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भद्रबाहु संहिता
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दुर्भिक्षं चाप्यवृष्टिं च शस्त्रं रोग जनक्षयम्।
कुरुते सोऽनिलो घोरं आषाढाभ्यन्तरं परम् ।। ३१ ।। (पूर्ववातं) पूर्व के चलते हुए वायु को (यदा) जब (दक्षिणऽनिल:) दक्षिण की वायु (हन्याद्) घातकर (उदीर्णो) समाप्त कर देवे तो (तत्र) वहाँ पर (धान्यं) धान्यको (न) नहीं (वापयेद) वपन करना चाहिये किन्तु (सञ्चयमेव च) धान्य का संग्रह ही (कुर्यात्) करना चाहिये। (सोऽनिलो) वह वायु (दुर्भिक्षं) दुर्भिक्ष, (चाप्यवृष्टि) अनावृष्टि (च) और (शस्त्रं) शस्त्र का उपद्रव, (रोग) रोग, (जनक्षयम्) जनों का क्षय, (घोरं) महानरूप (कुरुते) करते है क्योंकि ये वायु (आषाढ़ाभ्यन्तरं परम्) परमरूप आषाढाभ्यंतर की है।
भावार्थ-जब पूर्व से चलते हुऐ वायु को दक्षिण दिशा से वायु उठकर पूर्व के वायु को घात करता हुआ नष्ट कर दे तो समझो महान अनिष्ट का कारण होगा, ऐसी स्थिति में वहाँ पर कभी खेतों में बीजो का वपन नहीं करना चाहिये आचार्य कहते है ऐसी स्थिति में धान्य का संग्रह बुद्धिमानो को करना चाहिये, क्योंकि ये वायु निश्चित रूप से, दुर्भिक्ष, अनावृष्टि, शस्त्रउपद्रव, नाना प्रकार के रोग, लोगों का नाश करती है, महान उपद्रव का कारण है, आषाढ़भ्यंतर की वायु है।। ३०-३१॥
पापघाते तु वातानां श्रेष्ठं सर्वत्र चादिशेत् ।
श्रेष्ठानपि यदा हन्युः पापा: पापं तदाऽऽदिशेत् ॥३२॥ (पापघातेतु वातानां) पाप वायु को यदि श्रेष्ठ वायु घात करे तो (सर्वत्र) सब तरफ से (श्रेष्ठं) श्रेष्ठ है (चादिशेत्) ऐसा कहा गया है, (श्रेष्ठानपि यदाहन्युः पाप) अगर श्रेष्ठ वायु को पाप वायु घात करे तो (पापं तदाऽऽदिशेत्) समझो वह भी अशुभ हैं।
भावार्थ-यदि पाप वायु को श्रेष्ठ वायु घात करे तो समझो वहाँ पर अच्छा ही अच्छा होगा, यदि श्रेष्ठ वायु को पाप वायु घात करे तो समझो वहाँ पर अनिष्ट ही अनिष्ट होगा॥३२॥