________________
। भद्रबाहु संहिता
भावार्थ-जो मुनि राजकेतु के संचार को अच्छी तरह से जानता है उसका अध्ययन अच्छी तरह से जिसने किया है। वही बुद्धिमान है दुष्ट केत के फल को जानकर उस देश का त्याग कर देता है। वो ही राजा के द्वारा पूजित होकर सुख से विहार करते हैं।। ५८॥
विशेष-अब आचार्य इस इक्कीसवें अध्याय में केतु के भेद व स्वरूप का वर्णन करते हैं साथ में फल का भी वर्णन करते हैं।
केतु के तीन भेद आचार्यश्री ने किये है, दिव्य, अन्तरिक्ष और भौमिक नक्षत्रों में जो केतु दिखें उसे दिव्य कहते हैं।
ध्वज, शस्त्र, गृह, वृक्ष, अश्व, हाथी में केतु के दर्शन हो तो उसे अन्तरिक्ष केतु कहते हैं।
इन दोनों से जो अलग दिखाई दे तो वह रूक्ष केतु भौमिक है। यहाँ पर आचार्य ने केतुओं की संख्या एकहजार एक सौ है। इनके फल को जानने के लिये, उदय अस्त अवस्थान, स्पर्श, धूम्रता का ज्ञान परम आवश्यक है।
जिस दिन केतु दिखलाई पड़े उससे अस्त होने तक उतने महीने तक उसका फल दिखता है।
जो केतु निर्मल चिकना, सरल, रुचिर और शुक्ल वर्ण का होकर उदय हो तो वह सुभिक्ष और सुखदायक होता है। इससे विपरीत रूप वाले केतु शुभदायक नहीं होते तो भी इनका नाम धूमकेतु है।
केतु अनेक शिखा वाले और कोई भी दिशा में उदय होते हैं अनेक वर्ण वाले और अनेक आकृति के होते हैं। उसी का फल शुभाशुभ समय आने पर होता है।
किसी-किसी ऐसे नक्षत्रों में जब केतु उदय हो जाता है तो वह दुष्ट केतु कहलाता है, जब दुष्ट केतु का उदय हो गया तो समझों संसार में युद्ध, रक्तपात, आक्रमण, रोग, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, आपत्ति, दुर्भिक्ष आदि होता है।
जो शुभ केतु होता है, वह फल भी शुभ देता है, जैसे निरोगता, लाभ, सुख, सुभिक्षता, शान्ति, अच्छी वर्षा, देश और राज्य में महान् शान्ति उत्पन्न करता है। मैंने यहाँ पर थोड़ा-सा लिखा है। विशेष जानकारी के लिये इस अध्याय का