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एकविंशतितमोऽध्यायः
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अच्छी तरह से अध्ययन करे और समस्त केतु के संचार का उदय अस्त का ज्ञान करे, फलादेश को जाने दुष्टकेतु के उदय पर शान्ति कर्म अवश्य करें, देवपूजा, मन्त्रोच्चारण जाप हवन आदि धार्मिक क्रियाओं से दुष्ट केतु के फल में उपसमता आती है। आगे और भी कहते हैं।
विवेचन-केतुओं के भेद और स्वरूप-केतु मूलत: तीन प्रकार के हैं-दिव्य, अन्तरिक्ष और भौम। ध्वज, शस्त्र, गृह, वृक्ष, अश्व और हस्ती आदि में केतुरूप दर्शन होता है, वह अन्तरिक्ष केतु; नक्षत्रों में जो दिखलायी देता है, उसे दिव्यकेतु कहते हैं। और इन दोनों के अतिरिक्त अन्य रूक्ष भौमकेतु हैं। केतुओंकी कुल संख्या एक हजार या एक सौ एक है। केतु का फलादेश, उसके उदय, अस्त, अवस्थान, स्पर्श और धूम्रता आदि के द्वारा अवगत किया जाता है। केतु जितने दिन तक दिखलायी देता है, उतने मास तक उसके फल का परिपाक होता है। जो केतु निर्मल, चिकना, सरल, रुचिर और शुक्लवर्ण होकर उदित होता है, वह सुभिक्ष और सुखदायक होता है। इसके विपरीत रूप वाले केतु शुभदायक नहीं होते, परन्तु उनका नाम धूमकेतु होता है। विशेषतः इन्द्रधनुषके समान अनेक रंग वाले अथवा दो या तीन चोटी वाले केतु अत्यन्त अशुभकारक होते हैं। हार, मणि या सुवर्ण के समान रूप धारण करने वाले और चोटीदार केतु यदि पूर्व या पश्चिम में दिखलायी दें तो सूर्य से उत्पन्न कहलाते हैं। और इनकी संख्या पच्चीस है। तोता, अग्नि, दुपहारियाका फूल, लाख या रस के के समान जो केतु अग्निकोण में दिखालायी दें, तो वे अग्नि से उत्पन्न हुए माने जाते हैं और इनकी संख्या पच्चीस है। पच्चीस केतु टेढ़ी चोटी वाले, रूखे और कृष्णवर्ण होकर दक्षिण में दिखलाई पड़ते हैं, ये यम से उत्पन्न हुए माने गये हैं। इनके उदय होने से मारी पड़ती है। दर्पण के समान गोल आकार वाले, शिखारहित, किरण युक्त और सजल तेल के समान कान्ति वाले, जो बाईस केतु ईशान दिशा में दिखलाई पड़ते हैं, वे पृथ्वी से उत्पन्न हुए हैं, इनके उदय से दुर्भिक्ष और भय होता है। चन्द्रकिरण, चाँदी, हिम, कुमुद या कुन्दपुष्प के समान जो तीन केतु हैं, ये चन्द्रमा के पुत्र हैं और उत्तर दिशा में दिखलाई देते हैं। इनके उदय होने से सुभिक्ष होता है। ब्रह्मदण्ड नाम युगान्तकारी ब्रह्मा से उत्पन्न हुआ एक केतु है, यह तीन चोटी वाला और