्दर उन्नत और पसीना न देने वाले तथा शिराहीन (ऊपर से शिरा न दिखाई दे-ऐसे) हों वह बहुत प्रजा (सन्तानों) का मालिक होता है। यस्य प्रदेशिनी दीर्घा अंगुष्ठादतिवर्द्धिता। स्त्रीभोगं लभते नित्यं पुरुषो नात्र संशयः॥ जिसकी प्रदेशिनी (पैर के अंगूठे के पास वाली अंगुली) अंगूठे से भी बड़ी हो वह पुरुष नि:सन्देह नित्य ही स्त्रीभोग पाता है। तथा च विकृतैरू: खैर्दारिद् यसाप्नुयात् । पतिताश्च नखा नीला ब्रह्महत्यां विनिर्दिशेत् ॥ विकृत, रूखे नखों वाला पुरुष दरिद्र होता है। गिरे हुए और नील वर्ण के नख से ब्रह्महत्या का निर्देश करना चाहिये। Page #1233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५३ कर हस्त रेखा ज्ञान श्वेतवर्णप्रभैः कान्त्या नखैर्बहुसुखाय च। ताप्रवर्णनखा यस्य धान्यपद्यानि भोजनम्॥ जिनके नख की कान्ति सफेद और प्रकाशमान हो उनको बहुत सुख होता है; जिनके नख की कान्ति लाल (ताँबे की तरह) हो उन्हें असंख्य धान्य और भोजन प्राप्त होता है। सर्वरोमयुते जंधे नरोऽत्र दुःखभाग्भवेत् ।। मृगजंघे जु राजाह्वो (न्यः) जायते नात्र संशयः॥ जिसके जंघों में (घुटनों के नीचे और फीलों के ऊपर) अधिक रोयें हों वह मनुष्य दुःखी होता हैं। जिसकी जंघा मृग के समान हो वह राजपुरुष (राजकुमार) होता है इसमें सन्देह नहीं। शृगालसमजंघेन लक्ष्मीशो न स जायते। मीनजंघं स्वयं लक्ष्मीः समाप्नोति न संशयः। स्थूलजंघनरा ये च अन्यभाग्यविवर्जिताः॥ सियार के समान जंघा वाला धनी नहीं होता, पर मछली के समान जंघा वाला खूब धनी होता है। मोटी जंघा वाला भाग्यहीन होता है। एकरोमा लभेद्राज्यं द्विरोमा धनिको भवेत्। त्रिरोमा बहुरोमाणो नरास्ते भाग्यवर्जिताः॥ जिस पुरुष के रोम कूपों से एक-एक रोयें निकले हों वह राजा होता है, दो रोम वाला धनिक और तीन या अधिक रोम वाला भाग्यहीन होता है। हंसचक्रशुकानां च यस्य तदुर्गतिर्भवेत् । शुभदंगादवन्तश्च (?) स्त्रीणामेभिः शुभा गतिः ।। यदि बाल हंस, चकवा या सुग्गे की तरह हो तो वह पुरुष के लिये अशुभ है; पर यही चाल स्त्रियों के लिये शुभ होती है। Page #1234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १०५४ वृषसिंहगजेन्द्राणां गतिर्भोगवतां भवेत्। मृगवज्जल याने (?) च काकोलूकसमा गतिः। द्रव्यहीनस्तु विज्ञेयो दुःखशोकभयङ्करः ।। बैल, सिंह और मस्त हाथी की सी चाल, वाले भोगवान् होते हैं। मृग के समान शृगाल के समान तथा कौए और उल्लू के समान गति वाले मनुष्य द्रव्यहीन तथा भयङ्कर दुःख-शोक से ग्रस्त होते हैं। श्वानोष्ट्रमहिषाणां च (?) शूकरोष्ट्रधरास्ततः। गतिर्येषां समास्तेषां ते नरा भाग्यवर्जिताः ।। कुत्ते, ऊँट, भैंसे और सूअर की तरह गतिवाला पुरुष भाग्यहीन होता है। दक्षिणावर्तलिंगस्तु स नरो पुत्रवान् भवेत् । वामावर्ते तु लिंगानां नरः कन्याप्रजो भवेत् ।। जिस पुरुष का शिश्न (जननेन्द्रिय) दाहिनी ओर झुका हो वह पुत्रवान तथा जिसकी बाँई ओर झुका हो वह कन्याओं का जन्मदाता होता है। ताम्रवर्णमणिर्यस्य समरेखा विराजते। सुभगो धनसम्पन्नो नरो भवति तत्त्वतः॥ जिसके लिंग के आगे का भाग (मणि) की कान्ति लाल हो तथा रेखायें समान हों वह व्यक्ति सौभाग्यशील तथा धनवान् होता है। सुवर्णरौप्यसदृशैर्मणियुक्तसमप्रभैः प्रवालसदृशैः स्निग्धैः मणिभिः पुण्यवान् भवेत्॥ सोना, चाँदी, मणि, प्रवाल, (मूंगा) आदि के समान प्रभाव वाले चिकने मणि (शिश्नाग्रभाग) वाले पुरुष पुण्यवान् होते हैं। समपादोपनिष्टस्य गृहे तिष्ठति मेदिनी। ईश्वरं तं विजानीयात्प्रमदाजनवल्लभं॥ Page #1235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 1 १०५५ कर हस्त रेखा ज्ञान वह पुरुष सामर्थ्यवान् तथा स्त्रियों का प्यारा होता है, जिसके पैर पृथ्वी पर बराबर बैठते हैं। उसके घर पृथ्वी भी रहती है। स्निग्धशब्दविवर्जितम् । स्त्रीभोगं लभते सौख्यं न सनरो भाग्यवान् भवेत् ॥ द्विधारं पतते मूत्रं मूत्र करते समय जिसका मूत्र दो धार होकर गिरे और उसमें से शब्द न निकले वह पुरुष भाग्यवान् होता है और स्त्रीभोग तथा सुख को प्राप्त होता है। मीनगन्धं भवेद्रेत: ल नरः पुत्रवान् भवत् । मद्यगन्धं भवेद्रेतः स नरस्तस्करो भवत् ॥ होमगन्धं भवेद्रेत: स नरः पार्थिवो भवेत् । कटुगन्धं भवेद्रेतः पुरुषो दुर्भगो भवेत् ॥ क्षारगन्धं भवेद्रेतः पुरुषा मधुगंधं दारिद्र्यभोगिनः । भवेद्रेतः पुमान्दारिद्र्यवान् भवेत् ॥ जिस पुरुष के वीर्य से मछली की गन्ध आती हो वह पुत्रवान्, शराब की गन्ध आती हो वह चोर, होम की गन्ध आती हो वह राजा, कड़वी गन्ध आती हो वह अभागा; खारी गन्ध आती हो वह दरिद्र एवं मधु की गन्ध हो वह निर्धन होता है । किंचिन्मिश्रं तथा पीतं भवेद्यस्य च शोणितम् । राजानं तं विजानीयात् पृथ्वीशं चक्रवर्तिनम् ॥ जिसका रक्त कुछ पीलापन लिये हुये हो उसे पृथ्वी का मालिक चक्रवतीं राजा बनाना चाहिये । मृगोदरो नरो धन्यः मयूरोदरसन्निभः । व्याघ्रोदरो नरः श्रीमान् भवेत् सिंहोदरो नृपः ॥ मृग और मोर की तरह पेट वाला मनुष्य भाग्यवान्, बाघ की तरह पेट वाला धनवान् और सिंह के पेट के समान पेट वाला मनुष्य राजा होता है। Page #1236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाह संहिता २०५६ सिंहपृष्ठो नरो यः स धनं धान्यं विवर्भयेत् । कूर्मपृष्ठो लभेद्राज्यं येन सौभाग्यभाग्भवेत् ।। सिंह जैसी पीठ वाला धन धान्य से युक्त, और कछुये जैसी पीठ वाला राज्य सौभाग्य से युक्त होता है। पाण्डुरा विरला वृक्षरेखा या दृश्यते करे। चौरस्तु तेन विज्ञेयो दुःखदारिद्र्यभाजनम्॥ पण्डुर वर्ण की, विरल, वृक्ष के आकार की रेखा जिसके हाथ में हो वह दुःख और दरिद्रता से युक्त चोर होता है। करालवक्त्रवैरूपो स नरस्तस्करः स्मृतः। बकवानरवक्त्रश्च धनहीनः प्रकीर्तितः॥ यदि मुँह चन्द्रमा के बिम्ब जैसा हो तो धर्मशील, घोड़े के मुँह जैसा हो तो दुःखी और दरिद्र, नयायः तथा खा हो तो बोर, मुला मा वानर जैसा हो वह मनुष्य निर्धन होता है। यस्य गंडस्थलो पूर्णी पद्मपत्रसमप्रभौ। कृषिभोगी भवेत् सोऽपि धनवान् मानवान् पुमान् ।। जिसका गण्डस्थल भरा हुआ तथा कमल के पत्ते के समान हों वह पुरुष धन तथा मान से सहित कृषिजीवी होता है। सिंहव्याघ्रगजेन्द्राणां कपालसदृशं भवेत् । भोगवन्तो नराश्चैव सर्वदक्षा विदुर्बुधाः ।। सिंह, बाघ, हाथी आदि के सदृश कपाल वाले पुरुष भोगी, चतुर ज्ञानी और श्रेष्ठ होते हैं। रक्ताधरो नृपो ज्ञेयो स्थूलोष्ठो न प्रशस्यते। शुष्काधरो भवेत्तस्य नुः सुसौभाग्यदायिनः॥ लाल होंठो वाला राजा होता है, मोटा होंठ अच्छा नहीं होता शुष्क अधर सौभाग्य के सूचक है। Page #1237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५७ कर हस्त रेखा ज्ञान कुंदकुसुमसंकाशैः दशनैर्भोगभागितैः। यावज्जीवेत् धनं सौख्यं भोगवान् स नरो भवेत्॥ कुन्द की कोई के समान शुभ्र दांतो वाला मनुष्य जीवन भर सुख, भोग और धन आदि से युक्त रहता है। रुक्षपाण्डुरदन्ताश्च ते क्षुधानित्यपीड़िताः। हस्तिदन्ता महादन्ता स्निग्धदन्ताः गुणान्विताः ।। रूखे और पाले दांतो वालं मनुष्य सदा भूख से सताये हुए होते हैं। हाथी जैसे दाँतो वाले, बड़े-बड़े दाँतों वाले तथा चिकने दाँतो वाले मनुष्य गुणी होते द्वात्रिंशद्दशनै राजा एकत्रिंशच्च भोगवान् । त्रिशंदन्ता नरा ये च ते भवन्ति सुभोगिनः। एकोनत्रिंशदशनैः पुरुषाः दुःखजीविनः॥ __३२ दाँतों वाला पुरुष राजा, ३१ दाँतों वाला सुखी, ३० दाँतों वाला भोगी और २९ दाँतों वाला मनुष्य दुःखी होता हैं। कृष्णा जिह्वा भवेद्येषां ते नरा दुःखजीविनः । श्यामजिह्वो नरो यः स्यात्स भवेत् पापकारकः । स्थूलजिह्वा प्रधातारो नराः परुषभाषिणः। श्वेतजिह्वा नरा ये च शौचाचारसमन्विताः। पद्मपत्रसमा ये तु भोगवन् मिष्टभोजनाः॥ काली जीभ वाले दुःखी, सांवली (हल्की कालिमामयी) जीभ वाले पापी, मोटी जीभ वाले पुरुष (कड़ा) बोलने वाले सफेद जीभ वाले पवित्र आचार शील, तथा कमल पत्र के समान चिकनी जीभ वाले मनुष्य भोगी तथा मिष्ट पदार्थ खाने वाले होते हैं। किंचित्तानं तथा स्निग्धं रक्तं यस्य च दृश्यते। सर्वविद्यासु चातुर्य पुरुषस्य न संशयः॥ - - - Page #1238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता जिसकी जीभ कुछ लालिमा के साथ चिकनाई लिये हो वह पुरुष निःसन्देह सब विद्याओं में चतुर होता है । कृष्णतालुनरा कुलनाशम् । थें च संभवं पद्मपत्रसमं तालु स नरो भूपतिर्भवेत् ॥ श्वेततालुन हयस्वरनरा काले तालु वाला पुरुष कुल का नाशक तथा कमल - पत्र के समान तालु वाला राजा होता है। ये च धनवंतो भवन्ति ते । ये च धनधान्यसुभोगिनः ॥ १०५८ जिन मनुष्यों का तालु सफेद रंग का होवे धनवान् होते हैं। एवं जिनका स्वर घाड़े के समान हो तो धनी होता है। भृंगाणां मेघगम्भीरनिर्घोष च विशेषतः । ते भवन्ति नरा नित्यं भोगवन्तो धनेश्वराः । हंसस्वरश्च राजा स्यात् चक्रवाकस्वरस्तथा । व्याघ्रस्वरो भवेत् क्लेशी सामुद्रवचनं यथा ॥ जिनका स्वर घोड़े के समान होवे वह धनी होते हैं, मेघ के समान गम्भीर घोष वाले और खास करके भौरों की गुंजार सरीखे स्वर वाले पुरुषनित्य भोगवान् और बड़े धनवान् होते हैं, हंस की तरह स्वर वाले और चकवे की तरह स्वर वाले राजा होते हैं। बाघ के समान स्वर वाले दुःखी होते हैं— ऐसा सामुद्रिक शास्त्र का कहना है । पार्थिवः शुकनासा च दीर्घनासा च भोगभाक् । ह्रस्वनासा नरो यश्च धर्मशीलशते रतः ॥ स्थूलनासा नरो मान्य: निंद्याश्च हयनासिकाः । सिंहनासा नरो यश्च सेनाध्यक्षो भवेत्स च ॥ शुक की सी नाक वाले राजा, लम्बी नाक वाले भोगी, पतली नाक वाले धर्मनिष्ठ, मोटी नाक वाले माननीय, घोड़े की सी नाक वाले निंदनीय, और सिंह की सी नाक वाले सेनापति होते हैं। Page #1239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | १०५९ कर हस्त रेखा ज्ञान त्रिशूलमंकुशं चापि ललाटे यस्य धनिकं यते । विजानीयात् पराजीवल्लभः ॥ तं जिसके ललाट पर त्रिशूल या अंकुश का चिह्न दिखाई दे उसे धनी समझना चाहिये। वह स्त्री का प्राण प्यारा होता हैं । स्थूलशीर्बनरा वर्तुलाकारशीर्षेण ये च धनवंतः मनुजो चौड़े सिर वाले मनुष्य धनी और गोलाकार सिर वाले राजा होते हैं। रुक्षनिर्वाणि वर्णानि स्नेहस्थूला च मूर्द्धजा । निस्तेजाः सः सदा ज्ञेयः कुटिलकेशदुःखितः ॥ प्रकीर्तिताः । मानवाधिपः ॥ जिसके बाल रुखे विवर्ण हों तथा तेल आदि लगाने पर जकड़ कर स्थूल हो जाते हों वह पुरुष निस्तेज होता हैं। कुटिल अलकों वाला मनुष्य दुःखी होता है । अथ स्त्रीलक्षणम् प्रणम्य सर्वज्ञं परमानन्दं स्वामिनं जिनम् । सामुद्रिकं प्रवक्ष्यामि स्त्रीणामपि शुभाशुभम् ॥ परम आनन्द मय, सर्वज्ञ, श्री स्वामी जिनेश्वर को प्रणाम करके स्त्रियों के शुभाशुभ के बताने वाले सामुद्रिक शास्त्र को कहता हूँ । कीदृशीं बरयेत्कन्यां कीदृर्शी च विवर्जयेत् । किंचित्कुलस्य नारीणां लक्षणं वक्तु मर्हसि ॥ कैसी कन्या का वरण करना चाहिये, कैसी का त्याग करना चाहिये, कुलस्त्रियों का कुल लक्षण आप कह सकते हैं। कृषोदरी च विम्बोष्ठी दीर्घकेशी च या भवेत् । दीर्घमायुः समाप्नोति धनधान्यविवर्द्धिनो ॥ जो स्त्री कृशोदरी ( कमर की पतली ), बिंबफल के समान अधरों वाली और Page #1240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १०६० सीती हैं। लम्बे-लम्बे केशों वाली होती है, धन्यधान्य को बढ़ाने वाली होती है वह बहुत दिनों तक जीती हैं। पूर्णचन्द्रमुखी कन्यां बालसूर्यसमप्रभाम् । विशालनेत्रां रक्तोष्ठी तां कन्यां वरयेद् बुधः॥ पूर्ण चन्द्र के समान मुँह वाली, सबेरे को उगते हुए सूर्य के समान कान्ति वाली, बड़ी आँखों वाली और लाल होंठो वाली कन्या से विवाह करना चाहिये। अंकुशं कुण्डलं माला यस्याः करतले भवेत् । योग्यं जनयते नारी सुपुत्रं पृथ्वी पतिम् ॥ जिस स्त्री की हथेली में अंकुश, कुण्डल या माला का चिह्न हो वह राजा होने वाले योग्य सुपुत्र को पैदा करती है। यस्याः करतले रेखा प्राकारांस्तोरणं तथा। ऑप दास-कुले नाता राजपत्नी भविष्यति॥ जिस स्त्री के हाथ में प्राकार या तोरण का चिह्न हो तो यदि दास कुल में भी उत्पन्न हो, तो भी वह पटरानी होगी। यस्या: संकुचितं केशं मुखं व परिमण्डलम्। नाभिश्च दक्षिणावर्ता सा नारी रति-भामिनी॥ जिस स्त्री के केश धुंधराले हों, मुख गोल हो, नाभि दाहिनी ओर घूमी हुई हो, वह स्त्री रति के समान हैं, ऐसा समझना चाहिये। यस्याः समतलौ पादौ भूमौ हि सुप्रतिष्ठितौ। रतिलक्षणसम्पन्ना सा कन्या सुखमेधते ।। जिसके चरण समतल हों और भूमि पर अच्छी तरह पड़ते हों, (अर्थात् कोई अंगुली आदि पृथ्वी को छूने से रह न जाती हों) वह रतिलक्षण से सम्पन्न कन्या सुख पाती हैं। Page #1241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६१ कर हस्त रेखा ज्ञान पीनस्तना च पीनोष्ठी पीनकुक्षी सुमध्यभा। प्रीतिभोगमवाप्नोति पुत्रैश्च सह वर्धते ॥ पीन (मोटे) स्तन कोंख और होंठवाली तथा सुन्दर कटिवाली स्त्री प्रीति और भोग पाती हुई पुत्रों के साथ बढ़ती है। कृष्णा श्यामा च या नारी स्निग्धा चम्पकसंनिभा। स्निग्धचंदनसंयुक्ता सा नारी सुखमेधते ।। कृष्ण वर्ण की श्यामा स्त्री (जो शीतकाल में उष्ण और उष्ण काल में शीत रहे) आवदार, चम्पा के समान वर्ण वाली, चन्दन गन्ध से युक्त हो वह सुख पाती अल्पस्वेदाल्पनिद्रा च अल्परोमाल्पभोजना। सुरूपं नेत्रगात्राणां स्त्रीणां लक्षणमुत्तमम् ।। पसीना का कम होना, थोड़ी नींद, थोड़े रोयें, थोड़ा भोजन, नेत्रों तथा अन्य अंगों की सुन्दरता... यह स्त्री का उत्तम लक्षण है। स्निग्धकेशी विशालार्थी सुलोमां च सुशोभनाम्। सुमुखीं सुप्रभां चापि तां कन्यां वरयेद् बुधः ।। चिकने केशों वाली, बड़ी आँखों वाली, सुन्दर लोम, मुख और कान्ति वाली सुन्दरी कन्या का वरण करना चाहिये। यस्याः सरोमको पादौ उदरं च सरोमकम्। शीघ्रं सा स्वपति हन्यात् तां कन्यां परिवर्जयेत् ।। जिसके पैर रोयेदार हों तथा पेट में भी रोयें हो, वह स्त्री शीघ्र ही पति को मारती हैं, अत: इसका वरण नहीं करना चाहिए। यस्या रोमचये जंचे सरोममुखमण्डलम्। शुष्कगाीं च तां नारौं सर्वदा परिवर्जयेत् ।। Page #1242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २०६२ जिस स्त्री के जंघों और मुख मण्डल पर रोयें हो तथा शरीर, सूखा हुआ हो उससे सदा दूर ही रहना चाहिये। यस्याः प्रदेशिनी याति अंगुष्ठादतिवर्द्धिनी। दुष्कर्म कुरुते नित्यं विधवेयं भवेदिति ॥ जिस स्त्री के पैर के अंगूठे के पास वाली अंगुली अंगूठे से बड़ी हो वह नित्य ही दुराचार करती है, और विधवा होती है। यस्यास्त्वनामिका पादे पृथिव्यां न प्रतिष्ठते । पतिनाशो भवेत् क्षिप्रं स्वयं तत्र विनश्यति॥ जिसकी अनामिका अंगुली पृथ्वी को नहीं छूती ऊपर ही रहती है, उस स्त्री के पति का शीघ्र ही नाश होता हैं, और वह स्वयं नष्ट हो जाती है। यस्याः प्रशस्तमानो यो हावर्तो जायते मुखे। पुरुषत्रितयं हत्वा चतुर्थे जायते सुखम् ।। जिसके मुख पर सुन्दर आवर्त (भंवरी) रहती हैं, वह तीन पतियों को नष्ट कर चौथी शादी करती है, तब सुख पाती हैं। उद्वाहे पिंडिता नारी रोमराजि-विराजिता। अपि राजकुले जाता दासीत्वमुपगच्छति ॥ रोयें से भरी हुई स्त्री यदि राजकुल में उत्पन्न हों तो विवाहित होने पर वह दासी की तरह मारी-मारी फिरती हैं। स्तनयो:स्तवके चैव रोमराजिविजराते। वर्जयेत्तादृशी कन्यां सामुद्रवचनं यथा ॥ जिस स्त्री के दोनों स्तनों के चोरों ओर रोयें हो उसे इस शास्त्र के कथनानुसार छोड़ देना चाहिये। विवादशीला स्वयमर्थचारिणी परानुकूलां बहुपापपाकिनीम् । आक्रन्दिनीं चान्यगृहप्रवेशिनीं त्यजेत्तु भार्या दशपुत्रमातरं ।। Page #1243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६३ कर हस्त रेखा ज्ञान लड़ने वाली, अपने मन की चलने वाली, दूसरे के अनुकूल रहने वाली, अनेक पाप कारिणी, रोने वाली, दूसरे के घर में घुसने वाली स्त्री अगर दस लड़कों की माँ भी हो तो उसे छोड़ देना चाहिये। यस्यास्त्रीणि प्रलंवानि ललाटमुदरं कटिः। सा नारी मातुलं हन्ति श्वसुरं देवरं पतिम्॥ जिसके ललाट, पेट और कमर ये तीन अंग लम्बे हों वह स्त्री मामा, ससुर, देवर और पति को मारने वाली होती है। यस्याः प्रादेशिनी शश्वत् भूमी न स्पृश्यते यदि। कुमारी रमते जारैः यौवनै नात्र संशयः॥ जिसके अंगूठे के पास वाली अंगुली पृथ्वी को न छूए वह स्त्री कुमारी तथा मौकाजस्था में दूसरे पुरुषों के सामाभिलार करती है, इसमें सन्देह नहीं। पादमध्यमिका चैव यस्या गच्छति उन्नतिम् । वामहस्ते ध्रुवं जारं दक्षिणे च पति तथा॥ जिसके पैर के बीच की अंगुली पृथ्वी से ऊपर रहे वह स्त्री, निश्चय ही, बौये हाथ में जार को और दाहिने में पति को लिये रहती है। उन्नता पिण्डिता चैव विरलांगुलिरोमशा। स्थूलहस्ता च या नारी दासीत्वमुपगच्छति॥ ऊंची, सिमटी हुई विरल अंगुलियों वाली रोयें वाली तथा छोटे हाथों वाली औरत दासी होती है। अश्वत्थपत्रसंकाशं भगं यस्या भवेत्सदा। सा कन्या राजपत्नीत्वं लभते नात्र संशयः॥ जिस स्त्री का जननेन्द्रिय पीपल के पत्ते के समान हो वह पटरानी पद को प्राप्त होती है—इसमें सन्देह नहीं। Page #1244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता पृष्ठावर्ता च या नारी नाभिश्चापि विशेषत: । भगं चापि विनिर्दिष्टा प्रसवश्रीर्विनिर्दिशेत् ॥ मण्डूककुक्षिका नारी न्यग्रोधपरिमण्डला । एकं जनयते पुत्रं सोऽपि राजा भविष्यति ॥ मेढक के समान कोख वाली तथा बट के पत्ते के समान मण्डल बाली स्त्री एक ही पुत्र पैदा करती हैं, वह भी राजा । स्थूला यस्या: करांगुल्यः हस्तपादौ च कोमलौ । रक्तांगानि नखाश्चैव सा नारी सुखमेधते ॥ जिस स्त्री के हाथ की अंगुलियाँ छोटी हों, हाथ पैर कोमल हों, शरीर और नख से खून झलकता हो वह स्त्री सुख पाती हैं । कृष्णजिह्वा च लंबोष्ठी पिंगलाक्षी दशमासै: पतिं हन्यात्तां नारीं खरस्वरा । परिवर्जयेत् ॥ १०६४ काली जीभ, लम्बे होंठ मंजरी आँख, और तीखे स्वर वाली स्त्री दस महीने में ही पति का नाश करती है। उसको छोड़ देना चाहिये । यस्याः सरोमको पादौ तथैव च उत्तरोष्ठाधरोष्ठौ च शीघ्रं मारयते जिस स्त्री के पैर, पयोधर, ऊपर या नीचे के होंठ रोयेंदार हों वह शीघ्र ही पति को मारती है। पयोधरौ । पतिम् ॥ चन्द्रबिम्बसमाकारौ स्तनौ यस्यास्तु निर्मलौ । बाला सा विधवा ज्ञेया सामुद्रवचनं थथा ॥ इस शास्त्र का वचन है । जिसके स्तन निर्मल चन्द्रबिम्ब के समान हों वह स्त्री विधवा होती है, ऐसा Page #1245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६५ कर हस्त रेखा ज्ञान - पूर्णचन्द्रविभा नारी अतिरूपातिमानिनी। दीर्घकर्णा भवेद्याहि सा नारी सुखमेधते ।। पूर्ण चन्द्रमा के समान प्रभा वाली अति रूपशीला, अति मानिनी तथा लम्बे कानों वाली स्त्री सुखी होती हैं। यस्याः पादतले रेखा प्राकारछत्रतोरणम् । अपि दासकुले जाता राजपत्नी भविष्यति । जिस स्त्री के पैर के तलवे में प्राकार, छत्र या तोरण की रेखा हो वह यदि दासकुल में उत्पन्न हो तो भी पटरानी होगी। रक्तोत्पलसुवर्णाभा या नारी रक्तपिंगला। नराणां गतिबाल्पा अलंकारप्रिया भवेत् ॥ लाल, कमल और सोने की कान्ति वाली, रक्त और पिंगल वर्ण की औरत तथा पुरुष के समान चलने वाली छोटी भुजाओं वाली औरत गहनों को बहुत चाहती हैं। अतिदीर्घा भृशं ह्रस्वां अतिस्थूलामतिकृशाम् । अतिगौरां चातिकृष्णां षडेताः परिवर्जयेत्॥ अत्यन्त लम्बी, अत्यन्त छोटी, अत्यन्त मोटी, अत्यन्त पतली, अत्यन्त गोरी तथा अत्यन्त काली ये ६ प्रकार की औरत छोड़ देनी चाहिये। शुष्कहस्तौ च पादौ च शुष्कांगी विधवा भवेत् । अमंगला च सा नारी धनधान्यक्षयंकारी॥ शुष्क हाथ, सूखे पैर और सूखे शरीर वाली स्त्री विधवा होती है। यह अमंगला धन-धान्य की संहारिणी होती है। Page #1246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता | १०६६ पिंगाक्षी कूपगंडा प्रविरलदशना दीर्घजयोर्ध्वकेशी। लम्बोष्ठी दीर्घवक्त्रा खरपरुषरवा श्यामताम्रोष्ठजिह्वा ।। शुष्कांगी संगताश्रू स्तनयुगविषमा नासिकास्थूलरूपा। सा कन्या वर्जनीया पतिसुतरहिता शीलचारित्र्यदूरा ॥ जिस कन्या की आँखें पिंगल वर्ण की हों, कपोल धंसे हुए हों, दाँत सुसज्जित रूप से न हों, जंघा लम्बी हो, केश खड़े हों; ओठ लम्बें हों; मुँह लम्बा हो; बोली कर्कश हो, तालु, होंठ और जीभ काली हों; शरीर सूखा हो; बात-बात पर आँसू गिरती हो; दोनों स्तन समान न हो; नाक चिपर्टी हो; उसके साथ विवाह नहीं करना चाहिये। क्योंकि वह पति और पुत्र से रहित होगी, उसके चरित्र भी दूषित होंगे। शृगालाक्षी कृशांगी च सा नारी च सुलोचना । धनहीना भवेत्साध्वी गुरुसेवापरायणा॥ सियार की तरह आँखों वाली, पतले शरीर वाली, सुलोचना स्त्री धनहीन होती हुई भी साध्वी और गुरुजनों की सेवा करने वाली होती हैं। रक्तोत्पलदला नारी सुन्दरी गज-लोचना। हेमादिमणिरत्नानां भर्तुः प्राणप्रिया भवेत् ।। कमल के पत्ते के समान हाथी जैसी आँखों वाली सुन्दरी रमणी, सुवर्ण मणि और रत्नों के स्वामी की प्राणप्रिया होती है। दीर्घागुली च या नारी दीर्घकेशी च या भवेत् । अमांगल्यकरी ज्ञेया धनधान्यक्षयंकारी ॥ बड़ी-बड़ी अंगुलियों वाली, और दीर्घ केशों वाली औरत धन-धान्य की नाशक तथा अमंगलमयी हैं। शंखपद्मयवच्छत्रमामंतत्स्यध्वजा च या। पादयोर्वा भवेद्यत्र राजपत्नी भविष्यति ॥ जिस स्त्री के दोनों पैर में शंख, पद्म, जौ, छत्र, माला, मछली, ध्वजा Page #1247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६७ कर हस्त रेखा शान या वृक्ष का चिह्न है वह राजपत्नी होगी। मार्जासक्षी पिंगलाक्षी विषकन्येति कीर्तिता। सुवर्णपिंगलाक्षी च दुःखिनीति परे जगुः॥ बिल्ली की तरह पिङ्गलवर्ण की आँखों वाली स्त्री को 'विषकन्या' कहा गया है। पर सोने के रंग के समान पिंगलनेत्रा स्त्री दुःखिनी होती हैं ऐसा भी किसी आचार्य का मत है। पृष्ठावर्ता पतिं हन्यात् नाभ्यावर्ता पतिव्रता। कट्यावर्ता तु स्वच्छन्दा स्कन्धावर्ताऽर्थभागिनी। पीठ की भँवरी वाली स्त्री पति को मारने वाली, नाभि की भंवरी वाली स्नी पतिव्रता, काम की *री बाली स्वरसम्रचारिणी और कन्धे की भंवरी वाली धनी होती है। मध्यांगुलिमणिबन्धनोवरेखा करांगुलिम्। वामहस्ते गता यस्याः सा नारी सुखमेधते॥ बाँए हाथ की कलाई से बिचली अंगुली तक जाने वाली रेखा, जिसके हाथ में होती है, वह स्त्री सुख प्राप्त करती हैं। अरेखा बहुरेखा च यस्याः करतले भवेत् । तस्या अल्पायुरित्युक्तं दुःखिता सा न संशयः ।। जिस स्त्री की हथेली में बहुत कम रेखायें या बहुत रेखायें हों वह निःसन्देह थोड़े दिन जियेगी और दुःखी होगी। भगोऽश्वरखुरवद् ज्ञेयो विस्तीर्णं जघनं भवेत् । सा कन्या रतिपत्नी स्यात्सामुद्रवचनं यथा॥ जिस कन्या का जननेन्द्रिय घोड़े के खुर के समान हो और जिसका जघन स्थान (घुटने के ऊपर का भाग) चौड़ा हो वह साक्षात् रति के समान होगी-ऐसा इस शास्त्र का वचन है। Page #1248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १०६८ पद्मिनी बहुकेशी स्यादल्पकेशी च हस्तिनी। शंखिनी दीर्घकेशी च, वक्रकेशी च चित्रिणी॥ बहुत केशों वाली स्त्री को पद्मिनी, कम केशों वाली को हस्तिनी, लम्बे केशों वाली शंखिनी, टेढ़े-मेढ़े केशों वाली को चित्रिणी स्त्री कहते हैं। वृत्तस्तनौ च पदमिन्याः हस्तिनी विकटस्तनी। दीर्घस्तनौ च शंखिन्याः चित्रिणी च समस्तनी॥ पद्मिनी के स्तन गोल, हस्तिनी के विकट, शंखिनी के लम्बे, और चित्रिणी के समान होते हैं। पद्मिनी दन्त-शोभा च उन्नता चैव हस्तिनी। शंखिनी दीर्घदन्ता च समदन्ता च चित्रिणी॥ पद्मिनी के दाँत शोभामय हस्तिनी के ऊँचे, शंखिनी के लम्बे और चित्रिणी के समान होते हैं। पधिनी हंसशब्दा च हस्तिनी च गजस्वरा। शंखिनी रूक्षशब्दा च काकशब्दा च चित्रिणी। पद्मिनी का शब्द हंस के समान, हस्तिनी का हाथी के समान, शंखिनी का रूखा और चित्रिणी का शब्द कौआ के समान होता है। पद्मिनी पदुमगन्धा च मद्यगन्धा च हस्तिनी। शंखिनी क्षारगन्धा च शून्यगन्धा च चित्रिणी ।। पद्यगन्ध से पद्मिनी, मद्यगन्ध से हस्तिनी, खारी गन्ध से शंखिनी एवं शून्य गन्ध से चित्रिणी जानी जाती है। Page #1249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६९ कर हस्त रेखा झान सुविधिासागर जी फ 15 Page #1250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता २०७० । पबिलोद... न मस्तकर भाग्य XTAarte Page #1251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७१ कर हस्त रेखा ज्ञान हृदय रेखा .. जीवन रेखा Page #1252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल मंगल e सोला Mo बसंत गर्मी AED फरवरी धन मीन पहली उँगली दूसरी उँगली जाडा हेमंत प नयंति दिसम्बर कुम्भ मकर ग्रीष्म वर्षा 1. प्रगस्त जुलाई जन कन्या तर्जनी. मध्यमा तीसरी उँगली अनासिका भद्रबाहु संहिता १०७२ Page #1253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७३ कर हस्त रेखा ज्ञान Page #1254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता AAAA हृदय 5 मस्तक रेखा चन्द्र स्थान AMA जिन्न रेखा १०७४ ' Page #1255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T I १०७५ उह स्थान कर हस्त रेखा ज्ञान स्वास्थ्य Page #1256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता । १०७६ Page #1257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७७ कर हस्त रेखा शान म क :- श्री सुविधासाग महाराज mail Page #1258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता १०७४ । । वार्य श्री Page #1259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७१ कर हस्त रेखा ज्ञान मार्गदर्श हाराज Page #1260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आ '" भद्रबाहु संहिता सागर जी राज १०८० Page #1261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८१ कर हस्त रेखा ज्ञान चार्य श्री सुविहिसार - --- - Page #1262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचा भद्रबाहु संहिता वि र राज 4} १०८२ Page #1263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८३ कर हस्त रेखा ज्ञान दर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज वाह Page #1264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र्शक :- आचार्य विधिसा रुपन भद्रबाहु संहिता चन्द्रर माधवप शनि महाराज १०८४ Page #1265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६५ कर हस्त रेखा ज्ञान कर हस्त रेखा ज्ञान मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविहिसागर जी महा THE QUADRANGLE TTHE JRREATI TROLF Page #1266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रबाहु संहिता १०८६ मार्गदर्शक आचार्य विधिसागर जी महाराज Page #1267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८७ कर हस्त रेखा ज्ञान Page #1268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु संहिता 1088 बक"मस्तक रेखा