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प्रस्तावना
पुष्प की स्वर संख्या को व्यंजन संख्या से गुणा कर दे, गुणनफल में प्रश्नकर्त्ता के नाम की संख्या को जोड़ दे, योगफल में ९ का भाग दे एक शेष रहे तो शीघ्र कार्य सिद्धि होगी २/५/०/ शेष बचे तो दर से कार्य सिद्धि होगी ४/७/८ / शेष बचे तो कार्य का नाश होगा नौ बचे तो कार्य तो होगा लेकिन धीरे-धीरे होगा !
(४) प्रश्नकर्त्ता के नाम के अक्षरों में दो का गुणा कर दे, गुणनफल में सात जोड़ दे, उस योग में ३ का भाग देवे, सम संख्या के शेष रहने पर कार्य का नाश होगा विषम संख्या के रहने पर कार्य सिद्धि होगी । इत्यादि प्रश्न निमित्त ज्ञानी को जानना चाहिये। स्वर विज्ञान भी इसमें ही आ जाता है चंद्रस्वर या सूर्य स्वर से ज्ञान प्राप्त करना है। कौन सा स्वर चल रहा है यह समझकर उसके अनुसार कार्य का शुभाशुभ कहना, स्वर विज्ञान हैं, अगर प्रश्नकर्ता जिस ओर बैठकर प्रश्न करे, उस समय उत्तर देने वालों का स्वर भी उसी की ओर चल रहा हो तो कार्य नहीं होगा, दोनों ही स्वर चल रहे हो तो कार्य देर से होगा, सामान्यतः ऐसा जाने विशेष स्वर विज्ञान को देखले ।
भद्रबाहु संहिता के रचयिता और उनका समय
इस ग्रन्थ के रचयिता कौन है और इसकी रचना कब हुई हैं, यह अत्यन्त विचारणीय है। यह ग्रन्थ भद्रबाहु के नाम पर लिखा गया है, क्या सचमुच में द्वादशात्रवाणी के ज्ञाता श्रुतकेवली भद्रबाहु इसके रचयिता हैं या उनके नाम पर यह रचना किसी दूसरे के द्वारा लिखी गयी है। परम्परा से यह बात प्रसिद्ध चली आ रही है कि भगवान वीतरागी, सर्वज्ञ भाषित निमित्तानुसार श्रुतकेवली भद्रबाहु ने किसी निमित्तशास्त्र की रचना की थी; किन्तु आज वह निमित्तशास्त्र उपलब्ध नहीं है। श्रुतकेवली भद्रबाहु वी० नि० सं० १५५ में स्वर्गस्थ हुए, इनके ही शिष्य सम्राट् गुप्त थे। मगध में बारह वर्ष के पड़ने वाले दुष्काल को अपने निमित्तज्ञान से जानकर ये संघको दक्षिण भारत की ओर ले गये थे और वहीं इन्होंने समाधि ग्रहण की थी । अतः दिगम्बर जैन साधुओं की स्थिति बहुत समय तक दक्षिण भारत में रही। कुछ साधु उत्तर भारत में ही रह गये, समय दोष के कारण जब उनकी चर्या में बाधा आने लगी तो उन्होंने वस्त्र धारण कर लिये तथा अपने अनुकूल नियमों का भी निर्माण किया | दुष्काल के समाप्त होने पर जब मुनि संघ दक्षिण से बापस लौटा, तो उसने यहाँ रहनेवाले