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भद्रबाहु संहिता
चारंगतश्चयो भूयः सन्तिष्ठते महाग्रहः ।
एकान्तरेण वक्रेण भौमवत् कुरुते फलम् ॥४॥
जब (महाग्रह:) शनि (चारंगतश्चयो भूय सन्तिष्ठते) गमन करता हुआ स्थिर होता है (एकान्तरेण वक्रेण) और एकान्तर वक्र को प्राप्त करता है तो (भौमवत् कुरुते फलम्) मंगल के समान ही फल देता है।
भावार्थ-जब शनि गमन करता हुआ स्थिर होकर एकान्तर वक्र गति को प्राप्त होता है तो वह शनि मंगल के समान ही फल देता है॥४॥
संवत्सरमुपस्थाय नक्षत्रं विप्रमुञ्चति।
सूर्यपुत्रस्ततश्चैव धोतमानः शनैश्चरः॥५॥ (शनैश्चर:) शनिश्चर (सूर्यपुत्रस्ततश्चैव द्योतमानः) सूर्य पुत्र के समान उद्योत मान होता हुआ, प्रजा के हित के लिये (संवत्सरमुपस्थाय) संवत्सर की स्थापना करता हुआ (नक्षा चिप्रमुञ्चति) नक्षत्र को छोड़ता है।
भावार्थ-शनि सूर्य पुत्र के समान उद्योतमान होता हुआ, प्रजा के हित के लिये संवत्सर की स्थापना करता हुआ नक्षत्र को छोड़ता है।। ५।।
द्वे नक्षत्रे यदा सौरिर्वर्षेण चरते यदा।
राज्ञामन्योऽन्य भेदश्च शस्त्र कोपञ्च जायते॥६॥ (यदा) जब (सौरिः) शनि (वर्षेण) एक वर्ष में (द्वे नक्षत्रे) दो नक्षत्र प्रमाण (चरते) गमन करता है तो (राज्ञामन्योऽन्य भेदश्च) राजाओं में परस्पर भेद पड़ कर (शस्त्र कोपञ्च जायते) शस्त्र कोप का भय होता है।
भावार्थ-जब शनि एक वर्ष में दो नक्षत्रों के ऊपर गमन करता है, तो राजाओं में परस्पर मतभेद पड़ जाता है, और शस्त्र कोप का भय उपस्थित हो जाता है॥६॥
दुर्गे भवति संवासो मर्यादा च विनश्यति।
वृष्टिश्च विषमा ज्ञेया व्याधिकोपश्च जायते॥७॥ (दुर्गे भवति संवासो) उपर्युक्त शनि के होने पर दुर्ग में निवास करना पड़ता