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भद्रबाहु संहिता |
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मन्त्रित्वा स्व मुखं रोगी जानुदघ्ने जलेस्थितः ।
न पश्येत् स्वभुखायां मासं तस्य जीवितम्॥१५३।। (स्व मुखं मन्त्रित्वा रोगी) जो रोगी अपने मुख को मन्त्रित करके (जानु दघ्ने जले स्थितः) जंघा पर्यन्त पानी में खड़ा रहकर (स्वमुखच्छायां न पश्येत्) अपना मुंख और छाया न देखे तो (तस्य जीवितम् षण्मासं) उसकी आयु छह महीने की समझो।
भावार्थ-रोगी का मुख मन्त्रित करके घुटने पर्यंत जल में उसे खड़ा करे अगर उसको अपना मुँह और छाया न दिखे तो उसका मरण छह महीने में होने वाला है॥१५३॥
तैल दर्शन काल ज्ञान मन्त्र-ॐ हीं लाः हः प: लक्ष्मी इवीं कुरू कुरू स्वाहा। १०८ बार मन्त्र
पढ़े। भृतं मन्त्रिततैलेन मार्जितं तानभाजनम्।
पिहितं शुक्लवस्त्रेण सन्ध्यायां स्थापयेत् सुधी।। १५४॥ (मार्जितंताम्रभाजनम्) ताँबे के बर्तन को साफ कर मांजकर (मन्त्रित तैल नभृत) तेल को मन्त्रित करके उस बर्तन को तेल से भरे (पिहितं शुक्ल वस्त्रेण) फिर सफेद वस्त्र से उसको ढ़ककर (सुधी) बुद्धिमान (सन्ध्यायां स्थापयेत्) सायंकाल में स्थापन करे।
भावार्थ ताँबे के बर्तन को मांजकर तेल को मंत्रित करके उस बर्तन को भर देवे फिर सफेद वस्त्र से उसको ढ़ककर सायं काल में स्थापन करे ।। १५४ ।।
तस्योपरि पुनर्दत्वा नूतनां कुण्डिकां ततः ।
जातिपुष्पैर्जपेदेवं स्वष्टाधिकशतं ततः।। १५५॥ (तस्योपरिपुन:) उसके ऊपर पुन: (नूतनां कुण्डिकांदत्वा) नवीन मिट्टी की कुण्डिका ढककर (ततः) उसके ऊपर (जातिपुष्पै) जूही के फूलों से (स्वष्टाधिक शतं जयेदेवं) एक सौ आठ बार जाप करे। (तत:) उसके बाद।