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नवमोऽध्यायः
परस्पर में एक-दूसरे के प्रति उद्विघ्न हो उठते हैं और वैर भाव धारण कर एक-दूसरे का घात करने की तैयारी करते हैं बहुत ही मतभेद पड़ जाता है । । १५ ॥ उत्तर दिशा की वायु
यदि ।
आषाढीपूर्णिमायां तु वायुः स्यादुत्तरो वापयेत् सर्वबीजानि सस्यं ज्येष्ठं समृद्धयति ॥ १६ ॥ (यदि) यदि (वायुः) वायु (आषाढीपूर्णिमायां) आषाढ़ पूर्णिमां को (स्यादुत्तरो) उत्तर दिशा में चले (तु) तो ( सर्वबीजानि ) सब बीजों का ( वापयेत् ) वपन करना चाहिये, ( सस्यं ) धान्य ( ज्येष्ठं) अच्छी तरह से ( समृद्धयति ) समृद्धि को प्राप्त होता है।
भावार्थ – यदि वायु आषाढ़ी पूर्णिमा को उत्तर दिशा की ओर चले तो समझो धान्यों का वपन कर देना चाहिये, उस वर्ष धान्य अच्छी-अच्छी तरह से उत्पन्न होंगे || १६ |
पार्थिवास्तथा ।
क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं प्रशान्ता: बहुदकास्तदामेघा मही धर्मोत्सवा कुला ।। १७ ।।
( यदि ) यदि उत्तर दिशाकी वायु चले तो (क्षेमं ) क्षेम् (सुभिक्षं) सुभिक्ष, ( आरोग्यं) निरोगता ( पार्थिवाः प्रशान्ताः ) सब राजा लोग शान्त (तथा) तथा (मेघा ) मेघ (बहुदकास्तदा) बहुत पानी बरसाते हैं और (मही धर्मोत्सवाकुला) पृथ्वी पर लोग धर्मोत्सव के लिये आकुलित हो जाते हैं ।
भावार्थ - अगर आषाढ़ी पूर्णिमां को उत्तर दिशा की वायु चले तो समझो इस पृथ्वी पर लोग धर्मोत्सव के लिये आकुलित रहते हैं, सब राजा लोग परस्पर शान्त भाव धारण करते है, मेघ बहुत ही जल बरसाते है देश में क्षेम हो जायगा, सुभिक्ष हो जायगा जनता के सब रोग भाग जायगें ॥ १७ ॥
अग्निकोण की वायु का फल
आषाढी पूर्णिमायां तु वायुः स्यात् पूर्व राजमृत्युर्विजानीयच्चित्रं सस्यं तथा
दक्षिणः । जलम् ॥ १८ ॥