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भद्रबाहु संहिता
एयंतेणउवच्चड़ एयंत विणाउ हवड़ दिह्रो।
यच्चतद्देसणासं वाही मरणं च दुभिक्खं ॥१४५॥ (एयंतेण उवच्चइ एयंत विणाउहवइ दिठो) गन्र्धव नगर जितनी दूर तक फैला हुआ दिखाई दे (यच्चत इसणासं) तो वह उतने देश का नाश करता है (वाही मरणं च दुभिक्ख) तथा रोग और मरण करता है।
भावार्थ-गन्र्धव नगर जितनी दूर तक दिखाई दे तो वहाँ उतने प्रदेश का नाश होता है तथा रोग या लोगों का मरण होता है।। १४५॥
इंदपुरणपर सहिऊ दीसइ जड़ पुक्खरोयहिडतो।
चिंतेइ देशनासं वाही मरणं च दुब्भिक्खं ॥१४६ ॥ (इंदपुरणयरसहिऊ दीसइ) यदि गन्र्धव नगर, नगर के समान दिखाई पड़े (जइपपुक्खरोयहिडंतो) एवं सर्प की बामी के समान दिखे तो (चिंतेइ देश नासं वाही मरणं च) देश का नाश तथा मरण करेगा और (दुभिक्खें) दुर्भिक्ष होगा।
भावार्थ-यदि गन्र्धव नगर, नगर के समान या सांप की बामी की तरह दिखाई दे तो समझो, देश का नाश वा लोगों का मरण होगा, दुर्भिक्ष होगा ।। १४६ ।।
छाइज्जइ महेणं पव्वई मित्तेण बहुपयारेण।
छिज्जत जच्छ दीसइ रायविणोहवेणियमा॥१४७ ।। (छाइज्जंत महेणंपव्वइमित्तेण) यदि गन्र्धव नगर के ऊपर छाया रहे और (बहुपयारेण) बहुत प्रकार रहें (छिज्जंतजच्छ दीसइ) एवं कोटे से घिरा हुआ दिखे तो (रायविणासोहवेणियमा) राजा का नियम से नाश होगा।
भावार्थ-यदि गन्र्धव नगर के ऊपर कोट अर्थात् सारे पर छाया रहे तो राजा का नाश अवश्य होगा || १४७॥
पत्थर की वर्षा का फल उप्पलयाणयपडणं उप्पायणिमित्त कारणं छाणं। जइ उपलयापड़ता बहुविह स्वेहि सव्वत्थ ॥१४८ ।।