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एकविंशतितमोऽध्यायः
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को श्रेणी वासियों को ब्राह्मणोंको मनुष्योंको दानपूजा अवश्य करनी चाहिये क्योंकि उससे ही ये पापकेतु के फल शान्त होते है।। ५५ ।।
यथा हि बलवान् राजा सामन्तै: सारपूजितः।
नात्यर्थ बाध्यते तत्तु तथा केतुः सुपूजितः ॥५६॥
(यथा हि बलवान् राजा) जैसे बलवान राजा की (सामन्तैः) सामन्तो द्वारा (सारपूजितैः) पूजा होती है तो (नात्यर्थबाध्यते) फिर वह राजा उनको कष्ट नहीं देता है (तत्तु) उसी प्रकार (तथाकेतु: सूपूजितः) दुष्टकेतु की।
भावार्थ-जिस प्रकार बलवान राजा की सामन्तो द्वारा पूजा होने पर वह शान्त रहता है। उसी प्रकार दुष्ट केतु के द्वारा शान्त रहता है। अशुभ फल नहीं देता है।। ५६
सर्पदष्टो यथा मन्त्रैरंगदैश्च चिकित्स्यते। केतुदष्टस्तथा
लोकैर्दानजापश्चिकित्स्यते॥५७॥ (यथा) जैसे (सर्पदष्टो) सांप के काटने पर (मन्त्रैरगदैश्च) मन्त्रों के द्वारा (चिकित्स्यते) चिकित्सा की जाती है (तथा:) उसी प्रकार (लोकैः) लोगों के द्वारा (केतुदष्ट:) केतु के उदय में (दानजापैश्चि कित्स्यते) दान, जाप आदि से चिकित्सा करनी चाहिये।
भावार्थ-जैसे सांप के काटने पर मन्त्रों के द्वारा दवाई की जाती है। उसी प्रकार दुष्ट केतु के उदय में दान, जाप आदि से दवाई करनी चाहिये क्योंकि उसका उपाय ही मात्र यही है।। ५७।। ।
यः केतु चारमाखिलं यथावत् पठन्तियुक्तं श्रमणः समेत्य । स केतु दग्धांस्त्यजते हि देशान् प्राप्नोति पूजां च नरेन्द्रमूलात्।। ५८॥
(य:) जो (श्रमणः) मुनि (केतुचारमाखिलं) केतु के संचार को सब तरह से (यथावत् पठन्ति) यथावत् अध्ययन करता है (समेत्य) समस्त रीति से (स) वह (केतुदग्धास्त्यजते हि देशान्) दग्धकेतु के फल को जानकर उस देश का त्याग करता है वह (नरेन्द्रमूलात् पूजां प्राप्नोति) राजा के द्वारा पूजा प्राप्त कर सुखी होता
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