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| चतुर्थोऽध्यायः |
भावार्थ-यदि सारी रात्रि चन्द्रमा के ऊपर परिवेष रहे तो उस देश के लोगों का शस्त्रों के द्वारा क्षय होगा ऐसा समझना चाहिये, निमित्तज्ञों ने ऐसा ही निर्देशन किया है॥१२॥
भास्करं तु यदा रूक्षः परिवेषो रूणद्धि हि।
मदा. - मरणसारख्याति · . नागरस्य .. : महीपतेः ॥१३॥ (यदा) जब (भास्करंतु) सूर्य को (रूक्षः) रूक्ष (परिवेषो) परिवेष (रूणद्धिहि) घेरता है तो (तदा), तब (नागरस्य) नगर के. (महीपतेः) राजा का (मरणं) मरण (आख्याति) कहा गया है।
भावार्थ- जब सूर्य को परिवेष रूक्ष होकर आवृत करता है तो समझो नगर के राजा का मरण होगा। यह परिवेष राजा के अनिष्ट का सूचक है, राजा को सावधान रहना चाहिये उसके साथ-साथ प्रजा को भी॥१३॥ .
आदित्य परिवेषस्तु यदा सर्वदिनं भवेत्। '
क्षुद्धयं जनमारिञ्च शस्त्रकोपं च निर्दिशेत्॥१४॥ (आदित्य) सूर्य के ऊपर (यदा) जब (परिवेषस्तु) परिवेष (सर्वदिन) सारे दिन ही (भवेत्) होता है तो (क्षुद्रय) क्षुधा भय (जनमारिञ्च) लोगों को भारी रोग का फैलना (च) और (शस्त्रकोप) शस्त्र भय (निर्दिशेत्) को कहा गया है।
भावार्थ—यदि सूर्य के ऊपर परिवेष सारे दिन हो तो प्रजा में मारी रोग व क्षुद्र रोग, शस्त्र भय याने युद्धादिक का होना, क्षुद्र रोगों में भूखों मर जाना व अन्य छोटे-मोटे रोगों का भय उत्पन्न होता है ।। १४ ॥
हरते सर्व सस्यानामीतिर्भवति दारूणा।
वृक्षगुल्म लतानां च वर्तनीनां तथैव च ॥१५ ।। (मीति) इति इस प्रकार (दारूण) विकट परिवेष (भवति) होते हैं तो (सर्वसस्यानां) सम्पूर्ण धान्यो को (हरते) नाश करता है (च) और (तथैव) उसी प्रकार (वृक्ष) वृक्ष (गुल्म) गुल्म (लतानां) लताओं का (वर्तनीनां) भी वर्तन करना चाहिये।