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एकोनविंशतितमोऽध्याय:
भावार्थ- उक्त प्रकार के मंगल में राजा का विरोध चारों वर्गों का लोप, कुरु व पांचाल देशों के लोगों को मूर्छा होती है व भय उत्पन्न होता है॥३१॥
थनिष्ठादीनि सप्तैव यदा वक्रेण लोहितः।
सवंत कुजुगत्या था तदाऽपि स जुगुप्सितः ॥३२।। (यदा लोहितः) जब मंगल (वक्रेण) वक्र गति से (धनिष्ठादीनि सप्तेव) धनिष्ठादि सात नक्षत्रों को (कुजुगत्या सेवेत) ऋजु गति से गमन करे व सेवा करे (तदाऽपि स जुगुप्सितः) तब भी वह जुगुप्सित निन्दित है।
भावार्थ-जब मंगल वक्र गति से धनिष्टादि सा नक्षत्रों को ऋजु गति से गमन करे तो तब भी वह निन्दित होता है॥३२॥
धनिनो जल विप्रांश्च तथा चैव हयान् गजान्।
उदीच्यान् नाविकांश्चापि पीडयेलोहितस्तदा ।। ३३॥ (धनिनो जल विप्रांश्च) धनिक, जल-जन्तु (तथा चैव हयान् गजान्) और हाथी-घोड़े (उदीच्यान् नाविकांश्चापि) उत्तर के निवासी, नाविकों को (पीडये लोहितस्तदा) पीडा देते है।
भावार्थ--धनिक जल-जन्तु हाथी-घोड़े उत्तर के निवासी और नाविक लोग पीड़ा को प्राप्त होते हैं।॥३३॥
भौमो वक्रेण युद्धे वामवीर्थी चरते हितः।
तेषां भयं विजानीयात् येषां ते प्रतिपुद्गलाः॥ ३४॥ जब (भौमो) मंगल (वक्रेण) वक्रता से (युद्धेवाम वीथीं चरतेहितः) वामवीथि में युद्ध करे तो (तेषां भयं विजानीयात्) उनको भय उत्पन्न होता है (येषां ते प्रतिपुद्गलाः) जिनके प्रति ऐसे पुद्गल होते हैं।
भावार्थ-जब मंगल वक्र होकर वामवीधि में युद्ध करे तो सबको भय होता है जिनके प्रति ऐसे पुदगल होते हैं।। ३४ ॥
क्रूरः क्रुद्धश्च ब्रह्मघ्नो यदि तिष्ठेद् ग्रहैः सह। पर चक्रागमं विन्द्यात् तासु नक्षत्र वीथिषु ॥ ३५॥