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प्रस्तावना
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श्री कृष्ण का फल है तथा वामदेव ने या उनके अन्य किसी शिष्य ने यह ग्रन्थ बनाया है, वह पूर्णतया सही तो नहीं है। हाँ इस अनुमान में इतना अंश तथ्य है कि कुछ अध्याय उन लोगों की कृपा से जोड़े गये होंगे या परिवर्द्धित हुए होंगे। इस ग्रन्थ के १५ अध्याय तो निश्चयत: प्राचीन हैं और ये भद्रबाहु के वचनों के आधार पर ही लिखे गये हैं। शैली और क्रम २५ अध्यार्यों तक एक-सा है, अत: २५ अध्यायों को प्राचीन माना जा सकता है।
भद्रबाहु संहिता का प्रचार जैन सम्प्रदाय में इतना अधिक था, जिससे यह श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से समाद्दत थी। इसकी प्रतियाँ पूना, पाटण, बम्बई, हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिर पाटण, जैन सिद्धान्त भवन आरा आदि विभित्र स्थानों पर पायी जाती हैं। पूना की प्रति में २६ वें अध्याय के अन्त में वि० सं० १५०४ लिखा हुआ है और समस्त उपलब्ध प्रतियों में यही प्रति प्राचीन है। अत: इस सत्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता है कि इसकी रचना वि०सं० १५०४ से पहले हो चुकी थी। श्री मुख्तार साहब का अनुमान इस लिपिकाल से खंडित हो जाता है और इन २६ अध्यायों की रचना ईस्वी सन् की पन्द्रहवीं शती के पहले हो चुकी थी। इस ग्रन्थ के अत्यधिक प्रचार का एक सबल प्रमाण यह भी है कि इसके पाठान्तर इतने अधिक मिलते हैं, जिससे इसके निश्चित स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। जैन सिद्धान्त भवन आरा की दोनों प्रतियों में भी पर्याप्त पाठभेद मिलता है। अत: इस ग्रन्थ को सर्वथा भ्रष्ट या कल्पित मानना अनुचित होगा। इसका प्रचार इतना अधिक रहा है, जिससे रामायण और महाभारत के समान इसमें प्रक्षिप्त अंशों की भी बहुलता है। इन्हीं प्रक्षिप्त अंशों ने इस ग्रन्थ की मौलिकता को तिरोहित कर दिया है। अत: यह भद्रबाह के वचनों के अनसार उनके किसी शिष्य या प्रशिष्य अथवा परम्परा के किसी अन्य दिगम्बर विद्वान् द्वारा लिखा गया ग्रन्थ है। इसके आरम्भ के २५ अध्याय और विशेषतः १५ अध्याय पर्याप्त प्राचीन हैं। यह भी सम्भव है कि इनकी रचना वराहमिहिर के पहले भी हुई हो।
भाषा की दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त सरल है। व्याकरण सम्मत भाषा के प्रयोगों की अवहेलना की गई है। छन्दोभंग तो लगभग ३०० श्लोकों में है। प्रत्येक अध्याय में कुछ पद्य ऐसे अवश्य हैं जिनमें छन्दोभंग दोष है। व्याकरण दोष लगभग १२५ पद्यों में विद्यमान है। इन दोषों का प्रधान कारण यह है कि ज्योतिष वैद्यक विषय के ग्रन्थों में प्राय: भाषा सम्बन्धी शिथिलता रह जाती है। वाराही संहिता जैसे श्रेष्ठ ग्रन्थ में व्याकरण और छन्द दोष हैं, पर भद्रबाहु संहिता की अपेक्षा कम।