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ग्रंथ के टीकाकार एवं संग्रहकर्त्ता, भारत गौरव परमपूज्य श्री 108 गणधराचार्य कुंथूसागरजी महाराज का
मंगलमय शुभाशीर्वाद
यह ग्रंथ श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली के द्वारा प्रतिपादित है, इस ग्रंथ में अष्टांग निमित्त ज्ञानों का वर्णन हैं, इस ग्रंथ का सर्वत्र प्रचार अच्छा है, जैन जेनेतर सभी निमिन्स इस ग्रंथ को सम्मान देते हैं. यह ग्रंथ आज कुछ वर्षो पूर्व हस्तलिखित रूप में शास्त्र भंडारों में था । इस ग्रंथ की नकल हमारे गुरुदेव समाधिसम्राट तीर्थ भक्तशिरोमणि आचार्य परमेष्ठि महावीर कीर्तिजी के पास भी थी, आरा शास्त्र भंडार में, पाटणादि शास्त्र भंडारों में थी। आचार्य श्री का प्रयत्न था कि यह ग्रंथ प्रकाश में आये। अतः डॉ. नेमीचंदजी आरावालों को उन्होंने कहा और अपनी प्रति भी उन को दे दी। उन्होंने इस ग्रंथ का संपादन किया, और प्रकाश में लाये। भारतीय ज्ञान पीठ से यह ग्रंथ छप गया है, मेरे भी हाथों में वह ज्ञान पीठ वाली प्रति है। मैने ग्रंथ का अच्छी तरह से अवलोकन किया ।
लेकिन मुझे लगा इस छपे हुए ग्रंथ में अनेक प्रकार की त्रुटियाँ हैं, श्लोकों का अर्थ भी ठीक नही हुआ है, दो चार साल से विचार करता रहा की इस ग्रंथ की एक नयी टीका तैयार कि जाय और चित्र सहित छपे ताकी ज्योतिषियों को फल बताने में कोई कमी नहीं रह जाय इत्यादि विचार पूर्वक हरियाणा प्रदेश की रेवाड़ी नगरी में शुभ मुहूर्त में टीका प्रारंभ की। करीब डेढ़ साल की अवधि में रात दिन प्रयत्न से यह टीका गुलाबी नगर जयपुर (राजस्थान) में पूर्ण हुई।
इस ग्रंथ की टीका की अवधि में मानसिक व शारीरिक बहुत परीक्षाएँ हुई, संघ विघटनादि के कारण अशान्त वातावरण बना रहा, स्वास्थ्य भी बिगड़ गया, लेकिन सुबोध श्रावक वर्ग की वैयावृत्य आदि से परिस्थिति वापिस ठीक बनी और