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भद्रबाहु संहिता
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भावार्थ जो कोई संसारी जीव संसार के दुःखों से भयभीत होता हुआ विरत हुआ है ऐसे मुमुक्षु के लिये मैं कुछ अरिष्टों को कहूंगा जो भाव्य के भावानुसार क्रम से होते हैं। ये अरिष्ट शरीर में होते है उनके अनुसार आयु ज्ञान किया जाता है।॥ ९॥
पूर्वाचार्यैस्तथा प्रोक्तं दुर्गायैलादिभिः यथा ।
गृहीत्वा तदभिप्रायं तथारिष्टं वदाम्यहम् ॥१०॥ (पूर्वाचार्यैस्तथा प्रोक्तं) पूर्वाचार्यों के द्वारा कहा गया तथा (दूर्गायैलादिभिः यथा) दुर्गाचार्य व ऐलाचार्य के द्वारा कहे गये अरिष्टों के अनुसार (तदभिप्रायंगृहीत्वा) उनके अभिप्राय को ग्रहण करके तथारिष्टं वदाम्यहम) उन अरिष्टों को कहूंगा।
भावार्थ—पूर्वाचार्य के द्वारा कहे गये व दुर्गाचार्य व ऐलाचार्य के द्वारा कहे गये अरिष्टों को मैं उन्हीं के अभिप्रायानुसार कहूंगा ।।१०।।
पिण्डस्थञ्च पदस्थञ्च रूपस्थञ्च त्रिभेदतः।
आसन्नमरणे प्राप्ते जायतेऽरिष्ट सन्ततिः ।। ११ ।। (पिण्डस्थञ्च) पिण्डस्थ (पदस्थञ्च) पदस्थ (रूपस्थञ्च) रूपस्थ (त्रिभेदतः) तीन भेद रूप ध्यान (आसन्नमरणे प्रासे) जिसका निकट मरण आया है ऐसे धर्मात्मा को हो तो और उसी के (अरिष्ट सन्तति:) शरीर में अरिष्ट होते हैं।
भावार्थ-पिण्डस्थध्यान पदस्थध्यान रूपस्थध्यान तीन भेद वाला है। और वह आसन्न मरण अर्थात् जिसका मरण निकट आ गया है ऐसे भव्य जीव को होते हैं उसी के शरीर में ये अरिष्ट उत्पन्न होते हैं।।११।।
विकृतिईश्यते कायेऽरिष्टं पिण्डस्थ मुच्यते।
अनेकधा तत्पिण्डस्थं ज्ञातव्यं शास्त्रवेदिभिः ।। १२॥ (विकृतिईश्यतेकाये) शरीर में विकृतीदिखाई पड़े तो उसे (पिण्डस्थऽरिष्टं मुच्यते) पिण्डस्थ अरिष्ट कहते हैं (तत्) उस(पिण्डस्थ) पिण्डस्थ अरिष्ट को (शास्त्र वेदिभिः) शास्त्र के जानकार (अनेकधा ज्ञातव्यं) अनेक प्रकार का कहते हैं ऐसा जानना चाहिये।
भावार्थ- शरीर में विकृति आ जाती है उसे पिण्डस्थ अरिष्ट कहते हैं उस पिण्डस्थ अरिष्ट के शास्त्रकारों ने अनेक भेद कहे है॥ १२॥