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भद्रबाहु संहिता
इस लम्बे कथन से आपने यह निष्कर्ष निकाला है कि भद्रबाहु संहिता का रचनाकाल ११-१२ शताब्दी से अर्वाचीन नहीं है। यह ग्रन्थ इससे प्राचीन हो होगा: भुना का अनुमान है के इस ग्रन्थ का प्रचार जैन साधुओं और गृहस्थों में अधिक रहा है, इसी कारण इसके पाठान्तर अधिक मिलते हैं। इसके रचयिता कोई प्राचीन जैनाचार्य हैं, जो भद्रबाहु से भिन्न हैं। मूलग्रन्थ प्राकृत भाषा में लिखा गया था, पर किसी कारण वश आज यह प्रन्थ उपलब्ध नहीं है। यत्र तत्र प्राप्त भौखिक या लिपिबद्ध रूप में प्राचीन गाथाओं को लेकर उनका संस्कृत रूपान्तर कर दिया गया है। जिन विषयों के प्राचीन उद्धरण नहीं मिल सके, उन्हें वाराही संहिता, मुहूर्त चिन्तामणि आदि ग्रन्थों से लेकर किसी भट्टारक या यति ने संकलित कर दिया।
श्री मुख्तार साहब, मुनि श्री जिनविजयजी तथा श्री प्रो. अमृतलाल साबचंद गोपाणी आदि महानुभावों के कथनों पर विचार करने तथा उपलब्ध ग्रन्थ के अवलोकन से हमारा अपना मत यह है कि इस ग्रन्थ का विषय, रचनाशैली और वर्णनक्रम वाराही संहिता से प्राचीन हैं। उल्का प्रकरण में वाराही संहिता की अपेक्षा नवीनता है और यह नवीनता ही प्राचीनता का संकेत करती है। अत: इसका संकलन, कम से कम आरम्भ के २५ अध्यायों का, किसी व्यक्ति ने प्राचीन गाथाओं के आधार पर किया होगा। बहुत संभव है कि भद्रबाहु स्वामी की कोई रचना इस प्रकार की रही होगी, जिसका प्रतिपाद्य विषय निमित्तशास्त्र है। अतएव मनुस्मृति के समान भद्रबाहु संहिता का संकलन भी किसी भाषा तथा विषय की दृष्टि से अच्युत्पन्न व्यक्ति ने किया है। निमित्त शास्त्र के महा विद्वान् भद्रबाहु की मूल कृति आज उपलब्ध नहीं है, पर अके वचनों का कुछ सार अवश्य विद्यमान है। इस रचना का संकलन ८-९ वीं शती में अवश्य हुआ होगा।
हो, यह सत्य है कि इस ग्रन्थ में प्रक्षिप्त अंश अधिक बढ़ते गये हैं। इनका प्रथम खण्ड भी पीछे से जोड़ा गया है तथा इसमें उत्तरोत्तर परिवर्द्धन और संवर्द्धन किया जाता रहा है। द्वितीय खण्ड का स्वप्नाध्याय भी अर्वाचीन है तथा इसमें २८, २९ और ३० वें अध्याय तो और भी अर्वाचीन हैं। अतएव यह स्वीकार करने में किसी भी प्रकार का संकोच नहीं है कि इस ग्रन्थ का प्रणयन एक समय पर नहीं हुआ है, विभिन्न समय पर विभिन्न विद्वानों ने इस ग्रन्थ के कलेवर को बढ़ाने की चेष्टा की है। “भद्रबाहुवचो यथा" का प्रयोग प्रमुख रूप से २५३ अध्याय तक ही मिलता है। इसके आगे इस वाक्य का प्रयोग बहुत कम हुआ है, इससे भी पता चलता है कि संभवतः १५ अध्याय प्राचीन भद्रबाहु संहिता के आधार पर लिखे गये होंगे। और आगे वाले अध्याय संहिता परम्परा में रखने के लिए या इसे वाराही संहिता के समान उपयोगी और ग्राह्य बनाने के लिए, इसका कलेवर बढ़ाया जाता रहा है। श्री मुख्तार साहब ने जो अनुमान लगाया है कि ग्वालियर के भट्टारक धर्मभूषण