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पञ्चविंशतितमोऽध्यायः
आरुहेद् वालिखेद्वापि चन्द्रश्चैव यथोत्तरं।
ग्रहैर्युक्तस्तु तदा कुम्भं तु पञ्चकम्॥२४॥ यदि (ग्रहैयुक्तस्तु) ग्रह से युक्त (चन्द्रः) चन्द्रमा (यथोत्तरः) उत्तर दिशा में (आरुहेद्) आरोहण करे और (वालिखेद्वापि चैव) स्पर्श करे तो (तदा) तब (कुम्भं तु पञ्चकम्) पाँच कुम्भ प्रमाण वर्षा होती है।
भावार्थ यादे ग्रह से युक्त चन्द्रमा उत्तर दिशा में आरोहण और स्पर्श करे तो पाँच कुम्भ प्रमाण वर्षा होती है।। २४॥
राहुः केतुः शशी शुक्रो भौमश्चोत्तरतो यदा। सेवन्ते चोत्तरं द्वारं यात्यस्तं वा कदाचन ॥२५॥ निवृत्तिं चापि कुर्वन्ति भयं देशेषु सर्वशः।
बहुतोयान् समान् विन्धान महाशालींश्च वापयेत् ।। २६॥ (यदा) जब (राहुः केतुः शशी शुक्रो) राहु, केतु, चन्द्र, शुक्र (भौमश्चोत्तरतो) मंगल उत्तरदिशा से (सेवन्ते चोत्तरं द्वार) उत्तर दिशा का सेवन करे और (यात्यस्तवं वा कदाचन्) अस्त हो या वक्री हो (निवृत्तिं चापि कुर्वन्ति) अथवा निवृत्ति को प्राप्त हो तो (भयं देशेषु सर्वश:) सारे देश में भय होता है, (बहुतोयान् समाविन्द्याद) बहुत वर्षा होती है और (महाशालीश्च वापयेत्) बहुत ही धान्य उत्पन्न होता है।
भावार्थ-जब राहु, केतु, चन्द्र, शुक्र, मंगल उत्तर दिशा में उत्तर द्वार का सेवन करे या अस्त अथवा वक्री हो, निवृत्ति को प्राप्त हो तो सारे देश में भय उत्पन्न होता है वर्षा बहुत होती है और बहुत ही धान्य उत्पत्ति होती है और भी ऐसा जानो की।। २५-२६॥
कार्पासास्तिल माषाश्च सर्पिश्चात्र प्रियं तथा।
आशु भान्यानि वर्धन्ते योगक्षेमं च हीयते ।। २७॥ (कार्पासास्तिल माषाश्च) कपास, तिल, उड़द, (सर्पिश्चात्र प्रियं तथा) घी, और भी यहाँ पर खाने के मसाले। (आशु धान्यनि वर्धन्ते) और धान्य महंगे होते हैं और (योग क्षेमं च हीयते) योगक्षेम की हानि होती है।
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