________________
भद्रबाहु संहिता
१६६
धनधान्यं न विक्रेयं बलवन्तं च, संश्रयेत् ।
दुर्भिक्षं मरणं व्याधिस्त्रासं मासं प्रवर्तते॥१३॥ उपर्युक्त वायु में (धनधान्यं न विक्रेय) धन धान्य की बिक्री नहीं करनी चाहिये (च) और (बलवन्तं) बलवान राजाका (संश्रयेत्) आश्रय लेना चाहिये क्योंकि (मासं) एक महीने में ही (दुर्भिक्षं) दुर्भिक्ष (व्याधि) व्याधि, (त्रासं) संकट (मरणं) मरण आदि (प्रवर्तते) की प्रवृति होगी।
भावार्थ-उपर्युक्त दक्षिण की वायु में, धन धान्यकी बिक्री कभी नहीं करे और किसी बलवान राजा का आश्रय पकड़े, वहाँ पर एक महीने में ही दुर्भिक्ष, व्याधि, संकट और मरणादिक के भय उत्पन्न होंगे ।। १३॥
आषाढ़ पूर्णिमा को पश्चिम वायु का फल आषाढीपूर्णिमायां तु पश्चिमो यदि मारुतः ।
मध्यम वर्षणं सस्यं धान्यार्थो मध्यमस्तथा ॥१४ ।। (यदि) यदि (मारुत:) वायु (आषाढ़ी पूर्णिमायां) आषाढ़ी पूर्णिमां को (पश्चिमों) पश्चिमदिशा से चले (तु) तो (मध्यम) मध्यम (वर्षणं) वर्षा होगी (तथा) तथा (सस्य) सस्य और (धान्यार्थो) धान्य भी (मध्यम) मध्यम होगा।
भावार्थ-यदि वायु आषाढ़ी पूर्णिमा को पश्चिम दिशा से चले तो समझो वर्षा भी मध्यम होगी और धान्यादिक की उत्पत्ति भी मध्यम होगी, न ज्यादा कम और न ज्यादा अधिक॥१४॥
उद्विजन्ति च राजानो वैराणि च प्रकुर्वते।
परस्परोपघाताय स्वराष्ट्र परराष्ट्रयोः ॥१५॥ ऐसी वायु (राजानो) राजा लोगोंको (उद्विजन्ति) उद्विग्न कराके (च) और (वैराणि) बैर भाव धारण (प्रकुर्वते) करा देती है (स्वराष्ट्र परराष्ट्रयोः) स्वदेश और परदेश के राजा लोग (परस्परोपघाताय) एक-दूसरे को घात पहुँचाने के लिये तैयार रहते हैं।
भावार्थ-आषाढी पूणिमां को यदि पश्चिम दिशा में चले तो राजा लोग