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परिशिष्टाध्यायः
महानजिन धर्म प्राप्त किया है ऐसा (कोऽपि भव्यः) कोई एकाध भव्य (प्रवर्तते) प्रवृति करके (द्विधासल्लेखनां कर्तु) दोनों प्रकार की सल्लेखना को धारण करता है।
भावार्थ- दुर्लभ मनग्य पर्याय को प्राप्त कर महान जिन धर्म को जिसने प्राप्त किया है ऐसा कोई एकाध भव्य जीव दोनों प्रकार की सल्लेखना धारण करता है।। ६॥
कृशत्वं नीयते कायः कषायोऽप्यति सूक्ष्मताम्।
उपवासादिभिः पूर्वो ज्ञानध्यानादिभिः परः।।७।। (उपवासदिभि: कायः कृशत्वं) उपवासादि के द्वारा शरीर को कृशता की ओर (नीयते) ले जाता है (कषायोऽप्यतिसूक्ष्मताम्) और साथ में कषायों को भी सूक्ष्म करता है (पूर्वोज्ञानध्यानदिभिपर:) वही ज्ञान ध्यान और तप लीन होते हैं।
भावार्थ-कोई भव्य जीव ज्ञान ध्यान में लीन रहने वाला आत्म कल्याण के लिये उपवासादिक करके अपने शरीर को और कषाय को कृश करता है॥७॥
शास्त्राभ्यासं सदा कृत्वा संग्रामें यस्तुमुह्यति।
द्विपोस्तस्य कृतस्नानो मुनेव्यर्थ तथा व्रतम्॥८॥ (सदाशास्त्राभ्यासं कृत्वा) जो नित्य शास्त्राभ्यास करता हुआ (संग्रामेयस्तु मुह्यति) भी इन्द्रियविषयों में आसक्त है (तस्य) उसका (द्विपो:कृतस्स्नानो) हाथी स्नान के समान (तथा) उस (मुनेर्व्यर्थंव्रतम्) मुनिका व्रत धारण करना व्यर्थ है।
भावार्थ----जो मुनि व्रत धारण कर शास्त्राभ्यास नित्य करता है तो भी अगर इन्द्रियविषय में आसक्त है फिर उस मुनि का व्रत धारण करना हस्तिस्नान के समान व्यर्थ है।। ८॥
विरतः कोऽपि संसारी संसार भयभीरुकः ।
विन्द्यादिमान्यरिष्टानि भाव्य भावान्यनुक्रमात् ।।९॥
जो (कोऽपि) कोई (संसारीविरतः) संसार विरक्त होकर (संसार भय भीरुक:) संसार के दु:खों से भयभीत हुआ ऐसा मुमुक्षु के लिये (विन्द्यादि) तुम जानो (मान्यरिष्टानि) मान्यरिष्टों को जो (भाव्य नावान्यनुक्रमात्) भाव्य के भावानुसार क्रम से होते हैं उसको कहूँगा।