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पञ्चदशोऽध्यायः
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संज्ञिता) मृगवीथि संज्ञा है। (तथा) तथा (अभिजिद् द्वे षाढे) अभिजित नक्षत्र एवं पूर्वाषाढा उत्तराषाढा और स्वाति की (वैश्वानरपथः स्मृतः) संज्ञा वैश्वानर है ऐसा जानो (शुक्रसस्याग्रगताद्वर्णात्) शुक्र के अग्रगत वर्ण (संस्थानाच्चफलं वदेत) और आकार से फल का निरूपण करे।
भावार्थ-अजवीथी-विशाखा, चित्रा, स्वाति । मृगवीथी—ज्येष्ठा, मूला, अनुराधा । वैश्वानरवीथी—अभिजीत, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, स्वाति ये नक्षत्र शुक्र के अग्रगत हो तो उसके संस्थान और आकार के अनुसार फल को कहो।। ४८-४९॥ तज्जातप्रतिरूपेण
जघन्योत्तममध्यमम्। स्नेहादिषु शुभं ब्रूयाद् ऋक्षादिषु न संशयः॥५०॥ (तज्जातप्रतिरूपेण) तज्जाती की प्ररूपणा से नक्षत्रों में (जघन्योत्तममध्यमम्) जघन्य, उत्तम, मध्यम भेद होता है (स्नेहादिषु) स्नेहादिक में (ऋक्षादिषु) नक्षत्रों पर (शुभं ब्रूयाद्) शुभाशुभ कहे (न संशय:) इसमें सन्देह नहीं करना।।
भावार्थ--एक वीथी तीन-तीन नक्षत्रों की होती है अपनी-अपनी बीधी पर शुक्र का संचार को देखकर उत्तम, मध्यम, जघन्य, शुभाशुभफल होता है ज्योतिषि को यह सब देखकर निर्णय कर फल कहे, इन नक्षत्रों में सन्देह रहित होकर शुभाशुभफल को कहे।। ५०॥
तिष्यो ज्येष्ठा तथाऽऽश्लेषा हरिणोमूल मेव च।।
हस्तं चित्रा मघाऽषाढे शुक्रो दक्षिणतो व्रजेत् ॥५१॥ (तिप्यो) पुष्य (ज्येष्ठा) ज्येष्ठा (तथाऽऽश्लेषा) तथा अश्लेषा (हरिणोमूल मेव च) और मृगशिरा, मूल (हस्तं) हस्त, (चित्रा) चित्रा, (मघाऽषाढे) मधा, पूर्वाषाढा (शुक्रोदक्षिणतोव्रजेत्) इन नक्षत्रों में शुक्र दक्षिण से गमन करता हैं।
भावार्थ-पुष्य, ज्येष्ठा, आश्लेषा, मृगशिरा, मूल, हस्त, चित्रा, मघा, पूर्वाषाढा इन नक्षत्रों में शुक्र गमन करता है तो॥५१॥
शुष्यन्ते तोय धान्यानि राजानः क्षत्रियास्तथा।
उग्रमोगाश्च पीड्यन्ते धननाशो विनायकः ॥५२॥ (तोयधान्यानि) पानी के बिना धान्य के अंकुर (शुष्यन्ते) सूख जाते हैं (तथा)