________________
तृतीयोऽध्यायः
भावार्थ — यदि उल्का अपने मार्ग में जाती हुई दूसरी उल्का से टकरा जावे, उस उल्का को वत्सानुसारिणी बच्चे के रूप वाली उल्का कहते हैं, यह उल्का देश और राष्ट्र का नाश कर देती है ॥ २४ ॥
३९
रक्ता पीता न भस्युल्काश्चेभ नक्रेण सन्निभाः । अन्येषां गर्हितानां च सत्त्वानां सदृशास्तु या: ।। २५ । उल्कास्ता न प्रशस्यन्ते निपतन्त्यः सुदारुणाः । यासु प्रपतमानासु मृगा विविध
मानुषा: ।। २६ ।।
( नभस्यु ) आकाश में (उल्का) उत्पन्न होने वाली (रक्ता) लाल (पीता) पीली हो (श्च) और (इभ) हाथी के आकार वाली (नक्रेण ) मगर के आकार वाली होकर वा (अन्येषां ) अन्य (या) जो (सत्त्वानां ) प्राणियों के आकार (गर्हितानां ) ग्रहण किया है (स्ता) ऐसी (उल्का) उल्का ( प्रशस्यन्ते) प्रशस्त (न) नहीं है, यदि ( निपतन्त्य : ) गिरती है तो (सुदारुणा:) महान भयंकर है (यासु) जहाँ भी (प्रपतमानासु ) गिरती है तो ( मृगा ) मृगों को और विविध ( मानुषाः ) सब मनुष्यों को कष्ट देती है।
भावार्थ — यदि लाल और पीली होकर आकाश से हाथी के आकार वाली या मगर के आकार वाली दिखती हुई उल्का व अन्य प्राणियों के आकार वाली होकर गिरे तो प्रशस्त नहीं है ऐसी उल्का मृगों को और मनुष्यों को दारूण दुःख पहुँचाती है, इसका फल शुभ नहीं है । २५-२६॥
शब्द मुञ्चान्ति दीप्तासु दिक्षु चासन्न काम्यया । क्रव्यादाश्चाऽशु दृश्यन्ते या खरा विकृताश्च या: ।। २७ ।। सधूम्रा या सनिर्घाता उल्का या भ्रमवाप्नुयुः । सभूमिकम्पा परुषा रजास्विन्योऽपसव्यगाः ॥ २८ ॥ ग्रहा नादित्य चन्द्रौ च याः स्पृशन्ति दहन्ति वा । चक्रभयं घोरं क्षुधाव्याधिजनक्षयम् ॥ २९ ॥
पर
(या:) जो (उल्का) उल्का (शब्द) शब्द करती (मुञ्चन्ति छोड़ती है (दीप्तासु ) प्रकाश करती हुई (दिक्षु) दिशाओं में (यासन्न) निकट (काम्यया) कामना के लिए